पासताििक भगिान शंकर और दे िी पाित व ी के संिाद मे पकट हुई ‘शी गुरगीता’ समग
‘सकंदपुराण’ का िनषकषव है । इसके हर एक शोक मे सूत जी का सचोट अनुभि वयक होता है । जैसेः
मुखसतम भकर ं च ैि ग ुणा नां च िि िधव नम।् द ु षकम व नाशन ं च ैि त था सतकम व िसददम।् ।
"इस शी गुरगीता का पाठ शतु का मुख बनद करने िाला है , गुणो की ििृद करने िाला है , दषुकृ तयो का नाश करने िाला और सतकमव मे िसिद दे ने िाला है ।" गुरगीताकर ैकैकं म ंतराज िमद ं िपय े।
अन ये च िििि धा म ंता ः कल ां न ाहव िनतषोड शीम।् ।
"हे िपये! शी गुरगीता का एक एक अकर मंतराज है । अनय जो ििििध मंत है िे इसका सोलहिाँ भाग भी नहीं।"
अकालम ृ तयुहंती च सि व संकटनािशनी।
यकराकसभ ूतािद च ोरव याघििघाितनी।।
"शी गुरगीता अकाल मतृयु को रोकती है , सब संकटो का नाश करती है , यक, राकस, भूत, चोर और शेर आिद का घात करती है ।"
शुिच भूता जानि ंतो गुरगीता ं ज पिनत ये।
तेष ां दश व नसंस पशा व त ् पुनज व न म न ििदत े।।
"जो पिित जानिान पुरष इस शी गुरगीता का जप-पाठ करते है उनके दशन व और सपशव से पुनजन व म नहीं होता।"
इस शी गुरगीता के शोक भिरोग-िनिारण के िलए अमोघ औषिध है । साधको के
िलए यह परम अमत ृ है । सिगव का अमत ृ पीने से पुणय कीण होते है जबिक इस गीता का अमत ृ पीने से पाप नष होकर शांित िमलती है , सिसिरप का भान होता है । तुलसीदास जी ने ठीक कहा है ः
गुर िबन जान भििन िध तर िहं न कोई। जो िबर ं िच स ं कर स म होई।।
आतमदे ि को जानने के िलए यह गुरगीता आपके करकमलो मे रखते हुए.. ॐॐॐॐॐॐॐॐ परम शांित!!!!
||ॐ||
ॐ असय शीगुरगीतासतोतमालामंतसय भगिान सदािशिः ऋिषः। ििराट छनदः। शीगुरपरमातमा दे िता। हं बीजम।् सः शिकः। सोs हं कीलकम।् शीगुरकृ पापसादिसदधयथे जपे िििनयोगः।।
|| अथ करनयासः||
ॐ हं सां सूयातवमने अंगुषाभयां नमः। ॐ हं सीं सोमातमने तजन व ीभयां नमः।
ॐ हं सूं िनरं जनातमने मधयमाभयां नमः। ॐ हं सै िनराभासातमने अनािमकाभयां नमः।
ॐ हं सः अवयकातमने करतलकरपष ृ ाभयां नमः। || इित करनयासः||
|| अथ हदयािदनयासः|| ॐ हं सां सूयातवमने हदयाय नमः।
ॐ हं सीं सोमातमने िशरसे सिाहा। ॐ हं सूं िनरं जातमने िशखायै िषट।
ॐ हं सै िनराभासातमने किचाय हुम।्
ॐ हं सौ अतुसूकमातमने नेततयाय िौषट। ॐ हं सः अवयकातमने असाय फट। || इित हदयािदनयासः|| || अथ धयानम ्||
नमा िम सद गुरं श ानत ं पतयक ं िशिर िपणम।्
िशरसा योगपीठसथ
ं मु िककामाथ व िसिद दम।् ।1।।
पात ः िशर िस श ुकलाबजो िि नेत ं िि भुज ं ग ुर म।् िराभयकर ं श ानत ं स मरेतनन ामप ूि व कम।् ||2|| पसननिदनाक ं च सि व देिसिरिपणम। ्
ततपादोदकजा धारा
िनपतिनत
सिम ू धव िन। ||3||
तया संकालय ेद द ेहे ह नतबा व ह गतं मल म।्
ततकणा ििरजो भूतिा जायत े सफ िटकोपम ः। ||4|| ती थाव िन दिकण े पाद े ि ेदासतन मुखरिकताः।
पूज येद िच व तं त ं त ु तदिम धया नपूि व क म।् ||5|| ||इित धयानम ्||
|| मानसोपचारै ः शीगुरं पूजियतिा||
लं पिृथवयातमने गंधतनमाता पकृ तयाननदातमने शीगुरदे िाय नमः पिृथवयातमकं गंधं समपय व ािम।। हं आकाशातमने शबदतनमातापकृ तयाननदातमने शीगुरदे िाय नमः
आकाशातमकं पुषपं समपय व ािम।। यं िायिातमने सपशत व नमातापकृ तयाननदातमने शीगुरदे िाय नमः िायिातमकं धूपं आघापयािम।। रं तेजातमने दशय व ािम।। िं अपातमने
रसतनमातापकृ तयाननदातमने शीगुरदे िाय नमः अपातमकं नैिेदकं िनिेदयािम।। सं सिातवमने सित व नमातापकृ तयाननदातमने शीगुरदे िाय नमः सिातवमकान ् सिोपचारान ् समपय व ािम।।
|| इित मानसपूजा||
शीग ुरगीता || अथ पथ मोऽधयायः || अिच नतयावयक रपाय िन गुव णाय गुणातमन े | समसत जगदाधारम ूत व ये बहण े नम ः || पहला अ धय ाय जो बह अिचनतय, अवयक, तीनो गुणो से रिहत (िफर भी दे खनेिालो के अजान की
उपािध से) ितगुणातमक और समसत जगत का अिधषान रप है ऐसे बह को नमसकार हो | (1) ऋषयः ऊ चुः सूत स ूत महापाज िनग
मागमपारग
|
गुरसिरपम समाकं ब ूिह सि व म लापहम ् || ऋिषयो ने कहा : हे महाजानी, हे िेद-िेदांगो के िनषणात ! पयारे सूत जी ! सि व पापो का नाश करनेिाले गुर का सिरप हमे सुनाओ | (2) यसय श िणमात ेण द ेही द ु ःखा ििम ुचयत े | येन मा गे ण म ुनयः सि व जति ं पप े िदर े ||
यतपा पय न पुनया व ित नरः स ं सारबनधनम ् | तथाििध ं पर ं तति ं िकवयमध ुना तिया
||
िजसको सुनने मात से मनुषय दःुख से ििमुक हो जाता है | िजस उपाय से मुिनयो ने सिज व ता पाप की है , िजसको पाप करके मनुषय ििर से संसार बनधन मे बँधता नहीं है ऐसे परम तति का कथन आप करे | (3, 4)
गुहाद गुहतम ं सार ं ग ुरगीता िि शेषतः |
तितप सादाचच शोतवया ततसि
व बू िह स ूत न ः ||
जो तति परम रहसयमय एिं शष े सारभूत है और ििशेष कर जो गुरगीता है िह आपकी कृ पा से हम सुनना चाहते है | पयारे सूतजी ! िे सब हमे सुनाइये | (5) इित स ं पािथत ः स ूतो म ुिनस ंघ ैम ुव हुमुव हुः | कुत ूहल ेन म हता पोिाच मध ुर ं िच ः ||
इस पकार बार-बार पथन व ा िकये जाने पर सूतजी बहुत पसनन होकर मुिनयो के समूह से मधुर िचन बोले | (6)
सूत उ िाच
शृणुधि ं म ुनयः सि े श दया परय ा म ुदा | िदािम भ िरोगघनी ं गी ता मा तृ सिरिपणीम ् || सूतजी ने कहा : हे सि व मुिनयो ! संसाररपी रोग का नाश करनेिाली, मातस ृ िरिपणी (माता के समान धयान रखने िाली) गुरगीता कहता हूँ | उसको आप अतयंत शदा और पसननता से सुिनये | (7)
पुरा कैलास िशखर े िसदगन धि व से िित े |
तत कलप लताप ुषपम िनदर ेऽतयनत सुनदर े || वयाघ ािजन े स मािसन ं श ु कािदम ुिन ििनद तम ् |
बो धयनत ं पर ं तति ं शश ननमसक ुि व नतमादरात ् | दषटिा ििस मयमापनना
पाि व ती पिरप ृ चछित ||
पाचीन काल मे िसदो और गनधिो के आिास रप कैलास पित व के िशखर पर कलपिक ृ के फूलो से बने हुए अतयंत सुनदर मंिदर मे, मुिनयो के बीच वयाघचम व पर बैठे हुए, शुक आिद मुिनयो िारा िनदन िकये जानेिाले और परम तति का बोध दे ते हुए भगिान शंकर
को बार-बार नमसकार करते दे खकर, अितशय नम मुखिाली पाििवत ने आशयच व िकत होकर पूछा | पाि व तयुिाच ॐ नमो द ेि द ेि ेश परातपर जगद
तिा ं नमसक ु िव ते भकतया
गुरो |
सुरास ुरनराः सदा
||
पाित व ी ने कहा: हे ॐकार के अथस व िरप, दे िो के दे ि, शष े ो के शष े , हे जगदगुरो! आपको पणाम हो | दे ि दानि और मानि सब आपको सदा भिकपूिक व पणाम करते है | (11) िि िध ििषण ुमह ेनदाद ैि व नदः ख लु सदा भिान ् |
नमसकरो िष कसम ै ति ं नमसकाराशयः
िकल ः ||
आप बहा, ििषणु, इनद आिद के नमसकार के योगय है | ऐसे नमसकार के आशयरप होने पर भी आप िकसको नमसकार करते है | (12)
भगिन ् सिव धम व ज व ता नां व तना यकम ् |
बू िह म े कृ पय ा शम भो ग ुरमाहातमयम ुतम म ् || हे भगिान ् ! हे सि व धमो के जाता ! हे शमभो ! जो वत सब वतो मे शष े है ऐसा उतम गुर-माहातमय कृ पा करके मुझे कहे | (13)
इित संपा िथ व तः श शनमहाद ेिो मह ेशर ः |
आनंदभिरत ः सिानत े पाि व ती िमदमबिीत ् || इस पकार (पाित व ी दे िी िारा) बार-बार पाथन व ा िकये जाने पर महादे ि ने अंतर से खूब पसनन होते हुए पाित व ी से इस पकार कहा | (14)
महाद ेि उ िाच
न िकवयिम दं द ेिि रहसया ितरहसयकम ् |
न क सयािप प ुरा पोकं ति दकतयथ व िदािम त त ् || शी महादे ि जी ने कहा: हे दे िी ! यह तति रहसयो का भी रहसय है इसिलए कहना उिचत नहीं | पहले िकसी से भी नहीं कहा | िफर भी तुमहारी भिक दे खकर िह रहसय कहता हूँ |
मम ् रपा िस द ेिि तिमतसततक थयािम त े |
लोकोपकारकः पशो न क
ेनािप क ृत ः प ुरा
||
हे दे िी ! तुम मेरा ही सिरप हो इसिलए (यह रहसय) तुमको कहता हूँ | तुमहारा यह पश लोक का कलयाणकारक है | ऐसा पश पहले कभी िकसीने नहीं िकया | यसय देि े परा भ िक , यथा द ेि े त था ग ुरौ | तसय ैत े क िथ ता ह थाव ः पकाशनत े म हातमनः
||
िजसको ईशर मे उतम भिक होती है , जैसी ईशर मे िैसी ही भिक िजसको गुर मे होती है ऐसे महातमाओं को ही यहाँ कही हुई बात समझ मे आयेगी | यो गु र स िश िः प ोको , यः िश िः स गुरस मृ तः | ििक लपं यसत ु कुिीत स नरो
गुरतलपग ः ||
जो गुर है िे ही िशि है , जो िशि है िे ही गुर है | दोनो मे जो अनतर मानता है िह गुरपतीगमन करनेिाले के समान पापी है | िेदशासप ुरा णािन च े ितहासा िदकािन च मंतय ंत ििदािदिनमोहनोच
|
चाटन ािद कम ् ||
शैिशाकागमा िदिन ह नये च बहिो मता ः | अपभ ं शाः स मसताना ं जीिाना ं भ ांतच ेत साम ् || जप सतपोवत ं तीथ व यजो दान ं त थैि च |
गुर तति ं अ ििजाय स िव वयथ व भि ेत ् िपय े || हे िपये ! िेद, शास, पुराण, इितहास आिद मंत, यंत, मोहन, उचचाटन आिद ििदा शैि, शाक आगम और अनय सि व मत मतानतर, ये सब बाते गुरतति को जाने िबना भानत
िचतिाले जीिो को पथभष करनेिाली है और जप, तप वत तीथव, यज, दान, ये सब वयथव हो जाते है | (19, 20, 21) गुरब ुधयातमनो न ानयत ् सतय ं सतय ं िरानन े | तलल भाथ व पयतसत ु कत व ियश च मनीिषिभ ः ||
हे सुमुखी ! आतमा मे गुर बुिद के िसिा अनय कुछ भी सतय नहीं है सतय नहीं है | इसिलये इस आतमजान को पाप करने के िलये बुिदमानो को पयत करना चािहये | (22) गूढाििदा
ज गनमाया द ेह शचाजानसमभिः
|
ििजान ं यतपसाद ेन ग ुर शबद ेन क थयत े || जगत गूढ़ अििदातमक मायारप है और शरीर अजान से उतपनन हुआ है | इनका ििशेषणातमक जान िजनकी कृ पा से होता है उस जान को गुर कहते है | देही बह भि ेदस मात ् तितकृपाथ व िदा िम तत ् | सिव पापिि शुदा तमा श ीगुरोः पादस ेिनात ् ||
िजस गुरदे ि के पादसेिन से मनुषय सि व पापो से ििशुदातमा होकर बहरप हो जाता है िह तुम पर कृ पा करने के िलये कहता हूँ | (24) शो षणं पापप ंकसय दीपन ं जानत ेजस ः | गुरोः पादोदक ं समयक ् सं सार ाणव ितारकम ् || शी गुरदे ि का चरणामत ृ पापरपी कीचड़ का समयक् शोषक है , जानतेज का समयक् उदीपक है और संसारसागर का समयक तारक है | (25) अजानम ूल हरण ं ज नमक मव िनिारकम ् |
जानि ैरा गयिसद धयथ व गुरपादोदक ं िपब ेत ् || अजान की जड़ को उखाड़नेिाले, अनेक जनमो के कमो को िनिारनेिाले, जान और िैरागय को िसद करनेिाले शीगुरदे ि के चरणामत ृ का पान करना चािहये | (26) सिद े िशकसय ैि च न ामकीत व नम ्
भिेदन नतसयिश िसय कीत व नम ् |
सि देिश कसय ैि च नामिच नतनम ्
भिेदननतसय िशिसय नामिच नतनम ् || अपने गुरदे ि के नाम का कीतन व अनंत सिरप भगिान िशि का ही कीतन व है | अपने गुरदे ि के नाम का िचंतन अनंत सिरप भगिान िशि का ही िचंतन है | (27)
काशीक ेत ं िनिास श जाहिी चरणोदकम
् |
गुरिि व शे शरः साकात ् तारकं बहिन शयः
||
गुरदे ि का िनिाससथान काशी केत है | शी गुरदे ि का पादोदक गंगाजी है | गुरदे ि भगिान ििशनाथ और िनशय ही साकात ् तारक बह है | (28) गुरस ेिा गया
पोका द ेह ः सयादकयो
िट ः |
ततपाद ं ििषण ुपाद ं सयात ् ततदतमनसतत म ् || गुरदे ि की सेिा ही तीथरवाज गया है | गुरदे ि का शरीर अकय िटिक ृ है | गुरदे ि के शीचरण भगिान ििषणु के शीचरण है | िहाँ लगाया हुआ मन तदाकार हो जाता है | (29) गुरिकत े िसथ तं बह पापयत े ततपसादत ः | गुरोधया वन ं सदा क ुया व त ् पुरष ं सि ैिरणी यथा
||
बह शीगुरदे ि के मुखारििनद (िचनामत ृ ) मे िसथत है | िह बह उनकी कृ पा से पाप हो जाता है | इसिलये िजस पकार सिेचछाचारी सी अपने पेमी पुरष का सदा िचंतन करती है उसी पकार सदा गुरदे ि का धयान करना चािहये | (30)
सिाशम ं च सिजा ितं च सि कीित व पु िषिध व नम ् | एततसि व प िरतयज य ग ुरम ेि स माश येत ् ||
अपने आशम (बहचयाश व मािद) जाित, कीित व (पदपितषा), पालन-पोषण, ये सब छोड़ कर गुरदे ि का ही समयक् आशय लेना चािहये | (31)
गुरिकत े िसथ ता ििदा ग ुरभकतया च ल भयत े | तैलोकय े स िुटिकारो
देि िष व िप तृ मानिाः
||
ििदा गुरदे ि के मुख मे रहती है और िह गुरदे ि की भिक से ही पाप होती है | यह बात तीनो लोको मे दे ि, ॠिष, िपत ृ और मानिो िारा सपष रप से कही गई है | (32) गुकारशान धकारो
िह रकारसत ेज उचयत े |
अजानगासक ं ब ह ग ुरर ेि न स ं शयः
||
‘गु’ शबद का अथव है अंधकार (अजान) और ‘र’ शबद का अथव है पकाश (जान) | अजान को नष करनेिाल जो बहरप पकाश है िह गुर है | इसमे कोई संशय नहीं है | (33) गुकारशानधकारसत अन धकारििनािशतिात
ु रकारसत िननरोधक ृत ् |
् गुरिरतयिभ धीयत े ||
‘गु’ कार अंधकार है और उसको दरू करनेिाल ‘र’ कार है | अजानरपी अनधकार को नष करने के कारण ही गुर कहलाते है | (34) गुकारश ग ुणातीतो गुणरपििहीनतिात
रपातीतो रकारकः
|
् गुरिरतय िभधीयत े ||
‘गु’ कार से गुणातीत कहा जता है , ‘र’ कार से रपातीत कहा जता है | गुण और रप से पर होने के कारण ही गुर कहलाते है | (35) गुकारः प थमो िणो मायािद ग
ुणभास कः |
रकारोऽिसत पर ं ब ह मायाभािनत ििमो चकम ् || गुर शबद का पथम अकर गु माया आिद गुणो का पकाशक है और दस ू रा अकर र कार माया की भािनत से मुिक दे नेिाला परबह है | (36) सि व शु ित िशरोरतििरािज
तपदा ंब ुज म ् |
िेदानताथ व पिकार ं तस मातस ंप ूजय ेद ग ुरम ् || गुर सि व शिुतरप शष े रतो से सुशोिभत चरणकमलिाले है और िेदानत के अथ व के पिका है | इसिलये शी गुरदे ि की पूजा करनी चािहये | (37) यसयसमरणमात ेण जानम ुतपदत े सियम ् |
सः एि सि व स मपितः त समातस ंप ूज येद ग ुर म ् || िजनके समरण मात से जान अपने आप पकट होने लगता है और िे ही सि व (शमदमिद) समपदारप है | अतः शी गुरदे ि की पूजा करनी चािहये | (38) संसारि ृ कमारढ़ाः प तिनत नरक ाणव िे | यसतान ुद रते सिा व न ् तसम ै श ीगुरि े नमः
||
संसाररपी िक ृ पर चढ़े हुए लोग नरकरपी सागर मे िगरते है | उन सबका उदार करनेिाले शी गुरदे ि को नमसकार हो | (39)
एक एि परो बन धुिि व ष मे सम ुप िसथत े | गुरः स कलध माव तमा तसम ै श ीगुरि े नम ः || जब ििकट पिरिसथित उपिसथत होती है तब िे ही एकमात परम बांधि है और सब धमो के आतमसिरप है | ऐसे शीगुरदे ि को नमसकार हो | (40) भिारणयपििषसय िद
डमोहभान तचेतस ः |
येन स नद िश व त ः पन थाः तस मै शीग ुरि े नमः
||
संसार रपी अरणय मे पिेश करने के बाद िदगमूढ़ की िसथित मे (जब कोई माग व नहीं िदखाई दे ता है ), िचत भिमत हो जाता है , उस समय िजसने माग व िदखाया उन शी गुरदे ि को नमसकार हो | (41)
तापतयािगनतपा
नां अ शानतपाणीना ं भ ु िि |
गुरर ेि परा ग ंगा तस मै शीग ुरि े नम ः ||
इस पथ ृ िी पर ितििध ताप (आिध-वयािध-उपािध) रपी अगनी से जलने के कारण अशांत
हुए पािणयो के िलए गुरदे ि ही एकमात उतम गंगाजी है | ऐसे शी गुरदे िजी को नमसकार हो | (42)
सप सागरपय व नतं तीथ व सनानफल ं त ु यत ् |
गुरपादपयोिब नदोः सह सां शेन ततफ लम ् || सात समुद पयन व त के सि व तीथो मे सनान करने से िजतना फल िमलता है िह फल शीगुरदे ि के चरणामत ृ के एक िबनद ु के फल का हजारिाँ िहससा है | (43) िशि े र षे ग ुरसाता
गुरौ र षे न क शन |
लब धिा कुलग ुरं स मयगग ुरम ेि समा शयेत ् ||
यिद िशिजी नारज़ हो जाये तो गुरदे ि बचानेिाले है , िकनतु यिद गुरदे ि नाराज़ हो जाये तो बचानेिाला कोई नहीं | अतः गुरदे ि को संपाप करके सदा उनकी शरण मे रे हना चािहए | (44)
गुकार ं च गुणातीत ं रकार ं रपि िज व तम ् |
गुणातीतमरप ं च यो ददात ् स ग ुर ः सम ृ त ः || गुर शबद का गु अकर गुणातीत अथ व का बोधक है और र अकर रपरिहत िसथित का बोधक है | ये दोनो (गुणातीत और रपातीत) िसथितयाँ जो दे ते है उनको गुर कहते है | (45) अितन ेतः िशि ः साकात ् ििबाह ु श ह िरः स मृ तः | योऽ चतुि व दनो ब हा शीग ुर ः किथ तः िप ये ||
हे िपये ! गुर ही ितनेतरिहत (दो नेत िाले) साकात ् िशि है , दो हाथ िाले भगिान ििषणु है और एक मुखिाले बहाजी है | (46)
देििक ननरगन धिा व ः िपत ृ यकासत ु त ुमब ुर ः |
मुनयोऽिप न जानिनत
गुरश ु शू षणे िि िधम ् ||
दे ि, िकननर, गंधिव, िपतृ, यक, तुमबुर (गंधि व का एक पकार) और मुिन लोग भी गुरसेिा की िििध नहीं जानते | (47)
तािकव काशछानद साश ैि द ेिजाः क मव ठः िपय े |
लौ िककासत े न जानिनत ग ुरतति ं िनराक ुलम ् || हे िपये ! तािकवक, िैिदक, जयोितिष, कमक व ांडी तथा लोिककजन िनमल व गुरतति को नहीं जानते | (48)
यिजनोऽ िप न मुकाः सय ुः न म ुका ः य ोिगनसतथा तापसा अिप
|
न ो म ुक ग ुरततिातपराडम ुखाः ||
यिद गुरतति से पाडमुख हो जाये तो यािजक मुिक नहीं पा सकते, योगी मुक नहीं हो सकते और तपसिी भी मुक नहीं हो सकते | (49)
न मुकासत ु गन धि व ः िपत ृ यकासत ु चारणाः
|
ॠष यः िसदद ेिादाः ग ुरस ेिापराडम ुखा ः || गुरसेिा से ििमुख गंधिव, िपतृ, यक, चारण, ॠिष, िसद और दे िता आिद भी मुक नहीं होगे | || इित शी सकानदोतरखणड
े उमामह ेशरस ं िाद े श ी ग ुरगीताया ं प थमोऽ धया यः || || अथ िितीयोऽधयायः
||
बहाननद ं परमस ुख दं केिल ं जानम ूित व िनिातीत ं ग गनसदश ं तत िमसयािदलकयम ् | एकं िनतय ं िि मलम चलं स िव धीसा िकभ ूतम ्
भाितीत ं ित गुणरिह तं सद ु रं त ं नमा िम || द ू सरा अ धय ाय जो बहानंदसिरप है , परम सुख दे नेिाले है जो केिल जानसिरप है , (सुख, दःुख, शीतउषण आिद) िनिो से रिहत है , आकाश के समान सूकम और सिववयापक है , ततिमिस आिद महािाकयो के लकयाथ व है , एक है , िनतय है , मलरिहत है , अचल है , सि व बुिदयो के
साकी है , भािना से परे है , सति, रज और तम तीनो गुणो से रिहत है ऐसे शी सदगुरदे ि को मै नमसकार करता हूँ | (52) गुरपिदष माग े ण मनः िश िदं त ु कारय ेत ् |
अिनतय ं खणड येतसि व यितक ं िचदातम गोचरम ् || शी गुरदे ि के िारा उपिदष माग व से मन की शुिद करनी चािहए | जो कुछ भी अिनतय िसतु अपनी इिनदयो की ििषय हो जाये उनका खणडन (िनराकरण) करना चािहए | (53) िक मतं बह ु नोकेन श ासकोिटशत ैर िप
|
द ु लव भा िचतिि शा िनतः ििना गुरकृप ां पराम ् ||
यहाँ जयादा कहने से कया लाभ ? शी गुरदे ि की परम कृ पा के िबना करोड़ो शासो से भी िचत की ििशांित दल व है | (54) ु भ करणाखडगपात ेन िछतिा पाशाषक ं िशश ोः | समयगाननदजनक ः सदग ुर सो ऽिभ धीयत े ||
एिं श ु तिा महाद े िि ग ुरिन नदा करोित यः स याित नरकान
|
् घोरा न ् यािचचनद िदिाकरौ
||
करणारपी तलिार के पहार से िशषय के आठो पाशो (संशय, दया, भय, संकोच, िननदा, पितषा, कुलािभमान और संपित ) को काटकर िनमल व आनंद दे नेिाले को सदगुर कहते है
| ऐसा सुनने पर भी जो मनुषय गुरिननदा करता है , िह (मनुषय) जब तक सूयच व नद का अिसतति रहता है तब तक घोर नरक मे रहता है | (55, 56) याितकलपानतको द गुरलोपो न
ेहसतािद े िि ग ुरं स मरेत ् |
कत व वयः सि चछनदो यिद िा भि
ेत ् ||
हे दे िी ! दे ह कलप के अनत तक रहे तब तक शी गुरदे ि का समरण करना चािहए और आतमजानी होने के बाद भी (सिचछनद अथात व ् सिरप का छनद िमलने पर भी ) िशषय को गुरदे ि की शरण नहीं छोड़नी चािहए | (57)
हुंकार ेण न िकवय ं प ाजिशषय ै कदाचन
|
गुरराग े न ि कवयमसतय ं तु क दाचन ||
शी गुरदे ि के समक पजािान ् िशषय को कभी हुँकार शबद से (मैने ऐसे िकया... िैसा िकया ) नहीं बोलना चािहए और कभी असतय नहीं बोलना चािहए | (58) गुरं ति ंकृतय ह ुंकृतय ग ुरसा िननधयभाषणः
|
अरण ये िनज व ले द ेश े स ंभि ेद बहराकस ः ||
गुरदे ि के समक जो हुँकार शबद से बोलता है अथिा गुरदे ि को तू कहकर जो बोलता है िह िनजन व मरभूिम मे बहराकस होता है | (59)
अिैत ं भाि येिननतय ं सिा व िस थास ु सि व दा | कदा िचद िप नो कुया व दिैत ं ग ुरस िननधौ
||
सदा और सि व अिसथाओं मे अिै त की भािना करनी चािहए परनतु गुरदे ि के साथ अिै त की भािना कदािप नहीं करनी चािहए | (60) दशयििसम ृ ितपय व नतं कुया व द ग ुरपदा चव नम ् |
तादशसय ैि कैिलय ं न च तदवय ितर ेिकणः
||
जब तक दशय पपंच की ििसमिृत न हो जाय तब तक गुरदे ि के पािन चरणारििनद की पूजा-अचन व ा करनी चािहए | ऐसा करनेिाले को ही कैिलयपद की पिप होती है , इसके ििपरीत करनेिाले को नहीं होती | (61)
अिप स ंप ूण व ततिजो ग ुरतयागी
भ िेददा |
भिेत येि िह तसयानतकाल े ििक े पमुतकटम ् || संपूणव ततिज भी यिद गुर का तयाग कर दे तो मतृयु के समय उसे महान ् ििकेप अिशय हो जाता है | (62)
गुरौ स ित सिय ं द ेिी पर ेषा ं त ु क दाचन
|
उपदेश ं न ि ै कुया व त ् तदा च ेदाकसो भि ेत ् || हे दे िी ! गुर के रहने पर अपने आप कभी िकसी को उपदे श नहीं दे ना चािहए | इस पकार उपदे श दे नेिाला बहराकस होता है | (63)
न ग ुरराशम े कुया व त ् द ु षपान ं पिरसप व ण म ् |
दीका वयाखय ा पभ ुतिा िद ग ुरोर ाजा ं न कारय ेत ् || गुर के आशम मे नशा नहीं करना चािहए, टहलना नहीं चािहए | दीका दे ना, वयाखयान करना, पभुति िदखाना और गुर को आजा करना, ये सब िनिषद है | (64) नोप ाश मं च पय व कं न च पादप सारणम ् |
नां गभोगािद कं कुया व नन ली लामपरामिप
||
गुर के आशम मे अपना छपपर और पलंग नहीं बनाना चािहए, (गुरदे ि के सममुख) पैर
नहीं पसारना, शरीर के भोग नहीं भोगने चािहए और अनय लीलाएँ नहीं करनी चािहए | (65)
गुरणा ं सदसिािप यद ु कं तनन लंघय ेत ् |
कुि व ननाजा ं िदिारातौ दासि िननिस ेद गुरौ || गुरओं की बात सचची हो या झूठी, परनतु उसका कभी उललंघन नहीं करना चािहए | रात और िदन गुरदे ि की आजा का पालन करते हुए उनके सािननधय मे दास बन कर रहना चािहए | (66)
अदत ं न गुरोद व वयमुप भुंजीत किह िच व त ् |
दतं च र ंकिद ग ाहं पाणोपय ेत ेन ल भयत े || जो दवय गुरदे ि ने नहीं िदया हो उसका उपयोग कभी नहीं करना चािहए | गुरदे ि के िदये हुए दवय को भी गरीब की तरह गहण करना चािहए | उससे पाण भी पाप हो सकते है | (67)
पाद ु कासन शययािद ग ुरणा यद िभिषत म ् |
नमसकु िीत त तसि व पादाभया ं न सप ृ शेत ् कि िचत ् || पादक ु ा, आसन, िबसतर आिद जो कुछ भी गुरदे ि के उपयोग मे आते हो उन सि व को नमसकार करने चािहए और उनको पैर से कभी नहीं छूना चािहए | (68) गचछत ः प ृ षतो गच छेत ् गुरच छाया ं न लंघय ेत ् | नोलबण ं धार येिेष ं नाल ंकारासततोलबणा
न ् ||
चलते हुए गुरदे ि के पीछे चलना चािहए, उनकी परछाई का भी उललंघन नहीं करना
चािहए | गुरदे ि के समक कीमती िेशभूषा, आभूषण आिद धारण नहीं करने चािहए | (69) गुरिन नदाकर ं दषटिा सथान ं िा ततपिरतयाज
ध ािय ेद थ िास येत ् |
यं िज हाचछ ेदाकमो यिद
||
गुरदे ि की िननदा करनेिाले को दे खकर यिद उसकी िजहा काट डालने मे समथव न हो तो उसे अपने सथान से भगा दे ना चािहए | यिद िह ठहरे तो सियं उस सथान का पिरतयाग करना चािहए | (70)
मुिनिभ ः प ननग ैिा व िप स ुर ैिा शा िपतो यिद
|
कालम ृ तयुभयािािप ग ुर ः स ं ताित पाि व ित || हे पित व ी ! मुिनयो पननगो और दे िताओं के शाप से तथा यथा काल आये हुए मतृयु के भय से भी िशषय को गुरदे ि बचा सकते है | (71)
ििजान िनत महािाकय ं ग ुरोशरणस ेिया | ते ि ै स ंनयािसनः प ोका इतर े ि ेष धािरणः
||
गुरदे ि के शीचरणो की सेिा करके महािाकय के अथ व को जो समझते है िे ही सचचे संनयासी है , अनय तो मात िेशधारी है | (72) िनतय ं बह िनराक ारं िनग ुव णं बो धयेत ् परम ् | भा सय न ् बह भाि ं च दीपो दीपानतर
ं यथा
||
गुर िे है जो िनतय, िनगुण व , िनराकार, परम बह का बोध दे ते हुए, जैसे एक दीपक दस ू रे दीपक को पजजििलत करता है िैसे, िशषय मे बहभाि को पकटाते है | (73) गुरपादतः सिातम
नयातमा रामिनिर कणात ् |
समता म ु िकमग े ण सिातमजान ं पित व ते ||
शी गुरदे ि की कृ पा से अपने भीतर ही आतमानंद पाप करके समता और मुिक के मागव िार िशषय आतमजान को उपलबध होता है | (74) सि िटके सिा िटकं रप ं दप व णे दप व णो यथा
|
तथातम िन िच दाकारमा नन दं सोऽह िमतय ुत || जैसे सििटक मिण मे सििटक मिण तथा दपण व मे दपण व िदख सकता है उसी पकार आतमा मे जो िचत ् और आनंदमय िदखाई दे ता है िह मै हूँ | (75) अंग ुष मात ं प ुरष ं धयाय ेच च िच नमयं ह िद | तत सि ुर ित यो भाि ः श ु णु तत कथयािम त े || हदय मे अंगुष मात पिरणाम िाले चैतनय पुरष का धयान करना चािहए | िहाँ जो भाि सिुिरत होता है िह मै तुमहे कहता हूँ, सुनो | (76)
अजोऽ हममरोऽह ं च हनािदिन धनोहहम ् |
अििकारिश दा ननदो ह िणयान ् महतो महान ् || मै अजनमा हूँ, मै अमर हूँ, मेरा आिद नहीं है , मेरी मतृयु नहीं है | मै िनििक व ार हूँ, मै िचदाननद हूँ, मै अणु से भी छोटा हूँ और महान ् से भी महान ् हूँ | (77) अपूि व मपर ं िनतय ं सिय ं जयोितिन व रामयम ् | ििरज ं परमाकाश ं ध ुिमाननदमवययम
् ||
अगोचर ं त थाऽ गमय ं नामरप ििििज व त म ् |
िन ःशब दं त ु ििजानीया तसिाभािाद बह पि
व ित ||
हे पित व ी ! बह को सिभाि से ही अपूि व (िजससे पूि व कोई नहीं ऐसा), अिितीय, िनतय, जयोितसिरप, िनरोग, िनमल व , परम आकाशसिरप, अचल, आननदसिरप, अििनाशी, अगमय, अगोचर, नाम-रप से रिहत तथा िनःशबद जानना चािहए | (78, 79) यथा ग नधस िभािति ं कप ूव रकुस ु मािदष ु |
शी तोषणसिभािति ं त था बह िण शाशत म ् || िजस पकार कपूर, िूल इतयािद मे गनधति, (अिगन मे) उषणता और (जल मे) शीतलता सिभाि से ही होते है उसी पकार बह मे शशतता भी सिभाििसद है | (80) यथा िनज सिभाि ेन कुं डलकटकादयः
|
सुिण व तिेन ितष िनत त थाऽह ं ब ह शाशत म ् || िजस पकार कटक, कुणडल आिद आभूषण सिभाि से ही सुिण व है उसी पकार मै सिभाि से ही शाशत बह हूँ | (81)
सिय ं तथा ििधो भ ूतिा सथातवय ं यतक ुत िचत ् |
कीटो भं ृ ग इि ध या नात ् यथा भि ित तादश ः || सियं िैसा होकर िकसी-न-िकसी सथान मे रहना
| जैसे कीडा भमर का िचनतन करते-
करते भमर हो जाता है िैसे ही जीि बह का धयान करते-करते बहसिरप हो जाता है | (82)
गुरोधया व नेन ैि िनतय ं दे ही ब हमयो भि ेत ् |
िसथत श यतक ुतािप म ुकोऽसौ नात स ं शयः
||
सदा गुरदे ि का धयान करने से जीि बहमय हो जाता है | िह िकसी भी सथान मे रहता हो ििर भी मुक ही है | इसमे कोई संशय नहीं है | (83) जान ं िैरागयम ैशय व यश ः शी स मुदाहतम ् |
षडग ुण ै शय व युको िह भ गिान ् शी ग ुर ः िप ये || हे िपये ! भगितसिरप शी गुरदे ि जान, िैरागय, ऐशयव, यश, लकमी और मधुरिाणी, ये छः गुणरप ऐशयव से संपनन होते है | (84) गुरः िशिो ग ुर देिो ग ुरब व न धुः श रीिरणाम ् | गुररातमा
गु रजीिो गुरो रनयनन ििदत े ||
मनुषय के िलए गुर ही िशि है , गुर ही दे ि है , गुर ही बांधि है गुर ही आतमा है और गुर ही जीि है
| (सचमुच) गुर के िसिा अनय कुछ भी नहीं है | (85) एकाकी िनसप ृ हः शा नत ः िच ंतास ूयािदििज व तः | बालयभाि े न यो भा ित बहजानी स उचयत
े ||
अकेला, कामनारिहत, शांत, िचनतारिहत, ईषयारविहत और बालक की तरह जो शोभता है िह बहजानी कहलाता है | (86) न स ुख ं ि ेद शास ेष ु न सुख ं म ंतय ंतके | गुरोः पसादाद नयत सुख ं नािसत महीत
ले ||
िेदो और शासो मे सुख नहीं है , मंत और यंत मे सुख नहीं है | इस पथ ृ िी पर गुरदे ि के कृ पापसाद के िसिा अनयत कहीं भी सुख नहीं है | (87) चािाक व िैषणिमत े स ुख ं प भाकर े न िह | गुरोः पादािनतक े यितस ुख ं ि ेदान तसममत म ् || गुरदे ि के शी चरणो मे जो िेदानतिनिदव ष सुख है िह सुख न चािाकव मत मे, न िैषणि मत मे और न पभाकर (सांखय) मत मे है | (88)
न तत सुख ं स ुरेनदसय न स ुख ं चक िित व नाम ् | यतस ुख ं िीतरागसय म ुन ेरेका नतिािसन ः ||
एकानतिासी िीतराग मुिन को जो सुख िमलता है िह सुख न इनद को और न चकिती राजाओं को िमलता है | (89) िनतय ं ब हरस ं पीतिा त ृ पो यः पर मातमिन
|
इनदं च मनयत े र ंकं न ृ पाणा ं त त का कथा
||
हमेशा बहरस का पान करके जो परमातमा मे तप ृ हो गया है िह (मुिन) इनद को भी गरीब मानता है तो राजाओं की तो बात ही कया ? (90) यतः परमक ैि लयं गुरमाग े ण ि ै भि ेत ् |
गुरभिकर ितः काया व सि व दा मोकक ांिक िभ ः || मोक की आकांका करनेिालो को गुरभिक खूब करनी चािहए, कयोिक गुरदे ि के िारा ही परम मोक की पािप होती है | (91) एक एिािि तीय ोऽह ं ग ुरिाकय ेन िनिश तः || एि मभयासता
िनतय ं न स ेवय ं िै िनानतर म ् ||
अभयासा िननिमषण ैि स मािध मिधग चछित |
आजन मजिनत ं पाप ं ततकणाद ेि नशयित
||
गुरदे ि के िाकय की सहायता से िजसने ऐसा िनशय कर िलया है िक मै एक और अिितीय हूँ और उसी अभयास मे जो रत है उसके िलए अनय िनिास का सेिन आिशयक नहीं है , कयोिक अभयास से ही एक कण मे समािध लग जाती है और उसी कण इस जनम तक के सब पाप नष हो जाते है | (92, 93) गुर िि व षणुः सति मय ो राजसशत ुराननः ताम सो रदर पेण स ृ जतयि ित ह िनत च
| ||
गुरदे ि ही सतिगुणी होकर ििषणुरप से जगत का पालन करते है , रजोगुणी होकर बहारप से जगत का सजन व करते है और तमोगुणी होकर शंकर रप से जगत का संहार करते है | (94)
तसयािलोकन ं पापय
स िव संग ििििज व तः |
एकाकी िनःसप ृ हः शा नत ः सथातवय ं ततपसादत ः || उनका (गुरदे ि का) दशन व पाकर, उनके कृ पापसाद से सि व पकार की आसिक छोड़कर एकाकी, िनःसपह ृ और शानत होकर रहना चािहए | (95) सिव जपदिमतयाह ु दे ही स िव मयो भ ुिि |
सदाऽनन दः सदा शा नतो रमत े यत क ुत िचत ् || जो जीि इस जगत मे सिम व य, आनंदमय और शानत होकर सित व ििचरता है उस जीि को सिज व कहते है | (96) यतैि ितषत े सो ऽिप स द ेश ः प ुणयभाजनः मुकसय लकण ं द ेिी तिाग े क िथ तं मया
| ||
ऐसा पुरष जहाँ रहता है िह सथान पुणयतीथव है | हे दे िी ! तुमहारे सामने मैने मुक पुरष का लकण कहा | (97) यदपयधीता आधयामािदिन श
िन गमाः षड ं गा आ गमा ः िप ये | ास ािण जान ं नािसत ग ुरं ििना
||
हे िपये ! मनुषय चाहे चारो िेद पढ़ ले, िेद के छः अंग पढ़ ले, आधयातमशास आिद अनय सिव शास पढ़ ले ििर भी गुर के िबना जान नहीं िमलता | (98) िशिप ू जारत ो िािप
ििषण ुप ूजारतोऽथिा
|
गुरतति ििहीनश ेततसि व वयथ व मेि िह || िशिजी की पूजा मे रत हो या ििषणु की पूजा मे रत हो, परनतु गुरतति के जान से रिहत हो तो िह सब वयथव है | (99) सिव सयातसफल ं कम व गुरदीकापभाितः
|
गुरला भातसि व लाभो ग ुरहीनसत ु बा िलश ः ||
गुरदे ि की दीका के पभाि से सब कम व सफल होते है | गुरदे ि की संपािप रपी परम लाभ से अनय सिल व ाभ िमलते है | िजसका गुर नहीं िह मूख व है | (100) तसमातसि व पयत ेन सि व सं गििि िज व त ः | ििहाय श ासजालािन
गुरम ेि स माश येत ् ||
इसिलए सब पकार के पयत से अनासक होकर , शास की मायाजाल छोड़कर गुरदे ि की ही शरण लेनी चािहए | (101) जानहीन ो ग ुरतयाजयो
िमथयािादी
सि ििशा िनत न जानाित परशा
ििड ंबकः |
िनत ं करोित
िकम ् ||
जानरिहत, िमथया बोलनेिाले और िदखािट करनेिाले गुर का तयाग कर दे ना चािहए, कयोिक जो अपनी ही शांित पाना नहीं जानता िह दस ू रो को कया शांित दे सकेगा | (102) िश लायाः िक ं पर ं जान ं िश लास ंघपतारण े | सिय ं तत ुव न जानाित पर ं िन सतार ेय ेतकथ म ् || पतथरो के समूह को तैराने का जान पतथर मे कहाँ से हो सकता है ? जो खुद तैरना नहीं जानता िह दस ू रो को कया तैरायेगा | (103) न िनदनीयासत े कष ं दश व नाद भा िनतकारकः
|
िज व ये तान ् गुरन ् द ू रे धीरान ेि स माश येत ् || जो गुर अपने दशन व से (िदखािे से) िशषय को भािनत मे ड़ालता है ऐसे गुर को पणाम नहीं करना चािहए | इतना ही नहीं दरू से ही उसका तयाग करना चािहए | ऐसी िसथित मे धैयि व ान ् गुर का ही आशय लेना चािहए | (104) पाखिणडन ः पापरता
सीलमपटा
ना िसतका भेदब ुदयः |
द ु राचाराः क ृ तघना ब कि ृ तयः
कम व भषाः कमानषाः िन
नदतकैश िािदनः
|| |
का िमनः को िधनश ैि िहंसाश ंड़ाः श ठसत था || जानल ुप ा न कत व वया म हापापासतथा िप
ये |
एभयो िभ ननो गुरः स ेवय एक भकतय ा िि चाय व च || भेदबुिद उतनन करनेिाले, सीलमपट, दरुाचारी, नमकहराम, बगुले की तरह ठगनेिाले, कमा
रिहत िननदनीय तको से िितंडािाद करनेिाले, कामी कोधी, िहं सक, उग, शठ तथा अजानी और महापापी पुरष को गुर नहीं करना चािहए | ऐसा ििचार करके ऊपर िदये लकणो से िभनन लकणोिाले गुर की एकिनष भिक से सेिा करनी चािहए | (105, 106, 107 ) सतय ं सतय ं प ुनः सतय ं ध मव सार ं मयोिदतम ् |
गुरगीता सम ं स तोत ं न ािसत तति ं ग ुरोः परम ् || गुरगीता के समान अनय कोई सतोत नहीं है | गुर के समान अनय कोई तति नहीं है | समग धम व का यह सार मैने कहा है , यह सतय है , सतय है और बार-बार सतय है | (108) अनेन यद भि ेद काय व तिदािम
ति िप ये |
लोकोपकारक ं द ेिि ल ौिककं त ु िििज व येत ्
||
हे िपये ! इस गुरगीता का पाठ करने से जो काय व िसद होता है अब िह कहता हूँ | हे दे िी ! लोगो के िलए यह उपकारक है | मात लौिकक का तयाग करना चािहए | (109) लौिक कादम व तो याित जानहीनो
भ िाण व िे |
जानभा िे च यतसि व क मव िनषकम व श ामयित
||
जो कोई इसका उपयोग लौिकक कायव के िलए करे गा िह जानहीन होकर संसाररपी सागर मे िगरे गा | जान भाि से िजस कमव मे इसका उपयोग िकया जाएगा िह कमव िनषकम व मे पिरणत होकर शांत हो जाएगा | (110) इमां त ु भ िक भाि े न पठ ेि ै श ृ णुयादिप
|
िल िखतिा यतपसाद ेन तत सि व फल मशुत े || भिक भाि से इस गुरगीता का पाठ करने से, सुनने से और िलखने से िह (भक) सब फल भोगता है | (111) गुरगीता िमम ां द ेिि हिद िनतय ं िि भािय | महावयािध गतैद ु ःखै ः सि व दा पजप े नमुदा ||
हे दे िी ! इस गुरगीता को िनतय भािपूिक व हदय मे धारण करो | महावयािधिाले दःुखी लोगो को सदा आनंद से इसका जप करना चािहए | (112)
गुरगीताकर ैकैकं म ं तराजिमद ं िपय े
|
अनये च िि ििधा म ंताः क लां नाह व िनत षोडशीम ् || हे िपये ! गुरगीता का एक-एक अकर मंतराज है | अनय जो ििििध मंत है िे इसका सोलहिाँ भाग भी नहीं | (113) अननतफ लमापन ोित ग ुरगीताजप ेन त ु | सि व पापहरा द ेिि सि व दािरदयनािशनी
||
हे दे िी ! गुरगीता के जप से अनंत फल िमलता है | गुरगीता सि व पाप को हरने िाली और सिव दािरदय का नाश करने िाली है | (114) अकालम ृ तयुहंती च स िव संकटना िशनी | यकराकसभ ू तािदचोरवया घििघाितनी
||
गुरगीता अकाल मतृयु को रोकती है , सब संकटो का नाश करती है , यक राकस, भूत, चोर और बाघ आिद का घात करती है | (115) सिोपदिक ुषिदद ु षदोषिनिािरणी
|
यतफल ं ग ुरसािनन धया ततफल ं पठनाद भि ेत ् || गुरगीता सब पकार के उपदिो, कुष और दष ु रोगो और दोषो का िनिारण करनेिाली है | शी गुरदे ि के सािननधय से जो फल िमलता है िह फल इस गुरगीता का पाठ करने से िमलता है | (116)
महावय ािधहरा सि व िि भूत ेः िसिददा भि े त ् | अथिा मो हने िशय े स ियम ेि जप ेत सदा ||
इस गुरगीता का पाठ करने से महावयािध दरू होती है , सि व ऐशय व और िसिदयो की पािप होती है | मोहन मे अथिा िशीकरण मे इसका पाठ सियं ही करना चािहए | (117)
मो हनं स िव भूताना ं ब नधमोककर ं पर म ् |
देिराजा ं िपयकर ं राजान ं िशमानय े त ् || इस गुरगीता का पाठ करनेिाले पर सिव पाणी मोिहत हो जाते है बनधन मे से परम मुिक िमलती है , दे िराज इनद को िह िपय होता है और राजा उसके िश होता है | (118) मुखसतमभकर ं च ैि ग ुणाणा ं च ििि धव नम ् | द ु षक मव नाश ं चैि तथा सत कम व िस िददम ् ||
इस गुरगीता का पाठ शतु का मुख बनद करनेिाला है , गुणो की ििृद करनेिाला है , दषुकृ तयो का नाश करनेिाला और सतकमव मे िसिद दे नेिाला है | (119) अिस दं साध येतकाय व निगह भयापहम ् |
द ु ःसिपनन ाशन ं च ैि स ुसिपनफलदायकम
् ||
इसका पाठ असाधय कायो की िसिद कराता है , नि गहो का भय हरता है , दःुसिपन का नाश करता है और सुसिपन के फल की पािप कराता है | (120)
मोह शािनत करं चैि ब नधमोककर ं पर म ् |
सिरपजानिनलय ं गीत शासिमद ं िशि े || हे िशिे ! यह गुरगीतारपी शास मोह को शानत करनेिाला, बनधन मे से परम मुक करनेिाला और सिरपजान का भणडार है | (121) यं य ं िच नतयत े काम ं त ं त ं पापनोित िन शयम ् | िनतय ं सौभागयद ं प ुणय ं तापतयक ुलाप हम ् ||
वयिक जो-जो अिभलाषा करके इस गुरगीता का पठन-िचनतन करता है उसे िह िनशय ही पाप होता है | यह गुरगीता िनतय सौभागय और पुणय पदान करनेिाली तथा तीनो तापो (आिध-वयािध-उपािध) का शमन करनेिाली है | (122)
सि व शािनत करं िनतय ं त था िनधयास ुप ु तदम ् |
अिैधवयकर ं सीणा ं सौभागयसय
िििध व नम ् ||
यह गुरगीता सब पकार की शांित करनेिाली, िनधया सी को सुपुत दे नेिाली, सधिा सी के िैधवय का िनिारण करनेिाली और सौभागय की ििृद करनेिाली है
| (123)
आयुरा रोगम ैशय व पुतपौतपि धव नम ् |
िनषकाम जापी ििधिा पठ े नमोकमिापन ुयात ् || यह गुरगीता आयुषय, आरोगय, ऐशय व और पुत-पौत की ििृद करनेिाली है | कोई ििधिा िनषकाम भाि से इसका जप-पाठ करे तो मोक की पािप होती है | (124) अिै धवय ं स कामा त ु लभ ते चानयज नमिन | सि व द ु ःखभय ं िि घनं नाशय ेतापहारकम ् || यिद िह (ििधिा) सकाम होकर जप करे तो अगले जनम मे उसको संताप हरनेिाल अिैधवय (सौभागय) पाप होता है | उसके सब दःुख भय, ििघन और संताप का नाश होता है | (125)
सिव पापपशमन ं ध मव कामाथ व मोकदम ् |
यं यं िचन तयत े का मं त ं त ं पापन ोित िनिश तम ् || इस गुरगीता का पाठ सब पापो का शमन करता है , धमव, अथव, और मोक की पािप
कराता है | इसके पाठ से जो-जो आकांका की जाती है िह अिशय िसद होती है | (126) िलिखतिा प ूज येदसत ु मोक िशयमिापन ु यात ् | गुरभिक िि व शेष ेण जायत े ह िद सि व दा ||
यिद कोई इस गुरगीता को िलखकर उसकी पूजा करे तो उसे लकमी और मोक की पािप होती है और ििशेष कर उसके हदय मे सिद व ा गुरभिक उतपनन होती रहती है | (127) जप िनत शाका ः सौराश
ग ाणपतय ाश ि ैषणिाः
|
शैिाः पाश ुप ताः सि े स तयं सतय ं न स ं शयः ||
शिक के, सूय व के, गणपित के, िशि के और पशुपित के मतिादी इसका (गुरगीता का) पाठ करते है यह सतय है , सतय है इसमे कोई संदेह नहीं है | (128)
जपं हीनासन ं कुि व न ् हीनकमा व फ लपदम ् |
गुरगीता ं पयाण े िा संगाम े िरप ु संकट े ||
जपन ् जयमिापन ोित मरण े मुिकदाियका
सिव कमािण िसदयिनत
|
गुरप ुत े न स ं शयः ||
िबना आसन िकया हुआ जप नीच कम व हो जाता है और िनष््फल हो जाता है | याता मे, युद मे, शतुओं के उपदि मे गुरगीता का जप-पाठ करने से ििजय िमलता है | मरणकाल मे जप करने से मोक िमलता है | गुरपुत के (िशषय के) सि व काय व िसद होते है , इसमे संदेह नहीं है | (129, 130) गुरम ंतो म ुख े यसय त सय िसदयिनत
नानयथा
|
दीकया सि व क माव िण िसदय िनत ग ुरप ु तके || िजसके मुख मे गुरमंत है उसके सब काय व िसद होते है , दस ू रे के नहीं | दीका के कारण िशषय के सिव कायव िसद हो जाते है | (131) भिमूल ििनाशाय
चा षपाशिनि ृ त ये |
गुरगीतामभ िस सनान ं ततिज क ुरत े स दा || सि व शुदः पिि तोऽसौ सि भािा दत ितषित तत द ेिगणाः स िे केतपीठ े चर िनत च
| ||
ततिज पुरष संसारपी िक ृ की जड़ नष करने के िलए और आठो पकार के बनधन (संशय, दया, भय, संकोच, िननदा पितषा, कुलािभमान और संपित) की िनििृत करने के िलए गुरगीता रपी गंगा मे सदा सनान करते रहते है | सिभाि से ही सिथ व ा शुद और पिित ऐसे िे महापुरष जहाँ रहते है उस तीथ व मे दे िता ििचरण करते है 133) आसनसथा शयाना िा अशरढ़ा गजारढ़ा स
ग चछ नतिषतष नतोऽ िप िा ुष ुपा जागतोऽ िप िा
शुिच भूता जानिनतो ग
||
ुरगीत ां जप िनत य े |
तेष ां दश व नसंस पशा व त ् पुनज व न म न ििदत े ||
|
| (132,
आसन पर बैठे हुए या लेटे हुए, खड़े रहते या चलते हुए, हाथी या घोड़े पर सिार, जागतिसथा मे या सुषुपािसथा मे , जो पिित जानिान ् पुरष इस गुरगीता का जप-पाठ करते है उनके दशन व और सपशव से पुनजन व म नहीं होता | (134, 135) कुशद ु िाव स ने द ेिि ह ासन े श ुभकमब ले |
उप ििशय ततो द े िि जप ेदेकाग मानसः
||
हे दे िी ! कुश और दि ु ा व के आसन पर सिेद कमबल िबछाकर उसके ऊपर बैठकर एकाग मन से इसका (गुरगीता का) जप करना चािहए (136)
शुकल ं स िव त ि ै पोकं िशय े रकासन ं िप ये |
पदासन े जप े िननतय ं श ािनत िशयकर ं परम ् || सामनयतया सिेद आसन उिचत है परं तु िशीकरण मे लाल आसन आिशयक है | हे िपये
! शांित पािप के िलए या िशीकरण मे िनतय पदासन मे बैठकर जप करना चािहए | (137) िसासन े च दा िरदय ं पाषाण े रोगस ंभि ः |
मे िदनय ां द ु ःखमापनोित काष े भि ित िनषफल म ् || कपड़े के आसन पर बैठकर जप करने से दािरदय आता है , पतथर के आसन पर रोग, भूिम पर बैठकर जप करने से दःुख आता है और लकड़ी के आसन पर िकये हुए जप िनषफल होते है | (138)
कृषणा िजन े जानिसिद ः मोक शी वयाघचम व िण | कुशासन े जान िसिदः स िव िस िदसत ु कमबल े || काले मग ृ चमव और दभास व न पर बैठकर जप करने से जानिसिद होती है , वयागचमव पर जप करने से मुिक पाप होती है , परनतु कमबल के आसन पर सि व िसिद पाप होती है | (139) आगन े यया ं कष व णं च ैि ियवया ं श तुनाशनम ् | नैरॄ तया ं दश व नं च ै ि ईशानय ां जा नमेि च
||
अिगन कोण की तरफ मुख करके जप-पाठ करने से आकषण व , िायवय कोण की तरि शतुओं का नाश, नैरॄतय कोण की तरफ दशन व और ईशान कोण की तरफ मुख करके जपपाठ करने से जान की पिप है | (140)
उदंम ुख ः शािनत जापय े िशय े प ूि व मुखत था |
यामय े त ु मारण ं पोकं प िशम े च धनागम ः || उतर िदशा की ओर मुख करके पाठ करने से शांित, पूि व िदशा की ओर िशीकरण, दिकण
िदशा की ओर मारण िसद होता है तथा पिशम िदशा की ओर मुख करके जप-पाठ करने से धन पािप होती है | (141) || इित शी सकानदोतरखणड
े उमामह ेशरस ं िाद े श ी ग ुरगीताया ं िितीयोऽधयायः || || अथ तृ तीयोऽधयायः
||
अथ कामयजपसथान ं कथया िम िरा नने | सागरानत े स िरती रे तीथ े हिरहरालय े || शिकद ेिा लये गोष े सि व देिा लये शुभ े |
िटसय धातया
मूल े ि म ठे ि ृ नदाि ने तथा
पिित े िनम व ले द ेश े िनतयान ुष ानोऽिप
||
िा |
िनि े द नेन मौ नेन ज पमेतत ् समारभ ेत ् || तीसरा
अधया य
हे सुमुखी ! अब सकािमयो के िलए जप करने के सथानो का िणन व करता हूँ | सागर या नदी के तट पर, तीथ व मे, िशिालय मे, ििषणु के या दे िी के मंिदर मे, गौशाला मे, सभी
शुभ दे िालयो मे, िटिक ृ के या आँिले के िक ृ के नीचे, मठ मे, तुलसीिन मे, पिित
िनमल व सथान मे, िनतयानुषान के रप मे अनासक रहकर मौनपूिक व इसके जप का आरं भ करना चािहए | जापय ेन जयमापन ोित ज पिस िदं फलं त था | हीनकम व तयज ेतसि व ग िहव तस था नमेि च ||
जप से जय पाप होता है तथा जप की िसिद रप फल िमलता है | जपानुषान के काल मे सब नीच कमव और िनिनदत सथान का तयाग करना चािहए | (145) समशान े िबलिम ू ले िा ि टमूला िनतके त था िसदय िनत कानक े म ूल े च ूति ृ कसय
|
सिनन धौ ||
समशान मे, िबलि, िटिक ृ या कनकिक ृ के नीचे और आमिक ृ के पास जप करने से से िसिद जलदी होती है | (146) आकलपज नमकोटीना ं यजवततप ः िकयाः
|
ताः स िाव ः सफ ला देिि ग ु रसंतोषमातत ः || हे दे िी ! कलप पयन व त के, करोड़ो जनमो के यज, वत, तप और शासोक िकयाएँ, ये सब गुरदे ि के संतोषमात से सफल हो जाते है | (147) मंदभागय ा ह शकाश य े जना
नान ुमनित े |
गुरस ेिास ु िि मुखाः पचयनत े नरकेऽ शुचौ
||
भागयहीन, शिकहीन और गुरसेिा से ििमुख जो लोग इस उपदे श को नहीं मानते िे घोर नरक मे पड़ते है | (148) ििदा धन ं बल ं च ैि त ेष ां भागय ं िनर थव कम ् |
येष ां ग ुरकृ पा नािसत
अधो ग चछिनत पाि व ित ||
िजसके ऊपर शी गुरदे ि की कृ पा नहीं है उसकी ििदा, धन, बल और भागय िनरथक व है | हे पाित व ी ! उसका अधःपतन होता है | (149) धन या माता िपता धनयो गोत धनया च िस ु धा द ेिि यत
ं ध नयं कुलोद िः |
सयाद ग ुर भकता ||
िजसके अंदर गुरभिक हो उसकी माता धनय है , उसका िपता धनय है , उसका िंश धनय है , उसके िंश मे जनम लेनेिाले धनय है , समग धरती माता धनय है | (150) शरीर िमिनदय ं प ाणचचाथ व ः सिजनबन धुता ं | मा तृ कुल ं िप तृ कुल ं ग ुरर ेि न स ं शयः
||
शरीर, इिनदयाँ, पाण, धन, सिजन, बनधु-बानधि, माता का कुल, िपता का कुल ये सब गुरदे ि ही है | इसमे संशय नहीं है | (151) गुरद ेिो ग ुर धव मो ग ुरौ िनषा पर ं तप ः | गुरोः परतर ं नािसत
ितिार ं कथया िम त े ||
गुर ही दे ि है , गुर ही धम व है , गुर मे िनषा ही परम तप है | गुर से अिधक और कुछ नहीं है यह मै तीन बार कहता हूँ | (152) समु दे ि ै यथा तोय ं कीर े कीर ं घ ृ ते घृ तम ् |
िभन ने कुंभ े यथा ऽऽका शं तथा ऽऽतमा परमातमिन
||
िजस पकार सागर मे पानी, दध ू मे दध ू , घी मे घी, अलग-अलग घटो मे आकाश एक और अिभनन है उसी पकार परमातमा मे जीिातमा एक और अिभनन है | (153) तथैि जानिान ् जीि परमातम िन सि व दा |
ऐकय ेन रमत े जानी
यत कु त िदिािन शम ् ||
इसी पकार जानी सदा परमातमा के साथ अिभनन होकर रात-िदन आनंदििभोर होकर सित व ििचरते है | (154) गुरसन तोषणाद ेि मुको भ िित पाि व ित | अिणमािदष ु भोक ृति ं कृपया देिि जायत े
||
हे पाििवत ! गुरदे ि को संतुष करने से िशषय मुक हो जाता है | हे दे िी ! गुरदे ि की कृ पा से िह अिणमािद िसिदयो का भोग पाप करता है | (155) साम येन रमत े जा नी िदिा िा यिद िा िन
िश |
एिं िि धौ महामौनी त ैलोकयसमत ां वज ेत ् || जानी िदन मे या रात मे, सदा सिद व ा समति मे रमण करते है | इस पकार के महामौनी अथात व ् बहिनष महातमा तीनो लोको मे समान भाि से गित करते है | (156) गुरभािः पर ं ती थव मनयती थव िनरथ व कम ् |
सिव तीथ व मयं द े िि शीग ुरोशरणामब ुजम ् || गुरभिक ही सबसे शष े तीथ व है | अनय तीथव िनरथक व है | हे दे िी ! गुरदे ि के चरणकमल सित व ीथम व य है | (157)
कनयाभोगरतामनदाः स
िकानतायाः
पराडम ुखाः |
अत ः पर ं मया दे िि क िथत नन म म िपय े ||
हे दे िी ! हे िपये ! कनया के भोग मे रत, सिसी से ििमुख (परसीगामी) ऐसे बुिदशूनय लोगो को मेरा यह आतमिपय परमबोध मैने नहीं कहा | (158) अभके ि ंचके ध ूत े
पाख ंडे नािसतकािदष ु |
मनसाऽ िप न िकवय ा ग ुर गीता क दाचन || अभक, कपटी, धूतव, पाखणडी, नािसतक इतयािद को यह गुरगीता कहने का मन मे सोचना तक नहीं | (159)
गुरिो बहि ः सिनत
िश षयिितापहारकाः
तमेकं द ु लव भं म नये िशषयहतापहारकम
| ् ||
िशषय के धन को अपहरण करनेिाले गुर तो बहुत है लेिकन िशषय के हदय का संताप हरनेिाला एक गुर भी दल व है ऐसा मै मानता हूँ | (160) ु भ चात ुय व िा िनिि ेकी च अधयातमजानिा
न् शु िचः |
मानस ं िनम व लं यसय गुरति ं तसय शो भते ||
जो चतुर हो, िििेकी हो, अधयातम के जाता हो, पिित हो तथा िनमल व मानसिाले हो उनमे गुरति शोभा पाता है | (161)
गुरिो िन मव लाः शा नताः सा धिो िम तभािषण ः | कामकोध िििनम ुव का ः सदाचारा
िजत े िनदयाः
||
गुर िनमल व , शांत, साधु सिभाि के, िमतभाषी, काम-कोध से अतयंत रिहत, सदाचारी और िजतेिनदय होते है | (162)
सू चकािद पभ ेदेन ग ुरिो बह ु धा सम ृ ताः |
सिय ं समयक ् परीक याथ ततििनष ं भज ेतस ु धीः || सूचक आिद भेद से अनेक गुर कहे गये है | िबिदमान ् मनुषय को सियं योगय ििचार करके ततििनष सदगुर की शरण लेनी चािहए| (163)
िण व जाल िमद ं तिदाह शा सं त ु लौ िककम ् |
यिसमन ् देिि स मभयसत ं स ग ुरः स ू चक ः सम ृ त ः || हे दे िी ! िण व और अकरो से िसद करनेिाले बाह लौिकक शासो का िजसको अभयास हो िह गुर सूचक गुर कहलाता है | (164) िणा व शमो िचत ां ििद ां धमा व धम व िि धाियनीम ् | पिकार ं ग ुरं िििद िाच कसतिित
पाि व ित ||
हे पाित व ी ! धमाध व म व का ििधान करनेिाली, िण व और आशम के अनुसार ििदा का पिचन करनेिाले गुर को तुम िाचक गुर जानो | (165) पंचाकया व िद मंताणाम ुपद ेषा त
पाि व ित |
स गुरबोधको भ ूय ाद ु भयोरम ुतमः || पंचाकरी आिद मंतो का उपदे श दे नेिाले गुर बोधक गुर कहलाते है | हे पाित व ी ! पथम दो पकार के गुरओं से यह गुर उतम है | (166) मो हमारणिश यािदत ु चछम ंतोपद िश व नम ् |
िन िषदग ुरिरतयाह ु ः प िणड तसततिद िश व नः || मोहन, मारण, िशीकरण आिद तुचछ मंतो को बतानेिाले गुर को ततिदशी पंिडत िनिषद गुर कहते है | (167) अिनतयिमित
िनिद व शय संसार े स ंकटा लयम ् |
िैरागयपथदशी यः स
गुर िि व िह तः िपय े ||
हे िपये ! संसार अिनतय और दःुखो का घर है ऐसा समझाकर जो गुर िैरागय का मागव बताते है िे िििहत गुर कहलाते है | (168)
तति मसयािदिाकय ानाम ुपद ेषा त ु पाि व ित | कारणाख यो ग ुर ः पोको
भिरोगिनिारकः
||
हे पाित व ी ! ततिमिस आिद महािाकयो का उपदे श दे नेिाले तथा संसाररपी रोगो का िनिारण करनेिाले गुर कारणाखय गुर कहलाते है | (169) सि व स नदेह सनदोहिन मूव लनिि चकणः | जनमम ृ तयुभयघनो यः स ग
ुरः परमो म तः ||
सि व पकार के सनदे हो का जड़ से नाश करने मे जो चतुर है , जनम, मतृयु तथा भय का जो ििनाश करते है िे परम गुर कहलाते है , सदगुर कहलाते है | (170) बहुजनम कृतात ् पुणयाललभयत ेऽ सौ
लबधिाऽ मुं न पुन याव ित िशषयः
महाग ुर ः |
संसारबनधनम ् ||
अनेक जनमो के िकये हुए पुणयो से ऐसे महागुर पाप होते है | उनको पाप कर िशषय पुनः संसारबनधन मे नहीं बँधता अथात व ् मुक हो जाता है | (171) एिं बह ु ििधालोक े ग ुरिः स िनत
तेष ु सि व पतेन स ेवयो िह परमो
पाि व ित | गुरः ||
हे पित व ी ! इस पकार संसार मे अनेक पकार के गुर होते है | इन सबमे एक परम गुर का ही सेिन सिव पयतो से करना चािहए | (172) पाि व तयुिाच सिय ं म ूढा म ृ तयुभीताः स ु कृताििर ितं गताः | दैििनन िषदग ुरगा यिद त ेष ां त ु का गित ः || पि व ती ने कहा
पकृ ित से ही मूढ, मतृयु से भयभीत, सतकम व से ििमुख लोग यिद दै ियोग से िनिषद गुर का सेिन करे तो उनकी कया गित होती है | (173) शीमहाद ेि उिा च
िन िषदग ुर िशषयसत ु द ु षसंकल पद ू िषत ः |
बहप लयप यव न तं न पुनया व ित म ृ तयताम ् || शी म हाद ेिजी बोल े िनिषद गुर का िशषय दष ु संकलपो से दिूषत होने के कारण बहपलय तक मनुषय नहीं होता, पशुयोिन मे ही रहता है | (174)
शृणु ततििम दं द े िि यदा
तदा ऽसाि िधकारीित
सयाििरतो
नरः |
पोचयत े श ु तम सतकैः ||
हे दे िी ! इस तति को धयान से सुनो | मनुषय जब ििरक होता है तभी िह अिधकारी कहलाता है , ऐसा उपिनषद कहते है | अथात व ् दै ि योग से गुर पाप होने की बात अलग है और ििचार से गुर चुनने की बात अलग है | (175)
अखणड ैकरस ं ब ह िनतयम ुकं िनरामयम ् |
सि िसमन स ंद िश व तं य ेन स भि ेदसय दे िशक ः || अखणड, एकरस, िनतयमुक और िनरामय बह जो अपने अंदर ही िदखाते है िे ही गुर होने चािहए | (176) जलाना ं सा गरो राजा य था भ िित पाि व ित | गुरण ां तत सि े ष ां राजाय ं परमो ग ुर ः || हे पाित व ी ! िजस पकार जलाशयो मे सागर राजा है उसी पकार सब गुरओं मे से ये परम गुर राजा है | (177) मो हािदरिह तः शा नतो िनतयत ृ पो िनराशय ः | तृ णीकृत बहििषण ुि ै भिः परमो
गुरः ||
मोहािद दोषो से रिहत, शांत, िनतय तप ृ , िकसीके आशयरिहत अथात व ् सिाशयी, बहा और ििषणु के िैभि को भी तण ृ ित ् समझनेिाले गुर ही परम गुर है | (178) सिव कालिि देश ेष ु सित ं तो िन शलसस ुखी | अखणड ैकरसासिादत ृ पो िह परमो
गुर ः ||
सि व काल और दे श मे सितंत, िनशल, सुखी, अखणड, एक रस के आननद से तप ृ ही सचमुच परम गुर है | (179) िैताि ैत िििनम ुव कः सिान ुभ ूितप काशिान ् | अजान ान धमशछ ेता सि व ज परमो ग ुर ः ||
िै त और अिै त से मुक, अपने अनुभुिरप पकाशिाले, अजानरपी अंधकार को छे दनेिाले और सिज व ही परम गुर है | (180) यसय दश व नमात ेण मनस ः सयात ् पसननता
|
सिय ं भ ूयात ् धृ ितशशा िनतः स भि त े ् पर मो गुर ः || िजनके दशन व मात से मन पसनन होता है , अपने आप धैयव और शांित आ जाती है िे परम गुर है | (181) सिशरीर ं शि ं पशयन ् तथा सिातमानमियम ् |
यः सीकनकमोहघन
ः स भि ेत ् परमो ग ु रः ||
जो अपने शरीर को शि समान समझते है अपने आतमा को अिय जानते है , जो कािमनी और कंचन के मोह का नाशकताव है िे परम गुर है | (182) मौनी िागमीित ततिजो
िि धाभ ूचछृण ु पाि व ित |
न क िशन मौिनन ा लाभो लोक े ऽिसम नभ िित
िागमी तूतकटस ं सारसागरो तारणकमः
िपय े || |
यतोऽसौ स ं शयचछ ेता श ास युकतयन ुभ ूित िभः || हे पाित व ी ! सुनो | ततिज दो पकार के होते है | मौनी और िका | हे िपये ! इन दोनो मे से मौनी गुर िारा लोगो को कोई लाभ नहीं होता, परनतु िका गुर भयंकर संसारसागर को
पार कराने मे समथ व होते है | कयोिक शास, युिक (तकव) और अनुभूित से िे सिव संशयो का छे दन करते है | (183, 184) गुरनामजपा दे िि बहु ज नमािज व तानयिप
पापािन ििलय ं या िनत नािसत
|
सन देहम णििप ||
हे दे िी ! गुरनाम के जप से अनेक जनमो के इकठठे हुए पाप भी नष होते है , इसमे अणुमात संशय नहीं है | (185)
कुल ं धन ं ब लं शास ं बानधिास सोदर ा इमे | मरण े नोपय ुज यनत े ग ुरर ेको िह तारक ः || अपना कुल, धन, बल, शास, नाते-िरशतेदार, भाई, ये सब मतृयु के अिसर पर काम नहीं आते | एकमात गुरदे ि ही उस समय तारणहार है | (186) कुलमेि प िित ं सयात ् सतय ं सिग ुरस े िय ा |
तृ पाः स युससकला
देिा बहादा
गुरतप व णात ् ||
सचमुच, अपने गुरदे ि की सेिा करने से अपना कुल भी पिित होता है | गुरदे ि के तपण व से बहा आिद सब दे ि तप ृ होते है | (187) सिरपजानश ून येन कृतमपयक ृत ं
भिे त ् |
तपो जपािद कं द ेिि स कलं बालजलपित ् || हे दे िी ! सिरप के जान के िबना िकये हुए जप-तपािद सब कुछ नहीं िकये हुए के बराबर है , बालक के बकिाद के समान (वयथव) है | (188)
न जान िनत पर ं तति ं ग ुरदीकापर ाडम ुखाः | भानताः प शुसमा ह ेत े सिपिरजानििज व ता ः || गुरदीका से ििमुख रहे हुए लोग भांत है , अपने िासतििक जान से रिहत है | िे सचमुच पशु के समान है | परम तति को िे नहीं जानते | (189)
तसमातक ैिलय िसदय थव गुरम ेि भ जेितप ये | गुरं ििना न जान िनत म ूढासततपरम ं पद म ् || इसिलये हे िपये ! कैिलय की िसिद के िलए गुर का ही भजन करना चािहए | गुर के िबना मूढ लोग उस परम पद को नहीं जान सकते | (190) िभदत े हदयग िनथ िशछदनत े सिव संशयाः कीयनत े स िव कमा व िण ग ुरोः करणया
|
िशि े ||
हे िशिे ! गुरदे ि की कृ पा से हदय की गिनथ िछनन हो जाती है , सब संशय कट जाते है और सिव कमव नष हो जाते है | (191) कृताया गुरभकेसत ु मुचयत े पात काद घोराद
िेद शा सनुसारतः
|
गुरभको ििश ेषत ः ||
िेद और शास के अनुसार ििशेष रप से गुर की भिक करने से गुरभक घोर पाप से भी मुक हो जाता है | (192) द ु ः संग ं च पिरतयजय
पापक मव पिरतयज ेत ् |
िचत िचह िम दं यसय तसय दीका
िि धीयत े ||
दज व ो का संग तयागकर पापकम व छोड़ दे ने चािहए | िजसके िचत मे ऐसा िचह दे खा ु न जाता है उसके िलए गुरदीका का ििधान है | (193)
िचततयागिनय ुकश कोधग िव ििि िज व त ः | िैतभािपिरतयागी तसय
दीका िि धीयत े ||
िचत का तयाग करने मे जो पयतशील है , कोध और गि व से रिहत है , िै तभाि का िजसने तयाग िकया है उसके िलए गुरदीका का ििधान है | (194) एत ललकणस ंय ुकं सि व भूतिह ते रतम ् |
िन मव लं जी िित ं यसय तसय दीका
िि धीयत े ||
िजसका जीिन इन लकणो से युक हो, िनमल व हो, जो सब जीिो के कलयाण मे रत हो उसके िलए गुरदीका का ििधान है | (195) अतयनत िचतपकिसय शदाभिकय
ुतसय च |
पिकवयिम दं द ेिि म मातमपीतय े सदा || हे दे िी ! िजसका िचत अतयनत पिरपकि हो, शदा और भिक से युक हो उसे यह तति सदा मेरी पसननता के िलए कहना चािहए | (196) सत कम व पिरपाकाच च िच तशुदसय धी मतः |
साधक सयैि िकवया
गुरगीता पयतत ः ||
सतकम व के पिरपाक से शुद हुए िचतिाले बुिदमान ् साधक को ही गुरगीता पयतपूिक व कहनी चािहए | (197)
नािसतकाय
कृतघनाय
अभकाय ििभकाय
द ांिभ काय श ठाय
न िाच येय ं कदाचन
च | ||
नािसतक, कृ तघन, दं भी, शठ, अभक और ििरोधी को यह गुरगीता कदािप नहीं कहनी चािहए | (198)
सीलोल ुपाय मूखा व य कामोप हतच ेतस े |
िन नदकाय न िकवया
गुरगीतासिभाित
ः ||
सीलमपट, मूखव, कामिासना से गसत िचतिाले तथा िनंदक को गुरगीता िबलकुल नहीं कहनी चािहए | (199)
एकाकरपदातार ं यो गुरन ै ि म नयत े |
शनयोिनशत ं गतिा चा णडाल ेषििप
जायत े ||
एकाकर मंत का उपदे श करनेिाले को जो गुर नहीं मानता िह सौ जनमो मे कुता होकर िफर चाणडाल की योिन मे जनम लेता है | (200) गुरतयागाद
भिेन मृ तयुम व नततयागादिरदता
गुरम ं तपिरतयागी
|
रौरि ं नरकं वजेत ् ||
गुर का तयाग करने से मतृयु होती है | मंत को छोड़ने से दिरदता आती है और गुर एिं मंत दोनो का तयाग करने से रौरि नरक िमलता है | (201) िशिको धाद ग ुरसाता
गुरकोधा िचछिो न
िह |
तस मातसि व पयत ेन गुरोराजा ं न लंघय ेत ् ||
िशि के कोध से गुरदे ि रकण करते है लेिकन गुरदे ि के कोध से िशिजी रकण नहीं करते | अतः सब पयत से गुरदे ि की आजा का उललंघन नहीं करना चािहए | (202)
सप कोिटमहा मंतािशत ििभ ं शकारकाः
|
एक एि म हाम ंतो गुरिरतयकरियम ् || सात करोड़ महामंत ििदमान है | िे सब िचत को भिमत करनेिाले है | गुर नाम का दो अकरिाला मंत एक ही महामंत है | (203) न म ृ षा सयािदय ं द ेिि मद ु िक ः सतयरिपिण
गुरगीतासम ं स तोत ं न ािसत नािसत
|
महीतल े ||
हे दे िी ! मेरा यह कथन कभी िमथया नहीं होगा | िह सतयसिरप है | इस पथ ृ िी पर गुरगीता के समान अनय कोई सतोत नहीं है | (204) गुरगीता िमम ां द ेिि भिद ु ःखििना िशनीम ् |
गुरदीकाििहीनसय
पुरतो न
पठेतकििच त ् ||
भिदःुख का नाश करनेिाली इस गुरगीता का पाठ गुरदीकाििहीन मनुषय के आगे कभी नहीं करना चािहए | (205)
रहसयमतयनतरहसयम
ेतनन पा िपन ा लभयिमद ं म हेशिर
|
अने कजनमा िज व तपु णयपाक ाद ग ुरोसत ु तति ं ल भते मन ुषयः || हे महे शरी ! यह रहसय अतयंत गुप रहसय है | पािपयो को िह नहीं िमलता | अनेक जनमो के िकये हुए पुणय के पिरपाक से ही मनुषय गुरतति को पाप कर सकता है | (206) सि व ती थव िगाहसय स ंपापनोित गुरोः पादोदक ं पीतिा
फलं नरः
|
शेष ं िशर िस धारयन ् ||
शी सदगुर के चरणामत ृ का पान करने से और उसे मसतक पर धारण करने से मनुषय सिव तीथो मे सनान करने का फल पाप करता है | (207) गुरपादोदक ं पान ं गुरोर िचछषभोजनम ् |
गुरम ूव ते सदा धयान ं गुरोना व मनः सदा जप ः || गुरदे ि के चरणामत ृ का पान करना चािहए, गुरदे ि के भोजन मे से बचा हुआ खाना, गुरदे ि की मूितव का धयान करना और गुरनाम का जप करना चािहए | (208)
गुरर ेको ज गतसि व ब हििषण ु िशिातमकम ्
|
गुरोः परतर ं ना िसत तसमातस ंप ूज येद गुरम ् || बहा, ििषणु, िशि सिहत समग जगत गुरदे ि मे समाििष है | गुरदे ि से अिधक और कुछ भी नहीं है , इसिलए गुरदे ि की पूजा करनी चािहए | (209) जान ं ििना म ुिकप दं लभयत े ग ुर भिकत ः | गुरोः समानतो न
ानयत ् सा धनं गुरमािग व णा म ् ||
गुरदे ि के पित (अननय) भिक से जान के िबना भी मोकपद िमलता है | गुर के मागव पर चलनेिालो के िलए गुरदे ि के समान अनय कोई साधन नहीं है | (210) गुरोः क ृपाप साद ेन ब हििषण ु िशिादयः
|
सा मथय व मभजन ् सिे सृ िष िसथतय ंतकम व िण ||
गुर के कृ पापसाद से ही बहा, ििषणु और िशि यथाकम जगत की सिृष, िसथित और लय करने का सामथयव पाप करते है | (211) मंतराजिम दं द ेिि गुरिरतयकरियम ् |
सम ृ िति ेदप ुराण ाना ं सारम ेि न सं शयः || हे दे िी ! गुर यह दो अकरिाला मंत सब मंतो मे राजा है , शष े है | समिृतयाँ, िेद और पुराणो का िह सार ही है , इसमे संशय नहीं है | (212) यसय पसादादहम ेि स िव मय येि सि व पिरक िलपत ं च | इतथ ं ििजानािम स दातमरप ं तसया ं िघपद ं पण तोऽिसम
िनतयम ् ||
मै ही सब हूँ, मुझमे ही सब किलपत है , ऐसा जान िजनकी कृ पा से हुआ है ऐसे आतमसिरप शी सदर ु दे ि के चरणकमलो मे मै िनतय पणाम करता हूँ | (213) अजानितिमरा नधसय िि षय ाकानत चेतस ः | जानपभापदान ेन प साद ं कुर म े पभो || हे पभो ! अजानरपी अंधकार मे अंध बने हुए और ििषयो से आकानत िचतिाले मुझको जान का पकाश दे कर कृ पा करो | (214)
|| इित शी सकानदोतरखणड े उमामह ेशरस ंिाद े श ी ग ुरगीताया ं तृ ती योऽधयायः
||