Sada Diwali

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  • Words: 6,313
  • Pages: 16
सदा िदवाली धनतेरस, काली चौदस, िदवाली, नूतनवषष और भाईदज ू .... इन पवो का पुञज माने िदवाली

के तयोहार। शरीर मे पुरषाथष, हदय मे उतसाह, मन मे उमंग और बुिि मे समता.... वैरभाव की िवसमिृत और सनेह की सिरता

का पवाह... अतीत के अनधकार को अलिवदा और नूतनवष ष के

नवपभात का सतकार... नया वषष और नयी बात.... नया उमंग और नया साहस... तयाग, उललास, माधुयष और पसननता बढाने के िदन याने दीपावली का पवप ष ञ ु ज।

नूतनवषष के नवपभात मे आतम-पसाद का पान करके नये वषष का पारं भ करे ... पातः स मरािम ह िद स ंसफुरदातमततवम ् सििच तसुख ं परमह ंस गित ं त ुरी यम।्

यतसवपनजागरस ुष ुपमव ै ित िनतयम ्

तद ब ह िनषकल महं न च भूत संघः।। 'पातःकाल मे मै अपने हदय मे सफुिरत होने वाले आतम-ततव का समरण करता हूँ। जो

आतमा सििचदाननद सवरप है , जो परमहं सो की अंितम गित है , जो तुरीयावसथारप है , जो जागत, सवपन और सुषुिप इन तीनो अवसथाओं को हमेशा जानता है और जो शुि बह है , वही मै हूँ। पंचमहाभूतो से बनी हुई यह दे ह मै नहीं हूँ।'

'जागत, सवपन और सुषुिप, ये तीनो अवसथाएँ तो बदल जाती है िफर भी जो िचदघन

चैतनय नहीं बदलता। उस अखणड आतम-चैतनय का मै धयान करता हूँ। कयोिक वही मेरा सवभाव है । शरीर का सवभाव बदलता है , मन का सवभाव बदलता है , बुिि के िनणय ष बदलते है िफर भी

जो नहीं बदलता वह अमर आतमा मै हूँ। मै परमातमा का सनातन अंश हूँ।' ऐसा िचनतन करने वाला साधक संसार मे शीघ ही िनलप े भाव को, िनलप े पद को पाप होता है ।

िचत की मिलनता िचत का दोष है । िचत की पसननता सदगुण है । अपने िचत को सदा

पसनन रखो। राग-दे ष के पोषक नहीं िकनतु राग-दे ष के संहारक बनो।

आतम-साकातकारी सदगुर के िसवाय अनय िकसी के ऊपर अित िवशास न करो एवं अित

सनदे ह भी न करो।

अपने से छोटे लोगो से िमलो तब करणा रखो। अपने से उतम वयिियो से िमलो तब

हदय मे शिा, भिि एवं िवनय रखो। अपने समकक लोगो से वयवहार करने का पसंग आने पर हदय मे भगवान शीराम की तरह पेम रखो। अित उदणड लोग तुमहारे संपकष मे आकर बदल न पाये तो ऐसे लोगो से थोडे दरू रहकर अपना समय बचाओ। नौकरो को एवं आिशत जनो को सनेह दो। साथ ही साथ उन पर िनगरानी रखो।

जो तुमहारे मुखय कायक ष ताष हो, तुमहारे धंधे-रोजगार के रहसय जानते हो, तुमहारी गुप बाते जानते हो उनके थोडे बहुत नखरे भी सावधानीपूवक ष सहन करो।

अित भोलभाले भी मत बनो और अित चतुर भी मत बनो। अित भोलेभाले बनोगे तो

लोग तुमहे मूखष जानकर धोखा दे गे। अित चतुर बनोगे तो

संसार का आकषण ष बढे गा।

लालची, मूखष और झगडालू लोगो के समपकष मे नहीं आना। तयागी, तपसवी और परिहत

परायण लोगो की संगित नहीं छोडना।

कायष िसि होने पर, सफलता िमलने पर गवष नहीं करना। कायष मे िवफल होने पर िवषाद

के गतष मे नहीं िगरना।

शसधारी पुरष से शसरिहत को वैर नहीं करना चािहए। राज जानने वाले से कसूरमंद

(अपराधी) को वैर नहीं करना चािहए। सवामी के साथ अनुचर को, शठ और दज ष के साथ ु न

साितवक पुरष को एवं धनी के साथ कंगाल पुरष को वैर नहीं करना चािहए। शूरवीर के साथ भाट को, राजा के साथ किव को, वैद के साथ रोगी को एवं भणडारी के साथ भोजन खाने वाले को भी वैर नहीं करना चािहए। इन नौ लोगो से जो वैर या िवरोध नहीं करता वह सुखी रहता है ।

अित संपित की लालच भी नहीं करना और संसार-वयवहार चलाने के िलए लापरवाह भी

नहीं होना। अकल, होिशयारी, पुरषाथष एवं पिरशम से धनोपाजन ष करना चािहए। धनोपाजन ष के िलए पुरषाथष अवशय करे िकनतु धमष के अनुकूल रहकर। गरीबो का शोषण करके इकटठा िकया हुआ धन सुख नहीं दे ता।

लकमी उसी को पाप होती है जो पुरषाथष करता है , उदोग करता है । आलसी को लकमी

तयाग दे ती है । िजसके पास लकमी होती है उसको बडे -बडे लोग मान दे ते है । हाथी लकमी को माला पहनाता है ।

लकमी के पास उललू िदखाई दे ता है । इस उललू के दारा िनिदषष है िक िनगुरो के पास

लकमी के साथ ही साथ अहं कार का अनधकार भी आ जाता है । उललू सावधान करता है िक सदा अिछे पुरषो का ही संग करना चािहए। हमे सावधान करे , डाँटकर सुधारे ऐसे पुरषो के चरणो मे जाना चािहए।

वाहवाही करने वाले तो बहुत िमल जाते है िकनतु तुम महान ् बनो इस हे तु से तुमहे सतय

सुनाकर सतय परमातमा की ओर आकिषत ष करने वाले, ईशर-साकातकार के मागष पर ले चलने

वाले महापुरष तो िवरले ही होते है । ऐसे महापुरषो का संग आदरपूवक ष एवं पयतपूवक ष करना चािहए। रामचनदजी बडो से िमलते तो िवनम भाव से िमलते थे, छोटो से िमलते तब करणा से िमलते थे। अपने समकक लोगो से िमलते तब सनेहभाव से िमलते थे और तयाजय लोगो की उपेका करते थे।

जीवन के सवाग ा ीण िवकास के िलए यह शासीय िनयम आपके जीवन मे आना ही

चािहए।

हररोज पभात मे शुभ संकलप करोः "मुझे जैसा होना है ऐसा मै हूँ ही। मुझमे कुछ कमी

होगी तो उसे मै अवशय िनकालूँगा।" एक बार पयत करो.... दो बार करो..... तीन बार करो.... अवशय सफल बनोगे।

'मेरी मतृयु कभी होती ही नहीं। मतृयु होती है तो दे ह की होती है ....' ऐसा सदै व िचनतन

िकया करो।

'मै कभी दब ष नहीं होता। दब ष और सबल शरीर होता है । मै तो मुि आतमा हूँ... चैतनय ु ल ु ल

परमातमा का सनातन अंश हूँ.... मै सदगुर ततव का हूँ। यह संसार मुझे िहला नहीं सकता,

झकझोर नहीं सकता। झकझोरा जाता है शरीर, िहलता है मन। शरीर और मन को दे खने वाला मै चैतनय आतमा हूँ। घर का िवसतार, दक ु ान का िवसतार, राजय की सीमा या राष की सीमा बढाकर मुझे बडा कहलवाने की आवशयकता नहीं है । मै तो असीम आतमा हूँ। सीमाएँ सब माया मे है ,

अिवदा मे है । मुझ आतमा मे तो असीमता है । मै ते मेरे इस असीम राजय की पािप करँगा और िनििनत िजऊँगा। जो लोग सीमा सुरिकत करके अहं कार बढाकर जी गये, वे लोग भी आिखर

सीमा छोडकर गये। अतः ऐसी सीमाओं का आकषण ष मुझे नहीं है । मै तो असीम आतमा मे ही िसथत होना चाहता हूँ....।'

ऐसा िचनतन करने वाला साधक कुछ ही समय मे असीम आतमा का अनुभव करता है । पेम के बल पर ही मनुषय सुखी हो सकता है । बनदक ू पर हाथ रखकर अगर वह िनििनत

रहना चाहे तो वह मूखष है । जहाँ पेम है वहाँ जान की आवशयकता है । सेवा मे जान की

आवशयकता है और जान मे पेम की आवशयकत है । िवजान को तो आतमजान एवं पेम, दोनो की आवशयकता है ।

मानव बन मानव का कलयाण करो। बम बनाने मे अरबो रपये बरबाद हो रहे है । ....और

वे ही बम मनुषय जाित के िवनाश मे लगाये जाएँ ! नेताओं और राजाओं की अपेका िकसी आतमजानी गुर के हाथ मे बागडोर आ जाय तो िवश ननदनवन बन जाये।

हम उन ऋिषयो को धनयवाद दे ते है िक िजनहोने िदवाली जैसे पवो का आयोजन करके

मनुषय से मनुषय को नजदीक लाने का पयास िकया है , मनुषय की सुषुप शिियो को जगाने का

सनदे श िदया है । जीवातमा का परमातमा से एक होने के िलए िभनन-िभनन उपाय खोजकर उनको समाज मे, गाँव-गाँव और घर-घर मै पहुँचाने के िलए उन आतमजानी महापुरषो ने पुरषाथष िकया है । उन महापुरषो को आज हम हजार-हजार पणाम करते है ।

यो यादश ेन भाव ेन ितषतयसया ं य ु िधिषर। हष ष दैनयािदरप ेण त सय वष ा पया ित व ै।।

वेदवयासजी महाराज युिधिषर से कहते है -

"आज वषष के पथम िदन जो वयिि हषष मे रहता है उसका सारा वषष हषष मे बीतता है । जो वयिि िचनता और शोक मे रहता है उसका सारा वषष ऐसा ही जाता है ।"

जैसी सुबह बीतती है ऐसा ही सारा िदन बीतता है । वषष की सुबह माने नूतन वषष का पथम िदन। यह पथम िदन जैसा बीतता है ऐसा ही सारा वषष बीतता है ।

वयापारी सोचता है िक वषष भर मे कौन सी चीजे दक ु ान मे बेकार पडी रह गई, कौन सी

चीजो मे घाटा आया और कौन सी चीजो मे मुनाफा हुआ। िजन चीजो मे घाटा आता है उन

चीजो का वयापार वह बनद कर दे ता है । िजन चीजो मे मुनाफा होता है उन चीजो का वयापार वह बढाता है ।

इसी पकार भिो एवं साधको को सोचना चािहए िक वषष भर मे कौन-से कायष करने से

हदय उिदगन बना, अशानत हुआ, भगवान, शास एवं गुरदे व के आगे लिजजत होना पडा अथवा

अपनी अनतरातमा नाराज हुई। ऐसे कायष, ऐसे धनधे, ऐसे कमष, ऐसी दोसती बनद कर दे नी चािहए। िजन कमो के िलए सदगुर सहमत हो और िजन कमो से अपनी अनतरातमा पसनन हो, भगवान पसनन हो, ऐसे कमष बढाने का संकलप कर लो।

आज का िदन वषर ष पी डायरी का पथम पनना है । गत वषष की डायरी का िसंहावलोकन

करके जान लो िक िकतना लाभ हुआ और िकतनी हािन हुई। आगामी वषष के िलए थोडे िनणय ष कर लो िक अब ऐसे-ऐसे जीऊँगा। आप जैसे बनना चाहते है ऐसे भिवषय मे बनेगे, ऐसा नहीं।

आज से ही ऐसा बनने की शुरआत कर दो। 'मै अभी से ही ऐसा हूँ।' यह िचनतन करो। ऐसे न होने मे जो बाधाएँ हो उनहे हटाते जाओ तो आप परमातमा का साकातकार भी कर सकते हो। कुछ भी असंभव नहीं है ।

आप धमान ष ुषान और िनषकाम कमष से िवश मे उथल पुथल कर सकते है । उपासना से

मनभावन इषदे व को पकट कर सकते है । आतमजान से अजान िमटाकर राजा खटवांग, शुकदे व जी और राजिषष जनक की तरह जीवनमुि भी बन सकते है ।

आज नूतन वषष के मंगल पभात मे पकका संकलप कर लो िक सुख-दःुख मे, लाभ-हािन मे

और मान-अपमान मे सम रहे गे। संसार की उपलििधयो एवं अनुपलििधयो मे िखलौनाबुिि करके अपनी आतमा आयेगे। जो भी वयवहार करे गे वह ततपरता से करे गे। जान से युि होकर सेवा करे गे, मूखत ष ा से नहीं। जान-िवजान के तप ृ बनेगे। जो भी कायष करे गे वह ततपरता से एवं सतकषता से करे गे।

रोटी बनाते हो तो िबलकुल ततपरता से बनाओ। खाने वालो की तनदरसती और रिच बनी

रहे ऐसा भोजन बनाओ। कपडे ऐसे धोओ िक साबुन अिधक खचष न हो, कपडे जलदी फटे नहीं

और कपडो मे चमक भी आ जाये। झाडू ऐसा लगाओ िक मानो पूजा कर रहे हो। कहीं कचरा न रह जाये। बोलो ऐसा िक जैसा शीरामजी बोलते थे। वाणी सारगिभत ष , मधुर, िवनययुि, दस ू रो को मान दे नेवाली और अपने को अमानी रखने वाली हो। ऐसे लोगो का सब आदर करते है ।

अपने से छोटे लोगो के साथ उदारतापूणष वयवहार करो। दीन-हीन, गरीब और भूखे को

अनन दे ने का अवसर िमल जाय तो चूको मत। सवयं भूखे रहकर भी कोई सचमुच भूखा हो तो

उसे िखला दो तो आपको भूखा रहने मे भी अनूठा मजा आयेगा। उस भोजन खाने वाले की तो चार-छः घणटो की भूख िमटे गी लेिकन आपकी अनतरातमा की तिृप से आपकी युगो युगो की और अनेक जनमो की भूख िमट जायेगी।

अपन े द ु ःख म े रोन े वाल े ! मुसकुराना सीख ल े। द ू सरो के दद ष मे आ ँस ू बहाना सीख ल े।

जो िखलान े म े म जा ह ै आ प खान े म े नही ं।

िजनद गी मे त ू िक सी के काम आना

स ीख ले।।

सेवा से आप संसार के काम आते है । पेम से आप भगवान के काम आते है । दान से

आप पुणय और औदायष का सुख पाते है और एकानत व आतमिवचार से िदलबर का साकातकार करके आप िवश के काम आते है ।

लापरवाही एवं बेवकूफी से िकसी कायष को िबगडने मत दो। सब कायष ततपरता, सेवाभाव

और उतसाह से करो। भय को अपने पास भी मत फटकने दो। कुलीन राजकुमार की गौरव से कायष करो।

बिढया कायष, बिढया समय और बिढया वयिि का इनतजार मत करो। अभी जो समय

आपके हाथ मे है वही बिढया समय है । वतम ष ान मे आप जो कायष करते है उसे ततपरता से

बिढया ढं ग से करे । िजस वयिि से िमलते है उसकी गहराई मे परमेशर को दे खकर वयवहार करे । बिढया वयिि वही है जो आपके सामने है । बिढया काम वही है जो शास-सममत है और अभी आपके हाथ मे है ।

अपने पूरे पाणो की शिि लगा कर, पूणष मनोयोग के साथ कायष करो। कायष पूरा कर लेने

के बाद कताप ष न को झाड फेक दो। अपने अकताष, अभोिा, शुि, बुि सििचदाननद सवरप मे गोता लगाओ।

कायष करने की कमता बढाओ। कायष करते हुए भी अकताष, अभोिा आतमा मे पितिषत

होने का पयास करो।

धयान, भजन, पूजन का समय अलग और वयवहार का समय अलग... ऐसा नहीं है ।

वयवहार मे भी परमाथष की अनुभूित करो। वयवहार और परमाथष सुधारने का यही उतम मागष है । राग दे ष कीण करने से सामथयष आता है । राग-दे ष कीण करने के िलए 'सब आपके है ....

आप सबके है ...' ऐसी भावना रखो। सबके शरीर पचंमहाभूतो के है । उनका अिधषान, आधार पकृ ित है । पकृ ित का आधार मेरा आतमा-परमातमा एक ही है । ॐ.... ॐ.... ॐ.... ऐसा साितवक समरण वयवहार और परमाथष मे चार चाँद लगा दे ता है ।

सदै व पसनन रहो। मुख को कभी मिलन मत होने दो। िनिय कर लो िक शोक ने आपके

िलए जगत मे जनम ही नहीं िलया है । आपके िनतय आननदसवरप मे, िसवाय पसननता के िचनता को सथान ही कहाँ है ?

सबके साथ पेमपूणष पिवतता का वयवहार करो। वयवहार करते समय यह याद रखो िक िजसके साथ आप वयवहार करते है उसकी गहराई मे आपका ही पयारा िपयतम िवराजमान है ।

उसी की सता से सबकी धडकने चल रही है । िकसी के दोष दे खकर उससे घण ृ ा न करो, न उसका बुरा चाहो। दस ू रो के पापो को पकािशत करने के बदले सुदढ बनकर उनहे ढँ को।

सदै व खयाल रखो िक सारा बहाणड एक शरीर है , सारा संसार एक शरीर है । जब तक आप

हर एक से अपनी एकता का भान व अनुभव करते रहे गे तब तक सभी पिरिसथितयाँ और

आसपास की चीजे, हवा और सागर की लहरे तक आपके पक मे रहे गी। पाणिमत आपके अनुकूल बरतेगा। आप अपने को ईशर का सनातन अंश, ईशर का िनभीक और सवावलमबी सनातन सपूत समझे।

सवामी िववेकाननद बार-बार कहा करते थेः

"पहले तुम भगवान के राजय मे पवेश कर लो, बाकी का अपने आप तुमहे पाप हो जायेगा। भाइयो ! अपनी पूरी शिि लगाओ। पूरा जीवन दाँव पर लगाकर भी भगवद राजय मे

पहुँच जाओगे तो िफर तुमहारे िलए कोई िसिि असाधय नहीं रहे गी, कुछ अपापय नहीं रहे गा, दल ष ु भ नहीं रहे गा। उसके िसवाय िसर पटक-पटककर कुछ भी बहुमूलय पदाथष या धयेय पा िलया िफर

भी अनत मे रोते ही रहोगे। यहाँ से जाओगे तब पछताते ही जाओगे। हाथ कुछ भी नहीं लगेगा। इसिलए अपनी बुिि को ठीक ततव की पहचान मे लगाओ।"

िजस दे श मे गुर िशषय परं परा हो, िजस दे श मे ऐसे बहवेताओं का आदर होता हो जो

अपने को परिहत मे खपा दे ते है , अपने 'मै' को परमेशर मे िमला दे ते है । उस उस दे श मे ऐसे

पुरष अगर सौ भी हो तो उस दे श को िफर कोई परवाह नहीं होती, कोई लाचारी नहीं रहती, कोई परे शानी नहीं रहती।

जहाँ दे खो वहाँ सथूल शरीर का भोग, सथूल "मै" का पोषण और नशर पदाथो के पीछे

अनधी दौड लगी है । शाशत आतमा का घात करके नशर शरीर के पोषण के पीछे ही सारी

िजनदगी, अकल और होिशयारी लगायी जा रही है । पािातय दे शो का यह कचरा भारत मे बढता जा रहा है । उन दे शो मे अिधक से अिधक सुिवधा-समपनन कैसे हो सकते है , यही लकय है । वहाँ

सुिवधा और धन से संपनन वयिि को बडा वयिि मानते है , जबिक भारत मे आदमी कम-से-कम िकतनी चीजो मे गुजारा कर सकता है , कम-से-कम िकन चीजो से उसका जीवन चल सकता है , यह सोचा जाता था। यहाँ जान संयुि तयागमय दिष रही है ।

भारतीय संसकृ ित और भारतीय ततवजान की ऐसी अदभुत संपित है िक उसके आदशष की

हर कोई पशंसा करते है । आदमी चाहे कोई भी हो, िकसी भी दे श, धमष, जाित और संपदाय का

अनुयायी हो, वह िनषपक अधययन करता है तो भारत की अधयातमिवदा एवं संसकृ ित से पभािवत हुए िबना नहीं रह सकता। घोर नािसतक भी गीता के जान की अवहे लना नहीं कर सकता।

कयोिक गीता मे ऐसे ततवजान और वयवहािरक सनदे श िदये है जो हर बुजिदल को उननत करने

के िलए, मरणासनन को मुसकान दे ने के िलए, अकमण ष य पलायनवादी को अपने कतवषय-पथ पर अगसर करने के िलए सकम है ।

पििमी दे शो मे अित भौितकवाद ने मानिसक अशािनत, घोर िनराशा आिद िवकृ ितयो को

खूब पनपाया है । िवलािसता, मांस-मिदरा एवं आधुिनकतम सुिवधाएँ मानव को सुख-शािनत नहीं

अिपतु घोर अशािनत पदान करती है तथा मानव से दानव बनाने का ही कारण बनती है । पििमी दे शो मे संसकृ ित के नाम पर पनप रही िवकृ ितयो के ही कारण बलातकार, अपहरण और आतम हतयाओं की घटनाएँ िदन पितिदन बढती ही जा रही है । अधयातमशूनय जीवन से मानव का

कलयाण असमभव है , यह पििमी दे शो के अनेक िवचारको एवं बुििजीिवयो ने पचासो वषष पूवष

अनुभव कर िलया था। वे यह भली भाँित समझ गये थे िक अधयातमवाद और आिसतकता के िबना जीवन वयथष है । अनेक िवदे शी िवदान भौितकवाद की चकाचौध से मुि होकर अधयातमवाद की शरण मे आये।

पतकार िशवकुमारजी गोयल अपने संसमरणो मे िलखते है िकः

कई वषष पहले अमेिरका से एक सुिशिकत एवं तेजसवी युवक को ईसाई धमष का पचार और पसार करने के उदे शय से भारत भेजा गया। इस पितभाशाली एवं समिपत ष भावनावाले युवक का नाम था सैमयुल एवनस सटौकस।

भारत मे उसे िहमाचल पदे श के पहाडी इलाके मे ईसाई धमष के पचार का कायष सौपा

गया। यह केत िनधन ष ता और िपछडे पन से गिसत था। अतः पादरी सटौकस ने गरीब अनपढ पहाडी लोगो मे कुछ ही समय मे ईसाइयत के पचार मे सफलता पाप कर ली। उसने अपने

पभाव और सेवा-भाव से हजारो पहािडयो को िहनद ू धमष से ियुत कर ईसाई बना िलया। उनके

घरो से रामायण, गीता और अवतारो की मूितय ष ाँ हटवाकर बाइिबल एवं ईसा की मूितय ष ाँ सथािपत करा दीं।

एक िदन पादरी सटौकस कोटागढ के अपने केनद से सैर करने के िलए िनकले िक सडक

पर उनहोने एक तेजसवी गेरए वसधारी संनयासी को घूमते दे खा। एक दस ू रे से पिरचय हुआ तो पता चला िक वे मदास के सवामी सतयाननद जी है तथा िहमालय-याता पर िनकले है ।

पादरी सटौकस िवनमता की मूितष तो थे ही, अतः उनहोने सवामी से राित को अपने िनवास

सथान पर िवशाम कर धम ष के समबनध मे िवचार-िवमशष करने का अनुरोध िकया, िजसे सवामी जी ने सहषष सवीकार कर िलया।

सवामी जी ने राित को गीता का पाठ कर भगवान शीकृ षण की उपासना की। सटौकस और

उनका पिरवार िजजासा के साथ इस दशय को दे खते रहे । रातभर गीता, अधयातमवाद, िहनद ू धमष के महतव और अितभौितकवाद से उतपनन अशािनत पर चचाष होती रही। सटौकस पिरवार गीता

की वयाखया सुनकर गीता-ततव से बहुत ही पभािवत हुआ। भारत के अधयातमवाद, भारतीय दशन ष

और संसकृ ित की महता ने उनकी आँखे खोल दीं। भगवान शीकृ षण तथा गीता ने उनके जीवन को ही बदल िदया।

पातःकाल ही युवा पादरी सटौकस ने सवामी जी से पाथन ष ा कीः "आप मुझे अिवलमब सपिरवार िहनद ू धमष मे दीिकत करने की कृ पा करे । मै अपना शेष

जीवन गीता और िहनद ू धमष के पचार मे लगाऊँगा तथा पहाडी गरीबी की सेवा कर अपना जीवन धमप ष रायण भारत मे ही वयतीत करँ गा।"

कालानतर मे उनहोने कोटगढ मे भवय गीता मिनदर का िनमाण ष कराया। वहाँ भगवान

शीकृ षण की मूितय ष ाँ सथािपत करायीं। बमाष से कलातमक लकडी मँगवाकर उस पर पूरी गीता के शोक खुदवाये। सेवो का िवशाल बगीचा लगवाया। सतयाननद सटौकस अब भारत को ही अपनी

पुणय-भूिम मानकर उसकी सुख-समिृि मे तनमय हो गय। भारत के सवाधीनता आनदोलन मे भी उनहोने सििय रप से भाग िलया तथा छः मास तक जेल यातनाएँ भी सहन कीं। महामना मालवीयजी के पित उनकी अगाध िनषा थी।

उनहोने दे वोपासना, 'टू एवेिकंग इं िडया' तथा 'गीता-ततव' आिद पुसतके िलखीं। उनकी

'पििमी दे शो का िदवाला' पुसतक तो बहुत लोकिपय हुई, िजसकी भूिमका भी दीनबनधु एंडज ने िलखी थी।

महामना मालवीय जी न

े एक बार उनस े प ूछा ः

"आप िहन द ु ओं को ध मष पिरवत ष न करा कर

आये थ े , िकनत ु स वयं िकस कारण ईसाई ध गये ?"

इस पर उ नहोन े उतर िदयाः

ई साई बनान े के उ देश य स े भारत

मष तयाग कर िह नद ू ध मष मे दी िकत हो

"भगवान की क ृपा से म ेरी यह भा िनत द ू र हो ग ई िक अ मेिरका या

भारत को ईसा का सन

िबट ेन

देश द े कर सुख -शा िनत की स थापना और मानवता की स

सकत े ह ै। मानवता की वासतिव

ेवा कर

क स ेवा तो गीता , िहनद ू ध मष और अ धया तमवाद क े

माग ष से ही स मभव ह ै। इ सीिलए गी ता -ततव स े पभा िवत होकर म ै ने िह नद ू ध मष और भारत की शरण ली ह

ै। "

लेखकः शी िशवकुमार गोयल पतकार

वे ही दे श, वयिि और धमष िटके है , शाशत पितषा को पाये है , जो तयाग पर आधािरत है । वतम ष ान मे भले कोई वैभवमान हो, ऊँचे आसन, िसंहासन पर हो, लेिकन वे धमष, वे वयिि और वे राजय लमबे समय तक नहीं िटकेगे, अगर उनका आधार तयाग और सतय पर पितिषत नहीं है तो। िजनकी गहराई मे सतयिनषा है , तयाग है और कम-से-कम भौितक सुिवधाओं का

उपयोग करके जयादा-से-जयादा अंतरातमा का सुख लेते है उनहीं के िवचारो ने मानव के जीवन

का उतथान िकया है । जो अिधक भोगी है , सुिवधासामगी के अिधक गुलाम है वे भले कुछ समय के िलए हिषत ष िदखे, सुखी िदखे, लेिकन आतमसुख से वे लोग वंिचत रह जाते है ।

करीब दो हजार वषष पहले यूनान के एक नगर पर शतुओं ने आिमण कर िदया और वे

िवजयी हो गये। िवजय की खुशी मे उनहोने घोषणा कर दीः "िजसको अपना िजतना सामान चािहए उतना उठाकर ले जा सकता है ।"

सब नगरवासी अपना अपना सामान िसर पर ढोकर जाने लगे। िफर भी बहुत कुछ

सामान, माल िमिलकयत पीछे छूट रही थी। हताश, िनराश, हारे , थके, उदास, मनद, मलान, चंचलिचत लोग पीिडत हदय से जा रहे थे। उनमे एक तप ृ हदयवाला, पसनन िचतवाला वयिि अपनी

शहनशाही चाल से चला जा रहा था। उसके पास कोई झोली-झणडा, सर-सामान नहीं था। हाथ खाली, िदल पफुिललत और आँखो मे अनोखी िनििनतता। आतम-मसती के माधुयष से दमकता हुआ मुख मणडल। वह वयिि था दाशिषनक बायस।

संसारी चीज वसतुओं से अपने को सुखी-दःुखी मानने वाले नासमझ लोग बायस के सुख

को कया जाने? उनकी आतमिनषा और आतममसती को कया जाने? िकसी ने बायस पर दया खाते हुए उनसे पूछाः

"अरे रे ! तुमहारे पास कुछ भी सामान नहीं है ? िबलकुल खाली हाथ? िकतनी गरीबी ! िभखमंगो के पास अपना बोरी-िबसतर होता है , गडा हुआ धन होता है । तुमहारे पास कुछ भी नहीं है ? इतनी दिरदता ! इतनी कंगािलयत !" आतमारामी बायस ने कहाः

"कंगाल मै नहीं हूँ। कंगाल तो वे लोग है जो िमटने वाली संपदा को अपनी संपदा मानते

है और आतम-संपदा से वंिचत रहते है । मै अपनी आतम-संपदा पूरी की पूरी अपने साथ िलये जा रहा हूँ। मेरी इस संपदा को छीन नहीं सकता। उसे उठाने मे कोई बोझ नहीं लगता। समता की

सुरभी, शील का सामथयष, अनंत बहांडो मे वयाप सत ् िचत ् आननदसवरप, पाणी मात का अिधषान आतमदे व है । उसी की सता से सबकी धडकने चलती है , सबके िचत चेतना को पाप होते है । उस

आतम-चैतनय को मै संपूणर ष पेण पाप होते है । उस आतम-चैतनय को मै संपूणर ष पेण पाप हुआ हूँ। उस पूणष संपदा से मै पूणष तप ृ हुआ हूँ। मै बेचारा नहीं हूँ। मै कंगाल नहीं हूँ। मै गरीब नहीं हूँ। बेचारे , कंगाल और गरीब तो वो लोग है जो मानवतन पाप करके भी अपनी आतम-संपदा से वंिचत रहते है ।"

शुकदे वजी, वामदे वजी, जडभरतजी जैसे तयागी महापुरष बाहर से भले ऐसे ही अिकंचन

िदखते हो, झोपडे मे रहते हुए, कौपीन धारण िकये हुए िदखते हो, िकनतु आतमराजय मे उनहोने

पवेश िकया है । वे सवयं तो सुखी है , उनके अिसततव मात से वातावरण मे सुख, शािनत, आननद एवं रौनक छा जाती है ।

सिचे गुर दे ना ही दे ना पसंद करते है और लेते है तो भी दे ने के िलए ही लेते है । लेते हुए िदखते है मगर वे ली हुई चीजे िफर घुमािफरा कर उसी समाज के िहत मे, समाज के कायष मे लगा दे ते है ।

ऐसे महापुरष को अपनी अलप मित से नापना साधक सवीकार नहीं करता। उनका बाह

वयवहार मिसतषक मे नहीं तौलता। उनके अंतर के पेम को झेलता है । अंतर के चकुओं को िनहारता है और उनके साथ अंतरातमा से समबनध जोड लेता है । जो आतमारामी

ब हवेताओ ं से दी िकत होत े ह ै उ नहे प ता है िक स ं सार के सार े

वैजािनक , सताधीश , सार े धनवान लोग

िमलकर एक आ दमी को उतना स

सकत े जो स दगुर िनगाह म ात स े सत ् िशषय को द े स कते ह ै।

ुख नही ं द े

वे सजजन लोग जो सताधीश है , वैजािनक है , वे सुिवधाएँ दे सकते है । गुर शायद वे चीजे

न भी दे । सुिवधाएँ इिनदयजनय सुख दे ती है ।

कुते को भी हलुवा खाकर मजा आता है । वह इिनदयजनय सुख है । िकनतु बुिि मे जान

भरने पर जो अनुभिू त होती है वह कुछ िनराली होती है । हलुवा खाने का सुख तो िवषय-सुख है । िवषय-सुख मे

पशुओं को भी मजा आता है । साहब को सोफा पर बैठने मे जो मजा आता है ,

सूअर को नाली मे वही मजा आता है , एक िमसटर को िमिसज से जो मजा आता है , कुते को कुितया से वही मजा आता है । मगर अनत मे दे खो तो दोनो का िदवाला िनकल जाता है ।

इिनदयगत सुख दे ना उसमे सहयोग करना यह कोई महतवपूणष सेवा नहीं है । सिची सेवा

तो उन महिषष वेदवयास ने की, उन सतगुरओं ने की, उन बहवेताओं ने की िजनहोने जीव को

जनम-मतृयु की झंझट से छुडाया.... जीव को सवतंत सुख का दान िकया.... िदल मे आराम िदया.... घर मे घर िदखा िदया.... िदल मे

िदलबर का दीदार करने का रासता बता िदया। यह सिची सेवा

करने वाले जो भी बहवेता हो, चाहे पिसि हो चाहे अपिसि, नामी हो चाहे अनामी, उन सब बहवेताओं को हम खुले हदय से हजार-हजार बार आमंितत करते है और पणाम करते है ।

'हे महापुरषो ! िवश मे आपकी कृ पा जलदी से पुनः पुनः बरसे। िवश अशािनत की आग मे

जल रहा है । उसे कोई कायदा या कोई सरकार नहीं बचा सकती।

हे आतमजानी गुरओं ! हे बहवेताओं ! हे िनदोष नारायण-सवरपो ! हम आपकी कृ पा के ही

आकांकी है । दस ू रा कोई चारा नहीं। अब न सता से िवश की अशािनत दरू होगी, न अकल होिशयारी से, न शािनतदत ू भेजने से। केवल आप लोगो की अहे तुकी कृ पा बरसे....।'

उनकी कृ पा तो बरस रही है । दे खना यह िक हम िदल िकतना खुला रखते है , हम उतसुिा

से िकतनी रखते है । जैसे गधा चनदन का भार तो ढोता है मगर उसकी खुशबू से वंिचत रहता

है । ऐसे ही हम मनुषयता का भार तो ढोते है लेिकन मनुषयता का जो सुख िमलना चािहए उससे हम वंिचत रह जाते है ।

आदमी िजतना छोटा होगा उतना इिनदयगत सुख मे उसे जयादा सुख पतीत होगा। आदमी िजतना बुििमान होगा उतना बाह सुख उसे तुिछ लगेगा और अनदर का सुख उसे बडा लगेगा। बिचा िजतना अलपमित है उतना िबसकुट, चॉकलेट उसे जयादा महतवपूणष लगेगा। सोने के आभूषण, हीरे -जवाहरात चखकर छोड दे गा। बिचा िजतना बुििमान होता जायगा उतना इन चीजो को सवीकार करे गा और चॉकलेट, िबसकुट आिद के चककर मे नही पडे गा।

ऐसा ही मनुषय जाित का हाल है । आदमी िजतना अलपमित है उतना किणक सुख मे,

आवेग मे, आवेश मे और भोग मे रम जाता है । िजतना-िजतना बुििमान है उतना-उतना उससे ऊपर उठता है । तुम िजतने तुिछ भोग भोगते हो उतनी तुमहारी मन-शिि, पाणशिि दब ष होती ु ल है ।

बिचो की तरह अलप सुख मे, अलप भोग मे ही सनतुष नहीं होना है । गधा केवल चनदन

के भार को वहन करता है , चनदन के गुण और खुशबू का उसे पता नहीं। ऐसे ही िजनकी दे ह मे आसिि है वे केवल संसार का भार वहन करते है । मगर िजनकी बुिि, पजा आतमपरायण हुई है वे उस आतमारपी चनदन की खुशबू का मजा लेते है ।

अब इधर आ जाओ। तुम बहुत भटके, बहुत अटके और बहुत लटके। जहाँ धोखा ही धोखा

खाया। अपने को ही सताया। अब जरा अपनी आतमा मे आराम पाओ।

लाख उ पा य कर ल े पयार े कद े न िमल िस यार।

बेख ुद हो जा द ेख त माशा आप े ख ुद िदल दार।।

भगवान वेदवयास ने औ गुरओं ने हमारी दद ु ष शा जानी है इसिलए उनका हदय िपघलता

है । वे दयालु पुरष आतम-सुख की, बह-सुख की ऊँचाई छोडकर समाज मे आये है ।

कोई कोई िवरले ही होते है जो उनको पहचानते है , उनसे लाभ लेते है । िजन दे शो मे ऐसे

बहवेता गुर हुए और उनको झेलने वाले साधक हुए वे दे श उननत बने है । बहवेता महापुरषो की शिि साधारण मनुषय को रपांतिरत करके भि को साधक बना दे ती है और समय पाकर वही साधक िसि हो जाता है , जनम-मरण से पार हो जाता है ।

दिुनया के सब िमत िमलकर, सब साधन िमलकर सब सामिगयाँ िमलकर, सब धन-समपदा

िमलकर भी मनुषय को जनम-मरण के चककर से नहीं छुडा सकते। गुरओं का सािननधय और गुरओं की दीका बेडा पार करने का सामथयष रखती है ।

धनयभागी है वे लोग िजनमे वेदवयासजी जैसे आतम-साकातकारी पुरषो को पसाद पाने की

और बाँटने की ततपरता है ।

हमे मदष बनाये ऐसे आतमजानी मदो की इस दे श को आवशयकता है । दब ष िवचार और ु ल

दब ष िवचारवालो का संग पाप है । सतय सदा बलपद होता है । सिचा बल वह है जो िनबल ष को ु ल बलवान बनाये। िनबल ष का शोषण करना आसुरी सवभाव है । िनबल ष को बलवान बनाना बहवेता का सवभाव है ।

संसार के बडे -बडे उदोगो की अपेका कणभर आतमा-परमातमा मे िसथत होना अननतगुना िहतकारी है । मनसूर, सुकरात, ईसा, मुसा, बुि, महावीर, कबीर और नानक, इन सब महानुभावो ने

अपने आतमा-परमातमा मे ही परम सुख पाया था और महान हुए थे। आप भी पाये और महान ् हो जाएँ।

शतं िव हाय भोिवय ं सह सं सना नमाचर ेत।् लकं िवहाय दातवय ं कोिट ं तयकतवा हिर ं स मरेत।् ।

'सौ काम छोडकर भोजन कर लेना चािहए, हजार काम छोडकर सनान कर लेना चािहए, लाख काम छोडकर दान कर लेना चािहए और करोड काम छोडकर हिर का भजन करना चािहए।' भयानक से भयानक रोग, शोक और दःुख के पसंगो मे भी अगर अपनी आतमा की

अजरता, अमरता और सुख-सवरप का िचनतन िकया जाये तो आतमशिि का चमतकािरक अनुभव होगा।

हे अमर आतमा ! नशर शरीर और समबनधो मे अपने को कब तक उलझाओगे? जागो

अपने आप मे। दिुनया की 'तू..तू...मै-मै...' मे कई जनम वयथष गये। अब अपने सोऽहं रप को पा लो।

मनुषय का गौण कतवषय है ऐिहक समबनधो का वयवहार और मुखय कतवषय है शाशत

परमातम-समबनध की जागिृत और उसमे िसथित। जो अपना मुखय कतवषय िनबाह लेता है उसका गौण कतवषय अपने आप सँवर जाता है ।

सदाचार, परदःुखकातरता, बहचयष, सेवा और आतमारामी संतो के सािननधय और कृ पा से

सब दःुखो की िनविृत और परमातम-सुख की पािप सहज मे होती है । अतः पयतपूवक ष आतमारामी महापुरषो की शरण मे जाओ। इसी मे आपका मंगल है , पूणष कलयाण है ।

दःुख परमातमा की ओर से नहीं आता, परमातमा से िवमुख होने पर आता है । अतः

ईमानदारी, ततपरता और पूणष सनेह से परमातमा की ओर आओ.... अनतमुख ष बनो.... परमातम-सुख पाओ... सब दःुखो से सदा के िलए मुि हो जाओ।

दे खना, सुनना, सूँघना, चखना, सपशष करना, शरीर का आराम, यश और मान.... इन आठ

पकार के सुखो से िवशेष परमातम-सुख है । इन आठ सुखो मे उलझ कर परमातम-सुख मे िसथर होने वाला ही धनय है ।

सुख धन से नहीं, धमष से होता है । सुखी वह होता है िजसके जीवन मे धमष होगा, तयाग

होगा, संयम होगा।

पुरषाथष और पुणयो की विृि से लकमी आती है , दान, पुणय और कौशल से बढती है , संयम

और सदाचार से िसथर होती है । पाप, ताप और भय से आयी हुई लकमी कलह और भय पैदा

करती है एवं दस वषष मे नष हो जाती है । जैसे रई के गोदाम मे आग लगने से सब रई नष हो जाती है ऐसे ही गलत साधनो से आये हुए धन के ढे र एकाएक नष हो जाते है । उदोग, सदाचार,

धमष और संयम से सुख दे नेवाला धन िमलता है । वह धन 'बहुजन-सुखाय' पविृत करवाकर लोकपरलोक मे सुख दे ता है एवं िचर सथायी होता है ।

नूतनवषष के सुमग ं ल पभात मे शुभ संकलप करो िक जीवन मे से तुिछ इिछाओं को,

िवकारी आकषण ष ो को और दःुखद िचनतन को अलिवदा दे गे। सुखद िचनतन, िनिवक ष ारी नारायण

का धयान और आतमवेताओं के उननत िवचारो को अपने हदय मे सथान दे कर सवाग ा ीण उननित करे गे।

अपने समय को हलके काम मे लगाने से हलका फल िमलता है , मधयम काम मे लगाने से

मधयम फल िमलता है , उतम काम मे लगाने से उतम फल िमलता है । परम शष े परमातमा मे समय लगाने से हम परमातम-सवरप को पा लेते है ।

धन को ितजोरी मे रख सकते है िकनतु समय को नहीं रख सकते। ऐसे मूलयवान समय

को जो बरबाद करता है वह सवयं बरबाद हो जाता है । अतः सावधान ! समय का सदप ु योग करो। साहसी बनो। धैयष न छोडो। हजार बार असफल होने पर भी ईशर के मागष पर एक कदम

और रखो.... िफर से रखो। अवशय सफलता िमलेगी। संशयातमा

िवनशयित।

अतः संशय

िनकाल दो।

अजान की कािलमा को जानरिशम से नष कर आननद के महासागर मे कूद पडो। वह

सागर कहीँ बाहर नहीं है , आपके िदल मे ही है । दब ष िवचारो और तुिछ इिछाओं को कुचल ु ल डालो। दःुखद िवचारो और मानयताओं का िदवाला िनकालकर आतम-मसती का दीप जलाओ। खोज लो उन आतमारामी संतो को जो आपके सिचे सहायक है ।

सागर िक लहरे सागररप है । िचत की लहरे चैतनयरप है । उस चैतनयरप का िचनतन

करते-करते अपने अथाह आतम-सागर मे गोता मारो।

खून प सीन ा बहाता जा।

तान के च ादर स ोता जा।

यह नाव

तो िहलती जाय े गी।

तू ह ँ सता जा

या रोता

जा।।

संसार की लहिरयाँ तो बदलती जाएँगी इसिलए हे िमत ! हे मेरे भैया ! हे वीर पुरष ! रोत, चीखते, िससकते िजनदगी कया िबताना? मुसकुराते रहो.... हिर गीत गाते रहो... हिर रस पीते रहो.... यही शुभ कामना।

अपने अंतर के घर मे से काम, िोध, लोभ, मोह और अहं कार के कचरे को पेम, पकाश,

साहस, ॐकार के गुज ँ न तथा गुरमंत के समरण से भगा दे ना। अपने हदय मे पभुपेम भर दे ना। िनतय नवीन, िनतय नूतन आतम-पकाश और पेम पसाद से हदय मे बस हुए हिर को सनेह से सदा पूजते रहना। जहाँ नारायण है वहाँ महालकमी भी है ।

रोज सुबह नींद से उठते समय अपने आरोगय के बारे मे, सतपविृतयो के बारे मे और जीवनदाता के साकातकार के बारे मे, पाथन ष ा, पेम और पुरषाथष का संकलप िचत मे दह ु राओ। अपने दोनो हाथ दे खकर मुह ँ पर घुमाओ और बाद मे धरती पर कदम रखो। इससे हर केत मे कदम आगे बढते है ।

िवशास रखोः आने वाला कल आपके िलए अतयंत मंगलमय होगा। सदै व पसनन रहना

ईशर की सवोपिर भिि है ।

वं शे सद ैव भ वता ं ह िरभ ििरसत ु।

आपके कुल मे सदै व हिरभिि बनी रहे । आपका यह नूतनवषष आपके िलए मंगलमय हो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अिछ ी िदवाली हमार सभी इिनदयो मे हुई रोशनी है ।

यथा वसतु है सो तथा भासती है ।। िवकारी जगत ् बह है िनिवक ष ारी।

मनी आज अिछी िदवाली हमारी।।1।। िदया दशे बहा जगत ् सिृष करता। भवानी सदा शंभु ओ िवघन हता।ष।

महा िवषणु िचनमूितष लकमी पधारी।

मनी आज अिछी िदवाली हमारी।।2।। िदवाला सदा ही िनकाला िकया मै। जहाँ पे गया हारता ही रहा मै।।

गये हार है आज शिदािद जवारी।

मनी आज अिछी िदवाली हमारी।।3।। लगा दाँव पे नारी शिदािद दे ते।

कमाया हुआ दवय थे जीत लेते।। मुझे जीत के वे बनाते िभखारी।

मनी आज अिछी िदवाली हमारी।।4।। गुर का िदया मंत मै आज पाया।

उसी मंत से जवािरयो को हराया।। लगा दाँव वैरागय ली जीत नारी।

मनी आज अिछी िदवाली हमारी।।5।। सलोनी, सुहानी, रसीली िमठाई।



विशषािद हलवाइयो की है बनाई।। उसे खाय तषृणा दरुाशा िनवारी।

मनी आज अिछी िदवाली हमारी।।6।। हुई तिृप, संतुषता, पुषता भी।

िमटी तुिछता, दःुिखता दीनता भी।। िमटे ताप तीनो हुआ मै सुखारी।

मनी आज अिछी िदवाली हमारी।।7।। करे वास भोला ! जहाँ बह िवदा। वहाँ आ सके न अंधेरी अिवदा।।

मनावे सभी िनतय ऐसी िदवाली।

मनी आज अिछी िदवाली हमारी।।8।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

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