Parvon Ka Punj Depawali

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  • Words: 18,894
  • Pages: 46
अनुकम

पातः समर णीय संत शी आसाराम बाप ू ज ी स तसंग -पव चन

पवो का प ुंज दीपावल ी शी योग व ेदान त स ेवा सिमित संत श ी आसा राम जी आ शम , साबरमत ी, अमदाव ाद -380005 फो नः 079-7505010,7505011

िनव ेदन मानो ना

मानो य े ह कीकत ह ै। ख ुशी इन सान की जररत ह ै।।

महीने मे अथवा वष ष मे एक-दो िदन आदे श दे कर कोई काम मनुषय के दारा करवाया जाये तो उससे मनुषय का िवकास संभव नहीं है । परं तु मनुषय यदा-कदा अपना िववेक जगाकर

उललास, आनंद, पसननता, सवासथय और सनेह का गुण िवकिसत करे तो उसका जीवन िवकिसत हो सकता है ।

उललास, आनंद, पसननता बढाने वाले हमारे पवो मे, पवो का पुंज-दीपावली अगणी सथान

पर है । भारतीय संसकृ ित के ऋिष-मुिनयो, संतो की यह दरूदिि रही है , जो ऐसे पवो के माधयम से

वे समाज को आितमक आनंद, शाशत सुख के माग ष पर ले जाते थे। परम पूजय संत शी आसारामजी बापू के इस पव ष के पावन अवसर िकये सतसंग पवचनो का यह संकलन पुसतक के

रप मे आपके करकमलो तक पहुँचने की सेवा का सुअवसर पाकर सिमित धनयता का अनुभव करती है ।

शी योग व ेदानत स ेवा स िम ित अमदावाद

आ शम।

ऐसी िदवाली मना ते ह ै प ूजय ब ापूजी संत हदय तो भाई संत हदय ही होता है । उसे जानने के िलए हमे भी अपनी विृि को

संत-विृि बनाना होता है । आज इस कलयुग मे अपनतव से गरीबो के दःुखो को, किो को समझकर अगर कोई चल रहे है तो उनमे परम पूजय संत शी आसाराम जी बापू सबसे अगणी

सथान पर है । पूजय बापू जी िदवाली के िदनो मे घूम-घूम कर जाते है उन आिदवािसयो के पास, उन गरीब, बेसहारा, िनरािशतो के पास िजनके पास रहने को मकान नहीं, पहनने को वस

नहीं, खाने को रोटी नहीं ! कैसे मना सकते है ऐसे लोग िदवाली? लेिकन पूजय बापू दारा आयोजन होता है िवशाल भंडारो का, िजसमे ऐसे सभी लोगो को इकटठा कर िमठाइयाँ, फल, वस, बतन ष , दििणा, अनन आिद का िवतरण होता है । साथ-ही-साथ पूजय बापू उनहे सुनाते है

गीता-भागवत-रामायण-उपिनषद का संदेश तथा भारतीय संसकृ ित की गिरमा तो वे अपने दःुखो को भूल पभुमय हो हिरकीतन ष मे नाचने लगते है और दीपावली के पावन पव ष पर अपना उललास कायम रखते है ।

उलला सपूण ष जीवन जीना िसखाती ह सं सकृित

ै सनातन

हमारी सनातन संसकृ ित मे वत, तयौहार और उतसव अपना िवशेष महतव रखते है । सनातन धम ष मे पव ष और तयौहारो का इतना बाहूलय है िक यहाँ के लोगो मे 'सात वार नौ तयौहार' की कहावत पचिलत हो गयी। इन पवो तथा तयौहारो के रप मे हमारे ऋिषयो अनुकम ने जीवन को सरस और उललासपूण ष बनाने की सुनदर वयवसथा की है । पतयेक पव ष और तयौहार का

अपना एक िवशेष महतव है , जो िवशेष िवचार तथा उदे शय को सामने रखकर िनिित िकया गया है ।

ये पव ष और तयौहार चाहे िकसी भी शण े ी के हो तथा उनका बाह रप भले िभनन-िभनन

हो, परनतु उनहे सथािपत करने के पीछे हमारे ऋिषयो का उदे शय था – समाज को भौितकता से आधयाितमकता की ओर लाना।

अनतमुख ष होकर अंतयात ष ा करना यह भारतीय संसकृ ित का पमुख िसदानत है । बाहरी

वसतुएँ कैसी भी चमक-दमकवाली या भवय हो, परनतु उनसे आतम कलयाण नहीं हो सकता, कयोिक वे मनुषय को परमाथष से जीवन मे अनेक पवो और तयौहारो को जोडकर हम हमारे उिम लकय की ओर बढते रहे , ऐसी वयवसथा बनायी है ।

मनुषय अपनी सवाभािवक पविृि के अनुसार सदा एक रस मे ही रहना पसंद नहीं करता।

यिद वष ष भर वह अपने िनयिमत कायो मे ही लगा रहे तो उसके िचि मे उिदगनता का भाव

उतपनन हो जायेगा। इसिलए यह आवशयक है िक उसे बीच-बीच मे ऐसे अवसर भी िमलते रहे , िजनसे वह अपने जीवन मे कुछ नवीनता तथा हषोललास का अनुभव कर सके।

जो तयौहार िकसी महापुरष के अवतार या जयंती के रप मे मनाये जाते है , उनके दारा

समाज को सचचिरतता, सेवा, नैितकता, सदभावना आिद की िशिा िमलती है । िबना िकसी

मागद ष शक ष अथवा पकाशसतंभ के संसार मे सफलतापूवक ष याता करना मनुषय के िलए संभव नहीं है । इसीिलए उननित की आकांिा करने वाली जाितयाँ अपने महान पूवज ष ो के चिरतो को बडे

गौरव के साथ याद करती है । िजस वयिि या जाित के जीवन मे महापुरषो का सीधा-अनसीधा जान पकाश नहीं, वह वयिि या जाित अिधक उिदगन, जिटल व अशांत पायी जाती है । सनातन धम ष मे तयौहारो को केवल छुटटी का िदन अथवा महापुरषो की जयंती ही न समझकर उनसे समाज की वासतिवक उननित तथा चहुँमुखी िवकास का उदे शय िसद िकया गया है ।

लंबे समय से अनेक थपेडो को सहने, अनेक किो से जूझने तथा अनेक पिरवतन ष ो के बाद

भी हमारी संसकृ ित आज तक कायम है तो इसके मूल कारणो मे इन पवो और तयौहारो का भी बडा योगदान रहा है ।

हमारे ततववेिा पूजयपाद ऋिषयो ने महान उदे शयो को लकय बनाकर अनेक पवो तथा

तयौहारो के िदवस िनयुि िकये है । इन सबमे लौिकक कायो के साथ ही आधयाितमक ततवो का समावेश इस पकार से कर िदया गया है िक हम उनहे अपने जीवन मे सुगमतापूवक ष उतार सके। सभी उतसव समाज को नवजीवन, सफूित ष व उतसाह दे ने वाले है । इन उतसवो का लकय यही है

िक हम अपने महान पूवज ष ो के अनुकरणीय तथा उजजवल सतकमो की परं परा को कायम रखते हुए जीवन का चहुँमुखी िवकास करे ।अनुकम

हम सभी का यह कतवषय है िक अपने उतसवो को हषोललास तथा गौरव के साथ मनाये,

परनतु साथ ही यह भी परम आवशयक है िक हम उनके वासतिवक उदे शयो और सवरप को न भूलकर उनहे जीवन मे उतारे ।

जान की िचंगारी को फूँकते रहना। जयोत जगाते रहना। पकाश बढाते रहना। सूरज

की िकरण के जिरये सूरज की खबर पा लेना। सदगुरओं के पसाद के सहारे सवयं सतय की पािि तक पहुँच जाना। ऐसी हो मधुर िदवाली आपकी...

अनुकम पवो का पुंजः दीपावली। आतमजयोित जगाओ।

दीपावली पर दे ता हूँ एक अनूठा आशीवाद ष । दीपावली का ताितवक दििकोण।

लकमीपूजन का पौरािणक पवःष दीपावाली। माँ लकमी का िनवास कहाँ?

लकमी जी की पािि िकसको? दीपजयोित की मिहमा।

दीपावली पर लकमीपािि की सचोट साधना-िविधयाँ। दीपोतसव।

उनकी सदा दीवाली है ।

दीपावली – पूजन का शासोि िवधान। भारतीय संसकृ ित की महक। नूतन वषष – संदेश।

नूतन वषष की रसीली िमठाई।

भाईदज ू ः भाई-बहन के सनेह का पतीक। दीपावली सावधानी से मनाये।

पूजयशी का दीपावली संदेश। िवजयादशमी आतमिवजय पा लो।

िवजयादशमीः दसो इिनियो पर िवजय। िवजयादशमी – संदेश। जानदीप।

तेल और बाती से बना दीया तो बुझ जाता है लेिकन सदगुर की कृ पा से पजजविलत

िकया गया आतम दीपक सिदयो तक जगमगाता रहता है और िवश को आतम-पकाश आलोिकत करता है । आपके भीतर भी शाशत दीया जगमगाये।

पवो क ा प ुंजः दीपावली उिरायण, िशवराती, होली, रिाबंधन, जनमािमी, नवराती, दशहरा आिद तयौहारो को मनाते-

मनाते आ जाती है पवो की हारमाला-दीपावली। पवो के इस पुंज मे 5 िदन मुखय है - धनतेरस, काली चौदस, दीपावली, नूतन वष ष और भाईदज ू । धनतेरस से लेकर भाईदज ू तक के ये 5 िदन आनंद उतसव मनाने के िदन है ।

शरीर को रगड-रगड कर सनान करना, नये वस पहनना, िमठाइयाँ खाना, नूतन वष ष का

अिभनंदन दे ना-लेना. भाईयो के िलए बहनो मे पेम और बहनो के पित भाइयो दारा अपनी िजममेदारी सवीकार करना – ऐसे मनाये जाने वाले 5 िदनो के उतसवो के नाम है 'दीपावली पव।ष'

धनत ेरसः धनवंतिर महाराज खारे -खारे सागर मे से औषिधयो के दारा शारीिरक सवासथय-

संपदा से समद ृ हो सके, ऐसी समिृत दे ता हुआ जो पवष है , वही है धनतेरस। यह पवष धनवंतिर दारा

पणीत आरोगयता के िसदानतो को अपने जीवन मे अपना कर सदै व सवसथ और पसनन रहने का संकेत दे ता है । काली

चौदस ः धनतेरस के पिात आती है 'नरक चतुदषशी (काली चौदस)'। भगवान

शीकृ षण ने नरकासुर को कूर कमष करने से रोका। उनहोने 16 हजार कनयाओं को उस दि ु की कैद

से छुडाकर अपनी शरण दी और नरकासुर को यमपुरी पहुँचाया। नरकासुर पतीक है – वासनाओं के समूह और अहं कार का। जैसे, शीकृ षण ने उन कनयाओं को अपनी शरण दे कर नरकासुर को

यमपुरी पहुँचाया, वैसे ही आप भी अपने िचि मे िवदमान नरकासुररपी अहं कार और वासनाओं के

समूह को शीकृ षण के चरणो मे समिपत ष कर दो, तािक आपका अहं यमपुरी पहुँच जाय और

आपकी असंखय विृियाँ शी कृ षण के अधीन हो जाये। ऐसा समरण कराता हुआ पव ष है नरक चतुदषशी।

इन िदनो मे अंधकार मे उजाला िकया जाता है । हे मनुषय ! अपने जीवन मे चाहे िजतना

अंधकार िदखता हो, चाहे िजतना नरकासुर अथात ष ् वासना और अहं का पभाव िदखता हो, आप

अपने आतमकृ षण को पुकारना। शीकृ षण रिकमणी को आगेवानी दे कर अथात ष ् अपनी बहिवदा को आगे करके नरकासुर को िठकाने लगा दे गे।अनुकम

िसयो मे िकतनी भी शिि है । नरकासुर के साथ केवल शीकृ षण लडे हो, ऐसी बात नहीं

है । शीकृ षण के साथ रिकमणी जी भी थीं। सोलह-सोलह हजार कनयाओं को वश मे करने वाले शीकृ षण को एक सी (रकमणीजी) ने वश मे कर िलया। नारी मे िकतनी अदभुत शिि है इसकी याद िदलाते है शीकृ षण। दीपावलीः

िफर आता है आता है दीपो का तयौहार – दीपावली। दीपावली की राती को

सरसवती जी और लकमी जी का पूजन िकया जाता है । जानीजन केवल अखूट धन की पािि को

लकमी नहीं, िवि मानते है । िवि से आपको बडे -बडे बँगले िमल सकते है , शानदार महँ गी गािडयाँ िमल सकती है , आपकी लंबी-चौडी पशंसा हो सकती है परं तु आपके अंदर परमातमा का रस नहीं

आ सकता। इसीिलए दीपावली की राती को सरसवतीजी का भी पूजन िकया जाता है , िजससे लकमी के साथ आपको िवदा भी िमले। यह िवदा भी केवल पेट भरने की िवदा नहीं वरन ् वह िवदा िजससे आपके जीवन मे मुिि के पुषप महके। सा िवदा

या िव मुिय े। ऐिहक िवदा के

साथ-साथ ऐसी मुििपदायक िवदा, बहिवदा आपके जीवन मे आये, इसके िलए सरसवती जी का पूजन िकया जाता है ।

आपका िचि आपको बाँधनेवाला न हो, आपका धन आपका धन आपकी आयकर भरने की

िचंता को न बढाये, आपका िचि आपको िवषय िवकारो मे न िगरा दे , इसीिलए दीपावली की राित को लकमी जी का पूजन िकया जाता है । लकमी आपके जीवन मे महालकमी होकर आये।

वासनाओं के वेग को जो बढाये, वह िवि है और वासनाओं को शीहिर के चरणो मे पहुँचाए, वह महालकमी है । नारायण मे पीित करवाने वाला जो िवि है , वह है महालकमी।

नूतन वष ष ः दीपावली वष ष का आिखरी िदन है और नूतन वष ष पथम िदन है । यह िदन

आपके जीवन की डायरी का पनना बदलने का िदन है ।

दीपावली की राती मे वषभ ष र के कृ तयो का िसंहावलोकन करके आनेवाले नूतन वषष के िलए

शुभ संकलप करके सोये। उस संकलप को पूण ष करने के िलए नववष ष के पभात मे अपने मातािपता, गुरजनो, सजजनो, साधु-संतो को पणाम करके तथा अपने सदगुर के शीचरणो मे जाकर नूतन वष ष के नये पकाश, नये उतसाह और नयी पेरणा के िलए आशीवाद ष पाि करे । जीवन मे

िनतय-िनरं तर नवीन रस, आतम रस, आतमानंद िमलता रहे , ऐसा अवसर जुटाने का िदन है 'नूतन वष।ष'

भाईद ू ज ः उसके बाद आता है भाईदज का पव।ष दीपावली के पव ष का पाँचनाँ िदन। ू

भाईदज ू भाइयो की बहनो के िलए और बहनो की भाइयो के िलए सदभावना बढाने का िदन है । अनुकम

हमारा मन एक कलपवि ृ है । मन जहाँ से फुरता है , वह िचदघन चैतनय सिचचदानंद परमातमा सतयसवरप है । हमारे मन के संकलप आज नहीं तो कल सतय होगे ही। िकसी की बहन को दे खकर यिद मन दभ ष आया हो तो भाईदज ु ाव ू के िदन उस बहन को अपनी ही बहन

माने और बहन भी पित के िसवाये 'सब पुरष मेरे भाई है ' यह भावना िवकिसत करे और भाई का

कलयाण हो – ऐसा संकलप करे । भाई भी बहन की उननित का संकलप करे । इस पकार भाईबहन के परसपर पेम और उननित की भावना को बढाने का अवसर दे ने वाला पवष है 'भाईदज ू '।

िजसके जीवन मे उतसव नहीं है , उसके जीवन मे िवकास भी नहीं है । िजसके जीवन मे

उतसव नहीं, उसके जीवन मे नवीनता भी नहीं है और वह आतमा के करीब भी नहीं है ।

भारतीय संसकृ ित के िनमात ष ा ऋिषजन िकतनी दरूदििवाले रहे होगे ! महीने मे अथवा वषष

मे एक-दो िदन आदे श दे कर कोई काम मनुषय के दारा करवाया जाये तो उससे मनुषय का िवकास संभव नहीं है । परं तु मनुषय यदा कदा अपना िववेक जगाकर उललास, आनंद, पसननता, सवासथय और सनेह का गुण िवकिसत करे तो उसका जीवन िवकिसत हो सकता है । मनुषय

जीवन का िवकास करने वाले ऐसे पवो का आयोजन करके िजनहोने हमारे समाज का िनमाण ष िकया है , उन िनमात ष ाओं को मै सचचे हदय से वंदन करता हूँ....

अभी कोई भी ऐसा धम ष नहीं है , िजसमे इतने सारे उतसव हो, एक साथ इतने सारे लोग

धयानमगन हो जाते हो, भाव-समािधसथ हो जाते हो, कीतन ष मे झूम उठते हो। जैसे, सतंभ के बगैर

पंडाल नहीं रह सकता, वैसे ही उतसव के िबना धम ष िवकिसत नहीं हो सकता। िजस धम ष मे खूबखूब अचछे उतसव है , वह धम ष है सनातन धम।ष सनातन धम ष के बालको को अपनी सनातन वसतु

पाि हो, उसके िलए उदार चिरत बनाने का जो काम है वह पवो, उतसवो और सतसंगो के आयोजन दारा हो रहा है ।

पाँच पवो के पुंज इस दीपावली महोतसव को लौिकक रप से मनाने के साथ-साथ हम

उसके आधयाितमक महतव को भी समझे, यही लकय हमारे पूवज ष ऋिष मुिनयो का रहा है ।

इस पवप ष ुंज के िनिमि ही सही, अपने ऋिष-मुिनयो के, संतो के, सदगुरओं के िदवय जान

के आलोक मे हम अपना अजानांधकार िमटाने के माग ष पर शीघता से अगसर हो – यही इस दीपमालाओं के पवष दीपावली का संदेश है ।अनुकम

आप सभी को दीपावली हे तु, खूब-खूब बधाइयाँ.... आनंद-ही-आनंद... मंगल-ही-मंगल....

बाह दीये जगमगाये... पभु करे िक आतम-दीया जगाने की

भी भख ू लाये। इसी भख ू मे ताकत है िक हम सारे कमब ष ंधन िमटाये... आतमजयोित जगाये... ॐ....ॐ... साहस....ॐ शांित.. आतमजयोित ज गाओ

दीपावली अथात ष ् अमावसया के गहन अंधकार मे भी पकाश फैलाने का पव।ष यह महापवष

यही पेरणा दे ता है िक अजानरपी अंधकार मे भटकने के बजाय अपने जीवन मे जान का पकाश ले आओ...

पवो के पुंज इस दीपावली के पवष पर घर मे और घर के बाहर तो दीपमालाओं का पकाश

अवशय करो, साथ ही साथ अपने हदय मे भी जान का आलोक कर दो। अंधकारमय जीवन वयतीत मत करो वरन ् उजाले मे िजयो, पकाश मे िजयो। जो पकाशो का पकाश है , उस िदवय पकाश का, परमातम-पकाश का िचंतन करो।

सूयष, चनि, अिगन, दीपक आिद सब पकाश है । इन पकाशो को दे खने के िलए नेतजयोित

की जररत है और नेतजयोित ठीक से दे खती है िक नहीं, इसको दे खने के िलए मनःजयोित की जररत है । मनःजयोित यानी मन ठीक है िक बेठीक, इसे दे खने के िलए बुिद का पकाश चािहए और बुिद के िनणय ष सही है िक गलत, इसे दे खने के िलए जररत है आतमजयोित की।

इस आतमजयोित से अनय सब जयोितयो को दे खा जा सकता है , िकंतु ये सब जयोितयाँ

िमलकर भी आतमजयोित को नहीं दे ख पातीं। धनभागी है वे लोग, जो इस आतमजयोित को पाये हुए संतो के दार पहुँचकर अपनी आतमजयोित जगाते है ।

जयोित के इस शुभ पव ष पर हम सब शुभ संकलप करे िक संतो से , सदगुर से पाि

मागद ष शन ष के अनुसार जीवन जीकर हम भी भीतर के पकाश को जगायेगे.... अजान-अंधकार को िमटाकर जानालोक फैलायेगे। दःुख आयोग तो दःुख के साथ नहीं जुडेगे। सुख आयेगा तो सुख मे

नहीं बहे गे। िचंता आयेगी तो उस िचंता मे चकनाचूर नहीं होगे। भय आयेगा तो भयभीत नहीं होगे वरन ् िनदषःुख, िनििंत, िनभय ष और परम आनंदसवरप उस आतमजयोित से अपने जीवन को भी आनंद से सराबोर कर दे गे। हिर ॐ.... ॐ.... ॐ... अनुकम

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

दीपावली पर

देता ह ूँ एक अन ूठा आशीव ाष द

सुथरा नाम के एक फकीर थे। वे अपनी सपिवािदता के िलए पिसद थे। वे िकसी मठ मे पधारे । कहाः

एक बार उस मठ मे नविववािहत वर-वधू पणाम करने के िलए आये तो मठाधीश ने "जुग-जुग िजयो युवराज !" उसकी पती से भी कहाः "जुग-जुग िजयो, बेटी !"

वर के माता-िपता ने पणाम िकया तो उनहे भी कहाः "जुग-जुग िजयो।" उनहोने दििणा वगैरह रखकर पसाद िलया। तब मठाधीश ने कहाः

"यहाँ सुथरा नाम के उचच कोिट के संत पधारे है । जाओ, उनके भी दशन ष कर लो।" वे लोग फकीर सुथरा के पास पहुँचे और वर ने उनहे पणाम िकया। सुथरा फकीरः "बेटा ! तू मर जायेगा।"

कनया ने पणाम िकया तब बोलेः "दल ु हन ! तू मर जायेगी।"

माता-िपता के पणाम करने पर भी सुथरा फकीर बोलेः "तुम लोग तो जलदी मरोगे।" यह सुनकर वर के िपता बोल उठे ः "महाराज ! उन मठाधीश ने तो हमे आशीवाद ष िदये है

िक "जुग-जुग िजयो" और आप कहते है िक 'जलदी मर जाओगे।' ऐसा कयो महाराज?"

सुथरा फकीरः "झूठ बोलने का धंधा हमने उन मठाधीशो और पुजािरयो को सौप िदया है ।

पटाने और दक ष ु ानदारी चलाने का धंधा हमने उनके हवाले कर िदया है । हम तो सचचा आशीवाद दे ते है । दल ु हन से हमने कहाः 'बेटी ! तू मर जायेगी।' इसिलए कहा िक वह सावधान हो जाये और मरने से पहले अमरता की ओर चार कदम बढा ले तो उसका पणाम करना सफल हो जायेगा।

दल ू हे से भी हमने कहा िक 'बेटा ! तू मर जायेगा' तािक उसको मौत की याद आये और

वह भी अमरता की ओर चल पडे । तुम दोनो को भी वही आशीवाद ष इसीिलए िदया िक तुम भी नशर जगत के माियक संबध ं ो से अलग होकर शाशत की तरफ चल पडो।"

सुथरा फकीर ने जो आशीवाद ष िदया था, वही आशीवाद ष इस दीपावली के अवसर पर मै

आपको दे ता हूँ िक मर जाओगे....'

ऐसा आशीवाद ष आपको गुजरात मे कहीं नहीं िमलेगा, िहं दस ु तान मे भी नहीं िमलेगा और

मुझे तो यहाँ तक कहने मे संकोच नहीं होता िक पूरी दिुनया मे ऐसा आशीवाद ष कहीं नहीं िमलेगा। यह आशीवाद ष इसिलए दे ता हूँ िक जब मौत आयेगी तो जान वैरागय पनपेगा और जहाँ जान वैरागय है , वहीं संसार की चीजे तो दासी की नाई आती है , बाबा !

मै तुमहे धन-धानय, पुत-पिरवार बढता रहे , आप सुखी रहे .... ऐसे छोटे -छोटे आशीवाद ष कया

दँ ू? मै तो होलसेल मे आशीवाद ष दे दे ता हूँ तािक तुम भी अधयातम के माग ष पर चलकर अमरतव का आसवाद कर सको। िकसी िशषय

ने अपने गुर से िवनती कीः

"गुरदे व ! मुझे शादी करनी है , िकंतु कुछ जम नहीं रहा है । आप कृ पा कीिजये।" गुरजी बोलेः "ले यह मंत और जब दे वता आये, तब उनसे वरदान माँग लेना लेिकन ऐसा

माँगना िक तुझे िफर दःुखी न होना पडे । तू शादी करे िकंतु बेटा न हो तो भी दःुख, बेटा हो और धन-संपिि न हो तब भी दःुख और बेटे की शादी नहीं होगी तब भी दःुख, बेटे की सुकनया न िमली तब भी दःुख। इसिलए मै ऐसी युिि बताता हूँ िक तुझे इनमे से कोई भी दःुख ने सहना पडे और एक ही वरदान मे सब परे शािनयाँ िमट जाये।अनुकम

गुर ने बता दी युिि। िशषय ने मंत जपा और दे वता पसनन होकर कहने लगेः "वर माँग।

तब वह बोलाः "हे दे व ! मुझे और कुछ नहीं चािहए, मै अपनी इन आँखो से अपनी पुतवधू को सोने के कलश मे छाछ िबलौते हुए दे खूँ, केवल इतना ही वरदान दीिजये।"

अब छाछ िबलौते हुए पुतवधू को दे खना है तो शादी तो होगी ही। शादी भी होगी, बेटा भी

होगा, बेटे की शादी भी होगी और सोने का कलश होगा तो धन भी आ ही गया। अथात ष ् सब बाते एक ही वरदान मे आ गयीं। िकंतु इससे भी जयादा पभावशाली यह आशीवाद ष है ....

दिुनया की सब चीजे िकतनी भी िमल जाये, िकंतु एक िदन तो छोडकर जाना ही पडे गा।

आज मतृयु को याद िकया तो िफर छूटने वाली चीजो मे आसिि नहीं होगी, ममता नहीं होती और जो कभी छूटने वाला नहीं है , उस अछूट के पित, उस शाशत के पित पीित हो जायेगी, तुम

अपना शुद-बुद, सिचचदानंद, परबह परमातम-सवरप पा लोगे। जहाँ इं ि का वैभव भी ननहा लगता है , ऐसे आतमवैभव को सदा के िलए पा लोगे।अनुकम

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

दीपावली

क ा ताितवक दििकोण

ताितवक दिि से दे खा जाये तो मनुषयमात सुख का आकांिी है , कयोिक उसका मूलसवरप सुख ही है । वह सुखसवरप आतमा से ही उतपनन हुआ है । जैसे पानी कहीं भी बरसे , सागर की ओर ही जाता है कयोिक उसका उदगम सथान सागर है । हर चीज अपने उदगम सथान की ओर ही आकिषत ष होती है । यह सवाभािवक है , तािकषक िसदानत है ।

जीव का मूलसवरप है सत ्, िचि, और आनंद। सत ् की सिा से इसका अिसततव मौजूद है ,

चेतन की सिा से इसमे जान मौजूद है और आनंद की सिा से इसमे सुख मौजूद है । .... तो जीव िनकला है सिचचदानंद परमातमा से। जीवातमा सिचचदानंद परमातमा का अिवभाजय अंग है । ये सारे पवष, उतसव और कम ष हमारे जान, सुख और आनंद की विृद के िलए तथा हमारी शाशतता गी खबर दे ने के िलए ऋिष-मुिनयो ने आयोिजत िकये है ।

अभी मनौवैजािनक बोलते है िक िजस आदमी को लंबा जीवन जीना है , उसको सतत एक

जैसा काम नहीं करना चािहए, कुछ नवीनता चािहए, पिरवतन ष चािहए। आप अपने घर का सतत

एक जैसा काम करते है तो ऊब जाते है , िकंतु जब उस काम को थोडी दे र के िलए छोडकर दस ू रे

काम मे हाथ बँटाते है और िफर उस पहले काम मे हाथ डालते है तो जयादा उतसाह से कर पाते

है । बदलाहट आपकी माँग है । कोलहू के बैल जैसा जीवन जीने से आदमी थक जाता है , ऊब जाता है तो पवष और उतसव उसमे बदलाहट लाते है ।अनुकम

बदलाहट भी 3 पकार की होती है ः साितवक, राजिसक और तामिसक। जो साधारण मित के

है , िनगुरे है वे मानिसक बदलाहट करके थोडा अपने को मसत बना लेते है । 'रोज-रोज कया एकजैसा... आज छुटटी का िदन है , जरा वाइन िपयो, कलब मे जाओ। अपने घर मे नहीं, िकसी होटल मे जाकर खाओ-िपयो, रहो.....'

परदे श मे बदलाहट की यह परं परा चल पडी तामिसक बदलाहट िजतना हष ष लाती है ,

उतना ही शोक भी लाती है । ऋिषयो ने पवो के दारा हमे राजसी-तामसी बदलाहट की अपेिा साितवक बदलाहट लाने का अवसर िदया है ।

रोज एक-जैसा भोजन करने की अपेिा उसमे थोडी बदलाहट लाना तो ठीक है , लेिकन

भोजन मे साितवकता होनी चािहए और सवयं मे दस ू रो के साथ िमल-बाँटकर खाने की सदभावना

होनी चािहए। ऐसे ही कपडो मे बदलाहट भले लाओ, लेिकन पिरवार के िलए भी लाओ और गरीबगुरबो को भी दान करो।

तयागात ् शां ितरन ंतरम ् ..... तयाग से ततकाल ही शांित िमलती है । जो धनवान है , िजनके

पास वसतुएँ है , वे उन वसतुओं का िवतरण करे गे तो उनका िचि उननत होगा व सिचचदानंद मे पिवि होगा और िजनके पास धन, वसतु आिद का अभाव है , वे इचछा-तषृणा का तयाग करके पभु

का िचनतन कर अपने िचि को पभु के सुख से भर सकते है । ...तो सत ्-िचत -् आनंद से उतपनन हुआ यह जीव अपने सत ्-िचि-आनंदसवरप को पा ले, इसिलए पवो की वयवसथा है । इनमे दीपावली उतसवो का एक गुचछ है । भोले बाबा कहते है -

पजा िदवाली िपय प ू िजय े गा .......

अथात ष ् आपकी बुिद मे आतमा का पकाश आये, ऐसी ताितवक िदवाली मनाना। ऐिहक

िदवाली का उदे शय यही है िक हम ताितवक िदवाली मनाने मे भी लग जाये। िदवाली मे बाहर के

दीये जरर जलाये, बाहर की िमठाई जरर खाये-िखलाये, बाहर के वस-अलंकार जरर पहने-पहनाएँ,

बाहर का कचरा जरर िनकाले लेिकन भीतर का पकाश भी जगमगाएँ , भीतर का कचरा भी िनकाले और यह काम पजा िदवाली मनाने से ही होगा।

दीपावली पव ष मे 4 बाते होती है - कूडा-करकट िनकालना, नयी चीज लाना, दीये जगमगाना

और िमठाई खाना-िखलाना।

िदवाली के िदनो मे घर का कूडा-करकट िनकाल कर उसे साफ-सुथरा करना सवासथय के

िलए िहतावह है । ऐसे ही 'मै दे ह हूँ... यह संसार सतय है .... इसका गला दबोचँू तो सुखी हो

जाऊँगा.... इसका छीन-झपट लूँ तो सुखी हो जाऊँगा... इसको पटा लूँ तो सुखी हो जाऊँगा... इस पकार का जो हलकी, गंदी मानयतारपी कपट हदय मे पडा है , उसको िनकाले। सतय समान तप नही

ं , झूठ समान नही ं पाप।

िजसके िहरद े सतय ह ै , उसके िहर दे आप।।

वैर, काम, कोध, ईषयाष-घण ृ ा-दे ष आिद गंदगी को अपने हदयरपी घर से िनकाले।अनुकम शांित, िमा, सतसंग, जप, तप, धारणा-धयान-समािध आिद सुद ं र चीजे अपने िचि मे धारण

करे । िदवाली मे लोग नयी चीजे लाते है न। कोई चाँदी की पायल लाते है तो कोई अँगूठी लाते

है , कोई कपडे लाते है तो कोई गहने लाते है तो कोई नयी गाडी लाते है । हम भी िमा, शांित आिद सदगुण अपने अंदर उभारने का संकलप करे ।

इन िदनो पकाश िकया जाता है । वषाष ऋतु के कारण िबनजररी जीव-जंतु बढ जाते है , जो

मानव के आहार-वयवहार और जीवन मे िवघन डालते है । वषाष-ऋतु के अंत का भी यही समय है ।

अतः दीये जलते है तो कुछ कीटाणु तेल की बू से नि हो जाते है और कई कीट पतंग दीये की लौ मे जलकर सवाहा हो जाते है ।

िदवाली के िदनो मे मधुर भोजन िकया जाता है , कयोिक इन िदनो िपि पकोप बढ जाता

है । िपि के शमन के िलए मीठे , गिरष और िचकने पदाथष िहतकर होते है ।

िदवाली पव ष पर िमठाई खाओ-िखलाओ, िकनतु िमठाई खाने मे इतने मशगूल न हो जाओ

िक रोग का रप ले ले। दध ू की मावे की िमठाइयाँ सवासथय के िलए हािनकारक है ।

यह िदवाली तो वषष मे एक बार ही आती है और हम उतसाह से बहुत सारा पिरशम करते

है तब कहीं जाकर थोडा-सा सुख दे कर चली जाती है , िकंतु एक िदवाली ऐसी भी है , िजसे एक बार ठीक से मना िलया तो िफर उस िदवाली का आनंद, सुख और पकाश कम नहीं होता।

सारे पवष मनाने का फल यही है िक जीव अपने िशवसवरप को पा ले, अपनी आतमिदवाली

मे आ जाये।

जैसे, िगलली-डं डा खेलने वाला वयिि िगलली को एक डं डा मारता है तो थोडी ऊपर उठती

है । दस ू री बार डं डा मारता है तो िगलली गगनगामी हो जाती है । ऐसे ही उतसव-पव ष मनाकर आप

अपनी बुिदरपी िगलली को ऊपर उठाओ और उसे बहजान का ऐसा डं डा मारो िक वह मोह-माया और काम-कोध आिद से पार होकर बह-परमातमा तक पहुँच जाये। िकसी साधक ने पाथन ष ा करते हुए कहा है ः

मै ने िजत ने दीप जला ये , िनय ित पवन न े स भी बुझाय े।

मेरे तन -मन का शम हर ल े , ऐसा दीपक त ुमह ीं जला दो।। अपने जीवन मे उजाला हो, दस ू रो के जीवन मे भी उजाला हो, वयवहार की पिवतता का

उजाला हो, भावो तथा कमो की पिवतता का उजाला हो और सनेह व मधुरता की िमठाई हो, राग-

दे ष कचरे आिद को हदयरपी घर से िनकाल दे और उसमे िमा, परोपकार आिद सदगुण भरे – यही िदवाली पवष का उदे शय है ।

काय ेन वाचा मनस े िनिय ैवा ष ....

शरीर से, वाणी से, मन से, इिनियो से जो कुछ भी करे , उस परमातमा के पसाद को उभारने

के िलए करे तो िफर 365 िदनो मे एक बार आने वाली िदवाली एक ही िदन की िदवाली नहीं रहे गी, आपकी हमारी िदवाली रोज बनी रहे गी।अनुकम

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

लकमीप ूजन का पौरािणक

प वष ः दीपावली

अंधकार मे पकाश का पवष... जगमगाते दीयो का पवष.... लकमीपूजन का पवष.... िमठाई खानेिखलाने का पव ष है दीपावली। दीपावली का पव ष कबसे मनाया जाता है ? इस िवषय मे अनेक मत पचिलत है -

िकसी अंगेज ने आज से 900 वष ष पहले भारत की िदवाली दे खकर अपनी याता-संसमरणो

मे इसका बडा सुनदर वणन ष िकया है तो िदवाली उसके पहले भी होगी।

कुछ का कहना है िक गुर गोिवनदिसंह इस िदन से िवजययाता पर िनकले थे। तबस

िसकखो ने इस उतसव को अपना मानकर पेम से मनाना शुर िकया।

रामतीथ ष के भि बोलते है िक रामतीथ ष ने िजस िदन संनयास िलया था, वह िदवाली का

िदन हमारे िलए अतयंत महतवपूण ष है । इसी िदन वे पकट हुए थे तथा इसी िदन समािधसथ भी हुए थे। अतः हमारे िलए यह िदन अतयंत महतवपूणष है ।

महावीर के पयारे कहते है िक 'महावीर ने अंदर का अँधेरा िमटाकर उजाला िकया था।

उसकी समिृत मे िदवाली के िदन बाहर दीये जलाते है । महावीर ने अपने जीवन मे तीथक थ रतव को पाया था, अतः उनके आतम उजाले की समिृत कराने वाला यह तयौहार हमारे िलए िवशेष आदरणीय है ।

कुछ लोगो का कहना है िक आिदमानव ने जब अँधेरे पर पकाश से िवजय पायी, तबसे

यह उतसव मनाया

रहा है । जबसे अिगन पकटाने के साधनो की खोज हुई, तब से उस खोज की

याद मे वषष मे एक िदन दीपकोतसव मनाया जा रहा है ।

भगवान रामचंि जी को मानने वाले कहते है िक भगवान शीराम का राजयािभषेक इसी

अमावस के िदन हुआ था और राजयािभषेक के उतसव मे दीप जलाये गये थे, घर-बाजार सजाये गये थे, गिलयाँ साफ-सुथरी की गयी थीं, िमठाइयाँ बाँटी गयीं थीं, तबसे िदवाली मनायी जा रही है ।

कुछ लोग बोलते है िक भगवान ने राजा बिल से दान मे तीन कदम भूिम माँग ली और िवराट रप लेकर तीनो लोक ले िलए तथा सुतल का राजय बिल को पदान िकया। सुतल का राजय जब बिल को िमला और उतसव हुआ, तबसे िदवाली चली आ रही है ।

कुछ लोग कहते है िक सागर मंथन के समय िीरसागर से महालकमी उतपनन हुई तथा

भगवान नारायण और लकमी जी का िववाह-पसंग था, तबसे यह िदवाली मनायी जा रही है ।

इस पकार पौरािणक काल मे जो िभनन-िभनन पथाएँ थीं, वे पथाएँ दे वताओं के साथ जुड

गयीं और िदवाली का उतसव बन गया।अनुकम

यह उतसव कब से मनाया जा रहा है , इसका कोई ठोस दावा नहीं कर सकता, लेिकन है

यह रं ग-िबरं गे उतसवो का गुचछ..... यह केवल सामािजक, आिथक ष और नैितक उतसव ही नहीं वरन ् आतमपकाश की ओर जाने का संकेत करने वाला, आतमोननित कराने वाला उतसव है ।

संसार की सभी जाितयाँ अपने-अपने उतसव मनाती है । पतयेक समाज के अपने उतसव

होते है जो अनय समाजो से िभनन होते है , परं तु िहं द ू पवो और उतसवो मे कुछ ऐसी िवशेषताएँ है , जो िकसी अनय जाित के उतसवो मे नहीं है । हम लोग वषभ ष र उतसव मनाते रहते है । एक

तयौहार मनाते ही अगला तयौहार सामने िदखाई दे ता है । इस पकार पूरा वष ष आननद से बीतता है ।

िहं द ू धम ष की मानयता है िक सब पािणयो मे अपने जैसा आतमा समझना चािहए और

िकसी को अकारण दःुख नहीं दे ना चािहए। संभवतः इसी बात को समझने के िलए िपतप ृ ि मे

कौए को भोजन दे ने की पथा है । नाग पंचमी के िदन सप ष को दध ू िपलाया जाता है । कुछ अवसरो पर कुिे को भोजन िदया जाता है ।

हर ऋतु मे नयी फसल आती है । पहले वह ईशर को अपण ष करना, िफर िमतो और

संबिं धयो मे बाँटकर खाना – यह िहं द ू परं परा है । इसीिलए िदवाली पर खील-बताशे, मकर संकांित यानी उिरायण पव ष पर ितल गुड बाँटे जाते है । अकेले कुछ खाना िहं द ू परं परा के िवपरीत है ।

पनीरयुि िमठाइयाँ सवासथय के िलए हािनकर है । सवामी िववेकानंद िमठाई की दक ु ान को सािात ् यम की दक ु ान कहते थे। अतः िदवाली के िदनो मे नपी तुली िमठाई खानी चािहए।

एक दिरि बाहण की कथा है । अपनी दिरिता दरू करने के िलए उसने भगवान िशव की

आराधना की। िशवजी ने कहाः

''तू राजा को इस बात के िलए राजी कर ले िक काितक ष अमावसया की राित को तेरे नगर

मे कोई दीये न जलाये। केवल तू ही दीये जलाना की सममित ले लेना। उस राती को लकमी

िवचरण करती आयेगी और तेरे जगमगाते घर मे पवेश करे गी। उस वि तू लकमी जी से तू कहना िक 'मां ! आप चंचला हो। अगर अचल रहकर मेरे कुल मे तीन पीढी तक रहना चाहो तो

ही आप मेरे घर मे पवेश करना।' अमावस के अंधेरे मे भी जगमगाता उजाला करने का तुमहारा पुरषाथष दे खकर माँ पसनन होगी और वरदान दे दे गी।"

बाहण ने ऐसा ही िकया और राजा को पसनन कर िलया। राजा ने कहाः "इतनी खुशामद करके आप केवल इतनी-सी चीज माँगते है ? ठीक है , मै आजा करा दँग ू ा िक उस िदन कोई दीये न जलाये"

राजा ने आजा करवा दी िक अमावस की रात को कोई दीये नहीं जलायेगा। उस िदन

बाहण ने खूब दीये जलाये और माँ लकमी उसके यहाँ आयीं। ऐसी कथाएँ भी िमलती है ।अनुकम

कुल िमलाकर कहने का तातपय ष यही है िक लकमी उसी के यहाँ रहती है , िजसके यहाँ

उजाला होता है । उजाले का आधयाितमक अथष यह है िक हमारी समझ सही हो। समझ सही होती

है तो लकमी महालकमी हो जाती है और समझ गलत होती है तो धन मुसीबते व िचंताएँ ले आता है ।

एक बार दे वराज इनि ने माँ लकमी से पूछाः "िदवाली के िदनो मे

जो आपकी पूजा करता है उसके यहाँ आप रहती है – इस बात के

पीछे आपका कया अिभपाय है ? माँ लकमी ने कहाः

सवध माष नुष ानसत ु ध ैय ष बल िलि ेष ु च ।

हे इनि ! जो अपने धम ष का, अपने कतवषय का पालन धैय ष से करते है , कभी िवचिलत नहीं होते और सवगप ष ािि के िलए साधनो मे सादर लगे रहे है , उन पािणयो के भीतर मै सदा िनवास करती हूँ।

िजनके हदय मे सरलता, बुिदमानी, अहं कार शूनयता, परम सौहादष ता, पिवतता और करणा

है , िजनमे िमा का गुण िवकिसत है , सतय, दान िजनका सवभाव बन जाता है , कोमल वचन और िमतो से अिोह (धोखा न करने) का िजनका वचन है , उनके यहाँ तो मै िबना बुलाये रहती हूँ।"

लकमीजी के िचत पर केवल फूल चढा िदये, पत-पुषप चढा िदये, नैवेद धर िदया.... इससे ही

लकमी पूजन संपनन नहीं हो जाता बिलक पूण ष लकमी-पूजन तो वहाँ होता है , जहाँ मूखो का सतकार और िवदानो का अनादर नही होता, जहाँ से याचक कुछ पाये िबना (खाली हाथ) नहीं लौटता, जहाँ पिरवार मे सनेह होता है । वहाँ लकमीजी 'िवि' नहीं होतीं, महालकमी होकर रहती है ।

धन हो और समझ नहीं हो तो वह धन, वह लकमी िवि हो जाती है । धन िदखावे के िलए

नहीं है वरन ् दस ू रो का दःुख दरू करने के िलए है । धन धम ष के िलए है और धम ष का फल भी भोग नहीं, योग है । जीवातमा परमातमा के साथ योग करे इसिलए धमष िकया जाता है ।

जहाँ शराब-कबाब होता है , दवुयस ष न होते है , कलह होता है वहाँ की लकमी 'िवि' बनकर

सताती है , दःुख और िचंता उतपनन करती है । जहाँ लकमी का धमय ष ुि उपयोग होता है , वहाँ लकमी महालकमी होकर नारायण के सुख से सराबोर करती है ।

केवल धन सुिवधाएँ दे ता है , वासनाएँ उभारता है जबिक धमय ष ुि धन ईशरपेम उभारता है । परदे श मे धन तो खूब है लेिकन वह िवि है , महालकमी नहीं... जबिक भारतीय संसकृ ित ने सदै व जान का आदर िकया है और जान धमस ष िहत जो संपिि होती है , वही महालकमी होती है । गोधन गज धन वािज धन , और रतनधन खान। जब आव े स ंतोषधन , सब धन ध ू िर समान।।

आतमसंतोषरपी धन सबसे ऊँचा है । उस धन मे पवेश करा दे ऐसा ऐिहक धन हो,

इसीिलए ऐिहक धन को सतकमो का संपुट दे कर सुख-शांित, भुिि-मुिि का माधुय ष पाने के िलए महालकमी की पूजा अचन ष ा की जाती है ।अनुकम

दीपावली

पाप -ताप

वष ष का पथम िदन , दीनता -हीन ता अथवा

मे न जाय

वरन ् शुभ -िचं तन मे , सतकमो

मे

पसननता म े बीत े , ऐसा पयत कर े।

माँ लकमी का िनवास

क हाँ ?

युिधिषर ने िपतामह भीषम से पूछाः "दादाजी ! मनुषय िकन उपायो से दःुखरिहत होता है ? िकन उपायो से जाना जाय िक यह

मनुषय दःुखी होने वाला है और िकन उपायो से जाना जाये िक यह मनुषय सुखी होने वाला है ? इसका भिवषय उजजवल होने वाला है , यह कैसे पता चलेगा और यह भिवषय मे पतन की खाई मे िगरे गा, यह कैसे पता चलेगा?"

इस िवषय मे एक पाचीन कथा सुनाते हुए भीषमजी ने कहाः

एक बार इनि, वरण आिद िवचरण कर रहे थे। वे सूय ष की पथम िकरण से पहले ही सिरता के तट पर पहुँचे तो दे विष ष नारद भी वहाँ िवदमान थे। दे विष ष नारद ने सिरता मे गोता मारा, सनान िकया और मौनपूवक ष जप करते-करते सूय ष नारायण को अघय ष िदया। दे वराज इं ि ने भी ऐसा ही िकया।

इतने मे सूय ष नारायण की कोमल िकरणे उभरने लगीं और एक कमल पर दे दीपयमान

पकाश छा गया। इं ि और नारदजी ने उस पकाशपुंज की ओर गौर से दे खा तो माँ लकमीजी ! दोनो ने माँ लकमी का अिभवादन िकया। िफर पूछाः

"माँ ! समुि मंथन के बाद आपका पाकटय हुआ था। ॐ नम ः भागयलकमी य

िवद मह े।

अिलक मी य धी मिह।

तननो लकमी प चोदयात। ्

ऐसा कहकर आप लोग पूजते है । मातेशरी ! आप ही बताइये िक आप िकस पर पसनन होती है ? िकसके घर मे आप िसथर रहती है और िकसके घर से आप िवदा हो जाती है ? आपकी संपदा िकसको िवमोिहत करके संसार मे भटकाती है और िकसको असली संपदा भगवान नारायण से िमलाती है ?

माँ लकमी ! "दे विष ष नारद और दे वेनि ! तुम दोनो ने लोगो की भलाई के िलए, मानव-

समाज के िहत के िलए पश िकया है । अतः सुनो। अनुकम

पहले मै दै तयो के पास रहती थी कयोिक वे पुरषाथी थे , सतय बोलते थे, वचन के पकके थे

अथात ष ् बोलकर मुकरते नहीं थे। कतवषयपालन मे दढ थे, एक बार जो िवशास कर लेते थे, उसमे

ततपरता से जुट जाते थे। अितिथ का सतकार करते थे। िनदोषो को सताते नहीं थे। सजजनो का आदर करते थे और दि ष ो मे बदलने लगे , तबसे मै ु ो से लोहा लेते थे। जबसे उनके सदगुण दग ु ुण तुमहारे पास दे वलोक मे आने लगी।

समझदार लोग उदोग से मुझे पाते है , दान से मेरा िवसतार करते है , संयम से मुझे िसथर

बनाते है और सतकमष मे मेरा उपयोग करके शाशत हिर को पाने का यत करते है ।

जहाँ सूयोदय से पहले सनान करने वाले, सतय बोलने वाले, वचन मे दढ रहने वाले,

पुरषाथी, कतवषयपालन मे दढता रखने वाले, अकारण िकसी को दं ड न दे ने वाले रहते है , जहाँ

उदोग, साहस, धैय ष और बुिद का िवकास होता है और भगवतपरायणता होती है , वहाँ मै िनवास करती हूँ।

दे विष ष ! जो भगवान के नाम का जप करते है , समरण करते है और शष े आचार करते है ,

वहाँ मेरी रिच बढती है । पूवक ष ाल मे चाहे िकतना भी पापी रहा हो, अधम और पातकी रहा हो

परनतु जो अभी संत और शासो के अनुसार पुरषाथ ष करता है , मै उसके जीवन मे भागयलकमी, सुखदलकमी, करणालकमी और औदायल ष कमी के रप मे आ िवराजती हूँ।

जो सुबह झाडू -बुहारी करके घर को साफ सुथरा रखते है , इिनियो को संयम मे रखते है ,

भगवान के पित शदा रखते है , िकसी की िनंदा न तो करते है न ही सुनते है , जरा-जरा बात मे कोध नहीं करते है , िजनका दयालु सवभाव है और जो िवचार वान है , उनके वहाँ मै िसथर होकर रहती हूँ।

जो मुझे िसथर रखना चाहते है , उनहे राित को घर मे झाडू -बुहारी नहीं करनी चािहए।

जो सरल है , सुदढ भिि वाले हे , परोपकार को नहीं भूलते है , मद ृ भ ु ाषी है , िवचार सिहत

िवनमता का सदगुण जहाँ है , वहाँ मै िनवास करती हँ ।

जो िवशासपात जीवन जीते है , पवो के िदन घी और मांगिलक वसतुओं का दशन ष करते है ,

धमच ष चा ष करते-सुनते है , अित संगह नहीं करते और अित दिरिता मे िवशास नहीं करते, जो हजार-हजार हाथ से लेते है और लाख-लाख हाथ से दे ने को ततपर रहते है , उन पर मै पसनन रहती हूँ।

जो िदन मे अकारण नहीं सोते, िवषादगसत नहीं होते, भयभीत नहीं होते, रोग से गसत वयिियो को सांतवना दे ते है , पीिडत वयिियो को, थके हारे वयिियो को ढाढस बँधाते है , ऐसो पर मै पसनन रहती हूँ।

जो दज ष ो के संग से अपने को बचाते है , उनसे न तो उनसे दे ष करते है न पीित और ु न

सजजनो का संग आदरपूवक ष करते है और बार-बार िनससंग नारायण मे धयानसथ हो जाते है उनके वहाँ मै िबना बुलाये वास करती हूँ।अनुकम

िजनके पास िववेक है , जो उतसाह से भरे है , जो अहं कार से रिहत है और आलसय, पमाद

जहाँ फटकता नहीं, वहाँ मै पयतपूवक ष रहती हूँ।

जो अपसननता के सवभाव को दरू फेकते है , दोषदिि के सवभाव से िकनारा कर लेते है ,

अिववेक से िकनारा कर लेते है , असंतोष से अपने को उबार लेते है , जो तुचछ कामनाओं से नहीं िगरते, दे वेनि ! उन पर मै पसनन रहती हूँ।

िजसका मन जरा-जरा बात मे िखनन होता है , जो जरा-जरा बात मे अपने वचनो से मुकर

जाता है , दीघस ष ूती होता है , आलसी होता है , दगाबाज और परािशत होता, राग-दे ष मे पचता रहता है , ईशर-गुर-शास से िवमुख होता है , उससे मै मुख मोड लेती हूँ।" तुलसीदास जी ने भी कहा है ः

जहाँ स ु मित त हँ स ंपित ना ना।

जहाँ कु मित तह ँ िबप ित िनदाना।। जहाँ सतवगुण होता है , सुमित होती है , वहाँ संपिि आती है और जहाँ कुमित होती है , वहाँ

दःुख होता है । जीवन मे अगर सतव है तो लकमीपािि का मंत चाहे जपो, चाहे न भी जपो.... िकया िसिद वस ित सतव े महि ां नोपकर णे।

सफलता साधनो मे नहीं होती वरन ् सतव मे िनवास करती है । िजस वयिि मे साितवकता

होती है , दढता होती है , पौरष होता है , पराकम आिद सदगुण होते है , वही सफलता पाता है ।

जो सुमित का आदर करता हुआ जीवन जीता है , उसका भिवषय उजजवल है और जो

कुमित का आशय लेकर सुखी होने की कोिशश करे गा तो वह यहाँ नहीं अमेिरका भी चला जाय, थोडे बहुत डॉलर भी कमा ले तो भी दःुखी रहे गा।

जो छल-कपट और सवाथ ष का आशय लेकर, दस ू रो के शोषण का आशय लेकर सुखी होना

चाहता है , उसके पास िवि आ सकता है , धन आ सकता है परनतु लकमी नहीं आ सकती, महालकमी नहीं आ सकती। िवि से बाह सुख के साधनो की वयवसथा हो सकती है , धन से नशर भोग के पदाथ ष िमल सकते है , लकमी से सवगीय सुख िमल सकता है और महालकमी से महान परमातम-पसाद की, परमातम-शांित की पािि हो सकती है ।

हम िदवाली मनाते है , एक दस ू रे के पित शुभकामना करते है , एक दस ू रे के िलए शुभिचंतन

करते है – यह तो ठीक है , परं तु साथ-ही-साथ सार वसतु का भी धयान रखना चािहए िक 'एक िदवाली बीती अथात ष ् आयुषय का एक वषष कम हो गया।'

िदवाली का िदन बीता अथात ष ् आयु का एक िदन और बीत गया... आज वष ष का पथम

िदन है , यह भी बीत जायेगा... इसी पकार आयुषय बीता जा रहा है ..... चाहे

िफर संपिि भोगकर

आयुषय नि करो, चाहे कम संपिि मे आयु नि करो, चाहे गरीबी मे करो.... िकसी भी कीमत पर आयु को बढाया नहीं जा सकता।अनुकम

साितवक बुिदवाला मनुषय जानता है िक सब कुछ दे कर भी आयु बढायी नहीं जा सकती।

मान लो, िकसी की उम 50 वष ष है । 50 वष ष खच ष करके जो कुछ िमला है वह सब वापस दे दे तो भी 50 िदन आयु बढने वाली नहीं है । इतना कीमती समय है । समय अमत ृ है , समय मधु है ,

समय आतमा की मधुरता पाने के िलए, भगवद रस पाने के िलए है । जो समय को इधर-उधर बरबाद कर दे ता है , समझो, उसका भिवषय दःुखदायी है ।

जो समय का तामसी उपयोग करता है , उसका भिवषय पाशवी योिनयो मे, अंधकार मे

जायेगा। जो समय का राजसी उपयोग करता है , उसका भिवषय सुख-सुिवधाओं मे बीतेगा। जो

समय का साितवक उपयोग करता है , उसका भिवषय साितवक सुख वाला होगा। परं तु जो समय का उपयोग परबह परमातमा के िलए करता है , वह उसे पाने मे भी सफल हो जायेगा।

जो लोग जूठे मुह ँ रहते है , मैले-कुचैले कपडे पहनते है , दाँत मैले-कुचैले रखते है , दीन-

दःुिखयो को सताते है , माता-िपता की दआ नहीं लेते, शास और संतो को नहीं मानते – ऐसे हीन ु सवभाव वाले लोगो का भिवषय दःुखदायी है ।

किलयुग मे लोग दध ू खुला रख दे ते है , घी को को जूठे हाथ से छूते है , जूठा हाथ िसर को

लगाते है , जूठे मुह ँ शुभ वसतुओं का सपश ष कर लेते है , उनके घर का धन-धानय और लकमी कम हो जाती है ।

जो जप-धयान-पाणायाम आिद करते है , आय का कुछ िहससा दान करते है , शास के ऊँचे

लकय को समझने के िलए महापुरषो का सतसंग आदरसिहत सुनते है और सतसंग की कोई बात

जँच जाये तो पकडकर उसके अनुसार अपने को ढालने लगत है , समझो, उनका भिवषय मोिदायक है । उनके भागय मे मुिि िलखी है , उनके भागय मे परमातमा िलखे है , उनके भागय मे परम सुख िलखा है ।

कोई िकसी को सुख-दःुख नहीं दे ता। मानव अपने भागय का आप िवधाता है । तुलसीदास

जी महाराज ने भी कहा है ः

जो काह ू को निह ं स ुख द ु ःख कर दाता। िनज क ृत कर म भोगत िहं भाता।।

यह समझ आ जाये तो आप दःुखो से बच जाओगे। आपकी समझ बढ जाये, आप अपने

हलके सवभाव पर िवजय पा लो तो लकमी को बुलाना नहीं पडे गा वरन ् लकमी आपके घर मे सवयं िनवास करे गी। जहाँ नारायण िनवास करते हो, वहाँ लकमी को अलग से बुलाना पडता है

कया? जहाँ वयिि जाता है , वहाँ अपनी छाया को बुलाता है कया? छाया तो उसके साथ ही रहती है । ऐसे ही जहाँ नारायण के िलए पीित है , नारायण के िनिमि आपका पिवत सवभाव बन गया है वहाँ संपिि, लकमी अपने-आप आती है ।

भीषम िपतामह युिधिषर से कहते है - "युिधिषर ! िकस वयिि का भिवषय उजजवल है ,

िकसका अंधकारमय है ? इस िवषय मे तुमने जो पश िकया उसके संदभ ष मे मैने तुमहे माँ लकमी के साथ दे वेनि और दे विष ष नारद का संवाद सुनाया। इस संवाद को जो भी सुनेगा, सुनायेगा उस पर लकमी जी पसनन रहे गी और उसे नारायण की भिि पािि होगी।

वष ष के पथम िदन जो इस पकार की गाथा सुनेगा, सुनाएगा उसके जीवन मे संतोष, शांित

िववेक, भगवद भिि, पसननता और पभुसनेह पकट होगा। इस संवाद को सुनने-सुनाने से जीवो का सहज मे ही मंगल होगा।"अनुकम

जहाँ मूखो का सतकार नहीं, िवदानो का अनादर नहीं, जहाँ से याचक कुछ पाये िबना लौटते नहीं, जहाँ पिरवार मे सनेह होता है , वहीं सुखद महालकमी का िनवास होता है ।

लक मीजी की प ािि िकसको ? देवकीननदन

शीकृषण के समीप रकमणीद ेवी ने लक मी जी से पूछाः

ितलोकीनाथ

भगवान नारायण की िपयतमे ! तुम इस जगत मे िकन पािणयो पर कृ पा करके उनके यहाँ रहती हो? कहाँ िनवास करती हो और िकन-िकनका सेवन करती हो? उन सबको मुझे यथाथर ष प से बताओ।

रकमणीजी के इस पकार पूछने पर चंिमुखी लकमीदे वी ने पसनन होकर भगवान

गरडधवज के सामने ही मीठी वाणी मे यह वचन कहाः लकमीजी

बोल ीं - दे िव ! मै पितिदन ऐसे पुरष मे िनवास करती हूँ, जो सौभागयशाली,

िनभीक, कायक ष ु शल, कमप ष रायण, कोधरिहत, दे वाराधततपर, कृ तज, िजतेिनिय तथा बढे हुए सतवगुण से युि हो।

जो पुरष अकमण ष य, नािसतक, वणस ष ंकर, कृ तघन, दरुाचारी, कूर, चोर तथा गुरजनो के दोष

दे खनेवाला हो, उसके भीतर मै िनवास नहीं करती हूँ। िजनमे तेज, बल और सतव की माता बहुत

थोडी हो, जो जहाँ तहाँ हर बात मे िखनन हो उठते हो, जो मन मे दस ू रा भाव रखते है और ऊपर

कुछ और ही िदखाते है , ऐसे मनुषयो मे मै िनवास नहीं करती हूँ। िजसका अंतःकरण मूढता से आचछानन है , ऐसे मनुषयो मे मै भलीभाँित िनवास नहीं करती हूँ।

जो सवभावतः सवधमप ष रायण, धमज ष , बडे -बूढो की सेवा मे ततपर, िजतेिनिय, मन को वश मे

रखने वाले, िमाशील और सामथयश ष ाली है , ऐसे पुरषो मे तथा िमाशील और िजतेिनिय अबलाओं

मे भी मै िनवास करती हूँ। जो िसयाँ सवभावतः सतयवािदनी तथा सरलता से संयुि है , जो दे वताओं और िदजो की पूजा करने वालीं, उनमे भी मै िनवास करती हूँ।अनुकम

जो अपने समय को कभी वयथष नहीं जाने दे ते, सदा दान और शौचाचार मे ततपर रहते है ,

िजनहे बहचयष, तपसया, जान, गौ और िदज परम िपय है , ऐसे पुरषो मे मै िनवास करती हूँ। जो िसयाँ, दे वताओं तथा बाहणो की सेवा मे ततपर, घर के बतन ष -भाँडो को शुद तथा सवचछ रखने

वाली और गौओं की सेवा तथा धानय के संगह मे ततपर होती है , उनमे भी मै सदा िनवास करती हूँ।

जो घर के बतन ष ो को सुवयविसथत रप से न रखकर इधर-उधर िबखेरे रहती है , सोच-

समझकर काम नहीं करती है , सदा अपने पित के पितकूल ही बोलती है , दस ू रो के घरो मे घूमने िफरने मे आसि रहती है और लजजा को सवथ ष ा छोड

बैठती है , उनको मै तयाग दे ती हूँ।

जो सी िनदष यतापूवक ष पापाचार मे ततपर रहने वाली, अपिवत, चटोर, धैयह ष ीन, कलहिपय, नींद

मे बेसध ु होकर सदा खाट पर पडी रहने वाली होती है , ऐसी नारी से मै सदा दरू ही रहती हूँ।

जो िसयाँ सतयवािदनी और अपनी सौमय वेश-भूषा के कारण दे खने मे िपय होती है , जो

सौभागयशािलनी, सदगुणवती, पितवता और कलयाणमय आचार-िवचार वाली होती है तथा जो सदा वसाभूषणो से सुसिजजत रहती है , ऐसी िसयो मे सदा िनवास करती हूँ।

जहाँ हँ सो की मधुर धविन गूँजती रहती है , कौच पिी के कलरव िजनकी शोभा बढाते है ,

जो अपने तटो पर फैले हुए वि ृ ो की शिेणयो से शोभायमान है , िजनके िकनारे तपसवी, िसद और

बाहण िनवास करते है , िजनमे बहुत जल भरा रहता है तथा िसंह और हाथी िजनके जल मे अवगाहन करते रहते है , ऐसी निदयो मे भी मै सदा िनवास करती रहती हूँ।

सतपुरषो मे मेरा िनतय िनवास है । िजस घर मे लोग अिगन मे आहूित दे ते है , गौ, बाहण

तथा दे वताओं की पूजा करते है और समय-समय पर जहाँ फूलो से दे वताओं को उपहार समिपत ष

िकय जाते है , उस घर मे मै िनतय िनवास करती हूँ। सदा वेदो के सवाधयाय मे ततपर रहने वाले

बाहणो, सवधमप ष रायण िितयो, कृ िष-कम ष मे लगे हुए वैशयो तथा िनतय सेवापरायण शूिो के यहाँ भी मै सदा िनवास करती हूँ।

मै मूितम ष ित तथा अननयिचि होकर तो भगवान नारायण मे ही संपूण ष भाव से िनवास

करती हूँ, कयोिक उनमे महान धम ष सिननिहत है । उनका बाहणो के पित पेम है और उनमे सवयं सविषपय होने का गुण भी है ।

दे िव ! मै नारायण के िसवा अनयत शरीर से नहीं िनवास करती हूँ। मै यहाँ ऐसा नहीं कह

सकती िक सवत ष इसी रप मे रहती हूँ। िजस पुरष मे भावना दारा िनवास करती हूँ, वह, धमष, यश और धन से संपनन होकर सदा बढता रहता है ।अनुकम

(मह ाभ ारत , अनु शा सन पव ष , अधया यः 11)

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐ

दीपजयो ित की मिह मा शासो मे दीपजयोित की मिहमा आती है । दीपजयोित पापनाशक शतुओं की विृद को

रोकने वाली, आयु, आरोगय दे ने वाली है । पूजा मे, साधन-भजन मे कहीं कमी रह गयी है तो अंत मे आरती करने से वह कमी पूरी हो जाती है ।

दीपो जयोित ः पर ं बह दीपो जयोितज दीपो हर तु म े पाप ं साधयदीप नमोऽसत

ष नाद ष नः। ु त े।।

शुभ ं करोत ु कलयाण ं आरोगय ं स ुखसमपद म।् शतुब ुिदिवनाश ं च दीपजय ोितन ष मोऽसत ु त े।।

यिद घर मे दीपक की लौ पूव ष िदशा की ओर है तो आयु की विृद करती है , पििम की ओर है तो दःुख की विृद करती है , उिर की ओर है तो सवासथय और पसननता बढाती है और दििण की ओर है तो हािन करती है ।

घर मे आप दीया जलाये तो वह आपके उिर अथवा पूव ष मे होना चािहए। पर भगवतपाि

महापुरषो के आगे िकसी भी िदशा मे दीया करते है तो सफल ही सफल है । दीपजयोित से पापताप का हरण होता है , शतुबुिद का शमन होता है और पुणयमय, सुखमय जीवन की विृद होती है । अनुकम

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दीपावली पर

लकमीपािि

धनत ेरस स े आर ं भ कर े

क ी सचोट

साधना -िविधया ँ

सामगी ः दििणावती शंख, केसर, गंगाजल का पात, धूप अगरबिी, दीपक, लाल वस। िव िधः साधक अपने सामने गुरदे व व लकमी जी के फोटो रखे तथा उनके सामने लाल

रं ग का वस (रि कंद) िबछाकर उस पर दििणावती शंख रख दे । उस पर केसर से सितया बना

ले तथा कुमकुम से ितलक कर दे । बाद मे सफिटक की माला से मंत की 7 मालाएँ करे । तीन

िदन तक ऐसा करना योगय है । इतने से ही मंत-साधना िसद हो जाती है । मंतजप पूरा होने के पिात ् लाल वस मे शंख को बाँधकर घर मे रख दे । कहते है – जब तक वह शंख घर मे रहे गा, तब तक घर मे िनरं तर उननित होती रहे गी।

मंत ः ॐ हीं हीं हीं महालक मी धनदा लकमी कुब ेराय नमः।

मम गृ ह िसथरो

हीं ॐ

दीपावली स े आर ंभ कर े

दीपावली पर लकमी पािि के िलए िविभनन पकार की साधनाएँ करते है । हम यहाँ अपने

पाठको को लकमीपािि की साधना का एक अतयनत सरल व मात ितिदवसीय उपाय बता रहे है ।

दीपावली के िदन से तीन िदन तक अथात ष ् भाईदज ू तक एक सवचछ कमरे मे धूप, दीप व

अगरबिी जलाकर शरीर पर पीले वस धारण करके, ललाट पर केसर का ितलक कर, सफिटक मोितयो से बनी माला िनतय पातःकाल िनमन मंत की दो-दो मालाएँ जपे। ॐ नमः भागयलक

मी च िवद म हे।

अि लकमी च ध ीम िह।

तननोलकमी प चोदयात। ्

दीपावली लकमीजी का जनमिदवस है । समुि मनथन के दौरान वे िीरसागर से पकट हुई

थीं। अतः घर मे लकमी जी के वास, दिरिता के िवनाश और आजीिवका के उिचत िनवाह ष हे तु यह साधना करने वाले पर लकमी जी पसनन होती है ।अनुकम

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

दीपो तसव िहनद ू पवो मे एक महतवपूण ष है 'दीपावली' जो िक पवो का पुंज है । दीपावली पकाश को

पकट करने का तयौहार है । इसमे दीप पकटाने का जो िवधान रखा गया है , उसमे भी हमारे दीघद ष िा ऋिषयो का सूकमतम िवजान समािहत है ।

संसार के समसत दःुखो का कारण है – अपने वासतिवक सवरप आतमा-परमातमा का

अजान। उस अजान को आतमजान के दारा िमटाया जाता है । पकाश जान का पतीक है । परबह परमातमा पकाशरप मे, जान के रप मे सवत ष वयाि है । यहाँ पर दीपक पकटाने का अथ ष है –

अपने जीवन मे पकाश अथात ष ् जान को पकट करके संसारबंधन से मुि होने की पेरणा दे ना और पाि करना।

भारतीय संसकृ ित मे दीपक का बडा महतव है , कयोिक यह हमे ऊधवग ष ामी होने अथात ष ्

ऊँचा उठने तथा अंधकार को िमटाकर पकाशमय, जानमय जीवन जीने की पेरणा दे ता है । पकाश मे सब कुछ सपि और जयो का तयो िदखाई दे ता है , िजससे हमे भय नहीं लगता तथा हमारे

मनोिवकार शांत हो जाते है । इसिलए जब कहा जाता है िक दीपक की उपासना करो तो उसका संकेत जान की उपासना से होता है । वेदो मे जानसवरप परमातमा का पकाश के रप मे पूजन िकया गया है ।

तव ित धात ु प ृ िथवी उतदौव ैशानर व तमगन े स चन त।

तवं भाषा रोदसी अतत

थास ेण श ोिच पा श ोशु चानः।।

'हे वैशानर दे व ! यह पथ ृ वी, अंतिरि तथा दुलोक आपका ही अनुशासन मानते है । आप

पकाश दारा वयि होकर सवत ष वयाि हो। आपका तेज ही सवत ष उदभािसत हो रहा है । हम आपको कभी न भूले।'

(ऋगव े दः 7.5.4)

दीपावली के दीये जलाने के साथ हम अपने जीवन मे आतमजान का पकाश लाये , यही संदेश हमारे आतमवेिा ऋिषयो ने हमे इस पवष के माधयम से िदया है ।अनुकम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

उनकी स दा दीवाली ह ै आप सभी को दीपावली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ.... । तेतायुग मे जब शीरामचनि जी

िवजयदशमी के पावनिदन रावण पर िवजय पताका फहरायी और लंका का राजय महाराज िवभीषण

को दे कर अपने वनवास के 14 वष ष पूरे कर अयोधया वापस आये थे तब से दीपावली

मनायी जा रही है , ऐसी एक मानयता है । िकंतु दीपावली का उदे शय कया होना चािहए? कया िसफष

पटाखे चलाना? कया िसफष िमठाइयाँ बाँटना या होटलो मे नाचना-गाना अथवा दावते करना? नहीं, इसका सचचा उदे शय तो होना चािहएः

असतो मा स द गमय। तम सो मा जय ोितग ष मय।

अथात ष ् हे भगवान, हे पभु ! हमे असतय से सतय की ओर व अंधकार से उजाले की ओर

ले चलो।

लेिकन नहीं, हमारे जीवन मे तो वनवास चल रहा है । किलयुग का पभाव चल रहा है ।

अयोधया के राजा राम, माता कौशलया और भरत के िपय राम, दशरथ के दल ु ारे राम तो केवल 14

वष ष के िलए ही वनवास को जाने हे तु अलग हुए थे, लेिकन हम तो अपने अंतयाम ष ी राम से न

जाने िकतने-िकतने जनमो से िबछडे हुए है । उस परम पयारे से अलग होकर न जाने िकतने युग बीत गये है । लेिकन बात िसफष इतनी सी नहीं है िक हम उससे अलग हुए है बिलक उससे िमलने

की अयोधयावािसयो की तरह तडप भी तो नहीं है । उनकी हमे थोडी याद भी तो नहीं आती है । बस, मसत है अपनी अंधी मसती मे। पता नहीं , कहाँ जाना चाहते है ? राह नहीं िदख रही है , िफर भी चले जा रहे है । हम भी काम, कोध, लोभ, मोह, अहं कार आिद अनेक रावणो, कुंभकरणो व

मेघनादो से िघरे हुए है और युद कर रहे है , लेिकन हम सतय पर नहीं है । इसिलए इन रािसो से हार जाते है और ऐसा नहीं है

एक हार के बाद दस ू री बार जीत हो। हर बार हार-ही-हार है ।

हारते ही रहते है , मरते ही रहते है ।

यिद हम इस बार की िदवाली को अपनी िवशेष िदवाली मनाना चाहते है तो हमे पाथन ष ा

करनी होगीः

अजानित िमरान धसय िवषयाकानतच ेत सः। जानपभापदान ेन पसाद ं कु र म े पभो।।

'हे पभु ! अजानरपी अंधकार मे अंध बने हुए और िवषयो से आकानत िचिवाले मुझको

जान का पकाश दे कर कृ पा करो।'अनुकम

हमे भी शीराम की तरह अपने िवषय-िवकारो से युद करना होगा और िजन सदगुणो को

अपना कर शीराम ने रावण जैसे महाबिलयो को धराशायी कर िदया, उन सदगुणो को अपना कर, उनहे िवकिसत कर इन िवकाररपी रािसो को मारकर अपने आतमा-परमातमारपी घर मे वापस आना होगा। ईट-पतथर के घर मे नहीं वरन ् अपने असली घर मे पवेश करना होगा। इसके िलए

दढता से संकलप करना होगा, ऐसी तडप जगानी होगी िक 'अब हम जयादा समय तक नहीं रह सकते अपने घर से िबछडकर ! हमारी परमातमारपी करणामयी माँ कौशलया हमे बुला रही है ।'

िकंतु... िवकारो पर िवजय पाि कराने की शिि िदलाने वाले कोई तो चािहए – विशषजी

जैसे, याजवलकय जैसे, लीलाशाह बापू जैसे िजनहे हमारे घर का पता मालूम हो। िजनसे हम पूछ सके अपने घर का पता। जो अपने घर मे पितिषत हो चुके हो ऐसे महापुरषो की शरण मे हमे

जाना होगा। ऐसे सदगुर अगर हमे िमल जाये और उनकी नूरानी नजर हम पर पड जाय तो बेडा पार हो जायेगा। कयोिक जनमो-जनमो के भटके जीवो के कलयाण के िलए अपने घर का पता पूछने के िलए गुरदे व के अलावा और कोई परम कलयाणकारी दे व नहीं है ।

ऐसे सदगुर ही हमारी भटकान को दरू कर हमे असली घर मे पवेश करा सकते है ।

िजनहोने गुरकृ पा को पचाया है , उन महापुरषो ने अपने जीवन को सफल कर िलया है । जो अपने परम पद मे िसथत हो गये है , उन महापुरषो के जीवन मे िफर सदा ही िदवाली रहती है । िजनकी जीवन न ै या पय ारे , सदग ु र न े स ँ भाली ह ै।

उनके मन की बिगया की

, महकी हर स ूखी डा ली है।।

िनग ुरो के ह ै िदन अ ं िधयार े , उनकी रात जो िमट े सदग ु र चरणो

उ िजयारी

मे , उनकी बात िनराली ह

है।

ै।।

िजस ने ग ुर के प ेमाम ृ त की , भर -भर के पी पयाली ह ै।

मानव जनम सफ ल ह ै उन का , उनकी रोज

िदवाली ह ै।।

हम भी आज संकलप करे - "शीराम का तरह सदगुर की शरण मे जाकर िवकाररपी रािसो

पर िवजय पाि करने की कला सीखेगे तथा जनमो और सिदयो से चल रहे इस युद और वनवास पर िवजय पाि कर हम अपने घर मे आयेगे व भूले हुओं को राह िदखाकर उनके जीवन मे भी जान की जयोित पजजविलत कराने मे सेतु का कायष करे गे।अनुकम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

दीपावली

– पूजन का शासोि िवधान

काितक ष मास मे दीप दान का िवशेष महतव है । दीपावली मे इसका माहातमय िवशद रप मे उजागर होता है । शीपुषकरपुराण मे आता है ः

तुलाया ं ितलत ैल ेन साय ंकाल े समा गते।

आकाशदीप ं यो ददानमासम ेकं ह िरं प ित।

महत ीं िश यमापन ोित रपसौभागयसमपदम। ् ।

'जो मनुषय काितक ष मास मे संधया के समय भगवान शी हिर के नाम से ितल के तेल

का दीप जलाता है , वह अतुल लकमी, रप, सौभागय और संपिि को पाि करता है ।'

नारदजी के अनुसार दीपावली के उतसव को दादशी, तयोदशी, चतुदषशी, अमावसया और

पितपदा – इन 5 िदनो तक मनाना चािहए। इनमे भी पतयेक िदन अलग-अलग पकार की पूजा का िवधान है ।

काितक ष मास की दादशी को 'गोवतसदादशी' कहते है । इस िदन दध ू दे ने वाली गाय को

उसके बछडे सिहत सनान कराकर वस ओढाना चािहए, गले मे पुषपमाला पहनाना, सींग मँढाना, चंदन का ितलक करना तथा ताँबे के पात मे सुगनध, अित, पुषप, ितल और जल का िमशण बनाकर िनमन मंत से गौ के चरणो का पिालन करना चािहए।

िीरोद ाणष वसम भूत े स ुरास ुरनमसक ृत े।

सवष देवम ये मातग ष ृ हाण ाघय थ नमो नमः।।

'समुि-मंथन के समय िीर सागर से उतपनन दे वताओं तथा दानवो दारा नमसकृ त, सवद ष े वसवरिपणी माता ! तुमहे बार-बार नमसकार है । मेरे दारा िदये हुए इस अघय ष को सवीकार करो।'

पूजा के बाद गौ को उडद के बडे िखला कर यह पाथन ष ा करनी चािहएः सुर िभ तव ं जग नमातद ेवी िवषण ुप दे िसथ ता। सव ष देव मये ग ासं मया दि िमम ं ग स।। ततः सव ष मये द े िव सव ष देव ैरलङक ृत े।

मात मष मा िभलािष तं सफल ं कुर निनदनी।।

'हे जगदमबे ! हे सवगव ष ािसनी दे वी ! हे सवद ष े वमयी ! मेरे दारा अिपत ष इस गास का भिण करो। हे समसत दे वताओं दारा अलंकृत माता ! नंिदनी ! मेरा मनोरथ पूणष करो।'

इसके बाद राित मे इि, बाहण, गौ तथा अपने घर के वद ृ जनो की आरती उतारनी चािहए।

दस ष कृ षण तयोदशी को धनतेरस कहते है । भगवान धनवंतरी ने दःुखी जनो के ू रे िदन काितक रोगिनवारणाथ ष इसी िदन आयुवद े का पाकटय िकया था। इस िदन संधया के समय घर मे बाहर

हाथ मे जलता हुआ दीप लेकर भगवान यमराज की पसननता हे तु उनहे इस मंत के साथ दीपदान करना चािहएः

मृ तयुना पाशद णडाभया ं काल ेन शयामय ा सह।

तयोदशया ं दीपदानात ् सूय ष जः पीयता ं म म।।

'तयोदशी के इस दीपदान से पाश और दं डधारी मतृयु तथा काल के अिधषाता दे व भगवान

यम, दे वी शयामासिहत मुझ पर पसनन हो।'अनुकम

काितक ष कृ षण चतुदषशी को नरक चतुदषशी कहा जाता है । इस िदन चतुमुख ष ी दीप का दान

करने से नरकभय से मुिि िमलती है । एक चार मुख (चार लौ) वाला दीप जलाकर इस मंत का उचचारण करना चािहएः

दिो दीप ितुद ष शया ं नरकपीतय े मया। चतुव ष ित ष स माय ुिः सव ष पापापन ुिय े।।

'आज चतुदषशी के िदन नरक के अिभमानी दे वता की पसननता के िलए तथा समसत पापो के िवनाश के िलए मै 4 बिियो वाला चौमुखा दीप अिपत ष करता हूँ।'

अगले िदन काितक ष अमावसया को दीपावली का तयौहार मनाया जाता है । इस िदन पातः

उठकर सनानािद करके जप-तप करने से अनय िदनो की अपेिा िवशेष लाभ होता है । इस िदन पहले से ही सवचछ िकये गह ृ को सजाना चािहए भगवान नारायण सिहत भगवती लकमी की मूितष अथवा िचत की सथापना करनी चािहए।

ततपिात धूप-दीप व सविसतवाचन आिद वैिदक मंतो के साथ (अथवा भििभाव से आरती

के दारा) उनकी पूजा-अचन ष ा करनी चािहए। इस राती को भगवत लकमी भिो के घर पधारती है ।

पाँचवे िदन काितक ष शुकल पितपदा को 'अननकूट िदवस' कहते है । इस िदन गौओं को

सजाकर, उनकी पूजा करके यह मंत कहना चािहए-

लकमीया ष लोकपालाना ं ध ेन ुरप ेण संिसथ ता। घृ तं वह ित यजा थे मम पाप ं वयपोहत ु।।

'धेनुरप मे िसथत जो लोकपालो की सािात लकमी है तथा जो यज के िलए घी दे ती है , वह गौमाता मेरे पापो का नाश करे ।'

राित को गरीबो को यथासंभव अननदान करना चािहए। इस पकार 5 िदन का यह

दीपोतसव संपनन होता है ।अनुकम

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भा रतीय स ंसकृित क ी महक दीपावली िहनद ू समाज मे मनाया जाने वाला एक पमुख तयौहार है । दीपावली को मनाने

का उदे शय भारतीय संसकृ ित के उस पाचीन सतय का आदर करना है , िजसकी महक से आज भी लाखो लोग अपने जीवन को सुवािसत कर रहे है । िदवाली का उतसव पवो का पुंज है । भारत मे

इस उतसव को मनाने की परं परा कब से चली, इस िवषय मे बहुत सारे अनुमान िकये जाते है । एक अनुमान तो यह है िक आिदमानव ने जब से अिगन की खोज की है , शायद तभी से यह

उतसव मनाया जा रहा है । जो भी हो, िकंतु िविभनन पकार के कथनो और शासवचनो से तो यही िसद होता है िक भारत मे िदवाली का उतसव पितवषष मनाने की परं परा पाचीन काल से चली आ रही है ।

यह तो हमारी पितवष ष मनायी जानेवाली िदवाली है , िकंतु इस िदवाली को हम अपने

जीवन की िवशेष िदवाली बना ले, ऐसा पुरषाथष हमे करना चािहए। भोले बाबा ने कहाः

वषो िदवाली करत

े रह े हो , तो भी अ ं धेरे मे घ ुप मे पड े हो।

वे महापुरष हमसे कैसी िदवाली मनाने की उममीद रखते होगे? दीपावली का पव ष पकाश

का पव ष है , िकंतु इसका वासतिवक अथष यह होता है िक हमे अपने जीवन मे छाये हुए अजानरपी

अंधकार को िमटाकर जानरपी पकाश की जयोित को पजविलत करना चािहए। यही बात उपिनषद भी कहते है - 'तमसो मा जयोितग ष मय। ' परं तु इस ओर कभी हमारा धयान ही नहीं गया। इसी कारण उन महापुरषो ने हमे जगाने के यह बात कही होगीः जले िद ये बाह िकया उज

ेरा , फैला हु आ ह ै हदय म े अ ंध ेरा।

िजस पकार हम घी तथा तेल के दीये जलाकर राित के अंधकार को िमटाते है , उसी पकार

हम वषो से अपने मनःपटल पर पडी अजानरपी काली छाया को सतकमष, सुसंसकार, िववेक तथा जानरपी पकाश से िमटाकर ऋिषयो के सवपन को साकार कर दे । जैसे , एक वयापारी दीपावली के

अवसर पर अपने वषभ ष र के कारोबार की समीिा करता है , ऐसे ही हम भी अपने दारा िकये गये वषष भर के कायो का अवलोकन करे ।

यिद सतकम ष अिधक िकये हो तो अपना उतसाह बढाये और यिद गलितयाँ अिधक हुई हो

तो उनहे भिवषय मे न दोहराने का संकलप कर अपने जीवन को सतयरपी जयोित की ओर अगसर करे ।

दीपावली के पव ष पर हम अपने पिरिचतो को िमठाई बाँटते है , लेिकन इस बार हम

महापुरषो के शांित, पेम, परोपकार जैसे पावन संदेशो को जन-जन तक पहुँचा कर पूरे समाज को जान के पकाश से आलोिकत करे गे, ऐसा संकलप ले। इस पावन पव ष पर हम अपने घर के कूडे करकट को िनकालकर उसे िविवध पकार के रं गो से रँ गते है । ऐसे ही हम अपने मन मे भरे

सवाथष, अहं कार तथा िवषय-िवकाररपी कचरे को िनकाल कर उसे संतो के सतसंग, सेवा तथा भिि के रं गो से रँ ग दे ।

योगा ंग झाड ू धर िचि झाडो , िवि ेप कू डा स ब झाड काढो।

अभयास पीता

िफर फेिर येगा , पजा िद वाली िपय प ूिज येगा।।

आज के िदन से हमारे नूतन वषष का पारं भ भी होता है । इसिलए भी हमे अपने इस नूतन

वषष मे कुछ ऊँची उडान भरने का संकलप करना चािहए। ऊँची उडान भरना बहुत धन पाि करना अथवा बडा बनने की अंधी महतवकांिा का नाम नहीं है । ऊँची उडान का अथ ष है िवषय-िवकारो,

मै-मै, तू-तू, सवाथत ष ा तथा दषुकमो के दे श से अपने िचि को ऊँचा उठाना। यिद ऐसा कर सके, तो आप बहवेिा महापुरषो के जैसी िदवाली मनाने मे सफल हो जायेगे।अनुकम

हमारे हदय मे अनेक जनमो से िबछुडे हुए उस राम का तथा उसके पेम का पाकटय हो

जाये, यही याद िदलाने के िलए हमारे ऋिष-मुिनयो ने इस पवष को शासो मे ऊँचा सथान िदया है । उनहे यह उममीद भी थी िक बाह जयोत जलाते -जलाते हम अपने आंतर जयोित को भी

जगमगाना सीख जायेगे, िकंतु हम भूल गये। अतः उन महापुरषो के संकलप को पूण ष करने मे सहायक बनकर हम अपने जीवन को उननत बनाने का संकलप करे तािक आने वाला कल तथा आने वाली पीिढयाँ हम पर गवष महसूस करे ।

भारत के वे ऋिष-मुिन धनय है , िजनहोने दीपावली – जैसे पवो का आयोजन करके मनुषय

को मनुषय के नजदीक लाने का पयास िकया है तथा उसकी सुषुि शिियो को जागत ृ करने का

संदेश िदया है । उनहोने जीवातमा को परमातमा के साथ एकाकार करने मे सहायक िभनन-िभनन उपायो को खोज िनकाला है । उन उपायो की गाँव-गाँव तथा घर-घर तक पहुँचाने का पुरषाथष

अनेक बहजानी महापुरषो ने िकया है । उन महापुरषो को आज हमारे कोिट-कोिट पणाम है । अनुकम

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नूतन वष ष - संदेश रावण पर राम की िवजय का अथात ष ् काम राम की िवजय का और अजानरपी अंधकार

पर जानरपी पकाश की िवजय का संदेश दे ता है – जगमगाते दीपो का उतसव 'दीपावली।'

भारतीय संसकृ ित के इस पकाशमय पव ष की आप सभी को खूब-खूब शुभकामनाएँ... आप

सभी का जीवन जानरपी पकाश से जगमगाता रहे ... दीपावली और नूतन वष ष की यही शुभकामनाएँ...

दीपावली का दस ष ् नूतन वष ष का पथम िदन.. जो वष ष के पथम िदन हषष, ू रा िदन अथात

दै नय आिद िजस भाव मे रहता है , उसका संपूण ष वष ष उसी भाव मे बीतता है । 'महाभारत' मे िपतामह भीषम महाराज युिधिषर से कहते है -

यो यादश ेन भाव ेन ितषतयसया ं य ु िधिषर। हष ष दैनयािदरप ेण त सय वष थ पया ित व ै।।

'हे युिधिषर ! आज नूतन वष ष के पथम िदन जो मनुषय हष ष मे रहता है उसका पूरा वषष हषष मे जाता है और जो शोक मे रहता है , उसका पूरा वषष शोक मे ही वयतीत होता है ।'

अतः वष ष का पथम िदन हष ष मे बीते, ऐसा पयत करे । वष ष का पथम िदन दीनता-हीनता

अथवा पाप-ताप मे न बीते वरन ् शुभ िचंतन मे, सतकमो मे पसननता मे बीते ऐसा यत करे ।

सवश ष ष े तो यह है िक वष ष का पथम िदन परमातम-िचंतन, परमातम-जान और परमातमशांित मे बीते तािक पूरा वषष वैसा ही बीते। इसिलए दीपावली की राित को वैसा ही िचंतन करते करते सोना तािक नूतन वष ष की सुबह का पहला िण भी वैसा ही हो। दस ू रा, तीसरा, चौथा... िण

भी वैसा ही हो। वष ष का पथम िदन इस पकार से आरं भ करना िक पूरा वष ष भगवननाम-जप, भगवान के धयान, भगवान के िचंतन मे बीते.... अनुकम

नूतन वष ष के िदन अपने जीवन मे एक ऊँचा दिििबंद ु होना अतयंत आवशयक है । जीवन

की ऊँचाइयाँ िमलती है – दग ष ो को हटाने और सदगुणो को बढाने से लेिकन सदगुणो की भी ु ुण एक सीमा है । सदगुणी सवग ष तक जा सकता है , दग षु ी नरक तक जा सकता है । िमिशतवाला ु ण मनुषय-जनम लेकर सुख-दःुख, पाप-पुणय की िखचडी खाता है ।

दग ष ो से बचने के िलए सदगुण अचछे है , लेिकन मै सदगुणी हूँ इस बेवकूफी का भी ु ुण

तयाग करना पडता है । शीकृ षण सबसे ऊँची बात बताते है , सबसे ऊँची िनगाह दे ते है । शीकृ षण कहते है -

पकाश ं च पव ृ ििं च मोहम ेव च पाणडव। न द े िि स ंपव ृ िािन न

िनव ृ िािन क ांि ित।।

'हे अजुन ष ! जो पुरष सतवगुण के कायर ष प पकाश को और रजोगुण के कायर ष प पविृि को तथा तमोगुण के कायर ष प मोह को भी न तो पवि ृ होने पर उनसे दे ष करता है और न िनवि ृ होने पर उनकी आकांिा करता है (वह पुरष गुणातीत कहा जाता है )।'

(गीता ः 14.22)

सतवगुण पकाश है , रजोगुण पविृि है और तमोगुण मोह है । जानी उनमे पडता भी नहीं

और उनसे िनकलता भी नहीं, न उनको चाहता है और न ही उनसे भागता है – यह बहुत ऊँचा दिििबंद ु है ।

'हमारे जीवन मे इसकी पधानता है .... उसकी पधानता है ...' यह सब लौिकक दिि है ।

सचचाई तो यह है िक सबके जीवन म े सब द ु ःखो स े िनव ृ िि और परमान ंद की पािि की ही पधानता ह ै।

इसके िलए सुबह नींद मे से उठते समय अपने संकलप मे िवकलप न घुसे , ऐसा संकलप

करे । आपने कोई ऊँचा इरादा बनाकर संकलप िकया है तो उस संकलप मे कोई िवकलप न घुसे इसकी सावधानी रखे।

संकलपो की शिि 'एटॉिमक पावर (आिणवक शिि)' से, भी जयादा महतव रखती है और

भारतीय संसकृ ित ने इसे अचछी तरह से महसूस िकया है । इसीिलए हमारे ऋिषयो ने दीपावली

और नूतन वष ष जैसे पवो का आयोजन िकया है तािक मनुषय आपसी राग-दे ष भूलकर और परसपर सौहादष बढाकर उननित के पथ पर अगसर होता रहे ....

राग-दे ष मे मिलन संकलप होते है , जो बंधनकारी होते है । राग आकर िचि मे एक रे खा खींच दे ता है तो दे ष आकर दस ू री रे खा खींच दे ता है । इससे िचि मिलन हो जाता है । इसीिलए परसपर के राग-दे ष को िमटाने के िलए 'नूतन वषािषभनंदन' की वयवसथा है ।

शासो मे आता है ः िवद ू षाण ां िकं लिणं ? पूण ष िवदान, पूण ष बुिदमान के लिण कया है ?

अदढ रागद ेष ः। िजसके िचि मे राग-दे ष दढ नहीं है , वह िवदान है ।'अनुकम

िनमन वयिि का राग-दे ष होता है लोहे पर लकीर के समान। मधयम वयिि का राग-दे ष

होता है धरती पर लकीर के समान। भि और िजजासु का राग-दे ष होता है – बालू पर लकीर के

समान और जानी के बाह वयवहार मे हलका फुलका राग-दे ष िदखता भी है , पर िचि मे दे खो तो कुछ नहीं।

इस नूतन वष ष के िदन हम भी यह संकलप करे िक 'हमारा िचि िकसी बाह वसतु, वयिि

अथवा पिरिसथित मे न फँसे।' कयोिक बाह जो कुछ भी है , पकृ ित का है । उसमे पिरवतन ष अवशयंभावी है , लेिकन पिरवतन ष िजससे पतीत होता है , वह परमातमा एकरस है और अपने से दरू नहीं है । वह पराया नहीं है और उसका हम कभी तयाग नहीं कर सकते है ।

संसार की िकसी भी पिरिसथित को हम रख नहीं सकते है और अपने आतमा-परमातमा

का हम तयाग कर नहीं सकते है । िजसका तयाग नहीं कर सकते, उसको जानने का इरादा पकका कर ले और िजसको सदा रख नहीं सकते , उस संसार से अहं ता-ममता िमटाने का इरादा पकका

कर ले, बस। अगर इतना कर िलया तो िफर आपके कदम ठीक जगह पर पडे गे। िफर महाराज ! मुझे यह सफलता िमली। ऐसा सफलता का गव ष न होगा बिलक सारी सफलताएँ तो कया, ऋिदिसिदयाँ भी आकर अपने खेल िदखायेगी तो वे आपको तुचछ लगेगी। इस अवसथावाले के िलए उपिनषद ने कहाः

यो एव ं बह ैव जानाित त ेषा ं द ेवाना ं बिल ं िवह ित।

'जो बह को जानता है , उस पर दे वता तक कुबान ष हो जाते है ।'

शी कृ षण और उनके िपयपात पितिदन पातः ऊँचा िचंतन करके ही धरती पर पैर रखते थे, िबसतर का तयाग करते थे। इस नूतन वष ष का संदेश यही है िक आपने जो बहजान की बाते सुनी है , ईशरीय अनुभव मे सफल होने की जो युिियाँ सुनी है उन युिियो को, उन बातो को पातः उठते ही दोहराये, बाद मे िबसतर का तयाग करे ।

दस ू री बात, अपने मे जो किमयाँ है उनहे िजतना हम जानते है , उतना और कोई नहीं

जानता। हमारी किमयाँ न पडोसी जानता है , न कुटु ं बी जानता है , न पित जानता है , न पती

जानती है । अतः अपनी किमयाँ सवयं ही िनकाली जा सकती है । जैसे, पैर मे काँटे चुभने पर एकएक करके उनहे िनकाला जाता है , वैसे ही अपनी गलितयो को चुन-चुनकर िनकालना चािहए।

जयो-जयो आपकी किमयाँ िनकलती जायेगी, तयो-तयो आतमानुभव, आतमसामथय ष का िनखार आता जायेगा।

तीसरी बात, भूतकाल को भूल जाओ। सोचते है - 'हम छोटे थे तो ऐसे थे, वैसे थे....' तुम ऐसे-वैसे नहीं थे भैया ! तुमहारे शरीर और िचि ऐसे वैसे थे। तुम तो सदा से एकरस हो। तुम तो वह हो, जैसा नानक जी कहते है -

आिद सच ु ज ुगा िद सच ु। ह ै भी स चु नानक होसी भी सच

ु।।

चौथी बात भिवषय की कलपना मत करो। हम मरने के बाद सवगष मे जायेगे या िबसत मे जायेगे। इस भांित को िनकाल दो वरन ् जीते जी ही वह अनुभव पा लो, िजसके आगे सवग ष का सुख तो कया, इं ि का वैभव भी तुचछ भासता है ।अनुकम

संत महापुरषो की युिियो को अपनाकर ऐसे बन जाओ िक तुम जहाँ कदम रखो वहाँ

पकाश हो जाये। तुम जहाँ जाओ वहाँ का वातावरण रसमय, जानमय हो जाय। िफर वषष मे केवल

एक ही िदन िदवाली होगी ऐसी बात नहीं, तुमहारा हर िदन िदवाली हो जायेगा.. हर सुबह नूतनता की खबरे दे गी...

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नू तन वष ष की रसी ली िमठा ई भारत मे सवोदय आंदोलन के पणेता आचाय ष िवनोबा भावे के बचपन की एक महतवपूणष

पेरक घटना है , िजसका महतव वे बाद मे समझ पाये। शैशवावसथा मे वे अपनी माताजी के साथ कोकण (महाराष) मे रहते थे तथा िपता बडौदा (गुजरात) मे सरकारी िशिक के रप मे कायरषत थे। तयौहारो मे तथा सरकारी छुिटटयो मे उनके िपता पिरवार से िमलने कोकण जरर जाते थे। घर जाते वि वे साथ मे बचचो के िलए िविवध पकार के िमषानन भी ले जाते थे।

दीपावली का पव ष आया तथा िवदालयो मे छुिटटयाँ पड गयीं। िवनोबाजी के िपता अपने

पिरवार से िमलने कोकण के िलए रवाना हुए। इससे पहले उनहोने पत दारा अपने घर आने की

सूचना भेज दी थी। अतः माताजी ने बचचो को ढाढस बँधाया िक 'तुमहारे िपता हर बार की तरह इस बार भी तुम लोगो के िलए िमठाई लायेगे।'

इधर बचचे तो िमठाई की राह दे ख रहे थे। अतः िपता जी के पहुँचते ही सबने उनहे घेर

िलया। िपताजी ने जब सामान खोला तब उसमे से एक बडा बंडल िनकला। बचचो ने समझा िक यह तो िमठाई का पैकेट होगा। सबके मुह ँ मे पानी आ गया।

िपता ने बचचो की मनःिसथित भाँप ली। अतः उनहोने सबसे पहले वही बंडल खोला।

लेिकन आिय ष ! इस बार िमठाई नहीं बिलक कुछ िकताबे थीं। बचचे तो इसे दे खकर हकके बकके

रह गये। उनकी आशाओं पर पानी िफर गया। वे समझ नहीं पा रहे थे िक िपताजी िमठाई के

सथान पर ये पुसतके कयो लाये ? इसकी हमे कया जररत है ? इससे कया लाभ होगा? चेहरे पर उदासी छा गयी।

उधर माता जी ने नाराज होकर कहाः "मैने तो बचचो को आशा बँधाई थी िक आप उनके िलए नये साल की िमठाई लायेगे। लेिकन इस बार आप िमठाई न लाकर िकताबे उठा लाये। ऐसा कयो?" अनुकम बिलक

मासटर साहब ने बडे इितमनान से समझाते हुए कहा िक "ये सा धारण उचचको िट के सतसास

है। इनके पठन -पाठन

पुस तके नही ं

से हदय मे जो रस और आनंद

उभर ेगा , उसका मध ुर प भाव क ुछ घ ंटो के िलए ही नह ीं वरन ् जीवनपय ष नत बना रह ेगा। िमठाई

की

िमठास

जज ष रीभ ूत कर देगी। मन का सवामी

तो

बच चो

को

इसके िव परीत

बनाकर

उनके जीवन

मन

का

सतशासो

गुलाम

बना

कर

उनके सवासथय

के

से पाि अम ृ ततुलय िम ठास बचचो को

मे नवीन

कांित उतपनन

कर सकती

है। उन हे

मानव से महेशर बना सकती है। अतः इन पु सतको को ही नववष ष की सचची िमठाई मानो। "

िवनोबा भावे ने अपने बचपन के इस पसंग का समरण करते हुए कहाः

'िपताजी की समझायी हुई बात को उस समय तो मै पूणर ष पेण समझ नहीं पाया। लेिकन

अब पता लगा िक अमत ृ तुलय सतशास ही सचची िमठाई है , जो जीवन मे ईशरपािि के मागष पर दढता से चलने की पेरणा दे ते है ।'

इस नूतन वषष को हम भी सतशासरपी िमठाई का मधुर आसवाद लेकर मनाये तथा अपने

जीवन को ईशरपािि के महान लकय की ओर अगसर करने का संकलप करे । ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

भाईद ू जः भाई -बहन के सन े ह का पती क

यमराज, यमुना, तापी और शिन – ये भगवान सूयष की संताने कही जाती है । िकसी कारण

से यमराज अपनी बहन यमुना से वषो दरू रहे । एक बार यमराज के मन मे हुआ िक 'बहन यमुना को दे खे हुए बहुत वषष हो गये है ।' अतः उनहोने अपने दत ू ो को आजा दीः "जाओ जा कर जाँच करो िक यमुना आजकल कहाँ िसथत है ।"

यमदत ू िवचरण करते-करते धरती पर आये ते सही िकंतु उनहे कहीं यमुनाजी का पता

नहीं लगा। िफर यमराज सवयं िवचरण करते हुए मथुरा आये और िवशामघाट पर बने हुए यमुना के महल मे पहुँचे।

बहुत वषो के बाद अपने भाई को पाकर बहन यमुना ने बडे पेम से यमराज का सवागत-

सतकार िकया और यमराज ने भी उसकी सेवा सुशष ु ा के िलए याचना करते हुए कहाः "बहन ! तू कया चाहती है ? मुझे अपनी िपय बहन की सेवा का मौका चािहए।"

दै वी सवभाववाला परोपकारी आतमा कया माँगे? अपने िलए जो माँगता है , वह तो भोगी

होता है , िवलासी होता है लेिकन जो औरो के िलए माँगता है अथवा भगवतपीित माँगता है , वह तो

भगवान का भि होता है , परोपकारी आतमा होता है । भगवान सूयष िदन-रात परोपकार करते है तो सूयप ष ुती यमुना कया माँगती?

यमराज िचंितत हो गये िक 'इससे तो यमपुरी का ही िदवाला िनकल जायेगा। कोई िकतने

ही पाप करे और यमुना मे गोता मारे तो यमपुरी न आये ! सब सवगष के अिधकारी हो जायेगे तो अवयवसथा हो जायेगी।'अनुकम

अपने भाई को िचंितत दे खकर यमुना ने कहाः

''भैया ! अगर यह वरदान तुमहारे िलए दे ना किठन है तो आज नववष ष की िदितया है । आज के िदन भाई बहन के यहाँ आये या बहन भाई के यहाँ पहुँचे और जो कोई भाई बहन से सनेह से िमले, ऐसे भाई को यमपुरी के पाश से मुि करने का वचन को तुम दे सकते हो।" यमराज पसनन हुए और बोलेः "बहन ! ऐसा ही होगा।"

पौरािणक दिि से आज भी लोग बहन यमुना और भाई यम के इस शुभ पसंग का समरण करके आशीवाद ष पाते है व यम के पाश से छूटने का संकलप करते है ।

यह पव ष भाई-बहन के सनेह का दोतक है । कोई बहन नहीं चाहती िक उसका भाई दीन-

हीन, तुचछ हो, सामानय जीवन जीने वाला हो, जानरिहत, पभावरिहत हो। इस िदन भाई को अपने घर पाकर बहन अतयनत पसनन होती है अथवा िकसी कारण से भाई नहीं आ पाता तो सवयं उसके घर चली जाती है ।

बहन भाई को इस शुभ भाव से ितलक करती है िक 'मेरा भैया ितनेत बने।' इन दो आँखो

से जो नाम-रपवाला जगत िदखता है , वह इिनियो को आकिषत ष करता है , लेिकन जाननेत से जो

जगत िदखता है , उससे इस नाम-रपवाले जगत की पोल खुल जाती है और जगदीशर का पकाश िदखने लगता है ।

बहन ितलक करके अपने भाई को पेम से भोजन कराती है और बदले मे भाई उसको

वस-अलंकार, दििणािद दे ता है । बहन िनििंत होती है िक 'मै अकेली नहीं हूँ.... मेरे साथ मेरा भैया है ।'

िदवाली के तीसरे िदन आने वाला भाईदज ू का यह पवष, भाई की बहन के संरिण की याद

िदलाने वाला और बहन दारा भाई के िलए शुभ कामनाएँ करने का पवष है ।

इस िदन बहन को चािहए िक अपने भाई की दीघाय ष ु के िलए यमराज से अचन ष ा करे और

इन अि िचरं जीवीयो के नामो का समरण करे ः माकषणडे य, बिल, वयास, हनुमान, िवभीषण, कृ पाचायष, अशतथामा और परशुराम। 'मेरा भाई िचरं जीवी हो' ऐसी उनसे पाथन ष ा करे तथा माकषणडे य जी से इस पकार पाथन ष ा करे ः

माकष णडेय महाभा ग सिकलपजी िवतः।

िच रंजीवी य था तव ं त था म े भातार ं कुर ः।।

'हे महाभाग माकषणडे य ! आप सात कलपो के अनत तक जीने वाले िचरं जीवी है । जैसे आप िचरं जीवी है , वैसे मेरा भाई भी दीघाय ष ु हो।'

(पदप ुराण )

इस पकार भाई के िलए मंगल कामना करने का तथा भाई-बहन के पिवत सनेह का पवष है

भाईदज ू ।अनुकम

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

दीपावली

सावधानी स े मनाय े

थोडी सी असावधानी और लापरवाही के कारण मनुषय कई बार बहुत कुछ खो बैठता है ।

हमे दीपावली के आगमन पर इस तयौहार का आनंद, खुशी और उतसाह को बनाये रखने के िलए सावधान रहना चािहएः

पटाखो के साथ िखलवाड न करे । उिचत दरूी रखकर पटाखे चलाएँ।

जो िमठाइयाँ शुदता, पिवतता से बनी तथा ढकी हुई हो, वे ही खाये। बाजार हलकी

िमठाइयाँ न खाये।

इसे भारतीय संसकृ ित के अनुसार आदशो व सादगी से मनाये। पािातय जगत के

अंधानुकरण मे न बहे ।

पटाखे घर से दरू उिचत सथान पर चलाये।

पटाखे चलाने के बाद अचछी तरह साबुन से हाथ धोकर ही कुछ खाये। पटाखो से बचचो को दरू रखे व उिचत दरूी से चलाये।

अिगन -पकोप क े िश कार होन े पर कया

कर े ?

दीपावली के िदनो मे पटाखे, दीये आिद से या अनय िदनो मे अिगन से शरीर का कोई

अंग जल जाय े तो जले हुए सथान िच पस पी िडत

सथान

पर रखना

पर तुर ंत कच चे आलू का रस लगान ा व उस के

पया ष ि है।

इससे न फोडा होगा न मवाद बनेगा न ही

मलहम या अनय औषिधयो की आवशयकता होगी।अनुकम

हे दीपावली के दीप जलाने वालो ! आप सवयं जानदीप हो जाओ।

िनतयपकाश िपया आपका आतमा िजसने आज तक की िदवािलयो को दे खा

और आगे भी दे खेगा, भैया ! उस ईशरीय पकाश को पा लो और ऐिहक दीपक भी साथक ष कर लो।

पू जयशी का दीपावली – स

ंदेश

िहममत करो। घण ृ ा, दे ष और िनबल ष ता के िवचारो को अपने िचि मे फटकने मत दो। हमेशा सबके िलए मंगलकारी भावना करो।

हे मंगलमूित ष मानव ! तेरा परम मंगलसवरप पकट कर। तेरा हर शास िदवाली है । जहाँ

तेरी िनगाह पडे , वहाँ िदवय आतमसुख की मसती बनी रहे ।

िदवाली के शुभ पव ष पर यही शुभ संदेश है िक जब तुम ऊँचे -से-ऊँचे, महान से महान

वयिि को और छोटे से छोटे वयिि को िनहारो, तब महान मे और छोटे मे, उन सबकी गहराई मे, तुम ही आतमरप से बैठे हो ऐसी अनुभिू त पकट हो। बाह भेदभाव और छोटे -मोटे कमष सवपन की नाई है ।

वैिदक जान का अमत ृ पान करने के िलए अपने वयवहारकाल मे िदवय िचंतन, साधनाकाल

मे िदवय अनुभिू त और िवचार काल मे िदवयाितिदवय सवरप के साथ एकतव का अनुभव करो।

समुि-मनथन के समय जब तक अमत ृ नहीं िमला, तब तक दे वता लोग न तो अमूलय

रतो को पाकर संतुि हुए और न ही भयानक जहर से डरे अिपतु समुि -मंथन मे लगे ही रहे । आिखर उनहोने अमत ृ पा ही िलया।

ऐसे ही मानव ! संसार की छोटी-मोटी िवफलताओं मे और सुखद पिरिसथितयो मे नहीं

रकना। िवफलता और सफलता इन दोनो के िसर पर पैर रखकर तू अपने आतमपद पर िसथत रह।

शाबाश वीर ! शाबाश ! िहममत कर, साहस जुटा। धैय ष और सावधानी से आगे बढ। तेरे

जीवन की हजार-हजार सफलताएँ और िवफलताएँ भी तुझे कुछ समझा गयी होगी। इन सबका

सार यही है िक आने-जाने वाली सफलता और िवफलता के पार ऐसा कोई ततव है , ऐसी कोई चीज है िक जहाँ न मतृयु का भय है , न जनम का बंधन है , न पकृ ित का पभाव है और न अपने

परमेशर सवरप से दरूी है । ऐसे शाशत, सनातन सवरप को अवशय पा ले, जान ले और जीते जी मुि हो जा। दस ू रो के िलए भी मुिि का मागष सरल बनाये जा।

हे साधक ! दे र सवेर तू यह कर लेगा। इस महान लकय को बार-बार दह ु राता जा िक न

पलोभनो मे फँसेगे, न िवघनो से डरे गे। अवशय आतमसािातकार करे गे। वह होगा.. होगा... और होगा।

तेरे िलए िदवाली का यह िदवय संदेश पयाि ष है । इस माग ष पर कदम रखने वाला अगर

धन-धानय, पुत-पिरवार और सुख-समिृद चाहे तो सहज मे ही पाि कर लेता है । अगर िवरि है तो उसे इनकी कोई आवशयकता महसूस नहीं होती।

वीयव ष ान बनो। संयमी और सदाचारी जीवन िजयो। िदवाली की िदवयता अपने िदल मे

जगाओ।

हम तो यह चाहते है िक तुम जहाँ कदम रखो, वहाँ का वातावरण भी िदवय बनने लग

जाये। ऐसा अपना िदवय ततव पकटाओ।

हे ईशर के सनातन अंश ! अपने सनातन सवरप को जगाओ। सनातन सुख को पाओ। ॐ आनंद.... बहानंद.... परमानंद.... ईशरीय आनंद.... ॐआनंद... अनुकम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

जान-रिशम से अजान की कािलमा को नि कर आनंद के महासागर मे

कूद पडो। वह सागर कहीं बाहर नहीं है , आपके िदल मे ही है । दब ष िवचारो, ु ल तुचछ इचछाओं को कुचल डालो। दःुखद िवचारो का िदवाला िनकाल कर आतममसती का दीप जलाओ। खोज लो उन आतमारामी संतो को जो आपके सचचे सहायक है ..... और यह आपके हाथ की बात है ।

ननहे -ननहे दीपो के पकाश से अमावसया की काली रात जगमगा रही है ।

छोटे -छोटे गुणो से आपका जीवन-सौरभ भी चहुँ ओर सुरिभत होने लगता है । अतः सदगुणो का पोषण करो। और दग ष ो का तयाग करने मे लगे रहो। ु ुण आपका जीवन दस ू रो के िलए भी पेरणासोत बन जायेगा।

आतम िवजय पा

लो

िवजयदश मी

अधम ष पर धम ष की, असतय पर सतय की तथा दरुाचार पर सदाचार की िवजय का पव ष है

'िवजयदशमी'। इसी िदन शी राम ने दि ृ वी का भार हलका िकया था। ु दशानन का वध करके पथ

इसी िदन माँ दग ु ाष ने मिहषासुर का वध िकया था। इसी िदन रघुराजा ने कुबेर भंडारी पर अपना तीर साधकर सवणम ष ुिाओं की वषाष करवायी थी। इसी िदन समथष रामदास के पयारे िशषय िशवाजी ने युद का आरं भ िकया था।

इस पकार िवजयदशमी का यह पव ष िवजय का पव ष है , जो आपको भी यही संदेश दे ता है

िक आप भी वासतिवक िवजय पाि कर लो। जैसे शीराम ने रावण पर, माँ दग ु ाष ने मिहषासुर पर,

िशवाजी ने मुगलो पर िवजय पाि की थी, वैसे ही आप भी अपने िचि मे छुपी आसुरी विृियो, धारणाओं पर िवजय पाि कर परमातमा को पा लो तो आपकी वासतिवक िवजय हो जायेगी।

आप दढ िनिय से अपनी शिि को उस परम परमातमा को पाने मे लगा दो। 'लोग कया

कहे गे? साधना करने पर पभु िमलेगे िक नहीं? यह काम करँ गा तो होगा िक

नहीं?' ...इस पकार

के संकलप-िवकलप न करके आज के िदन दढ िनिय करो िक मेरे अंदर आसुरी विृिरपी जो रावण है , उस पर िवजय पाकर ही रहूँगा।' ॐकार का गुंजन कर इिमंत का जप-अनुषान बढाते

जाओ। इस पकार का दढ िनिय करके आसुरी विृियो को िनकालने के िलए किटबद हो गये तो आपके अंदर परमातमततव की जानशिि पकट होने लगेगी और यही तो परम िवजय है ।अनुकम

िकसी बाह शतु को मार डालना यह तो तुचछ िवजय है , युद करके बाह वसतु को पाि

कर लेना यह तो सामािजक शय े है लेिकन सच पूछो तो.... िकसी के सब बाह शतु मर जाये और

सारी बाह वसतुएँ उसे िमल जाये, िफर भी जब तक उसने अपनी भीतरी आसुरी विृियो पर िवजय नहीं पायी, तब तक सदा के िलए वह िवजयी नहीं माना जाता। जब वह आसुरी विृियो

पर िवजय पाकर दै वी संपदा का सवामी हो जाता है , तभी वासतव मे उसकी िवजय मानी जाती है । आप भी 'िवजयदशमी' के पवष पर इसी पकार का संकलप करो।

आज हम इतने बिहमुख ष हो गये है िक बाह सफलताओं को, बाह िवजय को ही असली

िवजय मानने लगे है । आज तक कई िवजयदशिमयाँ आयीं और चली गयीं , िफर भी हमे वासतिवक िवजय नहीं िमल पायी। धंधे-वयापार मे थोडी िवजय िमल गयी... राजय मे थोडी िवजय

िमल गयी.... यश मे थोडी िवजय िमल गयी.... और हम उसी मे अपनी िवजय मानकर रक गये,

िकंतु भीतर मौत का भय, पितकूलता का भय, िवरोध का भय, बीमारी आिद का भय जारी ही रहता है ।

यह सचची िवजय नहीं है । सचची िवजय तो यह है िक आपको जगत के लोग तो कया,

तैतीस करोडे दे वता भी िमलकर परासत न कर सके – ऐसी िवजय को तुम उपलबध हो जाओ और वह िवजय है आतमजान की पािि।

लौिकक िवजय वही होती है जहाँ पुरषाथष और चेतना होती है , ऐसे ही आधयाितमक िवजय

भी वही होती है जहाँ सूकम िवचार होते है , िचि की शांत दशा होती है और पबल पुरषाथ ष होता है ।

आशावान ् च पुरषाथी पस ननहदयः।

जो आशावान है , पुरषाथी तथा पसननहदय है , वही पुरष िवजयी होता है ।

जो िनराशावादी है , िखननिचि है , आलसी या पमादी है , वह िवजय के करीब पहुँचकर भी

परािजत हो जाता है , लेिकन जो उतसाही होता है , पुरषाथी होता है , वह हजार बार असफल होने पर भी कदम आगे रखता है और अंततः िवजयी हो जाता है । आप भी परमातमा से िमलने की

आशा को कदािप न छोडना, अपना उतसाह, पुरषाथ ष कभी न छोडना। आशा, उतसाह और पुरषाथष िजसके जीवन मे होगा, वह अवशय ही िवजयी होगा।

िवजयादशमी, नवराती के बाद आती है । िजसने पाँच जानेिनियो (आँख, नाक, कान, रसना

और तवचा) तथा चार अंतः करण (मन, बुिद, िचि, अहं कार। इन नौ पर िवजय पा ली, उसकी िवजयादशमी हो कर अनुकम

ही रहती है । आप भी इसी को िवजयादशमी का संदेश व उदे शय बनाओ।

जो भोगो मे भटकता है , जो ऐिहक सुखो मे उलझता है उसे भले दो ही बाहु नहीं, बीस

बाहु हो, एक ही िसर नहीं, दस िसर हो, सोने की लंका बना सकता हो, सवग ष तक सीिढयाँ लगाने का बल रखता हो, िकतना ही बलवान हो, िवदान हो िफर भी भीतर से खोखला ही रह जाता है

कयोिक उसे भीतर का रस नहीं िमला। बाहर से भले कोई वलकल पहना हुआ िदखे, रीछ भालू और बंदरो की तरह सीधा-सादा जीवन यापन करता हुआ िदखे, िफर भी िवजय उसी की होती है

कयोिक वह सतयसवरप आतमसुख मे िसथत होता है , इं िियो का दास न रहकर इिनियो का सवामी बनता है ।

जो भगवान शीरामचनिजी का अनुकरण करते है , वे बाहर से सादगीपूण ष होते हुए भी बडी

ऊँचाइयो को छू लेते है और जो भाईजान रावण जी का अनुसरण करते है , वे बलवान और सिावान होते हुए भी िवनाश को पाि होते है । जो शीराम का अनुकरण करते है , वे आतमारामी हो

जाते है , आतमति ृ हो जाते है , धनय-धनय हो जाते है , मुिातमा, िजतातमा हो जाते है । जो रावण का सवभाव लेते है , काम को पोसते है , कोध को पोसते है , वे अकारण परे शान होते है , बेमौत मारे जाते है ।

हजारो पितकूलताओं मे भी जो िनराश नहीं होता, हजारो िवरोधो मे भी जो सतय को नहीं

छोडता, हजारो मुसीबतो मे भी जो पुरषाथ ष को नहीं छोडता, वह अवशय िवजयी होता है और आपको िवजयी होना ही है । लौिकक युद के मैदान मे तो कई िवजेता हो सकते है लेिकन आपको तो उस युद मे िवजयी होना है , िजसमे बडे -बडे योदा भी हार गये। आपको तो ऐसे िवजयी होना है जैसे 5 वषष की उम मे धुव, 8 वषष की उम मे रामी रामदास, शुकदे व व परीिित िवजयी हो गये।

दःुख के पसंग मे वे िहले नहीं और सुख के पसंग से पभािवत नहीं हुए, यश के पसंग मे

वे हिषत ष नही हुए और अपयश के पसंग मे भी वे रके नहीं, वरन ् परमातमा की मुलाकात के िलए अंतयात ष ा करते ही रहे । इसिलए लोगो ने धुव, पहलाद, शबरी, जनक, जाबलय को शदा भरे हदय से सनेह िकया, सतकारा, नवाजा है ।

उन लोगो ने समय की धारा मे बहने की अपेिा सतय मे अपने पैर िटका िदये,

पिरिसथितयो की गुलामी मे न बहकर पिरिसथितयो को, अनुकूलता-पितकूलताओं को खेलमात

समझकर अपनी आतमा मे िसथरता पा ली। ऐसे जो भी महापुरष इस धरती पर हो गये है , उनके हाथ मे सिा भले न रही हो, िफर भी अनेक सिावान उनके आगे िसर झुकाते रहे है । भले उनके

पास धन न रहा हो, लेिकन अनेक धनवान उनसे कृ पा-याचना करते रहे है । भले उनके पास पहलवानो जैसा बाहुबल न रहा हो, िफर भी बडे -बडे पहलवान उनके आगे अपना िसर झुकाकर सौभागय पाि करते रहे है ।अनुकम

जो धम ष पर चलते है , नीित पर चलते है , िहममतवान है , उतसाही और पुरषाथी है , उनहे

परमातमा का सहयोग िमलता रहता है । जो अनीित और अधम ष का सहारा लेता है , उसका िवनाश होकर ही रहता है , िफर भले ही वह सिावान और धनवान कयो न हो? अनीित पर चलने वाले

रावण के पास बहुत धन था, सिा थी और बडे -बडे रािसो की िवशाल सेना थी, िफर भी धमष और नीित पर चलने वाले शीरामजी ने छोटे -छोटे वानर-भालुओं के सहयोग से ही उस पर िवजय पा

ली। जब छोटे -छोटे वानर-भालू बडे -बडे रािसो को मार सकते है तो आप कामनारपी, अहं काररपी रावण को कयो नहीं मार सकते? आप भी अवशय उसे मार सकते हो, लेिकन शतष इतनी ही है िक आपमे उतसाह और पौरष हो तथा आप नीित व धमष पर अिडग रहे ।

भले आज संसार मे दरुाचार बढता हुआ नजर आता है , पाप पभावशाली िदखता है , िफर भी

आप डरना नहीं। पांडवो के पास कुछ न था, केवल उतसाह था िकंतु वे सतय और धमष के पि मे थे तो िवजयी हो गये। बंदरो के पास न तो सोने की लंका थी, न खाने के िलए िविभनन पकवान

थे। वे सूखे-सूखे पिे और फल-फूल खाकर रहते थे, िफर भी काम-कोध के, अहं काररपी रावण के अनुगामी नहीं थे, संयम व सदाचाररपी राम के अनुगामी थे तो बडे -बडे रािसो को हराने मे भी सफल हो गये।

िवजयादशमी आपको भी यही संदेश दे ती है िक अधम ष और अनीित चाहे िकतनी भी

बलवान िदखे, िफर भी रकना नहीं चािहए, डरना नहीं चािहए, िनराश नहीं होना चािहए। संगिठत होकर बुिद और बलपूवक ष उसका लोहा लेना चािहए। यिद ऐसा कर सके तो आपकी िवजय

िनिित है । आपके शतु मे बीस भुजाओं िजतना बल हो, दस िसर िजतनी समझ हो िफर भी यिद आप शी राम से जुडते हो तो आपकी िवजय िनिित है । अपनी पाँच जानेिनियो तथा चार अंतःकरणो को उस रोम-रोम मे रमने वाले शीराम-ततव मे लीन करके अजान, अहं कार और कामरपी रावण पर िवजय पाि कर लेगे – यही िवजयादशमी पर शुभ संकलप करो।अनुकम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

िवजयादश मीः दसो इिनियो पर

िवजय

भारतीय सामािजक परं परा की दिि से िवजयादशमी का िदन, तेता युग की वह पावन बेला है जब कूर और अिभमानी रावण के अतयाचारो से तसत सवस ष ाधारण को राहत की साँस िमली थी। कहा जाता है िक इस िदन मयाद ष ा पुरषोिम शीराम ने आततायी रावण को मारकर वैकुंठ

धाम भेज िदया था। यिद दे खा जाये तो रामायण और शीरामचिरतमानस मे शीराम तथा रावण के बीच के िजस युद का वणन ष आता है , वह युद मात उनके जीवन तक ही सीिमत नहीं है वरन ् उसे हम आज अपने जीवन मे भी दे ख सकते है ।

िवजयादशमी अथात ष ् दसो इिनियो पर िवजय। हमारे इस पाँचभौितक शरीर मे पाँच

जानेिनियाँ और पाँच कमिेनियाँ है । इन दसो इं िियो पर िवजय पाि करने वाला महापुरष

िदिगवजयी हो जाता है । रावण के पास िवशाल सैनय बल तथा िविचत मायावी शिियाँ थीं , परं तु शीराम के समि उसकी एक भी चाल सफल नहीं हो सकी। कारण िक रावण अपनी इं िियो के वश मे था जबिक शीराम इं ििवजयी थे।

िजनकी इिनियाँ बिहमुख ष होती है , उनके पास िकतने भी साधन कयो न हो, उनहे जीवन मे दःुख और पराजय का ही मुह ँ दे खना पडता है । रावण का जीवन इसका पतयि उदाहरण है । जहाँ रावण के दसो िसर उसकी दसो इं िियो पर िवजय पािि तथा परम शांित मे उनकी िसथित की

खबर दे ता है । जहाँ रावण का भयानक रप उस पर इं िियो के िवकृ त पभाव को दशात ष ा है , वहीं शीराम का पसनन मुख और शांत सवभाव उनके इं िियातीत सुख की अनुभूित कराता है । िवजयादशमी का पवःष

दसो इिनियो पर िवजय का पवष है । असतय पर सतय की िवजय का पवष है ।

बिहमुख ष ता पर अंतमुख ष ता की िवजय का पवष है । अनयाय पर नयाय की िवजय का पवष है ।

दरुाचार पर सदाचार की िवजय का पवष है ।

तमोगुण पर दै वीगुण की िवजय का पवष है । दषुकमो पर सतकमो की िवजय का पवष है । भोग पर योग की िवजय का पवष है ।

असुरतव पर दे वतव की िवजय का पवष है तथा, जीवतव पर िशवतव की िवजय का पवष है ।

दसो इिनियो मे दस सदगुण और दस दग ष होते है । यिद हम शाससममत जीवन जीते ु ुण

है तो हमारी इं िियो के दग षु दरू होते है तथा सदगुणो का िवकास होता है । यह बात ु ण शीरामचनिजी के जीवन मे सपि िदखती है । िकंतु यिद हम इिनियो पर िवजय पाि करने के

बजाये भोगवादी पविृियो से जुडकर इं िियो की तिृि के िलए उनके पीछे भागते है तो अंत मे

हमारे जीवन का भी वही हाल होता है जो िक रावण का हुआ था। रावण के पास सोने की लंका तथा बडी-बडी मायावी शिियाँ थीं, परं तु वे सारी-की-सारी शिियाँ, संपिि उसकी इं िियो के सुख को ही पूरा करने मे काम आती थीं। िकंतु युद के समय वे सभी की सभी वयथ ष सािबत हुई। यहाँ

तक की उसकी नािभ मे िसथत अमत ृ भी उसके काम न आ सका, िजसकी बदौलत वह िदिगवजय पाि करने का सामथयष रखता था।

संिेप मे बिहमुख ष इं िियो को भडकाने वाली पविृि भले ही िकतनी भी बलवान कयो न हो,

लेिकन दै वी संपदा के समि उसे घुटने टे कने ही पडते है । िमा, शांित, साधना, सेवा,

शासपरायणता, सतयिनषा, कतवषय-परायणता, परोपकार, िनषकामता, सतसंग आिद दसो इं िियो के दै वी गुण है । इन दै वी गुणो से संपनन महापुरषो के दारा ही समाज का सचचा िहत हो सकता है ।

इं िियो का बिहमुख ष होकर िवषयो की ओर भागना, यह आसुरी संपदा है । यही रावण और उसकी

आसुरी शिियाँ है । िकंतु दसो इं िियो का दै वी संपदा से पिरपूण ष होकर ईशरीय सुख मे ति ृ होना, यही शीराम तथा उनकी साधारण सी िदखने वाली परम तेजसवी वानर सेना है ।अनुकम

पतयेक मनुषय के पास ये दोनो शिियाँ पायी जाती है । जो जैसा संग करता है उसी के अनुरप उसकी गित होती है । रावण पुलसतय ऋिष का वंशज था और चारो वेदो का जाता था।

परं तु बचपन से ही माता तथा नाना के उलाहनो के कारण रािसी पविृियो मे उलझ गया। इसके ठीक िवपरीत संतो के संग से शीराम अपनी इं िियो पर िवजय पाि करके आतमततव मे पितिषत हो गये।

अपनी दसो इं िियो पर िवजय पाि करके उनहे आतमसुख मे डु बो दे ना ही िवजयादशमी

का उतसव मनाना है । िजस पकार शीरामचनिजी की पूजा की जाती है तथा रावण को िदयािसलाई दे दी जाती है (जलाया जाता है ), उसी पकार अपनी इं िियो को दै वी गुणो से संपनन कर िवषय-िवकारो को ितलांजिल दे दे ना ही िवजयादशमी का पवष मनाना है । ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

िवजयादश मी – स ंदेश असतय पर सतय की, अधम ष पर धमष की, दरुाचार पर सदाचार की, असुरो पर सुरो की जय

का पव ष है िवजयादशमी। लेिकन सतय-असतय, धमष-अधमष, दरुाचार-सदाचार, सुर-असुर आिखर है कया? कयो िवजयादशमी का पवष हम मनाते है ? इसका आधयाितमक अथष हमे कया िसखाता है ?

िवजयादशमी का पवष हमे िसखाता है िक अपने अंदर छुपे हुए दोषो, काम, कोध, लोभ, मोह,

अहं कार, राग, दे ष, परिनंदा, असतय और अिवदा को िमटाकर इसके बदले संयम, पेम, सतय, नमता, िमा, धिृत, असतेय, परदःुखकातरता, िवदा जैसे सदगुणरपी सदाचारी राम से दरुाचारी दशानन को

मार भगाना है और हमे भी शीराम जैसी आतम-संयम और आतम-िनषा को लाने का यत करना है । ये सदगुण मनुषय को उसके मोिपािि के लकय को पाि करने मे मील के पतथर िसद होते

है । यह पावन पव ष हमे संदेश दे ता है िक हमे अपने दग ष ो को वैसे ही जला दे ना है , जैसे हम ु ुण रावण के पुतले को जलाते है ।

जय ित रघ ुव ंशित लकः कौ शलयाहदय ननदनौ रामः। दशवदनिन धनकार ी दाशर िथः प ुणडरीकािः।।

'शी कौशलया जी के हदय को आनंिदत करने वाले, दशवदन रावण को मारने वाले,

रघुवंशितलक, दशरथकुमार कमलनयन भगवान शीराम की जय हो।'

(अधयातम रामाय

णः 7.1.1)

मनुषय जीवन मे आचार ही पमुख आधार है । आचार और िवचार, िकया और जान, दोनो का समनवय ही मानव को उसके लकय तक पहुँचा दे ता है तथा इससे िवपरीत होने पर पतन कर

दे ता है । रावण का जीवन जहाँ आचार-िवचार, िकया और जान के बेमेल होने की कहानी है , वहीं शीराम का जीवन उनके सुद ं र समनवय का आदशष इितहास है ।अनुकम

शीराम और रावण दोनो ही भगवान शंकर के अननय भि थे। दोनो ही परम कुलीन, बलवान, िवदान तथा संपनन थे लेिकन एक का जान तथा बल दीन – जन रिण के िलए था तो दस ू रे का दीन-जनपीडन के िलए। एक सदाचार-संपनन थे तो दस ू रा दरुाचार परायण।

एक दै वी संपदा के उपासक थे तो दस ष ा आसुरी संपिि का परम ू रा मनसा-वाचा-कमण

पोषक। शीराम यिद िनयतातमा, महापराकमी, तेजसवी, धैयश ष ाली, िजतेििय, धमप ष रायण, सवत ष समदििवाले, सतयिपय, शासीय मयाद ष ा के परम रिक और सवस ष दगुणसंपनन थे तो रावण अिनयंितत-िचि, उतावला, इं िियो का गुलाम, अनाय ष कमक ष ताष, सवत ष िवषमबुिद, शासीय मयाद ष ा का

िवनाशक तथा पकांड िवदान होते हुए भी परम िनंिदत सवभाव वाला तथा दरुाचारी था। अतः

शीराम और रावण का युद जहाँ दो िवपरीत आचारो का युद है , वहीं शीराम की िवजय दै वी संपदा की, दै वी आचार की, सदाचार की िवजय है और यह कहना आवशयक है िक शीराम का अवतरण इसी की सथापना के िलए हुआ था। असल मे सदाचार की सथापना ही धम ष की सथापना है ।

वैसे तो रावण भी कोई ऐसा वैसा नहीं था। रावण के संबध ं मे हनुमान जी कहते है -

"इस रािसराज का रप कैसा अदभुत है ! धैय ष कैसा अनोखा है ! िकतनी अनुपम शिि है और कैसा आियज ष नक तेज है ! इसका संपूणष राजोिचत लिणो से युि होना िकतने आियष की बात है ! यिद इसमे अधम ष न होता तो यह पबल रािसराज रावण इं िसिहत संपूण ष दे वलोक का

संरिक हो सकता था। इसके लोकिनिनदत, कूरतापूण,ष िनषु र कमो के कारण दे वताओं और दानवो सिहत संपूण ष लोक इससे भयभीत रहते है । यह कुिपत होने पर समसत जगत को एकाणव ष मे िनमगन कर सकता है । संसार मे पलय मचा सकता है ।"

(वालमीिक रामायणः

5.49.17-20)

रावण मे कई गुण थे लेिकन वह अपनी वासनाओं के कारण नीचे आ गया। उसकी भिि

सवाथी थी, िवषय-वासनाओं की पूितष के िलए थी। जो दस ू रो को दःुखी करके सुखी होना चाहता है , वह सवयं कभी सुखी नहीं हो सकता। जान अथवा कोई वसतु सुपात को ही शोभा दे ती है । दिूषत

वासना वाले दस ू रो को नीचा िदखाने मे ही लगे रहते है । रावण को अपनी करनी का फल आिखर भुगतना ही पडा।

हम सबको अब िवचार कर ही लेना चािहए िक हमे अब िकसका अनुसरण करना चािहए?

िजनका हमेशा यशोगान होता है उन शीराम का या िजसमे इतने गुण होते हुए भी दिूषत वासनाओं के कारण आज संसार मे हे य दिि से दे खा जाता है उस रावण का और हर वष ष दे

िदयािसलाई.... अतः िजतनी अिधक वासना उतना अिधक दिरि, िजतनी कम वासना, उतना धनवान और बािधत इचछा – वह महापुरष... जानवान।अनुकम ॐॐॐॐॐॐ

शरीर से पुरषाथ ष और हदय मे उतसाह.... मन मे उमंग और बुिद मे

समता.. वैरभाव की िवसमिृत और सनेह की सिरता का पवाह... अतीत के

अंधकार को अलिवदा और नूतन वष ष के नवपभात का सतकार... नया वष ष और

नयी बात.... नई उमंग और नया उतसाह.... नया साहस और नया उललास... माधुयष और पसननता बढाने को िदन यानी दीपावली का पवप ष ुंज।

जान -दीप दःुख, कि, मुसीबते पैरो तले कुचलने की चीज है । िहममत, साहस और हौसला बुलंद....

अमर जगमगाती जयोत... आतमा की समिृत-पीित... पावन दीपावली आपके जीवन मे पेम-पकाश लाती रहे !

जीवन है संगाम। जखम और कि तो होगे ही। िवषमताओं के बीच शदा, िवशास, समता,

पुरषाथ ष और पेम का दीप जगमगाता रहे ! आप हो िचर पसननता की जगमगाती जयोितसवरप। इित शुभम।्

आप अपने हदय-मंिदर मे पभु-पेम की जयोत िनरं तर जलने दो तािक अशुद या

अमंगलकारी कोई भी िवचार या वयिि तुमहे परमाथष के पथ से िवचिलत न कर सके।

शरीर से, वाणी से, मन से, इिनियो से जो कुछ भी करे , उस परमातमा के पसाद को उभारने

के िलए करे तो िफर 365 िदनो मे आनेवाली िदवाली एक ही िदन की िदवाली नहीं रहे गी वरन ् आपकी-हमारी रोज िदवाली बनी रहे गी।

लकमी उसी के यहाँ रहती है , िजसके यहाँ उजाला होता है , िजसके पास सही समझ होती

है । समझ सही होती है लकमी महालकमी हो जाती है और समझ गलत होती है तो वही धन

मुसीबते और िचंताएँ ले आता है । सेवा-साधना से आपकी धनलकमी सुखदायी, पभुपीितदायी महालकमी हो।

हे िपय आतमन ् ! इस मंगलमय नूतन वष ष के नवपभात मे सतय संकलप करो िक मै

अपने सतकमो से संपूण ष भूमड ं ल पर भारतीय संसकृ ित व गीता के जान का दीपक जगमगाता रहूँगा।

हे पकाशसवरप आतमा ! हे सुखसवरप पभु के सनातन सपूत ! आपका जीवन हर पिरिसथित मे सजगता, सावधानी, पसननता व पकाश से पिरपूण ष हो ! आितमक आनंद से जगमगाये जीवन ! अनुकम

तुमहारे हदय-मंिदर मे वैिदक जान का शाशत पकाश जगमगाता रहे यही शुभकामना.......

ॐ आनंद.... अनुकम

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

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