Guru Purnima Sandesh

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  • Words: 4,413
  • Pages: 12
गुर प ूिि ि मा संदेश आतमसवरप का जान पाने के अपने कतविय की याद िदलाने वाला, गुिो से िवभूिित करनेवाला,

मन को दै वी

सदगुर के पेम और जान की गंगा मे बारं बार डु बकी

लगाने हे तु पोतसाहन दे नेवाला जो पवि है - वही है 'गुर पूििम ि ा' । भगवान वेदवयास ने वेदो का संकलन िकया,

१८ पुरािो और उपपुरािो की रचना

की। ऋिियो के िबखरे अनुभवो को समाजभोगय बना कर वयविसित िकया। पंचम

वेद 'महाभारत' की रचना इसी पूििम ि ा के िदन पूिि की और िवश के सुपिसद आिि गंि बहसूत का लेखन इसी िदन आरं भ िकया। तब दे वताओं ने वेदवयासजी का

पूजन िकया। तभी से वयासपूििम ि ा मनायी जा रही है । इस िदन जो िशषय बहवेता सदगुर के शीचरिो मे पहुँचकर संयम-शदा-भिि से उनका पूजन करता है उसे विभ ि र के पवि मनाने का फल िमलता है ।

और पूनम (पूििम ि ा) तो तुम मनाते हो लेिकन गुरपूनम तुमहे मनाती है िक भैया! संसार मे बहुत भटके,

बहुत अटके और बहुत लटके। जहाँ गये वहाँ धोखा ही

खाया, अपने को ही सताया। अब जरा अपने आतमा मे आराम पाओ। हिरहर आिदक जगत मे पूजय दे व जो कोय । सदगुर की पूजा िकये सबकी पूजा होय ॥

िकतने ही कमि करो, अनुषान करो,

िकतनी ही उपासनाएँ करो,

िकतने ही वत और

िकतना ही धन इकटठा कर लो और ् िकतना ही दिुनया का राजय

भोग लो लेिकन जब तक सदगुर के िदल का राजय तुमहारे िदल तक नहीं

पहुँचता, सदगुरओं के िदल के खजाने तुमहारे िदल तक नही उँ डे ले जाते, जब तक तुमहारा िदल सदगुरओं के िदल को झेलने के कािबल नहीं बनता,

तब तक सब

कमि, उपासनाएँ, पूजाएँ अधुरी रह जाती है । दे वी-दे वताओं की पूजा के बाद भी कोई पूजा शेि रह जाती है िकंतु सदगुर की पूजा के बाद कोई पूजा नहीं बचती।

सदगुर अंतःकरि के अंधकार को दरू करते है । आतमजान के युिियाँ

बताते है गुर पतयेक िशषय के अंतःकरि मे िनवास करते है । वे जगमगाती

जयोित के समान है जो िशषय की बुझी हुई हदय-जयोित को पकटाते है । गुर मेघ की तरह जानविाि करके िशषय को जानविृि मे नहलाते रहते है । गुर ऐसे वैद है जो भवरोग को दरू करते है । गुर वे माली है जो जीवनरपी वािटका को सुरिभत करते है । गुर अभेद का रहसय बताकर भेद मे अभेद का दशन ि करने की कला

बताते है । इस दःुखरप संसार मे गुरकृ पा ही एक ऐसा अमूलय खजाना है जो मनुषय को आवागमन के कालचक से मुिि िदलाता है ।

जीवन मे संपित, सवासथय, सता, िपता, पुत, भाई, िमत अिवा जीवनसािी से

भी जयादा आवशयकता सदगुर की है । सदगुर िशषय को नयी िदशा दे ते है , साधना का मागि बताते है और जान की पािि कराते है ।

सचचे सदगुर िशषय की सुिुि शिियो को जागत करते है , योग की िशका

दे ते है , जान की मसती दे ते है , भिि की सिरता मे अवगाहन कराते है और कमि मे िनषकामता िसखाते है । इस नशर शरीर मे अशरीरी आतमा का जान कराकर जीतेजी मुिि िदलाते है ।

सदगुर िजसे िमल जाय सो ही धनय है जन मनय है । सुरिसद उसको पूजते ता सम न कोऊ अनय है ॥ अिधकारी हो गुरदे व से उपदे श जो नर पाय है । भोला तरे संसार से नहीं गभि मे िफर आय है ॥

गुरपूनम जैसे पवि हमे सूिचत करते है िक हमारी बुिद और तकि जहाँ तक

जाते है उनहे जाने दो। यिद तकि और बुिद के दारा तुमहे भीतर का रस महसूस न हो तो पेम के पुषप के दारा िकसी ऐसे अलख के औिलया से पास पहुँच जाओ जो तुमहारे हदय मे ििपे हुए पभुरस के दार को पलभर मे खोल दे ।

मै कई बार कहता हुँ िक पैसा कमाने के िलए पैसा चािहए, शांित चािहए,

पेम पाने के िलए पेम चािहए। जब ऐसे महापुरिो के पास हम िनःसवािि, िनःसंदेह, तकिरिहत होकर केवल पेम के पुषप लेकर पहुँचते है , शदा के दो आँसू लेकर पहुँचते है तो बदले मे हदय के दार खुलने का अनुभव हो जाता है । िजसे केवल गुरभि जान सकता है औरो को कया पता इस बात का ?

गुर-नाम उचचारि करने पर गुरभि का रोम-रोम पुलिकत हो उठता है

िचंताएँ काफूर हो जाती है ,

जप-तप-योग से जो नही िमल पाता वह गुर के िलए

पेम की एक तरं ग से गुरभि को िमल जाता है , इसे िनगुरे नहीं समझ सकते.....

आतमजानी, आतम-साकातकारी महापुरि को िजसने गुर के रप मे सवीकार

कर िलया हो उसके सौभागय का कया विन ि िकया जाय ?

गुर के िबना तो जान

पाना असंभव ही है । कहते है : ईश कृ पा िबन गुर नहीं, गुर िबना नहीं जान । जान िबना आतमा नहीं, गाविहं वेद पुरान ॥

बस, ऐसे गुरओं मे हमारी शदा हो जाय । शदावान ही जान पाता है । गीता मे भी आता है ः

शदावाँललभते जानं ततपरः संयतेिनियः ।

अिात ि ् िजतेिनिय, ततपर हुआ शदावान पुरि जान को पाि होता है ।

ऐसा कौन-सा मनुषय है जो संयम और शदा के दारा भवसागर से पार न

हो सके ? उसे जान की पािि न हो ? परमातम-पद मे िसिित न हो? िजसकी शदा नि हुई,

वयिियो से बचे,

समझो उसका सब कुि नि हो गया। इसिलए ऐसे

ऐसे वातावरि से बचे जहाँ हमारी शदा और संयम घटने लगे।

जहाँ अपने धमि के पित,

महापुरिो के पित हमारी शदा डगमगाये ऐसे वातावरि

और पिरिसिितयो से अपने को बचाओ।

िशषय ो का अनुपम पवि साधक के िलये गुरपूििम ि ा वत और तपसया का िदन है । उस िदन साधक को चािहये िक उपवास करे या दध ू , फल अिवा अलपाहार ले, गुर के दार जाकर गुरदशन ि ,

गुरसेवा और गुर-सतसनग का शवि करे । उस िदन गुरपूजा की पूजा

करने से विभ ि र की पूििम ि ाओं के िदन िकये हुए सतकमो के पुणयो का फल िमलता है ।

गुर अपने िशषय से और कुि नही चाहते। वे तो कहते है :

तू म ुझ े अपना उर आ ँगन द े द े , मै अम ृ त की विा ि कर द ँ ू ।

तुम गुर को अपना उर-आँगन दे दो। अपनी मानयताओं और अहं को हदय

से िनकालकर गुर से चरिो मे अपि ि कर दो। गुर उसी हदय मे सतय-सवरप पभु का रस िलका दे गे। गुर के दार पर अहं लेकर जानेवाला वयिि गुर के जान को पचा नही सकता, हिर के पेमरस को चख नहीं सकता।

अपने संकलप के अनुसार गुर को मन चलाओ लेिकन गुर के संकलप मे

अपना संकलप िमला दो तो बेडा़़ पार हो जायेगा। ही है ।

नम भाव से, कपटरिहत हदय से गुर से दार जानेवाला कुि-न-कुि पाता

तिद िद पििपात ेन पिरपश ेन स ेवया । उ पदेकयिनत जािननसततवदिश ि न ः ॥

ते जा नं

'उस जान को तू ततवदशी जािनयो के पास जाकर समझ,

उनको भलीभाँित

दणडवत ्-पिाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट िोडकर सरलतापूवक ि पश करने से वे परमातम-ततव को भलीभाँित जाननेवाले जानी महातमा तुझे उस ततवजान का उपदे श करे गे।'

(गीताः ४.३४)

जो िशषय सदगुर का पावन सािननधय पाकर आदर व शदा से सतसंग

सुनता है , सतसंग-रस का पान करता है , उस िशषय का पभाव अलौिकक होता है ।

'शीयोगवािशष महारामायि' मे भी िशषय से गुिो के िविय मे शी विशषजी

महाराज करते है ः "िजस िशषय को गुर के वचनो मे शदा, िवशास और सदभावना होती है उसका कलयाि अित शीघ होता है ।"

िशषय को चािहये के गुर, इि, आतमा और मंत इन चारो मे ऐकय दे खे।

शदा रखकर दढ़ता से आगे बढे ़़। संत रै दास ने भी कहा है ः

हिर ग ुर सा ध समान िच त, िनत आ गम तत म ूल। इन िब च अ ंतर िजन परौ , करवत सहन कब ू ल ॥

'समसत शासो का सदै व यही मूल उपदे श है िक भगवान, गुर और संत इन

तीनो का िचत एक समान (बहिनष)

होता है । उनके बीच कभी अंतर न समझे,

ऐसी दढ़ अदै त दिि रखे िफर चाहे आरे से इस शरीर कट जाने का दं ड भी कयो न सहन करना पडे ़़ ?

अहं और मन को गुर से चरिो मे समिपत ि करके,

शरीर को गुर की सेवा मे

लगाकर गुरपूििम ि ा के इस शुभ पवि पर िशषय को एक संकलप अवशय करना चािहयेः 'इिनिय-िवियो के लघु सुखो मे,

बंधनकताि तुचि सुखो मे बह जानेवाले

अपने जीवन को बचाकर मै अपनी बुिद को गुरिचंतन मे, करँगा।'

बहिचंतन मे िसिर

बुिद का उपयोग बुिददाता को जानने के िलए ही करे । आजकल के

िवदािी बडे ़-़ बडे ़़ पमािपतो के पीिे पडते है लेिकन पाचीन काल मे िवदािी संयम-सदाचार का वत-िनयम पाल कर विो तक गुर के सािननधय मे रहकर

बहुमुखी िवदा उपािजत ि करते िे। भगवान शीराम विो तक गुरवर विशषजी के

आशम मे रहे िे। वतम ि ान का िवदािी अपनी पहचान बडी़़-बडी़़ िडिगयो से दे ता है जबिक पहले के िशषयो मे पहचान की महता वह िकसका िशषय है इससे होती िी। आजकल तो संसार का कचरा खोपडी़़ मे भरने की आदत हो गयी है । यह कचरा ही मानयताएँ,

कृ ितमता तिा राग-दे िािद बढा़़ता है और अंत मे ये

मानयताएँ ही दःुख मे बढा़़वा करती है । अतः साधक को चािहये िक वह सदै व

जागत ृ रहकर सतपुरिो के सतसंग सेम ् जानी के सािननधय मे रहकर परम ततव परमातमा को पाने का परम पुरिािि करता रहे ।

संसार आँख और कान दारा अंदर घुसता है । जैसा सुनोगे वैसे बनोगे तिा

वैसे ही संसकार बनेगे। जैसा दे खोगे वैसा सवभाव बनेगा। जो साधक सदै व आतमसाकातकारी महापुरि का ही दशन ि व सतसंग-शवि करता है उसके हदय मे बसा हुआ महापुरितव भी दे र-सवेर जागत ृ हो जाता है ।

महारानी मदालसा ने अपने बचचो मे बहजान के संसकार भर िदये िे। िः

मे से पाँच

बचचो को िोटी उम मे ही बहजान हो गया िा। बहजान हो गया

िा। बहजान का सतसंग काम, कोध, लोभ, राग, दे ि, आसिि और दस ू री सब

बेवकूिफयाँ िुडाता है , कायि करने की कमता बढाता है , बुिद सूकम बनाता है तिा भगवदजान मे िसिर करता है । जानवान के िशषय के समान अनय कोई सुखी नहीं है और वासनागसत मनुषय के समान अनय कोई दःुखी नहीं है । इसिलये

साधक को गुरपूनम के िदन गुर के दार जाकर, सावधानीपूवक ि सेवा करके, सतसंग का अमत ृ पान करके अपना भागय बनाना चािहए।

राग-दे ि िोडकर गुर की गिरमा को पाने का पवि माने गुरपूििम ि ा

तपसया का भी दोतक है । गीषम के तापमान से ही खटटा आम मीठा होता है ।

अनाज की पिरपकवता भी सूयि की गमी से होती है । गीषम की गमी ही विाि का कारि बनती है । इसपकार संपूिि सिृि के मूल मे तपसया िनिहत है । अतः साधक को भी जीवन मे ितितका,

तपसया को महतव दे ना चािहए। सतय,

संयम और

सदाचार के तप से अपनी आंतर चेतना िखल उठती है जबिक सुख-सुिवधा का

भोग करनेवाला साधक अंदर से खोखला हो जाता है । वत-िनयम से इिनियाँ तपती है तो अंतःकरि िनमल ि बनता है और मेनेजर अमन बनता है । पिरिसिित,

मन

तिा पकृ ित बदलती रहे िफर भी अबदल रहनेवाला अपना जो जयोितसवरप है उसे जानने के िलए तपसया करो। जीवन मे से गलितयो को चुन-चुनकर िनकालो,

हुई गलती को िफर से न दह ि न करना ु राओ। िदल मे बैठे हुए िदलबर के दशन

की

यह बडे -मे-बडी गलती है । गुरपूििम ि ा का वत इसी गलती को सुधारने का वत है ।

िशषय की शदा और गुर की कृ पा के िमलन से ही मोक का दार खुलता

है । अगर सदगुर को िरझाना चाहते हो तो आज के िदन-गुरपूनम के िदन उनको एक दिकिा जरर दे नी चािहए।

चातुमास ि का आरमभ भी आज से ही होता है । इस चातुमास ि को तपसया

का समय बनाओ। पुणयाई जमा करो। आज तुम मन-ही-मन संकलप करो। आज

की पूनम से चार मास तक परमातमा के नाम का जप-अनुषान करँगा.... पितिदन

ितबंधयुि 10 पािायाम करँ गा। (इसकी िविध आशम से पकािशत ‘ईशर की ओर’ पुसतक के पष ृ नं. 55 पर दी गयी है ।).... शुकलपक की सभी व कृ षिपक की सावन से काितक ि माह के मधय तक की चार एकादशी का वत करँगा....

एक समय

भोजन करँगा, राित को सोने के पहले 10 िमनट ‘हिरः ॐ...’ का गुंजन करँ गा.... िकसी आतमजानपरक गंि (शीयोगवािशष आिद) का सवाधयाय करँगा.... चार पूनम

को मौन रहूँगा.... अिवा महीने मे दो िदन या आठ िदन मौन रहूँगा.... कायि करते समय पहले अपने से पूिूँगा िक कायि करनेवाला कौन है और इसका आिखरी पिरिाम कया है ?

कायि करने के बाद भी कताि-धताि सब ईशर ही है ,

ईशर की सता से ही होता है -

सारा कायि

ऐसा समरि करँगा। यही संकलप-दान आपकी

दिकिा हो जायेगी।

इस प ूनम पर चा तुमा ि स के िलए आप अ पन ी कम ता के अन ु सार कोई

संकलप अ वशय करो।

आप कर तो बहुत सकते हो आपमे ईशर का अिाह बल िुपा है िकंतु पुरानी

आदत है िक ‘हमसे नही होगा,

हमारे मे दम नहीं है । इस िवचार को तयाग दो।

आप जो चाहो वह कर सकते हो। आज के िदन आप एक संकलप को पूरा करने के िलए ततपर हो जाओ तो पकृ ित के वकःसिल मे िुपा हुआ तमाम भंडार, योगयताओं का खजाना तुमहारे आगे खुलता जायेगा। तुमहे अदभुत शौयि,

पौरि

और सफलताओं की पािि होगी। तुमहारे रपये-पैसे,

फल-फूल आिद की मुझे आवशयकता नहीं है िकंतु तुमहारा

और तुमहारे दारा िकसी का कलयाि होता है तो बस, मेरा सवागत हो जाता है ।

मुझे दिकिा िमल जाती है ,

बहवेता सदगुरओं का सवागत तो यही है िक उनकी आजा मे रहे । वे जैसा

चाहते है उस ढं ग से अपना जीवन-मरि के चक को तोडकर फेक दे और मुिि का अनुभव कर ले।

सत ् िशष य के ल कि सतिशषय के लकि बताते हुए कहा गया है ः

अमानमतसरो दको िनम अमोघवाक ॥

ि मो दढ सौहदः । अ सतवरोि ि िजजास ु ः अनस ूय ुः

‘सतिशषय मान और मतसर से रिहत, अपने कायि मे दक, ममतारिहत गुर मे दढ पीित करनेवाला, िनशल िचतवाला, परमािि का िजजासु तिा ईषयारििहत और सतयवादी होता है ।‘

इस पकार के नौ-गुिो से जो सत िशषय सुसिजजत होता है वह सदगुर के

िोडे -से उपदे श मात से आतम-साकातकार करके जीवनमुि पद मे आरढ हो जाता है ।

बहवेता महापुरि का सािननधय साधक के िलए िनतांत आवशयक है ।

साधक को उनका सािननधय िमल जाय तो भी उसमे यिद इन नौ-गुिो का अभाव

है तो साधक को ऐिहक लाभ तो जरर होता है , िकंतु आतम-साकातकार के लाभ से वह वंिचत रह जाता है ।

अमािनतव, ईषयाि का अभाव तिा मतसर का अभाव – इन सदगुिो के समावेश

से साधक तमाम दोिो से बच जाता है तिा साधक का तन और मन आतमिवशांित पाने के कािबल हो जाता है ।

सतिशषयो का यहाँ सवभाव होता है ः वे आप अमानी रहते है और दस ू रो को

मान दे ते है । जैसे, भगवान राम सवयं अमानी रहकर दस ू रो को मान दे ते िे। साधक को कया करना चािहए ?

ईषयाि न करे ,

वह अपनी बराबरी के लोगो को दे खकर

न अपने से िोटो को दे खकर अहं कार करे और न ही अपने से बडो

के सामने कुंिठत हो ,

वरन सबको गुर का कृ पापात समझकर,

सबसे आदरपूिि

वयवहार करे , पेमपूिि वयवहार करे ऐसा करने से साधक धीरे -धीरे मान, मतसर और ईषयास ि िहत होने लगता है । खुद को मान िमले ऐसी इचिा रखने पर मान नहीं

िमलता है तो दःुख होता है और मान िमलता है तब सुखाभास होता है तिा नशर मान की इचिा और बढती है । इस पकार मान की इचिा को गुलाम बनाती है

जबिक मान की इचिा से रिहत होने से मनुषय सवतंत बनता है । इसिलए साधक को हमेशा मानरिहत बनने की कोिशश करनी चािहये। जैसे, मिली जाल मे फँसती

है तब छटपटाती है , ऐसे ही जब साधक पशंसको के बीच मे आये तब उसका मन छटपटाना चािहये। जैसे, लुटेरो के बीच आ जाने पर सजजन आदमी जलदी से वहाँ से िखसकने की कोिशश करता है ऐसे ही साधक को पशंसको पलोभनो और िवियो से बचने की कोिशश करनी चािहए।

जो तमोगुिी वयिि होता है वह चाहता है िक ‘मुझे सब मान दे और मेरे

पैरो तले सारी दिुनया रहे ।‘ जो रजोगुिी वयिि होता है वह कहता है िक ‘हम

दस ू रो को मान दे गे तो वे भी हमे मान दे गे।‘ ये दोनो पकार के लोग पतयक या परोकरप से अपना मान बढाने की ही कोिशश करते है । मान पाने के िलये वे

समबंधो के तंतु जोडते ही रहते है और इससे इतने बिहमुख ि हो जाते है िक िजससे समबंध जोडना चािहये उस अंतयाम ि ी परमेशर के िलये उनको फुसत ि ही नही

िमलती और आिखर मे अपमािनत होकर जगत से चले जाते है इअसा न हो इसिलये साधक को हमेशा याद रखना चािहये िक चाहे िकतना भी मान िमल

जाय लेिकन िमलता तो है इस नशर शरीर को ही और शरीर को अंत मे जलाना ही है तो िफर उसके िलए कयो परे शान होना ? संतो ने ठीक ही कहा है ः

मान पुडी़़ है जहर की , खाय े सो म र जाय े । चा ह उसी की राखता

, वह भी अित द ु ःख पाय ॥

एक बार बुद के चरिो मे एक अपिरिचत युवक आ िगरा और दं डवत ्

पिाम करने लगा।

बुदः "अरे अरे , यह कया कर रहे हो ? तुम कया चाहते हो? मै तो तुमहे

जानता तक नहीं।"

युवकः "भनते! खडे ़़ रहकर तो बहुत दे ख चुका। आज तक अपने पैरो पर

खडा़़ होता रहा इसिलये अहं कार भी साि मे खडा़़ ही रहा और िसवाय दःुख के कुि नहीं िमला। अतः आज मै आपके शीचरिो मे लेटकर िवशांित पाना चाहता हूँ।"

अपने िभकुको की ओर दे खकर बुद बोलेः "तुम सब रोज मुझे गुर मानकर

पिाम करते हो लेिकन कोई अपना अहं न िमटा पाया और यह अनजान युवक

आज पहली बार आते ही एक संत के नाते मेरे सामने झुकते-झुकते अपने अहं को िमटाते हुए,

डू ब रहा है ।"

बाहर की आकृ ित का अवलंबन लेते हुए अंदर िनराकार की शािनत मे

इस घटना का यही आशय समझना है िक सचचे संतो की शरि मे जाकर

साधक को अपना अहं कार िवसिजत ि कर दे ना चािहये। ऐसा नहीं िक रासते जाते जहाँ-तहाँ आप लंबे लेट जाये।

अमानमतसरो

दको ....

साधक को चािहये िक वह अपने कायि मे दक हो। अपना कायि कया है ?

अपना

कायि है िक पकृ ित के गुि-दोि से बचकर आतमा मे जगना और इस कायि मे दक रहना अिात ि डटे रहना,

उसमे दक रहो। लापरवाही,

लगे रहना। उस िनिमत जो भी सेवाकायि करना पडे ़़ उपेका या बेवकूफी से कायि मे िवफल नहीं होना

चािहये, दक रहना चािहये। जैसे, गाहक िकतना भी दाम कम करने को कहे , िफर

भी लोभी वयापारी दलील करते हुए अिधक-से-अिधक मुनाफा कमाने की कोिशश करता है ,

ऐसे ही ईशर-पािि के मागि मे चलते हुए िकतनी ही पितकूल

पिरिसिितयाँ आ जाये, िफर भी साधक को अपने परम लकय मे डटे रहना चािहये। सुख आये या दःुख, मान हो या अपमान, सबको दे खते जाओ.... मन से िवचारो को, पािो की गित को दे खने की कला मे दक हो जाओ।

नौकरी कर रहे हो तो उसमे पूरे उतसाह से लग जाओ, िवदािी हो तो उमंग

के साि पढो़़,

लेिकन वयावहािरक दकता के साि-साि आधयाितमक दकता भी

जीवन मे होनी चािहए। साधक को सदै व आतमजान की ओर आगे बढना चािहए। कायो को इतना नही बढाना चािहये िक आतमिचंतन का समय ही न िमले।

समबंधोम ् को इतना नहीं बढाना चािहए िक िजसकी सता से समबंध जोडे जाते है उसी का पता न चले।

एकनाि जी महाराज ने कहा है ः 'राित के पहले पहर और आिखरी पहर मे

आतमिचंतन करना चािहये। कायि के पारं भ मे और अंत मे आतमिवचार करना

चािहये।' जीवन मे इचिा उठी और पूरी हो जाय तब जो अपने-आपसे ही पश करे िकः 'आिखर इचिापूिति से कया िमलता है ?'

वह है दक। ऐसा करने से वह

इचिािनविृत के उचच िसंहासन पर आसीन होनेवाले दक महापुरि की नाई िनवास ि िनक नारायि मे पितिषत हो जायेगा।

अगला सदगुि है । ममतारिहत होना। दे ह मे अहं ता और दे ह के समबंिधयो

मे ममता रखता है ,

उतना ही उसके पिरवार वाले उसको दःुख के िदन िदखा दे ते

है । अतः साधक को दे ह और दे ह के समबंधो से ममतारिहत बनना चािहये। आगे बात आती है -

गुर मे दढ़ पीित करने की। मनुषय कया करता है ?

वासतिवक पेमरस को समझे िबना संसार के नशर पदािो मे पेम का रस चखने जाता है और अंत मे हताशा,

िनराशा तिा पशाताप की खाई मे िगर पडता है ।

इतने से भी िुटकारा नहीं िमलता। चौरासी लाख जनमो की यातनाएँ सहने के

िलये उसे बाधय होना पडता है । शुद पेम तो उसे कहते है जो भगवान और गुर से िकया जाता है । उनमे दढ पीित करने वाला साधक आधयाितमकता के िशखर पर शीघ ही पहुँच जाता है । िजतना अिधक पेम,

उतना अिधक समपि ि और िजतना

अिधक समपि ि , उतना ही अिधक लाभ। कबीर जी ने कहा है ः

पेम न ख ेतो उपज े , पेम न हाट िबकाय।

राजा च हो पजा चहो , शी श िद ये ल े जा ये॥

शरीर की आसिि और अहं ता िजतनी िमटती जाती है , उतना ही सवभाव पेमपूिि बनता जाता है । इसीिलए िोटा-सा बचचा,

जो िनदोि होता है ,

हमे बहुत

पयारा लगता है कयोिक उसमे दे हासिि नहीं होती। अतः शरीर की अहं ता और

आसिि नहीं होती। अतः शरीर की अहं ता और आसिि िोडकर गुर मे, पभु मे दढ़ पीित करने से अंतःकरि शुद होता है । 'िवचारसागर' गनि मे भी आता है ः 'गुर मे दढ़ पीित करने से मन का मैल तो दरू होता ही है , शीघ असर करने लगता है ,

साि ही उनका उपदे श भी

िजससे मनुषय की अिवदा और अजान भी शीघ नि

हो जाता है ।'

इस पकार गुर मे िजतनी-िजतनी िनषा बढ़ती जाती है ,

िजतना-िजतना

सतसंग पचता जाता है , उतना-उतना ही िचत िनमल ि व िनिशंत होता जाता है । इस पकार परमािि पाने की िजजासा बढ़ती जाती है ,

साितविा, है ।

जीवन मे पिवतता,

सचचाई आिद गुि पकट होते जाते है और साधक ईषयारििहत हो जाता

िजस साधक का जीवन सतय से युि, मान, मतसर, ममता और ईषयाि से

रिहत होता है , जो गुर मे दढ़ पीितवाला, कायि मे दक तिा िनशल िचत होता है , परमािि का िजजासु होता है -

ऐसा नौ-गुिो से सुसजज साधक शीघ ही गुरकृ पा

का अिधकारी होकर जीवनमुिि के िवलकि आननद का अनुभव कर लेता है अिात ि परमातम-साकातकार कर लेता है ।

गुरप ूज न का पवि गुरपूििम ि ा अिात ि ् गुर के पूजन का पवि ।

गुरपूििम ि ा के िदन ितपित िशवाजी भी अपने गुर का िविध-िवधान से पूजन करते िे।

.....िकनतु आज सब लोग अगर गुर को नहलाने लग जाये,

ितलक करने

पूजा से भी अिधक फल दे ने वाली मानस पूजा करने से तो भाई !

सवयं गुर भी

लग जाये,

हार पहनाने लग जाये तो यह संभव नहीं है । लेिकन िोडशोपचार की

नही रोक सकते। मानस पूजा का अिधकार तो सबके पास है ।

"गुरपूििम ि ा के पावन पवि पर मन-ही-मन हम अपने गुरदे व की पूजा करते

है .... मन-ही-मन गुरदे व को कलश भर-भरकर गंगाजल से सनान कराते है .... मनही-मन उनके शीचरिो को पखारते है .... परबह परमातमसवरप शीसदर ु दे व को वस

पहनाते है .... सुगंिधत चंदन का ितलक करते है .... सुगंिधत गुलाब और मोगरे की माला पहनाते है .... मनभावन साितवक पसाद का भोग लगाते है .... मन-ही-मन धूपदीप से गुर की आरती करते है ...."

इस पकार हर िशषय मन-ही-मन अपने िदवय भावो के अनुसार अपने

सदर ि ा का पावन पवि मना सकता है । करोडो जनमो ु दे व का पूजन करके गुरपूििम

के माता-िपता, िमत-समबंधी जो न से सके, सदर ु दे व वह हँ सते-हँ सते दे डा़़लते है ।

'हे गुरपूििम ि ा ! हे वयासपूििम ि ा ! तु कृ पा करना.... गुरदे व के साि मेरी शदा की डोर कभी टू टने न पाये....

मै पािन ि ा करता हूँ गुरवर !

शदा बनी रहे , जब तक है िजनदगी..... वह भि ही कया जो त

आपके शीचरिो मे मेरी

ुमस े िमल ने की द ु आ न कर े ?

भूल पभ ु को िजंदा रह ूँ क भी य े ख ुदा न कर े । हे गुरवर !

लगाया जो र ंग भ िि का , उसे िूटन े न द ेना । गुर त ेरी याद

का दामन , कभी िूट ने न देना ॥

हर स ाँस म े त ुम और त ुमहारा नाम पी ित की यह डोरी

रह े ।

, कभी टू टने न द ेना ॥

शदा की यह डोरी , कभी टू टने न द ेना ।

बढ़त े रह े क दम सदा त ेरे ही इशार े पर ॥

गुरद ेव ! तेरी क ृपा का सहारा ि ूटन े न द ेना। सचचे ब ने और तरककी

नसीबा हमारी अब रठन

कर े ह म ,

े न द ेना।

देती ह ै धोखा और भ ुलाती ह ै द ु िनया , भिि को अ ब हमस े ल ुटन े न द ेना ॥

पेम का यह र ंग हम े रह े सदा याद ,

द ू र होकर त ुम से यह कभी घटन े न द ेना।

बडी ़़ म ु िशकल स े भरकर रखी ह ै क रिा तुमहारी ....

बडी़़ मुिशकल स े िामकर रखी ह ै श दा -भिि त ुमहारी .... कृपा का यह पात कभी फ

ूट ने न देन ा ॥

लगाया जो र ंग भ िि का उस े िूट ने न देन ा । पभुपी ित की यह

डोर क भी िूट ने न देना ॥

आज गुरपूििम ि ा के पावन पवि पर हे गुरदे व ! आपके शीचरिो मे अनंत कोिट पिाम.... आप िजस पद मे िवशांित पा रहे है , हम भी उसी पद मे िवशांित पाने के कािबल हो जाये....

अब आतमा-परमातमा से जुदाई की घिडयाँ जयादा न

रहे .... ईशर करे िक ईशर मे हमारी पीित हो जाय.... पभु करे िक पभु के नाते गुरिशषय का समबंध बना रहे ...'

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