Shri Narayan Stuti

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  • Words: 23,411
  • Pages: 38
अनुकररम

'शीमद भ ् ागवत' के नवम सरकनरध में भगवान सरवयं कहते हैं-

अथाररतर मेरे पररेमी भकरत तो मेरा हृदय हैं और उन पररेमी भकरतों का हृदय सरवयं मैं हूँ। वे मेरे अितिरकरत और कुछ नहीं जानते तथा मैं उनके अितिरकरत और कुछ भी नहीं जानता। पुराण िरोमिण 'शीमद भ श ् ागवत' बररहरमाजी, देवताओं, शुकदेवजी, िशवजी, सनकािद मुिनयों, देवििि नारद, वृतासुर, दैतयराज बिि, भीषम िितामह, माता कुनरती, भकत पहाद, धररुव, अकररूर आिद कई पररभु पररेमी भकतो दारा शी नारायण भगवान की की गयी सतुितयो का महान भणडार है। पसतुत िुसतक धुव, पररहरलाद, अकररूर आिद कुछ उतरतम परम भागवतों की सरतुितयों का संकलन है, िजसके शररवण, पठन एवं मनन से आप-हम हमारा हृदय पावन करें, िविय रस का नही अिितु भगवद रस का आसवादन करे, भगवान केिदवय े ी गुणो को अिन ज व न म े उ त ा र क र अ ि न ाजीवनउनतबनाये। भग करके इन भकरतों को जो आ शर वासन िमला है , सचरचा माधुयरर एवं सचरची शांित िमली है, जीवन का सचरचा मागरर िमला है, वह आिको भी िमिे इसी सतपाथिना केसाथ इस िुसतक को करकमिो मे पदान करते हएु सिमित आनंद का अनुभव करती है। हे साधक बंधुओ ! इस पररकाशन केिवषय मेंआपसेपररित िकररयाएँसरवीकायररहैं। , ।

वयासजी दारा मंगि सतुित। कुनरती दरवारा सरतुित। शुकदेव जी दारा सतुित। बररहरमाजी दरवारा सरतुित।

देवताओं दारा सतुित। धररुव दरवारा सरतुित। महाराज पृथु दरवारा सरतुित। रूदरर दरवारा सरतुित। पररहरलाद दरवारा सरतुित। गजेनद दारा सतुित। अकररूरजी दरवारा सरतुित। नारदजी दरवारा सरतुित। दक पजािित दारा सतुित। देवताओं दारा गभि-सरतुित। वेदो दारा सतुित। चतुः शर लोकी भागवत। परराथररना का पररभाव। भगवान सविज, सवररशिकरतमान एवं सिचरचदानंदसरवरूप हैं। एकमातरर वे ही समसरत पररािणयों के हृदय में िवराजमान आतरमा हैं। उनकी लीला अमोघ है। उनकी शिकरत और पराकररम अननरन है। महिषरर वरयासजी ने 'शीमद भ ् ागवत' के माहातरमरय तथा पररथम सरकंध के पररथम अधरयाय के पररारमरभ में मंगलाचरण के रुप में भगवान शररीकृषरण की सरतुित इस पररकार से की हैः । ।। 'सिचरचदानंद भगवान शररीकृषरण को हम नमसरकार करते हैं, जो जगत की उतरपितरत, िसरथित एवं पररलय के हेतु तथा आधरयाितरमक, आिधदैिवक और आिधभौितक – इन तीनों पररकार के तापों का नाश करने वाले हैं।' ( . 1.1) । ।। 'िजससे इस जगत का सजररन, पोषण एवं िवसजररन होता है करयोंिक वह सभी सतर रूप पदाथोररं में अनुगत है और असतर पदाथोररं से पृथक है; जड़ नहीं, चेतन है; परतंतरर नहीं, सरवयं पररकाश है; जो बररहरमा अथवा िहरणरयगभरर नहीं, पररतरयुत उनरहें अपने संकलरप से ही िजसने उस वेदजरञान का दान िकया है; िजसके समरबनरध में बड़े-बड़े िवदरवान भी मोिहत हो जाते हैं; जैसे श तेजोमय सूयररर ि र ,मयोंमेंजलका जल में सरथल का और सरथल में जल का भररम होता है, वैसे ही िजसमे यह ितगुणमयी जागत-सरवपरन-सुिषपरतरूपा सृिषरि िमथरया होने पर भी अिधषरठान-सतरता से सतरयवतर पररतीत हो रही है, उस अपनी सरवयं पररकाश जरयोित से सवररदा और सवररथा माया और मायाकायरर से पूणररतः मुकरत रहने वाले सतरयरूप परमातरमा का हम धरयान करते हैं।' ( 1.1.1) अनुकररम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अ शर वतरथामाने पांडवों के वंश को नषरि करने के िलए बररहरमासरतरर का पररयोग िकया था। उतरतरा उस असरतरर को अपनी ओर आता देख देवािधदेव, जगदी शर वर पररभु शररीकृषरण से परराथररना करने लगी िक 'हे पररभो ! आप सवररशिकरतमान हैं। आप ही िनज शिकरत माया से

संसार की सृिषरि, पालन एवं संहार करते हैं। सरवािमनर ! यह बाण मुझे भले ही जला डाले, े े कतकी परंतु मेरे गभरर को नषरि न करे – ऐसी कृपा कीिजये।' भकतवतसि भगवान शीकृषण न अ िनभ करूण पुकार सुन पाणरडवों की वंश परमरपरा चलाने के िलए उतरतरा के गभरर को अपनी माया के कवच से ढक िदया। यदरयिप बररहरमासरतरर अमोघ है और उसके िनवारण का कोई उपाय भी नहीं है, ििर भी े क र व भगवान शीकृषण केतेज केसामन आ ह श ा त ह ो गय ा । इ सपकारअिभमनयुकीितीउ कर जब भगवान शररीकृषरण दरवािरका जाने लगेष तब पाणरडु पतरनी कुनरती ने अपने पुतररों तथा दौिदी केसाथ भगवान शी कृषण की बडे मधुर शबदो मे इस पकार सतुित कीः 'हे पररभो ! आप सभी जीवों के बाहर और भीतर एकरस िसरथत हैं, ििर भी िनर इ दररयों और वृितयो से देखे नही जाते कयोिक आि पकृित से िरे आिदिुरि िरमेशर है। मै आिको बारमबार नमसकार करती हँ। ू इिनदयो से जो कुछ जाना जाता है, उसकी तह में आप ही िवदरयमान रहते हैं और अपनी ही माया के पदेरर से अपने को ढके रहते हैं। मैं अबोध नारी आप अिवनाशी पुरष ु ोतरतम को भला, कैसे जान सकती हूँ? अनुकररम हे लीलाधर ! जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण िकये हुए नि को पररतरयकरष देखकर भी ं ो नहीं पहचान सकते, वैसे ही आि िदखते हएु भी नही िदखते। आि शुद हृदय वािे , िवचारशीि जीवनमुकत िरमहस के हृदय में अपनी पररेममयी भिकरत का सृजन करने के िलए अवतीणरर हुए हैं। ििर हम अलरपबुिदरध िसरतररयाँ आपको कैसे पहचान सकती हैं? आप शररीकृषरण, वासुदेव, देवकीननदन, ननरदगोप लाडले लाल गोिवनरद को हमारा बारमरबार पररणाम है। िजनकी नािभ से बररहरमा का जनरमसरथान कमल पररकि हुआ है, जो सुनरदर कमलों की माला धारण करते हैं, िजनके नेतरर कमल के समान िवशाल और कोमल हैं, िजनके चरमकमलों में कमल का िचहरन है, ऐसे शररीकृषरण को मेरा बार-बार नमसरकार है। हृिषकेष ! जैसे आपने दुषरि कंस के दरवारा कैद की हुई और िचरकाल से शोकगररसरत देवकी रकरषा की थी, वैसे ही आिन म े े र ी भीिु-तबार ोकेसिवपितर ाथबार तयों से रकरषा की है। आप ही हमारे सरवामी हैं। आप सवररशिकरतमान हैं। शररीकृषरण ! कहाँ तक िगनाऊँ? िवि से, िाकागृह की भयानक आग से, े बार केयुदो िहिडमरब आिद राकरषसों की दृिषरि से, दष ू -सभा से, वनवास की िविितयो से और अनक ु ो की दत में अनेक महारिथयों के शसरतररासरतररों से और अभी-अभी इस अ शर वतरथामाके बररहरमासरतरर से भी आपने ही हमारी रकरषा की है। । ।। हे जगदगुरो ! हमारे जीवन में सवररदा पग-पग पर िवपितरतयाँ आती रहें, करयोंिक िविितयो मे ही िनिित रि से आिके दशिन हआ रििरजनम -मृतरयु के चकरकर ु करते है और आिके दशिन हो जान ि े में नहीं आना पड़ता। अनुकररम ( 1.8.25) ऊँचे कुल में जनरम, ऐशव र यरर, िवदा और समिित के कारण िजसका घमंड बढ रहा है , वह मनुषय तो आपका नाम भी नहीं ले सकता, करयोंिक आप तो उन लोगों को दररशन देते हैं, जो अिकंचन हैं। आप िनधररनों के परम धन हैं। माया का पररपंच आपका सरपरर भी नहीं कर सकता। आप अपने-आप में ही िवहार करने वाले एवं परम शांतसरवरूप हैं। आप ही कैवलरय मोकरष के अिधपित है। मैं आपको अनािद, अननरत, सवररवरयापक, सबके िनयनरता, कालरूप, परमे शर वर समझती हूँ और बारमरबार नमसरकार करती हूँ। संसार के समसरत पदाथरर और परराणी आपस िकरा कर िवषमता के कारण परसरपर िवरूदरध हो रहे हैं, परंतु आप सबमें समान रूप से िवचर रहे है। भगवन् ! आप जब मनुषरयों जैसी लीला करते हैं, तब आि कया करना चाहते है यह कोई नही जानता। आपका कभी कोई न िपररय है और न अिपररय। आपके समरबनरध में लोगों की बुिदरध ही िविम हआ ु करती है। आि िवश केआतमा है , िवशरि है। न आि जनम िेते है और न कमि करते है। ििर भी िशु -पकरषी, मनुषरय, ऋिष, जलचर आिद में आप जनरम लेते हैं और उन योिनयों के अनुरूप आपने दूध की मिकी िोड़कर यशोदा मैया को िखजा िदया था और उनरहोंने आपको बाँधने के िलए हाथ

में रसरसी ली थी, तब आिकी आँखो मे आँसू छिक आये थे, काजल कपोलों पर बह चला था, नेतरर चंचल हो रहे थे और भय की भावना से आपने अपने मुख को नीचे की ओर झुका िलया था ! आपकी उस दशा का, िीिा-छिव का धरयान करके मैं मोिहत हो जाती हूँ। भला, िजससे भय भी भय मानता है, उसकी यह दशा ! आपने अजनरमा होकर भी जनरम करयों िलया है, इसका कारण बतलातेहुए कोई-कोई महापुरुष यों कहते हैं िक जैसे मलयाचल की कीितरर का िवसरतार करने के िलए उसमें चंदन े पररकि होता, वैसे ही अिन ि प य भ क त ि ु ण यश ि ो क राजायदक ु ीकीिति कािवस में अवतार गररहण िकया है। दूसरे लोग यों कहते हैं िक वासुदेव और देवकी ने पूवरर जनरम में (सु श तपा और पृ ि र नकेरू ) आपसे पमें यही वरदान पररापरत िकया था, इसीिलएआप अजनरमा होते हुए भी जगत के कलरयाण और दैतरयों के नाश के िलए उनके पुतरर बने हैं। कुछ और ं भार से समुद मे डू बते हएु जहाज की तरह डगमगा रही थी , पीिड़त हो िोग यो कहते है िक यह िृथवी दैतयो केअतयत े ि ि ए रही थी, तब बहा की पाथिना से उसका भार उतारन क े ह ी आि प क टहएु।कोईमहािुरि िोग इस संसार मे अजान, कामना और कमोररं के बंधन में जकड़े हुए पीिड़त हो रहे हैं, उन े े ेिवचारसे े वत िोगो केििए शवण और समरण करन य ो ग य िी ि ा क र न क हीआिनअ बार आपके चिरतरर का शररवण, गान, कीतररन एवं सरमरण करके आनंिदत होते रहते हैं, वे ही अिवलमरब आपके उन चरणकमलों के दररशन कर पाते हैं, जो जनरम-मृतरयु के पररवाह को सदा के िलए रोक देते हैं। भकतवाछा हम िोगो को छोडकर जाना चाहते है? आप जानते हैं िक आपके चरमकमलों के अितिरकरत हमें और िकसी का सहारा नहीं है। पृथव र ी के राजाओं के तो हम यों ही िवरोधी हो गये है। जैसे जीव केिबना इिनदया शिकतहीन हो जाती है , वैसे ही आिकेदशिन िबना यदवुिंशयो केऔर हमारे िुत िाणडवो के नाम तथा रूप का अिसरततरव ही करया रह जाता है। गदाधर ! आपके िवलकरषण चरणिचहरनों से िचिहरनत यह कुरज ु ांगल देश की भूिम आज जैसी शोभायमान हो रही है, वैसी आिकेचिे जान क े ेबाद न रहेगी। आपकी दृिषरि के पररभाव से ही यह देश पकी हुई िसल तथा लता -वृको से समृद हो रहा है। ये वन, पवररत, नदी और समुदरर भी आपकी दृिषरि से ही वृिदरध को पररापरत हो रहे हैं। आप िवश केसवामी है , िवश केआतमा है और िवशरि है। यदवुिंशयो और िाणडवो मे मेरी बडी ममता हो गयी है। आि कृिा करके सरवजनों के साथ जोड़े हुए इस सरनेह की दृढ़ िाँसी को काि दीिजये। शररीकृषरण ! जैसे ं र पेम करती गंगा की अखणड धारा समुद मे िगरती रहती है, वैसे ही मेरी बुिद िकसी दस ू री ओर न जाकर आिसे ही िनरत रहे। अनुकररम शीकृषण ! अजुररन के परयारे सखा, यदुवंशशिरोमणे ! आप पृथरवी के भाररूप राजवेशधारी दैतरयों को जलाने के िलए अिगरनरूप है। आपकी शिकरत अननरत है। गोिवनरद ! आपका यह अवतार गौ, बरराहरमण और देवताओं का दुःख िमिाने के िलए ही है। योगे शर वर ! चराचर के गुरु भगवनर ! मैं आपको नमसरकार करती हूँ। ( 1.8.18.43) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ उतरतराननरदन राजा परीिकरषत ने भगवतरसरवरूप मुिनवर शुकदेवजी से सृिषरििवषयक परर शर न पछ ू ा िक अननरतशिकरत परमातरमा कैसे सृिषरि की उतरपितरत , रकरषा एवं संहार करते हैं और वे िकन-िकन शिकरतयों का आशररय लेकर अपने-आपको ही िखलौने बनाकर खेलते हैं? इस पररकार परी िकरषतदरवारा भगवान की लीलाओंको जाननेकी िजजरञासा पररकि करनेपर वेदऔर बररहमर ततरतरव केपूणरर ममररजरञ शुकदेवजी लीलापुरुषोतरतम भगवान शररीकृषरण की मंगलाचरण के रूप में इस पररकार से सरतुित करते हैं'उन पुरुषोतरतम भगवान के चरणकमलों में मेरे कोिि-कोिि पररणाम हैं, जो संसार की उतरपितरत, िसरथित और पररलय की लीला करने के िलए सतरतरव, रज तथा तमोगुण रूप तीन शिकतयो को सवीकार कर बहा, िवषणु और शंकर का रि धारण करते है। जो समसत चर-अचर पररािणयों के

हृदय में अंतयाररमीरूप से िवराजमान हैं, िजनका सरवरूप और उसकी उपलिबरध का मागरर बुिदरध के िवषय नहीं हैं, जो सरवयं अननरत हैं तथा िजनकी मिहमा भी अननरत है, हम पुनः बार-बार उनके चरणों में नमसरकार करते हैं। जो सतरपुरुषों का दुःख िमिाकर उनरहें अपने पररेम ं आशम मे िसथत है, का दान करते हैं, दष ु ो की सासािरक बढती रोककर उनहे मुिकत देते है तथा जो िोग िरमहस उनरहें उनकी भी अभीषरि वसरतु का दान करते हैं। करयोंिक चर-अचर समसरत परराणी उनरहीं की मूितरर हैं, इसिलएिकसी सेभी उनका पकरषपात नहीं है। जो बडे ़ ही भकरतवतरसल हैंऔर हठपूवररक भिकरतहीन साधन करने वाले लोग िजनकी छाया भी नहीं छू सकते; िजनके समान भी िकसी का ऐशरवयरर नहीं है, ििर उससेअिधक तो हो ही कैसेसकता हैतथा ऐसेऐशय वर ररसेयुकरत होकर जोिनरनरतर बररहमसर र वरूप अपनेधाम में िवहार करते रहते है , उन भगवान शररीकृषरण को मैं बार-बार नमसरकार करता हूँ। िजनका कीतररन, सरमरण, दशिन, वदंि, शवण और िूजन जीवो के िािो को ततकाि नष कर देता है , उन पुणरयकीितरर भगवान शीकृषण को बार -बार नमसरकार है। अनुकररम । ।। । ।। े ृ द य स िववेकी िुरि िजनके चरणकमिो की शरण िेकर अिन ह े इ सिोकऔरिरिोककीआस डा ि त े ह ै औ र िब न ा िकस ी ि िरश म क े ह ी ब ह ि द को प ा प त कर ि े त े ह ै , उन मंगलमय कीितररवाले भगवान शररीकृषरण को अनेक बार नमसरकार है। बड़े-बड़े तपसरवी, दानी, यशसरवी, मनसरवी, सदाचारी और मंतररवेतरता जब तक अपनी साधनाओं को तथा अपने-आपको उनके चरणों में समिपररत नहीं कर देते, तब तक उनहे कलयाण की पािपत नही होती। िजनकेपित आतमसमििण की ऐसी मिहमा है, उन कलरयाणमयी कीितररवाले भगवान को बार-बार नमसरकार है। ( 2.4.16.17) िकरात, हूण, आंधरर, पुिलनरद, पुलरकस, आभीर, कंक, यवन और खस आिद नीच जाितयाँ तथा दस ह ी ििवतहोजाते , उन सवरर है शिकरतमान भगवान ू रे िािी िजनके शरणागत भकतो की शरण गहण करन स े े को बार-बार नमसरकार है। वे ही भगवान जािनयो के आतमा है , भकतो के सवामी है , कमररकािणरडयों के िलए वेदमूितरर हैं। बररहरमा, शंकर आिद बडे-बड़े देवता भी अपने शुदरध हृदय से उनके सरवरूप का िचंतन करते और आ शर चयररचिकतहोकर देखते रहते हैं। वे मुझ पर अपने अनुगररह की , पररसाद की वषारर करें। जो समसरत समरपितरतयों की सरवािमनी लकरषरमीदेवी के पित हैं, समसरत यजरञों के ं ,िदाता भोकता एव ि पररजहैा के रकरषक हैं, सबके अंतयाररमी और समसरत लोकों के पालनकतारर हैं तथा पृथव र ीदेवी के सरवामी हैं, िजनरहोंने यदुवंश में पररकि होकर अंधक, ेएकमातआशयरहे ं द व ु वृिषण एव य श ं क े ि ो गो क ी र – क ाकीहैतथाजोउनिोगोक , संतजनों के हैवेभकतव सवररसव र शररीकृषरण मुझ पर पररसनरन हों। िवदरवान पुरुष िजनके चरणकमलों के िचंतनरूप समािध से शुदरध हुई बुिदरध के दरवारा आतरमततरतरव का साकरषातरकार करते हैं तथा उनके दररशन के अननरतर अपनी-अपनी मित और रूिच के अनुसार िजनके सरवरूप का वणररन करते रहते हैं, वे पररेम और मुिकरत को लुिाने वाले भगवान शररीकृषरण मुझ पर पररसनरन हों। िजनरहोंने सृिषरि के समय बररहरमा के हृदय में पूवररकाल की सरमृित जागररत करने के िलए जरञान की अिधषरठातररी े मूेमिुखकारण देवी को पेिरत िकया और वे अिन अ े ं ग ो क े स ि ह त वेद,कवेेरजान िमेउक नक सेपकटहई भगवान मुझ ु पर कृपा करें, मेरे हृदय में पररकि हों। भगवान ही पंचमहाभूतों से इन शरीरों का िनमाररण करके इनमें जीवरूप से शयन करते हैं और पाँच जरञानेिनरदररयों, पाँच कमेररिनरदररयों, पाँच, परराण और एक मन – इन सोलह कलाओं से युकरत होकर इनके दरवारा सोलह िवषयों का भोग करते है। वे सविभूतमय भगवान मेरी वाणी को अिन ग े ु ण ो स े अ िंकृत करदे। संतिुरि मकरनरद के समान झरती हुई जरञानमयी सुधा का पान करते रहते हैं, उन वासुदेवावतार सवररजरञ भगवान वरयास के चरणों में मेरा बार-बार नमसरकार है।' अनुकररम ( 2.4.12-24)

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सृिषरि से पूवरर यह समरपूणरर िव शर वजल में डूबा हुआ था। उस समय एकमातरर े शीनारायण देव शेिशयया िर िेटे हएु थे। एक सहस चतुयुिगियिनत जि मे शयन करन क े अन नतरउनहीकेदारािनयुकत उनकी कालशिकरत ने उनरहें जीवों के कमोररं की पररवृितरत के िलए पररेिरत िकया। िजस समय भगवान की दिृष अिन म े े ि न ि ह तििं , तब ग शरीरािदसू वह सूकमकमतततविरिडी तततव कािािशत रजोगुण से कुिभत होकर सृिषरि-रचना के िनिमतरत कमलकोश के रूप में सहसा ऊपर उठा। कमल पर बररहरमा जी े गेः 'इस कमल की किणररका पर बैठा हुआ मैंकौन हूँ? यह कमल भी िबना िकसी अनरय िवराजमान थे। वे सोचन ि आधार के जल में कहाँ से उतरपनरन हो गया? इसकेनीचेअव शर यकोई वसरतु होनी चािहए , िजसके आधार पर यह िसरथत है।' अपने उतरपितरत-सरथान को खोजते-खोजते बररहरमाजी को बहुत काल बीत गया। अनरत में परराणवायु को धीरे-धीरे जीतकर िचतरत को िनःसंकलरप िकया और समािध में िसरथत हो गये। तब उनरहोंने अपने उस अिधषरठान को, िजसे वे पहले खोजने पर भी नहीं देख पाये थे, अपने ही अंतःकरण में पररका ि त ह शो त ेदेखातथा ररीहिरमे े गेः िगाकर उन िरम िूजनीय पभु की सतुित करन ि 'आप सवररदा अपने सरवरूप के पररकाश से ही पररािणयों के भेद भररमरूप अंधकार का नाश करते रहते हैं तथा जरञान के अिधषरठान साकरषातर परम पुरुष हैं, मैं आपको नमसरकार करता हूँ। संसार की उतरपितरत, िसरथित और संहार के िनिमतरत से जो माया की लीला होती है, वह आिका ही खेि है, अतः आप परमे शर वर को मैं बार -बार नमसरकार करता हूँ। । ।। जो लोग परराणतरयाग करते समय आपके अवतार, गुण और कमों को सूिचत करन वे ािे े ो देवकीननदन, जनादररन, कंसिनकंदन आिद नामों का िववश होकर भी उचरचारण करते हैं, वे अनक जनरमों के पापों से ततरकाल छूिकर मायािद आवरणों से रिहत बररहरमपद पररापरत करते हैं। आप िनतरय अजनरमा हैं, मैं आपकी शरण लेता हूँ। अनुकररम ( 3.9.15) भगवन् ! इसिव शर ववृकरष केरू प मेंआप हीिवराजमान हैं। आप ही अपनी मूल पररकृित को सरवीकार करकेजगत की उतरपितरत, िसरथित और पररलय के िलए मेरे, अपने और महादेवजी के रूप में तीन पररधान शाखाओं मे िवभकत हएु है और ििर पजािित एव म ं नु आिदशाखा -पररशाखाओं के रूप में िैलकर बहुत िवसतृत हो गये है। मै आिको नमसकार करता हूँ। भगवन् ! आपने अपनी आराधना को ही लोकों के िलए कलरयाणकारी सरवधमरर बताया है, िकंतु वे इस ओर से उदासीन रहकर सवररदा िवपरीत (िनिषदरध) कमोररं में लगे रहते हैं। ऐसी पररमाद की अवसरथा में पड़े हुए इन जीवों की जीवन-आशा को जो सदा सावधान रहकर बड़ी शीघररता से कािता रहता है, वह बिवान काि भी आपका ही रूप है; मैं उसे नमसरकार करता हूँ। यदरयिप मैं सतरयलोक का अिधषरठाता हूँ, जो परादरधररपयररनरत रहने वाला और समसरत लोकों का वनरदनीय है तो भी आपके उस कालरूप से े े िि ए ह ी डरत ा र ह त ा हू । ँ उसस े ब च न औ े र आ ि क ो प ा प त करन क तिसया की है। आि ही अिधयजरि से मेरी इस तिसया के साकी है , मैं आपको नमसरकार करता हूँ। आप पूणररकाम हैं, आपको िकसी िवषयसुख की इचरछा नहीं है तो भी आपने अपनी बनायी हुई धमररमयाररदा की रकरषा के िलए प श -पकर ु षी, मनुषरय और देवता आिद जीवयोिनयों में अपनी ही इचरछासेशरीर धारण कर अनेकोंलीलाएँकी हैं। ऐसेआपपुरष ु ोतरतमभगवान को मेरानमसरकार है। पररभो ! आप अिवदरया, अिसरमता, राग दरवेष और अिभिनवेश – पाँचों में से िकसी के े द र म ं र तरगंमािाओ भी अधीन नही है; तथािि इस समय जो सारे संसार को अिन उ े ि ीन कर भयक पररलयकालीन जल में अननरतिवगररह की कोमल शयरया पर शयन कर रहे हैं, वह िूविकाि की कमि परमरपरा से शररिमत हुए जीवों को िवशरराम देने के िलए ही है। आपके नािभकमलरूप भवन से मेरा जनरम हुआ है। यह समरपूणरर िव शर व आपके उदर में समाया हुआ है। आपकी कृपा से ही मैं ितररलोकी की रचना रूप उपकार में पररवृतरत हुआ हूँ। इस समय योगिनदररा का अंत हो जाने के कारण आपके नेतररकमल िवकिसत हो रहे हैं आपको मेरा नमसरकार है। आप

समरपूणरर सुहृद और आतरमा हैं तथा शरणागतों पर कृपा करने वाले हैं। अतः अपने िजस जरञान और ऐशरवयरर से आप िव शर व को आनिनरदत करते हैं , उसी से मेरी बुिदरध को भी युकरत करें – िजससे मैं पूवररकलरप के समान इस समय भी जगत की रचना कर सकूँ। आप े गुणावतार िेकर आि जो -जो अदभुत कमरर भकतवाछाकलितर है। अिनी शिकत िकमीजी के सिहत अनक करेंगे, मेरा यह जगत की रचना करने का उदरयम भी उनरहीं में से एक है। अतः इसे रचते समय आप मेरे िचतरत को पररेिरत करें, शिकत पदान करे, िजससे मैं सृिषरि रचनािवषयक अिभमानरूप मल से दूर रह सकूँ। पररभो ! इस पररलयकालीन जल मेंशयन करतेहुए आप अननरतशिकरत परमपुरष ु के नािभ-कमल से मेरा पररादुभाररव हुआ है और मैं हूँ भी आपकी ही िवजानशिकत अतः इस जगत केिविचत रि का िवसतार करते समय आिकी कृिा से मेरी वेदरि वाणी का उचचारण िुपत न हो। आप अपार करुणामय पुराणपुरुष हैं। आप परम पररेममयी मुसरकान के सिहत अपने नेतररकमल खोिलये और शेषशयरया से उठकर िव शर वके उदभव के िलए अपनी सुमधुर वाणी से मेरा िवषाद दूर कीिजए।' अनुकररम ( 3.9.14-25) भगवान की मिहमा असाधारण है। वे सवयपंकाश, आनंदसरवरूप और माया से अतीत है। उनरहीं की माया में तो सभी मुगरध हो रहे हैं परंतु कोई भी माया-मोह भगवान का सरपररश नहीं कर सकता। बररहरमजी उनरहीं भगवान शररीकृषरण को गरवाल-बाल और बछड़ों का अपहरण कर, अपनी माया से मोिहत करने चले थे। िकनरतु उनको मोिहत करना तो दूर रहा, वे अजनमा होन ि े रभीअिनी ही माया से अपने-आप मोिहत हो गये। बररहरमाजी समसरत िवदरयाओं के अिधपित हैं तथािप भगवान केिदवय सवरि को वे तिनक भी न समझ सकेिक यह कया है। यहा तक िक वे भगवान केमिहमामय रिो को देखने में भी असमथरर हो गये। उनकी आँखें मुँद गयीं। भगवान शररीकृषरण ने बररहरमाजी का मोह और असमथररता को जान कर अपनी माया का पदारर हिा िदया। इससे बररहरमाजी को बररहरमजरञान हुआ। ििर बररहरमाजी ने अपने चारों मुकुिों के अगररभाग से भगवान के चरणकमलों का सरपररश करके नमसरकार िकया और आनंद के आँसुओं की धारा से उनरहें नहला िदया। बहुत देर तक वे भगवान के चरणो मे ही िडे रहे। ििर धीरे -धीरे उठे और अपने नेतररों के आँसू पोंछे। पररेम और मुिकरत के एकमातरर उदगम भगवान को देखकर उनका िसर झुक गया। अंजिल बाँधकर बड़ी नमररता और एकागररता के साथ गदगद वाणी से वे भगवान की सरतुित करने िगेः 'पररभो ! एकमातरर आप ही सरतुित करने योगरय हैं। मैं आपके चरणों में नमसरकार करता हूँ। आपका यह शरीर वषाररकालीन मेघ के समान शरयामल है , इस पर पीतामबरिसर र थरिबजली के समान िझलिमल-िझलिमल करता हुआ शोभा पाता है, आपके गले में घुँघची की माला, कानों में मकराकृित कुणरडल तथा िसर पर मोरपंखों का मुकुि है, इन सबकी कांित सेआपकेमुख पर अनोखी छिा िछिक रही है। वकरषः सरथल पर लिकती हुई वनमाला और ननरहीं-सी हथेली पर दही-भात का कौर, बगल में बेंत और िसंगी तथा कमर की िेंि में आपकी पहचान बतानेवाली बाँसुरी शोभा िर रही है। आिके कमि -से सुकोमल परम सुकुमार चरण और यह गोपाल बालक का सुमधुर वेि। (मैं और कुछ नहीं जानता बस, मैं तो इनरहीं चरणों पर नरयोछावर हूँ।) सरवयंपररकाश परमातरमनर ! आपका यह शररीिवगररह भकरतजनों की लालसा-अिभलाषा पूणरर करने वाला है। यह आपकी िचनरमय इचरछा का मूितररमान सरवरूप मुझ पर आपका साकरषात कृपा पररसाद है। मुझे अनुगृहीत करने के िलए ही आपने इसे पररकि िकया है। कौन कहता है िक यह पंचभूतों की रचना है? पररभो ! यह तो अपरराकृत शुदरध सतरतरवमय है। मैं या और कोई समािध लगाकर भी आपके इस सिचरचदानंद-िवगह की मिहमा नही जान सकता। ििर आतमाननदानुभवसवरि साकात् आिकी ही मिहमा को तो कोई एकागरर मन से भी कैसे जान सकता है। । ।।

पररभो ! जो लोग जरञान के िलए पररयतरन न करके अपने सरथान में ही िसरथत रहकर केवल सतरसंग करते हैं; यहाँ तक िक उसे ही अपना जीवन बना लेते हैं, उसके िबना जी नहीं सकते। पररभो ! यदरयिप आप पर ितररलोकी में कोई कभी िवजय नहीं पररापरत कर सकता, ििर भी वेआपपरिवजय पररापतर कर लेतेहै,ं आप उनके पररेम के अधीन हो जाते हैं। अनुकररम ( 10.15.3) भगवन् ! आपकी भिकरत सब पररकार के कलरयाण का मूलसररोत-उदगम है। जो लोग उसे छोड़कर केवल जरञान की पररािपरत के िलए शररम उठाते और दुःख भोगते हैं, उनको बस करलेश-ही-करलेश हाथ लगता है और कुछ नहीं। जैसे, थोथी भूसी कूिने वाले को केवल शम ही िमिता है, चावल नहीं। हे अचरयुत ! हे अननरत ! इस लोक मेंपहलेभी बहुत-से योगी हो गये हैं। जब उनरहें े े योगािद के दरवारा आपकी पररािपरत न हुई, तब उनहोन अ ि न ि ौ ि क कऔरवैिदकसम समिपररत कर िदये। उन समिपररत कमोररं से तथा आपकी लीला-कथा से उनरहें आपकी भिकरत पररापरत हुई। उस भिकरत से ही आपके सरवरूप का जरञान पररापरत करके उनरहोंने बड़ी सुगमता से आपके परम पद की पररािपरत कर ली। हे अननरत ! आपके सगुण-िनगुररण दोनों सरवरूपों का जरञान किठन होने पर भी िनगुररण सरवरूप की मिहमा इिनरदररयों का पररतरयाहार करके शुदरध अंतःकरण से जानी जा सकती है। (जानने की पररिकररया यह है िक) िवशेि आकार के ििरतयागिूविक आतरमाकार अंतःकरण का साकरषातरकार िकया जाय। यह आतरमाकारता घि-पिािद रूप के समान जरञेय नहीं है, पररतरयुत आवरण का भंगमातरर है। यह साकरषातरकार 'यह बररहरम है', 'मैं बररहरम को जानता हूँ' इस पररकार नहींिकंतु सरवयंपररकाश रू प सेही होता है। परंतु भगवनर ! िजन समथरर पुरुषों ने अनेक जनरमों तक पिरशररम करके पृथव र ी का एक-एक परमाणु, आकाश के िहमकण (ओस की ं ारोतकिगनडािाहै बूँदें) तथा उसमे चमकन व े ा ि े न क तएवत , उनमें भी भला, ऐसा कौन हो सकता है जो आपके सगुण सरवरूप के अननरत गुणों को िगन सके? पररभो ! आप केवल संसार के कलरयाण के िलए ही अवतीणरर हुए हैं। सो भगवनर ! आपकी मिहमा का जरञान तो बड़ा ही किठन है। इसिलएजो पुरष ु करषण-करषण पर बड़ी उतरसुकता से आपकी कृपा का ही भलीभाँित अनुभव करता रहता है और पररारबरध के अनुसार जो कुछ सोख या दुःख पररापरत होता है, उसे िनिवररकार मन से े भोग िेता है एव ज ं ोपेमिू, णगदगद िहृदय वाणी और िुििकत शरीर से अिन क े ो आि क चरणोमेसमििितकरत – इस पररकार जीवन वरयतीत करनेवाला पुरष ु ठीक वैसेही आपकेपरम पद का अिधकारी हो जाता है, जैसे अपने िपता की समरपितरत का पुतरर ! अनुकररम पररभो ! मेरी कुििलता तो देिखये। आप अननरत आिदपुरुष परमातरमा हैं और मेरे जैसे बड़े-बड़े मायावी भी आपकी माया के चकरर में हैं। ििर भी मैंने आप पर अपनी माया िैलाकर अपना ऐशव र यरर देखना चाहा। पररभो ! मैं आपके सामने हूँ ही करया। करया आग के सामने िचनगारी की भी कुछ िगनती है? भगवन् ! मैं रजोगुण से उतरपनरन हुआ हूँ, आपके सरवरूप को मैं ठीक-ठाक नहीं जानता। इसी से अपने को आपसे अलग संसार का सरवामी माने बैठा था। मैं अजनरमा जगतरकतारर हूँ – इस मायाकृत मोह के घने अंधकार से मैं अंधा हो रहा था। इसिलए आप यह समझकर िक 'यह मेरे ही अधीन है, मेरा भृतरय है, इस पर कृपा करनी चािहए', मेरा अपराध करषमा कीिजए। मेरे सरवामी ! पररकृित, महतरततरव, अहंकार, आकाश, वायु, अिगरन, जल और पृथव र ीरूप आवरणों से िघरा हुआ यह बररहरमाणरड ही मेरा शरीर है और आपके एक-एक रोम के िछदरर में ऐसे-ऐसे अगिणत बररहरमाणरड उसी पररकार उड़तेपड़ते रहते हैं, जैसे झरोखे की जाली में से आनेवाली सूयरर की िकरणों में रज के छोिे-छोिे परमाणु उड़ते हुए िदखायी पड़ते हैं। कहाँ अपने पिरमाण से साढ़े तीन हाथ के शरीरवाला अतरयंत करषुदरर मैं और कहाँ आपकी अननरत मिहमा। वृितरतयों की पकड़ में न आनेवाले परमातरमनर ! जब बचरचा माता के पेि में रहता है, तब अजानवश अिन ह े ाथिैर पीिता है; परंतु करया माता उसे अपराध समझती है या उसके िलए वह कोई अपराध होता है? 'है' और 'नहीं है' – इन शबरदों सेकही जानेवाली कोई भी वसरतु ऐसी हैकरया, जो आपकी कोख के भीतर न हो?

शुितया कहती है िक िजस समय तीनो िोक पियकािीन जि मे िीन थे, उस समय उस जल में िसरथत शीनारायण के नािभकमि से बह का जनम हआ ु । उनका यह कहना िकसी पकार असतय नही हो सकता। तब आि ही बतलाइये, पररभो ! करया मैं आपका पुतरर नहीं हूँ? । ।। पररभो ! आप समसरत जीवों के आतरमा हैं। इसिलए आप नारायण (नार-जीव और अयनआशररय) हैं। आप समसरत जगत के और जीवों अधी शर वर ह,ैइसिलए आप नारायण (नार-जीव और अयन-पररवतररक) हैं। आप समसरत लोकों के साकरषी हैं, इसिलएभी नारायण (नार-जीव और अयनजानने वाला) है। नर से उतरपनरन होने वाले जल में िनवास करने के कारण िजनरहें नारायण (नार-जल और अयन-िनवाससरथान) कहा जाता है, वे भी आिके एक अंश ही है। वह अंशरि से िदखना भी सतय नही है, आपकी माया ही है। ( 10.14.14) भगवन् ! यिद आपका वह िवराि सरवरूप सचमुच उस समय कमलनाल के मागरर से उसे सौ विि तक जि मे ढूढ ँ ता रहा ? ििर मैंनेजब तपसरया की, तब उसी समय मेरे हृदय मे उसका दशिन कैसे हो गया ? और ििर कुछ ही करषणों में वह पुनः करयों नहीं िदखा, अंतधाररन करयों हो गया? माया का नाश करने वािे पभो ! दरू की बात कौन करे, अभी इसी अवतार में आपने इस बाहर िदखने वाले जगत को अपने पेि में ही िदखला िदया, िजसे देखकर माता यशोदा चिकत हो गयी थी। इससे यही तो िसदरध होता है िक यह समरपूणरर िव शर व केवल आपकी माया -ही-माया है। जब आपके सिहत यह समरपूणरर िव शर व जैसा बाहर िदखता है वैसा ही आपके उदर में भी िदखा , तब कया यह सब आिकी माया के िबना ही आपमें पररतीत हुआ? अव शर यही आपकी लीला है। उस िदन की बात जाने दीिजए, आज की ही लीिजए। करया आज आपने मेरे सामने अपने अितिरकरत समरपूणरर िव शर व को अपनी माय का खेल नहीं िदखलाया है? पहले आप अकेले थे। ििर समरपूणरर गरवालबाल, बछड़े और छड़ी-छीके भी आप ही हो गये। उसके बाद मैंने देखा िक आपके वे सब रूप चतुभुररज हैं और मेरे सिहत सब-के-सब ततरतरव उनकी सेवा कर रहे हैं। आपने अलग-अलग उतने ही बररहरमाणरडों का रूप भी धारण कर िलया था, परंतु अब आप केवल अपिरिमत अिदरवितय बररहरमरूप से ही शेष रह गये हैं। अनुकररम जो लोग अजरञानवश आपके सरवरूप को नहीं जानते, उनरहीं को आप पररकृित में िसरथत जीव के रूप से पररतीत होते हैं और उन पर अपनी माया का पदारर डालकर सृिषरि के समय मेरे (बररहरमा) रूप से पालन के समय अपने (िवषणु) रूप से और संहार के समय रूदरर के रूप में पररतीत होते हैं। पररभो ! आप सारे जगत के सरवामी और िवधाता है। अजनरमा होने पर भी आपके देवता, ऋिष, प श -पकर ु षी और जलचर आिद योिनयों में अवतार गररहण करते हैं। इसिलए की इन रूपों के दरवारा दुषरि पुरुषों का घमणरड तोड़ दें और सतरपुरुषों पर अनुगररह करें। भगवनर ! आप अननरत परमातरमा और योगे शर वरहैं ? िजस समय आप अपनी माया का िवसरतार करके े ,गते िीिा करन ि उस है समय ितररलोकी में ऐसा कौन है, जो यह जान सके की आपकी लीला कहाँ, िकसिलए, कब और िकतनी होती। इसिलए यह समरपूणरर जगत सरवपरन के समान असतरय , अजरञानरूप और दुःख-पर दुःख देनेवाला है। आप परमानंद, परम अजरञानसरवरूप एवं अननरत हैं। यह माया से उतरपनरन एवं िवलीन होने पर भी आपमें आपकी सतरता से सतरय के समान पररतीत होता है। पररभो ! आप ही एकमातरर सतरय हैं करयोंिक आप सबके आतरमा जो हैं। आप पुराणपुरुष होने के कारण समसरत जनरमािद िवकारों से रिहत हैं। आप सरवयं पररकाश हैं; इसिलएदेश, काल और वसरतु जो परपररकाश हैं िकसी पररकार आपको सीिमत नहीं कर सकते। आप उनके भी आिद पररकाशक हैं। आप अिवनाशी होने के कारण िनतरय हैं। आपका आनंद अखिणरडत है। आपमें न तो िकसी पररकार का मल है और न अभाव। आप पूणरर एक हैं। समसरत उपािधयों से मुकरत होने के कारण आप अमृतसरवरूप हैं। आपका यह ऐसा सरवरूप समसरत जीवों का ही अपना सरवरूप है। जो गुरुरूप सूयरर से ततरतरवजरञानरूप िदवरय दृिषरि पररापरत कर के उससे आपको अपने सरवरूप के रूप में साकरषातरकार कर लेते हैं, वे इस झूठे संसार-सागर को मानों

पार कर जाते हैं। (संसार-सागर के झूठा होने के कारण इससे पार जाना भी अिवचार-दशा की दृिषरि से ही है।) जो पुरुष परमातरमा को आतरमा के रूप में नहीं जानते, उनरहें उस अजरञान के कारण ही इस नामरूपातरमक अिखल पररपंच की उतरपितरत का भररम हो जाता है। िकंतु जरञान होते ही इसका आतरयंितक पररलय हो जाता है। जैसे रसरसी में भररम के कारण ही साँप की पररतीित होती है और भररम के िनवृतरत होते ही उसकी िनवृितरत हो जाती है। संसार समरबनरधी बंधन और उससे मोकरष – ये दोनों ही नाम अजरञान से किलरपत हैं। वासरतव में ये अजरञान के ही दो नाम हैं। ये सतरय और जरञानसरवरूप परमातरमा से िभनरन अिसरततरव नहीं रखते। जैसे सूयरर में िदन और रात का भेद नहीं है, वैसे ही िवचार करन ि े रअखणडिचतसवरि केवल शुदरध आतरमततरतरव में न बंधन है और न तो मोकरष। भगवनर िकतने आ शर चयररकी बात है िक आप हैं अपने आतरमा, पर लोग आपको पराया मानते हैं और शरीर आिद हैं पराये, िकंतु उनको आतरमा मान बैठते हैं और इसके बाद आपको कहीं अलग ढूँढने लगते हैं। भिा, अजरञानी जीवों का यह िकतना बड़ा अजरञान है। हे अननरत ! आप तो सबके अंतःकरण में ही िवराजमान हैं। इसिलए संत लोग आपके अितिरकरत जो अनुकररम कुछ पररतीत हो रहा है, उसका पिरतरयाग करते हुए अपने भीतर आपको ढूँढते हैं। करयोंिक यदरयिप रसरसी में साँप नहीं है, ििर भी उस पररतीयमान साँप कोिमथरयािन शर चय िकयेिबना भला, कोई सतरपुरुष सचरची रसरसी को कैसे जान सकता है? अपने भकरतजनों के हृदय में सरवयं सरिुिरत होने वाले भगवनर ! आपके जरञान का सरवरूप और मिहमा ऐसी ही है, उससे अजरञानकिलरपत जगत का नाश हो जाता है। ििर भी जो पुरुष आपके युगल चरणकमलों का तिनक सा भी कृपा पररसाद पररापरत कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता है, वही आिकी सिचचदानदंमयी मिहमा का तततव जान सकता है। दस ू रा कोई भी जान वैरागयािद साधनरूप अपने पररयतरन से बहुत काल तक िकतना भी अनुसंधान करता रहे, वह आिकी मिहमा का यथाथरर जरञान नहीं पररापरत कर सकता। इसिलए भगवनर ! मुझे इस जनरम में, दस ू रे जनम मे अथवा िकसी प श -पकर ु षी आिद के जनरम में भी ऐसा सौभागरय पररापरत हो िक मैं आपके दासों में से कोई एक दास हो जाऊँ और ििर आपके चरणकमलों की सेवा करूँ। मेरे सरवामी ! जगत के बड़े-बड़े यजरञ सृिषरि के पररारमरभ से लेकर अब तक आपको पूणररतः तृपरत न कर सके। परंतु आपने वररज की गायों और गरवािलनों के बछड़े एवं बालक बनकर उनके सरतनों का ं धनय अमृत-सा दूध बड़े उमंग से िपया है। वासरतव में उनरहीं का जीवन सिल है, वे ही अतयत हैं। अहो ! नंद आिद वररजवासी गोपों के धनरय भागरय हैं वासरतव में उनका अहोभागरय है, करयोंिक परमाननरदसरवरूप सनातन पिरपूणरर बररहरम आप उनके अपने सगे समरबनरधी और सृहृद हैं। हे अचरयुत ! इन वररजवािसयों केसौभागयर की मिहमा तो अलग रही , मन आिद गरयारह इिनरदररयों के अिधषरठातृ देवता के रूप में रहने वाले महादेव आिद हम लोग बड़े ही भागरयवान हैं। करयोंिक वररजवािसयों की मन आिद गरयारह इिनरदररयों को परयाले बनाकर हम आपके चरणकमलों का अमृत से भी मीठा, मिदरा से भी मादक मधुर मकरंद का पान करते रहते हैं। जब उसका एक-एक इिनरदररय से पान करके हम धनरय-धनरय हो रहे हैं, तब समसत इिनदयो से उसका सेवन करने वाले वररजवािसयों की तो बात ही करया है। पररभो ! इस वररजभूिम केिकसी वन में और िवशेष करके गोकुल में िकसी भी योिन में जनरम हो जाने पर आपके िकसी -न-िकसी पररेमी के चरणों की धूिल अपने ऊपर पड़ ही जायेगी। पररभो ! आपके पररेमी वररजवािसयों का समरपूणरर जीवन आपका ही जीवन है। आप ही उनके जीवन के एकमातरर सवररसरव हैं। इसिलए उनकेचरणों की धूिलिमलना आपकेही चरणों की धूिलिमलना हैऔर आपकेचरणों की धूिल को तो शररितया ु ँ भी अनािद काल से अब तक ढूँढ ही रही हैं। देवताओं के भी आराधरयदेव पररभो ! इन वररजवािसयों को इनकी सेवा के बदले में आप करया िल देंगे? समरपूणरर िलों के िलसरवरूप ! आपसे बढ़कर और कोई िल तो है ही नहीं, यह सोचकर मेरा िचतरत मोिहत हो रहा है। आप उनरहें अपना सरवरूप भी देकर उऋण नहीं हो सकते। करयोंिक आपके सरवरूप को तो उस पूतना ने भी अपने समरबिनरधयों अघासुर, बकासुर आिद के साथ पररापरत कर िलया, िजसका केवल वेष ही साधरवी सरतररी का था, पर जो हृदय से महान कररूर थी। ििर िजनरहोंने अपने घर, धन, सरवजन, िपररय, शरीर, पुतरर, परराण और मन, सब कुछ आपके ही चरणों में समिपररत कर िदया है,

अनुकररम िजनका सब कुछ आपके ही िलए है, उन वररजवािसयों को भी वही िल देकर आप कैसे उऋण हो सकते हैं। सिचरचदानंदसरवरूप शरयामसुनरदर ! तभी तक राग-देि आिद दोि चोरो के समान सवररसव र अपहरण करते रहते हैं, तभी तक घर और उसकेसमबनधी कैद की तरह समबनध केबनधनो मे बाँध रखते हैं और तभी तक मोह पैर की बेिड़यों की तरह जकड़े रखता है, जब तक जीव आपका नहीं हो जाता। पररभो ! आप िव शर वके बखेड़े से सवररथा रिहत है , ििर भी अपने े े शरणागत भकतजनो को अननत आनदं िवतरण करन क -िविास क कारिवशकेसमानहीिीि ि ि ए ि ृ थ व ीिरअवतारिे िवसतार करते है। मेरे सरवामी ! बहुत कहने की आव शर यकता नहीं। जो लोग आपकी मिहमा जानते हैं , वे जानते रहें; मेरे मन, वाणी और शरीर तो आिकी मिहमा जानन म े े स विथा असमथि –है। सिचचदानदं सरवरूप शररीकृषरण ! आप सबके साकरषी हैं। इसिलए आप सब कुछ जानते हैं। आप समसरत जगत के सरवामी है। यह समरपूणरर पररपंच आप में ही िसरथत है। आपसे मैं और करया कहूँ ? अब आप मुझे सरवीकार कीिजये। मुझे अपने लोक में जाने की आजरञा दीिजए। सबके मनपरराण को अपनी रूप-माधुरी से आकिषररत करने वाले शरयामसुनरदर ! आप यदुवंशरूपी कमल को े िवकिसत करन व ा िे सू!यिपृ है। थरव पभो ी, देवता, बरराहरमण और प शु रूपसमुदरर की अिभवृिदरध करने े वािे चंदमा भी आि ही है। आि िाखिणडयो केधमिरि राित का घोर अंधकार नष करन क े ि ि ए सूयिऔरचंदमादोनोके ही समान हैं। पृथरवी पर रहने वाले राकरषसों के नषरि करने वाले आप चंदररमा, सूयरर आिद आिद समसरत देवताओं के भी परम पूजनीय हैं। भगवनर ! मैं अपने जीवनभर, महाकलरपपयररनरत आपको नमसरकार ही करता रहूँ।' ( 10.14.1-40) अनुकररम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

बररहरमािदक देवताओं दरवारा िवषरणु भगवान से असुरों का िवनाश तथा संतों की रकरषा हेतु परराथररना िकये जाने पर सवररशिकरतमान भगवान शररीकृषरण वसुदेव-देवकी केघर िुत केरि मे अवतीणरर हुए थे। एक िदन सनकािदकों, देवताओं और पजािितयो के साथ बहाजी , भूतगणो के साथ सवेशर महादेवजी, मरुदगणों के साथ देवराज इनरदरर, आिदतरयगण, आठों वसु, श अ ि रवनीकु , ऋभु मार , अंिगरा के वंशज ऋिष, गयारह रद, िवशेदेव, साधरयगण, गनधवि, अपरसराएँ, नाग, िसदरध, चारण, गुहक, ऋिष, िपतर, िवदाधर और िकनर आिद देवता मनुषय सा मनोहर वेि धारण करन व े ा ि े औरअिनशेयामसुनदर सभी लोगों का मन अपनी ओर खींचकर रमा लेने वाले भगवान शररीकृषरण के दररशन करने दािरकािुरी मे आते है तब वे पभु शीकृषण की इस पकार से सतुित करते है 'सरवामी ! कमोररं के िवकि िंदों से छूिने की इचरछावाले मुमुकरषुजन भिकरतभाव से अपने हृदय में िजन चरणकमलों का िचंतन करते रहते हैं। आपके उनरहीं चरणकमलों को हम लोगों ने अपनी बुिदरध, िनर इ दररय, परराण, मन और वाणी से साकरषातर नमसरकार िकया है। अहो ! आ शर चयररहै! अिजत ! आप माियक रज आिद गुणों में िसरथत होकर इस अिचनरतरय नामरूपातरमक पररपंच की ितररगुणमयी माया के दरवारा अपने-आप में ही रचना करते हैं, पालन करते और संहार करते हैं। यह सब करते हुए भी इन कमोररं से से आप िलपरत नहीं होते हैं; करयोंिक आप राग दरवेषािद दोषों से सवररथा मुकरत हैं और अपने िनरावरण अखणरड सरवरूपभूत परमाननरद में मगरन रहते हैं। सरतुित करने योगरय परमातरमनर ! िजन मनुषरयों की िचतरतवृितरत राग-देिािद से किुिित है, वे उिासना, वेदाधयान, दान, तिसया और यज आिद कमि भिे ही करे, परंतु उनकी वैसी शुिदरध नहीं हो सकती, जैसी शररवण के दरवारा संपुषरि शुदरधानरतःकरण सजरजन पुरुषों की आपकी लीलाकथा, कीितरर के िवषय में िदनोंिदन बढ़कर पिरपूणरर होने वाली शदा से होती है। मननशीि मुमुकुजन मोकपािपत केििए अिन प े े म स े ि ि घिे-हििये एुहृदयकदारािजनहे ििरते है , ििये पांचरातरर िविध से उपासना करने वाले भकरतजन समान ऐशव र यरर की पररािपरत के िलए वासुदेव, संकषररण, पररदरयुमरन और अिनरुदरध – इस चतुवरयूररह के रूप में िजनका पूजन करते हैं और िजतेिनरदररय और धीर पुरुष सरवगररलोक का अितकररमण करके भगवदरधाम की पररािपरत के े ििए तीनो वेदो के दारा बतिायी हईु िविध से अिन स ं य त ह ा थ ो म े हिवषयिेकरयजकुणडम

िचंतन करते हैं। आपकी आतरमसरवरूिपणी माया के िजजरञासु योगीजन हृदय के अनरतदेररश में दहरिवदरया आिद के दरवारा आपके चरणकमलों का ही धरयान करते हैं और आपके बड़े-बड़े पररेमी भकरतजन उनरहीं को अपनी परम इषरि आराधरयदेव मानते हैं। पररभो ! आपके वे ही चरणकमल हमारी समसरत अ शु भवासनाओं , िविय-वासनाओं को भसम करन क े ेििए अिगरनसरवरूप हों। वे हमारे पाप-तािो को अिगन के समान भसम कर दे। पभो ! यह भगवती लकरषरमी आपके वकरषःसरथल पर मुरझायी हुई बासी वनमाला से भी सौत की तरह सरपधारर रखती हैं। ििर भी आि उनकी िरवाह न कर भकतो के दारा इस बासी मािा से की हईु िूजा भी पेम से सवीकार करते है ; से भकतवतसि पभु के चरणकमि सविदा हमारी िविय -वासनाओं को जिान व े ा िे अिगनसवरिहो।अननत ! वामनावतार मे े ि दैतय राज बिि की दी हईु िृथवी को नािन क े , तब यह ि ए ज ब आ ि नि े गउठायाथाऔरवहसतयिोकम ऐसा जान पड़ता था मानों, कोई बहुत बड़ा िवजयधरवज हो। बररहरमाजी दरवारा चरण पखारने के बाद उससे िगरती हुई गंगाजी के जल की तीन धाराएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानों, धरवज में िगी हईु तीन िताकाए ि ह र ा न ह ी ह ो । उ न ह े देखकरअसुरोकीसेनाभय ँ यह चरणकमल साधुसरवभाव के पुरुषों के िलए आपके धाम वैकुणरठलोक की पररािपरत का और दष ु ो के ििए अधोगित का कारण है। भगवन् ! आपका वही पादपदरम हम भजन करने वालों के सारे पाप-ताि धो-बहा दे। बररहरमा आिद िजतने भी शरीरधारी हैं, वे सतव, रज, तम – इन तीनो अनुकररम गुणो केिरसिर िवरोधी ितिवध भावो की टकर से जीते -मरते रहते हैं। वे सुख-दःुख केथिेडो से बाहर नही है और ठीक वैसे ही आपके वश में हैं, जैसे नथे हुए बैल अपने सरवामी के वश में होते हैं। आप उनके िलए भी कालसरवरूप हैं। उनके जीवन का आिद, मधरय और अंत आपके ही अधीन है। इतना ही नहीं, आप पररकृित और पुरुष से भी परे सरवयं पुरुषोतरतम हैं। आपके चरणकमल हम लोगों का कलरयाण करें। पररभो ! आप इस जगत की उतरपितरत, िसरथित और पररलय के परम कारण हैं; करयोंिक शासतो न ऐ े स ा क हाहै िकआिपक , पुरुष और ृित महतरततरव के भी िनयंतररण करने वाले काल हैं। शीत, गीषम और विाकािरि तीन नािभयो वािे संवतसर के रि मे सबको कय की ओर िे जान व े ा ि े कािआिहीहै। आपकी गित अबाध और गमरभीर है। आप सरवयं पुरष ु ोतरतम हैं। यह पुरुष आपसे शिकरत पररापरत करके अमोघवीयरर हो जाता है और ििर माया के साथ संयुकरत होकर िव शर व के महतरततरवरूप गभि का सथािन करता है। इसकेबाद वह महततव ितगुणमयी माया का अनुसरण करकेिृथवी , जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार और मनरूप सात आवरणों (परतों) वािे इस सुवणि वणि बहाणड की रचना करता है। इसििए हृििकेश ! आप समसरत चराचर जगत के अधी शर वर हैं। यही कारण है िक माया की गुण -िविमता केकारण बनने वािे िविभन िदाथों का उिभोग करते हएु भी आि उनमे ििपत नही होते। यह केवि आिकी ही बात है। आिकेअितिरकत ं दस न का त य ा ग क र क े भ ी उ न िवियोसे डरते रहते है। सो ू रे तो सवय उ हैं। वे सब अपनी मंद-मंद मुसरकान और ितरछी िचतवन युकरत मनोहर भौंहों के इशारे से और सुर-ताि-आलापों से पररौढ़ समरमोहक कामबाण चलाती हैं और कामकला की िविवध रीितयों से आपका मन आकिषररत करना चाहती हैं; परंतु ििर भी वे अपने पिरपुषरि कामबाणों से आपका मन तिनक भी न िडगा सकीं, वे असिि ही रही। ो





।। आपने ितररलोकी की पापरा िकोधो बहाने के िलए दो पररकार की पिवतरर निदयाँ बहा श रखी हैं – एक तो आपकी अमृतमयी लीला से भरी कथा-नदी और दूसरी आपके पाद-पररकरषालन के जल से भरी गंगाजी। अतः सतरसंगसेवी िववेकीजन कानों के दरवारा आपकी कथा-नदी में और शरीर के दरवारा गंगाजी में गोता लगाकर दोनों ही तीथोररं का सेवन करते हैं और अपने पाप िमिा देते हैं।' ( 11.6.7-11) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

धररुव को अपने िपता उतरतानपाद की गोद में बैठने का यतरन करते हुए देख कररोिधत हुई सुरुिच ने जब धररुव से ये वचन कहे 'यिद तुझे राजिसंहासन की इचरछा है तो तपसरया करके परम-पुरष ु अनुकररम शीनारायण की आराधना कर और उनकी कृिा से मेरे गभि मे आकर जनम िे। ' तब बालक धररुव माता सुनीित के यह समझाने पर िक 'जनरम-मृतरयु के चकरर से छूिने की इचरछा करने वाले मुमुकरषु लोग िनरंतर पररभु के चरणकमलों के मागरर की खोज िकया करते हैं। तू सरवधमररपालन से पिवतरर हुए अपने िचतरत में शररीपुरुषोतरतम भगवान को िबठा ले तथा अनरय सबका िचनरतन छोड़कर केवल उनरहीं का भजन कर। धररुव पररभुपररािपरत के िलए घर से िनकल पड़ते हैं। रासरते में देविषरर नारद के िमलने पर वे उनसे 'पररभु की पररािपरत कैसे हो?', 'पररभु का धरयान कैसे करूँ?' इस पररकार केप रर शन र पूछतेहैं। नारदजी पहलेतो उनकी पररभुभिकरतकेपररितदृढ़ता , ं ि ततिरता एव ि र ि क व त ाकीिरीकािे , सवारर तेहधै।ारतदि भगवान शररेसीागर कृषरण के सलोने, ु रानतदयाक साँवले सरवरूप का वणररन कर दरवादशाकरषर मंतरर का जप करने के ं ाणोकोरोककर ििए कहते है। बािक धुव नारदजी केउिदेशानुसार अिनी इिनदयो को िवियो से हटाकर एव प , एकागरर िचतरत व अननरय बुिदरध से िव शर वातरमशा ररीहिर के धरयान में डूब जाते हैं परंतु िजस समय उनरहोंने महदािद समरपूणरर ततरवों के आधार तथा पररकृित और पुरष ु के भी अधी शर वर परबररहरम की धारणा की, उस समय तीनों लोक उनके तेज को न सह सकने के कारण काँप उठे। तीवरर योगाभरयास से एकागरर हुई बुिदरध के दरवारा भगवान की िबजली के समान देदीपरयमान िजस मूितरर का वे अपने हृदयकमल में धरयान कर रहे थे, वह सहसा िविीन हो गयी। इससे घबराकर उनरहोंने जरयों ही नेतरर खोले िक भगवान के उसी रूप को बाहर अपने सामने खड़ा पाया। े ृथवीिरदणड पररभु के दररशन पाकर बालक धररुव को कुतूहल हुआ, वे पेम मे अधीर हो गये। उनहोन ि के समान लोिकर उनरहें पररणाम िकया। ििर वे इस पररकार पररेमभरी दृिषरि से उनकी ओर देखन ि े गे म,ानो नेतररों से उनरहें पी जायेंगे, मुख से चूम लेंगे और भुजाओं में कस िेगे। वे हाथ जोडे पभु के सामन ख े ड े थ े औ रउनकीसतु , परंतु ितकरनाचाहते सरतुित िकसथपरर े कार करें यह नहीं जानते थे। सवाररनरतयाररमी हिर उनके मन की बात जान गये। उनरहोंने कृपापूवररक अपने वेदमय शंख को उनके गाल से छुआ िदया। शंख का सरपररश होते ही धररव ु को वेदमयी ं भिकतभाव से धैयििूविक िदवय वाणी पापत हो गयी और जीव तथा बहा के सवरि का भी िनिय हो गया। वे अतयत े गेः िवशिवखयात कीितिमान शीहिर की सतुित करन ि 'पररभो ! आप सवररशिकरतसमरपनरन हैं। आप ही मेरे अंतःकरण में पररवेश कर अपने तेज से मेरी इस सोयी हईु वाणी को सजीव करते है तथा हाथ, पैर, कान और तरवचा आिद अनरयानरय िनर इ दररयोंएवंपरराणोंको भी चेतनता देतेहैं। मैंआपअंतयाररमीभगवान को पररणामकरता हूँ। भगवन् ! आप एक ही हैं, परंतु अपनी अनंत गुणमयी मायाशिकरत से इस महदािद समरपूणरर पररपंच को रचकर अंतयाररमीरूप से उसमें पररवेश कर जाते हैं और ििर इसके े रि भासते है , ठीक वैसे ही िनर इ दररयािद असतर गुणों मेंउनकेअिधषरठातृ -देवताओं के रि मे िसथत होकर अनक जैसे तरह-तरह की िकिडयो मे पकट हईु आग अिनी उिािधयो के अनुसार िभन -िभन रिो मे भासती है। अनुकररम नाथ ! सृिषरि के आरमरभ में बररहरमाजी ने भी आपकी शरण लेकर आपके िदए हुए जरञान के पररभाव से ही इस जगत को सोकर उठे हुए पुरुष के समान देखा था। दीनबंधो ! उनरहीं आपके चरणतल का मुकरत पुरष ु भी आशररय लेते हैं, कोई भी कृतजरञ पुरुष उनरहें कैसे भूल सकता है? पररभो ! इन शवतुलरय शरीरोंकेदरवारा भोगा जानेवाला , िनर इ दररयऔरिवषयोंकेसंस गररसेउतरपनरनसुख तो मनुषरयोंको नरक में भी िमल सकता है। जो लोग इस िवषय सुख के िलए लालाियत रहते हैं और जो जनरम मरण के बंधन से छुड़ा देने वाले कलरपतरूसरवरूप आपकी उपासना भगवतरपररािपरत के िसवाय िकसी अनरय उदरदे शर यसे करते हैं , उनकी वृिदरध अव शर यही आपकी माया के दरवारा ठगी गयी है। नाथ ! आपके चरणकमलों का धरयान करने से और आपके भकरतों के पिवतरर चिरतरर सुनने से पररािणयों को जो आननरद पररापरत होता है, वह िनजानदंसवरि बह मे भी नही िमि सकता। ििर िजनरहें काल की तलवार काि डालती है, उन सरवगीररय िवमानों से िगरने वाले पुरुषों को तो वह सुख िमल ही कैसे सकता है।

। अननरत परमातरमनर ! मुझे तो आप उन िव शु दरधहृदय महातरमा भकरतों का संग दीिजए , िजनका आप में अिविचरछनरन भिकरतभाव है, उनके संग में मैं आपके गुणों और लीलाओं की कथा-सुधा को पी-पीकर उनरमतरत हो जाऊँगा और सहज ही इस अनेक पररकार के दुःखों से पूणरर भयंकर संसार-सागर के उस पार पहुँच जाऊँगा। ( 4.9.11) कमलनाथ पररभो ! िजनका िचतरत आपके चरणकमल की सुगंध से लुभाया हुआ है, उन महानुभावों का जो लोग संग करते हैं वे अपने इस अतरयंत िपररय शरीर और इसके समरबनरधी पुतरर, िमतरर, गृह और सती आिद की सुध भी नही िेते। अजनमा िरमेशर ! मैं तो प ,शवृु क, पवररत, े ो पकरषी, सरीसृप (सपाररिद रेंगने वाले जंतु), देवता, दैतय और मनुषय आिद से ििरिूणि तथा महदािद अनक कारणों से समरपािदत आपके इस सदसदातरमक सरथूल िव शर वरूपको ही जानता हू;ँ इससेपरेजो आपका परम सरवरूप है, िजसमें वाणी की गित नहीं है उसका मुझे पता नहीं है। भगवन् ! कलरप का अंत होने पर योगिनदररा में िसरथत जो परम पुरुष इस समरपूणरर िव शर व को अपने उदर में लीन करके शेषजी के साथ उनरहीं की गोद में शयन करते हैं तथा िजनके नािभ-समुदरर से पररकि हुए सवररलोकमय सुवणरर वणरर कमल से परम तेजोमय बररहरमाजी उतरपनरन हुए, वे भगवान आि ही है, मैं आपको पररणाम करता हूँ। पररभो ! आप अपनी अखणरड िचनरमयी दृिषरि से बुिदरध की सभी अवसरथाओं के साकरषी हैं तथा िनतयमुकत, शुदसततवमय, सवररजरञ, परमातरमसरवरूप, िनिवररकार, आिदपुरुष, िडैशयि-समरपनरन एवं तीनो गुणो केअधीशर है। आि जीव से सविथा िभन है तथा संसार की िसथित केििए यजािधषाता िवषणुरि से िवराजमान हैं। अनुकररम आपसे ही िवदरया-अिवदरया आिद िवरुदरध गितयोंवाली अनेकों शिकरतयाँ धारावािहक रूप से िनरंतर पररकि होती रहती हैं। आप जगत के कारण, अखणरड, अनािद, अननरत, आनंदमय िनिवररकार बररहरमसरवरूप हैं। मैं आपकी शरण हूँ। भगवनर ! आप परमानंदमूितरर हैं, जो लोग ऐसा समझकर िनषरकामभाव से आपका िनरनरतर भजन करते हैं, उनके िलए राजरयािद भोगों की अपेकरषा आपके चरणकमलों की पररािपरत ही भजन का सचरचा िल है। सरवािमनर ! यदरयिप बात ऐसी ही है तो भी जैसे गौ अपने तुरंत के जनरमे हुए बछड़े को दूध िपलाती है और वयाघािद से बचाती रहती है, उसी पररकार आप भी भकरतों पर कृपा करने के िलए िनरंतर िवकल रहने के कारण हम जैसे सकाम जीवों की भी कामना पूणरर करके उनकी संसार-भय से रका करते रहते हैं।' ( 4.9.6-17) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

े जब राजा पृथु सौवां अ शर वमेध यजरञ कर रहे थे , तब इनद न ई ष य ा वशउनकेयजकाघोडाह े े ििएत ििया। इनद की इस कुचाि का िता िगन ि े र म ह ा र ा ज ि ृ थ ु इ नदकावधकरनक उनरहें रोक िदया और इनरदरर को अिगरन में हवन करने का वचन िदया। याजक कररोधपूवररक इनरदरर का आवाहन कर सरतररुवा दरवारा आहुित डालना ही चाहते थे िक बररहरमाजी ने पररकि होकर उनरहें रोक िदया और कहा िक महाराज पृथु के िननरयानवें ही यजरञ रहने दो। पृथु के िननरयानवें यजरञों से यजरञभोकरता यजरञे शर वरभगवान िवषरणुजी संतुषरि हुए और पररकि होकर राजा से इनरदरर को करषमा करने के िलए कहा। इनरदरर अपने कमरर से िििजत होकर राजा िृथु केचरणो मे िगरना ही चाहते थे िक राजा न उ े न ह े पेमिूविकहृदयसेिगाििया। ििर महाराज पृथु नेिव शर वातमा ,र भकतवतसि भगवान का िूजन िकया और कण-करषण में उमड़ते हुए भिकतभाव मे िनमगन होकर पभु के चरणकमि िकड ििए। शी हिर वहा से जाना चाहते थे िकंतु िृथु के पित जो उनका े ोमे जिभ वातसलयभाव था उसन उ े न ह े र ो कि ि य ा । मह ा र ा जिृथु बीनत

कर सके और न कणरठ गदगद हो जाने के कारण कुछ बोल ही सके। उनरहें हृदय से आिलंगन े ो केआँसू िोछकर अतृपत कर पकड़े रहे और हाथ जोड़े जरयों-के-तयो खडे रह गये। ििर महाराज िृथु नत े गेः दिृष से उनकी ओर देखते हएु इस पकार सतुित करन ि 'मोकरषपित पररभो ! आप वर देने वाले बररहरमािद देवताओं को भी वर देने में समथरर हैं। कोई भी बुिदरधमान पुरुष आपसे देहािभमािनयों के भोगने योगरय िवषयों को कैसे माँग सकता है? वे तो नारकीय जीवो को भी िमिते है। अतः मै इन तुचछ िवियो को आिसे नही मागता। अनुकररम ।। । ।। मुझे तो उस मोकरषपद की भी इचरछा नहीं है िजसमें महापुरुषों के हृदय से उनके मुख दरवारा िनकला हुआ आपके चरणकमलों का मकरनरद नहीं है, जहाँ आपकी कीितरर-कथा सुनने का सुख नहीं िमलता। इसिलए मेरी तो यही परराथररना है िक आप मुझे दस हजार कान दे दीिजए, िजनसे मैं आपके लीलागुणों को सुनता ही रहूँ। पुणरयकीितरर पररभो ! आपके चरणकमल-मकरनरदरूपी अमृतकणों को लेकर महापुरुषों के मुख से जो वायु िनकलती है, उसी में इतनी शिकरत होती है िक वह ततरतरव को भूले हुए हम कुयोिगयों को पुनः ततरतरवजरञान करा देती है। अतएव हमे दस ू रे वरो की कोई आवशयकता नही है। ( 4.20.24.25) उतरतम कीितरर वाले पररभो ! सतरसंग में आपके मंगलमय सुयश को दैववश एक बार भी सुन लेने पर कोई प शु बुिदरधपुरुष भले ही तृपरत हो जाये ; गुणगाही उसे कैसे छोड सकता है ? सब पररकार के पुरुषाथोररं की िसिदरध के िलए सरवयं लकरषरमी जी भी आपके सुयश को सुनना चाहती हूँ। अब लकरषरमीजी के समान मैं भी अतरयनरत उतरसुकता से आप सवररगुणधाम पुरुषोतरतम की सेवा ही करना चाहता हूँ। िकंतु ऐसा न हो िक एक ही पित की सेवा पररापरत करने की होड़ होने के कारण आपके चरणों में ही मन को एकागरर करने वाले हम दोनों में कलह िछड़ जाये। जगदी शर वर ! जगजरजननी लकरषरमी जी के हृदय में मेरे पररित िवरोधभाव होने की संभावना तो है ही; करयोंिक आपके िजस सेवाकायरर में उनका अनुराग है, उसी के िलए मैं भी लालाियत हूँ। िकंतु आप दीनों पर दया करते हैं, उनके तुचरछ कमोररं को भी बहुत करके मानते हैं। इसिलए मुझे आशा है िक हमारे झगड़े में भी आप मेरा ही पकरष े व र ि िेगे। आि तो अिन स मे, हआपको ीरमणकरते भला है लकरषरमीजी से भी करया लेना है। इसी से िनषरकाम महातरमा जरञान हो जाने के बाद भी आपका भजन करते हैं। आप माया के कायरर अहंकारािद का सवररथा अभाव है। भगवनर ! मुझे तो आपके चरणकमलों का िनरंतर िचंतन करने से िसवा सतरपुरुषों का कोई और पररयोजन ही नहीं जान पड़ता। मैं भी िबना िकसी इचरछाकेआपका भजन करता हूँ। आपनेजो मुझसेकहािक'वर माग' सो आपकी इस वाणी को तो मैं संसार की मोह में डालने वाली ही मानता हूँ। यही करया, आपकी वेदरूपा वाणी ने भी तो जगत को बाँध रखा है। यिद उस वेदवाणीरूप रसरसी से लोग बँधे न होते तो वे मोहवश सकाम कमरर करयों करते? पररभो ! आपकी माया से ही मनुषरय अपने वासरतिवक सरवरूप आपसे िवमुख होकर अजरञानवश अनरय सरतररी-पुतररािद की इचरछा करता है। ििर भी िजस पररकार िपता पुतरर की परराथररना की अपेकरषा न रखकर अपने-आप ही पुतरर का कलरयाण करता है, उसी पररकार आप भी हमारी इचरछा की अपेकरषा न करके हमारे िहत के िलए सरवयं ही पररयतरन करें।' अनुकररम ( 4.20.23-31) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

राजा पृथु के पररपौतरर परराचीनबिहरर ने बररहरमाजी के कहने से समुदरर की कनरया शतदिु त से िववाह िकया था। शतदिुत केगभि से पाचीनबिहि केपचेता नाम केदस िुत हएु। वे सब बडे ही धमिज तथा एक से नाम और आचरणवाले थे। िपता दरवारा सनरतानोतरपितरत का आदेश िदये जाने पर वे सब े तिसया करते हएु शीहिर की आराधना की। घर से तिसया करन क े ि ि एज ा ते समयमागिमेशीमहादेवज देकर कृिािूविक उिदेश िदया और सतोत सुनाया। वह नारायण -परायण करूणादररररहृदय भगवान रूदरर दरवारा की गयी शीहिर की ििवत, मंगलमयी एवं कलरयाणकारी सरतुित इस पररकार से हैः 'भगवन् ! आपका उतरकषरर उचरचकोिि के आतरमजरञािनयों के कलरयाण के िलए, िनजाननरद िाभ के ििए है , उससे मेरा भी कलरयाण हो। आप सवररदा अपने िनरितशय परमानंद -सरवरूप में ही िसरथत रहते हैं, ऐसे सवाररतरमक आतरमसरवरूप आपको नमसरकार है। आप पदरमनाभ (समसरत िोको के आिदकारण ) हैं; भूतसूकम (तनमात) और इिनरदररयों के िनयंता, शात, एकरस और सरवयंपररकाश वासुदेव (िचतरत के अिधषरठाता) भी आि ही है; आपको नमसरकार है। आप ही सूकरषरम (अवरयकरत), अननरत और मुखािगरन के दरवारा समरपूणरर लोकों का संहार करने वाले अहंकार के अिधषरठाता संकषररण तथा जगत के पररवृषरि जरञान के उदगमसरथान बुिदरध के अिधषरठाता पररदरयुमरन हैं, आपको नमसरकार है। आप ही इिनरदररयों के सरवामी, मनसरततरतरव के अिधषरठाता भगवान अिनरद है; आपको बार-बार नमसरकार है। आप अपने तेज से जगत को वरयापरत करने वािे सूयिदेव है, पूणरर होने के कारण आपमें वृिदरध और करषय नहीं होता; आपको नमसरकार है। आप सरवगरर और मोकरष के दरवार तथा िनरंतर पिवतरर हृदय में रहने वाले हैं, आपको नमसरकार है। आप ही सुवणरररूप वीयरर से युकरत और चातुहोररतरर कमरर के साधन तथा िवसरतार करने वाले अिगरनदेव हैं; आपको नमसरकार है। आप िपतर और देवताओं के पोषक सोम हैं तथा तीनों वेदों के अिधषरठाता हैं; हम आपको नमसरकार करते हैं। आप ही समसरत पररािणयों को तृपरत करने वाले सवरररस (जल) रूप हैं; आपको नमसरकार है। आप समसरत पररािणयों के देह, पृथव र ी और िवरािसरवरूप हैं तथा ितररलोकी की रकरषा करने वाले मानिसक, ऐंिदररय और शारीिरक गुण शबरद के दरवारा समसरत पदाथोररं का जरञान कराने वाले तथा बाहरभीतर का भेद करन व े ा ि े आक ा शह ै त थ ा आिहीमहानिु -वैकुणठािदणयोसे िोकपापतहोनव है ; े ािे िरमतेजोम आपको पुनः-पुनः नमसरकार है। आप िपतृलोक की पररािपरत कराने वाले पररवृितरत-कमरररूप और देविोक की पािपत के साधन िनवृित -कमरररूप हैं तथा आप ही अधमरर के िलसरवरूप दुःखदायक अनुकररम मृतरयु हैं; आपको नमसरकार है। नाथ ! आप ही पुराणपुरुष तथा सांखरय और योग के अधी शर वरभगवान शररीकृषरण हैं , आप सब पररकार की कामनाओं की पूितरर के कारण, साकरषातर मंतररमूितरर और महान धमररसरवरूप हैं; आपकी जरञानशिकरत िकसी भी पररकार कुिणरठत होने वािी नही है, आपको नमसरकार है, नमसरकार है। आप ही कतारर, करण और कमरर इन तीनों शिकतयो के एकमात आशय है ; आप ही अहंकार के अिधषरठाता रूदरर हैं; आप ही जरञान और िकररयासरवरूप हैं तथा आपसे ही परा, प शर यनर, तमधर ी यमा और वैखरी इन चार पररकार की वािणओं की अिभवयिकत होती है; आपको नमसरकार है। पररभो ! हमें आपके दररशनों की अिभलाषा है, अतः आपके भकरतजन िजसका पूजन करते हैं और जो आपके िनज जनों को अतरयंत िपररय है अपने उस अनूप रूप की आप हमें झाँकी कराइये। आपका वह रूप अपने गुणों से समसरत इिनरदररयों को तृपरत करने वाला है। वह विाकािीन मेघ के समान िसनगध , शयाम और समिूणि सौनदयों का सार-सवररसरव है। सुनरदर चार िवशाल े , सुनरदर भौंहे सुघड़ नािसका, मनमोिहनी भुजाए म कमलारिवनददि के समान नत ँ हामनोहर,मुख ं ििंकत, अमोल कपोलयुकरत मनोहर शोभाशाली समान कणरर-युगल हैं। पररीितपूणरर उनरमुकरत हासरय दत ितरछी िचतवन, काली-काली घुँघराली अलकें, कमलकुसुम की समान िहराता हुआ पीतामरबर, िझलिमलाते हुए कुणरडल, चमचमाते हुए मुकुि, कंगन (कंकण), हार, नूपुर और मेखला आिद िविचत आभूिण तथा शंख, चकरर, गदा, पदरम, वनमािा और कौसतुभ मिण केकारण उसकी अिूवि शोभा है। उसकेिसंह के समान सरथूल कंधे हैं, िजन पर हार, केयूर एवं कुणरडलािद की कांित िझलिमलाती रहती है, तथा कौसतुभ मिण की काित से सुशोिभत मनोहर गीवा है। उसका शयामि वकःसथि शीवतस िचह केरि मे िकमी जी का िनतरय िनवास होने के कारण कसौिी की शोभा को भी मात करता है। उसका ितररवली से

सुशोिभत पीपल के पतरते के समान सुडौल उदर शरवास के आने-जाने से िहलता हुआ बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है। उसमें जो भँवर के समान चकरकरदार नािभ है, वह इतनी गहरी है िक उससे उतरपनरन हुआ यह िव शर व मानों , ििर उसी मेंलीन होना चाहता है। शरयाम वणररकििभाग मेंपीतामबर र और सुवणरर की मेखला शोभायमान है। समान और सुनरदर चरण, िपंडली, जाँघ और घुिनों के कारण आपका िदवरय िवगररह बड़ा ही सुघड़ जान पड़ता है। आपके चरणकमलों की शोभा शरदर ऋतु के कमलदल की कांित का भी ितरसरकार करती है। उनके नखों से जो पररकाश िनकलता ं शयसवरिउसी है, वह जीवो केहृदयानधकार को ततकाि नष कर देता है। हमे आि कृिा करकेभकतो केभयहारी एव आ रूप का दररशन कराइये। जगदगुरो ! हम अजरञानावृत पररािणयों को अपनी पररािपरत का मागरर बतलानेवाले आप ही हमारे गुरु हैं। अनुकररम । ।। । ।। पररभो ! िचतरत शु िदरधकी अिभलाषा रखने वाले पुरुष को आपके इस रूप का िनरंतर धरयान करना चािहए, इसकी भिकरत ही सरवधमररका पालन करनेवालेपुरष ु को अभय करनेवाली है। सरवगरर का े शासन करन व ा ि ा इ न दभ ी आ ि क ो ह ी ि ा न ाचाहताहै तथािवशुद आ सभी देहधािरयों के िलए अतरयंत दुलररभ हैं; केवल भिकरतमान पुरुष ही आपको पा सकते हैं। ( 4.24.53.54) सतरपुरुषों के िलए भी दुलररभ अननरय भिकरत से भगवान को पररसनरन करके, िजनकी पररसनरनता िकसी अनरय साधना से दुःसाधरय है, ऐसा कौन होगा जो उनके चरणतल के अितिरकरत और कुछ चाहेगा। जो काल अपने अदमरय उतरसाह और पराकररम से िड़कती हुए भौह केइशारे से सारे संसार का संहार कर डािता है , वह भी आिकेचरणो की शरण मे गये हएु पाणी िर अिना अिधकार नहीं मानता। ऐसे भगवान के पररेमी भकरतों का यिद आधे करषण के िलए भी समागम हो जाय तो उसके सामन म े ै स व ग ि औरमोककोक ; ििर मतरयररलोक केतुचरछ भोगों की तो बात ही करया है। पररभो ! ुछ नहीसमझता आपके श चरण समरपूणरर पापरा िकोहर लेने वाले हैं। हम तो केवल यही चाहते हैं िक िजन लोगों ने आपकी कीितरर और तीथरर (गंगाजी) में आनरतिरक और बाहरय सरनान करके मानिसक और शारीिरक दोनों पररकार के पापों को धो डाला है तथा जो जीवों के पररित दया , राग-देिरिहत िचत तथा सरिता आिद गुणो से युकत है , उन आपके भकरतजनों का संग हमें सदा पररापरत होता रहे। यही हम पर आपकी बड़ी कृपा होगी। िजस साधक का िचतरत भिकरतयोग से अनुगृहीत एवं िव शु दरध होकर न तो बाहरय िवषयों में भिकता है और न अजरञान -गुहारि पकृित मे ही िीन होता ं मिूणि है, वह अनायास ही आिकेसवरि का दशिन िा जाता है। िजसमे यह सारा जगत िदखायी देता है और जो सवय स जगत में भास रहा है, वह आकाश केसमान िवसतृत और िरम पकाशमय बहतततव आि ही है। भगवान ! आपकी माया अनेक पररकार के रूप धारण करती है। इसी के दरवारा आप इस पररकार जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं जैसे यह कोई सद वसरतु हो। िकंतु इससे आपमें िकसी पररकार का िवकार नहीं आता। माया के कारण दूसरे लोगों में ही भेदबुिदरध उतरपनरन होती है, आप परमातरमा पर वह अपना पररभाव डालने में असमथरर होती है। आपको ं भूत , िनर ते हम िरम सवतनत ही समझते है। आिका सवरि िच इ दररयऔर अंतःकरण केपररेरक रू प सेउपल िकरषतहोता है। े जो कमररयोगी पुरुष िसिदरध पररापरत करने के िलए तरह-तरह क कमों दारा आिके इस सगुण , साकारसरवरूप का शररदरधापूवररक भलीभाँित पूजन करते हैं, वे ही वेद और शासतो केसचचे ममिज है। पभो ! आप ही अिदरवतीय आिदपुरुष हैं। सृिषरि के पूवरर आपकी मायाशिकरत सोयी रहती है। ििर उसी के दरवारा सतरतरव, रज और तमरूप गुणों का भेद होता है और इसके बाद उनरहीं गुणों से महतरततरतरव, अहंकार, आकाश, वायु, अिगरन, जल, पृथव र ी, देवता, ऋिष और समसरत पररािणयों से युकरत इस जगत की उतरपितरत होती है। अनुकररम ििर आप अपनी मायाशिकरत सेरचेहुए इन जरायुज, अणरडज, सरवेदज और उदिभजरज भेद से चार पररकार मधुमिकरखयाँ अपने ही उतरपनरन िकये हुए मधु का आसरवादन करती हैं, उसी पररकार वह

आपका अंश उन शरीरों में रहकर इिनरदररयों के दरवारा इन तुचरछ िवषयों को भोगता है। आपके उस अंश को ही पुरुष या जीव कहते हैं। पररभो ! आपका ततरतरवजरञान पररतरयकरष से नहीं, अनुमान से होता है। पररलयकाल उपिसरथत होने पर कालसरवरूप आप ही अपने पररचणरड एवं असहरय वेग से पृथरवी आिद भूतों को अनरय भूतों से िवचिलत कराकर समसरत लोकों का संहार कर देते हैं। जैसे वायु अपने असहनीय एवं पररचणरड झोंकों से मेघों के दरवारा ही मेघों को िततर-िबतर करके नषरि कर डालती है। भगवनर ! यह मोहगररसरत जीव पररमादवश हर समय इसी िचंता में रहता है िक 'अमुक कायरर करना है।' इसका लोभ बढ़गया हैऔर इसेिवषयोंकी ही लालसा बनी रहती है। िकंतु आप सदा ही सजग रहते हैं; भूख से जीभ ििििाता हआ ु सिि जैसे चूहे को चट कर जाता है , उसी पररकार आप अपने कालसरवरूप से उसे सहसा लील जाते हैं। आपकी अवहेलना करने के कारण अपनी आयु को वरयथरर माननेवाला ऐसा कौन िवदरवान होगा, जो आपके चरणकमलों को िबसारेगा? इनकी पूजा तो काल की आशंका सेही हमारेिपता बररहमर ाजी और सरवायमरभुव आिद चौदह मनुओंनेभी िबना कोई िवचार िकये केवल शररदरधा से ही की थी। बररहरमन ! इस पररकार सारा जगत रू दरररूप काल केभय सेवरयाकुल है। अतः परमातरमनर ! इस ततरतरव को जाननेवालेहमलोगोंकेतो इस समय आपही सवररथाभय शू नरयआशररयहैं।' ( 4.24.33-68) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

श परमभकरत पररहरलाद के कररूर िपता िहरणरयक ि प ु क ो नृिसंह भगवान ने नखरूपी शसरतररों दरवारा िवदीणरर कर डाला परंतु ििर भी उनका उगरर कोप शांत नहीं हो रहा था। े ि ि ए ि क मीजीसे देवताओं न उ े न ह े श ा त क र नके , ततििात् पाथिनाकीिकंतु वे भीभगव बररहरमाजी ने भकरतराज पररहरलाद को भेजा। भकरत पररहरलाद शरणागतवतरसल भगवान के पास जाकर हाथ जोड़ पृथरवी पर साषरिांग लोि गये। ननरहें-से बालक को अपने चरणों में नतमसरतक देखकर पररभु का उगरर कोप शांत हो गया। उनरहोंने पररहरलाद को उठाकर जैसे ही अपना करकमल उनके िसर पर रखा, भकत पहाद को िरमातमतततव का साकातकार हो गया। उनके हदृ य मे पेम की धारा पररवािहत होने लगी और नेतररों से आनंदाशररु झरने लगे। वे पररभु के गुणों का िचनरतन करते हुए गदगद वाणी से भावपूवररक शररीहिर की इस पररकार से सरतुित करने लगेः अनुकररम 'बररहरमा आिद देवता, ऋिष-मुिन और िसदरधपुरुषों की बुिदरध िनरनरतर सतरतरवगुण में ही िसरथत रहती है। ििर भी वे अपनी धारापररवाह सरतुित और अपने िविवध गुणों से आपको अब तक भी संतुष नही कर सके, ििर मैंतो घोर असुर जाित मेंउतरपनरनहुआ हूँ। करया आपमुझसेसनरतुषिहो र सकतेहै?ं मैं समझता हूँ िक धन, कुलीनता, रूप, ति िवदा, ओज, तेज, पररभाव, बल, पौरूष, बुिदरध और योग ये सभी गुण परम पुरुष भगवान को संतुषरि करने में समथरर नहीं हैं, परंतु भिकरत से तो भगवान गजेनद िर भी संतुष हो गये थे। मेरी समझ से इन बारह गुणो से युकत बाहण भी यिद भगवान कमिनाभ के चरणकमलों से िवमुख हो तो उससे वह चाणरडाल शररेषरठ है, िजसने अपने, मन, वचन, कमरर, धन और परराण भगवान के चरणों में समिपररत कर रखे हैं, करयोंिक वह चाणरडाल तो अपने कुल तक को पिवतरर कर देता और बड़परपन का अिभमान रखनेवाला वह बरराहरमण अपने को भी पिवतरर नहीं कर सकता। सवररशिकरतमान पररभु अपने सरवरूप के साकरषातरकार से ही पिरपूणरर हैं। उनरहें अपने िलए करषुदरर पुरुषों से पूजा गररहण करने की आव शर यकतानहीं है। वे करूणावश ही भोले भकरतों के िहत के िलए उनके दरवारा की हुई पूजा सरवीकार कर लेते हैं। जैसे अपने मुख का सौनरदयरर दपररण में िदखनेवाले पररितिबमरब को भी सुनरदर बना देता है, वैसे ही भकत भगवान के पित जो -जो समरमान पररकि करता है, वह उसे ही पापत होता है। इसििए सविथा अयोगरय और अनिधकारी होने पर भी मैं िबना िकसी शंका के अपनी बुिदरध के अनुसार सब पररकार से भगवान की मिहमा का वणररन कर रहा हूँ। इस मिहमा के गान का ही ऐसा पररभाव है िक अिवदरयावश संसारचकरर में पड़ा हुआ जीव ततरकाल पिवतरर हो जाता है। भगवन् ! आप सतरतरव गुण के आशररय हैं। ये बररहरमा आिद सभी देवता आपके आजरञाकारी भकरत हैं। ये हम दैतरयों की तरह आपसे दरवेष नहीं करते। पररभो ! आप बड़े-

बड़े सुनरदर अवतार लेकर इस जगत के कलरयाण एवं अभरयुदय के िलए तथा उसे आतरमानंद की पररािपरत कराने के िलए अनेकों पररकार की लीलाएँ करते हैं। िजस असुर को मारने के ििए आिन क े ोधिकयाथा , वह मारा जा चुका है। अब आि अिना कोध शात कीिजए। जैसे िबचछू और साि की मृतयु से सजरजन भी सुखी ही होते हैं, वैसे ही इस दैतय संहार से सभी िोगो को बडा सुख िमिा है। अब सब आिकेशात े सरवरूप के दररशन की बाि जोह रहे हैं। नृिसंहदेव ! भय से मुकत होन क े ि ि एभकतजनआिकेइसर का सरमरण करेंगे। । ोो ो ।। परमातरमनर ! आपका मुख बड़ा भयावना है। आपकी जीभ लपलपा रही है। आँखें सूयरर के समान हैं। भौहें चढ़ी हुई हैं। दढ़ें बड़ी पैनी हैं। आँतों की माला, गरदन केबाि खून से लथपथ, बछेरर की तरह सीधे खड़े कान और िदगरगजों को भी भयभीत देने वाला िसंहनाद एवं शतररुओं को िाड़ डालने वाले आपके इन नखों को देखकर मैं तिनख भी भयभीत नही हआ ु हूँ। अनुकररम ( 7.9.15) दीनबनधो ! मैं भयभीत हूँ तो केवल इस असहरय और उगरर संसारचकरर में िपसने से। मैं अपने कमररपाशों से बँधकर इन भयंकर जंतुओं के बीच में डाल िदया गया हूँ। मेरे सरवामी ! आप पररसनरन होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलों में बुलायेंगे, जो समसरत जीवों की एकमातरर शरण और मोकरषसरवरूप हैं। अननरत ! मैं िजन-िजन योिनयों में गया, उन सभी योिनयों में िपररय के िवयोग और अिपररय क संयोग से होने वाले शोक की आग में े े झुलसता रहा। उन दुःखों को िमिाने की जो दवा है, वह भी दःुखरि ही है। मै न जान क े ब से अिनस अितिरकरत वसरतुओं को आतरमा समझकर इधर-उधर भिक रहा हूँ। अब आप ऐसा साधन बतलाइये िजससे िक आपकी सेवा-भिकत पापत कर सकू। ँ पभो ! आप हमारे िपररय हैं, अहेतुक िहतैषी सुहृद हैं। आप री वासरतव में सबके परमाराधरय हैं। मैं बररहरमाजी के दरवारा गायी हुई आपकी िीिा-कथाओं का गान करता हुआ बड़ी सुगमता से रागािद परराकृत गुणों से मुकरत होकर इस संसार की किठनाइयों को पार कर जाऊँगा, करयोंिक आपके चरणयुगलों में रहने वाले ं महातमाओं का संग तो मुझे िमिता ही रहेगा। भगवान नृिसंह ! इस लोक मेंदुःखी जीवोंका दुःखिमिानेके भकत िरमहस ििए जो उिाय माना जाता है, वह आिकेउिेका करन ि े र ए क क ण क े ि ि एहीहोताहै -बाप बालक ।यहातकिकमा की रकरषा नहीं कर सकते, औषिध रोग नहीं िमिा सकती और समुदरर में डूबते हुए को नौका नहीं बचा सकती। ।

।। सतरतरवािद गुणों के कारण िभनरन-िभन सवभाव के िजतन भ े ी ब ह ा ि द, शेषऔरकािािदक उनको पररेिरत करने वाले आप ही हैं। वे आपकी पररेरणा से िजस आधार में िसरथत होकर, िजस िनिमतरत से, िजन िमिरिी आिद उपकरणों से, िजस समय, िजन साधनों के दरवारा, िजस अदृषरि आिद की सहायता से, िजस पररयोजन के उदरदे शर य से , िजस िविध से, जो कुछ उतरपनरन करते हैं या रूपानरतिरत करते हैं, वे सब और वह सब आिका ही सवरि है। ( 7.9.20) पुरुष की अनुमित से काल के दरवारा गुणों में करषोभ होने पर माया मनःपररधान ििंगशरीर का िनमाण करती है। यह ििंग शरीर बिवान, कमररमय एवं अनेक नाम-रूपों में आसकरत छंदोमय है। यही अिवदरया के दरवारा किलरपत मन, दस इिनदय और िाच तनमाता – इन सोिह िवकाररि

अरों से युकरत संसार चकरर में डालकर ईख के समान मुझे पेर रही है। आप अपनी चैतनरयशिकरत से बुिदरध के समसरत गुणों को सवररदा परािजत रखते हैं और कालरूप से समरपूणरर साधरय और साधनों को अपने अधीन रखते हैं। मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे इनसे बचाकर अपनी सिनरनिध में खींच लीिजए। भगवनर ! िजनके िलए संसारी लोग बड़े लालाियत रहते हैं, सरवगरर में िमलनेवाली समसरत लोकपालों की वह आयु, िकमी और ऐशरवयरर मैंने खूब देख िलए। िजस समय मेरे िपता अनुकररम तिनक कोध करकेहस ँ ते थे और उससे उनकी भौंहें थोड़ी िेढ़ी हो जाती थीं, तब उन सवगि की समिितयो केििए कही िठकाना नही रह जाता था। वे िुटती ििरती थी िकंतु आिन म े े र े उ न ि ित ा क ोभीमारडािा।इसििएमै , िकमी, ऐशव र यरर बहिोकतककी और वे इिनरदररयभोग, िजनरहें संसार के परराणी चाहा करते हैं, नहीं चाहता, करयोंिक मैं जानता हूँ िक अतरयंत शिकरतशाली काल का रूप धारण करके आपने उनरहें गररस रखा है। इसिलए मुझेआप अपनेदासों की सिनरनिध मेंलेचिलए। िवषयभोग की बातेंसुननेमेंही अचरछी लगती,हैवासतव ं मे वे मृगतृषरणा के जल के समान िनतानरत असतरय हैं और यह शरीर भी, िजससे वे भोग भोगे जाते हैं अगिणत रोगों का उदगम सरथान है। कहाँ वे िमथरया िवषयभोग और कहाँ यह रोगयुकरत शरीर ! इन दोनोंकी करषणभंगुरता और असारता जानकर भी मनुषरय इनसेिवरकरत नहींहोता। वह किठनाई से पररापरत होने वाले भोग के ननरहें-ननरहे मधुिबंदुओं से अपनी कामना की आग बुझाने की चेषरिा करता है। पररभो ! कहाँ तो इस तमोगुणी असुरवंश में रजोगुण से उतरपनरन हुआ मैं और कहाँ आपकी अननरत कृपा ! धनरय है ! आपने अपना परम पररसादसरवरूप और सकल सनरतापहारी वह करकमल मेरे िसर पर रखा है, िजसे आपने बररहरमा, शंकर और िकमीजी के िसर पर भी कभी नहीं रखा। दूसरे संसारी जीवों के समान आपमें छोिे-बड़े का भेदभाव नहीं है करयोंिक आप सबके आतरमा और अकारण पररेमी हैं। ििर भी कलरपवृकरष के समान आपका कृपा-पररसाद भी सेवन-भजन से ही पापत होता है। सेवा के अनुसार ही जीवो िर आिकी कृिा का उदय होता है , उसमें जाितगत उचरचता या नीचता कारण नहीं है। भगवनर ! यह संसार एक ऐसा अँधेरा कुआँ है, िजसमें कालरूपी सपरर डँसने के िलए सदा तैयार रहता है। िवषयभोगों की इचरछावाले पुरुष उसी में िगरे हुए हैं। मैं भी संगवश उनके पीछे उसी में िगरने जा रहा था परंतु े अिनाकरबचाििया।तबभिा भगवन् ! देवििि नारद न म े ु झ , मैं आपके भकरतजनों की सेवा कैसे छोड़ा सकता हूँ। अननरत ! िजस समय मेरे िपता ने अनरयाय करने के िलए कमर कसकर हाथ में खडरग ले िलया और कहने लगे िक 'यिद मेरे िसवा कोई और ई शर वरहै तो तुझे बचा िे, मैं तेरा िसर कािता हूँ' उस समय आपने मेरे परराणों की रकरषा की और मेरे िपता का वध िकया। मै तो समझता हूँ िक आिने -अपने पररेमी भकरत सनकािद ऋिषयों का वचन सतरय करने के ििए ही वैसा िकया था। भगवन् ! यह समरपूणरर जगत एकमातरर आप ही हैं करयोंिक इसके आिद में आप ही कारणरूप से थे, अंत में आप ही अविध के रूप में रहेंगे और बीच में इसकी पररतीित के रूप में भी केवल आप ही हैं। आप अपनी माया से गुणों के पिरणामसरवरूप इस जगत की सृिषरि करके इसमें पहले से िवदरयमान रहने पर भी पररवेश की लीला करते हैं और उन े मािूम िड रहे है। भगवान ! यह जो कुछ कायरर-कारण के रूप में पररतीत हो रहा गुणो से युकत होकर अनक है, वह सब आि ही है और इससे िभन भी आि ही है। अिने -पराये का भेदभाव तो अथररहीन शबरदों की माया है, करयोंिक िजससे िजसका जनरम, िसरथित, िय और पकाश होता है, वह उसका सवरि ही होता है। जैसे, बीज और वृकरष कारण और कायरर की दृिषरि से िभनरन-िभन है, तो भी गंध-तनमात की दिृष से दोनो एक ही हैं। अनुकररम भगवन् ! आप इस समरपूणरर िव शर व को सरवयं ही अपने में समेिकर आतरमसुख का अनुभव करते हुए िनिषरकररय होकर पररलयकालीन जल में शयन करते हैं। उस समय अपने सरवयंिसदरध योग के दरवारा बाहरय दृिषरि को बंद कर आप अपने सरवरूप के पररकाश में िनदररा को िवलीन कर लेते हैं और तुरीय बररहरमपद में िसरथत रहते हैं। उस समय आप न तो तमोगुण से ही युकत होते और न तो िवियो को ही सवीकार करते है। आि अिनी कािशिकत से पकृित के गुणो को पेिरत करते हैं, इसिलए यह बररहमर ाणडर आपका ही शरीर है। पहलेयह आपमेंही लीन था । जब पररलयकालीन जल केभीतर े ोगिनदाकीसमािधतयागदी शेिशयया िर शयन करन व े ा ि े आ िनय , तब वट केबीज िवशाि वृक केसमान आिकी नािभ से

बररहरमाणरड कमल उतरपनरन हुआ। उस पर सूकरषरमदशीरर बररहरमाजी पररकि हुए। जब उनरहें कमल के े ी िसवा और कुछ भी िदखायी न पड़ा, तब वह अिन ब ज रि स े व य ा पतआिकोवेनजानसकेऔ बाहर समझकर जल के भीतर घुसकर सौ वषरर तक ढूँढते रहे। परंतु वहाँ उनरहें कुछ नहीं िमला। यह ठीक ही है, करयोंिक अंकुर उग आने पर उसमें वरयापरत बीज को कोई बाहर अलग कैसे देख सकता है। बररहरमाजी को बड़ा आ शर चयररहुआ। वे हार कर कमल पर बैठ गये। बहुत समय बीतने पर जब उनका हृदय शुदरध हो गया, तब उनहे भूत, िनर इ दररयऔर अंतःकरण रू प अपनेशरीर में ही ओतपररोत रूप से िसरथत आपके सूकरषरमरूप का साकरषातरकार हुआ। ठीक वैसे ही जैसे पृथरवी में वरयापरत उसकी सूकरषरम तनरमातररा गनरध का होता है। िवराट िुरि सहसो मुख, चरण, िसर, हाथ, जंघा, नािसका, मुख, कान, नेतरर, आभूषण और आयुधों से समरपनरन था। चौदह लोक उनके िविभनरन अंगों के रूप में शोभायमान थे। वह भगवान की एक िीिामयी मूिति थी। उसे देखकर बहाजी को बडा आनदं हआ ु । रजोगुण और तमोगुण रि मधु और कैटभ े यगीवअवतार नाम के दो बड़े बलवान दैतरय थे। जब वे वेदों को चुराकर ले गये, तब आिन ह ं िपय गहण िकया और उन दोनो को मारकर सततवगुणरि शुितया बहाजी को िौटा दी। वह सततवगुण ही आिका अतयत शरीर है – महातमा िोग इस पकार वणिन करते है। िुरिोतम ! इस पररकार आप मनुषरय, प श -पकर ु षी, ऋिष, देवता और मतरसरय आिद अवतार लेकर लोकों का पालन िकया तथा िव शर व के दररोिहयों का संहार करते हैं। इन अवतारों के दरवारा आप पररतरयेक युग में उसके धमोररं की रकरषा करते हैं। किलयुग में आप िछपकर गुपरत रूप से ही रहते हैं, इसीिलएआपका एक नाम'ितयुग' भी है। वैकुणठनाथ ! मेरे मन की बड़ी दुदररशा है। वह पाप-वासनाओं से तो किुिित है ही, सरवयं भी अतरयंत दुषरि है। वह पररायः ही कामनाओं के कारण आतुर रहता है और हषरर-शोक, भय, िोकपरलोक, धन, पतरनी, पुतरर आिद की िचंताओं से वरयाकुल रहता है। इसे आपकी लीला-कथाओं में तो रस ही नहीं िमलता। इसके मारे मैं दीन हो रहा हूँ। ऐसे मन से मैं आपके सरवरूप का िचंतन कैसे करूँ? अचरयुत ! यह कभी न अघानेवाली जीभ मुझे सरवािदषरि रसों की ओर खींचती रहती है। जननेिनरदररय सुनरदर सरतररी की ओर, तवचा सुकोमि, सरपररश की ओर, पेि भोजन की , कान मधुर अनुकररम संगीत की ओर, नािसका भीनी-भीनी सुगंध की ओर, और ये चपल नेतरर सौनरदयरर की ओर मुझे खींचते रहते हैं। इनके िसवा कमेररिनरदररयाँ भी अपने-अपने े िवियो की ओर िे जान क े ि िए ज ो र ि ग ा त ीहीरहतीहै , जैसे।िकसी मेरीतोवहदशाहोरहीहै पुरष ु की बहुत सी पितरनयाँ उसे अपने-अपने शयनगृह में ले जाने से िलए चारों ओर से घसीि रही हों। इस पररकार यह जीव अपने कमोररं के बंधन में पड़कर इस संसार रूप वैतरणी नदी में िगरा हआ ु है। जनम से मृतयु , मृतरयु से जनरम और दोनों के दरवारा कमररभोग करते-करते यह भयभीत गया है। यह अिना है , यह पराया है – इस पररकार के भेदभाव से युकरत होकर िकसी से िमतररता करता है तो िकसी से शतररुता। आप इस मूढ़ जीव-जाित की यह दुदररशा देखकर करूणा से दिवत हो जाइये। इस भवनदी से सविदा िार रहन व े ािेभगवन् ! इन पररािणयों को भी अब पार लगा दीिजये। जगदगुरो ! आप इस सृिषरि की उतरपितरत, िसरथित तथा पालन करने वाले हैं। ऐसी अवसरथा में इन जीवों को इस भवनदी से पार उतार देने में आपको करया पिरशररम है? दीनजनो केिरम िहतैिी पभो ! भूिेभटकेमूढ ही महान िुरिो केिवशेि अनुगहिात होते है। हमे उसकी कोई आवशयकता नही है कयोिक हम आिकेिपयजनो की सेवा में लगे रहते हैं, इसिलए पार जानेकी हमेंकभीिचंता ही नहीं होती। परमातरमनर! इस भव-वैतरणी से पार उतरना दूसरे लोगों के िलए अव शर यही किठन है , परंतु मुझे तो इससे तिनक भी भय नहीं है। करयोंिक मेरा िचतरत इस वैतरणी में नहीं, आपकी उन लीलाओं के गान में मगरन रहता है, जो सरवगीररय अमृत को भी ितरसरकृत करने वाली, परम अमृतसरवरूप हैं। मैं उन मूढ़ पररािणयों के िलए शोक कर रहा हूँ, जो आपके गुणगान से िवमुख रहकर इिनरदररयों के िवषयों का मायामय झूठा सुख पररापरत करने के िलए अपने िसर पर सारे संसार का भार ढोते रहते हैं। मेरे सरवामी ! बड़े-बड़े ऋिष-मुिन तो पररायः अपनी मुिकरत के िलए िनजररन वन में जाकर मौनवररत धारण कर लेते हैं। वे दूसरों की भलाई के िलए कोई िवशेष पररयतरन नहीं करते परंतु मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है। मैं इन भूले हुए असहाय गरीबों को छोड़कर अकेला मुकरत होना नहीं चाहता और इन भिकते हुए पररािणयों के िलए आपके िसवा और कोई सहारा भी नहीं िदखाया पड़ता।

ं तुचछ एवं घर में िँसे हुए लोगों को जो मैथुन आिद का सुख िमलता है, वह अतयत दःुखरि ही है। जैसे , कोई दोनों हाथों से खुजला रहा हो तो उस खुजली में पहले उसे कुछ थोड़ा-सा सुख मालूम पड़ता है, परंतु पीछे दुःख-ही-दःुख होता है। िकंतु ये भूिे हएु अजानी मनुषय बहत ु ेिविरीतधीरिुरिजैसेख दःुख भोगन ि े र भ ी इ न ि व ि य ो स े अ घ ाते, नवैही।इसक से ही कामािद वेगो को भी सह िेते है। सहन स े े ह ी उ नकानाशहोताहै ! मोकर।षिुरके िोतम दस साधन पररिसदरध हैं – मौन, बररहरमचयरर, शासत-शवण, तिसया, सरवाधरयाय, सरवधमररपालन, युिकरतयों से शासरतररों की वयाखया, एकांत सेवन, जप और समािध। परंतु िजनकी इिनरदररयाँ वश में नहीं हैं, उनके िलए ये सब जीिवका के साधन वरयापार मातरर रह जाते हैं और दिमरभयों के िलए तो जब तक उनकी पोल खुलती नहीं, तभी तक ये जीवन-िनवाररह के साधन रहते हैं और भंडािोड़ हो जाने पर वह भी नहीं। वेदों ने बीज और अंकुर के समान आपके दो अनुकररम रूप बताये हैं – कायरर और कारण। वासरतव में आप परराकृत रूप से रिहत हैं परंतु इन कायरर और कारणरूपों को छोड़कर आपके जरञान का कोई और साधन भी नहीं है, उसी पररकार योिगजन भिकरतयोग की साधना से आपको कायरर और कारण दोनों में ही ढूँढ िनकालते हैं। करयोंिक वासरतव में ये दोनो आिसे िृथक नही है, आपके सरवरूप ही हैं। अननरत पररभो ! वायु, अिगरन, पृथरवी, आकाश, जल, पंचतनरमातरराएँ, परराण, िनर इ दररय, मन, िचतरत, अहंकार, समरपूणरर जगत एवं सगुण और िनगुररण, सब कुछ केवल आप ही हैं और तो करया, मन और वाणी के दरवारा जो कुछ िनरूपण िकया गया है, वह सब आपसे पृथक नहीं है। समगरर कीितरर के आशररय भगवनर ! ये सतरतरवािद गुण और इन गुणों के पिरणाम महतरततरवािद, देवता, मनुषरय एवं मन आिद कोई भी आपका सरवरूप जानने में समथरर नहीं है करयोंिक ये सब आिद-अंतवाले हैं और आप अनािद एवं अननरत हैं। ऐसा िवचार करके जरञानीजन शबरदों की माया से उपरत हो जाते हैं। ! – , , , – , । इस षडंग-सेवा के िबना आपके चरणकमलों की भिकरत कैसे पररापरत हो सकती है ? और भिकरत के िबना आपकी पररािपरत कैसे होगी? पररभो ! आप तो अपने परम िपररय भकरतजनों के, परमहंसों के ही सवररसरव हैं।' अनुकररम ( 7.9.8-50) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ करषीरसागर के मधरय में मरकतमिणयों से सुशोिभत 'ितकूट ' पवररत था। उस पर वरुण देव का 'ऋतुमान' नाम का एक सुंदर उदरयान था, िजसमें देवांगनाएँ कररीड़ा करती रहती थीं। उदरयान में सुनहले कमलोंवाला एक सरोवर था। उसमें गररीषरम-संतपरत गजराज अपनी िपररयाओं के साथ जलकररीड़ा कर रहा था। अचानक एक बलवान गरराह ने उसका पैर पकड़ े ििया और वह जि मे उसे खीचन ि ग ा । ग ज राजऔरउसकीिपयाहिथिनयोकारका -पररयतरन जब सवररथा िविल हो गया तो गजेनरदरर ने असहाय भाव से समरपूणरर िव शर व के एकमातरर आशररय भगवान की इस पररकार से सरतुित कीः 'जो जगत के मूल कारण हैं और सबके हृदय में पुरष ु के रूप में िवराजमान हैं एवं समसरत जगत के एकमातरर सरवामी हैं, िजनके कारण इस संसार में चेतनता का िवसरतार होता है, उन भगवान को मैं नमसरकार करता हूँ, पररेम से उनका धरयान करता हूँ। यह संसार उनरहीं में िसरथत है, उनरहीं की सतरता से पररतीत हो रहा है, वे ही इसमे वयापत हो रहे है और सवय वंे इसकेरू प मेंपररकि हो रहेहैं। यह सब होनेपर भी वेइस संसार और इसकेकारण पररकृित सेसवररथा परेहैं। उन सरवयंपररकाश, सरवयंिसदरध सतरतातरमक भगवान की मैं शरण गररहण करता हूँ। यह िव शर व पररपंच उनरहीं की माया से उनमें अधरयसरत है। यह उनमें कभी पररतीत होता है तो कभी नहीं। परंतु उनकी दृिषरि जरयों-की-तयो एक-सी रहती हैं। वे इसके साकरषी हैं और उन दोनों को ही देखते रहते हैं। वे सबके मूल हैं और अपने मूल भी वही हैं। कोई दूसरा उनका कोई कारण नहीं है। वे ही समसरत कायरर और कारणों से अतीत पररभु मेरी रकरषा करें। ं घना पररलय के समय लोक, िोकिाि और इन सबकेकारण समिूणि रि से नष हो जाते है। उस समय केवि अतयत और गहरा अंधकार-ही-अंधकार रहता है। परंतु अननरत परमातरमा उससे सवररथा परे

िवराजमान रहते है। वे ही पभु मेरी रका करे। उनकी िीिाओं का रहसय जानना बहत ु ही किठन है। वे नट की भाित अनेकों वेष धारण करते हैं। उनके वासरतिवक सरवरूप को न तो देवता जानते हैं और न ऋिष ही, ििर दूसरा ऐसा कौन परराणी है, जो वहाँ तक जा सके और उसका वणररन कर सके? वे पभु मेरी रका करें। िजनके परम मंगलमय सरवरूप का दररशन करने के िलए महातरमागण संसार की समसरत आसिकरतयों का पिरतरयाग कर देते हैं और वन में जाकर अखणरडभाव से बररहरमचयरर आिद अलौिकक वररतों का पालन करते हैं तथा अपने आतरमा को सबके हृदय में िवराजमान देखकर सवाभािवक ही सबकी भिाई करते है। वे ही मुिनयो केसविसव भगवान मेरे सहायक है , वे ही मेरी गित है। न उनके जनरम-कमरर हैं और न नाम-रूप, ििर उनकेसमरबनरध मेंगुण और दोष की तो कलरपना ही कैसे की जा सकती है? ििर भीिव शर व की सृिषरिऔर संहार करनेकेिलए समय-समय पर वे उनरहें अपनी माया से सरवीकार करते हैं। उनरहीं अननरत, शिकतमान सवैशयिमय िरबह िरमातमा को मै नमसकार करता हँ। ू वे अरूप होने पर भी बहुरूप हैं। उनके कमरर अतरयंत आ शर चयररमय हैं। मैं उनके चरणों में नमसरकार करता हूँ। सरवयंपररकाश, सबके साकरषी परमातरमा को मैं नमसरकार करता हूँ। जो मन, वाणी और िचत से अतरयंत दूर हैं – उन परमातरमा को मैं नमसरकार करता हूँ। िववेकी िुरि कमि-संनरयास अथवा कमरर-समपररण के दरवारा अपना अंतःकरण शुदरध करके िजनरहें पररापरत करते हैं तथा जो सरवयं तो िनतरयमुकरत, परमाननरद एवं जरञानसरवरूप हैं ही, दस ू रो को कैवलय -मुिकरत देने का सामथरयरर भी केवल उनरहीं में है उन पररभु को मैं नमसरकार करता हूँ। जो सतरतरव, रज और तम इन तीन गुणों का धमरर सरवीकार करके कररमशः शांत, घोर और मूढ़ अवसरथा भी धारण करते हैं, उन भेदरिहत समभाव से िसरथत एवं जरञानघन पररभु को मैं बार-बार नमसरकार करता हूँ। आप सबके सरवामी, समसरत करषेतररों के एकमातरर जरञाता एवं सवररसाकरषी हैं, आपको मैं नमसरकार करता हूँ। आप सरवयं ही अपने कारण हैं। पुरुष और मूल पररकृित के रूप में भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार नमसरकार। आप समसरत िनर इ दररयऔर उनकेिवषयोंकेदररषिर ाहैं , समसरत पररतीितयों के आधार हैं। अहंकार आिद छायारूप असतर वसतुओं केदारा आिका ही अिसततव पकट होता है। समसत वसतुओं की सता केरि मे भी केवि आि ही भास रहे है। मै आपको नमसरकार करता हूँ। आप सबके मूल कारण हैं, आपका कोई कारण नहीं है तथा कारण होने पर भी आपमें िवकार या पिरणाम नहीं होता, इसिलएआप अनोखेकारण हैं। आपको मेराबार-बार नमसरकार ! जैसे समसरत नदी-झरने आिद का परम आशररय समृदरध है, वैसे ही आि समसत वेद और शासतो के िरम तातियि है। आि मोकसवरि है और समसत संत आिकी ही शरण गहण करते है , अतः आपको अनुकररम मैं नमसरकार करता हूँ। जैसे यजरञ के काषरठ अरिण में अिगरन गुपरत रहती है, वैसे ही आपने अपने जरञान को गुणों की माया से ढक रखा है। गुणों में करषोभ होने पर उनके दारा िविवध पकार की सृिष-रचना का आप संकलरप करते हैं। जो लोग कमरर-संनरयास अथवा कमररसमपररण के दरवारा आतरमततरतरव की भावना करके वेद-शासतो से ऊिर उठ जाते है, उनके आतरमा श के रूप में आप सरवयं ही पररका ि त ह ो ज ा त ेहैं।आपकोमैंनमसरकारकरत जैसे कोई दयालु पुरष ु िंदे में पड़े हुए प शु का बंधन काि दे , वैसे ही आि मेरे जैसे शरणागतो की िासी काट देते है। आि िनतयमुकत है , परम करूणामय हैं और भकरतों का कलरयाण करने में आप कभी आलसरय नहीं करते। आपके चरणों में मेरा नमसरकार है। समसरत पररािणयों के हृदय में अपने अंश के दरवारा अंतरातरमा के रूप में आप उपलबरध होते रहते हैं। आप सवैरर शर वयररपूणरर एवं अननरत हैं। आपको मैं नमसरकार करता हूँ। जो लोग शरीर , पुतरर, गुरजन, गृह, समरपितरत और सरवजनों में आसकरत हैं उनरहें आपकी पररािपरत अतरयंत किठन है। करयोंिक आप सरवयं गुणों की आसिकरत से रिहत हैं। जीवनमुकरत पुरुष अपने हृदय में आपका िनरनरतर िचनरतन करते रहते हैं। उन सवैरर शर वयररप,ूणजर रर ञानसरवरूप भगवान को मैं नमसरकार करता हूँ। धमरर, अथरर, काम और मोकरष की कामना से मनुषरय उनरहीं का भजन करके अपनी अभीषरि वसरतु पररापरत कर लेते हैं। इतना ही नहीं, वे उनको सभी पकार का सुख देते है और अपने ही जैसा अिवनाशी पाषररद शरीर भी देते हैं। वे ही परम दयालु पररभु मेरा उदरधार करें। िजनके अननरय पररेमी भकरतजन उनरहीं की शरण में रहते हुए उनसे िकसी भी वसरतु की

यहाँ तक िक मोकरष की भी अिभलाषा नहीं करते, केवल उनकी परम िदवरय मंगलमयी लीलाओं का गान करते हुए आनंद के समुदरर में िनमगरन रहते हैं। । ।। जो अिवनाशी, सवररशिकरतमान, अवरयकरत, िनर इ दररयातीत और अतरयंत सूकरषरम हैं, जो अतरयंत िनकि रहने पर भी बहुत दूर जान पड़ते हैं, जो आधरयाितरमक योग अथाररतर जरञानयोग या भिकरतयोग के दरवारा पररापरत होते हैं, उनरहीं आिदपुरुष, अननरत जरञानयोग या भिकरतयोग के दरवारा पररापरत होते हैं, उनरहीं आिदपुरुष, अननरत एवं पिरपूणरर परबररहरम परमातरमा की मैं सरतुित करता हूँ। ( 8.3.21) िजनकी अतरयंत छोिी कला से अनेकों नाम-रूप के भेदभाव से युकरत बररहरमा आिद देवता, वेद और चराचर िोको की सृिष हईु है , जैसे धधकती हुई आग से लपिें और पररकाशमान सूयरर से उनकी िकरणें बार-बार िनकलती और लीन होती रहती हैं, वैसे उनकी िकरणे बार-बार िनकलती और लीन होती रहती हैं, वैसे ही िजन सवयपंकाश िरमातमा से बुिद, मन, िनर इ दररयऔर शरीर, जो गुणों के पररवाहरूप हैं, बार-बार पररकि होते तथा लीन हो जाते हैं, वे भगवान न देवता है और न असुर। वे मनुषरय और प -शपकर ु षी भी नहीं हैं। न वे सरतररी हैं, न पुरष ु और न नपुंसक। वे कोई साधारण या असाधारण परराणी भी नहीं हैं। न वे गुण हैं और न कमरर, न कायरर हैं और न तो अनुकररम कारण ही। सबका िनषेध हो जाने पर जो कुछ बचता रहता है, वही उनका सवरि है तथा वे ही सब कुछ हैं। वे ही परमातरमा मेरे उदरधार के िलए पररकि हों। मैं जीना नहीं चाहता। यह हाथी की योिन बाहर और भीतर सब ओर से अजरञानरूप आवरण के दरवारा ढकी हुई है, इसको रखकर करना ही करया है? मैं तो आतरमपररकाश को ढकने वाले उस अजरञानरूप आवरण से छूिना चाहता हूँ , जो कालकररम से अपने-आप नहीं छूि सकता, जो केवल भगवतरकृपा अथवा ततरतरवजरञान के दारा ही नष होता है। इसििए मै उन िरबह िरमातमा की शरण मे हूँ जो िवशरिहत होन ि े र भ ी िवशकेरचियताऔर िवशसवरि है, साथ ही जो िव शर वकी अतंरातरमा के रूप में िव शर वरूपसामगररी से कररीड़ा भी करते रहते हैं, उन अजनरमा परम पद सरवरूप बररहरम को मैं नमसरकार करता हूँ। योगी लोग े योग के दरवारा कमरर, कमरर-वासना और कमििि को भसम करके अिन य ो ग श ु दहृदयमेिजनयोगेशरभ साकरषातरकार करते हैं, उन पररभु को मैं नमसरकार करता हूँ। पररभो ! आपकी तीन शिकरतयों सतरतरव, रज और तम के रागािद वेग असहरय हैं। समसरत िनर इ दररयोंऔर मन केिवषयों केरू प मेंभी आप ही पररतीत हो रहेहो। इसिलएिजनकी िनर इ दररयाँवश मेंनहीं हैं , वे तो आिकी पररािपरत का मागरर भी नहीं पा सकते। आपकी शिकरत अननरत हैं। आप शरणागतवतरसल हैं। आपको मैं बार-बार नमसरकार करता हूँ। आपकी माया अहंबुिदरध से आतरमा का सरवरूप ढक गया है, इसी सेयह जीव अपनेसरव रूप को नहीं जान पाता। आपकी मिहमा अपार है। उन सवररशिकरतमान एवंमाधुयररिनिध भगवान की मै शरण मे हूँ। ( 8.3.2-21) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अकररूर जी ने शररीकृषरण तथा बलरामजी के साथ वररज से मथुरा नगरी लौिते समय यमुनाजी सरनान के प शर चातरगायतररी मंतरर का जप करते हुए जब जल में डुबकी लगायी , तब उनरहोंने शेषजी की गोद में िवराजमान शंख, चकरर, गदा, पदरमधारी भगवान शररीकृषरण के साकरषातर दररशन िकये थे। भगवान की अदभुत झाँकी देखकर उनका हृदय परमानंद से लबालब े गेः भर गया और पेमभाव का उदेक चरणो मे नतमसतक होकर गदगद सवर मे पभु की इस पकार से सतुित करन ि 'पररभो ! आप पररकृित आिद समसरत कारणों के परम कारण हैं। आप ही अिवनाशी पुरुषोतरतम नारायण हैं तथा आपके ही नािभकमल से उन बररहरमाजी का आिवभाररव हुआ है, िजनरहोंने इस चराचर जगत की सृिषरि की है। मैं आपके चरणों में नमसरकार करता हूँ। पृथरवी, जल, अिगरन, वायु, आकाश, अहंकार, महतरततरतरव, पररकृित, पुरष ु , मन, िनर इ दररय, समरपूणरर िनर इ दररयोंकेिवषय औरउनकेअिधषरठातृ देवता – यही सब चराचर जगत तथा उसकेवरयवहार केकारण हैंऔरयेसब -के-

सब आपके ही अंगसरवरूप हैं। पररकृित और पररकृित से उतरपनरन होने वाले समसरत पदाथरर 'इंदवृ ितरत' के दरवारा गररहण िकये जाते हैं, इसिलए येसब अनातरमा हैं। अनातरमा होनेके कारण जड़हैंऔर इसिलए अनुकररम आपका सरवरूप नहीं जान सकते करयोंिक आप तो सरवयं आतरमा ही ठहरे। बररहरमाजी अव शर य ही आपके सरवरूप हैं। परंतु वे पररकृित के गुण रजस से युकरत हैं , इसिलएवे े ं तःकरणमे िसथत ं भी आिकी पकृित का और उसके गुणो से िरे का सवरि नही जानते। साधु योगी सवय अ ि नअ 'अनरतयाररमी' के रूप में समसरत भूत-भौितक िदाथों मे वयापत 'परमातरमा के रूप में और सूयरर, चनरदरर, अिगरन आिद देवमणरडल में िसरथत 'इषरिदेवता' के रूप में तथा उनके साकरषी महापुरुष एवं िनयनरता ई शर वर के रूप में साकरषातर आपकी ही उपासना करते हैं। बहुत -से कमररकाणरडी बरराहरमण कमररमागरर का उपदेश करने वाली तररयीिवदरया के दरवारा, जो आपके इनरदरर, अिगरन आिद अनेक देववाचक नाम तथा वजररहसरत, सपरतािचरर आिद अनेक रूप बतलाती हैं, बड़ेबड़े यजरञ करते हैं और उनसे आपकी ही उपासना करते हैं। बहुत-से जरञानी अपने समसरत कमोररं का संनरयास कर देते हैं और शांतभाव में िसरथत हो जाते हैं। वे इस पररकार जरञानयजरञ के दरवारा जरञानसरवरूप आपकी ही आराधना करते हैं। और भी बहुत-से संसरकार-समरपनरन अथवा शुदरधिचतरत वैषरणवजन आपकी बतलायी हुई पांचरातरर आिद िविधयों से तनरमय होकर आपके चतुवरयूररह आिद अनेक और नारायणरूप एक सरवरूप की पूजा करते हैं। भगवनर ! दस ू रे िोग िशवजी के दारा बतिाये हएु मागि से , िजसके आचायरर-भेद से अनेक अवानरतर-भेद भी है, िशवसवरि आिकी ही िूजा करते है। सवािमन् ! जो लोग दूसरे देवताओं की भिकरत करते हैं और उनरहें आपसे िभनरन समझते हैं, वे सब भी वासतव मे आिकी ही आराधना करते हैं, करयोंिक आप ही समसरत देवताओं के रूप में हैं और सवेरर शर वर भी हैं। पररभो ! जैसे पवररतों से सब ओर बहुत-सी निदयाँ िनकलती हैं और वषारर के जल से भरकर घूमती-घामती समुदरर में पररवेश कर जाती हैं, वैसे ही सभी पकार के उिासना -मागरर घूम-घामकर देर-सवेर आपके ही पास पहुँच जाते हैं। पररभो ! आपकी पररकृित के तीन गुण हैं – सतरतरव, रज और तम। बररहरमा से लेकर सरथावरपयररनरत समरपूणरर चराचर जीव परराकृत हैं और जैसे वसरतरर सूतररों से ओतपररोत ं ु आि सविसवरि होन ि े र भ ीउनकेसाथििपत रहते हैं, वैसे ही ये सब पकृित के उन गुणो से ही ओतपोत है। िरत नहीं हैं। आपकी दृिषरि िनिलररपरत है, करयोंिक आप समसरत वृितरतयों के साकरषी हैं। यह गुणों के पररवाह से होने वाली सृिषरि अजरञानमूलक है और वह देवता, मनुषरय, प श -पकर ु षी आिद समसरत योिनयों में वरयापरत है, परंतु उससे सवररथा अलग हैं। इसिलए मैं आपको नमसरकार करता हूँ। अिगरन आपका मुख है। पृथरवी चरण है। सूयरर और चनरदररमा नेतरर हैं। आकाश नािभ है। िदशाएँ कान हैं। सरवगरर िसर है। देवेनरदररगण भुजाएँ हैं। समुदरर कोख है यह वायु ही आपकी परराणशिकरत के रूप मे उपासना के िलए किलरपत हुई है। वृक और औििधया रोम है। मेघ िसर केकेश है। िवित आिकेअिसथसमूह और नख है। िदन और रात ििको का खोलना और मीचना है। पररजापित जननेिनरदररय हैं और वृिषरि ही आपका वीयरर है। अिवनाशी भगवन् ! जैसे जल में बहुत-से जलचर जीव और गूलर के िलों में ननरहें-ननरहें कीि रहते हैं, उसी पररकार उपासना के िलए सरवीकृत आपके मनोमय पुरष ु रूप में अनेक पररकार के जीव-जनरतुओं से भरे हुए लोक और उनके लोकपाल किलरपत िकये गये हैं। पररभो ! आप कररीडा अनुकररम करने के िलए पृथरवी पर जो-जो रूप धारण करते हैं, वे सब अवतार िोगो केशोक मोह को धो बहा देते हैं और ििर सब लोग बड़े आननरद से आपके िनमररल यश का गान करते हैं। पररभो ! आपने वेदों, ऋिषयों, औषिधयों और सतरयवररत आिद की रकरषा-दीका केििए मतरसरयरूप धारण िकया था और पररलय के समुदरर में सरवचरछनरद िवहार िकया था। आपके मतरसरयरूप को मैं नमसरकार करता हूँ। आपने ही मधु और कैिभ नाम के असुरों का संहार करने के िलए हयगररीव अवतार गररहण िकया था। मैं आपके उस रूप को भी नमसरकार करता हूँ। आपने ही वह िवशाल कचरछपरूप गररहण करके मनरदराचल को धारण िकया था , आपको मैं नमसरकार करता हूँ। आपने ही पृथरवी के उदरधार की लीला करने के िलए वराहरूप सरवीकार िकया था, आपको मेरे बार-बार नमसरकार। पररहरलाद जैसे साधुजनों का भेदभय िमिाने

वािे पभो ! आपके उस अलौिकक नृिसंहरूप को मैं नमसरकार करता हूँ। आपने वामनरूप गररहण करके अपने पगों से तीनों लोक नाप िलये थे, आपको मैं नमसरकार करता हूँ। धमरर का उलरलंघन करनेवाले घमंडी करषितररयों के वन का छेदन कर देने के िलए आपने भृगुपित पर शु राम रूप गररहण िकया था। मैं आपके उस रूप को नमसरकार करता हूँ। रावण का नाश करने के िलए आपने रघुवंश में भगवान राम के रूप में अवतार गररहण िकया था। मैं आपको नमसर श कार करता हूँ। वैषरणवजनों तथा यदुवं ि योंकापालन -पोषण करने के िलए आपने ही अपने को वासुदेव, संकषररण, पररदरयुमरन और अिनरुदरध – इस चतुवरयूररह के रूप में पररकि िकया है। मैं आपको बार-बार नमसरकार करता हूँ। दैतरय और दानवों को मोिहत करने के िलए आप ं ा मागि केपवतिक बुद का रि गहण करेगे। मै आिको नमसकार करता हूँ और िृथवी केकितय जब मिेचछपाय हो शुद अिहस े जायेंगे, तब उनका नाश करन क े ि ि एआ िह ी कि ल क केरिमेअवतीणिहोगे।मैआ भगवन् ! ये सब-के-सब जीव आपकी माया से मोिहत हो रहे हैं और इस मोह के कारण ही 'यह मैं हूँ और यह मेरा है' इस झूठेदुरागररहमेंिँसकर कमररकेमागोररंमेंभिक रहेहैं। मेरेसरवामी ! इसी पररकार मैं भी सरवपरन में िदखने वाले पदाथोररं के समान झूठे देह-गेह, पतरनी-पुतरर और धन-सरवजन आिद को सतरय समझकर उनरहीं के मोह में िँस रहा हूँ और भिक रहा हूँ। मेरी मूखररता तो देिखये, पररभो ! मैंने अिनतरय वसरतुओं को िनतरय अनातरमा को आतरमा और दुःख को सुख समझ िलया। भला, इस उलिी बु िदरधकी भी कोई सीमा है! इस पररकार अजरञानवश सांसािरक सुख-दःुख आिद दनदो मे ही रम गया और यह बात िबलकुि भूि गया िक आि ही हमारे सचचे पयारे है। जैसे कोई अनजान मनुषरय जल के िलए तालाब पर जाय और उसे उसी से पैदा हुए िसवार आिद घासों से ढका देखकर ऐसा समझ ले िक यहाँ जल नहीं हैं तथा सूयरर की िकरणों में झूठ मूठ पररतीत होने वाले जल के िलए मृगतृषरणा की ओर दौड़ पड़े, वैसे ही मै अिनी ही माया से िछिे रहने के कारण आपको छोड़कर िवषयों में सुख की आशा से भिक रहा हूँ। मैं अिवनाशी अकरषर वसरतु के जरञान से रिहत हूँ। इसी से मेरे मन में अनेक े वसतुओं की कामना और उनके ििए कमि करन क े सं क ल ि उठ तेहअनु ीरहतेकहररै।मइसकेअितिरकतयेइिनद जो बड़ी पररबल एवं दुदररमनीय हैं, मन को मथ-मथकर बलपूवररक इधर-उधर घसीि ले जाती हैं। इसीिलए इस मन को मैं रोक नहीं पाता। इस पररकार भिकता हुआ मैं आपके उन चरणकमलों की छतररछाया में आ पहुँचा हूँ, जो दुषरिों के िलए दुलररभ है। मेरे सरवामी ! इसे भी मै आिका कृिापसाद ही मानता हूँ कयोिक िदनाभ ! जब जीव के संसार से मुकरत होने का समय आता है, तब सतिुरिो की उिासना से िचतवृित आिमे िगती है। । ।। । । पररभो ! आप केवल िवजरञानसरवरूप हैं, िवजानघन है। िजतनी भी पतीितया होती है, िजतनी भी वृितया है, उन सबके आप ही कारण और अिधषरठान हैं। जीव के रूप में एवं जीवों के सुख -दःुख आिद के िनिमतरत काल, कमरर, सरवभाव तथा पररकृित के रूप में भी आप ही हैं तथा आप ही उन सबके िनयनरता भी हैं। आपकी शिकरतयाँ अननरत हैं। आप सरवयं बररहरम हैं। मैं आपको नमसरकार करता हूँ। पररभो ! आप ही वासुदेव, आप ही समसरत जीवों के आशररय (संकषररण) हैं तथा आप ही बुिदरध और मन के अिधषरठातृ देवता हृिषकेश (पररदरयुमरन और अिनरुदरध) हैं। मैं आपको बारबार नमसरकार करता हूँ। पररभो ! आप मुझ शरणागत की रकरषा कीिजए।' ( 10.40.1-30) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ देवििि नारद भगवान केिरम पेमी और समसत जीवो केसचचे िहतैिी है भगवान शीकृषण दारा केशी असुर का वध िकये जाने पर नारद जी कंस के यहाँ से लौिकर अनायास ही अदभुत कमरर करने वाले े गेः भगवान शीकृषण केिास आये और एकानत मे उनकी इस पकार से सतुित करन ि

'सिचरचदानंदसरवरूप शररी कृषरण ! आपका सरवरूप मन और वाणी का िवषय नहीं है। आप योगे शर वरहैं। सारे जगत का िनयंतररण आप ही करते हैं। आप सबके हृदय में िनवास करते हैं और सब-के-सब आपके हृदय में िनवास करते हैं। आप भकरतों के एकमातरर वाछनीय, यदुवंशश िरोमिण और हमारे सरवामी हैं। जैसे एक ही अिगरन सभी लकिड़यों में े ोिछिायेरखतेह वयापत रहती है, वैसे एक ही आि समसत पािणयो केआतमा है। आतमा केरि मे होन ि े र भ ी आ ि अिनक करयोंिक आप पंचकोशरूप गुिाओं के भीतर रहते हैं। ििर भी पुरुषोतरतम के रूप में , सबके िनयनरता के रूप में और सबके साकरषी के रूप में आपका अनुभव होता ही है। पररभो ! आप सबके अिधषरठान अनुकररम और सरवयं अिधषरठानरिहत हैं। आपने सृिषरि के पररारमरभ में अपनी माया से ही गुणों की सृिषरि की और उन गुणों को ही सरवीकार करके आप जगत की उतरपितरत, िसरथित और पररलय करते रहते हैं। यह सब करने के िलए आपको अपने से अितिरकरत और िकसी भी वसरतु की आव शर यकतानही है। करयोंिक आप सवररशिकरतमान और सतरयसंकलरप हैं। वही आप दैतरय, पररमथ और राकरषसों का, िजनरहोंने आजकल राजाओं का े े वेि धारण कर रखा है , िवनाश करन क े ि ि ए त थ ा धम ि की म यादाओं कीरकाकरनक यह बड़े आनंद की बात है िक आपने खेल-ही-खेल में घोड़े के रूप में रहने वाले इस केशी दैतरय को मार डाला। इसकी िहनिहनाहि से डरकर देवता लोग अपना सरवगरर छोड़कर भाग जाया करते थे। पररभो ! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुिषरिक, दस ू रे िहिवान, कुवलयापीड हाथी और सरवयं कंस को मरते हुए देखूँगा। उसके बाद शंखासुर, कालयवन, मुर और नरकासुर का वध देखूँगा। आि सवगि से कलिवृक उखाड िायेगे और इनद के ची -चपड़ करने पर उनको उसका मजा चखायेंगे। आप अपनी कृपा, वीरता, सौनरदयरर आिद का शुलरक देकर वीर-कनरयाओं से िववाह करेंगे और जगदी शर वर ! आप दरवािरका में रहते हुए नृग को पाप से छुड़ायेंगे। आप जामरबवती के साथ सरयमनरतक मिण को जामरबवान से ले आयेंगे और अपने धाम से बरराहरमण के मरे पुतररों को ला देंगे। इसके प शरचातरआप पौणरडररक -िमथरया वासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरी को जला देंगे। युिधिषरठर के राजसूय यजरञ में चेिदराज ि श ु पाल क ो, वहा से िौटते समय उसकेमौसेरे भाई दनतवकत को नषरि करेंगे। पररभो ! दािरका मे िनवास करते समय आि और भी बहत ु -से पराकररम पररकि करेंगे, िजनरहें आगे चलकर पृथव र ी के बड़े-बड़े जरञानी और पररितभाशाली पुरुष गायेंगे। मैं े वह सब देखूँगा। इसके बाद आि िृथवी का भार उतारन क े ि ि ए का ि र िसे अजुिन केसारिथबनेगे औ अकरषौिहणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आँखों से देखूँगा। । पररभो ! आप िव शु दरधिवजरञानघन हैं। आपके सरवरूप में और िकसी का अिसरततरव है ही नहीं। आप िनतरय-िनरनरतर अपने परमाननरदसरवरूप में िसरथत रहते हैं। इसिलए ये सारे पदाथरर आपको िनतरय पररापरत ही हैं। आपका संकलरप अमोघ है। आपकी िचनरमयी शिकरत के सामने माया और माया से होने वाला वह ितररगुणमय संसारचकरर िनतरयिनवृतरत है, कभी हुआ ही नहीं। ऐसे आप अखणरड, एकरस, सिचरचदानंदसरवरूप, िनरितशय ऐशरवयररसमरपनरन भगवान की मैं शरण गररहण करता हूँ। ( 10.37.23) आप सबके अंतयाररमी और िनयनरता हैं। अपने-आप में िसरथत, परम सरवतनरतरर है। जगत र उसके अशेष-िवशेि, भाव-अभावरूप सारे भेद-िवभेदो की कलिना केवि आिकी माया से ही हईु अनुकररम है। इस समय आपने अपनी लीला पररकि करने के िलए मनुषरय का सा शररीिवगररह पररकि िकया है और आप यदु, वृिषण तथा सातवतविंशयो के िशरोमिण बन ह े ै।पभो ! मैं आपको नमसरकार करता हूँ।' ( 10.37,11-24) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

े ि, थल और आकाश में रहने वाले देवता, असुर एवं मनुषरय आिद पररजा दक पजािित न ज की सृिषरि अपने संकलरप से की थी। परंतु जब उनरहोंने देखा िक वह सृिषरि बढ़ नहीं रही है, े व ेिनकटवतीिवि तब उनहोन ि न ध याचिक 'अघमषरर ण' नामक तोिरजाकर शररेषरठ तीथरर में घोर तपसरया की तथा पजावृिद की कामना से इिनदयातीत भगवान की 'हंसगुहरय' नामक सरतोतरर से सरतुित की, जो इस पररकार हैः 'भगवन् ! आपकी अनुभूित, आपकी िचतर-शिकत अमोघ है। आि जीव और पकृित से िरे , उनके िनयनरता और उनरहें सतरता-सरिूितरर देने वाले हैं। िजन जीवों ने ितररगुणमयी सृिषरि को ही वासतिवक सतय समझ रखा है, वे आिके सवरि का साकातकार नही कर सके है , करयोंिक आप तक िकसी भी पररमाण की पहुँच नहीं है। आपकी कोई अविध, कोई सीमा नहीं है। आप सरवयं पररकाश और परातरपर हैं। मैं आपको नमसरकार करता हूँ। यों तो जीव और ई शर वर एक -दस ू रे से सखा है तथा इसी शरीर मे इकटे ही िनवास करते है , परंतु जीव सवररशिकरतमान आपके े सखरयभाव को नहीं जानता। ठीक वैसे ही, जैसे – रूप, रस, गंध आिद िविय अिन प कािशतकरनवेािी नेतरर, घरराण आिद इिनरदररयवृितरतयों को नहीं जानते। करयोंिक आप जीव और जगत के दररषरिा हैं, दशृय नही। महेशर ! मैं आपके शररीचरणों में नमसरकार करता हूँ। देह, परराण, िनर इ दररय, अंतःकरण की वृितरतयाँ, पंचमहाभूत और इनकी तनरमातरराएँ – ये सब जड़ होने के कारण अपने को और अपने से अितिरकरत को भी नहीं जानते। परंतु जीव इन सबको और इनके कारण सतरतरव, रज और तम – इन तीन गुणों को भी जानता है। परंतु वह भी दृ शर यअथवा जरञेयरूप से आपको नहीं जान सकता करयोंिक आप ही सबके जरञाता और अननरत हैं। इसिलए पररभो ! मैं तो केवल आपकी सरतुित करता हूँ। जब समािधकाल में पररमाण, िवकलि और िवियिरि िविवध जान और समरणशिकत का िोि हो जान स े ेइसनाम -रूपातरमक जगत का िनरूपण करने वाला मन उपरत हो जाता है, उस समय िबना मन के भी केवल सिचरचदानंदमयी अपनी सरवरूपिसरथित के दरवारा आप पररका श ि त ह ोतेरहतेहैं।परर ! आप शुदरध हैं भो और शुदरध हृदय-मिनरदर ही आपका िनवास सरथान है। आपको मेरा नमसरकार है। जैसे यािजरञक लोग काषरठ में िछपी हुई अिगरन को 'सािमधेनी' नाम के पनरदररह मनरतररों के दरवारा पररकि करते हैं, वैसे ही जानी िुरि अिनी सताइस शिकतयो के भीतर गूढ भाव से िछिे हएु आिको अिनी शुद बुिद के दारा हृदय मे ही ढूढ ँ िनकािते है। जगत अनुकररम में िजतनी िभनरनताएँ दीख पड़ती हैं वे सब माया की ही हैं। माया का िनषेध कर देने पर केवल परम सुख के साकरषातरकारसरवरूप आप ही अवशेष रहते हैं। परंतु जब िवचार करने िगते है, तब आिके सवरि मे माया की उिििबध -िनवररचन नहीं हो सकता अथाररतर माया भी आप ही हैं। अतः सारे नाम और सारे रूप आपके ही हैं। पररभो ! आप मुझ पर पररसनरन होइये। मुझे आतरमपररसाद से पूणरर कर दीिजये। पररभो ! जो कुछ वाणी से कहा जाता है अथवा जो कुछ मन, बुिदरध और इिनरदररयों से गररहण िकया जाता है वह आपका सरवरूप नहीं है, करयोंिक वह तो गुणरि है और आि गुणो की उतिित और पिय के अिधषान है। आि मे केवि उनकी पतीितमात है। भगवन् ! आप में ही यह सारा जगत िसरथत है, आप से ही िनकला है और आपने और िकसी के सहारे नहीं अपने-आप से ही इसका िनमाररण िकया है। यह आपका ही है और आपके िलए ही है। इसकेरू प मेंबननेवालेभी आप हैंऔर बनानेवालेभी आप ही हैं। बनने-बनाने की िविध भी आप ही हैं। आप ही सबसे काम लेने वाले भी हैं। जब कायरर और कारण का भेद नहीं था, तब भी आि सवयिंसद सरवरूप से िसरथत थे। इसी से आप सबके कारण भी हैं। सचरची बात तो यह है िक आप जीव जगत के भेद और सरवगतभेद से सवररथा रिहत एक, अिदरवितय हैं। आप सरवयं बररहरम हैं। आप मुझ पर पररसनरन हों। पररभो ! आपकी ही शिकरतयाँ वादी-पररितवािदयों के िववाद और संवाद (एकमतरय) का िविय होती है और उनहे बार-बार मोह में डाल िदया करती हैं। आप अननरत अपरराकृत कलरयाण-गुणगणो से युकरत एवं सरवयं अननरत हैं। मैं आपको नमसरकार करता हूँ। भगवनर ! उपासक लोग कहते हैं िक हमारे पररभु हसरत-पादािद से युकरत साकार-िवगह है और साखयवादी कहते है की भगवान हसतपादािद िवगररह से रिहत िनराकार हैं। यदरयिप इस पररकार वे एक ही वसरतु के दो नहीं है। करयोंिक दोनों एक ही परम वसरतु में िसरथत हैं। िबना आधार के हाथ-पैर आिद का होना

समरभव नहीं और िनषेध की भी कोई-न-कोई अविध होनी ही चािहए। आप वही आधार और िनषेध की अविध हैं। इसिलए आप साकार, िनराकार दोनों से ही अिवरुदरध सम परबररहरम हैं। । ।। पररभो ! आप अननरत हैं। आपका न तो कोई परराकृत नाम है और न कोई परराकृत रूप , ििर भी जो आपके चरणकमलों का भजन करते हैं, उन पर अनुगररह करने के िलए आप अनेक रूपों में पररकि होकर अनेकों लीलाएँ करते हैं तथा उन-उन रूपों एवं लीलाओं के अनुसार अनेकों नाम धारण कर लेते हैं। परमातरमनर ! आप मुझ पर कृपा-पररसाद कीिजए। ( 6.4.33) िोगो की उिासनाए प ा य ः स ा ध ा र णक ो ि ट कीहोतीहै। अतःआ ँ अनुसार िभनरन-िभन देवताओं के रि मे पतीत होते रहते है , ठीक वैसे ही जैसे हवा गनरध का आशररय िेकर सुगिनधत पतीत होती है, परंतु वासरतव में सुगिनरधत नहीं होती। ऐसे सबकी भावनाओं का अनुसरण करने वाली पररभु मेरी अिभलाषा पूणरर करें।' अनुकररम ( 6.4.23-34) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

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जब-जब पृथरवी पर धमरर की हािन तथा अधमरर की वृिदरध होती है भगवान पृथरवी पर अवतार िेते है। मथुरा नगरी मे कंस के अतयाचार पजाजन िर िदन -पररितिदन बढ़ते जा रहे थे और वह यदुवं ि य ो ं क ो भ ी न शष र ि क रताजारहाथा।भकर श तव हेतु पृथरवी पर अवतार लेने के िलए वसुदेव-पतरनी देवकी गभरर में पररवेश िकया और तभी े देवकी केशरीर की काित से कंस का बदंीगृह जगमगान ि गा।भगवानशं , बररहरम काजी, र देवििि नारद तथा अनय देवता कंस के कारागार में आकर सबकी अिभलाषा पूणरर करने वाले पररभु शररीहिर की सुमधुर वचनो से इस पकार सतुित करते है'पररभो ! आप सतरयसंकलरप है। सतरय ही आपकी पररािपरत का शररेषरठ साधन है। सृिषरि के पूवरर, पररलय के प शर चातरऔर संसार की िसरथित के समय – इन असतरय अवसरथाओं में भी आप सतरय हैं। पृथव र ी, जल, तेज, वायु और आकाश – इन िाच दशृयमान सतयो के आि ही कारण है और उनमे अनरतयाररमी रूप से िवराजमान भी हैं। आप इस दृ शर यमान जगत के परमाथरररूप हैं। आप ही मधुर वाणी और समदररशन के पररवतरतररक हैं। भगवनर ! आप तो बस, सतरयसरवरूप ही हैं। हम सब आपकी शरण में आये हैं। यह संसार करया है, एक सनातन वृकरष। इस वृकरष का आशररय है एक पररकृित। इसके दो िल हैं – सुख और दुःख, तीन जडे है सततव, रज और तम, चार रस हैं – धमरर, अथरर, काम और मोकरष। इसके जानने के पाँच पररकार हैं – शररोतरर, तवचा, नेतरर, रसना और नािसका। इसके छः सरवभाव हैं – पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घिना और नषरि हो जाना। इस वृकरष की छाल है सात धातुएँ – रस, रूिधर, मांस, मेद, अिसरथ, मजरजा और शुकरर। आठ शाखाएँ हैं – पाँच महाभूत, मन, बुिदरध और अहंकार। इसमें मुख आिद नवों दरवार खोडर ं य – ये दस पाण ही इसकेदस हैं। परराण, अपान, वयान, उदान, समान, नाग, कूमरर, कृकल, देवदत और धनज पतरते हैं। इस संसार रूप वृकरष की उतरपितरत के आधार एकमातरर आप ही हैं। आप में ही इसका पररलय होता हैऔर आपकेही अनुगररहसेइसकी रकरषाभी होती है। िजनकािचतरतआपकी माया सेआवृतरतहो रहा है, इस सतरय को समझनेकी श िकरत खो बैठा है – वेही उतरप ,ितर िसर तथित और पररलय करनेवाले बररहरमािद े दीखते है। तततवजानी िुरि तो सबकेरि मे केवि आिकेही दशिन करते है। देवताओं को अनक आप जरञानसरवरूप आतरमा हैं। चराचर जगत के कलरयाण के िलए ही अनेकों रूप धारण करते हैं। आपके वे रूप िव शु ,दरअपरर ध ाकृत, सतरतरवमय होते हैं और संतपुरुषों को बहुत सुख देते हैं। साथ ही दुषरिों को उनकी दुषरिता का दणरड भी देते हैं। उनके िलए अमंगलमय भी होते हैं। अनुकररम ।। ।

।। े ो वािे पभो ! कुछ िवरले लोग ही आपके समसरत कमल के समान कोमल अनुगररह-भरे नत पदाथोररं और पररािणयों के आशररयसरवरूप रूप में पूणरर एकागररता से अपना िचतरत लगा पाते हैं और आपके चरणकमलरूपी जहाज का आशररय लेकर इस संसारसागर को बछड़े के खुर के गढ़े के समान अनायास ही पार कर जाते हैं। करयों न हो, अब तक के संतों ने इसी जहाज से संसारसागर को पार जो िकया है। परम पररकाशसरवरूप परमातरमनर ! आपके भकरतजन सारे जगत के िनषरकपि पररेमी, सचरचे िहतैषी होते हैं। वे सरवयं तो इस भयंकर और कषरि से पार करने योगरय संसारसागर को पार कर ही जाते हैं, िकंतु औरों के कलरयाण के िलए भी वे यहाँ आपके चरणकमलों की नौका सरथािपत कर जाते हैं। वासरतव में सतरपुरुषों पर आपकी महान कृपा है। उनके िलए आप अनुगररहसरवरूप ही हैं। ( 10.2.30.31) कमलनयन ! जो लोग आपके चरणकमलों की शरण नहीं लेते तथा आपके पररित े भिकतभाव से रिहत होन क े , वे अिनिदभीशु क े दनहीहै ोझू-ठमूठ मुकरत मानते हैं। वासरतव क ा र ण िजनकीबु में तो वे बदरध ही हैं। वे यिद बड़ी तपसरया और साधना का कषरि उठाकर िकसी पररकार ऊँचे-से-ऊँचे पद पर भी पहुँच जायें तो भी वहाँ से नीचे िगर जाते हैं। परंतु भगवनर ! जो आपके िनज जन है, िजनरहोंने आपके चरणों में अपनी सचरची े पररीित जोड़ रखी है, वे कभी उन जानािभमािनयो की भाित अिन स ा ध न मागि!सवेेिगरते बडे -नबड़े ही।पभो े ा िो ेसरदारोक िवघ डािन व की स े न ा क , कोईेिसरिरिै भी िवघरररखकरिनभि न उनके यमागरर िवचरतेमें है रुकावि नहीं डाल सकता; करयोंिक उनके रकरषक आप जो हैं। आप संसार की िसरथित के िलए समसरत देहधािरयों को परम कलरयाण पररदान करने वािे िवशुद सततवमय, सिचरचदानंदमय परम िदवरय मंगल-िवगह पकट करते है। उस रि केपकट होन स े ेही आपके भकरत वेद, कमररकाणरड, अषरिाँग-योग, तिसया और समािध केदारा आिकी आराधना करते है। िबना िकसी आशररय के वे िकसकी आराधना करेंगे? पररभो ! आप सबके िवधाता हैं। यिद आपका यह िव शु दरध सतरतरवमय िनज सरवरूप न हो तो अजरञान और उसके दरवारा होने वाले भेदभाव को नषरि करने वाला अपरोकरष जरञान ही िकसी को न हो। जगत में िदखने वाले तीनों गुण आपके श हैं और आपके दरवारा ही पररका ि त होते , यह हैं सतरय है। परंतु इन गुणों की पररकाशक वृितरतयों से आपके सरवरूप का केवल अनुमान ही होता है, वासतिवक सवरि का साकातकार नहीं होता। (आपके सरवरूप का साकरषातरकार तो आपके इस िव शु दरध सतरतरवमय सरवरूप की सेवा करने पर आपकी कृपा से ही होता है।) भगवन् ! मन और वेद-वाणी के दारा केवि आिके सवरि का अनुमानमातरर होता है करयोंिक आप उनके दरवारा दृ शर यनहीं ; उनके साकरषी हैं। इसिलए आपके गुण, जनरम और कमरर अनुकररम आिद के दरवारा आपके नाम और रूप का िनरूपण नहीं िकया जा सकता। िपर भी पररभो ! आपके भकरतजन उपासना आिद िकररयायोगों के दरवारा आपका साकरषातरकार तो करते ही हैं। , ,

, । समरपूणरर दुःखों के हरने वाले भगवनर ! आप सवेरर शर वर है। यह पृथरवी तो आिका चरणकमि ही है। आिकेअवतार से इसका भार दरू हो गया। धनय है ! पररभो ! हमारे िलए यह बड़े सौभागरय की बात है िक हम लोग आपके सुनरदर-सुनरदर िचहरनों से युकरत चरणकमलों के दरवारा िवभूिित िृथवी को देखेगे और सवगििोक को भी आिकी कृिा से कृताथि देखेगे। पभो ! आप अजनरमा हैं। यिद आपके जनरम के कारण के समरबनरध में हम कोई तकरर न करें तो यही कह सकते है िक यह आपका एक लीला-िवनोद है। ऐसा करन क े ा का र ण य ह ह ै ि कआिदैत केिेश से रिहतस इस जगत की उतरपितरत, िसरथित तथा पररलय अजरञान के दरवारा आप में आरोिपत हैं। पररभो ! आपने जैसे अनेकों बार मतरसरय, हयगररीव, कचरछप, नृिसंह, वाराह, हंस, राम, पर शु राम और वामन अवतार धारण करके हम लोगों की और तीनों लोकों की रकरषा की है , वैसे

ही आप इस बार भी पृथरवी का भार हरण कीिजये। यजुननरदन ! हम आपके चरणों में वनरदना करते हैं। ( 10.2.26-40) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ िजस पररकार पररातःकाल होने पर सोते हुए समरराि को जगाने हेतु अनुजीवी बंदीजन े नायेहएु समरराि के पराकररम और सुयश का गान करके उसे जगाते हैं, वैसे ही जब िरमातमा अिन ब समरपूणरर जगत को अपने में लीन करके आतरमारमण के हेतु योगिनदररा सरवीकार करते हैं। तब पिय के अंत मे शुितया उनका इस पकार से यशोगान कर जगाती है। वेदो के तातियि -दिृष से 28 भेद है, अतः यहाँ 28 शुितयो ने 28 शिोको से पभु की इस पकार से सतुित की हैः 'अिजत ! आप ही सवररशररेषरठ हैं, आप पर कोई िवजय नहीं पररापरत कर सकता। आपकी जय हो, जय हो। पररभो ! आप सरवभाव से ही समसरत ऐशरवयोररं से पूणरर हैं, इसिलए चराचर पररािणयों को िँसाने वाली माया का नाश कर दीिजये। पररभो ! इस गुणमयी माया ने दोष केिलए जीवों के आनंदािदमय सहज सरवरूप का आचरछादन करके उनरहें बंधन में डालने के िलए ही सतरतरवािद गुणों को गररहण िकया है। जगत में िजतनी साधना, जरञान, िकररया आिद शिकरतयाँ हैं, उन सबको जगानेवाले आप ही हैं। इसिलए आपको िमिाए िबना यह माया िमि नही सकती। (इसिवषय मेंयिद पररमाण पूछा जायेतो आपकी शवर ासभूता शररितया ु ँ ही – हम पररमाण हैं।) यदरयिप हम आपका अनुकररम सरवरूपतः वणररन करने में असमथरर हैं, परंतु जब कभी आप माया के दरवारा जगत की सृिषरि करके सगुण हो जाते हैं या उसको िनषेध करके सरवरूपिसरथित की लीला करते हैं अथवा अपना सिचरचदानंदसरवरूप शररीिवगररह पररकि करके कररीड़ा करते हैं, तभी हम यितकंिचत् आपका वणररन करने में समथरर होती हैं। इसमें सनरदेह नहीं िक हमारे दरवारा इनरदरर, वरण आिद देवताओं का भी वणररन िकया जाता है, परंतु हमारे (शुितयो के) सारे मंतरर अथवा सभी मंतररदररषरिा ऋिष, पररतीत होने वाले इस समरपूणरर जगत को बररहरमसरवरूप ही अनुभव करते हैं। करयोंिक िजस समय यह सारा जगत नहीं रहता, उस समय भी आप बच रहते हैं। जैसे घि, शराब (िमिरिी का परयाला, कसोरा) आिद सभी िवकार िमिरिी से ही उतरपनरन और पररलय आप में ही होती है, तब कया आि िृथवी के समान िवकारी है ? नहीं-नहीं, आप तो एकरस-िनिवररकार हैं। इसी सेतो यह जगत आप मेंउतरपनरननहीं, पररतीत है। इसिलए जैसे घि, शराब आिद का वणिन भी िमटी का ही वणिन है। यही कारण है िक िवचारशीि ऋिि, मन से जो कुछ सोचा जाता है और वाणी से जो कुछ कहा जाता है, उसे आप में ही िसरथत, आपका ही सरवरूप देखते हैं। मनुषरय अपना पैर चाहे कहीं भी रखे, ईँि, पतरथर या काठ पर होगा वह पृथरवी पर ही, करयोंिक वे सब पृथरवीसरवरूप ही हैं। इसिलए हम चाहे िजस नाम या िजस रूप का वणररन करें, वह आिका ही नाम, आपका ही रूप है। भगवन् ! िोग सततव, रज, तम – इन तीन गुणो की माया से बन ह े एु अचछे -बुरे भावों या अचरछी-बुरी िकररयाओं में उलझ जाया करते हैं, परंतु आप तो उस माया निी के सरवामी, उसको नचाने वािे है। इसीिए िवचारशीि िुरि आिकी िीिाकथा केअमृतसागर मे गोते िगाते रहते है और इसको अिन स े ारेि-ाि ताि को धो-बहा देते हैं। करयों न हो, आपकी लीला-कथा सभी जीवों के मायामल को नषरि करने वाली जो है। पुरष ु ोतरतम ! िजन महापुरुषों ने आतरमजरञान के दरवारा अंतःकरण के राग-देि आिद और शरीर के कािकृत जरा -मरण आिद दोष िमिा िदये हैं और िनरनरतर आपके उस सरवरूप की अनुमित में मगरन रहते हैं, जो अखणरड आनंदसरवरूप है, उनरहोंने अपने पापतािो को सदा केििए शात , भसम कर िदया है, इसकेिवषय मेंतो कहना ही करया है !। ! , ; , महतरततरतरव, अहंकार आिद ने आपके अनुगररह से – आपके उनमें पररवेश करने पर ही इस बररहरमाणरड की सृिषरि की है। अनरनमय, परराणमय, मनोमय, िवजानमय और आनदंमय – इन िाचो कोशो मे िुरिरि से रहने

वािे, उनमें 'मैं-मैं' की सरिूितरर करने वाले भी आप ही हैं? आपके ही अिसरततरव से उन कोशों के अिसरततरव का अनुभव होता है और उनके न रहने पर भी अिनरतम अविधरूप से आप िवराजमान रहते है। इस पकार सबमे अिनवत और सबकी अविध होन ि े र भ ी अ स ं ग हीहै। कयोिकवासतवम वृितयो के दारा अिसत अथवा नािसत के रि मे अनुभव होता है , उन अनुकररम समसरत कायरर-कारणों से आप परे हैं। 'नेित-नेित' के दरवारा इन सबका िनषेध हो जाने पर भी आप ही शेष रहते हैं, करयोंिक आप उस िनषेध के भी साकरषी हैं और वासरतव में आप ही एकमातरर सतरय हैं। (इसिलएआपकेभजन केिबना जीव का जीवन वरयथररही है ; करयोंिक वह इस महान सतरय से वंिचत है)। ऋिषयों ने आपकी पररािपरत के िलए अनेकों मागरर माने हैं। उनमें जो सरथूल े े ं केऋिि समसत नािडयो केिनकिन क दिृषवािे है, वे मिणिुर चक मे अिगनरि से आिकी उिासना करते है। अरण वश सरथान हृदय में आपके परम सूकरषरम सरवरूप दहर बररहरम की उपासना करते हैं। पररभो ! हृदय से ही आपको पररापरत करने का शररेषरठ मागरर सुषुमरना नाड़ी बररहरमरनरधरर तक गयी हुई है। जो पुरुष उस जरयोितमररय मागरर को पररापरत कर लेता है और उससे ऊपर की ओर बढ़ता है, वह ििर जनरम-मृतरयु के चकरकर में नहीं पड़ता। भगवनर ! आपने ही देवता, मनुषरय और प श -पकर ु षी आिद योिनयाँ बनायी हैं। सदा-सवररतरर सब रूपों में आप हैं ही, इसिलएकारणरूप सेपररवेश न करने पर भी आप ऐसे जान पड़ते हैं मानों, उसमें पररिवषरि हुए हों। साथ ही िविभनरन आकृितयों का अनुकरण करके कहीं उतरतम तो कहीं अधमरूप से पररतीत होते है, जैसे आग छोिी-बड़ी िकिडयो और कमों केअनुसार पचुर अथवा अलि ििरमाण मे या उतम -अधमरूप में पररतीत होती है। इसिलए संतपुरुष लौिकक-पारलौिकक कमोररं की दुकानदारी से, उनके िलों से िवरकरत हो जाते हैं और अपनी िनमररल बुिदरध से सतरय-असतरय, आतरमा-अनातरमा को पहचानकर जगत के झूठे रूपों में नहीं िँसते; आपके सवररतरर एकरस, समभाव से िसरथत सतरयसरवरूप का साकरषातरकार करते हैं। पररभो ! जीव िजन शरीरों में रहता है, वे उसकेकमि केदारा िनिमित होते है और वासतव मे उन शरीरो के कायरर-कारणरूप आवरणों से वह रिहत है, करयोंिक वसरतुतः उन आवरणों की सतरता ही नहीं है। ततरतरवजरञानी पुरुष ऐसा कहते हैं िक समसरत शिकरतयों को धारण करने वाले आपका ही े वह सवरि है। सवरि होन क े का र ण अ ं श न ह ो न ि े र भी उसे अंश कहते है और कहते हैं। इसी से बुिदरधमान पुरुष जीव के वासरतिवक सरवरूप पर िवचार करके परम िव शर वास के साथ आपके चरणकमलों की उपासना करते हैं। करयोंिक आपके चरण ही समसरत वैिदक कमोररं के समपररणसरथान और मोकरषसरवरूप हैं। । ।। भगवन् ! परमातरमततरतरव का जरञान पररापरत करना अतरयंत किठन है। उसी का जरञान कराने के िलए आप िविवध पररकार के अवतार गररहण करते हैं और उनके दरवारा ऐसी लीला करते हैं, जो अमृत के महासागर से भी मधुर और मादक होती है। जो लोग उसका सेवन करते हैं, उनकी सारी थकावि दूर हो जाती है, वे िरमाननद से मगन हो जाते है। कुछ पेमी भकत तो ऐसे होते हैं, जो आपकी लीला-कथाओं को छोड़कर मोकरष की भी अिभलाषा नहीं करते सरवगरर आिद की तो बात अनुकररम ही करया है। वे आपके चरणकमलों के पररेमी परमहंसों के सतरसंग में, जहाँ आपकी कथा होती है, इतना सुख मानतेहैंिक उसकेिलए इस जीवन मेंपररापतर अपनी घर -गृहसथी का भी पिरतरयाग कर देते हैं। ( 10.87.21) पररभो ! यह शरीर आपकी सेवा का साधन होकर जब आपके पथ का अनुरागी हो जाता है, तब आतमा, िहतैषी, सुहृद और िपररय वरयिकरत के समान आचरण करता है। , । इतनी सुगमता होनेपर तथा अनुकल ू मानव शरीर पाकर भी लोग सखरयभाव आिद केदरवारा आपकी उपासना नहीं करते, आप में नहीं रमते, बिलरक इस िवनाशी और असतर शरीर तथा

उसके समरबिनरधयों में ही रम जाते हैं, उनरहीं की उपासना करने लगते हैं और इस पररकार अपने आतरमा का हनन करते हैं, उसे अधोगित में पहुँचाते हैं। भला, यह िकतने कषरि की बात है ! इसका िल शुदधहोता र हैिक उनकी सारी वृ ितरतयाँ, सारी वासनाएँ शरीर आिद में ही लग जाती हैं और ििर उनके अनुसार उनको प श -पकर ु षी आिद के न जाने िकतने बुरे-बुरे शरीर े ड त े ं भयावहजनम गहण करन ि ह ै औरइसपकारअतयत -मृतरयुरूप संसार में भिकना पड़ता है। । ।। पररभो ! बड़े-बड़े िवचारशील योगी-यित अपने परराण, मन और इिनरदररयों के वश में करके दृढ़ योगाभरयास के दरवारा हृदय में आपकी उपासना करते हैं। परंतु आ शर चयररकी बात तो यह है िक उनरहें िजस पद की पररािपरत होती है, उसी की पररािपरत उन शतररुओं को भी हो जाती है, जो आपसे वैर-भाव रखते है। कयोिक समरण तो वे भी करते ही है। कहा तक कहे , भगवन् ! वे िसतया. जो अजरञानवश आपको पिरिचरछनरन मानती हैं और आपकी शेषनाग के समान मोिी, िंबी तथा सुकुमार भुजाओं के पररित कामभाव से आसकरत रहती हैं, िजस परम पद को पररापरत करती हैं, वही िद हम शुितयो को भी पापत होता है। यदिि हम आिको सदा-सवररदा एकरस अनुभव करती हैं और आपके चरणारिवनरद का मकरनरद रस पान करती रहती हैं। करयों न हो, आप समदशीरर जो हैं। आपकी दृिषरि में उपासक के पिरिचरछनरन या अपिरिचरछनरन भाव में कोई अनरतर नहीं है। ( 10.87.23) भगवन् ! आप अनािद और अननरत हैं। िजसका जनरम और मृतरयु काल से सीिमत है, वह भिा, आपको कैसे जान सकता है। सरवयं बररहरमाजी, िनवृितरतपरायण सनकािद तथा पररवृितरतपरायण मरीिच आिद भी बहुत पीछे आपसे ही उतरपनरन हुए हैं। िजस समय आप सबको समेिकर सो जाते हैं, उस समय ऐसा कोई साधन नहीं रह जाता, िजससे उनके साथ ही सोया हुआ जीव आपको जान सके, करयोंिक उस समय न तो आकाशािद सरथूल जगत रहता है न तो महतरततरतरवािद सूकरषरम जगत। इन दोनों से बने हुए शरीर और उनके िनिमतरत करषण -मुहूतरर आिद काल के अंग भी अनुकररम नहीं रहते। उस समय कुछ भी नहीं रहता। यहाँ तक की शासत भी आिमे ही समा जाते है। (ऐसी अवसरथा में आपको जानने की चेषरिा न करके आपका भजन करना ही सवोररतरतम मागरर है।) पररभो ! कुछ लोग मानते हैं िक असतर जगत की उतरपितरत होती है और कुछ कहते हैं िक सतर-रूप दुःखों का नाश होने पर मुिकरत िमलती है। दूसरे लोग आतरमा को अनेक मानते हैं तो कई लोग कमरर के दरवारा पररापरत होने वाले लोक और परलोकरूप वरयवहार को सतरय मानते हैं। इसमें सनरदेह नहीं िक ये सभी बातें भररममूलक हैं और वे आरोप करके ही ऐसा उपदेश करते हैं। पुरुष ितररगुणमय है। इस पररकार का भेदभाव केवि अजान से ही होता है और आि अजान से सविथा िरे है। इसििए जानसवरि आिमे िकसी पकार का भेदभाव नहीं है। यह ितररगुणातरमक जगत मन की कलरपनामातरर है। केवल यही नहीं, परमातरमा और जगत से पृथकर पररतीत होने वाला पुरष ु भी कलरपनामातरर ही है। इस पररकार वासरतव में असतर होने पर भी अपने सतरय अिधषरठान आपकी सतरता के कारण यह सतरय -सा पररतीत हो रहा है। इसिलए े भोकता, भोगय और दोनो केसमबनध को िसद करन व ा ि ी इ िनदयाआिदिजतनाभीजगतहै , सबको आतरमजरञानी पुरष ु आतरमरूप से सतरय ही मानते हैं। सोने से बने हुए कड़े, कुणरडल आिद सरवणरररूप ही तो हैं; इसिलएउनको इस रू प मेंजाननेवाला पुरष ु उनरहेंछोड़ता नही,ंवह समझता है िक यह भी सोना है। इसी पकार यह जगत आतरमा में ही किलरपत, आतरमा से ही वरयापरत है, इसिलए आतरमजरञानी पुरष ु तो इसेआतरमरूप ही मानते हैं। भगवन् ! जो लोग यह समझते हैं िक आप समसरत पररािणयों और पदाथोररं के अिधषरठान हैं, सबके आधार हैं और सवाररतरमभाव से आपका भजन-सेवन करते हैं, वे मृतयु को तुचछ समझकर उसके िसर पर लात मारते हैं अथाररतर उस पर िवजय पररापरत कर लेते हैं। जो

िोग आिसे िवमुख है, वे चाहे िजतन ब े डे,िवदान उनरहहोें आप कमोररं का पररितपादन करने वाली े शुितयो से िशुओं के समान बाध िेते है। इसके िविरीत िजनहोन आ ि क े स ा थपे, मवेकासमबनधजोडरखाहै न केवि अपने को बिलरक दूसरों को भी पिवतरर कर देते हैं, जगत के बंधन से छुड़ा देते हैं। ऐसा सौभागरय भला, आपसे िवमुख लोगों को कैसे पररापरत हो सकता है। पररभो ! आप मन, बुिदरध और इिनरदररय आिद करणों से, िचनरतन, कमरर आिद साधनों से सवररथा रिहत हैं। ििर भी आप समसरत अंतःकरण और बाहरय करणों की शिकरतयों से सदासवररदा समरपनरन हैं। आप सरवतः िसदरध जरञानवान, सरवयंपररकाश हैं; अतः कोई काम करने के ििए आिको इिनदयो की आवशयकता नही है। जैसे छोटे -छोिे राजा अपनी पररजा से कर लेकर सरवयं अपने समरराि को कर देते हैं, वैसे ही मनुषयो के िूिय देवता और देवताओं के िूिय बहा आिद भी अिने अिधकृत पररािणयों से पूजा सरवीकार करते हैं और माया के अधीन होकर आपकी पूजा करते रहते हैं। वे इस पररकार आपकी पूजा करते हैं िक आपने जहाँ जो कमरर करने के िलए उनरहें िनयुकरत कर िदया है, वे आिसे भयभीत रहकर वही वह काम करते रहते है। िनतयमुकत ! आप मायातीत हैं; ििर भी जब अपनेईकरषणमातररसे, संकलरपमातरर के माया के साथ कररीड़ा करते हैं, तब आिका अनुकररम संकेत पाते ही जीवों के सूकरषरम शरीर और उनके सुपरत कमरर -संसरकार जग जाते हैं और चराचर पररािणयों की उतरपितरत होती हैं। पररभो ! आप परम दयालु हैं। आकाश के समान सबमें सम होने के कारण न तो कोई आपका अपना है और न तो पराया। वासतव मे तो आिकेसवरि मे मन और वाणी की गित ही नही है। आिमे कायि -कारणरूप पररपंच का अभाव होने से बाहरय दृिषरि से आप शूनरय के समान ही जान पड़ते हैं , परंतु उस दृिषरि के भी अिधषरठान होने के कारण आप परम सतरय हैं। भगवन् ! आप िनतरय एकरस हैं। यिद जीव असंखरय हों और सब-के-सब िनतरय एवं सवररवरयापक हों, तब तो वे आिके समान ही हो जायेगे ; उस हालत में वे शािसत हैं और आप शासक, यह बात बन ही नहीं सकती और तब आप उनका िनयंतररण कर ही नहीं सकते। उनका िनयंतररण आप तभी कर सकते हैं, जब वे आपसे उतरपनरन एवं आपकी अपेकरषा नरयून हों। इसमें सनरदेह नहीं िक ये सब-के-सब जीव तथा इनकी एकता या िविभनरनता आपसे ही उतरपनरन हुई है। इसिलए आप उनमें कारण रूप से रहते हुए भी उनके िनयामक हैं। वासरतव में आप उनमें समरूप से सरवरूप कैसा है। करयोंिक जो लोग ऐसा समझते हैं िक हमने जान िलया, उनरहोंने वासरतव में आपको नहीं जाना, उनरहोंने तो केवल अपनी बुिदरध के िवषय को जाना है, िजससे आप परे हैं। और साथ ही मित के दरवारा िजतनी वसरतुएँ जानी जाती हैं, वे मितयो की िभनरनता के कारण िभनरन-िभन होती है; इसिलएउनकी दुषिता, र एक मत के साथ दूसरे मत का िवरोध पररतरयकरष ही है। अतएव आपका सरवरूप समसरत मतों के परे है। सरवािमनर ! जीव आपसे उतरपनरन होता है, यह कहने का ऐसा अथरर नहीं है िक आप पिरणाम के दरवारा जीव बनते हैं। िसदरधानरत तो यह है िक पररकृित और पुरष ु दोनों ही अजनरमा हैं अथाररतर उनका वासरतिवक सरवरूप, जो आप हैं, कभी वृितरतयों के अंदर उतरता नहीं, जनरम नहीं लेता। तब पररािणयों का जनरम कैसे होता है? अजरञान के कारण पररकृित को पुरुष और पुरुष को पररकृित समझ लेने से, एक का दूसरे के साथ संयोग हो जाने से जैसे 'बुलबुला' नाम की कोई सरवतनरतरर वसरतु नहीं है, परनरतु उपादन-कारण जल और िनिमतरत-कारण वायु के संयोग से उसकी सृिषरि हो जाती है। पररकृित में पुरुष और पुरुष में पररकृित का अधरयास (एक में दूसरे की कलरपना) हो जाने के कारण ही जीवों के िविवध नाम और गुण रख िलये जाते हैं। अंत में जैसे समुदरर में निदयाँ और मधु में समसरत पुषरपों के रस समा जाते हैं, वैसे ही वे सब-के-सब उपािधरिहत आप में समा जाते हैं। (इसिलए जीवों की िभनरनता और उनका पृथकर अिसरततरव आपकेदरवारा िनयंितररत है। उनकी पृथक सरवतंतररता और सवररवरयापकता आिद वासरतिवक सतरय को न जानने के कारण ही मानी जाती है।) भगवन् ! सभी जीव आपकी माया से भररम में भिक रहे हैं, अपने को आप से पृथक मानकर जनरम-मृतरयु का चकरकर काि रहे हैं। परंतु बुिदरधमान पुरुष इस भररम को समझ लेते हैं और समरपूणरर भिकरतभाव से आपकी शरण गररहण करते हैं, करयोंिक आप जनरम-मृतरयु के चकरकर से छुड़ानेवाले हैं। यदरयिप शीत, गीषम और विा इन तीन भागोवािा कािचक आिका

भूिविासमात है, अनुकररम वह सभी को भयभीत करता है, परंतु वह उनरहीं को बार-बार भयभीत करता है, जो आपकी शरण नहीं लेते। जो आपके शरणागत भकरत हैं, उनरहें भला जनरम-मृतरयुरूप संसार का भय कैसे हो सकता है?

।। अजनरमा पररभो ! िजन योिगयों ने अपनी इिनरदररयों और परराणों को वश में कर िलया े ायत ं ं -तु है, वे भी जब गुरदेव केचरणो की शरण न िेकर उचछंखि एव अ तयत चंरचगंिमन को अिन व े श म ेकरनक े ा करते हैं, तब अिन स ध न ो मे स-बार ििनहीहोते खेद ।और उनहे बसैंकड़ों ार िवपितरतयों का सामना करना पड़ता है, केवल शररम और दुःख ही उनके हाथ लगता है। उनकी ठीक वही दशा होती है, जैसी समुदरर में िबना कणररधार की नाव पर यातररा करने वाले वरयापािरयों की होती है। (तातियि यह िक जो मन को वश मे करना चाहते है, उनके िलए कणररधार, गुर की अिनवायि आवशयकता है।) ( 10.87.33) भगवन् ! आप अखणरड आनंदसरवरूप और शरणागतों के आतरमा हैं। आपके रहते सरवजन, पुतरर, देह सती, धन, महल, पृथव र ी, परराण और रथ आिद से करया पररयोजन है? जो लोग इस सतरय िसदरधानरत को न जानकर सरतररी-पुरुष के समरबनरध से होने वाले सुखों में ही रम रहे हैं, उनरहें संसार में भला, ऐसी कौन सी वसरतु है, जो सुखी कर सके। करयोंिक संसार की सभी वसतुए स ावसे , एक-नहीिवनाशीहै एक िदन मिियामेि हो जाने वाली हैं और तो करया, वे सवरि से ँ व भ ही सारहीन और सतरताहीन हैं; वे भिा, करया सुख दे सकती हैं। भगवन् ! जो ऐशरवयरर, िकमी, िवदा, जाित, तिसया आिद के घमंड से रिहत है , वे संतिुरि इस िृथवीति िर परम पिवतरर और सबको पिवतरर करने वाले पुणरयमय सचरचे तीथररसरथान हैं। करयोंिक उनके हृदय में आपके चरणारिवनरद सवररदा िवराजमान रहते हैं और यही कारण है िक उन संत पुरुषों का चरणामृत समसरत पापों और तापों को सदा के िलए नषरि कर देने वाला है। भगवनर ! आप िनतरय-आनंदसरवरूप आतरमा ही है। जो एक बार भी आपको अपना मन समिपररत कर देते हैं, आपमें मन लगा देते हैं – वे उन देह – गेहों में कभी नहीं िँसते जो जीव के िववेक, वैरागय, धैयरर, करषमा और शांित आिद गुणों का नाश करने वाले हैं। वे तो बस , आपमें ही रम जाते हैं। भगवन् ! जैसे िमिरिी से बना हुआ घड़ा िमिरिीरूप ही होता है, वैसे ही सत् से बना हआ ु जगत भी सत् ही है; यह बात युिकरतसंगत नहीं है, करयोंिक कारण और कायरर का िनदेररश ही उनके भेद का दरयोतक है। यिद केवल भेद का िनषेध करने के िलए ही ऐसा कहा जा रहा हो तो िपता और पुतरर में तथा दणरड और घिनाश में कायरर-कारण की एकता सवररतरर एक सी नहीं देखी जाती। यिद कारण शबरद से िनिमतरत-कारण न लेकर केवल उपादान-कारण िलया जाय। जैसे कुणरडल का सोना तो भी कहीं-कहीं कायरर की असतरयता पररमािणत होती है; जैसे रसरसी में साँप। यहाँ उपादान-कारण अनुकररम के सतरय होने पर भी उसका कायरर सपरर अवसरथा असतरय है। यिद यह कहा जाय िक पररतीत होने वाले सपरर का उपादान-कारण केवल रसरसी नहीं है, उसके साथ अिवदरया का, भम का मेि भी है तो यह समझना चािहए िक अिवदा और सत् वसतु केसंयोग से ही इस जगत की उतरपितरत हुई है। इसिलए जैसे रसरसी में पररतीत होने वाला सपरर िमथरया है, वैसे ही सत् वसतु मे अिवदरया के संयोग से पररतीत होने वाला नाम-रूपातरमक जगत भी िमथरया है। यिद केवल वयवहार की िसिद के ििए ही जगत की सता अभीष हो तो उसमे कोई आिित नही ; करयोंिक वह पारमािथररक सतरय न होकर केवल वरयावहािरक सतरय है। यह भररम अजरञानीजन िबना िवचार िकये पूवररपूवरर के भय से पररेिरत होकर अंधपरमरपरा से इसे मानते चले आ रहे हैं। ऐसी िसरथित में कमररिल की सतरय बतलानेवाली शररुितयाँ केवल उनरही लोगों को भररम में डालती हैं, जो कमरर में जड़ हो रहे हैं और यह नहीं समझते िक इनका तातरपयरर उन कमोररं में िगान म े ेहै।भगवन् ! वासतिवक बात तो यह है िक यह जगत उतिित केिहिे नही था और पिय केबाद नही रहेगा , इससे यह िसदरध होता है िक यह बीच में भी एकरस परमातरमा में िमथरया ही पररतीत हो रहा है। इसी

से हम शररुितयाँ इस जगत का वणररन ऐसी उपमा देकर करती हैं िक जैसे िमिरिी में घड़ा , िोहे मे शसत और सोन म े े क ु णडिआिदनाममातहै , वासतव मे िमटी, िोहा और सोना ही है। वैसे ही िरमातमा मे विणित जगत नाममातरर है, सतरय सवररथा िमथरया और मन की कलरपना है। इसे नासमझ मूखरर ही सतरय मानते हैं। भगवन् ! जब जीव माया से मोिहत होकर अिवदरया को अपना लेता है, उस समय उसके सरवरूपभूत आनंदािद गुण ढक जाते हैं; वह गुणजनय वृितयो, िनर इ दररयोंऔर देहोंमेंिँसजाता हैतथा उनरहींको अपना-आपा मानकर उनकी सेवा करने लगता है। अब उनकी जनरम-मृतरयु में अपनी जनरममृतरयु मानकर उनके चकरकर में पड़ जाता है। परंतु पररभो ! जैसे साँप अपने केंचुल से कोई समरबनरध नहीं रखता, उसे छोड़ देता है, वैसे ही आि माया-अिवदरया से कोई समरबनरध नहीं रखते, उसे सदा-सवररदा छोड़े रहते हैं। इसी से आपके समरपूणरर ऐशरवयरर सदा-सवररदा आपके साथ रहते हैं। अिणमा आिद अषरििसिदरधयों से युकरत परमै शर वयररमें आपकी िसरथित है। इसी से आपका ऐशरवयरर, धमरर, यश, शी, जरञान और सीमा से आबदरध नहीं है। भगवन् ! यिद मनुषरय यित-योगी होकर भी अपने हृदय की िवषय वासनाओं को उखाड़ नहीं िेंकतेतो उन असाधरयों केिलए आप हृदय मेंरहनेपर भी वैसेही दुलररभहैं, जैसे कोई अपने गले में मिण पहने हुए हो, परंतु उसकी याद न रहने पर उसे ढूँढता ििरे इधर-उधर। जो साधक अपनी िनर इ दररयोंको तृपरत करनेमेंही लगेरहतेहै ,ंिवियो से िवरकत नही होते, उनरहें जीवनभर और जीवन के बाद भी दःुख-ही-दःुख भोगना िडता है। कयोिक वे साधक नही, दमभी है। एक तो अभी उनहे मृतयु से छुटकारा नही िमिा है , िोगो को िरझाने, धन कमाने आिद के करलेश उठाने पड़ रहे हैं और दूसरे आपका सरवरूप न जानने के कारण अपने धमरर-कमरर का उलरलंघन करने से परलोक में नरक आिद पररापरत होने का भय भी बना ही रहता है। अनुकररम भगवन् ! आपके वासरतिवक सरवरूप को जानने वाला पुरुष आपके िदये हुए पुणरय और पापकमोररं के िल सुख एवं दुःखों को नहीं जानता, नहीं भोगता, वह भोगय और भोकतािन के भाव से ऊपर उठ जाता है। उस समय िविधिनषेध के पररितपादक शासरतरर भी उससे िनवृतरत हो जाते हैं; करयोंिक वे देहािभमािनयों के िलए हैं। उनकी ओर तो उसका धरयान ही नहीं जाता। िजसे आपके सरवरूप का जरञान नहीं हुआ है, वह भी पितिदन आिकी पतयेक युग मे की हईु िीिाओं, गुणो का गान सुन-सुनकर उनके दरवारा आपको अपने हृदय में िबठा लेता है तो अननरत , अिचनरतय, िदवय गुणगणो के िनवाससथान पभो ! आपका वह पररेमी भकरत भी पाप-पुणरयों के िल सुख-दःुखो और िविधिनषेधों से अतीत हो जाता है, करयोंिक आप ही उनकी मोकरषसरवरूप गित हैं। (परंतु इन जरञानी और पररेिमयों को छोड़कर और सभी शासरतरर बंधन में हैं तथा वे उसका उलरलंघन करने पर दुगररित को पररापरत होते हैं।) भगवन् ! सरवगाररिद लोकों के अिधपित इनरदरर, बररहरमा पररभृितरत भी आपकी थाह-आपका पार न पा सके और आ शर चयरर की बात तो यह है िक आप भी उसे नहीं जानते। करयोंिक जब अंत है ही नहीं तब कोई जानेगा कैसे? पररभो ! जैसे आकाश में हवा से धूल के ननरहेंे ातआवरणोकेस ननरहें कण उड़ते रहते हैं, वैसे ही आिमे काि केवेग से अिन स े े उ त र ो तरदसगुनस असंखरय बररहरमाणरड एक साथ ही घूमते रहते हैं। तब भला, आपकी सीमा कैसे िमले। , । ' ( 10.87.14-41) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ बररहरमाजी दरवारा भगवान नारायण की सरतुित िकये जाने पर पररभु ने उनरहें समरपूणरर भागवत-तततव का उिदेश केवि चार शिोको मे िदया था। वही मूि चतुःशिोकी भागवत है। अनुकररम । ।। 1 ।

2 ।।

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।। 4 सृिषरि से पूवरर केवल मैं ही था। सतर, असतर या उससे परे मुझसे िभनरन कुछ नहीं था। सृिषरि न रहने पर (पररलयकाल में) भी मै ही रहता हँ। ू यह सब सृिषरि भी मै ही हूँ और जो कुछ इस सृिषरि, िसरथित तथा पररलय से बचा रहता है, वह भी मै ही हँू।(1) जो मुझ मूल ततरतरव को छोड़कर पररतीत होता है और आतरमा में पररतीत नहीं होता, उसे आतरमा की माया समझो। जैसे (वसतु का) पररितिबमरब अथवा अंधकार (छाया) होता है।(2) जैसे पंचमहाभूत (पृथव र ी, जल, अिगरन, वायु और आकाश) संसार के छोिे-बड़े सभी पदाथोररं में पररिवषरि होते हुए भी उनमें पररिवषरि नहीं हैं, वैसे ही मै भी िवश मे वयािक होन ि े रभी उससे समरपृकरत हूँ।(3) आतरमततरतरव को जानने की इचरछा रखने वाले के िलए इतना ही जानने योगरय है िक अनरवय (सृिषरि) अथवा वरयितरेक (पररलय) कररम में जो ततरतरव सवररतरर एवं सवररदा रहता है, वही आतमतततव है।(4) इस चतुः शर लोकीभागवत केपठन एवं शररवण सेमनुषरय केअजरञानजिनत मोह और मदरूप अंधकार का नाश हो वासतिवक जानरिी सूयि का उदय होता है। अनुकररम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सनर 1956 में मदररास इलाके में अकाल पड़ा। पीने का पानी िमलना भी दुलररभ हो गया। वहा का तािाब 'रेड सरिोन लेक' भी सूख गया। िोग तािहमाम् िुकार उठे। उस समय केमुखयमंती शी राजगोपालाचारी ने धािमररक जनता से अपील की िक 'सभी लोग दिरया के िकनारे एकितररत होकर परराथररना करें।' सभी समुदरर ति पर एकितररत हुए। िकसी ने जप िकया तो िकसी ने गीता का पाठ, िकसी ने रामायण की चौपाइयाँ गुंजायी तो िकसी ने अपनी भावना के अनुसार अपने इषरिदेव की परराथररना की। मुखरयमंतररी ने सचरचे हृदय से, गदगद कंठ से वरणदेव, इनरदररदेवऔर सबमेंबसेहुए आिदनारायणिवषरणुदेवकी पररथरर ा ना की । लोग पररथरर ा ना करकेशाम को घर पहुँचे। विा का मौसम तो कब का बीत चुका था। बािरश का कोई नामोिनशान नही िदखाई दे रहा था। 'आकाश मे बादल तो रोज आते और चिे जाते है। ' – ऐसा सोचते-सोचते सब लोग सो गये। रात को दो बजे मूसलाधार बरसात ऐसी बरसी, ऐसी बरसी िक 'रेड सरिोन लेक' पानी से छलक उठा। बािरश तो चिती ही रही। यहा तक िक मदास सरकार को शहर की सडको िर नावे चिानी िडी। दढ ृ िवशास, शुद भाव, भगवनाम, भगवतपाथिना छोटे -से-छोिे वरयिकरत को भी उनरनत करने में सकरषम है। महातरमा गाधी भी गीता के िाठ , परराथररना और रामनाम के सरमरण से िवघरन-बाधाओं को चीरते हुए अपने महान उदरदे शर य में सिल हुए , यह दुिनया जानती है। परराथररना करो.... जप करो... धरयान करो... ऊँचा संग करो... सिल बनो, अपने आतरमा-परमातरमा को पहचान कर जीवनमुकरत बनो। अनुकररम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

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