Collection Of Hindi Poems

  • November 2019
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  • Words: 23,215
  • Pages: 176
गजल इस नदी की धार म ठं डी हवा आती तो है,

नाव जजर ही सही, लहर से टकराती तो है। एक िचनगारी कही से ढू ँढ लाओ दो%त,

इस िदए म तेल से भीगी (ई बाती तो है। एक खंडहर के ,दय-सी, एक जंगली फू ल-सी,

आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है। एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,

यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

िनवचन मैदान म लेटी (ई है जो नदी,

प4थर से, ओट म जा-जाके बितयाती तो है। दुख नह7 कोई िक अब उपलि8धय के नाम पर,

और कु छ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

- दुयत कु मार

बरस के बाद कह बरस के बाद कभी हमतुम यिद िमल कह7,

देख कु छ पिरिचत से,

लेिकन पिहचान ना।

याद भी न आये नाम, =प, रं ग, काम, धाम,

सोच ,

यह स>मभव है -

पर, मन म मान ना। हो न याद, एक बार

आया तूफान, ?वार

बंद, िमटे पृA को -

पढ़ने की ठाने ना।

बात जो साथ (ई,

बात के साथ गय7,

आँख जो िमली रह7 उनको भी जान ना।

- िगिरजाकु मार माथुर

कारवाँ गुज़र गया %वC झरे फू ल से,

मीत चुभे शूल से,

लुट गये िसगार सभी बाग़ के बबूल से,

और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

न7द भी खुली न थी िक हाय धूप ढल गई,

पाँव जब तलक उठे िक िज़Gदगी िफसल गई, पातपात झर गये िक शाख़शाख़ जल गई,

चाह तो िनकल सकी न, पर उमर िनकल गई, गीत अIक बन गए,

छंद हो दफन गए,

साथ के सभी िदऐ धुआँधआ ु ँ पहन गये, और हम झुकेझुके,

मोड़ पर Kके Kके उL के चढ़ाव का उतार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे। Mया शबाब था िक फू लफू ल Nयार कर उठा,

Mया सु=प था िक देख आइना मचल उठा थाम कर िजगर उठा िक जो िमला नज़र उठा, एक िदन मगर यहाँ,

ऐसी कु छ हवा चली,

लुट गयी कलीकली िक घुट गयी गलीगली,

और हम लुटेलुटे, वP से िपटेिपटे,

साँस की शराब का खुमार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे। हाथ थे िमले िक जुQफ चाँद की सँवार दू,ँ

होठ थे खुले िक हर बहार को पुकार दू,ँ

दद था िदया गया िक हर दुखी को Nयार दू,ँ

और साँस यूँ िक %वग भूमी पर उतार दू,ँ

हो सका न कु छ मगर, शाम बन गई सहर,

वह उठी लहर िक दह गये िकले िबखरिबखर,

और हम डरे डरे ,

नीर नयन म भरे ,

ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।

कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली िक एक, जब नई नई िकरन,

ढोलक धुमुक उठ7, ठु मक उठे चरनचरन,

शोर मच गया िक लो चली दुQहन, चली दुQहन, गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयननयन, पर तभी ज़हर भरी,

गाज एक वह िगरी,

पुँछ गया िसदूर तारतार (ई चूनरी,

और हम अजानसे, दूर के मकान से,

पालकी िलये (ए कहार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे। - गोपालदास नीरज

द संग नह ह! हम जीवन के महाकाS हT के वल UGद Vसंग नह7 हT। कं कड़-प4थर की धरती है

अपने तो पाँव के नीचे हम कब कहते बGधु! िबछाओ

%वागत म मखमली गलीचे रे ती पर जो िचW बनाती ऐसी रं ग-तरं ग नह7 है।

तुमको रास नह7 आ पायी Mय अजातशWुता हमारी िछप-िछपकर जो करते रहते

शीतयुX की तुम तैयारी हम भाड़े के सैिनक लेकर लड़ते कोई जंग नह7 हT। कहते-कहते हम मसीहा

तुम लटका देते सलीब पर हंस तु>हारी कू टनीित पर कु ढ़ या िक अपने नसीब पर भीतर-भीतर से जो पोले हम वे ढोल-मृदग ं नह7 है।

तुम सामुिहक बिहYकार की िमW! भले योजना बनाओ

जहाँ-जहाँ पर िलखा (आ है नाम हमारा, उसे िमटाओ

िजसकी डोर हाथ तु>हारे हम वह कटी पतंग नह7 है।

- देवे " शमा$ इ"

कहो कै से हो लौट रहा [ँ मT अतीत से देखूँ Vथम तु>हारे तेवर मेरे समय! कहो कै से हो? शोर-शराबा चीख़-पुकार सड़क भीड़ दुकान होटल

सब सामान ब(त है लेिकन गायक दद नह7 है के वल लौट रहा [ँ मT अगेय से सोचा तुम से िमलता जाऊँ मेरे गीत! कहो कै से हो? भवन और भवन के जंगल चढ़ते और उतरते ज़ीने यहाँ आदमी कहाँ िमलेगा िसफ़ मशीन और मशीन लौट रहा [ँ मT यथाथ से मन हो आया तु>ह भ ट लूँ मेरे %वC! कहो कै से हो?

न%ल मनुज की चली िमटाती यह लावे की एक नदी है युX का आतंक न पूछो ख़बरदार बीसव7 सदी है लौट रहा [ँ मT िवदेश से सब से पहले कु शल पूँछ लूँ मेरे देश! कहो कै से हो?

यह स]यता नुमाइश जैसे लोग नह7 हT िसफ़ मुखौटे ठीक मनुYय नह7 है कोई कद से ऊँचे मन से छोटे लौट रहा (ँ मT जंगल से सोचा तु>हे देखता जाऊँ मेरे मनुज! कहो कै से हो?

जीवन की इन र^तार को अब भी बाँधे क_ा धागा सुबह गया घर शाम न लौटे उस से बढ़ कर कौन अभागा लौट रहा [ँ मT िबछोह से पहले तु>ह बाँह म भर लूँ मेरे Nयार! कहो कै से हो? - च"सेन िवराट

अ*छा अनुभव मेरे ब(त पास मृ4यु का सुवास देह पर उस का %पश मधुर ही क[ँगा उस का %वर कान म भीतर मगर Vाण म जीवन की लय तरं िगत और उaाम िकनार म काम के बँधा Vवाह नाम का एक दृIय सुबह का एक दृIय शाम का दोन म िbितज पर सूरज की लाली दोन म धरती पर छाया घनी और ल>बी इमारत की वृb की देह की काली दोन म कतार पंिछय की चुप और चहकती (ई दोन म राशीयाँ फू ल की कम-?यादा महकती (ई दोन म एक तरह की शािGत एक तरह का आवेग आँख बGद Vाण खुले (ए अ%पc मगर धुले (ऐ िकतने आमGWण बाहर के भीतर के िकतने अद>य इरादे िकतने उलझे िकतने सादे

अdछा अनुभव है मृ4यु मानो हाहाकार नह7 है कलरव है! - भवानीसाद िम-

पाबंिदयाँ हठ पर पाबिGदयाँ हT गुनगुनाने की। िनजन म जब पपीहा पी बुलाता है। तब तु>हारा %वर अचानक उभर आता है। अधर पर पाबिGदयाँ हT गीत गाने की। चाँदनी का पवत पर खेलना Kकना शीश सागर म झुका कर =प को लखना। दपण को मनाही छिबयाँ सजाने की। ओस म भीगी नहाई दूब सी पलक ,

eृंग से Iयामल मचलती धार सी अलक । िशQप पर पाबिGदयाँ आकार पाने की। के तकी सँग पवन के ठहरे (ए वे bण, देखते आकाश को भुजपाश म , लोचन।

िबजिलय को है मनाही मु%कु राने की। हवन करता मंW सा पढ़ता बदन चGदन,

यf की उठती िशखा सा दgध पावन मन। Vाण पर पाबिGदयाँ सिमधा चढाने की। - बालकृ ण िम-ा

ऊँचाई ऊँचे पहाड़ पर, पेड़ नह7 लगते,

पौधे नह7 उगते,

न घास ही जमती है। जमती है िसफ बफ ,

जो, कफन की तरह सफे द और,

मौत की तरह ठं डी होती है। खेलती, िखल-िखलाती नदी,

िजसका =प धारण कर,

अपने भाgय पर बूंद-बूंद रोती है।

ऐसी ऊँचाई,

िजसका परस पानी को प4थर कर दे,

ऐसी ऊँचाई िजसका दरस हीन भाव भर दे,

अिभनGदन की अिधकारी है,

आरोिहय के िलये आमंWण है,

उस पर झंडे गाड़े जा सकते हT, िकGतु कोई गौरै या,

वहाँ नीड़ नह7 बना सकती, ना कोई थका-मांदा बटोही,

उसकी छांव म पलभर पलक ही झपका सकता है।

स_ाई यह है िक के वल ऊँचाई ही कािफ नह7 होती,

सबसे अलग-थलग,

पिरवेश से पृथक,

अपन से कटा-बंटा,

शूGय म अके ला खड़ा होना, पहाड़ की महानता नह7,

मजबूरी है।

ऊँचाई और गहराई म आकाश-पाताल की दूरी है। जो िजतना ऊँचा,

उतना एकाकी होता है,

हर भार को %वयं ढोता है,

चेहरे पर मु%कान िचपका, मन ही मन रोता है।

ज=री यह है िक ऊँचाई के साथ िव%तार भी हो, िजससे मनुYय,

ठूं ट सा खड़ा न रहे, और से घुल-े िमले,

िकसी को साथ ले,

िकसी के संग चले। भीड़ म खो जाना,

याद म डू ब जाना,

%वयं को भूल जाना, अि%त4व को अथ,

जीवन को सुगंध देता है। धरती को बौन की नह7,

ऊँचे कद के इGसान की ज=रत है। इतने ऊँचे िक आसमान छू ल ,

नये नbW म Vितभा की बीज बो ल , िकGतु इतने ऊँचे भी नह7,

िक पाँव तले दूब ही न जमे, कोई कांटा न चुभे,

कोई किल न िखले।

न वसंत हो, न पतझड़,

ह िसफ ऊँचाई का अंधड़,

माW अके लापन का सhाटा।

मेरे Vभु!

मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना, गैर को गले न लगा सकूँ ,

इतनी Kखाई कभी मत देना। - अटल िबहारी वाजपेयी

सृि3 का सार रं ग की मृगतृYणा कह7 डरती है कै नवस की उस सादगी से िजसे आकृ ित के माiयम की आवIयकता नह7 जो कु छ रचे जाने के िलये नc होने को है तैयार।। %वीकाय है उसे मेरी,

काँपती उं गिलय की अि%थरता मेरे अपिरपj अथk की माGयताय मेरे अ%Nc भाव का िवकार॥

तभी तो तब से अब तक यmिप ब(त बार .....

एकिWत िकया रे खाn को,

रचने भी चाहे सीमाn से मन के िव%तार ..... ॥

िफर भी कQपना को आकृ ित ना िमली ना कोई पयाय, ना कोई नाम

िबछी है अब तक मेरे और कै नवस के बीच एक अनवरत Vतीbा ....

जो ढंढ रही है अपनी बोयी िरPताn म अपनी ही सृिc का सार ॥

- अंशु जौहरी

5यिक ...... Mयिक सपना है अभी भी -

इसिलए तलवार टूटे, अo घायल कोहरे डू बी िदशाय ,

कौन दुIमन, कौन अपने लोग, सब कु छ धुंध-धूिमल, िकGतु कायम युX का संकQप है अपना अभी भी ...... Mयिक है सपना अभी भी! तोड़ कर अपने चतुिदक का छलावा जबिक घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा, कु छ नह7 था पास बस इसके अलावा,

िवदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने ितलक की तरह आँका था (एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा)

िकGतु मुझको तो इसी के िलए जीना और लड़ना है धधकती आग म तपना अभी भी ...... Mयिक सपना है अभी भी! तुम नह7 हो, मT अके ला [ँ मगर

यह तु>ही हो जो टूटती तलवार की झंकार म या भीड़ की जयकार म या मौत के सुनसान हाहाकार म िफर गूंज जाती हो और मुझको ढाल छू टे, कवच टूटे (ए मुझको

िफर याद आता है िक सब कु छ खो गया है - िदशाएँ, पहचान, कुं डल-कवच

लेिकन शेष [ँ मT, युXरत् मT, तु>हारा मT

तु>हारा अपना अभी भी

इसिलए, तलवार टूटी, अo घायल, कोहरे डू बी िदशाएँ,

कौन दुIमन, कौन अपने लोग, सब कु छ धूंध-धुिमल

िकGतु कायम युX का संकQप है अपना अभी भी ...... Mयिक सपना है अभी भी! - धम$वीर भारती

शाम: शाम: दो मनःि8थितयाँ एक: शाम है, मT उदास [ँ शायद

अजनबी लोग अभी कु छ आय देिखए अनछु ए (ए स>पुट कौन मोती सहेजकर लाय कौन जाने िक लौटती बेला कौन-से तार कहाँ छू जाय ! बात कु छ और छेिड़ए तब तक हो दवा तािक बेकली की भी,

sार कु छ बGद, कु छ खुला रिखए

तािक आहट िमले गली की भी देिखए आज कौन आता है -

कौन-सी बात नयी कह जाये,

या िक बाहर से लौट जाता है देहरी पर िनशान रह जाये,

देिखए ये लहर डु बोये, या

िसफ़ तटरे ख छू के बह जाये, कू ल पर कु छ Vवाल छू ट जाय या लहर िसफ़ फे नावली हो अधिखले फू ल-सी िवनत अंजुली

कौन जाने िक िसफ़ खाली हो?

दो: वtत अब बीत गया बादल भी Mया उदास रं ग ले आये,

देिखए कु छ (ई है आहट-सी

कौन है? तुम? चलो भले आये!

अजनबी लौट चुके sारे से दद िफर लौटकर चले आये

Mया अजब है पुकािरए िजतना अजनबी कौन भला आता है एक है दद वही अपना है लौट हर बार चला आता है अनिखले गीत सब उसी के हT अनकही बात भी उसी की है अनउगे िदन सब उसी के हT अन(ई रात भी उसी की है जीत पहले-पहल िमली थी जो आिखरी मात भी उसी की है

एक-सा %वाद छोड़ जाती है

िज़Gदगी तृu भी व Nयासी भी लोग आये गये बराबर हT शाम गहरा गयी, उदासी भी! - धम$वीर भारती

कौन रं ग फागुन रं गे कौन रं ग फागुन रं गे, रं गता कौन वसंत, Vेम रं ग फागुन रं गे, Vीत कु सुंभ वसंत। रोमरोम के सर घुली, चंदन महके अंग,

कब जाने कब धो गया, फागुन सारे रं ग। रचा महो4सव पीत का, फागुन खेले फाग,

साँस म क%तूिरयाँ, बोये मीठी आग।

पलट पलट मौसम तके , भौचक िनरखे धूप, रह रहकर िचतवे हवा, ये फागुन के =प।

मन टेसू टेसू (आ तन ये (आ गुलाल अंिखय, अंिखय बो गया, फागुन कई सवाल। होठहोठ चुिNपयाँ, आँख, आँख बात,

गुलमोहर के vवाब म , सड़क हँसी कल रात। अनायास टूटे सभी, संयम के VितबGध,

फागुन िलखे कपोल पर, रस से भीदे छंद। अंिखय से जादू करे , नजर मारे मूंठ,

गुदना गोदे Vीत के , बोले सौ सौ झूठ। पारा, पारस, पिwनी, पानी, पीर, पलाश, Vंय, Vकर, पीताभ के , अपने हT इितहास। भूली, िबसरी याद के , क_ेपxे रं ग,

देर तलक गाते रहे, कु छ फागुन के संग। - िदनेश शु5ल

लो वही :आ लो वही (आ िजसका था डर, ना रही नदी, ना रही लहर।

सूरज की िकरन दहाड़ गई, गरमी हर देह उघाड़ गई,

उठ गया बवंडर, धूल हवा म -

अपना झंडा गाड़ गई,

गौरइया हाँफ रही डर कर,

ना रही नदी, ना रही लहर। हर ओर उमस के चचy हT, िबजली पंख के खचy हT,

बूढ़े म(ए के हाथ से,

उड़ रहे हवा म पचy हT,

"चलना साथी लू से बच कर".

ना रही नदी, ना रही लहर।

संकQप िहमालय सा गलता, सारा िदन भzी सा जलता, मन भरे (ए, सब डरे (ए,

िकस की िह>मत, बाहर िहलता,

है खड़ा सूय सर के ऊपर,

ना रही नदी ना रही लहर। बोिझल रात के मiय पहर,

छपरी से चG{िकरण छनकर, िलख रही नया नारा कोई,

इन तपी (ई दीवार पर,

Mया बाँचूँ सब थोथे आखर,

ना रही नदी ना रही लहर।

- िदनेश िसह

स=पूण$ या?ा Nयास तो तु>ह7 बुझाओगी नदी मT तो सागर [ँ Nयासा अथाह। तुम बहती रहो मुझ तक आने को। मT तु>ह लूँगा नदी स>पूण। कहना तुम पहाड़ से अपने िज%म पर झड़ा स>पूण तप%वी पराग घोलता रहे तुमम । तुम सूW नह7 हो नदी न ही सेतु स>पूण याWा हो मुझ तक जागे (ए देवताn की चेतना हो तुम। तुम सृजन हो च|ानी देह का। Nयास तो तु>ही बुझाओगी नदी। मT तो सागर [ँ Nयासा अथाह - िदिवक रमेश

एक आशीवा$द जा तेरे %वC बड़े ह। भावना की गोद से उतर कर जQद पृ}वी पर चलना सीख । चाँद तार सी अVाNय ऊचाँइय के िलये =ठना मचलना सीख । हँस मु%कु रा~ गा~। हर दीये की रोशनी देखकर ललचाय उँ गली जलाय । अपने पाँव पर खड़े ह। जा तेरे %वC बड़े ह। - दुयत कु मार

गजल हो गई है पीर पवत-सी िपघलनी चािहए,

इस िहमालय से कोई गंगा िनकलनी चािहए।

आज यह दीवार, परद की तरह िहलने लगी,

शत लेिकन थी िक ये बुिनयाद िहलनी चािहए। हर सड़क पर, हर गली म , हर नगर, हर गाँव म , हाथ लहराते (ए हर लाश चलनी चािहए।

िसफ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नह7,

सारी कोिशश है िक ये सूरत बदलनी चािहए। मेरे सीने म नह7 तो तेरे सीने म सही,

हो कह7 भी आग, लेिकन आग जलनी चािहए। - दुयत कु मार

इतने ऊँचे उठो इतने ऊँचे उठो िक िजतना उठा गगन है। देखो इस सारी दुिनया को एक दृिc से िसिचत करो धरा, समता की भाव वृिc से जाित भेद की, धम-वेश की

काले गोरे रं ग-sेष की

?वालाn से जलते जग म इतने शीतल बहो िक िजतना मलय पवन है॥ नये हाथ से, वतमान का =प सँवारो

नयी तूिलका से िचW के रं ग उभारो नये राग को नूतन %वर दो भाषा को नूतन अbर दो युग की नयी मूित-रचना म

इतने मौिलक बनो िक िजतना %वयं सृजन है॥ लो अतीत से उतना ही िजतना पोषक है जीण-शीण का मोह मृ4यु का ही mोतक है तोड़ो बGधन, Kके न िचGतन

गित, जीवन का स4य िचरGतन

धारा के शाoत Vवाह म इतने गितमय बनो िक िजतना पिरवतन है। चाह रहे हम इस धरती को %वग बनाना अगर कह7 हो %वग, उसे धरती पर लाना सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे

सब हT Vितपल साथ हमारे दो कु =प को =प सलोना इतने सुGदर बनो िक िजतना आकषण है॥ - Cािरका साद माहेDरी

आराम करो एक िमW िमले, बोले, "लाला, तुम िकस चxी का खाते हो?

इस डेढ़ छँटाक के राशन म भी तद बढ़ाए जाते हो। Mया रMखा है माँस बढ़ाने म , मन[स, अMल से काम करो।

सं€ािGत-काल की बेला है, मर िमटो, जगत म नाम करो।"

हम बोले, "रहने दो लेMचर, पुKष को मत बदनाम करो। इस दौड़-धूप म Mया रMखा, आराम करो, आराम करो।

आराम िज़Gदगी की कुं जी, इससे न तपेिदक होती है।

आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।

आराम श8द म 'राम' िछपा जो भव-बंधन को खोता है।

आराम श8द का fाता तो िवरला ही योगी होता है। इसिलए तु>ह समझाता [ँ, मेरे अनुभव से काम करो।

ये जीवन, यौवन bणभंगुर, आराम करो, आराम करो। यिद करना ही कु छ पड़ जाए तो अिधक न तुम उ4पात करो। अपने घर म बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो। करने-धरने म Mया रMखा जो रMखा बात बनाने म ।

जो ओठ िहलाने म रस है, वह कभी न हाथ िहलाने म ।

तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूख कहलाने म ।

जीवन-जागृित म Mया रMखा जो रMखा है सो जाने म । मT यही सोचकर पास अMल के , कम ही जाया करता [ँ। जो बुिXमान जन होते हT, उनसे कतराया करता [ँ।

दीए जलने के पहले ही घर म आ जाया करता [ँ। जो िमलता है, खा लेता [ँ, चुपके सो जाया करता [ँ। मेरी गीता म िलखा (आ -- स_े योगी जो होते हT, वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेिफ़€ी से सोते हT।

अदवायन िखची खाट म जो पड़ते ही आनंद आता है। वह सात %वग, अपवग, मोb से भी ऊँचा उठ जाता है।

जब 'सुख की न7द' कढ़ा तिकया, इस सर के नीचे आता है,

तो सच कहता [ँ इस सर म , इंजन जैसा लग जाता है। मT मेल ेन हो जाता [ँ, बुिX भी फक-फक करती है।

भाव का रश हो जाता है, किवता सब उमड़ी पड़ती है। मT और की तो नह7, बात पहले अपनी ही लेता [ँ।

मT पड़ा खाट पर बूट को ऊँट की उपमा देता [ँ। मT खटरागी [ँ मुझको तो खिटया म गीत फू टते हT। छत की किड़याँ िगनते-िगनते छंद के बंध टूटते हT।

मT इसीिलए तो कहता [ँ मेरे अनुभव से काम करो। यह खाट िबछा लो आँगन म , लेटो, बैठो, आराम करो। - गोपालसाद Eास

8वतं?ता का दीपक घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,

आज sार sार पर यह िदया बुझे नह7। यह िनशीथ का िदया ला रहा िवहान है।

शिP का िदया (आ, शिP को िदया (आ,

भिP से िदया (आ, यह %वतंWतािदया,

Kक रही न नाव हो, ज़ोर का बहाव हो,

आज गंगधार पर यह िदया बुझे नह7!

यह %वदेश का िदया Vाण के समान है! यह अतीत कQपना, यह िवनीत Vाथना,

यह पुनीत भावना, यह अनंत साधना,

शांित हो, अशांित हो, युX, संिध €ांित हो,

तीर पर, कछार पर, यह िदया बुझे नह7!

देश पर, समाज पर, ?योित का िवतान है!

तीनचार फू ल है, आसपास धूल है

बाँस है, बबूल है, घास के दुकूल है,

वायु भी िहलोर से, फूँ क दे, झकोर दे,

क‚ पर, मजार पर, यह िदया बुझे नह7!

यह िकसी शहीद का पुƒय Vाणदान है! झूमझूम बदिलयाँ, चूमचूम िबजिलयाँ

आँिधयाँ उठा रह7, हलचल मचा रह7!

लड़ रहा %वदेश हो, शांित का न लेश हो

bु{ जीतहार पर, यह िदया बुझे नह7! यह %वतंW भावना का %वतंW गान है!

- गोपालिसह नेपाली

Fधन छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी

हम उपल पर शMल गूँधा करते थे आँख लगाकर - कान बनाकर नाक सजाकर -

पगड़ी वाला, टोपी वाला

मेरा उपला तेरा उपला -

अपने-अपने जाने-पहचाने नाम से

उपले थापा करते थे

हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर

गोबर के उपल पे खेला करता था रात को आँगन म जब चूQहा जलता था हम सारे चूQहा घेर के बैठे रहते थे िकस उपले की बारी आयी िकसका उपला राख (आ वो पंिडत था -

इक मुhा था -

इक दशरथ था -

बरस बाद - मT

Iमशान म बैठा सोच रहा [ँ आज की रात इस वP के जलते चूQहे म इक दो%त का उपला और गया!

- गुलज़ार

बीती िवभावरी जाग री! री! बीती िवभावरी जाग री!

अ>बर पनघट म डु बो रही तारा घट ऊषा नागरी। खग कु ल-कु ल सा बोल रहा, िकसलय का अंचल डोल रहा,

लो यह लितका भी भर लाई मधु मुकुल नवल रस गागरी। अधर म राग अमंद िपये, अलक म मलयज बंद िकये तू अब तक सोई है आली आँख म भरे िवहाग री।

- जयशंकर साद

कामायनी ('लGा' लGा' पिर*छेद) कोमल िकसलय के अंचल म नGह7 किलका ?य िछपती-सी, गोधुली के धूिमल पट म दीपक के %वर म िदपती-सी।

मंजुल %वCn की िव%मृित म मन का उGमाद िनखरता ?य -

सुरिभत लहर की छाया म बुQले का िवभव िबखरता ?य वैसी ही माया से िलपटी अधर पर उँ गली धरे (ए,

माधव के सरस कु तूहल का आँख म पानी भरे (ए। नीरव िनशीथ म लितका-सी तुम कौन आ रही हो बढ़ती? कोमल-बाह फै लाये-सी आिलगन का जादू पढ़ती!

िकन इं{जाल के फू ल से लेकर सुहाग-कण राग-भरे ,

िसर नीचा कर हो गूँथ रही माला िजससे मधु धार ढरे ?

पुलिकत कदंब की माला-सी पहना देती हो अGतर म ,

झुक जाती है मन की डाली अपनी फलभरता के डर म । वरदान सदृश हो डाल रही नीली िकरन से बुना (आ,

यह अंचल िकतना हQका-सा िकतना सौरभ से सना (आ।

सब अंग मोम से बनते हT कोमलता म बल खाती [ँ,

मT िसमट रही-सी अपने म पिरहास-गीत सुन पाती [ँ।

ि%मत बन जाती है तरल हँसी नयन म भर कर बाँकपना, V4यb देखती [ँ सब जो वह बनता जाता है सपना। मेरे सपन म कलरव का संसार आँख जब खोल रहा,

अनुराग समीर पर ितरता था इतराता-सा डोल रहा।

अिभलाषा अपने यौवन म उठती उस सुख के %वागत को,

जीवन भर के बल-वैभव से स4कृ त करती दूरागत को।

िकरन की र„ु समेट िलया िजसका अवल>बन ले चढ़ती,

रस के िनझर म धँस कर मT आनGद-िशखर के Vित बढ़ती। छू ने म िहचक, देखने म पलक आँख पर झुकती हT,

कलरव पिरहास भरी गूँज अधर तक सहसा Kकती हT। संकेत कर रही रोमाली चुपचाप बरजाती खड़ी रही, भाषा बन भौह की काली रे खा-सी …म म पड़ी रही।

तुम कौन! ,दय की परवशता? सारी %वतंWता छीन रही,

%वdछंद सुमन जो िखले रहे जीवन-वन से हो बीन रही!"

संiया की लाली म हँसती, उसका ही आeय लेती-सी,

छाया Vितमा गुनगुना उठी, eXा का उ†र देती-सी।

"इतना न चमकृ त हो बाले! अपने मन का उपकार करो,

मT एक पकड़ [ँ जो कहती ठहरो कु छ सोच-िवचार करो। अंबर-चुंबी िहम-eृंग से कलरव कोलाहल साथ िलये,

िवmुत की Vाणमयी धारा बहती िजसम उGमाद िलये। मंगल कुं कु म की eी िजसम िनखरी हो ऊषा की लाली,

भोला सुहाग इठलाता हो ऐसा हो िजसम हिरयाली,

हो नयन का कQयाण बना आनGद सुमन-सा िवकसा हो, वासंती के वन-वैभव म िजसका पंचम%वर िपक-सा हो,

जो गूँज उठे िफर नस-नस म मूछना समान मचलता-सा, आँख के साँचे म आकर रमणीय =प बन ढलता-सा,

नयन की नीलम की घाटी िजस रस घन से छा जाती हो, वह क‡ध िक िजससे अGतर की शीतलता ठं ढक पाती हो,

िहQलोल भरा हो ऋतुपित का गोधुली की सी ममता हो,

जागरण Vात-सा हँसता हो िजसम मiया‰न िनखरता हो,

हो चिकत िनकल आई सहसा जो अपने Vाची के घर से,

उस नवल चंि{का-से िबछले जो मानस की लहर पर से, फू ल की कोमल पंखिड़याँ िबखर िजसके अिभनGदन म ,

मकरं द िमलाती ह अपना %वागत के कुं कु म चGदन म ,

कोमल िकसलय ममर-रव-से िजसका जयघोष सुनाते ह,

िजसम दुःख सुख िमलकर मन के उ4सव आनंद मनाते ह, उ„वल वरदान चेतना का सौGद‹य िजसे सब कहते हT,

िजसम अनंत अिभलाषा के सपने सब जगते रहते हT। मT उसई चपल की धाWी [ँ, गौरव मिहमा [ँ िसखलाती,

ठोकर जो लगने वाली है उसको धीरे से समझाती,

मT देव-सृिc की रित-रानी िनज पंचबाण से वंिचत हो,

बन आवजना-मूित दीना अपनी अतृिu-सी संिचत हो,

अविशc रह गŒ अनुभव म अपनी अतीत असफलता-सी,

लीला िवलास की खेद-भरी अवसादमयी eम-दिलता-सी, मT रित की Vितकृ ित ल„ा [ँ मT शालीनता िसखाती [ँ,

मतवाली सुGदरता पग म नूपुर सी िलपट मनाती [ँ,

लाली बन सरल कपोल म आँख म अंजन सी लगती,

कुं िचत अलक सी घुँघराली मन की मरोर बनकर जगती,

चंचल िकशोर सुGदरता की मT करती रहती रखवाली,

मT वह हलकी सी मसलन [ँ जो बनती कान की लाली।" "हाँ, ठीक, परGतु बताओगी मेरे जीवन का पथ Mया है?

इस िनिवड़ िनशा म संसृित की आलोकमयी रे खा Mया है?

यह आज समझ तो पाई [ँ मT दुबलता म नारी [ँ,

अवयव की सुGदर कोमलता लेकर मT सबसे हारी [ँ। पर मन भी Mय इतना ढीला अपने ही होता जाता है,

घनIयाम-खंड-सी आँख म Mय सहसा जल भर आता है? सव%व-समपण करने की िवoास-महा-तK-छाया म ,

चुपचाप पड़ी रहने की Mय ममता जगती हT माया म ?

छायापथ म तारक-mुित सी िझलिमल करने की मधु-लीला,

अिभनय करती Mय इस मन म कोमल िनरीहता eम-शीला? िन%संबल होकर ितरती [ँ इस मानस की गहराई म ,

चाहती नह7 जागरण कभी सपने की इस सुघराई म । नारी जीवन की िचW यही Mया? िवकल रं ग भर देती हो, अ%फु ट रे खा की सीमा म आकार कला को देती हो। Kकती [ँ और ठहरती [ँ पर सोच-िवचार न कर सकती,

पगली-सी कोई अंतर म बैठी जैसे अनुिदत बकती।

मT जभी तोलने का करती उपचार %वयं तुल जाती [ँ,

भुजलता फँ सा कर नर-तK से झूले-सी झके खाती [ँ।

इस अपण म कु छ और नह7 के वल उ4सग छलकता है,

मT दे दूँ और न िफर कु छ लूँ, इतना ही सरल झलकता है। "Mया कहती हो ठहरो नारी! संकQप-अeु जल से अपने -

तुम दान कर चुकी पहले ही जीवन के सोने-से सपने।

नारी! तुम के वल eXा हो िवoास-रजत-नग पगतल म ,

पीयूष-ोत बहा करो जीवन के सुंदर समतल म ।

देव की िवजय, दानव की हार का होता युX रहा,

संघष सदा उर-अंतर म जीिवत रह िन4य-िवKX रहा।

आँसू से भ7गे अंचल पर मन का सब कु छ रखना होगा -

तुमको अपनी ि%मत रे खा से यह संिधपW िलखना होगा।" - जयशंकर साद

कामायनी ('िनवHद' पिर*छेद के कु छ छंद) "तुमुल कोलाहल कलह म मT ,दय की बात रे मन!

िवकल होकर िन4य चंचल,

खोजती जब न7द के पल,

चेतना थक-सी रही तब,

मT मलय की वात रे मन!

िचर-िवषाद-िवलीन मन की,

इस Sथा के ितिमर-वन की;

मT उषा-सी ?योित-रे खा,

कु सुम-िवकिसत Vात रे मन! जहाँ मK-?वाला धधकती, चातकी कन को तरसती,

उGह7 जीवन-घािटय की, मT सरस बरसात रे मन!

पवन की Vाचीर म Kक जला जीवन जी रहा झुक,

इस झुलसते िवo-िदन की मT कु सुम-ऋतु-रात रे मन!

िचर िनराशा नीरधर से,

Vितdछाियत अeु-सर म ,

मधुप-मुखर-मरं द-मुकुिलत,

मT सजल जलजात रे मन!" - जयशंकर साद

याणगीत िहमाि{ तुंग eृंग से VबुX शुX भारती -

%वयंVभा समु„वला %वतंWता पुकारती -

अम4य वीर पुW हो, दृढ़-Vितf सोच लो,

Vश%त पुƒय पंथ हT - बढ़े चलो बढ़े चलो। असंvय कीित-रिIमयाँ िवकीण िदS दाह-सी। सपूत मातृभूिम के Kको न शूर साहसी। अराित सैGय िसधु म - सुबाड़वािŽ से जलो,

Vवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो बढ़े चलो।

- जयशंकर साद

आज नदी िबलकु ल उदास थी आज नदी िबलकु ल उदास थी। सोयी थी अपने पानी म , उसके दपण पर -

बादल का व पड़ा था। मTने उसे नह7 जगाया,

दबे पाँव घर वापस आया।

- के दारनाथ अIवाल अIवाल

बसंती हवा हवा [ँ, हवा मT

बसंती हवा [ँ।

सुनो बात मेरी -

अनोखी हवा [ँ। बड़ी बावली [ँ,

बड़ी म%4मौला। नह7 कु छ िफकर है, बड़ी ही िनडर [ँ। िजधर चाहती [ँ, उधर घूमती [ँ,

मुसािफर अजब [ँ।

न घर-बार मेरा, न उaेIय मेरा,

न इdछा िकसी की,

न आशा िकसी की,

न Vेमी न दुIमन, िजधर चाहती [ँ उधर घूमती [ँ। हवा [ँ, हवा मT बसंती हवा [ँ!

जहाँ से चली मT जहाँ को गई मT -

शहर, गाँव, ब%ती,

नदी, रे त, िनजन,

हरे खेत, पोखर,

झुलाती चली मT। झुमाती चली मT! हवा [ँ, हवा मै

बसंती हवा [ँ। चढ़ी पेड़ म(आ,

थपाथप मचाया;

िगरी ध>म से िफर, चढ़ी आम ऊपर,

उसे भी झकोरा,

िकया कान म 'कू ', उतरकर भगी मT,

हरे खेत प(ँची वहाँ, ग (n ँ म

लहर खूब मारी। पहर दो पहर Mया,

अनेक पहर तक इसी म रही मT!

खड़ी देख अलसी िलए शीश कलसी, मुझे खूब सूझी िहलाया-झुलाया

िगरी पर न कलसी!

इसी हार को पा, िहलाई न सरस, झुलाई न सरस, हवा [ँ, हवा मT बसंती हवा [ँ!

मुझे देखते ही अरहरी लजाई,

मनाया-बनाया,

न मानी, न मानी;

उसे भी न छोड़ा -

पिथक आ रहा था,

उसी पर ढके ला;

हँसी ज़ोर से मT,

हँसी सब िदशाएँ, हँसे लहलहाते हरे खेत सारे ,

हँसी चमचमाती भरी धूप Nयारी;

बसंती हवा म हँसी सृिc सारी!

हवा [ँ, हवा मT

बसंती हवा [ँ!

- के दारनाथ अIवाल

कम$ कम दैिवक स>पदा का sार है; िवo के उ4कष का आधार है।

कम पूजा, साधना का धाम है; कमयोगी को कहाँ िवeाम है।

कम भावी योजना का Gयास है;

स4य-िचत-आनGद का अ]यास है। कम जीवन का मधुरतम काS है; कम से ही मुिP भी स>भाS है।

- िकरीटच" जोशी

आगत का 8वागत मुँह ढाँक कर सोने से ब(त अdछा है,

िक उठो ज़रा,

कमरे की गद को ही झाड़ लो। शेQफ़ म िबखरी िकताब का ढेर,

तिनक चुन दो। िछतरे -िछतराए सब ितनक को फ को। िखड़की के उढ़के (ए,

पQल को खोलो। ज़रा हवा ही आए। सब रौशन कर जाए। ... हाँ, अब ठीक

तिनक आहट से बैठो,

जाने िकस bण कौन आ जाए। खुली (ई िफ़ज़ाँ म ,

कोई गीत ही लहर जाए। आहट म ऐसे Vतीbातुर देख तु>ह , कोई फ़िरIता ही आ पड़े। माँगने से जाने Mया दे जाए। नह7 तो %वग से िनवािसत, िकसी अNसरा को ही,

यहाँ आeय दीख पड़े। खुले (ए sार से बड़ी संभावनाएँ हT िमW!

नह7 तो जाने Mया कौन,

द%तक दे-देकर लौट जाएँगे। सुनो,

िकसी आगत की Vतीbा म बैठना,

मुँह ढाँक कर सोने से ब(त बेहतर है। - कीित चौधरी

गीतगीत-किव की Eथा - एक ओ लेखनी! िवeाम कर

अब और याWाय नह7। मंगल कलश पर काS के अब श8द के %वि%तक न रच। अbम समीbाय परख सकत7 न किव का झूठ-सच।

िलख मत गुलाबी पंिPयाँ िगन छGद, माWाय नह7। बGदी अंधेरे कb म अनुभूित की िशQपा छु अन। वाद-िववाद म

िघरा सािह4य का िशbा सदन।

अनिगन VवPा हT यहाँ बस, छाW-छाWाय नह7। - िकशन सरोज

गीतगीत-किव की Eथा - दो इस गीत-किव को Mया (आ? अब गुनगुनाता तक नह7।

इसने रचे जो गीत जग ने पिWकाn म पढ़े। मुखिरत (ए तो भजन-जैसे

अनिगनत होठ चढ़े। हठ चढ़े, वे मन-िबधे

अब गीत गाता तक नह7। अनुराग, राग

िवराग पर सौ Sंग-शर इसने सहे।

जब-जब (ए

गीले नयन तब-तब लगाये कहकहे।

वह अ|हास का धनी अब मु%कु राता तक नह7। मेल तमाश म िलए इसको िफरी आवारगी। कु छ ढू ंढती-सी दृिc म हर शाम मधुशाला जगी।

अब भीड़ िदखती है िजधर उस ओर जाता तक नह7। - िकशन सरोज

मेरी िज़द तेरी कोिशश, चुप हो जाना,

मेरी िज़द है, शंख बजाना ... ये जो सोये, उनकी नीद

सीमा से भी ?यादा गहरी अब तक जाग नह7 पाये वे सर तक है आ गई दुपहरी;

कब से उGह , पुकार रहा [ँ

तुम भी कु छ, आवाज़ िमलाना... तट की घेराबंदी करके बैठे हT सारे के सारे ,

कोई मछली छू ट न जाये इसी दाँव म हT मछु आरे ..... मT उनको ललकार रहा [ँ,

तुम जQदी से जाल हटाना..... ये जो गलत िदशा अनुगामी दौड़ रहे हT, अंधी दौड़ ,

अdछा हो िक िह>मत करके हम इनकी हठधम तोड़ .....

मT आगे से रोक रहा [ँ -

तुम पीछे से हाँक लगाना .... - कृ ण वLी

िवदा के Lण मT अपने इस तुdछ एकाकीपन से ही इतना िवचिलत हो जाता [ँ तो सागर!

तुम अपना यह िवराट अके लापन कै से झेलते हो? समय के अGतहीन छोर म इस िbितज से उस िbितज तक यह साँ-साँ करता (आ फु फकारता सhाटा -

युग की उड़ती धूल म अGतहीन रे िग%तान का िनपट एकाकी सफ़र -

सिदय से जागती खुली (ई आँख म महीन रे त-सी िकरिकराती

असीम Vतीbा!

- सचमुच

सागर, तु>ह य

अके ला छोड़ कर जाने का मन नह7 होता लेिकन तु>हारे पास रह कर भी Mया कोई तु>हारे अके लेपन को बाँट सकता है? वह कौन है जो अनािद से अनGत तक तु>हारा हाथ थामे चल सके ,

गहरे िनःoास के साथ उठते-िगरते तु>हारे वb को सहलाये? िकस के कान तु>हारी धड़कन को सुन सक गे,

कौन से हाथ

तु>हारे माथे पर पड़ी दद की सलवट को हटाय गे या िबखरे (ए बाल को सँवारने का साहस जुटा पाय गे?

िकस का अगाध Nयार तु>हारे एकाकीपन को भी िभगो पायेगा? मुझे तो लगता है ओ सागर,

अके ला होना हर िवराट् की िनयित है। वह एक से अनेक होने की िकतनी ही चेcा करे अपनी ही माया से, लीला से, लहराती लहर से खुद को बहलाये पर अनGतः रहता एकाकी है। - िफर भी

तु>ह छोड़ कर जाते (ए मन कु छ उदास (आ जाता है -

(शायद यही मोह है, शायद यही अहं है!)

- तु>हारे पास

एक अजनबी-सी

पहचान िलये आया था एक िवराट् अके लेपन का एक अिकचन-सा कण ले कर जा रहा [ँ! - कु लजीत

ब5स मM यादM बMस म बGद हT याद हर कपड़ा एक याद है िजसे तु>हारे हाथ ने तह िकया था धोबी ने धोते समय इन को रगड़ा था पीटा था मैल कट गया पर ये न कट7 यह और अGदर चली गय7 हम ने िनमम होकर इGह उतार िदया इGहने कु छ नह7 कहा पर हर बार ये हमारा कु छ अंश ले गय7 िजसे हम जान न सके 4वचा से इन का जो स>बGध है वह रP तक है रP का सारा उबाल इGहने सहा है इGह खोल कर देखो इन म हमारे खून की खुशबू ज़=र होगी अभी ये मौन है पर इन की एक-एक परत म जो मन िछपा है

वह हमारे जाने के बाद बोलेगा याद आदमी के बीत जाने के बाद ही बोलती हT बMस म बGद रहने दो इGह जब पूरी फु रसत हो तब देखना इन का वातालाप बड़ा ईYयालू है कु छ और नह7 करने देगा।

- कु मार रवी"

वाणी वैभव मातृभाषा िभh है िविभh भाषाभािषय की,

िभh िभh भाँित बोली िलखी पढ़ी जाती है। अवधी, िबहारी, ‚ज, बँगला, मराठी, िसGधी, कhड़, ककण, मारवाड़ी, गुजराती है॥

तेलगू, तिमल मुशिकल िगन पाना िकGतु, एक बात "वंचक" समान पाई जाती है।

लेते ही जनम "कहाँ-कहाँ" कहते हT सभी,

सभी की Vाकृ त भाषा एक ही लखाती है॥

आके धराधाम पे तमाम सह यातनाय ,

मानव माल आँख है Vथम जब खोलता। जननी-जनक चाहे िजस भाषा के ह भाषी,

िववश िजfासा "कहाँ-कहाँ" ही है बोलता॥

"क" से "ह" है Sंजन औ %वर "अ" से "अँ" तलक, इGही से बना के श8द भाव है िकलोलता। "वंचक" है भाषा यही सभी की Vाकृ त एक,

अf वो है जो है अGय और को टटोलता॥

- लNमीकात िम- "वं "वंचक" क"

अनुनय मेरे अधर अधर से छू लेने दो! अधर अधर से छू लेने दो!

है बात वही, मधुपाश वही,

सुरभीसुधारस पी लेने दो!

अधर अधर से छू लेने दो!

कं वल पंखुरी लाल लजीली,

है िथरक रही, नई कु सुमसी!

रिIमनूतन को, सह लेने दो!

मेरे अधर अधर से छू लेने दो!

तुम जीवन की मदमाती लहर, है वही डगर,

डगमग पगभर,

सुखसुमन-सुधा रस पी लेने दो!

मेरे अधर अधर से छू लेने दो! अधर अधर से छू लेने दो!

- लावOया शाह

8मृित दीप भŽ उर की कामना के दीप, तुम, कर म िलये,

मौन, िनमं’ण, िवषम, िकस साध म हो बाँटती? है V?विलत दीप, उaीिपत कर पे, नैन म असुवन झड़ी!

है मौन, होठ पर Vकि>पत, नाचती, ?वाला खड़ी!

बहा दो अंितम िनशानी, जल के अंधेरे पाट पे,

' %मृितदीप ' बन कर बहेगी, यातना, िबछु ड़े %वजन की! एक दीप गंगा पे बहेगा,

रोय गी, आँख तु>हारी।

धुप अँधकाररािW का तमस। पुकारता Nयार मेरा तुझे, मरण के उस पार से!

बहा दो, बहा दो दीप को

जल रही कोमल हथेली!

हा िVया! यह रािWवेला औ सूना नीरवसा नदी तट!

नाचती लौ म धूल िमल गी,

Vीत की बात हमारी!

- लावOया शाह

गांव एक अंधेरा, एक ख़ामोशी, और तनहाई, रात के तीन पांव होते हT। िज़Gदगी की सुबह के चेहरे पर, रा%ते धूप छाँव होते हT।

िज़Gदगी के घने िबयाबाँ म ,

Nयार के कु छ पड़ाव होते हT। अजनबी शहर म , अजनबी लोग के बीच, दो%त के भी गांव होते हT।

- मधुप मोहता

रोशनी रात, हर रात ब(त देर गए,

तेरी िखड़की से, रोशनी छनकर,

मेरे कमरे के दरो-दीवार पर,

जैसे द%तक सी िदया करती है। मT खोल देता [ँ चुपचाप िकवाड़, रोशनी पे सवार तेरी परछाई,

मेरे कमरे म उतर आती है,

सो जाती है मेरे साथ मेरे िब%तर पर। - मधुप मोहता

कौन तुम मेरे Pदय मM? कौन तुम मेरे ,दय म ?

कौन मेरी कसक म िनत मधुरता भरता अलिbत?

कौन Nयासे लोचन म घुमड़ िघर झरता अपिरिचत? %वण %वC का िचतेरा न7द के सूने िनलय म !

कौन तुम मेरे ,दय म ?

अनुसरण िनoास मेरे कर रहे िकसका िनरGतर?

चूमने पदिचGह िकसके लौटते यह oास िफर िफर?

कौन बGदी कर मुझे अब बँध गया अपनी िवजय मे?

कौन तुम मेरे ,दय म ?

एक कKण अभाव िचर -

तृिu का संसार संिचत,

एक लघु bण दे रहा िनवाण के वरदान शत-शत;

पा िलया मTने िकसे इस वेदना के मधुर €य म ?

कौन तुम मेरे ,दय म ?

गूंजता उर म न जाने दूर के संगीत-सा Mया!

आज खो िनज को मुझे खोया िमला िवपरीत-सा Mया! Mया नहा आई िवरह-िनिश

िमलन-मधिदन के उदय म ?

कौन तुम मेरे ,दय म ?

ितिमर-पारावार म

आलोक-Vितमा है अकि>पत;

आज ?वाला से बरसता

Mय मधुर घनसार सुरिभत?

सुन रही [ँ एक ही झंकार जीवन म , Vलय म ?

कौन तुम मेरे ,दय म ?

मूक सुख-दुख कर रहे

मेरा नया eृंगार-सा Mया?

झूम गिवत %वग देता -

नत धरा को Nयार-सा Mया?

आज पुलिकत सृिc Mया करने चली अिभसार लय म ? कौन तुम मेरे ,दय म ?

- महादेवी वमा$ -

मेरे दीपक मधुर मधुर मेरे दीपक जल!

युग युग Vितिदन Vितbण Vितपल; िVयतम का पथ आलोिकत कर! सौरभ फै ला िवपुल धूप बन;

मृदल ु मोम-सा घुल रे मृद ु तन;

दे Vकाश का िसधु अपिरिमत,

तेरे जीवन का अणु गल-गल!

पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!

सारे शीतल कोमल नूतन,

माँग रहे तुझको ?वाला-कण;

िवoशलभ िसर धुन कहता "मT

हाय न जल पाया तुझम िमल"!

िसहर-िसहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ म देख असंvयक;

“ेहहीन िनत िकतने दीपक;

जलमय सागर का उर जलता; िवmुत ले िघरता है बादल!

िवहंस-िवहंस मेरे दीपक जल!

{ुम के अंग हिरत कोमलतम,

?वाला को करते ,दयंगम;

वसुधा के जड़ अंतर म भी,

बGदी नह7 है ताप की हलचल!

िबखर-िबखर मेरे दीपक जल! मेरे िनoास से {ुततर,

सुभग न तू बुझने का भय कर;

मT अंचल की ओट िकये [ँ,

अपनी मृद ु पलक से चंचल!

सहज-सहज मेरे दीपक जल!

सीमा ही लघुता का बGधन,

है अनािद तू मत घिड़याँ िगन;

मT दृग के अbय कोश से -

तुझम भरती [ँ आँस-ू जल!

सजल-सजल मेरे दीपक जल!

तम असीम तेरा Vकाश िचर; खेल गे नव खेल िनरGतर;

तम के अणु-अणु म िवmुत सा -

अिमट िचW अंिकत करता चल!

सरल-सरल मेरे दीपक जल!

तू जल जल होता िजतना bय;

वह समीप आता छलनामय;

मधुर िमलन म िमट जाना तू -

उसकी उ„वल ि%मत म घुल-िखल!

मिदर-मिदर मेरे दीपक जल!

िVयतम का पथ आलोिकत कर! - महादेवी वमा$

पंथ होने दो अपिरिचत पंथ होने दो अपिरिचत Vाण रहने दो अके ला! और हगे चरण हारे ,

अGय हT जो लौटते दे शूल को संकQप सारे ; दुख”ती िनमाण-उGमद

यह अमरता नापते पद;

बाँध द गे अंक-संसृित से ितिमर म %वण बेला!

दूसरी होगी कहानी शूGय म िजसके िमटे %वर, धूिल म खोई िनशानी;

आज िजसपर Nयार िवि%मत,

मT लगाती चल रही िनत,

मोितय की हाट औ, िचनगािरय का एक मेला! हास का मधु-दूत भेजो,

रोष की …ूभंिगमा पतझार को चाहे सहेजो; ले िमलेगा उर अचंचल वेदना-जल %वC-शतदल,

जान लो, वह िमलन-एकाकी िवरह म है दुकेला! - महादेवी वमा$

िय िचरतन है सजिन िVय िचरGतन है सजिन,

bण bण नवीन सुहािगनी मT!

oास म मुझको िछपा कर वह असीम िवशाल िचर घन, शूGय म जब छा गया उसकी सजीली साध-सा बन, िछप कहाँ उसम सकी बुझ-बुझ जली चल दािमनी मT!

छाँह को उसकी सजिन नव आवरण अपना बना कर, धूिल म िनज अeु बोने मT पहर सूने िबता कर, Vात म हँस िछप गई ले छलकते दृग यािमनी मT!

िमलन-मिGदर म उठा दूँ जो सुमुख से सजल गुƒठन,

मT िमटूँ िVय म िमटा ?य तu िसकता म सिलल-कण, सजिन मधुर िनज4व दे कै से िमलूँ अिभमािननी मT!

दीप-सी युग-युग जलूँ पर वह सुभग इतना बता दे,

फूँ क से उसकी बुझूँ तब bार ही मेरा पता दे! वह रहे आराiय िचGमय मृƒमयी अनुरािगनी मT!

सजल सीिमत पुतिलयाँ पर िचW अिमट असीम का वह, चाह वह अनGत बसती Vाण िकGतु ससीम सा यह, रज-कण म खेलती िकस

िवरज िवधु की चाँदनी मT?

- महादेवी वमा$

तुम मुझमM िय! िय! िफर पिरचय 5या तुम मुझम िVय! िफर पिरचय Mया

तारक म छिव, Vाण म %मृित,

पलक म नीरव पद की गित,

लघु उर म पुलक की संसिृ त,

भर लाई [ँ तेरी चंचल और क=ँ जग म संचय Mया!

तेरा मुख सहास अKणोदय, परछाई रजनी िवषादमय,

वह जागृित वह न7द %वCमय,

खेलखेल थकथक सोने दे मT समझूँगी सृिc Vलय Mया!

तेरा अधरिवचुंिबत Nयाला तेरी ही ि%मतिमिeत हाला, तेरा ही मानस मधुशाला,

िफर पूछूँ Mया मेरे साकी!

देते हो मधुमय िवषमय Mया? रोमरोम म नंदन पुलिकत,

साँससाँस म जीवन शतशत,

%वC %वC म िवo अपिरिचत,

मुझम िनत बनते िमटते िVय!

%वग मुझे Mया िनिY€य लय Mया? हा=ँ तो खोऊँ अपनापन पाऊँ िVयतम म िनवासन,

जीत बनूँ तेरा ही बंधन भर लाऊँ सीपी म सागर िVय मेरी अब हार िवजय Mया?

िचिWत तू मT [ँ रे खा€म,

मधुर राग तू मT %वर संगम, तू असीम मT सीमा का …म,

काया छाया म रह%यमय। Vेयिस िVयतम का अिभनय Mया तुम मुझम िVय! िफर पिरचय Mया

- महादेवी वमा$

सोये ह! पेड़ कु हरे म सोये हT पेड़। प†ा-प†ा नम है

यह सबूत Mया कम है लगता है िलपट कर टहिनय से ब(त-ब(त रोये हT पेड़।

जंगल का घर छू टा,

कु छ कु छ भीतर टूटा शहर म बेघर होकर जीते सपनो म खोये हT पेड़। - माहेDर ितवारी

माँ कह एक कहानी

"माँ कह एक कहानी।"

बेटा समझ िलया Mया तूने मुझको अपनी नानी?"

"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी? माँ कह एक कहानी।"

"तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन म बड़े सवेरे, तात …मण करते थे तेरे, जहाँ सुरभी मनमानी।"

"जहाँ सुरभी मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"

वण वण के फू ल िखले थे, झलमल कर िहमिबदु िझले थे,

हलके झके िहले िमले थे, लहराता था पानी।"

"लहराता था पानी, हाँ हाँ यही कहानी।"

"गाते थे खग कल कल %वर से, सहसा एक हँस ऊपर से, िगरा िबX होकर खर शर से, (ई पbी की हानी।"

"ई पी की हानी? कणा भरी कहानी!"

च‡क उGहने उसे उठाया, नया जGम सा उसने पाया, इतने म आखेटक आया, लb िसिX का मानी।"

"ल िसि" का मानी! कोमल किठन कहानी।"

"माँगा उसने आहत पbी, तेरे तात िकGतु थे रbी,

तब उसने जो था खगभbी, हठ करने की ठानी।"

"हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।"

(आ िववाद सदय िनदय म , उभय आ•ही थे %विवषय म , गयी बात तब Gयायालय म , सुनी सब ने जानी।"

"सुनी सब ने जानी! (ापक ई कहानी।"

रा(ल तू िनणय कर इसका, Gयाय पb लेता है िकसका?"

"माँ मेरी )या बानी? म* सुन रहा कहानी।

कोई िनरपराध को मारे तो )य, न उसे उबारे ?

रक पर भक को वारे , /याय दया का दानी।" "Gयाय दया का दानी! तूने गुणी कहानी।"

- मैिथलीशरण गुS

सिख, सिख, वे मुझसे कहकर जाते (यशोधरा) यशोधरा) सिख, वे मुझसे कहकर जाते,

कह, तो Mया मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते? मुझको ब(त उGहने माना िफर भी Mया पूरा पहचाना?

मTने मुvय उसी को जाना जो वे मन म लाते। सिख, वे मुझसे कहकर जाते।

%वयं सुसि„त करके bण म ,

िVयतम को, Vाण के पण म , हम7 भेज देती हT रण म bाW-धम के नाते।

सिख, वे मुझसे कहकर जाते।

(आ न यह भी भाgय अभागा,

िकसपर िवफल गव अब जागा? िजसने अपनाया था, 4यागा; रहे %मरण ही आते!

सिख, वे मुझसे कहकर जाते।

नयन उGह हT िनAु र कहते,

पर इनसे जो आँसू बहते,

सदय ,दय वे कै से सहते?

गये तरस ही खाते!

सिख, वे मुझसे कहकर जाते।

जाय , िसिX पाव वे सुख से,

दुखी न ह इस जन के दुख से,

उपाल>भ दूँ मT िकस मुख से? आज अिधक वे भाते!

सिख, वे मुझसे कहकर जाते।

गये, लौट भी वे आव गे,

कु छ अपूव-अनुपम लाव गे, रोते Vाण उGह पाव गे,

पर Mया गाते-गाते?

सिख, वे मुझसे कहकर जाते। - मैिथलीशरण गुS

पुप की अिभलाषा अिभलाषा चाह नह7 मT सुरबाला के गहन म गूँथा जाऊँ, चाह नह7, Vेमी-माला म

िबध Nयारी को ललचाऊँ,

चाह नह7, सLाट के शव

पर हे हिर, डाला जाऊँ,

चाह नह7, देव के िसर पर

चढ़ूँ भाgय पर इठलाऊँ। मुझे तोड़ लेना वनमाली!

उस पथ पर देना तुम फ क,

मातृभूिम पर शीश चढ़ाने िजस पर जाव वीर अनेक - माखनलाल चतुवद H ी

पेड़, म! और सब पेड़ नह7 हT, उठी (ई

धरती की बाह हT तेरे मेरे िलए माँगती रोज दुआएँ हT। पेड़ नह7 हT ये धरती की खुली िनगाह हT तेरे मेरे िलए िनरापद करती राहे हT। पेड़ नह7 ये पनपी धरती गाहे गाहे हT तेरे मेरे जी लेने की िविवध िवधाएँ हT। पेड़ नह7 ये धरती ने य– जुटाए हT तेरे मेरे िलऐ खुशी के र– लुटाये हT। पेड़ नह7 ये धरती ने िचW बनाए हT तेरे मेरे िलए अनेक िमW जुटाए हT। पेड़ नह7 ये धरती ने चँवर डु लाए हT। तेरे मेरे िलऐ छाँह के गगन छवाए हT। पेड़ नह7 ये धरती ने अलख जगाए हT तेरे मेरे 'ढू ँढ' के

जतन जताए हT। पेड़ नह7 है अि%त4व के बीज िबजाए हT तेरे मेरे जीने के िवoास जुड़ाए हT।

- मWधर मृदल ु

पानी उछाल के आओ हम पतवार फ ककर कु छ िदन हो ल नदी-ताल के । नाव िकनारे के खजूर से बाँध बटोरं शंख-सीिपयाँ

खुली हवा-पानी से सीख

शम-हया की नई रीितयाँ बाँच Vकृ ित पुKष की भाषा साथ-साथ पानी उछाल के । िलख डाल िफर नये िसरे से रँ गे (ए पh को धोकर िनजी दायर से बाहर हो रागहीन राग म खोकर आमंWण %वीकार उठकर धूप-छाँव सी हरी डाल के । नम%कार पxे घाट को नम%कार तट के वृb को हो न सक यिद लगातार तब जी ल सुख हम अंतराल के । - नईम

आज के िबछु ड़े न जाने कब िमलMग? े आज के िबछु ड़े न जाने कब िमल गे?

आज से दो Vेम योगी, अब िवयोगी ही रह गे!

आज के िबछु ड़े न जाने कब िमल गे?

स4य हो यिद, कQप की भी कQपना कर, धीर बांधूँ, िकGतु कै से Sथ की आशा िलये, यह योग साधूँ! जानता [ँ, अब न हम तुम िमल सक गे!

आज के िबछु ड़े न जाने कब िमल गे?

आयेगा मधुमास िफर भी, आयेगी Iयामल घटा िघर,

आँख भर कर देख लो अब, मT न आऊँगा कभी िफर! Vाण तन से िबछु ड़ कर कै से रह गे!

आज के िबछु ड़े न जाने कब िमल गे? अब न रोना, Sथ होगा, हर घड़ी आँसू बहाना,

आज से अपने िवयोगी, ,दय को हँसना िसखाना,

अब न हँसने के िलये, हम तुम िमल गे!

आज के िबछु ड़े न जाने कब िमल गे?

आज से हम तुम िगन गे एक ही नभ के िसतारे दूर हगे पर सदा को, ?य नदी के दो िकनारे िसGधुतट पर भी न दो जो िमल सक गे!

आज के िबछु ड़े न जाने कब िमल गे?

तट नदी के , भŽ उर के , दो िवभाग के सदृश हT,

चीर िजनको, िवo की गित बह रही है, वे िववश है! आज अथइित पर न पथ म , िमल सक गे!

आज के िबछु ड़े न जाने कब िमल गे?

यिद मुझे उस पार का भी िमलन का िवoास होता,

सच क[ँगा, न मT असहाय या िनKपाय होता, िकGतु Mया अब %वC म भी िमल सक गे? आज के िबछु ड़े न जाने कब िमल गे?

आज तक (आ सच %वC, िजसने %वC देखा?

कQपना के मृदल ु कर से िमटी िकसकी भाgयरे खा? अब कहाँ स>भव िक हम िफर िमल सक गे!

आज के िबछु ड़े न जाने कब िमल गे?

आह! अिGतम रात वह, बैठी रह7 तुम पास मेरे,

शीश कांधे पर धरे , घन कु Gतल से गात घेरे,

bीण %वर म कहा था, "अब कब िमल गे?"

आज के िबछु ड़े न जाने कब िमल गे?

"कब िमल गे", पूUता मT, िवo से जब िवरह कातर,

"कब िमल गे", गूँजते Vितiविनिननािदत Sोम सागर, "कब िमल गे", V— उ†र "कब िमल गे"! आज के िबछु ड़े न जाने कब िमल गे?

- पं. नरे " शमा$

अधूरी साधना िVयतम मेरे,

सब िभh िभh बुनते हT गुलद%त को, भावनाn से,

िवचार से। मT तु>हे बुनूँ अपनी साँस से। भावनाय ि%थर हो जाएँ,

िवचारधारा भी,

हठ भी मौन रहे -

और हर oास िनत तु>हारा नाम कहे -

और तुम बुनते रहो।

एक घड़ी आएगी िफर मेरी बंद पलक के स>मुख तुम िनराकार साकार होगे। तुम बाह म अपनी, मेरी साँस को समेट लोगे। िफर न होगा िमलना,

न िबछड़ना, न जGम-मरण,

न मT। िसफ तुम मेरे िVयतम अपना %व=प पाकर -

अनंत।

- नीलकमल

चुप सी लगी है चुप सी लगी है। अGदर ज़ोर एक आवाज़ दबी है। वह दबी चीख िनकलेगी कब? िज़Gदगी आिखर शु= होगी कब?

कब?

खुले मन से हंसी कब आएगी?

इस िदल म खुशी कब िखलिखलाएगी?

बरस इस जाल म बंधी,

Nयास अभी भी है। अपने पथ पर चल पाऊँगी,

आस अभी भी है। पर इG4ज़ार म िदल धीरे धीरे मरता है धीरे धीरे िपसता है मन, शेष Mया रहता है?

डर है, एक िदन

यह धीरज न टूट जाए रोको न मुझे,

कह7 ?वालामुखी फू ट जाए। वह फू टा तो इस eी सृजन को कै से बचाऊँगी? िवo म माW एक िक%सा बन रह जाऊँगी।

समय की गहराइय म खो जाऊँगी।

- नीलकमल

वह से हम जहाँ हT वह7 से आगे बढ़ गे। देश के बंजर समय के बाँझपन म यािक अपनी लालसाn के अंधेरे सघन वन म या अगर हT पिरि%थितय की तलहटी म तो वह7 से बादल के =प म ऊपर उठ गे। हम जहाँ हT वह7 से आगे बढ़ गे। यह हमारी िनयित है चलना पड़ेगा रात म दीपक िदवस म सूय बन जलना पड़ेगा। जो लड़ाई पूवज ने छोड़ दी थी हम लड़ गे हम जहाँ हT वह7 से आगे बढ़ गे। - ओम भाकर

सुभात नयन का नयन से, नमन हो रहा है लो उषा का आगमन हो रहा है परत पर परत, चांदनी कट रही है

तभी तो िनशा का, गमन हो रहा है

िbितज पर अभी भी हT, अलसाये सपने

पलक खोल कर भी, शयन हो रहा है

झरोख से Vाची की पहली िकरण का लहर से Vथम आचमन हो रहा है हT नहला रह7, हर कली को तुषार लगन पूव िकतना जतन हो रहा है वही शाख पर पिbय का है कलरव Vभातीसा लेिकन, सहन हो रहा है

बढ़ी जा रही िजस तरह से अKिणमा है लगता कह7 पर हवन हो रहा है मधुर मुP आभा, सुगंिधत पवन है नये िदन का कै सा सृजन हो रहा है।

- भाकर शु5ला

फागुन के दोहे ऐसी दौड़ी फगुनाहट ढाणी चौक फलांग फागुन आया खेत म गये पड़ोसी जान। आम बौराया आंगना कोयल चढ़ी अटार चंग sार दे दादर मौसम (आ बहार। दूब फू ल की गुदगुदी बतरस चढ़ी िमठास मुलके दादी भामरी मौसम को है आस। वर गे[ं बाली सजा खड़ी फ़सल बारात सुgगा छेड़े पी कहाँ सरस पीली गात। ऋतु के मोखे सब खड़े पाने को सौगात मानक बाँटे छाँट कर टेसू ढाक पलाश। ढीठ छोिरयाँ िततिलयाँ रोक राह वसंत धरती सब Mयारी (ई अ>बर (आ पतंग। मौसम के मतदान म (आ अराजक काम पतझर म घायल (ए िनरे पात पैगाम। दबा बनारस पान को पीक दयई य‡ डार चैत गुनगुनी दोपहर गुलमोहर कचनार। सजे माँडने आँगने होली के 4योहार बुरी बलाय जल मर शगुन सजाए sार। मन के आँगन रच गए कुं कु म अबीर गुलाल लाली फागुन माह की बढ़े साल दर साल। - पूिणमा वम$न

हमहम-तुम जीवन कभी सूना न हो कु छ मT क[ँ, कु छ तुम कहो। तुमने मुझे अपना िलया यह तो बड़ा अdछा िकया िजस स4य से मT दूर था वह पास तुमने ला िदया अब िज़G˜ी की धार म कु छ मT ब[ँ, कु छ तुम बहो। िजसका ,दय सुGदर नह7 मेरे िलए प4थर वही। मुझको नई गित चािहए जैसे िमले वैसे सही। मेरी Vगित की साँस म कु छ मT र[ँ कु छ तुम रहो। मुझको बड़ा सा काम दो चाहे न कु छ आराम दो लेिकन जहाँ थककर िग=ँ मुझको वह7 तुम थाम लो। िगरते (ए इGसान को कु छ मT ग[ँ कु छ तुम गहो। संसार मेरा मीत है स‡दय मेरा गीत है मTने अभी तक समझा नह7 Mया हार है Mया जीत है दुख-सुख मुझे जो भी िमले

कु छ मT स[ं कु छ तुम सहो।

- रमानाथ अव8थी

लाचारी न जाने Mया लाचारी है आज मन भारी-भारी है ,दय से कहता [ँ कु छ गा Vाण की पीिड़त बीन बजा Nयास की बात न मुँह पर ला यहाँ तो सागर खारी है न जाने Mया लाचारी है आज मन भारी-भारी है सुरिभ के %वामी फू ल पर चढ़ये मTने जब कु छ %वर लगे वे कहने मुरझाकर िज़Gदगी एक खुमारी है न जाने Mया लाचारी है आज मन भारी-भारी है नह7 है सुिध मुझको तन की Sथ है मुझको चु>बन भी अजब हालत है जीवन की मुझे बेहोशी Nयारी है न जाने Mया लाचारी है आज मन भारी-भारी है - रमानाथ अव8थी

रचना और तुम मेरी रचना के अथ ब(त हT जो भी तुमसे लग जाय लगा लेना मT गीत लुटाता [ँ उन लोग पर दुिनयाँ म िजनका कु छ आधार नह7 मT आँख िमलाता [ँ उन आँख से िजनका कोई भी पहरे दार नह7 आँख की भाषा तो अनिगन हT जो भी सुGदर हो वह समझा देना। पूजा करता [ँ उस कमजोरी की जो जीने को मजबूर कर रही है। मन ऊब रहा है अब इस दुिनया से जो मुझको तुमसे दूर कर रही है दूरी का दुख बढ़ता जाता है जो भी तुमसे घट जाए घटा लेना कहत Kकने संकेत Nयासे

है मुझ से उड़ता (आ धुँआ का नाम न ले तू चलता जा कर रहा है नभ वाला घन Vाण पर मुझ सा गलता जा

पर मT Nयासा [ँ म=%थल सा यह बात समंदर को समझा देना चाँदनी चढ़ाता जो अपनी राह आवाज लगाता िजनको मधुवन

[ँ उन चरण पर आप बनाते हT [ँ उन गीत को म भ‡रे गाते हT

मधुवन म सोये गीत हजार है जो भी तुमसे जग जाए जगा लेना - रमानाथ अव8थी

सांझ फागुन की िफर कह7 मधुमास की पदचाप सुन, डाल म हदी की लजीली हो गई।

दूर तक अमराइय, वनबीिथय म

लगी संदल हवा चुपके पांव रखने,

रात-िदन िफर कान आहट पर लगाए

लगा म(आ गंध की बोली परखने िदवस मादक होश खोए लग रहे,

सांझ फागुन की नशीली हो गई।

हंसी शाख पर कुं आरी मंजरी िफर कह7 टेसू के सुलगे अंग-अंग,

लौट कर परदेश से चुपचाप िफर,

बस गया कु सुमी लताn पर अनंग चुप खड़ी सरस की गोरी सी हथेली डू ब कर हQदी म पीली हो गई। िफर उड़ी रह-रह के आंगन म अबीर िफर झड़े दहलीज पर मादक गुलाल,

छोड़ चGदन-वन चली सपन के गांव गंध कुं कु म के गले म बांह डाल

और होने के िलए रं ग से लथपथ रे शमी चूनर हठीली हो गई। - रामानुज ि?पाठी

एक भी आँसू न कर बेकार एक भी आँसू न कर बेकार -

जाने कब समंदर मांगने आ जाए!

पास Nयासे के कु आँ आता नह7 है,

यह कहावत है, अमरवाणी नह7 है,

और िजस के पास देने को न कु छ भी एक भी ऐसा यहाँ Vाणी नह7 है,

कर %वयं हर गीत का eृंगार जाने देवता को कौनसा भा जाय!

चोट खाकर टूटते हT िसफ दपण िकGतु आकृ ितयाँ कभी टूटी नह7 हT,

आदमी से =ठ जाता है सभी कु छ पर सम%याय कभी =ठी नह7 हT,

हर छलकते अeु को कर Nयार -

जाने आ4मा को कौन सा नहला जाय!

Sथ है करना खुशामद रा%त की,

काम अपने पाँव ही आते सफर म ,

वह न ईoर के उठाए भी उठे गा -

जो %वयं िगर जाय अपनी ही नज़र म ,

हर लहर का कर Vणय %वीकार -

जाने कौन तट के पास प(ँचा जाए! - रामावतार Yयागी

आग की भीख धुँधली (ई िदशाएँ, छाने लगा कु हासा,

कु चली (ई िशखा से आने लगा धुआँसा। कोई मुझे बता दे, Mया आज हो रहा है,

मुंह को िछपा ितिमर म Mय तेज सो रहा है?

दाता पुकार मेरी, संदीिu को िजला दे,

बुझती (ई िशखा को संजीवनी िपला दे। Nयारे %वदेश के िहत अँगार माँगता [ँ। चढ़ती जवािनय का eृंगार मांगता [ँ। बेचैन हT हवाएँ, सब ओर बेकली है,

कोई नह7 बताता, िकIती िकधर चली है? मँझदार है, भँवर है या पास है िकनारा?

यह नाश आ रहा है या सौभाgय का िसतारा? आकाश पर अनल से िलख दे अदृc मेरा,

भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।

तमवेिधनी िकरण का संधान माँगता [ँ। ™ुव की किठन घड़ी म , पहचान माँगता [ँ।

आगे पहाड़ को पा धारा Kकी (ई है, बलपुंज के सरी की •ीवा झुकी (ई है,

अिŽ%फु िलग रज का, बुझ डेर हो रहा है,

है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है!

िनवाक है िहमालय, गंगा डरी (ई है,

िन%त8धता िनशा की िदन म भरी (ई है। पंचा%यनाद भीषण, िवकराल माँगता [ँ।

जड़तािवनाश को िफर भूचाल माँगता [ँ।

मन की बंधी उमंग असहाय जल रही है,

अरमानआरज़ू की लाश िनकल रही हT। भीगीखुशी पल म रात गुज़ारते हT,

सोती वसुGधरा जब तुझको पुकारते हT,

इनके िलये कह7 से िनभक तेज ला दे,

िपघले (ए अनल का इनको अमृत िपला दे। उGमाद, बेकली का उ4थान माँगता [ँ। िव%फोट माँगता [ँ, तूफान माँगता [ँ।

आँसूभरे दृग म िचनगािरयाँ सजा दे,

मेरे शमशान म आ eंगी जरा बजा दे। िफर एक तीर सीन के आरपार कर दे,

िहमशीत Vाण म िफर अंगार %वdछ भर दे। आमष को जगाने वाली िशखा नयी दे,

अनुभूितयाँ ,दय म दाता, अनलमयी दे।

िवष का सदा ल[ म संचार माँगता [ँ। बेचैन िज़Gदगी का मT Nयार माँगता [ँ।

ठहरी (ई तरी को ठोकर लगा चला दे,

जो राह हो हमारी उसपर िदया जला दे। गित म Vभंजन का आवेग िफर सबल दे,

इस जाँच की घड़ी म िनAा कड़ी, अचल दे। हम दे चुके ल( हT, तू देवता िवभा दे,

अपने अनलिविशख से आकाश जगमगा दे। Nयारे %वदेश के िहत वरदान माँगता [ँ। तेरी दया िवपद् म भगवान माँगता [ँ। - िदनकर

बािलका से वधु माथे मM सMदरू पर छोटी दो िबदी चमचमचमचम-सी, सी,

पपनी पर आँसू की बूद ँ M मोतीमोती-सी, सी, शबनमशबनम-सी।

लदी :ई किलय मM मादक टहनी एक नरमनरम-सी, सी,

यौवन की िवनतीिवनती-सी भोली, भोली, गुमसुम खड़ी शरमशरम-सी। पीला चीर, चीर, कोर मM िजसकी चकमक गोटागोटा-जाली, जाली, चली िपया के गांव उमर के सोलह फू लवाली। पी चुपके आनंद, उदासी भरे सजल िचतवन मM, आँसू मM भगी माया चुपचाप खड़ी आंगन मM।

आँख मM दे आँख हेरती ह! उसको जब सिखयाँ,

मु8की आ जाती मुख पर, पर, हँस देती रोती अँिखयाँ। पर, पर, समेट लेती शरमाकर िबखरीिबखरी-सी मु8कान, कान, िम[ी उकसाने लगती है अपरािधनीअपरािधनी-समान।

भग रहा मीठी उमंग से िदल का कोनाकोना-कोना, कोना, भीतरभीतर-भीतर हँसी देख लो, लो, बाहरबाहर-बाहर रोना।

तू वह, वह, जो झुरमुट पर आयी हँसती कनककनक-कलीकली-सी, सी, तू वह, वह, जो फू टी शराब की िनझ$िरणी पतलीपतली-सी।

तू वह, वह, रचकर िजसे कृ ित ने अपना िकया िसगार, िसगार, तू वह जो धूसर मM आयी सुबज रं ग की धार। मां की ढीठ दुलार ार!! िपता की ओ लजवंती भोली, भोली,

ले जायेगी िहय की मिण को अभी िपया की डोली। कहो, कहो, कौन होगी इस घर तब शीतल उिजयारी? उिजयारी?

िकसे देख हँस-हँस कर फू लेगी सरस की 5यारी? 5यारी? वृL रीझ कर िकसे करM गे पहला फल अप$ण-सा? सा? झुकते िकसको देख पोखरा चमके गा दप$ण-सा? सा?

िकसके बाल ओज भर दMगे खुलकर मंद पवन मM?

पड़ जायेगी जान देखकर िकसको चं"-िकरन मM?

महँ-महँ कर मंजरी गले से िमल िकसको चूमग े ी? ी? कौन खेत मM खड़ी फ़सल की देवीे ी? ी-सी झूमग ी?

बनी िफरे गी कौन बोलती ितमा हिरयाली की? की?

कौन `ह होगी इस धरती फलफल-फू ल वाली की? की? हँसकर Pदय पहन लेता जब किठन ेम-ज़ंजीर, ीर,

खुलकर तब बजते न सुहािगन, ािगन, पाँव के मंजीर। घड़ी िगनी जाती तब िनिशिदन उँ गली की पोर पर, पर, िय की याद झूलती है साँस के िहडोर पर। पलती है िदल का रस पीकर सबसे aयारी पीर, पीर, बनती है िबगड़ती रहती पुतली मM त8वीर।

पड़ जाता च8का जब मोहक ेम-सुधा पीने का, का, सारा 8वाद बदल जाता है दुिनया मM जीने का। मंगलमय हो पंथ सुहािगन, ािगन, यह मेरा वरदान; वरदान; हरिसगार की टहनीटहनी-से फू लM तेरे अरमान।

जगे Pदय को शीतल करनेवाली मीठी पीर, पीर,

िनज को डु बो सके िनज मM, मन हो इतना गंभीर। छाया करती रहे सदा तुझको सुहाग की छाँह,

सुख-दुख मM Iीवा के नीचे हो ियतम की बाँह। पलपल-पल मंगलल-लb, लb, िज़दगी के िदनिदन-िदन Yयौहार, Yयौहार,

उर का ेम फू टकर हो आँचल मM उजली धार।कुं जी घेरे था मुझे तु>हारी साँस का पवन,

जब मT बालक अबोध अनजान था। यह पवन तु>हारी साँस का सौरभ लाता था। उसके कं ध पर चढ़ा मT जाने कहाँ-कहाँ

आकाश म घूम आता था। सृिc शायद तब भी रह%य थी। मगर कोई परी मेरे साथ म थी;

मुझे मालूम तो न था,

मगर ताले की कूं जी मेरे हाथ म थी। जवान हो कर मT आदमी न रहा,

खेत की घास हो गया।

तु>हारा पवन आज भी आता है और घास के साथ अठखेिलयाँ करता है, उसके कान म चुपके चुपके कोई संदश े भरता है।

घास उड़ना चाहती है और अकु लाती है,

मगर उसकी जड़ धरती म बेतरह गड़ी (Œ हT। इसिलए हवा के साथ वह उड़ नह7 पाती है। शिP जो चेतन थी,

अब जड़ हो गयी है। बचपन म जो कुं जी मेरे पास थी,

उL बढ़ते बढ़ते वह कह7 खो गयी है। - िदनकर

लेन-देन लेन-देन का िहसाब

लंबा और पुराना है।

िजनका कज हमने खाया था,

उनका बाकी हम चुकाने आये हT। और िजGहने हमारा कज खाया था,

उनसे हम अपना हक पाने आये हT।

लेन-देन का Sापार अभी लंबा चलेगा।

जीवन अभी कई बार पैदा होगा और कई बार जलेगा।

और लेन-देन का सारा Sापार

जब चुक जायेगा,

ईoर हमसे खुद कहेगा तु>हार एक पावना मुझ पर भी है,

आओ, उसे •हण करो।

अपना =प छोड़ो,

मेरा %व=प वरण करो।

- िदनकर

रात य कहने लगा मुझसे गगन का चाँद रात य कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,

आदमी भी Mया अनोखा जीव है!

उलझन अपनी बनाकर आप ही फँ सता,

और िफर बेचैन हो जगता, न सोता है। जानता है तू िक मT िकतना पुराना [ँ?

मT चुका [ँ देख मनु को जनमते-मरते

और लाख बार तुझ-से पागल को भी

चाँदनी म बैठ %वC पर सही करते।

आदमी का %वC? है वह बुलबुला जल का

आज उठता और कल िफर फू ट जाता है िकGतु, िफर भी धGय ठहरा आदमी ही तो? बुलबुल से खेलता, किवता बनाता है।

मT न बोला िकGतु मेरी रािगनी बोली,

देख िफर से चाँद! मुझको जानता है तू? %वC मेरे बुलबुले हT? है यही पानी?

आग को भी Mया नह7 पहचानता है तू? मT न वह जो %वC पर के वल सही करते,

आग म उसको गला लोहा बनाता [ँ,

और उस पर न7व रखता [ँ नये घर की,

इस तरह दीवार फौलादी उठाता [ँ।

मनु नह7, मनु-पुW है यह सामने, िजसकी

कQपना की जीभ म भी धार होती है, वाण ही होते िवचार के नह7 के वल,

%वC के भी हाथ म तलवार होती है। %वग के सLाट को जाकर खबर कर दे-

रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हT वे, रोिकये, जैसे बने इन %वCवाल को,

%वग की ही ओर बढ़ते आ रहे हT वे। - िदनकर

- िदनकर

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