शीयोगव ाििष म हा रामायण बहः अ ननत ि ििय ो क ा प ुंज
पूज यपाद सं त शी आसारा म ज ी बाप ू
सपनदनििि के अलावा और अनेकानेक ििियाँ बह मे समािवष है ।
बह ही
अनेक ििियो का पुंज है । बह ही अपनी ििियो को जहां चाहे , पकट कर सकता है । शीयोगवािि ष रामा यण म े कहा ह ै ः सव व िििमयो आतमा।
आतमा (परमातमा) सब ििियो से युि है । वह
िजस ििि की भावना जहां करे , वहीं अपने संकलप दारा उसे पकट हुआ दे खता है । सवव ि िि िह भ गवानय ैव त समै िह रोचत े।
भगवान ही सब पकार की ििियो वाला तथा सब जगह वतम व ान है । वह जहां
चाहे अपनी ििि को पकट कर सकता है । वासतव मे िनतय, पूणव और अकय बह मे ही समसत ििियाँ मौजूद है । संसार मे कोई वसतु ऐसी है ही नहीं जो सवर व प से पितिषत बह मे मौजूद न हो। िांत आतमा, बह मे जान ििि, िियाििि आिद
अनेकानेक ििियाँ वतम व ान है ही। बह की चेतनाििि िरीरधारी जीवो मे िदखाई दे ती है तो उसकी सपनदनििि, िजसे िियाििि भी कहते है , हवा मे िदखती है । उसी
िििरप बह की जडििि पतथर मे है तो दवििि (बहने की ििि) जल मे िदखती
है । चमकने की ििि का दिन व हम आग मे कर सकते है । िूनयििि आकाि मे, सब कुछ होने की भवििि संसार की िसथित मे, सबको धारण करने की ििि दिो िदिाओं मे, नािििि नािो मे, िोकििि िोक करने वालो मे, आननदििि
पसननिचत वालो मे, वीयि व िि योधदाओं मे, सिृष करने की ििि सिृष मे दे ख सकते है । कलप के अनत मे सारी ििियाँ सवयं बह मे रहती है ।
परमेशर की सवाभािवक सपनदनििि पकृ ित कहलाती है । वही जगनमाया नाम
से भी पिसधद है । यह सपनदनिििरपी भगनान की इचछा इस दशय जगत की रचना करती है । जब िुधद संिवत मे जडििि का उदय हुआ तो संसार की िविचतता
उतपनन हुई। जैसे चेतन मकडी से जड जाले की उतपित हुई वैसे ही चेतन बह से
पकृ ित उदभूत हुई। बहाननदसवरप आतमा ही भाव की दढता से िमथयारप मे पकट हो रहा है ।
पकृ ित के तीन पकार है - सूकम, मधयम और सथूल। तीनो अवसथाओं मे
पकृ ित िसथत रहती है । इसी कारण पकृ ित भी तीन पकार की कहलाई। इसके भी तीन
भेद हुए- सतव, रज, तम। ितगुणातमक पकृ ित को अिवदा भी कहते है । इसी अिवदा
से पािणयो की उतपित हुई। सारा जगत अिवदा के आशयगत है । इससे परे परबह है । जैसे फूल और उसकी सुगनध, धातु और आभूषण, अििन और उसकी ऊषणता एकरप है वैसे ही िचत और सपनदनििि एक ही है । मनोमयी सपनदनििि उस बह से
िभनन हो ही नहीं सकती। जब िचितििि ििया से िनवत ृ होकर अपने अिधषान की ओर यानी बह मे लौट आती है और वहीं िांत भाव से िसथत रहती है तो उसी
अवसथा को िांत बह कहते है । जैसे सोना िकसी आकार के िबना नहीं रहता वैसे ही परबह भी चेतनता के िबना, जो िक उसकी सवभान है , िसथत नहीं रहता. जैसे ितिता के िबना िमचव, मधुरता के िबना गनने का रस नहीं रहता वैसे िचत की चेतनता सपनदन के िबना नहीं रहती।
पकृ ित से परे िसथत पुरष सदा ही िरद ऋतु के आकाि की तरह सवचछ,
िांत व ििवरप है । भमरपवाली पकृ ित परमेशर की इचछारपी सपनदनातमक ििि है । वह तभी तक संसार मे भमण करती है िक जब तक वह िनतय तप ृ और िनिवक व ार
ििव का दिन व नही करती। जैसे नदी समुद मे पड कर अपना रप छोडकर समुद ही बन जाती है वैसे ही पकृ ित पुरष को पाप करके पुरषरप हो जाती है , िचत के िांत हो जाने पर परमपद को पाकर तदप ू हो जाती है ।
िजससे जगत के सब पदाथो की उतपित होती है , िजसमे सब पदाथव िसथत
रहते है और िजसमे सब लीन हो जाते है , जो सब जगह, सब कालो मे और सब वसतुओं मे मौजूद रहता है उस परम ततव को बह कहते है ।
यत : सवाव िण भ ूतािन प ितभा िनत िसथतािन च । यतैवोप िमं यािनत त समै सतयातमन े नम :।। जाता जान ं त थाज े यं दषादि व नदशयभ ू :।
कताव ह ेत ु : ििया यसमातसम ै जतया तम ने नम :।। सफुरिनत सीकरा यसमादा
ननदरसयामबर े s वनौ।
सवे षां जीवन ं तसम ै ब हाननदातमन े नम :।। ( शी योग वा ििष म हा रामा यण : १.१.१-२-३ )
िजससे सब पाणी पकट होते है , िजसमे सब िसथत है और िजसमे सब लीन हो जाते है , उस सतयरप ततव को नमसकार हो!
िजससे जाता-जान-जेय का दषा-दिन व -दशय का तथा कताव, हे तु और ििया का
उदय होता है उस जानसवरप ततव को नमसकार हो!
िजससे पथ ृ वी और सवगव मे आनंनद की वषाव होती है और िजससे सब का
जीवन है उस बहानंदसवरप ततव को नमसकार हो!
बह केवल उसको जाननेवाले के अनुभव मे ही आ सकता है , उसका वणन व नहीं हो सकता। वह अवाचय, अनिभवयि और इिनदयो से परे है । बह का जान केवल अपने अनुभव दारा ही होता है । वह परम पराकाषासवरप है । वह सब दिषयो की
सवोतम दिष है । वह सब मिहमाओं की मिहमा है । वह सब पािणरपी मोितयो का
तागा है जो िक उनके हदयरपी छे दो मे िपरोया हुआ है । वह सब पािणरपी िमचो की तीकणता है । वह पदाथव का पदाथत व तव है । वह सवोतम ततव है ।
उस परमेशवर ततव को पाप करना, उसी सवश े र मे िसथित करना-यही मानव
जीवन की साथक व ता है .
ऋिष प सा द व षव १ ० अ ं क ७ ९ ज ु ल ाई १९९९