Jivan Rasayan

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  • Words: 16,517
  • Pages: 53
पातः समरणीय परम पूजय संत शी आसारामजी बापू के सतसंग पवचनो मे से नवनीत

जीवन-रसायन

पसतावना जीवन रसायन

गुर भिि एक अमोघ साधना शी राम-वििष संवाद

आतमबल का आवाहन आतमबल कैसे जगाये ?

पसत ावन ा इस पुिसतका का एक-एक वाकय ऐसा सफुिलंग है िक वह हजार वषो के घनघोर अंधकार को एक पल मे ही घास की तरह जला कर भसम कर सकता है | इसका हर एक वचन आतमजानी महापुरषो के अनतसतल से पकट हुआ है |

सामानय मनुषय को ऊपर उठाकर दे वतव की उचचतम भूिमका मे पहुँचाने का

सामथयय इसमे िनिहत है | पाचीन भारत की आधयाितमक परमपरा मे पोिषत महापुरषो ने समािध दारा अपने अिसततव की गहराईयो मे गोते लगाकर जो अगमय, अगोचर अमत ृ

का खजाना पाया है , उस अमत ृ के खजाने को इस छोटी सी पुिसतका मे भरने का पयास िकया गया है | गागर मे सागर भरने का यह एक नम पयास है | उसके एक-एक वचन को सोपान बनाकर आप अपने लकय तक पहुँच सकते है |

इसके सेवन से मुदे के िदल मे भी पाण का संचार हो सकता है | हताि, िनराि,

दःुखी, िचिनतत होकर बैठे हुए मनुषय के िलये यह पुिसतका अमत ृ -संजीवनी के समान है |

इस पुिसतका को दै िनक ‘टॉिनक’ समझकर शदाभाव से, धैयय से इसका पठन, िचनतन एवं मनन करने से तो अवशय लाभ होगा ही, लेिकन िकसी आतमवेता महापुरष

के शीचरणो मे रहकर इसका शवण-िचनतन एवं मनन करने का सौभागय िमल जाये तब तो पूछना( या कहना) ही कया ? दै िनक जीवन-वयवहार की थकान से िवशांित पाने के िलये, चालू कायय से दो िमनट उपराम होकर इस पुिसतका की दो-चार सुवणय-किणकाएँ पढ़कर आतमसवरप मे गोता

लगाओ, तन-मन-जीवन को आधयाितमक तरं गो से झंकृत होने दो, जीवन-िसतार के तार पर परमातमा को खेलने दो | आपके िारीिरक, मानिसक व आधयाितमक ताप-संताप िांत होने लगेगे | जीवन मे परम तिृि की तरं गे लहरा उठे गी |

‘जीवन रसायन’ का यह िदवय कटोरा आतमरस के िपपासुओं के हाथ मे रखते हुए

सिमित अतयनत आननद का अनुभव करती है | िवशास है की अधयातम के िजजासुओं के जीवन को िदवयामत ृ से सरोबार करने मे यह पुिसतका उपयोगी िसद होगी | -

शी योग वेदानत सेवा सिमित अमदावाद आशम

जीव न रसाय न 1) जो मनुषय इसी जनम मे मुिि पाि करना चाहता है , उसे एक ही जनम मे हजारो वषो का कम कर लेना होगा | उसे इस युग की रफ़तार से बहुत आगे िनकलना

होगा | जैसे सवपन मे मान-अपमान, मेरा-तेरा, अचछा-बुरा िदखता है और जागने के बाद उसकी सतयता नहीं रहती वैसे ही इस जागत जगत मे भी अनुभव करना

होगा | बस…हो गया हजारो वषो का काम पूरा | जान की यह बात हदय मे ठीक से जमा दे नेवाले कोई महापुरष िमल जाये तो हजारो वषो के संसकार, मेरे-तेरे के भम को दो पल मे ही िनवत ृ कर दे और कायय पूरा हो जाये |

2) यिद तू िनज सवरप का पेमी बन जाये तो आजीिवका की िचनता, रमिणयो, शवणमनन और ितुओं का दख ु द समरण यह सब छूट जाये | उदर -िच नता िपय च चाय िवरही को ज ैस े खल े |

िनज सवरप म े िनषा हो तो ये स भी सहज ट ले ||

3) सवयं को अनय लोगो की आँखो से दे खना, अपने वासतिवक सवरप को न दे खकर अपना िनरीकण अनय लोगो की दिि से करना, यह जो सवभाव है वही हमारे सब

दःुखो का कारण है | अनय लोगो की दिि मे खूब अचछा िदखने की इचछा करनायही हमारा सामािजक दोष है |

4) लोग कयो दःुखी है ? कयोिक अजान के कारण वे अपने सतयसवरप को भूल गये है और अनय लोग जैसा कहते है वैसा ही अपने को मान बैठते है | यह दःुख तब तक दरू नहीं होगा जब तक मनुषय आतम-साकातकार नहीं कर लेगा |

5) िारीिरक, मानिसक, नैितक व आधयाितमक ये सब पीड़ाएँ वेदानत का अनुभव

करने से तुरंत दरू होती है और…कोई आतमिनष महापुरष का संग िमल जाये तो वेदानत का अनुभव करना किठन कायय नहीं है |

6) अपने अनदर के परमेशर को पसनन करने का पयास करो | जनता एवं बहुमित

को आप िकसी पकार से संतुि नहीं कर सकते | जब आपके आतमदे वता पसनन होगे तो जनता आपसे अवशय संति ु होगी |

7) सब वसतुओं मे बहदिन य करने मे यिद आप सफल न हो सको तो िजनको आप सबसे अिधक पेम करते हो ऐसे, कम-से-कम एक वयिि मे बह परमातमा का दिन य करने का पयास करो | ऐसे िकसी ततवजानी महापुरष की िरण पा लो

िजनमे बहानंद छलकता हो | उनका दििपात होते ही आपमे भी बह का पादभ य ु ाव

होने की समभावना पनपेगी | जैसे एकस-रे मिीन की िकरण कपड़े , चमड़ी, मांस को चीरकर हििियो का फोटो खींच लाती है , वैसे ही जानी की दिि आपके िचत मे

रहने वाली दे हाधयास की परते चीरकर आपमे ईशर को िनहारती है | उनकी दिि

से चीरी हुई परतो को चीरना अपके िलये भी सरल हो जायेगा | आप भी सवयं मे ईशर को दे ख सकेगे | अतः अपने िचत पर जानी महापुरष की दिि पड़ने दो |

पलके िगराये िबना, अहोभाव से उनके समक बैठो तो आपके िचत पर उनकी दिि पड़े गी | 8) जैसे मछिलयाँ जलिनिध मे रहती है , पकी वायुमंिल मे ही रहते है वैसे आप भी जानरप पकािपुज ं मे ही रहो, पकाि मे चलो, पकाि मे िवचरो, पकाि मे ही

अपना अिसततव रखो | िफर दे खो खाने-पीने का मजा, घूमने-िफरने का मजा, जीनेमरने का मजा |

9) ओ तूफान ! उठ ! जोर-िोर से आँधी और पानी की वषाय कर दे | ओ आननद के महासागर ! पथ ृ वी और आकाि को तोड़ दे | ओ मानव ! गहरे से गहरा गोता लगा िजससे िवचार एवं िचनताएँ िछनन-िभनन हो जाये | आओ, अपने हदय से दै त की भावना को चुन-चुनकर बाहर िनकाल दे , िजससे आननद का महासागर पतयक लहराने लगे |

ओ पेम की मादकता ! तू जलदी आ | ओ आतमधयान की, आतमरस की मिदरा ! तू हम पर जलदी आचछािदत हो जा | हमको तुरनत िु बो दे | िवलमब करने का कया

पयोजन ? मेरा मन अब एक पल भी दिुनयादारी मे फँसना नहीं चाहता | अतः इस मन को पयारे पभु मे िु बो दे | ‘मै और मेरा …तू और तेरा’ के ढे र को आग लगा

दे | आिंका और आिाओं के चीथड़ो को उतार फेक | टु कड़े -टु कड़े करके िपघला दे | दै त की भावना को जड़ से उखाड़ दे | रोटी नहीं िमलेगी ? कोई परवाह नहीं |

आशय और िवशाम नहीं िमलेगा ? कोई िफकर नहीं | लेिकन मुझे चािहये पेम की, उस िदवय पेम की पयास और तड़प |

मुझ े व ेद प ुराण कुरा न स े कया

?

मुझ े सतय का पाठ पढ़ा द

े कोई

मुझ े म ं िदर म िसजद जाना

नह ीं |

मुझ े प ेम का र ंग च ढ़ा द े कोई

|| ||

जह ाँ ऊँच या नीच का भ ेद नह ीं | जह ाँ जात या

प ाँत की बात नही

ं ||

न हो म ंिदर म िसजद च चय ज हाँ |

न हो प ू जा नमाज़ म े फ कय कह ीं || जह ाँ सतय ही सार

हो जीवन का

िरध वार िसंगार हो तयाग

|

ज हाँ ||

जह ाँ प ेम ही प ेम की स ृ िि िम ले |

चलो नाव को ल े चल े ख े के व हाँ || 10) सवपनावसथा मे दिा सवयं अकेला ही होता है | अपने भीतर की कलपना के

आधार पर िसंह, िसयार, भेड़, बकरी, नदी, नगर, बाग-बगीचे की एक पूरी सिृि का सजन य कर लेता है | उस सिृि मे सवयं एक जीव बन जाता है और अपने को

सबसे अलग मानकर भयभीत होता है | खुद िेर है और खुद ही बकरी है | खुद ही

खुद को िराता है | चालू सवपन मे सतय का भान न होने से दःुखी होता है | सवपन से जाग जाये तो पता चले िक सवयं के िसवाय और कोई था ही नहीं | सारा पपंच कलपना से रचा गया था | इसी पकार यह जगत जागत के दारा किलपत है ,

वासतिवक नहीं है | यिद जागत का दिा अपने आतमसवरप मे जाग जाये तो उसके तमाम दःुख-दािरदय पल भर मे अदशय हो जाये |

11) सवगय का सामाजय आपके भीतर ही है | पुसतको मे, मंिदरो मे, तीथो मे, पहाड़ो मे, जंगलो मे आनंद की खोज करना वयथय है | खोज करना ही हो तो उस अनतसथ आतमानंद का खजाना खोल दे नेवाले िकसी ततववेता महापुरष की खोज करो | 12) जब तक आप अपने अंतःकरण के अनधकार को दरू करने के िलए किटबद नहीं होगे तब तक तीन सौ तैतीस करोड़ कृ षण अवतार ले ले िफर भी आपको परम लाभ नहीं होगा |

13) िरीर अनदर के आतमा का वस है | वस को उसके पहनने वाले से अिधक पयार मत करो |

14) िजस कण आप सांसािरक पदाथो मे सुख की खोज करना छोड़ दे गे और सवाधीन

हो जायेगे, अपने अनदर की वासतिवकता का अनुभव करे गे, उसी कण आपको ईशर के पास जाना नहीं पड़े गा | ईशर सवयं आपके पास आयेगे | यही दै वी िवधान है |

15) कोधी यिद आपको िाप दे और आप समतव मे िसथर रहो, कुछ न बोलो तो उसका िाप आिीवाद य मे बदल जायेगा | 16) जब हम ईशर से िवमुख होते है तब हमे कोई मागय नहीं िदखता और घोर दःुख सहना पड़ता है | जब हम ईशर मे तनमय होते है तब योगय उपाय, योगय पविृत, योगय पवाह अपने-आप हमारे हदय मे उठने लगता है |

17) जब तक मनुषय िचनताओं से उिदगन रहता है , इचछा एवं वासना का भूत उसे

बैठने नहीं दे ता तब तक बुिद का चमतकार पकट नहीं होता | जंजीरो से जकड़ी हुई बुिद िहलिु ल नहीं सकती | िचनताएँ, इचछाएँ और वासनाएँ िांत होने से सवतंत वायुमंिल का अिवभाव य होता है | उसमे बुिद को िवकिसत होने का अवकाि

िमलता है | पंचभौितक बनधन कट जाते है और िुद आतमा अपने पूणय पकाि मे चमकने लगता है |

18) ओ सज़ा के भय से भयभीत होने वाले अपराधी ! नयायधीि जब तेरी सज़ा का हुकम िलखने के िलये कलम लेकर ततपर हो, उस समय यिद एक पल भर भी तू परमाननद मे िू ब जाये तो नयायधीि अपना िनणय य भूले िबना नहीं रह सकता |

ििर उसकी कलम से वही िलखा जायेगा जो परमातमा के साथ, तेरी नूतन िसथित के अनुकूल होगा |

19) पिवतता और सचचाई, िवशास और भलाई से भरा हुआ मनुषय उननित का झणिा हाथ मे लेकर जब आगे बढ़ता है तब िकसकी मजाल िक बीच मे खड़ा रहे ? यिद आपके िदल मे पिवतता, सचचाई और िवशास है तो आपकी दिि लोहे के पदे को भी चीर सकेगी | आपके िवचारो की ठोकर से पहाड़-के-पहाड़ भी चकनाचूर हो

सकेगे | ओ जगत के बादिाहो ! आगे से हट जाओ | यह िदल का बादिाह पधार रहा है |

20) यिद आप संसार के पलोभनो एवं धमिकयो से न िहले तो संसार को अवशय िहला दे गे | इसमे जो सनदे ह करता है वह मंदमित है , मूखय है |

21) वेदानत का यह िसदांत है िक हम बद नहीं है बिलक िनतय मुि है | इतना ही

नहीं, ‘बद है ’ यह सोचना भी अिनिकारी है , भम है | जयो ही आपने सोचा िक ‘मै बद हूँ…, दब य हूँ…, असहाय हूँ…’ तयो ही अपना दभ ु ल ु ागयय िुर हुआ समझो | आपने अपने पैरो मे एक जंजीर और बाँध दी | अतः सदा मुि होने का िवचार करो और मुिि का अनुभव करो |

22) रासते चलते जब िकसी पितिषत वयिि को दे खो, चाहे वह इं गलैड़ का सवाध य ीि हो, चाहे अमेिरका का ‘पेिसड़े ट’ हो, रस का सवस े वाय हो, चाहे चीन का ‘िड़कटे टर’ हो-

तब अपने मन मे िकसी पकार की ईषयाय या भय के िवचार मत आने दो | उनकी िाही नज़र को अपनी ही नज़र समझकर मज़ा लूटो िक ‘मै ही वह हूँ |’ जब आप ऐसा अनुभव करने की चेिा करे गे तब आपका अनुभव ही िसद कर दे गा िक सब एक ही है | 23) यिद हमारा मन ईषयाय-दे ष से रिहत िबलकुल िुद हो तो जगत की कोई वसतु हमे नुकसान नहीं पहुँचा सकती | आनंद और िांित से भरपूर ऐसे महातमाओं के पास

कोध की मूितय जैसा मनुषय भी पानी के समान तरल हो जाता है | ऐसे महातमाओं

को दे ख कर जंगल के िसंह और भेड़ भी पेमिवहल हो जाते है | सांप-िबचछू भी अपना दि ु सवभाव भूल जाते है | 24) अिवशास और धोखे से भरा संसार, वासतव मे सदाचारी और सतयिनष साधक का कुछ िबगाड़ नहीं सकता | 25) ‘समपूणय िवश मेरा िरीर है ’ ऐसा जो कह सकता है वही आवागमन के चककर से मुि है | वह तो अननत है | ििर कहाँ से आयेगा और कहाँ जायेगाा? सारा बहाणड़ उसी मे है |

26) िकसी भी पसंग को मन मे लाकर हषय-िोक के विीभूत नहीं होना | ‘मै अजर

हूँ…, अमर हूँ…, मेरा जनम नहीं…, मेरी मतृयु नहीं…, मै िनिलि य आतमा हूँ…,’ यह भाव दढ़ता से हदय मे धारण करके जीवन जीयो | इसी भाव का िनरनतर सेवन करो | इसीमे सदा तललीन रहो |

27) बाह संदभो के बारे मे सोचकर अपनी मानिसक िांित को भंग कभी न होने दो | 28) जब इिनदयाँ िवषयो की ओर जाने के िलये जबरदसती करने लगे तब उनहे लाल आँख िदखाकर चुप कर दो | जो आतमानंद के आसवादन की इचछा से आतमिचंतन मे लगा रहे , वही सचचा धीर है |

29) िकसी भी चीज़ को ईशर से अिधक मूलयवान मत समझो | 30) यिद हम दे हािभमान को तयागकर साकात ईशर को अपने िरीर मे कायय करने दे तो भगवान बुद या जीसस काईसट हो जाना इतना सरल है िजतना िनधन य पाल (Poor Paul) होना |

31) मन को वि करने का उपाय : मन को अपना नौकर समझकर सवयं को उसका पभु मानो | हम अपने नौकर मन की उपेका करे गे तो कुछ ही िदनो मे वह हमारे वि मे हो जायेगा | मन के चंचल भावो को ना दे खकर अपने िानत सवरप की

ओर धयान दे गे तो कुछ ही िदनो मे मन नि होने लगेगा | इस पकार साधक अपने आनंदसवरप मे मगन हो सकता है |

32) समग संसार के ततवजान, िवजान, गिणत, कावय और कला आपकी आतमा मे से िनकलते है और िनकलते रहे गे | 33) ओ खुदा को खोजनेवाले ! तुमने अपनी खोजबीन मे खुदा को लुि कर िदया है | पयतरपी तरं गो मे अनंत सामथयर य पी समुद को छुपा िदया है | 34) परमातमा की िािनत को भंग करने का सामथयय भला िकसमे है ? यिद आप सचमुच परमातम-िािनत मे िसथत हो जाओ तो समग संसार उलटा होकर टं ग जाये ििर भी आपकी िािनत भंग नहीं हो सकती |

35) महातमा वही है जो िचत को ड़ांवांड़ोल करनेवाले पसंग आये ििर भी िचत को वि मे रखे, कोध और िोक को पिवि न होने दे |

36) विृत यिद आतमसवरप मे लीन होती है तो उसे सतसंग, सवाधयाय या अनय िकसी भी काम के िलये बाहर नहीं लाना चिहये |

37) सुदढ़ अचल संकलप ििि के आगे मुसीबते इस पकार भागती है जैसे आँधी-तूिान से बादल िबखर जाते है |

38) सुषुिि (गहरी नींद) आपको बलात अनुभव कराती है िक जागत का जगत चाहे िकतना ही पयारा और सुंदर लगता हो, पर उसे भूले िबना िािनत नहीं िमलती | सुषुिि मे बलात िवसमरण हो, उसकी सतयता भूल जाये तो छः घंटे िनदा की

िािनत िमले | जागत मे उसकी सतयता का अभाव लगने लगे तो परम िािनत को पाि पाज पुरष बन जाये | िनदा रोज़ाना सीख दे ती है िक यह ठोस जगत जो

आपके िचत को भिमत कर रहा है , वह समय की धारा मे सरकता जा रहा है | घबराओ नहीं, िचिनतत मत हो ! तुम बातो मे िचत को भिमत मत करो | सब कुछ सवपन मे सरकता जा रहा है | जगत की सतयता के भम को भगा दो |

ओ िििमान आतमा ! अपने अंतरतम को िनहार ! ॐ का गुज ं न कर ! दब य िवचारो ु ल

एवं िचंताओं को कुचल ड़ाल ! दब य एवं तुचछ िवचारो तथा जगत को सतय मानने ु ल के कारण तूने बहुत-बहुत सहन िकया है | अब उसका अंत कर दे |

39) जान के किठनमागय पर चलते वि आपके सामने जब भारी कि एवं दख ु आये तब आप उसे सुख समझो कयोिक इस मागय मे कि एवं दख ु ही िनतयानंद पाि

करने मे िनिमत बनते है | अतः उन किो, दख ु ो और आघातो से िकसी भी पकार साहसहीन मत बनो, िनराि मत बनो | सदै व आगे बढ़ते रहो | जब तक अपने सतयसवरप को यथाथय रप से न जान लो, तब तक रको नहीं |

40) सवपनावसथा मे आप िेर को दे खते है और ड़रते है िक वह आपको खा जायेगा | परं तु आप िजसको दे खते है वह िेर नहीं, आप सवयं है | िेर आपकी कलपना के

अितिरि और कुछ नहीं | इस पकार जागतावसथा मे भी आपका घोर-से-घोर ितु भी सवयं आप ही है , दस ू रा कोई नहीं | पथकतव, अलगाव के िवचार को अपने हदय से दरू हटा दो | आपसे िभनन कोई िमत या ितु होना केवल सवपन-भम है |

41) अिुभ का िवरोध मत करो | सदा िांत रहो | जो कुछ सामने आये उसका सवागत करो, चाहे आपकी इचछा की धारा से िवपरीत भी हो | तब आप दे खेगे िक पतयक बुराई, भलाई मे बदल जायेगी |

42) राित मे िनदाधीन होने से पहले िबसतर पर सीधे, सुखपूवक य बैठ जाओ | आँखे बंद

करो | नाक से शास लेकर िेिड़ो को भरपूर भर दो | ििर उचच सवर से ‘ॐ…’ का लंबा उचचारण करो | ििर से गहरा सवास लेकर ‘ॐ…’ का लंबा उचचारण करो | इस पकार दस िमनट तक करो | कुछ ही िदनो के िनयिमत पयोग के बाद इसके

चमतकार का अनुभव होगा | राित की नींद साधना मे पिरणत हो जायेगी | िदल-

िदमाग मे िांित एवं आनंद की वषाय होगी | आपकी लौिकक िनदा योगिनदा मे बदल जयेगी | 43) हट जाओ, ओ संकलप और इचछाओं ! हट जाओ ! तुम संसार की कणभंगुर पिंसा एवं धन-समपित के साथ समबंध रखती हो | िरीर चाहे कैसी भी दिा मे रहे , उसके साथ मेरा कोई सरोकार नहीं | सब िरीर मेरे ही है |

44) िकसी भी तरह समय िबताने के िलये मज़दरू की भांित काम मत करो | आनंद के िलये, उपयोगी कसरत समझकर, सुख, कीड़ा या मनोरं जक खेल समझकर एक

कुलीन राजकुमार की भांित काम करो | दबे हुए, कुचले हुए िदल से कभी कोई काम हाथ मे मत लो |

45) समग संसार को जो अपना िरीर समझते है , पतयेक वयिि को जो अपना

आतमसवरप समझते है , ऐसे जानी िकससे अपसनन होगे ? उनके िलये िवकेप कहाँ रहा ?

46) संसार की तमाम वसतुऐं सुखद हो या भयानक, वासतव मे तो तुमहारी पिुलता और आनंद के िलये ही पकृ ित ने बनाई है | उनसे ड़रने से कया लाभ ? तुमहारी

नादानी ही तुमहे चककर मे ड़ालती है | अनयथा, तुमहे नीचा िदखाने वाला कोई नहीं | पकका िनशय रखो िक यह जगत तुमहारे िकसी ितु ने नहीं बनाया | तुमहारे ही आतमदे व का यह सब िवलास है |

47) महातमा वे है िजनकी िविाल सहानुभूित एवं िजनका मातव ृ त हदय सब पािपयो को, दीन-दिुखयो को पेम से अपनी गोद मे सथान दे ता है |

48) यह िनयम है िक भयभीत पाणी ही दस ू रो को भयभीत करता है | भयरिहत हुए

िबना अिभननता आ नहीं सकती, अिभननता के िबना वासनाओं का अंत समभव नहीं है और िनवास य िनकता के िबना िनवैरता, समता, मुिदता आिद िदवय गुण पकट नहीं होते | जो बल दस य ता को दरू ना कर सके, वह वासतव मे बल नहीं | ू रो की दब ु ल

49) धयान मे बैठने से पहले अपना समग मानिसक िचंतन तथा बाहर की तमाम समपित ईशर के या सदगुर के चरणो मे अपण य करके िांत हो जाओ | इससे

आपको कोई हािन नहीं होगी | ईशर आपकी समपित, दे ह, पाण और मन की रका करे गे | ईशर अपण य बुिद से कभी हािन नहीं होती | इतना ही नहीं, दे ह, पाण मे

नवजीवन का िसंचन होता है | इससे आप िांित व आनंद का सोत बनकर जीवन को साथक य कर सकेगे | आपकी और पूरे िवश की वासतिवक उननित होगी |

50) पकृ ित पसननिचत एवं उदोगी कायक य ताय को हर पकार से सहायता करती है | 51) पसननमुख रहना यह मोितयो का खज़ाना दे ने से भी उतम है | 52) चाहे करोड़ो सूयय का पलय हो जाये, चाहे असंखय चनदमा िपघलकर नि हो जाये परं तु जानी महापुरष अटल एवं अचल रहते है |

53) भौितक पदाथो को सतय समझना, उनमे आसिि रखना, दख ु -ददय व िचंताओं को

आमंतण दे ने के समान है | अतः बाह नाम-रप पर अपनी ििि व समय को नि करना यह बड़ी गलती है |

54) जब आपने वयिितव िवषयक िवचारो का सवथ य ा तयाग कर िदया जाता है तब उसके समान अनय कोई सुख नहीं, उसके समान शष े अनय कोई अवसथा नहीं | 55) जो लोग आपको सबसे अिधक हािन पहुँचाने का पयास करते है , उन पर कृ पापूणय होकर पेममय िचंतन करे | वे आपके ही आतमसवरप है |

56) संसार मे केवल एक ही रोग है | बह सतय ं जग िनमथ या - इस वेदांितक िनयम का भंग ही सवय वयािधयो का मूल है | वह कभी एक दख ु का रप लेता है तो कभी दस ू रे दख ु का | इन सवय वयािधयो की एक ही दवा है : अपने वासतिवक सवरप बहतव मे जाग जाना |

57) बुद धयानसथ बैठे थे | पहाड़ पर से एक ििलाखंड़ लुढ़कता हुआ आ रहा था | बुद

पर िगरे इससे पहले ही वह एक दस ू रे ििलाखंड़ के साथ टकराया | भयंकर आवाज़

के साथ उसके दो भाग हो गये | उसने अपना मागय बदल िलया | धयानसथ बुद की दोनो तरि से दोनो भाग गुज़र गये | बुद बच गये | केवल एक छोटा सा कंकड़ उनके पैर मे लगा | पैर से थोड़ा खून बहा | बुद सवसथता से उठ खड़े हुए और ििषयो से कहा:

“भीकुओं ! समयक समािध का यह जवलंत पमाण है | मै यिद धयान-समािध मे ना होता तो ििलाखंड़ ने मुझे कुचल िदया होता | लेिकन ऐसा ना होकर उसके दो भाग हो गये | उसमे से िसिय एक छोटा-सा कंकड़ ऊछलकर मेरे पैर मे लगा | यह जो

छोटा-सा ज़खम हुआ है वह धयान की पूणत य ा मे रही हुई कुछ नयूनता का पिरणाम है | यिद धयान पूणय होता तो इतना भी ना लगता |”

58) कहाँ है वह तलवार जो मुझे मार सके ? कहाँ है वह िस जो मुझे घायल कर

सके ? कहाँ है वह िवपित जो मेरी पसननता को िबगाड़ सके ? कहाँ है वह दख ु जो मेरे सुख मे िवघन ड़ाल सके ? मेरे सब भय भाग गये | सब संिय कट गये | मेरा िवजय-पािि का िदन आ पहुँचा है | कोई संसािरक तरं ग मेरे िनशछल िचत को

आंदोिलत नहीं कर सकती | इन तरं गो से मुझे ना कोई लाभ है ना हािन है | मुझे

ितु से दे ष नहीं, िमत से राग नहीं | मुझे मौत का भय नहीं, नाि का ड़र नहीं, जीने की वासना नहीं, सुख की इचछा नहीं और दख ु से दे ष नहीं कयोिक यह सब मन मे रहता है और मन िमथया कलपना है |

59) समपूणय सवासथय की अजीब युिि: रोज सुबह तुलसी के पाँच पते चबाकर एक गलास बासी पानी पी लो | ििर जरा घूम लो, दौड़ लो या कमरे मे ही पंजो के बल थोड़ा कूद लो | नहा-धोकर सवसथ, िानत होकर एकांत मे बैठ जाओ | दस बारह

गहरे -गहरे शास लो | आगे-पीछे के कतवययो से िनिशंत हो जाओ | आरोगयता, आनंद, सुख, िािनत पदान करनेवाली िवचारधारा को िचत मे बहने दो | िबमारी के िवचार को हटाकर इस पकार की भावना पर मन को दढ़ता से एकाग करो िक: मेरे अंदर आरोगयता व आनंद का अनंत सोत पवािहत हो रहा है … मेरे अंतराल मे िदवयामत ृ का महासागर लहरा रहा है | मै अनुभव कर रहा हूँ िक समग सुख, आरोगयता, ििि मेरे भीतर है | मेरे मन मे अननत ििि और सामथयय है | मै

सवसथ हूँ | पूणय पसनन हूँ | मेरे अंदर-बाहर सवत य परमातमा का पकाि िैला हुआ है | मै िवकेप रिहत हूँ | सब दनदो से मुि हूँ | सवगीय सुख मेरे अंदर है | मेरा हदय

परमातमा का गुि पदे ि है | ििर रोग-िोक वहाँ कैसे रहे सकते है ? मै दै वी ओज

के मंड़ल मे पिवि हो चुका हूँ | वह मेरे सवासथय का पदे ि है | मै तेज का पुाुँज हूँ | आरोगयता का अवतार हूँ |

याद रखो : आपके अंतःकरण मे सवासथय, सुख, आनंद और िािनत ईशरीय वरदान के रप मे िवदमान है | अपने अंतःकरण की आवाज़ सुनकर िनिंक जीवन वयतीत

करो | मन मे से किलपत रोग के िवचारो को िनकाल दो | पतयेक िवचार, भाव, िबद और कायय को ईशरीय ििि से पिरपूणय रखो | ॐकार का सतत गुंजन करो | सुबह-िाम उपरोि िवचारो का िचंतन-मनन करने से िविेष लाभ होगा | ॐ आनंद… ॐ िांित… पूणय सवसथ… पूणय पसनन… 60) भय केवल अजान की छाया है , दोषो की काया है , मनुषय को धमम य ागय से िगराने वाली आसुरी माया है | 61) याद रखो: चाहे समग संसार के तमाम पतकार, िननदक एकितत होकर आपके िवरध आलोचन करे ििर भी आपका कुछ िबगाड़ नहीं सकते | हे अमर आतमा ! सवसथ रहो |

62) लोग पायः िजनसे घण ृ ा करते है ऐसे िनधन य , रोगी इतयािद को साकात ् ईशर समझकर उनकी सेवा करना यह अननय भिि एवं आतमजान का वासतिवक सवरप है |

63) रोज पातः काल उठते ही ॐकार का गान करो | ऐसी भावना से िचत को सराबोर कर दो िक : ‘मै िरीर नहीं हूँ | सब पाणी, कीट, पतंग, गनधवय मे मेरा ही आतमा

िवलास कर रहा है | अरे , उनके रप मे मैाै ही िवलास कर रहा हूँ | ’ भैया ! हर रोज ऐसा अभयास करने से यह िसदांत हदय मे िसथर हो जायेगा |

64) पेमी आगे-पीछे का िचनतन नहीं करता | वह न तो िकसी आिंका से भयभीत

होता है और न वतम य ान पिरिसथित मे पेमासपद मे पीित के िसवाय अनय कहीं आराम पाता है |

65) जैसे बालक पितिबमब के आशयभूत दपण य की ओर धयान न दे कर पितिबमब के साथ खेलता है , जैसे पामर लोग यह समग सथूल पपंच के आशयभूत आकाि की

ओर धयान न दे कर केवल सथूल पपंच की ओर धयान दे ते है , वैसे ही नाम-रप के भि, सथूल दिि के लोग अपने दभ ु ागयय के कारण समग संसार के आशय

सिचचदाननद परमातमा का धयान न करके संसार के पीछे पागल होकर भटकते रहते है | 66) इस समपूणय जगत को पानी के बुलबुले की तरह कणभंगुर जानकर तुम आतमा मे िसथर हो जाओ | तुम अदै त दििवाले को िोक और मोह कैसे ? 67) एक आदमी आपको दज य कहकर पिरिचछनन करता है तो दस ु न ू रा आपको सजजन कहकर भी पिरिचछनन ही करता है | कोई आपकी सतुित करके फुला दे ता है तो कोई िननदा करके िसकुड़ा दे ता है | ये दोनो आपको पिरिचछनन बनाते है |

भागयवान ् तो वह पुरष है जो तमाम बनधनो के िवरद खड़ा होकर अपने दे वतव

की, अपने ईशरतव की घोषणा करता है , अपने आतमसवरप का अनुभव करता है | जो पुरष ईशर के साथ अपनी अभेदता पहचान सकता है और अपने इदयिगदय के लोगो के समक, समग संसार के समक िनिर होकर ईशरतव का िनरपण कर

सकता है , उस पुरष को ईशर मानने के िलये सारा संसार बाधय हो जाता है | पूरी सिृि उसे अवशय परमातमा मानती है |

68) यह सथूल भौितक पदाथय इिनदयो की भांित के िसवाय और कुछ नहीं है | जो नाम व रप पर भरोसा रखता है , उसे सफलता नहीं िमलती | सूकम िसदांत अथात य ् सतय

आतम-ततव पर िनभरय रहना ही सफलता की कुंजी है | उसे गहण करो, उसका मनन करो और वयवहार करो | िफर नाम-रप आपको खोजते िफरे गे | 69) सुख का रहसय यह है : आप जयो-जयो पदाथो को खोजते-िफरते हो, तयो-तयो उनको खोते जाते हो | आप िजतने कामना से परे होते हो, उतने आवशयकताओं से भी परे हो जाते हो और पदाथय भी आपका पीछा करते हुए आते है |

70) आननद से ही सबकी उतपित, आननद मे ही सबकी िसथित एवं आननद मे ही सबकी लीनता दे खने से आननद की पूणत य ा का अनुभव होता है |

71) हम बोलना चहते है तभी िबदोचचारण होता है , बोलना न चाहे तो नहीं होता | हम दे खना चाहे तभी बाहर का दशय िदखता है , नेत बंद कर ले तो नहीं िदखता | हम

जानना चाहे तभी पदाथय का जान होता है , जानना नहीं चाहे तो जान नहीं होता | अतः जो कोई पदाथय दे खने, सुनने या जानने मे आता है उसको बािधत करके

बािधत करनेवाली जानरपी बुिद की विृत को भी बािधत कर दो | उसके बाद जो

िेष रहे वह जाता है | जाततृव धमरयिहत िुदसवरप जाता ही िनतय सिचचदाननद बह है | िनरं तर ऐसा िववेक करते हुए जान व जेयरिहत केवल िचनमय, िनतय, िवजानाननदघनरप मे िसथर रहो |

72) यिद आप सवाग ा पूणय जीवन का आननद लेना चाहते हो तो कल की िचनता छोड़ो | अपने चारो ओर जीवन के बीज बोओ | भिवषय मे सुनहरे सवपन साकार होते दे खने की आदत बनाओ | सदा के िलये मन मे यह बात पककी बैठा दो िक

आपका आनेवाला कल अतयनत पकािमय, आननदमय एवं मधुर होगा | कल आप अपने को आज से भी अिधक भागयवान ् पायेगे | आपका मन सजन य ातमक ििि से भर जायेगा | जीवन ऐशयप य ूणय हो जायेगा | आपमे इतनी ििि है िक िवघन आपसे

भयभीत होकर भाग खड़े होगे | ऐसी िवचारधारा से िनिशत रप से कलयाण होगा | आपके संिय िमट जायेगे |

73) ओ मानव ! तू ही अपनी चेतना से सब वसतुओं को आकषक य बना दे ता है | अपनी पयार भरी दिि उन पर िालता है , तब तेरी ही चमक उन पर चढ़ जाती है और… िफर तू ही उनके पयार मे िँस जाता है |

74) मैने िविचत एवं अटपटे मागो दारा ऐसे ततवो की खोज की जो मुझे परमातमा तक पहुँचा सके | लेिकन मै िजस-िजस नये मागय पर चला उन सब मागो से पता चला िक मै परमातमा से दरू चला गया | िफर मैने बुिदमता एवं िवदा से

परमातमा की खोज की िफर भी परमातमा से अलग रहा | गनथालयो एवं िवदालयो ने मेरे िवचारो मे उलटी गड़बड़ कर दी | मै थककर बैठ गया | िनसतबध हो गया | संयोगवि अपने भीतर ही झांका, धयान िकया तो उस अनतदय िि से मुझे सवस य व

िमला िजसकी खोज मै बाहर कर रहा था | मेरा आतमसवरप सवत य वयाि हो रहा है | 75) जैसे सामानय मनुषय को पतथर, गाय, भैस सवाभािवक रीित से दििगोचर होते है , वैसे ही जानी को िनजाननद का सवाभािवक अनुभव होता है | 76) वेदानत का यह अनुभव है िक नीच, नराधम, िपिाच, ितु कोई है ही नहीं | पिवत सवरप ही सवय रपो मे हर समय िोभायमान है | अपने-आपका कोई अिनि नहीं

करता | मेरे िसवा और कुछ है ही नहीं तो मेरा अिनि करने वाला कौन है ? मुझे अपने-आपसे भय कैसा ? 77) यह चराचर सिृिरपी दै त तब तक भासता है जब तक उसे दे खनेवाला मन बैठा है | मन िांत होते ही दै त की गंध तक नहीं रहती | 78) िजस पकार एक धागे मे उतम, मधयम और किनष फूल िपरोये हुए है , उसी पकार मेरे आतमसवरप मे उतम, मधयम और किनष िरीर िपरोये हुए है | जैसे फूलो की

गुणवता का पभाव धागे पर नहीं पड़ता, वैसे ही िरीरो की गुणवता का पभाव मेरी सववययापकता नहीं पड़ता | जैसे सब फूलो के िवनाि से धागे को कोई हािन नहीं, वैसे िरीरो के िवनाि से मुझ सवग य त आतमा को कोई हािन नहीं होती |

79) मै िनमल य , िनशल, अननत, िुद, अजर, अमर हूँ | मै असतयसवरप दे ह नहीं | िसद पुरष इसीको ‘जान’ कहते है |

80) मै भी नहीं और मुझसे अलग अनय भी कुछ नहीं | साकात ् आननद से पिरपूण,य केवल, िनरनतर और सवत य एक बह ही है | उदे ग छोड़कर केवल यही उपासना सतत करते रहो |

81) जब आप जान लेगे िक दस ू रो का िहत अपना ही िहत करने के बराबर है और

दस ू रो का अिहत करना अपना ही अिहत करने के बराबर है , तब आपको धमय के सवरप का साकतकार हो जायेगा |

82) आप आतम-पितषा, दलबनदी और ईषयाय को सदा के िलए छोड़ दो | पथ ृ वी माता

की तरह सहनिील हो जाओ | संसार आपके कदमो मे नयोछावर होने का इं तज़ार कर रहा है |

83) मै िनगुण य , िनिषकय, िनतय मुि और अचयुत हूँ | मै असतयसवरप दे ह नहीं हूँ | िसद पुरष इसीको ‘जान’ कहते है |

84) जो दस ू रो का सहारा खोजता है , वह सतयसवरप ईशर की सेवा नहीं कर सकता | 85) सतयसवरप महापुरष का पेम सुख-दःुख मे समान रहता है , सब अवसथाओं मे

हमारे अनुकूल रहता है | हदय का एकमात िवशामसथल वह पेम है | वद ृ ावसथा उस आतमरस को सुखा नहीं सकती | समय बदल जाने से वह बदलता नहीं | कोई िवरला भागयवान ही ऐसे िदवय पेम का भाजन बन सकता है |

86) िोक और मोह का कारण है पािणयो मे िविभनन भावो का अधयारोप करना |

मनुषय जब एक को सुख दे नेवाला, पयारा, सुहद समझता है और दस ू रे को दःुख

दे नेवाला ितु समझकर उससे दे ष करता है तब उसके हदय मे िोक और मोह का उदय होना अिनवायय है | वह जब सवय पािणयो मे एक अखणि सता का अनुभव

करने लगेगा, पािणमात को पभु का पुत समझकर उसे आतमभाव से पयार करे गा

तब उस साधक के हदय मे िोक और मोह का नामोिनिान नहीं रह जायेगा | वह सदा पसनन रहे गा | संसार मे उसके िलये न ही कोई ितु रहे गा और न ही कोई िमत | उसको कोई कलेि नहीं पहुँचायेगा | उसके सामने िवषधर नाग भी अपना सवभाव भूल जायेगा |

87) िजसको अपने पाणो की परवाह नहीं, मतृयु का नाम सुनकर िवचिलत न होकर उसका सवागत करने के िलए जो सदा ततपर है , उसके िलए संसार मे कोई कायय असाधय नहीं | उसे िकसी बाह िसो की जररत नहीं, साहस ही उसका िस है |

उस िस से वह अनयाय का पक लेनेवालो को परािजत कर दे ता है िफर भी उनके िलए बुरे िवचारो का सेवन नहीं करता |

88) िचनता ही आननद व उललास का िवधवंस करनेवाली राकसी है | 89) कभी-कभी मधयराित को जाग जाओ | उस समय इिनदयाँ अपने िवषयो के पित

चंचल नहीं रहतीं | बिहमुख य सफुरण की गित मनद होती है | इस अवसथा का लाभ लेकर इिनदयातीत अपने िचदाकाि सवरप का अनुभव करो | जगत, िरीर व इिनदयो के अभाव मे भी अपने अखणि अिसततव को जानो |

90) दशय मे पीित नहीं रहना ही असली वैरागय है | 91) रोग हमे दबाना चाहता है | उससे हमारे िवचार भी मनद हो जाते है | अतः रोग की िनविृत करनी चिहए | लेिकन जो िवचारवान ् पुरष है , वह केवल रोगिनविृत के पीछे ही नहीं लग जाता | वह तो यह िनगरानी रखता है िक भयंकर दःुख के

समय भी अपना िवचार छूट तो नहीं गया ! ऐसा पुरष ‘हाय-हाय’ करके पाण नहीं तयागता कयोिक वह जानता है िक रोग उसका दास है | रोग कैसा भी भय िदखाये लेिकन िवचारवान ् पुरष इससे पभािवत नहीं होता | 92) िजस साधक के पास धारणा की दढ़ता एवं उदेशय की पिवतता, ये दो गुण होगे वह अवशय िवजेता होगा | इन दो िासो से सुसिजजत साधक समसत िवघनबाधाओं का सामना करके आिखर मे िवजयपताका फहरायेगा |

93) जब तक हमारे मन मे इस बात का पकका िनशय नहीं होगा िक सिृि िुभ है

तब तक मन एकाग नहीं होगा | जब तक हम समझते रहे गे िक सिृि िबगड़ी हुई है तब तक मन सिंक दिि से चारो ओर दौड़ता रहे गा | सवत य मंगलमय दिि रखने से मन अपने-आप िांत होने लगेगा |

94) आसन िसथर करने के िलए संकलप करे िक जैसे पथ ृ वी को धारण करते हुए भी िेषजी िबलकुल अचल रहते है वैसे मै भी अचल रहूँगा | मै िरीर और पाण का दिा हूँ |

95) ‘संसार िमथया है ’ – यह मंद जानी की धारणा है | ‘संसार सवपनवत ् है ’ – यह

मधयम जानी की धारणा है | ‘संसार का अतयनत अभाव है , संसार की उतपित कभी हुई ही नहीं’ – यह उतम जानी की धारणा है |

96) आप यिद भििमागय मे हो तो सारी सिृि भगवान की है इसिलए िकसीकी भी िननदा करना ठीक नहीं | आप यिद जानमागय मे हो तो यह सिृि अपना ही सवरप है | आप अपनी ही िननदा कैसे कर सकते है ? इस पकार दोनो मागो मे परिननदा का अवकाि ही नहीं है | 97) दशय मे दिा का भान एवं दिा मे दशय का भान हो रहा है | इस गड़बड़ का नाम ही अिववेक या अजान है | दिा को दिा तथा दशय को दशय समझना ही िववेक या जान है |

98) आसन व पाण िसथर होने से िरीर मे िवदुत पैदा होती है | िरीर के दारा जब

भी िकया की जाती है तब वह िवदुत बाहर िनकल जाती है | इस िवदुत को िरीर मे रोक लेने से िरीर िनरोगी बन जाता है |

99) सवपन की सिृि अलपकालीन और िविचत होती है | मनुषय जब जागता है तब जानता है िक मै पलंग पर सोया हूँ | मुझे सवपन आया | सवपन मे पदाथय, दे ि

काल, िकया इतयािद पूरी सिृि का सजन य हुआ | लेिकन मेरे िसवाय और कुछ भी न था | सवपन की सिृि झूठी थी | इसी पकार ततवजानी पुरष अजानरपी िनदा से

जानरपी जागत अवसथा को पाि हुए है | वे कहते है िक एक बह के िसवा अनय

कुछ है ही नहीं | जैसे सवपन से जागने के बाद हमे सवपन की सिृि िमथया लगती है , वैसे ही जानवान को यह जगत िमथया लगता है |

100) िारीिरक कि पड़े तब ऐसी भावना हो जाये िक : ‘यह कि मेरे पयारे पभु की ओर से है …’ तो वह कि तप का फल दे ता है |

101)

चलते-चलते पैर मे छाले पड़ गये हो, भूख वयाकुल कर रही हो, बुिद

िवचार करने मे िििथल हो गई हो, िकसी पेड़ के नीचे पड़े हो, जीवन असमभव हो रहा हो, मतृयु का आगमन हो रहा हो तब भी अनदर से वही िनभय य धविन उठे :

‘सोऽहम… ् सोऽहम… ् मुझे भय नहीं…मेरी मतृयु नहीं…मुझे भूख नहीं…पयास नहीं… पकृ ित की कोई भी वयथा मुझे नि नहीं कर सकती…मै वही हूँ…वही हूँ…’ 102)

िजनके आगे िपय-अिपय, अनुकूल-पितकूल, सुख-दःुख और भूत-भिवषय

एक समान है ऐसे जानी, आतमवेता महापुरष ही सचचे धनवान है |

103)

दःुख मे दःुखी और सुख मे सुखी होने वाले लोहे जैसे होते है | दःुख मे

सुखी रहने वाले सोने जैसे होते है | सुख-दःुख मे समान रहने वाले रत जैसे होते है , परनतु जो सुख-दःुख की भावना से परे रहते है वे ही सचचे समाट है | 104)

सवपन से जाग कर जैसे सवपन को भूल जाते है वैसे जागत से जागकर

थोड़ी दे र के िलए जागत को भूल जाओ | रोज पातः काल मे पनदह िमनट इस

पकार संसार को भूल जाने की आदत िालने से आतमा का अनुसंधान हो सकेगा | इस पयोग से सहजावसथा पाि होगी |

105)

तयाग और पेम से यथाथय जान होता है | दःुखी पाणी मे तयाग व पेम

िवचार से आते है | सुखी पाणी मे तयाग व पेम सेवा से आते है कयोिक जो सवयं दःुखी है वह सेवा नहीं कर सकता पर िवचार कर सकता है | जो सुखी है वह सुख

मे आसि होने के कारण उसमे िवचार का उदय नहीाीं हो सकता लेिकन वह सेवा कर सकता है | 106)

लोगो की पूजा व पणाम से जैसी पसननता होती है वैसी ही पसननता जब

मार पड़े तब भी होती हो तो ही मनुषय िभकानन गहण करने का सचचा अिधकारी माना जाता है | 107)

हरे क साधक को िबलकुल नये अनुभव की िदिा मे आगे बढ़ना है | इसके

िलये बहजानी महातमा की अतयनत आवशयकता होती है | िजसको सचची िजजासा हो, उसे ऐसे महातमा िमल ही जाते है | दढ़ िजजासा से ििषय को गुर के पास जाने की इचछा होती है | योगय िजजासु को समथय गुर सवयं दिन य दे ते है | 108)

बीते हुए समय को याद न करना, भिवषय की िचनता न करना और

वतम य ान मे पाि सुख-दःुखािद मे सम रहना ये जीवनमुि पुरष के लकण है | 109) |

जब बुिद एवं हदय एक हो जाते है तब सारा जीवन साधना बन जाता है

110)

बुिदमान पुरष संसार की िचनता नहीं करते लेिकन अपनी मुिि के बारे मे

सोचते है | मुिि का िवचार ही तयागी, दानी, सेवापरायण बनाता है | मोक की इचछा से सब सदगुण आ जाते है | संसार की इचछा से सब दग ु ुयण आ जाते है |

111)

पिरिसथित िजतनी किठन होती है , वातावरण िजतना पीड़ाकारक होता है ,

उससे गुजरने वाला उतना ही बलवान बन जाता है | अतः बाह किो और िचनताओं का सवागत करो | ऐसी पिरिसथित मे भी वेदानत को आचरण मे लाओ | जब आप वेदानती जीवन वयतीत करे गे तब दे खेगे िक समसत वातावरण और पिरिसथितयाँ आपके वि मे हो रही है , आपके िलये उपयोगी िसद हो रही है | 112)

हरे क पदाथय पर से अपने मोह को हटा लो और एक सतय पर, एक तथय

पर, अपने ईशर पर समग धयान को केिनदत करो | तुरनत आपको आतमसाकातकार होगा | 113)

जैसे बड़े होते-होते बचपन के खेलकूद छोड़ दे ते हो, वैसे ही संसार के

खेलकूद छोड़कर आतमाननद का उपभोग करना चािहये | जैसे अनन व जल का

सेवन करते हो, वैसे ही आतम-िचनतन का िनरनतर सेवन करना चािहये | भोजन ठीक से होता है तो तिृि की िकार आती है वैसे ही यथाथय आतमिचनतन होते ही आतमानुभव की िकार आयेगी, आतमाननद मे मसत होगे | आतमजान के िसवा िांित का कोई उपाय नहीं | 114)

आतमजानी के हुकम से सूयय पकािता है | उनके िलये इनद पानी बरसाता

है | उनहीाीं के िलये पवन दत ू बनकर गमनागमन करता है | उनहीाीं के आगे समुद रे त मे अपना िसर रगड़ता है | 115)

यिद आप अपने आतमसवरप को परमातमा समझो और अनुभव करो तो

आपके सब िवचार व मनोरथ सफल होगे, उसी कण पूणय होगे | 116)

राजा-महाराजा, दे वी-दे वता, वेद-पुराण आिद जो कुछ है वे आतमदिी के

संकलपमात है | 117)

जो लोग पितकूलता को अपनाते है , ईशर उनके सममुख रहते है | ईशर

िजनहे अपने से दरू रखना चाहते है , उनहे अनुकूल पिरिसथितयाँ दे ते है | िजसको

सब वसतुएँ अनुकूल एवं पिवत, सब घटनाएँ लाभकारी, सब िदन िुभ, सब मनुषय दे वता के रप मे िदखते है वही पुरष ततवदिी है | 118)

समता के िवचार से िचत जलदी वि मे होता है , हठ से नहीं |

119)

ऐसे लोगो से समबनध रखो िक िजससे आपकी सहनििि बढ़े , समझ की

ििि बढ़े , जीवन मे आने वाले सुख-दःुख की तरं गो का आपके भीतर िमन करने की ताकत आये, समता बढ़े , जीवन तेजसवी बने | 120)

लोग बोलते है िक धयान व आतमिचनतन के िलए हमे फुरसत नहीं िमलती

| लेिकन भले मनुषय ! जब नींद आती है तब सब महतवपूणय काम भी छोड़कर सो जाना पड़ता है िक नहीं ? जैसे नींद को महतव दे ते हो वैसे ही चौबीस घनटो मे से कुछ समय धयान व आतमिचनतन मे भी िबताओ | तभी जीवन साथक य होगा | अनयथा कुछ भी हाथ नहीं लगेगा | 121)

भूल जाओ िक तुम मनुषय हो, अमुक जाित हो, अमुक उम हो, अमुक

िड़गीवाले हो, अमुक धनधेवाले हो | तुम िनगुण य , िनराकार, साकीरप हो ऐसा दढ़

िनशय करो | इसीमे तमाम पकार की साधनाएँ, िकयाएँ, योगािद समािवि हो जाते है | आप सववययापक अखणि चैतनय हो | सारे जान का यह मूल है | 122)

दोष तभी िदखता जब हमारे लोचन पेम के अभावरप पीिलया रोग से

गसत होते है | 123)

साधक यिद अभयास के मागय पर उसी पकार आगे बढ़ता जाये, िजस

पकार पारमभ मे इस मागय पर चलने के िलए उतसाहपूवक य कदम रखा था, तो

आयुरपी सूयय असत होने से पहले जीवनरपी िदन रहते ही अवशय 'सोऽहम ् िसिद' के सथान तक पहुँच जाये | 124)

लोग जलदी से उननित कयो नहीं करते ? कयोिक बाहर के अिभपाय एवं

िवचारधाराओं का बहुत बड़ा बोझ िहमालय की तरह उनकी पीठ पर लदा हुआ है | 125)

अपने पित होने वाले अनयाय को सहन करते हुए अनयायकताय को यिद

कमा कर िदया जाये तो दे ष पेम मे पिरणत हो जाता है | 126)

साधना की िुरआत शदा से होती है लेिकन समािि जान से होनी चािहये

| जान माने सवयंसिहत सवय बहसवरप है ऐसा अपरोक अनुभव | 127)

अपने िरीर के रोम-रोम मे से ॐ... का उचचारण करो | पहले धीमे सवर

मे पारमभ करो | िुर मे धविन गले से िनकलेगी, िफर छाती से, िफर नािभ से और

अनत मे रीढ़ की हििी के आिखरी छोर से िनकलेगी | तब िवदुत के धकके से सुषुमना नाड़ी तुरनत खुलेगी | सब कीटाणुसिहत तमाम रोग भाग खड़े होगे |

िनभय य ता, िहममत और आननद का फववारा छूटे गा | हर रोज पातःकाल मे सनानािद करके सूयोदय के समय िकसी एक िनयत सथान मे आसन पर पूवाियभमुख बैठकर कम-से-कम आधा घनटा करके तो दे खो | 128)

आप जगत के पभु बनो अनयथा जगत आप पर पभुतव जमा लेगा | जान

के मुतािबक जीवन बनाओ अनयथा जीवन के मुतािबक जान हो जायेगा | िफर युगो की याता से भी दःुखो का अनत नहीं आयेगा | 129)

वासतिवक ििकण का पारं भ तो तभी होता है जब मनुषय सब पकार की

सहायताओं से िवमुख होकर अपने भीतर के अननत सोत की तरफ अगसर होता है | 130)

दशय पपंच की िनविृत के िलए, अनतःकरण को आननद मे सरोबार रखने

के िलए कोई भी कायय करते समय िवचार करो : 'मै कौन हूँ और कायय कौन कर

रहा है ?' भीतर से जवाब िमलेगा : ' मन और िरीर कायय करते है | मै साकीसवरप हूँ |' ऐसा करने से कताप य न का अहं िपघलेगा, सुख-दःुख के आघात मनद होगे | 131)

राग-दे ष की िनविृत का कया उपाय है ? उपाय यही है िक सारे जगत-

पपंच को मनोराजय समझो | िननदा-सतुित से, राग-दष से पपंच मे सतयता दढ़ होती है | 132)

जब कोई खूनी हाथ आपकी गरदन पकड़ ले, कोई िसधारी आपको कतल

करने के िलए ततपर हो जाये तब यिद आप उसके िलए पसननता से तैयार रहे , हदय मे िकसी पकार का भय या िवषाद उतपनन न हो तो समझना िक आपने

राग-दे ष पर िवजय पाि कर िलया है | जब आपकी दिि पड़ते ही िसंहािद िहं सक जीवो की िहं साविृत गायब हो जाय तब समझना िक अब राग-दे ष का अभाव हुआ है | 133)

आतमा के िसवाय अनय कुछ भी नहीं है - ऐसी समझ रखना ही

आतमिनषा है | 134)

आप सवपनदिा है और यह जगत आपका ही सवपन है | बस, िजस कण

यह जान हो जायेगा उसी कण आप मुि हो जाएँगे |

135)

िदन के चौबीसो घणटो को साधनामय बनाने के िलये िनकममा होकर

वयथय िवचार करते हुए मन को बार-बार सावधान करके आतमिचंतन मे लगाओ | संसार मे संलगन मन को वहाााँ से उठा कर आतमा मे लगाते रहो | 136)

एक बार सागर की एक बड़ी तरं ग एक बुलबुले की कुदता पर हँ सने लगी

| बुलबुले ने कहा : " ओ तरं ग ! मै तो छोटा हूँ िफर भी बहुत सुखी हूँ | कुछ ही दे र मे मेरी दे ह टू ट जायेगी, िबखर जायेगी | मैाै जल के साथ जल हो जाऊँगा | वामन

िमटकर िवराट बन जाऊँगा | मेरी मुिि बहुत नजदीक है | मुझे आपकी िसथित पर दया आती है | आप इतनी बड़ी हुई हो | आपका छुटकारा जलदी नहीं होगा | आप भाग-भागकर सामनेवाली चटटान से टकराओगी | अनेक छोटी-छोटी तरं गो मे

िवभि हो जाओगी | उन असंखय तरं गो मे से अननत-अननत बुलबुलो के रप मे

पिरवितत य हो जाओगी | ये सब बुलबुले फूटे गे तब आपका छुटकारा होगा | बड़पपन का गवय कयो करती हो ? " जगत की उपलिबधयो का अिभमान करके परमातमा से

दरू मत जाओ | बुलबुले की तरह सरल रहकर परमातमा के साथ एकता का अनुभव करो | 137)

जब आप ईषयाय, दे ष, िछदानवेषण, दोषारोपण, घृणा और िननदा के िवचार

िकसीके पित भेजते है तब साथ-ही-साथ वैसे ही िवचारो को आमंितत भी करते है | जब आप अपने भाई की आँख मे ितनका भोकते है तब अपनी आँख मे भी आप ताड़ भोक रहे है | 138)

िरीर अनेक है , आत ्मा एक है | वह आतमा-परमातमा मुझसे अलग नहीं |

मै ही कताय, साकी व नयायधीि हूँ | मै ही ककयि आलोचक हूँ और मै ही मधुर

पिंसक हूँ | मेरे िलये पतयेक वयिि सवतंत व सवचछनद है | बनधन, पिरिचछननता

और दोष मेरी दिि मे आते ही नहीं | मै मुि हूँ...परम मुि हूँ और अनय लोग भी सवतंत है | ईशर मै ही हूँ | आप भी वही हो | 139)

िजस पकार बालक अपनी परछाई मे बेताल की कलपना कर भय पाता है ,

उसी पकार जीव अपने ही संकलप से भयभीत होता है और कि पाता है | 140)

कभी-कभी ऐसी भावना करो िक आपके सामने चैतनय का एक महासागर

लहरा रहा है | उसके िकनारे खड़े रह कर आप आनंद से उसे दे ख रहे है | आपका

िरीर सागर की सतह पर घूमने गया है | आपके दे खते ही दे खते वह सागर मे िू ब

गया | इस समसत पिरिसथित को दे खने वाले आप, साकी आतमा िेष रहते है | इस पकार साकी रप मे अपना अनुभव करो | 141)

यिद हम चाहते हो िक भगवान हमारे सब अपराध माफ करे तो इसके

िलए सुगम साधना यही है िक हम भी अपने संबंिधत सब लोगो के सब अपराध

माफ कर दे | कभी िकसी के दोष या अपराध पर दिि न िाले कयोिक वासतव मे सब रपो मे हमारा पयारा ईिदे व ही कीड़ा कर रहा है | 142)

पूणय पिवतता का अथय है बाह पभावो से पभािवत न होना | सांसािरक

मनोहरता एवं घण ृ ा से परे रहना, राजी-नाराजगी से अिवचल, िकसी मे भेद न

दे खना और आतमानुभव के दारा आकषण य ो व तयागो से अिलि रहना | यही वेदानत का, उपिनषदो का रहसय है | 143)

ईशर साकातकार तभी होगा जब संसार की दिि से पतीत होने वाले बड़े -

से-बड़े वैिरयो को भी कमा करने का आपका सवभाव बन जायेगा | 144)

चालू वयवहार मे से एकदम उपराम होकर दो िमनट के िलए िवराम लो |

सोचो िक ‘ मै कौन हूँ ? सदी-गमी िरीर को लगती है | भूख-पयास पाणो को

लगती है | अनुकूलता-पितकूलता मन को लगती है | िुभ-अिुभ एवं पाप-पुणय का िनणय य बुिद करती है | मै न िरीर हूँ, न पाण हूँ, न मन हूँ, न बुिद हूँ | मै तो हूँ इन सबको सता दे ने वाला, इन सबसे नयारा िनलप े आतमा |’ 145)

जो मनुषय िनरं तर ‘मै मुि हूँ…’ ऐसी भावना करता है वह मुि ही है

और ‘मै बद हूँ…’ ऐसी भावना करनेवाला बद ही है | 146)

आप िनभय य है , िनभय य है , िनभय य है | भय ही मतृयु है | भय ही पाप है |

भय ही नकय है | भय ही अधमय है | भय ही वयिभचार है | जगत मे िजतने असत ् या िमथया भाव है वे सब इस भयरपी िैतान से पैदा हुए है | 147)

परिहत के िलए थोड़ा काम करने से भी भीतर की ििियाँ जागत ृ होती है

| दस ू रो के कलयाण के िवचारमात से हदय मे एक िसंह के समान बल आ जाता है |

148)

हम यिद िनभय य होगे तो िेर को भी जीतकर उसे पाल सकेगे | यिद िरे गे

तो कुता भी हमे िाड़ खायेगा | 149)

पतयेक िकया, पतयेक वयवहार, पतयेक पाणी बहसवरप िदखे, यही सहज

समािध है | 150)

जब किठनाईयाँ आये तब ऐसा मानना िक मुझ मे सहन ििि बढ़ाने के

िलए ईशर ने ये संयोग भेजे है | किठन संयोगो मे िहममत रहे गी तो संयोग

बदलने लगेगे | िवषयो मे राग-दे ष रह गया होगा तो वह िवषय कसौटी के रप मे आगे आयेगे और उनसे पार होना पड़े गा | 151)

ततवदिि से न तो आपने जनम िलया, न कभी लेगे | आप तो अनंत है ,

सववययापी है , िनतयमुि, अजर-अमर, अिवनािी है | जनम-मतृयु का पश ही गलत है , महा-मूखत य ापूणय है | जहाँ जनम ही नहीं हुआ वहाँ मतृयु हो ही कैसे सकती है ? 152)

आप ही इस जगत के ईशर हो | आपको कौन दब य बना सकता है ? ु ल

जगत मे आप ही एकमात सता हो | आपको िकसका भय ? खड़े हो जाओ | मुि हो जाओ | ठीक से समझ लो िक जो कोई िवचार या िबद आपको दब य बनाता है , ु ल वही एकमात अिुभ है | मनुषय को दब य व भयभीत करनेवाला जो कुछ इस ु ल संसार मे है , वह पाप है | 153)

आप अपना कायय या कतवयय करो लेिकन न उसके िलए कोई िचनता रहे ,

न ही कोई इचछा | अपने कायय मे सुख का अनुभव करो कयोिक आपका कायय

सवयं सुख या िवशाम है | आपका कायय आतमानुभव का ही दस ू रा नाम है | कायय मे लगे रहो | कायय आपको आतमानुभव कराता है | िकसी अनय हे तु से कायय न करो | सवतंत विृत से अपने कायय पर िटे जाओ | अपने को सवतंत समझो, िकसीके कैदी नहीं | 154)

यिद आप सतय के मागय से नहीं हटते तो ििि का पवाह आपके साथ है ,

समय आपके साथ है , केत आपके साथ है | लोगो को उनके भूतकाल की मिहमा पर फूलने दो, भिवषयकाल की समपूणय मिहमा आपके हाथ मे है |

जब आप िदवय पेम के साथ चाणिाल मे, चोर मे, पापी मे, अभयागत मे

155)

और सबमे पभु के दिन य करे गे तब आप भगवान शी कृ षण के पेमपात बन जायेगे | आचायय गौड़पाद ने सपि कहा : "आप सब आपस मे भले ही लड़ते रहे

156)

लेिकन मेरे साथ नहीं लड़ सकेगे | आप सब लोग मेरे पेट मे है | मै आतमसवरप से सववययाि हूँ |

मनुषय सभी पािणयो मे शष े है , सब दे वताओं से भी शष े है | दे वताओं को

157)

भी िफर से धरती पर आना पड़े गा और मनुषय िरीर पाि करके मुिि पाि करनी होगी | िनिशनतता के दो सूत : जो कायय करना जररी है उसे पूरा कर दो | जो

158)

िबनजररी है उसे भूल जाओ | सेवा-पेम-तयाग ही मनुषय के िवकास का मूल मंत है | अगर यह मंत

159)

आपको जँच जाये तो सभी के पित सदभाव रखो और िरीर से िकसी-न-िकसी

वयिि को िबना िकसी मतलब के सहयोग दे ते रहो | यह नहीं िक "जब मेरी बात मानेगे तब मै सेवा करँगा | अगर पबनधक मेरी बात नहीं मानते तो मै सेवा नहीं करँगा |"

भाई ! तब तो तुम सेवा नहीं कर पाओगे | तब तो तुम अपनी बात मनवा

कर अपने अहं की पूजा ही करोगे | 160)

जैसे सवपन िमथया है वैसे ही यह जागत अवसथा भी सवपनवत ही है ,

िमथया है | हरे क को अपने इस सवपन से जागना है | सदगुर बार-बार जगा रहे है लेिकन जाग कर वापस सो न जाएँ ऐसा पुरषाथय तो हमे ही करना होगा | 161)

सदा पसननमुख रहो | मुख को कभी मिलन मत करो | िनशय कर लो िक

आपके िलये िोक ने इस जगत मे जनम नहीं िलया है | आननदसवरप मे िचनता का सथान ही कहाँ है ? 162)

समग बहाणि एक िरीर है | समग संसार एक िरीर है | जब तक आप

पतयेक के साथ एकता का अनुभव करते रहे गे तब तक सब पिरिसथितयाँ और आस-पास की चीज़े, हवा और समुद की लहरे भी आपके पक मे रहे गी |

163)

आपको जो कुछ िरीर से, बुिद से या आतमा से कमजोर बनाये, उसको

िवष की तरह ततकाल तयाग दो | वह कभी सतय नहीं हो सकता | सतय तो बलपद होता है , पावन होता है , जानसवरप होता है | सतय वह है जो ििि दे | 164) |

साधना मे हमारी अिभरिच होनी चािहये, साधना की तीव माँग होनी चािहये

165)

दस ू रो के दोषो की चचाय मत करो, चाहे वे िकतने भी बड़े हो | िकसी के

दोषो की चचाय करके आप उसका िकसी भी पकार भला नहीं करते बिलक उसे आघात पहुँचाते है और साथ-ही-साथ अपने आपको भी | 166)

इस संसार को सतय समझना ही मौत है | आपका असली सवरप तो

आननदसवरप आतमा है | आतमा के िसवा संसार जैसी कोई चीज ही नहीं है | जैसे सोया हुआ मनुषय सवपन मे अपनी एकता नहीं जानता अिपतु अपने को अनेक

करके दे खता है वैसे ही आननदसवरप आतमा जागत, सवपन और सुषिु ि- इन तीन सवरपो को दे खते हुए अपनी एकता, अिदतीयता का अनुभव नहीं करता | 167)

मनोजय का उपाय है : अभयास और वैरागय | अभयास माने पयतपूवक य

मन को बार-बार परमातम-िचंतन मे लगाना और वैरागय माने मन को संसार के पदाथो की ओर से वापस लौटाना | 168)

िकसी से कुछ मत माँगो | दे ने के िलये लोग आपके पीछे -पीछे घूमेगे |

मान नहीं चाहोगे तो मान िमलेगा | सवगय नहीं चाहोगे तो सवगय के दत ू आपके िलये िवमान लेकर आयेगे | उसको भी सवीकार नहीं करोगे तो ईशर आपको अपने हदय से लगायेगे | 169)

कभी-कभी उदय या असत होते हुए सूयय की ओर चलो | नदी, सरोवर या

समुद के तट पर अकेले घूमने जाओ | ऐसे सथानो की मुलाकात लो जहाँ िीतल

पवन मनद-मनद चल रही हो | वहाँ परमातमा के साथ एकसवर होने की समभावना के दार खुलते है | 170)

आप जयो-ही इचछा से ऊपर उठे ते हो, तयो-ही आपका इिचछत पदाथय

आपको खोजने लगता है | अतः पदाथय से ऊपर उठो | यही िनयम है | जयो-जयो

आप इचछुक, िभकुक, याचक का भाव धारण करते हो, तयो-तयो आप ठु कराये जाते हो | 171)

पकृ ित के पतयेक पदाथय को दे खने के िलये पकाि जररी है | इसी पकार

मन, बुिद, इिनदयो को अपने-अपने कायय करने के िलये आतम-पकाि की

आवशयकता है कयोिक बाहर का कोई पकाि मन, बुिद, इिनदय, पाणािद को चेतन करने मे समथय नहीं | 172)

जैसे सवपनदिा पुरष को जागने के बाद सवपन के सुख-दःुख, जनम-मरण,

पाप-पुणय, धमय-अधमय आिद सपिय नहीं करते कयोिक वह सब खुद ही है | खुद के िसवाय सवपन मे दस ू रा कुछ था ही नहीं | वैसे ही जीवनमुि जानवान पुरष को सुख-दःुख, जनम-मरण, पाप-पुणय, धमय-अधमय सपिय नहीं करते कयोिक वे सब आतमसवरप ही है | 173)

वही भूमा नामक आतमजयोित कुतो मे रह कर भौक रही है , सुअर मे रह

कर घूर रही है , गधो मे रह कर रे क रही है लेिकन मूखय लोग िरीरो पर ही दिि रखते है , चैतनय ततव पर नहीं | 174)

मनुषय िजस कण भूत-भिवषय की िचनता का तयाग कर दे ता है , दे ह को

सीिमत और उतपित-िवनाििील जानकर दे हािभमान को तयाग दे ता है , उसी कण वह एक उचचतर अवसथा मे पहुँच जाता है | िपंजरे से छूटकर गगनिवहार करते हुए पकी की तरह मुिि का अनुभव करता है | 175)

समसत भय एवं िचनताएँ आपकी इचछाओं का पणाम है | आपको भय

कयो लगता है ? कयोिक आपको आिंका रहती है िक अमुक चीज कहीं चली न

जाये | लोगो के हासय से आप िरते है कयोिक आपको यि की अिभलाषा है , कीितय मे आसिि है | इचछाओं को ितलांजिल दे दो | िफर दे खो मजा ! कोई िजममेदारी नहीं...कोई भय नहीं | 176)

दे खने मे अतयंत कुरप, काला-कलूटा, कुबड़ा और तेज सवभाव का मनुषय

भी आपका ही सवरप है | आप इस तथय से मुि नहीं | िफर घण ृ ा कैसी ? कोई

लावणयमयी सुंदरी, सृिि की िोभा के समान, अित िवलासभरी अपसरा भी आपका ही सवरप है | िफर आसिि िकसकी ? आपकी जानेिनदयाँ उनको आपसे अलग

करके िदखाती है | ये इिनदयाँ झूठ बोलनेवाली है | उनका कभी िवशास मत करो | अतः सब कुछ आप ही हो | 177)

मानव के नाते हम साधक है | साधक होने के नाते सतय को सवीकर

करना हमारा सवधमय है | सतय यही है िक बल दस ू रो के िलये है , जान अपने िलये है और िवशास परमातमा से समबनध जोड़ने के िलये है | 178)

अपनी आतमा मे िू ब जाना यह सबसे बड़ा परोपकार है |

179)

आप सदै व मुि है , ऐसा िवशास दढ़ करो तो आप िवश के उदारक हो

जाते हो | आप यिद वेदानत के सवर के साथ सवर िमलाकर िनशय करो : 'आप कभी िरीर न थे | आप िनतय, िुद, बुद आतमा हो...' तो अिखल बहाणि के मोकदाता हो जाते हो | 180)

कृ पा करके उन सवाथम य य उपायो और अिभपायो को दरू फेक दो जो

आपको पिरिचछनन रखते है | सब वासनाएँ राग है | वयििगत या िरीरगत पेम

आसिि है | उसे फेक दो | सवयं पिवत हो जाओ | आपका िरीर सवसथ और बुिद पूणस य वरप हो जायेगी | 181)

यिद संसार के सुख व पदाथय पाि हो तो आपको कहना चािहये : 'ओ

िैतान हट जा मेरे सामने से | तेरे हाथ से मुझे कुछ नहीं चािहये |' तब दे खो िक आप कैसे सुखी हो जाते हो ! परमातमा-पाि िकसी महापुरष पर िवशास रखकर अपनी जीवनिोरी िनःिंक बन उनके चरणो मे सदा के िलये रख दो | िनभय य ता आपके चरणो की दासी बन जायेगी | 182)

िजसने एक बार ठीक से जान िलया िक जगत िमथया है और भािनत से

इसकी पतीित हो रही है , उसको कभी दःुख नहीं होता | जगत मे कभी आसिि नहीं होती | जगत के िमथयातव के िनशय का नाम ही जगत का नाि है | 183)

अपने सवरप मे लीन होने मात से आप संसार के समाट बन जायेगे | यह

समाटपद केवल इस संसार का ही नहीं, समसत लोक-परलोक का समाटपद होगा |

184)

'हे जनक! चाहे दे वािधदे व महादे व आकर आपको उपदे ि दे या भगवान

िवषणु आकर उपदे ि दे अथवा बहाजी आकर उपदे ि दे लेिकन आपको कदािप सुख न होगा | जब िवषयो का तयाग करोगे तभी सचची िांित व आनंद पाि होगे |' 185)

िजस पभु ने हमे मानव जीवन दे कर सवाधीनता दी िक हम जब चाहे तब

धमातयमा होकर, भि होकर, जीवनमुि होकर, कृ तकृ तय हो सकते है - उस पभु की

मिहमा गाओ | गाओ नहीं, तो सुनो | सुनो भी नहीं, गाओ भी नहीं तो सवीकार कर लो | 186)

चाहे समुद के गहरे तल मे जाना पड़े , साकात मतृयु का मुकाबला करना

पड़े , अपने आतमपािि के उदे शय की पूितय के िलये अििग रहो | उठो, साहसी बनो, िििमान बनो | आपको जो बल व सहायता चािहये वह आपके भीतर ही है | 187)

जब-जब जीवन समबनधी िोक और िचनता घेरने लगे तब-तब अपने

आननदसवरप का गान करते-करते उस मोह-माया को भगा दो | 188)

जब िरीर मे कोई पीड़ा या अंग मे जखम हो तब 'मै आकािवत ्

आकािरिहत चेतन हूँ...' ऐसा दढ़ िनशय करके पीड़ा को भूल जाओ | 189)

जब दिुनया के िकसी चककर मे फँस जाओ तब 'मै िनलप े िनतय मुि

हूँ...' ऐसा दढ़ िनशय करके उस चककर से िनकल जाओ | 190)

जब घर-बार समबनधी कोई किठन समसया वयाकुल करे तब उसे मदारी

का खेल समझकर, सवयं को िनःसंग जानकर उस बोझ को हलका कर दो | 191)

जब कोध के आवेि मे आकर कोई अपमानयुि वचन कहे तब अपने

िांितमय सवरप मे िसथर होकर मन मे िकसी भी कोभ को पैदा न होने दो | 192)

उतम अिधकारी िजजासु को चािहये िक वह बहवेता सदगुर के पास

जाकर शदा पूवक य महावाकय सुने | उसका मनन व िनिदधयासन करके अपने

आतमसवरप को जाने | जब आतमसवरप का साकातकार होता है तब ही परम िवशािनत िमल सकती है , अनयथा नहीं | जब तक बहवेता महापुरष से महावाकय

पाि न हो तब तक वह मनद अिधकारी है | वह अपने हदयकमल मे परमातमा का

धयान करे , समरण करे , जप करे | इस धयान-जपािद के पसाद से उसे बहवेता सदगुर पाि होगे | 193)

मन, बुिद, िचत, अहं कार छाया की तरह जड़ है , कणभंगुर है कयोिक वे

उतपनन होते है और लीन भी हो जाते है | िजस चैतनय की छाया उसमे पड़ती है

वह परम चैतनय सबका आतमा है | मन, बुिद, िचत, अहं कार का अभाव हो जाता है लेिकन उसका अनुभव करनेवाले का अभाव कदािप नहीं होता | 194)

आप अपनी ििि को उचचाितउचच िवषयो की ओर बहने दो | इससे

आपके पास वे बाते सोचने का समय ही नहीं िमलेगा िजससे कामुकता की गंध आती हो | 195)

अपराधो के अनेक नाम है : बालहतया, नरहतया, मातह ृ तया, गौहतया

इतयािद | परनतु पतयेक पाणी मे ईशर का अनुभव न करके आप ईशरहतया का सबसे बड़ा अपराध करते है | 196)

सेवा करने की सवाधीनता मनुषयमात को पाि है | अगर वह करना ही न

चाहे तो अलग बात है | सेवा का अथय है : मन-वाणी-कमय से बुराईरिहत हो जाना

यह िवश की सेवा हो गई | यथाििि भलाई कर दो यह समाज की सेवा हो गई | भलाई का फल छोड़ दो यह अपनी सेवा हो गई | पभु को अपना मानकर समिृत और पेम जगा लो यह पभु की सेवा हो गई | इस पकार मनुषय अपनी सेवा भी

कर सकता है , समाज की सेवा भी कर सकता है , िवश की सेवा भी कर सकता है और िवशेशर की सेवा भी कर सकता है | 197)

आतमा से बाहर मत भटको, अपने केनद मे िसथर रहो, अनयथा िगर पड़ोगे

| अपने-आपमे पूणय िवशास रखो | आतम-केनद पर अचल रहो | िफर कोई भी चीज आपको िवचिलत नहीं कर सकती | 198)

सदा िांत, िनिवक य ार और सम रहो | जगत को खेलमात समझो | जगत से

पभािवत मत हो | इससे आप हमेिा सुखी रहोगे | िफर कुछ बढ़ाने की इचछा नहीं होगी और कुछ कम होने से दःुख नहीं होगा | 199)

समथय सदगुर के समक सदा फूल के भाँित िखले हुए रहो | इससे उनके

अनदर संकलप होगा िक, 'यह तो बहुत उतसाही साधक है , सदा पसनन रहता है |'

उनके सामथयव य ान ् संकलप से आपकी वह कृ ितम पसननता भी वासतिवक पसननता मे बदल जायेगी | 200)

यिद रोग को भी ईशर का िदया मानो तो पारबध-भोग भी हो जाता है

और कि तप का फल दे ता है | इससे ईशर-कृ पा की पािि होती है | वयाकुल मत हो | 'कैपसूल' और 'इनजेकिन' आधीन मत हो | 201)

साधक को चािहये िक अपने लकय को दिि मे रखकर साधना-पथ पर

तीर की तरह सीधा चला जाये | न इधर दे खे न उधर | दिि यिद इधर-उधर जाती हो तो समझना िक िनषा िसथर नहीं है | 202)

आपने अपने जीवन मे हजारो सवपन दे खे होगे लेिकन वे आपके जीवन के

अंि नहीं बन जाते | इसी पकार ये जागत जगत के आिमबर आपकी आतमा के समक कोई महतव नहीं रखते | 203)

एक आतमा को ही जानो, अनय बातो को छोड़ो | धीर साधक को चािहये

िक वह सावधान होकर आतमिनषा बढ़ाये, अनेक िबदो का िचनतन व भाषण न

करे कयोिक वह तो केवल मन-वाणी को पिरशम दे नेवाला है , असली साधना नहीं है | 204)

जो पुरष जन-समूह से ऐसे िरे जैसे साँप से िरता है , सममान से ऐसे िरे

जैसे नकय से िरता है , िसयो से ऐसे िरे जैसे मुदे से िरता है , उस पुरष को दे वतागण बाहण मानते है | 205)

जैसे अपने िरीर के अंगो पर कोध नहीं आता वैसे ितु, िमत व अपनी दे ह

मे एक ही आतमा को दे खनेवाले िववेकी पुरष को कदािप कोध नहीं आता | 206)

'मैने तो िरीर को ईशरापण य कर िदया है | अब उसकी भूख-पयास से मुझे

कया? समिपत य वसतु मे आसि होना महा पाप है |' 207)

आप यिद िदवय दिि पाना चहते हो तो आपको इिनदयो के केत का तयाग

करना होगा |

208)

पलयकाल के मेघ की गजन य ा हो, समुद उमड़ पिे , बारहो सूयय तपायमान

हो जाये, पहाड़ से पहाड़ टकरा कर भयानक आवाज हो तो भी जानी के िनशय मे दै त नहीं भासता कयोिक दै त है ही नहीं | दै त तो अजानी को भासता है | 209)

सतय को सवीकार करने से िांित िमलेगी | कुछ लोग योगयता के आधार

पर िांित खरीदना चाहते है | योगयता से िांित नहीं िमलेगी, योगयता के सदप ु योग

से िांित िमलेगी | कुछ लोग समपित के आधार पर िांित सुरिकत रखना चाहते है | समपित से िांित नहीं िमलेगी, समपित के सदप ु योग से िांित िमलेगी, वैसे ही िवपित के सदप ु योग से िांित िमलेगी | 210)

तुचछ हािन-लाभ पर आपका धयान इतना कयो रहता है िजससे अनंत

आननदसवरप आतमा पर से धयान हट जाता है | 211)

अपने अनदर ही आननद पाि करना यदिप किठन है परनतु बाह िवषयो

से आननद पाि करना तो असमभव ही है | 212)

'मै संसार का पकाि हूँ | पकाि के रप मे मै ही सब वसतुओं मे वयाि हूँ

|' िनतय इन िवचारो का िचनतन करते रहो | ये पिवत िवचार आपको परम पिवत बना दे गे | 213)

जो वसतु कमय से पाि होती है उसके िलये संसार की सहायता तथा

भिवषय की आिा की आवशयकता होती है परनतु जो वसतु तयाग से पाि होती है , उसके िलये न संसार की सहायता चािहये, न भिवषय की आिा | 214)

आपको जब तक बाहर चोर िदखता है तब तक जरर भीतर चोर है | जब

दस ू रे लोग बह से िभनन, अयोगय, खराब, सुधारने योगय िदखते है तब तक ओ सुधार का बीड़ा उठाने वाले ! तू अपनी िचिकतसा कर | 215)

सफल वे ही होते है जो सदै व नतमसतक एवं पसननमुख रहते है |

िचनतातुर-िोकातुर लोगो की उननित नहीं हो सकती | पतयेक कायय को िहममत व िांित से करो | िफर दे खो िक : 'यह कायय िरीर मन और बुिद से हुआ | मै उन सबको सता दे नेवाला चैतनयसवरप हूँ |' ॐ... ॐ... का पावन गान करो |

216)

िकसी भी पिरिसथित मे मन को वयिथत न होने दो | आतमा पर िवशास

करके आतमिनष बन जाओ | िनभय य ता आपकी दासी बन कर रहे गी | 217)

सतसंग से मनुषय को साधना पाि होती है , चाहे वह िांित के रप मे हो,

चाहे मुिि के रप मे, चाहे सेवा के रप मे हो, पेम के रप मे हो, चाहे तयाग के रप मे हो | 218)

भला-बुरा वही दे खता है िजसके अनदर भला-बुरा है | दस ू रो के िरीरो को

वही दे खता है जो खुद को िरीर मानता है | 219)

खबरदार ! आपने यिद अपने िरीर के िलये ऐि-आराम की इचछा की,

िवलािसता एवं इिनदय-सुख मे अपना समय बरबाद िकया तो आपकी खैर नहीं | ठीक से कायय करते रहने की नीित अपनाओ | सफलता का पहला िसदांत है

कायय...िवशामरिहत कायय...साकी भाव से कायय | इस िसदांत को जीवन मे चिरताथय करोगे तो पता चलेगा िक छोटा होना िजतना सरल है उतना ही बड़ा होना भी सहज है | 220)

भूतकाल पर िखनन हुए िबना, भिवषय की िचनता िकये िबना वतम य ान मे

कायय करो | यह भाव आपको हर अवसथा मे पसनन रखेगा हमे जो कुछ पाि है उसका सदप ु योग ही अिधक पकाि पाने का साधन है | 221)

जब आप सफलता की ओर पीठ कर लेते हो, पिरणाम की िचनता का

तयाग कर दे ते हो, सममुख आये हुए कतवयय पर अपनी उदोगििि एकाग करते हो तब सफलता आपके पीछे -पीछे आ जाती है | अतः सफलता आपको खोजेगी | 222)

विृत तब तक एकाग नहीं होगी जब तक मन मे कभी एक आिा रहे गी

तो कभी दस ू री | िांत वही हो सकता है िजसे कोई कतवयय या आवशयकता घसीट न रही हो | अतः परम िांित पाने के िलये जीवन की आिा भी तयाग कर मन

बहाननद मे िु बो दो | आज से समझ लो िक यह िरीर है ही नहीं | केवल बहाननद का सागर लहरा रहा है | 223)

िजसकी पककी िनषा है िक 'मै आतमा हूँ...’ उसकाे िलये ऐसी कौन सी

गंिथ है जो खुल न सके? ऐसी कोई ताकत नहीं जो उसके िवरद जा सके |

224)

'मेरे भागय मे नहीं था...ईशर की मजी...आजकल सतसंग पाि नहीं

होता...जगत खराब है ...' ऐसे वचन हमारी कायरता व अनतःकरण की मिलनता के

कारण िनकलते है | अतः नकारातमक सवभाव और दस ू रो पर दोषारोपण करने की विृत से बचो | 225)

आप जब भीतरवाले से नाराज होते हो तब जगत आपसे नाराज रहता है

| जब आप भीतर अनतयाम य ी बन बैठे तो जगतरपी पुतलीघर मे िफर गड़बड़ कैसी ? 226)

िजस कण हम संसार के सुधारक बन खड़े होते है उसी कण हम संसार

को िबगाड़नेवाले बन जाते है | िुद परमातमा को दे खने के बजाय जगत को

िबगड़ा हुआ दे खने की दिि बनती है | सुधारक लोग मानते है िक : ‘भगवान ने जो जगत बनाया है वह िबगड़ा हुआ है और हम उसे सुधार रहे है |’ वाह ! वाह !

धनयवाद सुधारको ! अपने िदल को सुधारो पहले | सवत य िनरं जन का दीदार करो | तब आपकी उपिसथित मात से, आपकी दिि मात से, अरे पयारे ! आपको छूकर बहती हवा मात से अननत जीवो को िांित िमलेगी और अननत सुधार होगा | नानक, कबीर, महावीर, बुद और लीलािाह बापू जैसे महापुरषो ने यही कुंजी अपनायी थी | 227)

वेदानत मे हमेिा कमय का अथय होता है वासतिवक आतमा के साथ एक

होकर चेिा करना, अिखल िवश के साथ एकसवर हो जाना | उस अिदतीय परम

ततव के साथ िनःसवाथय संयोग पाि करना ही एकमात सचचा कमय है , बाकी सब बोझ की गठिरयाँ उठाना है | 228)

अपनी वतम य ान अवसथा चाहे कैसी भी हो, उसको सवोचच मानने से ही

आपके हदय मे आतमजान, बहजान का अनायास उदय होने लगेगा | आतम-

साकातकार को मीलो दरू की कोई चीज समझकर उसके पीछे दौड़ना नहीं है ,

िचिनतत होना नहीं है | िचनता की गठरी उठाकर वयिथत होने की जररत नहीं है | िजस कण आप िनिशनतता मे गोता मारोगे, उसी कण आपका आतमसवरप पगट हो जायेगा | अरे ! पगट कया होगा, आप सवयं आतमसवरप हो ही | अनातमा को छोड़ दो तो आतमसवरप तो हो ही |

229)

सदा ॐकार का गान करो | जब भय व िचनता के िवचार आये तब िकसी

मसत संत-फकीर, महातमा के सािननधय का समरण करो | जब िननदा-पिंसा के पसंग आये तब महापुरषो के जीवन का अवलोकन करो | 230)

िजनको आप भयानक घटनाएँ एवं भयंकर आघात समझ बैठे हो, वासतव

मे वे आपके िपयतम आतमदे व की ही करतूत है | समसत भयजनक तथा

पाणनािक घटनाओं के नाम-रप तो िवष के है लेिकन वे बनी है अमत ृ से | 231)

मन मे यिद भय न हो तो बाहर चाहे कैसी भी भय की सामगी उपिसथत

हो जाये, आपका कुछ िबगाड़ नहीं सकती | मन मे यिद भय होगा तो तुरनत बाहर भी भयजनक पिरिसथयाँ न होते हुए भी उपिसथत हो जायेगी | वक ृ के तने मे भी भूत िदखने लगेगा | 232)

िकसी भी पिरिसथित मे िदखती हुई कठोरता व भयानकता से भयभीत

नहीं होना चािहए | किो के काले बादलो के पीछे पूणय पकािमय एकरस परम सता सूयय की तरह सदा िवदमान है | 233)

आप अपने पर कदािप अिवशास मत करो | इस जगत मे आप सब कुछ

कर सकते हो | अपने को कभी दब य मत मानो | आपके अनदर तमाम ििियाँ ु ल छुपी हुई है |

234)

यिद कोई मनुषय आपकी कोई चीज़ को चुरा लेता है तो ड़रते कयो हो ?

वह मनुषय और आप एक है | िजस चीज़ को वह चुराता है वह चीज़ आपकी और उसकी दोनो की है | 235)

जो खुद के िसवाय दस ू रा कुछ दे खता नहीं, सुनता नहीं, जानता नहीं, वह

अननत है | जब तक खुद के िसवाय और िकसी वसतु का भान होता है , वह वसतु सचची लगती है तब तक आप सीिमत व िांत है , असीम और अनंत नहीं | 236)

संसार मुझे कया आनंद दे सकता है ? समपूणय आनंद मेरे भीतर से आया

है | मै ही समपूणय आननद हूँ ... समपूणय मिहमा एवं समपूणय सुख हूँ |

237)

जीवन की समसत आवशयकताएँ जीवन मे उपिसथत है परनतु जीवन को

जब हम बाह रं गो मे रं ग दे ते है तब जीवन का वासतिवक रप हम नहीं जान पाते | 238)

िननदको की िनन ्दा से मै कयो मुरझाऊँ ? पिंसको की पिंसा से मै कयो

फूलूँ ? िननदा से मै घटता नहीं और पिंसा से मै बढ़ता नहीं | जैसा हूँ वैसा ही रहता हूँ | िफर िननदा-सतुित से खटक कैसी ? 239)

संसार व संसार की समसयाओं मे जो सबसे अिधक फँसे हुए है उनहीाी

को वेदानत की सबसे अिधक आवशयकता है | बीमार को ही औषिध की जयादा आवशयकता है | कयो जी, ठीक है न ? 240)

जगत के पाप व अतयाचार की बात मत करो लेिकन अब भी आपको

जगत मे पाप िदखता है इसिलये रोओ | 241)

हम यिद जान ले िक जगत मे आतमा के िसवाय दस ू रा कुछ है ही नहीं

और जो कुछ िदखता है वह सवपनमात है , तो इस जगत के दःुख-दािरदय, पापपुणय कुछ भी हमे अिांत नहीं कर सकते | 242)

िवदानो, दािियनको व आचायो की धमकी तथा अनुगह, आलोचना या

अनुमित बहजानी पर कोई पभाव नहीं ड़ाल सकती | 243)

हे वयििरप अननत ! आप अपने पैरो पर खड़े रहने का साहस करो,

समसत िवश का बोझ आप िखलौने की तरह उठा लोगे | 244)

िसंह की गजन य ा व नरिसंह की ललकार, तलवार की धार व साँप की

फुफकार, तपसवी की धमकी व नयायधीि की फटकार...इन सबमे आपका ही पकाि चमक रहा है | आप इनसे भयभीत कयो होते हो ? उलझन कयो महसूस करते हो ? 'मेरी िबलली मुझको मयाऊँ' वाली बात कयो होने दे ते हो? 245)

संसार हमारा िसिय िखलोना ही है और कुछ नहीं | अबोध बालक ही

िखलौनो से भयभीत होता है , आसिि करता है , िवचारिील वयिि नहीं | 246)

जब तक अिवदा दरू नहीं होगी तब तक चोरी, जुआ, दार, वयिभचार, कभी

बंद न होगे, चाहे लाख कोििि करो |

247)

आप हमेिा अंदर का धयान रखो | पहले हमारा भीतरी पतन होता है |

बाह पतन तो इसका पिरणाम मात है | 248)

तयाग से हमेिा आनंद िमलता है | जब तक आपके पास एक भी चीज़

बाकी है तब तक आप उस चीज़ के बंधन मे बंधे रहोगे | आघात व पतयाघात हमेिा समान िवरोधी होते है | 249)

िनिशंतता ही आरोगयता की सबसे बड़ी दवाई है |

250)

सुख अपने िसर पर दख ु का मुकुट पहन कर आता है | जो सुख को

अपनायेगा उसे दख ु को भी सवीकार करना पड़े गा | 251)

मै (आतमा) सबका दिा हूँ | मेरा दिा कोई नहीं |

252)

हजारो मे से कोई एक पुरष भीतर से िांत िचतवाला रहकर बाहर से

संसारी जैसा वयवहार कर सकता है | 253)

सतय के िलए यिद िरीर का तयाग करना पड़े तो कर दे ना | यही आिखरी

ममता है जो हमे तोड़नी होगी | 254)

भय, िचनता, बेचैनी से ऊपर उठो | आपको जान का अनुभव होगा |

255)

आपको कोई भी हािन नहीं पहुँचा सकता | केवल आपके खयालात ही

आपके पीछे पड़े है | 256)

पेम का अथय है अपने पड़ोसी तथा संपकय मे आनेवालो के साथ अपनी

वासतिवक अभेदता का अनुभव करना | 257)

ओ पयारे ! अपने खोये हुए आतमा को एक बार खोज लो | धरती व

आसमान के िासक आप ही हो | 258)

सदै व सम और पसनन रहना ईशर की सवोपिर भिि है |

259)

जब तक िचत मे दढ़ता न आ जाये िक िास की िविधयो का पालन

छोड़ दे ने से भी हदय का यथाथय भििभाव नि नहीं होगा, तब तक िास की िविधयो को पालते रहो |

*

गुर भिि एक अमोघ साधना 1. जनम मरण के िवषचक से मुि होने का कोई मागय नहीं है कया ? सुख-दःुख, हषय-िोक, लाभ-हािन मान-अपमान की थपपड़ो से बचने का कोई उपाय नहीं है कया ?

है ...अवशय है | हे िपये आतमन ! नािवान पदाथो से अपना मन वािपस लाकर

सदगुर के चरणकमलो मे लगाओ | गुरभिियोग का आशय लो | गुरसेवा ऐसा अमोघ साधन है िजससे वतम य ान जीवन आननदमय बनता है और िाशत सुख के दार खुलते है |

गुर सेव त त े नर ध नय यहा ँ |

ितनकुं नह ीं द ु ःख यह ाँ न व हाँ || 2. सचचे सदगुर की की हुई भिि ििषय मे सांसािरक पदाथो के वैरागय एवं अनासिि जगाती है , परमातमा के पित पेम के पुषप महकाती है |

3. पतयेक ििषय सदगुर की सेवा करना चाहता है लेिकन अपने ढं ग से | सदगुर चाहे उस ढं ग से सेवा करने को कोई ततपर नहीं |

जो िवरला साधक, गुर चाहे उस ढ़ं ग से सेवा कर सकता है , उसे कोई कमी नहीं

रहती | बहिनष सदगुर की सेवा से उनकी कृ पा पाि होती है और उस कृ पा से न िमल सके ऐसा तीनो लोको मे कुछ भी नहीं है |

4. गुर ििषय का समबनध पिवततम समबनध है | संसार के तमाम बनधनो से छुड़ाकर वह मुिि के मागय पर पसथान कराता है | यह समबनध जीवनपयन य त का समबनध है | यह बात अपने हदय की िायरी मे सुवणय-अकरो से िलख लो |

5. उललू सुयय के पकाि के अिसततव को माने या न माने िफर भी सूयय हमेिा पकािता

है | चंचल मन का मनुषय माने या न माने लेिकन सदगुर की परमकलयाणकारी कृ पा सदै व बरसती ही रहती है |

6. सदगुर की चरणरज मे सनान िकये िबना केवल किठन तपशयाय करने से या वेदो का अधयन करने से वेदानत का रहसय पकट नहीं होता, आतमानंद का अमत ृ नहीं िमलता | 7. दिन य िास के चाहे िकतने गनथ पढ़ो, हजारो वषो तक िहमालय की गुफा मे तप करो, वषो तक पाणायाम करो, जीवनपयन य त िीषास य न करो, समग िवश मे पवास करके वयाखान दो िफर भी सदगुर की कृ पा के िबना आतमजान नहीं होता | अतः

िनरािभमानी, सरल, िनजाननद मे मसत, दयालु सवभाव के आतम-साकातकारी सदगुर के चरणो मे जाओ | जीवन को धनय बनाओ |

8. सदगुर की सेवा िकये िबना िासो का अधयन करना मुमुकु साधक के िलये समय बरबाद करने के बराबर है |

9. िजसको सदगुर पाि हुए है ऐसे ििषय के िलये इस िवश मे कुछ भी अपापय नहीं है | सदगुर ििषय को िमली हुई परमातमा की अमूलय भेट है | अरे नहीं…नहीं वे तो ििषय के समक साकार रप मे पकट हुए परमातमा सवयं है |

10. सदगुर के साथ एक कण िकया हुआ सतसंग लाखो वषो के तप से अननत गुना शष े है | आँख के िनमेषमात मे सदगुर की अमत ृ वषी दिि ििषय के जनम-जनम के पापो को जला सकती है |

11. सदगुर जैसा पेमपूणय, कृ पालु, िहतिचनतक, िवशभर मे दस ू रा कोई नहीं है | 12. बाढ़ के समय याती यिद तूफानी नदी को िबना नाव के पार कर सके तो साधक भी िबना सदगुर के अपने जीवन के आिखरी लकय को िसद कर सकता है | यानी ये दोनो बाते समभव है |

अतः पयारे साधक ! मनमुखी साधना की िजद करना छोड़ दो | गुरमुखी साधना

करने मे ही सार है |

13. सदगुर के चरणकमलो का आशय लेने से िजस आननद का अनुभव होता है उसके आगे ितलोकी का सामाजय तुचछ है |

14. आतम-साकातकार के मागय मे सबसे महान ितु अहं भाव का नाि करने के िलए सदगुर की आजा का पालन अमोघ िस है |

15. रसोई सीखने के िलये कोई िसखानेवाला चािहये, िवजान और गिणत सीखने के िलये अधयापक चािहये तो कया बहिवदा सदगुर के िबना ही सीख लोगे ? 16. सदगुरकृ पा की समपित जैसा दस ू रा कोई खजाना िवशभर मे नहीं | 17. सदगुर की आजा का उललंघन करना यह अपनी कब खोदने के बराबर है | 18. सदगुर के कायय को िंका की दिि से दे खना महापातक है | 19. गुरभिि व गुरसेवा - ये साधनारपी नौका की दो पतवारे है | उनकी मदद से ििषय संसारसागर को पार कर सकता है |

20. सदगुर की कसौटी करना असंभव है | एक िववेकाननद ही दस ू रे िववेकाननद को

पहचाने सकते है | बुद को जानने के िलये दस ू रे बुद की आवशयकता रहती है | एक रामतीथय का रहसय दस ू रे रामतीथय ही पा सकते है | अतः

सदगुर की कसौटी करने की चेिा छोड़कर उनको पिरपूणय परबह परमातमा

मानो | तभी जीवन मे वासतिवक लाभ होगा | 21. गुरभिियोग का आशय लेकर आप अपनी खोई हुई िदवयता को पुनः पाि करो, सुखदःुख, जनम-मतृयु आिद सब दनदो से पार हो जाओ |

22. गुरभिियोग माने गुर की सेवा के दारा मन और िवकारो पर िनयंतण एवं पुनः संसकरण | 23. ििषय अपने गुर के चरणकमल मे पणाम करता है | उन पर शष े फूलो की वषाय करके उनकी सतुित करता है : “हे परम पूजय पिवत गुरदे व! मुझे सवोचच सुख पाि हुआ है | मै बहिनषा से

जनम-मतृयु की परमपरा से मुि हुआ हूँ | मै िनिवक य लप समािध का िुद सुख भोग रहा हूँ | जगत के िकसी भी कोने मे मै मुिता से िवचरण कर सकता हूँ | सब पर मेरी समदिि है |

मैने पाकृ त मन का तयाग िकया है | मैने सब संकलपो एवं रिच-अरिच का तयाग िकया है | अब मै अखणि िांित मे िवशांित पा रहा हूँ … आननदमय हो रहा हूँ | मै इस पूणय अवसथा का वणन य नहीं कर पाता |

हे पूजय गुरदे व ! मै आवाक बन गया हूँ | इस दस ु तर भवसागर को पार करने मे

आपने मुझे सहायता की है | अब तक मुझे केवल अपने िरीर मे ही समपूणय िवशास

था | मैने िविभनन योिनयो मे असंखय जनम िलये | ऐसी सवोचच िनभय य अवसथा मुझे कौन से पिवत कमो के कारण पाि हुई है , यह मै नहीं जानता | सचमुच यह एक दल य भागय है | यह एक महान उतकृ ि लाभ है | ु भ

अब मै आननद से नाचता हूँ | मेरे सब दःुख नि हो गये | मेरे सब मनोरथ पूणय

हुए है | मेरे कायय समपनन हुए है | मैने सब वांिछत वसतुएँ पाि की है | मेरी इचछा पिरपूणय हुई है |

आप मेरे सचचे माता-िपता हो | मेरी वतम य ान िसथित मे मै दस ू रो के समक िकस

पकार पकट कर सकूँ ? सवत य सुख और आननद का अननत सागर मुझे लहराता हुआ िदख रहा है |

मेरे अंतःचकु िजससे खुल गये वह महावाकय ‘ततवम िस ’ है | उपिनषदो एवं

वेदानतसूतो को भी धनयवाद | िजनहोने बहिनष गुर का एवं उपिनषदो के महावाकयो का रप धारण िकया है | ऐसे शी वयासजी को पणाम ! शी िंकराचायय को पणाम ! सांसािरक मनुषय के िसर पर गुर के चरणामत ृ का एक िबनद ु भी िगरे तो भी

उसके सब दःुखो का नाि होता है | यिद एक बहिनष पुरष को वस पहनाये जाये तो सारे िवश को वस पहनाने एवं भोजन करवाने के बराबर है कयोिक बहिनष पुरष सचराचर िवश मे वयाि है | सबमे वे ही है |” ॐ… ॐ … ॐ …

सवामी ििवानंद जी *

शी राम-वििष संवाद शी वििष जी कहते है : “हे रघुकुलभूषण शी राम! अनथय सवरप िजतने सांसािरक पदाथय है वे सब जल मे

तरं ग के समान िविवध रप धारण करके चमतकार उतपनन करते है अथात य ईचछाएँ

उतपनन करके जीव को मोह मे फँसाते है | परं तु जैसे सभी तरं गे जल सवरप ही है उसी पकार सभी पदाथय वसतुतः नशर सवभाव वाले है | बालक की कलपना से आकाि मे यक और िपिाच िदखने लगते है परनतु बुिदमान मनुषय के िलए उन यको और िपिाचो का कोई अथय नहीं | इसी पकार अजानी के िचत मे यह जगत सतय हो ऐसा लगता है जबिक हमारे जैसे जािनयो के िलये यह जगत कुछ भी नहीं | यह समग िवश पतथर पर बनी हुई पुतिलयो की सेना की तरह रपालोक तथा अंतर-

बाह िवषयो से िूनय है | इसमे सतयता कैसी ? परनतु अजािनयो को यह िवश सतय लगता है |”

वििष जी बोले : “शी राम ! जगत को सतय सवरप मे जानना यह भांित है , मूढ़ता है

| उसे िमथया अथात य किलपत समझना यही उिचत समझ है |

हे राघव ! तवता, अहं ता आिद सब िवभम-िवलास िांत, ििवसवरप, िुद बहसवरप ही है

| इसिलये मुझे तो बह के अितिरि और कुछ भी नहीं िदखता | आकाि मे जैसे जंगल नहीं वैसे ही बह मे जगत नहीं है | हे राम ! पारबध वि पाि कमो से िजस पुरष की चेिा कठपुतली की तरह

ईचछािूनय और वयाकुलतारिहत होती है वह िानत मनवाला पुरष जीवनमुि मुिन है | ऐसे जीवनमुि जानी को इस जगत का जीवन बांस की तरह बाहर-भीतर से िूनय, रसहीन और वासना-रिहत लगता है | इस दशय पपंच मे िजसे रिच नहीं, हदय मे िचनमात अदशय बह ही अचछा लगता है ऐसे पुरष ने भीतर तथा बाहर िािनत पाि कर ली है और इस भवसागर से पार हो गया है |

रघुनंदन ! िसवेता कहते है िक मन का ईचछारिहत होना यही समािध है कयोिक

ईचछाओं का तयाग करने से मन को जैसी िािनत िमलती है ऐसी िािनत सैकड़ो उपदे िो

से भी नहीं िमलती | ईचछा की उतपित से जैसा दःुख पाि होता है ऐसा दःुख तो नरक मे भी नहीं | ईचछाओं की िािनत से जैसा सुख होता है ऐसा सुख सवगय तो कया बहलोक मे भी नहीं होता |

अतः समसत िास, तपसया, यम और िनयमो का िनचोड़ यही है िक ईचछामात दःुखदायी है और ईचछा का िमन मोक है | पाणी के हदय मे जैसी-जैसी और िजतनी-िजतनी ईचछाये उतपनन होती है उतना ही दख ु ो से वह ड़रता रहता है | िववेक-िवचार दारा ईचछाये जैसे-जैसे िानत होती जाती है वैसे-वैसे दख ु रपी छूत की बीमारी िमटती जाती है |

आसिि के कारण सांसािरक िवषयो की ईचछाये जयो-जयो गहनीभूत होती जाती है ,

तयो-तयो दःुखो की िवषैली तरं गे बढ़ती जाती है | अपने पुरषाथय के बल से इस ईचछारपी वयािध का उपचार यिद नहीं िकया जाये तो इस वयािध से छूटने के िलये अनय कोई औषिध नहीं है ऐसा मै दढ़तापूवक य मानता हूँ |

एक साथ सभी ईचछाओं का समपूणय तयाग ना हो सके तो थोड़ी-थोड़ी ईचछाओं का

धीरे -धीरे तयाग करना चािहये परं तु रहना चािहये ईचछा के तयाग मे रत, कयोिक सनमागय का पिथक दख ु ी नहीं होता | जो नराधम अपनी वासना और अहं कार को कीण करने का पयत नहीं करता वह िदनो-िदन अपने को रावण की तरह अंधेरे कुँऐं मे ढ़केल रहा है | ईचछा ही दख ु ो की जनमदाती, इस संसाररपी बेल का बीज है | यिद इस बीज को

आतमजानरपी अिगन से ठीक-ठीक जला िदया तो पुनः यह अंकुिरत नहीं होता |

रघुकुलभुषण राम ! ईचछामात संसार है और ईचछाओं का अभाव ही िनवाण य है | अतः अनेक पकार की माथापचची मे ना पड़कर केवल ऐसा पयत करना चािहये िक ईचछा उतपनन ना हो |

अपनी बुिद से ईचछा का िवनाि करने को जो ततपर नहीं, ऐसे अभागे को िास

और गुर का उपदे ि भी कया करे गा ?

जैसे अपनी जनमभूमी जंगल मे िहरणी की मतृयु िनिशत है उसी पकार अनेकिवध

दख ु ो का िवसतार कारनेवाले ईचछारपी िवषय-िवकार से युि इस जगत मे मनुषयो की मतृयु िनिशत है |

यिद मानव ईचछाओं के कारण बचचो-सा मूढ़ ना बने तो उसे आतमजान के िलये अलप पयत ही करना पड़े | इसिलये सभी पकार से ईचछाओं को िानत करना चािहये | ईचछा के िमन से परम पद की पािि होती है | ईचछारिहत हो जाना यही िनवाण य है और ईचछायुि होना ही बंधन है | अतः यथाििि ईचछा को जीतना चािहये | भला इतना करने मे कया किठनाई है ?

जनम, जरा, वयािध और मतृयुरपी कंटीली झािड़यो और खैर के वक ृ - समूहो की जड़

भी ईचछा ही है | अतः िमरपी अिगन से अंदर-ही-अंदर बीज को जला ड़ालना चािहये| जहाँ ईचछाओं का अभाव है वहाँ मुिि िनिशत है | िववेक वैरागय आिद साधनो से ईचछा का सवथ य ा िवनाि करना चािहये | ईचछा का संबध ं जहाँ-जहाँ है वहाँ-वहाँ पाप, पुणय, दख ु रािियाँ और लमबी पीड़ाओं से युि बंधन को

हािज़र ही समझो | पुरष की आंतिरक ईचछा जयो-जयो िानत होती जाती है , तयो-तयो मोक के िलये उसका कलयाणकारक साधन बढ़ता जाता है | िववेकहीन ईचछा को पोसना, उसे पूणय करना यह तो संसाररपी िवष वक ृ को पानी से सींचने के समान है

|”

- शीयोगवििि महारामायण *

आतमबल का आवाह न कया आप अपने-आपको दब य मानते हो ? लघुतागंथी मे उलझ कर पिरिसतिथयो से िपस ु ल रहे हो ? अपना जीवन दीन-हीन बना बैठे हो ?

…तो अपने भीतर सुषुि आतमबल को जगाओ | िरीर चाहे सी का हो, चाहे पुरष का, पकृ ित के सामाजय मे जो जीते है वे सब सी है और पकृ ित के बनधन से पार अपने

सवरप की पहचान िजनहोने कर ली है , अपने मन की गुलामी की बेिड़याँ तोड़कर िजनहोने फेक दी है , वे पुरष है | सी या पुरष िरीर एवं मानयताएँ होती है | तुम तो तन-मन से पार िनमल य आतमा हो |

जागो…उठो…अपने भीतर सोये हुये िनशयबल को जगाओ | सवद य े ि, सवक य ाल मे

सवोतम आतमबल को िवकिसत करो |

आतमा मे अथाह सामथयय है | अपने को दीन-हीन मान बैठे तो िवश मे ऐसी कोई सता नहीं जो तुमहे ऊपर उठा सके | अपने आतमसवरप मे पितिषत हो गये तो ितलोकी मे ऐसी कोई हसती नहीं जो तुमहे दबा सके |

भौितक जगत मे वाषप की ििि, ईलेकटोिनक ििि, िवदुत की ििि, गुरतवाकषण य

की ििि बड़ी मानी जाती है लेिकन आतमबल उन सब ििियो का संचालक बल है |

आतमबल के सािननधय मे आकर पंगु पारबध को पैर िमल जाते है , दै व की दीनता

पलायन हो जाती है , पितकूल पिरिसतिथयाँ अनुकूल हो जाती है | आतमबल सवय िरिदिसिदयो का िपता है |

आतमबल कैस े जगाय े ? हररोज़ पतःकाल जलदी उठकर सूयोदय से पूवय सनानािद से िनवत ृ हो जाओ | सवचछ पिवत सथान मे आसन िबछाकर पूवाियभमुख होकर पदासन या सुखासन मे बैठ जाओ | िानत और पसनन विृत धारण करो |

मन मे दढ भावना करो िक मे पकृ ित-िनिमत य इस िरीर के सब अभावो को पार

करके, सब मिलनताओं-दब ु यलताओं से िपणड़ छुड़ाकर आतमा की मिहमा मे जागकर ही रहूँगा | आँखे आधी खुली आधी बंद रखो | अब िेिड़ो मे खूब शास भरो और भावना करो की शास के साथ मे सूयय का िदवय ओज भीतर भर रहा हूँ | शास को यथाििि अनदर

िटकाये रखो | ििर ‘ॐ…’ का लमबा उचचारण करते हुए शास को धीरे -धीरे छोड़ते जाओ | शास के खाली होने के बाद तुरंत शास ना लो | यथाििि िबना शास रहो और भीतर ही भीतर ‘हिर: ॐ…’ ‘हिर: ॐ…’ का मानिसक जाप करो | ििर से िेिड़ो मे शास भरो | पूवोि रीित से शास यथाििि अनदर िटकाकर बाद मे धीरे -धीरे छोड़ते हुए ‘ॐ…’ का गुंजन करो |

दस-पंदह िमनट ऐसे पाणायाम सिहत उचच सवर से ‘ॐ…’ की धविन करके िानत हो जाओ | सब पयास छोड़ दो | विृतयो को आकाि की ओर िैलने दो |

आकाि के अनदर पथ ृ वी है | पथ ृ वी पर अनेक दे ि, अनेक समुद एवं अनेक लोग है | उनमे से एक आपका िरीर आसन पर बैठा हुआ है | इस पूरे दशय को आप मानिसक आँख से, भावना से दे खते रहो |

आप िरीर नहीं हो बिलक अनेक िरीर, दे ि, सागर, पथ ृ वी, गह, नकत, सूयय, चनद एवं

पूरे बहाणड़ के दिा हो, साकी हो | इस साकी भाव मे जाग जाओ |

थोड़ी दे र के बाद ििर से पाणायाम सिहत ‘ॐ…’ का जाप करो और िानत होकर

अपने िवचारो को दे खते रहो |

इस अवसथा मे दढ़ िनशय करो िक : ‘मै जैसा चहता हूँ वैसा होकर रहूँगा |’

िवषयसुख, सता, धन-दौलत इतयािद की इचछा न करो कयोिक िनशयबल या आतमबलरपी हाथी के पदिचह मे और सभी के पदिचह समािवष हो ही जायेगे | आतमानंदरपी सूयय के उदय होने के बाद िमटटी के तेल के दीये के पाकाि रपी िूद सुखाभास की गुलामी कौन करे ? िकसी भी भावना को साकार करने के िलये हदय को कुरे द ड़ाले ऐसी िनशयातमक बिलि विृत होनी आवियक है | अनतःकरण के गहरे -से-गहरे पदे ि मे चोट करे ऐसा पाण भरके िनशयबल का आवाहन करो | सीना तानकर खड़े हो जाओ अपने मन की दीन-हीन दख ु द मानयताओं को कुचल ड़ालने के िलये | सदा समरण रहे की इधर-उधर भटकती विृतयो के साथ तुमहारी ििि भी िबखरती रहती है | अतः विृतयो को बहकाओ नहीं | तमाम विृतयो को एकितत करके साधनाकाल मे आतमिचनतन मे लगाओ और वयवहारकाल मे जो कायय करते हो उसमे लगाओ |

दतिचत होकर हरे क कायय करो | अपने सवभाव मे से आवेि को सवथ य ा िनमूल य कर

दो | आवेि मे आकर कोई िनणय य मत लो, कोई िकया मत करो | सदा िानत विृत धारण करने का अभयास करो | िवचारिील एवं पसनन रहो | सवयं अचल रहकर सागर की तरह

सब विृतयो की तरं गो को अपने भीतर समालो | जीवमात को अपना सवरप समझो | सबसे सनेह रखो | िदल को वयापक रखो | संकुिचतता का िनवारण करते रहो | खणड़ातमक विृत का सवथ य ा तयाग करो |

िजनको बहजानी महापुरष का सतसंग और अधयातमिवदा का लाभ िमल जाता है उसके जीवन से दःुख िवदा होने लगते है | ॐ आननद ! आतमिनषा मे जागे हुए महापुरषो के सतसंग एवं सतसािहतय से जीवन को भिि

और वेदांत से पुि एवं पुलिकत करो | कुछ ही िदनो के इस सघन पयोग के बाद अनुभव होने लगेगा िक भूतकाल के नकारतमक सवभाव, संियातमक-हािनकारक कलपनाओं ने

जीवन को कुचल ड़ाला था, िवषैला कर िदया था | अब िनशयबल के चमतकार का पता

चला | अंततम य मे आिवरभूत िदवय खज़ाना अब िमला | पारबध की बेिड़याँ अब टू टने लगी | ठीक है न ? करोगे ना िहममत ? पढ़कर रख मत दे ना इस पुिसतका को | जीवन मे

इसको बार-बार पढ़ते रहो | एक िदन मे यह पूणय ना होगा | बार-बार अभयास करो | तुमहारे िलये यह एक ही पुिसतका कािी है | अनय कचरापटटी ना पढ़ोगे तो चलेगा | िाबाि वीर! िाबाि !!

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