िकस कर में यह वीणा धर दँ ?ू दे वों ने था िजसे बनाया,
दे वों ने था िजसे बजाया,
मानव के हाथों में कैसे इसको आज समिपर्त कर दँ ?ू िकस कर में यह वीणा धर दँ ?ू इसने ःवगर् िरझाना सीखा,
ःविगर्क तान सुनाना सीखा,
जगती को खुश करनेवाले ःवर से कैसे इसको भर दँ ?ू िकस कर में यह वीणा धर दँ ?ू क्यों बाकी अिभलाषा मन में,
झंकृत हो यह िफर जीवन में?
क्यों न हृदय िनमर्म हो कहता अंगारे अब धर इस पर दँ ?ू िकस कर में यह वीणा धर दँ ?ू –
साथी, सब कुछ सहना होगा! मानव पर जगती का शासन, जगती पर संसिृ त का बंधन,
संसिृ त को भी और िकसी के ूितबंधों में रहना होगा! साथी, सब कुछ सहना होगा!
हम क्या हैं जगती के सर में! जगती क्या, संसिृ त सागर में!
एक ूबल धारा में हमको लघु ितनके-सा बहना होगा! साथी, सब कुछ सहना होगा!
आओ, अपनी लघुता जानें, अपनी िनबर्लता पहचानें,
जैसे जग रहता आया है उसी तरह से रहना होगा! साथी, सब कुछ सहना होगा!
िदन जल्दी-जल्दी ढलता है ! हो जाय न पथ में रात कहीं, मंिज़ल भी तो है दरू नहीं -
यह सोच थका िदन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है ! िदन जल्दी-जल्दी ढलता है ! बच्चे ूत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे -
यह ध्यान परों में िचिड़यों के भरता िकतनी चंचलता है ! िदन जल्दी-जल्दी ढलता है !
मुझसे िमलने को कौन िवकल? मैं होऊँ िकसके िहत चंचल? -
यह ूश्न िशिथल करता पद को, भरता उर में िवह्वलता है ! िदन जल्दी-जल्दी ढलता है ! –
किव की वासना कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! 1
सृिष्ट के ूारम्भ में
मैने उषा के गाल चूमे,
बाल रिव के भाग्य वाले दीप्त भाल िवशाल चूमे,
ूथम संध्या के अरुण दृग चूम कर मैने सुलाए,
तािरका-किल से सुसिज्जत नव िनशा के बाल चूमे, वायु के रसमय अधर
पहले सके छू हॉठ मेरे
मृित्तका की पुतिलयॉ से
आज क्या अिभसार मेरा? कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! 2 िवगत-बाल्य वसुन्धरा के उच्च तुग ं -उरोज उभरे ,
तरु उगे हिरताभ पट धर काम के ध्वज मत्त फहरे , ृ चपल उच्छखल करों ने
जो िकया उत्पात उस िदन, है हथेली पर िलखा वह, पढ़ भले ही िवश्व हहरे ;
प्यास वािरिध से बुझाकर भी रहा अतृप्त हँू मैं,
कािमनी के कुच-कलश से आज कैसा प्यार मेरा!
कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! 3 इन्िधनु पर शीश धरकर बादलों की सेज सुखकर सो चुका हँू नींद भर मैं
चंचला को बाहु में भर, दीप रिव-शिश-तारकों ने बाहरी कुछ केिल दे खी, दे ख, पर, पाया न कोई
ःवप्न वे सुकुमार सुन्दर जो पलक पर कर िनछावर थी गई मधु यािमनी वह; यह समािध बनी हई ु है यह न शयनागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! 4
आज िमट्टी से िघरा हँू पर उमंगें हैं पुरानी,
सोमरस जो पी चुका है आज उसके हाथ पानी,
होठ प्यालों पर झुके तो
थे िववश इसके िलए वे, प्यास का ोत धार बैठा;
आज है मन, िकन्तु मानी; मैं नहीं हँू दे ह-धमोर्ं से बँधा, जग, जान ले तू,
तन िवकृ त हो जाए लेिकन मन सदा अिवकार मेरा!
कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! 5 िनंपिरौम छोड़ िजनको मोह लेता िवश्न भर को,
मानवों को, सुर-असुर को, वृद्ध ॄह्मा, िवंणु, हर को, भंग कर दे ता तपःया
िसद्ध, ऋिष, मुिन सत्तमों की वे सुमन के बाण मैंने, ही िदए थे पंचशर को;
शिक्त रख कुछ पास अपने ही िदया यह दान मैंने, जीत पाएगा इन्हीं से
आज क्या मन मार मेरा! कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! 6 ूाण ूाणों से सकें िमल िकस तरह, दीवार है तन
काल है घिड़याँ न िगनता,
बेिड़यों का शब्द झन-झन, वेद-लोकाचार ूहरी
ताकते हर चाल मेरी, बद्ध इस वातावरण में
क्या करे अिभलाष यौवन! अल्पतम इच्छा यहाँ
मेरी बनी बन्दी पड़ी है , िवश्व बीड़ाःथल नहीं रे िवश्व कारागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! 7
थी तृषा जब शीत जल की खा िलए अंगार मैंने,
चीथड़ों से उस िदवस था कर िलया ौृग ं ार मैंने
राजसी पट पहनने को
जब हई ु इच्छा ूबल थी, चाह-संचय में लुटाया था भरा भंडार मैंने;
वासना जब तीोतम थी बन गया था संयमी मैं, है रही मेरी क्षुधा ही सवर्दा आहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! 8 कल िछड़ी, होगी ख़तम कल ूेम की मेरी कहानी, कौन हँू मैं, जो रहे गी
िवश्व में मेरी िनशानी? क्या िकया मैंने नही जो
कर चुका संसार अबतक? वृद्ध जग को क्यों अखरती है क्षिणक मेरी जवानी?
मैं िछपाना जानता तो
जग मुझे साधु समझता, शऽु मेरा बन गया है
छल-रिहत व्यवहार मेरा! कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! – Other Information Collection: Madhukalash (Published: 1937) This poem was originally inspired by a comment by Pt. Banarsi Das Chaturvedi in the publication “Vishaal Bharat”, of which he was the editor. In response to that comment Bachchan wrote this poem and sent it to another well-known publication “Saraswati” with a note that it is in response to somebody’s comment (without naming him). When Pt. Banarsi Das Chaturvedi noticed this poem, he got it publihed in “Viashaal Bharat” itself, while openly accepting that he was the one who had written a comment like that. (Source: Preface by Bachchan in the 7th edition of Madhukalash)
इस पार, उस पार 1 इस पार, िूये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उिदत होकर नभ में
कुछ ताप िमटाता जीवन का, लहरालहरा यह शाखाएँ
कुछ शोक भुला दे ती मन का,
कल मुझार्नेवाली किलयाँ
हँ सकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम दे कर मिदरा के प्याले मेरा मन बहला दे ती हो,
उस पार मुझे बहलाने का
उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! 2 जग में रस की निदयाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है ,
जीवन की िझलिमलसी झाँकी नयनों के आगे आती है ,
ःवरतालमयी वीणा बजती,
िमलती है बस झंकार मुझे, मेरे सुमनों की गंध कहीं
यह वायु उड़ा ले जाती है ; ऐसा सुनता, उस पार, िूये,
ये साधन भी िछन जाएँगे;
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! 3
प्याला है पर पी पाएँगे,
है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार िनयित ने भेजा है ,
असमथर्बना िकतना हमको, कहने वाले, पर कहते है ,
हम कमोर्ं में ःवाधीन सदा, करने वालों की परवशता
है ज्ञात िकसे, िजतनी हमको? कह तो सकते हैं , कहकर ही
कुछ िदल हलका कर लेते हैं , उस पार अभागे मानव का
अिधकार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! 4 कुछ भी न िकया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार िदए धर कंधों पर, जो रो-रोकर हमने ढोए;
महलों के सपनों के भीतर
जजर्र खँडहर का सत्य भरा,
उर में ऐसी हलचल भर दी,
दो रात न हम सुख से सोए;
अब तो हम अपने जीवन भर
उस बूर किठन को कोस चुके; उस पार िनयित का मानव से
व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! 5 संसिृ त के जीवन में, सुभगे ऐसी भी घिड़याँ आएँगी,
जब िदनकर की तमहर िकरणे तम के अन्दर िछप जाएँगी,
जब िनज िूयतम का शव, रजनी तम की चादर से ढक दे गी,
तब रिव-शिश-पोिषत यह पृथ्वी िकतने िदन खैर मनाएगी! जब इस लंबे-चौड़े जग का अिःतत्व न रहने पाएगा,
तब हम दोनो का नन्हा-सा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! 6 ऐसा िचर पतझड़ आएगा
कोयल न कुहक ु िफर पाएगी, बुलबुल न अंधेरे में गागा
जीवन की ज्योित जगाएगी,
अगिणत मृद-ु नव पल्लव के ःवर ‘मरमर’ न सुने िफर जाएँगे,
अिल-अवली किल-दल पर गुंजन करने के हे तु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्विनयों का अवसान, िूये, हो जाएगा,
तब शुंक हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! 7 सुन काल ूबल का गुरु-गजर्न िनझर्िरणी भूलेगी नतर्न,
िनझर्र भूलेगा िनज ‘टलमल’,
सिरता अपना ‘कलकल’ गायन, वह गायक-नायक िसन्धु कहीं, चुप हो िछप जाना चाहे गा, मुँह खोल खड़े रह जाएँगे
गंधवर्, अप्सरा, िकन्नरगण;
संगीत सजीव हआ िजनमें, ु जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, ूाण, तुम्हारी तंऽी का
जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! 8
उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा, दे खो, माली,
सुकुमार लताओं के गहने, दो िदन में खींची जाएगी ऊषा की साड़ी िसन्दरी ू ,
पट इन्िधनुष का सतरं गा पाएगा िकतने िदन रहने; जब मूितर्मती सत्ताओं की
शोभा-सुषमा लुट जाएगी,
तब किव के किल्पत ःवप्नों का ौृग ं ार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! 9 दृग दे ख जहाँ तक पाते हैं , तम का सागर लहराता है ,
िफर भी उस पार खड़ा कोई
हम सब को खींच बुलाता है ; मैं आज चला तुम आओगी कल, परसों सब संगीसाथी, दिनया रोती-धोती रहती, ु
िजसको जाना है , जाता है ; मेरा तो होता मन डगडग,
तट पर ही के हलकोरों से! जब मैं एकाकी पहँु चूँगा
मँझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! – Collection: Madhubala (Published 1936)
मधुबाला मैं मधुबाला मधुशाला की,
मैं मधुशाला की मधुबाला! मैं मधु-िवबेता को प्यारी,
मधु के धट मुझपर बिलहारी, प्यालों की मैं सुषमा सारी, मेरा रुख दे खा करती है
मधु-प्यासे नयनों की माला। मैं मधुशाला की मधुबाला! 2 इस नीले अंचल की छाया
में जग-ज्वाला का झुलसाया आकर शीतल करता काया,
मधु-मरहम का मैं लेपन कर अच्छा करती उर का छाला। मैं मधुशाला की मधुबाला! 3 मधुघट ले जब करती नतर्न, मेरे नूपुर के छम-छनन
में लय होता जग का बंदन, झूमा करता मानव जीवन
का क्षण-क्षण बनकर मतवाला। मैं मधुशाला की मधुबाला! 4 मैं इस आँगन की आकषर्ण,
मधु से िसंिचत मेरी िचतवन, मेरी वाणी में मधु के कण, मदमत्त बनाया मैं करती,
यश लूटा करती मधुशाला। मैं मधुशाला की मधुबाला! 5 था एक समय, थी मधुशाला,
था िमट्टी का घट, था प्याला, थी, िकन्तु, नहीं साकीबाला, था बैठा ठाला िवबेता
दे बंद कपाटों पर ताला।
मैं मधुशाला की मधुबाला! 6 तब इस घर में था तम छाया, था भय छाया, था ॅम छाया, था मातम छाया, गम छाया, ऊषा का दीप िलए सर पर, मैं आई करती उिजयाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
7 सोने की मधुशाना चमकी,
मािणत द्युित से मिदरा दमकी, मधुगंध िदशाओं में चमकी,
चल पड़ा िलए कर में प्याला ूत्येक सुरा पीनेवाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला! 8 थे मिदरा के मृत-मूक घड़े ,
थे मूितर् सदृश मधुपाऽ खड़े , थे जड़वत ् प्याले भूिम पड़े , ू जाद ू के हाथों से छकर
मैंने इनमें जीवन डाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला! 9 ू मुझको छकर मधुघट छलके, प्याले मधु पीने को ललके ,
मािलक जागा मलकर पलकें, अँगड़ाई लेकर उठ बैठी
िचर सुप्त िवमूिच्छर् त मधुशाला। मैं मधुशाला की मधुबाला! 10 प्यासे आए, मैंने आँका,
वातायन से मैंने झाँका, पीनेवालों का दल बाँका,
उत्कंिठत ःवर से बोल उठा,
‘कर दे पागल, भर दे प्याला!’ मैं मधुशाला की मधुबाला! 11 खुल द्वार गए मिदरालय के, नारे लगते मेरी जय के,
िमट िचह्न गए िचंता भय के, हर ओर मचा है शोर यही, ‘ला-ला मिदरा ला-ला’!,
मैं मधुशाला की मधुबाला! 12 हर एक तृिप्त का दास यहाँ, पर एक बात है खास यहाँ, पीने से बढ़ती प्यास यहाँ, सौभाग्य मगर मेरा दे खो, दे ने से बढ़ती है हाला!
मैं मधुशाला की मधुबाला! 13 चाहे िजतना मैं दँ ू हाला,
चाहे िजतना तू पी प्याला, चाहे िजतना बन मतवाला,
सुन, भेद बताती हँू अिन्तम,
यह शांत नही होगी ज्वाला। मैं मधुशाला की मधुबाला! 14
मधु कौन यहाँ पीने आता,
है िकसका प्यालों से नाता, जग दे ख मुझे है मदमाता,
िजसके िचर तंििल नयनों पर तनती मैं ःवप्नों का जाला। मैं मधुशाला की मधुबाला! 15 यह ःवप्न-िविनिमर्त मधुशाला,
यह ःवप्न रिचत मधु का प्याला, ःविप्नल तृंणा, ःविप्नल हाला, ःवप्नों की दिनया में भूला ु िफरता मानव भोलाभाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला! – Other Information Collection: Madhubala (Published: 1936)
‘मेघदत ू ’ के ूित ‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता मैं ःवयं बन मेघ जाता! 1 हो धरिण चाहे शरद की चाँदनी में ःनान करती,
वायु ऋतु हे मन्त की चाहे गगन में हो िवचरती,
हो िशिशर चाहे िगराता पीत-जजर्र पऽ तरु के, कोिकला चाहे वनों में
हो वसन्ती राग भरती, मींम का मातर्ण्ड चाहे
हो तपाता भूिम-तल को, िदन ूथम आषाढ़ का मैं ‘मेघ-चर’ द्वारा बुलाता।
‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता मैं ःवयं बन मेघ जाता! 2 भूल जाता अिःथ-मज्जामाँस युक्त शरीर हँू मैं,
भासता बस - धूॆ-संयुत
ज्योित-सिलल समीर हँू मैं, उठ रहा हँू उच्च भवनों के िशखर से और ऊपर, दे खता संसार नीचे
इन्ि का वर वीर हँू मैं, मन्द गित से जा रहा हँू
पा पवन अनुकूल अपने,
संग हैं बक-पंिक्त, चातक-
दल मधुर ःवर में गीत गाता। ‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता मैं ःवयं बन मेघ जाता! 3 झोपड़ी, गृह, भवन भारी,
महल औ’ ूासाद सुन्दर,
कलश, गुम्बद, ःतम्भ, उन्नत धरहरे , मीनार दृढ़तर,
दगर् ु दे वल, पथ सुिवःतृत और बीड़ोद्यान-सारे
मिन्ऽता किव-लेखनी के ःपशर् से होते अगोचर
और सहसा रामिगिर पवर्त उठाता शीश अपना
गोद िजसकी िःनग्ध-छायावान कानन लहलहाता!
‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता मैं ःवयं बन मेघ जाता! 4 दे खता इस शैल के ही
अंक में बहु-पूज्य पुंकर,
पुण्य-जल िजनको िकया था जनक-तनया ने नहाकर संग जब ौी राम के वे
थीं यहाँ जब वास करतीं, दे खता अंिकत चरण उनके अनेक अचल-िशला पर,
जान ये पद-िचह्न वंिदत िवश्व से होते रहे हैं ,
दे ख इनको शीश मैं भी भिक्त-ौद्धा से नवाता।
‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता मैं ःवयं बन मेघ जाता! 5 दे खता िगिर की शरण में एक सर के रम्य तट पर
एक लघु आौम िघरा वन तरु लताओं में सघनतर,
इस जगह कतर्व्य से च्युत यक्ष को पाता अकेला,
िनज िूया के ध्यान में जो अौुमय उच्छवास भर-भर क्षीणतन हो, दीनमन हो और मिहमाहीन होकर
वषर् भर कांता-िवरह के शाप में दिदर् ु न िबताता।
‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता मैं ःवयं बन मेघ जाता! 6 था िदया अिभशाप अलकाध्यक्ष ने िजस यक्षवर को, वषर् भर का दण्ड सहकर
वह गया कब का ःवघर को ूेयसी को एक क्षण उर से लगा सब कष्ट भूला,
िकन्तु शािपत यक्ष तेरा
रे महाकिव जन्म-भर को! रामिगिर पर िचर िवधुर हो युग-युगान्तर से पड़ा है ,
िमल न पाएगा ूलय तक हाय, उसका ौाप ऽाता।
‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता मैं ःवयं बन मेघ जाता! 7 दे ख मुझको ूाण-प्यारी
दािमनी को अंक में भर
घूमते उन्मुक्त नभ में
वायु के मृद-ु मन्द रथ पर, अट्टहास-िवहास से मुखिरत बनाते शून्य को भी
जन तुखी भी क्षुब्ध होते
भाग्य सुख मेरा िसहाकर; ूयिणनी भुज-पाश से जो है रहा िचरकाल वंिचत, यक्ष मुझको दे ख कैसे
िफर न दख ू जाता। ु में डब ‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता मैं ःवयं बन मेघ जाता! 8 दे खता जब यक्ष मुझको शैल-ौृग ं ों पर िवचरता,
एकटक हो सोचता कुछ लोचनों में नीर भरता,
यिक्षणी को िनज कुशलसंवाद मुझसे भेजने की
कामना से वह मुझे उठ बार-बार ूणाम करता;
कनक िवलय-िवहीन कर से िफर कुटज के फूल चुनकर
ूीित से ःवागत-वचन कह भेंट मेरे ूित चढ़ाता।
‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता मैं ःवयं बन मेघ जाता! 9 पुंकरावतर्क घनों के
वंश का मुझको बताकर, कामरूप सुनाम दे , कह
मेघपित का मान्य अनुचर कण्ठ कातर यक्ष मुझसे
ूाथर्ना इस भाँित करता ‘जा िूया के पास ले
सन्दे श मेरा, बन्धु जलधर! वास करती वह िवरिहणी धनद की अलकापुरी में,
शम्भु िशर-शोिभत कलाधर
ज्योितमय िजसको बनाता। ‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता मैं ःवयं बन मेघ जाता! 10 यक्ष पुनः ूयाण के अनुकूल कहते मागर् सुखकर,
िफर बताता िकस जगह पर
िकस तरह का है नगर, घर, िकस दशा, िकस रूप में है िूयतमा उसकी सलोनी, िकस तरह सूनी िबताती रािऽ, कैसे दीघर् वासर,
क्या कहँू गा, क्या करूँगा, मैं पहँु चकर पास उसके;
िकन्तु उत्तर के िलए कुछ
शब्द िजह्वा पर न आता। ‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता मैं ःवयं बन मेघ जाता! 11 मौन पाकर यक्ष मुझको
सोचकर यह धैयर् धरता,
सत्पुरुष की रीित है यह मौन रहकर कायर् करता, दे खकर उद्यत मुझे
ूःथान के िहत, कर उठाकर वह मुझे आशीष दे ता‘इष्ट दे शों में िवचरता,
हे जलद, ौीवृिद्ध कर तू संग वषार्-दािमनी के,
हो न तुझको िवरह दख ु जो आज मैं िविधवश उठाता!’
‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता मैं ःवयं बन मेघ जाता! – Other Information Collection: Madhukalash (Published: 1937)
ूतीक्षा मधुर ूतीक्षा ही जब इतनी, िूय तुम आते तब क्या होता? मौन रात इस भांित िक जैसे, कोई गत वीणा पर बज कर, अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर िसर धर
और िदशाओं से ूितध्विनयाँ, जामत सुिधयों-सी आती हैं ,
कान तुम्हारे तान कहीं से यिद सुन पाते, तब क्या होता? तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले, पर ऐसे ही वक्त ूाण मन, मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूमघूम िफरिफर से, असमंजस के क्षण िगनती हैं ,
िमलने की घिड़याँ तुम िनिश्चत, यिद कर जाते तब क्या होता? उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,
अम्बर तो मशहर ू िक सब िदन, रहता अपने होश सम्हाले,
तारों की महिफल ने अपनी आँख िबछा दी िकस आशा से, मेरे मौन कुटी को आते तुम िदख जाते तब क्या होता?
बैठ कल्पना करता हँू , पगचाप तुम्हारी मग से आती,
रगरग में चेतनता घुलकर, आँसू के कणसी झर जाती,
नमक डलीसा गल अपनापन, सागर में घुलिमलसा जाता, अपनी बाँहों में भरकर िूय, कण्ठ लगाते तब क्या होता?
अँधेरे का दीपक है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ? कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंिदर बना था , भावना के हाथ से िजसमें िवतानों को तना था,
ःवप्न ने अपने करों से था िजसे रुिच से सँवारा, ःवगर् के दंूाप्य रं गों से, रसों से जो सना था, ु
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर कंकड़ों को
एक अपनी शांित की कुिटया बनाना कब मना है ? है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?
बादलों के अौु से धोया गया नभनील नीलम
का बनाया था गया मधुपाऽ मनमोहक, मनोरम,
ूथम उशा की िकरण की लािलमासी लाल मिदरा थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
ू िमलाकर हाथ की दोनो हथेली, वह अगर टटा
एक िनमर्ल ॐोत से तृंणा बुझाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?
क्या घड़ी थी एक भी िचंता नहीं थी पास आई,
कािलमा तो दरू, छाया भी पलक पर थी न छाई,
आँख से मःती झपकती, बातसे मःती टपकती, थी हँ सी ऐसी िजसे सुन बादलों ने शमर् खाई,
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार माना,
पर अिथरता पर समय की मुसकुराना कब मना है ? है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?
हाय, वे उन्माद के झोंके िक िजसमें राग जागा, वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा,
एक अंतर से ध्विनत हो दसरे में जो िनरन्तर, ू
भर िदया अंबरअविन को मत्तता के गीत गागा,
अन्त उनका हो गया तो मन बहलने के िलये ही, ले अधूरी पंिक्त कोई गुनगुनाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?
हाय वे साथी िक चुम्बक लौहसे जो पास आए, पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए,
िदन कटे ऐसे िक कोई तार वीणा के िमलाकर एक मीठा और प्यारा िज़न्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है ? है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?
क्या हवाएँ थीं िक उजड़ा प्यार का वह आिशयाना,
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शिक्तयों के साथ चलता ज़ोर िकसका, िकन्तु ऐ िनमार्ण के ूितिनिध, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं ूकृ ित के जड़ िनयम से,
पर िकसी उजड़े हए ु को िफर बसाना कब मना है ? है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?
जुगनू अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ? उठी ऐसी घटा नभ में
िछपे सब चांद औ' तारे , उठा तूफान वह नभ में गए बुझ दीप भी सारे ,
मगर इस रात में भी लौ लगाए कौन बैठा है ? अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ? गगन में गवर् से उठउठ,
गगन में गवर् से िघरिघर, गरज कहती घटाएँ हैं ,
नहीं होगा उजाला िफर,
मगर िचर ज्योित में िनष्ठा जमाए कौन बैठा है ? अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ?
ितिमर के राज का ऐसा किठन आतंक छाया है , उठा जो शीश सकते थे
उन्होनें िसर झुकाया है ,
मगर िविोह की ज्वाला जलाए कौन बैठा है ? अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ? ूलय का सब समां बांधे ूलय की रात है छाई,
िवनाशक शिक्तयों की इस
ितिमर के बीच बन आई,
मगर िनमार्ण में आशा दृढ़ाए कौन बैठा है ? अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ? ूभंजन, मेघ दािमनी ने
न क्या तोड़ा, न क्या फोड़ा, धरा के और नभ के बीच कुछ सािबत नहीं छोड़ा,
मगर िवश्वास को अपने बचाए कौन बैठा है ? अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ? ूलय की रात में सोचे
ूणय की बात क्या कोई, मगर पड़ ूेम बंधन में
समझ िकसने नहीं खोई,
िकसी के पथ में पलकें िबछाए कौन बैठा है ? अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ?
कहते हैं तारे गाते हैं कहते हैं तारे गाते हैं !
सन्नाटा वसुधा पर छाया,
नभ में हमने कान लगाया,
िफर भी अगिणत कंठों का यह राग नहीं हम सुन पाते हैं ! कहते हैं तारे गाते हैं !
ःवगर् सुना करता यह गाना,
पृिथवी ने तो बस यह जाना,
अगिणत ओस-कणों में तारों के नीरव आँसू आते हैं ! कहते हैं तारे गाते हैं !
ऊपर दे व तले मानवगण,
नभ में दोनों गायन-रोदन,
राग सदा ऊपर को उठता, आँसू नीचे झर जाते हैं । कहते हैं तारे गाते हैं !
लो िदन बीता, लो रात गई लो िदन बीता, लो रात गई,
सूरज ढलकर पिच्छम पहँु चा, डबा ू , संध्या आई, छाई,
सौ संध्या-सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था,
िदन में होगी कुछ बात नई।
लो िदन बीता, लो रात गई। धीमे-धीमे तारे िनकले, धीरे -धीरे नभ में फैले,
सौ रजनी-सी वह रजनी थी
क्यों संध्या को यह सोचा था,
िनिश में होगी कुछ बात नई।
लो िदन बीता, लो रात गई।
िचिड़याँ चहकीं, किलयाँ महकी, पूरब से िफर सूरज िनकला, जैसे होती थी सुबह हई ु ,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी ूातः कुछ बात नई।
लो िदन बीता, लो रात गई,
मधुशाला मृद ु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
िूयतम, अपने ही हाथों से आज िपलाऊँगा प्याला, पहले भोग लगा लूँ तेरा िफर ूसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा ःवागत करती मेरी मधुशाला।।१। प्यास तुझे तो, िवश्व तपाकर पूणर् िनकालूग ँ ा हाला, एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज िनछावर कर दँ ग ू ा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२। िूयतम, तू मेरी हाला है , मैं तेरा प्यासा प्याला, अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मःत मुझे पी तू होता, एक दसरे की हम दोनों आज परःपर मधुशाला।।३। ू भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
किव साकी बनकर आया है भरकर किवता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख िपएँ, दो लाख िपएँ! पाठकगण हैं पीनेवाले, पुःतक मेरी मधुशाला।।४।
मधुर भावनाओं की सुमधुर िनत्य बनाता हँू हाला,
भरता हँू इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला, उठा कल्पना के हाथों से ःवयं उसे पी जाता हँू ,
अपने ही में हँू मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।
मिदरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,
'िकस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हँू 'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। ६। चलने ही चलने में िकतना जीवन, हाय, िबता डाला! 'दरू अभी है ', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
िहम्मत है न बढँू आगे को साहस है न िफरुँ पीछे ,
िकंकतर्व्यिवमूढ़ मुझे कर दरू खड़ी है मधुशाला।।७। मुख से तू अिवरत कहता जा मधु, मिदरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक लिलत किल्पत प्याला,
ध्यान िकए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पिथक, न तुझको दरू लगेगी मधुशाला।।८। मिदरा पीने की अिभलाषा ही बन जाए जब हाला,
अधरों की आतुरता में ही जब आभािसत हो प्याला, बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,
रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे िमलेगी मधुशाला।।९। सुन, कलक
, छलछ
मधुघट से िगरती प्यालों में हाला,
सुन, रूनझुन रूनझुन चल िवतरण करती मधु साकीबाला, बस आ पहंु चे, दरु नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है , चहक रहे , सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०।
जलतरं ग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला, वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला,
डाँट डपट मधुिवबेता की ध्विनत पखावज करती है ,
मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११। मेंहदी रं िजत मृदल ु हथेली पर मािणक मधु का प्याला, अंगूरी अवगुंठन डाले ःवणर् वणर् साकीबाला, पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,
इन्िधनुष से होड़ लगाती आज रं गीली मधुशाला।।१२। हाथों में आने से पहले नाज़ िदखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले अदा िदखाएगी हाला, बहते ु रे इनकार करे गा साकी आने से पहले,
पिथक, न घबरा जाना, पहले मान करे गी मधुशाला।।१३। लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे दे ना ज्वाला, फेिनल मिदरा है , मत इसको कह दे ना उर का छाला,
ददर् नशा है इस मिदरा का िवगत ःमृितयाँ साकी हैं , पीड़ा में आनंद िजसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।
जगती की शीतल हाला सी पिथक, नहीं मेरी हाला, जगती के ठं डे प्याले सा पिथक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की किवता है ,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५। बहती हाला दे खी, दे खो लपट उठाती अब हाला,
ू ही होंठ जला दे नेवाला, दे खो प्याला अब छते
'होंठ नहीं, सब दे ह दहे , पर पीने को दो बूद ं िमले'
ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६। धमर्मन्थ सब जला चुकी है , िजसके अंतर की ज्वाला,
मंिदर, मसिजद, िगिरजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला, पंिडत, मोिमन, पािदरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का ःवागत मेरी मधुशाला।।१७। लालाियत अधरों से िजसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
ु हषर्-िवकंिपत कर से िजसने, हा, न छआ मधु का प्याला, हाथ पकड़ लिज्जत साकी को पास नहीं िजसने खींचा,
व्यथर् सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८। बने पुजारी ूेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अिवरत गित से मधु के प्यालों की माला' 'और िलये जा, और पीये जा', इसी मंऽ का जाप करे '
मैं िशव की ूितमा बन बैठू ं , मंिदर हो यह मधुशाला।।१९। बजी न मंिदर में घिड़याली, चढ़ी न ूितमा पर माला, बैठा अपने भवन मुअिज्ज़न दे कर मिःजद में ताला, लुटे ख़जाने नरिपतयों के िगरीं गढ़ों की दीवारें ,
रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०। बड़े बड़े िपरवार िमटें यों, एक न हो रोनेवाला,
हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ िथरकतीं सुरबाला,
राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलआमी सो जाए, जमे रहें गे पीनेवाले, जगा करे गी मधुशाला।।२१।
सब िमट जाएँ, बना रहे गा सुन्दर साकी, यम काला, सूखें सब रस, बने रहें गे, िकन्तु, हलाहल औ' हाला,
धूमधाम औ' चहल पहल के ःथान सभी सुनसान बनें,
झगा करे गा अिवरत मरघट, जगा करे गी मधुशाला।।२२। भुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, मदचंचल प्याला, छै ल छबीला, रिसया साकी, अलबेला पीनेवाला,
पटे कहाँ से, मधु औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं,
जग जजर्र ूितदन, ूितक्षण, पर िनत्य नवेली मधुशाला।।२३। िबना िपये जो मधुशाला को बुरा कहे , वह मतवाला, पी लेने पर तो उसके मुह पर पड़ जाएगा ताला,
दास िोिहयों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,
िवश्विवजियनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४। हरा भरा रहता मिदरालय, जग पर पड़ जाए पाला,
वहाँ मुहरर्म का तम छाए, यहाँ होिलका की ज्वाला,
ःवगर् लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दख ु क्या जाने, पढ़े मिसर्या दिनया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५। ु एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला, एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दिनयावालों , िकन्तु, िकसी िदन आ मिदरालय में दे खो, ु
िदन को होली, रात िदवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६। नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,
कौन अिपिरचत उस साकी से, िजसने दध ू िपला पाला, जीवन पाकर मानव पीकर मःत रहे , इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७। बनी रहें अंगूर लताएँ िजनसे िमलती है हाला,
बनी रहे वह िमटटी िजससे बनता है मधु का प्याला, बनी रहे वह मिदर िपपासा तृप्त न जो होना जाने, बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।
सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यिद साकीबाला, मंगल और अमंगल समझे मःती में क्या मतवाला, िमऽों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,
कहा करो 'जय राम' न िमलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९। सूयर् बने मधु का िवबेता, िसंधु बने घट, जल, हाला,
बादल बन-बन आए साकी, भूिम बने मधु का प्याला,
झड़ी लगाकर बरसे मिदरा िरमिझम, िरमिझम, िरमिझम कर, बेिल, िवटप, तृण बन मैं पीऊँ, वषार् ऋतु हो मधुशाला।।३०। तारक मिणयों से सिज्जत नभ बन जाए मधु का प्याला, सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,
मज्ञल्तऌ◌ा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए, फैले हों जो सागर तट से िवश्व बने यह मधुशाला।।३१।
अधरों पर हो कोई भी रस िजहवा पर लगती हाला, भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
हर सूरत साकी की सूरत में पिरवितर्त हो जाती,
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२। पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,
भरी हई ु है िजसके अंदर िपरमल-मधु-सुिरभत हाला, माँग माँगकर ॅमरों के दल रस की मिदरा पीते हैं ,
झूम झपक मद-झंिपत होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३। ूित रसाल तरू साकी सा है , ूित मंजिरका है प्याला, छलक रही है िजसके बाहर मादक सौरभ की हाला, छक िजसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली
हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४। मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला
भर भरकर है अिनल िपलाता बनकर मधु-मद-मतवाला, हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लिरयाँ,
छक छक, झुक झुक झूम रही हैं , मधुबन में है मधुशाला।।३५। साकी बन आती है ूातः जब अरुणा ऊषा बाला,
तारक-मिण-मंिडत चादर दे मोल धरा लेती हाला,
अगिणत कर-िकरणों से िजसको पी, खग पागल हो गाते,
ूित ूभात में पूणर् ूकृ ित में मुिखरत होती मधुशाला।।३६।
उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला, बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली िनत्य ढला जाती हाला,
जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर िमट जाते
सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७। अंधकार है मधुिवबेता, सुन्दर साकी शिशबाला
िकरण िकरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला, पीकर िजसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी
तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है , मधुशाला।।३८। िकसी ओर मैं आँखें फेरूँ, िदखलाई दे ती हाला
िकसी ओर मैं आँखें फेरूँ, िदखलाई दे ता प्याला,
िकसी ओर मैं दे ख,ूं मुझको िदखलाई दे ता साकी
िकसी ओर दे ख,ूं िदखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९। साकी बन मुरली आई साथ िलए कर में प्याला,
िजनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला, योिगराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,
दे खो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०। वादक बन मधु का िवबेता लाया सुर-सुमधुर-हाला, रािगिनयाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला, िवबेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में,
पान कराती ौोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१। िचऽकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला,
िजसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रं गी हाला, मन के िचऽ िजसे पी-पीकर रं ग-िबरं गे हो जाते,
िचऽपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२। घन ँयामल अंगूर लता से िखंच िखंच यह आती हाला,
अरूण-कमल-कोमल किलयों की प्याली, फूलों का प्याला, लोल िहलोरें साकी बन बन मािणक मधु से भर जातीं,
हं स मज्ञल्तऌ◌ा होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३। िहम ौेणी अंगूर लता-सी फैली, िहम जल है हाला,
चंचल निदयाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला,
कोमल कूर-करों में अपने छलकाती िनिशिदन चलतीं, पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४। धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रिक्तम हाला, वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला, अित उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता,
ःवतंऽता है तृिषत कािलका बिलवेदी है मधुशाला।।४५। दतकारा मिःजद ने मुझको कहकर है पीनेवाला, ु ठु कराया ठाकुरद्वारे ने दे ख हथेली पर प्याला,
कहाँ िठकाना िमलता जग में भला अभागे कािफर को?
शरणःथल बनकर न मुझे यिद अपना लेती मधुशाला।।४६। पिथक बना मैं घूम रहा हँू , सभी जगह िमलती हाला,
सभी जगह िमल जाता साकी, सभी जगह िमलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे िमऽों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
िमले न मंिदर, िमले न मिःजद, िमल जाती है मधुशाला।।४७। सजें न मिःजद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला, सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,
शेख, कहाँ तुलना हो सकती मिःजद की मिदरालय से
िचर िवधवा है मिःजद तेरी, सदा सुहािगन मधुशाला।।४८। बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,
गाज िगरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहँू तो मिःजद को
अभी युगों तक िसखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९। मुसलमान औ' िहन्द ू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मिदरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मिःजद मिन्दर में जाते,
बैर बढ़ाते मिःजद मिन्दर मेल कराती मधुशाला!।५०। कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंिडत जपता माला, बैर भाव चाहे िजतना हो मिदरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर िनकले,
दे खूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१। और रसों में ःवाद तभी तक, दरू जभी तक है हाला,
इतरा लें सब पाऽ न जब तक, आगे आता है प्याला,
कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मिःजद मिन्दर में
घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२। आज करे परहे ज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,
आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला, होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, िफर
जहाँ अभी हैं मनि◌दर मिःजद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३। ् यज्ञ अिग्न सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला, ऋिष सा ध्यान लगा बैठा है हर मिदरा पीने वाला, मुिन कन्याओं सी मधुघट ले िफरतीं साकीबालाएँ,
िकसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४। सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला,
िोणकलश िजसको कहते थे, आज वही मधुघट आला, वेिदविहत यह रःम न छोड़ो वेदों के ठे केदारों,
युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला।।५५। वही वारूणी जो थी सागर मथकर िनकली अब हाला, रं भा की संतान जगत में कहलाती 'साकीबाला', दे व अदे व िजसे ले आए, संत महं त िमटा दें गे!
िकसमें िकतना दम खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६। कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला',
कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला', सभी जाित के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं ,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७।
ौम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला,
सबक बड़ा तुम सीख चुके यिद सीखा रहना मतवाला, व्यथर् बने जाते हो िहरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे ,
ु ठकराते िहर मंि◌दरवाले, पलक िबछाती मधुशाला।।५८। एक तरह से सबका ःवागत करती है साकीबाला,
अज्ञ िवज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला, रं क राव में भेद हआ है कभी नहीं मिदरालय में, ु
साम्यवाद की ूथम ूचारक है यह मेरी मधुशाला।।५९। बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला,
समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला, हो तो लेने दो ऐ साकी दरू ूथम संकोचों को,
मेरे ही ःवर से िफर सारी गूँज उठे गी मधुशाला।।६०। कल? कल पर िवश्वास िकया कब करता है पीनेवाला
हो सकते कल कर जड़ िजनसे िफर िफर आज उठा प्याला, आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है ,
कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुिटल की मधुशाला।।६१। आज िमला अवसर, तब िफर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हाला
आज िमला मौका, तब िफर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला, छे ड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ,
एक बार ही तो िमलनी है जीवन की यह मधुशाला।।६२।
आज सजीव बना लो, ूेयसी, अपने अधरों का प्याला,
भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला, और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ,
अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले ूणय की मधुशाला।।६३। सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कन्चन का प्याला छलक रही है िजसमं◌े मािणक रूप मधुर मादक हाला, मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हँू
जहाँ कहीं िमल बैठे हम तु
वहीं गयी हो मधुशाला।।६४।
दो िदन ही मधु मुझे िपलाकर ऊब उठी साकीबाला, भरकर अब िखसका दे ती है वह मेरे आगे प्याला, नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय िपलाना दरू हआ ु ,
अब तो कर दे ती है केवल फ़ज़र् -अदाई मधुशाला।।६५। छोटे -से जीवन में िकतना प्यार करुँ , पी लूँ हाला, आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला',
ःवागत के ही साथ िवदा की होती दे खी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।६६। क्या पीना, िनद्वर् न्द न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला, क्या जीना, िनरं ि◌चत न जब तक साथ रहे साकीबाला, खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे ,
िमलने का आनंद न दे ती िमलकर के भी मधुशाला।।६७। मुझे िपलाने को लाए हो इतनी थोड़ी-सी हाला!
मुझे िदखाने को लाए हो एक यही िछछला प्याला! इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरुँ ,
िसंधँ◌-ु तृषा दी िकसने रचकर िबंद-ु बराबर मधुशाला।।६८। क्या कहता है , रह न गई अब तेरे भाजन में हाला,
क्या कहता है , अब न चलेगी मादक प्यालों की माला, थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो शेष नहीं कुछ पीने को,
प्यास बुझाने को बुलवाकर प्यास बढ़ाती मधुशाला।।६९। िलखी भाग्य में िजतनी बस उतनी ही पाएगा हाला, िलखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,
लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,
िलखी भाग्य में जो तेरे बस वही िमलेगी मधुशाला।।७०। कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको दे ने में हाला,
ू फूटा प्याला, दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टटा मैं तो सॄ इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी,
जब न रहँू गा मैं, तब मेरी याद करे गी मधुशाला।।७१। ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ िदया जब पी हाला, गौरव भूला, आया कर में जब से िमट्टी का प्याला,
साकी की अंदाज़ भरी िझड़की में क्या अपमान धरा,
दिु नया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।।७२। क्षीण, क्षुि, क्षणभंगुर, दबर् ु ल मानव िमटटी का प्याला, भरी हई ु है िजसके अंदर कटु -मधु जीवन की हाला,
मृत्यु बनी है िनदर् य साकी अपने शत-शत कर फैला,
काल ूबल है पीनेवाला, संसिृ त है यह मधुशाला।।७३। प्याले सा गढ़ हमें िकसी ने भर दी जीवन की हाला, नशा न भाया, ढाला हमने ले लेकर मधु का प्याला, जब जीवन का ददर् उभरता उसे दबाते प्याले से,
जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।७४। अपने अंगूरों से तन में हमने भर ली है हाला,
क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला, तब तो मिदरा खूब िखंचेगी और िपएगा भी कोई,
हमें नमक की ज्वाला में भी दीख पड़े गी मधुशाला।।७५। यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूँगा पी हाला,
पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के क्या समझेगा मतवाला, बूर, कठोर, कुिटल, कुिवचारी, अन्यायी यमराजों के
डं डों की जब मार पड़े गी, आड़ करे गी मधुशाला।।७६। यिद इन अधरों से दो बातें ूेम भरी करती हाला,
यिद इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला,
हािन बता, जग, तेरी क्या है , व्यथर् मुझे बदनाम न कर, ू िदल का है बस एक िखलौना मधुशाला।।७७। मेरे टटे याद न आए दखमय जीवन इससे पी लेता हाला, ू जग िचंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला,
शौक, साध के और ःवाद के हे तु िपया जग करता है ,
पर मै वह रोगी हँू िजसकी एक दवा है मधुशाला।।७८। िगरती जाती है िदन ूितदन ूणयनी ूाणों की हाला
भग्न हआ जाता िदन ूितदन सुभगे मेरा तन प्याला, ु रूठ रहा है मुझसे रूपसी, िदन िदन यौवन का साकी
सूख रही है िदन िदन सुन्दरी, मेरी जीवन मधुशाला।।७९। यम आयेगा साकी बनकर साथ िलए काली हाला,
पी न होश में िफर आएगा सुरा-िवसुध यह मतवाला, यह अंि◌तम बेहोशी, अंितम साकी, अंितम प्याला है ,
पिथक, प्यार से पीना इसको िफर न िमलेगी मधुशाला।८०। ढलक रही है तन के घट से, संिगनी जब जीवन हाला पऽ गरल का ले जब अंितम साकी है आनेवाला,
हाथ ःपशर् भूले प्याले का, ःवाद सुरा जीव्हा भूले
कानो में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।।८१। मेरे अधरों पर हो अंितम वःतु न तुलसीदल प्याला मेरी जीव्हा पर हो अंितम वःतु न गंगाजल हाला, मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२। मेरे शव पर वह रोये, हो िजसके आंसू में हाला
आह भरे वो, जो हो सुिरभत मिदरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कान्धा िजनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३।
और िचता पर जाये उं ढे ला पऽ न ियत का, पर प्याला कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला, ूाण िूये यिद ौाध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालां◌े को बुलवा कऱ खुलवा दे ना मधुशाला।।८४। नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला
काम ढालना, और ढालना सबको मिदरा का प्याला, जाित िूये, पूछे यिद कोई कह दे ना दीवानों की
धमर् बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५। ज्ञात हआ यम आने को है ले अपनी काली हाला, ु पंि◌डत अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला, और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
िकन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६। यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला, चलने दे साकी को मेरे साथ िलए कर में प्याला,
ःवगर्, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल,
ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यिद मधुशाला।।८७। पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला, िनत्य िपलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला,
साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है ,
कैद जहाँ मैं हँू , की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।।८८।
शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर िकस उर की ज्वाला, 'और, और' की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला, िकतनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
िकतने अरमानों की बनकर कॄ खड़ी है मधुशाला।।८९। जो हाला मैं चाह रहा था, वह न िमली मुझको हाला,
जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न िमला मुझको प्याला, िजस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न िमला साकी,
िजसके पीछे था मैं पागल, हा न िमली वह मधुशाला!।९०। दे ख रहा हँू अपने आगे कब से मािणक-सी हाला, दे ख रहा हँू अपने आगे कब से कंचन का प्याला,
'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे , िकंतु रही है दरू िक्षितज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१।
कभी िनराशा का तम िघरता, िछप जाता मधु का प्याला, िछप जाती मिदरा की आभा, िछप जाती साकीबाला,
कभी उजाला आशा करके प्याला िफर चमका जाती,
आँिखमचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२। 'आ आगे' कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला,
होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला,
नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी,
बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३। हाथों में आने-आने में, हाय, िफसल जाता प्याला,
ु अधरों पर आने-आने में हाय, ढलक जाती हाला, दिनयावालो , आकर मेरी िकःमत की ख़ूबी दे खो, ु
रह-रह जाती है बस मुझको िमलते- िमलते मधुशाला।।९४। ूाप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं िफर क्यों हाला,
ूाप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं िफर क्यों प्याला, दरू न इतनी िहम्मत हारुँ , पास न इतनी पा जाऊँ,
व्यथर् मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५। िमले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला, िमले न, पर, तरसा तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला,
हाय, िनयित की िवषम लेखनी मःतक पर यह खोद गई 'दरू रहे गी मधु की धारा, पास रहे गी मधुशाला!'।९६।
मिदरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला, यत्न सिहत भरता हँू , कोई िकंतु उलट दे ता प्याला,
मानव-बल के आगे िनबर्ल भाग्य, सुना िवद्यालय में,
'भाग्य ूबल, मानव िनबर्ल' का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।९७। िकःमत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला, ढँू ढ़ रहा था मैं मृगनयनी, िकःमत में थी मृगछाला,
िकसने अपना भाग्य समझने में मुझसा धोखा खाया,
िकःमत में था अवघट मरघट, ढँू ढ़ रहा था मधुशाला।।९८। उस प्याले से प्यार मुझे जो दरू हथेली से प्याला, उस हाला से चाव मुझे जो दरू अधर से है हाला,
प्यार नहीं पा जाने में है , पाने के अरमानों में!
पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।।९९। साकी के पास है ितनक सी ौी, सुख, संिपत की हाला, सब जग है पीने को आतुर ले ले िकःमत का प्याला, रे ल ठे ल कुछ आगे बढ़ते, बहते ु रे दबकर मरते,
जीवन का संघषर् नहीं है , भीड़ भरी है मधुशाला।।१००। साकी, जब है पास तुम्हारे इतनी थोड़ी सी हाला,
क्यों पीने की अिभलषा से, करते सबको मतवाला,
हम िपस िपसकर मरते हैं , तुम िछप िछपकर मुसकाते हो, हाय, हमारी पीड़ा से है बीड़ा करती मधुशाला।।१०१।
साकी, मर खपकर यिद कोई आगे कर पाया प्याला, पी पाया केवल दो बूंदों से न अिधक तेरी हाला,
जीवन भर का, हाय, िपरौम लूट िलया दो बूंदों ने,
भोले मानव को ठगने के हे तु बनी है मधुशाला।।१०२। िजसने मुझको प्यासा रक्खा बनी रहे वह भी हाला, िजसने जीवन भर दौड़ाया बना रहे वह भी प्याला,
मतवालों की िजहवा से हैं कभी िनकलते शाप नहीं,
दखी बनाय िजसने मुझको सुखी रहे वह मधुशाला!।१०३। ु नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला,
नहीं चाहता, धक्के दे कर, छीनूँ औरों का प्याला,
साकी, मेरी ओर न दे खो मुझको ितनक मलाल नहीं,
इतना ही क्या कम आँखों से दे ख रहा हँू मधुशाला।।१०४। मद, मिदरा, मधु, हाला सुन-सुन कर ही जब हँू मतवाला, क्या गित होगी अधरों के जब नीचे आएगा प्याला, साकी, मेरे पास न आना मैं पागल हो जाऊँगा,
प्यासा ही मैं मःत, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला।।१०५। क्या मुझको आवँयकता है साकी से माँगूँ हाला,
क्या मुझको आवँयकता है साकी से चाहँू प्याला,
पीकर मिदरा मःत हआ तो प्यार िकया क्या मिदरा से! ु
मैं तो पागल हो उठता हँू सुन लेता यिद मधुशाला।।१०६। दे ने को जो मुझे कहा था दे न सकी मुझको हाला,
दे ने को जो मुझे कहा था दे न सका मुझको प्याला,
समझ मनुज की दबर् ु लता मैं कहा नहीं कुछ भी करता,
िकन्तु ःवयं ही दे ख मुझे अब शरमा जाती मधुशाला।।१०७। एक समय संतुष्ट बहत ु था पा मैं थोड़ी-सी हाला, भोला-सा था मेरा साकी, छोटा-सा मेरा प्याला,
छोटे -से इस जग की मेरे ःवगर् बलाएँ लेता था,
िवःतृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला!।१०८। बहते ु रे मिदरालय दे खे, बहते ु री दे खी हाला,
भाँित भाँित का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला, एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार िकया,
जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।१०९।
एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला, एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला, एक समय पीनेवाले, साकी आिलंगन करते थे,
आज बनी हँू िनजर्न मरघट, एक समय थी मधुशाला।।११०। जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला,
छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला, आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते,
कहो न िवरही मुझको, मैं हँू चलती िफरती मधुशाला!।१११। िकतनी जल्दी रं ग बदलती है अपना चंचल हाला,
िकतनी जल्दी िघसने लगता हाथों में आकर प्याला, िकतनी जल्दी साकी का आकषर्ण घटने लगता है ,
ूात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला।।११२। बूँद बूँद के हे तु कभी तुझको तरसाएगी हाला,
कभी हाथ से िछन जाएगा तेरा यह मादक प्याला, पीनेवाले, साकी की मीठी बातों में मत आना,
मेरे भी गुण यों ही गाती एक िदवस थी मधुशाला।।११३। छोड़ा मैंने पथ मतों को तब कहलाया मतवाला, चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा जब मैंने प्याला, अब मानी मधुशाला मेरे पीछे पीछे िफरती है ,
क्या कारण? अब छोड़ िदया है मैंने जाना मधुशाला।।११४।
यह न समझना, िपया हलाहल मैंने, जब न िमली हाला, तब मैंने खप्पर अपनाया ले सकता था जब प्याला, जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को
अपनाया जब इन चरणों में लोट रही थी मधुशाला।।११५। िकतनी आई और गई पी इस मिदरालय में हाला,
ू चुकी अब तक िकतने ही मादक प्यालों की माला, टट िकतने साकी अपना अपना काम खतम कर दरू गए, िकतने पीनेवाले आए, िकन्तु वही है मधुशाला।।११६। िकतने होठों को रक्खेगी याद भला मादक हाला,
िकतने हाथों को रक्खेगा याद भला पागल प्याला,
िकतनी शक्लों को रक्खेगा याद भला भोला साकी,
िकतने पीनेवालों में है एक अकेली मधुशाला।।११७। दर दर घूम रहा था जब मैं िचल्लाता - हाला! हाला!
मुझे न िमलता था मिदरालय, मुझे न िमलता था प्याला,
िमलन हआ था िकःमत में, ु , पर नहीं िमलनसुख िलखा हआ ु मैं अब जमकर बैठ गया हँ ◌,ू घूम रही है मधुशाला।।११८। मैं मिदरालय के अंदर हँू , मेरे हाथों में प्याला,
प्याले में मिदरालय िबंि◌बत करनेवाली है हाला,
इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया -
मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला!।११९। िकसे नहीं पीने से नाता, िकसे नहीं भाता प्याला,
इस जगती के मिदरालय में तरह-तरह की है हाला, अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते,
एक सभी का मादक साकी, एक सभी की मधुशाला।।१२०। वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,
िजसमें मैं िबंि◌बत-ूितबंि◌बत ूितपल, वह मेरा प्याला, मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मिदरा बेची जाती है ,
भेंट जहाँ मःती की िमलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१। मतवालापन हाला से ले मैंने तज दी है हाला,
पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग िदया प्याला,
साकी से िमल, साकी में िमल अपनापन मैं भूल गया,
िमल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२। मिदरालय के द्वार ठोंकता िकःमत का छं छा प्याला, गहरी, ठं डी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,
िकतनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया!
बंद हो गई िकतनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३। कहाँ गया वह ःविगर्क साकी, कहाँ गयी सुिरभत हाला,
कहँ ◌ा गया ःविपनल मिदरालय, कहाँ गया ःविणर्म प्याला! पीनेवालों ने मिदरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?
ू चुकी जब मधुशाला।।१२४। फूट चुका जब मधु का प्याला, टट अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हई ु अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हआ अपना प्याला, ु
िफर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उज्ञल्तऌ◌ार पाया अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५। 'मय' को करके शुद्ध िदया अब नाम गया उसको, 'हाला' 'मीना' को 'मधुपाऽ' िदया 'सागर' को नाम गया 'प्याला', क्यों न मौलवी चौंकें, िबचकें ितलक-िऽपुड ं ी पंि◌डत जी
'मय-मिहफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६। िकतने ममर् जता जाती है बार-बार आकर हाला,
िकतने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला, िकतने अथोर्ं को संकेतों से बतला जाता साकी,
िफर भी पीनेवालों को है एक पहे ली मधुशाला।।१२७। िजतनी िदल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला,
िजतनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला, िजतनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है ,
िजतना ही जो िरसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८। ु , बना दे मःत उन्हें मेरी हाला, िजन अधरों को छए
ू दे , कर दे िविक्षप्त उसे मेरा प्याला, िजस कर को छ◌ू आँख चार हों िजसकी मेरे साकी से दीवाना हो,
पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९। हर िजहवा पर दे खी जाएगी मेरी मादक हाला हर कर में दे खा जाएगा मेरे साकी का प्याला
हर घर में चचार् अब होगी मेरे मधुिवबेता की
हर आंगन में गमक उठे गी मेरी सुिरभत मधुशाला।।१३०। मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,
मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला, मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी दे खा,
िजसकी जैसी रुि◌च थी उसने वैसी दे खी मधुशाला।।१३१। यह मिदरालय के आँसू हैं , नहीं-नहीं मादक हाला,
यह मिदरालय की आँखें हैं , नहीं-नहीं मधु का प्याला,
िकसी समय की सुखदःमृित है साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं िकव का हृदयांगण, यह िवरहाकुल मधुशाला।।१३२। कुचल हसरतें िकतनी अपनी, हाय, बना पाया हाला,
िकतने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला! पी पीनेवाले चल दें गे, हाय, न कोई जानेगा,
िकतने मन के महल ढहे तब खड़ी हई ु यह मधुशाला!।१३३। िवश्व तुम्हारे िवषमय जीवन में ला पाएगी हाला यिद थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,
शून्य तुम्हारी घिड़याँ कुछ भी यिद यह गुंिजत कर पाई,
जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४। बड़े -बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,
िकलत कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला, मान-दलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को, ु
िवश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हँू मधुशाला।।१३५।
िपिरशष्ट से ःवयं नहीं पीता, औरों को, िकन्तु िपला दे ता हाला, ू , औरों को, पर पकड़ा दे ता प्याला, ःवयं नहीं छता पर उपदे श कुशल बहते ु रों से मैंने यह सीखा है ,
ःवयं नहीं जाता, औरों को पहंु चा दे ता मधुशाला। मैं कायःथ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहज्ञल्तऌ◌ार ूितशत हाला, पुँतैनी अिधकार मुझे है मिदरालय के आँगन पर, मेरे दादों परदादों के हाथ िबकी थी मधुशाला।
बहतों ु के िसर चार िदनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहतों ु के हाथों में दो िदन छलक झलक रीता प्याला, पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।
िपऽ पक्ष में पुऽ उठाना अध्यर् न कर में, पर प्याला बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
िकसी जगह की िमटटी भीगे, तृिप्त मुझे िमल जाएगी तपर्ण अपर्ण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।
मुझे पुकार लो इसीिलए खड़ा रहा िक तुम मुझे पुकार लो! ज़मीन है न बोलती न आसमान बोलता, जहान दे खकर मुझे नहीं जबान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी िगना गया,
कहाँ-कहाँ न िफर चुका िदमाग-िदल टटोलता,
कहाँ मनुंय है िक जो उमीद छोड़कर िजया, इसीिलए खड़ा रहा िक तुम मुझे पुकार लो
इसीिलए खड़ा रहा िक तुम मुझे पुकार लो! ितिमर-समुि कर सकी न पार नेऽ की तरी, िवनष्ट ःवप्न से लदी, िवषाद याद से भरी,
न कूल भूिम का िमला, न कोर भोर की िमली,
न कट सकी, न घट सकी िवरह-िघरी िवभावरी,
कहाँ मनुंय है िजसे कमी खली न प्यार की, इसीिलए खड़ा रहा िक तुम मुझे दलार लो! ु
इसीिलए खड़ा रहा िक तुम मुझे पुकार लो! उजाड़ से लगा चुका उमीद मैं बहार की, िनदघ से उमीद की बसंत के बयार की,
मरुःथली मरीिचका सुधामयी मुझे लगी,
अंगार से लगा चुका उमीद मै तुषार की,
कहाँ मनुंय है िजसे न भूल शूल-सी गड़ी
इसीिलए खड़ा रहा िक भूल तुम सुधार लो! इसीिलए खड़ा रहा िक तुम मुझे पुकार लो! पुकार कर दला कर सुधार लो! ु र लो, दलार ु
ूतीक्षा मधुर ूतीक्षा ही जब इतनी, िूय तुम आते तब क्या होता? मौन रात इस भांित िक जैसे, कोई गत वीण पर बज कर, अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर िसर धर
और िदशाओं से ूितध्विनयाँ, जामत सुिधयों-सी आती हैं ,
कान तुम्हारे तान कहीं से यिद सुन पाते, तब क्या होता? तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले, पर ऐसे ही वक्त ूाण मन, मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूमघूम िफरिफर से, असमंजस के क्षण िगनती हैं ,
िमलने की घिड़याँ तुम िनिश्चत, यिद कर जाते तब क्या होता? उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,
अम्बर तो मशहर ू िक सब िदन, रहता अपने होश सम्हाले,
तारों की महिफल ने अपनी आँख िबछा दी िकस आशा से, मेरे मौन कुटी को आते तुम िदख जाते तब क्या होता?
बैठ कल्पना करता हँू , पगचाप तुम्हारी मग से आती,
रगरग में चेतनता घुलकर, आँसू के कणसी झर जाती,
नमक डलीसा गल अपनापन, सागर में घुलिमलसा जाता, अपनी बाँहों में भरकर िूय, कण्ठ लगाते तब क्या होता?
रात आधी खींच कर मेरी हथेली रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उं गली से िलखा था प्यार तुमने। फ़ासला था कुछ हमारे िबःतरों में
और चारों ओर दिनया सो रही थी। ु तािरकाऐं ही गगन की जानती हैं
जो दशा िदल की तुम्हारे हो रही थी। मैं तुम्हारे पास होकर दरू तुमसे
अधजगा सा और अधसोया हआ सा। ु रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उं गली से िलखा था प्यार तुमने। एक िबजली छू गई सहसा जगा मैं
कृ ंणपक्षी चाँद िनकला था गगन में।
इस तरह करवट पड़ी थी तुम िक आँसू बह रहे थे इस नयन से उस नयन में। मैं लगा दँ ू आग इस संसार में
है प्यार िजसमें इस तरह असमथर् कातर।
जानती हो उस समय क्या कर गुज़रने के िलए था कर िदया तैयार तुमने! रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उं गली से िलखा था प्यार तुमने। ूात ही की ओर को है रात चलती औ उजाले में अंधेरा डब ू जाता। मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
खूिबयों के साथ परदे को उठाता।
एक चेहरा सा लगा तुमने िलया था और मैंने था उतारा एक चेहरा।
वो िनशा का ःवप्न मेरा था िक अपने
पर ग़ज़ब का था िकया अिधकार तुमने। रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उं गली से िलखा था प्यार तुमने। और उतने फ़ासले पर आज तक
सौ यत्न करके भी न आये िफर कभी हम। िफर न आया वक्त वैसा
िफर न मौका उस तरह का िफर न लौटा चाँद िनमर्म।
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ।
क्या नहीं ये पंिक्तयाँ खुद बोलती हैं ?
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो रख िदया था हाथ पर अंगार तुमने। रात आधी खींच कर मेरी हथेली
याऽा और याऽी साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर! चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता, चल रहा आकाश भी है
शून्य में ॅमता-ॅमाता,
पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है ,
एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर िटक न पाता,
शिक्तयाँ गित की तुझे
सब ओर से घेरे हए ु है ; ःथान से अपने तुझे
टलना पड़े गा ही, मुसािफर! साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर! थे जहाँ पर गतर् पैरों
को ज़माना ही पड़ा था, पत्थरों से पाँव के
छाले िछलाना ही पड़ा था,
घास मखमल-सी जहाँ थी मन गया था लोट सहसा,
थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था,
पग परीक्षा, पग ूलोभन ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू
इस तरफ डटना उधर
ढलना पड़े गा ही, मुसािफर; साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर! शूल कुछ ऐसे, पगो में
चेतना की ःफूितर् भरते, तेज़ चलने को िववश
करते, हमेशा जबिक गड़ते,
शुिबया उनका िक वे
पथ को रहे ूेरक बनाए,
िकन्तु कुछ ऐसे िक रुकने के िलए मजबूर करते,
और जो उत्साह का
दे ते कलेजा चीर, ऐसे कंटकों का दल तुझे
दलना पड़े गा ही, मुसािफर; साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर! सूयर् ने हँ सना भुलाया, चंिमा ने मुःकुराना,
और भूली यािमनी भी
तािरकाओं को जगाना,
एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेिकन
मत बना इसको पिथक तू बैठ जाने का बहाना,
एक कोने में हृदय के आग तेरे जग रही है , दे खने को मग तुझे
जलना पड़े गा ही, मुसािफर; साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर! वह किठन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है , साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है ;
यह मनुज की वीरता है या िक उसकी बेहयाई,
साथ ही आशा सुखों का ःवप्न लेकर झूलती है
सत्य सुिधयाँ, झूठ शायद
ःवप्न, पर चलना अगर है , झूठ से सच को तुझे
छलना पड़े गा ही, मुसािफर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर!
जो बीत गई सो बात गई ! जीवन में एक िसतारा था, माना, वह बेहद प्यारा था, वह डब ू गया तो डब ू गया; अंबर के आनन को दे खो, ू , िकतने इसके तारे टटे
ू , िकतने इसके प्यारे छटे
ू गए िफर कहाँ िमले; जो छट ू तारों पर पर बोलो टटे
कब अंबर शोक मनाता है ! जो बीत गई सो बात गई ! जीवन में वह था एक कुसुम, थे उस पर िनत्य िनछावर तुम, वह सूख गया तो सूख गया; मधुवन की छाती को दे खो, सूखीं िकतनी इसकी किलयाँ, मुरझाईं िकतनी वल्लिरयाँ
जो मुरझाईं िफर कहाँ िखलीं; पर बोलो सूखे फूलों पर कब मधुवन शोर मचाता है ; जो बीत गई सो बात गई !
जीवन में मधु का प्याला था, तुमने तन-मन दे डाला था, ू गया तो टट ू गया; वह टट
मिदरालय का आँगन दे खो, िकतने प्याले िहल जाते हैं , िगर िमट्टी में िमल जाते हैं , जो िगरते हैं कब उठते हैं ; ू प्यालों पर पर बोलो टटे
कब मिदरालय पछताता है ! जो बीत गई सो बात गई ! मृद ु िमट्टी के हैं बने हए ु , मधुघट फूटा ही करते हैं ,
लघु जीवन लेकर आए हैं , ू ही करते हैं , प्याले टटा
िफर भी मिदरालय के अंदर मधु के घट हैं , मधुप्याले हैं , जो मादकता के मारे हैं , वे मधु लूटा ही करते हैं ; वह कच्चा पीने वाला है िजसकी ममता घट-प्यालों पर, जो सच्चे मधु से जला हआ ु कब रोता है , िचल्लाता है !
जो बीत गई सो बात गई ! - हिरवंशराय बच्चन
आदशर् ूेम प्यार िकसी को करना लेिकन कहकर उसे बताना कया | अपने को अपणर् करना पर और को अपनाना क्या | गुण का माहक बनना लेिकन गाकर उसे सुनाना क्या | मन के किल्पत भावों से औरों को ॅम में लाना क्या | ले लेना सुगन्ध सुमनों की तोड़ उन्हें मुरझाना क्या | ूेम हार पहनाना लेिकन ूेम पाश फैलाना क्या | त्याग अंक में पले ूेम िशशु उनमें ःवाथर् बताना क्या | दे कर ॑दय ॑दय पाने की आशा व्यथर् लगाना क्या |
अिग्न पथ
अिग्न पथ, अिग्न पथ, अिग्न पथ ! िोक्ष हों भले खड़े , हों घने,हों बडे ़, एक पऽ-छाँह भी माँग मत, माँग मत,माँग मत! अिग्न पथ, अिग्न पथ, अिग्न पथ ! तू न थकेगा कभी! तू न थमेगा कभी! तू न मुड़ेगा कभी- कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ! अिग्न पथ, अिग्न पथ, अिग्न पथ ! यह महान िँय है चल रहा मनुंय है अौु-ःवेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ! अिग्न पथ, अिग्न पथ, अिग्न पथ !
-हिरवंश राय बच्चन
नव वषर्- हिरवंश राय बच्चन वषर् नव, हषर् नव, जीवन उत्कषर् नव नव उमंग, नव तरं ग, जीवन का नव ूसंग नवल चाह, नवल राह, जीवन का नव ूवाह गीत नवल, ूीित नवल, जीवन की रीित नवल, जीवन की नीित नवल, जीवन की जीत नवल