जान दीििक ा बह जा नी क ी गत बह जा नी ज ाने िू जय िाद संत शीआसार ामजी बाि ू िरमातमा सदा से है , सवत व है । उसके िसवाय अनय कुछ है ही नहीं । इस बात को जो समझ लेता है , जान लेता है वह िरमातमारि हो जाता है । सूयव के उिदत होते ही
संिूणव जीव-सिृि अिने-अिने गुण-सवभाव के अनुसार अिने-अिने कायव मे संलगन हो जाती है । सूयव को कुछ नहीं करना िडता है । जैसे सूयव अिनी मिहमा मे िसित रहकर चमकता रहता है , ऐसे ही िरमातमा-पाप महािुरष का जीवन आतमसूयव के पकाश मे पारबध वेग से वयतीत होता रहता है । अजमेर मे ऐसे ही एक संत बूलचंद सोनी हो गये िजनहोने अिना जीवन आतमसूयव के पकाश मे िबताया। िूवव के िुणय पभाव से उनकी बुिि मे िववेक का उदय हुआ। उनहोने सोचाः ‘ििनदगी भर संसार की खटिट करते रहने मे कोई सार नहीं है ।
आयुषय ऐसे ही बीता जा रहा है । ऐसा करते-करते एक िदन मौत आ जाएगी। अतः अिने कलयाण के िलए भी कुछ उिाय करने चािहए।‘
ऐसा सोचकर वे ऐसा संग ढू ँ ढने मे लग गये जो उनहे ईशर के रासते ले चले, उसमे
सहयोगी हो सके। ढू ँ ढते-ढू ँ ढते उनहे कुछ ििणित िमल गये। वे कुछ समय तक उन लोगो के साि रहे और उनके किनानुसार सब कुछ करते रहे , िरनतु िोडे ही िदनो मे वे ऊब
गये। उनहे लगा िक िचत मे आननद नहीं उभर रहा है , भीतर की शाँित नहीं िमल रही है । अतः ििणितो का साि छोडकर वे िुनः िकसी सतिुरष की खोज मे चल िडे । िमल जाए को ई िीर फकीर , िहुँचा द े भ व िार। खोजते-खोजते वे िहुँच गये एक ततवजानी महािुरष के चरणो मे। गीता मे भगवान शीकृ षण अजुन व से कहते है तिि िि पिणिात ेन ििरपश ेन स ेवया। उिदेकयिनत
ते जा नं जान ीनसततवद िश व नः।।
‘उस जान को तू ततवदशी जािनयो के िास जाकर समझ, उनको भली-भाँित दणिवत ् पणाम करने से, उनकी सेवा करने से और किट छोडकर सरलतािूवक व पश करने से वे िरमातमततव को भली-भाँित जानने वाले जानी महातमा तुझे उस ततवजान का उिदे श करे गे।‘ (शीमद भगवद गीताः ४-३४) बूलचनद सोनी िवनमतािूवक व उन महािुरष की शरण मे रहे । उनके आदे शानुसार
जि-धयानािद करते हुए धीरे -धीरे वे भी बहजान िाने के अिधकारी हो गये और उन संत की करण-कृ िा से आतम-िरमातमजान मे उनकी िसिती हुई।
अब उनहे कमक व ाणि आिद की बाते वयिव लगने लगीं। उनमे उनकी िदलचसिी ही नहीं रही। िंिितो की बातो से उनका मेल नहीं बैठता िा कयोिक उनहोने अब जान िलया िा िक कमक व ाणि कया है और सतयसवरि आतमा का जान कया है । उन िंिितो ने दे खा
िक अब ये हमारे िास नहीं आते है , अतः वे उनहे समझाने लगे िकः ‘ भाई! तुम अब यहाँ कयो नहीं आते हो? यजािद मे भाग कयो नहीं लेते हो?’
उनहोने कहाः ‘’पािन व ा से भगवान पसनन होते है , यज से भगवान पगट होते है ,
यह सब ठीक तो है लेिकन यह सब तभी तक ठीक िा जब तक मैने अिने भगवदसवरि को नहीं जाना िा। अब मैने जान िलया है िक मै भी भगवदसवरि हूँ तो कयो िगडिगडाऊँ।‘’
उनकी ऐसी बात सुनकर वो लोग िचढ गयेः ‘’ तुम कया बकते हो? कया तुम
भगवान हो? अिने को भगवान मानते हो।‘’
बूलचनद सोनीः ‘’ यह तो आि भगवान को सब कुछ समझ रहे हो, इसिलए कहता
हूँ िक, ‘मै भगवान हूँ’ अनयिा तो भगवान की सता िजससे पगट होते है वह चैतनय बह मै हूँ। इस बात को मै मानता और जानता भी हूँ।
िंिितः ‘’ अचछा... तो तुम भगवान को नहीं मानते नहीं हो।‘’ िफर सब िंिित आिस मे िमल कर कहने लगेः ‘’ यह तो नािसतक हो गया है ।‘’ शेर अकेला होता है , भीड भेिियो की होती है । सब िंिितो ने िमलकर घेर िलया बूलचनद सोनी को और कहने लगेः ‘’ तुम बह हो- यह बात हम तब मानेगे, जब तुम कोई किरशमा िदखाओगे।‘’
साधारण लोग जब यह बना-बनाया जगत दे खते है तो समझते है िक भगवान ने बनाया है , िरनतु ऐसी बात नहीं है । बह मे जगत िववतर व ि होकर भासता है , भाँितरि होकर भासता है । इसे िकसी ने बैठकर बनाया नहीं है । यिद जगत ऐसे बना है जैसे
कुमहार िमििट से घडा बनाता है तो िजन िाँच महाभूतो से जगत बना है वह िमििट,
हवा, जल आिद बनाने का कचचा माल भी तो चािहए! वह कचचा माल भगवान लाए कहाँ से? ऐसा तो नहीं है िक भगवान ने कुछ कचचा माल लाकर िथृवी, जल, वायु आिद बनाकर िचिडया आिद जीवो को रख िदया है िक जाओ खेलो। िरनतु लोग समझ रहे है िक भगवान ने दिुनया बनायी और वह खेल दे ख रहा है । मंदमित के लोगो को असली बात का िता ही नहीं है । भेडो की भीड की तरह चल रहे है । इसिलए वे भगवान को मानते है , भगवान मे शिा रखते है । लेिकन उनमे से कोई िवरला होता है जो अिनेआिको भगवदसवरि जान लेता है , बाकी तो सब ठनठनिाल रह जाते है । िंिितो की किरशमा िदखाने की बात सुनकर बूलचंद हँ स िडे । ‘’ भाई ! कयो हँ सते हो?’’ ‘’ अरे ! तुम मुझे किरशमा िदखाने के िलए कहते हो? तुम िकतने भोलेभाले हो ! तुम मैनेजर का काम सेठ को सौिते हो। सिृि बनाने का संकलि बहा जी करते है । बूलचंद का शरीर तो बहाजी का दास है िकनतु मै बूलचंद नहीं हूँ। मै तो वह हूँ िजससे चेतना
लेकर बहाजी संकलि करते है । बहाजी का िचत एकाग है , इसिलए उनका संकलि फलता है । बूलचंद का अंतःकरण एकाग नहीं है , इसिलए उसका संकलि नहीं फलता है । लेिकन
बूलचंद एवं बहाजी दोनो के अंतःकरण को चेतना दे ने वाला चैतनय आतमा एक है और मै वही हूँ।‘’ वे िंिित तो मूढवत उनकी बाते सुनते रहे । उनको ये बाते जचीं नहीं और वे सब वहाँ से उठकर चल िदये। यह िररी नहीं िक आिको आतम-साकातकार हो जाए तो आि भी कुछ चमतकार कर सको। करना-धरना अंतःकरण मे है और वह एकागता से होता है । बह मे कुछ नहीं है । बह कुछ नहीं करता है । बह तो सतामात है । सारी िियाएँ, सारी सताएँ उसी से
सफुिरत होती है । िजनका अंतःकरण एकाग होता है , उनके जीवन मे चमतकािरक घटनाएँ घट सकती है । लेिकन चमतकार के िबना भी जान हो सकता है ।
वेदवयास जी और विशष जी के जीवन मे चमतकार भी है और जान भी है । साँई
शी लीलाशाह जी महाराज के जीवन मे भी चमतकार और जान दोनो है । िकसी के िास
अकेला जान है , तब भी वह मुक ही है । योग सामथयव हो चाहे न हो िकनतु मुिक िाने के िलए ततवजान हो- यह बहुत िररी है । जान से ही मुिक होती है । ऐसा जान िाया हुआ आदमी सब पकार के शोको से तर जाता है । उसका मन िनलि े हो जाता है । शोक के
पसंग मे शोक बािधत होता है एवं राग के पसंग मे राग बािधत होता है । काम और िोध के पसंग मे काम और िोध बािधत होते है । नानक जी ने भी कहा है ः बहजानी
स दा िनल े िा , जैस े ज ल म े कम ल अल ेिा।
बहजानी
का म त कौन बखान े , ना नक बहजानी
की ग त बहजानी
जा ने।।
ॐ शांित... ॐ शांित... ॐ शांित... ॐ शांित... ॐ शांित... ॐ शांित...
सो तः ऋिष पसा द, अं क ७७ , मई १९ ९९, िृ ष संख या १५,१६ ,१७