ककक ककककक कक कककक कककक एकिदनमुंबईमेलमेिटक ं चेिकंगकरतेहुएमैव ं ातानुकूिलतबोगीमेप ं हुँचा। देखातोमखमलकी गद्दीपरटाट का आसनिबछाकरस्वामीशर्ीलीलाशाहजीमहाराजसमािधस्थहैं।मुझेआशच ् यर् हुआिकिजनपर्थमशर्ेणीकी वातानुकूिलतबोिगयोंमेरंाजामहाराजायातर्ाकरतेहैऐंसी बोगीऔरतीसरीशर्ेणीकी बोगीकेबीचइनसंतको कोई भेद नहींलगता। ऐसी बोिगयोंमेभ ं ीवेसमािधस्थहोतेहैय ं हदेखकरिसरझुक जाताहै। मैंनप ेूज्यमहाराजशर्ीको पर्णामकरकेकहाः "आप जैसे संतो के िलए तो सब एक समान है। हर हाल मे एकरस रहकरआपमुिक्तका आनंदलेसकतेहैं।लेिकनहमारेजैसे गृहस्थोंको क्याकरनाचािहएतािकहमभीआपजैसी समता बनाये रखकर जीवन जी सके? पूज्यमहाराजजीनेकहाः"कामऔरकर्ोधको तू छोड़देतोतू भीजीवन्मुक्तहोसकताहै। कककक ककक ककक कककक ककक, कककक ककक ककक कककक कककक .....औरकर्ोधतो, भाई ! भस म ासु र ह ै । वह तमा म पु ण य ो को जलाकर भस म कर द े त ा ह ै , अंतःकरण को मिलन कर देता है।" मैंनक ेहाः"पर्भु! अगर आपकी कृपा होगी तो मैं काम-कर्ोधको छोड़पाऊँगा।" पूज्यमहाराजनेकहाः"भाई कृप ा ऐस े थोड े ही की जाती ह ै ! संतकृपा के साथ तेरा पुरषाथर और दृढ़ताभीचािहए। पहलेतू पर्ितज्ञकर ा िक तू जीवनपयर् न्तकामऔरकर्ोधसेदूर रहेगा ..... तोमैत ंझ ु ेआशीवार्ददूँ।" मैंनक ेहाः"महाराजजी! मैज ं ीवनभरकेिलएपर्ितज्ञतोकरू ा ँलेिकनउसका पालनन कर पाऊँतोमैझ ंठ ू ामाना जाऊँगा।" पूज्यमहाराजजीनेकहाः"अच्छा, पहलेतू मेरे समक्षआठिदनकेिलएपर्ितज्ञक ा र। िफरपर्ितज्ञक ा ो एकएकिदनबढ़ातेजाना। इस पर्कारतू उन बलाओंसेबचसकेगा। हैकबूल ?" मैंनह ेाथजोड़करकबूल िकया। पूज्यमहाराजजीनेआशीवार्ददेकरदो-चारफूल पर्सादमेिदय ं े। पूज्यमहाराजजीनेमेरीजोदोकमजोिरयाँथींउन परहीसीधाहमलािकयाथा। मुझेआशच ् यर् हुआिक उन पर हीसीधाहमलािकयाथा। मुझेआशच ् यर् हुआिक अन्यकोई भीदुगुरणछोड़न ् े का न कहकरइनदोदुगुरणों ् केिलएहीउन्होंने पर्ितज्ञक्यों ा करवायी? बादमेम ंैइंस राजसेअवगतहुआ। दूसरेिदनमैप ंैसेन्जरटर्ेनमेक ं ानपुरसेआगेजोरहाथा। सुबहकेकरीबनौबजेथे। तीसरीशर्ेणीको बोगीमें जाकर मैने याितयो के िटकट जाचने का कायर शुर िकया। सबसे पहले बथर पर सोये हुए एक याती के पास जाकर मैने िटकट िदखानेको कहातोवहगुस्साहोकरमुझेकहनेलगाः "अंधा है ? देखतानहींिक मैस ं ो गयाहूँ? मुझेनींदसेजागनेका तुझेक्याअिधकारहै? यह कोई रीत है िटकट केबारेमेप ं ूछनेकी ? ऐसी ही अकल है तेरी ?" ऐसा कुछ-का-कुछ वहबोलताहीगया... बोलताहीगया। मैभ ं ीकर्ोधािवष्टहोनेलगािकंतुपूज्यमहाराजजीके समक ली हुई पितजा मुझे याद थी, अतः कर्ोध को ऐसे पी गया मानों, िवषकी पुिड़या।! मैंनउ ेसेकहाः"महाशय! आप ठीक ही कहते है िक मुझे बोलने की अकल नही है, भान नही ह ै । द े ख ो , मेरे ये बाल धूप मे सफेद हो गये है। आप मे बोलने की अकल अिधक है, नमर्ताहैतोकृपाकरकेिसखाओिक िटकट केिलए मुझेिकस पर्कारआपसेपूछनाचािहए। मैल ं ाचारहूँिक डयूटीकेकारणमुझेिटकट चेककरनापड़ रहाहैइसिलएमैं आपको कष दे रहा हूँ।" ....औरिफरमैंनख ेब ू पर्ेम सेहाथजोड़करिवनतीकीः "भ ै य ा ! कृपाकरकेकष्टकेिलएमुझेक्षमाकरो। मुझे अपना िटकट िदखायेंगे ?" मेरीनमर्तादेखकरवहलिज्जतहोगयाएवंतुरंतउठ बैठा। जल्दी-जलदी नीचे उतर कर मुझसे कमा मागते हुए कहनेलगाः"मुझेमाफकरना। मैन ं ींदमेथ ं ा। मैंनआ े पकोपहचानानहींथा। अबआपअपनेमुँहसेमुझेकहेिंक आपने मुझेमाफिकया?" यह देखकर मुझे आनंद एवं संतोष हुआ। मै सोचने लगा िक संतो की आजा मानने मे िकतनी शिकत और िहतिनिहतहै! संतो की करणा कैसा चमतकािरक पिरणाम लाती है ! वहव्यिक्तकेपर्ाकृितकस्वभावको भीजड़मूलसेबदल सकती है। अनयथा, मुझमेकर्ोधकोिनयंतर्णमेरं खनेकी कोई शिक्तनहींथी। मैप ंण ू र्तयाअसहायथािफरभीमुझे महाराजजीकी कृपानेहीसमथर्बनाया। ऐसेसंतोंकेशर्ीचरणोंमेक ं ोिट-कोिटनमस्कार! शी रीजुमल िरटायर्डटी.टी.आई., कानपुर। सोतः ऋिष पसाद, अंक 135, पृष्ठसंख्या30, माचर् 2004
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