तत व दशश न से वा कर िन बश नध की पूज यपाद सं त शी आसारा म ज ी बाप ू परबह परमातमा को न जानना उसका नाम है अिवदा। उसे कारण शरीर भी कहते है । कारण शरीर से सूकम शरीर बनता है । सूकम शरीर की
माँग होती है दे खने की, सूघँने की, चखने की। सूकम शरीर की इचछा होती है तो ििर सथूल शरीर धारण होता है । सथूल शरीर के दारा जीव भोग की
इचछाओं को पूणश करना चाहता है । सथूल शरीर से भोग भोगते-भोगते सूकम शरीर को लगता है िक इसी मे सुख है और अपना जो सुखसवरप है उसे भूल
जाता है । अिवदा के कारण ही वयिि अपने असली सवरप को जान नहीं पाता है । यह बहुत सूकम बात है । यह बह िवदा है । इसको सुनने मात से जो
पुणय होता है , उसको बयान करने के िलए घंटो का समय चािहए। इसे सुनकर थोडा बहुत मनन करे उसका तो कलयाण होता ही है लेिकन मनन के पशात ्
िनिदधयासन करके ििर उस परमातमा मे डू ब जाए, परमातमामय हो जाए तो उसके दशन श मात से औरो का भी कलयाण हो जाता है । नानक जी कहते है ः बहजानी
का द शश न ब डभागी पाव ै।
भागयवान वयिि ही बहजानी महापुरष के दशन श कर सकता है । अभागे को बहजानी के दशन श भी नहीं होते है । थोडे भागय होते है तो धन िमल जाता है । थोडे जयादा भागयवान को पद-पितषा िमलती है लेिकन महाभागयवान को संत िमलते है । संत का मतलब है िजनके जनम मरण का अनत हो गया है ,
िजनकी अिवदा का अंत हो गया है । ऐसे संतो के िलए तुलसीदास जी ने कहा है ः पुणय प ुंज िबन ु िमल िहं न स ंता।
जब वयिि के पुणयो का पुंज, पुणयो का खजाना भर जाता है तब उसे संत िमलते है और जब संत िमलते है तो भगवान िमलते है । भगवान की
कृ पा से, पुणयो के पभाव के कारण संत िमलते है । जब दोनो की कृ पा होती है तब आतम-साकातकार होता है । ईश कृपा िबन ग ुर नही ं , गुर िबना नही ं जान। जान िबना आतमा नही
ं , गावह ीं व ेद प ुराण।।
ईशर की कृ पा के िबना गुर नहीं िमलते और गुर की कृ पा के िबना जान नहीं िमलता। गुर का मतलब यह नहीं िक थोडा ताटक आिद कर िलया, थोडी-बहुत
बोलने की कला सीख ली, थोडे -बहुत भजन-कीतन श , िकससे-कहािनयाँ, कथापसंगो से लोगो को पभािवत कर िदया और बन गए गुर। गोपो वीजजी
टोपो िघस की वेठो गादीय
ते।
गोपा टोपा पहनकर गादी पर बैठ गया और गुर बन कर कान मे िूँक मार िदया, मंत दे िदया, माला पकडा दी। आजकल ऐसे गुरओं का बाहुलय है । िववेकाननद कहते थेः ‘’गुर बनना माने िशषयो के कमो को िसर पर ले लेना, िशषयो की िजममेदारी लेना। यह कोई बचचो का खेल नहीं है ।
आजकल जो गुर बनने के चककर मे पड गए है वे लोग ऐसे है जैसे कंगला आदमी पतयेक वयिि को हजार सुवणम श ुदा दान करने का दावा करता है । ऐसे लेभागु गुरओं के िलए कबीर जी ने कहा है ः
गुर लोभी िश षय ल ालची , दोन ो ख ेल े दा ँ व। दोनो डूब े बाव ँरे चढ ी पत थर की नाव।। एक राजा था। उसका कुछ िववेक जगा था तो वह अपने कलयाण के
िलए कथा-वाताए श ँ सुनता रहता था पर उसके गुर ऐसे ही थे। राजा को उनकी कथाओं से कोई तसलली नहीं िमली, िचत को शांित नहीं िमली।
आिखर वह राजा कबीर जी के पास आया। उसने कहाः ‘’महाराज, मैने बहुत कथाएँ सुनी है लेिकन आज तक मेरे िचत को चैन नहीं िमला।‘’ कबीर जी ने कहाः ‘’अचछा, मै कल राजदरबार मे जाऊँगा। तुम अठारह साल से कथा सुनते हो और शांित नहीं िमली ? कौन तुमहै कथा
सुनाते है वह मै दे खूँगा।‘’ दस ू रे िदन कबीर जी राजदरबार मे गए। उनहोने
राजा से कहाः ‘’िजनसे जान लेना होता है , िजनसे शांित की अपेका रखते हो उनके कहने मे चलना पडता है ।‘’ राजा ने कहाः ‘’महाराज, मै आपके चरणो का दास हूँ। आपके कहने मे चलूग ँ ा। आप मुझे शांितदान दे ।‘’ कबीर जी ने कहाः ‘’मेरे कहने मे चलते हो तो वजीरो से कह दो िक कबीर जी जैसा कहे वैसा ही करना।‘’ राजा ने वजीरो से कहाः ‘’अब मै राजा नहीं हूँ, ये कबीर जी महाराज ही राजा है । उनहे िसंहासन पर िबठा दो।‘’
कबीर जी राजा के िसंहासन पर िवराजमान हो गए। ििर कबीर जी ने कहाः अचछा, ‘’वजीरो को मै हुकम दे ता हूँ िक जो पंिडत जी तुमहे कथा सुनाते है , उनको एक खमभे के साथ बाँध दो।‘’
राजा ने कहाः भाई, उनको महाराज जी के आगे खमभे के साथ बाँध दो।‘’ पंिडत जी को एक खमभे के साथ बाँध िदया गया। ििर कबीर जी ने
कहाः ‘’राजा को भी दस ू रे खमभे से बाँध दो।‘’ वजीर थोडा िहचिकचाए िकनतु राजा का संकेत पाकर उनहे भी बाँध िदया। इस तरह पंिडत जी और राजा
दोनो बँध गए। अब कबीर जी ने पंिडत से कहाः ‘’पंिडत जी, राजा कई वषो से तुमहारी सेवा करता है , तुमहे पणाम करता है , तुमहारा िशषय है , वह बँधा हुआ है उसे छुडाओ।‘’
पंिडत ने कहाः ‘’मै राजा को कैसे छुडाऊँ ? मै खुद बँधा हुआ हूँ।‘’ तब
कबीर जी ने कहाः
बनधे को बन धा िम ले छूटे कौन उपाय। सेवा कर िनब श नध की जो प ल म े द ेत छुडाए।। जो खुद सथूल शरीर मे बँधा हुआ है , सूकम शरीर मे बँधा है , िवचारो मे
बँधा है , कलपनाओं मे बँधा है ऐसे कथाकारो को, पंिडतो को हजारो वषश सुनते
रहो ििर भी कुछ काम नहीं होगा। उससे िचत को शांित, चैन, आननद, आितमक सुख नहीं िमलेगा। सेवा कर िनब श नध की जो प ल म े द ेत छुडाए। िनबन श ध की सेवा से, िनबन श ध की कृ पा से अजान िमटता है और
आतमजान का पकाश िमलता है । सचची शांित और आितमक सुख का अनुभव होता है । मनुषय अिवदा के कारण िकसी कलपना मे, िकसी मानयता मे, िकसी धारणा मे बँधा हुआ होता है । पहले वह तमस मे, आसुरी भाव मे बँध जाता है । धन तो बैक मे होता है और मनुषय मानता है ‘’मै धनवान।‘’ पुत तो कहीं घूम रहे है और मानता है ‘’मै पुतवान।‘’ ििर ‘’मै तयागी...मै
तपसवी...मै भोगी...मै रोगी...मै िसंधी...मै गुजराती...’’ इसमे मनुषय बँध जाता है । उससे थोडा आगे िनकलता है तो ‘मै कुछ नहीं मानता...जात-पांत
मे नहीं मानता...मै िकसी पंथ मे नहीं मानता।‘ इस तरह ‘न माननेवाले ‘ मे बँध जाता है । ऐसा जीव न जाने िकस गली से िनकलकर िकस गली मे िँस जाता है । िकस भाव से छूटकर िकस भाव मे बँध जाता है । लेिकन जब जीव को
िनबध ब पुरष, सदगुर िमल जाते है तो वह उनकी कृ पा से सब बँधनो से मुि हो जाता है , उसकी अिवदा दरू हो जाती है और वह जानसवरप परमातमा मे पितिषत हो जाता है । वह बहवेता हो जाता है ।
सो तः ऋिष पसा द, माच श १ ९९७ , अंक ५ १, पृ ष १४,१५,२३