Kavya Pushpanjali

  • Uploaded by: Rajesh Kumar Duggal
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  • November 2019
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  • Words: 3,127
  • Pages: 11
ििले सदगुरु संत सुजान। 'साक्षी' कर ले तू एहसास। रक्षा कर हृदय-कोष की। पाया िनभर्य नाि का दान। पर्भु ! एक तू ही तू है। िदले िदलबर से ििला दे िुझे। छलका दिरया आनंद का।

गुरु की ििहिा न्यारी रे साधो ! संयि की बिलहारी। पी ले िदल की प्याली से। सत्संग कल्पवृक्ष जीवन का। गुरुदर है िोक्षद्वारा। हारा हृदय गुरुदव ् ार पर। िदल-दीप जलाता चल। ज्ञान का िकया उजाला है। आत्ि अिर बेल है प्यारी िनज आत्िरूप िें जाग। जीवन के अनिोल सूतर्। हर नूर िें हिर हैं बसे। गुरुज्ञान के पर्का से , ििटा भेद-भरि अब सारा। अज्ञान अँधेरा ििट गया, हुआ अंतर उिजयारा।। व्यापक सवर् िें है सदा, ििर भी है सबसे न्यारा। िदव्य दृिष्ट से जान ले, सिच्चदानंदघन प्यारा।। रूप, नाि ििथ्या सभी, अिस्त-भाित-िपर्य है सार। सत्यस्वरूप आति-अिर, 'साक्षी' सवर् आधार।। काया िाया से परे, 'िनरंजन' है िनराकार। भविनिध तारणहार बन, पर्भु आये बन साकार।। पूवर् पुण्य संिचत हुए, ििले सदगुरु संत सुजान। आ ा-तृष्णा ििट गया, जाग उठा इनसान।। निर्ता सदभावना, गुरु िें दृढ़ िव ् वास। घट-घट िें सािहब बसे, कर ई ् वरका एहसास।। दूर नहीं िदल से कभी, सदा है तेरे पास। ऐ मोक मंििल केराही ! हो न तू कभी िनरा ।। िन, वचन और किर् से, बुरा ना कोई देख। हर नूर िें तेरा नूर है, 'साक्षी' एक ही एक।। सत्यिनष्ठ ऐ किर्वीर ! जागर्त कर ले िनज िववेक। पुरुषाथर् से कर सदा, जीवन िें कुछ नेक।। अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

'

' चेतन तत्त्व से िहक रहे, ये धरती और आका । नूरे नजर िें रि रहा, वही िदव्य पर्का ।। उड़-जीव िें जलवा वही, कर ले दृढ़ िव ् वास। सािहब सदा है पास, 'साक्षी' कर ले तू एहसास।। िटक गया िनज स्वरूप िें, पा िलया गुरु का ज्ञान। रि गया िनवा राि िें, परि तत्त्व का भान।। सिबुिद्ध-सदभावना से, िकया है जनकल्याण। योगी साचा है वही, धरे न िन अिभिान।। चंचल िचत्त िस्थर रहे, हो आत्िा िें अनुराग। धीर वीर किर्वीर है, कर िदया अहं का त्याग।। योग तपस्या ौयर् संग, हो िवषयों से वैराग।

सिद ीर् साधु वही, िजसे ोक न हषर्-िवषाद।। डल नहीं िौत-िवयोग का, पाया िनभर्य नाि। गुरु-चरणों िें बैठकर, कर िलया हिर का ध्यान।। िोह-िाया से परे, पा िलया आत्िज्ञान। बर्ह्िानन्द िें रि रहा, िदव्य स्वरूप िहान।। अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

रक्षा कर हृदय कोष की, पा ले गुरु का ज्ञान। सि संतोष सुिवचार संग, जीवन हो िनष्काि।। हीन भावना त्याग दे, तेरे उर अंतर िें राि। साधुसंगित कर सदा, संिचत कर हिरनाि।। क्षिा पर्ेि उदारता, परदुःख का एहसास। साथर्क जीवन है वही, रखे न कोई आस।। तत्पर हो गुरुसेवा िें, पर्भु िें दृढ़ िव ् वास। परि तत्त्व को पा िलया, हुआ भेद-भरि का ना ।। बंध-िोक्ष से है परे, जन्ि-किर् से दूर। व्यापक सवर् िें रि रहा, वह नूरों का नूर।। आिद-अंत िजसका नहीं, वह सािहब िेरा हजूर। िदव्य दृिष्ट से जान ले, 'साक्षी' है भरपूर।। धिर्, दया और दान संग, जीवन िें हो उिंग। पर्भुपर्ेि की प्यास हो, लगे नाि का रंग।। र्द्धा और िव ् वासकी, िन िें हो तीवर् तरंग। रोि-रोि िें रि रहा, ििर भी रहे िनःसंग।। नभ जल थल िें है वही, सवर् िें हिर का वास। नूरे नजर से देख ले, वही िदव्य पर्का ।। लाली लहू िें है वही, कण-कण िें है िनवास। खोज ले िन-ििन्दर िें, सदगुरु सदा हैं पास।। अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सिथर् सदगुरु ििल गये, पाया िनभर्य नाि का दान। आ ा तृष्णा ििट गयी, हुआ परि कल्याण।। दैवी कायर् तू कर सदा, सेवा हो िनष्काि। रोि-रोि िें रि रहा, वह अंतयार्िी राि।। वचन अनोखे संत के, गुरु का ज्ञान अथाह। आत्िरस छलका िदया, रही न कोई चाह।। पर्णव ही िहािंतर् है, सदगुरु नाि सिाय। पर्ेि, भिक्त और ज्ञान से, िचत्त पावन हो जाय।। सहजता सरलता सादगी, हो सिता का व्यवहार। दयादृिष्ट से कर सदा, दीनों पर उपकार।। नतिस्तक हो भाव से, कर गुरुवर का दीदार। र्द्धा-सुिन अपर्ण करो, िन भेंट धरो गुरद ु ्वार।। रसना पर हिरनाि हो, हृदय िें गुरु का ध्यान। िन-िंिदर िें सिा रहा, परि तत्त्व का ज्ञान।।

हतार्-कतार् एक हिर, सािहब सदा है संग। कण-कण िें व्यापक वही, ििर भी रहे िनःसंग।। ना कर िोह िाया से, ना काया का अिभिान। तज दे अहंता ििता, धर िनत ई ् वरका ध्यान।। ई का ही तू अं है, जीव नहीं िविान। सवर् िें तू ही रि रहा, रह 'स्व' से ना अनजान।। ्वेत- ्याि िें है वही, चैतन्य तत्त्व का सार। अलख अगोचर बर्ह्ि है, 'साक्षी' सवर् आधार।। जप-ध्यान-उपासना, गुरुिनष्ठा दृढ़ िव ् वास। साधु-संगित कर सदा, कर ई ् वरका एहसास।। रत्न अिूल्य व ् ास के, व्यथर् न यूँ गँवाय। जप कर ले पर्भु नाि का, जीवन सिल हो जाय।। कंचन कीितर् काििनी संग, ििले न िोक्षद्वार। हाट खुली हिरनाि की, साँचा कर व्यापार।। सिल जन्ि तब जािनये, जब हो सदगुरु दीदार। हृदय िें सािहब रि रहा, हो रािरस की खुिार।। रथ ये तन तेरा रहा, तू तो है रथवान। साँचा सारिथ है वही, थािे िन की लगाि।। वो ही घड़ी ुभ जािनये, जब ििले सत्संग। डूबा िचत्त पर्भुपर्ेि िें, लगे नाि का रंग।। परि पावन गुर-ु ज्ञान है, भरो िदल के भंडार। गुरुसेवा पूजा अचर्ना, हो जीवन िें उपकार।। िरझा िलया जब राि को, पूणर् हुए सब काज। आत्िानंद पा िलया, पाया िनज स्वरूप स्वराज।। भरि भेद सं य ििटा, पा िलया गुरु का ज्ञान। अहं का पदार् हट गया, हुआ परि तत्त्व का भान।। ितलभर भी है ना परे, ज्यों सागर संग तरंग। ओत-पर्ोत सवर्तर् है, अलख अभेद असंग।। अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

! ििरयाद क्या करूँ िैं, जब याद तू ही तू है। सवर्तर् तेरी सत्ता, हर िदल िें तू ही तू है।। तुझसे िहके उर-आँगन, तुझसे ही झूिा िचतवन। िेरी अंतर आत्िा की, ज्योित भी तू ही तू है।। तुझसे ही बहारें छायीं, इन ििजाओं िें रँग लायीं। नजरों िें नूर तेरा, हर नजाकत िें तू ही तू है।। हर रूप िें है छायी, तेरी छिव सिायी। हर िदल की धड़कनों िें, बसा एक तू ही तू है।। तेरा ही जलवा छाया, सबिें है तू सिाया। लाली बहू िें तेरी, इन रंगतों िें तू ही तू है।। तेरा ही आसरा है, इक आस है तुि्हारी। इन िन के िंिदरों िें, बसा एक तू ही तू है। लागी लगन है िजसको, इक तेरे ििलन की। उसकी हर अदा इबादत, कण कण िें तू ही तू है।। तन के िसतार िें है, गुंजार तेरी दाता।

्वासों के साजों िें भी, झंकार तू ही तू है।। िन वाणी से परे है, तू आत्िा हिारा। िव ् वास की डगर पर , एहसास तू ही तू है।। हर िदल िें तेरी िदलबर ! झलक ही आ रही है। इन चंदा-तारों िें भी, पर्का तू ही तू है।। पदार् हटा नजर से, िनरखूँ स्वरूप प्यारा। िहका चिन अिन का, िचतवन िें तू ही तू है।। 'साक्षी' है साथ िेरे, है जुदा नहीं तू जािनब। बंध-िोक्ष से परे हैं, िनराकार तू ही तू है।। तू परि सखा है िेरा, िदले-दिरया का िकनारा। िेरी जीवन-नैया का, िाँझी-िल्लाह तू है।। अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ हे दीनबंधु करूणासागर, हिरनाि का जाि िपला दे िुझे। कर रहिो नजर दाता िुझ पर, पर्भु पर्ेि की प्यास जगा दे िुझे।। हि कौन हैं, क्या हैं भान नहीं, क्या करना है अनुिान नहीं। िदहो हैं कोई हो नहीं, अब ज्ञान की राह िदखा दे िुझे।। हे दीनबंधु. है रजस ने पकड़ा जोर यहाँ, छाया ति अहं घनघोर यहाँ। छुपे राग-द्वेष सब चोर यहाँ, सिदा दर िदखला दे िुझे।। हे दीनबंधु. चंचल िचतवन व िें ही नहीं, छुपा काि-कर्ोध-िद-लोभ यहीं। िन िें सिाया क्षोभ कहीं, गाििल हूँ दाता जगा दे िुझे।। हे दीनबंधु. काया िें िाया का डेरा है, िोह-ििता का भी बसेरा है। अज्ञान का धुँध अँधेरा है, िनज ज्ञान की राह िदखा दे िुझे।। हे दीनबंधु. जीया न ् वरिें कुछ ज्ञान नहीं, हूँ ा ् वतसे भी अनजान सही। पा लूँ परि तत्त्व अरिान यही, अपनी करूणा कृपा िें डुबा दे िुझे।। हे दीनबंधु. है आत्िरस की चाह सदा, तू दिरया-िदल अल्लाह खुदा। तू ही िाँझी है िल्लाह सदा, अब भव से पार लगा दे िुझे।। हे दीनबंधु. िाना िुझ िें अवगुण भरे अपार, दोष-दुगुर्ण संग हैं िवषय-िवकार। तेरी दयादृिष्ट का खुला है द्वार, इन चरणों िें पर्ीित बढ़ा दे िुझे।। हे दीनबंधु. तू दाता सदगुरु दीनदयाल, जगे ज्ञान-ध्यान की िदव्य ि ाल। रहित बरसा के कर दे िनहाल, िदले िदलबर से तो ििला दे िुझे।। हे दीनबंधु.

अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ दीप जलाकर ज्ञान के, दूर करो अन्धकार। सिता करूणा स्नेह से, भरो िदल के भंडार।। राग-द्वेष ना िोह हो, दूर हों िवषय-िवकार। कर उपकार उन पर सदाष जो दीन-हीन-लाचार।। पा िलया िन-ििन्दर िें, िदलबर का दीदार। छलका दिरया आनंद का, खुला जो िदल का द्वार।। भेद भरि सं य ििटा, छूट गया अहंकार। रोि-रोि िें छा गयी, हिररस की खुिार।। वन िें तू खोजे कहाँ, सािहब सबके संग। 'स्व' से ििलने की िदल िें, जागी तीवर् तरंग।। संग साथ रहता सदा, ििर भी रहे िनःसंग। तन-िन पावन हो गया, पी जब नाि की भंग।। लीन हुआ िचत्त नाि िें, पाया तत्त्व का सार। िनजानंद िें िस्त हैं, सपना यह संसार।। िन बुिद्ध वाणी से परे, न रूप रंग आकार। 'साक्षी' सदगुरु वे िें, पर्भु आये साकार।। अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

! गुरु की ििहिा न्यारे रे साधो ! संत परि िहतकारी रे साधो ! गुरुचरणों िें हैं सब तीरथ, गुरुचरणों िें चारों धाि। गुरुसेवा ही सवर् की सेवा, िचत्त पाये िव र्ाि रे िन ! गुरुचरणों िें ज्ञान की गंगा, बुरा भी िन जाय चंगा। पावन सत्संग की सिरता िें, कर ले तू स्नान रे िन ! संत वे िें पर्भु ही आये, िन ् चलभाव से तुझे जगायें। खोज ले अपने अंतर िन िें, अन्तयार्िी राि रे िन ! गुरुचरणों िें कर स्वरूप की पूजा, हिर गुरु िें ना भेद है दूजा। गुरुकृपा िजस पर हो जाय, पाये पद िनवार्ण रे िन ! अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ बड़ी है संयि की बिलहारी, िजसकी अनुपि छिव प्यारी। संजीदगी, स्नेह सौरभ से, िहके जीवन बिगया सारी।। अदभुत ओज तेज सबल, साित्त्वक भाव, िचत्त िन ् चल। ुद्ध-बुद्ध संकल्प अचल, िखले सदगुण की िुलवारी।। संयि से सुडौल हो काया, िवषय-भोग की पड़े न छाया। िचंता-चाह न गि का साया, वीर पुरुष हो चाहे नारी।। तेजस्वी, कु ागर् बुिद्ध हो, पावन तन अंतर- ुिद्ध हो। 'साक्षी' स्व की बेखुदी हो, छूटे रोग-िवलास से भारी।। िनखरे सुंदर रूप सलोना, िवकार बबार्दी का िबछौना। तनरत्न यूँ व्यथर् न खोना, ििटे संकट, िवपदा भारी।।

दीघार्यु, स्वस्थ हो तन-िन, सुख-सि्पदा, चैन-अिन। झूि उठे िदल गुल न , संयि की ििहिा है न्यारी।। अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जगत िपता जगदी का, गुरुवर िें कर दीदार। कृष्ण-कन्हैया बन कभी, नंदनन्दन का अवतार।। गीता के िनज ज्ञान िें, है आत्ितत्त्व ही सार। िवस्वरूप तेरा आत्िा , ये नाि रूप हैं असार।। िनयंता सबका एक है, अलख अभेद अनािद। सिता भाव िें रि रहा, न हषर्, न ोक-िवषाद।। काया िाया से परे, न आिध-व्यािध-उपािध। पर्ेि भिक्त िव ् वासही, िजसकी सहज सिािध।। िात-िपता सत् ास्तर् गुर,ु सब कर सि्िान। रोि-रोि िें रि रहा, वह अंतयार्िी राि।। नंदनन्दन गोपाल वह, िीरा का घन ् याि। िन-िंिदर िें बस रहा, िदव्य स्वरूप िहान।। षडरस हैं िीके सभी, सुिधुर रस हिरनाि। पी ले िदल की प्याली से, िस्त िकीरी जाि।। गुरु चरणों िें बैठकर, धर ले पर्भु का ध्यान। ये जीवन पावन कर ले, कर सेवा िनष्काि।। टर जायेगी िवपित्त भी, आस्था गुरु िें राख। जप, ध्यान और नाि संग, ज्ञान का हो संगात।। िदलबर को िदल िें बसा, कर 'स्व' से िुलाकात। भवबंधन सब ििट गया, रहा सदगुरु का जब साथ।। िीत वह साँचा जािनये, जो संकट िें हो सहाय। रंिज गि दुःख-ददर् िें, िन न कभी घबराय।। हर हाल िें िस्त हो, 'साक्षी' भाव जगाय। िानव तन देव सि, साधक वो कहलाय।। अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सत्संग है इक परि औषिध, ििटे ति अहं उपािध-व्यािध। गुरुनाि से हो सहज सिािध, पर्भुपर्ेि से भरें िदल के भंडार।। सत्संग पावन सि गंगाधारा, तन-िन िनिर्ल अंतर उिजयारा। सुखस्वरूप जागे अित प्यारा, गुरुज्ञान से हो आनंद अपारा।। सत्संग से जीवभाव का ना , रािनाि नविनिध हो पास। हो परि ज्ञान अंतर उजास, गुरुतत्त्व अनंत है िनराकार।। सत्संग से हो परि कल्याण, भय भेद भरि ििटे अज्ञान। सि-संतोष, हो भिक्त िनज-ज्ञान, सदगुरु करें सदैव उपकार।। सत्संग साँचा है परि िीत, गूँजे अंतरति पर्भु के गीत। अदभुत स्वर सौऽहं संगीत, हो ील-धिर्, िचत्त एकाकार।। सत्संग है जीवन की जान, सुखस्वरूप की हो पहचान। रहे न लोभ-िोह-अिभिान, गुरुनाि हो 'साक्षी' आधार।। सत्संग से खुले िन-िंिदर द्वार, पर्भुपर्ीित हो िचत्त िनिवर्कार।

छाये बेखुदी आत्ि खुिार, सदगुरु भविनिध तारणहार।। सत्संग से हों दुगुर्ण ना , कटे काल जाल जि-पा । जगे एक अलख की आस, पर्भु बने सदगुरु साकार।। सत्संग से पर्कटे िव ् वास , घट-घट िें हो ई िनवास। साथर्क हो क्षण पल हर ्वास, गुरु-ििहिा का अंत न पार।। सत्संग से जगे िववेक-वैराग, आस्था दृढ़ हो ई अनुराग। िवष िवषय-रस का हो त्याग, गुरुनािािृत है सुख सार।। सत्संग से उपजे भगवदभाव, ििले सत्य धिर् की राह। ििटे वासना तृष्णा चाह, सत्संग पावन से हो उद्धार।। सत्संग से आये पर्भु की याद, हिरनाि से हो िदल आबाद। रहे नहीं ििरयाद िवषाद, हिरिय दृिष्ट से सवर् से प्यार।। सत्संग पावन है िोक्षद्वारा, हो उर अंतर ज्ञान-उिजयारा। लगे स्वप्नवत जग सारा, 'साक्षी' सदगुरु पे जाऊँ बिलहार।। सत्संग कल्पवृकक्ष जीवन का, गुरु-पर्साद िनज आनंद िन का। िनिीत है संत सुजन का, सत्संग की ििहिा बड़ी अपार।। ॐ गुरु ॐ गुरु अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ गुरुदर है दुआओं वाला, िठ िंिदर वही िवाला। जहाँ बर्ह्िा िवष्णु ेष िवराजें, हिर गुरु िवभोला -भाला।। र्द्धा से गुरुद्वार जो आये, 'साक्षी' साित्वक भाव जगाये। सेवा िनष्काि यज्ञ िल पाये, खुले बंद हृदय का ताला।। सदगुरु दर् न िल अित भारी, िनज अंतर पावन छिव न्यारी। ििटे भय संकट िवपदा सारी, गुरुनाि की जो िेरे िाला।। गुरुदर है इक िोक्षद्वारा, जन्ि िरण से हो छुटकारा। गुरुनाि अिोलक है प्यारा, छलके हिररस की हाला1।। गुरुद्वार स्वगर् से भी िहान, िानव-जीवन का वरदान। ज्ञान-भिक्त से हो उत्थान, अदभुत है पर्भुपर्ेि प्याला।। गुरुचरणों िें जो ी झुकाये, रािनाि की धूिल रिाये। सदगुर-ु सेवा िें लग जाये, पर्कटे िनज ज्ञान-अिग्न ज्वाला।। गुरुज्ञान सवर् सुखों की खान, ििटे सं य गवर् गुिान। रहे न लोभ अहं-अिभिान, िववेक-वैराग्य हो उन्नत भाल।। 1. ििदरा अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ िगन हुआ िचत्त िें, रही न कोई चाह। िजसको कुछ न चािहए, वह ाहों का ाह।। हारा हृदय गुरद ु ्वार पर, नहीं लोभ-िोह-गुिान। साक्षी सित्व भाव िें, धरे जो हिर का ध्यान।। िवस्वरूप है आत्िा , अजर-अिर-अिवना ी। िदव्य दृिष्ट से जान लो, परि तत्त्व सुखरा ि।। बनजारा तू जगत का, यह िेला है संसार। चैतन्य तत्त्व ही सार है, बाकी सब असार।।

राि-रसायन आत्िरस, कर सेवन हर बार। अंतिुर्ख होकर सदा, िदले िदलबर दीदार।। ितर्गुणी िाया से परे, पंचतत्त्व से दूर। िन-बुिद्ध-वाणी से परे, व्यापक है भरपूर।। अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

हिरनाि की हीरों से, जीवन के सजाता चल। पर्भुपर्ेि िें हो पागल, िनज िस्ती िें गाता चल।। िाना है डगर िु ि ्कल, घनघोर अँधेरा है। इन चोर-लुटेरों ने, तुझे राह िें घेरा है। गुरुज्ञान से हो िनभर्य, साधक कदि बढ़ाता चल।। िाना है नहीं साथी, तू एक अकेला है। गि के तूिानों िें, जीवन सिर दुहेला1 है। गुरुनाि से हों िन ् चल , िन 'स्व' िें डुबाता चल।। िाना है जग सारा, बस एक झिेला है। स्वप्नों की नगरी िें, दो िदन का िेला है। गुरुध्यान से हो पावन, भर्ि-भेद ििटाता चल।। िाना है िनज अंतर, िवषयों का डेरा है। अहंता-ििता का, िचत्त िें बसेरा है। गुरु रहित से हो सबल, िदल-दीप जलाता चल।। 1 कष्टपर्द अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ िहँगीबा िाँ िदया तूने, ऐसा लाल ििराला है। जन-जन को जागृत कर िजसने, ज्ञान का िकया उजाला है।। अपनी स्नेहियी छाया िें, तूने िजसे सँवारा है। पर्ेि भिक्त ज्ञान ध्यान से, िजसको सदा िनखारा है।। िनज स्वरूप आनंदिय जीवन, पर्ाणों से भी प्यारा है। सरल हृदय सत्किर् अनोखा, िनवा भोला भाला है।। न ् वरकाया िाया है, िचत्त चकोर िनलेर्प रहा। िुक्त सदा हिरिय हृदय, बंधन का नहीं लेप रहा।। दुगुर्ण-दोष, िवषय-िवकार से, िचत्त सदा अलेप रहा। सजा ज्ञान से िन-िंिदर है, तन भी एक िवालाहै।। सींच िदया है उर-आँगन िें, ील-धिर् का अंकुर है। गुरु ही ई राि-रहीि हैं, बर्ह्िा िवष्णु ंकर हैं।। व्यापक हैं िनलेर्प सदा ही, वही बर्ह्ि परिे ् वरहैं। 'साक्षी' आत्िअिी रस पाया, पर्भु िें िन ितवाला है।। अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ आत्ि अिर बेल है प्यारी, ा ् वतसदा है सबसे न्यारी। घटे-बढ़े न उपजे-लीन हो, कैसी अदभुत क्यारी ! नैनों से देखे ना कोई, िन-बुिद्ध से जाने नहीं।

ज्योितस्वरूप ज्योितिर्य है, सूक्ष्ितर िचनगारी।। जड़ जीव जंतु िानव िें, सुर असुन देव दानव िें। िनलेर्प सदा अनािद-अनंत है, ििहिा िजसकी भारी।। नाि रूप रस रंग न कोई, अंग संग बेरंग है सोई। ओत-पर्ोत है सवर्व्यापक, अखंड चेतना सारी।। रोि-रोि हर कण-कण िें, ्वास- ्वास हर स्पंदन िें। ा ् वतसत्य सनातन है, िहके ज्यों िुलवारी।। गुरुज्ञान, ध्यान-भिक्त िें, जल-थल-नभ परा िक्त िें। आनंदिय िुक्तस्वरूप है, यार की सच्ची यारी।। अजर-अिर आत्ि अिवना ी , िदव्य पिरपूणर् सुखरा ी। चैतन्यिय है स्वयं पर्का ी , िजसकी बिलहारी 'साक्षी'।। अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ हो गयी रहित गुरु की, हिरनाि रस को पा िलया। ध्यान-रंग िें डुबा िदया, िनज आत्िभाव िें जगा िदया।। लज्जत 1 है नाि-रस िें, पी ले तू बारि्बार। गुरुचरणों िें पा ले, पर्भुपर्ेि की खुिार।। कािना को त्याग दे, कर ई िें अनुराग। गिलत िें क्यों सो रहा, िनज आत्िरूप िें जाग।। 1 स्वाद अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ तज दे िवषय-िवकार को, िवषय हैं िवष की खान। िवषय-भोग जो न तजे, िवषधर सि ताही जान।। तज दे जग गी आस को, झूठी आस-िनरास। चाह को जो न तजे, ताको जि की िाँस।। तज दे ति अहं को, लोभ िोह अिभिान। भय ोक जो ना तजे, पड़े नरक की खान।। िन से तज दे बंधुजन, झूठा जग व्यवहार। संग साथ कोई ना चलेष क्षणभंगुर संसार।। तज दे िायाजाल को, न ् वर जग -जंजाल। कीितर् कंचन काििनी, बंधन सब िवकराल।। परिनंदा िहंसा ईष्यार्, दुगुर्ण दोजख जान। करूणा क्षिा उपकार से, ििटे भेद-अज्ञान।। तज अनीित, द्वैत को, वैरी सि कुसंग। सत्य, धिर् िनिीत हों, साँचा धन सत्संग।। तज कर्ोध-आवे को, रोष िें ही सब दोष। िन ििलन कटु भावना से, िबखर जाय संतोष।। तज चंचलता वासना, धर ील िवनय िववेक। संयि सिता स्नेह से, कर जीवन िें कुछ नेक।। तज अज्ञान ितििर को, है बर्ह्िज्ञान सुखसार। पर्ेि भिक्त िव ् वाससे, हो जीवन-नैया पार।। तज दुिर्ित िनिित को, कर सवर् सदा सि्िान।

गुरुिित से सुिित ििले, सदबुिद्ध गुरुज्ञान।। तज छल कपट दंभ को, कर र्द्धा, पर्भु से प्यार। सवर् िें 'वह' रि रहा, जग का िसरजनहार।। अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ झूि ले हिरध्यान िें, रही न कोई चाह। गहरा सागर ज्ञान का, ििले न कोई थाह।। गुरुदेव के साये िें, ििल गयी सत्य की राह। ििर कैसे गुिराह हो, िजस िन िं हिरवास।। ले सदा दुःख-ददर् दीनों के, सदैव कर उपकार। कर भलाई सवर् की, न िकसी को कर लाचार।। हर नूर िें हिर हैं बसे, हर िदल िें कर दीदार। गुरुचरण िें बैठकर, कर िनज आत्ि-िवचार।। लाल की लाली से िहका, सारा ये जहान। रंगत नही, धड़कन वही, हर जीव िें वही पर्ाण।। नूर वही, नजरें वही, वही िजगर और जान। नाि-रूप जुदा सही, चैतन्य तत्त्व सिान।। लगन लगी हो राि की, िदल िें हिर का ध्यान। पर्भुपर्ेि की प्यास हो, िचत्त िे गुरु का ज्ञान।। जग गया स्वस्वरूप िें, हो गया िनज का भान। भेद भरि सं य ििटा, पाया 'साक्षी' पद िनवार्ण।। अनुकर्ि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

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