Geeta Prasad

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  • Words: 45,137
  • Pages: 96
गी ता पसाद िनवेदन।

अनु कम

गीता के सातवे अधयाय का माहातमय। गीता पसाद।

िवश मे ततवजानी िवरले ही होते है । भगवान की परा और अपरा पकृ ित।

परमातमा हमारे साथ होते हुए भी हम दःुखी कयो? भगवान की िवभूितयाँ। कौन बुििमान है ?

धमान ा ुकूल आचरण से कलयाण। सवयं को गुणातीत जानकर मुक बनो। भगवान की माया को कैसे तरे ? चार पकार के भक।

ततववेता की पािि दल ा है । ु भ

कामनापूिता हे तू भी भगवान की शरण ही जाओ। खणड से नहीं, अखणड से पीित करे । अवयक ततव का अनुसंधान करो। परमातमा की पािि कैसे हो?

परमातमा पािि मे बाधकः इचछा और दे ष। पयाणकाल मे भी जान हो जाये तो मुिक। अदभुत है यह गीता गनथ !

ननद के लाल ! कुबान ा तेरी सूरत पर।

िनव ेदन शी वेदवयास ने महाभारत मे गीता का वणन ा करने के उपरानत कहा है ः गीता स ुगीता कत ा वया िकम नयैः शासिवसतर ै ः। या सवय ं पदनाभसय

मुखपदािदिनः स ुता।।

'गीता सुगीता करने योगय है अथात ा ् शी गीता को भली पकार पढकर अथ ा और भाव

सिहत अंतःकरण मे धारण कर लेना मुखय कतवाय है , जो िक सवयं शी पदनाभ िवषणु भगवान के मुखारिवनद से िनकली हुई है , ििर अनय शासो के िवसतार से कया पयोजन है ?'

गीता सवश ा ासमयी है । गीता मे सारे शासो का सार भार हुआ है । इसे सारे शासो का

खजाना कहे तो भी अतयुिक न होगी। गीता का भलीभाँित जान हो जाने पर सब शासो का ताितवक जान अपने आप हो सकता है । उसके िलए अलग से पिरशम करने की आवशयकता नहीं रहती।

वराहपुराण मे गीता का मिहमा का बयान करते-करते भगवान ने सवयं कहा है ः गीताश येऽह ं ितषािम ग ीता मे चोतम ं ग ृ हम।्

गीताजानम ुपािशतय त ींललोकानपालयामयहम। ् ।

'मै गीता के आशय मे रहता हूँ। गीता मेरा शष े घर है । गीता के जान का सहारा लेकर ही

मै तीनो लोको का पालन करता हूँ।'

शीमद भगवदगीता केवल िकसी िवशेष धम ा या जाित या वयिक के िलए ही नहीं , वरन ्

मानवमात के िलए उपयोगी व िहतकारी है । चाहे िकसी भी दे श, वेश, समुदाय, संपदाय, जाित, वणा व आशम का वयिक कयो न हो, यिद वह इसका थोडा-सा भी िनयिमत पठन-पाठन करे तो उसे अनेक अनेक आशयज ा नक लाभ िमलने लगते है ।

गीता का परम लकय है मानवमात का कलयाण करना। िकसी भी िसथित मे इनसान को

चािहए िक वह ईशर-पािि से वंिचत न रह जाए कयोिक ईशर की पािि ही मनुषय जीवन का

परम उदे शय है लेिकन भमवश मनुषय भौितक सुख-सुिवधाओं के वशीभूत होकर नाना पकार से अपनी इिनियो को ति ृ करने के पयासो मे उलझ जाता है और िसवाय दःुखो के उसे अनय कुछ

नहीं िमलता। भगवद गीता इसी भम-भेद को िमटाकर एक अतयिधक सरल, सहज व सवोचच िदवय जानयुक पथ का पदशन ा करती है । गीता के अमत ृ वचनो का आचमन करने से मनुषय को भोग व मोक दोनो की ही पािि होती है ।

कनाडा के पाइम िमिनसटर िम. पीअर टडो ने जब गीता पढी तो वे दं ग रहे गये। िम.

पीअर. टडो ने कहाःअनुकम

"मैने बाइिबल पढी, एंिजल पढा, और भी कई धमग ा नथ पढे । सब गनथ अपनी-अपनी जगह

पर ठीक है लेिकन िहनदओ ु ं का यह शीमद भगवद गीता रपी गनथ तो अदभुत है ! इसमे िकसी

भी मत-मजहब, पंथ, संपदाय की िनंदा सतुित नहीं है बिलक इसमे तो मनुषयमात के िवकास की बात है । शरीर सवसथ, मन पसनन और बुिि मे समतव योग का, बहजान का पकाश जगानेवाला

गनथ भगवद गीता है ... गीता केवल िहनदओ ा नथ नहीं है , मानवमात का धमग ा नथ है । ु ं का ही धमग Geeta is not the Bible of Hindus, but it is the Bible of humanity." गीता मे ऐसा उतम और सववायापी जान है िक उसके रचियता को हजारो वषा बीत गये है

िकनतु उसके बाद दस ू रा ऐसा एक भी गनथ आज तक नहीं िलखा गया है । 18 अधयाय एवं 700 शोको मे रिचत तथा भिक, जान, योग एवं िनषकामता आिद से भरपूर यह गीता गनथ िवश मे एकमात ऐसा गनथ है िजसकी जयंती मनायी जाती है ।

गीता मानव मे से महे शर का िनमाण ा करने की शिक रखती है । गीता मतृयु के पशात

नहीं, वरन ् जीते-जी मुिक का अनुभव कराने का सामथय ा रखती है । जहाँ हाथी िचंघाड रहे हो, घोडे

िहनिहना रहे हो, रणभेिरयाँ भज रही हो, अनेको योिा दस ू रे पक के िलए पितशोध की आग मे

जल रहे हो ऐसी जगह पर भगवान शीकृ षण ने गीता की शीतल धारा बहायी है । भगवान शीकृ षण ने गीता के माधयम से अरणय की िवदा को रण के मैदान मे ला िदया। शांत िगिर-गुिाओं के

धयानयोग को युि के कोलाहल भरे वातावरण मे भी समझा िदया। उनकी िकतनी करणा है ! गीता भगवान शीकृ षण के शीमुख से िनकला हुआ वह परम अमत ृ है िजसको पाने के िलए दे वता भी लालाियत रहते है ।

.....और गीता की जररत केवल अजुन ा को हो थी ऐसी बात नहीं है । हम सब भी युि के

मैदान मे ही है । अजुन ा ने तो थोडे ही िदन युि िकया िकनतु हमारा त सारा जीवन काम, कोध, लोभ, मोह, भय, शोक, मेरा-तेरारपी युि के बीच ही है । अतः अजुन ा को गीता की िजतनी जररत थी, शायद उससे भी जयादा आज के मानव को उसकी जररत है ।

शीमद भगवद गीता के जानामत ृ के पान से मनुषय के जीवन मे साहस, सरलता, सनेह,

शांित और धम ा आिद दै वी गुण सहज मे ही िवकिसत हो उठते है । अधमा, अनयाय एवं शोषण

मुकाबला करने का सामथय ा आ जाता है । भोग एवं मोक दोनो ही पदान करने वाला, िनभय ा ता आिद दै वी गुणो को िवकिसत करनेवाला यह गीता गनथ पूरे िवश मे अिदितय है ।

हमे अतयनत पसननता है िक पूजयपाद संत शी आसाराम जी महाराज के पावन

मुखारिवनद से िनःसत ृ शीमद भगवद गीता के सातवे अधयाय की सरल, सहज एवं सपष वयाखया को 'गीता पसाद' के रप मे आपके समक पसतुत कर रहे है ....

शी योग व ेदानत स ेवा स िम ित ,

ॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुकम

अमदावाद

आ शम।

गीता के सातव े अ धयाय का माहातमय भगवान िश व कहत े ह ै – पावत ा ी ! अब मै सातवे अधयाय का माहातमय बतलाता हूँ,

िजसे सुनकर कानो मे अमत ृ -रािश भर जाती है । पाटिलपुत नामक एक दग ा नगर है , िजसका ु म

गोपुर (दार) बहुत ही ऊँचा है । उस नगर मे शंकुकणा नामक एक बाहण रहता था, उसने वैशय-विृत

का आशय लेकर बहुत धन कमाया, िकंतु न तो कभी िपतरो का तपण ा िकया और न दे वताओं का पूजन ही। वह धनोपाजन ा मे ततपर होकर राजाओं को ही भोज िदया करता था।

एक समय की बात है । एक समय की बात है । उस बाहण ने अपना चौथा िववाह करने

के िलए पुतो और बनधुओं के साथ याता की। मागा मे आधी रात के समय जब वह सो रहा था,

तब एक सपा ने कहीं से आकर उसकी बाँह मे काट िलया। उसके काटते ही ऐसी अवसथा हो गई िक मिण, मंत और औषिध आिद से भी उसके शरीर की रका असाधय जान पडी। ततपशात कुछ ही कणो मे उसके पाण पखेर उड गये और वह पेत बना। ििर बहुत समय के बाद वह पेत

सपय ा ोिन मे उतपनन हुआ। उसका िवत धन की वासना मे बँधा था। उसने पूवा वत ृ ानत को समरण करके सोचाः

'मैने घर के बाहर करोडो की संखया मे अपना जो धन गाड रखा है उससे इन पुतो को

वंिचत करके सवयं ही उसकी रका करँगा।'

साँप की योिन से पीिडत होकर िपता ने एक िदन सवपन मे अपने पुतो के समक आकर

अपना मनोभाव बताया। तब उसके पुतो ने सवेरे उठकर बडे िवसमय के साथ एक-दस ू रे से सवपन की बाते कही। उनमे से मंझला पुत कुदाल हाथ मे िलए घर से िनकला और जहाँ उसके िपता

सपय ा ोिन धारण करके रहते थे, उस सथान पर गया। यदिप उसे धन के सथान का ठीक-ठीक पता नहीं था तो भी उसने िचहो से उसका ठीक िनशय कर िलया और लोभबुिि से वहाँ पहुँचकर बाँबी को खोदना आरमभ िकया। तब उस बाँबी से बडा भयानक साँप पकट हुआ और बोलाः

'ओ मूढ ! तू कौन है ? िकसिलए आया है ? यह िबल कयो खोद रहा है ? िकसने तुझे भेजा है ?

ये सारी बाते मेरे सामने बता।'

पुत ः "मै आपका पुत हूँ। मेरा नाम िशव है । मै राित मे दे खे हुए सवपन से िविसमत होकर

यहाँ का सुवणा लेने के कौतूहल से आया हूँ।"

पुत की यह वाणी सुनकर वह साँप हँ सता हुआ उचच सवर से इस पकार सपष वचन

बोलाः "यिद तू मेरा पुत है तो मुझे शीघ ही बनधन से मुक कर। मै अपने पूवज ा नम के गाडे हुए धन के ही िलए सपय ा ोिन मे उतपनन हुआ हूँ।"

पुत ः "िपता जी! आपकी मुिक कैसे होगी? इसका उपाय मुझे बताईये, कयोिक मै इस रात

मे सब लोगो को छोडकर आपके पास आया हूँ।"

िपता ः "बेटा ! गीता के अमत ृ मय सिम अधयाय को छोडकर मुझे मुक करने मे तीथा, दान, तप और यज भी सवथ ा ा समथा नहीं है । केवल गीता का सातवाँ अधयाय ही पािणयो के जरा

मतृयु आिद दःुखो को दरू करने वाला है । पुत ! मेरे शाि के िदन गीता के सिम अधयाय का पाठ करने वाले बाहण को शिापूवक ा भोजन कराओ। इससे िनःसनदे ह मेरी मुिक हो जायेगी। वतस !

अपनी शिक के अनुसार पूणा शिा के साथ िनवयस ा ी और वेदिवदा मे पवीण अनय बाहणो को भी भोजन कराना।"

सपय ा ोिन मे पडे हुए िपता के ये वचन सुनकर सभी पुतो ने उसकी आजानुसार तथा उससे

भी अिधक िकया। तब शंकुकणा ने अपने सपश ा रीर को तयागकर िदवय दे ह धारण िकया और सारा धन पुतो के अधीन कर िदया। िपता ने करोडो की संखया मे जो धन उनमे बाँट िदया था, उससे वे पुत बहुत पसनन हुए। उनकी बुिि धमा मे लगी हुई थी, इसिलए उनहोने बावली, कुआँ, पोखरा, यज तथा दे वमंिदर के िलए उस धन का उपयोग िकया और अननशाला भी बनवायी। ततपशात सातवे अधयाय का सदा जप करते हुए उनहोने मोक पाि िकया।

हे पावत ा ी ! यह तुमहे सातवे अधयाय का माहातमय बतलाया, िजसके शवणमात से मानव

सब पातको से मुक हो जाता है ।"

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुकम

गीता पसाद नारायण..... नारायण..... नारायण....

शीमद भगवद गीता के सातवे अधयाय के पहले एवं दस ू रे शोक मे भगवान शी कृ षण

कहते है -

मययासक मन ाः पा था योग ं य ुंजनमदा शयः। असंशय ं सम गं मा ं यथा जासयिस तचछ

ृण ु।।

'हे पाथा ! मुझमे अननय पेम से आसक हुए मन वाला और अननय भाव से मेरे परायण

होकर, योग मे लगा हुआ मुझको संपूणा िवभूित, बल, ऐशयािाद गुणो से युक सबका आतमरप िजस पकार संशयरिहत जानेगा उसको सुन।'

जान ं त ेऽह ं स िवजानिमद ं व कय ामयश ेषत ः।

यजजातवा

नेह भ ूयोऽ नयजज ातवयव िशषयत े।।

"मै तेरे िलए इस िवजानसिहत ततवजान को संपूणत ा ा से कहूँगा िक िजसको जानकर

संसार मे ििर और कुछ भी जानने योगय शेष नहीं रहता है ।" मययासक मन ाः अथात ा ् मुझमे आसक हुए मनवाला।

यहाँ धयान दे ने योगय बात है िक 'मुझमे' यािन भगवान के 'मै' का ठीक अथा समझा जाये। अगर भगवान के 'मै' का सही अथा नहीं समझा और हममे आसिक है तो हम भगवान के िकसी

रप को 'भगवान' समझेगे। यिद हममे दे ष है तो हम कहे गे िक 'भगवान िकतने अहं कारी है ?' इस पकार अगर हमारे िचत मे राग होगा तो हम शी कृ षण की आकृ ित को पकडे गे और अगर दे ष होगा तो शी कृ षण को अहं कारी समझेगे।

शी कृ षण कह रहे है 'मुझम े आसक ...' जब तक शी कृ षण का 'मै' समझ मे नहीं आता

अथवा जब तक शी कृ षण के 'मै' की तरि नजर नहीं है तब तक शी कृ षण के इशारे को हम ठीक से नहीं समझ सकते। सच पूछो तो शी कृ षण का 'मै' वासतव मे सबका 'मै' है ।

शीकृ षण ने गीता ने कही नहीं वरन ् शी कृ षण दारा गीता गूज ँ गयी। हम जो कुछ करते

है । इस पकार करने वाले पिरिचछनन को मौजूद रखकर कुछ कहे । शी कृ षण के जीवन मे अतयनत सहजता है , सवाभािवकता है । तभी तो वे कहते सकते है 'मययासकमना .....बनो'

'आसिक..... पीित....' शबद तो छोटे है , बेचारे है । अथा हमे लगाना पडता है । जो हमारी बोलचाल की भाषा है वही शीकृ षण बोलेगे.. जो हमारी बोलचाल की भाषा है वही गुर बोलेगे। भाषा तो बेचारी अधूरी है । अथा भी उसमे हमारी बुिि के अनुसार लगता है । लेिकन हमारी बुिि जब

हमारे वयिकतव का, हमारे दे ह के दायरे का आकषण ा छोड दे ती है तब हम कुछ-कुछ समझने के कािबल हो पाते है और जब समझने का कािबल होते है तब यही समझा जाता है िक हम जो

समझते है , वह कुछ नहीं। आज तक हमने जो कुछ जाना है , जो कुछ समझा है , वह कुछ नहीं है । कयोिक िजसको जानने से सब जाना जाता है उसे अभी तक हमने नहीं जाना। िजसको पाने से सब पाया जाता है उसको नहीं पाया।

बुिि मे जब तक पकड होती है तब तक कुछ जानकािरयाँ रखकर हम अपने को जानकर,

िवदान या जानी मान लेते है । अगर बुिि मे परमातमा के िलए पेम होता है , आकांकाएँ नहीं होती है तो हमने जो कुछ जाना है उसकी कीमत कुछ नहीं लगती वरन ् िजससे जाना जाता है उसको समझने के िलए हमारे पास समता आती है । भाषा तो हो सकती है िक हम 'ईशर से पेम करते

है ' िकनतु सचमुच मे ईशर से पेम है िक पदाथो को सुरिकत रखने के िलए हम ईशर का उपयोग करते है ? हमारी आसिक परमातमा मे है िक नशर चीजो को पाने मे है ? जब तक नशर चीजो मे आसिक होगी, नशर चीजो मे पीित होगी और िमटनेवालो का आशय होगा तब तक अिमट ततव का बोध नहीं होगा और जब तक अिमट ततव का बोध नहीं होगा तब तक जनम-मरण क चक भी नहीं िमटे गा।अनुकम

शी कृ षण कहते है - मययासक मन ाः पाथ ा .... यिद सचमुच ईशर मे पीित हो जाती है तो ईशर से हम नशर चीजो की माँग ही नहीं करते। ईशर से, संत से यिद सनेह हो जाये तो

भगवान का जो भगवद ततव है , संत का जो संत ततव है , वह हमारे िदल मे भी उभरने लगता है । हमारे िचत मे होता तो है संसारा का राग और करते है भगवान का भजन... इसीिलए

लमबा समय लग जाता है । हम चाहते है उस संसार को जो कभी िकसी का नहीं रहा, जो कभी िकसी का तारणहार नहीं बना और जो कभी िकसी के साथ नहीं चला। हम मुख मोड लेते है उस परमातमा

जो सदा-सवद ा ा-सवत ा सबका आतमा बनकर बैठा है । इसीिलए भगवान कहते है - 'यिद

तुमहारा िचत मुझमे आसक हो जाये तो मै तुमहे वह आतमततव का रहसय सुना दे ता हूँ।'

जब तक ईशर मे पीित नहीं होती तब तक वह रहसय समझ मे नहीं आता। शी विशष

जी महाराज कहते है - 'हे राम जी! तषृणावान के हदय मे संत के वचन नहीं ठहरते। तषृणावान तो वक ृ भी भय पाते है ' इचछा-वासना-तषृणा आदमी की बुिि को दबा दे ती है ।

से

दो पकार के लोग होते है - एक तो वे जो चाहते है िक 'हम कुछ ऐसा पा ले िजसे पाने के

बाद कुछ पाना शेष न रहे ।' दस ू रे वे लोग होते है जो चाहते है िक 'हम जो चाहे वह हमे िमलता रहे ।' अपनी चाह के अनुसार जो पाना चाहते है ऐसे वयिकयो की इचछा कभी पूरी नहीं होती

कयोिक एक इचछा पूरी होते ही दस ू री इचछा खडी होती है और इस पकार इचछा पूरी करते-करते

जीवन ही पूरा हो जाता है । दस ू रे वे लोग होते है िजनमे यह िजजासा होती है िकः 'ऐसा कुछ पा

ले िक िजसे पाने के बाद और कुछ पाना शेष न रहे ।' ऐसे लोग िवरले ही होते है । ऐसे लोग ठीक से इस बात को समझते है िकः 'ईशर के िसवाय, उस आतमदे व के िसवाय और जो कुछ भी

हमने जाना है उसकी कीमत दो कौडी की भी नहीं है । मतृयु के झटके मे वह सब पराया हो जायेगा।'

पाशातय जगत बाहर के रहसयो को खोजता है । एक-एक िवषय की एक-एक कुंजी खोजता

है जबिक भारत का अधयातम जगत सब िवषयो की एक ही कुंजी खोजता है , सब दःुखो की एक ही दवाई खोजता है , परमातमसवरप खोजता है ।

सब द ु ःखो की ए क दवाई

अपन े आ पको जान ो भाई।। शी कृ षण का इशारा सब दःुखो की एक दवाई पर ही है जबिक पाशातय जगत का

िवशेषण एक-एक िवषय की कुंजी खोजते -खोजते िभनन-िभनन िवषयो और कुंिजयो मे बँट गया। अनुकम

भारत का आतमजान एक ऐसी कुंजी है िजससे सब िवषयो के ताले खुल जाते है । संसार

की ही नहीं, जनम मतृयु की समसयाएँ भी खतम हो जाती है । लेिकन इस परमातमसवरप के वे ही अिधकारी है िजनकी पीित भगवान मे हो। भोगो मे िजनकी पीित होती है और िमटने वाले का आशय लेते है ऐसे लोगो के िलए परमातमसवरप अपना आपा होते हुए भी पराया हो जाता है

और भोगो मे िजनकी रिच नहीं है , िमटनेवाले को िमटनेवाला समझते है एवं अिमट की िजजासा है वे अपने परमातमसवरप को पा लेते है । यह परमातमसवरप कहीं दरू नहीं है । भिवषय मे

िमलेगा ऐसा भी नहीं है .... साधक लोग इस आतमसवरप को पाने के िलए अपनी योगयता बढाते है । जो अपने जीवन का मूलय समझते है ऐसे साधक अपनी योगयता एवं बुिि का िवकास करके,

पाणायाम आिद करके, साधन-भजन-जपािद करके परमातम-सवरप को पाने के कािबल भी हो जाते है ।

धयान मे जब बैठे तब दो-चार गहरी-गहरी लमबी शास ले। ििर शास एकदम न छोड दे ।

शास छोडने के साथ िमटने वाले पदाथो की आकांका छोडते जाएं... शास छोडने के साथ अपने 'सव' के अलावा जो कुछ जानकारी है उसे छोडते जाये.... यह भावना भरते जाये िक 'अब मै

िनखालस परमातमा मे िसथित पाने वाला हो गया हूँ। मेरे जीवन का लकय केवल परमातमा है ।

िजसकी कृ पा से सारा जहाँ है उसी की कृ पा से मेरा यह शरीर है , मन है बुिि है । मै उसका हूँ.... वह मेरा है ...' ऐसा सोचकर जो भगवान का धयान, भजन, िचनतन करता है उसकी पीित भगवान मे होने लगती है और उसे परमातमसवरप िमलने लगता है ।

दस ू री बातः िमटनेवाले पदाथो के िलए हजार-हजार पिरशम िकये ििर भी जीवन मे

परे शािनयाँ तो आती ही है ... ऐसा सोचकर थोडा समय अिमट परमातमा के िलए अवशय लगाये। िकसी सेठ के पास एक नौकर गया। सेठ ने पूछाः "रोज के िकतने रपये लेते हो?" नौकरः "बाबू जी ! वैसे तो आठ रपये लेता हूँ। ििर आप जो दे दे ।"

सेठः "ठीक है , आठ रपये दँग ू ा। अभी तो बैठो। ििर जो काम होगा, वह बताऊँगा।"

सेठ जी िकसी दस ू रे काम मे लग गये। उस नये नौकर को काम बताने का मौका नहीं

िमल पाया। जब शाम हुई तब नौकर ने कहाः "सेठ जी! लाइये मेरी मजदरूी।" सेठः "मैने काम तो कुछ िदया ही नहीं, ििर मजदरूी िकस बात की?"

नौकरः "बाबू जी ! आपने भले ही कोई काम नहीं बताया िकनतु मै बैठा तो आपके िलए

ही रहा।"

सेठ ने उसे पैसे दे िदये।

जब साधारण मनुषय के िलए खाली-खाली बैठे रहने पर भी वह मजदरूी दे दे ता है तो

परमातमा के िलए खाली बैठे भी रहोगे तो वह भी तुमहे दे ही दे गा। 'मन नहीं लगता.... कया

करे ?' नहीं, मन नहीं लगे तब भी बैठकर जप करो, समरण करो। बैठोगे तो उसके िलए ही न? ििर वह सवयं ही िचंता करे गा।अनुकम

तीसरी बातः हम जो कुछ भी करे , जो कुछ भी ले, जो कुछ भी दे , जो कुछ भी खाये, जहाँ

कहीं भी जाये.... करे भले ही अनेक काया िकनतु लकय हमारा एक हो। जैसे शादी के बाद बहू

सास की पैरचंपी करती है । ससुर को नासता बनाकर दे ती है । जेठानी-दे वरानी का कहा कर लेती है । घर मे साि-सिाई भी करती है , रसोई भी बनाती है , परनतु करती है िकसके नाते? पित के

नाते। पित के साथ संबंध होने के कारण ही सास-ससुर, दे वरानी-जेठानी आिद नाते है । ऐसे ही तुम भी जगत के सारे काया तो करो िकनतु करो उस परम पित परमातमा के नाते ही। यह हो गयी भगवान मे पीित।

अनयथा कया होगा?

एक ईसाई साधवी (Nun) सदै व ईसा की पूजा-अचन ा ा िकया करती थी। एक बार उसे कहीं दस ू री जगह जाना पडा तो वह ईसा का िोटो एवं पूजािद का सामान लेकर गयी। उस दस ू री

जगह पर जब वह पूजा करने बैठी और उसने मोमबती जलाई तो उसे हुआ िक 'इस मोमबती का पकाश इधर-उधर चला जायेगा। मेरे ईसा को तो िमल नहीं पायेगा।' अतः उसने इधर-उधर पदे

लगा िदए तािक केवल ईसा को ही पकाश िमले। तो यह आसिक, यह पीित ईसा मे नहीं, वरन ्

ईसा की पितमा मे हुई। अगर ईसा मे पीित होती तो ईसा तो सब मे है तो ििर पकाश भी तो सवत ा िसथर ईसा के िलए ही हुआ न !

िचत मे अगर राग होता है और हम भिक करते है तब भी गडबड हो जाती है । िचत दे ष

रखकर भिक करते है तब भी गडबड हो जाती है । भिक के नाम पर भी लडाई और 'मेरा-तेरा' शुर हो जाता है कयोिक भगवान के वासतिवक 'मै' को हम जानते ही नहीं। जब तक अपने 'मै' को नहीं खोजा तब तक ईशर के 'मै' का पता भी नहीं चलता। इसीलए शी कृ षण कहते है मययासक मन ाः पा था योग ं य ुंजनमदा शयः।

असंशय ं सम गं मा ं यथा जासयिस तचछ

ृण ु।।

'संशयरिहत होकर मुझे िजस पकार तुम जानोगे, वह सुनो।' भगवान का समग सवरप जब

तक समझ मे नहीं आता तब तक पूणा शािनत नहीं िमलती। ईशर के िकसी एक रप को पारमभ मे भले आप मानो....... वह आपके िचत की विृत को एक केनि मे िसथर करने मे सहायक हो सकता है लेिकन ईशर केवल उतना ही नहीं िजतना आपकी इन आँखो से पितमा के रप मे

िदखता है । आपका ईशर तो अनंत बहाणडो मे िैला हुआ है , सब मनुषयो को, पािणयो को, यहाँ

तक िक सब दे वी-दे वताओं को भी सता दे ने वाला, सववायापक, सवश ा िकमान और सवद ा ा वयाि है । जो ईशर सवद ा ा है वह अभी भी है । जो सवत ा है वह यहाँ भी है । जो सबमे है वह आपमे

भी है । जो पूरा है वह आपमे भी पूरे का पूरा है । जैसे, आकाश सवद ा ा, सवत ा , सबमे और पूणा है । घडे मे आकाश घडे की उपािध के कारण घटाकाश िदखता है और मठ का आकाश मठ की

उपािध होते हुए भी वह महाकाश से िमला जुला है । ऐसे ही आपके हदय मे, आपके घट मे जो

घटाकाशरप परमातमा है वही परमातमा पूरे-का-पूरा अनंत बहाणडो मे है । ऐसा समझकर यिद उस परमातमा को पयार करो तो आप परमातमा के ततव को जलदी समझो।अनुकम

चौथी बातः जो बीत गया उसकी िचनता छोडो। सुख बीता या दःुख बीता... िमत की बात

बीती या शतु की बात बीती... जो बीत गया वह अब आपके हाथ मे नहीं है और जो आयेगा वह भी आपके हाथ मे नहीं है । अतः भूत और भिवषय की कलपना छोडकर सदा वतम ा ान मे रहो।

मजे की बात तो यह है िक काल सदा वतम ा ान ही होता है । वतम ा ान मे ठहर कर आगे की कलपना करो तो भिवषयकाल और पीछे की कलपना करो तो भूतकाल होता है । आपकी विृतयाँ आगे और पीछे होती है तो भूत और भिवषय होता है । 'भूत और भिवषय' िजन कलपनाओं से

बनता है उस कलपना का आधार है मेरा परमातमा। ऐसा समझकर भी उस परमातमा से पीित करो तो आप 'मययासकमना ' हो सकते हो।

पाँचवी बातः मन चाहे दक ु ान पर जाये या मकान पर, पुत पर जाये या पती पर, मंिदर मे

जाये या होटल पर... मन चाहे कहीं भी जाये िकनतु आप यही सोचो िक 'मन गया तो मेरे पभु

की सता से न ! मेरी आतमा की सता से न !' – ऐसा करके भी उसे आतमा मे ले आओ। मन के भी साकी हो जाओ। इस पकार बार-बार मन को उठाकर आतमा मे ले आओ तो परमातमा मे पीित बढने लगेगी।

अगर आप सडक पर चल रहे हो तो आपकी नजर बस, कार, साइिकल आिद पर पडती ही

है । अब, बस िदखे तो सोचो िक 'बस को चलाने वाले डाइवर को सता कहाँ से िमल रही है ?

परमातमा से। अगर मेरे परमातमा की चेतना न होती तो डाइवर डाइिवंग नहीं कर सकता। अतः मेरे परमातमा की चेतना से ही बस भागी जा रही है ...' इस पकार िदखेगी तो बस लेिकन आपका मन यिद ईशर मे आसक है तो आपको उस समय भी ईशर की समिृत हो सकती है ।

छठवीं बातः िनभय ा बनो। अगर 'मययासक मन ा' होना चाहते हो तो िनभय ा ता होनी ही

चािहए। भय शरीर को 'मै' मानने से होता है और मन मे होता है जो एक िदन नष हो जाने

वाला है , उस शरीर को नशर जानकर एवं िजसकी सता से शरीर कायरात है , उस शाशत परमातमा को ही 'मै' मानकर िनभय ा हुआ जा सकता है ।

सातवीं बातः पेमी की अपनी कोई माँग नहीं होती है । पेमी केवल अपने पेमासपद का

मंगल ही चाहता है । 'पेमासपद को हम कैसे अनुकूल हो सकते है ?' यही सोचता है पेमी या भक। तभी वह 'मययासक मन ा' हो पाता है । जो अपनी िकसी भी माँग के िबना अपने इष के िलए सब कुछ करने को तैयार होता है , ऐसा वयिक भगवान के रहसय को समझने का भी अिधकारी हो जाता है । तभी भगवान कहते है -

मययासक मन ाः पा था योग ं य ुंजनमदा शयः।

असंशय ं सम गं मा ं यथा जासयिस तचछ

ृण ु।।

'हे पाथा ! मुझमे अननय पेम से आसक हुए मन वाला और अननय भाव से मेरे परायण

होकर, योग मे लगा हुआ मुझको संपूणा िवभूित, बल, ऐशयािाद गुणो से युक सबका आतमरप िजस पकार संशयरिहत जानेगा उसको सुन।'अनुकम

शीमद भगवद गीता के सातवे अधयाय के दस ू रे शोक मे आता है ः

जान ं त ेऽह ं स िवजानिमद ं व कय ामयश ेषत ः।

यजजातवा

नेह भ ूयोऽ नयजज ातवयव िशषयत े।।

"मै तेरे िलए इस िवजानसिहत ततवजान को संपूणत ा ा से कहूँगा िक िजसको जानकर

संसार मे ििर और कुछ भी जानने योगय शेष नहीं रहता है ।"

उदालक ऋिष का पुत शेतकेतु अठारह पुराणो एवं वेद की ऋचाओं आिद का अधययन

करके घर वापस आया। तब िपता उसे दे खते ही समझ गये िक, 'यह कुछ अकल बढाकर आया है । होम-हवनािद की िविध सीखकर, शास-पुराणो का अधययन आिद करके तो आया है िकनतु

िजससे सब जाना जाता है उस परम ततव को इसने अभी तक नहीं जाना है । यह तो िवनमता छोडकर पढाई का अहं कार साथ लेकर आया है ।'

िपता ने पूछाः "शेतकेतु ! तुमने तमाम िवदाओं को जाना है परनतु कया उस एक को

जानते हो िजसके जानने से सब जान िलया जाता है िजसके दारा अशत ु शत ु हो जाता है , अमत मत हो जाता है , अिवजात जात हो जाता है ?"

येनाश ु तं श ु तं म तम िवजात ं िवजात िमित ।। (छानदोगयोपिनषद

6.1.3)

िपता का पश सुनकर शेतकेतु अवाक् हो गया। यह तो उसके गुर ने पढाया ही नहीं था। उसने कहाः

"िपताजी ! मै अपने गुर के आशम मे सबका िपय रहा हूँ। इसिलए िजतना गुरजी जानते

थे, वह सब उनहोने मुझे पढा िदया है िकनतु आप जो पूछ रहे है वह मै नहीं जानता।"

जब तक उस एक परम ततव को न जाना तब तक बुिि मे, मन मे केवल कलपनाएँ,

सूचनाएँ ही भरी जाती है और मन-बुिि इतने परे शान हो जाते है िक उनमे और कुछ रखने की जगह ही नहीं बचती। मन बुिि को जहाँ से सता िमलती है उन सताधीश को न जानकर मनबुिि मे कलपनाएँ भर लीं तो यह हुआ ऐिहक जान और मन-बुिि को जहाँ से सता िमलती है उस चैतनय को 'मै' रप मे जान िलया तो यह हो गया पारमािथक ा जान।

शेतकेतु केवल ऐिहक िवदा ही पढकर आया था। जब वह िवनम बना, अपनी सीखी हुई

िवदा का अहं कार थोडा िमटा तब वह उस पारमािथक ा जान पाने का अिधकारी बना िजसको जानने से वयिक मुक हो जाता है । ििर िपता ने उसे बहजान का उपदे श िदया।

कलपनाएँ और सूचनाएँ एकितत करके आदमी अहं कारी हो जाता है । सचचा जान,

पारमािथक ा जान यिद अिजत ा करता है तो आदमी का अहं कार गायब हो जाता है । ििर वह

समझने लगता है िक जो कुछ जानकारी है उसकी कोई कीमत नहीं है । सारी जानकािरयाँ केवल रोटी कमाने और शरीर को सुख िदलाने के िलए ही है । आज का जान, िवजान, आज के पमाणपत सब दौड-धूप करने के बाद भी बहुत-बहुत

शरीर को रोटी-कपडा-मकान एवं अनय ऐिहक सुख मे

गरकाव करने के िलए है । िजस शरीर को जला दे ना है उसी शरीर को सँभालने के िलए ही आज का पूरा िवजान है ।'अनुकम

बडे से बडे वैजािनक को बुला लाओ, अिधक-से-अिधक वैजािनको को एकितत कर लो और उनसे पूछोः

"भगवान के भक अथवा सदगुर के सत ् िशषय को धयान के समय जो सुख िमलता है ,

वह कया आज तक आपको िमला है ? सत ् िशषय को जो शांित िमलती है या आनंद िमलता है वह आपके िवजान के सब साधनो को िमलाकर भी िमल सकता है ?" एक बार सुकरात से िकसी धनी आदमी ने कहाः

"आप कहे तो मै आपके िलए लाखो रपये, लाखो डॉलर खचा कर सकता हूँ। आप जो चाहे

खरीद सकते है । बस एक बार मेरे साथ बाजार मे चिलए।"

सुकरात उस धनी वयिक के साथ बाजार मे घूमने गये। बडे -बडे दक ु ान दे खे। ििर दक ु ान

से बाहर िनकलकर सुकरात खूब नाचने लगे। सुकरात को नाचते हुए दे खकर उस धनी वयिक को िचनता हो गयी िक कहीं वे पागल तो नहीं हो गये? उसने सुकरात से पूछाः "आप कयो नाच रहे है ?"

तब सुकरात बोलेः "तुम मेहनत करके डॉलर कमाते हो। डॉलर खचा करके वसतुएँ लाते हो

और वसतुएँ लाकर भी सुखी ही तो होना चाहते हो ििर भी तुमहारे पास सुख नहीं है जो मुझे इन सबके िबना ही िमल रहा है । इसी बात से पसनन होकर मै नाच रहा हूँ।"

भारत ने सदै व ऐसे सुख पर ही नजर रखी है िजसके िलए िकसी बाह पिरिसथित की

गुलामी करने की आवशयकता न हो, िजसके िलए िकसी का भय न हो और िजसके िलए िकसी का शोषण करने की जररत न हो। बाहर के सुख मे तो अनेको का शोषण होता है । सुख िछन न जाये इसका भय होता है और बाह पिरिसथितयो की गुलामी भी करनी पडती है । भगवान कहते है - 'मै तेरे िलए िवजानसिहत जान को पूणत ा या कहूँगा..."

यह िवजानसिहत जान कया है ? आतमा के बारे मे सुनना जान है । आतमा एकरस, अखंड, चैतनय, शुि-बुि, सिचचदानंदरप है । दे व, मनुषय, यक, गंधवा, िकननर सबमे सता उसी की है ' – यह है जान और इसका अपरोक रप से अनुभव करना - यह है िवजान।

जान तो ऐसे भी िमल सकता है लेिकन िवजान या ततवजान की िनषा तो बुि पुरषो के

आगे िवनम होकर ही पायी जा सकती है । संसार को जानना है तो संशय करना पडे गा और सतय को जानना हो संशयरिहत होकर शिापूवक ा सदगुर के वचनो को सवीकार करना पडे गा।'अनुकम

आप गये मिनदर मे। भगवान की मूिता को पणाम िकया। तब आप यह नहीं सोचते िक

"ये भगवान तो कुछ बोलते ही नहीं है ... जयपुर से साढे आठ हजार रपये मे आये है .... 'नहीं नहीं, वहाँ आपको संदेह नहीं होता है वरन ् मूिता को भगवान मानकर ही पणाम करते हो कयोिक मूिता मे पाणपितषा हो चुकी है । धमा मे सनदे ह नहीं, सवीकार करना पडता है और सवीकार करते-करते आप एक ऐसी अवसथा पर आते हो िक आपकी अपनी जकड-पकड छूटती जाती है एवं आपकी

सवीकृ ित शिा का रप ले लेती है । शिा का रप जब िकसी सदगुर के पास पहुँचता है तो ििर शिा के बल से आप ततवजान पाने के भी अिधकारी हो जाते हो। यही है जानसिहत िवजान। सतय या ततवजान तका से िसि नहीं होता लेिकन सारे तका िजससे िसि होते है , सारे

तका िजससे उतपनन होकर पुनः िजसमे लीन हो जाते है वही है सतयसवरप परमातमा। उस परमातमा का जान तभी होता है जब शिा होती है , सवीकार करने की कमता होती है और

परमातमा मे पीित होती है । िजनहे परमातमा का जान हो जाता है ििर वे िनदा नद, िनःशंक,

िनःशोक हो जाते है । उनका जीवन बडा अदभुत एवं रहसयमय हो जाता है । ऐसे महापुरष की तुलना िकससे की जाये? अषावकजी महाराज कहते है - तसय त ु लना केन जायत े।

िजनहोने

अपनी आतमा मे िवशािनत पा ली है िजनहोने परम ततव के रहसय को जान िलया है , िजनहोने जान सिहत िवजान को समझ िलया है , उनकी तुलना िकससे करोगे? एक मेवािदतीयम ् का साकातकार िकये हुए महापुरष की तुलना िकससे की मनु महाराज इकवाकु राजा

जा सकती है ?

से कहते है - राजन ! तुम केवल एक बार आतमपद मे जाग

जाओ। ििर तुम जो जागितक आचार करोगे उसमे तुमहे दोष नहीं लगेगा। हे इकवाकु ! इस राजय वैभव को पाकर भी तुमहारे िचत मे शांित नहीं है कयोिक अनेक मे छुपे हुए एक को तुमने नहीं

जाना। िजसको पाने से सब पाया जाता है उसको तुमने नहीं पाया। इसिलए राजन ! तुम उसको पा लो िजसको पाने से सब पा िलया जाता है , िजसको जानने से सब जान िलया जाता है । उस आतमदे व को जान लो। ििर तुमहे भीतर कतान ा पन नहीं लगेगा। तुम राजय तो करोगे लेिकन

समझोगे िक बुिि मूखो पर अनुशासन कर रही है और सजजनो को सहयोग दे रही है । मै कुछ

नहीं करता.... हे राजन ! ऐसा जानवान िजस ईट पर पैर रखता है वह ईट भी पणाम करने योगय हो जाती है । ऐसा जानवान िजस वसतु को छूता है वह वसतु पसाद बन जाती है . ऐसा जानवान वयिक िजस पर नजर डालता है वह वयिक भी िनषपाप होने लगता है ।

जो जान िवजान से ति ृ हो जाता है , जो जान िवजान का अनुभव कर लेता है वह ििर

शास वह ििर शास और शास के अथा का उललंघन करके भी अगर िवचरता है तो भी उसको पाप-पुणय सता नहीं सकते कयोिक उसको अपने िनज सवरप का बोध हो चुका है । अब वह दे ह, इिनियाँ, पाण, शरीरािद को कताा-भोका दे खता है और अपने को उनसे असंग दे खता है ।'अनुकम

सच पूछो तो आतमा िनःसंग है लेिकन हम आतमा को नहीं जानते है और दे ह मे हमारी

आसिक तथा संसार मे पीित होती है इसीिलए बुिि हमको संसार मे िँसा दे ती है , अहं कार हमे

उलझा दे ता है और इचछाएँ-वासनाएँ हमको घसीटती जाती है । जब आतमपद का रस आने लगता

है तब संसार का रस िीका होने लगता है । ििर आप खाते-पीते, चलते-बोलते िदखोगे सही लेिकन वैसे ही, जैसे नट अपना सवाँग िदखाता है । भीतर से नट अपने को जयो-का-तयो जानता है िकनतु बाहर कभी राजा तो कभी िभखारी और कभी अमलदार का सवाँग करता िदखता है । ऐसे ही

भगवान मे पीित होने से भगवान के समग सवरप को जो जान लेता है वह अपने भीतर जान

िवजान से ति ृ हो जाता है िकनतु बाहर जैसा अनन िमलता है खा लेता है , जैसा वस िमलता है पहन लेता है , जहाँ जगह िमलती है सो लेता है ।

हमारी आसिक संसार मे होती है , संसार के संबंधो मे होती है । संबध ं हमारी इचछा के

अनुकूल होते है तो हम सुखी होते है , पितकूल होते है तो हम दःुखी होते है । िकनतु सुख दःुख

दोनो आकर चले जाते है । जो चले जाने वाली चीजे है , उनमे न बहना यह जान है और चले जाने वाली वसतुओं मे, पिरिसथितयो बह जाना यह अजान है ।

दःुख मे दःुखी और सुख मे सुखी होने वाला मन लोहे जैसा है । सुख-दःुख मे समान रहने

वाला मन हीरे जैसा है । दःुख सुख का जो िखलवाड मात समझता है वह है शहं शाह। जैसे लोहा,

सोना, हीरा सब होते है राजा के ही िनयंतण मे, वैसे ही शरीर , इिनिय ाँ , मन , बुिि , सुख -द ु ःखा िद होत े ह ै बहव ेता के िनय ंतण मे।

जो भगवान के समग सवरप को जान लेता है , वह बहवेता

हो जाता है और भगवान के समग सवरप को वही जान सकता है िजसकी भगवान मे आसिक होती है , जो 'मययासकमनाः ' होता है ।

यहा ँ आ सिक का तातपय ा पित -पती के बीच हो ने वाली

आ सिक नह ीं ह ै।

शबद

दो आसिक है , लेिकन हमारी दिष की आसिक नहीं वरन ् शी कृ षण की दिष की आसिक।

एक दजी गया रोम मे पोप को दे खने के िलए। जब दे खकर वापस आया तब अपने िमत

से बोलाः

"मै रोम दे श मे पोप के दशन ा करके आया।" िमतः "अचछा..... पोप कैसे लगे?"

दजीः "पतले से है । लमबी सी कमीज है । उसकी चौडाई 36 इं च है । कमीज की िसलाई मे किटं ग ऐसी ऐसी है ।"

िमतः "भाई ! पोप के दशन ा िकये िक

कमीज के?"

ऐसे ही शीकृ षण के वचन कमीज जैसे िदखते है । शीकृ षण के वचनो मे शी कृ षण छुपे हुए

है । दिष बदलती है तो सिृष बदल जाती है और भगवान मे पीित हो जाती है तो दिष बदलना सुगम हो जाता है । वासना मै पीित होती है तो दिष नहीं बदलती।

भौितक िवजान सिृष को बदलने की कोिशश करता है और वेदानत दिष को बदलने की।

सिृष िकतनी भी बदल जाये ििर भी पूणा सुखद नहीं हो सकती जबिक दिष जरा-सी बदल जाये

तो आप परम सुखी हो सकते हो। िजसको जानने से सब जाना जाता है , वह परमातमसुख वेदानत से िमलता है । इस परमातम-सवरप को पाकर आप भी सदा के िलए मुक हो सकते हो और यह परमातमसवरप आपके पास ही है । ििर भी आप हजारो-हजारो दस ू री कुंिजयाँ खोजते हो सुख -

सुिवधा पाने के िलए लेिकन सदा के िलए मुक कर दे ने वाली जो कुंजी है आतमजान उसको ही नहीं खोजते।'अनुकम

एक रोचक कथा है ः

कोई सैलानी समुि मे सैर करने गया। नाव पर सैलानी ने नािवक से पूछाः "तू इं िगलश जानता है ?"

नािवकः "भैया ! इं िगलश कया होता है ?" सैलानीः "इं िगलश नहीं जानता? तेरी 25 पितशत िजंदगी बरबाद हो गयी। अचछा... यह तो

बता िक अभी मुखयमंती कौन है ?"

नािवकः "नहीं, मै नहीं जानता।"

सैलानीः "राजनीित की बात नहीं जानता? तेरी 25 पितशत िजंदगी और भी बेकार हो गयी। अचछा...... लाइट हाउस मे कौन-सी ििलम आयी है , यह बता दे ।"

नािवकः "लाइट हाउस-वाइट हाउस वगैरह हम नहीं जानते। ििलमे दे खकर चिरत और

िजंदगी बरबाद करने वालो मे

से हम नहीं है ।"

सैलानीः "अरे ! इतना भी नहीं जानते? तेरी 25 पितशत िजंदगी और बेकार हो गयी।" इतने मे आया आँधी तूिान। नाव डगमगाने लगी। तब नािवक ने पूछाः "साहब ! आप तैरना जानते हो?"

सैलानीः "मै और तो सब जानता हूँ, केवल तैरना नहीं जानता।"

नािवकः "मेरे पास तो 25 पितशत िजंदगी बाकी है । मै तैरना जानता हूँ अतः िकनारे लग

जाऊँगा लेिकन आपकी तो सौ पितशत िजंदगी डू ब जायगी।"

ऐसे ही िजसने बाकी सब तो जाना िकनतु संसार-सागर को तरना नहीं जाना उसका तो

पूरा जीवन ही डू ब गया।

भगवान कहते है जान ं त ेऽह ं स िवजानिमद ं व कय ामयश ेषत ः।

यजजातवा

नेह भ ूयोऽ नयजज ातवयव िशषयत े।।

"मै तेरे िलए इस िवजानसिहत ततवजान को संपूणत ा ा से कहूँगा िक िजसको जानकर

संसार मे ििर और कुछ भी जानने योगय शेष नहीं बचता।"'अनुकम

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

िवश म े त तव को जान ने वाल े िवरल े ही ह ोते है। मनुषयाणा ं सह सेष ु किशद तित िसिय े।

यततामिप

िसिाना ं किश नमां व ेित ततवत ः।।

"हजारो मनुषयो मे कोई ही मनुषय मेरी पािि के िलए यत करता है और उन यत करने

वाले योिगयो मे भी कोई ही पुरष मेरे परायण हुआ मुझको ततव से जानता है ।"

(गीताः

7.3)

चौरासी लाख योिनयो मे मानव योिन सवश ा ष े है । मानवो मे भी वह शष े है िजसे अपने मानव जीवन की गिरमा का पता चलता है । बहुत जनमो के पुणय-पाप जब सामयावसथा मे होते

है तब मनुषय-तन िमलता है । दे वता जान के अिधकारी नहीं है कयोिक वे भोगपधान सवभाववाले होते है । दै तय जान के अिधकारी नहीं है कयोिक वे कूरतापधान सवभावहोले होते है । मनुषय जान का अिधकारी होता है कयोिक मनुषय केवल भोगो का भोका ही नहीं, वरन ् सतकमा का कताा भी

बन सकता है । िकनतु मनुषय दे ह धारण करके भी जो भगवान के साथ संबंध नहीं जोड सकता वह मनुषय के रप मे पशु ही है ।

इस पकार लाखो-लाखो पािणयो मे, पशुओं मे मनुषय पाणी शष े है कयोिक मनुषय दे ह तभी

िमलती है जब परमातमा की कृ पा होती है । अनंत जनमो के संसकार मनुषय के पास मौजूद है । शुभ संसकार भी मौजूद है , अशुभ संसकार भी मौजूद है ।

िचिडया आज से सौ साल पहले िजस पकार का घोसला बनाती थी उसी पकार का आज

भी बनाती है । बाज जैसे आकाश मे उडकर अपना िशकार खोजता था, वैसे ही आज भी खोजता

है । िबलली, कुता, चूहा, िगलहरी आिद िजस पकार 500 वषा पहले जीते थे वैसे ही आज भी जीते है कयोिक इन सब पर पकृ ित का पूरा िनयंतण है । ये सब पशु पकी आिद न गाली दे ते है न

मुकदमा लडते है , ििर भी वैसे के वैसे है जबिक मनुषय झूठ भी बोलता है , चोरी भी करता है , गाली भी दे ता है , मुकदमा भी लडता है ििर भी मनुषय अनय सब पािणयो से शष े माना जाता है कयोिक वह िनरन तर िवकास करता रहता ह

ै। मानव पर ईशर की यह असीम अनुकंपा है

िक मनुषय पकृ ित के ऊपर भी अपना पभाव डालने की योगयता रखता है । अपनी योगयता से पकृ ित की पितकूलताओं को दरू कर सकता है ।

पकृ ित के, सिृष के िनयम मे बािरश आयी तो मनुषय ने छाता बना िलया, ठं ड आयी तो

सवेटर-शॉल बना िलए, गमी आयी तो पंखे की खोज कर ली, आग लगी तो अिगनशामक यंतो की वयवसथा कर ली..... इस पकार मनुषय पकृ ित की पितकूलताओं को अपने पुरषाथा से रोक लेता है और अपना अनुकूल जीवन जी लेता है ।

ऐसे हजारो पुरषाथी मनुषयो मे से भी कोई िवरला ही िसिि के िलए अथात ा ् अंतःकरण की

शुिि के िलए यत करता है और ऐसे यत करने वाले हजारो मे भी कोई िवरला ही भगवान का ततव से जानने का यत करता है ।

सब मनुषय भगवान को जानने का यत कयो नहीं कर पाते? मानव का सवभाव है िजस

चीज का अभाव हो उस चीज की पािि का यत करना और जो मौजूद हो उसकी ओर न दे खना। जो परमातमा सदा मौजूद है उसकी ओर न दे खना। जो परमातमा सदा मौजूद है उसकी तरि

मन झुकता नहीं है और जो संसार लामौजूद है , जो िक था नहीं और बाद मे रहे गा नहीं, उसके

पीछे मन भागता है । मन की इस चाल के कारण ही मानव जलदी ईश-पािि के िलए यत नहीं करता है ।'अनुकम

दस ू री बातः माया का यह बडा अटपटा खेल है िक संयोगजनय जो भी सुख है वे आते तो

भगवान की सता से है िकनतु मनुषय उनहे अजानता से िवषयो म े स े आत े ह ु ए मान लेता है

और संयोगजनय िवषय-सुख मे ही उलझकर रह जाता है । आँखे और रप के, िजहा और सवाद के, कान और शबद के, नाक और गंध के, तवचा और सपशा के संयोग मे मनुषय इतना उलझ जाता है िक वासतिवक जान पाने की इचछा ही नहीं होती, इसीिलए ततवजान

पाना या परमातमा को

पान ा क िठन ल गता ह ै।

अगर परमातम पािि इतनी सुलभ है तो ििर िवश मे परमातमा को पाये हुए लोग जयादा

होने चािहए। करोडो मनुषय परमातमा को पाये हुए होने चािहए और कोई िवरला ही परमातम-

पािि से वंिचत रहना चािहए िकनतु होता है िबलकुल िवपरीत। तभी तो भगवान कहते है - 'हजारो यत करने वालो मे कोई िवरला ही मुझे ततव से जानता है ।'

हजारो मनुषयो मे से कोई िवरला ही िसिि के िलए यत करता है और िसिि िमलने पर

वहीं रक जाता है , वहीं संतुष हो जाता है । िसिि िमलने पर अथात ा ् अंतःकरण की शुिि होने पर मनुषय मे ततवजान की िजजासा हो सकती है िकनतु मनुषय अनतःकरण की शुिि मे ही रक

जाता है , अनतःकरण की शुिि मे होने वाले छोटे -मोटे लाभो से ही संतुष हो जाता है । अंतःकरण से पार होकर ततवजान की ओर अिभमुख होने के िलए उतसुक नहीं बनता, ततव को पाने का अिधकारी नहीं हो पाता।

सवलपप ु णयवता ं राजन ् िवशासो न ैव जायत े।

अतः यत करके जब बुिि शुि हो और शुि बुिि मे मै कौन हूँ यह पश उठे एवं बुि

पुरषो का संग हो तभी मनुषय ततव को पाने का अिधकारी हो सकता है । ततव को पाये िबना सारे िवश का राजय िमल जाये तब भी वयथा है और िजसके पास भोजन के िलए रोटी का टु कडा न हो, पहनने को कपडा न हो और रहने को झोपडा भी न हो ििर भी यिद वह ततव को जानता

है तो ऐसा पुरष िवशातमा होता है । ऐसे बहवेताओं की तो भगवान राम लकमण भी पैरचंपी करते है ।

िजसको पाये िबना मनुषय कंगाल है , िजसको पाये िबना मनुषय का जनम वयथा है , िजसको

जाने िबना सब कुछ जाना हुआ तुचछ है , िजससे िमले िबना सबसे िमलना वयथा है ऐसा

परमातमा सदा, सवत ा तथा सबसे िमला हुआ है और आज तक उसका पता नहीं... यह परम

आशया है ! मछली शायद पानी से बाहर रह जाये िकनतु मनुषय तो परमातमा से एक कण के िलए भी दरू नहीं हो सकता है । मछली का तो पानी के बाहर रहने पर पानी के छटपटाहट होती

है िकनतु मनुषय को परमातमा के िलए छटपटाहट नहीं होती। कयो? मनुषय एक कण के िलए भी परमातमा से अलग नहीं होता इसीिलए शायद उसे परमातमा के िलए छटपटाहट नहीं होती होगी! अगर एक बार भी उसे परमातम-पािि की तीव छटपटाहट हो जाये तो ििर वह उसे जाने िबना रह भी नहीं सकता।' अनुकम

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भगवान की परा और अपरा पक भूिमरापोऽनलो वाय

ृित

ुः ख ं मनो ब ुििर ेव च।

अहंकार इ तीय ं मे िभन ना पकृ ितरषधा।।

अपर ेय िमतसतवनय ां पकृित ं िविि म े पराम। ् जीवभ ूत ां महाबाहो यय ेद ं ध ाया ते ज गत।् ।

"पथ ृ वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश और मन, बुिि एवं अहं कार.... ऐसे यह आठ पकार से िवभक हुई मेरी पकृ ित है । यह आठ पकार के भेदो वाली तो अपरा है अथात ा ् मेरी जड पकृ ित है और हे महाबाहो ! इससे दस ा ् चेतन पकृ ित जान िक िजससे यह ू री को मेरी जीवरपा परा अथात संपूणा जगत धारण िकया जाता है ।"

(गीताः 7.4,5) भगवान शीकृ षण यहाँ अपनी दो पकार की पकृ ित का वणन ा करते है - परा और अपरा। वे

पकृ ित को लेकर सिृष की रचना करते है । िजस पकृ ित को लेकर रचना करते है वह है उनकी

अपरा पकृ ित एवं जो उनका ही अंशरप जीव है उसे भगवान परा पकृ ित कहते है । अपरा पकृ ित

िनकृ ष, जड और पिरवतन ा शील है तथा परा पकृ ित शष े , चेतन और अपिरवतन ा शील है । भगवान की परा पकृ ित दारा ही यह संपूणा जगत धारण िकया जाता है ।

पविृत और रचना – यह अपरा पकृ ित है , अषधा पकृ ित है , िजसमे िक पंचमहाभूत एवं

मन, बुिि तथा अहं कार इन आठ चीजो को समावेश होता है । भगवान का ही अंश जीव परा पकृ ित है । अपरा पकृ ित जीव को परमातमा से एक रप करने वाली है ।

जैसे, सुबह नींद मे से उठकर सबसे पहले मै हूँ ऐसी समिृत उतपनन होती है , यह परा

पकृ ित है ििर विृत उतपनन होती है िक मै अमुक जगह पर हूँ.... मै सोया था... मै अभी जागा हूँ.... मुझे यहाँ जाना है ... मुझे यह करना है .... मुझे यह पाना है .... आिद आिद विृतरप अहं कार अपरा पकृ ित है ।

जो जीवभूता पकृ ित है , जो अपिरवतन ा शील एवं चेतन है वही भगवान की परा पकृ ित है ।

जीव की बालयावसथा बदल जाती है , िकशोरावसथा भी बदल जाती है , जवानी भी बदल जाती है ,

बुढापा भी बदल जाता है एवं मौत के बाद नया शरीर पाि हो जाता.... कई बार ऐसे शरीर बदलते रहते है । मन, बुिि अहं कार भी बदलता रहता है िकनतु इन सबको दे खने वाला कोई है जो हर

अवसथा मे, हर पकृ ित मे अबदल रहता है । जो अबदल रहता है वही सबका जीवातमा होकर बैठा है । उसका असली सवरप परमातमा से अिभनन है लेिकन अजानवश वह इस अषधा पकृ ित से

बने शरीर को मै एवं उसके संबंधो को मेरा मानता है इसीिलए जनम-मरण के चक मे िँसा रहता है ।अनुकम

जैसे िवचार दो पकार के होते है - अचछे एवं बुरे। उसी पकार पकृ ित के भी दो पकार है अपरा एवं परा। आप जब भोग चाहते हो, संसार के ऐश – आराम एवं मजे चाहते हो तो अपरा पकृ ित मे उलझ जाते हो। जब आप संसार के ऐश-आराम एवं मौज मसती को नशर समझकर

सचचा सुख चाहते हो तो परा पकृ ित आपकी मदद करती है । जब परा पकृ ित मदद करती है तो

परमेशर का सुख िमलता है , परमेशर का जान िमलता है तथा परमेशर का अनुभव हो जाता है । ििर वह जीवातमा समझता है िक, मै परमेशर से जुदा नहीं था, परमेशर मुझसे जुदा नहीं था। आज तक िजसको खोजता-ििरता था, वही तो मेरा आतमा था।

बंद गी का थ ा कस ूर ब ंदा म ुझ े बना िदया।

मै ख ुद स े था ब ेखबर तभी तो िसर झ

ु का िदया।।

वे थ े न म ुझस े द ू र न म ै उनस े द ू र था।

आता न थ ा नजर तो नजर का कस

ूर था।।

पहले हमारी नजर ऐसी थी की अपरा पकृ ित की चीजो मे हम उलझ रहे थे... लगता था

िक, 'यह िमले तो सुखी हो जाऊँ, यह भोगूँ तो सुखी हो जाऊँ...' ऐसा करते-करते सुख के पीछे ही मर रहे थे। िकनतु जब पता चला अपने सवरप का तो लगा िक 'अरे ! मै सवयं ही सुख का सागर हूँ.... सुख के िलए कहाँ-कहाँ भटक रहा था?'

अपरा पकृ ित मे रहकर कोई पूरा सुखी हो जाये या उसकी सभी समसयाओं का सदा के

िलए समाधान हो जाये यह संभव ही नहीं है । सभी समसयाएँ तो तभी हल हो सकती है िक जब उनसे अपने पथ ृ कतव को जान िलया जाये।

दशन ा शास की एक बडी सूकम बात है िक जो 'इदं ' है वह 'अहं ' नह ीं हो सकता। जैसे यह िकताब है तो इसका तातपया यह है िक मै िकताब नहीं हूँ। इसी पकार यह

रमाल है ... तो मै रमाल नहीं। यह हाथ...... तो मै हाथ नहीं। यह िसर... तो मै िसर नहीं। मेरा पेट दःुखता है .... तो मै पेट नहीं। मेरा हदय दःुखी है ... तो मै हदय नहीं। मेरा मन चंचल है .... तो मै

मन नहीं। मेरी बुिि ने बिढया िनणय ा िदया.... तो मै बुिि नहीं। इससे यही िसि होता है िक आप इन सबसे पथ ृ क हो।

यिद इस पथ ृ कतव को नहीं जाना और अषधा पकृ ित के शरीर को मै और मेरा मानते रहे

तो चाहे िकतनी भी उपलिबधयाँ हो जाये ििर भी मन मे और पाने की, और जानने की इचछा

बनी रहे गी एवं िमली हुई चीजे छूट न जाये इस बात का भय बना रहे गा। पथ ृ कतव को यिद ठीक से जान िलया तो ििर आपका अनुभव एवं शीकृ षण का अनुभव एक हो जायगा।अनुकम

एक होती अिवदा तथा दस ू री होती है िवदा। अिवदा अिवदमान वसतुओं मे सतयबुिि

करवा कर जीव को भटकाती है । अपरा पकृ ित के िखलौनो मे जीव उलझ जाता है । जैसे बालक

िमटटी के आम, सेविल आिद से रस लेने की कोिशश करता है एवं छीन िलए जाने पर रोता भी है िकनतु यिद माँ नकली िखलौने की जगह असली आम बालक के होठो पर रख दे ती है तो वह

अपने आप नकली आम को छोड दे ता है । नकली िखलौना रस नहीं दे ता िकनतु तब तक अचछा लगता है जब तक नकली को नकली नहीं जाना। नकली को नकली तभी जान सकते है जब असली का सवाद िमलता है ।

जब असली का सवाद आता है , परा पकृ ित को जरा सा पसाद िमलता है , अपने सहज

सवाभािवक आतमसवरप की समिृत आ जाती है तो बाहर की तू.. तू.. मै.. मै... यह भोगना है ... यह पाना है .. ये सब िीके हो जाते है । असली को अगर ठीक से जान िलया तो नकली को आकषण ा

से िपणड छूट जाता है । असली सुख (ईशरीय सुख) को पा ले तो नकली (िवकारी सुख) का पभाव समाि हो जाता है । ििर जीवातमा िवकारी सुख मे रहता हुआ भले िदखे िकनतु वह होता अपने आप मे ही है ।

उठ त ब ैठत वही उटान े।

कहत कबीर हम उ

सी िठकान े।

वासतव मे दे खा जाये तो जीवमात का शुि सवरप परमातमा ही है लेिकन िनकृ ष (अपरा)

पकृ ित के साथ तादातमय करके जीव अपना सवरप भूल जाता है ।

भूलया ज भी आ पनूँ त भी हु आ खराब।

जो जीव अपरा पकृ ित मे उलझे हुए है वे नहीं जानते लेिकन परा का आशय लेकर जो

परबह मे जगे है ऐसे महापुरष जानते है िक सारी पकृ ित उसी परमातमा का िवसतार है । ऐसे भगवतपाि महापुरषो का संग एवं साधन-भजन ईशरपािि मे बडी मदद करते है ।

जीव अगर साधन भजन छोड दे तो शरीर तो बना है पंचमहाभूत एवं मन, बुिि तथा

अहं कार इस िनकृ ष पकृ ित से। अतः वह जीव को िनकृ ष की तरि, िवषय-िवकारो की तरि ही घसीटकर ले जायेगा। लेिकन जान के दारा, पुणय के दारा, समझ के दारा िनकृ ष शरीर मे होते हुए भी शष े आतमा का अनुभव िकया जा सकता है । असत ्-जड-दःुखरप शरीर मे होते हुए भी सत ्िचत ्-आननदसवरप ईशर का अनुभव िकया जा सकता है । मरणधमाा मानव शरीर मे अमर आतमा का दीदार िकया जा सकता है ।

ये परा और अपरा दोनो पकृ ित मे सता भगवान की, चेतना भगवान की, आनंद भगवान

का, माधुया भगवान का है । यही कारण है िक आपको आनंद एवं माधुया का अनुभव होता है ।

आप भगवान के साथ उठते हो, भगवान के साथ बैठते हो, भगवान के साथ सोते हो, भगवान के

साथ खाते-पीते हो लेिकन यह भगवान है ऐसा पता नहीं है । यही िनकृ ष पकृ ित का, अपरा पकृ ित का सवभाव है ।अनुकम

जीवभ ूत ां महाबाहो ..... जो चैतनय तो जीव बना दे ती है , वह मेरी परा पकृ ित है । वही परा

पकृ ित समपूणा जगत को धारण करती है । अनयथा वह जीवातमा वासतव मे तो परमातमा का अिभनन अंग है । जीवातमा

स ो परमातमा।

भगवान शी कृ षण ने भी कहा है ः

ममैव ांशो जीव लोके जीव भूतः सनातनः

जीवभाव पैदा कराने वाली जो पकृ ित है , उसे जीवभूता कहते है और दे ह को 'मै' मानकर भोग मे रिच पैदा करती है वह अपरा पकृ ित है । भगवान को जानकर भगवान मे िमल जाऊँ, यह परा पकृ ित का सवभाव है जबिक धन कमा लूँ... ऐसा बन जाऊँ... वैसा बन जाऊँ... यह अपरा पकृ ित का सवभाव है ।

जीवन मे कभी अपरा पकृ ित का जोर लगता है तो कभी परा पकृ ित का। हम जब सतसंग

मे होते है तो लगता है िक यह परमातमावाला रासता ठीक है , लेिकन जब संसार मे जाते है तो लगता है िक यह भी तो करना चािहए। यह अपरा पकृ ित का पभाव है ।

इस अपरा पकृ ित से बचने के िलए कोई िनयम ले लेना चािहए िक इतना जप तो करना

ही है । अपरा पकृ ित को िमटाने के िलए कमय ा ोग करो। दस ू रो को सुख दे ने के िलए करो। भोगो

की इचछा कमय ा ोग करने से िमटती है और परमातमा को जानने की इचछा, िजजासा जानयोग से

पूरी होती है । इस पकार जानयोग एवं कमय ा ोग का आशय लेकर अपरा पकृ ित के पभाव से अपने को छुडा लो एवं परा पकृ ित को सहयोग दो। एक कलपित दषांत दे ता हूँ-

दो भाई नमद ा ा िकनारे नहाने के िलए गये। बडा भाई नहाकर िनकल गया। छोटा भाई

नहाने के िलए 2-4 कदम आगे चला गया। इतने मे मगर ने उसका पैर पकड िलया। पानी मे मगर का जोर जयादा होता है । वह छोटे भाई को घसीटने लगा।। यह दे खकर बडा भाई पानी मे गया एवं छोटे भाई का हाथ पकडकर उसे िकनारे की ओर खींचने लगा। अब छोटा भाई िकधर जायेगा? मगर की ओर जायेगा िक बडे भाई की ओर? िजधर वह सवयं जोर लगायेगा उधर की

तरि उसे सहयोग िमलेगा। ऐसे ही बडा भाई है परा पकृ ित एवं मगर है अपरा पकृ ित। जीव है बीच मे। वह कभी सतसंग की तरि, योग की तरि िखंचता है और कभी भोग उसे अपनी ओर खींचते है । अब जीव सवयं िजस ओर पुरषाथा करता है , वहीं से उसे सहयोग िमलता है । भगवान कहते है - िभ नना प कृितरष धा।

जैसे दध ू और दध ू की सिेदी, तेल और तेल की

िचकनाहट अिभनन है , वैसा ही परमातमा और परमातमा की पकृ ित अिभनन है । जैसे आकाश मे बादल एवं बादलो मे आकाश है िकनतु बादलो के िमटने से आकाश नहीं िमटता, वह तो अपनी

मिहमा मे िसथत रहता है । ऐसे ही भगवान की पकृ ित बदलती रहती है , ििर भी भगवान का कुछ बनता-िबगडता नहीं है ।

पकृ ित भगवान की सता के िबना काया नहीं कर सकती और पकृ ित के िबना भगवान की

सता का खेल िदख नहीं सकता। जैसे पावर हाउस से आने वाले तारो मे िवदतु होती है लेिकन िवदुत िदखती नहीं है । वह तो बलब आिद साधनो दारा ही िदखती है िकनतु बलब आिद के टू ट

जाने से पावर हाउस का कुछ बनता िबगडता नहीं है । ऐसे ही भगवान की सता सबमे ओत-पोत है , लेिकन िदखती और काया करती है पकृ ित दारा। ििर भी पकृ ित के बनने िबगडने से भगवान का कुछ बनता-िबगडता नहीं है ।अनुकम

पकृ ित अथात ा ् सवभाव। जैसे पुरष एवं पुरष की शिक अिभनन है , वैसे ही परमातमा और

परमातमा की माया अिभनन है । यह अषधा पकृ ित परमातम-चेतना से अिभनन है । िकनतु जैसे

पकाश मे पिरवतन ा होने से सूया मे पिरवतन ा नहीं होता, वैसे ही अषधा पकृ ित मे पिरवतन ा होने से सूया मे पिरवतन ा नहीं होता, वैसे ही अषधा पकृ ित मे पिरवतन ा होने से परमातमा मे, आतमा मे कोई पिरवतन ा नहीं होता।

लेिकन होता कया है िक इस अषधा पकृ ित से बने शरीर मे, मन मे आनेवाले सुख-दःुख,

िचनता-भय, मान-अपमान आिद के साथ मानव जुड जाता है एवं सुखी-दःुखी होता रहता है । सुखदःुख को, िचनता-भय को, मान-अपमान को अषधा पकृ ित मे होनेवाला मानकर एवं उससे अपने

को पथ ृ क जानकर मुक हो जाना, यही मानव की सबसे बडी उपलिबध है । यह ऐसी उपलिबध जहाँ जगत के सारे सुख-दःुख तुचछ हो जाते है । इस उपलिबध को पाना आसान भी है िकनतु पाने की िजजासा है तो बताने वाले नहीं है तो उपलिबध के महतव का पता नहीं चलता।

जैसे तरं ग पानी से िभनन नहीं, पानी तरं ग से िभनन नहीं, ऐसे ही सचमुच मे जीवातमा

परमातमा से िभनन नहीं है । जो जीवातमा यह नहीं जानता, वह संसार मे उलझ जाता है एवं जो जान लेता है , वह परमातमा मे िटक जाता है । वाणी से उसका वणन ा करना संभव नहीं। वह तो

अनुभव की चीज है । जो एक बार भी परमातमा से अपनी अिभननता जान लेता है , वह मुकातमा हो जाता है िकनतु उसके िलए तडप होनी चािहए। िजतनी तडप तीव, उतना काम जलदी। अनयथा, उसके िसवा जो भी काम बना, सब िनकममा है ।

नरिसंह मेहता के ये वचन ििर से याद करने जैसे है -

जया ं लगी आत मा ततव च ीनयो नही ं तया ं ल गी स ाधना स वा झूठी।

अतः अपने परमातम-सवभाव को जानने की तडप जगाओ। कुछ समय पिवत एकांत

वातावरण मे रहा करो। वषा मे कुछ महीन पभु-पािि के िलए, सतत अभयास के िलए िनकालना बुििमानी है और पूरी िजनदगी संसार मे खपा दे ना योगय नहीं है । पभु करे िक पभु का अनुभव अपना अनुभव हो जाये।अनुकम

ऐसे िदन कब आयेगे िक परमातम-पािि के िलए हमारे हदय मे तडप जाग जाय....! ॐ......ॐ..... शांित...

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

पर मातमा हमार े साथ होत े ह ु ए भी द ु ःखी क यो ?

शीमद भगवद गीता के सातवे अधयाय के छठे एवं सातवे शोग मे आता है ः एतदोनीिन भ ूतािन सवा ा णीतय ुपधारय।

अहं कृतसनसय

ज गत ः पभव ः पलयसतथा।।

मतः परतर ं नानयितक ं िचद िसत धन ं जय।

मिय सव ा िमद ं पोत ं स ूत े मिण गणा इ व।। 'हे अजुन ा तू ऐसा समझ िक संपूणा भूत इन दोनो पकृ ितयो (परा-अपरा) से उतपनन होने

वाले है और मै संपूणा जगत की उतपित तथा पलयरप हूँ अथात ा ् संपूणा जगत का मूल कारण हूँ। हे धनंजय ! मुझसे िभनन दस ू रा कोई भी परम कारण नहीं है । यह समपूणा जगत सूत मे

मिणयो के सदश मुझमे गुथ ँ ा हुआ है ।'

(गीताः

7.6,7)

भगवान की दो पकृ ितयाँ है परा और अपरा। परा पकृ ित जीवरपा है तथा अपरा पकृ ित पंचमहाभूतरपा है ।

हमारे शरीर मे भी दो पकृ ितयाँ है - एक सथूल, दस ू री सूकम। हमारे सथूल शरीर को चलाने

वाली है सूकम पकृ ित। इन सथूल एवं सूकम दोनो को सता दे ने वाला जो चैतनय है , वही वासतव

मे हमारा सवरप है । िकनतु इस ततव को न जानने के कारण एवं दे ह को मै मानने के कारण ही हम मानने लगते है िक 'भगवान कुछ और है , कहीं और है एवं हम कहीं और है ।' जब अपरा

पकृ ित के साथ हम तादातमय कर लेते है तो अपने को खो दे ते है । एवं अपरा पकृ ित के रोग, अपरा पकृ ित के बनने-िबगडने आिद पिरवतन ा ो को अपने मे आरोिपत कर दे ते है ।

परा और अपरा – चैतनय की इन दो पकार की शिकयो से ही सारे जगत की उतपित और

पलय होता है । ये दोनो पकृ ितयाँ परमातमा की ही है । तभी तो शी कृ षण कहते है - "मै संपूणा

जगत की उतपित तथा पलयरप हूँ।" इसी पकार अगर साधक अभयास करे िक 'सथूल, सूकम और कारण इन तीनो दे हो को सता दे ने वाला मै साकी दषा हूँ' तो वह भी वहीं पहुँच सकता है जहाँ शी कृ षण है ।

शीकृ षण इस रप मे उपदे श नहीं दे ते िक 'मै भगवान हूँ और तुम कोई ओर हो।' नहीं नहीं,

ऐसी भांित मे न पड जाओ इसीिलए दस ू रे शोक मे कहते है िक 'हे धनंजय ! मेरे िसवाय दस ू रा कुछ नहीं है । जैसे, सूत मे मिणयाँ िपरोई होती है ऐसे ही सारे जगत मे ओत-पोत हूँ।'

िजन शिकयो से यह समपूणा जगत दिषगोचर हो रहा है वे शिकयाँ भी उसी चैतनय ततव

परमातमा की है और वे परमातमा से अिभनन है । शिक कभी शिकमान से िभनन नहीं हो सकती। जैसे पुरष की कायश ा िक पुरष से अलग नहीं हो सकती ऐसे ही जहाँ चैतनय है वहाँ उसकी

शिकयाँ है और जहाँ शिकयाँ है वहाँ चैतनय की चेतना भी होती है । शिक िजससे पगट होती है , िजसके आधार से िटकती है और िजसमे लीन होती है वहाँ तक जो पहुँच पाता है वह अपने चैतनय ततव तक, शीकृ षण-ततव तक पहुँचने मे भी सिल हो जाता है ।अनुकम

आपकी सता के आधार पर शरीर होता है , शरीर की सता के आधार पर आप नहीं होते।

आपसे अनेको शरीर उतपनन हो-होकर िमट गये लेिकन शरीरो से आप कभी नहीं हुए। ििर भी शरीर के साथ अपनापन मान लेते हो, शरीर के साथ तादातमय करते हो तो अपने-आपको भूल जाते हो। ििर शरीर की उतपित को अपनी उतपित मान लेते हो। शरीर के काले-गोरे पन को

अपना काला-गोरापन मान लेते हो। शरीर के मोटे पन को अपना मोटापन मान लेते हो। शरीर के सुख दःुख को अपना सुख-दःुख मान लेते हो और शरीर की मतृयु को अपनी मतृयु मान लेते हो।

कयो? कयोिक अपने को, अपने वासतिवक सवरप को जानते नहीं हो और अपनी ही सिुरणा से जो उतपनन हुआ है उसके साथ जुड जाते हो।

यह शरीर पंचभौितक है । यह परा-अपरा पकृ ित से चलता है और परा-अपरा पकृ ित मे

पिरवतन ा होता रहता है । िकनतु इन सारे पिरवतन ा ो को जो दे खने वाला है वह अपिरवतन ा शील है , वही आतमा है और जो आतमा है वही परबह परमातमा है । शीकृ षण कहते है - मतः परतर ं नानयत। ्

'मेरे अलावा मेरे से अलग और कुछ भी नहीं

है ।' शीकृ षण यह बात भी ततव को लकय मे रखकर कह रहे है । जैसे गुलाब, गेदा, नारं गी, सेविल आिद सभी वसतुएँ अलग-अलग िदखती है । उनके नाम अलग, उनके गुण अलग, उनके रं ग अलग, उनके आकार अलग, उनके सवाद भी अलग.... िकनतु ततव से दे खा जाये तो सब एक ही है

कयोिक सबका िनमाण ा हुआ है पथ ृ वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँचमहाभूतो से ही। इस

पकार ततवरप से तो सब पाँच भूत ही है । पंचमहाभूतो का सार है महततव। महततव का सार है पकृ ित और पकृ ित का सार है परबह परमातमा। अतः दे खा जाये तो कोई भी वसतु शीकृ षण ततव से िभनन नहीं है ।

जब िूल-पते, िलािद भी शीकृ षणततव से िभनन नहीं है तो आप शीकृ षणततव से अलग

कैसे हो सकते हो? िकनतु आप अपने को शीकृ षणततव से अलग मान बैठे हो कयोिक आप पकृ ित की बहने वाली वसतुओं को सदै व एक जैसा दे खने की आदत रखते हो। तभी लगता है िक अरे ! शीकृ षण तो भगवान है , आननदसवरप है लेिकन मै दःुखी हूँ.... मेरा यह हो गया... वह हो गया... वासतव मे आपका कुछ नहीं हुआ। जो कुछ भी हुआ वह पिरवतन ा शील पकृ ित का हुआ। परा-

अपरा पकृ ित मे ही सब पिरवतन ा होते रहते है । उन पिरवतन ा ो को सता दे ने वाला अपिरवतन ा ीय चैतनय है । जो शीकृ षण की आतमा है वही आपकी आतमा है ।

शरीर चाहे शीराम का हो या शीकृ षण का, बुि का हो या कबीर का, चाहे आपका हो... शरीर

तो पिरवतन ा शील ही िदखेगा लेिकन इस शरीर की पिरवतन ा शील अवसथा को दे खने वाला जो

अपिरवतन ा शील आतमा है वह आतमा मै हूँ – ऐसा जो िचनतन करता है वह दे र सबेर आतमजान को पाि करके मुक हो जाता है । िकनतु बदलने वाली दे ह के िलए साधन-सामिगयो को जुटाकर, दे ह की सुिवधाओं को बढाकर, दे ह के दारा रस लेकर जो रसीला होना चाहता है उसके जीवन मे गहरा रस नहीं िमलेगा और रससवरप परमातमा को पाने मे भी सिल नहीं हो सकेगा।अनुकम

ईशर-पािि मे सबसे बडी रकावट यही है िक हम कुछ बदलकर, कुछ बनाकर, कुछ पाकर

और कुछ छोडकर सुखी होना चाहते है । अगर कुछ पाकर सुखी होते हो तो जो पहले नहीं िमला था, वह अभी िमला है और जो िमला है वह सदा आपका रहे गा नहीं। कुछ छोडकर यिद सुखी

होते हो तो आप जो छोडोगे वह आप नहीं होगे। जो आपसे अलग होगा उसी को आप छोडोगे।

इस पकार आपसे जो दरू होगा उसी को आप पाओगे। तो कया चैतनय परमातमा आपसे अलग है जो आप उसे पाने का पयास करोगे?

हम कुछ बदलाहट करके पाना चाहते है जबिक बदलाहट करके अपने आपको कभी नहीं

पाया जाता और खोया नहीं जाता। अगर अपने आपको छोडकर कुछ भी पाओगे या खोओगे तो वह पाने और खोने की िसिा कलपना ही होगी। सब इधर पाँच भूतो के अनदर ही होगा। कुछ पाओगे तो पाँच भूतो का ही पाओगे और कुछ खोओगे तो वह भी पाँच भूतो का ही खोओगे।

एक तण ृ का भी नाश नहीं होता और एक तण ृ भी नया नहीं बन सकता। बनता िबगडता

िदखता जरर है िकनतु वासतव मे न कुछ बनता है , न िबगडता है वरन ् पिरवितत ा होता है । जैसे,

कुमहार िमटटी से घडे बनाता है , िमटटी को नहीं बनाता। इसी पकार पथ ृ वी, जल, तेज, वायु, आकाश ये िकसी के बनाये हुए नहीं है वरन ् उस चैतनय की ही दो शिकयाँ है परा और अपरा। परा और

अपरा शिकयो से ही सब बनता और रपानतिरत होता िदखता है , कुछ भी नष नहीं होता। िकनतु इस रपानतरण के बीच भी जो अरपानतिरत रहने वाला ततव है , उसे अगर जान िलया जाये तो वयिक समसत वयवहार करते हुए भी उनसे अिलित नहीं रह सकता है ।

भगवान कहते है - 'हे अजुन ा ! तू ऐसा समझ िक संपूणा भूत इन दोनो पकृ ितयो से ही

उतपनन होनेवाले है तथा मै संपूणा जगत का पभाव (उतपित) तथा पलयरप हूँ अथात ा ् संपूणा

जगत का मूल कारण हूँ।' जैसे, लहरो की उतपित एवं िवनाश का कारण सागर है । सागर से ही तरं गे उठती है एवं सागर मे ही पुनः लीन हो जाती है । ऐसे ही आपका यह पाँचभौितक शरीर

पंचमहाभूतरपी सागर मे उतपनन होता है और ििर उसी मे लीन हो जाता है । नानक जी ने कहा है ः

जो जाह ू ते उपजा लीन तािह म

जैसा सवपना

े जान।

रैन का त ैसा यह स ं सार।।

राित के सवपन मे आप पिरवार, मकान-दक ु ान सब बना लेते हो। मकान दक ु ान जड है और

पुत-पिरवार चेतन है , ििर भी दोनो बने तो आपके ही शुि चैतनय से ही है । परा-अपरा पकृ ित से

दो िदखते है लेिकन दोनो की सता तो एक ही है । शरीर मे ही बाल-नाखून आिद कुछ जड िहससा है , बाकी चेतन िहससा है लेिकन जब शुि चैतनय का संबध ं टू ट जाता है तो बाकी िदखने वाला

चेतन िहससा, हाथ-पैरािद भी जड हो जाता है । जब तक आपकी चेतना का संबध ं शरीर के साथ रहता है , तब तक आप अपने को चेतन मानते हो और संबंध टू ट जाने पर जड मान लेते हो। हकीकत मे तो जड और चेतन दो नहीं है एक ही ततव के रपानतरण है . अनुकम

सागर का पानी वाषपीभूत होकर बादल बनता है एवं पुनः बरसकर कहीं गंगा तो कहीं

यमुना, कहीं गोदावरी तो कहीं नमद ा ा के रप मे पूजा जाता है । ििर उन निदयो का जल पुनः

सागर मे िह िमल जाता है । जैसे, निदयाँ सागर से ही उतपनन होकर पुनः उसी मे लीन हो जाती

है ऐसे ही पाँच भूत का उतपितसथान भी परमातमा से है और लीन भी उसी मे होना है तो अब भी तो हम उसी मे है । बस जररत है उसे जान लेने की।

यह सारा संसार केवल रपांतरण ही तो है । घास से मांस और मांस से घास बन जाता है ।

आप शाक भाजी खाते हो तो वह कया है ? घास ही तो है । और रोटी? रोटी भी तो घास मे से ही बनती है । गेहूँ घास से ही तो होता है । अरे बाबा ! अगर आप घास न खाओ तो आपका शरीर

दब ा हो जाएगा और बुिि भी सहयोग नहीं दे गी। आप जो यह घास खाते हो उससे तीन चीजे ु ल

बनती है - पहला सथूल भाग जो मल-मूत के दारा शरीर से बाहर िनकल जाता है । दस ू रे भाग से रस-रकािद बनता है और सूकम भाग से मन बुिि का िसंचन होता है । इस पकार घास से ही मांस बनता है । घास से ही मन-बुिि बनती है । घास से ही नेता, जनता, सी, पुरष और अनय

पािणयो की उतपित होती है । इस पकार सब िदखता िभनन-िभनन है िकनतु है सब पाँच महाभूतो का ही िमशण।

इन पाँच भूतो को सता दे ती है पकृ ित और यह पकृ ित ही परा और अपरा दो शिक के

रप मे काया करती है । सथूल रप मे काया करती है वह है अपरा पकृ ित और सूकम रप मे काया करती है वह है परा पकृ ित। जैसे, गाडी का ढाँचा भी लोहे का होता है तथा इं जन भी लोहे का ही होता है । एक लोहा दस ू रे लोहे को चलाता है । केवल गाडी का ढाँचा हो तो गाडी नहीं चल सकती

और केवल इं जन हो तो भी गाडी नहीं चल सकती। इसी पकार जब सथूल जगत एवं सूकम जगत का साथ होता है एवं परमातमा की सता होती है तभी इसमे सारे काया-वयवहार िदखते है लेिकन ििर दोनो जगत पुनः उसी परमातमा मे लीन हो जाते है ।

एक बार िकसी भक ने भिक की। उसकी दढ भावना थी िक भगवान साकार रप मे दशन ा

दे और मै उनसे बातचीत कर सकूँ। भिक करते -करते उसके समक एक बार भगवान साकार रप लेकर आ गये और बोलेः

"वरं ब ूयात।् ' वर माँग।

भकः "वरदान कया माँगूँ? मुझे तो असली ततव का जान दे दो। जो सबसे बिढया हो वह दे दो।"

भगवानः "बिढया से बिढया है आतमजान। मेरे दशन ा का परम िल भी यही है िक जीव

अपने सवरप का जान, आतमजान पा ले।

मम दरसन िल परम अन

जीव पाविह

ूपा।

िनज सहज स रपा।।

मेरे दशन ा का यही अनुपम िल है िक जीव अपने सहज सवरप को पा ले।" भकः "मेरा सहज सवरप कया है ?" भगवानः

"मेरा सहज सवरप है , वही तुमहारा है ।"अनुकम

भकः "भगवान भगवान ! आप तो सिृष की उतपित कर लेते हो, पालन करते हो और पलय करते हो। हम तो कुछ नहीं कर सकते तो आप और हम एक कैसे हुए?"

भगवानः "तुमहारा यह साधारण शरीर और मेरा यह मायािविशष सवरप इन दोनो को

छोड दो। बाकी जो तुम चैतनय हो वही मै हूँ और िजसकी सता से मेरी आँखे दे खती है उसी की सता से ही तुमहारी आँखे भी दे खती है ।"

भकः "भगवान ! आप तो सवश ा िकमान है और हममे तो कोई शिक नहीं है । ििर आप

और हम एक कैसे? आप तो सिृष बना सकते है लेिक हम नहीं बना सकते?" भगवानः

"अचछा ! आज के बाद जागत की सिृष का संकलप मै करँगा तब जागत की

सिृष बनेगी और सवपन की सिृष तुम बनाओगे।"

तब से इस जीव को सवपन आने लगे। जैसे सवपन मे सब बनाकर भी आप उससे अलग

रहते हो वैसे ही जागत मे सब दे खते हुए भी आप सबसे अलग, सबसे नयारे हो। जैसे सवपन से उठने पर पता चलता है िक 'सब आपका िखलवाड ही था' ऐसे ही यह जगत भी वासतव मे

आपके चैतनय का ही रपानतरण है । यह अगर समझ मे आ जाये तो महाराज ! ऑििसर के रप मे मै ही आदे श दे रहा हूँ और कायक ा ताा के रप मे मै ही आदे श मान रहा हूँ। धनवानो मे भी मै ही हूँ और सतावानो मे भी मै ही हूँ....' इस पकार का अनुभव हो जायेगा। अगर यह अनुभव हो गया तो बहलोक तक के जीवो मे भी जो उचच पद है उन सब पदो का भोग बहवेता एक ही साथ भोग लेते है । आपका शरीर सब भोग एक साथ नहीं भोग सकता लेिकन सबके शरीर मे आप ही हो। यह अनुभव हो जाए तो सब भोग आप ही तो भोग रहे हो। ऐसी अभेद दिष आ

जाये तो आपके ऊपर कुि होने वाले वयिक का कोध भी पेम मे पिरणत हो जाए ऐसी शिक है जान मे।

हिर बाबा नामक एक उचच कोिट के संत हो गये है । िकसी ने उनसे पूछाः "बाबा ! आप ऐसे महान ् संत कैसे बने?"

हिरबाबाः "एक बार बचपन मे मै िगलली-डं डा खेल रहा था। उस समय हमारे पास एक साधु बाबा आये। उनके पास एक झोले मे िभका थी। िभका की सुगनध से आकिषत ा होकर एक कुता उनके पीछे पूछ ँ िहलाता आ रहा था। बाबा उस झोले को एक ओर टाँग कर हमारे साथ

खेलने लगे िकनतु कुता झोली की ओर दे खकर पूँछ िहलाये जा रहा था। तब बाबा ने कुते कहा कहाः "आज तो िभका थोडी ही िमली है । तू िकसी ओर जगह से माँगकर खा ले।" ििर भी कुता खडा रहा। तब पुनः बाबा ने कहाः "जा, यहाँ कयो खडा है ? कयो पूँछ िहला रहा है ?"

तीन-चार बार बाबा ने कुते से कहा िकनतु कुता गया नहीं। तब बाबा आ गये अपने

बाबापने मे और बोलेः

"जा, उलटे पैर लौट जा।"अनुकम

तब वह कुता उलटे पैर लौटने लगा। यह दे खकर हम लोग दं ग रह गये। मैने बाबा से पूछाः

"बाबा ! यह कया कुता उलटे पैर लौट रहा है ? आपके पास ऐसा कौन-सा मंत है िक वह

ऐसे चल रहा है ?"

बाबाः "हमारे गुरदे व ने हमे तो यही मंत िदया है िक सब म े ए क... एक म े स ब....।" इसी बात को शी कृ षण इस रप मे कहते है -

एतदोनीिन भ ूतािन सवा ा णीतय ुपधारय।

अहं कृतसनसय

ज गत ः पभव ः पलयसतथा।।

'संपूणा भूत इन दोनो पकृ ितयो (परा-अपरा) से ही उतपित वाले है और मै संपूणा जगत का पभव तथा पलय रप हूँ अथात ा ् संपूणा जगत का मूल कारण हूँ।'

मतः परतर ं नानयितक ं िचद िसत धन ं जय।

मिय सव ा िमद ं पोत ं स ूत े मिण गणा इ व।।

'हे धनंजय ! मेरे िसवाय िकंिचत ् मात भी दस ू री वसतु नहीं है । यह संपूणा जगत सूत मे

मिणयो के सदश मुझमे गुथ ँ ा हुआ है ।"

(गीताः 7.6,7) इन दोनो शोको से यह सपष होता है िक परमातमा सवत ा , सदा, सबमे पूणा है । परमातमा

पूणा होते हुए भी, सदा होते हुए भी, हमारे साथ होते हुए भी पता न चलने के कारण हम सुख से िबछुडे हुए है ।

मान लो, हम कभी जंगल मे भटक जाएँ और कोई राजा आकर हमारा हाथ पकडकर हमे

मागा बताने लगे िकनतु जब तक हम उस राजा को नहीं जानते तब तक उसकी मुलाकात का

गौरव हमे नहीं होता। ऐसे ही जब हम संसाररपी जंगल मे उलझ जाते है और पभु से पाथन ा ा करते है िक 'हे पभु ! अब तू ही हमे सही मागा बता। तब वह पभु हमे पेिरत करके सही मागा पर लगाता है िकनतु उसका पता न होने के कारण हम उसके सािननधय के गौरव का अनुभव नहीं

कर पाते। अगर ततव से एक बार भी उसको जान ले तो ििर िबछुडने का दभ ु ागाय नहीं होता है । मन का सवभाव है िक अगर उसको एक बार भी परमातमा का रस िमल जाये तो ििर

वह संसार का रस छोड दे गा और अगर संसार का रस छोड दे तो ििर परमातमा का रस आने लगेगा। हम चाहते है िक जगत का रस, जगत के पद-पितषा का रस बना रहे और आतमा का रस भी जान ले।अनुकम

एक कथा है ः एक बार चींिटयो की जमाते इकटठी हुई। एक जमात वाली चींटी दस ू री

जमात की चींटी से कहने लगीः "हम तो बडे मजे से शककर के पहाड पर जीते है । चलो शककर

पर... खाओ शककर.... रहो शककर पर..." तब नमक के पहाड पर रहने वाली चींटी ने कहाः "शककर कहाँ है ? यहाँ

नमक ही नमक है ।"

तब शककर के पहाड वाली चींटी बोलीः "चलो हमारे साथ।"

ऐसा कहकर वह शककर वाली चींटी उस नमक वाली चींटी को अपने साथ शककर के पहाड पर ले गयी। तब नमकवाली चींटी बोलीः

"तुम को बडी बडाई हाँक रही थी िक बडी िमठास है , बडी मधुरता है .... यहाँ तो कोई

मधुरता नहीं है ।"

शककर वाली चींटी ने धयान से दे खा तो नमक के पहाडवाली चींटी के मुँह मे नमक की

छोटी-सी डली दे खी। तब वह बोलीः

"अरे ! मुँह मे तो नमक की डली रखी हुई है , ििर शककर की िमठास कहाँ से िमलेगी।?"

ऐसे ही हमारे िचत मे वासना, अहं कार, ममतािदरपी नमक की डली भरी हुई है तो ििर

परमातमरपी शककर का रस कैसे िमले? परमातमरसरपी शककर की िमठास का अनुभव तो तभी

हो सकता है जब संसाररपी नमक की डली के आकषण ा और वासना को छोड िदया जाये। िकनतु होता कया है ? "हे िसनेमा ! तू सुख दे ... हे िेनटा ! तू सुख दे ... हे टी.वी. ! तू सुख दे .... हे रे िडयो ! तू

सुख दे ..." अरे ! सबको सुख का दान करने वाले आप िभखारी हुए जा रहे हो? आपमे तो इतना सुख है , इतना पेम है , इतनी शिक है , इतना आननद है िक आप संसार को भी आनंद दे सकते हो और परमातमा को भी खुश कर सकते हो। आप संसार से सुख लेने के िलए आये हो यह गलती

िनकाल दो, बस। आप कुछ करके, कुछ खाकर, कुछ पहनकर, कहीं जाकर, कुछ पाकर सुखी होगे यह भांित िनकाल दो और जहाँ हो वहीं अपने आतमसवरप मे जाग जाओ, बस। अगर आपने इतना कर िलया तो समझो िक सब कुछ कर िलया... सब कुछ पा िलया।अनुकम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

भगवान की िवभ ू ितया ँ रसोऽह मपस ु कौनत ेय पभा िसम श िशस ूय ा य ोः। पणवः स वा वेदेष ु शबद ः ख े पौरष ं न ृ षु।।

पुणयो गन धः प ृ िथवया ं च तेजशा िसम िवभावसौ। जीवन ं सव ा भूत ेष ु तपशा िसम तप िसवष ु।।

"हे अजुन ा ! जल मे मै रस हूँ। चंिमा और सूया मे पकाश मै हूँ। संपूणा वेदो मे मै पणव

(ॐ) हूँ। आकाश मे शबद और पुरषो मे पुरषतव मै हूँ।

पथ ृ वी मे पिवत गंध और अिगन मे मै तेज हूँ। संपूण ा भूतो मे मै जीवन हूँ अथात ा ् िजससे

वे जीते है वह ततव मै हूँ तथा तपिसवयो मे तप मै हूँ।" (गीताः

7.8,9)

जल मे जो रस वह रस परमातमा है । वैजािनक दिष से जल का िवशेषण करोगे तो हाइडोजन और ऑकसीजन – ये दो गैस िमलेगी। इन दो गैसो को िमलाने से रस उतपनन नहीं

होता िकनतु िवजान बाहर की आँखो से दे खना चाहता है और िवजान की आँख से जो िदखेगा वह दशय िदखेगा। दशय के भीतर जो अदशय रस है वह िवजान की आँख से नहीं िदखता। भीतर का

रस तो वे ही दे ख पाते है जो भीतर मे, गहराई मे जाते है । जैसे, दो िमत परसपर िमले। एक का हाथ दस ू रे के हाथ मे आया.... बडा आननद आया... बडा रस िमला। अगर आप िमत के हाथ को

लेबोरे टरी मे ले जाओ तो तवचा, मांस, रक, अिसथ के िसवा उसमे कुछ नहीं िमलेगा। ििर भी जब िमत का हाथ आपके हाथ मे आया तो रस िमला। तो कहना पडे गा िक रस भीतर होता है , बाहर नहीं। जो वासतिवक मे रस है वह इिनियो का िवषय नहीं है ।

भौितक िवजान तो इिनियो को जैसा िदखता है वैसा िनणय ा करता है और वेदानत तथा

योगदशन ा यानी आधयाितमक िवजान तो इिनियाँ िजससे दे खती है वह मन, मन को जो सता दे ता है वह िचत और िचत को जो चेतना दे ता है उसके तरि िवचारता है । भगवान कहते है - जल मे रस मै हूँ तो जल मे रस आया कहाँ से ? कैसे आया? परमातमा से ही आया। रस कब आता है ? जब भीतर रस होता है तब। अगर िकसी की िजहा मे सूखा रोग हो गया हो तो उसे रसगुलला

आिद िकसी भी पदाथ ा का रस नहीं आयेगा। िजहा को रस कब आता है ? जब वह अपने रस से रसीली होती है और िजहा का वह रस आता है जल मे छुपे हुए अतयंत सूकम रस के पभाव के ही कारण। इसीिलए भगवान कहते है - "जल मे रस मै हूँ।"

पभा िसम शिशस ूय ा योः। 'सूया-चनि मे तेज मै हूँ।' ऐसा कहने का तातपय ा कया है ? आँखो

से हमे पकाश िदखता है तो वासतव मे हम पकाश को नहीं दे खते िकनतु पकाश िजन वसतुओं

पर पडता है उन वसतुओं को दे खते है । पकाश वसतुओं पर पडता है तो रपानतिरत होता है और वह रपानतरण हमे िदखता है , वासतिवक पकाश नहीं िदखता। सूय ा और चनि का जो वासतिवक

पकाश है वही आपका-हमारा वासतिवक पकाश है और शीकृ षण इसी पकाश की ओर संकेत करते हुए कह रहे है िक 'सूया-चनि मे तेज मै हूँ।'

पणवः सवा वेदष ु। 'सब वेदो मे ॐकार मै हूँ।' वेद का कोई अंत नहीं है । वेद यानी जान।

जान का कोई अनत नहीं होता और िजसका अंत हो जाये वह जान नहीं होता। वेद की चार संिहताएँ है 1121 या 1127 उपिनषदे है । इन सब उपिनषदो का सार कठवलली है और कठवलली आिद सबका सार बीज रप मे 'ॐ' है । 'अ'कार + 'उ'कार + 'म'कार = ॐकार।अनुकम

कोई भी वयंजन 'अ'कार के िबना नहीं बोला जा सकता। यह 'अ'कार सिृष का सथूल

(िवश), 'उ' कार तेजस और 'म' कार पाज एवं ॐ की अधम ा ाता 'ँँ' है वह है चैतनय सूय ा का दोतक।

अभी तो रिशया के वैजािनक चिकत हो गये िक कोई भी आदमी भीतर कोई एक शबद

सोचे और बाहर दस ू रा शबद बोले तो दोनो अलग-अलग उनके कमपयूटर मे आ जाते है लेिकन

'ॐ'कार एक िवलकण शबद है । भीतर अगर 'ॐ' कार एवं बाहर दस ू रा शबद हो या बाहर 'ॐ' कार

और भीतर दस ू रा कोई शबद हो ििर भी दोनो जगह 'ॐ'कार ही आ जाता है । यह 'ॐ'कार शबद अनय सब शबदो से िबलकुल अलग पडता है और ऋिषयो ने इसकी आकृ ित भी िबलकुन िनराली बना दी है ।

ऐसा कोई भी मनत नहीं है िजसमे ॐ का उपयोग न िकया गया हो। िजसमे ॐ का

उपयोग नहीं है वह बीजमनत से रिहत होता है । यह ॐकार सबका बीज है , सबका मूल है । नवजात िशशु जब रोता है तब उसकी 'ऊँवां...ऊँवां...' आवाज मे ॐकार की धविन ही होती है । मरीज भी िबसतर पर कराहता है उसकी ॐऽऽऽऽऽ...ॐऽऽऽऽ आवाज मे ॐकार की ही धविन होती है । इससे िसि होता है िक आपका जो चैतनय आतमा है उसकी वासतिवक धविन ॐ है ।

िविभनन पिितयो से ॐकार के दारा अपनी साधना को संपनन िकया जा सकता है ।

आजाचक पर अथवा नािभ केनि पर ॐ की आकृ ित का धयान करके अथवा हदय मे उसकी भावना करते हुए धयान करके हम अपनी सुषुि शिकयो को िवकिसत कर सकते है ।

वैखरी वाणी दारा ॐ का उचचारण करते हुए मधयमा मे पहुँच जाओ। मधयमा से

पशयनती मे जाओ और पशयनती से अगर परा वाणी मे पहुँच जाओ तो अतयंत सूकम अवसथा को परम मौन को उपलबध हो सकते हो। वह परम मौन की जो अवसथा है उस अवसथा को पाये हुए वयिक के आगे इस लोक का तो कया, ितलोकी का राजय भी तुचछ हो जाता है । भगवान शंकर ने भैरव िवजान मे कहा है ः

''हे उमा ! इस ॐ को जो जानता है वह मेरे को जान लेता है । इस ॐ को जो समझ

लेता है वह मुझे समझ लेता है । इस ॐ को जो पा लेता है वह मुझे पा लेता है ।"

भगवान शी कृ षण आगे कहते है शबदः ख े। अथात ा ् आकाश मे शबद मै हूँ।

शबद मे बडी शिक है । शबद का नाश नहीं होता। मैने यहाँ शबद कहे और रे िडयो सटे शन के यंत हो तो मेरे दारा यहाँ कहे गये शबद हजारो मील दरू तक सुनायी पडते है । इस पकार

शबदो का नाश नहीं हुआ। वाणी से िनकले हुए शबद नष नहीं होते वरन ् आकाश मे गूज ँ ते रहते है । इसीिलए भगवान कहते है - शबदः ख े। आकाश मे जो शबद है वह मै हूँ।अनुकम

पौरष ं नृ षु। भगवान कहते है िक पुरषो मे पुरषतव मै हूँ। पुरष कौन है ? जो पुरषाथा करे

वह पुरष। पुरषाथा कया है ? पुरष सय अथा ः इित पुरषाथ ा ः। जो परबह परमातमा पुरष है उसको पाने के िलए जो पयत है उसको पुरषाथ ा बोलते है । भगवान कहते है िक ऐसा पुरषाथ ा करने वालो पुरषो मे पौरष मै हूँ।

पुरष वह है जो पुरषाथ ा करके 'है ' उसको ठीक से समझ ले। जो सदा मौजूद है और

िजसको पाने के बाद कुछ पाना नहीं, िजसको जानने के बाद कुछ जानना नहीं, िजसमे िसथर रहने के बाद बडे भारी दःुख भी चिलत न कर सके ऐसे ततव को पाना पुरषाथा है ।

लोग समझते है िक िजसके पास धन नहीं है , उसके िलए धन पाना पुरषाथ ा है । िजसके पास बाह पढाई-िलखाई नहीं उसके िलए पढाई-िलखाई पुरषाथ ा है । िजसके पास यश नहीं उसके

िलए यश पाना पुरषाथ ा है । इस पकार जो नहीं है उसको लाना, उसको पाना पुरषाथ ा मान िलया जाता है । जगत की िजतनी भी चीजे है वे पहले नहीं थीं , बाद मे नहीं रहे गी और अभी भी नहीं

के तरि जा रही है । जो नहीं की तरि जा रही है उन नशर वसतुओं, नशर सता, नशर पद को पाने का जो यत करता है उसको तो शासीय भाषा मे अजानी कहते है और जो शाशत ततव को जानकर िनहार होने को ततपर है उसको बोलते है पुरष। भगवान कहते है िक ऐसे पुरषो का पुरषतव मै हूँ।

इस पकार गीता के सातवे अधयाय के आठवे शोक मे भगवान कहते है िक जल मे रस,

चनिमा और सूया मे पकाश, संपूणा वेदो मे ॐकार, आकाश मे शबद एवं पुरषो मे पुरषतव मै हूँ। नौवे शोक मे भगवान आगे कहते है -

पुणयो ग ं धः प ृ िथवया ं च । 'पथ ृ वी मे पिवत गंध मै हूँ।'

पथ ृ वी मे पिवत गंध भी वह चैतनय सता है । यहाँ धयान दे ने योगय बात यह है िक भगवान ने पिवत गंध कहा है । सुगध ं नहीं कहा कयोिक सुगनध पिवत गंध हो यह जररी नहीं। कई ऐसी सुगंधे है जो कामवासना को भडकाती है । पेिरस आिद मे इस पकार की खोज करके इत

(परफयूमस) बनाये जाते है । िजनसे मनुषय की काम वासना उदीि हो, मनुषय संसार के कीचड मे िँसे। इसीिलए शीकृ षण ने सुगनध नहीं, वरन ् 'पिवत गंध' कहा है । तेजशा िसम िवभावसौ।

'अिगन मे तेज मै हूँ।' तेज रप तनमाता से उतपनन होकर उसी

मे लीन हो जाता है । अिगन मे से अगर तेज िनकाल िदया जाये तो अिगन बचे ही नहीं। यहाँ भगवान कहते है िक 'अिगन मे तेज मै हूँ।' जीवन ं स वा भूत ेष।

संपूण ा भूतो मे जीवन मै हूँ। पाणी मे उसको िजलाने वाली जो जीवनी-शिक है वह अगर

न रहे तो वह पाणी ििर पाणी नहीं रहे गा। ििर तो वह केवल शव रह जायेगा। अतः समसत

पािणयो मे अपनी चेतना का अिसततव बताते हुए भगवान कहते है िक संपूण ा भूतो मे मै उनका जीवन हूँ।अनुकम

अंत मे भगवान कहते है - तपशा िसम

तप िसवष ु। तपिसवयो मे मै तप हूँ। सुख-दःुख,

शीत-उषण, मान-अपमान आिद दनदो को सहन करने को तप कहते है । िकनतु वासतिवक तप तो है परमातम-पािि मे। चाहे िकतनी भी िवघन-बाधाएँ आये, उनकी परवाह न करते हुए अपने लकय मे डटे रहना।

यही तपिसवयो का तप है और इसी से वे तपसवी कहलाते है । इसी तप के िलए भगवान

संकेत करते हुए कहते है िक तपिसवयो का तप मै हूँ।

इस पकार उपरोक दोनो ही

शोको मे भगवान कहते है िक जल मे रस, सूया-चनि मे

पभा, वेदो मे पणव, आकाश मे शबद, पुरषो मे पुरषतव, पथ ृ वी मे गंध, अिगन मे तेज, संपूणा भूतो मे उनका जीवन तथा तपिसवयो मे तप मै हूँ। भगवान ने िजजासुओं के िलए अपनी सववायापकता

का बोध कराया है तािक िजजासु जहाँ-जहाँ नजर जाये, वहाँ भगवान की सता मानकर अपने वासतिवक सवरप का अनुभव करने मे कामयाव हो सके, वासतिवक कृ षण ततव का जान पा सके। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

कौन ब ुिि मान ह ै ? बीज ं मा ं सव ा भूताना ं िविि पाथ ा सनातनम। ् बुििब ुा िि मतामिसम

तेजसत ेज िसवनामहम। ् ।

'हे अजुन ा ! तू संपूण ा भूतो का सनातन बीज यानी कारण मुझे ही जान। मै बुििमानो की

बुिि और तेजिसवयो का तेज हूँ।'

(गीताः

7.10)

सब भूतो मे जो सनातन बीज है वह मै हूँ। बीज मे से पौधा और पौधे मे से वक ृ बन

जाता है । वक ृ मे पुनः बीज उतपनन होता है । जैसे , बीज मे से वक ृ और वक ृ मे बीज होता है वैसे

ही हम गहरी नींद मे सो जाते है तो बीजरप हो जाते है । सुषुिि अवसथा बीजावसथा है । सवपनावसथा पौधावसथा है और जागतावसथा वक ृ ावसथा है ।

इस पकार अवसथाएँ बदलती है - जागत..... सवपन....... और सुषुिि....। इनमे जो बीजरप

दषा है वह सनातन है और भगवान शीकृ षण कहते है - वही बीज मै हूँ। बीज ं म ां सव ा भूताना ं .....

जैसे शीकृ षण सनातन है वैसे ही आप भी सनातन हो इस बात को जान लो।अनुकम आगे भगवान शीकृ षण कहते है -

बुििब ुा िि मतामिसम । बुििमानो मे बुिि मै हूँ।

बुिि यानी कौन-सी बुिि? वकील की

बुिि? नहीं... शीकृ षण इस बुिि की बात नहीं कर रहे है । शीकृ षण बुििमान की बात कर रहे है , िवदान की नहीं। िवदान तो आप िकसी मूख ा वयिक को भी बना सकते है । तेजोहीन, बलहीन वयिक भी िवदान हो सकता है । िकनतु िवदान होना एक बात है और बुििमान होना दस ू री बात है । यह जररी नहीं िक बुििमान वयिक पढा-िलखा हो और िवदान वयिक बुििमान हो। कई लोग

िवदान होते हुए भी मूख ा होते है और कई लोग अिवदान होते हुए भी बुििमान होते है । शीरामकृ षण परमहं स, रमण महिष ा वगैरह बुििमान थे, िवदान नहीं थे और जो लोग बी.ए., एम. ए., पी.एच.डी करके, दार पीकर सडको पर लडखडा रहे हे वे लोग िवदान हो सकते है लेिकन बुििमान नहीं।

जगत मे िजतने भी दःुख है वे सब बुिि की कमजोरी से आते है । जहाँ -जहाँ अशांित, भय

कलह दे खो वहाँ-वहाँ समझ लेना िक बुिि की कमी है । बुिि के दोष से ही दःुख होता है । केवल सूचनाएँ एकितत कर लेना भी बुििमता नहीं है ।

एक राजकुमार था। वह िनतांत बुिु था। 8-9 साल का हो गया था ििर भी िनरा मूख।ा

वजीरो ने राजा से कहाः

"राजन ! जहाँ बुििमान लडके पढते है उस काशी िवशिवदालय मे राजकुमार के िनवास

की वयवसथा की जाये तो वह िवदान हो सकता है ।"

वजीरो की सलाह से ऐसा ही िकया गया और वह राजकुमार पढ-िलखकर िवदान हो गया।

नयाय, वैशेिषक, जयोितष आिद शास पढने के बाद उसने िपता को पत िलखाः "अब मै पढ िलखकर बुििमान हो गया हूँ।"

िपता पत पढकर खुश हो गये और उसे अपने पास बुला िलया। नगर के अचछे -अचछे

बुििमान सजजनो को आमंितत करके राजकुमार का सवागत समारोह रखा। उन सजजनो मे से एक बुजग ु ा सजजन ने राजकुमार से पूछाः

"राजकुमार ! सुना है आप बडे बुििमान हो गये हो। अचछी बात है ... अब यह बताओ िक

कया-कया पढ कर आये हो?"

राजकुमारः "नयायशास, वैशेिषक दशन ा वगैरह का अधययन िकया है । जयोितषशास का भी

अधययन िकया है एवं भिवषयवका भी हो गया हूँ।"

बातो-बातो मे उस बुजुग ा ने अपने हाथ की अँगूठी िनकाल कर मुटठी मे रख ली और

राजकुमार से कहाः है ?"

"अचछा ! आप भिवषयवका हो, जयोितष भी जानते हो तो बताओ िक मेरे हाथ मे कया राजकुमार ने अपना गिणत लगाया एवं कहाः

"आपके हाथ मे कुछ गोल-गोल है और उसके बीच मे सुराख है ।" बुजुगःा "ठीक है , आपने जो कहा वह सच है । अब यह भी बताओ िक िजसके बीच मे

सुराख है वह गोल-गोल चीज कया है ?"

राजकुमारः "यह बात मै जयोितष के आधार पर तो नहीं बता सकता िकनतु अपनी अकल

के आधार पर कहता हूँ िक वह पिहया होगा।"

अब हाथ मे पिहया कहाँ से आता? अनुकम

....तो यह हुई िवदता न िक बुििमता। िजस बुिि से आपके िचत मे िवशािनत नहीं आयी,

िजस बुिि से आपके भीतर का रस नहीं िमल पाया वह बुिि नहीं , िवदा नहीं, केवल सूचनाएँ है ।

बुिि तो राग दे ष से अपभािवत रहती है । सुख-दःुख से अपभािवत रहती है , मान-अपमान से

अपभािवत रहती है । बुििमान वह है जो आने वाले पसंगो को पचा ले, सुख-दःुख को पचा ले, िनंदा-सतुित को पचा ले, काम-कोध को पचा ले, अहं कार को पचा ले।

ऐसे एक बुििमान हो गये है महाराष मे। उनका नाम था शी एकनाथ जी महाराज। यह जररी नहीं है िक िकसी संत पुरष को सभी लोग आदर से ही दे खे। जहाँ आदर से

दे खने वाले होते है वहाँ अनादर से सोचने वाले भी होते है । कुछ लोगो ने सोचाः 'एकनाथ जी महाराज को कोध नहीं आता है । वे अकोधी है । चलो, उनको कोिधत करके उनकी बेइजजती करे ' उन लोगो ने 200 रपये का इनाम घोिषत िकयाः 'जो एकनाथ जी महाराज को कोिधत करके आयेगा उसे 200 रपये इनाम मे िमलेगे।'

पैठन जैसी जगह पर उस जमाने के 200 रपये ! अभी के दस हजार से भी जयादा ! कोई

बाहण कुमार 200 रपये कमाने के िलए यह काय ा करने को तैयार हो गया। काम तो किठन था, िकनतु 200 रपये की लालच ने उसे यह काया करने के िलए पेिरत िकया।

सुबह का समय था। एकनाथ जी महाराज अपने घर मे परमातम-ततव का िचनतन करते-

करते आतमारामी होकर मसती से बैठे थे। उसी समय उस बाहण युवक ने िबना नहाये -धोये एकनाथ जी महाराज के घर मे पवेश िकया और एकनाथ जी महाराज की गोद मे बैठ गया। एकनाथ जी उसके िसर पर हाथ घुमाया और कहाः

"भैया ! तुम बडे पेमी हो ! मेरे पित तुमहारा िकतना सनेह है िक दो िमनट भी बाहर न

रक सके ! जलदी-जलदी आ गये। इस ढं ग से तो मेरा कोई िशषय भी आज तक मेरी गोद मे नहीं बैठा।"

िजसने अपने मन को जीत िलया, मन के िवकारो को जान िलया वह दस ू रे के मन की

चालबाजी को भी जान लेता है । एकनाथ जी उसके मन के भावो को समझ गये थे िक वह उनहे

कोिधत और दःुखी करने आया है । अगर वे कोिधत और दःुखी हो जाते तो उसकी जीत हो जाती। अतः वे दःुखी नहीं हुए।

एकनाथ जी महाराज पूजा से उठे एवं िगिरजाबाई से कहाः "दे िव ! घर मे बाहण अितिथ आया है । उसे भोजन परोसो।"

बाहणः "मै भोजन तो करँगा िकनतु अकेले नहीं, आपके साथ करँगा।" एकनाथ जीः "ठीक है । हम साथ मे ही भोजन करे गे।"

िगिरजाबाई दोनो को भोजन परोसने लगीं। जयो ही िगिरजाबाई झुककर घी परोसने लगीं तयो-ही वह बाहण िगिरजाबाई की पीठ पर बैठ गया।अनुकम

अपनी पती की पीठ पर यिद कोई युवान लडका बैठ जाय तो कोध आना सवाभािवक है

िकनतु एकनाथ जी ने कहाः

"िगिरजा ! दे खना कहीं यह बाहण पुत नीचे न िगर पडे ।"

िगिरजाबाई भी बुििमती थीं। वे बोलीः "नाथ ! आप िनिशंत रहे । मुझे तो अपने बेटे हिर को पीठ पर बैठा-बैठाकर काम करने का अभयास हो गया है । इसे मै नीचे नहीं िगरने दँग ू ी। यह भी तो मेरे बेटे हिर जैसा ही है ।"

इतना सुनते ही वह बाहण कुमार नीचे उतर गया एवं एकनाथ जी के चरणो मे िगरकर

कमा माँगने लगा।

कोई हमे कोधी, लोभी, अिभमानी बनाने को आये और हम तदनुसार बन जाएँ यह हमारी

बुििमानी नहीं है । कोई भी वयिक चाहे जो चाभी लेकर आये और उसी को लगाकर हमारा ताला

खोलने लग जाय यह हमारी बुििमानी नहीं है । बुििमानी तो वह है िक उतपनन िकये गये पितकूल पसंग मे भी आप तटसथ रहो। अगर तटसथ रह जाते हो तो आपकी बुििमता है । अनयथा केवल सूचनाएँ है , मानयताएँ है , बुििमता नहीं है । बुििमान तो एकनाथजी जैसे होते है जो िवषम पिरिसथित मे भी चिलत नहीं होते।

भगवान शी कृ षण कहते है - बुििब ुा िि मतामिसम । 'बुििमानो की बुिि मै हूँ।' आगे भगवान कहते है तेजसत ेज िसवनामहम। ्

'तेजिसवयो का तेज मै हूँ।'

तेज से तातपया शरीर के तेज से नहीं िकनतु आतम तेज से है । कोई वयिक जवारे का रस या आँवले का रस िपये, छाया मे रहे अथवा वह िसवटजरलैणड का हो तो वह शरीर से तो जयादा

चमकता हुआ िदखेगा लेिकन शी कृ षण इस तेज की बात नहीं कर रहे है अिपतु उस तेज की बात कर रहे

जो जीवनमुक महापुरषो का तेज है । ििर उनका शरीर भले काला हो या गोरा....

िकनतु उनके होने मात से हमारा िचत ऊँची याता करने लगता है । हमारा मन काम से हटकर राम मे लगने लगता है ।

तेज तो रावण, कंस, सीजर, िहटलर आिद के पास भी था िकनतु कैसा तेज था?बाहर से

िदखने वाला तेज था। ऐसे लोगो के िनकट बैठने से वे तेजसवी िदखेगे एवं आप िसकुडे हुए

िदखोगे िकनतु मन मे तो ऐसा ही होगा िक 'ये नाराज न हो जाएँ?' आप अंदर से िसकुडते रहे गे एवं चापलूसी के रासते खोजते रहे गे। इस पकार आपकी सवाभािवकता चली जाएगी एवं कृ ितमता आती जायेगी।अनुकम

शी कृ षण उस तेज की बात कर रहे है िजसकी वजह से आपका मन कृ ितम जीवन

(Artificial Life) छोड कर नैसिगक ा ता की तरि आने लगे, िसकुडान छोडकर सहजता के तरि आने लगे, अहं कार छोड कर आतमा की तरि आने लगे। ऐसा तेज शीराम के पास है , शी कृ षण के पास है , मेरे गुरदे व पूजय शी लीलाशाहजी बापू के पास, कबीर जी, नानकजी जैसो के पास है ।

ऐसे महापुरषो के िनकट आते ही आपके जीवन मे सहजता, सवाभािवकता आने लगती है । जहाँ सहजता हो, सवाभािवकता हो, नैसिगक ा ता हो, सरलता हो, ऐिहक पदाथो की गुलामी के िबना सचचा सुख िमलता हो वहीं परमातमा का तेज होता है । इसीिलए मै बार-बार कहता रहता हूँ िकः

"समाट के साथ राजय

करना भी ब ुरा है ... न जा ने कब रला द े ? िकीर ो के साथ

रहना भी अ चछा ह ै ... न जा ने कब िमला द े ?"

रमण महिष ा के पास दो तरह के वयिक आते थेः एक तो वे िजनहे ततवजान की िजजासा

थी और दस ू रे वे जो उनहे भगवान मानते थे। िजनकी बुिि तीकण होती है एवं िजनहे तीव तडप होती है वे ततवजान की बात को सुनकर ततव का साकातकार कर लेते है लेिकन िजनकी िजजासा मंद होती है एवं बुिि की तीवता कम होती है ऐसे वयिकयो को बह की भावना करनी पडती है ।

रमण महिषा कहते थेः "यिद तुम ईशर के दशन ा करना चाहते हो तो ईशर के दशन ा करने

वाला कौन है ? उसे जान लो। तुमहारे मे और ईशर मे कया िका है ? उसे जान लो।"

इस पकार के वचन सुनकर कुछ लोग तो ततव के अनवेषण मे लग जाते थे। बाकी के

कुछ लोग कहते िकः ततव कया है ... आतमा कया है .... मै कौन हूँ.... इस झंझट मे कयो पडना? हमारे िलए तो आप ही भगवान है । शीकृ षण थे, शीराम थे यह तो हमने सुना है िकनतु अभी वही

साकात हमारे सामने है । हम खुली आँख उनके दशन ा कर रहे है , ििर आँखे बंद करके कया दे खना.... कया सोचना?"

तुम त सलली न दो , िसिा बैठे रहो।

महिि ल का र ंग बदल जायगा

,

िगरता ह ु आ िदल भी स ँ भल जा येगा।।

रमण महिष ा के पास बाहर का कोई सरकारी पद नहीं था, कोई धनबल या बाहुबल नहीं

था िकनतु भीतर का बल आधयाितमक बल, आधयाितमक तेज इतना था िक उनके चरणो मे लोगो को बडी शांित िमलती थी। मोरारजी भाई दे साई कहते थेः

"मै पाइम िमिनसटर बना, उस समय भी मुझे वह सुख नहीं िमला जो रमण महिष ा के

चरणो मे चुपचाप बैठने से िमला है ।"

इस पकार भगवान शीकृ षण कहते है िक बुििमानो की बुिि एवं तेजिसवयो का तेज मै हूँ।

एकनाथ जी महाराज की जो समता है , वह ईशर है । रमण महिष ा की, लीलाशाहजी बापू की जो समता है , वह ईशर है और आपके अनदर भी िजस समय समता आये, समझ लेना िक उस समय वह साकात ् ईशर जयो-का-तयो पगट हुआ है ।अनुकम

यह जररी नहीं िक केवल महातमाओं मे ही समता होती है । ईशर तो कभी-कभी

दरुातमाओं मे भी उसी रप मे पगट हो सकता है । रजोगुणी, तमोगुणी मे पगट हो जाता है । सतवगुणी मे भी पगट हो जाता है और गुणातीत मे तो पगट रहता ही है । गुणातीत मे सदै व

पगट रहता है , बाकी मे कभी-कभी पगट होता है । जो कभी-कभी पगट होता है , उसे एक बार भी ठीक से जान लो िक 'वही है ' तो बेडा पार हो जाता है ।

कभी कोई दघ ा ना हो जाये, बडे दःुख का पसंग आ जाये, ििर भी यिद आपके िचत मे ु ट

दःुख नहीं होता तो समझ लो िक उस समय बुििमता िवदमान है । बडे सुख का, खुशी का पसंग आ जाये, ििर भी आपके िचत मे हषा नहीं होता हो तो समझ लो िक उस समय ईशरीय अवसथा है ।

राजा रणजीतिसंह के जीवन की एक घटना है ः एक बार रणजीतिसंह वेश बदलकर कहीं जा रहे थे। इतने मे एक पतथर कहीं से आकर

उनके िसर मे लगा और रक बहने लगा। कुछ िसपाही सेवा मे लग गये एवं कुछ िसपाही चारो ओर अपराधी को खोजने के िलए दौडे ।

थोडी ही दे र मे िसपाही एक बुिढया को पकडकर ले आये एवं राजा के सामने पेश करते

हुए बोलेः

"आपके िसर पर काितल चोट करने वाली यही बुिढया है । बताइये राजन ! अब इसे कया

सजा दी जाय?"

यह सुनकर बुिढया काँपने लगी और बोलीः "अननदाता ! मैने जान बूझकर पतथर नहीं मारा था। मै और मेरा बेटा दोनो भूखे थे। मै

पतथर के दारा वक ृ पर से बेलिल तोडकर हम दोनो की भूख िमटाना चाहती थी। मैने िल तोडने के िलए पतथर िेका था, िकनतु गलती से आपको लग गया, कमा करे , राजन !" तब रणजीत िसंह िसपाही से बोलेः

"इस वि ृ ा को एक हजार रपये दे िदये जाएँ एवं साल भर के िलए अनन-वस की

वयवसथा कर दी जाए।"

वजीर ने आशयच ा िकत होकर पूछाः "यह आप कया कर रहे है , राजन ! पतथर मारने वाली

को हजार रपये एवं अनन-वस िदला रहे है ।"

रणजीत िसंहः "जब एक वक ृ को पतथर लगता है तो वह भी इनहे िल दे कर तिृि पदान

करता है तो मै तो मनुषय हूँ... बुििमान हूँ.... मै इसे सजा कैसे दे सकता हूँ?" नरिसंह मेहता ने ठीक ही कहा है ः

वैषणव जन तो त ेन े क िहए ज े पीड पराई जाण

े र े ...

परद ु ःखे उ पकार कर े तो ये मन अिभ मान न आण े र े ....

अथात ा ् 'सचचा वैषणव तो वही है जो दस ू रो के कषो को जानता है एवं उनहे िमटाने के

िलए परोपकार करता है ििर भी मन मे अिभमान नहीं आने दे ता।'अनुकम

संसार तो रणमैदान है । कभी पतथर की चोट सहनी पडे गी तो कभी अपमान की चोट

सहनी पडे गी। कभी मानयता के अनुकूल बात होगी तो कभी मानयता के पितकूल बात होगी।

लेिकन चोट का भी सही अथ ा लगाओगे तो धनयवाद दे ने लगोगे और धनयवाद दे ते -दे ते आप सवयं धनयवादसवरप हो जाओगे।

िकसी महातमा की परीका करने के िलए एक युवक अपने कोट की जेब मे एक कबूतर ले आया। उसने महातमा से पूछाः

"बाबाजी ! आप बताइये िक मेरे कोट मे कया है ?" बाबाजीः "कबूतर है ।"

युवकः "अचछा, यह बताइये िक कबूतर िजनदा है या मरा हुआ?"

बाबाजीः "कबूतर िजनदा है िक मरा हुआ यह मुखय बात नहीं है । मै अगर िजनदा बोलूँगा

तो तुम उसकी गदा न दबा दोगे और मै अगर मरा हुआ बोलूँगा तो तुम उसे िजनदा जयो-का-तयो िनकालोगे। अब मै इसे मरा हुआ बोलता हूँ तािक तुम इसे िजनदा िनकाल दो और उसके पाण बच जाये। मै झूठा पड जाऊँगा तो कोई हजा नहीं है ।" यह है बुििमता।

'औरो के िहत मे हमारी बात झूठी हो जाए तो कोई हज ा नहीं है । बहुत लोगो के लाभ मे

हमारी ऐिहक दे ह का लाभ चला जाये तो कोई हज ा नहीं है ' – ऐसा सोचना एवं तदनुसार करना बुििमता है । शीकृ षण इसी बुििमता की ओर संकेत करते हुए कहते है - बुििब ुा ििमताम िसम। बुििमानो की बुिि मै हूँ।

शी कृ षण ने युिधिषर से 'नर ो वा कुंजरो वा ' कहलवाया। हिथयार न उठाने की शपथ ले

लेने के बावजूद हिथयार उठाया, कयो? उनहोने सोचा िक अब अगर हिथयार नहीं उठे गा तो

अधिमय ा ो की िवजय हो जायेगी। अधमी लोग जीत जायेगे तो िहं सा बढ जायेगी। इसीिलए अपनी बात झूठी भी हो जाती है तो कोई बात नहीं िकनतु अिधक लोगो का भला होना चािहए। यह शीकृ षण की बुििमता है ।

जैसे, पुत चाहे कैसा भी हो, माता-िपता सदै व उसका िहत ही चाहते है । ऐसे ही हम चाहे

जैसी अवसथा मे हो, चाहे जैसी मानयताओं मे जीते हो, परमातमा सदै व हमारा िहत ही चाहते है । हम भी परमातमा के िजतने करीब होते है उतने ही हमारे दारा बहुजनिहताय

है । जब बहुजनिहताय

पविृत होने लगे, बहुजनिहताय

काय ा होते

िवचार होने लगे तो समझ लेना चािहए

िक बुिि ईशरािभमुख है । अपनी दे ह के िलए, अपने कुटु मब के िलए ही जीवन एवं िवचार हो तो

समझ लेना िक बुिि पशुता की तरि है । लोग अपने बेटे-बेटी के िववाह मे लाखो रपये खचा कर दे ते

है िकनतु भूखे पडोसी या िकसी गरीब के िलए 200-500 रपये भी खच ा करते है तो उसका

बयान िकये िबना नहीं रहते िक 'हमने इतना िकया.... उतना िकया....' यह बुििमानी नहीं वरन ् बुिि का िदवाला है ।अनुकम

एक आदमी जलदी-जलदी 'हे अर किटं ग सैलून' मे गया और नाई से बोलाः "जलदी करो। मुझे टे न पकडना है । जलदी से मेरे बाल काट दो।" नाईः "अचछा... बैठो।"

वयिकः "कुसी पर तो नहीं बैठूँगा, जलदी है ।"

नाईः "अचछा... टोपी तो उतारो।" वयिकः "टोपी भी नहीं उतारँगा और कुसी पर भी नहीं बैठूँगा। मै जलदी मे हूँ मेरे बाल

काट दो।"

नाईः "हजूर ! बाल काटने के िलए ही मैने मशीन हाथ मे ली है । पर आप टोपी तो उतारो !" वयिकः "मुझे बहुत जलदी है ।.... और टोपी तुमहारे आगे कैसे उतारँ? मुझे हजारो लोग

जानते है और मै तुमहारे आगे टोपी उतारँ यह कैसे हो सकता है ?"

ऐसे ही संत के आगे, भगवान के वचनो के आगे आप अपनी बुििरपी टोपी नहीं उतारोगे,

बुिि मे जो भरा है उसे नहीं िनकालोगे और ििर भी बुिि को शुि करना चाहोगे तो यह कैसे संभव होगा? हमारी मानयता तो हमारे पास ही रहे और जान हमारे अनदर आ जाये – यह काम मुिशकल है ।

सच पूछो तो, हम बुिि मे इतनी बेवकूिियाँ भरे हुए होते है िक हमारी बुिि मे ततवजान

का रस पवेश ही नहीं कर पाता। अनयथा, भगवान तो सदै व हमारे भीतर अनतयाम ा ी रप से पकाश करते रहते है एवं बाहर भी संत के दारा बुलवाते रहते है िकनतु ..... सवल पपुणयवता ं राजन ् िवशासो

नैव जायत े। िजसके पुणय कम होते है , पाप जयादा होते है ऐसे आदमी को

शास-वचन पर, संत-वचन पर िवशास ही नहीं होता। सतसंग मे बैठने की रिच ही नहीं होती। जप धयान करने की रिच ही नहीं होती।

महाराज ! तन मे शिक हो तो उसे सेवा मे लगा दो। मन है उसे दस ू रे को पसनन करने

मे लगा दो कयोिक दस ू रे के रप मे भी वही परमातमा है । दो पैसे है तो दस ू रो के आँसू पोछने मे लगा दो। बुिि है तो दस ू रे की भमणा हटाने मे लगा दो। यही बुििमानी है ।

िजस बुिि से आपको परमातमा का पता न चले, िजस बुिि से आपको आतमिवशािनत न

िमले, िजस बुिि से आपको शतु के भीतर छुपा हुआ ईशर न िदखे, िजस बुिि से आपको मतृयु मे परमातमा की चेतना न िदखे वह बुिि वयावहािरक बुिि है । ऐसी वयावहािरक बुिि के तरि शीकृ षण इशारा नहीं करते, वरन ् शीकृ षण का इशारा पारमािथक ा बुिि की तरि है ।

बुििब ुा िि मतामिसम । जो बुििमाने की बुिि है , जो ऋतमभरा पजा है , वह मै हूँ।अनुकम

कई लोग सूचना को ही जान मानने की भूल कर बैठते है । सूचना जान नहीं है , जान का आभास मात है । जान तो भीतर की हदय की चीज है । बाहर की पढाई-िलखाई, पद-पितषा, धन-

सता, रप-सौनदय ा आिद से जान का कोई मतलब नहीं है । आतमजान के िलए इन सबकी कोई जररत नहीं है । लोग जनमते है अजानी, ििर जीवनभर खोपडी मे सूचनाएँ भरते रहते है और

अपने को जानी समझ लेते है । िकनतु दःुख की बात है िक वे अपने को जानी मानकर अजानी रहकर ही मर जाते है । उनको आतमततव का जान नहीं होता। ििर वे चाहे िकतने री धनवान

कयो न हो िकनतु शास की नजर से उनहे कंगाल ही कहा जाता है । धनवान होते हुए भी वे

महाकंगाल है कयोिक सुख के िलए उनकी बुिि बाहर भटकती है और उनहे अनय जनमो मे ले जाती है । ऐसे लोग िवदान होते हुए भी आधयाितमक दिष से बुिु ही माने जाते है ।

बुि और बुिू दोनो बाहर से िदखेगे तो एक जैसे। बुिू बहुत शोरगुल करता हुआ िदखेगा

और बुि शांत िदखेगे, आलसी िदखेगे लेिकन बाहर से आलसी िदखने वाले बुि भीतर से बडी ऊँचाई पर िसथत होते है ।

एक बार भगवान बुि अपने िशषय आनंद के साथ कहीं जा रहे थे। मागा मे एक कुएँ पर

जाकर दोनो खडे हो गये। उस कुएँ पर एक आदमी पानी भर रहा था। बहुत शोरगुल हो रहा था, िकनतु उसकी बालटी मे इतने िछि थे िक उसके हाथ मे आते -आते बालटी खाली हो जाती थी। कािी दे र तक बुि एवं आनंद यह दशय दे खते रहे । ििर दोनो आगे बढ चले। चलते-चलते बुि ने कहाः

"दे खा उस आदमी को? मुझे पयास लगी थी इसिलए मै वहाँ नहीं रका था वरन ् तुझे

बताने के िलए रका था िक संसािरयो का ऐसा ही हाल है । उनके जीवन मे दे खो तो बडा शोरगुल

िदखाई दे ता है , बडी पविृत िदखाई दे ती है । जीवन की बालटी आतमरस से उठती तो है िकनतु ऊपर आते-आते खाली हो जाती है । लगता है िक कुछ पा रहे है िकनतु अंत समय तक जीवन की बालटी खाली की खाली रह जाती है । हे आनंद ! आज कल के लोग ऐसी बुििवाले है । बाहर

की िवदा भर-भरकर अपने को िवदान, बुििमान मान लेते है िकनतु आतमजान से उनकी बालटी नहीं भर पाती है और वे रीते-के-रीते रह जाते है ।"अनुकम

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

धमा ा नुकूल आचरण स े कलयाण बलं ब लवता ं च ाहं का मरागिवव िज ा तम।्

धमाा िवरिो भूत ेष ु कामोऽ िसम भरत षा भ।। "हे भरतशष े ! बलवानो का, आसिक और कामनाओं से रिहत बल अथात ा ् सामथय ा मै हूँ

और सब भूतो मे धमा के अनुकूल अथात ा ् शास के अनुकूल काम मै हूँ। बलं बलवता ं चाहम।्

(गीता ः 7.11)

मै बलवानो का बल हूँ। भगवान अपने को बलवानो का बल को

कहते है िकनतु कैसा बल? कामराग िवविज ा तम ् ... कामनाओं एवं आसिक से रिहत बल।

संसार मे िजतना भी बल है , वह सब परमेशर का ही बल है और बल के िबना तो कोई

काय ा संभव ही नहीं है । िकनतु वह परमेशरीय बल नजर नहीं आता। कयो? कयोिक काम और राग से हमारा िचत आकानत हो जाता है । काम और राग हमारे ऊपर चढ बैठते है । इसीिलए शीकृ षण ऐसे बल की ओर संकेत करते है जो काम और राग (आसिक) से रिहत है ।

'काम' कया है ? अपाि की पािि के िलए इचछा। राग कया है ? जो पाि है वह बना रहे एवं आगे और भी िमले। यिद परमातमा के बल को समझना चाहते हो तो इन दोनो बातो को केवल थोडी दे र के िलए भी हटा दो। ििर परमातम-बल का अहसास करना आसान हो जाएगा।

िकनतु हम करते कया है ? काम एवं राग के कारण हमने अपने आपको संसार मे उलझा

िदया है । एक मकान मे रहते है , दस ू रा मकान चाह रहे है । एक दक ु ान है , दस ू री दक ु ान खोलने का िवचार कर रहे है । इस पकार 'खपे...खपे....' (चािहए, चािहए....) मे ही जीवन खपा रहे है और परमातम-बल को पहचानने की िुसत ा ही नहीं िमल रही।

चाह ने ही हमारे बल को िबखेर िदया है , बाँट िदया है । चाह से नहीं वरन ् तयाग से

परमातमा का बल पगट होता है ।

मंकी नाम के एक महातमा थे। उनहोने सोचा िक खेती करे । उनहोने दो बछडे खरीद िलए।

दोनो को रससी से एक साथ जोड िदया तािक दोनो कहीं भाग न जाएं। एक जगह एक ऊँट बैठा था। वे दोनो बछडे चलते-ििरते ऊँट की दोनो ओर से िनकले। दोनो को बँधी हुई रससी जब ऊँट

के ऊपर से गुजर रही थी तब ऊँट भडककर उठ खडा हुआ। दोनो बछडो बाँधनेवाली रससी ऊँट के गले मे लटक गई। ऊँट के दोनो ओर दोनो बछडे लटक गये और मर गये।

मंकी ऋिष ने दे खा िक जैसे आदमी के गले मे दोनो ओर मिण लटकते है , वैसे ही ऊँट के

गले मे मेरे दोनो बछडे मरे हुए लटक रहे है । अब खेती कैसे होगी? चलो, खेती खतम।

उनका िववेक-वैरागय जाग उठा। वे पभु के रं ग मे रं ग गये और उनहीं के दारा

आधयाितमकता अनुभव से संपनन िजस गीता का िनमाण ा हुआ वही मंकी गीता के नाम से पिसि हुई।

यहाँ एक पश उठ सकता है िक जब कामना ही नहीं रहे गी तो िकया कैसे होगी? और

अगर िकया ही नहीं होगी तो सब लोग िनिषकय और िनकममे हो जायेगे। इसी भगवान आगे कहते है िकः "सब भूतो मे धम ा के अनुकूल कम ा मै हूँ। धमाा िवरिो

भूत ेष ु का मोऽिसम

भरतष ा भ। हे अजुन ा 'काम' भी मेरा ही सवरप है िकनतु वह काम जो शास और धम ा के अनुकूल है ।"

धमान ा ुकूल काम मनुषय के आधीन होता है । परनतु आसिक, कामना, सुख-भोग आिद के

िलए जो काम होता है उस काम मे मनुषय पराधीन हो जाता है और उसके वश मे होकर वह न करने लायक शासिवरि काया मे पवत ृ हो जाता है । शास तथा धम ा के िवरि ऐसे काया ही पतन एवं समसत दःुखो के कारण होते है ।अनुकम

संत जानेशर महाराज ने कहा है ः "धमय ा ुक काम इिनियो की इचछा के अनुसार बताव ा

करता है , ििर भी उनको धम ा के िवरि नहीं जाने दे ता। यह काम जब िनिषि कमो क पगडणडी छोडकर िनयिमत कमो के महामागा पर चलता है तब

संयम की मशाल उसके पास होती है । यह

काम इस तरह से वयवहार करता है िक धम ा का आचरण पूणा होता है और सांसािरक पुरष मोक पाता है ।"

धम ा अथात ा ् मन को धारण करने वाली वसतु है । हम अपनी जीभ को बुरी बात बोलने से

रोक पाते है या नहीं? यिद हम गंदी बात बोलने से जीभ को रोक पाते है तो समझना चािहए िक

हमारे अनदर धम ा है । इसी पकार अनय इिनियो के िवषय मे भी समझना चािहए। यिद हमारा मन धमान ा ुकूल है तो इिनियाँ सवतः ही धमान ा ुकूल आचरण करे गी और धमान ा ुकूल आचरण से जनम-मरण के चक से छूटने की योगयता सहज ही पाि हो जायगी।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सवय ं को ग ुणातीत ज ानकर मु क बनो ये च ैव सा ितवका भावा राजसासतामसाश य

े।

मत एव ेित ता िनविि न तवह ं त ेष ु त े म िय।।

'और जो भी सतवगुण से उतपनन होने वाले भाव है और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से

उतपनन होने वाले भाव है , उन सबको तू मेरे से ही होने वाले है ऐसा जान। परनतु वासतव मे उनमे मै और वे मुझमे नहीं है ।'

ितिभ गुा णमय ैभा ा वैरे िभः स वा िम दं जग त।्

मोिह तं नािभजानाित माम

ेभयः पर मवय यम।् ।

'गुणो के कायर ा प (साितवक, राजस और तामस) इन तीनो पकार के भावो से यह सारा संसार मोिहत हो रहा है इसिलए इन तीनो गुणो से परे मुझ अिवनाशी को वह ततव से नहीं जानता।'

(गीताः

7.12,13)

भगवान कह रहे है िक सतव, रज और तम इन तीन गुणो के पभाव से पभािवत होकर जीव मुझको ततव से नहीं जान पाता है ।

छः पकार के जीवातमा होते है - साितवक-साितवकी। केवल साितवकी। राजस-राजसी। केवल

राजसी। तामस-तामसी। केवल तामसी।अनुकम साितवक -सा ितवकीः

जो िनषकाम भाव से शुभ कम ा करते है िकनतु अपने आतमसवरप

को नहीं जानते वे कहलाते है साितवक-साितवकी। ऐसे साितवक-साितवकी लोग रजो-तमोगुणी से तो ऊँचे है लेिकन अपनी वासतिवक ऊँचाई को भूले हुए है । वे गुणो का िल और सवभाव को अपना ही सवभाव मानते है । ऐसे लोगो को मरने के बाद सवगा अनायास ही िमल जाता है िकनतु अपने को न जानने के कारण सवगा मे पुणय भोगने के बाद पुनः जनमना-मरना पडता है ।

केवल साितवकी ः जैसे बहा, िवषणु और महे श। वे अपने सतय सवभाव को जानते है । वे दे ह को मै नहीं मानते एवं जगत को सतय नहीं मानते। सता एवं अिसततव उनको जयो का तयो िदखता है । ऐसे बहवेता एवं बहा, िवषणु और महे श केवल साितवकी है , सतय मे ही िटके है । राजस -राजसीः

िजनमे राजसी सवभाव की पधानता है ऐसे लोग जनम-जनमानतर तक

घटीयंत की नाई याता करते रहते है । हर शरीर मे जाकर सुख भोगने का अहसास करते है

लेिकन िमलता दःुख ही है । िमला हुआ सुख िटकता नहीं है एवं सुख भोगने की इिनियाँ भी एक

जैसी नहीं रहतीं। ििर वे बीमार, वि ृ होकर मर जाते है । ऐसे लोग दःुख मे दःुखी होकर, माया के आधीन होकर, गुणो के आधीन होकर अपने को भूले रहते है एवं सारे दःुखो को अपने मे मान बैठते है ।

केवल राजसीः

राजस-राजसी की अपेका तो केवल राजसी ठीक है कयोिक वे पविृत तो

करते है । यहाँ का सुख भी चाहते है एवं भिवषय मे सुख िमले इसिलए भी पवत ृ होते है । ऐसे

लोग अचछे कमा करके अचछा कहलाना चाहते है । िकनतु ये लोग उन राजस-राजसी की तरह उसी मे ही उलझे नहीं रहते। वे िववेक जगा लेते है िक पाने की इचछा का, भोगने की इचछा का कभी अंत नहीं होगा वरन ् शरीर का अंत हो जायेगा।

द ु िनया के म जे हिग ा ज कम न होग े।

चचे यही रह ेग े अिसोस

! हम न होग े।।

अगर राजसी वयिक का ऐसा िववेक जाग जाये तो ििर वह कम ा तो करे गा लेिकन कमा करके कमा का िल भोगकर मसत नहीं होगा। अिपतु कमा का िल ईशर को अपण ा कर दे गा। जो

कमा के िल को ईशारािपत ा कर दे ता है उसके हदय मे परमातमा िववेक जगा दे ते है िकः "इतना भोगा तो कया? इतना सँभाला तो कया? अंत मे तो यह शरीर जल ही जायेगा या दिना िदया

जायेगा। मेरे आने से पहले भी यह दिुनया चल रही थी, मेरे जाने के बाद भी चलती रहे गी... अभी

भी मै बडा कताा-भोका हूँ यह मानना बेवकूिी के िसवाय और कया है ? सारी 'मै-मै' नासमझी के कारण ही होती है और मै बदलती रहती है । मै िवदान हूँ... मै बीमार हूँ... मै तनदरसत हूँ.... इस पकार मै का पिरवतन ा चलता ही रहता है । इस नकली मै को मै मानने के कारण असली मै को भूल गया। सारी मै-मै जहाँ से उठती है उस परमेशर को तो खोज ! इस पकार का िववेक जगने

पर राजसी वयिक िकसी सदगुर की खोज करता है एवं उनहे पाकर अपने शुि, बुि, साितवक सवरप को जानकर मुक हो जाता है । राजस-राजसी की अपेका केवल राजसी उतम माने जाते है । अनुकम

तामस -ताम सीः तामस-तामसी का जीवन होता है आलसय, िनिा, पमाद, दरुाचार, शराब-

कबाब आिद से गसत। मंिदर मे जाने की बात नहीं, माता िपता का सममान नहीं। मेरा तो मेरे

बाप का और तेरे मे भी मेरा िहससा... ऐसी विृत उसकी होती है । वह जगत को ठोस सतय मानता है । ये सब तामस-तामसी के लकण है । कुछ भी करो पर मजा लो... पािटा याँ, कलब, शराब-कबाब....

यही उसकी िजनदगी होती है । ऐसे लोग थोडी दे र के िलए भले सुख का अहसास कर ले लेिकन पिरणाम मे घोर दःुख पाते है । ऐसे लोग राग-दे ष मे इतने उलझ जाते है िक मार-काट करने मे उनको िझझक नहीं होती। ऐसे लोग मरने के बाद पाषाण और वक ृ ािद जड योिनयाँ पाते है । केवल

तामसी ः

जो केवल तामसी है वे कमो मे अटक जाते है । वे भूत-भैरव की

उपासना तो करते है िकनतु उनमे थोडी-बहुत भगवदविृत भी रहती है । ऐसे वयिकयो को दै वयोग से यिद कोई संत िमल जाये, सतसंग िमल जाये तो उनकी विृत तमस से रजस मे आ जाती है

एवं रजस से सतव मे भी आ जाती है । जैसे वािलया लुटेरे को िमल गये दे विष ा नारदजी तो वालमीिक ऋिष हो गये। आमपाली वेशया को तथा माँ-बाप एवं समाज की अवहे लना करके भी जो

भोगी जीवन मे सराबोर हो रही थी उस पटाचारा को िमल गये भगवान बुि तो दोनो ही महान ् सािधवयाँ बन गयीं।

इस पकार तामस-तामसी से केवल तामसी ठीक है । राजस-राजसी से केवल राजसी ठीक

है । साितवक-साितवकी से केवल साितवकी ठीक है िकनतु इन तीनो गुणो मे जो कम ा होते है , भगवान कहते है िक वे मुझमे नहीं है और मै उनमे नहीं हूँ। न तवह ं तेष ु ते मिय।

यहाँ

भगवान का संकेत इस ओर है िक जैसे मै जानता हूँ िक वे कम ा मुझमे नहीं है और उनमे मै

नहीं हूँ वैसे ही यिद यह जीव भी जान जाये तो उसे भी अपने सवभाव का, परमातम सवभाव का पता चल जाये।

ईशर को पाने का अिधकार सबको है । तामसी एवं राजसी सवभाव के लोग भी भगवान

को पा सकते है लेिकन जब जगत का आकषण ा होता है , उसमे सतयबुिि होती है और वैसे ही लोगो का संग बना रहता है तो लोग तामस-तामसी, राजस-राजसी, साितवक-साितवकी बने रहते है एवं माया के चककर मे घूमते रहते है ।

मान लो िकसी आदमी को लोहे की जंजीर से बाँध िदया गया हो और ििर लोहे की

जंजीर हटाकर चाँदी की जंजीर डाल दी जाये तो कया वह सोचेगा िकः 'वाह ! लोहे की नहीं, चाँदी

की जंजीर है ?' नहीं, जंजीर तो जंजीर ही है । चाहे लोहे की हो, चाहे चाँदी की हो और चाहे सोने की हो जंजीर कयो न हो? ऐसे ही माया के गुणो मे उलझना तो उलझना ही है । ििर चाहे साितवक गुणो मे उलझो, चाहे राजसी गुणो मे उलझो चाहे तामसी गुणो मे उलझो।

एक बार अकबर ने बीरबल से पश िकयाः "नमक हलाल कौन है और नमकहराम कौन

है ?" अनुकम

बीरबल ने एक कुता एवं एक जमाई लाकर खडा कर िदया और बोलेः

"जहाँपनाह ! यह कुता तो है नमकहलाल जो रखा-सूखा, िेका हुआ एवं जूठन को खा लेता

है ििर भी विादार रहता है । िबना कहे भी अपना कतवाय िनभा लेता है और यह जमाई है

नमकहराम। कई बार ससुराल के घर की रोटी खाता है और कनयादान लेता है । ििर भी जब ससुराल आता है तो सास-ससुर के िलए तो मानो मौत आती है । जमाई = जम आई = मौत आई।

न जाने कब रठ जाये? न जाने कब कया माँग ले? अगर माँगी हुई वसतु न दी तो बेटी पर कसर िनकालेगा। कैसे भी करके जमाई को राजा रखना पडता है ।"

यह सुनकर अकबर ने कहाः "सब जमाईयो को िाँसी लगा दो।" बीरबल को अकबर ने आदे श दे िदया। बुििमान बीरबल ने कारीगरो को रोजी-रोटी िमले,

कइयो को काय ा िमले, इस उदे शय से एक बडे मैदान मे काम शुर करवा िदया। कई तरह के

िाँसे... रससी के, सूती, रे शमी, लोहे , काँसे, चाँदी आिद िविभनन पकार के िाँसे बनवाने शुर कर िदये। एक िाँसा सोने का भी तैयार करवा िदया। ििर अकबर से कहाः

"जहाँपनाह ! जमाइयो को िाँसी दे ने के िलए मैदान मे सब तैयािरयाँ हो गयी है । आप

केवल उदघाटन करने के िलए चिलए।"

अकबर गया मैदान मे। दे खा िक कई िकसम के िाँसे तैयार है । घूमते-घूमते जब चाँदी के

िाँसे दे खे तो पूछाः "ये चाँदी के िाँसे िकसके िलए है ?"

बीरबलः "जहाँपनाह ! ये वजीरो के िलए है । आम आदमी की शण े ी के िहसाब से सूत ,

रे शम, ताँबे आिद के िाँसे बने है लेिकन वजीर तो आम आदमी नहीं है इसिलए उनके िलए चाँदी के िाँसे है ।"

अकबर ने पूछाः "अचछा, पास मे जो सोने का लटक रहा है वह िकसके िलए है ?" बीरबलः "जहाँपनाह ! वह आपके िलए है । आप भी तो िकसी के जमाई है ।" तब अकबर बोल उठाः "आदे श िनरसत कर दो।"

कहने का तातपय ा यह है िक जब तक अपने को दे ह मानोगे तब िकसी के जमाई तो

िकसी के ससुर, िकसी के बेटे तो िकसी के बाप, िकसी के नौकर तो िकसी के मािलक बनते रहोगे और सारी बनावट होती है गुणो मे। इन गुणो को जो सता-सिूित ा दे ता है उस आतमा मे कोई बनावट, बदलाहट नहीं होती और वही आतमा वासतव मे आप हो। लेिकन यह बनावट िजन गुणो

मे है उन गुणो से तादातमय कर लेते हो, अपने को उनसे जोड लेते हो, जुडा हुआ मान लेते हो

और अपने आपको भूल जाते हो इसीिलए सुखी-दःुखी होते रहते हो, िचिनतत-भयभीत होते रहते हो एवं जनमते मरते रहते हो। अनुकम

भगवान को ततव से न जानने के कारण ही जीव बेचारा दःुखो को पाि होता रहता है । िकतना भी भारी दःुख कयो न आ जाये, या िकतना भी महान ् सुख कयो न आ जाये, उस

वक सावधान रहो िक यह सुखाकार विृत भी गुणो की है और दःुखाकार विृत भी गुणो की है ।

'िमल गया' यह भी गुणो मे है और 'छूट गया' यह भी गुणो मे है । जनम होना भी गुणो मे है और मर जाना भी गुणो मे है । पापातमा होना भी गुणो मे है और धमातामा होना भी गुणो मे है । लेिकन अपने को सुखी-दःुखी, जनमने-मरने वाला, पापातमा-धमातामा मत मानो, वरन ् अपने को तो

परमातमा का मानो। विृत अगर संसार की ओर होगी, गुणो मे होगी तो उलझ जाओगे एवं विृत अगर परमातमा की ओर होगी तो संसार मे रहते हुए भी मुक हो जाओगे।

िजसका उदे शय ईशर की पािि ही है वह इन गुणो से और इनके पभावो से अपने को

बचाकर शुि-बुि सिचचदानंद सवरप मे जाग जाता है । ििर पकृ ित के गुण-दोषो का पभाव उस

पर नहीं पडता। वह उस अवसथा को पा लेता है िजस अवसथा मे बहा, िवषणु एवं महे श िवचरण करते है ।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

भगवान क ी माया

क ो कैस े तर े ?

देवी ह ेषा गुण मयी म म माया

द ु रतयया।

माम ेव य े पपदनत े मयाम ेता ं तर िनत त े।।

'यह अलौिकक अथात ा ् अित अदभुत ितगुणमयी मेरी माया बडी दस ु तर है परनतु जो पुरष

केवल मुझको ही िनरं तर भजते है वे इस माया को उललंघन कर जाते है अथात ा ् संसार से तर जाते है ।'

(गीताः

7.14)

यह माया अलौिकक है अथात ा ् लौिकक नहीं है । इसकी थाह लौिकक बुिि से , लौिकक

कलपनाओं से नहीं पायी जा सकती है । जयादा पढकर या अनपढ रहकर भी इसकी थाह पाना संभव नहीं है । धनवान बनकर या िनधन ा रहकर भी इसकी थाह पाना संभव नहीं है । भगवान कहते है िक इसकी थाह तो केवल वही पा सकता है जो केवल मुझे ही भजता है । माम े व य े पपदनत े मायाम ेत ां तरिनत

ते।

कभी-कभी हम भगवान का भजन तो करते है िकनतु साथ ही साथ सुिवधाओं का भी

भजन करते है । ठणडी-ठणडी हवा बह रही है .... भगवान का भजन हो रहा है .... बडा आनंद आ रहा है । लेिकन ठणडी हवा मे जरा-सी िकसी को ठोकर लग गयी तो भजन और भगवान दोनो गायब

हो जाते है । भगवान कहते है - माम े व ये पपदनत े ..... मुझे ही जो भजते है । भजन भगवान का ही होना चाहे , सुिवधाओं का नहीं। भगवान के साथ-साथ दे ह का, कुटु िमबयो का पडोिसयो का, मानयताओं का भजन नहीं, वरन ् केवल भगवान का ही भजन होना चािहए।अनुकम

जो लोग भगवान को छोडकर केवल मानयताओं मे उलझे है उनसे तो भगवान का एवं

मानयताओं मे उलझे है उनसे तो भगवान का एवं मानयताओं का, दोनो भजन करने वाला ठीक है

लेिकन मानयाताओं का भजन जब तक मौजूद रहता है तब तक संसारसागर से पूणा रप से नहीं

तरा जा सकता। कोई युि कर रहा हो, बाणो की बौछार हो रही हो ििर भी उसे अपने मे कतताृव न िदखे, हो रहा है .... मै नहीं कर रहा... यह भाव रहे तो ऐसा मनुषय संसार सागर से अवशय तर जाता है ।

मान लो, कोई मछुआरा जाल िेकता है । पूवा, पिशम, उतर और दिकण, चारो िदशाओं मे वह जाल िेकता है । बडी-छोटी, चतुर सभी मछिलयाँ उसके जाल मे िँस जाती है िकनतु एक मछली जो उसके पैरो के इदा -िगदा घूमती है वह कभी उसकी जाल मे नहीं िँसती कयोिक

मछुआरा वहाँ जाल डाल ही नहीं सकता। ऐसे ही चतुर आदमी भी माया मे िँसे है , बुिू आदमी भी िँसे है , भोगी भी िँसे है और तयागी भी िँसे है , िवदान भी िँसे है , यक भी िँसे है और िकननर भी िँसे है , गंधवा भी िँसे है और दे व भी िँसे है , आकाशचारी भी िँसे है और जलचर भी

िँसे है , भूतलवाले भी िँसे है और पातालवाले भी िँसे है ... सब माया के इन तीन गुणो सतव, रज और तम मे से िकसी-न-िकसी गुण मे िँसे है । सभी जाल मे है लेिकन जो पुरी तरह से ईशर की शरण मे चले गये है वे धनभागी इस मायाजाल से बच गये है ।

'ईशर की शरण कया है ? ईशर कया है ? इस बात का पता चल जाये और शरण मे रहने

वाला कौन है ' इस बात का पता चल जाये तभी ईशर की शरण मे जाया जा सकता है । कोई कहता है ः

"मै भगवान की शरण हूँ।" "अचछा ! तो तू कौन है ?" "मै हूँ मोहनभाई।"

हो गयी ििर तो भगवान की शरण....

अरे ! पहले तुम अपने को जानो िक तुम कौन हो और भगवान कया है ? तभी तो तुमहे भगवान की शरण का पता चलेगा। भगवान की शरण मान लेना अलग बात है और जान लेना अलग बात। शुरआत मे मानी हुई शरण भी ईमानदारी की है तो उस शरण को जानने का भी सौभागय िमल जायेगा लेिकन मानी हुई शरण भी हम ईमानदारी से नहीं िनभाते। हम कहते तो

है िक "मै भगवान की शरण हूँ" लेिकन अनदर से ऐंठते रहते है िक 'दे खो, मैने कहा वही हुआ न!'

इस पकार वयिक अपनी पिरिचछननता बनाये रखता है और ऐसी बात नहीं िक केवल अचछी मानयताएँ ही बना कर रखता है । अहं कार तो सब पकार का होता है । अचछे का भी अहं कार होता

और बुरे का भी अहं कार होता है । कताप ा न अचछे कमा का भी होता है और बुरे कमा करने का भी होता है और कमा नहीं करने का भी होता है ।

'मै तो कुछ नहीं करता...' यह कहकर भी न करने वाला तो मौजूद ही रहता है । सब

भगवान करते है .... मै कुछ नहीं करता... भीतर से समझता है िक मै नम हूँ। .... तो मै तो बना ही रहा। अरे ! अपराधी को भी अहं कार होता है ।अनुकम मैने बतायी थी एक बातः

जेल मे कोई नया कैदी आया। िसपाही ने उसे एक कोठरी खोलकर अनदर कर िदया। नया

कैदी जैसे ही उस कोठरी मे पिवष हुआ तो पुराना कैदी बोलाः "िकतने महीने की सजा है ?"

"छः महीने की।" "तू तो नविसिखया है । दरवाजे पर ही अपना िबसतर लगा। हम बीस साल की सजा वाले

बैठे है । अचछा... यह बता, डाका िकतने का डाला?" "पाँच हजार का।"

"इतना तो हमारे बचचे भी डाल लेते है । हमने तो दो लाख का डाका डाला है । मै तो यहाँ तीसरी बार आया हूँ। मैने तो इसे अपना घर ही बना िलया है ।"

इस पकार बुरे कम ा का भी अहं कार मौजूद रहता है । माया सभी को अपने जाल मे िँसा

लेती है ।

िचलम पीकर कोई बैठा रहे और कहे ः 'तीन घणटे हम भजन मे रहे ....' यह तामिसक माया

है । दान पुणय करके कोई कहे ः 'हमने लाख रपयो का दान करके लोगो का भला िकया.. यह राजसी माया है । कोई कहे ः 'इषदे व ही सब कुछ करवाते है ... इषदे व के िलए सब कुछ हुआ है ... मै तो कुछ नहीं हूँ... अपने से वह िजतना करवाये उतना अचछा....' यह साितवक माया है । माया तामिसक हो, राजिसक हो या साितवक, है तो माया ही। इसीिलए भगवान कहते है यिद दं मनसा वाचा चक

ुभया ा श वणािदिभ ः।

नशर ं ग ृ हमाण ं च िविि माया

मनो मयम।् ।

'मन से, वाणी से, आँखो से, शोतो आिद से जो भी गहण होता है वह सब नशर है , मनोमय,

मायामात है ऐसा जानो।'

माया का साितवक गुण हो, राजिसक गुण हो या तामिसक गुण हो, है सब मायामात,

खेलमात। माया मे रहकर माया से तरना किठन हो जाता है िकनतु यिद आतमा मे रहो तो माया अित तुचछ भासती है । जैसे, सवपन मे हम यिद सवपन के सब आदिमयो को वश मे करना चाहे

तो मुिशकल है िकनतु जरा-सी आँख खोल दी तो पता चल जाता है िक उनमे कोई दम नहीं था, सब मेरी ही करामात थी। ऐसे ही हम जब माया मे रहकर, माया के साधनो से माया मे ही सुखी होना चाहते है तो मुिशकल होता है । अगर हम आतमा आ जाते है तो माया अपना ही खेल नजर आने लगती है ।अनुकम

िकनतु होता कया है ? हम गुणो मे इतने िँस जाते है िक गुणो को जो सता दे ता है उसका

पता नहीं और गुणो को अपने मे आरोिपत कर लेते है । यहीं गडबडी हो जाती है और यह गडबड न जाने

िकतनी सिदयो से चली आ रही है । गडबड क आदत भी पुरानी हो गयी है इसिलए यह

गडबड सही लग रही है और सही बात आतमिवदा बडी किठन लग रही है । गुणो की बाते बडी रसीली लगती है । अभी तक हम गुणो मे ही जीते आये है और

शरीर को ही मै मानते आये है ।

िनगुण ा शुरआत मे रसपद नहीं लगता िकनतु सारे गुण उसी से आते है ।

इसीिलए शीकृ षण कहते है - 'यह अलौिकक अित अदभुत ितगुणमयी मेरी माया बडी दस ु तर

है ... दैवी ह ेषा गुणमयी म म माया

द ु रतयया ...।'

माया माने धोखा। कभी साितवक धोखा, कभी राजिसक धोखा तो कभी तामिसक धोखा। इन गुणो की माता भी घटती-बढती रहती है । कभी सतवगुण जयादा, कभी रजोगुण जयादा तो

कभी तमोगुण जयादा होता है । जब सतवगुण की माता बढती है तो वयिक तनदरसत, िुरतीला, पसनन एवं अपने को जानी-धयानी मानता है । जब रजोगुण की माता बढती है तब वयिक अपने को होिशयार, चालाक, धनी-मानी महसूस करने लगता है । जब तमोगुण की माता बढ जाती है तब

आलसय, िनिा एवं कुि अहं कार से गसत हो जाता है । इसी बात को सवामी रामतीथा अपनी भाषा मे कहते है -अनुकम

कोई हा ल मसत , कोई मा ल मसत , कोई त ूती मैना सूए म े।

कोई खान

म सत , पहरान म सत , कोई राग रािगनी

दोह े म े।।

कोई अम ल मसत , कोई रम ल मसत , कोई श तरंज चौप ड ज ुए म े। इक ख ुद म सती िबन और मसत स

ब, पडे अिवदा क ुए ँ म े।।

कोई अ कल मस त, कोई शक ल मसत , कोई च ंच लताई हा ँसी म े। कोई व ेद म सत , िकत ेब मस त, कोई मकक े म े को ई काशी म े।।

कोई गाम म सत , कोई धाम म सत , कोई स ेवक म े कोई दासी म े। इक ख ुद मसती िबन और म

सत सब , बँ धे अिवदा िा ँसी म े।।

कोई पाठ मसत , कोई ठाट म सत , कोई भ ैरो म े , कोई का ली मे।

कोई ग नथ मसत , कोई प नथ म सत , कोई श ेत पीतर ंग ला ली म े।। कोई का म मसत , कोई खाम म सत , कोई प ूरन मे , कोई खाली म े। इक ख ुद मसती िबन और म कोई हाट मस त, कोई घाट

सत सब , बँ धे अिवदा जाली म

म सत , कोई वन पव ा त ऊजारा

े।।

1

मे।

कोई जात मस त, कोई पा ँ त मसत , कोई तात भ ात स ुत दारा म े।। कोई कम ा म सत , कोई ध मा मसत , कोई म सिजद ठाक ुरदा रा म े। इक ख ुद मसती िबन और म

कोई साक

2

सत सब , बहे अ िवदा ध ारा मे।।

मसत , कोई खाक मसत , कोई खास े म े को ई मल मल म े।

कोई योग म सत , कोई भोग म सत , कोई िसथ ित मे , कोई चल चल मे।। कोई ऋिि मसत , कोई िसिि म सत , कोई ल ेन द ेन की क लकल म े। इक ख ुद मसती िबन और म

सत सब , िँसे अिवदा दलद ल म े।।

कोई ऊ धव ा मस त, कोई अध ः मस त, कोई बाहर म े , कोई अ ंतर मे। कोई द े श मसत , िवद ेश म सत , कोई औष ध म े , कोई मन तर म े।।

कोई आ प मसत , कोई ताप म सत , कोई नाटक च ेटक त नतर म े। इक ख ुद म सती िबन और मसत स

ब, िँस े अ िवदा अ नतर म े।।

कोई श ुष 3 मसत , कोई त ुष 4 मसत , कोई दीरघ म े कोई छोट े म े।

कोई ग ुिा म सत , कोई स ुिा म सत , कोई त ूंब े म े कोई लोट े म े।। कोई जान

म सत , कोई धयान

म सत , कोई अस ली मे कोई खोट े मे।

इक ख ुद मसती िबन , और म सत सब , रहे अिवदा टोट े म े।। 1. उजाड , 2. िरशत ेदारी , 3, खाली , अतृ ि 4. पसनन िचत।

हम जैसे गुणो मे जीते है वैसी ही हमारी इचछा-वासना और रिचयाँ पैदा हो जाती है और इसीिलए माया से तरना किठन हो जाता है । वरना माया तो...

शी विशष जी महाराज कहते है - "हे रामजी ! जो अजानी है , मूढ है , जो दे ह को मै मानते

है उनके िलए संसार तरना बडे किठन महासागर को तरने के समान है लेिकन िजनके अघ नष हो गये है उनके िलए संसार-सागर को तरना गोपद को लाँघने के समान सरल है ।"

जो िवचारवान है , िजनका हदय शुि हुआ है , िजनके पाप नष हो गये है , िजनकी बुिि

सतवपधान है , िजनको आतमारामी सदगुरओं की छाया िमली है उनके िलए संसार तरना आसान है ।

दो पकार के लोग होते है दे ह को मै मानकर जीते है और दे ह के इदा िगदा को वयवहार की उपलिबधयाँ करके अपने

को भागयशाली मानते है । उपलबध चीजे अगर चली गयीं तो अपने को अभागा मानते है । ऐसे अभागो की तो भीड है दिुनया मे।

दे ह का वयवहार भी रहे और भगवान का भजन भी होता रहे – ऐसा चाहने वाले लोग

ऊँचे लोको मे जाते है ।

कभी-कभी, कहीं-कहीं कोई ऐसे ही िवरले होते है जो दे ह के वयवहार को इहलोक और

परलोक सबको मायामात, मनोमय समझकर, चैतनय सता-दषा-साकी-आतमा का िवलासमात समझकर अपने को दषाभाव से भी परे लाकर दषासवरप मे िवलय कर दे ते है । ऐसे महापुरष तो िवरले ही होते है ।

जब तक जीव का मै मौजूद रहता है तब तक उसे मान अपमान, हािन लाभ आिद के

सुख-दःुख का अनुभव होता रहता है । कयोिक जीव जीता है ितगुणमयी माया मे और यह ितगुणमयी माया बडी दस ु तर है लेिकन भगवान कहते है - जो मेरी शरण हो जाता है वह इस ितगुणमयी माया से तर जाता है ।अनुकम

माम े व य े पपदनत े मायाम ेत ां तरिनत

ते।

भगवान बोलते है - मा म ् एव ये पपदनत े .... यहाँ भगवान शीकृ षण के मा म् का तातपया

शीकृ षण की आकृ ित से नहीं वरन ् शीकृ षणततव से है और जो शीकृ षण के ततव को मै रप मे जान लेता है , वह माया से तर जाता है । अनयथा.. जो पभु के दीदार करते है ऐसे नारद जी जैसो को भी माया नहीं छोडती।

एक बार नारद जी अतयंत तनमयता से कीतन ा कर रहे थे तब भगवान पगट हो गये एवं पसनन होकर बोलेः

"नारद ! तुझे जो काम दे ता हूँ वह तू तुरनत कर दे ता है । कुछ माँग ले।"

नारदजीः "पभु ! कया माँगू? अगर आप संतुष है तो आप मुझे आपकी माया िदखाने की

कृ पा करे ।"

पभुः "मुझे दे ख, नारद ! मेरी माया को कया दे खेगा?" नारदजीः "आपको तो मै दे ख रहा हूँ, पभु !"

पभुः "नारद ! तू मुझे नहीं, मेरे शरीर को दे ख रहा है । तू मुझे दे ख।"

नारदजीः "आपको ििर कभी दे ख लूग ँ ा। अभी तो आपकी माया िदखाओ।" भक का हठ दे खकर भगवान ने सोचाः 'अभी इसको ठोकर खाना बाकी है ।' ििर बोलेः

"नारद ! अभी तो मुझे पयास लगी है । चलो पानी पीकर आये।

दोनो पहुँचे सरसवती नदी के तट पर। नारद जी गये नदी मे और सोचाः 'भगवान के िलए

पानी भरना है तो जरा शुि हो के भरं।' नारद जी ने मारा गोता.... जयो ही गोता मारकर बाहर

िनकले तो नारद से बन गये नारदी। कपडे -गहने, हाव-भाव, वाणी-वतन ा , िहल-चाल सब सी जैसा!

ििर एक मललाह के साथ शादी कर ली। अब तो मललाह के िलए भोजन बनाये, उसकी सेवा करे । िदन बीता, रात बीती... सुबह बीती, शाम बीती.... सिाह बीता, महीना बीता... साल बीता.. कई साल बीतते-बीतते उसे 12 बचचे हो गये। घर मे चौदह पाणी हो गये। बडी मुिशकल से गुजारा होता था। िचनता-िचनता मे एक िदन मललाह चल बसा। नारदी रोने-पीटने लगी। इतने मे आ गये भगवान और बोलेः "अरे नारद ! यह कया? मैने तो तुझे पानी लाने को कहा था !"

शम ा के मारे नारदी ने पानी मे गोता मारा। गोता मार कर नारदजी जयो ही बाहर िनकले

तो दे खते है िक न बचचे है , न मललाह का शव है वरन ् सामने भगवान खडे -खडे मुसकरा रहे है । नारदज ने पानी लाकर िदया और बोलेः

"भगवान ! यह कया? यह सब कया था? मुझे ऐसा लगा िक मै सी बन गया। मुझे 12

बचचे हो गये... यह सब कया हो गया था मुझे?"

पभुः "इसी का नाम माया है नारद ! तू वही का वही था िकनतु तुझे महसूस हुआ िक तू

नारदी बन गया। जो महसूस हुआ वह रहा नहीं लेिकन तू मौजूद है । तू असिलयत है । बाकी सब नकली है । यही तो मेरी माया है ।अनुकम

इस माया से तरना बडा किठन है और आसान भी है । अगर अपनी असिलयत को जान

िलया तो आसान है । अपनी नकिलयत को असिलयत मान बैठे तो किठन भी है । हमारा शरीर पकृ ित का, घर पकृ ित का, वयवहार पकृ ित का, मन-बुिि पकृ ित के और पकृ ित जा रही है िवनाश

की तरि, पिरवतन ा की तरि। इन सबको दे खनेवाले हम अिवनाशी है । अगर इस अिवनाशी ततव को ठीक से जान िलया तो हो गये माया से पार।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

चार पकार क े भक दषुकृ तय काय ा करने वाला वयिक, अभागा वयिक भले ही दिुनया की सब सुिवधाओं को पा

ले, दिुनया के सब हीरे -जवाहरात, कंकर-पतथर इकटठे कर ले ििर भी वह पभु को नहीं भज सकते है । भगवान कहते है ः

न म ां द ु षकृ ितनो मूढाः पपदनत े नराधमा ः। माययापहतजान ा आस ुर ं भाव मािश ताः।।

'माया के दारा हरे हुए जान वाले और आसुरी सवभाव को धारण िकये हुए तथा मनुषयो

मे नीच और दिूषत कमा करने वाले लोग मुझे नही

भजते है ।'

(गीताः

7.15)

भगवान शंकर कहते है सुनह ु उमा त े लो ग अभागी।

हिर तिज

होिह ं िव षय अन ुरागी।।

'हे पावत ा ी ! सुनो। वे लोग अभागे है जो भगवान को छोडकर िवषयो से अनुराग करते है ।

(शीर ाम चिरत अर णय का णडः 32,2)

हिर को छोडकर अपने आतमदे व को छोडकर, अपनी आंतिरक शांित को छोडकर, अपने

भीतरी सुख को छोडकर जो लोग दस ू री जगह सुख लेने को भटकते है वे बडे अभागे है । ऐसे लोग ििर कभी कुते के तो कभी गधे का शरीर मे , कभी वक ृ के तो कभी पकी के शरीर मे जाते है । िजनकी बुिि मारी गयी है , जो पकृ ित के पंजे मे िँसे है ऐसे लोग जीवनभर अपने अभाव को ढँ कने के िलए मेहनत करते रहते है और अतं मे मतृयु के समय खाली ही रह जाते है ।

िजसने अनतयाम ा ी परमातमा की शांित का आसवाद नहीं िलया, िजसने अंतयाम ा ी, परमातमा

को पयार नहीं िकया उस दषुकृ त करने वाले वयिक ने हजारो-हजारो जड वसतुओं को पयार िकया ििर भी वे वसतुएँ उसकी नहीं हुई।अनुकम

दषुकृ त करने वाले वयिक का जान माया के दारा अपहत हो जाता है , नष हो जाता है

इसीिलए वह भगवान का भजन नहीं कर सकता। भगवान को जो मानते तक नहीं वे लोग द ु षकृितन ः होते है । अहं कार से आकानत िचतवाले वे अपने से िकसी को भी बडा नहीं मानते। मै..मै...मै... करते हुए अहं कार को ही ठोस करते रहते है । ऐसे लोग दं भी होते है ।

शीमद आद शंकराचाय ा ने कहा है ः 'भीतर अगर भिकभाव न हो, योगयता न हो और बाहर

िदखाने का पयत िकया जाये उसे दं भ कहते है ।'

दं भ से दस ू रे दोष भी आ जाते है । जैसे, दप।ा धन, पद-पितषा पाकर दप ा होने लगता है ।

दप ा से कठोरता आती है , भाषा कटु हो जाती है , अिभमान बढ जाता है और इन सबका मूल

कारण होता है – अजान। अपने सवरप को न जानना एवं जगत को सचचा मानना यही अजान है और ऐसे अजान से आवत ृ पुरष भगवान के वासतिवक सवरप को नहीं जान पाता। िकनतु जो सुकृितनः

है , सतकम ा करने वाले है वे पहले भले ही धन पाने की कामना से

भजन करे , संकट िमटाने के िलए भगवान का भजन करे िकनतु अंत मे भगवान की पािि के

िलए भजन करने लग जाते है । दषुकृ ित को धन िमलता है तो सोचता िक मैने कमाया, िकनतु सुकृित को धन िमलता है तो सोचता है िक भगवान की कृ पा से िमला। ििर सुकृित समय पाकर भगवान को ही समिपत ा हो जाता है इसीिलए वह उदार हो जाता है । ऐसे चार पकार के सुकृित भको का वणन ा करते हुए भगवान आगे कहते है -

चतु िव ा धा भ जनत े म ां जनाः स ु कृितनोऽज ुा न। आतो िजजास ुरथा ा थी जानी

च भरतष ा भ।।

तेष ां जान ी िनतयय ुक ए कभिक िव ा िश षयत े। िपयो िह जािननोऽतयथ

ा महं स च मम िपयः।।

उदार ाः स वा एव ैत े जान ी तवातम ैव म े म तम।्

आिसथ तः स िह युकातमा

माम ेवान ुतमा ं ग ित म।् ।

'हे भरतवंिशयो मे शष े अजुन ा ! उतम कमव ा ाले अथाथ ा ी, आता, िजजासु और जानी – ऐसे चार पकार के भकजन मुझे भजते है ।

उनमे भी िनतय मुझमे एकीभाव से िसथत हुआ, अननय पेम-भिकवाला जानी भक अित

उतम है कयोिक मुझे ततव से जानने वाले जानी को मै अतयनत िपय हूँ और वह जानी मुझे अतयनत िपय है ।

ये सभी उदार है अथात ा ् शिासिहत मेरे भजन के िलए समय लगाने वाले होने से उतम है

परनतु जानी तो साकात मेरा सवरप ही है ऐसा मेरा मत है । कयोिक वह मदगत मन-बुििवाला जानी भक अित उतम गितसवरप मुझमे ही अचछी पकार िसथत है ।'अनुकम (गीताः

7.16,17,18)

तुलसीदास जी ने भी शीरामचिरतमानस मे इसी बात को अपनी भाषा मे कहा है ः राम भगत ज ग चािर प कार ा। सुकृित चािर उ अनघ उ दार ा।। चहू च तुर कह ूँ नाम अधारा।

गयान ी पभ ु िह िब सेिष िपआरा।।

'जगत मे चार पकार के (आता, अथाथ ा ी, िजजासु और जानी) रामभक है और चारो ही पुणयातमा, पापरिहत और उदार है । चारो ही चतुर भको को नाम ही आधार है । इनमे जानी भक पभु को िवशेष रप से िपय है ।'

(शीर ाम चिरत . बाल काणडः

21.3-4)

जो तन-मन से रोगी है , धन-सता होने पर भी जो मानिसक रप से अशांत है ऐसा शारीिरक, मानिसक या बौििक रप से रोगी अगर अपने रोग, संकट या कोई कष िमटाने के िलए भगवान की शरण लेता है तो उसे आता कहते है ।

जो बुिि रपी धन, सतारपी धन या रपये-पैसेरपी धन को अिजत ा करने के िलए भगवान

की शरण लोता है वह अथाथ ा ी भक है । जो भगवान के ततव को समझना चाहता है वह िजजासु भक है ।

िजसको न धन की जररत है , न सता की जररत है , न भगवद ततव समझना जररी है

ऐसा जो आिाकाम, पूणक ा ाम है , अपने आप मे संतुष है ऐसा भक जानी भक कहा जाता है । ऐसा

जानी भक भगवान को िनषकाम भाव से भजता हुआ भगवदाकार विृत, बहाकार विृत बनाये रखता है । जो अपने सवरप मे मसत रहते है , जो जान की खुमारी से नीचे नहीं आते, िजनका सवभाव है परमातमशाँित मे ही रहना, ऐसे जो जानी महापुरष है उनहोने अपने और ईशर के बीच की दरूी को समाि कर िलया है ।

भगवान कहते है िक उपरोक चारो ही पकार के भक मुझे िपय है । ये चारो ही उदार है ,

सुकृित है कयोिक ये चाहते तो है संकट िमटाना, रोग िमटाना, चाहते तो है अथा यानी धन, लेिकन

मेरी शरण दारा चाहते है । कोई चोरी की शरण लेकर धनवान होना चाहता है , कोई धोखेबाजी की शरण लेकर धनवान होना चाहता है , कोई छल-कपट करके सतावान होना चाहता है लेिकन जो सुकृित है वह मेरी शरण लेकर कुछ पाना चाहता है इसीिलए वह सुकृित है ।

चार पकार के भको मे आता भक वह है जो पीडा के समय पभु को भजता है । जैसे िोपदी

चीरहरण के समय बडे संकट मे थी। उसने चारो ओर िनहारा िकनतु कोई रकक न िदखा। तब उसने संकटहारी शीहिर को पुकारा।

गजराज का पैर जब गाह ने पकड िलया, उसे भी जीवनरका का कोई माग ा न िदखा तब

उसने भी जीवनदाता पभु की शरण ली। इस पकार दोनो आता भक कहे जाते है ।

अथाथ ा ी भको मे सुगीव, धुव आिद आते है । उतानपाद की दो रािनयाँ थीं, सुरिच एवं

सुनीित। सुनीित का पुत जब धुव जब िपता की गोद मे बैठने गया तो सुरिच ने िटकारते हुए कहाः

"अगर िपता की कोख मे बैठना है तो मेरी कोख से जनम लेना पडे गा।"अनुकम

धुव को चोट लग गयी। 'मै िपता की गोद का अिधकारी कैसे बनूँ?' यह सोचता हुआ वह

माँ के पास गया एवं

माँ से उपाय पूछा। तब माँ ने भगवान की शरण लेने को कहा।

धुव िनकल पडा तप करने के िलए। नारदजी ने उसे घर लौटाने के कािी पयास िकये

िकनतु धुव सुकृित था। अतः वह अपने िनशय पर अटल रहा। तप करके िपता की गोद तो कया राजय भी पा िलया, अटल पदवी पा ली और अनत मे पभु की गोद भी पा ली।

िजजासु भक भगवान को चाहता है । 'मै कौन हूँ... कहाँ से आया हूँ.... जनम मरण से

छुटकारा कैसे िमलता है ... बह कया है ...सिृष कैसे हुई... मौत के बाद जीव कहाँ जाता है .... जनम –

मरण से छुटकारा कैसे िमलता है ...जीव कया है ... आतमा-परमातमा का जान कैसे हो...' इस पकार के िवचार करके जो ततवजान की ओर चल पडता है वह है िजजासु भक।

चौथे पकार का भक है जानी। वह भगवान को ततव से जानकर िनषकाम भाव से भजता

है । ये तीनो पकार के भक-आता, अथाथ ा ी और िजजासु भक तो बहुत दे खने को िमलेगे लेिकन चौथे पकार का जानी भक कभी-कभी, कहीं कहीं दे खने को िमलता है ।

ऐसे जानी के तो भगवान भी भक होते है और जानी भगवान का भक होता है । जो

भगवान का पकका भक होता है वह भगवान को छोडकर दस ू रे की शरण नहीं लेता है । एक पकका भक धयान कर रहा था। उसके धयान मे इनिदे व आये और बोलेः "वर माँग ले।"

भकः "आप इनिदे व ! मै आपसे वर कया माँगूँ? मै तो वर अपने इष से ही लूग ँ ा। अगर

आप मुझे इनिपद भी दे दे तो इनकार है िकनतु मेरे इष भोलानाथ मुझे कीट भी बना दे तो सवीकार है ।"

यह है अननय भिक। भगवान के पित यिद अननय भिक है तो ििर दःुख िमलने पर भी

दःुख नहीं होगा कयोिक दे नेवाले हाथ सुनदर है । भक को यिद दःुख भी िमलते है तो सोचता है िक भगवान ने मेरे पाप िमटाने के िलए ही दःुख िदये है । जैसे गोिपयाँ, भीषम, सुदामा आिद।

अगर िकसी सुकृित भक ने भगवान का भजनािद िकया और उसे पमोशन या संसार की

कोई सुख-सुिवधा िमल गयी तो उसे भी वह भगवान का पसाद ही मानता है । भगवान कहते है उदाराः

सव ा एवैत े। वे सब उदार है जो मुझसे जरा-सा पा लेते है तो अपने सिहत सब कुछ

मेरा मान लेते है । सुकृित भक संसार की वसतुएँ माँगते -माँगते भी बाद मे वासतव मे भगवान का भक बन जाता है । आगे भगवान कहते है िक ये सब उदार है सुकृित है , अचछे है िकनतु जानी तो साकात मेरा सवरप ही है ।

जान ी तवातम ैव मत म।्

ऐसे जानी उतम गित को पाते है । अनुतम वयवहार मे होते हुए भी, अनुतम शरीर मे होते

हुए भी परम उतम ततव का साकातकार िकये हुए होते है ।अनुकम

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

ततव वेता की पािि द

ु ला भ है

बहूनां जन मनामनत े जानव ान मां पपदत े।

वास ु देवः स वा िम ित स म हातमा स द ु ु ला भः।।

'बहुत जनमो के अनत के जनम मे ततवजान को पाि हुआ जानी सब कुछ वासुदेव ही है -

इस पकार मुझे भजता है , वह महातमा अित दल ा है ।' ु भ

(गीताः

7.19)

यहाँ एक पश उठ सकता है िक जानी भक बहुत जनमो के बाद कयो भजता है ? पहले ही

से कयो नहीं भजता? भगवान को तो पहले से ही भजना चािहए और सब भजते भी है ।

भगवान को पहले से भजते तो कई है िकनतु 'सवत ा भगवान है ' इस पकार पारं भ मे कोई

नहीं भज सकता। बहुत जनमो के पुणय एकितत होते है तभी आदमी इस पकार का भाव समझने

के योगय होता है । अनयथा, ऐसी बात सुनने को िमल जाये ििर भी वह ठीक से समझ नहीं पाता।

एक बार दे वराज इनि एवं दै तयराज िवरोचन दोनो बहाजी के पास आतमोपदे श लेने के

िलए गये। िपतामह बहा ने उनसे कहाः "आँखो से जो िदखता है वह बह है ।"

उपदे श पाकर िवचार करते हुए दोनो वहाँ से िनकल पडे । िवरोचन को हुआ िक 'आँखो से

जो िदखता है , वह तो अपना शरीर िदखता है अथात ा ् शरीर ही बह है । अतः खाओ, िपयो और मौज करो।' उसके जीवन मे साधन-भजन नहीं था, समझ नहीं थी, अतः 'सवत ा बह है ' यह सुनने पर भी बह के वासतिवक सवरप को जानकर अहं कार वश वह शरीर को ही बह मानकर संतुष

हो गया। इनि को हुआ िक सामने वाले की आँखो मे तो अपना शरीर िदखता है और शरीर है पिरवतन ा शील अतः वह बह कैसे हो सकता है ?

इनि पुनः गये बहाजी के पास और पुनः पाथन ा ा की। तब बहा जी ने कहाः "अगर ऐसे

नहीं समझ पाते हो तो इस पकार समझो िक आँखो को जो दे खता है वह बह है ।" इनि िवचार करने लगे िक "आँखो को तो मन दे खता है ।"

उनहोने बहा जी से पुनः पाथन ा ा की िकः "िपतामह अभी भी ठीक से समझ मे नहीं आ रहा िक मन बह कैसे हो सकता है ?"

िपतामह बोलेः "मन को भी जो दे खता है वह बह है ।" इनि ििर गये एकानत मे और िवचार करने लगे। िवचार करते-करते उनहे लगा िक मन

के संकलपो-िवकलपो को, मन की चालबािजयो को तो बुिि दे खती है और बुिि भी बदलती है अतः वह बह कैसे हो सकती है ?

िपतामहः "बुिि की बदलाहट को जो िनरनतर दे खता है वह बह है ।"अनुकम तब इनि एकानत मे जाकर िवचार करने लगे िक बुिि की बदलाहट को दे खने वाला कौन

है ? इस पकार मनन-िनिदधयासन करते-करते इनि गहराई मे खो गये एवं सबके सारभूत, सबके वासतिवक सवरप और सवत ा िसथत बह-परमातमा के जान को पाने मे सिल हो गये।

कहते है िक इस अवसथा मे पहुँचने मे इनि को वषो लग गये। शी कृ षण ने ठीक ही कहा

है ः बहूनां जन मनामनत े .... बहुत जनमो के अंत मे... आप लोग ऐसा मत समझ लेना िक पहले

आप िचिडया, तोता, हाथी, घोडा आिद थे और अब मानव जनम िमला है और आतमजान का सतसंग िमल गया है । नहीं अगर हम सीधे पशु-पकी की योिन से मनुषय शरीर मे आते तो

आतमजान की जगह पर जाने की रिच नहीं होती। पूवज ा नम की थोडी बहुत साधना होने पर, जपधयान आिद होने पर, पुणयाई होने पर ही मनुषय 'सवत ा परमातमा है ...' ऐसा उपदे श सुनने की जगह पर पहुँच पाता है । जैसे पहली, दस ू री कका का िवदाथी कॉलेज नहीं जा सकता। ठीक ऐसे

ही पूवज ा नम के सतकृ तयो से रिहत मानव भी आतमजान पाने की जगह पर नहीं पहुँच सकता और अगर पहुँच भी जाये तो आतमजान को समझना उसके िलए किठन होता है । इसीिलए शीकृ षण कहते है - बहू नां ज नमनामनत े .....

बहुत जनमो के बाद जानवान ् परमातमा की पािि करता है और परमातमा का अनुभव

होते ही जनम-मरण का चक सदा के िलए िमट जाता है । जनम-मरण, पाप-पुणय, राग-दे ष, सवगानरक मे आना-जाना ये तभी तक है जब तक परमातमा का जान, परमातमा का अनुभव नहीं होता। जब परमातमा का अनुभव हो जाता है तो ये सभी दनद सदा के िलए िमट जाते है ।

िजनको परमातमा का अनुभव हो गया है वे तो शोक से तर ही जाते है , उनके संपका मे

आने वालो का भी शोक-मोह नष होने लगता है । िकनतु ऐसे परमातम-पाि महापुरषो का िमलना

बडा किठन है । शी कृ षण कहते है - स महातमा सुद ु ला भः। वह महातमा अित दल ा है । शी कृ षण ु भ की नजर मे जो अतयनत दल ा है उनकी दल ा ता का कया बयान िकया जाये? ु भ ु भ

भगवान का पाि होना सुलभ है कयोिक भगवान तो सवत ा है िकनतु सवत ा िसथत भगवान

को जानने वाला महातमा दल ा है । ईशर को पाना किठन नहीं िकनतु संतो का संग िमलना ु भ किठन है , पावन सतसंग िमलना किठन है ।

अजुन ा शीकृ षण के सखा थे, अतयंत िनकट थे, ििर भी सतसंग नहीं िमला था तो वे

अतयंत िकंकतवायिवमूढ हो गये थे, िवषाद मे डू ब गये थे। िकनतु जब भगवान शीकृ षण के मुखारिवनद से िनःसत ृ शीमद भगवद गीता के रप मे पावन सतसंग िमला तो वे ही अजुन ा कहने लगेः

नषो मो हः सम ृ ितल ा ब धा तवतपसादानमयाचय

ुत।

िसथतो ऽिसम गतस नदेह ः किरष ये वचन ं तव।।

'हे अचयुत ! आपकी कृ पा से मेरा मोह नष हो गया है और मुझे समिृत पाि हुई है

इसिलए मै संशयरिहत होकर िसथत हूँ और आपकी आजा का पालन करँगा।'अनुकम

(गीताः

18.73)

यह कैसे संभव हुआ? जब शी कृ षण का िदवय सतसंग िमला तब। सतसंग िमलना बडा

दल ा होता है , सतपुरष का िमलना बडा किठन होता है । अगर वे िमल भी जाये तो उनहे पहचान ु भ

पाना अगमय होता है और अगर पहचान ले तो उनका िमलन अमोघ होता है , वह कभी वयथा नहीं जाता।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

कामनाप ूित ा हेत ु भी भगवान क ी श रण ही ज ाओ काम ै सतैसत ैह ा तजानाः पपदनत े ऽनयद ेवताः। तं त ं िनयम मासथाय

प कृतय ा िनयताः सवया।।

'उन उन भोगो की कामना दारा िजनका जान हरा जा चुका है वे लोग अपने सवभाव से पेिरत होकर उस-उस िनयम को धारण करके अनय दे वताओं को भजते है अथात ा ् पूजते है ।' (गीताः

7.20)

काम ैसत ैसत ै हा तजान ाः। 'कामनाओं से िजनका जान अपहत हो गया है ....' यह मानव तन

वासतव मे िमला है परमातम पािि के िलए िकनतु कामनाओं के पीछे अंधी दौड मे ही मनुषय इतना खप जाता है िक उसे अपने वासतिवक लकय का पता नहीं चलता !

कामना अथात ा ् संयोगजनय सुख की इचछा। यह कामना दो पकार की होती है ः यहाँ के

भोग भोगने के िलए धन-संगह की कामना और सवगािाद परलोक के भोग भोगने के िलए पुणय संगह की कामना।

इन कामनाओं से सत ्-असत ्, िनतय-अिनतय, बनध-मोकािद का िववेक ढँ क जाता है एवं

वयिक अपने सवभाव के परवश हो जाता है ।

मनुषय अपने सवभाव को शुि और िनदोष बनाने मे सवथ ा ा सवतंत है । िकनतु जब तक

मनुषय के भीतर कामनापूित ा का उदे शय रहता है तब तक वह अपने सवभाव को नहीं सुधार सकता और तभी तक सवभाव की पबलता और अपने मे िनबल ा ता िदखती है । िजसका उदे शय कामना िमटाने का हो जाता है वह अपने सवभाव को सुधारने मे सिल हो जाता है ।

लेिकन होता कया है ? कामनाओं के कारण अपनी पकृ ित के परवश होने पर मनुषय

कामनापूित ा के अनेक उपायो को खोजता है एवं अनेक िनयमो को धारण करके अनय दे वताओं की शरण लेता है । भगवान की शरण नहीं लेता।'अनुकम

सवामी अखंडानंदजी महाराज कहते है - "यह तो ऐसा ही हुआ िक मानो, अपने पितदे व है

अपने घर मे और सी दस ू रे पुरष के पास अपनी कामना पूरी करने जाती है । यह तो वयिभचार है , अपराध है । इसी पकार हम अपने हदयसथ ईशर को तो पीठ दे दे ते है एवं अनय-अनय दे वताओं के पास याचना करते है िक हमारा यह काम कर दो, वह काम कर दो और इसके िलए हम तदनुरप िनयमो का, यजािद का पालन भी करते है ।"

हालाँिक समसत दे वताओं मे भी परमातमा का ही िनवास है िकनतु अजानवश हम यह

नहीं समझ पाते है । काम एवं राग से अपनी कामनापूित ा के िलए सवश ा िकमान परमेशर को छोडकर अनय की उपासना करते रहते है ।

आगे के शोको मे भगवान ने यही समझाया है िक अनय दे वताओं की उपासना के कारण उन दे वताओं से मेरे दारा ही िवधान िकए हुए इिचछत भोगो को मानव पाता है । ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

खणड स े नह ीं , अखण ड स े पीित कर े ..... शीमद भगवद गीता के सातवे अधयाय मे भगवान शीकृ षण अजुन ा से कहते है यो यो या ं या ं तन ुं भक ः शियािच ा तु िमच छित।

तसय तसयाचल ां शिा ं ताम ेव िवद धामयहम ् ।। स तया श िया य ुकसतसया राधनमीहत े।

लभत े च तत ः कामानमय ैव िविह तािनह तान।् । अनत वतु ि लं त ेषा ं त द भवतयलपम ेध साम।्

देवा नदेवयजो या िनत मद भ का या िनत माम िप।। 'जो जो सकाम भक िजस-िजस दे वता के सवरप को शिा से पूजना चाहता है , उस-उस

भक की शिा को मै उसी दे वता के पित िसथर करता हूँ।

वह पुरष उस शिा से युक होकर उस दे वता का पूजन करता है और उस दे वता से मेरे

दारा ही िवधान िकये हुए उन इिचछत भोगो को िनःसनदे ह पाि

करता है ।

परनतु उन अलप बुििवालो का वह िल नाशवान है तथा वे दे वताओं को पूजने वाले

दे वताओं को पाि होते है और मेरे भक चाहे जैसे ही भजे, अंत मे मुझे ही पाि होते है ।' (गीताः

7.21,22,23)

जो-जो सकाम भक, शिा से िजस-िजस दे वता के सवरप की पूजा-अचन ा ा करता है उस-उस भक की शिा मे परमातमा ही मूल कारण है । मनुषय का सवभाव है इचछाओं के पीछे दौडना और

वे इचछाएँ िजन-िजनसे पूरी होती है उन-उन दे वो की, उन वयिकयो की, उन-उन भूत-पेतो, यकगनधवो की वह आराधना करता है ।'अनुकम

इचछा तो रजोगुणी है । माया के दारा अपहत जान से , जान का नाश होने से िववेक भी

नष हो जाता है और िववेक नष हो जाने के कारण ििर यह पता नहीं चलता िक 'इन इचछाओं

की पूित ा करने वाले इस जहाँ मे िकतने ही वयिक आये और चले गये , िकतनी ही अलप-अलप इचछाओं की पूित ा इस जीवन मे भी हो रही, ििर भी जीवन मे शांित का, सतय का कोई सवर नहीं सुनाई दे रहा है ।'

िजनकी अलप मेधा है , अलप बुिि है वे ही लोग उन अलप-अलप के, खणड-खणड के

अिधषाताओं की उपासना करते है । मानो, मुझे सुगंध की इचछा है । मैने अिशनी कुमारो की

आराधना की। वे मुझ पर संतुष हो गये और उनहोने मुझे ऐसी पाण शिक दे दी की मै खूब दरू -

दरू की सुगनध भी गहण कर सकूँ। लेिकन सुगनध से ही मेरे जीवन की पिरतिृि तो नहीं होगी ,

केवल सुगंध से ही पूण ा आननद नहीं आएगा। िूल मे सुगनध तो होती है िकनतु सुगनध के साथ हम रप भी दे खना चाहते है , सपश ा भी करना चाहते है । सुगध ं का सुख लेना है तो अिशनी कुमारो को िरझाना होगा िकनतु रप और सपश ा का भी सुख लेना है तो रप के अिधषाता सूया दे वता एवं सपशा के अिधषाता वायु दे वता की उपासना करनी पडे गी।

ऐसे एक-एक सुख के अिधषाता दे व को िरझाने पर भी मन पूण ा सुख की पिरतिृि का

अनुभव नहीं करे गा कयोिक मन का सवभाव है अभाव मे जीना। जो हमारे पास नहीं है , मन उसी का िचनतन करता है और जो है उससे ििर वह आगे भागता है । मन का सवभाव ही है िवषयो

की ओर दौडना। उन िवषयो की पािि मे वह छल-कपट करे , इससे तो बेहतर है िक वह ईशरोपासना करे , दे वताओं का पूजन करे कयोिक दे वताओं के पित जो आसथा होती है उस आसथा के मूल मे भी तो परमातमा ही है । दे वताओं की पूजा आराधना के बाद जो सुख िमलेगा वह

नशर होगा। वह सुख शाशत ् शािनत और शाशत ् आनंद नहीं दे सकेगा। शाशत शांित और शाशत ् सुख तो केवल परमातम-पािि मे ही है ।

भगवान कहते है िकः 'जो-जो सकाम भक िजस-िजस दे वता के सवरप को शिा से पूजना

चाहता है उस उस भक की शिा को मै उसी दे वता के पित िसथर करता हूँ।'

यहाँ पश उठ सकता है िकः 'भगवान उस दे वता की तरि हमारी शिा को िसथर कयो

करते है ? वे हमारी शिा को अपनी ओर कयो नहीं लाते?' मजे की बात यह है िक आपकी जहाँ

विृत है , आपकी जहाँ शिा है वहाँ से हटकर उसे कोई अपनी तरि लायेगा तो आपको खतरा महसूस होगा लेिकन जहाँ आपकी शिा है उसकी तरि आपको यिद सहयोग दे गा तो उसकी बात पर आपको िवशास होने लगेगा, सनेह होने लगेगा और जब सनेह होने लगेगा तो उसके िवषय मे आप सोचने लगोगे और उसके िवषय मे जयो सोचा तयो ही उसकी गिरमा का खयाल आने लगेगा।

यह एक मनोवैजािनक तथय है िक िजस बात के िलए इनकार िकया जाता है वही मन

भागता है । बचचे को कहा जाए िक 'यह मत कर' तो वह वही करे गा। अखबार मे कुछ छपा हो। आप िकसी को बोलोः 'इसे मत पढना' तो वयिक उसे ही पहले पढे गा। इस पकार इनकार भी

सवीकृ ित को आमंतण दे ता है । इसिलए भगवान आपको इनकार नहीं करते िक 'इस – इस दे वता की आराधना मत करो' वरन ् वे तो सता दे ते है िक यह सोचकर िकः'अनुकम आज नही ं तो क ल, कल नही ं तो परसो।

इतनी भी कया

ज लदी ह ै ब हुत पड े ह ै बरसो।।

कभी-न-कभी तो िववेक जग जायेगा िक इन अलप सुखो मे कोई सार नहीं है , इस खणडखणड मे कोई सार नहीं है । एक-एक को िरझाने मे कोई सार नहीं है लेिकन अनेको मे जो एक है उसी को िरझा िलया तो सब रीझ जाएँगे।

िकीर इबाहीम जब िकीर नहीं बने थे, िबलख के समाट थे तब की बात है । एक बार उनहोने एक गुलाम खरीदा और उससे पूछाः "तुम कया खाना चाहते हो?" गुलामः "जो िखला दोगे, वह खा लूग ँ ा।" "कया पहनोगे?"

''जो पहना दोगे, वह पहन लूँगा।" "करना कया चाहते हो?"

"जो करने के िलए कहोगे, वह करँगा।" इबाहीम सोचने लगे िकः 'यह कैसा गुलाम है ?' ििर कडक कर बोलेः "आिखर तेरा इरादा

कया है ?"

गुलामः "मेरे मािलक ! गुलाम और उसका कोई इरादा? गुलाम और उसकी कोई माँग?" इबाहीम ने गुलाम को पणाम िकया और बोलेः

"तूने मुझे आज एक सबक िसखा िदया। बंदे को ऐसा ही रहना चािहए। वह मािलक का

गुलाम है । मािलक ने उसे जनम िदया है ििर उसकी अपनी माँग कैसे? वह रब जो करवा दे वह ठीक है , जो िखला दे वही ठीक है , जो पहना दे वही ठीक है , जहाँ रखे वहीं ठीक है । मनुषय को ऐसे ही रहना चािहए।"

हम राजी

हमारी न

है उ समे िज समे त ेरी रजा

आरज ू ह ै न ज ुसतज ू ह ै।।

है।

न खु शी अचछी ह ै न म लाल अ चछा ह ै।

यार ! तू िजस मे रख दे व ह हाल अच छा है।। ऐसा िजनको बोध हो जाता है , इस पकार िजनकी वासना िनवत ृ हो जाती है उनके साथ

पीित करने वाले लोग भी खणड-खणड के सुख को, एक-एक इिनिय के सुख को पाने के िलए एकएक दे वता की गुलामी नहीं करते लेिकन हजारो दे वता िजनके इशारे से दे ने का सामथय ा रख रहे है वे उसी को अपना साथी, उसी को अपना मािलक मानते है ।"

एक सूिी िकीर थे। उनके यहाँ एक बार कोई भक पहुँचा। रातभर दोनो मे हिरचचाा होती

रही, पशोतर होते रहे । सुबह जब भक िवदा लेने लगा तो बोलाः "बाबा जी ! रात बडी सुनदर बीती। बिढया पशोतर हुए, भगवचचाा हुई।"'अनुकम

िकीरः "िकनतु मै खुश नहीं हुआ। तेरे िलए भले बिढया रात बीती िकनतु मेरे िलए तो

नरक की राती थी।"

भकः "कैसे बाबाजी?" िकीरः "तू मेरे से पश पूछता था यह सोचकर िक बिढया-से-बिढया पश पूछूँ। इस पकार

तू अपनी योगयता िदखा रहा था और मै उतर दे कर तुझे संतुष करना चाह रहा था। तू मुझे िरझा रहा था, मै तुझे िरझा रहा था। इसमे उस मािलक को िरझाने का काम रह गया। इससे तो अचछा

होता िक तू अकेला बैठता, मै भी अकेला बैठता और दोनो उसी रब मे डू ब जाते। हमने पशोतरी मे समय गँवा िदया।"

संसार के पशोतर की अपेका परमातम-ततव के पशोतर अचछे है लेिकन िजनहोने परमातम-

ततव की मिहमा जानी है , िजनहोने परमातमा मे िवशािनत पायी है , जो िनःसंकलप हो गये है वे दे वताओं की कया आराधना करे ? खणड-खणड भोग की तो कया इचछा करे ? वे तो अखणड भोग की भी इचछा नहीं करते। अखणड आनंद तो उनका सवरप ही हो जाता है ।

इसीिलए भगवान शीकृ षण गीता के सातवे अधयाय के 22 वे शोक मे कहते है - "वह पुरष

उस शिा से युक हुआ उस दे वता का पूजन करता और उस दे वता से मेरे दारा ही िवधान िकए हुए उन इिचछत भोगो को िनःसंदेह पाि करता है ।"

आिददे व तो वही परमेशर है जो सबको चेतना दे रहा है । मेरा शरीर और आपका शरीर

अलग-अलग है , मेरी-आपकी सताएँ िभनन-िभनन है लेिकन शरीर को चलाने की सता दे ने वाला, सताओं को सता दे ने वाला सबमे चैतनय एक ही है । उसका जो आिद िवधान है उसके अनुसार

हम िजस-िजस दे वता की आराधना उपासना करते है उस-उस दे वता मे भी वरदान दे ने का सामथया तो उसी परमातमा की सता से ही आता है ।'

हालाँिक हम िजन दे वताओं की पूजा-अचन ा ा करते है वे हमे भगवान की ओर नहीं लगाते।

हमारी बुिि कुंिठत हो जाती है िक 'हमे िलानी वसतु िलाने दे वता के दारा िमली।' इस पकार हम उस दे वता के पशु बन जाते है । जैसे, गडिरया अपने पशु को नहीं छोडना चाहता ऐसे ही

दे वता भी अपने भक को नहीं छोडना चाहते। इस पकार दे वताओं के माधयम से अपनी वासना

पूरी करते-करते जनम-मरण की याता चलती रहती है । वासनापूित ा करते-करते मनुषय का जान अपहत हो जाता है और ऐसा अलप मित वाला मनुषय अलप सुखो के िलए दे वताओं को छोडकर

ििर मनुषयो को ही िरझाने मे लग जाता है । जरा सा सपश ा सुख पाने के िलए पती को िरझाने मे लग जाता है । जरा सा नल का पानी लेने के िलए पडोसी को िरझाने मे लग जाता है । दक ु ानदार गाहको को िरझाने मे लग जाता है । अमलदार आििसर को िरझाने मे लग जाता है ।

इस पकार सब अलप-अलप सुख पाने के िलए अलप-अलप सतावालो को िरझाने मे अपना जीवन

खतम कर दे ते है । दे वता की आराधना करने से वे दे वता हमे अलप सुख की' अनुकम सामगी तो दे दे गे लेिकन इिनियो से पर जाने की बात नहीं करे गे। जो इिनियो से परे पहुँच चुके है वे

बहवेता महापुरष अथवा तो परमातमा ही परमातमा ही इिनियातीत होने का सनदे श दे सकते है । बाकी लोग तो इिनियो मे जीते है इसीिलए इिनियो की कहानी कहे गे।

मुंबई मे बोरीवली के समुि की खाडीवाले इलाके मे एक छोटा सा आशम था। वहाँ मेरे

पूजयपाद गुरदे व शी लीलाशाह जी बापू ठहरे हुए थे। मै भी उस समय शीचरणो मे था। एक िदन

सुबह मै िवचार सागर पर सतसंग सुनकर नीचे उतरा तब तक एक सनयासी मुझे बहकाने लगा। वह बोलाः

"तुम इतने युवान हो, अचछे घर के हो, समझदार हो ििर कयो इस सिेद कपडे वाले बाबा के पीछे पडे हो? आतमा, परमातमा, बह... यह सब कया है ? मै तुमहे ऐसा मंत दे ता हूँ िजससे दे वता

राजी हो जायेगे, ऋिि-िसिियाँ आ जायेगी, लोगो पर तुमहारा पभाव पडने लगेगा..." इस पकार वह मुझे अलप वसतुओं से पभािवत करने की कोिशश करने लगा।

मै नया-नया था। उसकी बाते सुन रहा था। िकसी ने जाकर पूजयपाद सदगुर दे व शी

लीलाशाह जी बापू से कह िदया िक संनयासी आसाराम से कुछ बाते कर रहा है और वह सुन रहा है ।

मेरे सदगुर दे व ने तुरंत एक वयिक को भेजकर मुझे बुलाया और पूछाः "कया बाते कर

रहा था?"

मैने कहाः "गुरदे व ! वह बोल रहा था िक यह आतमा-परमातमा की बाते कया करता है ?

तुम तो कोई ऐसा अनुषान, टोना-टोटका सीख लो, जप तप कर लो िक...." तब मेरे गुरदे व ने करणा करके जोर से डाँट लगायीः

"कयो गया था उसके पास....? "

डाँट इतनी जोर से थी िक मेरा रोम रोम काँप उठा। उस समय लगता था िक बाबा जी बहुत

नाराज हो गये। मेरी इतनी गलती तो नहीं थी। मै अपनी ओर से तो नहीं गया था, उसी संनयासी ने बुलाया था। लेिकन अब पता चलता है िक अगर उस समय कृ पा करके उनहोने मुझे नहीं रोका

होता तो शायद अलप सुख िदलाने वाले िकसी दे वी-दे वता के चककर मे पडकर अभी तक भीख ही माँगता रहता, ििर भी झोली पूरी नहीं भरती।

डाँटने के बाद बडे पयार से बुलाकर गुरदे व मुझसे बोलेः

"बेटा ! इधर आओ। ये जो भेदवादी लोग है वे िशकारी जैसे है । जैसे बाज आकाश मे ऊँचा चढता है और िशकारी उसे िगरा दे ता है वैसे ही साधकरपी बाज जब ऊँची उडान भरता है और

आतमिवचार करके आतमानंद पाना चाहता है , िनिवष ा य सुख पाना चाहता है , गुणातीत अवसथा मे पहुँचना चाहता है तब ये भेदवादीरपी िशकारी 'इस दे वता को मनाओ... उस दे वता को िरझाओ.. यह उपवास करो.... आज मंगलवार करो... आज शुकवार करो..' इन अलप साधनो मे भटकाकर उसे

नीचे िगरा दे ते है । यिद मनुषय इन अलप साधनो मे भटक जाये तो अपना परम लकय कब

हािसल करे गा? जैसे कोई एम.ए. की परीका के िदनो मे पहली-दस ू री कका का अभयासकम पढनेपढाने लग जाए तो एम.ए. की पढाई कब करे गा? इसी पकार है 'अनुकम ततवजान है आिखरी कका। जब तक ततवजान नहीं हुआ, आतम-साकातकार नहीं हुआ तब तक इन भेदवािदयो की बातो मे मत आना, उनका संग भी मत करना।"

भेदवािदयो की बाते कया है ? ततव का अनुभव तो हुआ नहीं है लेिकन गुर ने थोडा संकेत

िकया है , शास कुछ कह रहे है और कमनसीबी से हमारी इचछा भी नहीं होती आतमजान पाने की

तो ििर अलपसुख, अलपिसिि के िलए अलप चुटको मे ही उलझ जाते है और वे हमे रसपद भी लगते है । लेिकन जो रसपद पदाथा, जो िखलौने िमलते है वे भी परमातमा की सता के िवधान के

अनुकूल ही िमलते है । जब उसी परमातमा की सता के िवधान के अनुकूल ही दे वता हमे कुछ दे ते है तो ििर अलग-अलग दे वता को कयो िरझाये? सबको जो दे ता है उसी के साथ सीधा संबध ं कयो न सथािपत करे ?

भगवान कहते है - "चर-अचर मे मेरी चेतना है । साकार-िनराकार सबमे मै ही हूँ।" इसिलए

दे वता और दै तय परमातमा

की सता से िभनन नहीं। ये सब अमीर-गरीब, दे वता-दै तय, िभनन-

िभनन िदखते है लेिकन सता सबमे एक की ही है । उस एक की सता को जो समझ जाता है वह एक मे आराम पा लेता है । वयवहार अनेक से होते हुए भी सबमे सता एक की िनहारता है तो उस एक की सता से उसे अदै त ततव का जान हो जाता है । जब अदै त ततव का जान हो जाता है तब इिनियो के भोग या मनःकिलपत पदाथा मे कोई सार नहीं िदखता।

घाटवाले बाबा को उनके साधना-काल मे एक बार िकसी साधु ने एक मंत दे कर मंत के

जप की िविध बतला दी और कहाः

"इस मंत को जपोगे तो अदभुत चमतकार होगा लेिकन उसकी सिलता का आधार

तुमहारी एकागता और सचचाई पर है ।"

घाटवाले बाबा ने बाद मे बताया थाः "उस समय उस मंत का पयोग करने के िलए

भूमधय मे धयान करते हुए मंत का जप िकया।"

भूमधय को तीसरा नेत या आजाचक भी कहते है । वह आजा चलाने का केनि है । तुमहारा

संकलप िसि होने की जगह है वह। अतः जब मनुषय भूमधय मे धयान करता है तो उसकी चेतना िसमटकर भूमधय मे आ जाती है । ििर कुछ चमतकार घिटत होने लगते है ।

घाटवाले बाबा ने कुछ िदनो तक मिनदर मे जप िकया। एकागिचत तो वे थे ही। एक िदन

इस पकार वे जप कर रहे थे तब अचानक उस मिनदर के घंट अपने आप बजने लगे, दरवाजे धडाधड खुलने और बंद होने लगे। यह अदभुत दशय दे खकर पुजारी दौडता हुआ आया और बोलाः

"यह कया कर रहे है , महाराज ! कैसी माला जप रहे है ? मेरा मिनदर तोड दे गे कया? चले

जाइये यहाँ से।"'अनुकम

घाटवाले बाबा उठकर शांित से चल िदये। अब साधारण आदमी की दिष से दे खा जाये तो

यह एक बडा चमतकार था लेिकन आिखर कया? शबद पतयाहार िसि हुआ हो तो ऐसा हो सकता

है । ऐसे ही रप पतयाहार या रस पतयाहार िसि होता है । एक-एक इिनिय अंतमुख ा होती है तो उसके जगत की िसिियाँ आती है लेिकन एक-दो, पाँच या दस िसिियाँ िमलने पर भी जीवन मे पूरी शांित नहीं िमलती।

ििलम दे खने की इचछा हुई और ििलम दे ख ली तो कया आप सुखी हो गये? ििलम

दे खते-दे खते ठं डा पीने की, मूँगिली खाने की इचछा हुई। मूग ँ िली भी िमल गयी, कोकाकोला भी िमल गया तो कया आपकी इचछा पूरी हो गयी? नहीं थकान हुई तो िबसतर की इचछा हुई, सुबह

हुई तो दक ु ान जाने की इचछा हुई..... इस पकार इन इचछाओं का अंत तो नहीं होता लेिकन अलप सुखो मे जीवन का ही अंत हो जाता है ।

भगवान आगे कहते है - 'उन अलपबुििवालो का वह िल नाशवान है तथा उन दे वताओं को

पूजने वाले दे वताओं को पाि होते है और मेरे भक चाहे जैसे भी भजे अंत मे वे मुझे ही पाि होते है ।'

दे वता मुिक नहीं दे सकते। दे वता साकातकार नहीं करवा सकते। दे वता भगवान की तरि

नहीं लगा सकते। दे वता अपनी तरि लगायेगे और आप दे वता के लोग तक जा सकते है । जैसे कोई सेठ के पास गया और वहीं रहने लगा तो साधारण नौकरी के अपेका तो यह ठीक है लेिकन

वहाँ भी उसे पूणा शांित नहीं रहे गी। वह दबा-दबा, िसकुडा-िसकुडा ही रहे गा। सेठ को, िमिनसटर को सवयं को शािनत नहीं तो भला उसके नौकर को शांित कैसे िमल सकती है ?

इन शोको का भावाथ ा केवल इतना ही है िक मनुषय िजधर मुडना चाहे उधर मुड सकता

है । वह अपनी बुिि का िजतना िवकास करना चाहे कर सकता है । लेिकन हाँ, अगर बचकानी बुिि

है , अलप मित है तो वह अलप सुखो मे ही उलझकर रक जाता है । जैसे, बालक 8-10 िबिसकट के िलए सोने की अशिी छोड दे गा िकनतु यिद बालक जब बडा होकर बुििमान बन जाता है तब 810 तो कया पूरा िबिसकट या चॉकलेट का िडबबा दे कर भी आप उससे अशिी नहीं छुडवा सकते।

ऐसे ही िजसकी बुिि का िवकास हुआ है वह अलप सुखो को, अलप सुखरपी िबिसकट या चॉकलेट को छोड दे गा, भले ही उसे अभी भोग-सुख नहीं िमल रहा है लेिकन अंत मे जो िमलेगा वह कभी

छूटे गा नहीं। ऐसी िजसकी समझ है वह संसार के थोडे दःुखो को, िनंदा-सतुित को, किठनाइयो आिद को सह लेगा। ऐसी चीज के िलए सहे गा िक िजसे पाने के बाद कुछ पाना शेष न रहे और जहाँ पहुँचने के बाद ििर पतन की संभावना न रहे । ऐसे आतमदे व को वह जान लेता है ।

िजसकी अलप मित है वह अलप भोगो मे उलझ जाता है । िजसकी शष े मित है वह शष े ,

अित शष े परमातम-ततव को जानने की कोिशश करता है । परमातमा को जानने के िलए वासतव

मे इतनी मेहनत की जररत नहीं है , किठनाई नहीं है लेिकन उसके िलए तडप नहीं है और तडप इसिलए नहीं है िक अलप मित के कारण अलप-अलपभोगो मे, अलप-अलप सुखो मे, अलप-अलप बातो मे, खणड-खणड मे हम इतने िबखर जाते है िक अखंड के िवषय मे सोचने के िलए हमारे पास समय ही नहीं रह जाता, अखणड को पाने के िलए हमारा संकलप ही नहीं उठता।'अनुकम

भगवान तो केवल सतामात है । िजधक आपकी विृत जाती है उधर के िलए सता दे ते है । यहाँ पुनः पश उठ सकता है िक 'हम गलत जगह जाये और भगवान सता न दे तो

िकतना अचछा होता ! हमारे सतकृ तयो के िलए तो सता दे िकनतु हम बुरा करे तो सता न दे । भगवान ऐसा कयो नहीं करते?'

भगवान ऐसा भी करते है । आप बिढया सोचते है तो सता िमलती है , उतसाह िमलता है

और आप बुरा सोचते है तो सता कम कर दे ते है िकनतु वे इतने कृ पण भी नहीं िक आप थोडी-

सी गलती करे और पावर सपलाय िडसकनेकट कर दे । वे आपको सता तो दे ते है िकनतु जब आप गलती करते है तो आपकी धडकने भी बढा दे ते है और आपकी बुराइयो पर भी दरगुजार कर दे ते

है तो उन परमातमा को छोडकर एक-एक दे वी दे वता को, एक-एक राजा को, एक-एक नेता को, एक-एक वयिक को आप कब तक िरझाते रहे गे? कबीर जी ने कहा है ः

कबीर यह ज ग आयके बह ु त स े की नहे मीत।

िजन िदल बा ँधा एक स े व े सोय िनिश नत।। इकके त े सब हो त ह ै स ब त े एक न होई।

उस एक से सब हो सकता है लेिकन सब िमलकर भी उस एक को नहीं बना सकते। एक साध े स ब सध े , सब सा धे सब जाय े।

एक को साध लेने से, एक आतमा मे आराम पा लेने से मनुषय की अनय सब इिनियो मे,

मन मे बुिि मे सब मे आराम आ जाता है लेिकन एक-एक इिनिय के भोग को पाकर आदमी को तिृि नहीं होती वरन ् अतिृि की आग और भडकती है । एक-एक सुख के साधन को एकितत

करने से जीव खंिडत हो जाता है , िबखर जाता है लेिकन अनेक मे जो एक है उस परमातमा का रस अगर िमल जाये तो जीवन जीने मे तो मजा आता ही है , मरने मे भी मजा आ जाता है ।

िकनतु उस एक परमातमा को पाना किठन कयो लगता है ? ईशर पािि किठन कयो लगती

है ?

ईशर पािि मे सबसे बडी किठनाई यह है िक 'हम ईशर को पाने के अिधकारी नहीं है ' यह

भम घुस जाता है । दस ू री बात यह है िक 'हम मरे गे बाद मे वह िमलेगा' – यह भांित घुस जाती है । तीसरी बात यह है िक हम अलप-अलप सुखो मे समय पूरा कर दे ते है । शबद, सपशा, रप आिद िवषय सुख के िलए हम िजतने समय का बिलदान दे ते है उसका आधा िहससा भी सब िवषयो

को पकािशत करने वाले परमातमा के िलए नहीं दे ते इसीिलए परमातम-पािि करना किठन लगता है , वरना किठन नहीं है ।'अनुकम

कोिटकण ा नामक एक पिसि संत थे। उनका उपदे श सुनने के िलए कातयायनी नाम की

एक वेशया अपनी दासी के साथ पहुँची। कोिटकण ा परमातमा मे डु बकी मारकर बोलते थे। अतः

उनका उपदे श सुनकर वेशया के िचत को शांित िमलती थी। कोिटकण ा जहाँ पवचन कर रहे थे , वहाँ एक दीया जल रहा था। कातयायनी के मन मे हुआः "मै और तो कोई सेवा नहीं कर सकती लेिकन घर मे तेल पडा हुआ है वही सेवा मे लगा दँ ू।" यह सोचकर वह दासी से बोलीः

"जा, तेल उठाकर ले आ और इस दीये मे डाल दे । इससे बाहर के वातावरण मे जयोत

जलेगी तो शायद कभी-न-कभी हमारे भीतर की जयोित जल उठे ।"

उधर कातयायनी के घर पर डाकुओं ने सेध लगायी थी और उनका सरदार दे ख रहा था

िक कोई आता तो नहीं है ? दासी जैसे ही घर पहुँची तो उसने दे खा िक 'सेध लगायी जा रही है ।

डाकू घर पर खडे है । अब मै भीतर कैसे जाऊँ?' अतः वह भागी-भागी कातयायनी के पास गयी और बोलीः

"उिठये, घर चिलए। अपने घर मे डाकू घुस गये है और सारा माल-सामान चुराये ले जा

रहे है ।"

तब कातयायनी बोलीः "िजस सामान को छोडकर एक िदन मरना है उस माल-सामान को

सँभालने के िलए मै सतसंग को छोडकर चलूँ? िजस माल-सामान को सँभालना जररी है उस

परमातम खजाने को, उस परमातम पेम को अभी सँभाले जा रही हूँ और तू मुझे सेध की बात

बता रही है ? ले जाने दे िजसे ले जाना हो। कहाँ तक ले जायेगे ? उसे सदा कौन रख पाया है ? कौन साथ मे ले गया है ? मै भी साथ न ले जाऊँगी, वे चोर डाकू भी साथ न ले जा सकेगे। िजसे साथ

मे ले जाना है वह तो अभी हम साथ मे िलए जा रहे है । कोिटकण ा महापुरष के अनुभवो को हम अपने अनुभव बनाये जा रहे है ।"

दासी जब सेध दे खकर लौट रही थी तो डाकूओं का सरदार भी उसके पीछे लग गया था

और उसी के पीछे जाकर चुपके से बैठ गया था। अतः कातयायनी ने दासी को जो उपदे श िदया उसे सुनकर सरदार का मन बदल गया।

सतसंग पूरा होते ही उसने कातयायनी के पैर पकड िलए और बोलाः "दे िव ! जो सँभालना

है उसे आप सँभाल रही है और िजसे छोडकर जाना है उसके िलए हम डाके डाल रहे है । मेरे साथी मेरी आजा के िबना तो जगह छोडे गे नहीं। अतः आप पधारकर उनहे भी दशन ा दीिजए कयोिक आपके हदय मे परमातमा का वह िववेक जगा है , आतमजान का वह दीपक जला है िजसके पकाश से मेरे सािथयो का जीवन भी पकािशत हो सकता है ।"

कोिटकण ा का सतसंग पूरा होते ही डाकू उस कातयायनी को सादर अपने साथ ले गया

और अपने सब सािथयो को पूरी बात बताकर, कातयायनी का उपदे श सुनाकर उनका भी जीवन पिरवितत ा कर िदया। वे सबके-सब िभकु बन गये।'अनुकम

िकसी समय भी वह परमातमा िचत मे पकाश का िचराग, सतय का िचराग जलाकर

मनुषय को अपने सवरप की ओर ले जा सकता है । शत ा इतनी ही है िक मनुषय के हदय मे जागने की थोडी-बहुत लालसा हो। अपने कृ तयो के िलए कभी न कभी उस डाकू ने पायिशत

िकया होगा। उसकी भीतर की उपरामता को उस भीतरवाले ने सुन िलया होगा और संयोग बना िदये। इसीिलए वह डाकू अपने अलप सुखो की लालसा को तयागकर शाशत सुख को पाने मे लग गया।

तुमहारे िचत मे भी कभी िववेक आये िकः "आिखर यह सब कब तक? सब िमल गया

ििर कया? पितषा िमल गयी ििर कया? राजय िमल गया ििर कया? दे वताओं ने पसनन होकर

भोग दे िदये ििर कया? अिशनीकुमारो ने पसनन होकर िदवय गंध का आशीवाद ा दे िदया ििर कया? गंध से भी तो तिृि नहीं होती। शबद, सपश ा रप, रस से भी तो पूण ा तिृि नहीं होती। इन

भोगो से आदमी थक जाता है , ऊब जाता है और थकान िमटाने के राित मे जाने अनजाने गहरी नींद मे चला जाता है । दस ू रे िदन पुनः थकाने वाले भोगो की ओर दौडता है ... इस पकार करते करते जीवन पूरा हो जाता

है । िकनतु 'ऐसा भी आिखर कब तक करे गे?' इस पकार का िववेक-

वैरागय िचत मे सिुरे , अपने कृ तयो के पित सजगता आ जाये तो हो सकता है िक िकसी वेशया के उपदे श से भी हमारा जीवन सतय के रासते चल पडे ।

यो यो या ं या ं तन ु भ कः श दयािच ा तु िमचछ ित।

तसय तसयाचल ां शिा ं ताम ेव िवद धामयहम। ् ।

'जो जो िजसका भक है , शिा से िजसकी आराधना करता है उसकी शिा मे अचलता मै

दे ता हूँ।'

जब अलप भोगो की पािि के िलए लोग अलप सता वाले वयिकयो की, दे वो की, गंधवो की,

भूत और भैरव की आराधना करते है तो उस आराधना करने मे भी परमातमा सहायता करते है

तो यिद आप उस परमातमा की आराधना के िलए िचत मे थोडा सा िववेक ले आओ तो ििर

किमयाँ नहीं दे खेगा वरन ् वह अपनी उदारता एवं योगयता की ओर दे खकर आपको जलदी से अपने गले से लगा लेगा।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अवयक तत व का अन ुस ंधान करो अवयकं वयिक मापनन ं मनय नते मामब ुियः। परं भाव मजाननतो ममावययमन

ु तम म।् ।

'बुििहीन पुरष मेरे अनुतम, अिवनाशी, परम भाव को न जानते हुए, मन-इिनियो से परे

मुझ सिचचदानंद परमातमा को मनुषय की भाँित जानकर वयिक के भाव को पाि हुआ मानते है ।"अनुकम

(गीताः

7.24)

जो बुििमान है , मेधावी है वे भगवान को साकार-िनराकार, वयक-अवयकरप मे मानते है । जो बुििमान नहीं है वे भगवान को साकार रप मे मानते है और िनराकार ततव के तरि उनकी

गित नहीं होती। जो मूख ा है , बुिु है वे न भगवान के साकार रप को मानते है न िनराकार रप को मानते है , वरन ् अपनी मित एवं कलपना मे जो बात आती है उसी को मानते है चार पकार की कृ पा होती है ः

ईशरकृ पा, शासकृ पा, गुरकृ पा और आतमकृ पा।

ईशरकृपा ः ईशर मे पीित हो जाये, ईशर के वचनो को समझने की रिच हो जाये , ईशर की ओर हमारा िचत झुक जाये, ईशर को जानने की िजजासा हो जाये यह ईशर की कृ पा है ।

शासकृपाः

शास का ततव समझ मे आ जाये, शास का लकयाथ ा समझ मे आने लग

जाये यह शासकृ पा है ।

गुरकृपा ः गुर हमे अपना समझकर, िशषय, साधक या भक समझकर अपने अनुभव को

वयक करने लग जाये यह गुरकृ पा है ।

आतमकृपा ः हम उस आतमा परमातमा के जान को पाि हो जाये, अपने दे ह, मन, इिनियो

से परे , इन सबको सता दे ने वाले उस अवयक सवरप को पहचानने की कमता हममे आ जाये यह आतमकृ पा है ।

आतमजान हो लेिकन जान होने का अिभमान न हो तो समझ लेना की आतमकृ पा है ।

अपने को जान हो जाये ििर दस े मानने का भाव आये ू रे अजानी, मूढ िदखे और अपने को शष तो यह जान नहीं, जान का भम होता है कयोिक जान से सववायापक वसतु का बोध होता है । उसमे अपने को पथ ृ क करके दस ू रे को हीन दे खने की दिष रह ही नहीं सकती। ििर तो भावसिहत सब अपना ही सवरप िदखता है ।

गमी-सदी दे ह को लगती है , मान-अपमान, हषा-शोक मन मे होता है तथा राग-दे ष मित के

धम ा होते है यह समझ मे आ जाये तो मित के साथ, मन के साथ, इिनियो के साथ हमारा जो तादातमय जुडा है वह तादातमय दरू हो जाता है । शरीर चाहे िकतना भी सुडौल हो, मजबूत हो, मन

चाहे िकतना भी शुि और पिवत हो, बुिि एकाग हो लेिकन जब तक अपने सवरप को नहीं जाना तब तक न जाने कब शरीर धोखा दे दे ? कब मन धोखा दे दे ? कब बुिि धोखा दे दे ? कोई पता नहीं। कयोिक इन सबकी उतपित पकृ ित से हुई है और पकृ ित पिरवतन ा शील है ।

संसार की चीजे बदलती है । शरीर बदलता है । अनतःकरण बदलता है । इिनियाँ , मन और

बुिि से जो कुछ दे खने मे आता है वह सब वयक है । भूख -पयास भी तो मन से दे खने मे आती है । सदी-गमी का पता तवचा से चलता है िकनतु उसमे विृत का संयोग होता है अतः वह भी तो

वयक ही है । इसीिलए भगवान कहते है िकः 'जो मूढ लोग है वे मेरे अवयक सवरप को नहीं जानते और मुझे जनमने-मरने वाला मानते है । बुििहीन पुरष मेरे अनुतम, अिवनाशी, परम भाव को न जानते हुए, मन-इिनियो से परे मुझ सिचचदानंदघन परमातमा को मनुषय की भाँित जानकर वयिकभाव को पाि होते है ।'अनुकम

....और मजे की बात है िक जो आदमी जहाँ है और जैसा है , वहीं से और वैसा ही वह

दस ू रे को दे खता है ।

बुििहीन से तातपय ा अँगूठाछाप से नहीं है वरन ् िजसको पाने के िलए मनुषय जनम िमला

है , िजस ततव को समझने के िलए बुिि िमली है उस ततव मे बुिि के न लगाकर हीन पदाथो मे उसे खचा कर िदया, वह बुििहीन है ।

भगवान ने िकयाशिक दी है तो िकयाशिक से िकया को बढाकर अपने को जंजाल मे न डाले लेिकन िकयाशिक को सतकम ा मे लगाकर अनंत जनमो के कमो को काटने का पयत करे । जैसे काँटे से काँटा िनकाला जाता है ऐसे ही कमा से कमा काटे जाये।

ईशर ने बुििशिक दी है तो बुिि से हम जगत के पदाथो के साथ बँधे नहीं लेिकन जहाँ

से बुिि को सता िमलती है उस अवयक सवरप मे बुिि को लगाये तािक बुिि बुिि न बचे बिलक ऋतंभरा पजा हो जाये।

बुिि को ऋतंभरा पजा बनाने के दो तरीके है योगमागा और जानमाग।ा

योगमाग ा मे धारणा-धयान करके, िचत की विृत का िनरोध करके अपने सवरप का अनुसंधान िकया जाये। बारं बार िनरोधाकार विृत बन जाये तो इससे भी बुिि ऋतंभरा पजा होने लगती है ।

जानमाग ा के अनुसार दस ू रा तरीका यह है िक बारं बार उस सिचचदानंदघन, अज, अिवनाशी,

शुि, बुि, साकी, दषा, असंग, िनिवक ा ार, चैतनयसवरप का धयान िकया जाये और जगत का वयवहार

करते हुए, बातचीत करते हुए ििर जगत का बाध कर िदया जाये .... यह 'शीयोगवािशष

महारामायण' की पिकया है । सवामी रामतीथ ा कहते थेः ''कोई 'शीयोगवािशष महारामायण बार-बार पढे और आतमजान न हो तो राम बादशाह िसर कटायेगा।"

'शीयोगवािशष महारामायण' मे लीलावती, चुडाला, मंकी ऋिष आिद की कथाएँ आयेगी और

बाद मे विशष जी महाराज कहे गे िकः "हे रामजी ! वासतव मे बना कुछ नहीं।यह िचत का िुरना मात है ।" यही बात शंकराचाया जी ने कही है ः

नािसत अ िवदा मनसो ऽितरका मनैवऽ िवदा भ वबंध ह ेत ु।

तिसम िनवली ने सक लं िव लीन ं

तिसम िनज गीण े सक लं िज गीण ा म।् ।

यह अिवदा मन से अलग नहीं है । माया... माया.... माया... माया कोई लाल, पीली, हरी या

सिेद साडी पहनी हुई मिहला नहीं है । माया का मतलब है ः या मा सा माया। भी िदखे उसका नाम है माया।

यह

जो है नहीं ििर

जो कुछ भी िदखता है वह नहीं है । जो नहीं है वह िदख

रहा है और जो है वह िदखता नहीं है ।अनुकम

जो है वह िदखता कयो नहीं? कयोिक वह अवयक है और हम लोग जीते है वयक मे। हम

लोग वयक होने वाले को मै मानते है तो वयक सचचा लगता है लेिकन िजसके आधार पर है , उसका पता नहीं।

अखा भगत ने कहा है ः "पानी िीका है और गनने का रस मीठा है ििर भी गनने के रस से पयास नहीं बुझती। वासतव मे दे खा जाए तो गनना भी सार रप से पानी की ही कृ पा है । पानी ही न हो तो गनना रस कहाँ से बनायेगा।?"

इसी पकार साकार मीठा-मीठा लगता है , रप िदखता है तो आकिषत ा होते है , सुगंध आती

है तो आकिषत ा होते है , मधुर शबद सुनाई पडे तो आकिषत ा होते है लेिकन ये िवषय और िवषयी

तो सोपािधक है । अंतःकरण-उपिहत चैतनय मे पडा हुआ िनराकार का पितिबमब, िचदाभास इिनियो के साथ तादातमय करके िवषयो मे सुखाभास कराता है । इसिलए साकार मे रस आता है । वासतव मे यह रस भी िनराकार की ही कृ पा है ।

गनने मे िमठास है , पानी मे उतनी िमठास नहीं लेिकन गनने को भी िमठास उतपनन

करने की सता तो पानी ने ही दी है । गनने का रस िकतना भी िपयो, ििर भी पयास बुझती नहीं। ऐसे ही इहलोक अथवा परलोक के साकार भोग से जीवन मे पिरतिृि नहीं होती। साकार ईशर के

दशन ा हो जाये, ििर भी जीवन मे पिरतिृि नहीं होगी। अगर साकार का दशन ा ही सवोपिर होता

या साकार ही पूण ा रप से सतय होता तो शीकृ षण के दशन ा से सतय का साकातकार हो जाना चािहए। भगवान बुि, महावीर, जीसस आिद के दशन ा से पूण ा साकातकार हो जाना चािहए तथा दशन ा पाये हुए वयिक को अिवदा, अिसमता, राग, दे ष नहीं होना चािहए। िकनतु ऐसा नहीं है ।

अतः मानना पडे गा िक साकार के दशन ा के बाद भी साकार िजसकी सता से खडा है उस

िनराकार ततव का बोध नहीं होता तब तक वासना नहीं िमटती और जब तक वासना नहीं िमटती तब तक बोध नहीं होता। वासना नहीं िमटती तब तक आतमजान का िवलकण आनंद नहीं आता। जब तक जान नहीं होता तब तक वासना नहीं जाती। ििर कया करे ? पहले जान पाि करे िक पहले वासना िमटाये? अगर एक भी वासना बँधी तो ििर वह अनंत वासनाओं को जनम दे दे ती है ।

उतर काशी मे एक महातमा थे। अपनी कुिटया के आगे उनहोने रामदाने (वहाँ की एक

पकार की धान) बो िदये। थोडे िदन मे तो रामदाने लहलहाने लगे। महातमा ने सोचा िक िभका माँगने जाना पडता है । थोडे जयादा रामदाने बो दे तो िभका माँगने नहीं जाना पडे गा।

यह सोचकर दस ू री बार उनहोने थोडे जयादा रामदाने बो िदये। ििर उनहे लगा िक यह तो

केवल मेरे िलए ही पयाि ा हुआ है । अगर कोई अितिथ, साधु-संत आ जाये तो उनहे भी झोली

भरकर दे ना चािहए। ििर उनहोने और जयादा रामदाने बो िदये। दस ू रे साधु-संतो को पता चला िक उनके यहाँ घर की खेती है अतः वे आते, िमलते और ये महातमा उनहे थोडा धान दे दे ते। ऐसा करते-करते िदन बीतने लगे।अनुकम

एक िदन वे महातमा धयान से उठे और रामदाने के सारे पौधे उखाड-उखाडकर गंगा जी मे

डालने लगे।

ताजपुरवाले नारायण सवामी ने उनसे पूछाः

"बाबा जी ! यह कया करते हो?" महातमाः "जरा सी वासना उठी थी िकनतु अब वह इतनी बढ गयी िक मुझे िकसान बना

िदया। कहाँ तो अवयक ततव का दशन ा करने के िलए मनुषय जनम िमला है और कहाँ िँस गया खेती करने मे?"

रजजब त ू ने गजब िकया म ाथे बा ँ धा मौर। आया था ह िर भजन को चला नरक की ओर

'इतना हो जाए तो शांित.... इतना अखा भगत ने कहा है ः

?

हो जाये तो शांित....

अखो कहो अ ंधारो क ूवो। झगडो मटाडी कोई न म

ूंओ।।

अखा भगत कहते है कमा और िल... वासना और तिृि... यह अंधकारमय कुएँ की तरह है । आज तक कोई इस झगडे को िनपटाकर नहीं गया।

जब तक अवयक ततव का बोध नहीं हो जाता तब तक साधक को सँभल-सँभलकर कदम

रखना चािहए। अवयक ततव का बोध एक बार हो जाये ििर एक कया हजार खेत, हजार राजय

सँभाले तो भी उसके िलए िखलौने के समान हो जायेगा लेिकन अवयक ततव का बोध जब तक नहीं होता तब तक सँभल-सँभलकर कदम रखना जररी है । नहीं तो, यह माया ऐसी है िक एक के पीछे एक काय ा पूरा करते-करते जीवन पूरा कर दे गी और अंत मे ििर उनहीं िवषयो को सँभालने की िचंता-िचंता मे जीव बेचारा चला जायेगा।

जो बुििहीन है वे तो भगवान के अवयक और अजनमा सवरप को नहीं जानते एवं उनहे

साढे तीन हाथ का मान कर उनकी िनंदा करते है और दे वताओं की पूजा करते है । लेिकन जो बुििमान योगी है वे भगवान के साकार सवरप को िनहारते हुए भी भगवान के िनराकार ततव को

जान लेते है और िनराकार मे पितिषत होते हुए भी साकार की तरि पेमभरी दिष से िनहारते है । उनको साकार-िनराकार दोनो का बोध होता है ।

कुछ भक ऐसे होते है िजनकी िनषा िनराकार मे होती है । कुछ भक ऐसे होते है िजनकी

िनषा साकार मे होती है । साकार मे िजनकी िनषा होती है वे िनराकार का खंडना करते है ।

िजनकी िनषा िनराकार मे होती है वे साकार का खंडन करते है लेिकन वासतिवक ततव मे, अवयक ततव मे िजनकी िनषा होती है वे समझते है िक साकार भाव को दे खनेवाले

दे खनेवाला है और इस

का भी जो अिधषान है , उसी से सब हो रहा है ।अनुकम

नाह ं पका शः सव ा सय योगमायासमाव ृ त ः।

मूढोऽय ं न ािभजानाित लोको मामज

मवय यम।् ।

'अपनी योगमाया से िछपा हुआ मै सबके पतयक नहीं होता इसिलए यह अजानी

जनसमुदाय, मुझ जनमरिहत, अिवनाशी परमातमा को ततव से नहीं जानता है अथात ा ् मुझको जनमने मरने वाला समझता है ।'

(गीताः

7.25)

भगवान कहते है िक मै अपनी योगमाया से ठीक से ढँ क गया हूँ इसिलए मूढ लोग मुझे

नहीं जानते िक मै अजनमा हूँ। वे सवयं जनमते-मरते है अतः मुझे भी जनमने-मरनेवाला मानते है । वे मुझे वसुदेव के घर पैदा हुआ मानते है , रथ चलाने वाला मानते है , अजुन ा का साथी मानते है परनतु मै तो पािणमात का साथी हूँ। हूँ तो सबका साथी हूँ, नहीं हूँ तो िकसी का भी नहीं।

जो अवयक ततव है उसे िकसी के पित राग नहीं होता और िकसी से दे ष भी नहीं होता।

यहाँ पश उठ सकता है िक ििर भगवान ने ऐसा कयो कहा िक 'जो मेरा भजन करते है उनको मै संसार से तार लेता हूँ और जो मुझसे िवमुख तथा संसार-परायण है वे कष पाते है ?

यह बात ठीक है जो भजन करते है वे सुखी होते है और जो दस ू रो को कष दे कर भी

भोग भोगना चाहते है वे दःुखी होते है । िकनतु इसका कारण उनके पित भगवान का राग-दे ष नहीं है । जो लोग भगवान का भजन करते है उनकी विृत भजन करने से भगवदाकार होती है और वही भगवदाकार विृत उनहे लाभ दे ती है । भगवान को न मानने से विृत जगदाकार होती है और वही जगदाकार विृत उनहे आसुरी भाव मे ढकेलती है ।

हम ईशर का िचनतन करते है तो कोई दे वी-दे वता आकर हमे सवग ा मे नहीं ले जाते है ।

हम पाप का िचनतन करते है तो कोई दै तय आकर हमे नका मे नहीं ले जाता। पाप के िचंतन से एवं पापमयी पविृत से हमारी विृतयाँ रजस ् िमिशत तमस पधान बन जाती है । ििर उसी पकार

की रिच एवं पविृत मे िलि होकर हम अधोगित मे जाते है । हमारी मित भी वैसी हो जाती है । अगर हम साितवक िचंतन करते है और साितवक से भी परे परबह परमातमा का िचंतन करते है तो हमारी विृत, बुििविृत भी ऐसी हो जाती है जो हमे सुखसवरप परमातमा की तरि ले जाती है ।

अब मनुषय अपनी विृतयो को ऊधवग ा ामी करके उननित की ओर, मुिक की ओर ले जाये

या अधोगामी करके अवनित की ओर, बंधन की ओर ले जाये यह उसके हाथ की बात है ।

मुिक की इचछामात से मनुषय मे सदगुण आने लगते है । तयाग, कमा, वैरागय, सहनशीलता,

परोपकार, सचचाई, सेवा दान आिद सब सदगुण केवल मुिक की इचछामात से ही पनपने लगते है । दे ह को मै मानने मात से शोषण, ईषयाा, राग-दे ष, भय, िहं सा आिद दग ा पनपने लगते है ।अनुकम ु ुण तमोगुणी का सवभाव है ः 'यह म ेरे बाप का और त रजोगुणी का सवभाव है ः 'तुमहारा

ुमहार े म े म ेरा भाग। '

व ह त ुमहारा .... मेरा व ह म ेरा .. िजयो और जीने दो।'

सतवगुणी का सवभाव है ः 'तुम हार ा भल े त ुमहारा

रह े , मेरा भी त ुमहारा हो जाय े। '

जब गुणातीत मसती आयेगी तब लगेगा िक 'तुमहारा और मेरा' यह सब मन-बुिि का खेल है । 'मेरा-तेरा' करके िकतने ही चले गये और हम भी चले जायेगे।

शी विशषजी महाराज कहते है - 'तुमहारा-हमारा सब िुरना मात है । हे रामजी ! वासतव मे बना कुछ नहीं है । यह सब पपंच सतय िदखता है लेिकन है केवत िचत का िवसतार मात। सब संकलपो का िखलवाड मात है ।'

िजनहोने एक बार भी अवयक का रस पा िलया वे वयक वसतुओं मे उलझते नहीं है और

वे वयक वसतुओं मे उलझते नहीं है तो समय पाकर वयक वसतुएं भी उनकी दासी हो जाती है ।

आप िजतने-िजतने अवयक ततव मे िसथत होगे। उतनी-उतनी पकृ ित आपके अनुकूल होने

लगेगी। आप अपने आतमततव को छोडकर पकृ ित के पदाथो को पकडे गे तो कुछ तो पकड भी लेगे लेिकन पकडने वाले हाथ भी सदा पकडकर नहीं रखेगे, पकडनेवाला अंतःकरण भी सदा पकडकर नहीं रखेगा और पकडे हुए पदाथ ा भी सदा नहीं रहे गे कयोिक भोका, भोगय पदाथ ा और भोग यह जो ितपुटी है , जो भी वयक है वह माया का िवसतार है । माया का अथा है ः 'जो नहीं है ।' या मा सा माया।

माया नहीं है ििर भी िदखती है । जो हो नहीं और िदखे वह िटक कैसे

सकता है ? जो िदखता है वह भी िनरं तर बदलता रहता है ।

लोगो की ऐसी भांित है िक 'इन पदो के िबना, पितषा के िबना, रपयो के िबना, जगत के

पदाथो के िबना हम जी नहीं सकते है ।' सही बात तो यह है िक इन चीजो के साथ संबंध तोडे

िबना हम जी नहीं सकते। अचछे से अचछा बँगला, पती-पित, रपये-पैसे सबके साथ राित को जब संबध ं तोडते हो तभी नींद का सुख ले पाते हो और दस ं जोडने की शिक आती ू रे िदन पुनः संबध है ।

कया नींद मे याद रहता है िक यह मेरा पद.... यह मेरी पती... यह मेरा बंगला....? नहीं सब

भूल जाते हो। जब तक याद रहता है तब तक सो भी नहीं पाते। यहाँ तक िक 'यह शरीर मेरा...' यह याद रखते हो तब भी नहीं सो पाते अथात ा ् शरीर के साथ भी संबंध तोडकर आप अवयक हो

जाते हो। जब अवयक मे िवलीन होते हो तभी दस ू रे िदन वयक का सुख लेने की योगयता आ पाती है । अवयक होकर वयक का सुख लेने की योगयता लाते हो और जब वयक मे िबखरकर थक जाते हो तो पुनः अवयक मे चले जाते हो।

जो लोग भगवान के अवयक सवरप को नहीं जानते, वे ििर अपनी तुचछ इचछाओं को,

इस वयक दे ह की आकांकाओं को पूरा करने के िलए छोटे -छोटे दे वी दे वताओं को िरझाते है । दे वी दे वताओं के अनदर जो िल दे ने का सामथय ा है , वह भी अवयक की सता है और िल माँगने की

इचछा जहाँ से उठती है वह भी अवयक है ... इस पकार मूल मे सब अवयक है िकनतु उस मूल ततव अवयक को नहीं जानते इसीिलए सारे िखंचाव-तनाव और धमाधमी चल रही है ।अनुकम

मछली एक पल के िलए सरोवर से बाहर, पानी से बाहर रह सकती है लेिकन हम

परमातमा से एक सेकेड के िलए भी बाहर नहीं रह सकते। आप चाहो ििर भी एक सेकेड के िलए

भी ईशर से बाहर नहीं जा सकते, इतना यह वयापक ततव है । ििर भी हम इिनियो के साथ, शरीर के साथ, मन के साथ, वयक संसार के साथ तादातमय करके अवयक ततव को नहीं मानते,

नहीं जानते। ईशर के िसवाय बाकी सब जानते है , केवल ईशर को ही नहीं जानते। कबीर जी कहते है

इकके त े स ब होत ह ै , सबत े एक न होय। उस एक अवयक ततव से सब होता है िकनतु सबको िमलाने पर भी एक नहीं बनता।

िजससे सबका जान होता है उस अवयक को नहीं जानते। सब दे कर भी जो एक नहीं िमल सकता उस एक परमातमा को जानने का जो समय िमला है वह समय अनेक को जानने मे लगा दे ते है और अनेक मे जो एक छुपा है उसका जान पाना रह जाता है ।

जब उसका जान पाना रह गया तो ििर आदमी बाह जगत मे चाहे िकतनी भी तरककी

कर ले, अंदर से संतुष नहीं होगा, पिरति ृ नहीं होगा। वयक को आप िकतना भी सँभालो लेिकन

वह िटकेगा नहीं। अवयक को िकतनी भी पीठ दो, वह छूटे गा नहीं। आप िजसका कभी तयाग न कर सको उसका नाम है परमातमा। िजसको आप कभी रख न सको उसका नाम है माया। मजे की बात है िक परमातमा आज तक िमला नहीं और माया आज तक गयी नहीं। माया िमटी न मन िमटा

, मर -मर गया शरीर।

िजसको हम रख नहीं सकते वह माया आज तक हटी नहीं और िजसको हम कभी छोड

नहीं सकते वह परमातमा आज तक िमला नहीं... कया कारण है ? भगवान कहते है -

'अपनी योगमाया से िछपा हुआ मै सबको पतयक नहीं होता हूँ, इसिलए यह अजानी

जनसमुदाय मुझ जनमरिहत, अिवनाशी परमेशर को ततव से नहीं जानता है । अथात ा ् मुझको जनमने-मरने वाला समझता है ।'

उस भगवान को पाये कैसे? भगवान िदया नहीं जाता और भगवान के पास जाया नहीं

जाता। भगवान की जो कलपनाएँ-मानयताएँ है वे अगर हट जाये तो भगवान एक रतीभर और एक कणभर भी हमसे दरू नहीं थे, है नहीं और वे चाहे तो भी हो सकते नहीं। भगवान ऐसे सुलभ

है िकनतु योगमाया से आवत ृ होने के कारण हमे िदखते नहीं, इसिलए दरू लगते है , वरना दरू नहीं है ।अनुकम

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

परमातमा

क ी पािि

कैस े ह ो ?

जो सतय होता है वह बीतता नहीं है और जो बीतता है वह सतय नहीं होता. दःुख बीत

गया, सुख भी बीत जायेगा। दःुख-सुख दोनो बीत जाते है अतः दोनो िमथया है , दोनो सवपन है

लेिकन दोनो को दे खने वाला नहीं बीतता। अगर दे खने वाला बीत जाता हो तो 'सुख चला गया... दःुख चला गया...' उसको दे खनेवाला रहता कैसे? दे खने वाला वही का वही रहता है ।

आप सुखी हो िक दःुखी? कभी सुखी कभी दःुखी। आप धनवान हो या गरीब? कभी

धनवान कभी गरीब। आप तनदरसत हो या बीमार? कभी तंदरसत कभी बीमार। तो आप एक हो

िक दो? एक है । अचछा तो आप चल हो िक अचल? अगर चल हो तो बीमारी के जाने पर आपको भी चले जाना चािहए था। 'मै बीमार हो गया था।' आप बीमार नहीं हुए थे, भाई ! बीमार यह शरीर हुआ था िकनतु आप उससे िचपक गये थे। सुखी-दःुखी होता है मन िकनतु आप उससे िचपक जाते हो िक हाय ! मै दःुखी हूँ।

िजसकी चेतना िचपकती नहीं है वरन ् अपने-आप मे पितिषत रहती है वह बीते हुए को,

आनेवाले को और वतम ा ान को जयो-का-तयो जानता है । भगवान शी कृ षण कहते है -

वेदाह ं सम तीतािन

व ता मानािन

च ाजुा न।

भिवषयािण च भ ूतािन मा ं त ु व ेद न क शन।। ''हे अजुन ा ! पूवा मे वयतीत हुए और वतम ा ान मे िसथत तथा आगे होने वाले सब भूतो को

मै जानता हूँ परनतु मुझको कोई भी शिा-भिकरिहत पुरष नहीं जानता है ।"

(गीताः

7.26)

शीकृ षण जैसे अदभुत िनराकार ततव मे िसथत, अपने सवरप मे िसथत, वयतीत होने वाले नहीं लेिकन जो कूटसथ है उसमे जागे हुए शीकृ षण के िलए यह कहना सहज है िक जो बीत गये है उनहे मै जानता हूँ, जो अभी है उनको मै जानता हूँ और जो बीतेगे उनको भी मै जानता हूँ

लेिकन शिारिहत जो मूख ा लोग है वे मुझे नहीं जानते। मूखो को तो मै जनमने मरने वाला िदखता हूँ।'

िजनकी बुिि का िवकास नहीं हुआ, जो िचपकने मे ही अपने को बरबाद कर चुके है उनहे

तो शीकृ षण सामानय मनुषय जैसे ही िदखेगे। उनहे अवयक, िनरामय, िनरं जन, एकरस नहीं िदखेगे कयोिक वे इन आँखो-कानो से ही िचपके है एवं इन इिनियो से जो िदखता है वही उनहे सचचा लगता है ।

आपने दे खा होगा िक िवदुत पंखे को शिक दे ती है तभी पंखा घूमता है । िवदुत की शिक

से पंखा घूमता है लेिकन पंखे की शिक से िवदुत नहीं घूमेगी। िवदुत को पंखा शिक नहीं दे ता।

ऐसे ही सतव, रज और तम इन तीन गुणो को वह िनराकार चेतना सता दे ती है । तीनो गुणो की

पकृ ित से बने हुए इस पाकृ ितक शरीर को जो 'मै' मानता है ऐसे मूख ा वयिक शीकृ षण के अवयक

सवरप को नहीं जान सकते। परं तु जो वयतीत को वयतीत दे खता है , उसमे िचपकता नहीं और अपने सवरप को जान लेता है वह अपने युग का शीकृ षण ही है कयोिक अपने आप मे वह शी कृ षण की गिरमा का ही सवाद ले रहा है ।अनुकम

यह जररी नहीं िक आप ओठो पर बंसी रख दो, मोरपंख बाँध लो, रासलीला करने लग

जाओ और नाम कृ षण रख लो तभी कृ षण हो... नहीं, जहाँ शीकृ षण खडे है वहाँ आप भी खडे हो जाओ। ििर आप चाहे दक ु ान पर बैठे रहो तब भी कोई हज ा नहीं। शीकृ षण िजसको 'मै' मानते है उस 'मै' सवरप मे अगर हम खडे हो गये तो परम कलयाण है ।

अगर कोई अपने कमरे मे बाँस की चटाई के पीछे बैठा है तो वह बाजार से गुजरने वालो को दे ख सकता है िकनतु बाजार से गुजरने वाले वयिक केवल चटाई को ही दे खते हं , वयिक को नहीं। ऐसे ही जो अपने घर मे बैठा है वह संसार रपी बाजार को पूरी तरह से जानता है लेिकन संसारवालो को केवल बाहर की चटाई िदखती है ।

शीकृ षण कहते है - 'शिा-भिकहीन पुरष मुझे नहीं जानते।' िजनके पास शिा-भिक है ऐसे

'युंजन नेव ं सदातमान ं योगी

िनयतमानसः ' लोग जानते होगे तभी तो कहाः 'शिाहीन नहीं

जानते।' नहीं तो कह सकते थे िक 'मुझे कोई नहीं जानता....' लेिकन ऐसा कहने से शिालुओं के साथ अनयाय हो जाता। 'मुझे जानने वाले' और 'मै' िदखते दो है लेिकन वे मेरा ही सवरप होते है और मै उनका। वे मुझसे िभनन नहीं, मै उनसे िभनन नहीं।

यो म ां पशयित स वा त सव ा च मिय पशयित।

तसयाह ं न पणशयािम स च

मे न पणशयित।।

'जो पुरष संपूण ा भूतो मे सबके आतमरप मुझ वासुदेव को ही वयापक दे खता है और

संपूण ा भूतो को मुझ वासुदेव के अनतगत ा दे खता है उसके िलए मै अदशय नहीं होता हूँ और वह मेरे िलए अदशय नहीं होता। (कयोिक वह मुझमे एकीभाव से िसथत है ।)'

(गीताः

6.30)

बाँस की चटाई के पीछे बैठे हुए आपके सामने से जो गुजर गये है उनको भी आपने

दे खा, सामने सडक से, दरू से जो आयेगे उनहे भी आप दे ख रहे हो। लेिकन जो बीत गये उनहोने भी आपको नहीं दे खा, जो अभी आपके सामने से गुजर रहे है वे भी आपको नहीं दे खते और जो

बाद मे गुजरे गे वे भी आपको नहीं दे खेगे। वे दे खते है केवल घर को, चटाई को। ऐसे ही 'मै' के आगे हाड-मांस आिद से युक शरीर बाँस की चटाई के समान ही है ।

शुकदे व जी महाराज परीिकत को भागवत सुनाये जा रहे थे। वतम ा ान की घटनाएँ, भिवषय

मे होने वाले राजाओं की वंशावली सुनाने के बाद भी उनहे लगा िक परीिकत की ममता अभी तक हटी नहीं है अतः कृ पा करके उनहोने एक कथा सुनाना आरं भ िकयाः

तुंगभिा नदी के तट पर एक बडा सुद ं र राजय था। उस राजय का राजा िशकार का बडा

शौकीन था। वह जंगलो मे जाता और िहरणो के पीछे अपने घोडे को दौडाता एवं िशकार करता।

एक बार राजा अपने सािथयो से िबछुड गया। राित हो गयी। वह राजा भूख-पयास और सदी से वयाकुल हो गया। जंगल मे भटकता-भटकता िकसी चाणडाल के झोपडे के पास पहुँचा और चाणडाल से बोलाःअनुकम

"भाई ! तू आज रात मुझे यहीं रहने दे ।" चाणडाल के झोपडे मे दो िहससे थे। एक मे वह खुद रहता था और दस ू रे िहससे मे पशुओं

की हििडयाँ, रक, मांसािद पडे रहते थे।

चाणडाल बोलाः "मेरे पास अिधक कोई जगह नहीं है । एक िहससे मे मै पूरे कुटु मबसिहत रह रहा हूँ और दस ू रे मे यह सामान पडा है ।"

राजाः "कैसे भी करके मुझे ठणड से बचाओ। िहं सक पािणयो से रका के िलए जहाँ मांसािद

पडा है वहीं रह लेने दो। मै कैसे भी करके रात काट लूँगा।"

चाणडाल ने उस राजा को रहने िदया। रात भर रहते-रहते राजा को वहाँ रहने की आदत

पड गयी। सुबह हुई तब चाणडाल बोलाः "जाओ भाई ! अब अपना रासता पकडो।" रहूँगा।"

राजाः "यह तू कया बोलता है ? मुझे नहीं जानता? मै समाट हूँ। यह घर मेरा है । मै यहीं अब वह राजा उस बेचारे चाणडाल का घर खाली नहीं कर रहा है । राजा होकर िकसी

चाणडाल के झोपडे को अपने बाहुबल से कबजा कर लेना उिचत नहीं है ।

परीिकतः "भगवन ् ! आप आजा करे तो मै जाकर उसको समझाऊँ।" शुकदे वजीः "तुमहारी बात वह न माने तो?"

"नहीं मानेगा तो तीर-कमान उठा लूँगा, उसका कान पकडकर झोपडे से बाहर िनकाल दँग ू ा।"

शुकदे व जीः "वह राजा कहीं दरू नहीं है । यहीं सामने बैठा है , परीिकत ! हिडी-मांस, रिधर

और चमडे मे आया था कुछ दे र के िलए बसेरा करने लेिकन अब उसके साथ ऐसा िचपक गया िक िनकलने का नाम ही नहीं ले रहा।"

परीिकत समझ गया िक इशारा मेरी ओर ही है ।

जैसे वह राजा झोपडे मे िचपक गया था ऐसे ही हम लोग शरीर एवं शरीर के कृ तयो से िचपक गये है । शरीर के भावो से, सुख-दःुख से िचपक गये है । शरीर के भावो से, सुख-दःुख से िचपक गये है इसीिलए हमारी वह शिक नष हो गयी है और भूत , वतम ा ान और भिवषय को हम नहीं समझ रहे है । िकनतु शीकृ षण िचपके नहीं है इसिलए उनके िलए आसान है और हमारे िलए असंभव सा हो गया है ।

भूत, भिवषय और वतम ा ान ये तीन काल वासतव मे ती नहीं है । समय नहीं बीतता वरन ्

हम ही बीतते चले जाते है । समय तो वही का वही है । जैसे, कोई नया-नया टे न मे बैठे तो उसे लगेगा िक पेड तेजी से भागे जा रहे है । ऐसे ही वक तो जयो का तयो खडा है लेिकन भागनेवाले शरीर मे हम बैठे है तो लगता है िक समय वयतीत हो गया। समय वयतीत नहीं हुआ बिलक हम ही बीतते चले जा रहे है ।अनुकम

काल तीन नहीं है वरन ् हम दे ह मे बैठकर, इिनियो मे बैठकर, मन मे बैठकर कलपना

करते है । पीछे की जो कलपना करते है उसे हमने भूतकाल कहा, आगे का सोचते है उसको हमने भिवषयकाल कहा और जब भी सोचेगे तो वतम ा ानकाल मे बैठकर सोचेगे। िबना वतम ा ान के न भूत की िसिि होती है और न भिवषय की िसिि होती है ।

हम िजस दे ह मे बैठकर सोचते है वह पहले नहीं थी, बाद मे भी नहीं रहे गी लेिकन परमातमा पहले था, बाद मे रहे गा और वह अभी भी है । वह अभी भी है इसिलए उसके आगे से सुख भी गुजर जाता है , दःुख भी गुजर जाता है और अभी जो सामने है उसका भी उसे पता चलता है । इसीिलए शीकृ षण कहते है िकः 'हे अजुन ा ! पूव ा मे वयतीत हुए, वतम ा ान मे िसथत तथा

आगे आनेवाले सब भूतो को मै जानता हूँ।' जैसे शीकृ षण सबको जानते है ऐसे ही आप भी इस जीवन की सब पिरिसथितयो को जान सकते हो। अभी तक जो हुआ उसको तो आप जानते हो। अभी जो हो रहा है उसे भी आप दे ख रहे हो लेिकन भिवषय को नहीं दे ख सकते। कयो? कयोिक हाड-मांस की दे ह के साथ आप िचपके है इसीिलए भिवषय आपको िदखता नहीं।

भिवषय भी कया होगा? जो बीत गया वह सवपन, जो बीत रहा है वह सवपन तो जो आयेगा

वह भी तो सवपन ही है । िकनतु हम कलपनाओं मे इतने उलझ जाते है िक सवपन को ही सतय मान बैठते है और कृ षण ततव को, शीकृ षण की बातो को समझ नहीं पाते है । नहीं तो शी कृ षण तो हमको शीकृ षण बनाने के िलए तैयार है ।

लोग कहते है - 'महाराज ! भगवान की पािि के हम अिधकारी नहीं है ।' अरे भैया ! कुते को

सतसंग सुनने का अिधकार नहीं है । गधे को योग करने का अिधकार नहीं है । भैस को भागवत

सुनने का अिधकार नहीं है । िचिडया को चानिायण वत करने का अिधकार नहीं है .... िकनतु चानिायण वत करने का अिधकार आपको, भिक करने का अिधकार आपको, योग करने का

अिधकार आपको, भिक करने का अिधकार आपको सतसंग-शवण करने का अिधकार आपको... ये सारे अिधकार तो परमातमा ने आपको ही दे रखे है । ििर कयो आप अपने को अनिधकारी मानते हो?

चौरासी लाख योिनयो मे से भगवतपािि की सुिवधा मनुषय जनम मे ही है । भगवतपािि

का अिधकार िकसी और को नहीं है । दे वताओं को भी अगर साकातकार करना हो तो मनुषय बनना पडता है । ऐसा मनुषय जनम आपको िमला है । ईशर ने ऐसा उतम अिधकार आपको दे

िदया है , ििर आप कयो अपने को अनिधकारी मानते हो? अपने को अनिधकारी मानना यही ईशरपािि मे बडे -मे-बडा िवघन है ।अनुकम

ईशर-पािि कोई अवसथा नहीं है । ईशर पािि िकसी पिरिसथित का सजन ा नहीं है ।

पिरिसथित का सजन ा करके भगवान को पाना है या कहीं चलकर भगवान को पास जाना है ऐसी

बात नहीं है वरन ् वह तो हमसे एक सूत भर भी दरू नहीं है । लेिकन हम िजन िवचारो से संसार की ओर उलझे है उनहीं िवचारो को आतमा की तरि लगाना उसका ही नाम है ईशर की ओर चलना, साकातकार की ओर चलना।

ईशर हमसे अलग नहीं हुआ है । वह तो सवत ा है िकनतु हम ही ईशर से िवमुख हो गये

है । परमातमा से हमारा िवयोग नहीं हुआ लेिकन परमातमा से हमारी िवमुखता हो गयी है । जो िमलता है वह िबछुडता जरर है । िजसका संयोग होता है उसका िवयोग भी होता ही है । िजसका

िवयोग होता है उसका ििर संयोग हो यह जररी नहीं है । िकनतु परमातमा से हमारा िवयोग नहीं हुआ है , वरन ् िवमुखता हुई है । अगर हम सनमुख हो जाये तो वह िमला हुआ ही है ।

एक माई थी। उसने साढे तीन चार तोले सोने का बिढया हार पहन रखा था। सुबह आटा

पीसते समय हार आगे झूलकर िवकेप कर रहा था अतः उसने हार को गले मे पीछे की ओर सरका िदया। आटा िपस जाने के बाद वह घर के दस ू रे कायो मे वयसत हो गई। ििर उसे

अचानक हुआ िक 'अरे ! हार कहाँ गया?' उसने अलमारी, टे बल, पलंग आिद सब जगह दे ख िलया, कइयो से पूछा िक 'मेरा हार दे खा है ?' सबने कहाः "नहीं।" उस टोले मे एक समझदार माई थी। उसने पूछाः "कैसा था हार?"

"वही हार जो मै हमेशा पहनती थी।" "हाँ-हाँ। मैने दे खा है ।"

"अरे ! तो बता न कहाँ है ?" "तेरे ही पास है ।"

"मेरे पास? मेरे पास होता तो िमलता न?"

"हाँ हाँ, तेरे ही पास है और तेरे से अलग भी नहीं हुआ।" "मुझसे अलग नहीं होता तो मै ढू ँ ढती कयो?"

"तेरे साथ है तेरे पास है । उसका तेरे से िवयोग हुआ ही नहीं है ।" "बता दे न, दया कर जरा।"

तब उस चतुर माई ने उसके गले मे पीछे की ओर िसथत हार को आगे की ओर खींचते हुए कहाः "दे ख, यह रहा तेरा हार।"

"अरे ! तूने बडी कृ पा की, बहन ! मेरा हार िदला िदया।" "मैने कया िदलाया? तुझे ही िवसमिृत हो गयी थी। मैने तो केवल हार की समिृत ही

करवायी है । बाकी तो हार तेरे पास ही था।"

ऐसे ही आप भी केवल समिृत कर लो। अपनी विृत को जरा-सा अपनी ओर... अपने

आतमसवरप की ओर कर लो। ििर तो..... अनुकम

वो थ े न म ु झसे द ू र न मै उनस े द ू र थ ा।

आता न थ ा नजर तो नजर का कस

ूर था।।

जीव सतयसवरप, साकीसवरप, अंतयाम ा ी परमातमसवरप से िबछुड गया है । मनुषय जनम मे

भी अगर िबछुडी ही रहा तो ििर िकस जनम मे उसे पायेगा? गधा योग नहीं कर सकता और भैस भागवत नहीं सुन सकती। चौरासी लाख योिनयो मे से ऐसा कोई शरीरधारी नहीं है जो ततवजान का िवचार कर सके। केवल मनुषय ही है जो ततवजान का िवचार करके सतय को पा

सकता है और सतय इतना सरल है , इतना सहज है , इतना सुलभ है और इतना िनकट है िक

आप उसको हटाना चाहो तो भी हट नहीं सकता। आप अगर भगवान को अपनी ओर से हटा दे ना चाहो तो आपके बस की बात नहीं है और भगवान हट जाना चाहे तो भगवान के बस की बात नहीं है .... ऐसा वह भगवान है ।

ईशर चाहे तो भी आपसे जुदा नहीं हो सकता और आप चाहो तो भी उस से जुदा नहीं हो

सकता लेिकन हम लोग उससे िवमुख हो गये है , बस। सममुख होने से लाभ है और िवमुख होने से घाटा है ।

एक लडका अपने धनवान िपता से िवमुख हो जाता है तो चार पैसे की नौकरी के िलए

धकके खाता है । अगर वह िपता का हो जाये तो िपता की पूरी समपित का मािलक हो जाता है । ऐसे ही हम ईशर के हो जाये तो पूरे िवश के सवामी है और ईशर से िवमुख होकर पद-पितषा और धन के परायण हो जाये तो ििर पद-पितषा और धन के भी दास हो जाते है ।

यह मनुषय जनम बडा ही कीमती है । जो कभी हमसे िबछुडा नहीं है उसके सममुख हो

जाना कोई किठन बात नहीं है लेिकन हमने उसको किठन मान रखा है । हालाँिक किठन तो यह

है िक न रहने वाली वसतुओं को रखने की कोिशश, न रहने वाले िमतो को राजी करने की कोिशश करना किठन है और किठन कोिशश करते हुए भी ये सब िटकते नहीं है । ऐसे असंभव काम मे भी आप पयास कर सकते हो तो जो सदा रहने वाला है , जो सदा, सवत ा , सबके साथ है उसको पाने का पयास कयो नहीं कर सकते? अवशय कर सकते हो।

उठो.... जागो.... मारो छलाँग। लगाओ गोता। आपमे ईशर का असीम बल छुपा हुआ है ....

हिर ॐ.... ॐ..... ॐ....

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

परमातम -पािि म े बाधकः इच छा और द ेष इचछाद ेषसम ुतथ ेन द नदमोह ेन भारत। सवा भूतािन स ं मोह ं स गे यािनत पर ंतप।।

'हे भरतवंशी अजुन ा ! संसार मे इचछा और दे ष से उतपनन हुए सुख-दःुखािद दनदरप मोह

से संपूणा पाणी अित अजानता को पाि हो रहे है ।'अनुकम

(गीताः

7.27)

इचछा और दे ष से सुख-दःुख आिद दनद पैदा होते है और उसी के कारण हम अजता की

गहरी खाई मे पडे है । इचछा और राग-दे ष न हो तो ईशर को पाने का, ईशर को खोजने का पयास िवशेष रप से करने की जररत नहीं रहती है । कयो ? कयोिक पाया वही जाता है जो खोया गया हो। जबिक ईशर को हम खोना चाहे तो भी खो नहीं सकते। इचछा और दे ष से दनद उतपनन होते है और उन दनदो के कारण ही हम अजता की, नासमझी की खाई मे िगरे हुए है ।

हमारी जो जान-सता है वही तो परमातमा है लेिकन इचछा और दे ष के कारण उस जानसता को हम नहीं जान पाते। ये इचछा और दे ष एक-दो वयिक को नहीं, बिलक संपूणा पािणयो को उलझा दे ते है ।

इचछा करते ही, दे ष करते ही िचत डाँवाडोल होने लगता है । हम करते कया है ? हम

अनुकूल पिरिसथितयो की इचछा करते है एवं पितकूल पिरिसथितयो से दे ष करते है । इचछा और दे ष करने पर कोई जपी, कोई तपी, कोई साधु, कोई योगी जप, तप, साधुताई और योग के िल को

नहीं पा सकता। यिद इचछा और दे ष से पलला नहीं छुडाया तो समझ लेना चािहए िक अभी जान का पकाश नहीं हो पाया, अभी भी िकीरी नशा नहीं चढ पाया, अभी भी बहजान का रं ग नहीं लगा।

हम धािमक ा , भक, साधक, योगी, तपसवी कहला भी ले, मान भी ले लेिकन अनदर मे जो

गीत गूज ँ ना चािहए, जो ईशरीय अदै त मसती आनी चािहए, जो जीवनमुिक का अनुभव

हसतामलकवत ् होना चािहए, वह हमको नहीं होता और उसमे अडचनरपी दो ही बाते है - इचछा और दे ष।

मैने सुनी है एक बातः

इबाहीम का िनयम था िक िकसी अितिथ को भोजन कराने के बाद ही भोजन करना। एक िदन कािी दे र हो गयी िकनतु इबाहीम को कोई अितिथ साधु िकीर नहीं िमला। इबहीम का

िनयम कैसे पूरा होता? अतः वे सवयं ही िनकल पडे िकसी अितिथ-साधु-िकीर को खोजने के िलए।

माग ा मे उनहे एक भूखा-पयासा दिरि वयिक िमला। इबाहीम मानसिहत उसे अपने घर ले

आये और बडे पेम से भोजन की थाली उसके सामने रख दी।

उस दिरि वयिक ने भोजन करने से पूवा न तो नमाज पढी न ही खुदाताला का शुकगुजार

िकय। न उसने हाथ जोडे और न ही इबाहीम को धनयवाद िकया। यहाँ तक िक उसने हाथ भी नहीं धोये और भोजन करना शुर कर िदया।

इबाहीम को उस वयिक की चेषा दे खकर खेद हुआ और वे उससे बोलेः

"तुमने न तो खुदाताला का शुकगुजार िकया और न ही परमातमा को हाथ जोडे िकनतु कम-से-कम हाथ तो धो िलए होते?" अनुकम

वयिकः "मै पारसी हूँ। मैने मन-ही-मन अिगनदे व का अिभवादन कर िलया है । अब

खुदाताला का शुकगुजार करँ या न करँ? मुझे आपने भोजन करने के िलए बुलाया था न िक खुदाताला का शुकगुजार करने के िलए।"

इबाहीम िचढ गये और उसे उठा िदया।

कथा कहती है िक उसी समय आकाशवाणी हुईः "इबाहीम ! यह भूखा िकतने वषा का होगा?"

"मािलक ! करीब 36 वषा का।" "उसने मेरा अिभवादन नहीं िकया, ििर भी 36 साल तक मै उसे सँभालता रहा और तू उसे

36 िमनट तक भी सँभाल न सका? एक बार का भोजन तक न करा सका?"

दाता हो जाना एक बात है और राग-दे ष से रिहत हो जाना यह ऊँची बात है । अितिथ को

भोजन करवाने का िनयम िलया, िकीर हो गये यह तो बिढया बात है िकनतु खुदा का नाम लेने वाले के पित राग और न लेने वाले के पित दे ष करने वाला वयिक खुदा से दरू होता है ।

अगर हम राग दे ष से रिहत होकर पाि पिरिसथित का, िमली हुई वसतुओं का उपयोग

करते है तो मुिक तो मुटठी की चीज है । बडी गलती तो यह होती है िक हम जब धयान भजन

करते है तो यह समझते है िक 'हम भगवान की भिक कर रहे है ' और जब वयवहार मे होते है तो यह समझते है िक 'हम संसार का वयवहार कर रहे हो।' इस पकार जो भिक करते है वे राग-दे ष को िनमूल ा करने पर धयान दे और जो संसार से िचपके है वे पभु मे राग करे । संसार के िवकारी रसो से उपराम होकर भिक-रस पाये। दनद मोह े न।

सुख-दःुखािद दनदरप मोह से सब पाणी मोिहत हो रहे है । रप-रसािद

इिनियो का सुख, पिरिसथितयो का सुख, कीतन ा का सुख आिद सुख से एवं इनकी पितकूलता के

दःुख से एक नहीं वरन ् संपूण ा पाणी अित अजता को पाि हो रहे है । अजता के कारण, नासमझी के कारण ही जनम-मरण होता है ।

इचछा और दे ष से सुख-दःुखािद दनद उतपनन होते है एवं सुख-दःुखािद दनदरप मोह से

मानव नासमझी को पाि होता है । नासमझी की वजह से ही उसका वासतिवक सवरप ढँ का रहता

है । िलतः जनम-मरण का चक चलता ही रहता है । इस चक से वही छूट पाता है िजसको गुर का आशय पाि है । गोरखनाथ जी ने कहा है ःअनुकम

एक भ ू ला , द ू जा भ ूला , भूलया सब स ं सार।

िवण भ ूलया एक गोरखा , िज सको ग ुर का आधार।।

गीता के 15 वे अधयाय मे भी आया है ः दनदै िव ा मुकाः

सुख द ु ःखस ंज ै ः। जीवन मे दनद

तो होगे ही, ििर भले साधु बनो या गह ृ सथी, चोर बनो या साहूकार। हमारी इचछा होती है िक 'ऐसा दःुख न आये और सुख जाये नहीं।' िकनतु हम नहीं चाहते ििर भी दःुख आता है और वह रहता नहीं, चला जाता है । इसी पकार हम नहीं चाहते और भी सुख चला जाता है । वह केवल

जाता ही नहीं, वापस आता भी है । इस पकार सुख-दःुख दोनो ही आने-जानेवाले है । जो आनेजानेवालो की इचछा और उनसे दे ष नहीं करता उसी का जीवन धनय है ।

हम इचछा और दे ष से उतपनन दनदो से इस पकार कुचले गये है िक आज तक हमारे

जनम-मरण का अंत नहीं हो सका है । हम भिक करते है , पूजा करते है , वत-उपवास करते है

लेिकन इस गलती को यानी इचछा और दे ष को साथ लेकर करते है तो जयादा लाभ नहीं हो

पाता है । अगर इचछा और दे ष को हटा िदया जाये तो ििर जो करे वह भिक हो जायेगा, पूजा हो जायेगा, उपवास हो जायेगा।

जैसे, िकसान खेत मे बीज डालता है तो ऐसे ही नहीं डालता वरन ् पहले घास-िूस को दरू

करता है । अगर ऐसे ही बीज डाल दे तो भूिम के रस को जंगली घास ही चूस लेगी और बीज को ठीक से पुिष नहीं िमलेगी। बीज को ठीक से पुष और िवकिसत करके पुिषपत एवं ििलत करना

है तो पहले भूिम को साि करना पडता है । ऐसे ही भिक, पूजा, उपासना आिद को परमातम-पािि रपी िल के रप मे िवकिसत करना हो तो िचत से राग-दे षरपी घास-िूस को दरू करना आवशयक है ।

िजतने अंशो मे हम इचछा और दे ष से, सुख-दःुखािद दनदो से बचते है उतने ही अंश मे

हम सतय के, परम ततव के करीब होते है । िकनतु इचछा और दे ष से उतपनन होने वाले मोह से हम लोग िवमोिहत हो जाते है । तुलसीदास जी ने कहा है ः

मो ह सकल वया िधन कर म ूला। तात े उपज े प ुिन भ वशूला।।

मोह सब वयािधयो का मूल है और उससे भव का शूल, जनम-मरण का शूल पैदा होता है ।

मोह उतपनन होता है माया से। 'मै अर मोर -तोर की माया .....'

इस दे ह को मै मानना और दे ह के साथ संबिं धत जड पदाथो को, वयिकयो को मेरा मानना

यह माया है । इसी माया से इचछा और दे ष से उतपनन होते है । इसी से दनद पैदा होते है िजनसे संपूणा पाणी बँधे हुए है ।

बाँधा भी माया ने नहीं है , मायाधीश ने भी नहीं बाँधा िकनतु हम सवयं ही िचपक गये है ।

िचपकने का मुखय कारण कया है ? इचछा और दे ष। अपना कुि वयिकततव बनाकर अपनी इचछा से जब िचपके रहते है तब हम माया मे िँस जाते है । अगर हम मायाधीश की हाँ मे हाँ िमला दे

तो हम नहीं बचेगे, वही रह जायेगा और वही है शुि, बुि, चैतनयसवरप परमातमा। ...और परमातमा की तो कोई इचछा ही नहीं होती। उसे िकसी से भी दे ष नहीं होता।

आवशयकता और इचछा मे भी िका है । आवशयकता पूरी करने मे कोई पाप नहीं है , कोई

आपित नहीं है और कोई जयादा पिरशम भी नहीं है लेिकन इचछा पूरी करने मे जीवन बरबाद हो

जाता है । इचछा अगर पूरी नहीं होती तो दे ष होता है । ििर उससे दनद और मोह पैदा हो जाते है और मोह सकल वयािधयो का मूल है ।अनुकम

हमारा मूल सवरप तो शांत ही था िकनतु िवपरीत इचछाओं ने हमे परे शान कर िदया।

आवशयकता परे शान नहीं करती, इचछा ही परे शान करती है । जो इचछा संसार के पित होती है

उसी इचछा को अगर भगवान के पित मोड िदया जाये, जनम-मरण से दे ष कर िलया जाये तो मानव िनहाल हो जाये।

हमारे पास जो है , जो हमे पाि है , उसका अगर सदप ु योग करना सीख जाये तो भी

कलयाण हो सकता है । सुदपयोग न करे , केवल भगवान के पित उपयोग कर दे तब भी हमारी इचछा और दे ष से हमारी मुिक हो सकती है , हमारा कलयाण हो सकता है । इचछा और दे ष तो है

ही िकनतु उसी इचछा और उसी दे ष को भगवान के साथ लगा दे । िशशुपाल ने दे ष िकया, कंस और रावण ने दे ष िकया लेिकन भगवान के साथ िकया तो वे तर गये। गोिपयो ने इचछा की भगवान से िमलने की तो वे तर गयीं। आप भी राग और दे ष का उपयोग कर लो तो बेडा पार हो जाये।

जो मुिक की इचछा करता है उसमे सदगुण अपने आप पनपने लगते है । उसके अनदर

तयाग आने लगेगा, उसके दारा दान होने लगेगा, संतो का संग होने लगेगा, ततवजान मे रिच होने लगेगी।

इचछा और दे ष से उतपनन दनदो से बचने के िलए सवग ा जाने की जररत नहीं है और

नका जाने की भी जररत नहीं है । पाताल मे जाने की भी जररत नहीं है , और आकाश मे उडान भरने की भी जररत नहीं है । केवल जररत है तो उनका सदप ु योग करने की। पाचीन समय की बात है ।

काशीनरे श ने एक बार राित मे सवपन दे खा। सवपन मे दे वदत ू ने उनसे कहाः

"नरे श ! तुम बडे पुणयातमा हो। तुमहारे िलए सवग ा मे एक आवास बना है और जब चाहो

तब तुम उसमे आराम कर सकते हो।"

यह दे खकर राजा को अपने पुणयातमा होने का गव ा हुआ। गव ा मनुषय की योगयता को

मार डालता है । राजा को हुआ िक जब सवगा मे मेरे िलए आवास की तैयारी है तो अब मुझे कया िचनता? है ।

अजानी जीव को जब संसार की तुचछ चीजे भी िमल जाती है तो वह िनरं कुश हो जाता एक बार काशीनरे श जंगल मे गया तो खुशनसीबी से वहाँ उसे एक महातमा का झोपडा

िदखा। उसने सोचाः 'चलो, जरा सुन ले महातमा के दो वचन।'

महातमा के पास जाकर उसने पुकारा िकनतु महातमा तो बैठे थे िनिवक ा लप समाधी मे। वे

कया जवाब दे ते? राजा को हुआ िकः 'मै काशी नरे श ! इतना धमातामा ! ये मेरे राजय मे रहते है ििर भी मेरी आवाज तक नहीं सुनते ! इनको कुछ सबक िसखाना चािहए।'अनुकम

सता और अहं कार आदमी को अंधा बना दे ते है । राजा ने घोडे की लीद उठाकर बाबा के

िसर पर रख दी। संत तो समािधसथ थे िकनतु पकृ ित से यह न सहा गया। थोडे िदन बाद पुनः वही दे वदत ू राजा के सपने मे िदखा और कहाः

"राजन ! सवगा मे तुमहारे िलए जो आवास बना था, वह तो है िकनतु पूरा लीद से भर गया है । उसमे एक मकखी तक के िलए जगह नहीं है तो तम उसमे कैसे घुस सकोगे?"

राजा समझ गया िकः 'अरे ! संत का जो अपमान िकया था, उसी का यह पिरणाम है ।' िजनके िचत मे इचछा र दे ष नहीं है उनको आप जैसी चीज दे ते हो वह अनंतगुनी हो जाती है । आप अगर आदर दे ते हो तो आपका आदर अनंतगुना हो जाता है । अगर आप उनसे पीित करते

हो तो आपके हदय की पीित अनंतगुनी हो जाती है । आप उनमे दोष दे खते हो या उनसे दे ष

करते हो तो आपके अंदर अनेक दोष आ जाते है । जैसे, खेत मे आप जो बोते हो वही उगता है । हो सकता है िक खेत मे कोई बीज न भी उगे , िकनतु बहवेता के खेत मे तो सब उग जाता है । तभी नानक दे व जी ने कहा है ः

करनी आपो आपणी

, के न ेडे के द ू र।

अपनी करनी से ही आप अपने भगवान के, महापुरषो के करीब महसूस करते हो और अपनी ही करनी से आप अपने को उनसे दरू महसूस करते हो।

कभी हम अपने को ईशर को नजदीक महसूस करते है और कभी दरू महसूस करते है

कयोिक हम जब इचछा और दे ष के चंगुल मे आ जाते है तो ईशर से दरूी महसूस करते है और

साितवक भाव मे आते है तो ईशर के नजदीक महसूस करते है । िकनतु यिद इचछा और दे ष से रिहत हो गये तो ििर ईशर और हम दो नहीं बचते बिलक 'हम न तुम , दफतर िसथित आ जाती है ।

गु म ...' ऐसी

उस काशी नरे श ने दे वदत ू की बात समझ ली िक मैने महापुरष का अपमान िकया

इसिलए सवगा मे मेरा जो आवास था, वह लीद से भर गया है ।

सुबह उठकर उसने वजीरो से बात कीः "कैसे भी करके वह लीद का भणडार खाली हो

जाये ऐसी युिक बताओ।"

चतुर वजीरो ने कहाः "राजन ! एक ही उपाय है । आप ऐसा कुछ पचार करवाओ तािक

लोग आपकी िनंदा करने लग जाये। लोग िजतनी िनंदा करे गे उतनी लीद उनके भागय मे चली जायेगी। आपका िनवास साि हो जायेगा।"

राजा ने न िकये हो ऐसे दरुाचरणो का, दवुयव ा हारो का कुपचार राजय मे करवाया और लोग

राजा की िनंदा करने लगे। कुछ ही िदनो के बाद दे वदत ू ने सवपन मे आकर कहाः

"राजन ! तुमहारा वह करीब-करीब खाली हो गया है । अब एक कोने मे थोडी सी लीद बच

गयी है । वह लीद तुमको ही खानी पडे गी।"

राजा ने दे वदत ा ा कीः "उसको खतम करने का उपाय बता दीिजए।"अनुकम ू से पाथन

दे वदत ू ः "नगर के और लोग तो तुमहारे दरुाचरणो का पचार सुनकर िनंदा करने लग गये

है लेिकन एक लुहार ने तुमहारी अभी तक िनंदा नहीं की कयोिक वह लुहार सोचता है िक जब 'जब ईशर ने सिृष बनाई तो मै कयो िकसी की िनंदा सुनकर दे ष करँ और िकसी की पशंसा

सुनकर इचछा करँ? मै इचछा-दे ष नहीं करता। मै तो मसत हूँ अपने आप मे ' वह है तो लुहार

लेिकन है मसत... इचछा-दे ष से बचा हुआ है । वह लुहार अगर तुमहारी थोडी-सी िनंदा कर ले तो तुमहारे महल की एकदम सिाई हो जायेगी।"

यह सुनकर राजा वेश बदल कर लुहार के पास आया और राजा की िनंदा करने लगा। तब

लुहार ने कहाः

"आप भले राजा की िनंदा करो लेिकन मै आपके चककर मे आने वाला नहीं हूँ। अब बाकी

की बची जो लीद है , वह आपको ही खानी पडे गी। मुझे मत िखलाओ।" तब राजा ने आशयच ा िकत होकर पूछाः "तुम कैसे जान गये?"

लुहारः "परमातमा सववायापक है । वह मेरे हदय मे भी है । ये दे वदत ू या दे वता कया होते

है ? सबको सता दे ने वाला अनंत बहाणडनायक मेरा आतमा है । वेश बदलने पर भी आपको मै

जान गया और दे वदत ू आपको सपना दे ता है यह भी जान गया। वह लीद आपको ही खानी पडे गी।"

जब इचछा और दे ष होता है तभी सब उलटा िदखता है । िजसके जीवन मे इचछा-दे ष नहीं

होते उसे सब साि-साि िदखता है । जैसे, दपण ा के सामने जो भी रख दो वह साि-साि िदखता है वैसे ही इचछा-दे षरिहत महापुरषो का हदय होता है । शीकृ षण के ये दो ही वचन अगर जीवन मे उतर जाये तो कािी है ।

अजानता को कैसे दरू िकया जा सकता है ? शष े कमो के आचरण से अपने पापो को नष

करके मनुषय दनद रप मोह को दरू कर सकता है एवं पभु का भजन दढता पूवक ा कर सकता है । इसी बात को आगे के शोक मे समझाते हुए भगवान शीकृ षण कहते है येष ां तवनत गतं पाप ं जनाना ं प ुणयकम ा णाम।् ते दनद मोहिनम ुा का भज नते दढवताः।।

'(िनषकाम भाव से) शष े कमो का आचरण करने वाले िजन पुरषो का पाप नष हो गया है , वे राग-दे षािदजिनत दनदरप मोह से मुक और दढ िनशय वाले पुरष मुझको भजते है ।' (गीताः जगत की वासनाएँ ही पाप है और िनषकाम कम ा पुणय है । पुणयकमो

7.28)

के दारा िजनके

पापो का अनत हो गया है वे दनद और मोह से मुक होकर, जान पाि करने के पशात दढता पूवक ा मुझे भजते है ।अनुकम

मोह िवचार से दरू होता है और दनद जानिनषा से। इसिलए पहले मोह दरू होगा और

ििर दनद समाि होगे कयोिक दनदो की उतपित मोह से ही होती है । दनद-मोह से मुिक, दढ वत

और भजन ये तीनो बाते एक साथ ही होनी चािहए। तातपया यह है िक िववेक होने के पशात जो भजन करता है उसे दनद चलायमान नहीं कर सकते कयोिक िववेक दारा उसने अपनी असंगता का अनुभव कर िलया है ।

िनषकाम कम ा से, शष े कम ा से, पुणयकम ा से अनतःकरण की शुिि होती है । शुि हदयवाला ही दढवती होकर, कृ तिनशयी होकर भगवान का भजन कर सकता है ।

लोग भगवान के भजन का पारं भ तो करते है िकनतु बीच मे ही भजन छूट जाता है । चार

िदन भजन करते है , ििर छूट जाता है । नहीं, ऐसा नहीं करना चािहए। समय का िनयम छूट जाये, कोई बात नहीं। सथान का िनयम छूट जाये कोई बात नहीं। िकनतु जो वत अपने जीवन मे

गहण करे उसका पालन अवशय करना चािहए। समय और सथान का िनयम टू टने पर भी वत नहीं टू टना चािहए। भगवान का भजन, नाम-जप दढता से करना चािहए।

तमाम पकार की इचछा और दे ष से उतपनन दनद हमारे िचत की शिकयो को िबखेर दे ते

है लेिकन िजनके पापो का अनत हो गया है ऐसे भक िचत की तमाम शिकयो को केिनित करके भगवान के भजन मे दढतापूवक ा लग जाते है । दढता से भगवान का भजन करने वाले सवयं ही भगवनमय हो जाते है ।

भजन मे जब तक दढता नहीं आती तब तक भजन का रस आता और जब तक भजन

का रस नहीं आता तब तक संसार के रस का आकषण ा भी नहीं जाता। यिद एक बार भी भगवदभजन का रस िमल जाये तो संसार के समसत रस िीके हो जाते है ।

धन-वैभव, साधन-संपदा अजान से सुखद लगते है लेिकन उनमे दनद रहते है । राग-दे ष,

इचछा-वासना के पीछे जीव का जीवन समाि हो जाता है और दनदो से मुक हुए िबना भगवान की दढ भिक भी पाि नहीं हो सकती।

िनदा नद तो वही हो सकता है िजसने पुणय कमो के दारा अपने पापो को नष कर िदया है ।

िनदा नद तो वही हो सकता है िजसने शीकृ षण के जान को, बहवेता सदगुर के जान को पचा िलया है ।

िकसी सचचे सदगुर का मागद ा शन ा िमल जाये और साधक दढवती होकर उस माग ा पर

चल पडे तो परमातम-पािि का काया सरल बन जाता है ।अनुकम

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

पयाणकाल

मे भी जान हो जाय त

जरामरणमोकाय

मामा िशतय यतिनत

ो म ु िक ये।

ते बह त िदद ु ः कृतसनमधयातम ं कम ा चा िखलम।् ।

'जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के िलए यत करते है , वे पुरष उस बह को तथा संपूणा अधयातम को और संपूणा कमा को जानते है ।' (गीताः सा िधभ ूतािध दैव ं मा ं सािध यजं च ये िवद ु ः। पयाणकाल ेऽ िप च म ां त े िवद ु युा कचेतस ः।।

7.29)

'जो पुरष अिधभूत और अिधदै व के सिहत तथा अिधयज के सिहत (सबका आतमरप) मुझे अंतकाल मे भी जानते है , वे युक िचतवाले पुरष मुझको ही जानते है अथात ा ् मुझको ही पाि होते है ।'

(गीताः

7.30)

शीकृ षण के इन वचनो का अभयास करने से, िवचार करने से एवं इनके अथ ा मे डू ब जाने से संसार की भांित का उनमूलन होता है ।

असत ् दे ह एवं िमथया वयवहार की जो आसिकयाँ है वे समयक् जान से िनवत ृ होती है ।

समयक् जान अथात ा ् यथाथ ा जान, ठीक जान जगत का है । जगत का िजतना िचंतन होगा, जगत को िजतना सतय मानेगे, िचत िजतना बिहमुख ा होगा उतना ही आदमी दीन-हीन होग। जगत की िजतनी लापरवाही करके ईशर की शरण होता है उतना ही आदमी हर केत मे सिल होता है ।

परमातमा का आशय छोडकर जो अपने बल से, अपनी बुिि से, अपनी अकल से कुछ

करता है उसे कुछ करता है उसे कुछ िमल भी जाता है तो अिभमान होता है और नहीं िमलता है

तो िवषाद होता है । जो लोग भगवान का आशय लेकर चलते है उनहे ििर भगवान पर आधािरत होकर आलसी-पमादी नहीं बन जाना चािहए। उनको भगवान के आशय से यत करना चािहए।

सब कुछ भगवान पर छोडकर कमह ा ीन नहीं बनना है और मै करता हूँ ऐसी भांित से

अपने आपको कताा-धता ा मान कर जगत के जाल मे भी नहीं िंसना है । इसीिलए शीकृ षण ने कहा है ः मा मािशतय

यत िनत ते। यत तो करे लेिकन भगवान का आशय लेकर करे एवं िल

की पािि को परमातमा की सता से पाि माने। अपने को परमातमा मान ले। िजस समय आपके मन मे भगवान के हो जाने का िवचार होता है उसी समय अगर सचचे िदल से आप भगवान को

समिपत ा हो जाते है तो भगवान से आपकी एकता हो जाती है , आप भगवनमय हो जाते है ।

....और जब आप भगवनमय बन गये तो ििर असिलता कहाँ? जब आप भगवान के बन गये तो राग कहां और दे ष कहाँ?

हवा हम लोगो ने नहीं बनायी। बरसात को हमने नहीं बनाया। पथ ृ वी हमारी रचना नहीं

है । आकाश एवं अिगन हमारी कृ ित नहीं है । िदल की धडकने हमारी सता से नहीं चलतीं। सूयाचनि को हमने नहीं बनाया.... सब भगवान का है तो बीच मे अपना अहं कयो लाना? अपने अहं

को भगवान के चरणो मे िवसिजत ा कर दो। िजस कण आप भगवान के होते है उसी कण भगवान आपके हो जाते है ।अनुकम

कम ा तो करो तािक जीवन मे आलसय-पमाद न आये िकनतु अपने को कम ा का कता ा न

मानो। जगत मे सतयबुिि, िवषयो मे आसिक एवं अपने मे कतताृवभाव ये जीव को दःुख दे ते है , जीव को बंधन मे डालते है । अतः पयत तो करो िकनतु अपने मे कतताृवभाव न लाओ, वरन ् ईशर की शरण होकर काय ा करो। अलग-अलग जगह पर काम करने वाली कोई महान शिक है । हमारा

शरीर िनिमतमात बनता है – ऐसा समझकर कम ा तो करो लेिकन उससे सिलता िमले तो अिभमान न बढाओ वरन ् भगवान की कृ पा से ही सिलता िमली है , ऐसा मानो।

'हवाएँ तेरी है । बादलो को तू बनाता है । रक का संचार तू करता है । सूय ा को तू चमकाता

है । जीवन तू बनाता है ... जब सभी मे तेरी सता काम कर रही है तो मै कौन होता हूँ?' इस पकार अपने मै को उस ईशर की चेतना मे लीन हो जाने दो तो उसी समय पता चलेगा िक आिधभौितक, आिधदै िवक और आधयाितमक सबमे सारभूत परमातमा ही है ।

जो सथूल जगत दिषगोचर होता है , उसके नामरप के पीछे सता उसी परमातमा की है ।

जैसे, बिा मे सता पानी की है । पानी ही बिा के रप मे एकितत होता है । ऐसे ही वह परमातमा

अनेक रपो मे पतीत हो रहा है । कोई वयिक सामने हो तो हमे अपनी कलपना के अनुसार ही उसमे गुण-दोष िदखते है । वह अमुक जाित का, अमुक उम का िदखता है , यह हमारी पाकृ ितक

बुिि का ही चमतकार है । पाकृ ितक बुिि से ही वयिक के गुण -दोषािद िदखते है । ततव से दे खा जाये तो साररप से सब परमातमा की ही अिभवयिक है । जैसे जल बिारप होकर भासता है , वैसे ही सत ्-िचत ्-आननदसवरप परमातमा जगतरप होकर भासता है ।

यह भगवान के आिधभौितक सवरप को दे खने का तरीका है िक हर चीज मे उसी की

सता है । नाम-रप हमारे दारा किलपत है । आिध दै िवक सवरपः

सिृष के कता ा है िहरणयगभ ा बहा जी। वे रजोगुण पधान है । उनहीं

से सिृष उतपनन होती है लेिकन बहा जी का भी वासतिवक ततव शुि संिवत ्, चैतनयमात है । बहाजी के नाम-रप मे भी अनामी आतमा का ही पभाव है । ऐसा िचतन करने से भगवान के आिधदै िवक रप का बोध होता है ।

भगवान नारायण सतवपधान है । सिृष के मूल मे, हर अनतःकरण मे वे भगवान अंतयाम ा ी

रप से िसथत है । वे ही सतवगुणपधान िवषणु जी होकर सिृष का पालन करते हुए िदखते है । वे

ही िवषणु के रप मे कीरसागर मे आराम कर रहे है । ऐसा िचंतन करके भगवान का आधयाितमक सवरप दे खा जाता है ।

हमारी बुिि पकृ ित की बनी है , इसीिलए िनराकार का िचंतन नहीं कर सकती है । बुिि

पकृ ित की बनी है , गुणो की बनी है इसीिलए वह िनगुण ा को नहीं पकड सकती। भगवान िनगुण ा

िनराकार है , इस बात का िचंतन वह ठीक से नहीं कर सकती। इसीिलए ऋिषयो ने िचंतन की पिित ऐसी बनायी है िकः 'भगवान दयालु है .... कृ पालु है .... पािणमात के परम सुहद है ... सबके

हदय मे िसथत है .... अंतयाम ा ी है .... करणा के सागर है .... दीनानाथ है .... िनराधारो के आधार है .... आिद-आिद।अनुकम

िनगुण ा िनराकार का िचंतन नहीं हो सकता, इसीिलए सगुण साकार का िचंतन करते-करते

बुिि परमातमाकार हो जाये। वासतव मे भगवान मे कोई गुण नहीं है । गुण सब पकृ ित मे है

भगवान को केवल सतामात है । वासतव मे भगवान मे कोई गुण नहीं है इसीिलए भगवान मे सब गुण िटक सकते है ।

भगवान मे कुछ नहीं, इसीिलए भगवान मे सब कुछ हो सकता है । हम लोगो मे कुछ-कुछ

गुण होता है । िकसी मे बोलने का गुण होता है । िकसी मे दान दे ने का गुण होता है । िकसी मे यज करने का गुण होता है । िकसी मे कुछ गुण होता है तो िकसी मे कुछ गुण होता है । हम लोगो मे कुछ-कुछ गुण होते है और वे गुण होते तो पकृ ित के है लेिकन हम अपने मे मानते है

तो उतने गुण मे हम रक जाते है । जबिक भगवान मे कोई गुण नहीं इसीलए सब गुणो को भगवान सता दे ते है ।

वयिक जब अपनी पकड छोड दे ता है , उदोग तो करता है िकनतु उपलिबध की आशा नहीं

करता, परमातमा मे िमलने के िलए ततपर होता है तब परमातमा उसके िचत मे जलदी पगट हो जाते है ।

जो परमातमा को दीनदयालु नहीं मानते है , अंतयाम ा ी नहीं मानते है उनके हदय मे

परमातम-पेम नहीं छलक पाता। जो भगवान के अिसततव को सवीकार करते है , भगवान की शरण हो जाते है उनको मुिक तो सहज ही िमल जाती है , साथ ही साथ उनका रोम-रोम पेम और आनंद से भर जाता है ।

भगवान के भक को पेम से भगवान के साकार रप का दशन ा होता है और भगवान की

कृ पा से ििर िनगुण ा -िनराकार का साकातकार हो जाता है । पुरषाथ ा करने से िनगुण ा -िनराकार का साकातकार हो जाता है तो वह समझता है िक अंतःकरण मेरा नहीं है । यह पकृ ित का अंतःकरण

है । उस अंतःकरण से िवशेष काम लेने के िलए भगवान उसको अपने साकार रप का भी दशन ा करा दे ते है ।

'सगुण-साकार, सगुण-िनराकार और िनगुण ा -िनराकार इन सबमे वासतव मे तो भगवान की

ही सता है ।' ऐसा बोध िजनको हो जाता है वे भगवान के समग सवरप को जान लेते है । ििर वे

िकसी मानयता मे, िकसी गुण मे उलझते नहीं है । सतवगुण आये तो कया? रजोगुण आये तो कया? तमोगुण आये ते कया? ििर तो वे तीनो गुणो मे वतत ा े हुए भी तीनो गुणो से अिलि हो जाते है । भगवान कहते है -

जरामरणमोकाय

मामा िशतय यतिनत

ये।

ते बह त िदद ु ः कृतसनमधयातम ं कम ा चा िखलम।् ।

'जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के िलए यत करते है , वे पुरष उस बह को

तथा संपूणा अधयातम को और संपूणा कमा को जानते है ।'अनुकम

(गीताः जरामरणमोकाय

7.29)

– जरा और मरण से छूटने का मतलब यह नहीं िक 'अगर भगवान

के समग सवरप को समझ िलया तो जरा नहीं आयेगी, मतृयु नहीं आयेगी...' ऐसी बात नहीं है ।

लेिकन भगवान के समग सवरप को जान लेने पर यह पता चल जायेगा िक 'जरा मुझे नहीं आती, मौत मुझे नहीं आती वरन ् शरीर को आती है और शरीर मै नहीं हूँ। मेरा वासतिवक सवरप और परमातमा का वासतिवक सवरप एक ही है । शरीर बदलता है , शरीर के गुणधम ा बदलते है

लेिकन शरीर के अंदर जो 'मै' है , शुि 'मै' है वह कभी बदलता नहीं है । वह सदै व साकी रप मे

िसथत होता है ।' .... और जब इस बात का पता चल जाता है तो वह जरा मरण वयािध से छूट जाता है कयोिक उसे शरीर से अपनी अलगता का बोध हो जाता है । सातवे अधयाय के अंितम शोक मे भगवान कहते है -

सा िधभ ूतािध दैव ं मा ं सािध यजं च ये िवद ु ः। पयाणकाल ेऽ िप च म ां त े िवद ु युा कचेतस ः।।

'जो पुरष अिधभूत और अिधदै व के सिहत तथा अिधयज के सिहत (सबका आतमरप)

मुझे अंतकाल मे भी जानते है , वे युक िचतवाले पुरष मुझको ही जानते है अथात ा ् मुझको ही पाि होते है ।'

(गीताः

7.30)

जीव भगवान के इस ताितवक सवरप को अभी जान ले तो बेडा पार है ही, लेिकन सुनी

हुई बात अंतकाल मे भी समरण मे आ जाये तो भी उसकी सदगित हो जाती है ।

सथूल सिृष परमातमा का अिधभूत रप है । ये अिधभूत जो िदखते है उनमे काय ा तो माया

का खेल है लेिकन कारण मािलक का सवरप है । बहा जी रजोगुण पधान है । िहरणयगभा... सिृष की उतपित का संकलप िजस िचत से होता है , उसे िहरणयगभ ा कहते है । िहरणयगभ ा के रप मे

संकलप जहाँ से िुरता है , बहाजी की आकृ ित िदखती है , बहाजी का िचत िदखता है लेिकन िचत मे संकलप का सिुरण करवाने की ताकत उस सिचचदानंद चैतनय की है । आिध दै िवक सवरपः

जो सबमे वास कर रहा है , वह है वासुदेव।

जले िवषण ुः थल े िवषण ुः िवषण ु पव ा तमस तके।

जवालमालाक ुल े िवषण ुः स वा िवषण ुमय ं जग त।् ।

'जल मे, थल मे, पवत ा मे, अिगन मे, पाषाण मे सब जगह भगवान िवषणु बस रहे है । यह

सारा जगत िवषणुमय है ।' जो सवत ा बस रहा है , उसी का नाम वासुदेव है । वही सबके िदल मे बस रहा है । 'सिृष का पालन करने का संकलप उस परमातमा का है और वही परमातमा मेरे हदय मे भी है ।' इस बात का जान जो पा लेता है , उसको अगर मरते समय भी यह जान सिुिरत हो जाये तो वह मुक हो जाता है ।अनुकम

नारायण..... नारायण..... नारायण...... नारायण...... ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अदभ ु त ह ै य ह गी तागन थ !

सशरीर सवग ा मे जाकर शस ले आने की कमता वाले अजुन ा को भी गीता के अमत ृ के िबना िकंकतवायिवमूढता ने घेर रखा था। गीता माता ने अजुन ा को सशक बना िदया। गीता माता अिहं सक पर वार नहीं कराती और िहं सक वयिकयो के आगे हमे डरपोक नहीं होने दे ती। गीता

कतवाय कम ा करवाती है लेिकन कतवाय मे से कताप ा ने की बेवकूिी हटा दे ती है । गीता आतमापरमातमा के साथ हमारा ताल-मेल कराकर, संसार को नंदनवन बनाकर आिखर मे परमपद पाने का पेरक मागद ा शन ा दे ती है ।

और िकसी भी गनथ के िलए भगवान ने यह नहीं कहा िक 'यह मेरा हदय है ' लेिकन

गीता के िलए भगवान ने कहा है ः गीता म े हदय ं पाथ ा ।

परं परा तो यह है िक यजशाला मे, मंिदर मे, धमस ा थान मे धम ा की पािि होती है लेिकन

गीता ने गजब कर िदया ! धमा केत े कुरक ेत े .... युि के मैदान मे अजुन ा को धम ा की पािि करा दी। एकांत अरणय मे, िगिर-गुिा मे धारणा, धयान, समािध करने पर योग पगट होता है लेिकन

गीता ने युि के मैदान मे योग को पगट िकया। होना तो ऐसा चािहए िक गुर ऊपर बैठकर

उपदे श दे और िशषय नीचे बैठकर शवण करे । िशषय का िचत शांत हो और गुर अपने आप मे ति ृ हो... तब ततवजान होता है । लेिकन गीता ने कमाल कर िदया ! युिभूिम मे हाथी िचंघाड रहे

है , घोडे िहनिहना रहे है , दोनो सेनाओं के योिा पितशोध की आग मे तप रहे है , एक दस ू रे के खून

के पयासे है । िकंकतवायिवमूढता से गसत मितवाला अजुन ा रथी के सथान पर ऊपर बैठा है और गीताकार सारथी के सथान पर नीचे। नर का सेवक बन कर नारायण रथ चला रहे है , नर की आजा मान रहे है । िकतनी करणा छलकी होगी उस ईशर को अपने सखा अजुन ा व मानव जाित के िलए !

गीता पढकर गीताकार की भूिम को पणाम करने के िलए केनेडा के पाईम िमिनसटर िम.

पीअर. टु डो भारत आये थे। जीवन की शाम हो जाये और दे ह को दिनाया जाय उससे पहले

अजानता को दिनाने के िलए उनहोने पाईम िमिनसटर पद से तयागपत दे िदया और एकांत मे चले गये। शारीिरक पोषण के िलए दध ू वाली गाय और अपने आधयाितमक पोषण को िलए उपिनषद और गीता साथ ले गये।अनुकम

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

ननद के लाल

! कुबा ा न त ेरी सू रत पर

गीता ने िकसी मत-पंथ की सराहना या िननदा नहीं की अिपतु मनुषय मात की उननित की बात कही। उननित भी कैसी? एकांगी उननित नहीं अिपत सवाग ा ीण उननित, भुिक और मुिक दोनो की िसिि कराने वाली उननित।

गीता ने थोडे शबदो मे बहुत सारा जान बता िदया। युि के मैदान मे भी िकसी िवषय को

अछूता न छोडा। है तो युि का मैदान ििर भी भगवान तंदरसती की बात भी नहीं भूलेः युकाहा रिव हारस य......

केवल शरीर का ही नहीं मन का सवासथय भी बताया है ः सुख ं वा यिद वा द ु खं ... तथा

सुखद ु ःखे समे कृतवा

ला भालाभौ

जयाजयौ ... आिद आिद। सुख आये या दःुख, लाभ हो या

हािन, जय हो या पराजय, िकसी भी पिरिसथित मे िवचिलत न बनो। दःुख पैरो तले कुचलने की चीज है और सुख बाँटने की चीज है ।

केनेडा के पाईम िमिनसटर िम. िपअर टु डो ही नहीं, खवाजा-िदनमोहममद ही नहीं, लेिकन

कटटर मुसलमान की बेटी और अकबर की बैगम भी गीताकार के गीत गाये िबना नहीं रह सकती। वह कहती है ः

सुनो िदल जानी , मेरे िद ल की क हानी। हूँ तो त ुका ा नी ल ेिकन िहनद ु आनी कहाऊ ँगी।। ननद के ल ाल ! कुबा ा न तेरी स ूरत पर।

कलमा नमाज छा ं डी और द े वपूजा ठा नी।। सुनो िदल जानी , मेरे िद ल की क हानी ....

अकबर की वह बैगम अकबर को लेकर वंद ृ ावन मे शीकृ षण के मंिदर मे आयी। आठ िदन

तक कीतन ा करते-करते जब आिखरी घिडयाँ आयीं तब 'हे कृ षण ! मै तेरी हूँ और तू मेरा है ....' ऐसा कहकर वह शी कृ षण के चरणो मे िसर टे ककर सदा के िलए उनहीं मे समा गयी। तब अकबर बोलता है ः "जो चीज िजनकी थी उसने उनहीं को पा िलया। हम रह गये..." अनुकम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

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