Mangalmaya Jivan Mrityu

  • Uploaded by: Rajesh Kumar Duggal
  • 0
  • 0
  • November 2019
  • PDF

This document was uploaded by user and they confirmed that they have the permission to share it. If you are author or own the copyright of this book, please report to us by using this DMCA report form. Report DMCA


Overview

Download & View Mangalmaya Jivan Mrityu as PDF for free.

More details

  • Words: 11,959
  • Pages: 29
अनुकम

पातःसम रणीय प ूजयपाद संत शी आ साराम जी बाप ू के सतस ंग पवचन स े नवन ीत

मंग लमय जीव न-मृ तयु "एक बार फकीरी मौत मे डू बकर बाहर आ जाओ.....िफर दे खो, संसार का कौन-सा भय तुमहे भयभीत कर सकता है ? तुम शाहो के शाह हो।"अनुकम पूजयशी

िनव ेदन मतृयु एक अिनवायय घटना है िजससे कोई बच नहीं सकता। सारी जीवनसिृि भयभीत है ।

इस भय से मुक होने का कोई मागय है ? पाचीन काल से ही पललिवत पुििपत हुई भारतीय अधयातम-िवदा मे इसका ठोस उपाय है । इस अनुपम िवदा की झाँकी पाकर िवदे शो के िवशिवखयात ततविचंतक बोल उठे ः

"अगर सुखमय मतृयु पाप करने की योगयता संपादन करना ततविचनतन का उदे शय हो तो

वेदानत जैसा दस ू रा कोई साधन नहीं है ।"

पो . मेकसमय ूलर

"उपिनषदो के अभयास जैसा कलयाण करने वाला दस ू रा कोई भी अभयास सारे िवश मे

नहीं है । मेरे जीवन का यह आशासन है औ मेरे मतृयुकाल मे भी मुझे इसी का आशासन रहे गा।" शोपनहोर

"यूरोप का उतमोतम ततवजान, गीक ततवजो का चैतनयवाद भी आयाव य तय के बहवाद की

तुलना मे मधयाह के पूणय पकाशवान सूयय के आगे एक िचनगारी जैसा लगता है ।

फेडरीक शे गल

िवदे शी िवदान तो भारतीय शासो को केवल पढकर ही दं ग रह गये थे जबिक अमदावाद, सूरत, मुंबई, रतलाम, इनदौर, भोपाल के आशमो मे पातःसमरणीय पूजयपाद संत शी आसारामजी

बापू के पावन सािननधय मे तो इस जान की पावन गंगा िनरनतर बह रही है । हजारो साधक इस जान की झाँकी पाकर धनय हो रहे है । अपने मंगलमय जीवन-मतृयु के बारे मे रहसयमय सुखानुभूितयाँ पा रहे है ।

अमदावाद मे 'मंगलमय जीवन-मतृयु' िवषयक सतसंग पवचन मे पूजयशी ने अपने

अनुभविसद वचनो दारा बडा ही सूकम िववेचन िकया है । भय से आकानत मानव समुदाय को िनभय य ता का यह परम संदेश है । उनका यह सतसंग-पवचन अपने िनभय य एवं लोक कलयाण मे रत जीवन का मूतय रप है ।

इस छोटी सी पुिसतका मे पसतुत पूजयशी का अमत ृ -पसाद पाकर आप भी जीवन-मतृयु

की समसया सुलझाकर..... अपने भीतर िनरनतर गूज ँ ते हुए शाशत जीवन का सुर सुनकर परम िनभय य हो जाओ। जीवन और मतृयु को मंगलमय बना दो।अनुकम

शी योग व ेदानत स ेवा स िम ित

अनु कम मतृयु के पकार।

मतृयु भी जीवन के समान आवशयक।

िसकनदर ने अमत ृ कयो नहीं िपया? िबना मतृयु को जाने जीवन जीवन नहीं। मतृयु िकसकी होती है ?

भगवान शीराम और तारा।

मतृयःु केवल वस पिरवतन य ।

फकीरी मौतः आननदमय जीवन का दार।

यमराज और निचकेता।

सचचे संत मतृयु का रहसय समझाते है ।

मतृयःु एक िवशािनत-सथान।

वासना की मतृयु के बाद परम िवशािनत।

धत ृ राष का शोक।

घाट वाले बाबा का एक पसंग।

फकीरी मौत ही असली जीवन।

फकीरी मौत कया है ?

सुकरात का अनभ ु व।

अधयातमिवदाः भारत की िवशेषता।

तीन पकार के लोग।

जान को आयु से कोई िनसबत नहीं।

योगसामथयःय एक पतयक उदाहरण। योग भी साधना का आिखरी िशखर नहीं। गुणातीत संत ही परम िनभय य ।

संतो का सनदे श।

ॐॐॐॐॐॐॐ

िचंतन पराग।

मंगलमय जीवन -मृ तयु आज हम जीवन और मतृयु के बारे मे िवचार करे गे। बात तो बहुत छोटी है , मगर बडी

अटपटी है । झटपट समझ मे नहीं आती। अगर एक बार समझ मे आ जाये तो जीवन की सब खटपट िमट जाये।

इस रहसय को न समझ सकने के कारण हम अपने को सीिमत दे शकाल के भीतर एक

सामानय शोता के रप मे यहाँ उपिसथत मान रहे है , मगर यिद यह रहसय हमे ठीक से समझ मे

आ जाय तो तुरनत यह खयाल आयेगा िकः "मै अननत बहाणडो मे वयाप होकर सभी िकयाएँ कर रहा हूँ। मेरे अितिरक दस ू रा कुछ है ही नहीं, तो िफर जीवन िकसका और मौत िकसकी? मृ तयु के पकार

मतृयु पर िभनन-िभनन दिि से िवचार कर सकते है ।

पौरािणक दिि से अपने इि की समिृत जीवन है और इि की िवसमिृत मतृयु है । वयावहािरक दिि से अपनी इचछा के अनुकूल घटना घटे यह जीवन है और इचछा के

पितकूल घटना घटे यह मतृयु है । ऐसी मतृयु तो िदन मे अनेक बार आती है ।

लौिकक दिि से पद पितषा िमलना, वाह-वाही होना जीवन है और बदनामी होना मौत

कहा जा सकता है ।

िजसे साधारण लोग जीवन और मौत कहते है उस दिि से दे खे तो पंचभूतो से बने सथूल

शरीर का सूकम शरीर (पाणमय शरीर) से संयोग जीवन है और िवयोग मौत है ।

वासतव मे न तो कोई जीता है न कोई मरता है , केवल पकृ ित मे पिरवततन य होता है । इस

पिरवतन य मे अपनी सवीकृ ित तो जीवन लगता है और इस पिरवतन य मे िबना इचछा के िखंचा जाना, घसीटा जाना, जबरन उसको सवीकार करना पडे यह मौत जैसा लगता है । वासतव मे मौत जैसा कुछ नहीं है ।

जगत मे जो कुछ भी दििगोचर होता है वह सब पिरवतन य शील है । दस ू रे शबदो मे, वह सब

काल के गाल मे समाता जा रहा है । चहचहाट करते हुए पकी, भागदौड करते हुए पशु, लहलहाते

हुए पेड-पौधे, वनसपित, पकृ ित मे हलचल मचाकर मिसतिक को चकरा दे ने वाले आिविकार करते हुए मनुिय सभी एक िदन मर जायेगे। कई मर गये, कइयो को रोज मरते हुए हम अपने चारो ओर दे ख ही रहे है और भिविय मे कई पैदा हो-होकर मर जायेगे।अनुकम कोई आ ज गया को ई कल गया कोई जावनहार

तैया र खडा।

नह ीं कायम कोई म ुकाम यह ाँ िचर काल स े य े ही िरवाज रहा।।

दादा गये, िपता गये, पडोसी गये, िरशतेदार गये, िमत गये और एक िदन हम भी चले जाएँगे तथा इस तथा किथत मौत के मुह ँ मे। यह सब दे खते हुए, जानते हुए, समझते हुए भी 50

वषव य ाला 60, 60 वषव य ाला 70, 70 वषय वाला 80 और 90 वाला 100 वषय उम दे खने की इचछा करता है । 100 वषय वाला भी मरना नहीं चाहता। मौत िकसी को पसनद नहीं है ।

मैने सुना है िक अमेिरका मे लगभग एक हजार ऐसी लाशे सुरिकत पडी है इस आशा मे

िक आगे आने वाले 20 वषो मे िवजान इतनी पगित कर लेगा िक इन लाशो को जीवनदान दे

सके। हर लाश पर 10000 रपये दै िनक खचय हो रहा है । बीस साल तक चले उतना धन ये मरने वाले लोग जमा कराके गये है ।

कोई मरना नहीं चाहता। कब मे िजसके पैर लटक रहे है वह बूढा भी मरना नहीं चाहता। औषिधयाँ खा-खाकर

जीणय-शीणय हुआ रोगी मरणशयया पर पडा अंितम शासे ले रहा है , डॉकटरो ने जवाब दे िदया है ,

वह भी मरना नहीं चाहता। लाशे भी िजनदा होना चाहती है । पकृ ित का यह मतृयु रपी पिरवतन य िकसी को पसनद नहीं। यदिप यह सब जानते है । जो आया

है सो जाए गा राजा र ंक फकीर।

यह मान भी िलया जाये िक 20 वषय मे िवजान इतनी उननित कर लेगा और लाशो को िफर से जीिवत भी कर दे गा, िफर भी वे कब तक िटकी रहे गी? अंत मे जरा-जीणय होगी ही। उन

लाशो को तो बीस वषय भी हो गये। अभी तक िवजानी उनहे जीिवत नहीं कर पाये। मानो कर भी ले तो ये कब तक िटकंगी ? मृ तयु भी जीवन

के स मान आवशयक

बगीचे मे वही के वही पेड-पौधे, फूल-पते जयो के तयो बने रहे , उनकी काट-छाँट न की

जाय, नये न लगाये जाएँ, उनको सँवारा न जाय तो बगीचा बगीचा नहीं रहे गा, जंगल बन जायेगा। बगीचे मे काट-छाँट होती रहे , नये पौधे लगते रहे , पुराने, सडे -गले, पुिपहीन, ठू ँ ठ, िबनजररी पौधे हटा िदये जायँ और नये, सुगिनधत, नवजीवन और नवचेतना से ओतपोत पौधे लगाये जायँ यह जररी है ।

िस कनदर न े अ मृ त कयो नही िपया ? समाट िसकंदर, िजसे पीकर अमर हो जाए, कभी मरना न पडे ऐसे अमत ृ जल की खोज मे

था। नकशो के सहारे िवजय करता हुआ वह उस गुफा मे पहुँच भी गया िजसके अनदर अमत ृ जल का झरना था। गुफा के बाहर ही उसने अपने सभी सैिनको को रोक िदया और सवयं अकेला बडे उतसाह व पसननता से आिहसते-आिहसते चौकनना होकर कदम बढाने लगा। आज उसके जीवन की सबसे बडी खवािहश पूरी होने जा रही थी। उसका हदय उछल रहा था। थोडी ही दरू अपने सामने पैरो के पास ही उसने दे खाः चाँदी सा शेत अमत ृ जल धीमी-धीमी कल कल छल छल

आवाज करता बह रहा है । उसका हदय आननद से िखल उठा। अब वह अपने को न रोक सका। वह घुटनो के बल नीचे झुका। अपने दोनो हाथ पानी मे डु बोए। अनुकम

आहा ! कैसा शीतल सपशय! उसकी सारी थकान उतर गई। दोनो हाथो की अंजली मे उसने वह जल भरा। अंजली को धीरे -धीरे मुँह तक लाया। हदय की धडकन बढी। ओंठ सुधापान करने को लालाियत हो उठे । बस, जल ओंठो तक पहुँच ही गया था और वह पी ही लेता िक इतने मे"खबरदार....!" उस िनजन य गुफा मे िकसी की आवाज गूँज उठी। चौक कर िसकनदर ने िसर ऊपर उठाया। दे खा तो एक कौआ वहाँ बैठा है ।

"खबरदार िसकंदर ! रक जाओ, जलदी न करो। जो भूल मैने की वह तुम मत करो...। मुझे

कोई साधारण कौआ मत समझना। मै कौओं का समाट हूँ। मै भी तुमहारी तरह बहुत पिरशम मे इस अमत ृ की खोज करते-करते यहाँ तक पहुँचा हूँ और मैने यह जल पी िलया है । परनतु इसे पीकर अब मुसीबत मे पड गया हूँ।"

ऐसी गमभीर घडी मे यह िवघन िसकंदर को अचछा नहीं लगा, िफर भी धीरज से वह

उसकी बात सुनने लगा। कौआ बोलाः

"तुमको जल पीना हो तो अवशय िपयो िसकंदर, लेिकन मेरी बात पूरी सुन लो। यह जल

पीकर मै अमर हो गया हूँ। जो कुछ जीवन मे करने की इचछा थी वह सब मै कर चुका हूँ।

िजतना घूमना था घूम िलया, सुनना था सुन िलया, गाना था गा िलया, खाना था खा िलया, जो भी मौज करने की इचछा थी सब कर िलया। अब करने के िलए कुछ बचा ही नहीं। अब यह

जीवन मेरे िलये भार बन गया है । मै अब मरना चाहता हूँ परनतु मर नहीं सकता। मरने के िलए पानी मे कूदा, परनतु पानी ने मुझे डु बाया नहीं। पहाडो पर से कूदा, िफर भी मरा नहीं। आग की जवालाओं मे कूदकर दे खा, उसने भी मुझे जलाया नहीं। तलवार की धार से मैने गदय न िघसी, परनतु धार खराब हो गई, गदय न न कटी। यह सब इस अमत ृ जल के कारण।

सोचा था िक अमर होकर सुखी होऊँगा। परनतु अब पता चला िक मैने मुसीबत मोल ले

ली है । तुमको यह जल पीना हो तो अवशय िपयो, मै मना नहीं करता परनतु मेरी तुमसे िवनती है िक यहाँ से जाने के बाद मरने की कोई िविध का पता लगे तो मुझे अवशय समाचार दे ना।"

थोडी दे र के िलए गुफा मे नीरव शांित छा गई। िसकंदर के हाथ की उँ गिलयाँ िशिथल हो

गई। उनके बीच मे से सारा अमत ृ जल िगर कर पुनः झरने मे समा गया। दस ू री बार उसने झरने के जल मे हाथ डालने की िहममत नहीं की। मन ही मन िवचार करते हुए वह उठ खडा हुआ और पीछे मुडकर गुफा के दार की ओर चल पडा आिहसते-आिहसते.. िबना अमत ृ जल के िपये।

यह घटना सच हो या झूठ, उससे कोई सरोकार नहीं, परनतु इसमे एक तथय छुपा हुआ है

िक िजतना जीवन जररी है उतनी ही मौत भी जररी है । पिरवतन य होना ही चािहए।अनुकम िबना म ृ तयु को जान े जीवन जीवन

नह ीं

िजस जीवन के िलए अपनी लाश की सुरका हे तु करोडो रपयो की वसीयत करके लोग चले गये, िजस जीवन को िटकाए रखने के िलए हम लोग भी अपार धन-समपित इकटठी करने

मे लगे हुए है , दस ू रो को दःुखी करके भी जीवन के ऐश –आराम के साधन संगह करने मे हम

लगे हुए है , वह जीवन िटक जाने के पशात भी, अमर हो जाने के बाद भी कया हमको आननद दे सकेगा? कया हम सुखी हो सकेगे?... यह जरा िवचार करने योगय है । मौत से मनुिय डरता है

परनतु ऐसा जीवन भी कोई जीवन है िजसमे सदै व मौत का भय बना रहे ? जहाँ पग-पग मतृयु

का भय हमे किमपत करता रहे ? ऐसा नीरस जीवन, भयपूणय जीवन मौत से भी बदतर जीवन है । ऐसा जीवन जीने मे कोई सार नहीं। यह जीवन जीवन नहीं है ।

यिद जीवन ही जीना है , यिद रसमय जीवन जीना है , यिद जीवन का सवाद लेते हुए

जीवन को जीना है तो मौत को आमंितत करो, मौत को बुलाओ और होशपूवक य मौत का अनुभव

करो। जो संत मौत का अनुभव कर चुके है उनका संग करके मौत की पोल को जान लो, िफर तो आप भी मसत होकर उनकी तरह कह उठे गेः

जा मरन े त े ज ग डर े , मोर े मन आननद।

मृ तयु िक सकी होती

है ?

अभी तो िजसे तुम जीवन कहते हो वह जीवन नहीं और िजसे तुम मौत कहते हो वह मौत नहीं है । केवल पकृ ित मे पिरवतन य हो रहा है । पकृ ित मे जो रहा है वह सब पिरवतन य है । जो पैदा होता दीख रहा है वही नि होता नजर आता है । िजसका सजन य होता दीखता है वही िवसजन य की ओर जाता नजर आता है । पेड-पौधे हो या खाइयाँ हो, सागर हो या मरसथल हो, सब पिरवतन य रपी सिरता मे बहे जा रहे है । जहाँ नगर थे वहाँ वीरान हो गये, जहाँ बिसतयाँ थीं वहाँ आज

उललू बोल रहे है और जहाँ उललू बोल रहे थे वहाँ बिसतयाँ खडी है , जहाँ मरसथल थे वहाँ आज

महासागर िहलोरे ले रहे है और जहाँ महासागर थे वहाँ मरसथर खडे है । बडे -बडे खडडो की जगह पहाड खडे हो गये और जहाँ पहाड थे वहाँ आज घािटयाँ, खाइयाँ बनी हुई है । जहाँ बडे -बडे वन थे वह भूिम बंजर और पथरीली हो गई और जो बंजर थी, पथरीली थी वहाँ आज वन और बागबगीचो के रप मे हिरयाली फैली हुई है ।

चाँद सफर म े , िस तार े स फर मे।

हवाए ँ सफर म े , दिरया के िकनार े स फर म े। अरे शायर

! वह ाँ की हर च ीज सफर म े।

....तो आप ब े सफर कैस े रह सकत े ह ै ?

आप िजस शरीर को 'मै' मानते है वह शरीर भी पिरवतन य की धारा मे बह रहा है । पितिदन शरीर के पुराने कोष नि हो रहे है और उनकी जगह नये कोष बनते जा रहे है । सात

वषय मे तो पूरा शरीर ही बदल जाता है । ऐसा वैजािनक भी कहते है । इस सथूल शरीर से सूकम शरीर का िवयोग होता है अथात य ् सूकम शरीर दे हरपी वस बदलता है इसको लोग मौत कहते है और शोक मे फूट-फूट कर रोते है ।अनुकम भगवान शीराम और तारा

भगवान राम ने जब बाली का वध िकया तो बाली की पती राम के पास आई और अपने पित के िवयोग मे फूट-फूट कर रोने लगी। राम ने उसको धीरज बँधाते हुए कहाः

िकित जल पावक ग गन स मीरा , पं च रिच त यह अध म शरीरा। सो तन ु तव आग े सो हा , जीव िनतय त ू क हाँ ल िग रोवा।।

"हे तारा ! तू िकसके िलए िवलाप कर रही है ? शरीर के िलए या जीव के िलए? पंचमहाभूतो दारा रिचत शरीर के िलए यिद तू रोती है तो यह तेरे सामने ही पडा है और यिद जीव के िलए रोती है तो जीव िनतय है , वह मरता नहीं।" मृ तयुः केव ल वस प िरवत य न

यिद वासतव मे मौत होती तो हजारो-हजारो बार होने वाली तुमहारी मौत के साथ तुम भी मर चुके होते, आज तुम इस शरीर मे नहीं होते। यह शरीर तो मात वस है और आज तक

आपने हजारो वस बदले है । अपना ईशर कंगाल नहीं है , िदवािलया नहीं है िक िजसके पास दो चार ही वस हो। उसके पास तो अपने बालको के िलए चौरासी-चौरासी लाख वस है । कभी चूहे का तो कभी िबलली का, कभी दे व का तो कभी गंधवय का, न जाने िकतने-िकतने वेश आज तक हम बदलते आये है । वस बदलने मे भय कैसा?

यही बात भगवान शीकृ िण ने अजुन य से कही है ः वास ांिस जीणा य िन य था िवहाय नवािन

तथा शरीरािण

ग ृ हाित नरोऽपरािण।

िवहाय जीणा य नयनयािन स ंयाित नवािन द ेही।।

'हे अजुन य ! तू यिद शरीरो के िवयोग का शोक करता है तो यह भी उिचत नहीं है , कयोिक

जैसे मनुिय पुराने वसो का तयागकर दस ू रे नये वसो को गहण करता है , वैसे ही जीवातमा पुराने शरीरो को तयाग कर दस ू रे नये शरीरो को पाप होता है ।"

(गीताः

2.22)

बालक की चडडी (नेकर) फटने पर उसकी माँ उसको िनकाल कर नई पहनाती तो बालक

रोता है , िचललाता है । वही बालक बडा होता है , पहले की चिडडयाँ छोटी पड जाती है , उनहे छोडता है , बडी पहनता है , िफर वह भी छोडकर पैनट, पाजामा या धोती आिद पहनता है । ऐसे ही

परमातमा की संतान भी जयो-जयो बडी होती है िवकिसत होती है तयो-तयो उसे पहले से अिधक योगय, दे दीपयमान नये शरीर िमलते है । जीव-जंतुओं

से िवकिसत होते-होते बनदर, गाय और

आिखर मनुिय दे ह िमलती है । मनुिय िदवय कमय करे , सतवगुण-पधान बने तो दे व, गंधवय की योिन िमलती है । उसका सवभाव रजस पधान हो तो वह िफर मनुिय बनता है और यिद तामसी

सवभाव रखता है तो पुनः हलकी योिनयो मे जाता है । उस मानव को यिद ईशर भिक के साथ कोई समथय सदगुर िमल जाये, उसे आतमधयान, आतमजान की भूख जगे, वह गुरकृ पा पचा ले तो वही मनुिय, चौरासी के चक मे घूमने वाला जीव अपने िशवसवभाव को जानकर तीनो गुणो से पार हो जाये, परमातमा मे िमल जाये।अनुकम

वस पिरवतन य से भय कैसा? वस बदलने वाला तो कभी भी मरता नहीं, वह अमर है और पिरवतन य पकृ ित का सवभाव है , तो िफर मौत है ही कहाँ? यही बात समझाते हुए गीता मे भगवान शी कृ िण कहते है अजुन य से िक तुमहे भय िकस बात का है ? हतो वा पापसयिस स

वगग िज तवा वा भोकयस े म हीम।्

'यिद युद मे शरीर छूट गया तो सवगय को पाप करोगे और यिद जीत गये तो पथृवी का राजय भोगेगे।'

(सभी शोतागण तनमयता से जीवन मतृयु पर मीमांसा सुन रहे है । सवामी जी कुछ कण

रककर सभी पर एक रहसयमय दिि फेकते है । वातावरण मे थोडी गमभीरता छाई हुई जानकर पश करते है ।)

फकीरी मौ तः आननद मय जीवन का दारः

आप लोग उदास तो नहीं हो रहे है न? आपको मौत का भय तो नहीं लग रहा है न? अभी केवल जीवन पर बात ही चल रही है , िकसी की मौत नहीं आ रही है ....।

(यह सुनकर सभी िखलिखलाकर हँ स पडते है । सवामी जी फकीर मसती मे आगे कहते

है )।

अरे मौत तो इतनी पयारी है िक उसे यिद आमंितत िकया जाये तो आननदमय जीवन के

दार खोल दे ती है ।

एक जवान साधु था। घूमते-घूमते वह नेपाल के एक पहाड की तलहटी मे जा पहुँचा। वहाँ

उसने दे खा, एक वद ृ संत एक िशला पर बैठे है । शाम का समय है । सूरज िछपने की तैयारी मे है । उन संत ने उस जवान साधु को तो दे खा तो बोलेः

"मेरे पैरो मे इतनी ताकत नहीं िक अभी मै ऊपर पहाड पर चढकर अपनी गुफा तक पहुँच

सकूँ। बेटा , तुम मुझे अपने कंधे पर चढाकर गुफा तक पहुँचा दो।"

युवा साधु भी अलमसत था। उसने संत को अपने कंधे पर िबठा िलया और चल पडा

उनकी गुफा की ओर। चढाई बडी किठन थी, परनतु वह भी जवान था। चढाई चढता रहा। काफी ऊपर चढ चुकने पर उसने संत से पूछाः "गुफा अभी िकतनी दरू है ?" "बस, अब थोडी

दरू है ।"

चलते-चलते काफी समय हो गया। साधु पूछता रहा और वे संत कहत रहे ः "बस अब थोडी ही दरू है ।" मामा का घर िजतना दरू? िदया िदखे उतना दरू.... ऐसा करते-करते रात को गयारह बजे के करीब गुफा पर पहुँचे। साधु ने वद ृ संत को कंधे से नीचे उतारा और बोलाः "और कोई सेवा?" अनुकम

संत उसकी सेवा से बडे पसनन थे। बोलेः

"बेटा ! तुमने बडी अचछी सेवा की है । बोल, अब तुझे कया पुरसकार दँ ू? .....वह दे ख, सामने

तीन-चार भरे हुए बोरे रखे है । उसमे से िजतना उठा सको उतना उठा ले जाओ।"

युवा साधु ने जाकर बोरो को छूकर दे खा, अनुमान लगाया, शायद रदी कागजो से भरे हुए

है । िफर धयान से दे खा को अनुमान गलत िनकला। वे बोरे नेपाली नोटो से भरे हुए थे। उसने अनमने मन से उनको दे खा और उलटे पैरो लौट पडा संत की ओर। संत ने पूछाः "कयो माल पसनद नहीं आया?"

वद ृ संत पहुँचे हुए योगी थे। अपने योगबल दारा उनहोने नोटो के बंडलो से भरे बोरे

उतपनन कर िदये थे। उनको ऐसी आशा थी िक वह युवा साधु अपनी सेवा के बदले इस पुरसकार से खुश हो जायगा। परनतु वह युवा साधु बोलाः

''ऐसी सब चीजे तो मै पहले ही छोड आया हूँ। इनसे कया जीवन की रका होगी? इनसे

कया जीवन का रहसय समझ मे आएगा? इनसे कया मौत जानी जा सकेगी?..... कया मै इनही

चीजो के िलए घर बार छोडकर दर-दर भटक रहा हूँ? जंगलो और पहाडो को छान रहा हूँ? ये सब तो नशर है ।....और अगर संतो के पास भी नशर िमलेगा तो िफर शाशत कहाँ से िमलेगा।" यमराज और न िचकेताः

निचकेता भी यमराज के सममुख ऐसी ही माँग पेश करता है । कठोपिनषद मे निचकेता की कथा आती है । निचकेता कहता है यमराज सेः "हे यमराज ! कोई कहता है मतृयु के बाद

मनुिय रहता है और कोई कहता है नहीं रहता है । इसमे बहुत संदेह है । इसिलए मुझे मतृयु का

रहसय समझाओ तािक सतय कया है , यह मै जान सकूँ। " परनतु यमराज निचकेता की िजजासा को परखने के िलए पहले भौितक भोग और वैभव का लोभ दे ते हुए कहते है -

शताय ुषः प ु तपौतानव ृ णीिव बह ू नप शून हिसत िहरणयम शा न।्

भूम ेम य हदायतन ं व ृ णीिव सवय ं च जीव शरदोयाविदचछ

िस।।

हे निचकेता ! तू सौ वषय की आयुिय वाले पुत-पौत, बहुत से पशु, हाथी-घोडे , सोना माँग ले,

पथ ृ वी का िवशाल राजय माँग ले तथा सवयं भी िजतने वषय इचछा हो जीिवत रह।"

(वललीः

1.23)

इतना ही नहीं, यमराज आगे कहते है "मनुियलोक मे जो भोग दल य है उन सबको सवचछनदतापूवक य तू माँग ले। यहाँ जो रथ ु भ

और बाजो सिहत सुनदर रमिणयाँ है , वे मनुियो के िलए दल य है । ऐसी कािमनयो को तू ले जा। ु भ इनसे

अपनी सेवा करा, परनतु हे निचकेता ! तू मरण समबनधी पश मत पूछ।" िफर भी निचकेता इन पलोभनो मे नहीं फँसता है और कहता है ः

"ये सब भोग सदै व रहने वाले नहीं है और इनको भोगने से तेज, बल और आयुिय कीण

हो जाते है । मुझे ये भोग नहीं चािहए। मुझे तो मतृयु का रहसत समझाओ।"अनुकम सच चे स ंत म ृ तयु का रहसय सम झात े है

ठीक इसी पकार वह युवा साधु उन वद ृ संत से कहता है ः "मुझे ये नोटो के बंडल नहीं चािहए। आप यिद मुझे कुछ दे ना ही चाहते है तो मुझे मौत दीिजए। मै जानना चाहता हूँ िक मौत कया है ? मैने सुना है िक सचचे संत मरना िसखाते है । मै उस मौत का अनुभव करना चाहता हूँ।"

वसतुतः संत मरना िसखाते है इसीिलए तो लोग रोते हुए बचचो को चुप कराने के िलए

कहते है - 'रो मत, चुप हो जा। नहीं तो वह दे ख, बाबा आया है न, वह पकडकर ले जायेगा।' भले ही लोग अजानतावश बाबाओं अथवा संतो से बचचो को डराते हुए कहते है िक वे ले जायेगे,

परनतु िजनको सचचे संत ले जाते है अथवा जो उनका हाथ पकड लेते है , वे तर जाते है । सचचे

संत उनको सब भयो से मुक कर दे ते है और उनको ऐसे पद पर िबठा दे ते है िक िजसके आगे संसार के सारे भोग-वैभव, धन-समपित, पुत-पौत, यश-पितषा, सब तुचछ भािसत होते है । परनतु ऐसे सचचे संत िमलने दल य है और दढता से उनका हाथ पकडने वाले भी दल य है । िजनहोने ऐसे ु भ ु भ संतो का हाथ पकडा है वे िनहाल हो गये।

उस युवा साधु ने भी ऐसे ही संत का हाथ पकडा था। मौत को जानने की उसकी पबल

िजजासा को दे खकर वे वद ृ संत बोल उठे ः "अरे , यह कया माँगता है ? यह भी कोई माँगने की चीज है ?" ऐसा कहकर उनहोने युवा साधु को थोडी दे र इधर-उधर की बातो मे लगाया और मौका

दे खकर उसको एक तमाचा मार िदया। युवक की आँखो के सामने जैसे िबजली चमक उठी हो

ऐसा अनुभव हुआ और दस ू रे ही कण उसका सथूल शरीर भूिम पर लेट गया। उसका सूकम शरीर दे ह से अलग होकर लोक-लोकानतर की याता मे िनकल पडा। लोग िजसको मतृयु कहते है ऐसी घटना घट गई।

पातःकाल हुआ। रात भर आननदमय मतृयु के सवाद मे डू बे हुए उस युवा साधु के सथूल

शरीर को िहलाकर वद ृ संत ने कहाः

"बेटा उठ ! सुबह हो गई है । ऐसे कब तक सोता रहे गा?"

युवा साधु आँख मलता हुआ पसननवदन उठ बैठा। िजसको मतृयु कहते है उस मतृयु को

उसने दे ख िलया। अहा ! कैसा अदभुत अनुभव ! उसका हदय कृ तजता से भर उठा। वह उठकर फकीर के चरणो मे िगर पडा।

लोग कहते है िक मरना दःुखपद है और इसीिलए मौत से डरते है । िजनको संसार मे मोह

है उनके िलए मौत भयपद है , परनतु संतो के िलए, मोह रिहत आतमाओं के िलए ऐसा नहीं है । अनुकम

मृ तयुः एक िवशा िनत -सथानः मौत तो एक पडाव है , एक िवशािनत-सथान है । उससे भय कैसा? यह तो पकृ ित की एक

वयवसथा है । यह एक सथानानतर मात है । उदाहरणाथय, जैसे मै अभी यहाँ हूँ। यहाँ से आबू चला

जाऊँ तो यहाँ मेरा अभाव हो गया, परनतु आबू मे मेरी उपिसथित हो गई। आबू से िहमालय चला

जाऊँ तो आबू मे मेरा अभाव हो जायेगा और िहमालय मे मेरी हािजरी हो जायेगी। इस पकार मै तो हूँ ही, मात सथान का पिरवतन य हुआ।

तुमहारी अवसथाएँ बदलती है , तुम नहीं बदलते। पहले तुम सूकम रप मे थे। िफर बालक

का रप धारण िकया। बालयावसथा छूट गई तो िकशोर बन गये। िकशोरावसथा छूट गई तो जवान बन गये। जवानी गई तो वद ृ ावसथा आ गई। तुम नहीं बदले, परनतु तुमहारी अवसथाएँ बदलती गई।

हमारी भूल यह है िक अवसथाएँ बदलने को हम अपना बदलना मान लेते है । वसतुतः न

तो हम जनमते-मरते है और न ही हम बालक, िकशोर, युवा और वद ृ बनते है । ये सब हमारी दे ह के धमय है और हम दे ह नहीं है । संतो का यह अनुभव है िकः

मुझ म े न तीन ो द ेह ह ै , तीनो अवस थाए ँ नही ं।

मुझ म े नही ं बाल कपना , यौव न ब ुढापा ह ै नही ं।। जनमूँ नह ीं मरता नही ं , होता नह ीं म ै ब ेश -कम।

मै बह ह ूँ म ै बह ह ूँ , ित हूँ का ल म े ह ूँ एक सम ।।

मतृयु नवीनता को जनम दे ने मे एक संिधसथान है । यह एक िवशाम सथल है । िजस

पकार िदन भर के पिरशम से थका मनुिय राित को मीठी नींद लेकर दस ू रे िदन पातः नवीन

सफूितय लेकर जागता है उसी पकार यह जीव अपना जीणय-शीणय सथूल शरीर छोडकर आगे की

याता के िलए नया शरीर धारण करता है । पुराने शरीर के साथ लगे हुए टी.बी., दमा, कैनसर जैसे भयंकर रोग, िचनताएँ आिद भी छूट जाते है । वासना की म ृ तयु के बाद परम

िवशा िनत

सथूल शरीर से सूकम शरीर का िवयोग, िजसको मतृयु कहा जाता है , वह िवशाम-सथल तो

है परनतु पूणय िवशांित उसमे भी नहीं है । यह फकीरी मौत नहीं है ।

फकीरी मौत तो वह है िजसमे सारी वासनाएँ जड सिहत भसम हो जाएँ।

भीतर यिद सूकम वासना भी बची रही तो जीव िफर से नया शरीर धारण कर लेगा और िफर से सुख-दःुख की ठोकरे खाना चालू कर दे गा। िफर से वहीः

पुनरिप जनन ं पुनरिप मरण ं।

धृ तराष का शोक ः

पुनरिप जननी जठर

े श यनम।् ।

कुरकेत के युद मे दय ृ राष खूब दःुखी हुए और ु ोधन सिहत जब सारे पुत मारे गये तो धत

िवदरु से कहने लगेः "कृ िण और पांडवो ने िमलकर मेरे सब पुतो का संहार कर िदया है इसका

दःुख मुझसे सहन नहीं होता। एक एक कण वयतीत करना मुझे वषो जैसा लमबा लग रहा है ।" अनुकम

िवदरु धत ृ राष को समझाते हुए कहते है - "जो होना होता है वह होकर ही रहता है । आप

वयथय मे शोक न करो। आतमा अमर है । उसके िलए मतृयु जैसी कोई चीज नहीं है । इस शरीर को छोडकर जो जाता है वह वापस नहीं आता, इस बात को समझकरः 'राम राखे तेम रिहये।' हे भाई ! शोक न करो।"

परनतु धत ृ राष का शोक कम नहीं हुआ। वह दढतापूवक य कहने लगाः "तुम कहते हो वह

सब समझता हूँ, िफर भी मेरा दःुख कम नहीं होता। मुझे अपने पुतो के िबना चैन नहीं पड रहा है । पलभर को भी िचत शांत नहीं रहता।"

अजानी सोचता है िक िजस पकार मै चाहता हूँ उसी पकार सब हो जाये तो मुझे सुख

हो। यही मनुिय का अजान है ।

शास और संतो का िकतना ही उपदे श सुनने को िमल जाय तो भी वह अपनी मानयताओं

का मोह सरलता से छोडने को तैयार नहीं होता। िवदरु का धमय य ुक उपदे श धत ृ राष को सानतवना नहीं दे सका। धत ृ राष शासो से िबलकुल अनिभज था ऐसी बात नहीं थी। िफर भी उसका शासजान उसे पुतो के मोह से मुक नहीं कर सका। घाटवाल े बाबा का एक पस

ंग

हिरदार मे घाटवाला बाबा के नाम से पिसद एक महान संत रहते थे। बहुत सीधे-सादे

और सरल। कमर मे कंतान (टाट) लपेटे रहते थे, ऊपर से िदखने मे िभखारी जैसे लगते मगर भीतर से समाट थे। उनके पास एक वयिक आया और बोलाः "महाराज ! मुझे शांित चािहए।" महाराज ने पहले उसे धयान से दे खा िफर कहाः "शांित चािहए तो तुम गीता पढो।"

यह सुनकर वह चौककर बोलाः "गीता ! गीता तो मै िवदािथय य ो को पढाता हूँ। मै कालेज

मे पोफेसर हूँ। गीता मेरा िवषय है । गीता मै कई बार पढ चुका हूँ। उस पर तो मेरा काबू है ।"

महाराज बोलेः "यह ठीक है । अब तक तो लोगो को पढाकर पैसो के लाभ के िलए गीता

पढी होगी। अब मन को िनयंितत करके शांित लाभ के िलए पढो।"

लोग शासो मे से सूचनाएँ और जानकािरयाँ इकटठी करके उसे ही जान मान लेते है ।

दस ू रो को पभािवत करने के िलए लोग शासो की बाते करते है , उपदे श दे ते है , परनतु उनहे अपने आपको कोई अनुभिू त नहीं होती। मतृयु के िवषय मे भी लोग िवदतापूणय पवचन कर सकते है , मतृयु से डरने वालो को आशासन और धैयय दे सकते है परनतु मौत जब उनहीं के सममुख

साकात ् आकर खडी होती है तो उनकी रग-रग काँप उठती है , कयोिक उनको फकीरी मौत का अनुभव नहीं।अनुकम

कई लोग कहते है िक जीवन और मौत अपने हाथ मे नहीं है , परनतु यह उनके िलए ठीक

है िजनको आधयाितमक रहसय का पता नहीं, जो सवयं को शरीर मानते है , दीन-हीन मानते है ।

परनतु योगी जानते है िक जीवन और मतृयु इन दोनो पर मनुिय का अिधकार है । इस अिधकार को पाप करने की तरकीब भी वे जानते है । कोई िहममतवान जानने को ततपर हो तो वे उसे

बता भी सकते है । वे तो खुललमखुलला कहते है िक यिद रोते-कलपते हुए मरना हो तो खूब भोगभोगो। िकसी की परवाह न करते हुए खूब खाओ, िपयो और अमयाियदत िवषय-सेवन करो। ऐसा जीवन आपको अपने आप मौत की ओर शीघता से आगे बढा दे गा। परनतु.....

यिद मौत पर िवजय पाप करनी हो, जीवन को सही तरीके से जीना हो तो योिगयो के

कहे अनुसार करो, पाणायाम करो, धयान करो, योग करो, आतमिचनतन करो और ऐसा कोई योगी डॉकटरो के सामने आकर हदय की गित बनद करके बता दे ता है तो वह बात भी लोगो को बडी आशयज य नक लगती है । लोगो के टोले के टोले उसको दे खने के िलए उमड पडते है । परनतु यह भी कोई योग की पराकाषा नहीं है ।

फकीरी मौ त ही असली जीवन इितहास मे जानेशर महाराज और योगी चाँगदे व का पसंग आता है , वह तो आप लोग

जानते ही होगे। चाँगदे व ने मतृयु को चौदह बार धोखा िदया था। अथात य ् जब-जब मौत का समय

आता तब-तब चाँगदे व योग की कला से अपने पाण ऊपर चढाकर मौत टाल िदया करते थे। ऐसा करते-करते चाँगदे व ने अपनी उम 1400 वषय तक बढा दी, िफर भी उनको आतमशािनत नहीं

िमली। फकीरी मौत ही आतमशांित दे सकती है और इसीिलए चाँगदे व को आिखर मे जानेशर महाराज के चरणो मे समिपत य होना पडा। फकीरी मौ त कय ा ह ै ?

फकीरी मौत ही असली जीवन है । फकीरी मौत अथात य ् अपने अहं की मतृयु। अपने

जीवभाव की मतृयु। 'मै दे ह हूँ.... मै जीव हूँ....' इस पिरिचछनन भाव की मतृयु।

सथूल शरीर से सूकम शरीर का िवयोग यह कोई फकीरी मौत नहीं है । अगर वासना शेष

हो तो सूकम शरीर बार-बार सथूल शरीर धारण करके इस संसार मे जनम-मरण के दःुख पूणय चककर मे भटकता रहता है ।

जब तक फकीरी मौत नहीं हो तब तक चाँगदे व की तरह चौदह बार कया चौदह हजार

बार भी सथूल शरीर को बचाये रखा जाये तो भी परम शांित के िबना यह बेकार है । लाबधवा

जान ं परा ं श ां ितं ....! आतमजान से ही परम शांित िमलती है । इसी कारण चाँगदे व को फकीरी

मौत सीखने के िलए जानेशर महाराज के पास आना पडा था। 1400 वषय का िशिय और 22 वषय के गुर। यही जान का आदर करने वाली भारतीय संसकृ ित है । जान से उम को कोई समबनध नहीं है ।

हम तो जीवन मे पग-पग पर छोटी-मोटी पिरिसथितयो से घबरा उठते है । ऐसा भयभीत

जीवन भी कोई जीवन है ? यह तो मौत से भी बदतर है । इसीिलए कहता हूँ िक असली जीवन जीना हो, िनभय य जीवन जीना हो तो फकीरी मौत को एक बार जान लो।अनुकम

फकीरी मौत अथात य ् अपने अमरतव को जान लेना। फकीरी मौत अथात य ् उस पद पर

आरढ हो जाना जहाँ से जीवन भी दे खा जा सके और मौत भी दे खी जा सके। जहाँ से सपि रप

से िदखे िक सुख-दःुख आये और गये, बालयावसथा, युवावसथा और वद ृ ावसथा आई और गई, परनतु ये सब शरीर से ही समबिनधत थे, मुझे तो वे सपशय तक नहीं कर सके। मै तो असंग हूँ अमर हूँ। मेरा तो जनम भी नहीं मतृयु भी नहीं। सुकरात का अन ुभव

सुकरात को जब जहर िदया जाने लगा तो उसके िशिय रोने लगे। कयोिक उनको यह अजान था िक सुकरात अब बचेगे नहीं, मर जायेगे। सुकरात ने कहाः

"अरे तुम रोते कयो हो? अब तक मैने जीवन दे खा, अब मौत को दे खूँगा। यिद मै मर

जाऊँगा तो आज नहीं तो कल मरने ही वाला था, इसिलए रोने की कया जररत है ? और यिद मरते हुए भी नहीं मरा, केवल शरीर से ही िछनन-िभनन हुआ तो भी रोने की कया जररत?" कहाः

सुकरात ने िबना िहचिकचाहट के, राजी-खुशी से जहर का पयाला पी िलया और िशियो से "दे खो, यह रोने का समय नहीं है । बहुत ही महतवपूणय बात समझने का समय आया है ।

मेरे शरीर पर जहर का पभाव होने लगा है । पैर सुनन होते जा रहे है ..... घुटनो तक जडता वयाप हो गई है .... जहर का असर बढता जा रहा है ..... मेरे पैर है िक नहीं इसकी अनुभूित नहीं हो रही है .... अब कमर तक का भाग संवेदनहीन बन गया है ।"

इस पकार सुकरात का सारा शरीर ठं डा होने लगा। सुकरात ने कहाः

"अब जहर के पभाव से हाथ, पैर, छाती जड हो गई है । थोडी ही दे र मे मेरी िजहा भी िनसपंद हो जायेगी। उससे पहले एक महतवपूणय बात सुन लो। जीवन मे िजसको नहीं जान सका

उसका अनुभव हो रहा है । शरीर के सब अंग एक के एक बाद एक िनसपंद होते जा रहे है , परनतु उससे मुझमे कोई फकय नहीं पड रहा है । मै इतना ही पूणय हूँ िजतना पहले था। शरीर से मै सवयं को अलग असंग महसूस कर रहा हूँ। अब तक जैसे जीवन को दे खा वैसे ही अभी मौत को भी दे ख रहा हूँ। यह मौत मेरी नहीं बिलक शरीर की है ।"अनुकम आधयातमिवदाः भारत की

िवश ेषता ः

सुकरात तो शरीर छोडते-छोडते अपना अनुभव लोगो को बताते गये िक शरीर की मतृयु

यह तुमहारी मतृयु नहीं, शरीर के जाते हुए भी तुम इतने के इतने ही पूणय हो, परनतु भारत के ऋिष तो आिद काल से कहते आये है -

शृ णव नतु िवश े अ मृ तसय प ुता।

आ य े धामािन

िदवयािन

त सयुः।।

वेदाहम ेत ं प ुरष ं महान तम।्

आिदतयवण ग तमस ः परसतात। ् । तमेव िव िदतवाऽ ितम ृ तयुम ेित।

नानयः प नथा िवदत े ऽयन ाय।।

'हे अमत ृ पुतो ! सुनो। उस महान परम पुरषोतम को मै जानता हूँ। वह अिवदारप अंधकार

से सवथ य ा अतीत है । वह सूयय की तरह सवयंपकाश-सवरप है । उसको जानकर ही मनुिय मतृयु का उललंघन करने मे, जनम-मतृयु के बंधनो से सदै व के िलए छूटने मे समथय होता है । परम पद की पािप के िलए इसके अितिरक कोई दस ू रा मागय नहीं है ।'

(शेताशतरोपिनषद

)

यह कोई वेद-उपिनषद काल की बात है , उस समय के ऋिष चले गये और अब नहीं है ....

ऐसी बात नहीं है । आज भी ऐसे ऋिष और ऐसे संत है िजनहोने सतय की अनुभूित की है । अपने अमरतव का अनुभव िकया है । इतना ही नहीं बिलक दस ू रो को भी इस अनुभव मे उतार सकते

है । रामकृ िण परमहं स, सवामी िववेकाननद, सवामी रामतीथय, महिषय रमण इतयािद ऐसे ही ततववेता महापुरष थे। और आज भी ऐसे महापुरष जंगलो मे और समाज के बीच मे भी है । यहाँ इस सथान पर भी हो सकते है । परनतु उनको दे खने की आँख चािहए। इन चमच य कुओं से उनहे

पहचानना मुिशकल है । िफर भी िजजासु और मुमुकु विृत के लोग उनकी कृ पा से उनके बारे मे थोडा संकेत यह इशारा पा सकते है । तीन प कार के लो गः

ऐसे संतो के पास तीन पकार के लोग आते है - दशक य , िवदाथी और साधक। दशक य अथात य ् ऐसे लोग जो केवल दशन य करने और यह दे खने के िलए आते है िक संत

कैसे है , कया करते है , कया कहते है । उपदे श भी सुन तो लेते है पर उसके अनुसार कुछ करना है इसके साथ उनका कोई समबनध नहीं होता। आगे बढने के िलए उनमे कोई उतसाह नहीं होता।

िवदाथी अथात य ् वे जो शास एवं उपदे श समबनधी अपनी जानकारी बढाने के िलए आते है ।

अपने पास जो जानकारी है उसमे और विृद होवे तािक दस ू रो को यह सब सुनाकर अपनी िवदता

की छाप उन पर छोडी जा सके। दस ू रो से सुना, याद रखा और जाकर दस ू रो को सुना िदया। जैसे 'गुडस टानसपोटय कमपनी पाईवेट िलिमटे ड'- यहाँ का माल वहाँ और वहाँ का माल यहाँ, लाना और ले जाना।

ऐसे लोग भी ततव समझने के मागय पर चलने का पिरशम उठाने को तैयार नहीं।

तीसरे पकार के लोग होते है साधक। ये ऐसे लोग होते है िक जो साधनामागय पर चलने को तैयार होते है । इनको जैसा बताया है वैसा करने को पूणर य प से किटबद होते है । अपनी सारी शिक उसमे लगाने को ततपर होते है । उसके िलए अपना मान-सममान, तन-मन-धन, सब कुछ

होम दे ने को तैयार होते है । संत के पित और अपने धयेय के पित इनमे पूणय िनषा होती है । ये

लोग फकीर अथवा संत के संकेत के अनुसार लकय की िसिद के िलए साहसपूवक य चल पडते है । अनुकम

िवदाथी अपने वयिकतव का शग ं ृ ार करने के िलए आते है जबिक साधक वयिकतव का

िवसजन य करने के िलए आते है । साधक अपने लकय की तुलना मे अपने वयिकतव या अपने अहं

का कोई भी मूलय नहीं समझते। जबिक िवदाथी के िलए अपना अहं और वयिकतव का शग ं ृ ार ही सब कुछ है । अपनी िवदता मे विृद, जानकारी को बढाना, वयिकतव को और आकषक य बनाना इसी मे उसे सार िदखता है । ततवानुभिू त की तरफ उसका कोई धयान नहीं होता।

यही कारण है िक संतो के पास आते तो बहुत लोग है , परनतु साधक बनकर वहीं िटक

कर ततव का साकातकार करने वाले कुछ िवरले ही होते है । जान को आय ु स े कोई िनसब त नही ं

िजसने फकीरी मौत को जान िलया हो अथात य ् िजसे आतमजान हो गया हो वह शरीर की

दिि से कम उम का हो, परनतु उसके आगे लौिकक िवदा मे पवीण और अिधक वय के, सफेद दाढी-मूछ ँ वाले लोग भी बालक के समान होते है । इसीिलए योगिवदा मे पवीण 1400 वषय के

चाँगदे व को कम उमवाले जानेशर महाराज के चरणो मे समिपत य होना पडा था। पाचीन काल मे ऐसे कई उदाहरण दे खने मे आते है ।

िच तं वटतरोम ूय ले व ृ दाः िशिया ग ुरय ुय वा।

गुरोसत ु मौन ं वया खयान ं िशियासत ुिचछ ननस ंशयाः।। अथात य ् यह कैसा वैिचतय है िक वटवक ृ के नीचे युवा गुर और वद ृ िशिय बैठे है ! गुर

दारा मौन वयाखयान हो रहा है और िशियो के सब संशयो और शंकाओं का समाधान होता जा रहा है ।

योगसामथय य ः ए क पतयक

उ दाहरणः

अपने मोटे रा आशम मे भी ऐसे ही करीब सतर वषय के सफेद बाल वाले एक साधक है ।

पहले डीसा मे वे एक संत के पास गये। गये तो थे दशक य बनकर ही, परनतु संत की दिि पडते ही वे दशक य मे से साधक बन गये। मै कुछ वषय पूवय डीसा के आशम मे था तब वे मेरे पास आये थे। पकी हुई उम मे भी वे 18 वषय की उम की एक बाला के साथ बयाह रचाने की तैयारी मे थे और आशीवाद य माँगने हे तु वहाँ आये थे। उनको दे खकर ही मेरे मुँह से िनकल पडाः "अब तुमहारी शादी ईशर के साथ कराएँगे।"

यह सुनकर उनको बडा आशयय हुआ, कयोिक न तो वे मुझे पहले से जानते थे और न ही

मै उनहे जानता था। उस वक उनका शरीर भी कैसा था ! चरबी और कफ-िपत से ठसाठस भरा हुआ.... एकदम सथूल... दमा आिद रोगो का िशकार। डीसा मे कपडे के बडे वयापारी थे। धूप मे

िबना छाता िलए दक ु ान से नीचे नहीं उतर पाते थे। पकृ ित ऐसी थी िक िकसी भी संत महातमा को नहीं गाँठे और काम-वासना भीतर इतनी भरी हुई थी िक आगे की दो पितयाँ शरीर छोड

चुकीं थीं िफर भी इस उम मे तीसरी शादी करने को तैयार थे। पती िबना एक िदन भी नहीं रह सकते थे।अनुकम

घर पहुँचने पर उनको पता चला िक उनके अनदर जो काम-िवकार का तूफान आया था

वह एकदम शांत हो गया है । भिविय मे पती बनने वाली उस कुमारी के साथ एकांत मे अनेक

चेिाएँ करके भी वे उस काम-िवकार को पुनः नहीं जगा सके। इतना पबल िवकार एकाएक कहाँ चला गया ! िफर उनको समझ मे आया िक संत की ईशरीय अहै तुकी कृ पा उनमे उतरी है । उनको सारा संसार सूना-सूना लगने लगा। उनहोने तुरनत ही उस कुमारी युवती को कुछ रपये और कपडे िदये और बेटी कहकर रवाना कर िदया। उसके बाद उनहोने आसन, पाणायाम, गजकरणी, नेित,

धोित आिद िकयाएँ सीख ली और िनयिमत रप से करने लगे। इससे उनके शरीर के सारे पुराने कफ-िपत-दमा आिद दरू हो गये और शरीर मे से आवशयकता से अिधक चबी घटकर शरीर हलका फूल जैसा हो गया। अब तो जवानो के साथ दौडने की भी सपधाय करते है । धयानयोग की साधना मे उनहोने इतनी पगित की है िक उनको कई पकार के अलौिकक अनुभव हुआ करते है । अपने सूकम शरीर दारा वे लोक-लोकानतर मे घूम आया करते है । योग भ ी साधना का

आ िखरी िशखर नह

ीं

यह भी साधना की कोई आिखरी भूिमका नहीं है । सवोचच िशखर नहीं है । यह भी सब माया की सीमा मे ही है । िफर चमय-चकुओं से दे खो अथवा धयान मे बैठकर दे खो, कयोिकः यद द शयं

तद अ िनतयम।्

जो िदखता है वह अिनतय है । 'जो िदखे सो चालनहार।' चाँगदे व भी योग मे कुशल थे।

काल को कई बार धोखा दे चुके थे परनतु माया को धोखा न दे सके। वे भी साितवक माया मे थे। माया से परे नहीं थे।

माया ऐसी ठिगनी ठगत

िफरत सब द ेश।

जो ठग े या ठिगनी ठग े वा ठग को आद े श।।

कोई िवरले संत ही इस माया को ठग सकते है , माया से पार जा सकते है । बाकी के लोगो का तो यह माया नशर मे ही शाशत ् का आभास करा दे ती है , अिसथरता मे िसथरता िदखा दे ती है । ऐसी मोिहना माया के िवषय मे शी कृ िण कहते है -

दैवी ह ेषा गुणमयी म म माया

द ु रतयया।

माम े व य े पपदनत े मायाम ेत ां तरिनत

ते।।

'मेरी यह अदभुत ितगुणमयी माया का तरना अतयनत दिुकर है , परनतु जो मेरी शरण मे

आते है वे तर जाते है ।'

(गीता ) गुणातीत स ंत ही परम

िनभ य यः

ऐसी दस ु तर माया को जो संत अथवा फकीर तर जाते है और मौत की पोल जान जाते है ,

वे कहते है - "एक ऐसी जगह है जहाँ मौत की पहुँच नहीं, जहाँ मौत का कोई भय नहीं, िजससे मौत भी भयभीत होती है उस जगह मे हम बैठे है । तुम चाहो तो तुम भी बैठ सकते हो।"

तुमहारे मे एक ऐसा चेतन है जो कभी मरता नहीं, िजसने मौत कभी दे खी ही नहीं, जो

जीवन और मौत के आभासमय पिरवतन य को दे खता है , परनतु उन सबसे परे है ।अनुकम

यिद घडे मे आया हुआ चनदमा का पितिबमब घडे के पानी को उबलता हुआ जानकर यह

माने की मै उबल रहा हूँ, पानी िहले तो समझे िक मै िहलता हूँ, घडा फूट गया तो समझे िक मै मर गया तो यह उसका अजान है । परनतु उसको यह पता चल जाये िक पानी के उबलने से मै नहीं उबलता, पानी के िहलने से मै नहीं िहलता, मै तो वह चनदमा हूँ जो हजारो घडो मे चमक

रहा हूँ, िकतने ही घडे टू ट-फूट गये परनतु मै मरा नहीं, मेरा कुछ भी िबगडा नहीं। मै इन सबसे असंग हूँ..... तो वह कभी दःुखी नहीं होगा।

इसी पकार हम यिद अपने असंगपने को जान ले अथात य ् "मै शरीर-मन-बुिद नहीं, अिपतु

आतमा हूँ"- यह हम जान ले तो िफर िकतने ही दे हरपी घडे बने और टू टे -िबखरे , िकतनी ही

सिृियाँ बने और उनका पलय हो जाय, हमको कोई भय नहीं होगा, कयोिक आतमा का सवभाव है ः न जायत े िमयत े वा क दािच नना यं भ ूतवा भ िवता वा न

भूयः।

अजो िनतय ः शाशतोऽय ंप ुराणो न ह नयत े ह नयमान े श रीर े।।

'यह आतमा िकसी काल मे भी न तो जनमता है और न मरता ही है तथा न यह उतपनन

होकर िफर होने वाला ही है । कयोिक यह अजनमा, िनतय, सनातन और पुरातन है । शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।'

(भगव दगीताः

2.23)

संतो का सन देश ः

िजन संतो ने यह रहसय जान िलया है , जो इस अमत ृ मय अनुभव मे से गुजर चुके है , वे सब भयो से

मुक हो गये है । इसीिलए वे अपनी अनुभविसद वाणी मे कहते है -

"अपने आतमदे व से अपिरिचत होने के कारण ही तुम अपने को दीन-हीन और दःुखी

मानते हो। इसिलए अपनी आतम-मिहमा मे जाग जाओ। यिद अपने आपको दीन ही मानते रहे तो रोते रहोगे। ऐसा कौन है जो तुमहे दःुखी कर सके? तुम यिद न चाहो तो दःुख की कया

मजाल है िक तुमहे सपशय भी कर सके ! अननत-अननत बहाणड को जो चल रहा है वह चेतन तुमहारे भीतर चमक रहा है । उसकी अनुभूित कर लो। वही तुमहारा वासतिवक सवरप है ।"

मनसूर को सूली पर चढा िदया गया था। परनतु उनको सूली का कोई भय नहीं था। सूली

का कि उनको सपशय भी नहीं कर सका, कयोिक मनसूर अपनी मिहमा मे जगे हुए थे। वे यह

जान चुके थे िक मै शरीर नहीं हूँ। सूली शरीर को लग सकती है , मुझे नहीं। इसिलए वे हँ सतेहँ सते सूली पर चढ गये थे।अनुकम

हम ही जानबूझकर अपनी पसननता की, अपने सुख-दःुख की चाबी दस ू रो के हाथो मे सौप

दे ते है । कोई थोडा हँ स दे ता है तो हम कोिधत हो उठते है । कोई थोडी पशंसा कर दे ता है तो हषय से फूल उठते है कयोिक हम अपने को सीिमत पिरिचछनन शरीर या मन ही मान बैठे है ।

हम अपने वासतिवक सवरप, अपनी असीम मिहमा को नहीं जानते। नहीं तो मजाल है िक

जगत के सारे लोग और तैतीस करोड दे वता भी िमलकर हमे दःुखी करना चाहे और हम दःुखी

हो जाये ! जब हम ही भीतर से सुख अथवा दःुख को सवीकृ ित दे ते है तभी सुख अथवा दःुख हमको पभािवत करता है । सदै व पसनन रहना ईशर की सवोपरी भिक है ।

सवामी रामतीथय कहा करते थे िक कोई यिद तुमहारी पसननता छीनकर उसके बदले मे

तुमको सवगय का फिरशता भी बनाना चाहे तो फिरशतापद को ठोकर मार दो मगर अपनी पसननता मत बेचो।

हम इस जीवन और मतृयु का कई बार अनुभव कर चुके है । संत कहते है -

"तुमहारा न तो जीवन है और न ही मतृयु है । तुम जीव नहीं, तुम िशव हो। तुम अमर हो। तुम अननत अनािद सिचचदाननद परमातमा हो। यिद इस जनम-मरण के खेल से थक चुके हो, इनके खोखले पन को जान चुके हो, इसके असारपने से पिरिचत हो चुके हो तो िकसी संत के

सािननधय का लाभ उठाकर फकीरी मौत को जान लो। िफर तुमहे कोई दःुख, कोई मतृयु भयभीत नहीं कर सकेगी। िफर िजसे आना हो वह आवे, जाना हो वह चला जावे, सुख आवे तो आने दो,

दःुख आवे तो आने तो। जो आयेगा वह जायेगा। तुम दिा बनकर दे खते रहो। तुम अपनी मिहमा मे मसत रहो।" है ।

मौत से भी मौत का भय बदतर है । भय मे से ही सारे पाप पैदा होते है । भय ही मतृयु लोग पूछते है - "सवामी जी ! आतम-साकातकार हो जाता है िफर उसके बाद कया होता है ?"

होता कया है ? हम अपने सवरप मे जाग जाते है । उसके बाद हमसे जो भी पविृत होती है वह

आननदमय ही होती है । संसार की कोई भी दःुखपूणय घटना हमको दःुखी नहीं कर सकती। िफर यह शरीर रहे या न रहे , हमारे आननद मे कोई अनतर नहीं पडता। उस आननदसवरप अपने

आतमदे व को जानना-यही जीवन का परम कतवयय है । परनतु इस परम कतवयय की ओर मनुिय का धयान जाता नहीं और छोटी-मोटी तुचछ पविृतयो मे ही अटका रह जाता है ।

हम कहीं याता मे िनकलते है तो रासते के िलए िटिफन भरकर भोजन साथ ले लेते है ।

भोजन से भी अिधक महतव पानी का है , परनतु उसके िलए सोच लेते है िक चलो, सटे शन पर भर लेगे। घर से पानी लेक चलने की िचनता नहीं करते। पानी से भी जयादा जररी हवा है । उसके िबना तो एक िमनट भी नहीं चलता, िफर भी हवा का कोई िसलेनडर भरकर साथ नहीं लेते, कयोिक हम सब जानते है िक वह तो सवत य है । इसिलए हवा के िलए हम कोई िचनता नहीं करते।अनुकम

हवा से कम जररी पानी के िलए पानी से कम जररी भोजन के िलए हम जयादा िचनता

करते है । उसी पकार अपने आननदसवरप आतमा मे जागने के परम कतवयय को छोडकर कम

महतव के सथूल शरीर के लालन पालन एवं उससे संबंिधत वयवहार को सँभालन मे ही हम लगे रहते है । शरीर असत ्, जड और दःुखरप है । उसको चलाने वाला सूकम भूतो से िनिमत य सूकम शरीर है ।

उसको भी चेतन सता दे ने वाला सत ्-िचत -् आननदसवरप आतमा है । इस आननद-

सवरप आतमा को असत ्-जड, दःुखरप और मरणधमाय समझकर जीवनभर मौत के भय से भयभीत बने रहते है ।

अनंत परमातमा मे न तो उतथान है न पतन, न जनम है न मरण। वहाँ तो सब एकरस

है । हम ही मोहवश अपना संसार खडा कर लेते है और एक दस ू रे के साथ संबंध बनाकर अपने को जानबूझकर बंधन मे डाल दे ते है ।

एक संत के पास एक सजजन का पत आया। उसमे िलखा थाः "सवामी जी ! आपके

आशीवाद य से हमारे यहाँ पुत का जनम हुआ है ।" संत ने उतर मे उसे िलखा िकः "तुम झूठ बोलते हो।" िफर जब सजजन संत के पास गया तब कहा िकः "सवामी जी ! मै सच कहता हूँ। मेरे यहाँ पुत का जनम हुआ है ।" इस पर संत ने िफर से कहा िकः "तुम झूठ बोलते हो।" यह सुनकर उन सजजन को बडा आशयय हुआ। वह िवसफािरत नेतो से संत की ओर दे खने लगा। तब संत ने कहाः

"पुत का जनम नहीं हुआ, िपता का जनम हुआ है , माता का जनम हुआ है , काका-मामा का

जनम हुआ है । पुत को तो खबर ही नहीं है िक मेरा जनम हुआ है और मै िकसी का पुत भी हूँ। परनतु हम उस पर सारे समबनध आरोिपत कर दे ते है ।

वसतुतः पंचभूतो मे कोई आकार बना है उसे पुत का नाम दे िदया। समय आने पर यह

आकार िबखर जायेगा। यह आकार बने उसमे हषय और यह आकार िबखर जाये उसमे शोक कैसा? भय कैसा?

िजस शरीर को हम "मै" मानते है , उसकी पकृ ित तो दे खो ! िपया तो था अमत ृ जैसा मीठा

जल और िनकाला मूत रप मे गंदा पानी। खाये तो थे मोहनथाल, दध ू पाक, छपपन भोग पर बन गया सब िविा रप। शरीर का संग करने पदाथय की ऐसी अवसथा बन जाती है । सत ्-िचत -्

आननदसवरप आतमा भी अपने को भूलकर शरीर के साथ एक होकर सवयं को 'मै शरीर' मान लेती है और दीन हीन एवं दःुखी बन जाती है । परनतु जब वह अपने आपमे जाग जाती है तब अपने को दे वो का दे व अनुभव करती है ।

यिद हमने शरीर के साथ अहं बुिद की तो हम मे भय वयाप हो ही जायगा, कयोिक शरीर

की मतृयु िनिशत है । उसका पिरवतन य अवशयंभावी है । उसको तो सवयं बहाजी बी नहीं रोक

सकते। परनतु यिद हमने अपने आतमसवरप को जान िलया, सवरप मे हमारी िनषा हो गई तो हम िनभय य हो गये, कयोिक सवरप की मतृयु होती नहीं। मौत भी उससे डरती है ।अनुकम

सवामी अखणडाननद सरसवती एक बार रे ल के तीसरे दजे मे याता कर रहे थे। वे यह

जानना चाहते थे िक तीसरे दजे मे लोगो दारा िकये जाने वाले मान-अपमान का पभाव उनके िदल पर होता है िक नहीं। आतमिनरीकण से उनहे पता चला िक पभाव तो होता है । यह बात उनहोने शी उिडया बाबा को बतायी। उिडया बाबा ने कहाः

"तुम बैठते ही कचरे के ढे र पर हो आशा करते हो िक मुझ पर कोई कचरा न फेके, मुझे कचरे की दग य ध न आवे..... यह कैसे हो सकता है ? तुम बैठते हो शरीर मे और आशा रखते हो ु न

िक मान-अपमान का असर न हो.....। सवयं को शरीर माना तो मान-अपमान, सुख-दःुख होगा और जनम-मतृयु भी होगी।"

वेदानत के रहसय को समझना यह कोई िसयो का काम नहीं है । सी अथात य ् पकृ ित के

शरीर के 'मै' मानकर जीनवाला।

एक बार राजा जनक िवदानो की सभा भरके बैठे थे। उस सभा मे गागी आई। वह

िबलकुल िदगमबर (नगन) थी। ऐसी अवसथा मे सभा मे गागी का पवेश पंिडतो को रचा नहीं, इसिलए उनहोने नाक-भौ िसकोड िलया। पुरषो से भरी सभा मे एक नगन सी ! गागी बोलीः "ऐ पंिडतो ! नाक भौ कयो िसकोडते हो?"

पंिडतो ने कहाः "तुम एक अबला..... ऐसी अवसथा मे पुरषो की सभा मे जो आई हो !" गागी तुरनत बोलीः "कौन कहता है िक मै अबला हूँ? मै सबला हूँ। अबला तो तुम हो जो

अपना रकक बाहर ढू ँ ढते हो। मै अपना रकक आप हूँ। मै यह शरीर नहीं हूँ। मै तो सत -् िचत -् आननदसवरप आतमा हूँ। मै अपने आपको जानती हूँ।"

िजसको जानकर गागी िनभय य बन गई थी उस आननदसवरप अपने आतमदे व को जो

जान लेता है , उसी मे िसथत हो जाता है , वह जीवन और मौत दोनो से परे , दोनो का दिा बन जाता है । उसे िफर कोई भय नहीं रहता। वह सदै व आननद मे मसत रहता है । मरो मरो सब कोई कह एक बार ऐसा मरो िक

े मरना न जान े कोई। िफर मरना

न होई।।

मंगलमय जीवन, मंगलमय िववाह, मंगलमय संबंध उस परम मंगल चैतनय के कारण ही

हो सकते है , न िक शूद शरीर के बाह रप-रं ग पर िवमोिहत होने से।

महाराज जी के पास आकर एक मिहला कहने लगीः "मेरे पित सवगस य थ हो गये है ।

उनका िवयोग सहा नहीं जाता। ऐसा कोई उपाय बताओ िक उनका िहत हो और मुझे शांित िमले।"

दस ू रा एक वयिक आया और बोलाः "मेरी पती मुझे अकेला छोडकर चल बसी है ।"

तीसरे ने कहाः "मेरा बेटा सवगस य थ हो गया है । उसकी मीठी याद आती है । मेरे मन मे

आता है िक उसके पीछे मै भी आतमहतया करके मर जाऊँ। बाबा जी ! शािनत का कुछ उपाय बताइये।"अनुकम

महाराज जी ने कहाः "हे भद मिहला ! पित की याद आये तो उनहे खूब आदरपूवक य कहोः

"मरणधमाय शरीर मे होते हुए भी आप अमर थे। शरीर के मरने पर भी आप नहीं मरे । दे ह नशर है । आप शाशत हो। चैतनय हो। आप परमेशर का अिवनाशी अंश हो। जनम-मतृयु आपका धमय

नहीं है । पाप-पुणय आपका कमय नहीं है । आप अज हो, शुद बुद हो। हम परसपर पािथव य शरीर की

पीित करके मोह मे सड रहे थे.... िवकारो मे दब रहे थे। अब पािथव य शरीर की पीित से मुक होकर अपािथव य आतमा मे िसथत हो जाओ।'

वह शादी बरबादी मे बदल जाती है िजसमे एक दस ू रे के शरीर को पयार करते है । वह

मंगलमय शादी आबादी की ओर ले जाती है जहाँ पती पित को, पित पती को, पुत िपता को, िपता पुत को शरीर के रप मे नहीं अिपतु शरीरो के आधार शुद चैतनयसवरप मे दे खे.... परसपर अपने चैतनयसवरप की याद िदलावे और पेरणा दे ।

हे भद मिहला ! अपने पित को याद करके उनके जीवातमा को यह पेरणा दो। इससे

उनकी भी उननित होगी और तुमहारी उननित होगी।"

ऐसा िचनतन करो िकः 'हे चैतनयसवरप मेरे आतमन ! शरीर को.... पाँच भूत के पुतले को

तयागने के बाद भी आपका अिसततव है । आप आतमा हो..... परमेशर हो..... अमर हो.... चैतनय हो.... शाशत हो।'

इसी पकार अपनी पती को और सवगस य थ पुत पिरवार को समरण करके उनको उननत

करो और आप भी उननत बनो। जीते-जी भी परसपर इसी भाव से उननत करो। मतृयु मंगलमय हो जाये ऐसा वातावरण बनाओ।

जो वयिक मतृयु को पाप हो चुके है उनके शादो के िदनो मे तथा समरण के वक उनहे

सुझाव दो िकः

'जनम-मतृयु तुमहारा धमय नहीं था। पाप-पुणय तुमहारा कमय नहीं था। तुम अज, अिवनाशी,

िनलप े , शाशत, सनातन नारायण के अंश हो। अतः अपने परमेशर सवभाव को सँभालो.... समरण करो।'

अपने पित, पती, पुत का नाम लेकर कहो िकः 'तुम वही हो.... सचमुच मे वही हो जो मरने

के बाद भी नहीं मरता। ॐ.....ॐ......ॐ.....! तुम चैतनय आतमा हो। ॐ....ॐ....ॐ....! शाशत परमेशर हो। ॐ.....ॐ.....ॐ.....! अिवनाशी परमातमा हो। ॐ....ॐ....ॐ....!'

पथ ृ वी पर के सवपन तुलय संबंधो का समरण करके तुम नीचे न िगरो अिपतु आतमा-

परमातमा के संबध ं को याद करते हुए अपना ऐिहक जीवन मंगलमय बनाओ। संसार से कूच करके जाओ उस समय तुमहारे कुटु मबी आतमा परमातमा की एकता और अमरता, तुमहारी िनतयता और मुकता का समरण तुमहे अंत समय मे करा दे ऐसी वयवसथा करो।

कोई चल बसने वाले हो या चल बसे हो, उनको याद करके उनकी ओर िदवय िवचार, अमर

आतमा का सनदे श भेजो। इस पकार तुम उतम सेवा कर सकते हो और जीिवतो को जीवनदाता मे जगा सकते हो। दोनो इस पकार परसपर सहायता करोगे और पाओगे।अनुकम

टे िलफोन पर अपने दरू गे संबंधी से हम जब बात करते है तो उस यंत मे से आने वाली

धविन अपने संबंधी की होती है । ऐसे ही शरीर रपी यंतो से जो कुछ सनेह, सांतवना, सहानुभूित, पेम या पकाश हम पाते है वह भीतर वाले परमेशर का ही होता है । उनको या उनके िचतो को

दे खो तो उन िचतो के पीछे खडे उस शाशत सतय को, परम िमत को पयार करो और उनहे भी याद िदलाओ िकः 'हे शाशत आतमा ! हे पुरातन ! हे अिवनाशी ! नाशवान संसार और शरीर बदलते है लेिकन तुम अबदल आतमा हो। ॐ.....ॐ......ॐ.....

बचपन बदल गया... यौवन बदल गया... बुढापा बदल गया.... शरीर बदल गया.... िफर तुम

भी हो। तुम वह अमर आतमा हो िजस पर काल का भी कोई पभाव नहीं चलता। हे अकाल आतमा ! अपनी मिहमा मे जागो।'

इस पकार के िवचार भेजने से मगंल करोगे और मंगल को पाओगे। जीवन मंगलमय होने लगेगा। मत ृ को की मतृयु भी मंगलमय हो जायगी।

मंगल भवन अमंगलहारी िवचारो को सदै व एक दस ू रे के पित पसािरत करो। ॐ आननद...

आननद... आननद....!

रोते, चीखते, मोहमाया मे पडकर उनको याद करते हो तो उनका और अपना सतयानाश

करते हो, उनको नीचे िगराते हो। उनकी आतमा को भटकाते हो, अपने को तुचछ बनाते हो।

अमांगिलक िवचारो को कतई सफुिरत न होने दो। सदै व मंगलमय िवचार। हो जायेगा मंगलमय जीवन। मतृयु भी मंगलमय हो जायेगी। ॐ...! ॐ...!! ॐ...!!!

ॐॐॐॐॐॐॐॐ

जीवन और मतृयु आतमा-परमातमा को पाने के दो पहलू है । रात के बाद िदन, िदन के

बाद रात होती है इसी तरह जीवन और मतृयु चोले बदलते हुए.... अनुभवो से गुजरते हुए अपने आतमसवरप को, बहसवरप को पाने के िलए मंगलमयी अवसथा है ।

िदन िजतना पयारा है , रात भी उतनी ही आवशयक है । जीवन िजतना पयारा है , मतृयु भी

उतनी ही आवशयक है । मतृयु माने आतमिशव के मिनदर मे जाने के िलए ऊँची सीिढयाँ। मतृयु

माने माँ की गोद मे बालक सो गया और उिमा, शिक, ताजगी, सफूितय पाकर िफर सुबह खेलता है । मतृयु माने माँ की गोद मे थकान िमटाने को जाना। िफर नया तन पाप करके अपनी मंगलमय याता करना।

ततवदिि से दे खा जाये तो यह जीवन-मतृयु की याता पकृ ित मे हो रही है तुमहे

परमातमासवरप मे जगाने के िलए।अनुकम

गीता मे भगवान शी कृ िण कहते है न जायत े िमयत े वा क दािच नना यं भ ूतवा भ िवता वा न

भूयः।

अजो िनतय ः शाशतोऽय ंप ुराणो न ह नयत े ह नयमान े श रीर े।।

'ततवतः यह आतमा न कभी जनमता है और न मरता है । न यह उतपनन होकर िफर होने वाला ही है । यह जनमरिहत, िनतय िनरनतर रहने वाला, शाशत और पुरातन अनािद है । शरीर के मारे जाने पर भी वह नहीं मारा जाता।'

(गीताः

2.20)

शव की समशानयाता मे मटका ले जाते है , फोड दे ते है यह याद िदलाने के िलए िक दे ह

मानो मटका है । इस मंगलमय मतृयु को पीछे िवहल होने की आवशयकता नहीं है । यह मटका सेवा करने के िलए िमला था... जीणय-शीणय हुआ.... टू ट गया.... िफर नया िमलेगा। मंगलमय

आतमा-परमातमा की पािप तक यह मंगलमय जनम-मरण की याता तो चलती ही रहे गी। इसमे िवहल होकर रोना-चीखना िनरा मोह है । अगर इस मोह को पोसा जाय और िकसी की मतृयु न

हो तो संसार महा नरक हो जायगा। माली अगर बगीचे मे काट-छाँट न करे तो बगीचा बगीचा ही न रहे गा, अिपत भयानकर जंगल हो जायेगा।

सि ृ ा ने मतृयु का मंगलमय िवधान न बनाया होता तो आदमी मे तयाग, सेवा, नमता के

सदगुण ही नहीं िखलते। सब अमर होकर अिडयल की तरह उलझे रहते।

राित से अरणोदय, अरणोदय से िफर मंगलमयी राित की अिनवायय आवशयकता है । िवराट

की यह पचणड कीडा तुमहे अपने िवराट सवभाव मे जगाने के िलए आवशयक है ।

मतृयु माने महायाता, महापसथान, महािनदा। अतः जो मर गये है उनकी याता मंगलमय

हो, आतमोननितपद हो ऐसा िचनतन करे न िक अपने मोह और अजान के कारण उनको भी भटकाएँ और खुद भी परे शान हो।

कइयो की मतृयु बालयकाल मे या यौवन मे हो जाती है । जैसे माँ ने बचचे को कपडे

पहनाए और नहीं जँचे, उठा िलये। िफर नये वसो से सजाया-धजाया। अथवा यो कहो िक बचचा िखलौनो मे रम जाता है , िखलौने नहीं छोडना चाहता परनतु मंगलमयी माँ उसे बलात ् उठा लेती है , अपनी गोद मे सुलाती है । अपनी उिमा, सािननधय, िवशािनत से उसे हिपुि करके िफर नूतन

पभात को उसे खेलने के िलए कीडांगन मे भेज दे ती है । ऐसे ही जीवातमा का कीडांगन संसार है अतः अनेक शरीर बदलते हुए अबदल की मंगलमय याता करने के िलए जीवन और मतृयु को मंगल िवधान समझकर ईशर की हाँ मे हाँ करते हुए अपनी याता उननत करे । ॐ...ॐ....ॐ....

ॐॐॐॐॐॐॐॐ

िचंतन प राग

ईशर का बनाया हुआ दै त भले ही बना रहे । उसको िमथया समझ लेने मात से बह का

बोध हो सकता है । साधक का काम दै त को िमथया समझने से ही चलता है ।अनुकम

इचछाओं की तिृप का उपाय एक ही है िक इचछाएँ तयाग दी जाएँ। िजस िववेकी ने इस

जगत को सपने या इनदजाल के समान समझ िलया है , िजसे दशय नि रप मे िदखने लगा है वह दोषदशी िववेकी भला बताओ, इसमे अनुराग कैसे करे ?

जानी जागरण को सतय समझना छोड दे ने पर िफर पहले की भाँित अनुरक नहीं होता। जानी पतयेक वसतु को अपना आतमा समझता है ।

मुदे की कलपना को बार-बार मन मे लाना काम-वासना से मुक होने का सवोतम उपाय

बताया गया है । मुदे को पडे हुए दे खकर मन घबराने लगता है ।

पिरणाम की कयो परवाह करते हो? अपनी तनखवाह के बारे मे कभी िफक मत करो।

अजानी लोग समझते है िक कायय की सफलता मे कायय करने की अपेका अिधक आननद है । इन अनधो को यह मालूम ही नहीं है िकसी पिरणाम से उतना सुख नहीं िमलता िजतना काम करने से िमलता है ।

अपने िवचारो को सदा वासतिवक आतमा मे रखो और पिरिसथितयो की परवाह मत करो। तब तक आपकी हािन नहीं हो सकती, जब तक िक आप सवयं उसे नहीं बुलाते। तलवार

तब तक नहीं काट सकती, जब तक आप यह न सोचे िक यह काटती है ।

ऐ पूणय बह ! तेरे िलए कोई कतवयय या कायय शेष नहीं है । सारी पकृ ित साँस रोके तेरी

सेवा के िलए खडी है । संसार तेरी पूजा करने का अवसर पाकर अपने को कृ तकृ तय करना चाहता है । कया तू पकृ ित की शिकयो को अपने चरणो मे झुकने का अवसर दे गा?

अपने भीतर सतय के पकाश को सदा चमकता रखो। भय और पलोभन का शैतान तुमहारे

पास नहीं फटकेगा।

बाहर की बातो म अपना काम

े कुछ बी नही ं म ान अप मान।

िकय े जा िन िश िदन इसम े ही स ममान।।

दस ू रे लोग तुमहारी आलोचना, िनंदा करते हो उनहे रोकने की चेिा न करो। कयोिक इनहीं

सब बातो के दारा तुममे सदगुणो की विृद होगी। जब तक तुमहारा हदय इतना दढ नहीं है िक तुम मूखो के बकने पर िसथर और शांत बने रहो, अथवा तुममे इतनी सहनशीलता नहीं है िक अजानी मूखो को कमा कर सको तब तक तुम अपने को कहीं जानी न समझ बैठना।

यिद तुम शरीर और मन से ऊपर उठ जाओ तो सब िचनता और भयो से छूट हो

जाओगे।

िकसी भी आकिसमक दघ य ना से धैयय न छोडो, कयोिक घबराहट से शिक तथा बुिद का ु ट

नाश होता है । िकसी भी पकार की किठनाइयो के आगे दःुिखत न होकर गमभीरतापूवक य उनका

सामना करो, तभी तुम िनःसनदे ह िवजय पाप करोगे। तुम कहीं भी हतोतसािहत होकर िनराश न होओ।अनुकम

ऐसी कौन-सी िवपित है जो मेरी पसननता को नि कर सकती है ? वह कौन-सा रं ज है जो

मेरे आननद मे िवघन डाल सकता है ? मै तो िवश बहाणड का पभु हूँ।

मै बुिद का पभु हूँ, िदमाग का मािलक हूँ और मन का शासक हूँ।

संसार मुझमे है , मै संसार मे नहीं आ सकता। िवश मुझमे है , मै िवश मे नहीं बँध सकता। सूयय और नकत मुझमे उदय और असत होते है ।

दे ह और दिुनया दोनो ईशर के भीतर है ... वही ईशर मै हूँ।

मै िनिलप य आतमा हूँ। मेरा जनम नहीं, मतृयु नहीं। मै अजर-अमर हूँ। मै िचदाननद

आतमसवरप हूँ।

मै िमथया, तू िमथया, धमय िमथया, कमय िमथया और जगत िमथया। और... ऐसा पतीत होता

है िक मै सवस य व हूँ। मै ही सवज य , सवग य त आतमा हूँ। अपना साकी हूँ। कदािप उन नाम रपो मे फँसा नहीं हूँ।

मै िवशुद हूँ। असंखय बहाणड मुझमे पडे है । मै असंसपशयय हूँ। मेरा सवरप िनिलप य है ।

मुझे दःुख से कोई भय नहीं है । मुझे समय की जरा भी िचनता नहीं। आतमाननद वाले

को भय और आशंका कैसी?

िकसी भी डर को अपने पास मत फटकने दो।

लोग यिद तुमहारे बुराई करते है तो तुम उनहे आशीवाद य दो। ऐसे सथान पर जाओ जहाँ लोग तुमसे घण ृ ा करे ।

तुम तो मुक हो, पहले से ही मुक हो। सवद य ा कहोः मै सदा आननदसवरप हूँ। मै

मुकसवभाव हूँ। मै अननत सवरप हूँ। मेरी आतमा का आिद और अनत नहीं है । सभी मेरे आतमसवरप है ।

पसननतापूवक य अपमान सहन करने से और नमता धारण करने से अिभमान की िनविृत

होती है ।

िकसी पिवत सथान पर जाओ तो वहाँ के अनुशासन का पालन करो। वहाँ चपपलो की

चटाक् -पटाक् , आभूषणो की खनखनाहट, भडकीले वसो की फरफराहट आिद हमसे न हो इसका पूरा धयान रखो। कहीं भी िकसी के भी िचत को या शांत वातावरण को अशांत करने का हमे कोई अिधकार नहीं है ।

अपने िकसी भी दःुख या अशांित का कारण बाहर मत ढू ँ ढो। बाहर की पिरिसथितयो या

वयिकयो को दोष मत दो। कारण अपने भीतर ढू ँ ढो। िनदोष भाव से ढू ँ ढोगे तो कारण भीतर ही िमल जायेगा। उसे दरू करने की चेिा करो। शांतिचत रहने का यही बहुमूलय उपाय है ।

जो आतम-अनुशािसत है , वे ही शासन कर सकते है । ऐसा करने के िलए नाम-जप करे ,

धयान करे , िकसी आतमिनष संत का पावन सािननधय पाप करे । सब तरह से िनभय य एवं पसनन बनने का यह शष े साधन है ।अनुकम

िवनम बनो, िनरहं कारी बनो। अपने आपको बडा बताने की चेिा न करो। िवनमता एवं

िनरािभमानता ही तुमहे बडा बनायगी। िवनमता मनुिय का बहुत बडा भूषण है ।

िनमल य दिि रखो। िकसी के दोष दे खना यह बहुत बडा दग यु है । िछदानवेषी न बनो। ु ण

दस य करना है । गुणगाही बनो।अनुकम ू रो के दोष दे खना पाप अजन

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Related Documents

Mangalmaya Jivan Mrityu
November 2019 16
Amriter Mrityu
June 2020 5
Ditiyo Mrityu
April 2020 13
Jivan Vikas
November 2019 17
Jivan Rasayan
November 2019 19
Nave Jivan
November 2019 22

More Documents from ""

June 2020 0
June 2020 0
June 2020 0
June 2020 0
June 2020 0
June 2020 0