Hindi Poems By Nagarjun

  • November 2019
  • PDF

This document was uploaded by user and they confirmed that they have the permission to share it. If you are author or own the copyright of this book, please report to us by using this DMCA report form. Report DMCA


Overview

Download & View Hindi Poems By Nagarjun as PDF for free.

More details

  • Words: 539
  • Pages: 5
गुलाबी चूिड़याँ ूाइवेट बस का साइवर है तो क्या हआ ु , सात साल की बच्ची का िपता तो है ! सामने िगयर से उपर

हक ु से लटका रक्खी हैं

काँच की चार चूिड़याँ गुलाबी बस की रझतार के मुतािबक िहलती रहती हैं …

झुककर मैंने पूछ िलया खा गया मानो झटका

अधेड़ उॆ का मुच्छड़ रोबीला चेहरा आिहःते से बोला: हाँ सा’ब

लाख कहता हँू नहीं मानती मुिनया टाँगे हए ु है कई िदनों से अपनी अमानत

यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने मैं भी सोचता हँू

क्या िबगाड़ती हैं चूिड़याँ

िकस ज़ुमर् पे हटा दँ ू इनको यहाँ से? और साइवर ने एक नज़र मुझे दे खा और मैंने एक नज़र उसे दे खा

छलक रहा था दिधया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में ू तरलता हावी थी सीधे-साधे ूश्न पर

और अब वे िनगाहें िफर से हो गईं सड़क की ओर और मैंने झुककर कहा हाँ भाई, मैं भी िपता हँू

वो तो बस यूँ ही पूछ िलया आपसे वनार् िकसे नहीं भाएँगी?

नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूिड़याँ!

बादल को िघरते दे खा है अमल धवल िगिर के िशखरों पर, बादल को िघरते दे खा है । छोटे -छोटे मोती जैसे

उसके शीतल तुिहन कणों को, मानसरोवर के उन ःविणर्म कमलों पर िगरते दे खा है ,

बादल को िघरते दे खा है । तुंग िहमालय के कंधों पर छोटी बड़ी कई झीलें हैं ,

उनके ँयामल नील सिलल में समतल दे शों ले आ-आकर

पावस की उमस से आकुल ितक्त-मधुर िबसतंतु खोजते हं सों को ितरते दे खा है ।

बादल को िघरते दे खा है ।

ऋतु वसंत का सुूभात था

मंद-मंद था अिनल बह रहा बालारुण की मृद ु िकरणें थीं

अगल-बगल ःवणार्भ िशखर थे एक-दसरे से िवरिहत हो ू

अलग-अलग रहकर ही िजनको सारी रात िबतानी होती,

िनशा-काल से िचर-अिभशािपत बेबस उस चकवा-चकई का

बंद हआ बंदन, िफर उनमें ु उस महान ् सरवर के तीरे शैवालों की हरी दरी पर

ूणय-कलह िछड़ते दे खा है । बादल को िघरते दे खा है । दगर् ु म बफार्नी घाटी में

शत-सहॐ फुट ऊँचाई पर

अलख नािभ से उठने वाले

िनज के ही उन्मादक पिरमलके पीछे धािवत हो-होकर

तरल-तरुण कःतूरी मृग को अपने पर िचढ़ते दे खा है ,

बादल को िघरते दे खा है ।

कहाँ गय धनपित कुबेर वह कहाँ गई उसकी वह अलका नहीं िठकाना कािलदास के

व्योम-ूवाही गंगाजल का,

ढँू ढ़ा बहत ु िकन्तु लगा क्या मेघदत ू का पता कहीं पर,

कौन बताए वह छायामय

बरस पड़ा होगा न यहीं पर,

जाने दो वह किव-किल्पत था, मैंने तो भीषण जाड़ों में

नभ-चुंबी कैलाश शीषर् पर, महामेघ को झंझािनल से

गरज-गरज िभड़ते दे खा है , बादल को िघरते दे खा है ।

शत-शत िनझर्र-िनझर्रणी कल मुखिरत दे वदारु कनन में,

शोिणत धवल भोज पऽों से छाई हई ु कुटी के भीतर, रं ग-िबरं गे और सुगंिधत

फूलों की कुंतल को साजे, इं िनील की माला डाले

शंख-सरीखे सुघड़ गलों में, कानों में कुवलय लटकाए,

शतदल लाल कमल वेणी में,

रजत-रिचत मिण खिचत कलामय पान पाऽ िाक्षासव पूिरत रखे सामने अपने-अपने

लोिहत चंदन की िऽपटी पर, नरम िनदाग बाल कःतूरी मृगछालों पर पलथी मारे

मिदरारुण आखों वाले उन

उन्मद िकन्नर-िकन्निरयों की मृदल ु मनोरम अँगुिलयों को वंशी पर िफरते दे खा है ।

बादल को िघरते दे खा है ।

Related Documents