पातः समरणीय परम पूजय संत शी आसारामजी बापू के सतसंग पवचनो मे से नवनीत
ईशर की ओर ईशर की ओर (माचच 1982, मे आशम मे चेििचंड, चैत शुकल दज ू का धयान योग िशिवर चल रहा है ।
पात: काल मे साधक भाई बहन पूजय शी के मधुर और पावन साििनधय मे धयान कर रहे है । पूजय शी उिहे धयान दारा जीवन और मतृयु की गहरी सतहो मे उतार रहे है …
जीवन के गुप रहसयो का अनुभव करा रहे है । साधक लोग धयान मे पूजयशी की धीर, गमभीर, मधुर वाणी के तंतु के सहारे अपने अितर मे उतरते जा रहे है । पूजय शी कह रहे है :)
इििियाथष े ु वैरागयं अनहं कार एव च ।
जिममतृयुजरावयािधद ु:खदोषानुदशि च म॥् ‘इिििय िवषयो मे िवरक, अहं कार का अभाव, जिम, मतृयु, जरा और रोग आिद
मे द ु:ख और दोषो को दे खना (यह जान है ) ।’
आज तक कई जिमो के कुिु मब और पिरवार तुमने सजाये धजाये । मतृयु के एक झिके से वे सब छुि गये । अत: अभी से कुिु मब का मोह मन ही मन हिा दो ।
यिद शरीर की इजजत आबर की इचछा है , शरीर के मान मरतबे की इचछा है तो वह आधयाितमक राह मे बड़ी रकावि हो जायेगी । फेक दो शरीर की ममता को । िनदोष बालक जैसे हो जाओ ।
इस शरीर को बहुत सँभाला । कई बार इसको नहलाया, कई बार िखलाया िपलाया,
कई बार घुमाया, लेिकन… लेिकन यह शरीर सदा फिरयाद करता ही रहा । कभी बीमारी
कभी अिनिा कभी जोड़ो मे ददच कभी िसर मे ददच , कभी पचना कभी न पचना । शरीर की गुलामी बहुत कर ली । मन ही मन अब शरीर की याता कर लो पूरी । शरीर को कब तक मै मानते रहोगे बाबा…!
अब दढ़तापूवक च मन से ही अनुभव करते चलो िक तुमहारा शरीर दिरया के िकनारे घूमने गया । बेच पर बैठा । सागर के सौिदयच को िनहार रहा है । आ गया कोई आिखरी झिका । तुमहारी गरदन झुक गयी । तुम मर गये…
गये…
गये…
घर पर ही िसरददच हुआ या पेि मे कुछ गड़बड़ हुई, बुखार आया और तुम मर
तुम िलखते-िलखते अचानक हकके बकके हो गये । हो गया हािच फेल । तुम मर
तुम पूजा करते करते, अगरबती करते करते एकदम सो गये । आवाज लगायी िमतो को , कुिु िमबयो को, पती को । वे लोग आये । पूछा: कया हुआ… कया हुआ? कुछ ही िमििो मे तुम चल बसे…
गये…
तुम रासते पर चल रहे थे । अचानक कोई घिना घिी, दघ च ना हुई और तुम मर ु ि
िनिित ही कुछ न कुछ िनिमत बन जायेगा तुमहारी मौत का । तुमको पता भी
न चलेगा । अत: चलने से पहले एक बार चलकर दे खो । मरने से पहले एक बार मरकर दे खो । िबखरने से पहले एक बार िबखरकर दे खो ।
दढ़तापूवक च िनिय करो िक तुमहारी जो िवशाल काया है , िजसे तुम नाम और रप से ‘मै’ करके सँभाल रहे हो उस काया का, अपने दे ह का अधयास आज तोड़ना है । साधना के आिखरी िशखर पर पँहुचने के िलए यह आिखरी अड़चन है । इस दे ह की ममता से पार होना पड़े गा । जब तक यह दे ह की ममता रहे गी तब तक िकये हुए कमच
तुमहारे िलए बंधन बने रहे गे । जब तक दे ह मे आसिक बनी रहे गी तब तक िवकार तुमहारा पीछा न छोड़े गा । चाहे तुम लाख उपाय कर लो लेिकन जब तक दे हाधयास बना रहे गा तब तक पभु के गीत नहीं गूँज पायेगे । जब तक तुम अपने को दे ह मानते रहोगे तब तक बह-साकातकार न हो पायेगा । तुम अपने को हडडी, मांस, तवचा, रक, मलमूत, िवषा का थैला मानते रहोगे तब तक दभ ु ागचय से िपणड न छूिे गा । बड़े से बड़ा दभ ु ागचय है
जिम लेना और मरना । हजार हजार सुिवधाओं के बीच कोई जिम ले , फकच कया पड़ता है ? द ु:ख झेलने ही पड़ते है उस बेचारे को ।
हदयपूवक च ईमानदारी से पभु को पाथन च ा करो िक: ‘हे पभु ! हे दया के सागर ! तेरे दार पर आये है । तेरे पास कोई कमी नहीं । तू हमे बल दे , तू हमे िहममत दे िक तेरे मागच पर कदम रखे है तो पँहुचकर ही रहे । हे मेरे पभु ! दे ह की ममता को तोड़कर तेरे साथ अपने िदल को जोड़ ले |’
आज तक अगले कई जिमो मे तुमहारे कई िपता रहे होगे , माताएँ रही होगी, कई नाते िरशतेवाले रहे होगे । उसके पहले भी कोई रहे होगे । तुमहारा लगाव दे ह के साथ
िजतना पगाढ़ होगा उतना ये नाते िरशतो का बोझ तुमहारे पर बना रहे गा । दे ह का लगाव िजतना कम होगा उतना बोझ हलका होगा । भीतर से दे ह की अहं ता िू िी तो बाहर की ममता तुमहे फँसाने मे समथच नहीं हो सकती ।
भीतर से दे ह की आसािक िू ि गयी तो बाहर की ममता तुमहारे िलए खेल बन जायेगी । तुमहारे जीवन से िफर जीवनमुिक के गीत िनकलेगे । जीविमुक पुरष सबमे होते हुए, सब करते हुए भी सुखपूवक च जीते है , सुखपूवक च
खाते पीते है , सुखपूवक च आते जाते है , सुखपूवक च सवसवरप मे समाते है ।
केवल ममता हिाना है । दे हाधयास हि गया तो ममता भी हि गई । दे ह की अहं ता को हिाने के िलए आज समशानयाता कर लो । जीते जी मर लो जरा सा । डरना मत । आज मौत को बुलाओ: ‘हे मौत ! तू इस शरीर पर आज उतर ।’
कलपना करो िक तुमहारे शरीर पर आज मौत उतर रही है । तुमहारा शरीर ढीला हो गया । िकसी िनिमत से तुमहारे पाण िनकल गये । तुमहारा शव पड़ा है । लोग
िजसको आज तक ‘फलाना भाई… फलाना सेठ… फलाना साहब …’ कहते थे, उसके पाण पखेर आज उड़ गये । अब वह लोगो की नजरो मे मुदाच होकर पड़ा है । हकीम डॉॉकिरो
ने हाथ धो िलये है । िजसको तुम इतना पालते पोसते थे, िजसकी इजजत आबर को सँबालने मे वयसत थे, वह शरीर आज मरा पड़ा है सामने । तुम उसे दे ख रहे हो । भीड़ इकठठी हो गयी । कोई सचमुच मे आँसू बहा रहा है , कोई झूठमूठ का रो रहा है ।
तुम चल बसे । शव पड़ा है । लोग आये, िमत आये, पड़ोसी आये, साथी आये, सनेही आये, िे िलफोन की घिणियाँ खिख़िायी जा रही है , िे िलगाम िदये जा रहे है । मतृयु होने पर जो होना चािहए वह सब िकया जा रहा है ।
यह आिखरी ममता है दे ह की, िजसको पार िकए िबना कोई योगी िसद नहीं बन सकता, कोई साधक ठीक से साधना नहीं कर सकता, ठीक से सौभागय को उपलबध नहीं हो सकता । यह अंितम अड़चन है । उसे हिाओ । मै अर मोर तोर
की माया ।
बश कर दीिह ीं जीवन
काया॥
तुमहारा शरीर िगर गया, ढह गया । हो गया ‘रामनाम सत है ’ । तुम मर गये ।
लोग इकटठे हो गये । अथी के िलए बाँस मँगवाये जा रहे है । तुमहे नहलाने के िलए घर के अंदर ले जा रहे है । लोगो ने उठाया । तुमहारी गरदन झुक गयी । हाथ पैर लथड़ रहे है । लोग तुमहे सँभालकर ले जा रहे है । एक बड़े थाल मे शव को नहलाते है । लेिकन … लेिकन वह चमतकार कहाँ… ? वह पकाश कहाँ…
? वह चेतना कहाँ… ?
िजस शरीर ने िकतना िकतना कमाया, िकतना िकतना खाया, िजसको िकतना िकतना सजाया, िकतना िकतना िदखाया, वह शरीर आज शव हो गया । एक शास लेना आज
उसके बस की बात नहीं । िमत को धियवाद दे ना उसके हाथ की बात नहीं । एक संत फकीर को हाथ जोड़ना उसके बस की बात नहीं । आज वह परािशत शरीर बेचारा, शव बेचारा चला कूच करके इस जँहा से । िजस
पर इतने ‘िे िशन (तनाव) थे, िजस जीवन के िलए इतना िखंचाव तनाव था उस जीवन की यह हालत ? िजस शरीर के िलए इतने पाप और सिताप सहे वह शरीर आज इस पिरिसथित मे पड़ा है ! दे ख लो जरा मन की आँख से अपने शरीर की हालत । लाचार
पड़ा है । आज तक जो ‘मै … मै …’ कर रहा था, अपने को उिचत समझ रहा था, सयाना समझ रहा था, चतुर समझ रहा था, दे ख लो उस चतुर की हालत । पूरी चतुराई
खाक मे िमल गई । पूरा known unknown( जात अजात ) हो गया । पूरा जान एक झिके मे समाप हो गया। सब नाते और िरशते िू ि गये । धन और पिरवार पराया हो गया । िजनके िलए तुम राितयाँ जगे थे, िजनके िलए तुमने मसतक पर बोझ उठाया था
वे सब अब पराये हो गये बाबा… ! िजनके िलए तुमने पीड़ाएँ सहीं , वे सब तुमहारे कुछ नहीं रहे । तुमहारे इस पयारे शरीर की यह हालत …!! िमतो के हाथ से तुम नहलाये जा रहे हो । शरीर पोछा न पोछा , तौिलया घुमाया
न घुमाया और तुमहे वस पहना िदये । िफर उसे उठाकर बाँसो पर सुलाते है । अब तुमहारे शरीर की यह हालत ! िजसके िलए तुमने बड़ी बड़ी कमाइयाँ कीं, बड़ी बड़ी िवधाएँ
पढ़ीं, कई जगह लाचािरयाँ कीं, तुचछ जीवन के िलए गुलामी की, कईयो को समझाया, सँभाला, वह लाचार शरीर, पाण पखेर के िनकल जाने से पड़ा है अथी पर । जीते जी मरने का अनुभव कर लो । तुमहारा शरीर वैसे भी तो मरा हुआ है ।
इसमे रखा भी कया है ?
अथी पर पड़े हुए शव पर लाल कपड़ा बाँधा जा रहा है । िगरती हुई गरदन को
सँभाला जा रहा है । पैरो को अचछी तरह रससी बाँधी जा रही है , कहीं रासते मे मुदाच िगर न जाए । गरदन के इदचिगदच भी रससी के चककर लगाये जा रहे है । पूरा शरीर लपेिा जा
रहा है । अथी बनानेवाला बोल रहा है : ‘तू उधर से खींच’ दस ू रा बोलता है : ‘मैने खींचा है , तू गाँठ मार ।’
लेिकन यह गाँठ भी कब तक रहे गी ? रिससयाँ भी कब तक रहे गी ? अभी जल जाएँगी… और रिससयो से बाँधा हुआ शव भी जलने को ही जा रहा है बाबा !
िधककार है इस नशर जीवन को … ! िधककार है इस नशर दे ह की ममता को… ! िधककार है इस शरीर के अधयास और अिभमान को…! अथी को कसकर बाँधा जा रहा है । आज तक तुमहारा नाम सेठ , साहब की िलसि
(सूची) मे था । अब वह मुदे की िलसि मे आ गया । लोग कहते है : ‘मुदे को बाँधो जलदी से ।’ अब ऐसा नहीं कहे गे िक ‘सेठ को, साहब को, मुनीम को, नौकर को, संत को, असंत को बाँधो…’ पर कहे गे, ‘मुदे को बाँधो । ’
हो गया तुमहारे पूरे जीवन की उपलिबधयो का अंत । आज तक तुमने जो कमाया था वह तुमहारा न रहा । आज तक तुमने जो जाना था वह मतृयु के एक झिके मे छूि गया । तुमहारे
‘इिकमिे कस’ (आयकर) के कागजातो को, तुमहारे
पमोशन और
िरिायरमेिि की बातो को, तुमहारी उपलिबध और अनुपलिबधयो को सदा के िलए अलिवदा होना पड़ा ।
हाय रे हाय मनुषय तेरा शास ! हाय रे हाय तेरी कलपनाएँ ! हाय रे हाय तेरी नशरता ! हाय रे हाय मनुषय तेरी वासनाएँ ! आज तक इचछाएँ कर रहा था िक इतना
पाया है और इतना पाँऊगा, इतना जाना है और इतना जानूँगा, इतना को अपना बनाया है और इतनो को अपना बनाँऊगा, इतनो को सुधारा है , औरो को सुधारँ गा । अरे ! तू अपने को मौत से तो बचा ! अपने को जिम मरण से तो बचा ! दे खे तेरी
ताकत । दे खे तेरी कारीगरी बाबा !
तुमहारा शव बाँधा जा रहा है । तुम अथी के साथ एक हो गये हो । समशानयाता की तैयारी हो रही है । लोग रो रहे है । चार लोगो ने तुमहे उठाया और घर के बाहर तुमहे ले जा रहे है । पीछे -पीछे अिय सब लोग चल रहे है ।
कोई सनेहपूवक च आया है , कोई मात िदखावा करने आये है । कोई िनभाने आये है िक समाज मे बैठे है तो…
दस पाँच आदमी सेवा के हे तु आये है । उन लोगो को पता नहीं के बेिे ! तुमहारी भी यही हालत होगी । अपने को कब तक अचछा िदखाओगे ? अपने को समाज मे कब तक ‘सेि’ करते रहोगे ? सेि करना ही है तो अपने को परमातमा मे ‘सेि’ कयो नहीं करते भैया ? दस ू रो की शवयाताओं मे जाने का नािक करते हो ? ईमानदारी से शवयाताओं मे
जाया करो । अपने मन को समझाया करो िक तेरी भी यही हालत होनेवाली है । तू भी
इसी पकार उठनेवाला है , इसीपकार जलनेवाला है । बेईमान मन ! तू अथी मे भी
ईमानदारी नहीं रखता ? जलदी करवा रहा है ? घड़ी दे ख रहा है ? ‘आिफस जाना है … दक ु ान पर जाना है …’ अरे ! आिखर मे तो समशान मे जाना है ऐसा भी तू समझ ले ।
आिफस जा, दक ु ान पर जा, िसनेमा मे जा, कहीं भी जा लेिकन आिखर तो समशान मे ही जाना है । तू बाहर िकतना जाएगा ?
ऐ पागल इिसान ! ऐ माया के िखलौने ! सिदयो से माया तुझे नचाती आयी है ।
अगर तू ईशर के िलए न नाचा, परमातमा के िलए न नाचा तो माया तेरे को नचाती रहे गी । तू पभुपािप के िलए न नाचा तो माया तुझे न जाने कैसी कैसी योिनयो मे
नचायेगी ! कहीं बिदर का शरीर िमल जायगा तो कहीं रीछ का, कहीं गंधव च का शरीर िमल जाएगा तो कहीं िकिनर का । िफर उन शरीरो को तू अपना मानेगा । िकसी को
अपनी माँ मानेगा तो िकसी को बाप, िकसी को बेिा मानेगा तो िकसी को बेिी, िकसी को चाचा मानेगा तो िकसी को चाची, उन सबको अपना बनायेगा । िफर वहाँ भी एक झिका
आयेगा मौत का… और उन सबको भी छोड़ना पड़े गा, पराया बनना पड़े गा । तू ऐसी याताएँ िकतने युगो से करता आया है रे ? ऐसे नाते िरशते तू िकतने समय से बनाता आया है ?
‘मेरे पुत की शादी हो जाय… बहू मेरे कहने मे चले… मेरा नौकर वफादार रहे …
दोसतो का पयार बना रहे …’ यह सब ऐसा हो भी गया तो आिखर कब तक ?’ पमोशन हो जाए… हो गया । िफर कया ? शादी हो जाए…
हो गई शादी । िफर कया ? बचचे हो
जाये … हो गये बचचे भी । िफर कया करोगे ? आिखर मे तुम भी इसी पकार अथी मे बाँधे जाओगे । इसी पकार किधो पर उठाये जाओगे । तुमहारे दे ह की हालत जो सचमुच
होनेवाली है उसे दे ख लो । इस सनातन सतय से कोई बच नहीं सकता । तुमहारे लाखो रपये तुमहारी सहायता नहीं कर सकते । तुमहारे लाखो पिरचय तुमहे बचा नहीं सकते ।
इस घिना से तुमहे गुजरना ही होगा । अिय सब घिनाओं से तुम बच सकते हो लेिकन
इस घिना से बचानेवाला आज तक पथ ृ वी पर न कोई है , न हो पाएगा । अत: इस अिनवायच मौत को तुम अभी से जान की आँख दारा जरा िनहार लो । तुमहारी पाणहीन दे ह को अथी मे बाँधकर लोग ले जा रहे है समशान की ओर ।
लोगो की आँखो मे आँसू है । लेिकन आँसू बहानेवाले भी सब इसी पकार जानेवाले है ।
आँसू बहाने से जान न छूिे गी । आँसू रोकने से भी जान न छूिे गी । शव को दे खकर भाग जाने से भी जान न छूिे गी । शव को िलपि जाने से भी जान न छूिे गी । जान तो
तुमहारी तब छूिे गी जब तुमहे आतम साकातकार होगा । जान तो तुमहारी तब छूिे गी जब
संत का कृ पा पसाद तुमहे पच जाएगा । जान तुमहारी तब छूिे गी जब ईशर के साथ तुमहारी एकता हो जाएगी । भैया ! तुम इस मौत की दघ च ना से कभी नहीं बच सकते । इस कमनसीबी से ु ि
आज तक कोई नहीं बच सका ।
आया ह ै सो जाएगा राजा
रंक फ कीर ।
िकसीकी अथी के साथ 50 आदमी हो या 500 आदमी हो, िकसीकी अथी के साथ 5000 आदमी हो या मात मातातमक आदमी हो, इससे फकच कया पड़ता है ? आिखर तो वह अथी अथी है , शव शव ही है ।
तुमहारा शव उठाया जा रहा है । िकसीने उस पर गुलाल िछड़का है , िकसीने गेदे के फूल रख िदये है । िकसीने उसे मालाँए पहना दी है । कोई तुमसे बहुत िनभा रहा है
तो तुम पर इत िछड़क रहा है , सपे कर रहा है । परितु अब कया फकच पड़ता है इत से ? सपे तुमहे कया काम दे गी बाबा… ? शव पर चाहे ईि पतथर डाल दो चाहे सुवण च की इमारत खड़ी कर दो, चाहे फूल
चढ़ा दो, चाहे हीरे जवाहरात ियोछावर कर दो, फकच कया पड़ता है ?
घर से बाहर अथी जा रही है । लोगो ने अथी को घेरा है । चार लोगो ने उठाया है , चार लोग साथ मे है । राम… बोलो भाई राम … । तुमहारी याता हो रही है । उस घर
से तुम िवदा हो रहे हो िजसके िलए तुमने िकतने िकतने पलान बनाये थे । उस दार से तुम सदा के िलए जा रहे हो बाबा … ! िजस घर को बनाने के िलए तुमने ईशरीय घर
का तयाग कर रखा था, िजस घर को िनभाने के िलए तुमने अपने पयारे के घर का ितरसकार कर रखा था उस घर से तुम मुदे के रप मे सदा के िलए िवदा हो रहे हो । घर की दीवारे चाहे रो रही हो चाहे हँ स रही हो, लेिकन तुमको तो जाना ही पड़ता है ।
समझदार लोग कह रहे है िक शव को जलदी ले जाओ । रात का मरा हुआ है …
इसे जलदी ले जाओ, नहीं तो इसके ‘वायबेशन’ … इसके ‘बैकिीिरया’ फैल जायेगे, दस ू रो को बीमारी हो जायेगी । अब तुमहे घड़ीभर रखने की िकसीमे िहममत नहीं । चार िदन सँभालने का िकसीमे साहस नहीं । सब अपना अपना जीवन जीना चाहते है । तुमहे
िनकालने के िलए उतसुक है समझदार लोग । जलदी करो । समय हो गया । कब पँहुचोगे ? जलदी करो, जलदी करो भाई… ! तुम घर से कब तक िचपके रहोगे ? आिखर तो लोग तुमहे बाँध बूँधकर जलदी से
समशान ले जायेगे ।
दे ह की ममता तोड़नी पड़े गी । इस ममता के कारण तुम जकड़े गये हो पाश मे । इस ममता के कारण तुम जिम मरण के चककर मे फँसे हो । यह ममता तुमहे तोड़नी
पड़े गी । चाहे आज तोड़ो चाहे एक जिम के बाद तोड़ो, चाहे एक हजार जिमो के बाद तोड़ो । लोग तुमहे किधे पर उठाये ले जा रहे है । तुमने खूब मकखन घी खाया है , चरबी
जयादा है तो लोगो को पिरशम जयादा है । चरबी कम है तो लोगो को पिरशम कम है । कुछ भी हो, तुम अब अथी पर आरढ़ हो गये हो । यारो ! हम ब ेवफाई कर ेग े।
तुम प ैद ल होग े हम क ंध े च लेग े ॥ हम पड़ े रह ेग े तु म धके लते चलोग े । यारो ! हम ब ेवफाई कर ेग े ॥
तुम किधो पर चढ़कर जा रहे हो जँहा सभी को अवशय जाना है । राम … बोलो भाई … राम । राम …बोलो भाई … राम । राम … बोलो भाई राम … ।
अथीवाले तेजी से भागे जा रहे है । पीछे 50-100 आदमी जा रहे है । वे आपस मे बातचीत कर रहे है िक: ‘भाई अचछे थे, मालदार थे, सुखी थे ।’ (अथवा) ‘गरीब थे, द ु:खी थे… बेचारे चल बसे… ।’
उन मूखो को पता नहीं िक वे भी ऐसे ही जायेगे । वे तुम पर दया कर रहे है और अपने को शाशत ् समझ रहे है नादान ! अथी सड़क पर आगे बढ़ रही है । बाजार के लोग बाजार की तरफ भागे जा रहे
है । नौकरीवाले नौकरी की तरफ भागे जा रहे है । तुमहारे शव पर िकसीकी नजर पड़ती है वह ‘ओ … हो …’ करके िफर अपने काम की तरफ , अपने वयवहार की तरफ भागा जा रहा है । उसको याद भी नहीं आती िक मै भी इसी पकार जानेवाला हूँ , मै भी मौत को उपलबध होनेवाला हूँ । साइिकल, सकूिर, मोिर पर सवार लोग शवयाता को दे खकर ‘
आहा… उहू…’ करते आगे भागे जा रहे है , उस वयवहार को सँभालने के िलए िजसे छोड़कर मरना है उन मूखो को । िफर भी सब उधर ही जा रहे है ।
अब तुम घर और समशान के बीच के रासते मे हो । घर दरू सरकता जा रहा है …
समशान पास आ रहा है । अथी समशान के नजदीक पहुँची । एक आदमी सकूिर पर
भागा और समशान मे लकिड़यो के इितजाम मे लगा । समशानवाले से कह रहा है : ‘लकड़ी 8 मन तौलो, 10 मन तौलो, 16 मन तौलो । आदमी अचछे थे इसिलए लकड़ी जयादा खचच हो जाए तो कोई बात नहीं ।’ जैसी िजनकी है िसयत होती है वैसी लकिड़याँ खरीदी जाती है , लेिकन अब शव 8
मन मे जले या 16 मन मे , इससे कया फकच पड़ता है ? धन जयादा है तो 10 मन
लकड़ी जयादा आ जाएगी, धन कम है तो दो-पाँच मन लकड़ी कम आ जाएगी, कया फकच पड़ता है इससे ? तुम तो बाबा हो गये पराये ।
अब समशान िबलकुल नजदीक आ गया है । शकुन करने के िलए वहाँ बचचो के बाल िबखेरे जा रहे है । लडडू लाये थे साथ मे, वे कुतो को िखलाये जा रहे है ।
िजसको बहुत जलदी है वे लोग वहीं से िखसक रहे है । बाकी के लोग तुमहे वहाँ
ले जाते है जहाँ सभी को जाना होता है ।
लकिड़याँ जमानेवाले लकिड़याँ जमा रहे है । दो-पाँच मन लकिड़याँ िबछा दी गयीं । अब तुमहारी अथी को वे उन लकिड़यो पर उतार रहे है । बोझा कंधो से उतरकर अब लकिड़यो पर पड़ रहा है । लेिकन वह बोझा भी िकतनी दे र वहाँ रहे गा ?
घास की गिडडयाँ, नािरयल की जिाये, मािचस, घी और बती सँभाली जा रही है । तुमहारा अंितम सवागत करने के िलए ये चीजे यहाँ लायी गयी है । अंितम अलिवदा…
अपने शरीर को तुमने हलवा-पूरी िखलाकर पाला या रखी सूखी रोिी िखलाकर ििकाया
इससे अब कया फकच पड़ता है ? गहने पहनकर िजये या िबना गहनो के िजये, इससे कया फकच पड़ता है ? आिखर तो वह अिगन के दारा ही सँभाला जायेगा । मािचस से तुमहारा सवागत होगा ।
इसी शरीर के िलए तुमने ताप संताप सहे । इसी शरीर के िलए तुमने लोगो के िदल द ु:खाये । इसी शरीर के िलए तुमने लोकेशर से समबिध तोड़ा । लो, दे खो, अब कया हो रहा है ? िचता पर पड़ा है वह शरीर । उसके ऊपर बड़े बड़े लककड़ जमाये जा रहे है । जलदी जल जाय इसिलए छोिी लकिड़याँ साथ मे रखी जा रहीं है । सब लकिड़याँ रख दी गयीं । बीच मे घास भी िमलाया गया है , तािक कोई िहससा
कचचा न रह जाय । एक भी मांस की लोथ बच न जाय । एक आदमी दे ख रे ख करता
है , ‘मैनेजमेिि’ कर रहा है । वहाँ भी नेतािगरी नहीं छूिती । नेतािगरी की खोपड़ी उसकी चालू है । ‘ऐसा करो … वैसा करो … ‘ वह सूचनाये िदये जा रहा है ।
ऐ चतुराई िदखानेवाले ! तुमको भी यही होनेवाला है । समझ लो भैया मेरे ! शव को जलाने मे भी अगवानी चािहए ? कुछ मुखय िवशेषताँए चािहए वहाँ भी ? वाह …वाह … !
हे अजानी मनुषय ! तू कया कया चाहता है ? हे नादान मनुषय ! तूने कया कया िकया है ? ईशर के िसवाय तूने िकतने नािक िकये ? ईशर को छोड़कर तूने बहुत कुछ
पकड़ा, मगर आज तक मतृयु के एक झिके से सब कुछ हर बार छूिता आया है । हजारो बार तुझसे छुड़वाया गया है और इस जिम मे भी छुड़वाया जायेगा । तू जरा सावधान हो जा मेरे भैया !
अथी के ऊपर लकड़े
‘िफि’ हो गये है । तुमहारे पुत, तुमहारे सनेही मन मे कुछ
भाव लाकर आँसू बहा रहे है । कुछ सनेिहयो के आँसू नहीं आते है इसिलए वे शरिमंदा हो
रहे है । बाकी के लोग गपशप लगाने बैठ गये है । कोई बीड़ी पीने लगा है कोई सनान करने बैठ गया है , कोई सकूिर की सफाई कर रहा है । कोई अपने कपड़े बदलने मे
वयसत है । कोई दक ु ान जाने की िचिता मे है , कोई बाहरगाँव जाने की िचिता मे है । तुमहारी िचिता कौन करता है ? कब तक करे गे लोग तुमहारी िचिता ? तुमहे समशान तक पँहुचा िदया, िचता पर सुला िदया, दीया-सलाई दान मे दी, बात पूरी हो गयी ।
लोग अब जाने को आतुर है । ‘अब िचता को आग लगाओ । बहुत दे र हो गई ।
जलदी करो… जलदी करो…’ इशारे हो रहे है । वे ही तो िमत थे जो तुमसे कह रहे थे : ‘बैठे रहो, तुम मेरे साथ रहो, तुमहारे िबना चैन नहीं पड़ता ।’ अब वे ही कह रहे है :
‘जलदी करो… आग लगाओ… हम जाये… जान छोड़ो हमारी…’ वाह रे वाह संसार के िमतो ! वाह रे वाह संसार के िरशते नाते । धियवाद…
धियवाद… तुमहारा पोल दे ख िलया ।
पभु को िमत न बनाया तो यही हाल होनेवाला है ।
आज तक जो लोग तुमहे
सेठ, साहब कहते थे, जो तुमहारे लंगोििया यार थे वे ही जलदी कर रहे है । उन लोगो को भूख लगी है । खुलकर तो नहीं बोलते लेिकन भीतर ही भीतर कह रहे है िक अब दे र
नहीं करो । जलदी सवग च पँहुचाओ । िसर की ओर से आग लगाओ तािक जलदी सवग च मे जाय ।
वह तो कया सवगच मे जाएगा ! उसके कमच और माियताँए जैसी होगी ऐसे सवगच मे वह जायेगा लेिकन तुम रोिी रप सवगच मे जाओगे । तुमको यहाँ से छुटिी िमल जायेगी । नािरयल की जिाओं मे घी डालते है । जयोित जलाते है , तुमहारे बुझे हुए जीवन
को सदा के िलए नष करने के हे तु जयोित जलायी जा रही है । यह बहजानी गुर की जयोित नहीं है , यह सदगुर की जयोित नहीं है । यह तुमहारे िमतो की जयोित है । िजनके िलए पूरा जीवन तुम खो रहे थे वे लोग तुमहे यह जयोित दे गे । िजनके
पास जाने के िलए तुमहारे पास समय न था उन सदगुर की जयोित तुमने दे खी भी नहीं है बाबा !
लोग जयोित जलाते है । िसर की तरफ लकिड़यो के बीच जो घास है उसे जयोित का सपश च कराते है । घास की गडडी को आग ने घेर िलया है । पैरो की तरफ भी एक आदमी आग लगा रहा है । भुभुक … भुभुक … अिगन शुर हो गयी । तुमहारे ऊपर ढँ के
हुए कपड़े तक आग पँहुच गयी है । लकड़े धीरे धीरे आग पकड़ रहे है । अब तुमहारे बस की बात नहीं िक आग बुझा लो । तुमहारे िमतो को जररत नहीं िक फायर िबगेड बुला ले
। अब डॉॉकिर हकीमो को बुलाने का मौका नहीं है । जररत भी नहीं है । अब सबको घर जाना है , तुमको छोड़कर िवदा होना है ।
धुआँ िनकल रहा है । आग की जवालाएँ िनकल रही है । जो जयादा सनेही और साथी थे, वे भी आग की तपन से दरू भाग रहे है । चारो और अिगन के बीच तुमहे
अकेला जलना पड़ रहा है । िमत , सनेही , समबिधी बचपन के दोसत सब दरू िखसक रहे है ।
अब … कोई … िकसीका… नहीं । सारे समबिध … ममता के समबिध । ममता
मे जरा सी आँच सहने की ताकत कहाँ है ? तुमहारे नाते िरशतो मे मौत की एक िचनगारी सहने की ताकत कहाँ है ? िफर भी तुम संबंध को पकके िकये जा रहे हो । तुम िकतने भोले महे शर हो ! तुम िकतने नादान हो ! अब दे ख लो जरा सा !
अथी को आग ने घेरा है । लोगो को भूख ने घेरा है । कुछ लोग वहाँ से िखसक गये । कुछ लोग बचे है । िचमिा िलए हुए समशान का एक नौकर भी है । वह सँभाल करता है
िक लककड़ इधर उधर न चला जाए । लककड़ िगरता है तो िफर चढ़ाता है तुमहारे िसर
पर । अब आग ने ठीक से घेर िलया है । चारो तरफ भुभुक … भुभुक … आग जल रही है । िसर की तरफ आग … पैरो की तरफ आग … बाल तो ऐसे जले मानो घास जला ।
मुंडी को भी आग ने घेर िलया है । मुँह मे घी डाला हुआ था, बती डाली हुई थी, आँखो पर घी लगाया हुआ था ।
मत कर र े भाया
मत कर र े भाया
गर व ग ुमान ग ुलाबी र ंग उ ड़ी जाव ेलो ।
गर व ग ुमान जवानी रो र ंग उड़ी जाव ेलो ।
उड़ी जाव ेलो र े फीको पड़ी जाव
ेलो र े काल े मर जाव े लो ,
पाछो नही ं आव ेलो… म त कर रे गरव …
जोर रे ज वान ी थारी िफर को नी
रे व ेला…
इणन े जाता ं नह ीं लाग े वार ग ुलाबी र ंग उ ड़ी जाव ेलो॥ पतं गी रंग उड़ी जाव ेलो… मत कर र े गरव ॥
धन रे दौ लत थारा माल खजाना
रे…
छोड़ी जाव ेलो र े प लम ां उड़ी जाव ेलो॥
पाछो नही ं आव ेलो… म त कर रे गरव । कंई रे ल ाय ो न े कंई ल े जाव ेलो भाया…
कंई कोनी हाल े थार े साथ ग ुलाबी र ंग उड़ी जाव ेलो॥ पतं गी रंग उड़ी जाव ेलो… मत कर र े गरव ॥ तुमहारे सारे शरीर को समशान की आग ने घेर िलया है । एक ही कण मे उसने
अपने भोग का सवीकार कर िलया है । सारा शरीर काला पड़ गया । कपड़े जल गये , कफन जल गया, चमड़ी जल गई । पैरो का िहससा नीचे लथड़ रहा है , िगर रहा है ।
चरबी को आग सवाहा कर रही है । मांस के िु कड़े जलकर नीचे िगर रहे है । हाथ के पंजे और हिडडयाँ िगर रही है । खोपड़ी तड़ाका दे ने को उतसुक हो रही है । उसको भी
आग ने तपाया है । शव मे फैले हुए ‘बैकिीिरया’ तथा बचा हुआ गैस था वह सब जल गया ।
ऐ गा िफल ! न स मझा था
, िमला था तन रतन त
िमलाया खाक म े त ुन े , ऐ सजन
ुझको ।
! कया कह ूँ त ुझको ?
अपनी वज ूदी हसती म े त ू इतना
भूल मस तान ा …
अपनी अह ंता की मसती म े त ू इ तना भूल मस ता ना … करना था िकया वो न
, लगी उलिी लगन त
ऐ गािफ ल ……।
ुझ को ॥
िजि होके पयार मे हरदम म ुस तके दीवा ना था …
िज िहोके स ं ग और स ाथ म े भ ैय ा ! तू सदा िवमोिह त था … आिखर व े ही ज लात े ह ै कर ेग े या दफन त ुझको ॥ ऐ गा िफल …॥
शा ही और ग दाही कय ा ? कफन िकस मत म े आ िखर ।
िमल े या ना
खबर प ुखता ऐ कफन और
व तन तुझको ॥
ऐ गािफ ल ……। पहनी हुई िे रीकोिन, पहने हुए गहने तेरे काम न आए । तेरे वे हाथ, तेरे वे पैर
सदा के िलए अिगन के गास हो रहे है । लककड़ो के बीच से चरबी िगर रही है । वहाँ भी
आग की लपिे उसे भसम कर रही है । तुमहारे पेि की चरबी सब जल गई । अब हिडडयाँ पसिलयाँ एक एक होकर जुदा हो रही है । ओ… हो… िकतना सँभाला था इस शरीर को ! िकतना पयारा था वह ! जरा सी
िकडनी िबगड़ गई तो अमेिरका तक की दौड़ थी । अब तो पूरी दे ह िबगड़ी जा रही है ।
कहाँ तक दौड़ोगे ? कब तक दौड़ोगे ? जरा सा पैर दख ु ता था, हाथ मे चोि लगती थी तो
सपेशयिलसिो से घेरे जाते थे । अब कौन सा सपेशयिलसि यहाँ काम दे गा ? ईशर के िसवाय कोई यहाँ सहाय न कर सकेगा । आतमजान के िसवाय इस मौत की आग से
तुमहे सदा के िलए बचाने का सामथयच डॉकिरो सपेशयिलसिो के पास कहाँ है ? वे लोग खुद भी इस अवसथा मे आनेवाले है । भले थोकबिध फीस ले ले, पर कब तक रखेगे ? भले जाँच पड़ताल मात के िलये थपपीबंद नोिो के बंडल ले ले, पर लेकर जायेगे कहाँ ? उिहे भी इसी अवसथा से गुजरना होगा । शा ही और ग दाही कय ा? कफन िकस मत म े आ िखर … कर लो इकटठा । ले लो लमबी चौड़ी फीस । लेिकन याद रखो : यह कूर मौत
तुमहे सामयवादी बनाकर छोड़ दे गी । सबको एक ही तरह से गुजारने का सामथय च यिद िकसीमे है तो मौत मे है । मौत सबसे बड़ी सामयवादी है । पकृ ित सचची सामयवादी है । तुमहारे शरीर का हाड़िपंजर भी अब िबखर रहा है । खोपड़ी िू िी । उसके पाँच सात
िु कड़े हो गये । िगर रहे है इधर उधर । आ… हा… हा…हडडी के िु कड़े िकसके थे ? कोई साहब के थे या चपरासी के थे ? सेठ के थे या नौकर के थे ? सुखी आदमी के थे या द ु:खी आदमी के थे ? भाई के थे या माई के थे ? कुछ पता नहीं चलता ।
अब आग धीरे -धीरे शमन को जा रही है । अिधकांश िमत सनान मे लगे है । तैयािरयाँ कर रहे है जाने की । िकतने ही लोग िबखर गये । बाकी के लोग अब तुमहारी आिखरी इजाजत ले रहे है । आग को जल की अंजिल दे कर, आँखो मे आँसू लेकर िवदा हो रहे है । कह रहा है आ सम ाँ यह सम ाँ कुछ भी नह ीं ।
रोती है श बनम िक न ैर ंग े जह ाँ कुछ भी नह ीं ॥ िजनके म हलो म े हजारो र ंग के जलत े थ े फान ूस ।
झाड़ उनकी कब पर ह
ै और िनश ाँ कुछ भी नह ीं ॥
िजनकी नौबत स े सदा ग ूँजत े थ े आस माँ ।
दम बख ुद ह ै कब म े अब ह ूँ न हा ँ कुछ भी नही ं ॥ तखतवालो का पता द
ेत े ह ै तखत े गौर क े ।
खोज िम लता तक नही ं वाद े अ जां कु छ भी नही ं ॥ समशान मे अब केवल अंगारो का ढे र बचा । तुम आज तक जो थे वह समाप हो गये । अब हिडडयो से मालूम करना असंभव है िक वे िकसकी है । केवल अंगारे रह गये
है । तुमहारी मौत हो गई । हिडडयाँ और खोपड़ी िबखर गयी । तुमहारे नाते और िरशते िू ि गये । अपने और पराये के समबिध कि गये । तुमहारे शरीर की जाित और सांपदाियक समबिध िू ि गये । शरीर का कालापन और गोरापन समाप हो गया । तुमहारी तिदर ु सती और बीमारी अिगन ने एक कर दी । ऐ गा िफल ! न स मझा था
…
आग अब धीरे धीरे शांत हो रही है कयोिक जलने की कोई चीज बची नहीं ।
कुिु मबी, सनेही, िमत, पड़ोसी सब जा रहे है । समशान के नौकर से कह रहे है : ‘हम परसो आयेगे फूल चुनने के िलए । दे खना, िकसी दस ू रे के फूल िमिशत न हो जाए ।’ कइयो के फूल वहाँ पड़े भी रह जाते है । िमत अपनेवालो के फूल समझकर उठा लेते है ।
कौन अपना कौन पराया ? कया फूल और कया बेफूल ? ‘फूल’ जो था वह तो अलिवदा हो गया । अब हिडडयो को फूल कहकर भी कया खुशी मनाओगे? फूलो का फूल तो तुमहारा चैतिय था । उस चैतिय से समबिध कर लेते तो तुम फूल ही फूल थे ।
सब लोग घर गये । एक िदन बीता । दस ू रा िदन बीता । तीसरे िदन वे लोग
पहुँचे समशान मे । िचमिे से इधर उधर ढू ँ ढ़कर अिसथयाँ इकटठी कर लीं । डाल रहे है
तुमहे एक िडबबे मे बाबा ! खोपड़ी के कुछ िु कड़े , जोड़ो की कुछ हिडडयाँ िमल गई । जो पककी पककी थीं वे िमलीं, बाकी सब भसम हो गई । करीब एकाध िकलो फूल िमल गये । उिहे िडबबे मे डालकर िमत घर ले आए है ।
समझानेवालो
ने कहा : ‘हिडडयाँ घर मे न लाओ । बाहर रखो, दरू कहीं । िकसी पेड़ की
डाली पर बाँध दो । जब हिरदार जायेगे तब वहाँ से लेकर जायेगे। उसे घर मे न लाओ, अपशकुन है ।’ अब तुमहारी हिडडयाँ अपशकुन है । घर मे आना अमंगल है । वाह रे वाह संसार !
तेरे िलए पूरा जीवन खचच िकया था । इन हिडडयो को कई वषच बनाने मे और सँभालने मे
लगे । अब अपशकुन हो रहा है ? बोलते है : इस िडबबे को बाहर रखो । पड़ोसी के घर
ले जाते है तो पड़ोसी नाराज होता है िक यह कया कर रहे हो ? तुमहारे िजगरी दोसत के घर ले जाते है तो वह इिकार कर दे ता है िक इधर नहीं … दरू … दरू …दरू … तुमहारी हिडडयाँ िकसीके घर मे रहने लायक नहीं है , िकसीके मंिदर मे रहने
लायक नहीं है । लोग बड़े चतुर है । सोचते है : अब इससे कया मतलब है ? दिुनयाँ के लोग तुमहारे साथ नाता और िरशता तब तक सँभालेगे जब तक तुमसे उनको कुछ िमलेगा । हिडडयो से िमलना कया है ?
दिुनयाँ के लोग तुमहे बुलायेगे कुछ लेने के िलए । तुमहारे पास अब दे ने के िलए
बचा भी कया है ? वे लोग दोसती करे गे कुछ लेने के िलए । सदगुर तुमहे पयार करे गे …
पभु दे ने के िलए । दिुनयाँ के लोग तुमहे नशर दे कर अपनी सुिवधा खड़ी करे गे, लेिकन सदगुर तुमहे शाशत ् दे कर अपनी सुिवधा की परवाह नहीं करे गे । ॐ… ॐ … ॐ …
िजसमे चॉकलेि पड़ी थी, िबिसकि पड़े थे उस छोिे से िडबबे मे तुमहारी अिसथयाँ
पड़ी है । तुमहारे सब पद और पितषा इस छोिे से िडबबे मे परािशत होकर, अित तुचछ होकर पेड़ पर लिकाये जा रहे है । जब कुिु िमबयो को मौका िमलेगा तब जाकर गंगा मे पवािहत कर दे गे ।
दे ख लो अपने कीमती जीवन की हालत ! जब िबलली िदखती है तब कबूतर आँखे बंद करके मौत से बचना चाहता है लेिकन िबलली उसे चि कर दे ती है । इसी पकार तुम यिद इस ठोस सतय से बचना चाहोगे, ‘मेरी मौत न होगी’ ऐसा िवचार करोगे अथवा इस सतसंग को भूल जाओगे िफर भी मौत छोड़े गी नहीं ।
इस सतसंग को याद रखना बाबा ! मौत से पार कराने की कुंजी वह दे ता है तुमहे । तुमहारी अहं ता और ममता तोड़ने के िलये युिक िदखाता है , तािक तुम साधना मे लग जाओ । इस राह पर कदम रख ही िदये है तो मंिजल तक पँहुच जाओ । कब तक रके
रहोगे ? हजार-हजार िरशते और नाते तुम जोड़ते आये हो । हजार हजार संबिं धयो को
तुम िरझाते आये हो । अब तुमहारी अिसथयाँ गंगा मे पड़े उससे पहले अपना जीवन जान की गंगा मे बहा दे ना । तुमहारी अिसथयाँ पेड़ पर िँ गे उससे पहले तुम अपने अहं कार को िाँग दे ना परमातमा की अनुकंपा मे । परमातमारपी पेड़ पर अपना अहं कार लिका दे ना । िफर जैसी उस पयारे की मजी हो… नचा ले, जैसी उसकी मजी हो… दौड़ा ले । तेरी म जी पूर न हो … ऐसा करके अपने अहं कार को परमातमारपी पेड़ तक पँहुचा दो । तीसरा िदन मनाने के िलए लोग इकटठे हुए है । हँ सनेवाले शतुओं ने घर बैठे
थोड़ा हँ स िलया । रोनेवाले सनेिहयो ने थोड़ा रो िलया । िदखावा करनेवालो ने औपचािरकताएँ पूरी कर लीं । सभा मे आए हुए लोग तुमहारी मौत के बारे मे कानाफूसी कर रहे है :
बसे ।
मौत कैसे हुई? िसर दख ु ता था । पानी माँगा । पानी िदया और पीते पीते चल
चककर आये और िगर पड़े । वापस नहीं उठे । पेि दख ु ने लगा और वे मर गये । सुबह तो घूमकर आये । खूब खुश थे । िफर जरा सा कुछ हुआ । बोले : ‘मुझे कुछ हो रहा है , डॉकिर को बुलाओ ।’ हम बुलाने गये और पीछे यह हो गया।
हॉिसपिल मे खुब उपचार िकये, बचाने के िलए डॉकिरो ने खूब पयत िकये लेिकन मर गये । रासते पर चलते चलते िसधार गये। कुछ न कुछ िनिमत बन ही गया।
तीसरा िदन मनाते वक तुमहारी मौत के बारे मे बाते हो गई थोड़ी दे र । िफर समय हो गया : पाँच से छ: । उठकर सब चल िदये । कब तक याद करते रहे गे ? लोग लग गये अपने-अपने काम धिधे मे ।
अिसथयो का िडबबा पेड़ पर लिक रहा है । िदन बीत रहे है । मौका आया । वह िडबबा अब हिरदार ले जाया जा रहा है । एक थैली मे िडबबा डालकर टे न की सीि के
नीचे रखते है । लोग पूछते है : ‘इसमे कया है ?’ तुमहारे िमत बताते है : ‘नहीं नहीं, कुछ नहीं । सब ऐसे ही है । अिसथयाँ है इसमे…’ ऐसा कहकर वे पैर से िडबबे को धकका लगाते है । लोग िचललाते है : ‘यहाँ नहीं…
यहाँ नहीं … उधर रखो ।’
वाह रे वाह संसार ! तुमहारी अिसथयाँ िजस िडबबे मे है वह िडबबा टे न मे सीि के
नीचे रखने के लायक नहीं रहा । वाह रे पयारा शरीर ! तेरे िलए हमने कया कया िकया था ? तुझे सँभालने के िलए हमने कया कया नहीं िकया ? ॐ … ॐ … ॐ … !!
िमत हिरदार पहुँचे है । पणडे लोगो ने उिहे घेर िलया । िमत आिखरी िविध करवा
रहे है । अिसथयाँ डाल दीं गंगा मे, पवािहत हो गयीं । पणडे को दिकणा िमल गई । िमतो
को आँसू बहाने थे, दो चार बहा िलये । अब उिहे भी भूख लगी है । अब वे भी अपनी हिडडयाँ सँभालेगे, कयोिक उिहे तो सदा रखनी है । वे खाते है , पीते है , गाड़ी का समय पूछते है । जलदी वापस लौिना है कयोिक आिफस मे हािजर होना है , दक ु ान सँभालनी है । वे
सोचते है : ‘वह तो मर गया । उसे िवदा दे दी । मै मरनेवाला थोड़े हूँ ।’ िमत भोजन मे जुि गये है ।
आज तुमने अपनी मौत की याता दे खी । अपने शव की, अपनी हिडडयो की िसथित दे ख ली । तुम एक ऐसी चेतना हो िक तुमहारी मौत होने पर भी तुम उस मौत के साकी हो । तुमहारी हिडडयाँ जलने पर भी तुम उससे पथ ृ क् रहनेवाली जयोित हो ।
तुमहारी अथी जलने के बाद भी तुम अथी से पथ ृ क् चेतना हो । तुम साकी हो, आतमा हो । तुमने आज अपनी मौत को भी साकी होकर दे ख िलया । आज तक तुम हजारो-हजारो मौत की याताओं को दे खते आये हो ।
जो मौत की याता के साकी बन जाते है उनके िलये याता याता रह जाती है , साकी उससे परे हो जाता है । मौत के बाद अपने सब पराये हो गये । तुमहारा शरीर भी पराया हो गया ।
लेिकन तुमहारी आतमा आज तक परायी नहीं हुई ।
हजारो िमतो ने तुमको छोड़ िदया, लाखो कुिु िमबयो ने तुमको छोड़ िदया, करोड़ोकरोड़ो शरीरो ने तुमको छोड़ िदया, अरबो-अरबो कमो ने तुमको छोड़ िदया लेिकन तुमहारा आतमदे व तुमको कभी नहीं छोड़ता ।
शरीर की समशानयाता हो गयी लेिकन तुम उससे अलग साकी चैतिय हो । तुमने अब जान िलया िक: ‘मै इस शरीर की अंितम याता के बाद भी बचता हूँ , अथी के बाद भी बचता हूँ,
जिम से पहले भी बचता हूँ और मौत के बाद भी बचता हूँ । मै िचदाकाश … जानसवरप आतमा हूँ । मैने छोड़ िदया मोह ममता को । तोड़ िदया सब पपंच ।’
इस अभयास को बढ़ाते रहना । शरीर की अहं ता और ममता, जो आिखरी िवघन
है , उसे इस पकार तोड़ते रहना । मौका िमले तो समशान मे जाना । िदखाना अपनेको वह दशय ।
मै भी जब घर मे था, तब समशान मे जाया करता था । कभी-कभी िदखाता था
अपने मन को िक, ‘दे ख ! तेरी हालत भी ऐसी होगी ।’
समशान मे िववेक और वैरागय होता है । िबना िववेक और वैरागय के तुमहे बहाजी का उपदे श भी काम न आयेगा । िबना िववेक और वैरागय के तुमहे साकातकारी पूण च सदगुर िमल जायँ िफर भी तुमहे इतनी गित न करवा पायेगे । तुमहारा िववेक और वैरागय न जगा हो तो गुर भी कया करे ?
िववेक और वैरागय जगाने के िलए कभी कभी समशान मे जाते रहना । कभी घर
मे बैठे ही मन को समशान की याता करवा लेना । मरो मरो सब कोई कह
े मरना न जान े कोय ।
एक बार ऐसा मरो िक
िफर मरना
न होय
॥
जान की जयोित जगने दो । इस शरीर की ममता को िू िने दो । शरीर की ममता
िू िे गी तो अिय नाते िरशते सब भीतर से ढीले हो जायेगे । अहं ता ममता िू िने पर
तुमहारा वयवहार पभु का वयवहार हो जाएगा । तुमहारा बोलना पभु का बोलना हो जाएगा । तुमहारा दे खना पभु का दे खना हो जाएगा । तुमहारा जीना पभु का जीना हो जाएगा । केवल भीतर की अहं ता तोड़ दे ना । बाहर की ममता मे तो रखा भी कया है ? दे हािभ मान े ग िलत े िवजात े परमातम िन। यत यत मनो याित तत त
त समा धय : ॥
देह छता ं ज ेनी दशा वत े देहातीत ।
ते जान ीना चरण मां हो व िदन अ गिण त ॥ भीतर ही भीतर अपने आपसे पूछो िक: ‘मेरे ऐसे िदन कब आयेगे िक दे ह होते हुए भी मै अपने को दे ह से पथ ृ क् अनुभव
करँ गा ? मेरे ऐसे िदन कब आयेगे िक एकांत मे बैठा बैठा मै अपने मन बुिद को पथ ृ क्
दे खते-दे खते अपनी आतमा मे तप ृ होऊँगा ? मेरे ऐसे िदन कब आयेगे िक मै आतमानिद मे मसत रहकर संसार के वयवहार मे िनििित रहूँगा ? मेरे ऐसे िदन कब आयेगे िक शतु और िमत के वयवहार को मै खेल समझूँगा ?’
ऐसा न सोचो िक वे िदन कब आयेगे िक मेरा पमोशन हो जाएगा… मै पेिसडे िि
हो जाऊँगा … मै पाइम िमिनसिर हो जाऊँगा ?
आग लगे ऐसे पदो की वासना को ! ऐसा सोचो िक मै कब आतमपद पाऊँगा ? कब पभु के साथ एक होऊँगा ?
अमेिरका के पेिसडे िि िम कूिलज वहाइि हाउस मे रहते थे । एक बार वे बगीचे मे
घूम रहे थे । िकसी आगितुक ने पूछा : ‘यहाँ कौन रहता है ?’
कूिलज ने कहा : ‘यहाँ कोई रहता नहीं है । यह सराय है , धमश च ाला है । यहाँ कई आ आकर चले गये, कोई रहता नहीं ।’ रहने को तुम थोड़े ही आये हो ! तुम यहाँ से गुजरने को आये हो, पसार होने को
आये हो । यह जगत तुमहारा घर नहीं है । घर तो तुमहारा आतमदे व है । फकीरो का जो घर है वही तुमहारा घर है । जहाँ फकीरो ने डे रा डाला है वहीं तुमहारा डे रा सदा के िलए
ििक सकता है , अियत नहीं । अिय कोई भी महल, चाहे कैसा भी मजबूत हो, तुमहे सदा के िलए रख नहीं सकता । संसार त ेरा घर नही ं , दो चार िदन रहना
कर याद
अप ने राज य की , सवराजय
यह ाँ ।
िनषकंिक जह ाँ ॥
कूिलज से पूछा गया : ‘ I have come to know that Mr. Coolidge, President of America lives here. ’
( ‘मुझे पता चला है िक अमेिरका के राषपित शी कूिलज यहाँ रहते है ।’) कूिलज ने कहा : ‘No, Coolidge doesnot live here. Nobody lives here.
Everybody is passing through.’ (‘नहीं, कूिलज यहाँ नहीं रहता । कोई भी नहीं रहता । सब यहाँ से गुजर रहे है । ’) चार साल पूरे हुए । िमतो ने कहा : ‘िफर से चुनाव लड़ो । समाज मे बड़ा पभाव
है अपका । िफर से चुने जाओगे ।’
कूिलज बोला : ‘चार साल मैने वहाइि हाउस मे रहकर दे ख िलया । पेिसडे िि का पद सँभालकर दे ख िलया । कोई सार नहीं । अपने आपसे धोखा करना है , समय बरबाद करना है । I have no time to waste. अब मेरे पास बरबाद करने के िलए समय नहीं है ।’
ये सारे पद और पितषा समय बरबाद कर रहे है तुमहारा । बड़े बड़े नाते िरशते तुमहारा समय बरबाद कर रहे है । सवामी रामतीथच पाथन च ा िकया करते थे :
‘हे पभु ! मुझे िमतो से बचाओ, मुझे सुखो से बचाओ’ सरदार पूरनिसंह ने पूछा : ‘कया कह रहे है सवामीजी ? शतुओं से बचना होगा,
िमतो से कया बचना है ?’
रामतीथ च : ‘नहीं, शतुओं से मै िनपि लूँगा, द :ु खो से मै िनपि लूग ँ ा । द ु:ख मे
कभी आसिक नहीं होती, ममता नहीं होती । ममता, आसिक जब हुई है तब सुख मे हुई है , िमतो मे हुई है , सनेिहयो मे हुई है ।’
िमत हमारा समय खा जाते है , सुख हमारा समय खा जाता है । वे हमे बेहोशी मे रखते है । जो करना है वह रह जाता है । जो नहीं करना है उसे सँभालने मे ही जीवन खप जाता है ।
तथाकिथत िमतो से हमारा समय बच जाए, तथाकिथत सुखो से हमारी आसिक हि जाए । सुख मे होते हुए भी परमातमा मे रह सको, िमतो के बीच रहते हुए भी ईशर मे रह सको – ऐसी समझ की एक आँख रखना अपने पास ।
ॐ श ां ित : शां ित : शां ित : ! ॐ … ॐ … ॐ …
!!
तुमहारे शरीर की याता हो गई पूरी । मौत को भी तुमने दे खा । मौत को दे खनेवाले तुम दषा कैसे मर सकते हो ? तुम साकात ् चैतिय हो । तुम आतमा हो । तुम
िनभय च हो । तुम िन:शंक हो । मौत कई बार आकर शरीर को झपि गई । तुमहारी कभी मतृयु नहीं हुई । केवल शरीर बदलते आये, एक योिन से दस ू री योिन मे याता करते आये ।
तुम िनभय च तापूवक च अनुभव करो िक मै आतमा हूँ । मै अपनेको ममता से
बचाऊँगा । बेकार के नाते और िरशतो मे बहते हुए अपने जीवन को बचाऊँगा । पराई
आशा से अपने िचत को बचाऊँगा । आशाओं का दास नहीं लेिकन आशाओं का राम होकर रहूँगा ।
ॐ … ॐ … ॐ …
मै िनभय च रहूँगा । मै बेपरवाह रहूँगा जगत के सुख द ु :ख मे । मै संसार की हर
पिरिसथित मे िनििित रहूँगा, कयोिक मै आतमा हूँ । ऐ मौत ! तू शरीरो को िबगाड़ सकती है , मेरा कुछ नहीं कर सकती । तू कया डराती है मुझे ?
ऐ दिुनयाँ की रं गीिनयाँ ! ऐ संसार के पलोभन ! तुम मुझे अब कया फँसाओगे !
तुमहारी पोल मैने जान ली है । हे समाज के रीित िरवाज ! तुम कब तक बाँधोगे मुझे ? हे सुख और द :ु ख ! तुम कब तक नचाओगे मुझे ? अब मै मोहिनशा से जाग गया हूँ ।
िनभय च तापूवक च , दढ़तापूवक च , ईमानदारी और िन:शंकता से अपनी असली चेतना को जगाओ । कब तक तुम शरीर मे सोते रहोगे ? साधना के रासते पर हजार हजार िवघन होगे, लाख लाख काँिे होगे । उन सबके
ऊपर िनभय च तापूवक च पैर रखेगे ।
वे काँिे फूल न बन जाँए तो हमारा नाम ‘साधक’ कैसे ? ॐ … ॐ … ॐ … हजारो हजारो उतथान और पतन के पसंगो मे हम अपनी जान की आँख खोले
रहे गे । हो होकर कया होगा ? इस मुदे शरीर का ही तो उतथान और पतन िगना जाता है । हम तो अपनी आतमा मसती मे मसत है । िबगड़ े तब जब हो को
ई िबग ड़नेवाली शय ।
अकाल अ छेघ अ भेघ को कौन वसत ु का भय ॥ मुझ चैतिय को, मुझ आतमा को कया िबगड़ना है और कया िमलना है ? िबगड़ िबगड़कर िकसका िबगड़े गा ? इस मुदे शरीर का ही न ? िमल िमलकर भी कया िमलेगा ? इस मुदे शरीर को ही िमलेगा न ? इसको तो मै जलाकर आया हूँ जान की आग मे ।
अब िसकुड़ने की कया जररत है ? बाहर के द ु:खो के सामने, पलोभनो के सामने झुकने की कया जररत है ?
अब मै समाि की नाई िजऊँगा … बेपरवाह होकर िजऊँगा । साधना के माग च पर कदम रखा है तो अब चलकर ही रहूँगा । ॐ … ॐ … ॐ … ऐसे वयिक के िलए सब संभव है ।
एक म रिणयो सो ने भार े । आिखर तो मरना ही है , तो अभी से मौत को िनमंतण दे दो । साधक वह है िक जो हजार िवघन आये तो भी न रके , लाख पलोभन आएँ तो भी न फँसे । हजार भय के पसंग आएँ तो भी भयभीत न हो और लाख धियवाद िमले तो भी अहं कारी न हो । उसका नाम साधक है । साधक का अनुभव होना चािहए िक: हमे रोक सक े य े जमान े म े दम नही ं ।
हम स े जमाना ह ै जमान े स े ह म नही ं ॥ पहलाद के िपता ने रोका तो पहलाद ने िपता की बात को ठु करा दी । वह भगवान के रासते चल पड़ा । मीरा को पित और पिरवार ने रोका तो मीरा ने उनकी बात
को ठु करा िदया । राजा बिल को तथाकिथत गुर ने रोका तो राजा बिल ने उनकी बात को सुनी अनसुनी कर दी । ईशर के रासते पर चलने मे यिद गुर भी रोकता है तो गुर की बात को भी ठु करा
दे ना, पर ईशर को नहीं छोड़ना ।
ऐसा कौन गुर है जो भगवान के रासते चलने से रोकेगा ? वह िनगुरा गुर है । ईशर के रासते चलने मे यिद कोई गुर रोके तो तुम बिल राजा को याद करके कदम
आगे रखना । यिद पती रोके तो राजा भरतह ृ री को याद करके पती की ममता को ढकेल दे ना । यिद पुत और पिरवार रोकता है तो उिहे ममता की जाल समझकर काि दे ना
जान की कैची से । ईशर के रासते, आतम-साकातकार के रासते चलने मे दिुनयाँ का अचछे से अचछा वयिक भी आड़े आता हो तो … आहा ! तुलसीदासजी ने िकतना सुिदर कहा है !
जाके िपय न राम व ैदेही ,
तिज ए तािह को िि व ैरी स म , यदिप परम स नेही ।
ऐसे पसंग मे परम सनेही को भी वैरी की तरह तयाग दो । अिदर की चेतना का सहारा लो और ॐ की गजन च ा करो । द ु:ख और िचिता, हताशा और परे शानी, असफलता और दिरिता भीतर की चीजे
होती है , बाहर की नहीं । जब भीतर तुम अपने को असफल मानते हो तब बाहर तुमहे असफलता िदखती है ।
भीतर से तुम दीन हीन मत होना । घबराहि पैदा करनेवाली पिरिसथितयो के
आगे भीतर से झुकना मत । ॐकार का सहारा लेना । मौत भी आ जाए तो एक बार
मौत के िसर पर भी पैर रखने की ताकत पैदा करना । कब तक डरते रहोगे ? कब तक मनौितयाँ मनाते रहोगे ? कब तक नेताओं को, साहबो को, सेठो को, नौकरो को िरझाते रहोगे ? तुम अपने आपको िरझा लो एक बार । अपने आपसे दोसती कर लो एक बार । बाहर के दोसत कब तक बनाओगे ?
कबीरा इ ह जग आय क े , बहुत स े कीन े मी त । िजन िदल बा ँधा एक स े , वे सोय े िन ििंत ॥
बहुत सारे िमत िकये लेिकन िजसने एक से िदल बाँधा वह धिय हो गया । अपने
आपसे िदल बाँधना है । यह ‘एक’ कोई आकाश पाताल मे नहीं बैठा है । कहीं िे िलफोन
के खमभे नहीं डालने है , वायिरं ग नहीं जोड़नी है । वह ‘एक’ तो तुमहारा अपना आपा है ।
वह ‘एक’ तुमहीं हो । नाहक िसकुड़ रहे हो । ‘यह िमलेगा तो सुखी होऊँगा, वह िमलेगा तो सुखी होऊँगा …’ अरे ! सब चला जाए तो भी ठीक है , सब आ जाए तो भी ठीक है । आिखर यह
संसार सपना है । गुजरने दो सपने को । हो होकर कया होगा ? कया नौकरी नहीं िमलेगी
? खाना नहीं िमलेगा ? कोई बात नहीं । आिखर तो मरना है इस शरीर को । ईशर के माग च पर चलते हुए बहुत बहुत तो भूख पयास से पीिड़त हो मर जायेगे । वैसे भी खा
खाकर लोग मरते ही है न ! वासतव मे होता तो यह है िक पभु पािप के माग च पर चलनेवाले भक की रका ईशर सवयं करते है । तुम जब िनििंत हो जाओगे तो तुमहारे िलए ईशर िचिितत होगा िक कहीं भूखा न रह जाए बहवेता । सो चा म ै न कही ं जाऊँगा यह ीं ब ैठकर अब खाऊ ँगा ।
िजसको गरज हो
गी आ येगा स ृ िषकता च खुद लाय े गा ॥
सिृषकता च खुद भी आ सकता है । सिृष चलाने की और सँभालने की उसकी िजममेदारी है । तुम यिद सतय मे जुि जाते हो तो िधककार है उन दे वी दे वताओं को जो
तुमहारी सेवा के िलए लोगो को पेरणा न दे । तुम यिद अपने आपमे आतमारामी हो तो िधककार है उन िकिनरो और गंधवो को जो तुमहारा यशोगान न करे ! नाहक तुम दे वी दे वताओं के आगे िसकुड़ते रहते हो िक ‘आशीवाद च दो… कृ पा करो
…’ तुम अपनी आतमा का घात करके, अपनी शिकयो का अनादर करके कब तक भीख माँगते रहोगे ? अब तुमहे जागना होगा । इस दार पर आये हो तो सोये सोये काम न चलेगा ।
हजार तुम यज करो, लाख तुम मंत करो लेिकन तुमने मूखत च ा नहीं छोड़ी तब तक तुमहारा भला न होगा । 33 करोड़ दे वता तो कया, 33 करोड़ कृ षण आ जाये, लेिकन जब तक ततवजान को वयवहार मे उतारा नहीं तब तक अजुन च की तरह तुमहे रोना पड़े गा ।
Let the lion of vedant roar in your life. वेदाितरपी िसंह को अपने जीवन मे गजन च े दो । िँ कार कर दो ॐ कार का । िफर दे खो, द ु:ख िचिताएँ कहाँ रहते है ।
चाचा िमिकर भतीजे कयो होते हो ? आतमा होकर शरीर कयो बन जाते हो ? कब तक इस जलनेवाले को ‘मै’ मानते रहोगे ? कब तक इसकी अनुकूलता मे सुख,
पितकूलता मे द ु:ख महसूस करते रहोगे ? अरे सुिवधा के साधन तुमहे पाकर धनभागी हो जाये, तुमहारे कदम पड़ते ही असुिवधा सुिवधा मे बदल जाए –ऐसा तुमहारा जीवन हो ।
घने जंगल मे चले जाओ । वहाँ भी सुिवधा उपलबध हो जाए । न भी हो तो
अपनी मौज, अपना आतमानंद भंग न हो । िभका िमले तो खा लो । न भी िमले तो वाह वाह ! आज उपवास हो गया । राजी ह ै उसम े िजसम े त ेरी रजा ह ै । हमारी न
आरज ू ह ै न ज ूसतज ू ह ै ॥
खाना या नहीं खाना यह मुदे के िलए है । िजसकी अिसथयाँ भी ठु कराई जाती है उसकी िचिता ? भगवान का पयारा होकर िु कड़ो की िचिता ? संतो का पयारा होकर
कपड़ो की िचिता ? फकीरो का पयारा होकर रपयो की िचिता ? िसदो का पयारा होकर नाते िरशतो की िचिता ? िचिता के बहुत बोझे उठाये । अब िनििित हो जाओ । फकीरो के संग आये हो
तो अब फककड़ हो जाओ । साधना मे जुि जाओ ।
फकीर का मतलब िभखारी नहीं । फकीर का मतलब लाचार नहीं । फकीर वह है जो भगवान
की छाती पर खेलने का सामथयच रखता हो । ईशर की छाती पर लात मारने
की शिक िजसमे है वह फकीर । भग ृ ु ने भगवान की छाती पर लात मार दी और भगवान
पैरचंपी कर रहे है । भग ृ ु फकीर थे । िभखमंगो को थोड़े ही फकीर कहते है ? तषृणावान ् को थोड़े ही फकीर कहते है ?
भग ृ ु को भगवान के पित दे ष न था । उनकी समता िनहारने के िलए लगा दी लात । भगवान िवषणु ने कया िकया ? कोप िकया ? नहीं । भग ृ ु के पैर पकड़कर चंपी की िक हे मुॉ्िन ! तुमहे चोि तो नहीं लगी ?
फकीर ऐसे होते है । उनके संग मे आकर भी लोग रोते है : ‘कंकड़ दो… पतथर दो… मेरा कया होगा … ? बचचो का कया होगा ? कुिु मब का कया होगा ? सब ठीक हो जायेगा । पहले तुम अपनी मिहमा मे आ जाओ । अपने आपमे आ
जाओ ।
ियायाधीश कोिच मे झाडू लगाने थोड़े ही जाता है ? वादी पितवादी को, असील वकील को बुलाने थोड़ी ही जाता है ? वह तो कोिच मे आकर िवराजमान होता है अपनी
कुसी पर । बाकी के सब काम अपने आप होने लगते है । ियायाधीश अपनी कुसी छोड़कर पानी भरने लग जाए, झाडू लगाने लग जाए, वादी पितवादी को पुकारने लग जाए तो वह कया ियाय करे गा ?
तुम ियायाधीशो के भी ियायाधीश हो । अपनी कुसी पर बैठ जाओ । अपनी आतमचेतना मे जग जाओ । छोिी बड़ी पूजाएँ बहुत की । अब आतमपूजा मे आ जाओ ।
देखा अप ने आपको , मेरा िद ल दीवान ा हो गया ।
ना छे ड़ो मुझ े या रो ! मै ख ुद प े म सताना हो गया ॥ ऐसे गीत िनकलेगे तुमहारे भीतर से । तुम अपनी मिहमा मे आओ । तुम िकतने बड़े हो ! इििपद तुमहारे आगे तुचछ है , अित तुचछ है । इतने तुम बड़े हो, िफर िसकुड़ रहे हो ! धकका मुकका कर रहे हो । ‘दया कर दो … जरा सा पमोशन दे दो… अवल
कारकुन मे से तहसीलदार बना दो … तहसीलदार मे से कलेकिर बना दो … कलेकिर मे से सिचव बना दो …’
लेिकन … जो तुमको
यह सब बनाय ेग े वे तुम से बड़े बन जाय ेग े । तु म
छोि े ही रह जाओग े । बनती हुई चीज से बनानेवाला बड़ा होता है । अपने से िकसको
बड़ा रखोगे ? मुदो को कया बड़ा रखना ? अपनी आतमा को ही सबसे बड़ी जान लो, भैया ! यहाँ तक िक तुम अपने से इिि को भी बड़ा न मानो। फकीर तो और आगे की बात कहे गे । वे कहते है ‘बहा, िवषणु और महे श भी
अपने से बढ़कर नहीं होते, एक ऐसी अवसथा आती है । यह है आतम साकातकार ।’
बहा, िवषणु और महे श भी ततववेता से आिलंगन करके िमलते है िक यह जीव अब िशवसवरप हुआ । ऐसे जान मे जगने के िलए तुमहारा मनुषय जिम हुआ है । …
और तुम िसकुड़ते रहते हो ? ‘मुझे नौकर बनाओ, चाकर रखो ।’ अरे , तुमहारी यिद तैयारी है तो अपनी मिहमा मे जगना कोई किठन बात नहीं है । यह कौन
सा उ कदा ह ै जो हो नह ीं सकता ।
तेरा जी न चाह े तो हो नही ं स कता ॥ छोिा सा कीड़ा पतथर म
े घर कर े ।
और इ िसान कय ा िद ले िद लबर मे घ र न कर े ॥ तुमहारे सब पुणय, कमच, धमाच च रण और दे व दशन च का यह फल है िक तुमहे आतमजान मे रिच हुई । बहवेताओं के शरीर की मुलाकात तो कई नािसतको को भी हो जाती है , अभागो को भी हो जाती है । शदा जब होती है तब शरीर के पार जो बैठा है उसे पहचानने के कािबल तुम बन जाओगे । ॐ … ॐ … ॐ …
जो ततववेताओं की वाणी से दरू है उसे इस संसार मे भिकना ही पड़े गा । जिम
मरण लेना ही पड़े गा । चाहे वह कृ षण के साथ हो जाए चाहे अमबाजी के साथ हो जाए लेिकन जब तक ततवजान नहीं हुआ तब तक तो बाबा … गुजराती भक किव नरिसंह मेहता कहते है :
आतमततव ची िया िवना स वच साधना झ ूठी । सवच साधनाओं के बाद नरिसंह मेहता यह कहते है । तुम िकतनी साधना करोगे ? पहले मैने भी खूब पूजा उपासना की थी । भगवान िशव की पूजा के िबना कुछ
खाता पीता नहीं था । प. पू. सदगुरदे व शी लीलाशाहजी बापू के पास गया तब भी भगवान शंकर का बाण और पूजा की सामगी साथ मे लेकर गया था । मै लकिड़याँ भी धोकर जलाऊँ, ऐसी पिवतता को माननेवाला था । िफर भी जब तक परम पिवत आतमजान नहीं हुआ तब तक यह सब पिवतता बस उपािध थी । अब तो … अब कया कहूँ ?
नैनीताल मे 15 डोिियाल (कुली) रहने के िलए एक मकान िकराये पर ले रहे थे ।
िकराया 32 रपये था और वे लोग 15 थे । लीलाशाहजी बापू ने दो रपये दे ते हुए कहा:
“मुझे भी एक ‘मेमबर’ बना लो । 32 रपये िकराया है , हम 16 िकरायेदार हो
जायेगे ।’’
ये अनित बहाणडो के शहे नशाह उन डोिियालो के साथ वषो तक रहे । वे तो महा पिवत हो गये थे । उिहे कोई अपिवतता छू नहीं सकती थी । एक बार जो परम पिवतता को उपलबध हो गया उसे कया होगा ? लोहे का िु कड़ा
िमटिी मे पड़ा है तो उसे जंग लगेगा । उसे सँभालकर आलमारी मे रखोगे तो भी हवाँए वहाँ जंग चढ़ा दे गी । उसी लोहे के िु कड़े को पारस का सपश च करा दो, एक बार सोना बना दो, िफर चाहे आलमारी मे रखो चाहे कीचड़ मे डाल दो, उसे जंग नहीं लगेगा ।
ऐसे ही हमारे मन को एक बार आतमसवरप का साकातकार हो जाय । िफर उसे चाहे समािध मे िबठाओ, पिवतता मे िबठाओ चाहे नरक मे ले जाओ । वह जहाँ होगा,
अपने आपमे पूण च होगा । उसीको जानी कहते है । ऐसा जान जब तक नहीं िमलेगा तब तक िरिद िसिद आ जाए, मुदे को फूँक मारकर उठाने की शिक आ जाए िफर भी उस
आतमजान के िबना सब वयथच है । वाक् िसिद या संकलपिसिद ये कोई मंिजल नहीं है । साधनामागच मे ये बीच के पड़ाव हो सकते है । यह जान का फल नहीं है । जान का फल
तो यह है िक बहा और महे श का ऐशय च भी तुमहे अपने िनजसवरप मे भािसत हो, छोिा सा लगे । ऐसा तुमहारा आतम परमातमसवरप है । उसमे तुम जागो । ॐ … ॐ … ॐ …
मोह िनशा से जागो आँखो के दारा, कानो के दारा दिुनयाँ भीतर घुसती है और िचत को चंचल करती
है । जप, धयान, समरण, शुभ कमच करने से बुिद सवचछ होती है । सवचछ बुिद परमातमा
मे शांत होती है और मिलन बुिद जगत मे उलझती है । बुिद िजतनी िजतनी पिवत होती है उतनी उतनी परम शांित से भर जाती है । बुिद िजतनी िजतनी मिलन होती है , उतनी संसार की वासनाओं मे, िवचारो मे भिकती है ।
आज तक जो भी सुना है , दे खा है , उसमे बुिद गई लेिकन िमला कया? आज के बाद जो दे खेगे, सुनेगे उसमे बुिद को दौड़ायेगे लेिकन अित मे िमलेगा कया? शीकृ षण कहते है :
यदा ते मो हकिल लं ब ुिदवय च ितत िरषयित । तदा ग िता िस िनव े दं श ोतवयस य श ु तसय च ॥ ‘िजस काल मे तेरी बुिद मोहरप दलदल को भलीभाँित पार कर जाएगी, उस
समय तू सुने हुए और सुनने मे आनेवाले इस लोक और परलोक समबिधी सभी भोगो से वैरागय को पाप हो जायेगा ।’
(भगवदगीता:2.52)
दलदल मे पहले आदमी का पैर धँस जाता है । िफर घुिने , िफर जाँघे, िफर नािभ,
िफर छाती, िफर पूरा शरीर धँस जाता है । ऐसे ही संसार के दलदल मे आदमी धँसता है
। ‘थोड़ा सा यह कर लूँ, थोड़ा सा यह दे ख लूँ, थोड़ा सा यह खा लूँ, थोड़ा सा यह सुन लूँ
।’ पारमभ मे बीड़ी पीनेवाला जरा सी फूँक मारता है , िफर वयसन मे पूरा बँधता है । शराब पीनेवाला पहले जरा सा घूँि पीता है , िफर पूरा शराबी हो जाता है ।
ऐसे ही ममता के बिधनवाले ममता मे फँस जाते है । ‘जरा शरीर का खयाल करे ,
जरा कुिु िमबयो का खयाल करे … ।’ ‘जरा … जरा …’ करते करते बुिद संसार के खयालो
से भर जाती है । िजस बुिद मे परमातमा का जान होना चािहए, िजस बुिद मे परमातमशांित भरनी चािहए उस बुिद मे संसार का कचरा भरा हुआ है । सोते है तो भी संसार याद आता है , चलते है तो भी संसार याद आता है , जीते है तो संसार याद आता है और मरते… है … तो … भी … संसार… ही…
याद… आता…
है ।
सुना हुआ है सवगच के बारे मे, सुना हुआ है नरक के बारे मे, सुना हुआ है भगवान
के बारे मे । यिद बुिद मे से मोह हि जाए तो सवग च नरक का मोह नहीं होगा, सुने हुए भोगय पदाथो का मोह नहीं होगा । मोह की िनविृत होने पर बुिद परमातमा के िसवाय
िकसी मे भी नहीं ठहरे गी । परमातमा के िसवाय कहीं भी बुिद ठहरती है तो समझ लेना िक अभी अजान जारी है । अमदावादवाला कहता है िक मुब ं ई मे सुख है । मुब ं ईवाला
कहता है िक कलकते मे सुख है । कलकतेवाला कहता है िक कशमीर मे सुख है । कशमीरवाला कहता है िक मंगणी मे सुख है । मंगणीवाला कहता है िक शादी मे सुख है
। शादीवाला कहता है िक बाल बचचो मे सुख है । बाल बचचोवाला कहता है िक िनविृत मे सुख है । िनविृतवाला कहता है िक पविृत मे सुख है । मोह से भरी हुई बुिद अनेक रं ग बदलती है । अनेक रं ग बदलने के साथ अनेक अनेक जिमो मे भी ले जाती है । यदा त े मोहक िलल ं ब ु िदवय च ित … ‘िजस काल मे तेरी बुिद मोहरपी दलदल को भलीभाँित पार कर जाएगी, उसी समय
तू सुने हुए और सुनने मे आनेवाले इस लोक और परलोक संबध ं ी सभी भोगो से वैरागय को पाप हो जायेगा ।’
इस लोक और परलोक…
सात लोक ऊपर है : भू:, भुव:, सव:, जन:, तप:, मह: और सतय । सात लोक नीचे है : तल, अतल, िवतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल । इस पकार सात लोक उपर , सात लोक िकसी लोक मे आदमी याता करते
है ।
िनचे है …जब बुिधद मे मोह होता है तो िकसी न
विशषजी महाराज के पास एक ऐसी िवदाधरी आयी िजसका मनोबल धारणाशिक से अतयित पुष हुआ था, इचछाशिक पबल थी । उसने विशषजी से कहा :
‘’हे मुनीशर ! मै तुमहारी शरण आई हूँ । मै एक िनराली सिृष मे रहनेवाली हूँ । उस सिृष का रचियता मेरे पित है । उनकी बुिद मे सी भोगने की इचछा हुई इसिलए उिहोने
मेरा सज ृ न िकया । मेरी उतपित के बाद उनको धयान मे, आतमा मे अिधक आनंद आने लगा, इसिलए वे मुझसे िवरक हो गये । अब मेरी ओर आँख उठाकर दे खते तक नहीं । अब मेरी यौवन अवसथा है । मेरे अंग सुद ं र और सुकोमल है । मै भताच के िबना नहीं रह सकती । आप कृ पा करके चिलये । मेरे पित को समझाइए ।’’ साधु पुरष परोपकार के िलए सममत हो जाते है । विशषजी महाराज उस भि
मिहला के साथ उसके पित के यहाँ जाने को तैयार हुए । विशषजी भी योगी थे , वह मिहला भी धारणाशिक मे िवकिसत थी । दोनो उड़ते उड़ते इस सिृष को लाँघते गये । एक नये बहाणड मे पिवष हो गये । वहाँ वह िवदाधरी एक बड़ी िशला मे पिवष हो गयी
। विशषजी बाहर रक गये । वह सी वापस बाहर आई तो विशषजी बोले: ‘‘तेरी सिृष मे हम पिवष नहीं हो सकते ।’’
तब उस िवदाधरी ने कहा : ‘‘आप मेरी िचतविृत के साथ अपनी िचतविृत िमलाइए । आप भी मेरे साथ साथ पिवष हो सकेगे ।’’ एक आदमी सवपन दे ख रहा है । उसके सवपन मे दस ू रा आदमी पिवष नहीं हो
सकता । दस ू रा तब पिवष हो सकेगा िक जब उन दोनो के सुने हुये संसकार एक जैसे हो
। एक आदमी सोया है । आप उसके पास खड़े है । आप बार बार सघनता से खयाल
करो, उसी खयाल का बार बार पुनरावतन च करो िक बािरश हो रही है , ठं ड लग रही है । आपके शासोचछवास के आंदोलन उस सोये हुए आदमी पर पभाव डालेगे, उसकी िचतविृत आपकी िचतविृत के साथ तादातमय करे गी और उसको सवपन आयेगा िक खूब बािरश हो रही है और मै भीग गया । मूखच आदिमयो के साथ हम लोग जीते है । संसार के दलदल मे फँसे हुए , पैसो के
गुलाम, इििियो के गुलाम ऐसे लोगो के बीच यिद साधक भी जाता है तो वह भी सोचता
है िक चलो, थोड़े रपये इकटठे कर लूँ । नोिो की थोड़ी सी थपपी तो बना लूँ कयोिक मेरे बाप के बाप तो ले गये है , मेरे बाप भी ले गये है और अब मेरेको भी ले जाना है ।
मोह के दलदल मे आदमी फँस जाता है । कीचड़ मे धँसे हुए वयिक के साथ यिद
तुम तादातमय करते हो तो तुम भी डू बने लगते हो । तुमको लगता है िक ये डू बे है , हम
नहीं डू बते । मगर तुम ऐसा कहते भी जाते हो और डू बते भी जाते हो । बुिद मे एक ऐसा िविचत भम घुस जाता है । जैसे तैसे साधक को ही नहीं, अजुन च जैसे को भी यह भम हो गया था । अजुन च
को आतम साकातकार नहीं हुआ और वह बोलता है िक: ‘‘भगवन ् ! तुमहारे पसाद से अब मै सब समझ गया हूँ । अब मै ठीक हो गया हूँ ।’’
भगवान कहते है : ‘‘अचछा, ठीक है । समझ रहा है िफर भी द ु:खी सुखी होता है ,
भीतर मोह ममता है ।’’
गयारहवे अधयाय मे अजुन च ने कहा िक मुझे जान हो गया है , मै सब समझ गया । मेरा मोह नष हो गया । िफर सात अधयाय और चले है । उसको पता ही नहीं िक आतम साकातकार कया होता है ।
एक तुिष नाम की भूिमका आती है जो जीव का सवभाव होता है । जीव मे थोड़ी सी शांित, थोड़ा सा सामथयच, थोड़ा सा हष च आ जाता है तो समझ लेता है मैने बहुत कुछ पा िलया । जरा सा आभास होता है , झलक आती है तो उसीको लोग आतम साकातकार मान लेते है । जब मोहकिलल को बुिद पार कर जायेगी तब सुना हुआ और दे खा हुआ जो कुछ
होगा उससे तुमहारा वैरागय हो जायेगा । इिि आकर हाथ जोड़कर खड़ा हो जाए, कुबेर तुमहारे िलए खजाने की कुंिजयाँ लेकर खड़ा रहे , बहाजी कमणडल लेकर खड़े रहे और बोले िक: ‘चिलए, बहपुरी का सुख लीिजये …’ िफर भी तुमहारे िचत मे उन पदाथो का आकषण च नहीं होगा । तब समझना िक आतम साकातकार हो गया । बच चो का ख ेल नह ीं म ैदान े म ुहबबत ।
यह ाँ जो भी आया
िसर पर कफन बा
ँ धकर आया
॥
जीव का सवभाव है भोग । िशव का सवभाव भोग नहीं है । जीव का सवभाव है वासना, जीव का सवभाव है सुख के िलए दौड़ना । बहाजी आयेगे तो सुख दे ने की ही
बात करे गे न ? सुख के िलए यिद तुम भागते हो तो पता चलता है िक सुख का दिरया तुमहारे भीतर पूरा उमड़ा नहीं है । सुख की कमी होगी तब सुख लेने को कहीं और जाओगे । सुख लेना जीव का सवभाव होता है । आतम साकातकार के बाद जीव बािधत हो जाता है । जीव का जीवपना नहीं रहता । वह िशवतव मे पगि हो जाता है । कामदे व रित को साथ लेकर िशवजी के आगे िकतने ही नखरे करने लगा लेिकन
िशवजी को पभािवत न कर सका । िशवजी इतने आतमारामी है , उनमे इतना आतमानंद है िक उनके आगे काम का सुख अित नीचा है , अित तुचछ है । िशवजी काम से पभािवत नहीं हुए ।
योगी लोग, संत लोग जब साधना करते है तब अपसराएँ आती है , नखरे करती है । जो उनके नखरे से आकिषत च हो जाते है वे आतमिनषा नहीं पा सकते है , आतमानंद के खजाने को नहीं पा सकते है । इसीिलए साधको को चेतावनी दी जाती है िक िकसी िरिद िसिद मे, िकसी पलोभन मे मत फँसना । तुम मन और इििियो का थोड़ा सा संयम करोगे तो तुमहारी वाणी मे सामथय च आ
जाएगा । तुमहारे संकलप मे बल आ जाएगा, तुमहारे दारा चमतकार होने लगेगे ।
चमतकार होना आतम साकातकार नहीं है । चमतकार होना शरीर और इििियो के संयम का फल है । आतम साकातकारी महापुरष के दारा भी चमतकार हो जाते है । वे चमतकार करते नहीं है , हो जाते है । उनके िलए यह कोई बड़ी बात नहीं है । वाणी और संकलप मे
सामथय च यह इचछाशिक का ही एक िहससा है । तुम जो संकलप करो उसमे डिे रहो । तुम जो िवचार करते हो उन िवचारो को कािने का दस ू रा िवचार न उठने दो, तो तुमहारे िवचारो मे बल आ जाएगा ।
शरीर को, इििियो को संयत करके जप, तप, मौन, एकागता करो तो अंत:करण शुद होगा । शुद अंत:करण का संकलप जलदी फलता है । लेिकन यह आिखरी मंिजल नहीं है । शुद अंत:करण िफर अशुद भी हो सकता है ।
15-16 साल पहले वाराही मे मेरे पास एक साधु आया और बहुत रोया । मैने पूछा
:‘‘कया बात है ?’’
वह बोला : ‘‘ मेरा सब कुछ चला गया । बाबाजी ! लोग मुझे भगवान जैसा मानते थे । अब मेरे सामने आँख उठाकर कोई नहीं दे खता है ।’’ वह और रोने लगा । मैने सांतवना दे कर जयादा पूछा तो उसने बताया:
‘‘बाबाजी ! कया बताऊँ ? मै पानी मे िनहारकर वह पानी दे दे ता तो रोता हुआ
आदमी हँ सने लगता था । बीमार आदमी ठीक हो जाता था । लेिकन बाबाजी ! अब मेरी वह शिक न जाने कहाँ चली गई ? अब मुझे कोई पूछता नहीं ।’’
बुिद का मोह पूरा गया नहीं था । बुिद का तमस ् थोड़ा गया, बुिद का रजस ् थोड़ा
गया लेिकन बुिद पूरी परमातमा मे ठहरी नहीं थी । पूरी परमातमा मे नहीं ठहरी तो
पितषा मे ठहरी । पितषा थी तो बुिद पसिन हुई और ‘मै भगवान हूँ…’ ऐसा मानकर खुश रहने लगी । जब बुिद की शुिद चली गई, एकागता नष हुई तो संकलप का सामथयच चला गया । लोगो ने दे खना बंद कर िदया तो बोलता है : ‘बाबाजी ! मै परे शान हूँ ।’
जानी शूली पर चढ़े तो भी परे शान नहीं होते । पिसिद के बदले कुपिसिद हो जाए, जहर िदया जाए, शूली पर चढ़ा िदया जाए िफर भी जानी अिदर से द ु :खी नहीं होते, कयोिक उिहोने जान िलया िक संसार मे जो भी सुना हुआ , दे खा हुआ, जो कुछ भी है , नहीं के बराबर है , सब सवपन है । भगवान शंकर कहते है : उमा कहउ ँ म ै अन ुभव अ पन ा ।
सतय ह िरभजन जगत स ब सपना ॥ तसय पजा
प ित िषता ।
उसकी पजा बह मे पितिषत हो जाती है ।
उस साधु के िलए थोड़ी दे र मै शांत हो गया और िफर उससे बोला : ‘‘तुमने तािक िसद िकया हुआ था ।’’ वह बोला : ‘‘हाँ बाबाजी ! आपको कैसे पता चला गया ?’’ मैने कहा : ‘‘ऐसे ही पता चल गया ।’’
आपका हदय िसथर है तो दस ू रो की िचतविृत के साथ आपका तादातमय हो जाता
है । कोई किठन बात नहीं है । अपने िलए वह चमतकार लगता है , संतो के िलए यह कोई चमतकार नहीं है ।
तुमहारा रे िडयो यिद ठीक है तो वायुमणडल मे बहता हुआ गाना तुमहे सुनाई पड़ता
है । ऐसे ही यिद तुमहारा अंत:करण शांत होता है , बुिद िसथर होती है तो घिित घिना या भिवषय की घिना का पता चल जाता है । यही कारण है िक वालमीिक ॠिष ने सौ साल पहले रामायण रच िलया, रामजी से या िवषणुजी से पूछने नहीं गये िक तुम कया करोगे ? अथवा, िकसी जयोितष का िहसाब लगाने नहीं गये थे । बुिद इतनी शुद होती है
िक भूत और भिवषय की कलपनाएँ नहीं रहती है । जानी के िलए सदा वतम च ान रहता है । इसिलए भूत भिवषय की खबर पड़ जाती है । उनकी बुिद िवचिलत नहीं होती है ।
उस साधु ने तािक िसद िकया हुआ था । तािक से एकागता होती है और
एकागता से इचछाशिक िवकिसत होती है , सामथय च बढ़ जाता है । उसी इचछाशिक को यिद आतमजान मे नहीं मोड़ा तो वह इचछाशिक िफर संसार की तरफ ले जाती है । एकागता के िलए तािक की िविध इस पकार है : एक फुि के चौरस गते पर एक सफेद कागज लगा दो । उसके केिि मे एक रपये
के िसकके के बराबर एक गोलाकार िचह बनाओ । इस गोलाकार िचह के केिि मे एक ितलभर िबिद ु छोड़कर बाकी के भाग मे काला रं ग भर दो । बीचवाले िबिद ु मे पीला रं ग भर दो ।
अब उस गते को ऐसे रखो िक वह गोलाकार िचह आपकी आँखो की सीधी रे खा मे रहे । हररोज एक ही सथान मे कोई एक िनिित समय मे उस गते के सामने बैठ जाओ । पलके िगराये िबना अपनी दिष उस गोलाकार िचह के पीले केिि पर ििकाओ । आँखे पूरी खुली या पूरी बंद न हो। आँखे बिद होती है तो तुमहारी शिक मनोराज मे कीण होती है । आँखे यिद पूरी
खुली होती है तो उसके दारा तुमहारी शिक की रिशमयाँ बाहर बहकर कीण होती है , आितमक शिक कीण होती है । इसी कारण टे न, बस या मोिरकार की मुसािफरी मे िखड़की से बाहर झाँकते हो तो थोड़ी ही दे र मे थककर झपिकयाँ लेने लगते हो । जीवनशिक खचच हो जाती है ।
उस पीले िबिद ु पर दिष एकाग करने से आँखो दारा िबखरती हुई जीवनशिक
बचेगी और संकलप की परं परा िू िने लगेगी । संकलप िवकलप कम होने से आधयाितमक बल जगेगा । पहले 5 िमनि, 10 िमनि, 15 िमनि बैठो । पारं भ मे आँखे जलती हुई मालूम पड़े गी । आँखो मे से पानी िगरे गा । रोज आधा घणिा बैठने का अभयास करो । िफर तो तुम ऐसे ऐसे चमतकार कर लोगे िक भगवान की तरह पूजे जाओगे । उसके साथ यिद आतमजान
नह ीं होगा
तो वह भगवान
होगा , मुक भ गवान नह ीं होगा ।
अं त मे रोता
हुआ भगवान
एकागता सब तपसयाओं का माई बाप है । भिक परं परा मे पूजयपाद माधवाचाय च पिसद संत हो गये । उिहोने कहा था :‘‘हे
पभु ! हम तेरे पयार मे अब इतने गकच हो गये है िक हमसे अब न यज होता है न तीथच होता है , न संधया होती है , न तपण च होता है , न मग ृ छाला िबछती है न माला घूमती है । हम तेरे पयार मे ही िबक गये ।’’
जब पेमाभिक पगि होने लगती है तब कुिु िमबयो का, संसािरयो का, समाज का मोह तो हि जाता है लेिकन िफर कमक च ाणड का मोह भी िू ि जाता है । कमक च ाणड का मोह तब तक है जब तक दे ह मे आतमबुिद होती है । संसार मे आसिक होती है तब तक
कमक च ाणड मे पीित होती है । संसार की आसिक हि जाए, कृ षण मे पेम हो जाए, राम मे पेम हो जाए तो िफर कमक च ाणड की नीची साधना करने को जी नहीं चाहता है । कृ षण का
अथ च है आकषन च ेवाला, आनंदसवरप आतमा । राम का अथ च है सबमे रमनेवाला, चैतिय आतमा ।
कुछ संपदायवाले तािक िसद करके अपनी शिक का दर ु पयोग करते है । चमगादड़
मारकर, उसका काजल बनाकर उस काजल को आँखो मे लगाकर िकसीसे अपनी आँख के सामने िनहारने और धयान करने को कहते है । धयान करनेवाले वयिक की बुिद वश हो जाए, ऐसा संकलप करके तािक करते है तो अचछे अचछे लोग उनके वश मे हो जाते है ।
इसमे उनकी अपनी भी हािन है और सामनेवाले वयिक की भी हािन है । एकागता
तो ठीक है लेिकन अगर एकागता का उपयोग संसार है , एकागता का उपयोग भोग है तो
वह एकागता साधक को मार डालती है । एकागता का उपयोग एक परमातमा की पािप के िलए होना चािहए । रपयो मे पाप नहीं लेिकन रपयो से भोग भोगना पाप है । सता मे पाप नहीं
लेिकन सता से अहं कार बढ़ाना पाप है । अकलमंद होने मे पाप नहीं लेिकन उस अकल से दस ू रो को िगराना और अपने अहं को पोिषत करना पाप है ।
कई लोग परे शान रहते है । मूढ़ लोग, अधािमक च लोग परे शान रहते है इसमे कोई
आिय च नहीं लेिकन भगत लोग भी परे शान रहते है । भगत सोचता है िक ‘मेरा मन िसथर हो जाए… मेरी इििियाँ शांत हो जाएँ…’ भैया मेरे ! मन शांत हो जाएगा, इििियाँ शांत हो जाएँगी तो ‘रामनाम सत ् है …’ हो जाएगा । तन, मन, इििियो का तो सवभाव है
हरकत करना, चेषा करना । लेिकन वह चेषा सुयोगय हो । मन का सवभाव है संकलप करना, लेिकन ऐसा संकलप करे िक अपना बिधन किे । बुिद का सवभाव है िनणय च करना । लोग इचछा करते है : ‘‘मै शांत हो जाऊँ पतथर की तरह … मेरा धयान लग जाए
…’’ िजनका धयान लगता है वे परे शान है और िजनका धयान नहीं लगता है वे भी परे शान है । धयान के रासते नहीं आए वे भी परे शान है ही । उनकी विृतयाँ पल पल मे उिदगन होती है । रजो तमोगुण बढ़ जाता है ।
योग मे बताया गया है िक िचत की पाँच अवसथाएँ होती है : िकप, िविकप, मूढ़, एकाग और िनरद । िचत पकृ ित का बना है । वह सदा एक अवसथा मे नहीं रहता । सदा एकाग भी नहीं रह सकता और सदा चंचल भी नहीं रह सकता । िकतना भी चंचल आदमी हो लेिकन रात को वह शांत हो जाएगा । िकतना भी शांत वयिक हो लेिकन उसका िचत चेषा करे गा ही ।
भगवान शंकर जैसी समािध तो िकसीकी लगी नहीं । िफर भी शंकरजी समािध से उठते है तो डमर लेकर नाचते है । शरीर, मन और संसार सदा बदलता रहता है । सुख द ु:ख सदा आता जाता है । द ु:ख मे तो पकड़ नहीं होती लेिकन सुख मे पकड़ रहती है
िक यह सदा बना रहे । सुख मे, धन मे, सवग च मे यिद पकड़ है तो समझो िक बुिद का मोह अभी नहीं गया । जानी को िकसीमे पकड़ नहीं होती । भगवान कृ षण जी कहते है :
यदा त े मोहक िलल म् मोह दलदल है । दलदल मे आदमी थोड़ा धँसते धँसते पूरा नष हो जाता है । लालजी महाराज एक सरल संत है । उनके पास एक साधु आये । जवान थे, दे खने मे ठीक ठाक थे । एक बार एक नववधू शादी के बाद तुरंत बाबाजी के दशन च करने आयी । बाबाजी
ने कहा: ‘‘ भगवान के दशन च कर लो ।’’ वह दशन च करने गई तो उस साधु की आँख उस
नववधू की ओर घूमती रही । उसके जाने के बाद लालजी महाराज ने साधु से कहा: ‘ महाराज ! आप संियासी ठहरे । गह ृ सथ साधक भी अपने को बचाता है और आप …? यह ठीक नहीं लगता है िक कोई युवती आयी और … इििियो को जरा बचाना चािहए ।’’ कान से और आँख से संसार अपने अिदर घुस जाता है । वह साधु िचढ़ गया ।
उसे अहं कार था िक मै साधु हूँ । मैने गेरए कपड़े पहने है ।
घर छोड़ना बड़ी बात नहीं लेिकन अहं कार छोड़ना बड़ी बात है । िकिहीं पादिरयो के संग से पभािवत और उनकी बुिद से रं गे हुए उस युवान साधु ने रठकर कहा: ‘‘भगवान ने आँखे दी है दे खने के िलए, सौिदय च िदया है तो दे खने के िलए । केवल
दे खने मे कया जाता है ? मैने उससे बाते नहीं की, सपशच नहीं िकया ।’’ आदमी तकच दे ना चाहे तो कैसे भी दे सकता है ।
अरे भाई ! पहले पहले तो ऐसा ही होता है िक दे खने मे कया जाता है ? शराब की एक पयाली पी लेने मे कया जाता है ? लेिकन यह मोहकिलल ऐसा िविचत दलदल है
िक उसमे एक बार पैर पड़ गया तो िफर जयो जयो समय बीतता जाएगा तयो तयो जयादा धँसते जाओगे । वह साधु उस समय तो रठकर चला गया लेिकन वक बादशाह है । घूमते घामते
छ: आठ महीने के बाद वह साधु दब ु ला पतला, चेहरे पर गडढे , दीन हीन हालत मे
लालजी महाराज के पास आया । उिहोने तो पहचाना भी नहीं । पहले सवामी होकर आता था । अब वह िभखारी की तरह पूछ रहा है : ‘‘मै आ सकता हूँ ?’’
लालजी महाराज : ‘‘आओ ।’’ ‘‘मेरे साथ तीन मूितय च ाँ और भी है ।’’ ‘‘उनको भी बुलाओ ।’’
एक संियािसनी जैसी सी और दो बचचे भी आये । साधु ने अपनी पहचान दी तो लालजी महाराज बोले :
‘‘िफर ये कौन है ?’’
साधु बोला: ‘‘यह िवधवा माई थी । बेचारी द ु:खी थी । बचचे भी थे । उसे दे खकर मुझे दया आ गई । आजीिवका का कोई साधन उसके पास नहीं था इसिलए माई को िशषया बना िलया । बचचो को पढ़ाता हूँ ।’’
बाद मे मालूम करने पर पता चला िक साधु ने उस सी को पती बनाया है और कमाता नहीं है इसिलए गेरए कपड़े पहनाकर घुमाता रहता है । कया तेजसवी साधु था ! सी की ओर जरा सा दे खा केवल, और कुछ नहीं । आँख
से इधर उधर कुछ दे खते हो या कान से सुनते हो तो बुिद मे जरा सा भी यिद मोह है
तो वह बढ़ता जायेगा । आतमजान नहीं हुआ हो तो जब तक शरीर रहे , तब तक भगवान से पाथन च ा करना िक: ‘हे पभु ! बचाते रहना इस दलदल से’
कईयो को भांित हो जाती है िक : “मुझे आतम साकातकार हो गया … मुझे आतमशांित िमल गई …’’ भावनगर से करीब 15-20 िक. मी. दरू गौतमेशर नामक जगह है । वहाँ एक
साधु थे । बहुत तयागी थे । लोगो की भीड़ को दे खते तो वे एकाित मे भाग जाते ।
संसार से िवरक । कुछ साथ मे नहीं रखते थे । एकाध कपड़ा पहनते थे । तयागी थे । नारायण उनका नाम था और नारायण के भक थे । बाद मे वे द ु:खी होकर मरे ।
मैने कहा : ‘तयागी है , भगवान के भक है तो द ु:खी होकर नहीं मरते । लोग उिहे द ु:ख दे सके, मगर वे द ु:खी होते नहीं ।’
तब लोगो ने बताया : “घूमते घूमते वे िगरनार चले गये थे । वहाँ दे खा िकसी अघोरी को । सोचा, जरा सा सुलफा पीने मे कया जाता है ? एक फूँक लेने मे कया जाता
है ? जरा सा चरस खींचने मे कया जाता है ? उिहोने सुलफा भी िपया, भाँग भी पी,
चरस भी िपया, िसगरे ि भी पीने लगे । िफर अशांत होकर आये, िविकप होकर आये और आतमघात करके मर गये ।” शामलाजी आिदवासी केत मे मुझे समाज के लोगो ने आकर कहा िक यहाँ के
पादरी लोग बोतल खुली रखकर उसमे से पयािलयाँ पीते पीते लोगो को लेकचर दे ते है , आशीवच च न दे ते है । ऐसे शराबी लोग धमग च ुर होकर लोगो के िसर पर हाथ रखते है । वे
गरीब आिदवासी बेचारे धमप च िरवतन च के बहाने धमभ च ष होते है । िजस कुल मे जिम िलया हो उस कुल के मुतािबक अगर सतकम च करे तो उस पुणय के पभाव से उनके पूवज च ो को
भी सदगित िमल जाये । यहा तो शराबी लोग थोड़े से रपयो की लालच दे कर भोले भाले बेचारे आिदवािसयो को धमभ च ष कर रहे है । पीतवा मो हमयी ं म िदरा ं स ंसार भूतो उि मत : । दज च तो द ु:खी होते ही है लेिकन सजजन भी सचची समझ के िबना परे शान हो ु न
जाते है । एक िपता फिरयाद करता है िक : “मै सुबह जलदी उठता हूँ । पूजा पाठ करता हूँ । कुिु मब के अिय लोग भी जलदी उठते है लेिकन एक नवजवान बेिा दष ु है । वह सबेरे जलदी नहीं उठता ।”
यह मोह है । ‘मेरा’ बेिा जलदी उठे । कईयो के बेिे नहीं उठते तो कोई हज च नहीं लेिकन ‘मेरा’ बेिा जलदी उठे । मै धािमक च हूँ तो ‘मेरे’ बेिे को भी धािमक च होना चािहए । अपने बेिे मे इतनी ममता होने के कारण ही द ु :ख होता है । भगवान के जो
पयारे भक है , भगवत ततव को कुछ समझ रहे है उनको आगह नहीं होता । बड़े बेिे को जलदी उठाने का पयत करते है लेिकन बेिा नहीं उठता है तो िचत मे िविकप नहीं होते ।
िकसीका िवरिक पधान पारबध होता है , िकसीका वयवहार पधान पारबध होता है ।
जान होने के बाद जानी का जीवन सवाभािवक चलता है । लेिकन धािमक च लोगो को
इतनी िचंता परे शानी होती है िक : ‘अरे ! शुकदे वजी को लंगोिी का भी पता नहीं रहता था, इतने आतमानंद मे डू बे रहते थे । हमारा धयान तो ऐसा नहीं लगता । शुकदे वजी जैसा हमारा धयान लगे ।’
हजारो वष च पहले का मनुषय, हजारो वष च पहले का वातावरण और कई जिमो के संसकार थे । उनको ऐसा हुआ । उनको लकय बनाकर चलते तो जाओ लेिकन लकय बनाकर िविकप नहीं होना । हो गया तो हो गया, नहीं हुआ तो नहीं हुआ, लेिकन िचत को सदा पसिनता से महकता हुआ रखो । ऐसा धयान हो गया तो भी सवपन, न हुआ तो
भी सवपन । िजस परमातमा मे शुकदे वजी आकर चले गये, विशषजी आकर चले गये, शीराम आकर चले गये, शीकृ षण आकर चले गये वह परमातमा अभी तुमहारा आतमा है । ऐसा जान जब तक नहीं होता है तब तक मोह नहीं जाता है । तुलसीदासजी ने कहा है : मोह स कल बयािध िह कर म ूला । ितिह त े प ुिन उपज िहं बह ु सू ला ॥ मोह सब वयािधयो का मूल है । उससे भव का शूल िफर पैदा होता है । इसीिलए
िकसी भी वसतु मे ममता हुई, आसिक हुई, मोह हुआ तो समझो िक मरे । िकसी भी पिरिसथित मे मोह ममता नहीं होनी चािहए ।
‘आज आरती की घणिी बजाई, पाथन च ा की तो बहुत मजा आया । अहा … ! रोज
ऐसे आरितयाँ करे , घिणियाँ बजाये और मजा आता रहे …’ तो हररोज ऐसा होगा नहीं ।
िजस समय सुषुॉ्मणा का दार खुला है , मुहूतच अचछा है , बुिद मे साितवकता है उस समय
आरती करते हो तो मजा आता है । िजस समय शरीर मे रजो तमोगुण है , कुछ खाया िपया है , शरीर भारी है , पाण नीचे है उस समय आरती करोगे तो मजा नहीं आयेगा । मजा आना और न आना आतमा का सवभाव नहीं, िचदाभास का सवभाव है , जीव
का सवभाव है । मजा जीव को आता है । जानी को मजा और बेमजा नहीं आता । वे तो मसतराम है ।
संसारी आदमी दे षी होता है । पामर आदमी को िजतना राग होता है , उतना दे ष
होता है । भक होता है रागी । भगवान मे राग करता है , आरती पूजा मे राग करता है , मंिदर मूित च मे राग करता है । िजजासु मे होती है िजजासा । जानी मे कुछ नहीं होता है
। जानी गुणातीत होते है । मजे की बात है िक जानी मे सब िदखेगा लेिकन जानी मे कुछ होता नहीं । जानी से सब गुजर जाता है ।
बुिद को शुद करने के िलए आतमिवचार की जररत है , धयान की जररत है , जप की जररत है । बुिद शुद हो तो जैसे दस ृ क् दे खते है वैसे ही ू रे शरीर को अपनेसे पथ
अपने शरीर को भी आप अपनेसे अलग दे खेगे । ऐसा अनुभव जब तक नहीं होता, तब तक बुिद मे मोह होने की संभावना रहती है । थोड़ा सा मोह हि जाता है तब लगता है िक मेरे को रपयो मे मोह नहीं है , सी
मे मोह नहीं है , मकान मे मोह नहीं है , आशम मे मोह नहीं है । ठीक है । लेिकन पितषा
मे मोह है िक नहीं है , इसे जरा ढू ँ ढ़ो । दे ह मे मोह है िक नहीं है , जरा ढू ँ ढ़ो । और मोह
िू ि जाते है लेिकन दे ह का मोह जलदी नहीं िू िता, लोकेषण (वाहवाही) का मोह जलदी नहीं िू िता , धन का मोह भी जलदी से नहीं िू िता । ‘रपये सूद पर िदये हुए है । कथा मे जाना है । गुरदे व बाहर जानेवाले है । कया
करे ? सूद पर पैसे िजनको िदये हुए है वे कहीं भाग गये तो ?’ अरे , वह कया भागेगा ? भाग भागकर कहाँ तक जायेगा ? समशान मे ही न ? … और तुम िकतना भी इकठठा
करोगे तो भी आिखर समशान मे ही जाना है । कोई खाकर नहीं भागता, कोई लेकर नहीं भागता । सब यहीं का यहीं पड़ा रह जाता है । केवल बुिद मे ममता है िक ये मेरे पैसे
है , ये मेरे कजद च ार है । यह केवल बुिद का िखलवाड़ है । बुिद के ये िखलौने तब तक अचछे लगते है जब तक परमातमा का ठीक से अनुभव नहीं हुआ है । पिकयो से जरा सीख लो । उनको आज खाने को है , कल का कोई पता नहीं िफर
भी पेड़ की डाली पर गुनगुना लेते है , कोलाहल कर लेते है । कब कहाँ जायेगे, कोई पता नहीं िफर भी िनििंतता से जी लेते है । हमारे पास रहने को घर है , खाने को अिन है – महीने भर का, साल भर का ।
िफर भी दे धमाधम ! सामान सौ साल का, पता पल का नहीं ।
िजनको बैठने का िठकाना नहीं, डाल पर बैठ लेते है , दस ू रे पल कौन सी डाल पर
जाना है , कोई पता नहीं, ऐसे पकी भी आनंद से जी लेते है । कया खायेगे, कहाँ खायेगे, कोई पता नहीं। उनका कोई कायक च म नहीं होता िक आज वहाँ ‘िडनर’ (भोज) है । िफर
भी जी लेते है । भूख के कारण नहीं मरते, रहने का सथान नहीं िमलता इसके कारण नहीं मरते । मौत जब आती है तब मरते है ।
मुद े को प भु द ेत ह ै , कपड़ा लक ड़ा आ ग । िजिदा नर िच िता कर े , ता के बड़ े अभाग ॥ िचिता यिद करनी है तो इस बात की करो िक पाँच वष च के धुव को वैरागय हुआ,
पहलाद को वैरागय हुआ, पर मुझे कयो नहीं होता ? रामतीथ च को 22 साल की उम मे
वैरागय हुआ और परमातमा को पा िलया । मुझे 25 साल हो गये, 40 साल हो गये, 45 साल हो गये िफर भी वैरागय नहीं होता ?
संसार की चाह अभी भी करते हो ! संसार के नशर धन की वसूली करना चाहते हो ! ऐसा धन पा लो िक बहाजी का पद, कुबेर का धन, इिि का ऐशय च तुमहारे आगे
तुचछ िदखे । तुममे इतना सामथयच है ।
वह िवदाधरी िशला से वापस बाहर आकर विशषजी से कह रही है िक : “महाराज ! आइए ।”
विशषजी बोले : “मै तो नहीं आ सकता हूँ।” िजसकी धारणाशिक िसद हो गई है वह अंतवाहक शरीर से दीवार के भीतर पवेश कर लेगा । अंतवाहक शरीर की साधना न की हो तो भले िसर फूि जाये लेिकन दीवार के भीतर से न जा सकेगा । सुरंग बनाये िबना आदमी योग की कला से पहाड़ मे से आर
पार गुजर सकता है । ऐसी शिक तुमहारे सबके भीतर छुपी हुई है । वह शिक िवकिसत नहीं हुई । सथूल शरीर के साथ जुड़ गये इसिलए वह शिक सथूलरप हो गई है ।
पानी भाप बन जाता है तो बारीक से बारीक छे द मे से िनकल जाता है लेिकन वह पानी यिद ठणडा होकर बफच बन जाता है तो छोिी बड़ी िखड़की से भी नहीं िनकल
पाता । ऐसे ही तुमहारी िचतविृत यिद सथूल होती है तो गित नहीं होती है और सूकम हो जाती है तो गित होती है । विशषजी महाराज ने उस िवदाधरी की िचतविृत से अपनी िचतविृत िमला दी और
िशला मे पिवष हो गये । इस सिृष से एक नयी सिृष मे पहुँच गये । वहाँ उस मिहला ने
एक समािधसथ योगी को िदखाते हुए कहा िक :“वे मेरे पित है । उनको संसार से वैरागय हो गया है । अब मेरी तरफ आँख उठाकर दे खते तक नहीं है ।” जब योगी ने आँखे खोलीं तो िवघाधरी ने कहा:
“ये विशषजी महाराज है । दस ू री सिृष से आये है । शीराम के गुर है । महापुरषो का सवागत करना सतपुरषो का सवभाव है । इनका अधयच पाद से सवागत कीिजये ।” उस योगी ने विशषजी का सवागत िकया और कहा:
“हे बाहण ! यह सिृष मैने इचछाशिक से बनायी थी । पती की इचछा हुई तो संकलप से पती भी बना ली । िफर दे खा िक िजस परमातमा की सता से संकलप दारा इतनी घिना
घि सकती है उस परमातमा मे ही कयो न ठहर जाये ? अत: मै अपनी िचतविृत को समेिकर, परमानंद मे मगन होकर आतमशांित मे ले आया । अब कोई भोग भोगने की मेरी इचछा नहीं है और इस सिृष को चलाने की भी मेरी इचछा नहीं है ।
मेरी सेवा करते करते इस सी मे भी धारणाशिक िसद हो गई है , इचछाशिक के अनुसार घिनाएँ घिने लग जाती है लेिकन इसकी बुिद मे से मोह अभी गया नहीं है । इसको भोग की इचछा है । भोग हमेशा अपना नाश करने मे संलगन होता है । आप इसको आशीवाद च दे िक इसकी भोग की इचछा िनवत ृ हो जाये और परमातमा मे िचतविृत
लग जाये । और … अब मै इस सिृष को धारण करने का संकलप समेि रहा हूँ । आप जलदी से जलदी इस सिृष से बाहर पधारे । मेरे संकलप मे यह सिृष ठहरी है । संकलप समेिते ही इसका पलय हो जायेगा ।”
विशषजी कहते है : “मै उस सिृष से रवाना हुआ और मेरे दे खते दे खते उस
बहाजी ने संकलप समेिा तो सिृष का पलय होने लगा । सूय च तपने लगा, पलयकाल की वायु चलने लगी । पहाड़ िू िने लगे, लोग मरने लगे, वक ृ सूखने लगे । पकी िगरने लगे ।” तुमहारे अंदर वही परमातमशिक इतनी है िक यिद वह िवकिसत हो जाये तो तुम
इचछाशिक से नयी सिृष बना सकते हो । हर इिसान मे ऐसी ताकत है । लेिकन मोह के
कारण, भोगवासना के कारण नयी सिृष तो कया, मामूली घर बनाते है तो भी ‘लोन’ (उधार) लेना पड़ता है … वह भी िमलता नहीं और धकके खाने पड़ते है ।
केवल
िन िध िजसको केवली कुमभक िसद हो जाता है , वह पूजने योगय बन जाता है । यह
योग की एक ऐसी कुंजी है िक छ : महीने के दढ़ अभयास से साधक िफर वह नहीं रहता जो पहले था । उसकी मनोकामनाएँ तो पूण च हो ही जाती है , उसका पूजन करके भी लोग अपनी मनोकामना िसद करने लगते है ।
जो साधक पूण च एकागता से इस पुरषाथ च को साधेगा, उसके भागय का तो कहना ही कया ? उसकी वयापकता बढ़ती जायेगी । महानता का अनुभव होगा । वह अपना पूरा जीवन बदला हुआ पायेगा ।
बहुत तो कया, तीन ही िदनो के अभयास से चमतकार घिे गा । तुम , जैसे पहले थे
वैसे अब न रहोगे । काम, कोध, लोभ, मोह आिद षडिवकार पर िवजय पाप करोगे।
काकभुशुिणडजी कहते है िक : “मेरे िचरजीवन और आतमलाभ का कारण पाणकला
ही है ।”
पाणायाम की िविध इस पकार है : सनान शौचािद से िनपिकर एक सवचछ आसन पर पदासन लगाकर सीधे बैठ जाओ । मसतक, गीवा और छाती एक ही सीधी रे खा मे रहे । अब दािहने हाथ के अँगूठे से दायाँ नथुना बिद करके बाँये नथुने से शास लो । पणव का मानिसक जप जारी रखो । यह पूरक हुआ । अब िजतने समय मे शास िलया उससे चार गुना समय शास भीतर ही रोके रखो । हाथ के अँगूठे और उँ गिलयो से दोनो नथुने बिद कर लो । यह आभयांतर
कुमभक हुआ । अंत मे हाथ का अँगूठा हिाकर दाये नथुने से शास धीरे धीरे छोड़ो । यह रे चक हुआ । शास लेने मे (पूरक मे) िजतना समय लगाओ उससे दग ु ुना समय शास छोड़ने मे (रे चक मे) लगाओ और चार गुना समय कुमभक मे लगाओ । पूरक कुमभक रे चक के समय का पमाण इस पकार होगा 1:4:2
दाये नथुने से शास पूरा बाहर िनकाल दो, खाली हो जाओ । अंगूठे और उँ गिलयो से दोनो नथुने बिद कर लो । यह हुआ बिहकुचमभक । िफर दाये नथुने से शास लेकर, कुमभक करके बाँये नथुने से बाहर िनकालो । यह हुआ एक पाणायम ।
पूरक … कुमभक … रे चक … कुमभक … पूरक … कुमभक … रे चक । इस समग पिकया के दौरान पणव का मानिसक जप जारी रखो । एक खास महतव की बात तो यह है िक शास लेने से पहले गुदा के सथान को अिदर िसकोड़ लो यानी ऊपर खींच लो। यह है मूलबिध । अब नािभ के सथान को भी अिदर िसकोड़ लो । यह हुआ उिडडयान बिध । तीसरी बात यह है िक जब शास पूरा भर लो तब ठोड़ी को, गले के बीच मे जो
खडडा है -कंठकूप, उसमे दबा दो । इसको जालिधर बिध कहते है ।
इस ितबंध के साथ यिद पाणायाम होगा तो वह पूरा लाभदायी िसद होगा एवं पाय: चमतकारपूणच पिरणाम िदखायेगा । पूरक करके अथात च ् शास को अंदर भरकर रोक लेना इसको आभयांतर कुमभक
कहते है । रे चक करके अथात च ् शास को पूणत च या बाहर िनकाल िदया गया हो, शरीर मे िबलकुल शास न हो, तब दोनो नथुनो को बंद करके शास को बाहर ही रोक दे ना इसको बिहकुचमभक कहते है । पहले आभयाितर कुमभक और िफर बिहकुचमभक करना चािहए ।
आभयाितर कुमभक िजतना समय करो उससे आधा समय बिहकुचमभक करना चािहए । पाणायाम का फल है बिहकुचमभक । वह िजतना बढ़े गा उतना ही तुमहारा जीवन चमकेगा । तन मन मे सफूितच और ताजगी बढ़े गी । मनोराजय न होगा ।
इस ितबिधयुक पाणायाम की पिकया मे एक सहायक एवं अित आवशयक बात यह है िक आँख की पलके न िगरे । आँख की पुतली एकिक रहे । आँखे खुली रखने से शिक बाहर बहकर कीण होती है और आँखे बिद रखने से मनोराजय होता है । इसिलए
इस पाणायम के समय आँखे अदोिमीिलत रहे आधी खुली, आधी बिद । वह अिधक लाभ करती है । एकागता का दस ू रा पयोग है िजहा को बीच मे रखने का । िजहा तालू मे न लगे
और नीचे भी न छुए । बीच मे िसथर रहे । मन उसमे लगा रहे गा और मनोराजय न होगा । परं तु इससे भी अदोिमीिलत नेत जयादा लाभ करते है । पाणायाम के समय भगवान या गुर का धयान भी एकागता को बढ़ाने मे अिधक
फलदायी िसद होता है । पाणायाम के बाद तािक की िकया करने से भी एकागता बढ़ती है , चंचलता कम होती है , मन शांत होता है । पाणायाम करके आधा घणिा या एक घणिा धयान करो तो वह बड़ा लाभदायक
िसद होगा ।
एकागता बड़ा तप है । रातभर के िकए हुए पाप सुबह के पाणायाम से नष होते है
। साधक िनषपाप हो जाता है । पसिनता छलकने लगती है ।
जप सवाभािवक होता रहे यह अित उतम है । जप के अथ च मे डू बे रहना, मंत का
जप करते समय उसके अथ च की भावना रखना । कभी तो जप करने के भी साकी बन जाओ । ‘वाणी, पाण जप करते है । मै चैतिय, शांत, शाशत ् हूँ ।’ खाना पीना, सोना जगना, सबके साकी बन जाओ । यह अभयास बढ़ता रहे गा तो केवली कुमभक होगा । तुमने अगर केवली कुमभक िसद िकया हो और कोई तुमहारी पूजा करे तो उसकी भी मनोकामना पूरी होगी ।
पाणायाम करते करते िसिद होने पर मन शांत हो जाता है । मन की शांित और इििियो की िनिलता होने पर िबना िकये भी कुमभक होने लगता है । पाण अपने आप
ही बाहर या अंदर िसथर हो जाता है और कलना का उपशम हो जाता है । यह केवल, िबना पयत के कुमभक हो जाने पर केवली कुमभक की िसथित मानी गई है । केवली कुमभक सदर च शन च मे करना सुरकापूणच है । ु के पतयक मागद
मन आतमा मे लीन हो जाने पर शिक बढ़ती है कयोिक उसको पूरा िवशाम िमलता है । मनोराजय होने पर बाह िकया तो बिद होती है लेिकन अंदर का िकयाकलाप रकता नहीं । इसीसे मन शिमत होकर थक जाता है ।
धयान के पारं िभक काल मे चेहरे पर सौमयता, आँखो मे तेज, िचत मे पसिनता, सवर मे माधुय च आिद पगि होने लगते है । धयान करनेवाले को आकाश मे शेत तसरे णु
(शेत कण) िदखते है । यह तसरे णु बड़े होते जाते है । जब ऐसा िदखने लगे तब समझो िक धयान मे सचची पगित हो रही है । केवली कुमभक िसद करने का एक तरीका और भी है । राित के समय चाँद की
तरफ दिष एकाग करके, एकिक दे खते रहो । अथवा, आकाश मे िजतनी दरू दिष जाती
हो, िसथर दिष करके, अपलक नेत करके बैठे रहो । अडोल रहना । िसर नीचे झुकाकर खुराि च े लेना शुर मत करना । सजग रहकर, एकागता से चाँद पर या आकाश मे दरू दरू दिष को िसथर करो ।
जो योगसाधना नहीं करता वह अभागा है । योगी तो संकलप से सिृष बना दे ता है
और दस ू रो को भी िदखा सकता है । चाणाकय बड़े कूिनीितज थे । उनका संकलप बड़ा जोरदार था । उनके राजा के दरबार मे कुमािगिर नामक एक योगी आये । उिहोने चुनौती के उतर मे कहा :“मै सबको भगवान का दशन च करा सकता हूँ ।” राजा ने कहा : “कराइए ।”
उस योगी ने अपने संकलपबल से सिृष बनाई और उसमे िवरािरप भगवान का
दशन च सब सभासदो को कराया । वहाँ िचतलेखा नामक राजनतक च ी थी । उसने कहा : “मुझे कोई दशन च नहीं हुए।” योगी: “तू सी है इससे तुझे दशन च नहीं हुए ।”
तब चाणकय ने कहा : “मुझे भी दशन च नहीं हुए ।” वह नतक च ी भले नाचगान करती थी िफर भी वह एक पितभासंपिन नारी थी । उसका मनोबल दढ़ था । चाणकय भी बड़े संकलपवान थे । इससे इन दोनो पर योगी के संकलप का पभाव नहीं पड़ा । योगबल से अपने मन की कलपना दस ू रो को िदखाई जा
सकती है । मनुषय के अलावा जड़ के ऊपर भी संकलप का पभाव पड़ सकता है । खटिे आम का पेड़ हाफुस आम िदखाई दे ने लगे, यह संकलप से हो सकता है । मनोबल बढ़ाकर आतमा मे बैठे जाओ, आप ही बह बन जाओ । यही संकलपबल
की आिखरी उपलिबध है ।
िनिा, तििा, मनोराजय, कबजी, सवपनदोष, यह सब योग के िवघन है । उनको जीतने के िलए संकलप काम दे ता है । योग का सबसे बड़ा िवघन है वाणी । मौन से योग
की रका होती है । िनयम से और रिचपूवक च िकया हुआ योगसाधन सफलता दे ता है । िनषकाम सेवा भी बड़ा साधन है िकितु सतत बिहमुख च ता के कारण िनषकाम सेवा भी
सकाम हो जाती है । दे ह मे जब तक आतम िसिद है तब तक पूण च िनषकाम होना असंभव है । हम अभी गुरओं का कजा च चढ़ा रहे है । उनके वचनो को सुनकर अगर उन पर
अमल नहीं करते तो उनका समय बरबाद करना है । यह कजाच चुकाना हमारे िलए भारी है । … लेिकन संसारी सेठ के कजद च ार होने के बजाय संतो के कजद च ार होना अचछा है
और उनके कजद च ार होने के बजाय साकातकार करना शष े है । उपदे श सुनकर मनन, िनिदधयासन करे तो हम उस कजे को चुकाने के लायक होते है ।
जा नय ोग 1) िजसको जीव और जगत िमथया लगता है उसके िलए जानमाग च है , िजसको सतय लगता है उसके िलए योगमागच और भिकमागच है ।
2) िजसको अंत:करण मे राग दे ष है वह चाहे आतमा अनातमा का िववेक करे चाहे िचत का िनरोध करे , उसको जानिनषा नहीं होती है । 3) सथूल कामनाओं का नाश एकांतसेवन से होता है । सवपन मे जो सूकम कामनाएँ िदखती है उनका नाश भगवदधयान से और सतवासना के अभयास से होता है ।
4) िवकेप उतपिन करनेवाले कम च का तयाग संियास है । गेरए वस पहननेमात से कोई संियासी नहीं होता । गागी, वयाध, विशषजी इतयािद ने संियासी के वस धारण नहीं िकये थे िफर भी वे जानी थे ।
5) वयुतथान दशा मे भगवद भजन के आनंद मे जो िनमगन रहता है उसको दै त का संताप नहीं लगता। 6) पराभिक का अथच है दै तदिषरिहत भावना । 7) िजस धिृत मे से िचत का िनरोध होता हो और एकाग अवसथा आती हो उसे साितवक धिृत कहते है ।
8) साितवक संियास वैरागयपूवक च िलया जाता है , राजिसक संियास कायाकलेश और भय से िलया जाता है तथा तामिसक संियास मूढ़ता से िलया जाता है । 9) जैसे दीपक जलाने के िलए तेल, बती आवशयक है वैसे ही ‘ततवम िस ’ महावाकय से उतपिन होनेवाली बहाकार विृत के िलए शवण, मनन, धयान, शम, दम आिद
आवशयक है । एक बार वह बहाकार विृत उतपिन हो जाए तो वह अजान का नाश कर दे ती है । बहाकार विृत अपने िवषय को पकािशत करने के िलए िकसी कम च या अभयास की अपेका नहीं करती । एक बार घि का जान हो जाए तो
उसको दढ़ करने के िलए घि के आकार की पुनराविृत या कम च की आवशयकता नहीं है । 10)मग ृ जल दे खने का आनंद नष हो जाए तो ततवजानी पुरष उसके िलए शोक नहीं करते । जगत का कोई भाव ततवज के िचत पर पभाव नहीं रखता ।
11) आतमा िनतय होने से वह घि की तरह या कीि भमर की तरह उतपिन नहीं होता । नदी को सागर पाप होती है ऐसे आतमा पाप नहीं होती, कयोिक वह
सवग च त है । दध ू मे िवकार होकर दही बनता है वैसे आतमा मे िवकार नहीं होता, कयोिक वह सथाणु है । सुवण च की शुिद की तरह आतमा कोई संसकार की अपेका
नहीं करता कयोिक वह अचल है । उतपित, पािप, िवकृ ित और संसकृ ित ये चारो धमच कमच के है ।
12) जैसे घिाकाश महाकाश के रप मे िनतय है वैसे आतमा परमातमा के रप मे िनतय है । कंठ मे मिण िनतय पाप है िफर भी िवसमरण हो जाने से वह अपाप
सा लगता है । समरण आ जाने मात से वह मिण पाप हो जाता है । उसी पकार अजान का आवरण भंग होनेमात से आतमा की पािप हो जाती है , वह िनतय पाप ही था ऐसा जान हो जाता है । 13) अजान दशा उपािध को उतपिन करती है और जानदशा उपािध का गास करती है ।
14) अधयसत के िवकारी धम च से अिधषान मे िवकार पैदा नहीं होता । मग ृ जल से मरभूिम कभी गीली नहीं होती । 15) आतमा का सुख अपनी बुिद का पसाद िमलने से, बुिद िनमल च होने से, रजो
तमोगुण के मल से रिहत होने से उतपिन होता है । आतमा का सुख िवषयो के संग से उतपिन नहीं होता और िनिा या आलसय से नहीं िमलता ।
16) िजसका मन सव च भूतो मे समान बहभाव से िसथत और िनिल हुआ है उसने इस जिम को जीत िलया है ।
17) बहजानी सवच बहरप दे खते हुए वयुतथान अवसथा मे भी बह मे िसथत रहते है ।
18) भगवान कहते है िक : ‘सतत मेरा भजन करनेवाले को मै बुिदयोग दे ता हूँ।’
यहाँ बुिदयोग का अथ च है जानिनषा । ऐसी िनषा जब आती है तब जैसे निदयाँ अपना नाम रप छोड़कर सागर मे पवेश करती है वैसे ही भक भगवतसवरप मे पवेश करते है ।
19) अिगन का सफुिलंग अिगनरप ही है , अिगन का अंश नहीं है । उसी पकार जीव भी बह ही है , बह का अंश नहीं है । िनरं श सवरप मे अंश अंशी की कलपना बनती नहीं। अंश भाव किलपत उपािध के सवीकार करने के कारण उपचार से बोला जाता है ।
20) दे ह के उपादानभूत अिवधा का नाश होने के बाद भी कुछ काल तक जानी को
दे हािद का भान रहता है । इस जीविमुकावसथा को धयान मे लेकर भगवान ने कहा है िक जानी और ततवदशी पुरष िजजासुओं को जान दे ते है ।
21) सोये हुए आदमी को उसको नाम लेकर कोई पुकारता है तो वह जाग जाता है । उसको जगाने के िलए अिय िकसी िकया की आवशयकता नहीं है । उसी पकार
अजान मे सोया हुआ जीव अपने िनज आतमसवरप का गुणगान सुनकर जाग जाता है ।
22) आतम पािप के राही के िलए महापुरषो की सेवा अतयंत कलयाणकारी है । िबना सेवा के बहिवधा िमलती या फलीभूत नहीं होती । बहिवधा के ठहराव के िलए
शुद अंत करण की आवशयकता है । सेवा से अंत करण शुद होता है , नमता आिद सदण ु आते है । शाखाओं का झुकना फलयुक होने का िचह है , इसी तरह नम तथा शुद अंत करण मे जान का पादभ च होता है । यही बहिवधा की पहचान है । ु ाव
23) जप पूण च भावसिहत करना चािहए । हदय मे सत ् िचत ् आनंदसवरप िवभु की िं कार होनी चािहए । इस समय अपने कानो को भी अपने शासो के चलने की
आवाज न आए । लकय हमेशा यह रहे : सो S हम ् । मै वही हूँ । इस समरण से अभय हो जाना चािहए।
24) िनरीकण करो िक िकन िकन कारणो से उिनित नहीं हो रही है । उिहे दरू करो
। बार बार उिहीं दोषो की पुनराविृत करना उिचत नहीं। अगर दे खभाल नहीं करोगे तो उम यूँ ही बीत जायेगी परं तु बननेवाली बात नहीं बनेगी। िजतना
चलना
चािहए उतना चलना होगा, िजतना चल सकते हो उतना नहीं। आिशक नींद मे गसत नहीं होते। वयाकुल हदय से तड़पते हुए पितका करते है । सदा जागत ृ रहते है । सदा ही सावधान रहा करते है ।
25) आप लोगो की पाण संगली उसी तरह चलनी चािहए जैसे तेल की अिू ि धारा । गुरमंतरपी छड़ी को हमेशा अपने साथ रखो तािक जब भी जररत पड़े संसार के काम कोधािद कुतो को उससे मारकर भगा सको।
26) मानव आते हुए भी रोता है और जाते हुए भी रोता है । जो वक रोने का नहीं तब भी रोता है । केवल एक पूण च सदर ु मे ही ऐसा सामथय च है जो इस जिम
मरण के मूल कारण अजान को कािकर मनुषय को रोने से बचा सकते है । केवल गुर ही आवागमन के चककर से, काल की महान ठोकरो से बचाकर िशषय को
संसार के द ु:खो से ऊपर उठा दे ते है । िशषय के िचललाने पर भी वे धयान नहीं दे ते । गुर के बराबर िहतैषी संसार मे कोई भी नहीं हो सकता।
27) ितिशखी बाहण के पूछने पर आिदतय ने कहा:
“कुंभ
के समान दे ह मे भरे हुए वायु को रोकने से अथात च ् कुमभक करने से सब नािड़याँ
वायु से भर जाती है । ऐसा करने से दे श वायु चलने लगते है । हदयकमल का िवकास होता है । वहाँ पापरिहत वासुदेव परमातमा को दे खे। सुबह, दोपहर, शाम
और आधी रात को चार बार अससी अससी कुमभक करे तो अनुपम लाभ होता है । मात एक िदन करने से ही साधक सब पापो से छूि जाता है । इस पकार
पाणायामपरायण मनुषय तीन साल मे िसद योगी बन जाता है । वायु को जीतनेवाला िजतेिििय, थोड़ा भोजन करनेवाला, थोड़ा सोनेवाला, तेजसवी और बलवान ् हो जाता है तथा अकाल मतृयु का उललंघन करके दीध च आयु को पाप होता है ।
पाणायाम तीन कोिि के होते है : उतम, मधयम और अधम । पसीना उतपिन करनेवाला पाणायाम अधम है । िजस पाणायाम मे शरीर काँपता है वह मधयम है । िजसमे शरीर उठ जाता है वह पाणायाम उतम कहा गया है ।
अधम पाणायाम मे वयािध और पापो का नाश होता है । मधयम मे पाप, रोग और महा वयािध का नाश होता है । उतम मे मल मूत अलप हो जाते है , भोजन
थोड़ा होता है , इििियाँ और बुिद तीव हो जाती है । वह योगी तीनो काल को जाननेवाला हो जाता है ।
रे चक और पूरक को छोड़कर जो कुमभक ही करता है उसको तीनो कालो मे कुछ भी दल च नहीं है । ु भ
पाणायाम का अभयास करनेवाला योगी नािभकंद मे, नािसका के अग भाग मे और पैर के अँगूठे मे सदा अथवा संधयाकाल मे पाण को धारण करे तो वह योगी सब रोगो से मुक होकर अशांितरिहत जीवन जीता है ।
नािभकंद मे पाण धारण करने से कुिक के रोग नष होते है । नासा के अग भाग मे पाण धारण करने से दीधाय च ु होता है और दे ह हलका होता है । बहमुहूत च मे
वायु को िजहा से खींचकर तीन मास तक िपये तो महान ् वािकसिद होती है । छ: मास के अभयास से महा रोग का नाश होता है ।
रोगािद से दिूषत िजस िजस अंग मे वायु धारण िकया जाता है वह अंग रोग से मुक हो जाता है ।”
(ितिशिख बाहण उपिनषद)
28) पाण सब पकार के सामथय च का अिधषान होने से पाणायाम िसद होने पर अनंतशिक भंडार के दार खुल जाते है । अगर कोई साधक पाणततव का जान पाप कर उस पर अपना अिधकार पाप कर ले तो जगत मे ऐसी कोई शिक नहीं है
िजसे वह अपने अिधकार मे न कर ले। वह अपनी इचछानुसार सूय च और चिि को
भी गेद की तरह उनकी कका मे से िवचिलत कर सकता है । अणु से लेकर सूयच तक जगत की तमाम चीजो को अपनी मजी अनुसार संचािलत कर सकता है । योगाभयास पूण च होने पर योगी समसत िवश पर अपना पभुतव सथािपत कर
सकता है । उसके संकलप बल से मत ृ पाणी िजिदे हो सकते है । िजिदे उसकी
आजानुसार काय च करने को बाधय हो जाते है । दे वता और िपतल ृ ोकवासी जीवातमा उसके हुकम को पाते ही हाथ जोड़कर उसके आगे खड़े हो जाते है । तमाम िरिद िसिदयाँ उसकी दासी बन जाती है । पकृ ित की समग शिकयो का वह सवामी बन जाता है कयोिक उस योगी ने पाणायाम िसद करके समिष पाण को अपने काबू मे िकया है ।
जो पितभावान
युगपवतक च अदत ु शिक का संचार कर मानव समाज को ऊँची
िसथित पर ले जाते है , वे अपने पाण मे ऐसे उचच और सूकम आिदोलन उतपिन
कर सकते है िक अिय के मन पर उनका पगाढ़ पभाव होता है । हजारो मनुषयो का िदल उनकी और आकिषत च होता है । लाखो करोड़ो लोग उनके उपदे श गहण कर लेते है । िवश मे जो भी महापुरष हो गये है उिहोने िकसी भी रीित से
पाणशिक को िनयंितत करके अलौिकक शिक पाप की होती है । िकसी भी केत मे समथच वयिक का पभाव पाण के संयम से ही उतपिन हुआ है ।
29) यिद पवत च के समान अनेक योजन िवसतारवाले पाप हो तो भी धयानयोग से छे दन हो जाते है । इसके िसवाय दस ू रे िकसी भी उपाय से कभी भी उनका छे दन नहीं होता ।
(धयान िबिद ु उपिनषद)
जा नगोषी प o : तयाग, वैरागय और उपरित मे कया भेद है ?
उ o : िवषय को सामने न आने दे ना तयाग है । िवषय सामने रहते हुए उसमे पेम न होना वैरागय है । वसतु सामने रहते हुए भी उसमे न तो भोगबुिद हो और न दे ष हो यह उपरित है ।
प o : वैरागय िकतने पकार का होता है ?
उ o : सामाियतया गुण- भेद से वैरागय तीन पकार के है । 1) जो वैरागय संसार से गलािन और भगवान से पेम होने पर होता है , वह साितवक है ।
2) जो पिसिद या पितषा की दिष से िवरक होता है , वह राजस है ।
3) जो सबको नीची दिष से दे खता है तथा अपनेको बड़ा समझता है वह तामस वैरागय है ।
योगदशन च मे पर और अपर भेद से दो पकार के वैरागय बतलाये गये है । इनमे अपर वैरागय चार पकार के है :
1) यतमान : िजसमे िवषयो को छोड़ने का पयत तो रहता है , िकितु छोड़ नहीं पाता यह यतमान वैरागय है ।
2) वयितरे की : शबदािद िवषयो मे से कुछ का राग तो हि जाये िकितु कुछ का न हिे तब वयितरे की वैरागय समझना चािहए ।
3) एकेिििय : मन भी एक इिििय है । जब इििियो के िवषयो का आकषण च तो न रहे , िकितु मन मे उनका िचितन हो तब एकेिििय वैरागय होता है । इस अवसथा मे पितजा के बल से ही मन और इििियो का िनगह होता है ।
4) वशीकार : वशीकार वैरागय होने पर मन और इििियाँ अपने अधीन हो जाती है तथा अनेक पकार के चमतकार भी होने लगते है । यहाँ तक तो ‘अपर वैरागय’ हुआ ।
जब गुणो का कोई आकषण च नहीं रहता, सवज च ता और चमतकारो से भी वैरागय होकर सवरप मे िसथित रहती है तब ‘पर वैरागय’ होता है अथवा एकागता से जो सुख होता है उसको भी तयाग दे ना, गुणातीत हो जाना ही ‘पर वैरागय’ है । वैरागय के दो भेद है : दे ह से वैरागय और गेह से वैरागय ।
शरीर से वैरागय होना पथम कोिि का वैरागय है तथा अहं ता ममता से ऊपर उठ जाना दस ू रे पकार का वैरागय है ।
लोगो को घर से तो वैरागय हो जाता है , परं तु शरीर से वैरागय होना किठन है । इससे भी किठन है शरीर का अतयित अभाव अनुभव करना। यह तो सदर ु की िवशेष कृ पा से िकसी िकसीको ही होता है
बालक जिमे तो वह पढ़े गा या नहीं, िववाह करे गा या नहीं, नौकरी धंधा करे गा या नहीं इसमे शंका है परं तु वह मरे गा या नहीं इसमे कोई शंका है ? हम भी इिहीं बालको मे है ।
हम धनवान ् होगे या नहीं होगे, यशसवी होगे या नहीं, चुनाव जीतेगे या नहीं इसमे शंका हो सकती है परं तु भैया ! हम मरे गे या नहीं, इसमे कोई शंका है ?
िवमान उड़ने का समय िनिित होता है , बस चलने का समय िनिित होता है , गाड़ी छूिने का समय िनिित होता है परितु इस जीवन की गाड़ी के छूिने का कोई िनिित समय है ?
हम कहाँ रहते है ? मतृयुलोक मे। यहाँ जो भी आता है वह मरनेवाला आता है । मरनेवालो के साथ का समबिध कब तक …?
मतृयु अिनवाय च है , िबलकुल िनिित है । इसके िलए आप कुछ तैयारी करते है या नहीं ? करते है तो दढ़तापूवक च करे और नहीं करते है तो आज से ही शुर कर दे ।
आतम साकातकार मे, ईशर साकातकार मे तीन इचछाएँ हमे ईशर से अलग रखती है । हम यिद ये तीन इचछाएँ न करे तो तुरंत अलौिकक सामाजय का सवर हमे सुनाई पड़े गा । वे तीन इचछाएँ है : 1) जीने की इचछा 2) करने की इचछा 3) जानने की इचछा ।
जीने की इचछा न करे तो भी यह दे ह तो िजयेगी ही । कुछ करने की इचछा न करे तो भी सहज, पारबधवेग से कम च हो ही जायेगा । जानने की इचछा न करे तो िजससे सब जाना जाता है ऐसा अपना सवभाव पगि होने लगेगा ।
ये तीन इचछाएँ ईशर साकातकार मे बाधक बनती है । भैया ! साहस करो ।
िजिहोने इचछा छोड़ी है वे धिय हो गये है । अपने को दब च मानना छोड़ दो । ु ल आपमे ईशरीय सवर, ईशरीय आनंद भरपूर है । भैया ! आप सवयं ही वह है , केवल इन तीन बातो से सावधान रहो ।
ईशर के माग च पर चलनेवाले सौभागयशाली भको को ये छ: बाते जीवन मे अपना लेनी चािहए:
1) ईशर को अपना मानो । ‘ईशर मेरा है । मै ईशर का हूँ।’ 2) जप, धयान, पूजा, सेवा खूब पेम से करो। 3) जप, धयान, भजन, साधना को िजतना हो सके उतना गुप रखो। 4) जीवन को ऐसा बनाओ िक लोगो मे आपकी माँग हुआ करे । उिहे आपकी अनुपिसथित चुभे। काय च मे कुशलता और चतुराई बढ़ाये । पतयेक िकया
कलाप, बोल चाल सुचार रप से करे । कम समय मे, कम खचच मे सुिदर कायच करे । अपनी आजीिवका के िलए, जीवनिनवाह च के िलए जो काय च करे उसे
कुशलतापूवक च करे , रसपूवक च करे । इससे शिकयो का िवकास होगा । िफर वह काय च भले ही नौकरी हो। कुशलतापूवक च करने से कोई िवशेष बाह लाभ न होता हो िफर भी इससे आपकी योगयता बढ़े गी, यही आपकी पूँजी बन जाएगी । नौकरी चली जाए तो भी यह पूँजी आपसे कोई छीन नहीं सकता । नौकरी
भी इस पकार करो िक सवामी पसिन हो जाये । यह सब रपयो पैसो के िलए, मान बड़ाई के िलए, वाहवाही के िलए नहीं परं तु अपने अंत : करण को िनमल च
करने के िलए करे िजससे परमातमा के िलए आपका पेम बढ़े । ईशरानुराग बढ़ाने के िलए ही पेम से सेवा करे , उतसाह से काम धंधा करे । 5) वयिकगत खचच कम करे । जीवन मे संतोष लाएँ। 6) सदै व शष े काय च मे लगे रहे । समय बहुत ही मूलयवान ् है । समय के बराबर मूलयवान ् अिय कोई वसतु नहीं है । समय दे ने से सब िमलता है
परं तु सब कुछ दे ने से भी समय नहीं िमलता । धन ितजोरी मे संगहीत कर
सकते है परं तु समय ितजोरी मे नहीं संजोया जा सकता । ऐसे अमुलय समय को शष े कायो मे लगाकर साथक च करे । सबसे शष े काय च है सतपुरषो का संग, सतसंग ।
भागवत मे आता है :
“भगवान के पेमी पुरष का िनमेषमात का संग उतम है । इसके साथ सवगच की या मुिक की समानता नहीं की जा सकती।” (1.18.13) तुलसीदासजी कहते है :
तात सवग च अ पवग च सुख ध िरए त ु ला ए क अ ंग । तूल न तािह
सकल िम िल जो स ुख ल व सतस ं ग ॥
समय को उतम काय च मे लगाएँ । िनरितर सावधान रहने से ही समय साथक च होगा, नहीं तो यह िनरथक च बीत जायेगा । िजिहोने समय का आदर िकया है
वे शष े पुरष बने है , अचछे महातमा बने है । संसार के भोगो से िवमुख होकर, भगवचचरणो मे, परमातम ततव जानने मे उिहोने समय लगाया है ।
दत और िसद का संवाद [ अनुभवपकाश ] एक राजा किपल मुिन का दशन च , सतसंग िकया करता था । एक बार किपल के आशम पर राजा के पहुँचने के उपराित िवचरते हुए दत, सकिद, लोमश तथा कुछ िसद
भी पहुँचे । वहाँ इन संतजनो के बीच जानगोषी होने लगी । एक कुमार िसद बोला: “जब मै योग करता हूँ तब अपने सवरप को दे खता हूँ।”
दत : “जब तू सवरप का दे खनेवाला हुआ तब सवरप तुझसे िभिन हुआ । योग मे तू जो कुछ दे खता है सो दशय को ही दे खता है । इससे तेरा योग दशय और तू दषा है । अधयातम मे तू अभी बालक है । सतसंग कर िजससे तेरी बुिद िनमल च होवे।” कुमार : “ठीक कहा आपने । मै बालक हूँ कयोिक मन, वाणी, शरीर मे सव च लीला करता
हुआ भी मै असंग चैतिय, हष च शोक को नहीं पाप होता इसिलए बालक हूँ। परं तु योग के बल से यिद मै चाहूँ तो इस शरीर को तयाग कर अिय शरीर मे पवेश कर लूँ । िकसीको
शाप या वरदान दे सकता हूँ। आयु को ियून अिधक कर सकता हूँ। इस पकार योग मे सब सामथयच आता है । जान से कया पािप होती है ?”
दत : “अरे नादान ! सभा मे यह बात कहते हुए तुझको संकोच नहीं होता ? योगी एक
शरीर को तयागकर अिय शरीर को गहण करता है और अनेक पकार के कष पाता है । जानी इसी शरीर मे िसथत हुआ सुखपूवक च बहा से लेकर चींिी पयत य को अपना आपा
जानकर पूणत च ा मे पितिषत होता है । वह एक काल मे ही सव च का भोका होता है , सवच जगत पर आजा चलानेवाला चैतियसवरप होता है । सवर च प भी आप होता है और सवच से अतीत भी आप होता है । वह सवश च िकमान होता है और सवच अशिकरप भी आप होता है । सवच वयवहार करता हुआ भी सवयं को अकताच जानता है ।
समयक् अपरोक आतमबोध पाप जानी िजस अवसथा को पाता है उस अवसथा को वरदान, शाप आिद सामथयच से संपिन योगी सवपन मे भी नहीं जानता ।” कुमार : “योग के बल से चाहूँ तो आकाश मे उड़ सकता हूँ।” दत : “पकी आकाश मे उड़ते िफरते है , इससे तुमहारी कया िसिद है ?”
कुमार : “योगी एक एक शास मे अमत ृ पान करता है , ‘सोS हं ’ जाप करता है , सुख पाता है ।” दत : “हे बालक ! अपने सुखसवरप आतमा से िभिन योग आिद से सुख चाहता है ? गुड़ को भांित होवे तो अपने से पथ ृ क् चणकािदको से मधुरता लेने जाय । िचत की एकागतारपी
योग से तू सवयं को सुखी मानता है और योग के िबना द ु:खी मानता है ? जानी योग
अयोग दोनो को अपने दशय मानता है । योग अयोग सब मन के खयाल है । योगरप मन के खयाल से मै चैतिय पहले से ही सुखरप िसद हूँ। जैसे, अपने शरीर की पािप के िलए कोई योग नहीं करता कयोिक योग करने से पहले ही शरीर है , उसी पकार सुख के िलए मुझे योग कयो करना पड़े ? मै सवयं सुखसवरप हूँ।” कुमार : “योग का अथच है जुड़ना । यह जो सनकािदक बहािदक सवरप मे लीन होते है सो योग से सवरप को पाप होते है ।” दत : “िजस सवरप मे बहािदक लीन होते है उस सवरप को जानी अपना आतमा जानता है । हे िसद ! िमथया मत कहो । जान और योग का कया संयोग है ? योग साधनारप है
और जान उसका फलरप है । जान मे िमलना िबछुड़ना दोनो नहीं । योग कताच के अधीन है और िकयारप है ।” किप ल: “आतमा के समयक् अपरोक जानरपी योग सव च पदाथो का जानना रप योग हो जाता है । केवल िकयारप योग से सव च पदाथो का जानना नहीं होता, कयोिक अिधषान के जान से ही सवच किलपत पदाथो का जान होता है ।
आतम अिधषान मे योग खुद किलपत है । किलपत के जान मे अिय किलपत का
जान होता है । सवपनपदाथच के जान से अिय सवपनपदाथो का जान नहीं परं तु सवपनदषा के जान से ही सवच सवपनपदाथो का जान होता है ।
अत: अपनेको इस संसाररपी सवपन के अिधषानरप सवपनदषा जानो।”
िसदो ने कहा : “तुम कौन हो?” दत : “तुमहारे धयान अधयान का, तुमहारी िसिद अिसिद का मै दषा हूँ।” राजा : “हे दत ! ऐसे अपने सवरप को पाना चाहे तो कैसे पावे?” दत : “पथम िनषकाम कमच से अंत: करण की शुिद करो। िफर सगुण या िनगुण च उपासनािद करके अंत: करण की चंचलता दरू करो । वैरागय आिद साधनो से संपिन होकर शासोक
रीित से सदर ृ से अपने आतमा को बहरप और बह ु के शरण जाओ । उनके उपदे शामत को अपना आतमारप जानो । समयक् अपरोक आतमजान को पाप करो ।
हे राजन ् ! अपने सवरप को पाने मे दे हािभमान ही आवरण है । जैसे सूय च के दशन च
मे बादल ही आवरण है । जागत सवपन सुषुिप मे, भुत भिवषय वतम च ान काल मे, मन वाणीसिहत िजतना पपंच है वह तुझ चैतिय का दशय है । तुम उसके दषा हो । उस पपंच के पकाशक िचदन दे व हो ।” अपने दे वतव मे जागो । कब तक शरीर, मन और अंत : करण से समबिध जोड़े रखोगे ? एक ही मन, शरीर, अंत : करण को अपना कब तक माने रहोअगे? अनंत अनंत अंत : करण, अनंत अनंत शरीर िजस िचदानिद मे पितिबिमबत हो रहे है वह िशवसवरप
तुम हो । फूलो मे सुगिध तुमहीं हो । वक ृ ो मे रस तुमहीं हो । पिकयो मे गीत तुमहीं हो
। सूय च और चाँद मे चमक तुमहारी है । अपने “सवाच S हम ” ् सवरप को पहचानकर खुली आँख समािधसथ हो जाओ । दे र न करो । काल कराल िसर पर है ।
ऐ इिसान ! अभी तुम चाहो तो सूय च ढलने से पहले अपने जीवनततव को जान सकते हो । िहममत करो … िहममत करो …।
ॐ ॐ ॐ
बार बार इस पुसतक को पढ़कर जान वैरागय बढ़ाते रहना । जब तक आतम
साकातकार न हो, तब तक आदरसिहत इस पुसतक को िवचारते रहना |
िच ित न किणक ा अशोभन सी आिद मे शोभनबुिद, असतय पपंच मे सतय का अधयास, सतय आतमा मे असतय का अधयास इतयािद िवपरीत भावना से सिृष का यथाथ च जान पितबद हो जाता है ।
अिगन मे राग दे ष नहीं है । उसके पास जो जाता है उसकी ठं ड दरू होती है , अिय
की नहीं । इसी पकार जो ईशर के शरण जाता है उसका बिधन किता है , अिय का नहीं। िजसके िचत मे राग दे ष है , उसमे ईशर की िवशेषता अिभवयक नहीं होती ।
िजसको वैरागय न हो, शदा न हो वह यिद कम च का तयाग करे तो िवकेपरिहत नहीं हो सकता । जैसे पमादी, बिहमुख च , पशु समान लोग लड़ाई झगड़े मे राजी रहते है
वैसे संियासी भी कमद च ोषवाले दे खे जाते है । इसिलए िबना वैरागय के संियास से िनषकाम
कम च का आचरण शष े है । िबना शदा और परमातमततव िचितन के िलया हुआ संियास बहपद की पािप नहीं कराता।
मरभूिम का जल धीरे धीरे नहीं सूखता है , उसी पकार माया भी धीरे धीरे नष
नहीं होती । मरभूिम के जल को ‘मरभूिम का जल’ जानने मात से उसका अभाव हो जाता है उसी पकार माया का सवरप जानने मात से माया का अभाव हो जाता है ।
संसार की सब चीजे बदल रहीं है , भूतकाल की ओर भाग रहीं है और आप उिहे वतम च ान मे ििकाये रखना चाहते है ? यही जीवन के द ु:खो की मूल गंिथ है । आप चेतन होने पर भी जड़ वसतु को छोड़ने से इिकार करते है ? दषा होने पर भी दशय मे उलझे हुए है ?
जब आप चाहते है िक ‘हमे अमुक वसतु अवशय िमले अथवा हमारे पास जो है वह कभी िबगड़े नहीं, तभी हम सुखी होगे’ तो आप अपने सवरप चेतन को कहीं न कहीं बाँध रखना चाहते है ।
साधना के माग च मे, परम लकय की पािप मे साधक के िलए दे हातमबुिद, दे ह मे आसिक एक बड़ी गंिथ है । इस गंिथ को कािे िबना, मोहकिलल को पार िकये िबना कोई
साधक िसद नहीं बन सकता । सदगुर के िबना यह गंिथ कािने मे साधक समथच नहीं हो सकता । वेदाित शास यह नहीं कहता िक ‘अपने आपको जानो ।’ अपने आपको सभी
जानते है । कोई अपने को िनधन च जानकर धनी होने का पयत करता है , कोई अपनेको रोगी जानकर िनरोग होने को इचछुक है । कोई अपनेको नािा जानकर लमबा होने के
िलए कसरत करता है तो कोई अपनेको काला जानकर गोरा होने के िलए िभिन िभिन नुसखे आजमाता है । नहीं, वेदाित यह नहीं कहता । वह तो कहता है : ‘अपने आपको बह जानो ।’
जीवन मे अनथच का मूल सामािय अजान नहीं अिपतु अपनी आतमा के बहतव का अजान है । दे ह और सांसािरक वयवहार के जान अजान से कोई खास लाभ हािन नहीं है परं तु अपने बहतव के अजान से घोर हािन है और उसके जान से परम लाभ है ।
पाथ च ना हे मेरे पभु … ! तुम दया करना । मेरा मन … मेरा िचत तुममे ही लगा रहे ।
अब … मै कब तक संसारी बोझो को ढोता िफरँ गा … ? मेरा मन अब तुमहारी याता के िलए ऊधवग च ामी हो जाये … ऐसा सुअवसर पाप करा दो मेरे सवामी … !
हे मेरे अंतयाम च ी ! अब मेरी ओर जरा कृ पादिष करो … । बरसती हुई आपकी अमत ृ वषाच
मे मै भी पूरा भीग जाऊँ …। मेरा मन मयूर अब एक आतमदे व के िसवाय िकसीके पित िहुँकार न करे ।
हे पभु ! हमे िवकारो से, मोह ममता से, सािथयो से बचाओ …अपने आपमे जगाओ । हे मेरे मािलक ! अब … कब तक … मै भिकता रहूँगा ? मेरी सारी उमिरया
िबती जा रही है … कुछ तो रहमत करो िक अब … आपके चरणो का अनुरागी होकर मै आतमानिद के महासागर मे गोता लगाऊँ ।
ॐ श ां ित ! ॐ आ नंद !! सो ऽह म ् सो ऽह म ् सोऽ हम ्
आिखर यह सब कब तक … ? मेरा जीवन परमातमा की पािप के िलए है , यह कयो भूल जाता हूँ ?
मुझे … अब … आपके िलए ही पयास रहे पभु … ! अब प भु कृपा करौ एिह भ
सब तिज भ जन करौ
ाँ ित ।
िदन रात ी ||