Vardan

  • November 2019
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  • Words: 53,106
  • Pages: 150
पेमच ंद

वर दान

1 वर दा न िवनघयाचल पवत व मधयरािि के िनिवड अनधकार मे काल दे व की भांित

खडा था। उस पर उगे हुए छोटे -छोटे वक ृ इस पकार दििगोचर होते थे, मानो

ये उसकी जटाएं है और अिभुजा दे वी का मिनदर िजसके कलश पर शेत पताकाएं वायु की मनद-मनद तरं गो मे लहरा रही थीं, उस दे व का मसतक है मंिदर मे एक ििलिमलाता हुआ दीपक था, िजसे दे खकर िकसी धुध ं ले तारे का मान हो जाता था।

अधरवािि वयतीत हो चुकी थी। चारो और भयावह सननाटा छाया हुआ

था। गंगाजी की काली तरं गे पवत व के नीचे सुखद पवाह से बह रही थीं।

उनके बहाव से एक मनोरं जक राग की धविन िनकल रही थी। ठौर-ठौर नावो पर और िकनारो के आस-पास मललाहो के चूलहो की आंच िदखायी दे ती थी।

ऐसे समय मे एक शेत वसधािरणी सी अिभुजा दे वी के सममुख हाथ बांधे

बैठी हुई थी। उसका पौढ मुखमणडल पीला था और भावो से कुलीनता पकट होती थी। उसने दे र तक िसर िुकाये रहने के पशात कहा।

‘माता! आज बीस वष व से कोई मंगलवार ऐसा नहीं गया जबिक मैने

तुमहारे चरणो पर िसर न िुकाया हो। एक िदन भी ऐसा नहीं गया जबिक

मैने तुमहारे चरणो का धयान न िकया हो। तुम जगतािरणी महारानी हो।

तुमहारी इतनी सेवा करने पर भी मेरे मन की अिभलाषा पूरी न हुई। मै तुमहे छोडकर कहां जाऊ ?’

‘माता। मैने सैकडो वत रखे, दे वताओं की उपासनाएं की’, तीथय व ाञाएं

की, परनतु मनोरथ पूरा न हुआ। तब तुमहारी शरण आयी। अब तुमहे छोडकर कहां जाऊं? तुमने सदा अपने भको की इचछाएं पूरी की है । कया मै तुमहारे दरबार से िनराश हो जाऊं?’

सुवामा इसी पकार दे र तक िवनती करती रही। अकसमात उसके िचत

पर अचेत करने वाले अनुराग का आकमण हुआ। उसकी आंखे बनद हो गयीं और कान मे धविन आयी

‘सुवामा! मै तुिसे बहुत पसनन हूं। मांग, कया मांगती है ?

2

सुवामा रोमांिचत हो गयी। उसका हदय धडकने लगा। आज बीस वषव

के पशात महारानी ने उसे दशन व िदये। वह कांपती हुई बोली ‘जो कुछ मांगग ूं ी, वह महारानी दे गी’ ? ‘हां, िमलेगा।’

‘मैने बडी तपसया की है अतएव बडा भारी वरदान मांगग ू ी।’ ‘कया लेगी कुबेर का धन’? ‘नहीं।’

‘इनद का बल।’ ‘नहीं।’

‘सरसवती की िवदा?’ ‘नहीं।’

‘ििर कया लेगी?’

‘संसार का सबसे उतम पदाथ।व’ ‘वह कया है ?’ ‘सपूत बेटा।’

‘जो कुल का नाम रोशन करे ?’ ‘नहीं।’

‘जो माता-िपता की सेवा करे ?’ ‘नहीं।’

‘जो िवदान और बलवान हो?’ ‘नहीं।’

‘ििर सपूत बेटा िकसे कहते है ?’ ‘जो अपने दे श का उपकार करे ।’

‘तेरी बुिद को धनय है । जा, तेरी इचछा पूरी होगी।’

3

2 वै राग य मुंशी शािलगाम बनारस के पुराने रईस थे। जीवन-विृत वकालत थी

और पैतक ृ समपित भी अिधक थी। दशाशमेध घाट पर उनका वैभवािनवत गह ृ आकाश को सपशव करता था। उदार ऐसे िक पचीस-तीस हजार की वािषकव आय भी वयय को पूरी न होती थी। साधु-बाहमणो के बडे शदावान थे। वे जो कुछ कमाते, वह सवयं बहमभोज और साधुओं के भंडारे एवं सतयकाय व मे

वयय हो जाता। नगर मे कोई साधु-महातमा आ जाये, वह मुंशी जी का अितिथ। संसकृ त के ऐसे िवदान िक बडे -बडे पंिडत उनका लोहा मानते थे वेदानतीय िसदानतो के वे अनुयायी थे। उनके िचत की पविृत वैरागय की ओर थी।

मुंशीजी को सवभावत: बचचो से बहुत पेम था। मुहलले-भर के बचचे

उनके पेम-वािर से अिभिसंिचत होते रहते थे। जब वे घर से िनकलते थे तब बालाको का एक दल उसके साथ होता था। एक िदन कोई पाषाण-हदय माता अपने बचवे को मार थी। लडका िबलख-िबलखकर रो रहा था। मुंशी जी से न रहा गया। दौडे , बचचे को गोद मे उठा िलया और सी के सममुख अपना िसर

िुक िदया। सी ने उस िदन से अपने लडके को न मारने की शपथ खा ली जो मनुषय दस ू रो के बालको का ऐसा सनेही हो, वह अपने बालक को िकतना पयार करे गा, सो अनुमान से बाहर है । जब से पुि पैदा हुआ, मुंशी जी संसार के सब कायो से अलग हो गये। कहीं वे लडके को िहं डोल मे िुला रहे है

और पसनन हो रहे है । कहीं वे उसे एक सुनदर सैरगाडी मे बैठाकर सवयं खींच रहे है । एक कण के िलए भी उसे अपने पास से दरू नहीं करते थे। वे बचचे के सनेह मे अपने को भूल गये थे।

सुवामा ने लडके का नाम पतापचनद रखा था। जैसा नाम था वैसे ही

उसमे गुण भी थे। वह अतयनत पितभाशाली और रपवान था। जब वह बाते

करता, सुनने वाले मुगध हो जाते। भवय ललाट दमक-दमक करता था। अंग ऐसे पुि िक िदगुण डीलवाले लडको को भी वह कुछ न समिता था। इस

अलप आयु ही मे उसका मुख-मणडल ऐसा िदवय और जानमय था िक यिद वह अचानक िकसी अपिरिचत मनुषय के सामने आकर खडा हो जाता तो वह िवसमय से ताकने लगता था।

4

इस पकार हं सते-खेलते छ: वष व वयतीत हो गये। आनंद के िदन पवन

की भांित सनन-से िनकल जाते है और पता भी नहीं चलता। वे दभ ु ागवय के

िदन और िवपित की राते है , जो काटे नहीं कटतीं। पताप को पैदा हुए अभी िकतने िदन हुए। बधाई की मनोहािरणी धविन कानो मे गूज ं रही थी छठी

वषग व ांठ आ पहुंची। छठे वष व का अंत दिुदव नो का शीगणेश था। मुंशी शािलगाम का सांसािरक समबनध केवल िदखावटी था। वह िनषकाम और

िनससमबद जीवन वयतीत करते थे। यदिप पकट वह सामानय संसारी

मनुषयो की भांित संसार के कलेशो से कलेिशत और सुखो से हिषत व दििगोचर

होते थे, तथािप उनका मन सवथ व ा उस महान और आननदपूवव शांित का सुखभोग करता था, िजस पर द :ु ख के िोको और सुख की थपिकयो का कोई पभाव नहीं पडता है ।

माघ का महीना था। पयाग मे कुमभ का मेला लगा हुआ था।

रे लगािडयो मे यािी रई की भांित भर-भरकर पयाग पहुंचाये जाते थे। अससीअससी बरस के वद ृ -िजनके िलए वषो से उठना किठन हो रहा था- लंगडाते,

लािठयां टे कते मंिजल तै करके पयागराज को जा रहे थे। बडे -बडे साधुमहातमा, िजनके दशन व ो की इचछा लोगो को िहमालय की अंधेरी गुिाओं मे

खींच ले जाती थी, उस समय गंगाजी की पिवि तरं गो से गले िमलने के िलए आये हुए थे। मुंशी शािलगाम का भी मन ललचाया। सुवाम से बोले - कल सनान है ।

सुवामा - सारा मुहलला सूना हो गया। कोई मनुषय नहीं दीखता।

मुंशी - तुम चलना सवीकार नहीं करती, नहीं तो बडा आनंद होता। ऐसा

मेला तुमने कभी नहीं दे खा होगा।

सुवामा - ऐसे मेला से मेरा जी घबराता है ।

मुंशी - मेरा जी तो नहीं मानता। जब से सुना िक सवामी परमाननद

जी आये है तब से उनके दशन व के िलए िचत उिदगन हो रहा है ।

सुवामा पहले तो उनके जाने पर सहमत न हुई, पर जब दे खा िक यह

रोके न रकेगे, तब िववश होकर मान गयी। उसी िदन मुंशी जी गयारह बजे

रात को पयागराज चले गये। चलते समय उनहोने पताप के मुख का चुमबन िकया और सी को पेम से गले लगा िलया। सुवामा ने उस समय दे खा िक उनके नेञ सजल है । उसका कलेजा धक से हो गया। जैसे चैि मास मे

काली घटाओं को दे खकर कृ षक का हदय कॉप ं ने लगता है , उसी भाती मुंशीजी 5

ने नेिो का अशप ु ूणव दे खकर सुवामा किमपत हुई। अशु की वे बूंदे वैरागय और

तयाग का अगाघ समुद थीं। दे खने मे वे जैसे ननहे जल के कण थीं , पर थीं वे िकतनी गंभीर और िवसतीण।व

उधर मुंशी जी घर के बाहर िनकले और इधर सुवामा ने एक ठं डी

शास ली। िकसी ने उसके हदय मे यह कहा िक अब तुिे अपने पित के दशन व न होगे। एक िदन बीता, दो िदन बीते, चौथा िदन आया और रात हो

गयी, यहा तक िक पूरा सपाह बीत गया, पर मुंशी जी न आये। तब तो

सुवामा को आकुलता होने लगी। तार िदये, आदमी दौडाये, पर कुछ पता न चला। दस ू रा सपाह भी इसी पयत मे समाप हो गया। मुंशी जी के लौटने की

जो कुछ आशा शेष थी, वह सब िमटटी मे िमल गयी। मुंशी जी का अदशय

होना उनके कुटु मब माि के िलए ही नहीं, वरन सारे नगर के िलए एक शोकपूण व घटना थी। हाटो मे दक व चारो और यही ु ानो पर, हथाइयो मे अथात

वाताल व ाप होता था। जो सुनता, वही शोक करता- कया धनी, कया िनधन व । यह शौक सबको था। उसके कारण चारो और उतसाह िैला रहता था। अब एक

उदासी छा गयी। िजन गिलयो से वे बालको का िुणड लेकर िनकलते थे, वहां

अब धूल उड रही थी। बचचे बराबर उनके पास आने के िलए रोते और हठ करते थे। उन बेचारो को यह सुध कहां थी िक अब पमोद सभा भंग हो गयी

है । उनकी माताएं ऑच ं ल से मुख ढांप-ढांपकर रोतीं मानो उनका सगा पेमी मर गया है ।

वैसे तो मुंशी जी के गुप हो जाने का रोना सभी रोते थे। परनतु सब

से गाढे आंसू, उन आढितयो और महाजनो के नेिो से िगरते थे, िजनके लेनेदे ने का लेखा अभी नहीं हुआ था। उनहोने दस-बारह िदन जैसे-जैसे करके

काटे , पशात एक-एक करके लेखा के पि िदखाने लगे। िकसी बहनभोज मे सौ

रपये का घी आया है और मूलय नहीं िदया गया। कही से दो-सौ का मैदा आया हुआ है । बजाज का सहसो का लेखा है । मिनदर बनवाते समय एक

महाजन के बीस सहस ऋण िलया था, वह अभी वैसे ही पडा हुआ है लेखा की तो यह दशा थी। सामगी की यह दशा िक एक उतम गह ृ और

ततसमबिनधनी सामिगयो के अितिरक कोई वसत न थी, िजससे कोई बडी

रकम खडी हो सके। भू-समपित बेचने के अितिरक अनय कोई उपाय न था, िजससे धन पाप करके ऋण चुकाया जाए। 6

बेचारी सुवामा िसर नीचा िकए हुए चटाई पर बैठी थी और पतापचनद

अपने लकडी के घोडे पर सवार आंगन मे टख-टख कर रहा था िक पिणडत मोटे राम शासी - जो कुल के पुरोिहत थे - मुसकराते हुए भीतर आये। उनहे

पसनन दे खकर िनराश सुवामा चौककर उठ बैठी िक शायद यह कोई शुभ

समाचार लाये है । उनके िलए आसन िबछा िदया और आशा-भरी दिि से दे खने लगी। पिणडतजी आसान पर बैठे और सुंघनी सूंघते हुए बोले तुमने महाजनो का लेखा दे खा?

सुवामा ने िनराशापूणव शबदो मे कहा-हां, दे खा तो।

मोटे राम-रकम बडी गहरी है । मुंशीजी ने आगा-पीछा कुछ न सोचा,

अपने यहां कुछ िहसाब-िकताब न रखा।

सुवामा-हां अब तो यह रकम गहरी है , नहीं तो इतने रपये कया, एक-

एक भोज मे उठ गये है ।

मोटे राम-सब िदन समान नहीं बीतते।

सुवामा-अब तो जो ईशर करे गा सो होगा, कया कर सकती हूं। है ?

मोटे राम- हां ईशर की इचछा तो मूल ही है , मगर तुमने भी कुछ सोचा सुवामा-हां गांव बेच डालूंगी।

मोटे राम-राम-राम। यह कया कहती हो ? भूिम िबक गयी, तो ििर बात

कया रह जायेगी?

मोटे राम- भला, पथ ृ वी हाथ से िनकल गयी, तो तुम लोगो का जीवन

िनवाह व कैसे होगा?

सुवामा-हमारा ईशर मािलक है । वही बेडा पार करे गा।

मोटे राम यह तो बडे अिसोस की बात होगी िक ऐसे उपकारी पुरष के

लडके-बाले द ु:ख भोगे।

सुवामा-ईशर की यही इचछा है , तो िकसी का कया बस?

मोटे राम-भला, मै एक युिक बता दं ू िक सांप भी मर जाए और लाठी

भी न टू टे ।

सुवामा- हां, बतलाइए बडा उपकार होगा।

मोटे राम-पहले तो एक दरखवासत िलखवाकर कलकटर सािहब को दे दो

िक मालगुलारी माि की जाये। बाकी रपये का बनदोबसत हमारे ऊपर छोड दो। हम जो चाहे गे करे गे, परनतु इलाके पर आंच ना आने पायेगी। 7

सुवामा-कुछ पकट भी तो हो, आप इतने रपये कहां से लायेगी?

मोटे राम- तुमहारे िलए रपये की कया कमी है ? मुंशी जी के नाम पर

िबना िलखा-पढी के पचास हजार रपये का बनदोसत हो जाना कोई बडी बात नहीं है । सच तो यह है िक रपया रखा हुआ है , तुमहारे मुंह से ‘हां’ िनकलने की दे री है ।

सुवामा- नगर के भद-पुरषो ने एकि िकया होगा?

मोटे राम- हां, बात-की-बात मे रपया एकि हो गया। साहब का इशारा

बहुत था।

सुवामा-कर-मुिक के िलए पाथन व ा-पञ मुिसे न िलखवाया जाएगा और

मै अपने सवामी के नाम ऋण ही लेना चाहती हूं। मै सबका एक-एक पैसा अपने गांवो ही से चुका दंग ू ी।

यह कहकर सुवामा ने रखाई से मुंह िेर िलया और उसके पीले तथा

शोकािनवत बदन पर कोध-सा िलकने लगा। मोटे राम ने दे खा िक बात िबगडना चाहती है , तो संभलकर बोले- अचछा, जैसे तुमहारी इचछा। इसमे कोई

जबरदसती नहीं है । मगर यिद हमने तुमको िकसी पकार का द ु:ख उठाते दे खा, तो उस िदन पलय हो जायेगा। बस, इतना समि लो।

सुवामा-तो आप कया यह चाहते है िक मै अपने पित के नाम पर

दस ू रो की कृ तजता का भार रखूं? मै इसी घर मे जल मरं गी, अनशन करतेकरते मर जाऊंगी, पर िकसी की उपकृ त न बनूग ं ी।

मोटे राम-िछ:िछ:। तुमहारे ऊपर िनहोरा कौन कर सकता है ? कैसी बात

मुख से िनकालती है ? ऋण लेने मे कोई लाज नहीं है । कौन रईस है िजस पर लाख दो-लाख का ऋण न हो?

सुवामा- मुिे िवशास नहीं होता िक इस ऋण मे िनहोरा है ।

मोटे राम- सुवामा, तुमहारी बुिद कहां गयी? भला, सब पकार के द :ु ख उठा

लोगी पर कया तुमहे इस बालक पर दया नहीं आती?

मोटे राम की यह चोट बहुत कडी लगी। सुवामा सजलनयना हो गई।

उसने पुि की ओर करणा-भरी दिि से दे खा। इस बचचे के िलए मैने कौनकौन सी तपसया नहीं की? कया उसके भागय मे द ु:ख ही बदा है । जो अमोला

जलवायु के पखर िोको से बचाता जाता था, िजस पर सूयव की पचणड िकरणे

न पडने पाती थीं, जो सनेह-सुधा से अभी िसंिचत रहता था, कया वह आज

इस जलती हुई धूप और इस आग की लपट मे मुरिायेगा? सुवामा कई 8

िमनट तक इसी िचनता मे बैठी रही। मोटे राम मन-ही-मन पसनन हो रहे थे

िक अब सिलीभूत हुआ। इतने मे सुवामा ने िसर उठाकर कहा-िजसके िपता

ने लाखो को िजलाया-िखलाया, वह दस ू रो का आिशत नहीं बन सकता। यिद िपता का धम व उसका सहायक होगा, तो सवयं दस को िखलाकर खायेगा।

लडके को बुलाते हुए ‘बेटा। तिनक यहां आओ। कल से तुमहारी िमठाई, दध ू , घी सब बनद हो जायेगे। रोओगे तो नहीं?’ यह कहकर उसने बेटे को पयार से बैठा िलया और उसके गुलाबी गालो का पसीना पोछकर चुमबन कर िलया।

पताप- कया कहा? कल से िमठाई बनद होगी? कयो कया हलवाई की

दक ु ान पर िमठाई नहीं है ?

सुवामा-िमठाई तो है , पर उसका रपया कौन दे गा?

पताप- हम बडे होगे, तो उसको बहुत-सा रपया दे गे। चल, टख। टख।

दे ख मां, कैसा तेज घोडा है ।

सुवामा की आंखो मे ििर जल भर आया। ‘हा हनत। इस सौनदय व और

सुकुमारता की मूित व पर अभी से दिरदता की आपितयां आ जायेगी। नहीं नहीं, मै सवयं सब भोग लूंगी। परनतु अपने पाण-पयारे बचचे के ऊपर आपित की परछाहीं तक न आने दंग ू ी।’ माता तो यह सोच रही थी और पताप अपने

हठी और मुंहजोर घोडे पर चढने मे पूण व शिक से लीन हो रहा था। बचचे मन के राजा होते है ।

अिभपाय यह िक मोटे राम ने बहुत जाल िैलाया। िविवध पकार का

वाकचातुय व िदखलाया, परनतु सुवामा ने एक बार ‘नहीं करके ‘हां’ न की।

उसकी इस आतमरका का समाचार िजसने सुना, धनय-धनय कहा। लोगो के मन मे उसकी पितिा दन ू ी हो गयी। उसने वही िकया, जो ऐसे संतोषपूणव और उदार-हदय मनुषय की सी को करना उिचत था।

इसके पनदहवे िदन इलाका नीलामा पर चढा। पचास सहस रपये पाप

हुए कुल ऋण चुका िदया गया। घर का अनावशयक सामान बेच िदया गया।

मकान मे भी सुवामा ने भीतर से ऊंची-ऊंची दीवारे िखंचवा कर दो अलगअलग खणड कर िदये। एक मे आप रहने लगी और दस ू रा भाडे पर उठा िदया।

9

3 नये प डो िस यो से मेल -जोल मुंशी संजीवनलाल, िजनहोने सुवाम का घर भाडे पर िलया था, बडे

िवचारशील मनुषय थे। पहले एक पितिित पद पर िनयुक थे, िकनतु अपनी सवतंि इचछा के कारण अिसरो को पसनन न रख सके। यहां तक िक

उनकी रिता से िववश होकर इसतीिा दे िदया। नौकर के समय मे कुछ

पूंजी एकि कर ली थी, इसिलए नौकरी छोडते ही वे ठे केदारी की ओर पवत ृ हुए और उनहोने पिरशम दारा अलपकाल मे ही अचछी समपित बना ली। इस समय उनकी आय चार-पांच सौ मािसक से कम न थी। उनहोने कुछ ऐसी

अनुभवशािलनी बुिद पायी थी िक िजस काय व मे हाथ डालते, उसमे लाभ छोड हािन न होती थी।

मुंशी संजीवनलाल का कुटु मब बडा न था। सनताने तो ईशर ने कई दीं,

पर इस समय माता-िपता के नयनो की पुतली केवल एक पुञी ही थी। उसका नाम वज ृ रानी था। वही दमपित का जीवनाशाम थी।

पतापचनद और वज ृ रानी मे पहले ही िदन से मैिी आरं भ हा गयी।

आधे घंटे मे दोनो िचिडयो की भांित चहकने लगे। िवरजन ने अपनी गुिडया,

िखलौने और बाजे िदखाये, पतापचनद ने अपनी िकताबे, लेखनी और िचि िदखाये। िवरजन की माता सुशीला ने पतापचनद को गोद मे ले िलया और

पयार िकया। उस िदन से वह िनतय संधया को आता और दोनो साथ-साथ खेलते। ऐसा पतीत होता था िक दोनो भाई-बिहन है । सुशीला दोनो बालको को गोद मे बैठाती और पयार करती। घंटो टकटकी लगाये दोनो बचचो को दे खा करती, िवरजन भी कभी-कभी पताप के घर जाती। िवपित की मारी

सुवामा उसे दे खकर अपना द ु:ख भूल जाती, छाती से लगा लेती और उसकी भोली-भाली बाते सुनकर अपना मन बहलाती।

एक िदन मुंशी संजीवनलाल बाहर से आये तो कया दे खते है िक पताप

और िवरजन दोनो दफतर मे कुिसय व ो पर बैठे है । पताप कोई पुसतक पढ रहा

है और िवरजन धयान लगाये सुन रही है । दोनो ने जयो ही मुंशीजी को दे खा उठ खडे हुए। िवरजन तो दौडकर िपता की गोद मे जा बैठी और पताप िसर

नीचा करके एक ओर खडा हो गया। कैसा गुणवान बालक था। आयु अभी आठ वष व से अिधक न थी, परनतु लकण से भावी पितभा िलक रही थी। 10

िदवय मुखमणडल, पतले-पतले लाल-लाल अधर, तीव िचतवन, काले-काले भमर के समान बाल उस पर सवचछ कपडे मुंशी जी ने कहा- यहां आओ, पताप।

पताप धीरे -धीरे कुछ िहचिकचाता-सकुचाता समीप आया। मुंशी जी ने

िपतव ृ त ् पेम से उसे गोद मे बैठा िलया और पूछा- तुम अभी कौन-सी िकताब पढ रहे थे।

पताप बोलने ही को था िक िवरजन बोल उठी- बाबा। अचछी-अचछी

कहािनयां थीं। कयो बाबा। कया पहले िचिडयां भी हमारी भांित बोला करती थीं।

मुंशी जी मुसकराकर बोले-हां। वे खूब बोलती थीं।

अभी उनके मुंह से पूरी बात भी न िनकलने पायी थी िक पताप

िजसका संकोच अब गायब हो चला था, बोला- नहीं िवरजन तुमहे भुलाते है ये कहािनया बनायी हुई है ।

मुंशी जी इस िनभीकतापूणव खणडन पर खूब हं से।

अब तो पताप तोते की भांित चहकने लगा-सकूल इतना बडा है िक

नगर भर के लोग उसमे बैठ जाये। दीवारे इतनी ऊंची है , जैसे ताड। बलदे व पसाद ने जो गेद मे िहट लगायी, तो वह आकाश मे चला गया। बडे मासटर साहब की मेज पर हरी-हरी बनात िबछी हुई है । उस पर िूलो से भरे िगलास रखे है । गंगाजी का पानी नीला है । ऐसे जोर से बहता है िक बीच मे पहाड

भी हो तो बह जाये। वहां एक साधु बाबा है । रे ल दौडती है सन-सन। उसका इं िजन बोलता है िक-िक। इं िजन मे भाप होती है , उसी के जोर से गाडी चलती है । गाडी के साथ पेड भी दौडते िदखायी दे ते है ।

इस भांित िकतनी ही बाते पताप ने अपनी भोली-भाली बोली मे कहीं

िवरजन िचि की भांित चुपचाप बैठी सुन रही थी। रे ल पर वह भी दो-तीन बार सवार हुई थी। परनतु उसे आज तक यह जात न था िक उसे िकसने बनाया और वह कयो कर चलती है । दो बार उसने गुरजी से यह पश िकया

भी था परनतु उनहोने यही कह कर टाल िदया िक बचचा, ईशर की मिहमा कोई बडा भारी और बलवान घोडा है , जो इतनी गािडयो को सन-सन खींचे।

िलए जाता है । जब पताप चुप हुआ तो िवरजन ने िपता के गले हाथ डालकर कहा-बाबा। हम भी पताप की िकताब पढे गे।

मुंशी-बेटी, तुम तो संसकृ त पढती हो, यह तो भाषा है । 11

िवरजन-तो मै भी भाषा ही पढू ं गी। इसमे कैसी अचछी-अचछी कहािनयां

है । मेरी िकताब मे तो भी कहानी नहीं। कयो बाबा, पढना िकसे कहते है ?

मुंशी जी बंगले िांकने लगे। उनहोने आज तक आप ही कभी धयान

नही िदया था िक पढना कया वसतु है । अभी वे माथ ही खुजला रहे थे िक पताप बोल उठा- मुिे पढते दे खा, उसी को पढना कहते है ।

िवरजन- कया मै नहीं पढती? मेरे पढने को पढना नहीं कहते?

िवरजन िसदानत कौमुदी पढ रही थी, पताप ने कहा-तुम तोते की भांित

रटती हो।

12

एकता का

4 सम बनध पु ि हो ता है

कुछ काल से सुवामा ने दवयाभाव के कारण महारािजन, कहार और दो

महिरयो को जवाब दे िदया था कयोिक अब न तो उसकी कोई आवशयकता

थी और न उनका वयय ही संभाले संभलता था। केवल एक बुिढया महरी शेष रह गयी थी। ऊपर का काम-काज वह करती रसोई सुवामा सवयं बना लेगी। परनतु उस बेचारी को ऐसे किठन पिरशम का अभयास तो कभी था नहीं, थोडे

ही िदनो मे उसे थकान के कारण रात को कुछ जवर रहने लगा। धीरे -धीरे

यह गित हुई िक जब दे खे जवर िवदमान है । शरीर भुना जाता है , न खाने की इचछा है न पीने की। िकसी काय व मे मन नहीं लगता। पर यह है िक सदै व िनयम के अनुसार काम िकये जाती है । जब तक पताप घर रहता है

तब तक वह मुखाकृ ित को तिनक भी मिलन नहीं होने दे ती परनतु जयो ही

वह सकूल चला जाता है , तयो ही वह चदर ओढकर पडी रहती है और िदनभर पडे -पडे कराहा करती है ।

पताप बुिदमान लडका था। माता की दशा पितिदन िबगडती हुई

दे खकर ताड गया िक यह बीमार है । एक िदन सकूल से लौटा तो सीधा अपने घर गया। बेटे को दे खते ही सुवामा ने उठ बैठने का पयत िकया पर

िनबल व ता के कारण मूछा व आ गयी और हाथ-पांव अकड गये। पताप ने उसं

संभाला और उसकी और भतसन व ा की दिि से दे खकर कहा-अममा तुम आजकल बीमार हो कया? इतनी दब ु ली कयो हो गयी हो? दे खो, तुमहारा शरीर िकतना गमव है । हाथ नहीं रखा जाता।

सुवाम ने हं सने का उदोग िकया। अपनी बीमारी का पिरचय दे कर बेटे

को कैसे कि दे ? यह िन:सपह ृ और िन:सवाथ व पेम की पराकािा है । सवर को हलका करके बोली नहीं बेटा बीमार तो नहीं हूं। आज कुछ जवर हो आया

था, संधया तक चंगी हो जाऊंगी। आलमारी मे हलुवा रखा हुआ है िनकाल लो। नहीं, तुम आओ बैठो, मै ही िनकाल दे ती हूं।

पताप-माता, तुम मुि से बहाना करती हो। तुम अवशय बीमार हो। एक

िदन मे कोई इतना दब व हो जाता है ? ु ल

सुवाता- (हं सकर) कया तुमहारे दे खने मे मै दब ु ली हो गयी हूं। पताप- मै डॉकटर साहब के पास जाता हूं। 13

सुवामा- (पताप का हाथ पकडकर) तुम कया जानो िक वे कहां रहते है ? ताप- पूछते-पूछते चला जाऊंगा।

सुवामा कुछ और कहना चाहती थी िक उसे ििर चककर आ गया।

उसकी आंखे पथरा गयीं। पताप उसकी यह दशा दे खते ही डर गया। उससे

और कुछ तो न हो सका, वह दौडकर िवरजन के दार पर आया और खडा होकर रोने लगा।

पितिदन वह इस समय तक िवरजन के घर पहुंच जाता था। आज जो

दे र हुई तो वह अकुलायी हुई इधर-उधर दे ख रही थी। अकसमात दार पर

िांकने आयी, तो पताप को दोनो हाथो से मुख ढांके हुए दे खा। पहले तो समिी िक इसने हं सी से मुख िछपा रखा है । जब उसने हाथ हटाये तो आंसू दीख पडे । चौककर बोली- लललू कयो रोते हो? बता दो।

पताप ने कुछ उतर न िदया, वरन ् और िससकने लगा।

िवरजन बोली- न बताओगे! कया चाची ने कुछ कहा ? जाओ, तुम चुप नही होते।

पताप ने कहा- नहीं, िवरजन, मां बहुत बीमार है ।

यह सुनते ही वज ृ रानी दौडी और एक सांस मे सुवामा के िसरहाने जा

खडी हुई। दे खा तो वह सुनन पडी हुई है , आंखे मुंद हुई है और लमबी सांसे ले रही है । उनका हाथ थाम कर िवरजन ििंिोडने आंखे खोलो, कैसा जी है ?

लगी- चाची, कैसी जी है ,

परनतु चाची ने आंखे न खोलीं। तब वह ताक पर से तेल उतारकर

सुवाम के िसर पर धीरे -धीरे मलने लगी। उस बेचारी को िसर मे महीनो से तेल डालने का अवसर न िमला था, ठणडक पहुंची तो आंखे खुल गयीं। िवरजन- चाची, कैसा जी है ? कहीं ददव तो नहीं है ?

सुवामा- नहीं, बेटी ददव कहीं नहीं है । अब मै िबलकुल अचछी हूं। भैया

कहां है ?

िवरजन-वह तो मेर घर है , बहुत रो रहे है ।

सुवामा- तुम जाओ, उसके साथ खेलो, अब मै िबलकुल अचछी हूं।

अभी ये बाते हो रही थीं िक सुशीला का भी शुभागमन हुआ। उसे

सुवाम से िमलने की तो बहुत िदनो से उतकिा थी, परनतु कोई अवसर न िमलता था। इस समय वह सातवना दे ने के बहाने आ पहुंची।िवरजन ने 14

अपन माता को दे खा तो उछल पडी और ताली बजा-बजाकर कहने लगी- मां आयी, मां आयी।

दोनो सीयो मे िशिाचार की बाते होने लगीं। बातो-बातो मे दीपक जल

उठा। िकसी को धयान भी न हुआिक पताप कहां है । थोड दे र तक तो वह

दार पर खडा रोता रहा,ििर िटपट आंखे पोछकर डॉकटर िकचलू के घर की

ओर लपकता हुआ चला। डॉकटर साहब मुंशी शािलगाम के िमञो मे से थे। और जब कभी का पडता, तो वे ही बुलाये जाते थे। पताप को केवल इतना

िविदत था िक वे बरना नदी के िकनारे लाल बंगल मे रहते है । उसे अब तक अपने मुहलले से बाहर िनकलने का कभी अवसर न पडा था। परनतु उस

समय मात ृ भकी के वेग से उिदगन होने के कारण उसे इन रकावटो का कुछ

भी धयान न हुआ। घर से िनकलकर बाजार मे आया और एक इककेवान से

बोला-लाल बंगल चलोगे? लाल बंगला पसाद सथान था। इककावान तैयार हो गया। आठ बजते-बजते डॉकटर साहब की ििटन सुवामा के दार पर आ पहुंची। यहां इस समय चारो ओर उसकी खोज हो रही थी िक अचानक वह

सवेग पैर बढाता हुआ भीतर गया और बोला-पदा व करो। डॉकटर साहब आते है ।

सुवामा और सुशीला दोनो चौक पडी। समि गयीं, यह डॉकटर साहब

को बुलाने गया था। सुवामा ने पेमािधकय से उसे गोदी मे बैठा िलया डर नहीं लगा? हमको बताया भी नहीं यो ही चले गये? तुम खो जाते तो मै कया

करती? ऐसा लाल कहां पाती? यह कहकर उसने बेटे को बार-बार चूम िलया। पताप इतना पसनन था, मानो परीका मे उतीण व हो गया। थोडी दे र मे पदाव

हुआ और डॉकटर साहब आये। उनहोने सुवामा की नाडी दे खी और सांतवना दी। वे पताप को गोद मे बैठाकर बाते करते रहे । औषिधयॉ साथ ले आये थे। उसे िपलाने की सममित दे कर नौ बजे बंगले को लौट गये। परनतु जीणज व वर

था, अतएव पूरे मास-भर सुवामा को कडवी-कडवी औषिधयां खानी पडी।

डॉकटर साहब दोनो वक आते और ऐसी कृ पा और धयान रखते, मानो सुवामा उनकी बिहन है । एक बार सुवाम ने डरते-डरते िीस के रपये एक पाि मे

रखकर सामने रखे। पर डॉकटर साहब ने उनहे हाथ तक न लगाया। केवल

इतना कहा-इनहे मेरी ओर से पताप को दे दीिजएगा, वह पैदल सकूल जाता है , पैरगाडी मोल ले लेगा।

15

िवरजन और उनकी माता दोनो सुवामा की शुशष ू ा के िलए उपिसथत

रहतीं। माता चाहे िवलमब भी कर जाए, परनतु िवरजन वहां से एक कण के िलए भी न टलती। दवा िपलाती, पान दे ती जब सुवामा का जी अचछा होता

तो वह भोली-भोली बातो दारा उसका मन बहलाती। खेलना-कूदना सब छूट गया। जब सुवाम बहुत हठ करती तो पताप के संग बाग मे खेलने चली

जाती। दीपक जलते ही ििर आ बैठती और जब तक िनदा के मारे िुक-िुक न पडती, वहां से उठने का नाम न लेती वरन पाय: वहीं सो जाती, रात को नौकर गोद मे उठाकर घर ले जाता। न जाने उसे कौन-सी धुन सवार हो गयी थी।

एक िदन वज ृ रानी सुवामा के िसरहाने बैठी पंखा िल रही थी। न जाने

िकस धयान मे मगन थी। आंखे दीवार की ओर लगी हुई थीं। और िजस

पकार वक ृ ो पर कौमुदी लहराती है , उसी भांित भीनी-भीनी मुसकान उसके अधरो पर लहरा रही थी। उसे कुछ भी धयान न था िक चाची मेरी और दे ख रही है । अचानक उसके हाथ से पंखा छूट गया। जयो ही वह उसको उठाने के

िलए िुकी िक सुवामा ने उसे गले लगा िलया। और पुचकार कर पूछािवरजन, सतय कहो, तुम अभी कया सोच रही थी?

िवरजन ने माथा िुका िलया और कुछ लिजजत होकर कहा- कुछ नहीं,

तुमको न बतलाऊंगी।

सूवामा- मेरी अचछी िवरजन। बता तो कया सोचती थी?

िवरजन-(लजाते हुए) सोचती थी िक.....जाओ हं सो मत......न बतलाऊंगी।

सुवामा-अचछा ले, न हसूंगी, बताओ। ले यही तो अब अचछा नही

लगता, ििर मै आंखे मूंद लूंगी।

िवरजन-िकस से कहोगी तो नहीं? सुवामा- नहीं, िकसी से न कहूंगी।

िवरजन-सोचती थी िक जब पताप से मेरा िववाह हो जायेगा, तब बडे

आननद से रहूंगी। हे ।

सुवामा ने उसे छाती से लगा िलया और कहा- बेटी, वह तो तेरा भाई िवरजन- हां भाई है । मै जान गई। तुम मुिे बहू न बनाओगी।

सुवामा- आज लललू को आने दो, उससे पूछूँ दे खूं कया कहता है ? िवरजन- नहीं, नहीं, उनसे न कहना मै तुमहारे पैरो पडू ं । 16

सुवामा- मै तो कह दंग ू ी।

िवरजन- तुमहे हमारी कसम, उनसे न कहना।

17

5 िश ि-जीव न के दशय िदन जाते दे र नहीं लगती। दो वष व वयतीत हो गये। पिणडत मोटे राम

िनतय पात: काल आत और िसदानत-कोमुदी पढाते, परनत अब उनका आना

केवल िनयम पालने के हे तु ही था, कयोिक इस पुसतक के पढन मे अब िवरजन का जी न लगता था। एक िदन मुंशी जी इं जीिनयर के दितर से आये। कमरे मे बैठे थे। नौकर जूत का िीता खोल रहा था िक रिधया महर

मुसकराती हुई घर मे से िनकली और उनके हाथ मे मुह छाप लगा हुआ

िलिािा रख, मुंह िेर हं सने लगी। िसरना पर िलखा हुआ था-शीमान बाबा साह की सेवा मे पाप हो।

मुंशी-अरे , तू िकसका िलिािा ले आयी ? यह मेर नहीं है । महरी- सरकार ही का तो है , खोले तो आप।

मुंशी-िकसने हुई बोली- आप खालेगे तो पता चल जायेगा।

मुंशी जी ने िविसमत होकर िलिािा खोला। उसमे से जो पञ-िनकला

उसमे यह िलखा हुआ था-

बाबा को िवरजन क पमाण और पालागन पहुंचे। यहां आपकी कृ पा से

कुशल-मंगल है आपका कुशल शी िवशनाथजी से सदा मनाया करती हूं। मैने पताप से भाषा सीख ली। वे सकूल से आकर संधया को मुिे िनतय पढाते है । अब आप हमारे िलए अचछी-अचछी पुसतके लाइए, कयोिक

पढना ही जी का

सुख है और िवदा अमूलय वसतु है । वेद-पुराण मे इसका महातमय िलखा है । मनुषय को चािहए िक िवदा-धन तन-मन से एकञ करे । िवदा से सब दख ु

हो जाते है । मैने कल बैताल-पचीस की कहानी चाची को सुनायी थी। उनहोने मुिे एक सुनदर गुिडया पुरसकार मे दी है । बहुत अचछी है । मै उसका िववाह

करं गी, तब आपसे रपये लूग ं ी। मै अब पिणडतजी से न पढू ं गी। मां नहीं जानती िक मै भाषा पढती हूं।

आपकी पयारी

िवरजन

पशिसत दे खते ही मुंशी जी के अनत: करण मे गुदगुद होने लगी।ििर

तो उनहोने एक ही सांस मे भारी िचटठी पढ डाली। मारे आननद के हं सते 18

हुए नंगे-पांव भीतर दौडे । पताप को गोद मे उठा िलया और ििर दोनो बचचो

का हाथ पकडे हुए सुशीला के पास गये। उसे िचटठी िदखाकर कहा-बूिो िकसी िचटठी है ?

सुशीला-लाओ, हाथ मे दो, दे खूं।

मुंशी जी-नहीं, वहीं से बैठी-बैठी बताओ जलदी। सुशीला-बूि ् जाऊं तो कया दोगे?

मुंशी जी-पचास रपये, दध ू के धोये हुए।

सुशीला- पिहले रपये िनकालकर रख दो, नहीं तो मुकर जाओगे।

मुंशी जी- मुकरने वाले को कुछ कहता हूं, अभी रपये लो। ऐसा कोई

टु टपुिँ जया समि िलया है ?

यह कहकर दस रपये का एक नोट जेसे िनकालकर िदखाया। सुशीला- िकतने का नोट है ?

मुंशीजी- पचास रपये का, हाथ से लेकर दे ख लो। सुशीला- ले लूग ं ी, कहे दे ती हूं।

मुंशीजी- हां-हां, ले लेना, पहले बता तो सही।

सुशीला- लललू का है लाइये नोट, अब मै न मानूंगी। यह कहकर उठी

और मुंशीजी का हाथ थाम िलया।

मुंशीजी- ऐसा कया डकैती है ? नोट छीने लेती हो।

सुशीला- वचन नहीं िदया था? अभी से िवचलने लगे। मुंशीजी- तुमने बूिा भी, सवथ व ा भम मे पड गयीं।

सुशीला- चलो-चलो, बहाना करते हो, नोट हडपन की इचछा है । कयो

लललू, तुमहारी ही िचटठी है न?

पताप नीची दिि से मुंशीजी की ओर दे खकर धीरे -से बोला-मैने कहां

िलखी?

मुंशीजी- लजाओ, लजाओ।

हो।

सुशीला- वह िूठ बोलता है । उसी की िचटठी है , तुम लोग गँठकर आये पताप-मेरी िचटठी नहीं है , सच। िवरजन ने िलखी है ।

सुशीला चिकत होकर बोली- िवजरन की? ििर उसने दौडकर पित के

हाथ से िचटठी छीन ली और भौचककी होकर उसे दे खने लगी, परनतु अब भी िवशास आया।िवरजन से पूछा- कये बेटी, यह तुमहारी िलखी है ? 19

िवरजन ने िसर िुकाकर कहा-हां।

यह सुनते ही माता ने उसे कि से लगा िलया।

अब आज से िवरजन की यह दशा हो गयी िक जब दे िखए लेखनी

िलए हुए पनने काले कर रही है । घर के धनधो से तो उस पहले ही कुछ

पयोज न था, िलखने का आना सोने मे सोहागा हो गया। माता उसकी

तललीनता दे ख-दे खकर पमुिदत होती िपता हष व से िूला न समाता, िनतय नवीन पुसतके लाता िक िवरजन सयानी होगी, तो पढे गी। यिद कभी वह

अपने पांव धो लेती, या भोजन करके अपने ही हाथ धोने लगती तो माता महिरयो पर बहुत कुद होती-आंखे िूट गयी है । चबी छा गई है । वह अपने हाथ से पानी उं डे ल रही है और तुम खडी मुह ं ताकती हो।

इसी पकार काल बीतता चला गया, िवरजन का बारहवां वष व पूण व हुआ,

परनतु अभी तक उसे चावल उबालना तक न आता था। चूलहे के सामने बैठन का कभी अवसर ही न आया। सुवामा ने एक िदन उसकी माता ने कहा- बिहन िवरजन सयानी हुई, कया कुछ गुन-ढं ग िसखाओगी।

सुशीला-कया कहूं, जी तो चाहता है िक लगगा लगाऊं परनतु कुछ

सोचकर रक जाती हूं।

सुवामा-कया सोचकर रक जाती हो ?

सुशीला-कुछ नहीं आलस आ जाता है ।

सुवामा-तो यह काम मुिे सौप दो। भोजन बनाना स ्िियो के िलए

सबसे आवशयक बात है ।

सुशीला-अभी चूलहे के सामन उससे बैठा न जायेगा। सुवामा-काम करने से ही आता है ।

सुशीला-(िेपते हुए) िूल-से गाल कुमहला जायेगे।

सुवामा- (हं सकर) िबना िूल के मुरिाये कहीं िल लगते है ?

दस ू रे िदन से िवरजन भोजन बनाने लगी। पहले दस-पांच िदन उसे

चूलहे के सामने बैठने मे बडा कि हुआ। आग न जलती, िूंकने लगती तो

नेञो से जल बहता। वे बूटी की भांित लाल हो जाते। िचनगािरयो से कई

रे शमी सािडयां सतयानाथ हो गयीं। हाथो मे छाले पड गये। परनतु कमश:

सारे कलेश दरू हो गये। सुवामा ऐसी सुशीला सञी थी िक कभी रि न होती, पितिदन उसे पुचकारकर काम मे लगाय रहती। 20

अभी िवरजन को भोजन बनाते दो मास से अिधक न हुए होगे िक

एक िदन उसने पताप से कहा- लललू,मुिे भोजन बनाना आ गया। पताप-सच।

िवरजन-कल चाची ने मेर बनाया भोजन िकया था। बहुत पसनन। पताप-तो भई, एक िदन मुिे भी नेवता दो। िवरजन ने पसनन होकर कहा-अचछा,कल।

दस ू रे िदन नौ बजे िवरजन ने पताप को भोजन करने के िलए बुलाया।

उसने जाकर दे खा तो चौका लगा हुआ है । नवीन िमटटी की मीटी-मीठी सुगनध आ रही है । आसन सवचछता से िबछा हुआ है । एक थाली मे चावल

और चपाितयाँ है । दाल और तरकािरयॉँ अलग-अलग कटोिरयो मे रखी हुई है । लोटा और िगलास पानी से भरे हुए रखे है । यह सवचछता और ढं ग

दे खकर पताप सीधा मुंशी संजीवनलाल के पास गया और उनहे लाकर चौके

के सामने खडा कर िदया। मुंशीजी खुशी से उछल पडे । चट कपडे उतार, हाथपैर धो पताप के साथ चौके मे जा बैठे। बेचारी िवरजन कया जानती थी िक महाशय भी िबना बुलाये पाहुने हो जायेगे। उसने केवल पताप के िलए भोजन बनाया था। वह उस िदन बहुत लजायी और दबी ऑख ं ो से माता की

ओर दे खने लगी। सुशीला ताड गयी। मुसकराकर मुंशीजी से बोली-तुमहारे िलए अलग भोजन बना है । लडको के बीच मे कया जाके कूद पडे ?

वज ृ रानी ने लजाते हुए दो थािलयो मे थोडा-थोडा भोजन परोसा।

मुंशीजी-िवरजन ने चपाितयाँ अचछी बनायी है । नमव, शेत और मीठी।

पताप-मैने ऐसी चपाितयॉँ कभी नहीं खायीं। सालन बहुत सवािदि है ।

‘िवरजन ! चाचा को शोरवेदार आलू दो,’ यह कहकर पताप हँ ने लगा।

िवरजन ने लजाकर िसर नीचे कर िलया। पतीली शुषक हो रही थी।

सुशीली-(पित से) अब उठोगे भी, सारी रसोई चट कर गये, तो भी अडे

बैठे हो!

मुंशीजी-कया तुमहारी राल टपक रही है ?

िनदान दोनो रसोई की इितशी करके उठे । मुंशीजी ने उसी समय एक

मोहर िनकालकर िवरजन को पुरसकार मे दी।

21

6 िडप टी श या माच रण िडपटी शयामाचरण की धाक सारे नगर मे छायी हई थी। नगर मे कोई

ऐसा हािकम न था िजसकी लोग इतनी पितिा करते हो। इसका कारण कुछ तो यह था िक वे सवभाव के िमलनसार और सहनशील थे और कुछ यह िक

िरशत से उनहे बडी घण ृ ा थी। नयाय-िवचार ऐसी सूकमता से करते थे िक

दस-बाहर वष व के भीतर कदािचत उनके दो-ही चार िैसलो की अपील हुई

होगी। अंगेजी का एक अकर न जानते थे, परनतु बैरिसटरो और वकीलो को भी उनकी नैितक पहुंच और सूकमदिशत व ा पर आशय व होता था। सवभाव मे सवाधीनता कूट-कूट भरी थी। घर और नयायालय के अितिरक िकसी ने उनहे

और कहीं आते-जाते नहीं दे खा। मुशीं शािलगाम जब तक जीिवत थे, या यो किहए िक वतम व ान थे, तब तक कभी-कभी िचतिवनोदाथ व उनके यह चले जाते

थे। जब वे लप हो गये, िडपटी साहब ने घर छोडकर िहलने की शपथ कर ली। कई वष व हुए एक बार कलकटर साहब को सलाम करने गये थे खानसामा ने कहा- साहब सनान कर रहे है दो घंटे तक बरामदे मे एक मोढे

पर बैठे पतीका करते रहे । तदननतर साहब बहादरु हाथ मे एक टे िनस बैट

िलये हुए िनकले और बोले-बाबू साहब, हमको खेद है िक आपको हामारी बाट दे खनी पडी। मुिे आज अवकाश नहीं है । कलब-घर जाना है । आप ििर कभी आवे।

यह सुनकर उनहोने साहब बहादरु को सलाम िकया और इतनी-सी बात

पर ििर िकसी अंगेजी की भेट को न गये। वंश, पितिा और आतम-गौरव पर उनहे बडा अिभमान था। वे बडे ही रिसक पुरष थे। उनकी बाते हासय से पूणव

होती थीं। संधया के समय जब वे कितपय िविशि िमिो के साथ दारांगण मे बैठते, तो उनके उचच हासय की गूज ं ती हुई पितधविन वािटका से सुनायी दे ती

थी। नौकरो-चाकरो से वे बहुत सरल वयवहार रखते थे, यहां तक िक उनके संग अलाव के बेठने मे भी उनको कुछ संकोच न था। परनतु उनकी धाक

ऐसी छाई हुई थी िक उनकी इस सजनता से िकसी को अनूिचत लाभ उठाने का साहस न होता था। चाल-ढाल सामानय रखते थे। कोअ-पतलून से उनहे

घण ृ ा थी। बटनदार ऊंची अचकयन, उस पर एक रे शमी काम की अबा, काला िशमला, ढीला पाजामा और िदललीवाला नोकदार जूता उनकी मुखय पोशाक 22

थी। उनके दहुरे शरीर, गुलाबी चेहरे और मधयम डील पर िजतनी यह पोशाक शोभा दे ती थी, उनकी कोट-पतलूनसे समभव न थी। यदिप उनकी धाक सारे

नगर-भर मे िैली हई थी, तथािप अपने घर के मणडलानतगत व उनकी एक न चलती थी। यहां उनकी सुयोगय अदांिगनी का सामाजय था। वे अपने अिधकृ त पानत मे सवचछनदतापूवक व शासन करती थी। कई वष व वयतीत हुए िडपटी साहब ने उनकी इचछा के िवरद एक महरािजन नौकर रख ली थी।

महरािजन कुछ रं गीली थी। पेमवती अपने पित की इस अनुिचत कृ ित पर ऐसी रि हुई िक कई सपाह तक कोपभवन मे बैठी रही। िनदान िववश होकर साहब ने महरािजन को िवदा कर िदया। तब से उनहे ििर कभी गह ृ सथी के वयवहार मे हसतकेप करने का साहस न हुआ।

मुंशीजी के दो बेटे और एक बेटी थी। बडा लडका साधाचरण गत वषव

िडगी पाप करके इस समय रडकी कालेज मे पढाता था। उसका िववाह ितहपुयर-सीकरी के एक रईस के यहां हआ था। मंिली लडकी का नाम

सेवती था। उसका भी िववाह पयाग के एक धनी घराने मे हुआ था। छोटा

लडका कमलाचरण अभी तक अिववािहत था। पेमवती ने बचपन से ही लाडपयार करके उसे ऐसा िबगाड िदया था िक उसका मन पढने -िलखने मे तिनक

भी नहीं लगता था। पनदह वष व का हो चुका था, पर अभी तक सीधा-सा पि भी न िलख सकता था। इसिलए वहां से भी वह उठा िलया गया। तब एक मासटर साहब िनयुक हुए और तीन महीने रहे परनतु इतने िदनो मे कमलाचरण ने किठनता से तीन पाठ पढे होगे। िनदान मासटर साहब भी िवदा हो गये। तब िडपटी साहब ने सवयं पढाना िनिशत िकया। परनतु एक

ही सपाह मे उनहे कई बार कमला का िसर िहलाने की आवशयकता पतीत हुई। सािकयो के बयान और वकीलो की सूकम आलोचनाओं के ततव को

समिना किठन नहीं है , िजतना िकसी िनरतसाही लडके के यमन मे िशकारिचत उतपनन करना है ।

पेमवती ने इस मारधाड पर ऐसा उतपात मचाया िक अनत मे िडपटी

साहब ने भी िललाकर पढाना छोड िदया। कमला कुछ ऐसा रपवान, सुकुमार और मधुरभाषी था िक माता उसे सब लडको से अिधक चाहती थी। इस अनुिचत लाड-पयार ने उसे पंतग ं , कबूतरबाजी और इसी पकार के अनय

कुवयसनो का पेमी बना िदया था। सबरे हआ और कबूतर उडाये जाने लगे , बटे रो के जोड छूटने लगे, संधया हई और पंतग के लमबे-लमबे पेच होने लगे। 23

कुछ िदनो मे जुए का भी चसका पड चला था। दपणव, कंघी और इि-तेल मे तो मानो उसके पाण ही बसते थे।

पेमवती एक िदन सुवामा से िमलने गयी हुई थी। वहां उसने वज ृ रानी

को दे खा और उसी िदन से उसका जी ललचाया हआ था िक वह बहू बनकर

मेरे घर मे आये, तो घर का भागय जाग उठे । उसने सुशीला पर अपना यह

भाव पगट िकया। िवरजन का तेरहॅ वा आरमभ हो चुका था। पित-पती मे िववाह के समबनध मे बातचीत हो रही थी। पेमवती की इचछा पाकर दोनो

िूले न समाये। एक तो पिरिचत पिरवार, दस ू रे कलीन लडका, बूिदमान और िशिकत, पैतक ृ समपित अिधक। यिद इनमे नाता हो जाए तो कया पूछना। चटपट रीित के अनुसार संदेश कहला भेजा।

इस पकार संयोग ने आज उस िवषैले वक ृ का बीज बोया, िजसने तीन

ही वष व मे कुल का सवन व ाश कर िदया। भिवषय हमारी दिि से कैसा गुप रहता है ?

जयो ही संदेशा पहुंचा, सास, ननद और बहू मे बाते होने लगी। बहू(चनदा)-कयो अममा। कया आप इसी साल बयाह करे गी ? पेमवती-और कया, तुमहारे लालाली के मानने की दे र है । बहू-कूछ ितलक-दहे ज भी ठहरा

पेमवती-ितलक-दहे ज ऐसी लडिकयो के िलए नहीं ठहराया जाता।

जब तुला पर लडकी लडके के बराबर नहीं ठहरती,तभी दहे ज का

पासंग बनाकर उसे बराबर कर दे ते है । हमारी वज ृ रानी कमला से बहुत भारी है ।

सेवती-कुछ िदनो घर मे खूब धूमधाम रहे गी। भाभी गीत गायेगी। हम

ढोल बजायेगे। कयो भाभी ?

चनदा-मुिे नाचना गाना नहीं आता।

चनदा का सवर कुछ भदा था, जब गाती, सवर-भंग हो जाता था।

इसिलए उसे गाने से िचढ थी। है ।

सेवती-यह तो तुम आप ही करो। तुमहारे गाने की तो संसार मे धूम चनदा जल गयी, तीखी होकर बोली-िजसे नाच-गाकर दस ू रो को लुभाना

हो, वह नाचना-गाना सीखे।

24

सेवती-तुम तो तिनक-सी हं सी मे रठ जाती हो। जरा वह गीत गाओं

तो—तुम तो शयाम बडे बेखबर हो’। इस समय सुनने को बहुत जी चाहता है । महीनो से तुमहारा गाना नहीं सुना।

चनदा-तुमही गाओ, कोयल की तरह कूकती हो।

सेवती-लो, अब तुमहारी यही चाल अचछी नहीं लगती। मेरी अचछी

भाभी, तिनक गाओं। है ?

चनदमा-मै इस समय न गाऊंगी। कयो मुिे कोई डोमनी समि िलया सेवती-मै तो िबन गीत सुने आज तुमहारा पीछा न छोडू ं गी।

सेवती का सवर परम सुरीला और िचताकषक व था। रप और आकृ ित भी

मनोहर, कुनदन वण व और रसीली आंखे। पयाली रं ग की साडी उस पर खूब िखल रही थी। वह आप-ही-आप गुनगुनाने लगी:

तुम तो शयाम बडे बेखबर हो...तुम तो शयाम।

आप तो शयाम पीयो दध ू के कुलहड, मेरी तो पानी पै गुजरपानी पै गुजर हो। तुम तो शयाम...

दध ू के कुलहड पर वह हं स पडी। पेमवती भी मुसकरायी, परनतु चनदा

रि हो गयी। बोली –िबना हं सी की हं सी हमे नहीं आती। इसमे हं सने की कया बात है ?

सेवती-आओ, हम तुम िमलकर गाये।

चनदा-कोयल और कौए का कया साथ ?

सेती-कोध तो तुमहारी नाक पर रहता है ।

चनदा-तो हमे कयो छे डती हो ? हमे गाना नहीं आता, तो कोई तुमसे

िननदा करने तो नहीं जाता।

‘कोई’ का संकेत राधाचरण की ओर था। चनदा मे चाहे और गुण न

हो, परनतु पित की सेवा वह तन-मन से करती थी। उसका तिनक भी िसर

धमका िक इसके पाण िनकला। उनको घर आने मे तिनक दे र हुई िक वह

वयाकुल होने लगी। जब से वे रडकी चले गये, तब से चनदा यका हॅ सनाबोलना सब छूट गया था। उसका िवनोद उनके संग चला गया था। इनहीं

कारणो से राधाचरण को सी का वशीभूत बना िदया था। पेम, रप-गुण, आिद सब िुिटयो का पूरक है ।

सेवती-िननदा कयो करे गा, ‘कोई’ तो तन-मन से तुम पर रीिा हुआ है । 25

चनदा-इधर कई िदनो से िचटठी नहीं आयी। सेवती-तीन-चार िदन हुए होगे।

चनदा-तुमसे तो हाथ-पैर जोड कर हार गयी। तुम िलखती ही नहीं।

सेवती-अब वे ही बाते पितिदन कौन िलखे, कोई नयी बात हो तो

िलखने को जी भी चाहे ।

चनदा-आज िववाह के समाचार िलख दे ना। लाऊं कलम-दवात ? सेवती-परनतु एक शतव पर िलखूंगी। चनदा-बताओं।

सेवती-तुमहे शयामवाला गीत गाना पडे गा।

चनदा-अचछा गा दंग ू ी। हॅ सने को जी चाहता है न ?हॅ स लेना। सेवती-पहले गा दो तो िलखूं।

चनदा-न िलखोगी। ििर बाते बनाने लगोगी। सेवती- तुमहारी शपथ, िलख दंग ू ी, गाओ। चनदा गाने लगी-

तुम तो शयाम बडे बेखबर हो।

तुम तो शयाम पीयो दध ू के कूलहड, मेरी तो पानी पै गुजर पानी पे गुजर हो। तुम तो शयाम बडे बेखबर हो।

अिनतम शबद कुछ ऐसे बेसुरे िनकले िक हॅ सी को रोकना किठन हो

गया। सेवती ने बहुत रोका पर न रक सकी। हॅ सते -हॅ सते पेट मे बल पड गया। चनदा ने दस ू रा पद गाया:

आप तो शयाम रकखो दो-दो लुगइयॉ,

मेरी तो आपी पै नजर आपी पै नजर हो। तुम तो शयाम....

‘लुगइयां’ पर सेवती हॅ सते-हॅ सते लोट गयी। चनदा ने सजल नेि होकर

कहा-अब तो बहुत हॅ स चुकीं। लाऊं कागज ?

सेवती-नहीं, नहीं, अभी तिनक हॅ स लेने दो।

सेवती हॅ स रही थी िक बाबू कमलाचरण का बाहर से शुभागमन हुआ ,

पनदह सोलह वष व की आयु थी। गोरा-गोरा गेहुंआ रं ग। छरहरा शरीर, हॅ समुख,

भडकीले वसो से शरीर को अलंकृत िकये, इि मे बसे, नेिो मे सुरमा, अधर पर मुसकान और हाथ मे बुलबुल िलये आकर चारपाई 26

पर बैठ गये। सेवती

बोली’-कमलू। मुंह मीठा कराओं, तो तुमहे ऐसे शुभ समाचार सुनाये िक सुनते ही िडक उठो।

कमला-मुंह तो तुमहारा आज अवशय ही मीठा होगा। चाहे शुभ समाचार

सुनाओं, चाहे न सुनाओं। आज इस पठे ने यह िवजय पाप की है िक लोग दं ग रह गये।

यह कहकर कमलाचरण ने बुलबुल को अंगूठे पर िबठा िलया। सेवती-मेरी खबर सुनते ही नाचने लगोगे।

कमला-तो अचछा है िक आप न सुनाइए। मै तो आज यो ही नाच रहा

हूं। इस पठे ने आज नाक रख ली। सारा नगर दं ग रह गया। नवाब मुननेखां

बहुत िदनो से मेरी आंखो मे चढे हुए थे। एक पास होता है , मै उधर से

िनकला, तो आप कहने लगे-िमयॉ, कोई पठा तैयार हो तो लाओं, दो-दो चौच

हो जाये। यह कहकर आपने अपना पुराना बुलबुल िदखाया। मैने कहाकृ पािनधान। अभी तो नहीं। परनतु एक मास मे यिद ईशर चाहे गा तो आपसे अवशय एक जोड होगी, और बद-बद कर आज। आगा शेरअली के अखाडे मे

बदान ही ठहरी। पचाय-पचास रपये की बाजी थी। लाखो मनुषय जमा थे।

उनका पुराना बुलबुल, िवशास मानो सेवती, कबूतर के बराबर था। परनतु वह भी केवल िूला हुआ न था। सारे नगर के बुलबुलो को परािजत िकये बैठा

था। बलपूवकव लात चलायी। इसने बार-बार नचाया और ििर िपटकर उसकी चोटी दबायी। उसने ििर चोट की। यह नीचे आया। चतुिदवक कोलाहल मच

गया- मार िलया मार िलया। तब तो मुिे भी कोध आया डपटकर जो ललकारता हूं तो यह ऊपर और वह नीचे दबा हआ है । ििर तो उसने

िकतना ही िसर पटका िक ऊपर आ जाए, परनतु इस शेयर ने ऐसा दाबा िक

िसर न उठाने िदया। नबाब साहब सवयं उपिसथत थे। बहुत िचललाये, पर

कया हो सकता है ? इसने उसे ऐसा दबोचा था जैसे बाज िचिडया को। आिखर बगटु ट भागा। इसने पानी के उस पार तक पीछा िकया, पर न पा सका। लोग िवसमय से दं ग हो गये। नवाब साहब का तो मुख मिलन हो

गया। हवाइयॉ उडने लगीं। रपये हारने की तो उनहे कुछ िचंनता नहीं , कयोिक

लाखो की आय है । परनतु नगर मे जो उनकी धाक जमी हुई थी, वह जाती रही। रोते हुए घर को िसधारे । सुनता हूं, यहां से जाते ही उनहोने अपने बुलबुल को जीिवत ही गाड िदया। यह कहकर कमलाचरण ने जेब खनखनायी।

27

सेवती-तो ििर खडे कया कर रहे हो ? आगरे वाले की दक ु ान पर

आदमी भेजो।

कमला-तुमहारे िलए कया लाऊं, भाभी ? सेवती-दध ू के कुलहड।

कमला-और भैया के िलए ? सेवती-दो-दो लुगइयॉ।

यह कहकर दोनो ठहका मारकर हॅ सने लगे।

28

7 िनठुर ता औ र पेम सुवामा तन-मन से िववाह की तैयािरयां करने लगीं। भोर से संधया

तक िववाह के ही धनधो मे उलिी रहती। सुशीला चेरी की भांित उसकी आजा का पालन िकया करती। मुंशी संजीवनलाल पात:काल से सांि तक हाट की धूल छानते रहते। और िवरजन िजसके िलए यह सब तैयािरयां हो रही थी, अपने कमरे मे बैठी हुई रात-िदन रोया करती। िकसी को इतना

अवकाश न था िक कण-भर के िलए उसका मन बहलाये। यहॉ तक िक पताप भी अब उसे िनठु र जान पडता था। पताप का मन भी इन िदनो बहुत

ही मिलन हो गया था। सबेरे का िनकला हुआ सॉि को घर आता और अपनी मुंडेर पर चुपचाप जा बैठता। िवरजन के घर जाने की तो उसने

शपथ-सी कर ली थी। वरन जब कभी वह आती हुई िदखई दे ती, तो चुपके से सरक जाता। यिद कहने-सुनने से बैठता भी तो इस भांित मुख िेर लेता और रखाई का वयवहार करता िक िवरजन रोने लगती और सुवामा से

कहती-चाची, लललू मुिसे रि है , मै बुलाती हूं, तो नहीं बोलते। तुम चलकर मना दो। यह कहकर वह मचल जाती और सुवामा का ऑचल पकडकर

खींचती हुई पताप के घर लाती। परनतु पताप दोनो को दे खते ही िनकल

भागता। वज ृ रानी दार तक यह कहती हुई आती िक-लललू तिनक सुन लो, तिनक सुन लो, तुमहे हमारी शपथ, तिनक सुन लो। पर जब वह न सुनता

और न मुंह िेरकर दे खता ही तो बेचारी लडकी पथ ृ वी पर बैठ जाती और भली-भॉती िूट-िूटकर रोती और कहती-यह मुिसे कयो रठे हुए है ? मैने तो

इनहे कभी कुछ नहीं कहा। सुवामा उसे छाती से लगा लेती और समिातीबेटा। जाने दो, लललू पागल हो गया है । उसे अपने पुि की िनठु रता का भेद कुछ-कुछ जात हो चला था।

िनदान िववाह को केवल पांच िदन रह गये। नातेदार और समबनधी

लोग दरू तथा समीप से आने लगे। ऑगन मे सुनदर मणडप छा गया। हाथ

मे कंगन बॅध गये। यह कचचे घागे का कंगन पिवि धम व की हथकडी है , जो कभी हाथ से न िनकलेगी और मंणडप उस पेम और कृ पा की छाया का

समारक है , जो जीवनपयन व त िसर से न उठे गी। आज संधया को सुवामा, सुशीला, महारािजने सब-की-सब िमलकर दे वी की पूजा करने को गयीं। 29

महिरयां अपने धंधो मे लगी हुई थी। िवरजन वयाकुल होकर अपने घर मे से

िनकली और पताप के घर आ पहुंची। चतुिदव क सननाटा छाया हुआ था।

केवल पताप के कमरे मे धुध ं ला पकाश िलक रहा था। िवरजन कमरे मे आयी, तो कया दे खती है िक मेज पर लालटे न जल रही है और पताप एक

चारपाई पर सो रहा है । धुध ं ले उजाले मे उसका बदन कुमहलाया और मिलन

नजर आता है । वसतुऍ सब इधर-उधर बेढंग पडी हुई है । जमीन पर मानो धूल चढी हुई है । पुसतके िैली हुई है । ऐसा जान पडता है मानो इस कमरे

को िकसी ने महीनो से नहीं खोला। वही पताप है , जो सवचछता को पाण-िपय समिता था। िवरजन ने चाहा उसे जगा दं।ू पर कुछ सोचकर भूिम से

पुसतके उठा-उठा कर आलमारी मे रखने लगी। मेज पर से धूल िाडी, िचिो पर से गदव का परदा उठा िलया। अचानक पतान ने करवट ली और उनके

मुख से यह वाकय िनकला-‘िवरजन। मै तुमहे भूल नहीं सकता’’। ििर थोडी

दे र पशात-‘िवरजन’। कहां जाती हो, यही बैठो ? ििर करवट बदलकर-‘न बैठोगी’’? अचछा जाओं मै भी तुमसे न बोलूंगा। ििर कुछ ठहरकर-अचछा

जाओं, दे खे कहां जाती है । यह कहकर वह लपका, जैसे िकसी भागते हुए मनुषय को पकडता हो। िवरजन का हाथ उसके हाथ मे आ गया। उसके साथ

ही ऑखे खुल गयीं। एक िमनट तक उसकी भाव-शूनय दिषट िवरजन के मुख की ओर गडी रही। ििर अचानक उठ बैठा और िवरजन का हाथ

छोडकर बोला-तुम कब आयीं, िवरजन ? मै अभी तुमहारा ही सवपन दे ख रहा था।

िवरजन ने बोलना चाहा, परनतु कणठ रंध गया और आंखे भर आयीं।

पताप ने इधर-उधर दे खकर ििर कहा-कया यह सब तुमने साि िकया ?तुमहे बडा कि हुआ। िवरजन ने इसका भी उतर न िदया।

पताप-िवरजन, तुम मुिे भूल कयो नहीं जातीं ?

िवरजन ने आद नेिो से दे खकर कहा-कया तुम मुिे भूल गये ?

पतान ने लिजजत होकर मसतक नीचा कर िलया। थोडी दे र तक दोनो

भावो से भरे भूिम की ओर ताकते रहे । ििर िवरजन ने पूछा-तुम मुिसे कयो रि हो ? मैने कोई अपराध िकया है ?

पताप-न जाने कयो अब तुमहे दे खता हूं, तो जी चाहता है िक कहीं

चला जाऊं।

30

िवरजन-कया तुमको मेरी तिनक भी मोह नहीं लगती ? मै िदन-भर

रोया करती हूं। तुमहे मुि पर दया नहीं आती ? तुम मुिसे बोलते तक नहीं। बतलाओं मैने तुमहे कया कहा जो तुम रठ गये ? पताप-मै तुमसे रठा थोडे ही हूं।

िवरजन-तो मुिसे बोलते कयो नहीं।

पताप-मै चाहता हूं िक तुमहे भूल जाऊं। तुम धनवान हो, तुमहारे माता-

िपता धनी है , मै अनाथ हूं। मेरा तुमहारा कया साथ ?

िवरजन-अब तक तो तुमने कभी यह बहाना न िनकाला था, कया अब

मै अिधक धनवान हो गयी ?

यह कहकर िवरजन रोने लगी। पताप भी दिवत हुआ, बोला-िवरजन।

हमारा तुमहारा बहुत िदनो तक साथ रहा। अब िवयोग के िदन आ गये। थोडे

िदनो मे तुम यहॉ वालो को छोडकर अपने सुसुराल चली जाओगी। इसिलए

मै भी बहुत चाहता हूं िक तुमहे भूल जाऊं। परनतु िकतना ही चाहता हूं िक

तुमहारी बाते समरण मे न आये, वे नहीं मानतीं। अभी सोते-सोते तुमहारा ही सवसपन दे ख रहा था।

31

8 सिख याँ िडपटी शयामाचरण का भवन आज सुनदिरयो के जमघट से इनद का

अखाडा बना हुआ था। सेवती की चार सहे िलयॉ-रिकमणी, सीता, रामदै ई और चनदकुंवर -सोलहो िसंगार िकये इठलाती ििरती थी। िडपटी साहब की बिहन जानकी कुंवर भी अपनी दो लडिकयो के साथ इटावे से आ गयी थीं। इन

दोनो का नाम कमला और उमादे वी था। कमला का िववाह हो चुका था। उमादे वी अभी कुंवारी ही थी। दोनो सूय व और चनद थी। मंडप के तले

डौमिनयां और गविनहािरने सोहर और सोहाग, अलाप रही थी। गुलिबया

नाइन और जमनी कहािरन दोनो चटकीली सािडयॉ पिहने, मांग िसंदरू से

भरवाये, िगलट के कडे पिहने छम-छम करती ििरती थीं। गुलिबया चपला

नवयौवना थी। जमुना की अवसथा ढल चुकी थी। सेवती का कया पूछना? आज उसकी अनोखी छटा थी। रसीली आंखे आमोदािधकय से मतवाली हो रही थीं और गुलाबी साडी की िलक से चमपई रं ग गुलाबी जान पडता था।

धानी मखमल की कुरती उस पर खूब िखलती थी। अभी सनान करके आयी थी, इसिलए नािगन-सी लट कंधो पर लहरा रही थी। छे डछाड और चुहल से

इतना अवकाश न िमलता था िक बाल गुथ ं वा ले। महरािजन की बेटी माधवी छींट का लॅहगा पहने, ऑखो मे काजल लगाये, भीतर-बाहर िकये हुए थी।

रिकमणी ने सेवती से कहा-िसतो। तुमहारी भावज कहॉ है ? िदखायी

नहीं दे ती। कया हम लोगो से भी पदाव है ?

रामदे ई-(मुसकराकर)परदा कयो नहीं है ? हमारी नजर न लग जायगी? सेवती-कमरे मे पडी सो रही होगी। दे खो अभी खींचे लाती हूं।

यह कहकर वह चनदमा से कमरे मे पहुंची। वह एक साधारण साडी

पहने चारपाई पर पडी दार की ओर टकटकी लगाये हुए थी। इसे दे खते ही उठ बैठी। सेवती ने कहा-यहॉ कया पडी हो, अकेले तुमहारा जी नहीं घबराता? चनदा-उं ह, कौन जाए, अभी कपडे नहीं बदले।

सेवती-बदलती कयो नहीं ? सिखयॉ तुमहारी बाट दे ख रही है । चनदा-अभी मै न बदलूंगी।

सेवती-यही हठ तुमहारा अचछा नहीं लगता। सब अपने मन मे कया

कहती होगी ?

32

चनदा-तुमने तो िचटठी पढी थी, आज ही आने को िलखा था न ?

सेवती-अचछा,तो यह उनकी पतीका हो रही है , यह किहये तभी योग

साधा है ।

चनदा-दोपहर तो हुई, सयात ् अब न आयेगे।

इतने मे कमला और उपादे वी दोनो आ पहुंची। चनदा ने घूंघट िनकाल

िलया और िवश पर आ बैठी। कमला उसकी बडी ननद होती थी। कमला-अरे , अभी तो इनहोने कपडे भी नहीं बदले।

सेवती-भैया की बाट जोह रही है । इसिलए यह भेष रचा है । कमला-मूखव है । उनहे गरज होगी, आप आयेगे। सेवती-इनकी बात िनराली है ।

कमला-पुरषो से पेम चाहे िकतना ही करे , पर मुख से एक शबद भी न

िनकाले, नहीं तो वयथ व सताने और जलाने लगते है । यिद तुम उनकी उपेका

करो, उनसे सीधे बात न करो, तो वे तुमहारा सब पकार आदर करे गे। तुम पर

पाण समपण व करे गे, परनतु जयो ही उनहे जात हुआ िक इसके हदय मे मेरा पेम हो गया, बस उसी िदन से दिि ििर जायेगी। सैर को जायेगे, तो अवशय

दे र करके आयेगे। भोजन करने बैठेगे तो मुहं जूठा करके उठ जायेगे, बातबात पर रठे गे। तुम रोओगी तो मनायेगे, मन मे पसनन होगे िक कैसा िंदा

डाला है । तुमहारे सममुख अनय िसयो की पशंसा करे गे। भावाथ व यह है िक तुमहारे जलाने मे उनहे आननद आने लगेगा। अब मेरे ही घर मे दे खो पिहले

इतना आदर करते थे िक कया बताऊं। पितकण नौकरो की भांित हाथ बांधे

खडे रहते थे। पंखा िेलने को तैयार, हाथ से कौर िखलाने को तैयार यहॉ तक िक (मुसकराकर) पॉव दबाने मे भी संकोच न था। बात मेरे मुख से िनकली नहीं िक पूरी हुई। मै उस समय अबोध थी। पुरषो के कपट वयवहार कया

जानूं। पटी मे आ गयी। जानते थे िक आज हाथ बांध कर खडी होगीं। मैने

लमबी तानी तो रात-भर करवट न ली। दस ू रे िदन भी न बोली। अंत मे महाशय सीधे हुए, पैरो पर िगरे , िगडिगडाये, तब से मन मे इस बात की गांठ बॉध ली है िक पुरषो को पेम कभी न जताओं।

सेवती-जीजा को मैने दे खा है । भैया के िववाह मे आये थे। बडं हॅ समुख

मनुषय है ।

33

कमला-पावत व ी उन िदनो पेट मे थी, इसी से मै न आ सकी थी। यहॉ से

गये तो लगे तुमहारी पशंसा करने। तुम कभी पान दे ने गयी थी ? कहते थे िक मैने हाथ थामकर बैठा िलया, खूब बाते हुई।

सेवती-िूठे है , लबािरये है । बात यह हुई िक गुलिबया और जमुनी दोनो

िकसी काय व से बाहर गयी थीं। मॉ ने कहा, वे खाकर गये है , पान बना के दे

आ। मै पान लेकर गयी, चारपाई पर लेटे थे, मुिे दे खते ही उठ बैठे। मैने

पान दे ने को हाथ बढाया तो आप कलाई पकडकर कहने लगे िक एक बात सुन लो, पर मै हाथ छुडाकर भागी।

कमला-िनकली न िूठी बात। वही तो मै भी कहती हूं िक अभी

गयारह-बाहरह वष व की छोकरी, उसने इनसे कया बाते की होगी ? परनतु नहीं, अपना ही हठ िकये जाये। पुरष बडे पलापी होते है । मैने यह कहा, मैने वह कहा। मेरा तो इन बातो से हदय सुलगता है । न जाने उनहे अपने ऊपर िूठा

दोष लगाने मे कया सवाद िमलता है ? मनुषय जो बुरा-भला करता है , उस पर

परदा डालता है । यह लोग करे गे तो थोडा, िमथया पलाप का आलहा गाते ििरे गे जयादा। मै तो तभी से उनकी एक बात भी सतय नहीं मानती।

इतने मे गुलिबया ने आकर कहा-तुमतो यहॉ ठाढी बतलात हो। और

तुमहार सखी तुमका आंगन मे बुलौती है ।

सेवती-दे खो भाभी, अब दे र न करो। गुलिबया, तिनक इनकी िपटारी से

कपडे तो िनकाल ले।

कमला चनदा का शग ृ ांर करने लगी। सेवती सहे िलयो के पास आयी।

रिकमणी बोली-वाह बिह, खूब। वहॉ जाकर बैठ रही। तुमहारी दीवारो से बोले कया ?

सेवती-कमला बिहन चली गयी। उनसे बातचीत होने लगीं। दोनो आ

रही है ।

रिकमणी-लडकोरी है न ? सेवती-हॉ, तीन लडके है ।

रामदे ई-मगर काठी बहुत अचछी है । लूं।

चनदकुंवर -मुिे उनकी नाक बहुत सुनदर लगती है , जी चाहता है छीन सीता-दोनो बिहने एक-से-एक बढ कर है । 34

थी।

सेवती-सीता को ईशर ने वर अचछा िदया है , इसने सोने की गौ पूजी रिकमणी-(जलकर)गोरे चमडे से कुछ नहीं होता। सीता-तुमहे काला ही भाता होगा।

सेवती-मुिे काला वर िमलता तो िवष खा लेती।

रिकमणी-यो कहने को जो चाहे कह लो, परनतु वासतव मे सुख काले

ही वर से िमलता है ।

सेवती-सुख नहीं धूल िमलती है । गहण-सा आकर िलपट जाता होगा।

रिकमणी-यही तो तुमहारा लडकपन है । तुम जानती नहीं सुनदर पुरष

अपने ही बनाव-िसंगार मे लगा रहता है । उसे अपने आगे सी का कुछ धयान

नहीं रहता। यिद सी परम-रपवती हो तो कुशल है । नहीं तो थोडे ही िदनो

वह समिता है िक मै ऐसी दस ू री िसयो के हदय पर सुगमता से अिधकार पा सकता हूं। उससे भागने लगता है । और कुरप पुरष सुनदर सी पा जाता

है तो समिता है िक मुिे हीरे की खान िमल गयी। बेचारा काला अपने रप की कमी को पयार और आदर से पूरा करता है । उसके हदय मे ऐसी धुकधुकी लगी रहती है िक मै तिनक भी इससे खटा पडा तो यह मुिसे घण ृ ा करने लगेगी।

चनदकुंव -दल ू हा सबसे अचछा वह, जो मुंह से बात िनकलते ही पूरा करे ।

रामदे ई-तुम अपनी बात न चलाओं। तुमहे तो अचछे -अचछे गहनो से

पयोजन है , दल ू हा कैसा ही हो।

सीता-न जाने कोई पुरष से िकसी वसतु की आजा कैसे करता है । कया

संकोच नहीं होता ?

रिकमणी-तुम बपुरी कया आजा करोगी, कोई बात भी तो पूछे ?

सीता-मेरी तो उनहे दे खने से ही तिृप हो जाती है । वसाभूषणो पर जी

नहीं चलता।

इतने मे एक और सुनदरी आ पहुंची, गहने से गोदनी की भांित लदी

हुई। बिढया जूती पहने, सुगंध मे बसी। ऑखो से चपलता बरस रही थी। रामदे ई-आओ रानी, आओ, तुमहारी ही कमी थी।

रानी-कया करं, िनगोडी नाइन से िकसी पकार पीछा नहीं छूटता था।

कुसुम की मॉ आयी तब जाके जूडा बॉधा।

सीता-तुमहारी जािकट पर बिलहारी है । 35

रानी-इसकी कथा मत पूछो। कपडा िदये एक मास हुआ। दस-बारह बार

दजी सीकर लाया। पर कभी आसतीन ढीली कर दी, कभी सीअन िबगाड दी, कभी चुनाव िबगाड िदया। अभी चलते-चलते दे गया है ।

यही बाते हो रही थी िक माधवी िचललाई हुई आयी-‘भैया आये, भैया

आये। उनके संग जीजा भी आये है , ओहो। ओहो। रानी-राधाचरण आये कया ?

सेवती-हॉ। चलू तिनक भाभी को सनदे श दे आंऊ। कया रे । कहां बैठे है ? माधवी-उसी बडे कमरे मे। जीजा पगडी बॉधे है , भैया कोट पिहने है ,

मुिे जीजा ने रपया िदया। यह कहकर उसने मुठी खोलकर िदखायी। रानी-िसतो। अब मुंह मीठा कराओ।

सेवती-कया मैने कोई मनौती की थी ?

यह कहती हुई सेवती चनदा के कमरे मे जाकर बोली-लो भाभी।

तुमहारा सगुन ठीक हुआ।

चनदा-कया आ गये ? तिनक जाकर भीतर बुला लो।

सेवती-हॉ मदाने मे चली जाउं । तुमहारे बहनाई जी भी तो पधारे है ।

चनदा-बाहर बैठे कया यकर रहे है ? िकसी को भेजकर बुला लेती, नहीं

तो दस ू रो से बाते करने लगेगे।

अचानक खडाऊं का शबद सुनायी िदया और राधाचरण आते िदखायी

िदये। आयु चौबीस-पचचीस बरस से अिधक न थी। बडे ही हॅ समुख, गौर वणव, अंगेजी काट के बाल, फेच काट की दाढी, खडी मूछ ं े , लवंडर की लपटे आ रही थी। एक पतला रे शमी कुता व पहने हुए थे। आकर पंलंग पर बैठ गए और सेवती से बोले-कया िसतो। एक सपाह से िचठी नहीं भेजी ?

सेवती-मैने सोचा, अब तो आ रहे हो, कयो िचठी भेजू ? यह कहकर वहां से हट गयी।

चनदा ने घूघंट उठाकर कहा-वहॉ जाकर भूल जाते हो ?

राधाचरण-(हदय से लगाकर) तभी तो सैकंडो कोस से चला आ रहा हूँ।

36

9 ईषयाव पतापचनद ने िवरजन के घर आना-जाना िववाह के कुछ िदन पूव व से

ही तयाग िदया था। वह िववाह के िकसी भी काय व मे सिममिलत नहीं हुआ।

यहॉ तक िक महििल मे भी न गया। मिलन मन िकये , मुहॅ लटकाये, अपने

घर बैठा रहा, मुंशी संजीवनलाला, सुशीला, सुवामा सब िबनती करके हार गये, पर उसने बारात की ओर दिि न िेरी। अंत मे मुंशीजी का मन टू ट गया

और ििर कुछ न बोले। यह दशा िववाह के होने तक थी। िववाह के पशात तो उसने इधर का मागव ही तयाग िदया। सकूल जाता तो इस पकार एक ओर

से िनकल जाता, मानो आगे कोई बाघ बैठा हुआ है , या जैसे महाजन से कोई ऋणी मनुषय ऑख बचाकर िनकल जाता है । िवरजन की तो परछाई से भागता। यिद कभी उसे अपने घर मे दे ख पाता तो भीतर पग न दे ता। माता

समिाती-बेटा। िवरजन से बोलते-चालत कयो नहीं ? कयो उससे यसमन मोटा िकये हुए हो ? वह आ-आकर घणटो रोती है िक मैने कया िकया है िजससे वह

रि हो गया है । दे खो, तुम और वह िकतने िदनो तक एक संग रहे हो। तुम उसे िकतना पयार करते थे। अकसमात ् तुमको कया हो गया? यिद तुम ऐसे ही रठे रहोगे तो बेचारी लडकी की जान पर बन जायेगी। सूखकर कॉटा हो

गया है । ईशर ही जानता है , मुिे उसे दे खकर करणा उतपनन होती है । तुमहारी चच व ा के अितिरक उसे कोई बात ही नहीं भाती।

पताप ऑखे नीची िकये हुए सब सुनता और चुपचाप सरक जाता।

पताप अब भोला बालक नहीं था। उसके जीवनरपी वक ृ मे यौवनरपी कोपले

िूट रही थी। उसने बहुत िदनो से-उसी समय से जब से उसने होश संभालािवरजन के जीवन को अपने जीवन मे शक व रा कीर की भॉित िमला िलया था। उन मनोहर और सुहावने सवपनो का इस कठोरता और िनदव यता से धूल मे

िमलाया जाना उसके कोमल हदय को िवदीण व करने के िलए कािी था, वह

जो अपने िवचारो मे िवरजन को अपना सवस व व समिता था, कहीं का न रहा, और अपने िवचारो मे िवरजन को अपना सवस व व समिता था, कहीं का न रहा, और वह, िजसने िवरजन को एक पल के िलए भी अपने धयान मे सथान

न िदया था, उसका सवस व व हो गया। इस िवतक व से उसके हदय मे वयाकुलता

उतपनन होती थी और जी चाहता था िक िजन लोगो ने मेरी सवपनवत 37

भावनाओं का नाश िकया है और मेरे जीवन की आशाओं को िमटटी मे

िमलाया है , उनहे मै भी जलाउं । सबसे अिधक कोध उसे िजस पर आता था वह बेचारी सुशीला थी।

शनै:-शनै: उसकी यह दशा हो गई िक जब सकूल से आता तो

कमलाचरण के समबनध की कोई घटना अवशय वणन व करता। िवशेष कर उस

समय जब सुशीला भी बैठी रहती। उस बेचारी का मन दख ु ाने मे इसे बडा ही

आननद आता। यदिप अवयक रीित से उसका कथन और वाकय-गित ऐसी हदय-भेिदनी होती थी िक सुशीला के कलेजे मे तीर की भांित लगती थी।

आज महाशय कमलाचरण ितपाई के ऊपर खडे थे, मसतक गगन का सपशव करता था। परनतु िनलज व ज इतने बडे िक जब मैने उनकी ओर संकेत िकया

तो खडे -खडे हॅ सने लगे। आज बडा तमाशा हुआ। कमला ने एक लडके की

घडी उडा दी। उसने मासटर से िशकायत की। उसके समीप वे ही महाशय बैठे

हुए थे। मासटर ने खोज की तो आप ही िेटे से घडी िमली। ििर कया था ? बडे मासटर के यहॉ िरपोटव हुई। वह सुनते ही झलला गये और कोई तीन

दजन व बेते लगायीं, सडासड। सारा सकूल यह कौतूहल दे ख रहा था। जब तक बेते पडा की, महाशय िचललाया िकये, परनतु बाहर िनकलते ही िखलिखलाने

लगे और मूछ ं ो पर ताव दे ने लगे। चाची। नहीं सुना ? आज लडको ने ठीक सकूल के िाटक पर कमलाचरण को पीटा। मारते-मारते बेसुध कर िदया।

सुशीला ये बाते सुनती और सुन-सुसनकर कुढती। हॉ। पताप ऐसी कोई बात िवरजन के सामने न करता। यसिद वह घर मे बैठी भी होती तो जब तक

चली न जाती, यह चचा व न छे डता। वह चाहता था िक मेरी बात से इसे कुछ दख ु : न हो।

समय-समय पर मुंशी संजीवनलाल ने भी कई बार पताप की कथाओं

की पुिि की। कभी कमला हाट मे बुलबुल लडाते िमल जाता, कभी गुणडो के संग िसगरे ट पीते, पान चबाते, बेढंगेपन से घूमता हुआ िदखायी दे ता। मुंशीजी

जब जामाता की यह दशा दे खते तो घर आते ही सी पर कोध िनकालते - यह सब तुमहारी ही करतूत है । तुमही ने कहा था घर-वर दोनो अचछे है , तुमहीं रीिी हुई थीं। उनहे उस कण यह िवचार न होता िक जो दोषारोपण सुशील पर है , कम-से-कम मुि पर ही उतना ही है । वह बेचारी तो घर मे बनद रहती

थी, उसे कया जात था िक लडका कैसा है । वह सामुिदक िवदा थोड ही पढी थी ? उसके माता-िपता को सभय दे खा, उनकी कुलीनता और वैभव पर 38

सहमत हो गयी। पर मुंशीजी ने तो अकमण व यता और आलसय के कारण

छान-बीन न की, यदिप उनहे इसके अनेक अवसर पाप थे, और आलसय के

कारण छान-बीन न की, यदिप उनहे इसके अनेक अवसर पाप थे, और मुंशीजी के अगिणत बानधव इसी भारतवष व मे अब भी िवदमान है जो अपनी

पयारी कनयाओं को इसी पकार नेि बनद करकेक कुए मे ढकेल िदया करते है ।

सुशीला के िलए िवरजन से िपय जगत मे अनय वसतु न थी। िवरजन

उसका पाण थी, िवरजन उसका धम व थी और िवरजन ही उसका सतय थी।

वही उसकी पाणाधार थी, वही उसके नयनो को जयोित और हदय का उतसाह थी, उसकी सवौचच सांसािरक अिभलाषा यह थी िक मेरी पयारी िवरजन अचछे

घर जाय। उसके सास-ससुर, दे वी-दे वता हो। उसके पित िशिता की मूित व और शीरामचंद की भांित सुशील हो। उस पर कि की छाया भी न पडे । उसने मर-मरकर बडी िमननतो से यह पुिी पायी थी और उसकी इचछा थी िक इन

रसीले नयनो वाली, अपनी भोली-भाली बाला को अपने मरण-पयन व त आंखो से अदशय न होने दंग ू ी। अपने जामाता को भी यही बुलाकर अपने घर रखूंगी।

जामाता मुिे माता कहे गा, मै उसे लडका समिूगी। िजस हदय मे ऐसे

मनोरथ हो, उस पर ऐसी दारण और हदयिवदारणी बातो का जो कुछ पभाव पडे गा, पकट है ।

हां। हनत। दीना सुशीला के सारे मनोरथ िमटटी मे िमल गये। उसकी

सारी आशाओं पर ओस पड गयी। कया सोचती थी और कया हो गया। अपने

मन को बार-बार समिाती िक अभी कया है , जब कमला सयाना हो जाएगी

तो सब बुराइयां सवयं तयाग दे ना। पर एक िननदा का घाव भरने नहीं पाता

था िक ििर कोई नवीन घटना सूनने मे आ जाती। इसी पकार आघात-परआघात पडते गये। हाय। नहीं मालूम िवरजन के भागय मे कया बदा है ?

कया यह गुन की मूितव, मेरे घर की दीिप, मेरे शरीर का पाण इसी दषुकृ त मनुषय के संग जीवन वयतीत करे गी ? कया मेरी शयामा इसी िगद के पाले पडे गी ? यह सोचकर सुशीला रोने लगती और घंटो रोती रहती है । पिहले

िवरजन को कभी-कभी डांट-डपट भी िदया करती थी, अब भूलकर भी कोई बात न कहती। उसका मंह दे खते ही उसे याद आ जाती। एक कण के िलए भा उसे सामने से अदशय न होने दे गी। यिद जरा दे र के िलए वह सुवामा के

घर चली जाती, तो सवयं पहुंच यजाती। उसे ऐसा पतीत होता मानो कोई उसे 39

छीनकर ले भागता है । िजस पकार वािधक की छुरी के तले अपने बछडे को

दे खकर गाय का रोम-रोम कांपने लगता है , उसी पकार िवरजन के दख ु का धयान करके सुशीला की आंखो मे संसार सूना जाना पडता था। इन िदनो िवरजन को पल-भर के िलए नेिो से दरू करते उसे वह कि और वयाकुलता होती,जो िचिडया को घोसले से बचचे के खो जाने पर होती है । सुशीला

भाविषय की

एक

तो

यो

ही

जीण व रोिगणी

थी।

उस

पर

असाधय िचनता और जलन ने उसे और भी धुला डाला।

िननदाओं ने कलेजा चली कर िदया। छ: मास भी बीतने न पाये थे िक कयरोग के िचहन िदखायी िदए। पथम तो कुछ िदनो तक साहस करके अपने द ु:ख को िछपाती रही, परनतु कब तक ? रोग बढने लगा और वह शिकहीन हो गयी। चारपाई से उठना किठन हो गया। वैद और डाकटर

औषिघ करने लगे। िवरयजन और सुवामा दोनो रात-िदन उसके पांस बैठी

रहती। िवरजन एक पल के िलए उसकी दिि से ओिल न होती। उसे अपने िनकट न दे खकर सुशीला बेसुध-सी हो जाती और िूट-िूटकर रोने लगती।

मुंशी संजीवनलाल पिहले तो धैय व के साथ दवा करते रहे , पर जब दे खा िक

िकसी उपाय से कुछ लाभ नहीं होता और बीमारी की दशा िदन-िदन िनकृ ि होती जाती है तो अंत मे उनहोने भी िनराश हो उदोग और साहस कम कर

िदया। आज से कई साल पहले जब सुवामा बीमार पडी थी तब सुशीला ने

उसकी सेवा-शुशष ू ा मे पूण व पिरशम िकया था, अब सुवामा बीमार पडी थी तब सुशीला ने उसकी सेवा-सुशष ू ा मे पूण व पिरशम िकया था,अब सुवामा की बारी

आयी। उसने पडोसी और भिगनी के धम व का पालन भली-भांित िकया। रगण-सेवा मे अपने गह ृ काय व को भूल-सी गई। दो-दो तीन-तीन िदन तक पताप से बोलने की नौबत न आयी। बहुधा वह िबना भोजन िकये ही सकूल चला जाता। परनतु कभी कोई अिपय शबद मुख से न िनकालता। सुशीला की

रगणावसथ ने अब उसकी दे षारािगन को बहुत कम कर िदया था। दे ष की अिगन दे िा की उननित और दद ु व शा के साथ-साथ तीव और पजजविलत हो

जाती है और उसी समय शानत होती है जब दे िा के जीवन का दीपक बुि जाता है ।

िजस िदन वज ृ रानी को जात हो जाता िक आज पताप िबना भोजन

िकये सकूल जा रहा है , उस िदन वह काम छोडकर उसके घर दौड जाती और भोजन करने के िलए आगह करती, पर पताप उससे बात न करता, उसे रोता 40

छोड बाहर चला जाता। िनससंसदे ह वह िवरजन को पूणत व :िनदोष समिता था, परनतु एक ऐसे संबध को, जो वष व छ: मास मे टू ट जाने वाला हो, वह

पहले ही से तोड दे ना चाहता था। एकानत मे बैठकर वह आप-ही-आप िूटिूटकर रोता, परनतु पेम के उदे ग को अिधकार से बाहर न होने दे ता।

एक िदन वह सकूल से आकर अपने कमरे मे बैठा हुआ था िक

िवरजन आयी। उसके कपोल अशु से भीगे हुए थे और वह लंबी-लंबी िससिकयां ले रही थी। उसके मुख पर इस समय कुछ ऐसी िनराशा छाई हुई

थी और उसकी दिि कुछ ऐसी करणोतपादक थी िक पताप से न रहा गया।

सजल नयन होकर बोला-‘कयो िवरजन। रो कयो रही हो ? िवरजन ने कुछ उतर न िदया, वरन और िबलख-िबलखकर रोने लगी। पताप का गामभीयव जाता रहा। वह िनससंकोच होकर उठा और िवरजन की आंखो से आंसू पोछने

लगा। िवरजन ने सवर संभालकर कहा-लललू अब माताजी न जीयेगी, मै कया करं ? यह कहते-कहते ििर िससिकयां उभरने लगी।

पताप यह समाचार सुनकर सतबध हो गया। दौडा हुआ िवरजन के घर

गया और सुशीला की चारपाई के समीप खडा होकर रोने लगा। हमारा अनत समय कैसा धनय होता है । वह हमारे पास ऐसे-ऐसे अिहतकािरयो को खींच

लाता है , जो कुछ िदन पूव व हमारा मुख नहीं दे खना चाहते थे, और िजनहे इस शिक के अितिरकत संसार की कोई अनय शिक परािजत न कर सकती थी। हां यह समय ऐसा ही बलवान है और बडे -बडे बलवान शिुओं को हमारे

अधीन कर दे ता है । िजन पर हम कभी िवजय न पाप कर सकते थे , उन पर हमको यह समय िवजयी बना दे ता है । िजन पर हम िकसी शिु से अिधकार

न पा सकते थे उन पर समय और शरीर के िशकहीन हो जाने पर भी हमको िवजयी बना दे ता है । आज पूरे वष व भर पशात पताप ने इस घर मे पदाप व ण

िकया। सुशीला की आंखे बनद थी, पर मुखमणडल ऐसा िवकिसत था, जैसे पभातकाल का कमल। आज भोर ही से वह रट लगाये हुए थी िक लललू को िदखा दो। सुवामा ने इसीिलए िवरजन को भेजा था।

सुवामा ने कहा-बिहन। आंखे खोलो। लललू खडा है ।

सुशीला ने आंखे खोल दीं और दोनो हाथ पेम-बाहुलय से िैला िदये।

पताप के हदय से िवरोध का अिनतम िचहन भी िवलीन हो गया। यिद ऐसे

काल मे भी कोई मतसर का मैल रहने दे , तो वह मनुषय कहलाने का हकदार

नहीं है । पताप सचचे पुितव-भाव से आगे बढा और सुशीला के पेमांक मे जा 41

िलपटा। दोनो आधे घंणटे तक रोते रहे । सुशीला उसे अपने दोनो बांहो मे इस

पकार दबाये हुए थी मानो वह कहीं भागा जा रहा है । वह इस समय अपने को सैकडो िघककार दे रहा था िक मै ही इस दिुखया का पाणहारी हूं। मैने ही दे ष-दरुावेग के वशीभूत होकर इसे इस गित को पहुंचाया है । मै ही इस पेम

की मूित व का नाशक हूं। जयो-जयो यह भावना उसके मन मे उठती, उसकी

आंखो से आंसू बहते। िनदान सुशीला बोली-लललू। अब मै दो-एक िदन की ओर मेहमान हूं। मेरा जो कुछ कहा-सुना हो, कमा करो।

पताप का सवर उसके वश मे न था, इसिलए उसने कुछ उतर न िदया।

सुशीला ििर बोली-न जाने कयो तुम मुिसे रि हो। तुम हमारे घर

नही आते। हमसे बोलते नहीं। जी तुमहे पयार करने को तरस-तरसकर रह जाता है । पर तुम मेरी तिनक भी सुिध नहीं लेते। बताओं, अपनी दिुखया चाची से कयो रि हो ? ईशर जानता है , मै तुमको सदा अपना लडका

समिती रही। तुमहे दे खकर मेरी छाती िूल उठती थी। यह कहते-कहते िनबल व ता के कारण उसकी बोली धीमी हो गयी, जैसे िकितज के अथाह

िवसतार मे उडनेवाले पकी की बोली पितकण मधयम होती जाती है -यहां तक िक उसके शबद का धयानमाि शेष रह जाता है । इसी पकार सुशीला की बोली धीमी होते-होते केवल सांय-सांय रह गयी।

42

10 सु शीला की म ृ तयु तीन िदन और बीते, सुशीला के जीने की अब कोई संभावना न रही।

तीनो िदन मुंशी संजीवनलाल उसके पास बैठे उसको सानतवना दे ते रहे । वह

तिनक दे र के िलए भी वहां से िकसी काम के िलए चले जाते, तो वह वयाकुल होने लगती और रो-रोकर कहने लगती-मुिे छोडकर कहीं चले गये।

उनको नेिो के सममुख दे खकर भी उसे संतोष न होता। रह-रहकर उतावलेपन से उनका हाथ पकड लेती और िनराश भाव से कहती-मुिे छोडकर कहीं चले तो नहीं जाओगे ? मुंशीजी यदिप बडे दढ-िचत मनुषय थे, तथािप ऐसी बाते

सुनकयर आदव नेि हो जाते। थोडी-थोडी दे र मे सुशीला को मूछाव-सी आ जाती।

ििर चौकती तो इधर-उधर भौजककी-सी दे खने लगती। वे कहां गये? कया छोडकर चले गये ? िकसी-िकसी बार मूछा व का इतना पकोप होता िक मुनशीजी बार-बार कहते-मै यही हूं,घबराओं नहीं। पर उसे िवशास न आता।

उनहीं की ओर ताकती और पूछती िक –कहां है ? यहां तो नहीं है । कहां चले गये ? थोडी दे र मे जब चेत हो जाता तो चुप रह जाती और रोने लगती।

तीनो िदन उसने िवरजन, सुवामा, पताप एक की भी सुिध न की। वे सब-केसब हर घडी उसी के पास खडे रहते, पर ऐसा जान पडता था, मानो वह मुशींजी के अितिरक और िकसी को पहचानती ही नहीं है । जब िवरजन बैचैन

हो जाती और गले मे हाथ डालकर रोने लगती, तो वह तिनक आंख खोल दे ती और पूछती-‘कौन है , िवरजन ? बस और कुछ न पूछती। जैसे, सूम के हदय मे मरते समय अपने गडे हुए धन के िसवाय और िकसी बात का

धयान नहीं रहयता उसी पकार िहनद ू-सिी अनत समय मे पित के अितिरक और िकसी का धयान नहीं कर सकती।

कभी-कभी सुशीला चौक पडती और िविसमत होकर पूछती-‘अरे । यह

कौन खडा है ? यह कौन भागा जा रहा है ? उनहे कयो ले जाते है ? ना मै न जाने दंग ू ी। यह कहकर मुंशीजी के दोनो हाथ पकड लेती। एक पल मे जब

होश आ जाता, तो लिजजत होकर कहती....’मै सपना दे ख रही थी, जैसे कोई तुमहे िलये जा रहा था। दे खो, तुमहे हमारी सौहं है , कहीं जाना नहीं। न जाने कहां ले जायेगा, ििर तुमहे कैसे दे खूंगी ? मुनशीजी का कलेजा मसोसने

लगता। उसकी ओर पित करणा-भरी सनेह-दिि डालकर बोलते-‘नहीं, मै न 43

जाउं गा। तुमहे छोडकर कहां जाउं गा ? सुवामा उसकी दशा दे खती और रोती िक अब यह दीपक बुिा ही चाहता है । अवसथा ने उसकी लजजा दरू कर दी थी। मुनशीजी के सममुख घंटो मुंह खोले खडी रहती।

चौथे िदन सुशीला की दशा संभल गयी। मुनशीजी को िवशास हो गया,

बस यह अिनतम समय है । दीपक बुिने के पहले भभक उठता है । पात:काल जब मुंह धोकर वे घर मे आये, तो सुशीला ने संकेत दारा उनहे अपने पास बुलाया

और कहा-‘मुिे अपने हाथ से थोडा-सा पानी िपला दो’’। आज वह

सचेत थी। उसने िवरजन, पताप, सुवामा सबको भली-भांित पिहचाना। वह

िवरजन को बडी दे र तक छाती से लगाये रोती रही। जब पानी पी चुकी तो सुवामा से बोली-‘बिहन। तिनक हमको उठाकर िबठा दो, सवामी जी के चरण छूं लूं। ििर न जाने कब इन चरणो के दशन व होगे। सुवामा ने रोते हुए अपने हाथो से सहारा दे कर उसे तिनक उठा िदया। पताप और िवरजन सामने खडे

थे। सुशीला ने मुनशीजी से कहा-‘मेरे समीप आ जाओ’। मुनशीजी पेम और

करणा से िवहल होकर उसके गले से िलपट गये और गदगद सवर मे

बोले-‘घबराओ नहीं, ईशर चाहे गा तो तुम अचछी हो जाओगी’। सुशीला ने िनराश भाव से कहा-‘हॉ’ आज अचछी हो जाउं गी। जरा अपना पैर बढा दो।

मै माथे लगा लूं। मुनशीजी िहचिकचाते रहे । सुवामा रोते हुए बोली-‘पैर बढा दीिजए, इनकी इचछा पूरी हो जाये। तब मुंशीजी ने चरण बढा िदये। सुशीला

ने उनहे दोनो हाथो मे पकड कर कई बार चूमा। ििर उन पर हाथ रखकर

रोने लगी। थोडे ही दे र मे दोनो चरण उषण जल-कणो से भीग गये। पितवता सी ने पेम के मोती पित के चरणो पर िनछोवर कर िदये। जब आवाज

संभली तो उसने िवरजन का एक हाथ थाम कर मुनशीजी के हाथ मे िदया

और अित मनद सवर मे कहा-सवामीजी। आपके संग बहुत िदन रही और

जीवन का परम सुख भोगा। अब पेम का नाता टू टता है । अब मै पल-भर की और अितिथ हूं। पयारी िवरजन को तुमहे सौप जाती हूं। मेरा यही िचहन है । इस पर सदा दया-दिि रखना। मेरे भागय मे पयारी पुिी का सुख दे खना नहीं

बदा था। इसे मैने कभी कोई कटु वचन नहीं कहा, कभी कठोर दिि से नहीं दे खा। यह मरे जीवन का िल है । ईशर के िलए तुम इसकी ओर से बेसुध न हो जाना। यह कहते-कहते िहचिकयां बंध गयीं और मूछाव-सी आ गयी।

जब कुछ अवकाश हआ तो उसने सुवामा के सममुख हाथ जोडे और

रोकर कहा- ‘बिहन’। िवरजन तुमहारे समपण व है । तुमहीं उसकी मता हो। 44

लललू। पयारे । ईशर करे तुम जुग-जुग जीओ। अपनी िवरजन को भूलना मत। यह तुमहारी दीना और मातह ृ ीना बिहन है । तुममे उसके पाण बसते है । उसे रलाना मत, उसे कुढाना मत, उसे कभी कठोर वचन मत कहना। उससे कभी न रठना। उसकी ओर से बेसुध न होना, नहीं तो वह रो-रो कर पाण दे

दे गी। उसके भागय मे न जाने कया बदा है , पर तुम उसे अपनी सगी बिहन

समिकर सदा ढाढस दे ते रहना। मै थोडी दे र मे तुम लोगो को छोडकर चली जाऊंगी, पर तुमहे मेरी सोह, उसकी ओर से मन मोटा न करना तुमहीं उसका

बेडा पार लगाओगे। मेरे मन मे बडी-बडी अिभलाषाएं थीं, मेरी लालसा थी िक तुमहारा बयाह करंगी, तुमहारे बचचे को िखलाउं गी। पर भागय मे कुछ और ही बदा था।

यह कहते-कहते वह ििर अचेत हो गयी। सारा घर रो रहा था।

महिरयां, महरािजने सब उसकी पशंसा कर रही थी िक सी नहीं, दे वी थी। रिधया-इतने िदन टहल करते हुए, पर कभी कठोर वचन न कहा।

महरािजन-हमको बेटी की भांित मानती थीं। भोजन कैसा ही बना दं ू

पर कभी नाराज नहीं हुई। जब बाते करतीं, मुसकरा के। महराज जब आते तो उनहे जरर सीधा िदलवाती थी।

सब इसी पकार की बाते कर रहे थे। दोपहर का समय हुआ।

महरािजन ने भोजन बनाया, परनतु खाता कौन ? बहुत हठ करने पर मुंशीजी गये और नाम करके चले आये। पताप चौके पर गया भी नहीं। िवरजन और

सुवामा को गले लगाती, कभी पताप को चूमती और कभी अपनी बीती कहकहकर रोती। तीसरे पहर उसने सब नौकरो को बुलाया और उनसे अपराध

कमा कराया। जब वे सब चले गये तब सुशीला ने सुवामा से कहा- बिहन

पयास बहुत लगती है । उनसे कह दो अपने हाथ से थोडा-सा पानी िपला दे । मुंशीजी पानी लाये। सुशीला ने किठनता से एक घूंट पानी कणठ से नीचे उतारा और ऐसा पतीत हुआ, मानो िकसी ने उसे अमत ृ िपला िदया हो।

उसका मुख उजजवल हो गया आंखो मे जल भर आया। पित के गले मे हाथ डालकर बोली—मै ऐसी भागयशािलनी हूं िक तुमहारी गोद मे मरती हूं। यह

कहकर वह चुप हो गयी, मानो कोई बात कहना ही चाहती है , पर संकोच से

नहीं कहती। थोडी दे र पशात ् उसने ििर मुंशीजी का हाथ पकड िलया और कहा-‘यिद तुमसे कुछ मांगू,तो दोगे ?

45

मुंशीजी ने िविसमत होकर कहा-तुमहारे िलए मांगने की आवशयकता है ?

िन:संकोच कहो।

सुशीला-तुम मेरी बात कभी नहीं टालते थे। मुनशीजी-मरते दम तक कभी न टालूंगा। सुशीला-डर लगता है , कहीं न मानो तो...

मुनशीजी-तुमहारी बात और मै न मानूं ?

सुशीला-मै तुमको न छोडू ं गी। एक बात बतला दो-िसलली(सुशीला)मर

जायेगी, तो उसे भूल जाओगे ?

मुनशीजी-ऐसी बात न कहो, दे खो िवरजन रोती है । सुशीला-बतलाओं, मुिे भूलोगे तो नहीं ? मुनशीजी-कभी नहीं।

सुशीला ने अपने सूखे कपोल मुशींजी के अधरो पर रख िदये और

दोनो बांहे उनके गले मे डाल दीं। ििर िवरजन को िनकट बुलाकर धीरे -धीरे

समिाने लगी-दे खो बेटी। लालाजी का कहना हर घडी मानना, उनकी सेवा मन लगाकर करना। गह ृ का सारा भर अब तुमहारे ही माथे है । अब तुमहे

कौन सभांलेगा ? यह कह कर उसने सवामी की ओर करणापूण व नेिो से दे खा और कहा- मै अपने मन की बात नहीं कहने पायी, जी डू बा जाता है । मुनशीजी-तुम वयथव असमंजस मे पडी हो। सुशीला-तुम मरे हो िक नहीं ?

मुनशीजी-तुमहारा और आमरण तुमहारा।

सुशीला- ऐसा न हो िक तुम मुिे भूल जाओं और जो वसतु मेरी थी

वह अनय के हाथ मे चली जाए।

सुशीला ने िवरजन को ििर बुलाया और उसे वह छाती से लगाना ही

चाहती थी िक मूिछव त हो गई। िवरजन और पताप रोने लगे। मुंशीजी ने

कांपते हुए सुशीला के हदय पर हाथ रखा। सांस धीरे -धीरे चल रही थी। महरािजन को बुलाकर कहा-अब इनहे भूिम पर िलटा दो। यह कह कर रोने

लगे। महरािजन और सुवामा ने िमलकर सुशीला को पथ ृ वी पर िलटा िदया। तपेिदक ने हिडडयां तक सुखा डाली थी।

अंधेरा हो चला था। सारे गह ृ मे शोकमय और भयावह सननाटा छाया

हुआ था। रोनेवाले रोते थे, पर कणठ बांध-बांधकर। बाते होती थी, पर दबे

सवरो से। सुशीला भूिम पर पडी हुई थी। वह सुकुमार अंग जो कभी माता के 46

अंग मे पला, कभी पेमांक मे पौढा, कभी िूलो की सेज पर सोया, इस समय

भूिम पर पडा हुआ था। अभी तक नाडी मनद-मनद गित से चल रही थी।

मुंशीजी शोक और िनराशानद मे मगन उसके िसर की ओर बैठे हुए थे। अकससमात ् उसने िसर उठाया और दोनो हाथो से मुंशीजी का चरण पकड िलया। पाण उड गये। दोनो कर उनके चरण का मणडल बांधे ही रहे । यह उसके जीवन की अंितम िकया थी।

रोनेवालो, रोओ। कयोिक तुम रोने के अितिरक कर ही कया सकते हो?

तुमहे इस समय कोई िकतनी ही सानतवना दे , पर तुमहारे नेि अशु-पवाह को न रोक सकेगे। रोना तुमहारा कतववय है । जीवन मे रोने के अवसर कदािचत िमलते है । कया इस समय तुमहारे नेि शुषक हो जायेगे ? आंसुओं के तार बंधे हुए थे, िससिकयो के शबद आ रहे थे िक महरािजन दीपक जलाकर घर मे लायी। थोडी दे र पिहले सुशीला के जीवन का दीपक बुि चुका था।

47

11 िव रजन की िव दा राधाचरण रडकी कालेज से िनकलते ही मुरादाबाद के इं जीिनयर

िनयुक हुए और चनदा उनके संग मुरादाबाद को चली। पेमवती ने बहुत रोकना चाहा, पर जानेवाले को कौन रोक सकता है । सेवती कब की ससुराल

आ चुकी थी। यहां घर मे अकेली पेमवती रह गई। उसके िसर घर का कामकाज पडा। िनदान यह राय हुई िक िवरजन के गौने का संदेशा भेजा जाए।

िडपटी साहब सहमत न थे, परनतु घर के कामो मे पेमवती ही की बात चलती थी।

संजीवनलाल ने संदेशा सवीकार कर िलया। कुछ िदनो से वे तीथय व ािा

का िवचार कर रहे थे। उनहोने कम-कम से सांसािरक संबंध तयाग कर िदये

थे। िदन-भर घर मे आसन मारे भगवदगीता और योगवािशि आिद जानसंबिनधनी पुसतको का अधययन िकया करते थे। संधया होते ही गंगा-सनान को चले जाते थे। वहां से रािि गये लौटते और थोडा-सा भोजन करके सो जाते। पाय: पतापचनद भी उनके संग गंगा-सनान को जाता। यदिप उसकी

आयु सोलह वष व की भी न थी, पर कुछ तो यिनज सवभाव, कुछ पैतक ृ संसकार और कुछ संगित के पभाव से उसे अभी से वैजािनक िवषयो पर

मनन और िवचार करने मे बडा आननद पाप होता था। जान तथा ईशर

संबिनधनी बाते सुनते-सुनते उसकी पविृत भी भिक की ओर चली थी, और

िकसी-िकसी समय मुनशीजी से ऐसे सूकम िवषयो पर िववाद करता िक वे िविसमत हो जाते। वज ृ रानी पर सुवामा की िशका का उससे भी गहरा पभाव

पडा था िजतना िक पतापचनद पर मुनशीजी की संगित और िशका का। उसका पनदहवा वष व था। इस आयु मे नयी उमंगे तरं िगत होती है और िचतवन मे सरलता चंचलता की तरह मनोहर रसीलापन बरसने लगता है ।

परनतु वज ृ रानी अभी वही भोली-भाली बािलका थी। उसके मुख पर हदय के

पिवि भाव िलकते थे और वाताल व ाप मे मनोहािरणी मधुरता उतपनन हो

गयी थी। पात:काल उठती और सबसे पथम मुनशीजी का कमरा साि करके,

उनके पूजा-पाठ की सामगी यथोिचत रीित से रख दे ती। ििर रसोई घर के धनधे मे लग जाती। दोपहर का समय उसके िलखने-पढने का था। सुवामा 48

पर उसका िजतना पेम और िजतनी शदा थी, उतनी अपनी माता पर भी न रही होगी। उसकी इचछा िवरजन के िलए आजा से कम न थी।

सुवामा की तो सममित थी िक अभी िवदाई न की जाए। पर मुनशीजी

के हठ से िवदाई की तैयािरयां होने लगीं। जयो-जयो वह िवपित की घडी

िनकट आती, िवरजन की वयाकुलता बढती जाती थी। रात-िदन रोया करती। कभी िपता के चरणो मे पडती और कभी सुवामा के पदो मे िलपट जाती।

पार िववािहता कनया पराये घर की हो जाती है , उस पर िकसी का कया अिधकार।

पतापचनद और िवरजन िकतने ही िदनो तक भाई-बहन की भांित एक

साथ रहे । पर जब िवरजन की आंखे उसे दे खते ही नीचे को िुक जाती थीं। पताप की भी यही दशा थी। घर मे बहुत कम आता था। आवशयकतावश

आया, तो इस पकार दिि नीचे िकए हुए और िसमटे हुए, मानो दल ु िहन है ।

उसकी दिि मे वह पेम-रहसय िछपा हुआ था, िजसे वह िकसी मनुषय-यहां तक िक िवरजन पर भी पकट नहीं करना चाहता था।

एक िदन सनधया का समय था। िवदाई को केवल तीन िदन रह गये

थे। पताप िकसी काम से भीतर गया और अपने घर मे लैमप जलाने लगा

िक िवरजन आयी। उसका अंचल आंसुओं से भीगा हुआ था। उसने आज दो वष व के अननतर पताप की ओर सजल-नेि से दे खा और कहा-लललू। मुिसे कैसे सहा जाएगा ?

पताप के नेिो मे आंसू न आये। उसका सवर भारी न हुआ। उसने

सुदढ भाव से कहा-ईशर तुमहे धैयव धारण करने की शिक दे गे।

िवरजन का िसर िुक गया। आंखे पथ ृ वी मे पड गयीं और एक िससकी

ने हदय-वेदना की यह अगाध कथा वणन व की, िजसका होना वाणी दारा असंभव था।

िवदाई का िदन लडिकयो के िलए िकतना शोकमय होता है । बचपन

की सब सिखयो-सहे िलयो, माता-िपता, भाई-बनधु से नाता टू ट जाता है । यह

िवचार िक मै ििर भी इस घर मे आ सकूंगी , उसे तिनक भी संतोष नहीं

दे ता। कयो अब वह आयेगी तो अितिथभाव से आयेगी। उन लोगो से िवलग होना, िजनके साथ जीवनोदान मे खेलना और सवातंदिय-वािटका मे भमण करना उपलबध हुआ हो, उसके हदय को िवदीण व कर दे ता है । आज से उसके िसर पर ऐसा भार पडता है , जो आमरण उठाना पडे गा। 49

िवरजन का शग ृ ांर िकया जा रहा था। नाइन उसके हाथो व पैरो मे

मेहदी रचा रही थी। कोई उसके बाल गूथ ं रही थी। कोई जुडे मे सुगनध बसा

रही थी। पर िजसके िलये ये तैयािरयां हो रही थी, वह भूिम पर मोती के दाने िबखेर रही थी।

इतने मे बारह से संदेशा आया िक मुहूवत टला जाता है ,

जलदी करो। सुवामा पास खडी थी। िवरजन, उसके गले िलपट गयी और

अशु-पवाह का आंतक, जो अब तक दबी हुई अिगन की नाई सुलग रहा था, अकसमात ् ऐसा भडक उठा मानो िकसी ने आग मे तेल डाल िदया है ।

थोडी दे र मे पालकी दार पर आयी। िवरजन पडोस की िसतयो से गले

िमली। सुवामा के चरण छुए, तब दो-तीन िसिियो ने उसे पालकी के भीतर

िबठा िदया। उधर पालकी उठी, इधर सुवामा मूिचछव त हो भूिम पर िगर पडी, मानो उसके जीते ही कोई उसका पाण िनकालकर िलये जाता था। घर सूना हो गया। सैकंडो िसियां का जमघट था, परनतु एक िवरजन के िबना घर िाडे खाता था।

50

12 कम लाच रण के िम ि जैसे िसनदरू की लािलमा से मांग रच जाती है , जैसे ही िवरजन के आने

से पेमवती के घर की रौनक बढ गयी। सुवामा ने उसे ऐसे गुण िसखाये थे

िक िजसने उसे दे खा, मोह गया। यहां तक िक सेवती की सहे ली रानी को भी पेमवती के सममुख सवीकार करना पडा िक तुमहारी छोटी बहू ने हम सबो

का रं ग िीका कर िदया। सेवती उससे िदन-िदन भर बाते करती और उसका

जी न ऊबता। उसे अपने गाने पर अिभमान था, पर इस केि मे भी िवरजन बाजी ले गयी।

अब कमलाचरण के िमिो ने आगह करना शुर िकया िक भाई, नई

दल ु िहन घर मे लाये हो, कुछ िमिो की भी ििक करो। सुनते है परम सुनदरी पाये हो।

कमलाचरण को रपये तो ससुराल से िमले ही थे, जेब खनखनाकर

बोले-अजी, दावत लो। शराबे उडाओ। हॉ, बहुत शोरगुल न मचाना, नहीं तो कहीं भीतर खबर होगी तो समिेगे िक ये गुणडे है । जब से वह घर मे आयी

है , मेरे तो होश उडे हुए है । कहता हूं, अंगेजी, िारसी, संसकृ त, अलम-गलम

सभी घोटे बैठी है । डरता हूं कहीं अंगेजी मे कुछ पूछ बैठी, या िारसी मे बाते करने लगे, मुहॅ ताकने के िसवाय और कया करंगा ? इसिलए अभी जी बचाता ििरता हूं।

यो तो कमलाचरण के िमिो की संखया अपिरिमत थी। नगर के िजतने

कबूतर-बाज, कनकौएबाजा गुणडे थे सब उनके िमि परनतु सचचे िमिो मे केवल पांच महाशय थे और सभी-के-सभी िाकेमसत िछछोरे थे। उनमे सबसे अिधक िशिकत िमया मजीद थे। ये कचहरी मे अरायज िकया करते थे। जो कुछ िमलता, वह सब शराब मे भेट करते। दस ू रा नमबर हमीदं खा का था।

इन महाशय ने बहुत पैतक ृ संपित पायी थी, परनतु तीन वष व मे सब कुछ

िवलास मे लुटा दी। अब यह ढं ग था िक सांय को सज-धजकर गािलयो मे

धूल िॉकते ििरते थे। तीसरे हजरत सैयद हुसैन थे-पकके जुआरी, नाल के परम भक, सैकंडो के दांव लगाने वाले, सी गहनो पर हाथ मॉजना तो िनतय का इनका काम था। शेष दो महाशय रामसेवकलालल और चनहदल ू ाल

कचहरी मे नौकर थे। वेतन कम, पर ऊपरी आमदनी बहुत थी। आधी 51

सुरापान की भेट करते, आधी भोग-िवलास मे उडाते। घर मे लोग भूखे मरे या िभका मॉगे, इनहे केवल अपने सुख से काम था।

सलाह तो हो चुकी थी। आठ बजे जब िडपटी साहब लेटे तो ये पॉचो

जने एकि हुए और शराब के दौर चलने लगे। पॉचो पीने मे अभयसत थे। अब नशे का रं ग जमा,बहक-बहककर बाते करने लगे।

मजीद-कयो भाई कमलाचरण, सच कहना, सी को दे खकर जी खुश हो

गया िक नहीं ?

कमला-अब आप बहकने लगे कयो ?

रामसेवक-बतला कयो नहीं दे ते, इसमे िेपने की कौन-सी बात है ?

कमला-बतला कया अपना िसर दं ू, कभी सामने जाने का संयोग भी तो

हुआ हो। कल िकवाड की दरार से एक बार दे ख िलया था, अभी तक िचि ऑखो पर ििर रहा है ।

चनदल ू ाल-िमि, तुम बडे भागयवान हो।

कमला-ऐसा वयाकुल हुआ िक िगरते-िगरते बचा। बस, परी समि लो।

मजीद-तो भई, यह दोसती िकस िदन काम आयेगी। एक नजर हमे भी

िदखाओं।

सैयद-बेशक दोसती के यही मानी है िक आपस मे कोई पदाव न रहे ।

चनदल ू ाल-दोसती मे कया पदा व ? अंगेजो को दे खो,बीबी डोली से उतरी

नहीं िक यार दोसत हाथ िमलाने लगे।

रामसेवक-मुिे तो िबना दे खे चैन न आयेगा ?

कमला-(एक धप लगा कर) जीभ काट ली जायेगी, समिे ? रामसेवक-कोई िचनता नहीं, ऑखे तो दे खने को रहे गी।

मजीद-भई कमलाचरण, बुरा मानने की बात नहीं, अब इस वक तुमहारा

िजव है िक दोसतो की िरमाइश पूरी करो।

कमला-अरे । तो मै नहीं कब करता हूं ?

चनदल ू ाल-वाह मेरे शेर। ये ही मदो की सी बाते है । तो हम लोग बन-

ठनकर आ जायॅ, कयो ?

कमला-जी, जरा मुंह मे कािलख लगा लीिजयेगा। बस इतना बहुत है । सैयद-तो आज ही ठहरी न।

इधर तो शराब उड रही थी, उधर िवरजन पलंग पर लेटी हुई िवचार मे

मगन हो रही थी। बचपन के िदन भी कैसे अचछे होते है । यिद वे िदन एक 52

बार ििर आ जाते। ओह। कैसा मनौहर जीवन था। संसार पेम और पीित की

खान थी। कया वह कोई अनय संसार था ? कया उन िदनो संसार की वसतुए बहुत सुनदर होती थी ? इनहीं िवचारो मे ऑख िपक गयी और बचपन की एक घटना आंखो के सामने आ गयी। लललू ने उसकी गुिडया मरोड दी। उसने उसकी िकताब के दो पनने िाड

िदये। तब लललू ने उसकी पीठ मं

जोर से चुटकी ली, बाहर भागा। वह रोने लगी और लललू को कोस रही थी िक सवामा उसका हाथ पकडे आयी और बोली-कयो बेटी इसने तुमहे मारा है

न ? यह बहुत मार-मार कर भागता है । आज इसकी खबर लेती हं , दे खूं कहां मारा है । लललू ने डबडबायी ऑखो से िवरजन की ओर दे खा। तब िवरजन ने

मुसकरा कर कहा-मुिे उनहांने कहॉ मारा है । ये मुिे कभी नहीं मारते। यह कहकर उसका हाथ पकड िलया। अपने िहससे की िमठाई िखलाई और ििर दोनो िमलकर खेलने लगे। वह समय अब कहां 9

रािि अिधक बीत गयी थी, अचानक िवरजन को जान पडा िक कोई

सामने वाली दीवार धमधमा रहा है । उसने कान लगाकर सुना। बराबर शबद

आ रहे थे। कभी रक जाते ििर सुनायी दे ते। थोडी दे र मे िमटटी िगरन लगी। डर के मारे िवरजन के हाथ-पांव िूलने लगे। कलेजा धक-धक करने लगा। जी कडा करके उठी और महरािजन चतर सी थी। समिी िक िचललाऊंगी तो जाग हो जायेगी। उसने सुन रखा था िक चोर पिहले सेध मे

पांव डालकर दे खते है तब आप घुसते है । उसने एक डं डा उठा िलया िक जब पैर डालेगा तो ऐसा तानकर मारंगी िक टॉग टू ट जाएगी। पर चोर न पांव के सथन पर िसर रख िदया। महरािजन घात मं थी ही डं डा चला िदया। खटक

की आवाज आयी। चोर न िट िसंर खीच िलया और कहता हुआ सुनायी िदया-‘उि मार डाला, खोपडी िनना गयी’। ििर कई मनुषयो के हॅ सने की

धविन आयी और ततपशात सननाटा हो गया। इतने मे और लोग भी जाग पडे और शेष रािि बातचीत मे वयतीत हुई।

पात:काल जब कमलाचरण घर मं आये, तो नेि लाल थे और िसर मे

सूजन थी। महरािजम ने िनकट जाकर दे खा, ििर आकर िवरजन से कहा-बहू एक बात कहूं। बुरा तो न मानोगी ?

िवरजन – बुरा कयो मानूगीं, कहो कया कहती हो?

महरािजन – रात को सेध पडी थी वह चोरो ने नहीं लगायी थी। िवरजन –ििर कौन था?

53

महरािजन – घर ही के भेदी थे। बाहरी कोई न था। िवरजन – कया िकसी कहारन की शरारत थी?

महरािजन – नहीं, कहारो मे कोई ऐसा नहीं है ।

िवरजन – ििर कौन था, सपि कयो नहीं कहती?

महारािजन – मेरी जान मे तो छोटे बाबू थे। मैने जो लकडी मारी थी,

वह उनके िसर मे लगी। िसर िूला हुआ है ।

इतना सुनते ही िवरजन की भक ृ ु टी चढ गयी। मुखमंडल अरण हो

आया। कुद होकर बोली – महरािजन, होश संभालकर बाते करो। तुमहे यह कहते हुए लाज नहीं आती? तमहे मेरे सममुख ऐसी बात कहने का साहस

कैसे हुआ? साकात ् मेरे ऊपर कलंक का टीका लगा रही हो। तुमहारे बुढापे पर दया आती है , नहीं तो अभी तुमहे यहां से खडे -खडे िनकलवा दे ती। तब तुमहे

िविदत होता िक जीभ को वश मे न रखने का कया िल होता है ! यहां से उठ जाओ, मुिे तुमहारा मुंह दे खकर जवर-सा चढ रहा है । तुमहे इतना न समि ्

पडा िक मै कैसा वाकय मुंह से िनकाल रही हूं। उनहे ईशर ने कया नहीं िदया

है ? सारा घर उनका है । मेरा जो कुछ है , उनका है । मै सवयं उनकी चेरी हूं। उनके संबंध मे तुम ऐसी बात कह बैठीं।

परनतु िजस बात पर िवरजन इतनी कुद हुई, उसी बात पर घर के और

लोगो को िवशवास हो गया। िडपटी साहब के कान मे भी बात पहुंची। वे

कमलाचरण को उससे अिधक दि ु -पकृ ित समिते थे, िजतना वह था। भय

हुआ िक कहीं यह महाशय बहू के गहनो पर न हाथ बढाये: अचछा हो िक इनहे छािालय मे भेज दं।ू कमलाचरण ने यह उपाय सुना तो बहुत

छटपटाया, पर कुछ सोच कर छािालय चला गया। िवरजन के आगमन से

पूव व कई बार यह सलाह हुई थी, पर कमला के हठ के आगे एक भी न चलती थी। यह सी की दिि मे िगर जाने का भय था, जो अब की बार उसे छािालय ले गया।

54

१३ का या पलट पहला िदन तो कमलाचरण ने िकसी पकार छािालय मे काटा। पात: से

सायंकाल तक सोया िकये। दस ू रे िदन धयान आया िक आज नवाब साहब

और तोखे िमजा व के बटे रो मे बढाऊ जोड है । कैसे-कैसे मसत पटठे है ! आज उनकी पकड दे खने के योगय होगी। सारा नगर िट पडे तो आशय व नहीं। कया िदललगी है िक नगर के लोग तो आनंद उडाये और मै पडा रोऊं। यह सोचते-सोचते उठा और बात-की-बात मे अखाडे मे था।

यहां आज बडी भीड थी। एक मेला-सा लगा हुआ था।

भीशती

िछडकाव कर रहे थे, िसगरे ट, खोमचे वाले और तमबोली सब अपनी-अपनी दक ु ान लगाये बैठे थे। नगर के मनचले युवक अपने हाथो मे बटे र िलये या

मखमली अडडो पर बुलबुलो को बैठाये मटरगशती कर रहे थे कमलाचरण के िमिो की यहां कया कमी थी? लोग उनहे खाली हाथ दे खते तो पूछते – अरे

राजा साहब! आज खाली हाथ कैसे? इतने मे िमयां, सैयद मजीद, हमीद आिद नशे मे चूर, िसगरे ट के धुऐं भकाभक उडाते दीख पडे । कमलाचरण को दे खते ही सब-के-सब सरपट दौडे और उससे िलपट गये।

मजीद – अब तुम कहां गायब हो गये थे यार, कुरान की कसम मकान

के सैकडो चककर लगाये होगे।

रामसेवक – आजकल आनंद की राते है , भाई! आंखे नहीं दे खते हो,

नशा-सा चढा हुआ है ।

चनदल ु ाल – चैन कर रहा है पटठा। जब से सुनदरी घर मे आयी, उसने

बाजार की सूरत तक नहीं दे खी। जब दे खीये, घर मे घुसा रहता है । खूब चैन कर ले यार!

कमला – चैन कया खाक करं ? यहां तो कैद मे िंस गया। तीन िदन

से बोिडि ग मे पडा हुआ हूं।

मजीद - अरे ! खुदा की कसम?

कमला – सच कहता हूं, परसो से िमटटी पलीद हो रही है । आज

सबकी आंख बचाकर िनकल भागा।

रामसेवक – खूब उडे । वह मुछंदर सुपिरणटे णडणट िलला रहा होगा। 55

कमला – यह माके का जोड छोडकर िकताबो मे िसर कौन मारता।

सैयद – यार, आज उड आये तो कया? सच तो यह है िक तुमहारा वहां

रहना आित है । रोज तो न आ सकोगे? और यहां आये िदन नयी सैर, नयीनयी बहारे , कल लाला

िडगगी पर, परसो पेट पर, नरसो बेडो का मेला-कहां

तक िगनाऊं, तुमहारा जाना बुरा हुआ।

कमला – कल की कटाव तो मै जरर दे खूंगा, चाहे इधर की दिुनया

उधर हो जाय।

सैयद – और बेडो का मेला न दे खा तो कुछ न दे खा।

तीसरे पहर कमलाचरण िमिो से िबदा होकर उदास मन छािालय की

ओर चला। मन मे एक चोर-सा बैठा हुआ था। दार पर पहुंचकर िांकने लगािक सुपिरणटे णडे णट साहब न हो तो लतपककर कमरे मे हो रहूं। तो यह

दे खता है िक वह भी बाहर ही की ओर आ रहे है । िचत को भली-भांित दढ करके भीतर पैठा।

सुिरणटे णडे णट साहब ने पूछा – अब तक हां थे? ‘एक काम से बाजार गया था’।

‘यह बाजार जाने का समय नहीं है ’।

‘मुिे जात नहीं था, अब धयान रखूंग को जब कमला चारपाई पर लेटा

तो सोचने लगा – यार, आज तो बच गया, पर उतम तभी हो िक कल बचूं।

और परसो भी महाशय की आंख मे धूल डालूं। कल का दशय वसतुत:दशन व ीय होगा। पतंग आकाश मे बाते करे गे और लमबे-लमबे पेच होगे। यह धयान करते-करते सो गया। दस ू रे िदन पात: काल छािालय से

िनकल भागा।

सुहदगण लाल िडगगी पर उसकी पतीका कर रहे थे। दे खते ही गदगद हो गये और पीठ ठोकी।

कमलाचरण कुछ दे र तक तो कटाव दे खता रहा। ििर शौक चराय व ा िक

कयो न मै भी अपने कनकौए मंगाऊं और अपने हाथो की सिाई सैयद

िदखलाऊं।

ने भडकाया, बद-बदकर लडाओ। रपये हम दे गे।चट घर पर आदमी

दौडा िदया। पूरा िवशास था िक अपने मांिे से सबको परासत कर दंग ू ा।

परनतु जब आदमी घर से खाली हाथ आया, तब तो उसकी दे ह मे आग-सीलग गयी। हणटर लेकर दौडा और घर पहुंचते ही कहारो को एक ओर से

सटर-सटर पीटना आरं भ िकया। बेचारे बैठे हुकका: तमाखू कर रहे थे। िनरपराध अचानक हणटर पडे तो

िचलला-िचललाकर रोने लेगे। सारे मुहलले 56

मे एक कोलाहल मच गया। िकसी को समि ही मे न आया िक हमारा कया

दोष है ? वहां कहारो का भली-भांित सतकार करके कमलाचरण अपने कमरे मे पहुंचा। परनतु वहां की दद ु व शा दे खकर कोध और भी पजजविलत हो गया। पतंग िटे हुए थे, चिखय व ां टू टी हुई थीं, मांिे लिचछयां उलि ् पडीं थीं, मानो िकसी आपित ने इन यवन योदाओं का सतयानाश कर िदया था। समि गया िक अवशय यह माताजी की करतूत है । कोध से लाल माता के पास गया

और उचच सवर से बोला – कया मां! तुम सचमुच मेरे पाण ही लेने पर आ गयी हो? तीन िदन हुए कारागार मे िभजवाया पर इतने पर भी िचत को संतोष न हुआ। मेरे िवनोद की सामिगयो को नि कर डाला कयो?

पेमवती – (िवसमय से) मैने तुमहारी कोई चीज नहीं छुई! कया हुआ?

कमला – (िबगडकर) िूठो के मुख मे कीडे पडते है । तुमने मेरी वसतुएं

नहीं छुई तो िकसको साहस है जो मेरे कमरे मे जाकर मेरे कनकौए और चिखय व ां सब तोड-िोड डाले, कया इतना भी नहीं दे खा जाता। पेमवती – ईशर साकी है । मैने तुमहारे कमरे मे

पांव भी नहीं रखा।

चलो, दे खूं कौन-कौन चीजे टू टी है । यह कहकर पेमवती तो इस कमरे की ओर चली और कमला कोध से भरा आंगन मे खडा रहा िक इतने मे माधवी

िवरजन के कमरे से िनकली और उसके हाथ मे एक िचटटी दे कर चली गयी। िलखा हुआ था-

‘अपराध मैने िकया है । अपरािधन मै हूं। जो दणड चाहे दीिजए’।

यह पि दे खते ही कमला भीगी िबलली बन गया और दबे पांव बैठक

की ओर चला। पेमवती पदे की आड से िससकते हुए नौकरो को डांट रही थी, कमलाचरण ने उसे मना िकया और उसी कण कुछ और कनकौए जो बचे

हुए थे, सवंय िाड डाले, चिखय व ां टु कडे -टु कडे कर डालीं और डोर मे िदयासलाई लगा दी। माता के धयान ही मे नहीं आता था िक कया बात है ? कहां तो

अभी-अभी इनहीं वसतुओं के िलए संसार िसर पर उठा िलया था, और कहा आप ही उसका शिु हो गया। समिी, शायद कोध से ऐसा कर रहा हो मानाने लगीं, पर कमला की आकृ ित से कोध तिनक भी पकट न होता था। िसथरता से बोला – कोध मे नहीं हूं। आज से दढ पितजा करता हूं िक पतंग कभी न उडाऊँगां मेरी मूखत व ा थी, इन वसतुओं के िलए आपसे िगड बैठा।

जब कमलाचरण कमरे मे अकेला रह गया तो सोचने लगा-िनससनदे ह

मेरा पतंग उडाना उनहे नापसनद है , इससे हािदवक घण ृ ा है ; नहीं तो मुि पर 57

यह अतयाचार कदािप न करतीं। यिद एक बार उनसे भेट हो जाती तो पूछता

िक तुमहारी कया इचछा है ; पर कैसे मुँह िदखाऊँ। एक तो महामूशव, ितस पर कई बार अपनी मूखत व ा का पिरचय दे चुका। सेधवाली घटना की सूचना उनहे

अवशय िमली होगी। उनहे मुख िदखाने के योगय नहीं रहा। अब तो यही

उपाय है िक न तो उनका मुख दे खूँ न अपना िदखाऊँ, या िकसी पकार कुछ िवदा सीखूँ। हाय ! इस सुनदरी ने कैसार सवरप पाया है ! सी नीह अपसरा

जान पडती है । कया अभी वह िदन भी होगा जब िक वह मुिसे पेम करे गी? कया लाल-लाल रसीले अधर है ! पर है कठोर हदय। दया तो उसे छू नही

गयी। कहती है जो दणड दँ ू? यिद पा जाऊँ हदय से लगा लू। अचछा, तो अब

आज से पढना चािहये। यह सोचते-सोचते उठा और दरबा खोलकर कबूतरो का उडाने लगा। सैकडो जोडे थे ओर एक-से-एक बढ-चढकर। आकाश मे तारे

बन जाएँ, डे तो िदन-भर उतरने का नाम न ले। जगर क बूतरबाज एक-एक जोड पर गुलामी करने को तैयार थे। परनतु कण-माि मे सब-के-सब उडा िदय। जब दरबा खाली हो ेेगया, तो कहाररो को आजा दी िक इसे उठा ले

जाओ और आग मे जला दो। छता भी िगरा दो, नहीं तो सब कबूतर जाकर उसकी पर बैठेगे। कबूतरो का काम समाप करके बटे रो और बुलबुलो की ओर चले और उनकी भी कारागार से मुक कर िदया।

बाहर तो यह चिरि हो रहा था, भीतर पेमवती छाती पीट रही थी िक

लका न जाने कया करने तर ततपर हुआ है ? िवरजन को बुलाकर कहा-बेटी? बचचे को िकसी पकार रोको। न-जाने उसने मन मे कया ठानी है ? यह कहक

रोने लगी! िवरजन को भी सनदे ह हो रहा था िक अवशय इनकी कुछ और नयीत है नहीं तो यह कोध कयो? यदिप कमला दवुयस व नी था, दरुाचारी था,

कुचिरि था, परनतु इन सब दोषो के होते हुए भी उसमे एक बडा गुण भी था, िजसका कोई सी अवहे लना नहीं कर सकती। उसे वज ृ रानी से सववी पीित थी। और इसका गुप ् रीित से कई बार पिरचय भी िमल गया था। यही

कारण था िजसेन िवरजन को इतना गवश व ील बना िदया था। उसने कागेज िनकाला और यह पि बाहर भेजा। “िपयत, यह कोप िकस पर है ? केवल इसीिलए िक मैने दो-तीन कनकौए िाडृ

डाले? यिद मुिे जात होता िक आप इतनी-सी बात पर ऐसे कुद हो जायेगे, 58

तो कदािप उन पर हाथ न लगाती। पर अब तो अपराध हो गया, कमा कीिजये। यह पहला कसूर है

आपकी

वज ृ रानी।”

कमलाचरण यह पि पाकर ऐसा पमुिदत हुआ, माने सारे जगत की

संपित पाप हो गयी। उतर दे ने की इचछा हुई, पर लेखनी ही नहीं उठती थी।

न पशिसत िमलती है , न पितिा, न आरं भ का िवचार आता, न समािप का।

बहुत चाहते है िक भावपूण व लहलहाता हुआ पि िलखूं, पर बुिद तिनक भी नहीं दौडती। आज पथम बार कमलाचरण को अपनी मुखत व ा और िनरकरता

पर रोना आया। शोक ! मै एक सीधा-सा पि भी नहीं िलख सकता। इस

िवचार से वह रोने लगा और घर के दार सब बनद कर िलये िक कोई दे ख न ले।

तीसरे पहर जब मुंशी शयामाचरण घर आये, तो सबसे पहली वसतु जो

उनकी दिि मे पडी, वह आग का अलावा था। िविसमत होकर नौकरो से पूडायह अलाव कैसा?

नौकरो ने उतर िदया-सरकार ! दरबा जल रहा है ।

मुंशीजी- (घुडककर) इसे कयो जलाते हो? अब कबूर कहाँ रहे गे? कहार-छोटे बाबू की आजा है िक सब दरबे जला दो मुंशीजी- कबूतर कहाँ गये?

कहार-सब उडा िदये, एक भी नहीं रखा। कनकौए सब िाड डाले, डोर

जला दी, बडा नुकसान िकया।

कहरो ने अपनी समि मे मार-पीट का बउला िलया। बेचारे समिे िक

मुंशीजी इस नुकासन क िलये कमलाचरण को बुरा-भला कहे गे, परनतु मंशीजी ने यह समाचार सुना तो भैचकके-से रह गये। उनही जानवरो पर कमलाचरण

पाण दे ता था, आज अकसमात ् कया कायापलट हो गयी? अवशय कुछ भेद है । कहार से कहा- बचचे को भेज दो।

एक िमनट मे कहार ने आकर कहा- हजुर, दरवाजा भीतर से बनद है ।

बहुत खटखटाया, बोलते ही नहीं।

इतना सुनना था िक मुंशीजी का रिधर शुषक हो गया। िट सनदे ह

हुआ िक बचचे ने िवष खा िलया। आज एक जहर िखलाने के मुकदमे का 59

िैसला िकया था। नंगे, पाँव दौडे और बनद कमरे के िकवाड पर बजपूवक व लात मारी और कहा- बचचा! बचचा! यह कहते-कहते गला रँ ध गया। कमलाचरण िपता की वाणी पिहचान कर िट उठा और अपने आँसूं पोछकर

िकवाड खोल िदया। परनतु उसे िकतना आशयव हुआ, जब मुंशीजी ने िधककार, िटकार के बदले उसे हदय से लगा िलया और वयाकुल होकर पूछा-बचचा, तुमहे मेरे िसर की कसम, बता दो तुमने कुछ खा तो नहीं िलया? कमलाचरण ने इस पश का अथव समिने के िलये मुंशीजी की ओर आँखे उठायी तो उनमे

जल भरा था, मुंशीजी को पूरा िवशास हो गया िक अवशयश ् िवपित का सामना हुआ। एक कहार से कहा-डाकटर साहब को बुला ला। कहना, अभी चिलये।

अब जाकर दब ु ुिवद कमेलाचरण ने िपता की इस घबराहट का अथव

समिा। दौडकर उनसे िलपट गया और बोला- आपको भम हुआ है । आपके िसर की कसम, मै बहुत अचछी तरह हूँ।

परनतु िडपटी साहब की बुिद िसथर न थी ; समिे, यह मुिे रोककर

िवलमब करना चाहता है । िवनीत भाव से बोले-बचचा? ईशर के िलए मुिे

छोड दो, मै सनदक ू से एक औषिध ले आऊँ। मै कया जानता था िक तुम इस नीयत से छािालय मे जा रहे हो।

कमलाचरण- इशरव-साकी से कहता हूँ, मै िबलकुल अचछा हूँ। मै ऐसा

लजजावान होता, तो इतना मूखव कयो बना रहता? आप वयथव ही डाकटर साहब को बुला रहे है ।

मुंशीजी- (कुछ-कुछ िवशास करके) तो िकवाड बनद कर कया करते थे? कमलाचरण- भीतर से एक पि आया था, उतर िलख रहा था। मुंशीजी- और यह कबूतर वगैरह कयो उडा िदये?

कमला- इसीिलए िक िनिशंतापूवक व पढू ँ । इनहीं बखेडो मे समय नि

होता था। आज मैने इनका अनत कर िदया। अबा आप दे खेगे िक मै पढने मे कैसा जी लगाता हूँ।

अब जाके िडपटी साहब की बुिद िठकाने आयी। भीतर जाकर पेमवती

से समाचार पूछा तो उसने सारी रामायण कह सुनायी। उनहोने जब सुना िक

िवरजन ने कोध मे आकर कमला के कनकौए िाड डाले और चििय व ा तोड

डाली तो हं स पडे और कमलाचरण के िवनोद के सवन व ाश का भेद समि मे आ गया। बोले-जान पडता है िक बहू इन लालजी को सीधा करके छोडे गी। 60

14 भम वज ृ रानी की िवदाई के पशात सुवामा का घर ऐसा सूना हो गया, मानो

िपंजरे से सुआ उड गया। वह इस घर का दीपक और शरीर की पाण थी। घर वही है , पर चारो ओर उदासी छायी हुई है । रहनेचाला वे ही है । पर सबके

मुख मिलन और नेि जयोितहीन हो रहे है । वािटका वही है , पर ऋतु पतिड की है । िवदाई के एक मास पशाि मुंशी संजीवनलाल भी तीथय व ाि करने चले

गये। धन-संपित सब पताप को सिमप व त कर दी। अपने सग मग ृ छाला, भगवद गीता और कुछ पुसतको के अितिरक कुछ न ले गये।

पताचनद की पेमाकांका बडी पबल थीं पर इसके साथ ही उसे दमन

की असीम शिक भी पाप थी। घर की एक-एक वसतु उसे िवरजन का समरण कराती रहती थी। यह िवचार एक कण के िलए भी दरू न होता था यिद िवरजन मेरी होती, तो ऐसे सुख से जीवन वयतीत होता। परनतु िवचार को

वह हटाता रहता था। पढने बैठता तो पुसतक खुली रहती और धयान अनयि जा पहुंचता। भोजन करने बैठता तो िवरजन का िचि नेिो मे ििरने लगता।

पेमािगन को दमन की शिक से दबाते-दबाते उसकी अवसथा ऐसी हो गयी, मानो वषो का रोगी है पेिमयो को अपनी अिभलाषा पूरी होने की आशा

हो

यान हो, परनतु वे मन-ही-मन अपनी पेिमकाओं से िमलने का आननद उठाते

रहते है । वे भाव-संसार मे अपने पेम-पाि से वाताल व ाप करते है , उसे छोडते है , उससे रठते है , उसे मनाते है और इन थावो मे उनहे तिृप होती है आेैश मन को एक सुखद और रसमय काय व िमल जाता है । परनतु यिद कोई शिक उनहे

इस भावोदान की सैर करने से रोके, यिद कोई शिक धयान मे भी उस

िपयतम का िचि ् न दे खने दे , तो उन अभागो पेिमयो को कया दशा होगा? पताप इनही अभागो मे था। इसमे संदेह नहीं िक यिद वह चाहता तो सुखद

भावो का आननद भोग सकता था। भाव-संसार का भमणअतीव सुखमय होता है , पर किठनता तो यह थी िक वह िवरजन का धयान भी कुितसत वासनाओं

से पिवि ् रखना चाहता था। उसकी िशका ऐसे पिवि िनयमो से हुई थी और

उसे ऐसे पिवितमाओं और नीितपरायण मनुषयो की संगित से लाभ उठाने क अवसर िमले थे िक उसकी दिि मे िवचार की पिवतता की भी उतनी ही पितिा थी िजतनी आचार की पिविता की। यह कब संभव था िक वह 61

िवरजन को-िजसे कई बार बिहन कह चुका था और िजसे अब भी बिहन

समिने का पयत करता रहता था- धयानावसथा मे भी ऐसे भावो का केद बनाता, जो कुवासनाओं

से भले ही शुद हो, पर मन की दिूषत आवेगो से

मुक नहीं हो सकते थे जब तक मुनशीजी संजीवनलाल िवदमान थे, उनका कुछ-न-कुछ समय उनके संग जान और धमव-चचा व मे कट जाता था, िजससे

आतमा को संतोष होता था ! परनतु उनके चले जाने के पशात आतम-सुधार का यह अवसर भी जाता रहा।

सुवामा उसे यो मिलन-मन पाती तो उसे बहुत द ु:ख होता। एक िदन

उसने कहा- यिद तुमहारा िचत न लगता हो, पयाग चले जाओ वहाँ शायद तुमहारा जी लग जाए। यह िवचार पताप के मन मे भी कई बार उतपनन

हुआ था, परनतु इस भय से िक माता को यहां अकेले रहने मे कि होगा, उसने इस पक कुछ धयान नहीं िदया था। माता का आदे श पाकर इरादा

पकका हो गया। यािा की तैयािरयां करने लगा, पसथान का िदन िनिशत हो

गया। अब सुवामा की यह दशा है िक जब दे िखए, पताप को परदे श मे रहनेसहने की िशकाएं दे रही है -बेटा, दे खो िकसी से िगडा मत मोल लेना।िगडने की तुमहारी वैसे भी आदत नहीं है , परनतु समिा दे ती हूँ। परदे श की बात है

िूंक -िूंककर पग धरना। खाने -पीने मे असंयम न करना। तुमहारी यह बुरी आदत है िक जाडो मे सांयकाल ही सो जाते हो, ििर कोई

िकतना ही बुलाये

पर जागते ही नहीं। यह सवभाव परदे श मे भी बना रहे तो तुमहे सांि का भोजन काहे को िमलेगा? िदन को थोडी दे र के िलए सो िलया करना। तुमहारी आंखो मे तो िदन को जैसे नींद नहीं आती।

उसे जब अवकाश िमला, बेटे को ऐसी समयोिचत िशकाएं िदया करती।

िनदान पसथान का िदन आ ही गया। गाडी दस बजे िदन को छूटती थी।

पताप ने सोचा- िवरजन से भेट कर लूं। परदे श जा रहा हूँ। ििर न जाने कब

भेट हो। िचत को उतसुक िकया। माता से कह बैठा। सुवामा बहुत पसनन हुई। सुवामा बहुत पसनन हुई। एक थाल मे मोदक समोसे और दो-तीन पकार के मुरबबे रखकर रिधयाको िदये िक लललू के संग जा। पताप ने बाल

बनवाये, कपडे बदले। चलने को तो चला, पर जयो-जयो पग आगे उठाता है , िदल बैठा जाता है । भांित-भांित के िवचार आ रहे है । िवरजन न जाने कया

मन मे समिे, कया सन समिे। चार महीने बीत गये, उसने एक िचटठी भी तो मुिे अलग से नहीं िलखी। ििर कयोकर कहूं िक मेरे िमलने से उसे 62

पसननता होगी। अजी, अब उसे तुमहारी िचनता ही कया है ? तुम मर भी जाओ तो वह आंसू न बहाये। यहां की बात और थी। वह अवशय उसकी आँखो मे

खटकेगा। कहीं यह न समिे िक लालाजी बन-ठनकर मुिे िरिाने आये है । इसी सोच-िवचार मे गढता चला जाता था। यहाँ तक िक शयामाचरण का

मकान िदखाई दे ने लगा। कमला मैदान टहल रहा था उसे दे खते ही पताप की वह दशा हो गई िक जो िकसी चोर की दशा िसपाही को दे खकर होती है िट एक घर कर आड मे िछप गया और रिधया से बोला- तू जा, ये वसतुएँ दे आ। मै कुछ काम से बाजार जा रहा हूँ। लौटता हुआ जाऊँगा। यह कह

कर

बाजार की ओर चला, परनतु केवल दस ही डग चला होेेगा िक िपर महरी को बुलाया और बोला- मुिे शायद दे र हो जाय, इसिलए न आ सकूँगा। कुछ

पूछे तो यह िचटठी दे दे ना, कहकर जेब से पेिनसल िनकाली और कुछ

पंिकयां िलखकर दे दी, िजससे उसके हदय की दशा का भली-भंित पिरचय िमलता है ।

“मै आज पयाग जा रहा हूँ, अब वहीं पढू ं गा। जलदी के कारण तुमसे

नहीं िमल सका। जीिवत रहूँगा तो ििर आऊँगा। कभी-कभी अपने कुशल-केम की सूचना दे ती रहना।

तुमहारा

पताप”

पताप तो यह पि दे कर चलता हुआ, रिधया धीरे -धीरे िवरजन के घर

पहुँची। वह इसे दे खते ही दौडी और कुशल-केम पूछने लगी-लाला की कोई िचटठी आयी थी?

रिधया- जब से गये, िचटठी-पिी कुछ भी नहीं आयी। िवरजन- चाची तो सूख से है ?

रिधया– लललू बाबू पयागराज जात है तीन तिनक उदास रहत है । िवरजन – (चौककर) लललू पयाग जा रहे है ।

रिधया – हां, हम सब बहुत समिाया िक परदे श मां कहां जैहो। मुदा

कोऊ की सनुत है ?

रधीया – कब जायेगे?

रधीया – आज दस बजे की टे से जवयया है । तुसे भेट करन आवत

रहे न, तवन दव ु ािर पर आइ के लवट गयेन। 63

िवरजन – यहं तक आकर लौट गये। दार पर कोई था िक नहीं? रधीया – दार पर कहां आये, सडक पर से चले गये। िवरजन – कुछ कहा नहीं, कयां लौटा जाता हूं?

रधीया – कुछ कहा नहीं, इतना बोले िक ‘हमार टे म छिहट जहै , तौन

हम जाइत है ।’

िवरजन ने घडी पर दिि डाली, आठ बजने वाले थे। पेमवती के पास

जाकर बोली – माता! लललू आज पयाग जा रहे है , िद आप कहे तो उनसे

िमलती आऊं। ििर न जाने कब िमलना हो, कब न हो। महरी कहती है िक बस मुिसेिमलने आते थे, पर सडक के उसी पार से लौट गये।

पेमवती – अभी न बाल गुथ ं वाये, न मांग भरवायी, न कपडे बदले बस

जाने को तैयार हो गयी।

िवरजन – मेरी अममां! आज जाने दीिजए। बाल गुथ ं वाने बैठूंगी तो दस

यहीं बज जायेगे।

पेमवती – अचछा, तो जाओ, पर संधया तक लौट आना। गाडी तैयार

करवा लो, मेरी ओर से सुवामा को पालगन कह दे ना।

िवरजन ने कपडे बदले, माधवी को बाहर दौडाया िक गाडी तैयार करने

के िलए कहो और तब तक कुछ धयान न आया। रधीया से पूछा – कुछ िचटटी-पिी नहीं दी?

रिधया ने पि िनकालकर दे िदया। िवरजन ने उसे हष व सेिलया, परनतु

उसे पढते ही उसका मुख कुमहला गया। सोचने लगीिक वह दार तक आकर कयो लौट गये और पि भी िलखा तो ऐसा उखडा और असपि। ऐसी कौन

जलदी थी? कया गाडी के नौकर थे, िदनभर मे अिधक नहीं तो पांच – छ: गािडयां जाती होगी। कया मुिसे िमलने के िलए उनहे दो घंटो का िवलमब

भी असहय हो गया? अवशय इसमे कुछ-न-कुछ भेद है । मुिसे कया अपराध हुआ? अचानक उसे उस सय का धयान आया, जब वह अित वयाकुल हो पताप

के पास गयी थी और उसके मुख से िनकला था, ‘लललू मुिसे कैसे सहा

जायेगा!’िवरजन को अब से पिहले कई बार धयान आ चुका िक मेरा उस समय उस दशा मे जाना बहुत अनुिचत था। परनतु िवशास हो गया िक मै अवशय लललू की दिि से िगर गयी। मेरा पेम और मन अब उनके िचतमे नहीं है । एक ठणडी सांस लेकर बैठ गयी और माधवी से बोली – कोचवान से कह दो, अब गाडी न तैयार करे । मै न जाऊंगी। 64

१५ कतव व य औ र पे म का स ंघ षव जब तक िवरजन ससुराल से न आयी थी तब तक उसकी दिि मे एक

िहनद -ु पितवता के कतववय और आदशव का कोई िनयम िसथर न हुआ था। घर

मे कभी पित-समबंधी चचाव भी न होती थी। उसने सी-धमव की पुसतके अवशय पढी थीं, परनतु उनका कोई िचरसथायी पभाव उस पर न हुआ था। कभी उसे

यह धयान ही न आता था िक यह घर मेरा नहं है और मुिे बहुत शीघ ही यहां से जाना पडे गा।

परनतु जब वह ससुराल मे आयी और अपने पाणनाथ पित को

पितकण आंखो के सामने दे खने लगी तो शनै: शनै: िचत -् विृतयो मे पिरवतन व होने लगा। जात हुआिक मै कौन हूं, मेरा कया कतववय है , मेरा कया धम व और

कया उसके िनवाह व की रीित है ? अगली बाते सवपनवत ् जान पडने लगीं। हां

िजस समय समरण हो आता िक अपराध मुिसे ऐसा हुआ है , िजसकी कािलमा को मै िमटा नहीं सकती, तो सवंय लजजा से मसतक िुका लेती और अपने को

उसे आशयव होता िक मुिे लललू के सममुख जाने का साहस

कैसे हुआ! कदािचत ् इस घटना को वह सवपन समिने की चेिा करती, तब लललू का सौजनयपूण व िचि उसे सामने आ जाता और वह हदय से उसे आशीवाद दे ती, परनतु आज जब पतापचंद की कुद-हदयता से उसे यह िवचार

करने का अवसर िमला िक लललू उस घटना को अभी भुला नहीं है , उसकी दिि मे अब मेरी पितिा नहीं रही, यहां तकिक वह मेरा मुख भी नहीं दे खना चाहता, तो उसे गलिनपूण व कोध उतपनन हुआ। पताप की ओर से िचत िलन

हो गया और उसकी जो पेम और पितिा उसके हदय मे थी वह पल-भर मे जल-कण की भांित उडने लगी। सीयो का िचत बहुत शीघ पभावगाही होता

है ,िजस पताप के िलए वह अपना असिततव धूल मेिमला दे ने को ततपर थी, वही उसके एक बाल-वयवहार को भी कमा नहीं कर सकता, कया उसका हदय ऐसा संकीण है ? यह िवचार िवरजन के हदय मे कांटे की भांित खटकने लगा।

आज से िवरजन की सजीवता लुप हो गयी। िचत पर एक बोि-सा

रहने लगा। सोचतीिक जब पताप मुिे भूल गये और मेरी रती-भर भी पितिा नहीं करते तो इस शोक से मै। कयो अपना पाण घुलाऊं ? जैसे ‘राम तुलसी 65

से, वैसे तुलसी राम से’। यिद उनहे मिसे घण ृ ा है , यिद वह मेरा मुख नहीं

दे खना चाहते है , तो मै भी उनका मुख दे खने से घणा करती हूं और मुिे

उनसे िमलने की इचछा नहीं। अब वह अपने ही ऊपर िलला उठतीिक मै पितकण उनहीं की बाते कयो सोचती हूं और संकलप करती िक अब उनका

धयान भी मन मे न आने दंग ू ी, पर तिनक दे र मे धयान ििर उनहीं की ओर जा पहुंचता और वे ही िवचार उसे बेचन ै करने लगते। हदय केइस संताप को

शांत करने केिलए वह कमलाचरण को सचचे पेम का पिरचय दे ने लगी। वह

थोडी दे र के िलए कहीं चला जाता, तो उसे उलाहना दे ती। िजतने रपये जमा कर रखे थे, वे सब दे िदये िक अपने िलए सोने की घडी और चेन मोल ले

लो। कमला ने इं कारिकया तो उदास हो गयी। कमला यो ही उसका दास बना हुआ था, उसके पेम का बाहुलय दे खकर और भी जान दे ने लगा। िमिो ने

सुना तो धनयवाद दे ने लगे। िमयां हमीद और सैयद अपने भागय को िधकारने लगे िक ऐसी सनेही सी हमको न िमली। तुमहे वह िबन मांगे ही रपये दे ती है और यहां

सीयो की खींचतान से नाक मे दम है । चाहे ह

अपने पास कानी कौडी न हो, पर उनकी इचछा अवशय पूरी होनी चािहये, नहीं

तो पलय मच जाय। अजी और कया कहे , कभी घर मे एक बीडे पान के िलए भी चले जाते है , तो वहां भी दस-पांच उलटी-सीधी सुने िबना नहीं चलता। ईशर हमको भी तुमहारी-सी बीवी दे ।

यह सब था, कमलाचरण भी पेम करता था और वज ृ रानी भी पेम

करती थी परनतु पेिमयो को संयोग से जो हष व पाप होता है , उसका िवरजन

के मुख पर कोई िचह िदखायी नहीं दे ता था। वह िदन-िदन दब ु ली और

पतली होती जाती थी। कमलाचरण शपथ दे -दे कर पूछतािक तुम दब ु ली कयो होती जाती हो? उसे पसनन ् करने के जो-जो उपाय हो सकते करता, िमिो से भी इस िवषय मे सममित लेता, पर कुछ लाभ न होता था। वज ृ रानी हं सकर

कह िदया करतीिक तुम कुछ िचनता न करो, मै बहुत अचछी तरह हूं। यह कहते-कहते उठकर उसके बालो मे कंघी लगाने लगती या पंखा िलने लगती। इन सेवा और सतकारो से कमलाचरण िूलर न समाता। परनतु

लकडी के ऊपर रं ग और रोगन लगाने से वह कीडा नहीं मरता, जो उसके भीतर बैठा हुआ उसका कलेजा खाये जाता है । यह िवचार िक पतापचंद मुिे भूल गये और मै उनकी

मे िगर गयी, शूल की भांित उसके हदय को

वयिथत िकया करता था। उसकी दशा िदनो – िदनो िबगडती गयी – यहां 66

तक िक िबसतर पर से उठना तक किठन हो गया। डाकटरो की दवाएं होने लगीं।

उधर पतापचंद का पयाग मे जी लगने लगा था। वयायाम का तो उसे

वयसन था ही। वहां इसका बडा पचार था। मानिसक बोि हलका करने के िलए शारीिरक शम से बढकर और कोई उपाय नहीं है । पात: कसरत करता, सांयकाल और िुटबाल खलता, आठ-नौ बजे रात तक वािटका की सैर करता।

इतने पिरशम के पशात ् चारपाई पर िगरता तो पभात होने ही पर आंख

खुलती। छ: ही मास मे िककेट और िुटबाल का कपान बन बैठा और दोतीन मैच ऐसे खेले िक सारे नगर मे धूम हो गयी।

आज िककेट मे अलीगढ के िनपुण िखलािडयो से उनका सामना था।

ये लोग िहनदस ु तान के पिसद िखलािडयो को परासत करिवजय का डं का

बजाते यहां आये थे। उनहे अपनी िवजय मे तिनक भी संदेह न था। पर पयागवाले भी िनराश न थे। उनकी आशा पतापचंद पर िनभरव थी। यिद वह

आध घणटे भी जम गया, तो रनो के ढे र लगा दे गा। और यिद इतनी ही दे र तक उसका गेद चल गया, तो ििर उधर का वार-नयारा है । पताप को कभी इतना बडा मैच खेलने का संयोग निमला था। कलेजा धडक रहा था िक न

जाने कया हो। दस बजे खेल पारं भ हुआ। पहले अलीगढवालो के खेलने की

बारी आयी। दो-ढाई घंटे तक उनहोने खूब करामात िदखलाई। एक बजतेबजते खेल का पिहला भाग समाप हुआ। अलीगढ ने चार सौ रन िकये। अब

पयागवालो की बारी आयी पर िखलािडयो के हाथ-पांव िूले हुए थे। िवशास हो गया िक हम न जीत सकेगे। अब खेल का बराबर होना किठन है । इतने

रन कौन करे गा। अकेला पताप कया बना लेगा ? पिहला िखलाडी आया और

तीसरे गेद मे िवदा हो गया। दस ँ गेद ू रा िखलाडी आया और किठनता से पॉच

खेल सका। तीसरा आया और पिहले ही गेद मे उड गया। चौथे ने आकर दोतीन िहट लगाये, पर जम न सका। पॉच ँ वे साहब कालेज मे एक थे, पर यां उनकी भी एक न चली। थापी रखते-ही-रखते चल िदये। अब पतापचनद दढता से पैर उठाता, बैट घुमाता मैदान मे आयां दोनो पकवालो ने करतल

धविन की। पयोगवालो की श अकथनीय थी। पतयेक मनुषय की दिि पतापचनद की ओर लगी हुई थी। सबके हदय धडक रहे थे। चतुिदवक सननाटा

छाया हुआ था। कुछ लोग दरू बैठकर दव शर से पाथन व ा कर रहे थे िक पताप

की िवजय हो। दे वी-दे वता समरण िकये जो रहे थे। पिहला गेद आया, पताप 67

नेखली िदया। पयोगवालो का साहस घट गया। दस ू रा आया, वह भी खाली गया। पयागवालो का, कलेजा नािभ तक बैठ गया। बहुत से लोग छतरी संभाल घर की ओर चले। तीसरा गेद आया। एक पडाके की धविन हुई ओर

गेद लू (गम व हवा) की भॉिँत गगन भेदन करता हुआ िहट पर खडे होनेवाले िखलाडी से ससौ गज ओग िगरा। लोगो ने तािलयॉँ बजायीयं। सूखे धान मे पानी पडा। जानेवाले िठठक गये। िनरशे को आशा बँधी। चौथा गंद आया

और पहले गेद से दस गज आगे िगरा। िीलडर चौके , िहट पर मदद पहँ चायी! पॉच ँ वॉँ गेद आया और कट पर गया। इतने मे ओवर हुआ। बालर बदले, नये बालर पूरे बिधक थे। घातक गेद िेकते थे। पर उनके पिहले ही गेद को पताप के आकाश मे भेजकर सूय व से सपश व करा िदया। ििर तो गेद और

उसकी थापी मे मैिी-सी हो गयी। गेद आता और थापी से पाश व गहण करके कभी पूव व का माग व लेता, कभी पिशम का , कभी उतर का और कभी दिकण

का, दौडते-दौडते िीलडरो की सॉस ँ े िूल गयीं, पयागवाले उछलते थे और तािलयॉँ बजाते थे। टोिपयॉँ वायु मे उछल रही थीं। िकसी न रपये लुटा िदये

और िकसी ने अपनी सोने की जंजीर लुटा दी। िवपकी सब मन मे कुढते, िललाते, कभी केि का कम पिरवतन व करते, कभी बालर पिरवतन व करते। पर

चातुरी और कीडा-कौशल िनरथक व हो रहा था। गेद की थापी से िमिता दढ हो गयी थी। पूरे दो घनटे तक पताप पडाके, बम-गोले और हवाइयॉँ छोडतमा रहा और िीलडर गंद की ओर इस पकार लपकते जैसे बचचे चनदमा की ओर

लपकते है । रनो की संखया तीन सौ तक पहुँच गई। िवपिकयो के छकके छूटे । हदय ऐसा भरा व गया

िक एक गेद भी सीधा था। यहां तक िक पताप

ने पचास रन और िकये और अब उसने अमपायर से तिनक िवशाम करने के

िलए अवकाश मॉग ँ ा। उसे आता दे खकर सहसो मनुषय उसी ओरदौडे और उसे

बारी-बारी से गोद मे उठाने लगे। चारो ओर भगदड मच गयी। सैकडो छाते , छिडयॉँ टोिपयॉँ और जूते ऊधवग व ामी हो गये मानो वे भी उमंग मे उछल रहे

थे। ठीक उसी समय तारघर का चपरासी बाइिसकल पर आता हुआ िदखायी

िदया। िनकट आकर बोला-‘पतापचंद िकसका नाम है !’ पताप ने चौककर उसकी ओर दे खा और चपरासी ने तार का िलिािा उसके हाथ मे रख िदया। उसे पढते ही पताप का बदन पीला हो गया। दीघ व शास लेकर कुसी पर बैठ

गया और बोरला-यारो ! अब मैच का िनबटारा तुमहारे हाथ मे है । मेने अपना कतववय-पालन कर िदया, इसी डाक से घर चला जाँऊगा। 68

यह कहकर वह बोिडि ग हाउस की ओर चला। सैकडो मनुषय पूछने

लगे-कया है ? कया है ? लोगो के मुख पर उदासी छा गयी पर उसे बात करने का कहॉँ अवकाश ! उसी समय तॉग ँ े पर चढा और सटे शन की ओर

चला। रासते-भर उसके मन मे तकव-िवतकव होते रहे । बार-बार अपने को िधककार

दे ता िक कयो न चलते समय उससे िमल िलया ? न जाने अब

भेट हो िक न हो। ईशर न करे कहीं उसके दशन व से वंिचत रहूँ; यिद रहा तो मै भी मुँह मे कािलख पोत कहीं मर रहूँगा। यह सोच कर कई बार रोया। नौ

बजे रात को गाडी बनारस पहुँची। उस पर से उतरते ही सीधा शयामाचरण के

घर की ओर चला। िचनता के मारे ऑख ं े डबडबायी हुई थी और कलेजा धडक रहा था। िडपटी साहब िसर िुकाये कुसी पर बैठे थे और कमला डाकटर साहब के यहॉँ जाने को उदत था। पतापचनद को दे खते ही दौडकर िलपट

गया। शयामाचरण ने भी गले लगाया और बोले-कया अभी सीधे इलाहाबाद से चले आ रहे हो ?

पताप-जी हॉँ ! आज माताजी का तार पहुँचा िक िवरजन की बहुत बुरी

दशा है । कया अभी वही दशा है ?

शयामाचरण-कया कहूँ इधर दो-तीन मास से िदनोिदन उसका शरीर

कीण होता जाता है , औषिधयो का कुछ भी असर नहीं होता। दे खे, ईशर की

कया इचछा है ! डाकटर साहब तो कहते थे, कयरोग है । पर वैदराज जी हदयदौबल व य बतलाते है ।

िवरजन को जब से सूचना िमली िक पतापचनद आये है , तब से उसक

हदय मे आशा और भय घुडदौड मची हुई थी। कभी सोचती िक घर आये

होगे, चाची ने बरबस ठे ल-ठालकर यहॉँ भेज िदया होगा। ििर धयान हुआ, हो न हो, मेरी बीमारी का समाचार पा, घबडाकर चले आये हो, परनतु नहीं। उनहे

मेरी ऐसी कया िचनता पडी है ? सोचा होगा-नहीं मर न जाए, चलूँ सांसािरक

वयवहार पूरा करता आऊं। उनहे मेरे मरने-जीने का कया सोच ? आज मै भी महाशय से जी खोलकर बाते करं गी ? पर नहीं बातो की आवशयकता ही कया है ? उनहोने चुप साधी है , तो मै कया बोलूँ ? बस इतना कह दँग ू ी िक बहुत

अचछी हूँ और आपके कुशल की कामना रखती हूँ ! ििर मुख न खोलूँगी ! और मै यह मैली-कुचैली साडी कयो पिहने हूँ ? जो अपना सहवेदी न हो उसके आगे यह वेश बनाये रखने से लाभ? वह अितिथ की भॉिँत आये है । मै

भी पाहुनी की भॉिँत उनसे िमलूँगी। मनुषय का िचत कैसा चचंल है ? िजस 69

मनुषय की अकृ पा ने िवरजन की यह गित बना दी थी, उसी को जलाने के िलए ऐसे-ऐसे उपाय सोच रही है ।

दस बजे का समय था। माधवी बैठी पख िल रही थी। औषिधयो की

शीिशयाँ इधर-उधर पडी हुई थीं और िवरजन चारपाई पर पडी हुई ये ही सब

बाते सोच रही थी िक पताप घर मे आया। माधवी चौककर बोली-बिहन, उठो आ गये। िवरजन िपटकर उठी और चारपाई से उतरना चाहती थी िक िनबल व ता के कारण पथ ृ वी पर िगर पडी। पताप ने उसे सँभाला और चारपाई पर लेटा िदया। हा! यह वही िवरजन है जो आज से कई मास पूव व रप

एवं लावाणय की मूित व थी, िजसके मुखडे पर चमक और ऑखो मे हँ सी का वपास था, िजसका भाषण शयामा का गाना और हँ सना मन का लुभानाथ।

वह रसीली ऑखोवाली, मीठी बातो वाली िवरजन आज केवल अिसथचमाव व शेष

है । पहचानी नहीं जाती। पताप की ऑखो मे ऑस ं ूं भर आये। कुशल पूछना

चाहता था, पर मुख से केवल इतना िनकला-िवरजन ! और नेिो से जल-

िबनद ु बरसने लगे। पेम की ऑख ं े मनभावो के परखने की कसौटी है । िवरजन ने ऑख ं उठाकर दे खा और उन अशु-िबनदओ ु ं ने उसके मन का सारा मैल धो िदया।

जैसे कोई सेनापित आनेवाले युद का िचि मन मे सोचता है और शिु

को अपनी पीठ पर दे खकर बदहवास हो जाता है और उसे िनधिवरत िचि का

कुछ धयान भी नहीं रहता, उसी पकार िवरजन पतापचनद को अपने सममुख

दे खकर सब बाते भूल गयी, जो अभी पडी-पडी सोच रही थी ! वह पताप को रोते दे खकर अपना सब द ु:ख भूल गयी और चारपाई से उठाकर ऑच ं ल से

ऑसूं पोछने लगी। पताप, िजसे अपराधी कह सकते है , इस समय दीन बना

हुआ था और िवरजन –िजसने अपने को सखकर इस श तक पहुँचाया था-रोरोकर उसे कह रही थी- लललू चुप रहो, ईशर जानता है , मै भली-भॉिँत अचछी हूँ। मानो अचछा न होना उसका अपराध था। सीयो की संवेदनशीलता कैसी

कोमल होती है ! पतापचनद के एक सधारण संकोच ने िवरजन को इस जीवन से उपेिकत बना िदया था। आज ऑस ं ू कुछ बूँदो की उसके हदय के उस सनताप, उस जलन और उस अिगन कोशनत कर िदया, जो कई महीनो से

उसके रिधर और हदय को जला रही थी। िजस रे ग को बडे -बडे वैद और

डाकटर अपनी औषिध तथा उपाय से अचछा न कर सके थे, उसे अशु-िबनदओ ु ं ने कण-भर मे चंगा कर िदया। कया वह पानी के िबनद ु अमत ृ के िबनद ु थे ? 70

पताप ने धीरज धरकर पूछा- िवरजन! तुमने अपनी कया गित बना

रखी है ?

िवरजन (हँ सकर)- यह गित मैने नहीं बनायी, तुमने बनायी है । पताप-माताजी का तार न पहुँचा तो मुिे सूचना भी न होती।

िवरजन-आवशयकता ही कया थी ? िजसे भुलाने के िलए तो तुम पयाग

चले गए, उसके मरने-जीने की तुमहे कया िचनता ?

पताप-बाते बना रही हो। पराये को कयो पि िलखतीं ?

िवरजन-िकसे आशा थी िक तुम इतनी दरू से आने का या पि िलखने

का कि उठाओगे ? जो दार से आकर ििर जाए और मुख दे खने से घण करे उसे पि भेजकर कया करती?

पताप- उस समय लौट जाने का िजतना द ु:ख मुिे हुआ, मेरा िचत ही

जानता है । तुमने उस समय तक मेरे पास कोई पि न भेजा था। मैने सि, अब सुध भूल गयी।

िवरजन-यिद मै तुमहारी बातो को सच न समिती होती हो कह दे ती

िक ये सब सोची हुई बाते है ।

पताप-भला जो समिो, अब यह बताओ िक कैसा जी है ? मैने तुमहे

पिहचाना नहीं, ऐसा मुख िीका पड गया है ।

िवरजन- अब अचछी हो जाँऊगी, औषिध िमल गयी।

पताप सकेत समि गया। हा, शोक! मेरी तिनक-सी चूक ने यह पलय

कर िदया। दे र तक उसे सिता रहा और पात:काल जब वह अपने घर तो चला तो िवरजन का बदन िवकिसत था। उसे िवशास हो गया िक लललू मुिे

भूले नहीं है और मेरी सुध और पितिा उनके हदय मे िवदामन है । पताप ने उसके मन से वह कॉट ँ ा िनकाल िदया, जो कई मास से खटक रहा था और िजसने उसकी यह गित कर रखी थी। एक ही सपाह मे उसका मुखडा सवणव हो गया, मानो कभी बीमार ही न थी।

71

16 सने ह प र कत व व य की िवजय रोगी जब तक बीमार रहता है उसे सुध नहीं रहती िक कौन मेरी

औषिध करता है , कौन मुिे दे खने के िलए आता है । वह अपने ही कि मं इतना गसत रहता है िक िकसी दस ू रे के बात का धयान ही उसके हदय मं उतपनन नहीं होता; पर जब वह आरोगय हो जाता है , तब उसे अपनी शुशष करनेवालो का धयान और उनके उदोग तथा पिरशम का अनुमान होने लगता

है और उसके हदय मे उनका पेम तथा आदर बढ जाता है । ठीक यही श

वज ृ रानी की थी। जब तक वह सवयं अपने कि मे मगन थी, कमलाचरण की वयाकुलता और किो का अनुभव न कर सकती थी। िनससनदे ह वह उसकी

खाितरदारी मे कोई अंश शेष न रखती थी, परनतु यह वयवहार-पालन के िवचार से होती थी, न िक सचचे पेम से। परनतु जब उसके हदय से वह

वयथा िमट गयी तो उसे कमला का पिरशम और उदोग समरण हुआ , और यह िचंता हुई िक इस अपार उपकार का पित-उतर कया दँ ू ? मेरा धम व था सेवा-सतकार से उनहे सुख दे ती, पर सुख दे ना कैसा उलटे उनके पाण ही की

गाहक हुई हूं! वे तो ऐसे सचचे िदल से मेरा पेम करे और मै अपना कतववय ही न पालन कर सकूँ ! ईशर को कया मुँह िदखाँऊगी ? सचचे पेम

का कमल

बहुधा कृ पा के भाव से िखल जाया करता है । जहॉं, रप यौवन, समपित और

पभुता तथा सवाभािवक सौजनय पेम के बीच बोने मे अकृ तकायव रहते है , वहॉँ, पाय: उपकार का जाद ू चल जाता है । कोई हदय ऐसा वज और कठोर नहीं हो सकता, जो सतय सेवा से दवीभूत न हो जाय।

कमला और वज ृ रानी मे िदनोिदन पीित बढने लगी। एक पेम का दास

था, दस ृ रानी के मुख से कोई बात ू री कतववय की दासी। समभव न था िक वज

िनकले और कमलाचरण उसको पूरा न करे । अब उसकी ततपरता और

योगयता उनहीं पयतो मे वयय होती थीह। पढना केवल माता-िपता को धोखा दे ना था। वह सदा रख दे ख करता और इस आशा पर िक यह काम उसकी पसननत का कारण होगा, सब कुछ करने पर किटबद रहता। एक िदन उसने माधवी को िुलवाडी से िूल चुनते दे खा। यह छोटा-सा उदान घर के पीछे

था। पर कुटु मब के िकसी वयिक को उसे पेम न था, अतएव बारहो मास उस

पर उदासी छायी रहती थी। वज ृ रानी को िूलो से हािदव क पेम था। िुलवाडी 72

की यह दग ु िवत दे खी तो माधवी से कहा िक कभी-कभी इसमं पानी दे िदया कर। धीरे -धीरे वािटका की दशा कुछ सुधर चली और पौधो मे िूल लगने

लगे। कमलाचरण के िलए इशारा बहुत था। तन-मन से वािटका को सुसिजजत करने पर उतार हो गया। दो चतुर माली नौकर रख िलये। िविवध

पकार के सुनदर-सुनदर पुषप और पौधे लगाये जाने लगे। भॉिँत-भॉिँतकी घासे और पितयॉँ गमलो मे सजायी जाने लगी, कयािरयॉँ और रिवशे ठीक की जाने

लगीं। ठौर-ठौर पर लताऍ ं चढायी गयीं। कमलाचरण सारे िदन हाथ मे पुसतक िलये िुलवाडी मे टहलता रहता था और मािलयो को वािटका की सजावट और बनावट की ताकीद िकया करता था, केवल इसीिलए िक िवरजन

पसनन होगी। ऐसे सनेह-भक का जाद ू िकस पर न चल जायगा। एक िदन कमला ने कहा-आओ, तुमहे वािटका की सैर कराँऊ। वज ृ रानी उसके साथ चली।

चॉद ँ िनकल आया था।

उसके उजजवल पकाश मे पुषप और पते परम

शोभायमान थे। मनद-मनद वायु चल रहा था। मोितयो और बेले की सुगिनध मिसतषक को सुरिभत कर रही थीं। ऐसे समय मे िवरजन एक रे शमी साडी

और एक सुनदर सलीपर पिहने रिवशो मे टहलती दीख पडी। उसके बदन का

िवकास िूलो को लिजजत करता था, जान पडता था िक िूलो की दे वी है । कमलाचरण बोला-आज पिरशम सिल हो गया।

जैसे कुमकुमे मे गुलाब भरा होता है , उसी पकार वज ृ रानी के नयनो मे

पेम रस भरा हुआ था। वह मुसकायी, परनतु कुछ न बोली।

कमला-मुि जैसा भागयवान मुनषय संसा मे न होगा। िवरजन-कया मुिसे भी अिधक?

केमला मतवाला हो रहा था। िवरजन को पयार से गले लगा िदया।

कुछ िदनो तक पितिदन का यही िनयम रहा। इसी बीच मे मनोरं जन

की नयी सामगी उपिसथत हो गयी। राधाचरण ने िचिो का एक सुनदर अलबम िवरजन के पास भेजा। इसमं कई िचि चंदा के भी थे।

कहीं वह

बैठी शयामा को पढा रही है कहीं बैठी पि िलख रही है । उसका एक िचि

पुरष वेष मे था। राधाचरण िोटोगािी की कला मे कुशल थे। िवरजन को

यह अलबम बहुत भाया। ििर कया था ? ििर कया था? कमला को धुन लगी िक मै भी िचि खीचूँ। भाई के पास पि िलख भेजा िक केमरा और अनय आवशयक सामान मेरे पास भेज दीिजये और अभयास आरं भ कर िदया। घर 73

से चलते िक सकूल जा रहा हूँ पर बीच ही मे एक पारसी िोटोगािर की दक ू ान पर आ बैठते। तीन-चार मास के पिरशम और उदोग से इस कला मे पवीण हो गये। पर अभी घर मे िकसी को यह बात मालूम न थी। कई बार

िवरजन ने पूछा भी; आजकल िदनभर कहाँ रहते हो। छुटटी के िदन भी नहीं िदख पडते। पर कमलाचरण ने हूँ-हां करके टाल िदया।

एक िदन कमलाचरण कहीं बाहर गये हुए थे। िवरजन के जी मे आया

िक लाओ पतापचनद को एक पि िलख डालूँ; पर बकसखेला तो िचटठी का कागज न था माधवी से कहा िक जाकर अपने भैया के डे सक मे से कागज िनकाल ला। माधवी दौडी हुई गयी तो उसे डे सक पर िचिो का अलबम खुला

हुआ िमला। उसने आलबम उठा िलया और भीतर लाकर िवरजन से कहाबिहन! दखो, यह िचि िमला।

िवरजन ने उसे चाव से हाथ मे ले िलया और पिहला ही पनना उलटा

था िक अचमभा-सा हो गया। वह उसी का िचि था। वह अपने पलंग पर

चाउर ओढे िनदा मे पडी हुई थी, बाल ललाट पर िबखरे हुए थे, अधरो पर एक

मोहनी मुसकान की िलक थी मानो कोई मन-भावना सवपन दे ख रही है । िचि के नीचे लख हुआ था- ‘पेम-सवपन’। िवरजन चिकत थी, मेरा िचि उनहोने कैसे िखचवाया और िकससे िखचवाया। कया िकसी िोटोगािर को

भीतर लाये होगे ? नहीं ऐसा वे कया करे गे। कया आशय है , सवयं ही खींच िलया हो। इधर महीनो से बहुत पिरशम भी तो करते है । यिद सवयं ऐसा िचि

खींचा है तो वसतुत: पशंसनीय काय व िकया है । दस ू रा पनना उलटा तो

उसमे भी अपना िचि पाया। वह एक साडी पहने, आधे िसर पर आँचल डाले

वािटका मे भमण कर रही थी। इस िचि के नीचे लख हुआ था- ‘वािटकाभमण। तीसरा पनना उलटा तो वह भी अपना ही िचि था। वह वािटका मे

पथ ृ वी पर बैठी हार गूथ ँ रही थी। यह िचि तीनो मे सबसे सुनदर था, कयोिक िचिकार ने इसमे बडी कुशलता से पाकृ ितक रं ग भरे थे। इस िचि के नीचे

िलखा हुआ था- ‘अलबेली मािलन’। अब िवरजन को धयाना आया िक एक

िदन जब मै हार गूथ ँ रही थी तो कमलाचरण नील के काँटे की िाडी मुसकराते हुए िनकले थे। अवशय उसी िदन का यह िचि होगा। चौथा पनना उलटा तो एक परम मनोहर और सुहावना दशय िदखयी िदया। िनमल व जल से

लहराता हुआ एक सरोवर था और उसके दोनो तीरो पर जहाँ तक दिि पहुँचती थी, गुलाबो की छटा िदखयी दे ती थी। उनके कोमल पुषप वायु के 74

िोकां से लचके जात थे। एसका जात होता था, मानो पकृ ित ने हरे आकाश मे लाल तारे टाँक िदये है । िकसी अंगेजी िचि का अनुकरण पतीत होता था। अलबम के और पनने अभी कोरे थे।

िवरजन ने अपने िचिो को ििर दे खा और सािभमान आननद से, जो

पतयेक रमणी को अपनी सुनदरता पर होता है , अलबम को िछपा कर रख

िदया। संधया को कमलाचरण ने आकर दे खा, तो अलबम का पता नहीं। हाथो तो तोते उड गये। िचि उसके कई मास के किठन पिरशम के िल थे और

उसे आशा थी िक यही अलबम उहार दे कर िवरजन के हदय मे और भी घर

कर लूँगा। बहुत वयाकुल हुआ। भीतर जाकर िवरजन से पूछा तो उसने साि इनकार िकया। बेचारा घबराया हुआ अपने िमिो के घर गया िक कोई उनमं से उठा ले गया हो। पह वहां भी िबितयो के अितिरक और कुछ हाथ न

लगा। िनदान जब महाशय पूरे िनराश हो गये तोशम को िवरजन ने अलबम का पता बतलाया। इसी पकार िदवस साननद वयतीत हो रहे थे। दोनो यही

चाहते थे िक पेम-केि मे मै आगे िनकल जाँऊ! पर दोनो के पेम मे अनतर था। कमलाचरण पेमोनमाद मे अपने को भूल गया। पर इसके िवरद िवरजन का पेम कतववय की नींव पर िसथत था। हाँ, यह आननदमय कतववय था।

तीन वष व वयतीत हो गये। वह उनके जीवन के तीन शुभ वष व थे। चौथे

वष व का आरमभ आपितयो का आरमभ था। िकतने ही पािणयो को सांसार की

सुख-सामिगयॉँ इस पिरमाण से िमलती है िक उनके िलए िदन सदा होली

और रािि सदा िदवाली रहती है । पर िकतने ही ऐसे हतभागय जीव है , िजनके आननद के िदन एक बार िबजली की भाँित चमककर सदा के िलए लुप हो

जाते है । वज ृ रानी उनहीं अभागे मे थी। वसनत की ऋतु थी। सीरी-सीरी वायु

चल रही थी। सरदी ऐसे कडाके की पडती थी िक कुओं का पानी जम जाता था। उस समय नगरो मे पलेग का पकोप हुआ। सहसो मनुषय उसकी भेट

होने लगे। एक िदन बहुत कडा जवर आया, एक िगलटी िनकली और चल बसा। िगलटी का िनकलना मानो मतृयु का संदश था। कया वैद, कया डाकटर िकसी की कुछ न चलती थी। सैकडो घरो के दीपक बुि गये। सहसो बालक अनाथ और सहसो िवधवा हो गयी। िजसको िजधर गली िमली भाग िनकला। पतयेक मनुषय को अपनी-अपनी पडी हुई थी। कोई िकसी का सहायक और िहतैषी न था। माता-िपता बचचो को छोडकर भागे। सीयो ने पुरषो से

समबनध पिरतयाग िकया। गिलयो मे, सडको पर, घरो मे िजधर दे िखये मत ृ को 75

को ढे र लगे हुए थे। दक ु ाने बनद हो गयी। दारो पर ताले बनद हो गया।

चुतुिदव क धूल उडती थी। किठनता से कोई जीवधारी चलता-ििरता िदखायी दे ता था और यिद कोई कायव व श घर से िनकला पडता तो ऐसे शीघता से

पॉव उठाता मानो मतृयु का दत ू उसका पीछा करता आ रहा है । सारी बसती उजड गयी। यिद आबाद थे तो किबसतान या शमशान। चोरो और डाकुओं की बन आयी। िदन –दोपहार तोल टू टते थे और सूय व के पकाश मे सेधे पडती थीं। उस दारण द ु:ख का वणन व नहीं हो सकता।

बाबू शयामचरण परम दढिचत मनुषय थे। गह ृ के चारो ओर महलले-के

महलले शूनय हो गये थे पर वे अभी तक अपने घर मे िनभय व जमे हुए थे

लेिकन जब उनका साहस मर गया तो सारे घर मे खलबली मच गयी। गॉव ँ मे जाने की तैयािरयॉँ होने लगी। मुंशीजी ने उस िजले के कुछ गॉव ँ मोल ले

िलये थे और मिगॉव ँ नामी गाम मे एक अचछा-सा घर भी बनवा रख था। उनकी इचछा थी िक पेशन पाने पर यहीं रहूँगा काशी छोडकर आगरे मे कौन

मरने जाय! िवरजन ने यह सुना तो बहुत पसनन हुई। गामय-जीवन के मनोहर दशय उसके नेिो मे ििर रहे थे हरे -भरे वक ृ और लहलहाते हुए खेत

हिरणो की कीडा और पिकयो का कलरव। यह छटा दे खने के िलए उसका

िचत लालाियत हो रहा था। कमलाचरण िशकार खेलने के िलए अस-शस ठीक करने लगे। पर अचनाक मुनशीजी ने उसे बुलाकर कहा िक तम पयाग जाने के िलए तैयार हो जाओ। पताप चनद वहां

तुमहारी सहायता करे गा।

गॉवो मे वयथव समय िबताने से कया लाभ? इतना सुनना था िक कमलाचरण की नानी मर गयी। पयाग जाने से इनकार कर िदया। बहुत दे र तक मुंशीजी

उसे समिाते रहे पर वह जाने के िलए राजी न हुआ। िनदान उनके इन अंितम शबदो ने यह िनपटारा कर िदया-तुमहारे भागय मे िवदा िलखी ही नहीं है । मेरा मूखत व ा है िक उससे लडता हूँ!

वज ृ रानी ने जब यह बात सुनी तो उसे बहुत द ु:ख हुआ। वज ृ रानी

यदिप समिती थी िक कमला का धयान पढने मे नहीं लगता; पर जब-तब यह अरिच उसे बुरी न लगती थी, बिलक कभी-कभी उसका जी चाहता िक

आज कमला का सकूल न जाना अचछा था। उनकी पेममय वाणी उसके कानो का बहुत पयारी मालूम होती थी। जब उसे यह जात हुआ िक कमला

ने पयाग जाना असवीकार िकया है और लालाजी बहुत समि रहे है , तो उसे

और भी द ु:ख हुआ कयोिक उसे कुछ िदनो अकेले रहना सहय था, कमला 76

िपता को आजजेललघंन करे , यह सहय न था। माधवी को भेजा िक अपने

भैया को बुला ला। पर कमला ने जगह से िहलने की शपथ खा ली थी।

सोचता िक भीतर जाँऊगा, तो वह अवशय पयाग जाने के िलए कहे गी। वह कया जाने िक यहाँ हदय पर कया बीत रही है । बाते तो ऐसी मीठी-मीठी करती है , पर जब कभी पेम-परीका का समय आ जाता है तो कतववय और नीित की ओट मे मुख िछपाने लगती है । सतय है िक सीयो मे पेम की गंध ही नहीं होती।

जब बहुत दे र हो गयी और कमला कमरे से न िनकला तब वज ृ रानी

सवयं आयी और बोली-कया आज घर मे आने की शपथ खा ली है । राह दे खते-दे खते ऑख ं े पथरा गयीं।

कमला- भीतर जाते भय लगता है ।

िवरजन- अचछा चलो मै संग-संग चलती हूँ, अब तो नहीं डरोगे? कमला- मुिे पयाग जाने की आजा िमली है । िवरजन- मै भी तुमहारे सग चलूग ँ ी!

यह कहकर िवरजन ने कमलाचरण की ओर आंखे उठायीं उनमे अंगूर

के दोन लगे हुए थे। कमला हार गया। इन मोहनी ऑखो मे ऑस ं ू दे खकर

िकसका हदय था, िक अपने हठ पर दढ रहता? कमेला ने उसे अपने कंठ से

लगा िलया और कहा-मै जानता था िक तुम जीत जाओगी। इसीिलए भीतर

न जाता था। रात-भर पेम-िवयोग की बाते होती रहीं! बार-बार ऑख ं े परसपर िमलती मानो वे ििर कभी न िमलेगी! शोक िकसे मालूम था िक यह अंितम भेट है । िवरजन को ििर कमला से िमलना नसीब न हुआ।

77

17 कम ला के ना म िवर जन के प ि मिगाँव ‘िपयतम, पेम पि आया। िसर पर चढाकर नेिो से लगाया। ऐसे पि तुम न लख

करो ! हदय िवदीण व हो जाता है । मै िलखूं तो असंगत नहीं। यहॉँ िचत अित

वयाकुल हो रहा है । कया सुनती थी और कया दे खती है ? टू टे -िूटे िूस के िोपडे , िमटटी की दीवारे , घरो के सामने कूडे -करकट के बडे -बडे ढे र, कीचड मे िलपटी हुई भैसे, दब व गाये, ये सब दशय दे खकर जी चाहता है िक कहीं चली ु ल

जाऊं। मनुषयो को दे खो, तो उनकी सोचनीय दशा है । हिडडयॉँ िनकली हुई है । वे िवपित की मूितय व ॉँ और दिरदता के जीिवि िचि है । िकसी के शरीर पर

एक बेिटा वस नहीं है और कैसे भागयहीन िक रात-िदन पसीना बहाने पर भी कभी भरपेट रोिटयॉँ नहीं िमलतीं। हमारे घर के िपछवाडे एक गडढा है । माधवी खेलती थी। पॉव ँ ििसला तो पानी मे िगर पडी। यहॉँ िकमवदनती है

िक गडढे मे चुडैल नहाने आया करती है और वे अकारण यह चलनेवालो से छे ड-छाड िकया करती है । इसी पकार दार पर एक पीपल का पेड है ।

वह

भूतो का आवास है । गडढे का तो भय नहीं है , परनतु इस पीपल का वास सारे -सारे गॉव ँ के हदय पर ऐसा छाया हुआ है । िक सूयास व त ही से माग व बनद

हो जाता है । बालक और सीयाँ तो उधर पैर ही नहीं रखते! हॉँ, अकेले-दक ु े ले पुरष कभी-कभी चले जाते है , पर पे भी घबराये हुए। ये दो सथान मानो उस

िनकृ ि जीवो के केनद है । इनके अितिरक सैकडो भूत-चुडैल िभनन-िभनन सथानो के िनवासी पाये जाते है । इन लोगो को चुडैले दीख पडती है । लोगो ने इनके सवभाव पहचान िकये है ।

िकसी भूत के िवषय मे कहा जाता है िक

वह िसर पर चढता है तो महीनो नहीं उतरता और कोई दो-एक पूजा लेकर

अलग हो जाता है । गाँव वालो मे इन िवषयो पर इस पकार वाताल व ाप होता है , मानो ये पतयक घटनाँ है । यहाँ तक सुना गया है िक चुडैल भोजन-पानी मॉग ँ ने भी आया करती है । उनकी सािडयॉँ पाय: बगुले के पंख की भाँित

उजजवल होती है और वे बाते कुछ-कुछ नाक से करती है । हॉँ, गहनो को

पचार उनकी जाित मे कम है । उनही सीयो पर उनके आकमणका भय रहता है , जो बनाव शग ं ृ ार िकये रं गीन वस पिहने, अकेली उनकी दिि मे पड जाये। 78

िूलो की बास उनको बहुत भाती है । समभव नहीं िक कोई सी या बालक रात को अपने पास िूल रखकर सोये।

भूतो के मान और पितिा का अनुमान बडी चतुराई से िकया गया है ।

जोगी बाबा आधी रात को काली कमिरया ओढे , खडाँऊ पर सवार, गॉव ँ के

चारो आर भमण करते है और भूले-भटके पिथको को माग व बताते है । सालभर मे एक बार उनकी पूजा होती है । वह अब भूतो मे नहीं वरन ् दे वताओं मे िगने जाते है । वह िकसी भी आपित को यथाशिक गॉव ँ के भीतर पग नहीं रखने दे ते। इनके िवरद धोबी बाबा से गॉव ँ -भर थरात व ा है । िजस वुक पर उसका वास है , उधर से यिद कोई दीपक जलने के पशात ्

िनकल जाए, तो

उसके पाणो की कुशलता नहीं। उनहे भगाने के िलए दो बोलत मिदरा कािी

है । उनका पुजारी मंगल के िदन उस वक ृ तले गाँजा और चरस रख आता है । लाला साहब भी भूत बन बैठे है । यह महाशय मटवारी थे। उनहं कई पंिडत

असिमयो ने मार डाला था। उनकी पकड ऐसी गहरी है िक पाण िलये िबना नहीं छोडती। कोई पटवारी यहाँ एक वषव से अिधक नहीं जीता। गॉव ँ से थोडी

दरू पर एक पेड है । उस पर मौलवी साहब िनवास करते है । वह बेचारे िकसी

को नहीं छे डते। हॉँ, वह ृ सपित के िदन पूजा न पहुँचायी जाए, तो बचचो को छे डते है ।

कैसी मूखत व ा है ! कैसी िमथया भिक है ! ये भावनाऍ ं हदय पर वजलीक

हो गयी है । बालक बीमार हुआ िक भूत की पूजा होने लगी। खेत-खिलहान मे भूत का भोग जहाँ दे िखये, भूत-ही-भूत दीखते है । यहॉँ न दे वी है , न दे वता। भूतो का ही सामाजय है । यमराज यहॉँ चरण नहीं रखते, भूत ही जीव-हरण करते है । इन भावो का िकस पकार सुधार हो ? िकमिधकम

तुमहारी

िवरजन (2) पयारे ,

मिगाँव बहुत िदनो को पशात ् आपकी पेरम-पिी पाप हुई। कया सचमुच पि

िलखने का अवकाश नहीं ? पि कया िलखा है , मानो बेगार टाली है । तुमहारी

तो यह आदत न थी। कया वहॉँ जाकर कुछ और हो गये ? तुमहे यहॉँ से गये 79

दो मास से अिधक होते है । इस बीच मं कई छोटी-बडी छुिटटयॉँ पडी, पर तुम न आये। तुमसे कर बाँधकर कहती हूँ- होली की छुटटी मे अवशय आना। यिद अब की बार तरसाया तो मुिे सदा उलाहना रहे गा।

यहॉँ आकर ऐसी पतीत होता है , मानो िकसी दस ू रे संसार मे आ गयी

हूँ। रात को शयन कर रही थी िक अचानक हा-हा, हू-हू का कोलाहल सुनायी

िदया। चौककर उठा बैठी! पूछा तो जात हुआ िक लडके घर-घर से उपले और

लकडी जमा कर रहे थे। होली माता का यही आहार था। यह बेढंगा उपदव जहाँ पहुँच गया, ईधन का िदवाला हो गया। िकसी की शिक नही जो इस

सेना को रोक सके। एक नमबरदार की मिडया लोप हो गयी। उसमं दस-बारह बैल सुगमतापूवक व बाँधे जा सकते थे। होली वाले कई िदन घात मे थे। अवसर पाकर उडा ले गये। एक कुरमी का िोपडा उड गया। िकतने उपले

बेपता हो गये। लोग अपनी लकिडयाँ घरो मे भर लेते है । लालाजी ने एक

पेड ईधन के िलए मोल िलया था। आज रात को वह भी होली माता के पेट मे चला गया। दो-तील घरो को िकवाड उतर गये। पटवारी साहब दार पर सो रहे थे। उनहे भूिम पर ढकेलकर लोगे चारपाई ले भागे। चतुिदवक ईधन की

लूट मची है । जो वसतु एक बार होली माता के मुख मे चली गयी, उसे लाना बडा भारी पाप है । पटवारी साहब ने बडी धमिकयां दी। मै जमाबनदी िबगाड

दँग ू ा, खसरा िूठाकर दँग ू ा, पर कुछ पभाव न हुआ! यहाँ की पथा ही है िक इन िदनो वाले जो वसतु पा जाये, िनिवघवन उठा ले जाये। कौन िकसकी पुकार करे

? नवयुवक पुि अपने िपता की आंख बाकर अपनी ही वसतु उठवा दे ता है । यिद वह ऐसा न करे , तो अपने समाज मे अपमािनत समिाजा जाए।

खेत पक गये है ।, पर काटने मे दो सपाह का िवलमब है । मेरे दार पर

से मीलो का दशय िदखाई दे ता है । गेहूँ और जौ के सुथरे खेतो के िकनारे िकनारे कुसुम के अरण और केसर-वण व पुषपो की पंिक परम सुहावनी लगती है । तोते चतुिदवक मँडलाया करते है ।

माधवी ने यहाँ कई सिखयाँ बना रखी है । पडोस मे एक अहीर रहता

है । राधा नाम है । गत वष व माता-िपता पलेगे के गास हो गये थे।

गह ृ सथी

का कुल भार उसी के िसर पर है । उसकी सी तुलसा पाय: हमारे यहाँ आती है । नख से िशख तक सुनदरता भरी हुई है । इतनी भोली है िक जो चाहता है

िक घणटो बाते सुना करँ । माधवी ने इससे बिहनापा कर रखा है । कल उसकी

गुिडयो का िववाह है । तुलसी की गुिडया है और माधवी का गुडडा। सुनती हूँ, 80

बेचारी बहुत िनधन व है । पर मैने उसके मुख पर कभी उदासीनता नहीं दे खी।

कहती थी िक उपले बेचकर दो रपये जमा कर िलये है । एक रपया दायज दँग ू ी और एक रपये मे बराितयो का खाना-पीना होगा। गुिडयो के वसाभूषण का भार राधा के िसर है ! कैसा सरल संतोषमय जीवल है !

लो, अब िवदा होती हूँ। तुमहारा समय िनरथक व बातो मे नि हुआ। कमा

करना। तुमहे पि िलखने बैठती हूँ, तो लेखनी रकती ही नहीं। अभी बहुतेरी बाते िलखने को पडी है । पतापचनद से मेरी पालागन कह दे ना।

तुमहारी

िवरजन (3) पयारे ,

मिगाँव तुमहारी, पेम पििका िमली। छाती से लगायी। वाह! चोरी और मुँहजोरी।

अपने न आने का दोष मेरे िसर धरते हो ? मेरे मन से कोई पूछे िक तुमहारे दशन व की उसे िकतनी अिभलाषा पितिदन वयाकुलता

के रप मे पिरणत

होती है । कभी-कभी बेसुध हो जाती हूँ। मेरी यह दशा थोडी ही िदनो से होने

लगी है । िजस समय यहाँ से गये हो, मुिे जान न था िक वहाँ जाकर मेरी दलेल करोगे। खैर, तुमहीं सच और मै ही िूठ। मुिे बडी पसननता हुई िक तुमने मरे दोनो पि पसनद िकये। पर पतापचनद को वयथ व िदखाये। वे पि बडी असावधानी से िलखे गये है । समभव है िक अशुिदयाँ रह गयी हो। मिे

िवशास नहीं आता िक पताप ने उनहे मूलयवान समिा हो। यिद वे मेरे पिो

का इतना आदर करते है िक उनके सहार से हमारे गामय-जीवन पर कोई रोचक िनबनध िलख सके, तो मै अपने को परम भागयवान ् समिती हूँ।

कल यहाँ दे वीजी की पूजा थी। हल, चककी, पुर चूलहे सब बनद थे।

दे वीजी की ऐसी ही आजा है । उनकी आजा का उललघंन कौन करे ? हुककापानी बनद हो जाए। साल-भर मं यही एक िदन है , िजस गाँवाले भी छुटटी का समिते है । अनयथा होली-िदवाली भी पित िदन के आवशयक कामो को नहीं रोक सकती। बकरा चढा। हवन हुआ। सतू िखलाया गया। अब गाँव के

बचचे-बचचे को पूण व िवशास है िक पलेग का आगमन यहाँ न हो सकेगा। ये

सब कौतुक दे खकर सोयी थी। लगभग बारह बजे होगे िक सैकडो मनुषय हाथ मे मशाले िलये कोलाहल मचाते िनकले और सारे गाँव का िेरा िकया। 81

इसका यह अथ व था िक इस सीमा के भीतर बीमारी पैर न रख सकेगी। िेरे

के सपाह होने पर कई मनुषय अनय गाम की सीमा मे घुस गये और थोडे

िूल,पान, चावल, लौग आिद पदाथ व पथ ृ वी पर रख आये। अथात व ् अपने गाम की बला दस ू रे गाँव के िसर डाल आये। जब ये लोग अपना काय व समाप करके वहाँ से चलने लगे तो उस गाँववालो को सुनगुन िमल गयी। सैकडो

मनुषय लािठयाँ लेकर चढ दौडे । दोनो पकवालो मे खूब मारपीट हुई। इस समय गाँव के कई मनुषय हलदी पी रहे है ।

आज पात:काल बची-बचायी रसमे पूरी हुई, िजनको यहाँ कढाई दे ना

कहते है । मेरे दार पर एक भटटा खोदा गया और उस पर एक कडाह दध ू से भरा हुआ रखा गया। काशी नाम का एक भर है । वह शरीर मे भभूत रमाये

आया। गाँव के आदमी टाट पर बैठे। शंख बजने लगा। कडाह के चतुिदव क

माला-िूल िबखेर िदये गये। जब कहाड मे खूब उबाल आया तो काशी िट

उठा और जय कालीजी की कहकर कडाह मे कूद पडा। मै तो समिी अब यह जीिवत न िनकलेगा। पर पाँच िमनट पशात ् काशी ने ििर छलाँग मारी

और कडाह के बाहर था। उसका बाल भी बाँका न हुआ। लोगो ने उसे माला

पहनायी। वे कर बाँधकर पूछने लगे-महराज! अबके वष व खेती की उपज कैसी होगी ? बीमारी अवेगी या नहीं ? गाँव के लोग कुशल से रहे गे ? गुड का भाव कैसा रहे गा ? आिद। काशी

ने इन सब पशो के उतर सपि पर िकंिचत ्

रहसयपूण व शबदो मे िदये। इसके पशात ् सभा िवसिजत व हुई। सुनती हूँ ऐसी िकया पितवष व होती है । काशी की भिवषयवािणयाँ यब सतय िसद होती है ।

और कभी एकाध असतय भी िनकल जाय तो काशी उना समाधान भी बडी योगयता से कर दे ता है । काशी बडी पहुँच का आदमी है । गाँव मे कहीं चोरी

हो, काशी उसका पता दे ता है । जो काम पुिलस के भेिदयो से पूरा न हो, उसे

वह पूरा कर दे ता है । यदिप वह जाित का भर है तथािप गाँव मे उसका बडा आदर है । इन सब भिकयो का पुरसकार वह मिदरा के अितिरक और कुछ नहीं लेता। नाम िनकलवाइये, पर एक बोतल उसको भेट कीिजये। आपका

अिभयोग नयायालय मे है ; काशी उसके िवजय का अनुिान कर रहा है । बस, आप उसे एक बोतल लाल जल दीिजये।

होली का समय अित िनकट है ! एक सपाह से अिधक नहीं। अहा! मेरा

हदय इस समय कैसा िखल रहा है ? मन मे आननदपद गुदगुदी हो रही है । 82

आँखे तुमहे दे खने के िलए अकुला रही है । यह सपाह बडी किठनाई से कटे गा। तब मै अपने िपया के दशन व पाँऊगी।

तुमहारी

िवरजन (4) पयारे

मिगाँव तुम पाषाणहदय हो, कटटर हो, सनेह-हीन हो, िनदव य हो, अकरण हो िूठो

हो! मै तुमहे और कया गािलयाँ दँ ू और कया कोसूँ ? यिद तुम इस कण मेरे सममुख होते, तो इस वजहदयता का उतर दे ती। मै कह रही हूँ, तुतम दगाबाज हो। मेरा कया कर लोगे ? नहीं आते तो मत आओ। मेरा पण लेना चाहते हो, ले लो। रलाने की इचछा है , रलाओ। पर मै कयो रोऊ ! मेरी बला

रोवे। जब आपको इतना धयान नहीं िक दो घणटे की यािा है , तिनक उसकी सुिध लेता आँऊ, तो मुिे कया पडी है िक रोऊ और पाण खोऊ ?

ऐसा कोध आ रहा है िक पि िाडकर िेक दँ ू और ििर तुमसे बात न

करं । हाँ ! तुमने मेरी सारी अिभलाषाएं, कैसे घूल मे िमलायी है ? होली! होली

! िकसी के मुख से यह शबद िनकला और मेरे हदय मे गुदगुदी होने लगी, पर शोक ! होली बीत गयी और मै िनराश रह गयी। पिहले यह शबद सुनकर

आननद होता था। अब द ु:ख होता है । अपना-अपना भागय है । गाँव के भूखेनंगे लँगोटी मे िाग

खेले, आननद मनावे, रं ग उडावे और मै अभािगनी

अपनी चारपाइर पर सिेद साडी पिहने पडी रहूँ। शपथ लो जो उस पर एक लाल धबबा भी पडा हो। शपथ ले लो जो मैने अबीर और गुलाल हाथ से छुई

भी हो। मेरी इि से बनी हुई अबीर, केवडे मे घोली गुलाल, रचकर बनाये हुए

पान सब तुमहारी अकृ पा का रोना रो रहे है । माधवी ने जब बहुत हठ की, तो मैने एक लाल टीका लगवा िलया। पर आज से इन दोषारोपणो का अनत होता है । यिद ििर कोई शबद दोषारोपण का मुख से िनकला तो जबान काट लूँगी।

परसो सायंकाल ही से गाँव मे चहल-पहल मचने लगी। नवयुवको का

एक दल हाथ मे डि िलये, अशील शबद बकते दार-दार िेरी लगाने लगा।

मुिे जान न था िक आज यहाँ इतनी गािलयाँ खानी पडे गी। लजजाहीन शबद उनके मुख से इस पकार बेधडक िनकलते थे जैसे िूल िडते हो। लजजा 83

और संकोच का नाम न था। िपता, पुि के सममुख और पुि, िपता के समख गािलयाँ बक रहे थे। िपता ललकार कर पुि-वधू से कहता है - आज होली है ! वधू घर मे िसर नीचा िकये हुए सुनती है और मुसकरा दे ती है । हमारे

पटवारी साहब तो एक ही महातम िनकले। आप मिदरा मे मसत, एक मैली-सी टोपी िसर पर रखे इस दल के नायक थे। उनकी बहू-बेिटयाँ उनकी अशीलता के वेग से न बच सकीं। गािलयाँ खाओ और हँ सो। यिद बदन पर तिनक भी मैल आये, तो लोग समिेग िक इसका मुहरव म का जनम है भली पथा है ।

लगभग तीन बजे रािि के िुणड होली माता के पास पहुँचा। लडके

अिगन-कीडािद मे ततपर थे। मै भी कई सीयो के पास गयी, वहाँ सीयाँ एक ओर होिलयाँ गा रही थीं। िनदान होली म आग लगाने का समय आया।

अिगन लगते ही जवाल भडकी और सारा आकाश सवणव-वण व हो गया। दरू-दरू तक के पेड-पते पकािशत हो गय। अब इस अिगन-रािश के चारो ओर ‘होली

माता की जय!’ िचलला कर दौडने लगे। सबे हाथो मे गेहूँ और जौ िक बािलयाँ थीं, िजसको वे इस अिगन मे िेकते जाते थे।

जब जवाला बहुत उतेिजत हुई, तो लेग एक िकनारे खडे होकर ‘कबीर’

कहने लगे। छ: घणटे तक यही दशा रही। लकडी के कुनदो से चटाकपटाक के

शबद िनकल रहे थे। पशुगण अपने-अपने खूँटो पर भय से िचलला रहे थे। तुलसा ने मुिसे कहा- अब की होली की जवाला टे ढी जा रही है । कुशल नहीं।

जब जवाला सीधी जाती है , गाँव मे साल-भर आननद की बधाई बजती है ।

परनतु जवाला का टे ढी होना अशुभ है िनदान लपट कम होने लगी। आँच की

पखरता मनद हुई। तब कुछ लोग होली के िनकट आकर धयानपूवक व दे खने लगे। जैसे कोइ वसतु ढू ँ ढ रहे हो। तुलसा ने बतलाया िक जब बसनत के िदन होली नीवं पडती है , तो पिहले एक एरणड गाड दे ते है । उसी पर लकडी और

उपलो का ढे र लगाया जाता है । इस समय लोग उस एरणड के पौधे का ढू ँ ढ

रहे है । उस मनुषय की गणना वीरो मे होती है जो सबसे पहले उस पौधे पर ऐसा लकय करे िक वह टू ट कर दज ू जा िगर। पथम पटवारी साहब पैतरे

बदलते आये, पर दस गज की दस ू ी से िाँककर चल िदये। तब राधा हाथ मे

एक छोटा-सा सोटा िलये साहस और दढतापूवक व आगे बढा और आग मे घुस कर वह भरपूर हाथ लगाया िक पौधा अलग जा िगरा। लोग उन टु कडो को लूटन लगे। माथे पर उसका टीका लगाते है और उसे शुभ समिते है । 84

यहाँ से अवकाश पाकर पुरष-मणडली दे वीजी के चबूतरे की ओर बढी।

पर यह न समिना, यहाँ दे वीजी की पितिा की गई होगी। आज वे भी गिजयाँ सुनना पसनद करती है । छोटे -बडे सब उनहं अशील गािलयाँ सुना रहे थे। अभी थोडे िदन हुए उनहीं दे वीजी की पूजा हुई थी।

सच तो यह है िक

गाँवो मे आजकल ईशर को गाली दे ना भी कमय है । माता-बिहनो की तो कोई गणना नहीं।

पभात होते ही लाला ने महाराज से कहा- आज कोई दो सेर भंग

िपसवा लो। दो पकारी की अलग-अलग बनवा लो। सलोनी आ मीठी। महारा ज िनकले और कई मनुषयो को पकड लाये। भांग पीसी जाने लगी। बहुत से कुलहड मँगाकर कमपूवक व रखे गये। दो घडो मं दोनो पकार की भांग रखी

गयी। ििर कया था, तीन-चार घणटो तक िपयककडो का ताँता लगा रहा। लोग

खूब बखान करते थे और गदव न िहला- िहलाकर महाराज की कुशलता की पशंसा करते थे। जहाँ िकसी ने बखान िकया िक महाराज ने दस ू रा कुलहड भरा बोले-ये सलोनी है । इसका भी सवाद चखलो। अजी पी भी लो। कया

िदन-िदन होली आयेगी िक सब िदन हमारे हाथ की बूटी िमलेगी ? इसके उतर मे िकसान ऐसी दिि से ताकता था, मानो िकसी

ने उसे संजीवन रस

दे िदया और एक की जगह तीन-तीन कुलहड चट कर जाता। पटवारी कक जामाता मुनशी जगदमबा पसाद साहब का शुभागमन हुआ है । आप कचहरी मे अरायजनवीस है । उनहे महाराज ने इतनी िपला दी िक आपे से बाहर हो

गये और नाचने-कूदने लगे। सारा गाँव उनसे पोदरी करता था। एक िकसान

आता है और उनकी ओर मुसकराकर कहता है - तुम यहाँ ठाढी हो, घर जाके भोजन बनाओ, हम आवत है ।

इस पर बडे जोर की हँ सी होती है , काशी भर

मद मे माता लटठा कनधे पर रखे आता और सभािसथत जनो की ओर

बनावटी कोध से दे खकर गरजता है - महाराज, अचछी बात नहीं है िक तुम हमारी नयी बहुिरया से मजा लूटते हो। यह कहकर मुनशीजी को छाती से लगा लेता है ।

मुंशीजी बेचारे छोटे कद के मनुषय, इधर-उधर िडिडाते

है , पर

नककारखाने मे तूती की आवाज कौन सुनता है ? कोई उनहे पयार करता है

और गले लगाता है । दोपहर तक यही छे ड-छाड हुआ की। तुलसा अभी तक बैठी हुई थी। मैने उससे कहा- आज हमारे यहाँ तुमहारा नयोता है । हम तुम

संग खायेगी। यह सुनते ही महरािजन दो थािलयो मे भोजन परोसकर लायी। 85

तुलसा इस समय िखडकी की ओर मुँह करके खडी थी। मैने जो उसको हाथ पकडकर अपनी और खींचा तो उसे अपनी पयारी-पयारी ऑख ं ो से मोती के

सोने िबखेरते हुए पाया। मै उसे गले लगाकर बोली- सखी सच-सच बतला दो, कयो रोती हो? हमसे कोइर दरुाव मत रखो। इस पर वह और भी िससकने

लगी। जब मैने बहुत हठ की, उसने िसर घुमाकर कहा-बिहन! आज पात:काल उन पर िनशान पड गया। न जाने उन पर कया बीत रही होगी। यह कहकर वह िूट-िूटकर रोने लगी। जात हुआ िक राधा के िपता ने कुछ ऋण िलया था। वह अभी तक चुका न सका था। महाजन ने सोचा िक इसे हवालात ले चलूँ तो रपये वसूल हो जाये। राधा कननी काटता

ििरता था। आज दे िषयो

को अवसर िमल गया और वे अपना काम कर गये। शोक ! मूल धन रपये

से अिधक न था। पथम मुि जात होता तो बेचारे पर तयोहार के िदन यह आपित न आने पाती। मैने चुपके से महाराज को बुलाया और उनहे बीस रपये दे कर राधा को छुडाने के िलये भेजा।

उस समय मेरे दार पर एक टाट िबछा िदया गया था। लालाजी मधय

मे कालीन पर बैठे थे। िकसान लोग घुटने तक धोितयाँ बाँधे, कोई कुती पिहने कोई नगन दे ह, कोई िसर पर पगडी बाँधे और नंगे िसर, मुख पर अबीर

लगाये- जो उनके काले वण व पर िवशेष छटा िदखा रही थी- आने लगे। जो आता, लालाजी के पैरो पर थोडी-सी अबीर रख दे त। लालाली भी अपने तशतरी मे से थोडी-सी अबीर िनकालकर उसके माथे पर लगा दे ते और

मुसकुराकर कोई िदललगी की बात कर दे ते थे। वह िनहाल हो जाता, सादर

पणाम करता और ऐसा पसनन होकर आ बैठता, मानो िकसी रं क ने रतरािश पायी है । मुिे सपपन मे भी धयान न था िक लालाजी इन उजडड

दे हाितयो के साथ बैठकर ऐसे आननद से वताल व ाप कर सकते है । इसी बीच मे काशी भर आया। उसके हाथ मे एक छोटी-सी कटोरी थी। वह उसमे अबीर

िलए हुए था। उसने अनय लोगो की भाँित लालाजी के चरणो पर अबीर नहीं रखी, िकंतु बडी धि ृ ता से मुटठी-भर लेकर उनके मुख पर भली-भाँित मल दी। मै तो डरी, कहीं लालाजी रि न हो जायँ। पर वह बहुत पसनन हुए और

सवयं उनहोने भी एक टीका लगाने के सथान पर दोनो हाथो से उसके मुख

पर अबीर मली। उसके सी उसकी ओर इस दिि से दे खते थे िक िनससंदेह तू वीर है और इस योगय है िक हमारा नायक बने। इसी पकार एक-एक करके दो-ढाई सौ मनुषय एकि हुए ! अचानक उनहोने कहा-आज कहीं राधा नहीं 86

दीख पडता, कया बात है ? कोई उसके घर जाके दे खा तो। मुंशी जगदमबा

पसाद अपनी योगयता पकािशत करने का अचछा अवसी दे खकर बोले उठे हजूर वह दिा 13 नं. अिलि ऐकट (अ) मे िगरफतार हो गया। रामदीन पांडे ने वारणट जारी करा िदया। हरीचछा से रामदीन पांडे भी वहाँ बैठे हुए थे। लाला

सने उनकी ओर परम ितरसकार दिि से दे खा और कहा- कयो पांडेजी, इस दीन को बनदीगह ृ मे बनद करने से तुमहारा घर भर जायगा ? यही मनुषयता और िशिता अब रह गयी है । तुमहे तिनक भी दया न आयी िक आज होली

के िदन उसे सी और बचचो से अलग िकया। मै तो सतय कहता हूँ िक यिद मै राधा होता, तो बनदीगह ृ से लौटकर मेरा पथम उदोग

यही होता िक

िजसने मुिे यह िदन िदखाया है , उसे मै भी कुछ िदनो हलदी िपलवा दँ।ू

तुमहे लाज नहीं आती िक इतने बडे महाजन होकर तुमने बीस रपये के िलए

एक दीन मनुषय को इस पकार कि मे डाला। डू ब मरना था ऐसे लोभ पर! लालाजी को वसतुत: कोध आ गया था। रामदीन ऐसा लिजजत हुआिक सब

िसटटी-िपटटी भूल गयी। मुख से बात न िनकली। चुपके से नयायालय की

ओर चला। सब-के-सब कृ षक उसकी ओर कोध-पूणव दिि से दे ख रहे थे। यिद लालाजी का भय न होता तो पांडेजी की हडडी-पसली वहीं चूर हो जाती। इसके पशात लोगो ने गाना आरमभ िकया।

मद मे तो सब-के-सब

गाते ही थे, इस पर लालजी के भातृ-भाव के सममान से उनके मन और भी उतसािहत हो गये। खूब जी तोडकर गाया। डिे तो इतने जोर से बजती थीं िक अब िटी और तब िटीं। जगदमबापसाद ने दहुरा नशा चढाया था। कुछ

तो उनके मन मे सवत: उमंग उतपनन हुई, कुछ दस ू रो ने उतेजना दी। आप मधय सभा मे खडा होकर नाचने लगे;

िवशास मानो, नाचने लग। मैने

अचकन, टोपी, धोती और मूँछोवाले पुरष को नाचते न दे खा था। आध घणटे

तक वे बनदरो की भाँित उछलते-कूदते रहे । िनदान मद ने उनहे पथ ृ वी पर

िलटा िदया। ततपशात ् एक और अहीर उठा एक अहीिरन भी मणडली से िनकली और दोनो चौक मे जाकर नाचने लगे। दोनो नवयुवक िुतीले थे।

उनकी कमर और पीठ की लचक िवलकण थी। उनके हाव-भाव, कमर का लचकना, रोम-रोम का िडकना, गदव न का मोड, अंगो का मरोड दे खकर िवसमय होता थां बहुत अभयास और पिरशम का कायव है ।

अभी यहाँ नाच हो ही रहा था िक सामने बहुत-से मनुषय लंबी-लंबी

लािठयाँ कनधो पर रखे आते िदखायी िदये। उनके संग डि भी था। कई 87

मनुषय हाथो से िाँि और मजीरे िलये हुए थे। वे गाते -बजाते आये और

हमारे दार पर रके। अकसमात तीन- चार मुनषयो ने िमलकर ऐसे आकाशभेदी शबदो मे ‘अररर...कबीर’ की धविन लगायी िक घर काँप उठा। लालाजी

िनकले। ये लोग उसी गाँव के थे, जहाँ िनकासी के िदन लािठयाँ चली थीं। लालजी को दे खते ही कई पुरषो ने उनके मुख पर अबीर मला। लालाजी ने

भी पतयुतर िदया। ििर लोग िश व पर बैठा। इलायची और पान से उनका

सममान िकया। ििर गाना हुआ। इस गाँववालो ने भी अबीर मलीं और मलवायी। जब ये लेग िबदा होने लगे, तो यह होली गायी:

‘सदा आननद रहे िह दारे मोहन खेले होरी।’ िकतना सुहावना गीत है ! मुिे तो इसमे रस और भाव कूट-कूटकर

भारा हुआ पतीत होता है । होली का भाव कैसे साधारण और संिकपत शबदो मे पकट कर िदया गया है । मै बारमबार यह पयारा गीत गाती हूँ, आननद लूटती हूँ। होली का तयोहार परसपर पेम और मेल बढाने के िलए है । समभव

सन था िक वे लोग, िजनसे कुछ िदन पहले लािठयाँ चली थीं, इस गाँव मे इस पकार बेधडक चले आते। पर यह होली का िदन है । आज

िकसी को

िकसी से दे ष नहीं है । आज पेम और आननद का सवराजय है । आज के िदन

यिद दख ु ी हो तो परदे शी बालम की अबला। रोवे तो युवती िवधवा ! इनके अितिरक और सबके िलए आननद की बधाई है ।

सनधया-समय गाँव की सब सीयाँ हमारे यहाँ खेलने आयीं। मातजी ने

उनहे बडे आदर से बैठाया। रं ग खेला, पान बाँटा। मै मारे भय के बाहर न

िनकली। इस पकार छुटटी िमली। अब मुिे धयान आया िक माधवी दोपहर से गायब है । मैने सोचा था शायद गाँव मे होली खेलने गयी हो। परनतु इन सीयो के संग न थी। तुलसा अभी तक चुपचाप िखडकी की ओर मुँह िकये

बैठी थी। दीपक मे बती पडी रही थी िक वह अकसमात ् उठी, मेरे चरणो पर िगर पडी और िूट-िूटकर रोने लगी। मैने िखडकी की ओर िाँका तो दे खती

हूँ िक आगे-आगे महाराज, उसके पीछे राधा और सबसे पीछे रामदीन पांडे चल रहे है । गाँव के बहत से आदमी उनकेस संग है । राधा का बदन

कुमहलाया हुआ है । लालाजी ने जयोही सुना िक राधा आ गया, चट बाहर िनकल आये और बडे सनेह से उसको कणठ से लगा 88

िलया, जैसे कोई अपने

पुि का गले से लगाता है । राधा िचलला-िचललाकर के चरणो मे िगर पडी।

लालाजी ने उसे भी बडे पेम से उठाया। मेरी ऑख ं ो मे भी उस समय ऑस ं ू न रक सके। गाँव के बहुत से मनुषय रो रहे थे। बडा करणापूण व दशय था। लालाजी के नेिो मे मैने कभी ऑस ं ू ने दे खे थे। वे इस समय दे खे। रामदीन पाणडे य मसतक िुकाये ऐसा खडा था, माना गौ-हतया की हो। उसने कहा-मरे रपये िमल गये, पर इचछा है , इनसे तुलसा के िलए एक गाय ले दँ।ू

राधा और तुलसा दोनो अपने घर गये। परनतु थोडी दे र मे तुलसा

माधवी का हाथ पकडे हँ सती हुई मरे घर आयी बोली- इनसे पूछो, ये अब तक कहाँ थीं?

मै- कहाँ थी ? दोपहर से गायब हो ? माधवी-यहीं तो थी।

मै- यहाँ कहाँ थीं ? मैने तो दोपहर से नहीं दे खा। सच-सख ् बता दो मै

रि न होऊगी।

माधवी- तुलसा के घर तो चली गयी थी।

मै- तुलसा तो यहाँ बैठी है , वहाँ अकेली कया सोती रहीं ?

तुलसा- (हँ सकर) सोती काहे को जागती रह। भोजन बनाती रही, बरतन

चौका करती रही। न!

माधवी- हाँ, चौका-बरतर करती रही। कोई तुमहार नौकर लगा हुआ है जात हुअ िक जब मैने महाराज को राधा को छुडाने के िलए भेजा था,

तब से माधवी तुलसा के घर भोजन बनाने मे लीन रही। उसके िकवाड

खोले। यहाँ से आटा, घी, शककर सब ले गयी। आग जलायी और पूिडयाँ, कचौिडयाँ, गुलगुले और मीठे समोसे सब बनाये। उसने सोचा थािक मै यह सब बताकर चुपके से चली जाँऊगी। जब राधा और तुलसा जायेगे, तो िविसमत होगे िक कौन बना गया! पर सयात ् िवलमब अिधक हो गया और अपराधी पकड िलया गया। दे खा, कैसी सुशीला बाला है ।

अब िवदा होती हूँ। अपराध कमा करना। तुमहारी चेरी हूँ जैसे रखोगे

वैसे रहूँगी। यह अबीर और गुलाल भेजती हूँ। यह तुमहारी दासी का उपहार

है । तुमहे हमारी शपथ िमथया सभयता के उमंग मे आकर इसे िेक न दे ना, नहीं तो मेरा हदय दख ु ी होगा।

तुमहारी, 89

िवरजन (5) मिगाँव ‘पयारे ! तुमहारे पि ने बहुत रलाया। अब नहीं रहा जाता। मुिे बुला लो। एक

बार दे खकर चली आँऊगी। सच बताओं, यिद मे तुमहारे यहाँ आ जाऊं, तो

हँ सी तो न उडाओगे? न जाने मन मे कया समिोग ? पर कैस आऊं? तुम लालाजी को िलखो खूब! कहे गे यह नयी धुन समायी है ।

कल चारपाई पर पडी थी। भोर हो गया था, शीतल मनद पवन चल

रहा था िक सीयाँ गाने का शबद सुनायी पडा। सीयाँ अनाज का खेत

काटने

जा रही थीं। िाँककर दे खा तो दस-दस बारह-बारह सीयो का एक-एक गोल था। सबके हाथो मे हं िसया, कनधो पर गािठयाँ बाँधने की रसस ् ओर िसर पर

भुने हुए मटर की छबडी थी। ये इस समय जाती है , कहीं बारह बजे लौटे गी। आपस मे गाती, चुहले करती चली जाती थीं।

दोपहर तक बडी कुशलता रही। अचानक आकश मेघाचछनन हो गया।

ऑध ं ी आ गयी और ओले िगरने लगे। मैने इतने बडे ओले िगरते न दे खे थे।

आलू से बडे और ऐसी तेजी से िगरे जैसे बनदक ृ वी ू से गोली। कण-भर मे पथ पर एक िुट ऊंचा िबछावन िबछ गया। चारो तरि से कृ षक भागने लगे।

गाये, बिकरयाँ, भेडे सब िचललाती हुई पेडो की छाया ढू ँ ढती, ििरती थीं। मै डरी िक न-जाने तुलसा पर कया बीती। आंखे िैलाकर दे खा तो खुले मैदान मे

तुलसा, राधा और मोिहनी गाय दीख पडीं। तीनो घमासान ओले की मार मे

पडे थे! तुलसा के िसर पर एक छोटी-सी टोकरी थी और राधा के िसर पर एक बडा-सा गटठा। मेरे नेिो मे आंसू भर आये िक न जाने इन बेचारो की कया गित होगी। अकसमात एक पखर िोके ने राधा के िसर से गटठा िगरा

िदया। गटठा का िगरना था िक चट तुलसा ने अपनी टोकरी उसके िसर पर औध ं ा दी। न-जाने उस पुषप ऐसे िसर पर िकतने ओले पडे । उसके हाथ कभी

पीठ पर जाते, कभी िसर सुहलाते। अभी एक सेकेणड से अिधक यह दशा न रही होगी िक राधा ने िबजली की भाँित जपककर गटठा उठा िलया और टोकरी तुलसा को दे दी। कैसा घना पेम है !

अनथक व ारी दद ु े व ने सारा खेल िबगाड िदया ! पात:काल सीयाँ गाती हुई

जा रही थीं। सनधया को घर-घर शोक छाया हुआ था। िकतना के िसर लहू90

लुहान हो गये, िकतने हलदी पी रहे है । खेती सतयानाश हो गयी। अनाज बिव के तले दब गया। जवर का पकोप है सारा गाँव असपताल बना हुआ है । काशी भर का भिवषय पवचन पमािणत हुआ। होली की जवाला का भेद पकट हो गया। खेती की यह दशा और लगान उगाहा जा रहा है । बडी िवपित का

सामना है । मार-पीट, गाली, अपशबद सभी साधनो से काम िलया जा रहा है । दोनो पर यह दै वी कोप!

तुमहारी

िवरजन

(6) मिगाँव

मेरे पाणिधक िपयतम,

पूरे पनदह िदन के पशात ् तुमने िवरजन की सुिध ली। पि को

बारमबार पढा। तुमहारा पि रलाये िबना नहीं मानता। मै यो भी बहुत रोया

करती हूँ। तुमको िकन-िकन बातो की सुिध िदलाऊँ? मेरा हदय िनबल व है िक

जब कभी इन बातो की ओर धयान जाता है तो िविचि दशा हो जाती है ।

गमी-सी लगती है । एक बडी वयग करने वाली, बडी सवािदि, बहुत रलानेवाली, बहुत दरुाशापूण व वेदना उतपनन होती है । जानती हूँ िक तुम नहीं आ रहे और नहीं आओगे; पर बार-बार जाकर खडी हो जाती हूँ िक आ तो नहीं गये।

कल सायंकाल यहाँ एक िचताकषक व पहसन दे खने मे आया। यह

धोिबयो का नाच था। पनदह-बीस मनुषयो का एक समुदाय था। उसमे एक

नवयुवक शेत पेशवाज पिहने, कमर मे असंखय घंिटयाँ बाँधे, पाँव मे घुघँर पिहने, िसर पर लाल टोपी रखे नाच रहा था। जब पुरष नाचता था तो मअ ृ ग ं

बजने लगती थी। जात हुआ िक ये लोग होली का पुरसकार माँगने आये है । यह जाित पुरसकार खूब लेती है । आपके यहाँ कोई काम-काज पडे उनहे

पुरसकार दीिजये; और उनके यहाँ कोई काम-काज पडे , तो भी उनहे पािरतोिषक िमलना चािहए। ये लोग नाचते समय गीत नहीं गाते। इनका गाना इनकी

किवता है । पेशवाजवाला पुरष मद ृ ं ग पर हाथ रखकर एक िवरहा कहता है ।

दस ू रा पुरष सामने से आकर उसका पतयुतर दे ता है और दोनो ततकण वह

िवरहा रचते है । इस जाित मे किवतव-शिक अतयिधक है । इन िवरहो को धयान से सुनो तो उनमे बहुधा उतम किवतव भाव पकट िकये जाते है । 91

पेशवाजवाले पुरषो ने पथम जो िवरहा कहा था, उसका यह अथ व िक ऐ धोबी

के बचचो! तुम िकसके दार पर आकर खडे हो? दस ू रे ने उतर िदया-अब न अकबर शाह है न राजा भोज, अब जो है हमारे मािलक है उनहीं से माँगो।

तीसरे िवरहा का अथ व यह है िक याचको की पितिा कम होती है अतएव कुछ मत माँगो, गा-बाजकर चले चलो, दे नेवाला िबन माँगे ही दे गा। घणटे -भर

से ये लोग िवरहे कहते रहे । तुमहे पतित न होगी, उनके मुख से िवरहे इस पकार बेधडक िनकलते थे िक आशय व पकट होता था। सयात इतनी सुगमता

से वे बाते भी न कर सकते हो। यह जाित बडी िपयककड है । मिदरा पानी

की भाँित पीती है । िववाह मे मिदरा गौने मे मिदरा, पूजा-पाठ मे मिदरा। पुरसकार माँगेगे तो पीने के िलए। धुलाई माँगेगे तो यह कहकर िक आज

पीने के िलए पैसे नहीं है । िवदा होते समय बेचू धोबी ने जो िवरहा कहा था, वह कावयालंकार से भरा हुआ है । तुमहारा पिरवार इस पकार बढे जैसे गंगा जी का जल। लडके िूले-िले, जैसे आम का बौर। मालिकन को सोहाग सदा बना रहे , जैसे दब ू की हिरयाली। कैसी अनोखी किवता है ।

तुमहारी

िवरजन (7) पयारे ,

मिगाँव एक सपाह तक चुप रहने की कमा चाहती हूँ। मुिे इस सपाह मे

तिनक भी अवकाश न िमला। माधवी बीमार हो गयी थी। पहले तो कुनैन

को कई पुिडयाँ िखलायी गयीं पर जब लाभ न हुआ और उसकी दशा और भी बुरी होने लगी तो, िदहलूराय वैद बुलाये गये। कोई पचास वष व की आयू

होगी। नंगे पाँव िसर पर एक पगडो बाँधे, कनधे पर अंगोछा रखे, हाथ मे मोटा-सा सोटा िलये दार पर आकर बैठ गये। घर के जमींदार है , पर िकसी ने उनके शरीर मे िमजई तक नहीं दे खी। उनहे इतना अवकाश ही नहीं िक

अपने शरीर-पालन की ओर धयान दे । इस मंडल मे आठ-दस कोस तक के

लोग उन पर िवशास करते है । न वे हकीम को लाने, न डाकटर को। उनके हकीम-डाकटर जो कुछ है वे िदहलूराय है । सनदे शा सुनते ही आकर दार पर

बैठ गये। डाकटरो की भाँित नहीं की पथम सवारी माँगेगे- वह भी तेज िजसमे 92

उनका समय नि न हो। आपके घर ऐसे बैठे रहे गे , मानो गूग ँ े का गुड खा

गये है । रोगी को दे खने जायेगे तो इस पकार भागेगे मानो कमरे की वायु मे िवष भरा हुआ है । रोग पिरचय और औषिध का उपचार केवल दो िमनट मे

समाप। िदहलूराय डाकटर नहीं है - पर िजतने मनुषयो को उनसे लाभ पहुँचता

है , उनकी संखया का अनुमान करना किठन है । वह सहानुभूित की मूित व है । उनहे दे खते ही रे गी का आधा रोग दरू हो जाता है । उनकी औषिधयाँ ऐसी

सुगम और साधारण होती है िक िबना पैसा-कौडी मनो बटोर लाइए। तीन ही िदन मे माधवी चलने-ििरने लगी। वसतुत: उस वैद की औषिध मे चमतकार है ।

यहाँ इन िदनो मुगिलये ऊधम मचा रहे है । ये लोग जाडे मे कपडे

उधार दे दे ते है और चैत मे दाम वसूल करते है । उस समय कोई बहाना

नहीं सुनते। गाली-गलौज मार-पीट सभी बातो पर उतरा आते है । दो-तीन मनुषयो को बहुत मारा। राधा ने भी कुछ कपडे िलये थे। उनके दार पर जाक

सब-के-सब गािलयाँ दे ने लगे। तुलसा ने भीतर से िकवाड बनद कर िदये। जब इस पकार बस न चला, तो एक मोहनी गाय को खूट ँ े से खोलकर खींचते

हुए ले चला। इतने मं राधा दरू से आता िदखाई िदया। आते ही आते उसने

लाठी का वह हाथ मारा िक एक मुगिलये की कलाई लटक पडी। तब तो

मुगिलये कुिपत हुए, पैतरे बदलने लगे। राधा भी जान पर खेन गया और तीन दि ु ो को बेकार कर िदया। इतने काशी भर ने आकर एक मुगिलये की

खबर ली। िदहलूराय को मुगािलयो से िचढ है । सािभमान कहा करते है िक

मैने इनके इतने रपये डु बा िदये इतनो को िपटवा िदया िक िजसका िहसाब

नहीं। यह कोलाहल सुनते ही वे भी पहुँच गये। ििर तो सैकडो मनुषय

लािठयाँ ले-लेकर दौड पडे । उनहोने मुगिलयो की भली-भाँित सेवा की। आशा है िक इधर आने का अब साहस न होगा।

अब तो मइ का मास भी बीत गया। कयो अभी छुटटी नहीं हुई ? रात-

िदन तमहारे आने की पतीका है । नगर मे बीमारी कम हो गई है । हम लोग बुहत शीघ यहँ से चले जायगे। शोक ! तुम इस गाँव की सैर न कर सकोगे।

तुमहारी

िवरजन

93

18 पता पचन द औ र क मलाच रण पतापचनद को पयाग कालेज मे पढते तीन साल हो चुके थे। इतने

काल मे उसने अपने सहपािठयो और गुरजनो की दिि मे िवशेष पितिा पाप कर ली थी। कालेज के जीवन का कोई ऐसा अंग न था जहाँ उनकी पितभा

न पदिशत व हुई हो। पोिेसर उस पर अिभमान करते और छािगण उसे अपना

नेता समिते है । िजस पकार कीडा-केि मे उसका हसतलाघव पशंसनीय था, उसी पकार वयाखयान-भवन मे उसकी योगयता और सूकमदिशत व ा पमािणत

थी। कालेज से समबद एक िमि-सभा सथािपत की गयी थी। नगर के

साधारण सभय जन, कालेज के पोिेसर और छािगण सब उसके सभासद थे। पताप इस सभा का उजजवल चनद था। यहां दे िशक और सामािजक िवषयो

पर िवचार हुआ करते थे। पताप की वकृ ताऍ ं ऐसी ओजिसवनी और तकव-पूणव

होती थीं की पोिेसरो को भी उसके िवचार और िवषयानवेषण पर आशयव होता था। उसकी वकृ ता और उसके खेल दोनो ही पभाव-पूण व होते थे। िजस

समय वह अपने साधारण वस पिहने हुए पलेटिाम व पर जाता, उस समय सभािसथत लोगो की आँखे उसकी ओर एकटक दे खने लगती और िचत मे उतसुकता और उतसाह की तरं गे उठने लगती। उसका वाकचातुय व उसक संकेत

और मद ृ ल ु उचचारण, उसके अंगो-पांग की गित, सभी ऐसे पभाव-पूिरत होते थे

मानो शारदा सवयं उसकी सहायता करती है । जब तक वह पलेटिाम व पर

रहता सभासदो पर एक मोिहनी-सी छायी रहती। उसका एक-एक वाकय हदय मे िभद जाता और मुख से सहसा ‘वाह-वाह!’ के शबद िनकल जाते। इसी

िवचार से उसकी वकृ ताऍ ं पाय: अनत मे हुआ करती थी कयोिक बहुतधा

शोतागण उसी की वाकीकणता का आसवादन करने के िलए आया करते थे।

उनके शबदो और उचचारणो मे सवाभािवक पभाव था। सािहतय और इितहास उसक अनवेषण और अधययन के िवशेष थे। जाितयो की उननित और

अवनित तथा उसके कारण और गित पर वह पाय: िवचार िकया करता था। इस समय उसके इस पिरशम और उदोग के परे क तथा वदव क िवशेषकर शोताओं के साधुवाद ही होते थे और उनहीं को वह अपने किठन पिरशम का

पुरसकार समिता था। हाँ, उसके उतसाह की यह गित दे खकर यह अनुमान

िकया जा सकता था िक वह होनहार िबरवा आगे चलकर कैसे िूल-िूल 94

लायेगा और कैसे रं ग-रप िनकालेगा। अभी तक उसने कण भी के िलए भी

इस पर धयान नहीं िदया था िक मेरे अगामी जीवन का कया सवरप होगा।

कभी सोचता िक पोिेसर हो जाँऊगा और खूब पुसतके िलखूँगा। कभी वकील

बनने की भावना करता। कभी सोचता, यिद छािविृत पाप होगी तो िसिवल सिवसव का उदोग करं गा। िकसी एक ओर मन नहीं िटकता था।

परनतु पतापचनद उन िवदािथयो मे से न था, िजनका सारा उदोग

वकृ ता और पुसतको ही तक पिरिमत रहता है । उसके संयम और योगयता का

एक छोटा भाग जनता के लाभाथ व भी वयय होता था। उसने पकृ ित से उदार और दयालु हदय पाया था और सवस व ाधरण से िमलन-जुलने और काम करने

की योगयता उसे िपता से िमली थी। इनहीं कायो मे उसका सदतुसाह पूणव रीित से पमािणत होता था। बहुधा सनधया समय वह कीटगंज और कटरा की

दग व धपूण व गिलयो मे घूमता िदखायी दे ता जहाँ िवशेषकर नीची जाित के ु न

लोग बसते है । िजन लोगो की परछाई से उचचवणव का िहनद ू भागता है , उनके साथ पताप टू टी खाट पर बैठ कर घंटो बाते करता और यही कारण था िक

इन मुहललो के िनवासी उस पर पाण दे ते थे। पेमाद और शारीिरक सुखपलोभ ये दो अवगुण पतापचनद मे नाममाि को भी न थे। कोई अनाथ मनुषय हो पताप उसकी सहायता के िलए तैयार था। िकतनी राते उसने

िोपडो मे कराहते हुए रोिगयो के िसरहाने खडे रहकर काटी थीं। इसी

अिभपाय से उसने जनता का लाभाथ व एक सभा भी सथािपत कर रखी थी और ढाई वष व के अलप समय मे ही इस सभा ने जनता की सेवा मे इतनी सिलता पाप की थी िक पयागवािसयो को उससे पेम हो गया था।

कमलाचरण िजस समय पयाग पहुँचा, पतापचनद ने उसका बडा आदर

िकया। समय ने उसके िचत के दे ष की जवाला शांत कर दी थी। िजस समय वह िवरजन की बीमारी का समाचार पाकर बनारस पहुँचा था और उससे भेट

होते ही िवरजन की दशा सुधर चली थी, उसी समय पताप चनद को िवशास हो गया था िक कमलाचरण ने उसके हदय मे वह सथान नहीं पाया है जो मेरे िलए सुरिकत है । यह िवचार दे षािगन को शानत करने के िलए कािी था।

इससे अितिरक उसे पाय: यह िवचार भी उिदगन िकया करता था िक मै ही

सुशीला का पाणघातक हूँ। मेरी ही कठोर वािणयो ने उस बेचारी का पाणघात

िकया और उसी समय से जब िक सुशील ने मरते समय रो-रोकर उससे

अपने अपराधो की कमा माँगी थी, पताप ने मन मे ठान िलया था। िक 95

अवसर िमलेगा तो मै इस पाप का पायिशत अवशय करं गा। कमलाचरण का

आदर-सतकार तथा िशका-सुधार मे उसे िकसी अंश मे पायिशत को पूणव

करने का अपूव व अवसर पाप हुआ। वह उससे इस पकार वयवहार रखता, जैसे छोटा भाई के साथ अपने समय का कुछ भाग उसकी सहायता करने मे वयय

करता और ऐसी सुगमता से िशकक का कतव व य पालन करता िक िशका एक रोचक कथा का रप धारण कर लेती।

परनतु पतापचनद के इन पयतो के होते हुए भी कमलाचरण का जी

यहाँ बहुत घबराता। सारे छािवास मे उसके सवाभावनुकूल एक मनुषय भी न था, िजससे वह अपने मन का द ु:ख कहता। वह पताप से िनससंकोच रहते हुए भी िचत की बहुत-सी बाते न कहता था। जब िनजन व ता से जी अिधक घबराता तो िवरजन को कोसने लगता िक मेरे िसर पर यह सब आपितयाँ उसी की लादी हुई है । उसे मुिसे पेम नहीं। मुख और लेखनी का पेम भी

कोई पेम है ? मै चाहे उस पर पाण ही कयो न वारं , पर उसका पेम वाणी और लेखनी से बाहर न िनकलेगा। ऐसी मूित व के आगे , जो पसीजना जानती ही नहीं, िसर पटकने से कया लाभ। इन िवचारो ने यहाँ तक जोर पकडा िक

उसने िवरजन को पि िलखना भी तयाग िदया। वह बेचारी अपने पिो मे

कलेजा िनकलाकर रख दे ती, पर कमला उतर तक न दे ता। यिद दे ता भी तो

रखा और हदयिवदारक। इस समय िवरजन की एक-एक बात, उसकी एक-एक

चाल उसके पेम की िशिथलता का पिरचय दे ती हुई पतीत होती थी। हाँ , यिद िवसमरण हो गयी थी तो िवरजन की सनेहमयी बाते, वे मतवाली ऑख ं े जो

िवयोग के समय डबडबा गयी थीं और कोमल हाथ िजनहोने उससे िवनती की थी िक पि बराबर भेजते रहना। यिद वे उसे समरण हो आते , तो समभव था

िक उसे कुछ संतोष होता। परनतु ऐसे अवसरो पर मनुषय की समरणशिक धोखा दे िदया करती है ।

िनदान, कमलाचरण ने अपने मन-बहलाव का एक ढं ग सोच ही

िनकाला। िजस समय से उसे कुछ जान हुआ, तभी से उसे सौनदयव-वािटका मे भमण करने की चाट पडी थी, सौनदयोपासना उसका सवभाव हो गया था।

वह उसके िलए ऐसी ही अिनवायव थी, जैसे शरीर रका के िलए भोजन। बोिडि ग हाउस से िमली हुई एक सेठ की वािटका थी और उसकी दे खभाल

के िलए

माली नौकर था। उस माली के सरयूदेवी नाम की एक कुँवारी लडकी थी।

यदिप वह परम सुनदरी न थी, तथािप कमला सौनदय व का इतना इचछुक न 96

था, िजतना िकसी िवनोद की सामगी का। कोई भी सी, िजसके शरीर पर यौवन की िलक हो, उसका मन बहलाने के िलए समुिचत थी। कमला इस लडकी पर डोरे डालने लगा। सनधया समय िनरनतर वािटका की पटिरयो पर

टहलता हुआ िदखायी दे ता। और लडके तो मैदान मे कसरत करते, पर कमलाचरण वािटका मे आकर ताक-िाँक िकया करता। धीरे -धीरे सरयूदेवी से

पिरचय हो गया। वह उससे गजरे मोल लेता और चौगुना मूलय दे ता। माली को तयोहार के समय सबसे अिधक तयोहरी कमलाचरण ही से िमलती। यहाँ

तक िक सरयूदेवी उसके पीित-रपी जाल का आखेट हो गयी और एक-दो बार अनधकार के पदे मे परसपर संभोग भी हो गया।

एक िदन सनधया का समय था, सब िवदाथी सैर को गये हुए थे,

कमला अकेला वािटका मे टहलता था और रह-रहकर माली के िोपडो की ओर िाँकता था। अचानक िोपडे मे से सरयूदेवी ने उसे संकेत दारा बुलाया। कमला बडी शीघता से भीतर घुस गया। आज सरयूदेवी ने मलमल की साडी

पहनी थी, जो कमलाबाबू का उपहार थी। िसर मे सुगंिधत तेल डाला था, जो

कमला बाबू बनारस से लाये थे और एक छींट का सलूका पहने हुई थी, जो बाबू साहब ने उसके िलए बनवा िदया था। आज वह अपनी दिि मे परम सुनदरी पतीत होती थी, नहीं तो कमला जैसा धनी मनुषय उस पर कयो पाण

दे ता ? कमला खटोले पर बैठा हुआ सरयूदेवी के हाव-भाव को मतवाली दिि से दे ख रहा था। उसे उस समय सरयूदेवी वज ृ रानी से िकसी पकार कम सुनदरी नहीं दीख पडती थी। वणव मे तिनक सा अनतर था, पर यह ऐसा कोई

बडा अंतर नहीं। उसे सरयूदेवी का पेम सचचा और उतसाहपूण व जान पडता था, कयोिक वह जब कभी बनारस जाने की चचा व करता, तो सरयूदेवी िूटिूटकर रोने लगती और कहती िक मुिे भी लेते चलना। मै तुमहारा संग न

छोडू ँ गी। कहाँ यह पेम की तीवता व उतसाह का बाहुलय और कहाँ िवरजन की उदासीन सेवा और िनदव यतापूणव अभयथन व ा !

कमला अभी भलीभाँित ऑख ं ो को सेकने भी न पाया था िक अकसमात ्

माली ने आकर दार खटखटाया। अब काटो तो शरीर मे रिधर नहीं। चेहरे का रं ग उड गया। सरयूदेवी से िगडिगडाकर बोला- मै कहाँ जाऊं? सरयूदेवी का जान आप ही शूनय हो गया, घबराहट मे मुख से शबद तक न िनकला। इतने

मे माली ने ििर िकवाड खटखटाया। बेचारी सरयूदेवी िववश थी। उसने डरते97

डरते िकवाड खोल िदया। कमलाचरण एक कोने मे शास रोककर खडा हो गया।

िजस पकार बिलदान का बकरा कटार के तले तडपता है उसी पकार

कोने मे खडे हुए कमला का कलेजा धजडक रहा था। वह अपने जीवन से

िनराश था और ईशर को सचचे हदय से समरण कर रहा था और कह रहा

था िक इस बार इस आपित से मुक हो जाऊंगा तो ििर कभी ऐसा काम न करं गा।

इतने मे माली की दिि उस पर

पडी, पिहले तो घबराया, ििर िनकट

आकर बोला- यह कौन खडा है ? यह कौन है ?

इतना सुनना था िक कमलाचरण िपटकर बाहर िनकला और िाटक

की ओर जी छोडकर भागा। माली एक डं डा हाथ मे िलये ‘लेना-लेना, भागने न पाये?’ कहता हुआ पीछे -पीछे दौडा। यह वह कमला है जो माली को

पुरसकार व पािरतोिषक िदया करता था, िजससे माली सरकार और हुजूर कहकर बाते करता था। वही कमला आज उसी माली सममुख इस पकार

जान लेकर भागा जाता है । पाप अिगन का वह कुणड है जो आदर और मान, साहस और धैयव को कण-भर मे जलाकर भसम कर दे ता है ।

कमलाचरण वक ृ ो और लताओं की ओट मे दौडता हुआ िाटक से बाहर

िनकला। सडक पर ताँगा जा रहा था, जो बैठा और हाँिते-हाँिते अशक होकर

गाडी के पटरे पर िगर पडा। यदिप माली ने िाटक भी पीछा न िकया था, तथािप कमला पतयेक आने-जाने वाले पर चौक-चौककर दिि

डालता थ,

मानो सारा संसार शिु हो गया है । दभ ु ागवय ने एक और गुल िखलाया। सटे शन

पर पहुँचते ही घबराहट का मारा गाडी मे जाकर बैठ गय, परनतु उसे िटकट

लेने की सुिध ही न रही और न उसे यह खबर थी िक मै िकधर जा रहा हूँ। वह इस समय इस नगर से भागना चाहता था, चाहे कहीं हो। कुछ दरू चला

था िक अंगेज अिसर लालटे न िलये आता िदखाई िदया। उसके संग एक

िसपाही भी था। वह यािियो का िटकट दे खता चला आता था; परनतु कमला

ने जान िक कोई पुिलस अिसर है । भय के मारे हाथ-पाँव सनसनाने लगे, कलेजा धडकने लगा। जब अंगेज दसूरी गिडयो मे जाँच करता रहा, तब तक तो वह कलेजा कडा िकये पेकार बैठा रहा, परनतु जयो उसके िडबबे का िाटक

खुला कमला के हाथ-पाँव िूल गये, नेिो के सामने अंधेरा छा गया। उतावलेपन से दस ू री ओर का िकवाड खोलकर चलती हुई रे लगाडी पर से 98

नीचे कूद पडा। िसपाही और रे लवाले साहब ने उसे इस पकार कूदते दे खा तो

समिा िक कोई अभयसत डाकू है , मारे हषव के िूले न समाये िक पािरतोिषक अलग िमलेगा और वेतनोननित अलग होगी, िट लाल बती िदखायी। तिनक दे र मे गाडी रक गयी। अब गाडव , िसपाही और िटकट वाले साहब कुछ अनय

मनुषयो के सिहत गाडी उतर गयी। अब गाडव , िसपाही और िटकट वाले साहब

कुछ अनय मुनषयो के सिहत गाडी से उतर पडे और लालटे न ले-लेकर इधरउधर दे खने लगे। िकसी ने कहा-अब उसकी धून भी न िमलेगी, पकका डकैत था। कोई बोला- इन लोगो को कालीजी का इि रहता है , जो कुछ न कर िदखाये, थोडा है परनतु गाडव आगे ही बढता गया। वेतन वुिद की आशा उसे

आगे ही िलये जाती थी। यहाँ तक िक वह उस सथान पर जा पहुँचा, जहाँ कमेला गाडी से कूदा था। इतने मे िसपाही ने खडडे की ओर सकंकेत करके

कहा- दे खो, वह शेत रं ग की कया वसतु है ? मुिे तो कोई मनुषय-सा पतीत

होता है और लोगो ने दे खा और िवशास हो गया िक अवशय ही दि ु डाकू

यहाँ िछपा हुआ है , चलकेर उसको घेर लो तािक कहीं िनकलने न पावे, तिनक

सावधान रहना डाकू पाणपर खेल जाते है । गाडव साहब ने िपसतौल सँभाली, िमयाँ िसपाही ने लाठी तानी। कई सीयो ने जूते उतार कर हाथ मे ले िलये

िक कहीं आकमण कर बैठा तो भागने मे सुभीता होगा। दो मनुषयो ने ढे ले

उठा िलये िक दरू ही से लकय करे गे। डाकू के िनकट कौन जाय, िकसे जी भारी है ? परनतु जब लोगो ने समीप जाकर दे खा तो न डाकू था, न डाकू भाई; िकनतु एक सभय-सवरप, सुनदर वणव, छरहरे शरीर का नवयुवक पथ ृ वी पर औध ं े मुख पडा

है और उसके नाक और कान से धीरे -धीरे रिधर बह रहा है ।

कमला ने इधर साँस तोडी और िवरजन एक भयानक सवपन दे खकर

चौक पडी। सरयूदेवी ने िवरजन का सोहाग लूट िलया।

99

19 द ु :ख-दशा सौभागयवती सी के िलए उसक पित संसार की सबसे पयारी वसतु

होती है । वह उसी के िलए जीती और मारती है । उसका हँ सना-बोलना उसी के पसनन करने के िलए और उसका बनाव-शग ं ृ ार उसी को लुभाने के िलए होता है । उसका सोहाग जीवन है और सोहाग का उठ जाना उसके जीवन का अनत है ।

कमलाचरण की अकाल-मतृयु वज ृ रानी के िलए मतृयु से कम न थी।

उसके जीवन की आशाएँ और उमंगे सब िमटटी मे िमल गयीं। कया-कया अिभलाषाएँ थीं और कया हो गय? पित-कण मत ृ कमलाचरण का िचि उसके

नेिो मे भमण करता रहता। यिद थोडी दे र के िलए उसकी ऑखे िपक जातीं, तो उसका सवरप साकात नेिो के सममुख आ जाता।

िकसी-िकसी समय मे भौितक िय-तापो को िकसी िवशेष वयिक या

कुटु मब से पेम-सा हो जाता है । कमला का शोक शानत भी न हुआ था बाबू

शयामाचरण की बारी आयी। शाखा-भेदन से वक ृ को मुरिाया हुआ न दे खकर इस बार दद ु े व ने मूल ही काट डाला। रामदीन पाँडे बडा दं भी मनुषय था। जब

तक िडपटी साहब मिगाँव मे थे, दबका बैठा रहा, परनतु जयोही वे नगर को

लौटे , उसी िदन से उसने उलपात करना आरमभ िकया। सारा गाँव–का-गाँव उसका शिु था। िजस दिि से मिगाँव वालो ने होली के िदन उसे दे खा, वह

दिि उसके हदय मे काँटे की भाँित खटक रही थी। िजस मणडल मे मािगाँव िसथत था, उसके थानेदार साहब एक बडे घाघ और कुशल िरशती थे। सहसो

की रकम पचा जाये, पर डकार तक न ले। अिभयोग बनाने और पमाण गढने

मे ऐसे अभयसत थे िक बाट चलते मनुषय को िाँस ले और वह ििर िकसी

के छुडाये न छूटे । अिधकार वग व उसक हथकणडो से िवज था, पर उनकी चतुराई और कायद व कता के आगे िकसी का कुछ बस न चलता था। रामदीन

थानेदार साहब से िमला और अपने हदोग की औषिध माँगी। उसक एक सपाह पशात ् मिगाँव मे डाका पड गया। एक महाजन नगर से आ रहा था।

रात को नमबरदार के यहाँ ठहरा। डाकुओं ने उसे लौटकर घर न जाने िदया।

100

पात:काल थानेदार साहब तहकीकात करने आये और एक ही रससी मे सारे गाँव को बाँधकर ले गये।

दै वात ् मुकदमा बाबू शयामाचारण की इजलास मे पेश हुआ। उनहे पहले

से सारा कचचा-िचटठा िविदत था और ये थानेदार साहब बहुत िदनो से उनकी आंखो पर चढे हुए थे। उनहोने ऐसी बाल की खाल िनकाली की

थानेदार साहब की पोल खुल गयी। छ: मास तक अिभयोग चला और धूम से चला। सरकारी वकीलो ने बडे -बडे उपाय िकये परनतु घर के भेदी से कया

िछप सकता था? िल यह हुआ िक िडपटी साहब ने सब अिभयुको को बेदाग

छोड िदया और उसी िदन सायंकाल को थानेदार साहब मुअतल कर िदये गये।

जब िडपटी साहब िैसला सुनाकर लौटे , एक िहतिचनतक कमच व ारी ने

कहा- हुजूर, थानेदार साहब से सावधान रिहयेगा। आज बहुत िललाया हुआ

था। पहले भी दो-तीन अिसरो को धोखा दे चुका है । आप पर अवशय वार

करे गा। िडपटी साहब ने सुना और मुसकराकर उस मुनषय को धनयवाद िदया; परनतु अपनी रका के िलए कोई िवशेष यत न िकया। उनहे इसमे अपनी

भीरता जान पडती थी। राधा अहीर बडा अनुरोध करता रहा िक मै। आपके

संग रहूँगा, काशी भर भी बहुत पीछे पडा रहा ; परनतु उनहोने िकसी को संग न रखा। पिहले ही की तरह अपना काम करते रहे ।

जािलम खाँ बात का धनी था, वह जीवन से हाथ धोकर बाबू

शयामाचरण के पीछे पड गया। एक िदन वे सैर करके िशवपुर से कुछ रात गये लौट रहे थे पागलखाने के िनकट कुछ िििटन का घोडा िबदकां गाडी

रक गयी और पलभर मे जािलम खाँ ने एक वक ृ की आड से िपसतौल चलायी। पडाके का शबद हुआ और बाबू शयामाचरण के वकसथल से गोली

पार हो गयी। पागलखाने के िसपाही दौडे । जािलम खाँ पकड िलय गया, साइस ने उसे भागने न िदया था।

इस दघ व नाओं ने उसके सवभाव और वयवहार मे अकसमाि बडा भारी ु ट

पिरवतन व कर िदया। बात-बात पर िवरजन से िचढ जाती और कटू िकतयो से

उसे जलाती। उसे यह भम हो गया िक ये सब आपाितयाँ इसी बहू की लायी

हई है । यही अभािगन जब से घर आयी, घर का सतयानाश हो गया। इसका

पौरा बहुत िनकृ ि है । कई बार उसने खुलकर िवरजन से कह भी िदया िकतुमहारे िचकने रप ने मुिे ठग िलया। मै कया जानती थी िक तुमहारे चरण 101

ऐसे अशुभ है ! िवरजन ये बाते सुनती और कलेजा थामकर रह जाती। जब िदन ही बुरे आ गये, तो भली बाते कयोकर सुनने मे आये। यह आठो पहर

का ताप उसे द :ु ख के आंसू भी न बहाने दे ता। आँसूं तब िनकलते है । जब कोई िहतैषी हा और दख ं ू जल ु को सुने। ताने और वयंगय की अिगन से ऑस जाते है ।

एक िदन िवरजन का िचत बैठे-बैठे घर मे ऐसा घबराया िक वह

तिनक दे र के िलए वािटका मे चली आयी। आह ! इस वािटका मे कैसे-कैसे आननद के िदन बीते थे ! इसका एक-एक पध मरने वाले के असीम पेम का समारक था। कभी वे िदन भी थे िक इन िूलो और पितयो को दे खकर िचत

पिुिललत होता था और सुरिभत वायु िचत को पमोिदत कर दे ती थी। यही वह सथल है , जहाँ अनेक सनधयाऍ ं पेमालाप मे वयतीत हुई थीं। उस समय

पुषपो की किलयाँ अपने कोमल अधरो से उसका सवागत करती थीं। पर

शोक! आज उनके मसतक िुके हुए और अधर बनद थे। कया यह वही सथान

न था जहाँ ‘अलबेली मािलन’ िूलो के हार गूथ ं ती थी? पर भोली मािलन को कया मालूम था िक इसी सथान पर उसे अपने नेतरे से िनकले हुए मोितयो को हाँर गूथ ँ ने पडे गे। इनहीं िवचारो मे िवरजन की दिि उस कुंज की ओर उठ

गयी जहाँ से एक बार कमलाचरण मुसकराता हुआ िनकला था, मानो वह

पितयो का िहलना और उसके वसतरे की िलक दे ख रही है । उससे मुख पर उसे समय मनद-मनद मुसकान-सी पकट होती थी, जैसे गंगा मे डू बते हुशयव की पीली और मिलन िकणे का पितिबमब पडता है । आचानक पेमवती ने आकर कणक व टु शबदो मे कहा- अब आपका सैर करने का शौक हुआ है !

िवरजन खडी हो गई और रोती हुई बोली-माता ! िजसे नारायण ने

कुचला, उसे आप कयो कुचलती है !

िनदान पेमवती का िचत वहाँ से ऐसा उचाट हुआ िक एक मास के

भीतर सब सामान औने-पौने बेचकर मिगाँव चली गयी। वज ृ रानी को संग न

िलया। उसका मुख दे खने से उसे घण ृ ा हो गयी थी। िवरजन इस िवसतत ृ भवन मे अकेली रह गयी। माधवी के अितिरक अब उसका कोई िहतैषी न

रहा। सुवामा को अपनी मुँहबोली बेटी की िवपितयो का ऐसा हीशेक हुआ, िजतना अपनी बेटी का होता। कई िदन तक रोती रही और कई िदन बराबर उसे सिाने के िलए आती रही। जब िवरजन अकेली रह गयी तो सुवमा ने चाहा हहक यह मेरे यहाँ उठ आये और सुख से रहे । सवयं कई बार बुलाने 102

गयी, पर िवररजन िकसी पकार जाने को राजी न हुई। वह सोचती थी िक

ससुर को संसार से िसधारे भी तीन मास भी नहीं हुए, इतनी जलदी यह घर सूना हो जायेगा, तो लोग कहे गे िक उनके मरते ही सास और बेहु लड मरीं। यहाँ तक िक उसके इस हठ से सुवामा का मन मोटा हो गया।

मिगाँव मे पेमवती ने एक अंधेर मचा रखी थी। असािमयो को कटु

वजन कहती। कािरनदा के िसर पर जूती पटक दी। पटवारी को कोसा। राधा

अहीर की गाय बलात ् छीन ली। यहाँ िक गाँव वाले घबरा गये ! उनहोने बाबू राधाचरण से िशकायत की। राधाचण ने यह समाचार सुना तो िवशास हो

गया िक अवशय इन दघ व नाओं ने अममाँ की बुिद भि कर दी है । इस समय ु ट िकसी पकार इनका मन बहलाना चािहए। सेवती को िलखा िक तुम माताजी के पास चली जाओ और उनके संग कुछ िदन रहो। सेवती की गोद मे उन

िदनो एक चाँद-सा बालक खेल रहा था और पाणनाथ दो मास की छुटटी लेकर दरभंगा से आये थे। राजा साहब के पाइवेट सेकटे री हो गये थे। ऐसे

अवसर पर सेवती कैस आ सकती थी? तैयािरयाँ करते-करते महीनो गुजर

गये। कभी बचचा बीमार पड गया, कभी सास रि हो गयी कभी साइत न बनी। िनदान छठे महीने उसे अवकाश िमला। वह भी बडे िवपितयो से।

परनतु पेमवती पर उसक आने का कुछ भी पभाव न पडा। वह उसके

गले िमलकर रोयी भी नहीं, उसके बचचे की ओर ऑख ं उठाकर भी न दे खा।

उसक हदय मे अब ममता और पेम नाम-माि को भी न रह गयाञ। जैसे ईख से रस िनकाल लेने पर केवल सीठी रह जाती है , उसकी पकार िजस मनुषय के हदय से पेम िनकल गया, वह अिसथ-चम व का एक ढे र रह जाता

है । दे वी-दे वता का नाम मुख पर आते ही उसके तेवर बदल जाते थे। मिागाँव मे जनमािमी हुई। लोगो ने ठाकुरजी का वत रख और चनदे से

नाम कराने की तैयािरयाँ करने लगे। परनतु पेमवती ने ठीक जनम के अवसर

पर अपने घर की मूित व खेत से ििकवा दी। एकादशी बत टू टा, दे वताओं की पूजा छूटी। वह पेमवती अब पेमवती ही न थी।

सेवती ने जयो-तयो करके यहाँ दो महीने काटे । उसका िचत बहुत

घबराता। कोई सखी-सहे ली भी न थी, िजसके संग बैठकर िदन काटती। िवरजन ने तुलसा को अपनी सखी बना िलया था। परनतु सेवती का सभव

सरल न था। ऐसी सीयो से मेल-जोल करने मे वह अपनी मानहािन समिती 103

थी। तुलसा बेचारी कई बार आयी, परनतु जब दख िक यह मन खोलकर नहीं िमलती तो आना-जाना छोड िदया।

तीन मास वयतीत हो चुके थे। एक िदन सेवती िदन चढे तक सोती

रही। पाणनाथ ने रात को बहुत रलाया था। जब नींद उचटी तो कया दे खती है िक पेमवती उसके बचचे को गोद मे िलय चूम रही है । कभी आखे से

लगाती है , कभी छाती से िचपटाती है । सामने अंगीठी पर हलुवा पक रहा है ।

बचचा उसकी ओर उं गली से संकेत करके उछलता है िक कटोरे मे जा बैठूँ और गरम-गरम हलुवा चखूँ। आज उसक मुखमणडल कमल की भाँित िखला

हुआ है । शायद उसकी तीव दिि ने यह जान िलया है िक पेमवती के शुषक

हदय मे पेमे ने आज ििर से िनवास िकया है । सेवती को िवशास न हुआ। वह चारपाई पर पुलिकत लोचनो से ताक रही थी मानो सवपन दे ख रही थी। इतने मे पेमवती

पयार से बोली- उठो बेटी ! उठो ! िदन बहुत चढ आया है ।

सेवती के रोगटे खडे हो गओ और आंखे भर आयी। आज बहुत िदनो

के पशात माता के मुख से पेममय बचन सुने। िट उठ बैठी और माता के

गले िलपट कर रोने लगी। पेमवती की खे से भी आंसू की िडी लग गयीय, सूखा वक ृ हरा हुआ। जब दोनो के ऑस ं ू थमे तो पेमवती बोली-िसतो ! तुमहे

आज यह बाते अचरज पतीत होती है ; हाँ बेटी, अचरज ही न। मै कैसे रोऊं, जब आंखो मे आंसू ही रहे ? पयार कहाँ से लाऊं जब कलेजा सूखकर पतथर हो गया? ये सब िदनो के िेर है । ऑसू उनके साथ गये और कमला के साथ।

अज न जाने ये दो बूँद कहाँ से िनकल आये? बेटी ! मेरे सब अपराध कमा करना।

यह कहते-कहते उसकी ऑखे िपकने लगीं। सेवती घबरा गयी। माता

हो िबसतर पर लेटा िदया और पख िलने लगी। उस िदन से पेमवती की यह दशा हो गयी िक जब दे खो रो रही है । बचचे को एक कण िलए भी पास

से दरू नहीं करती। महिरयो से बोलती तो मुख से िूल िडते। ििर वही

पिहले की सुशील पेमवती हो गयी। ऐसा पतीत होता था, मानो उसक हदय

पर से एक पदाव-सा उठ गया है ! जब कडाके का जाडा पडता है , तो पाय: निदयाँ बिव से ढँ क जाती है । उसमे बसनेवाले जलचर बिव मे पदे के पीछे

िछप जाते है , नौकाऍ ं िँस जाती है और मंदगित, रजतवणव पाण-संजीवन जल-

सोत का सवरप कुछ भी िदखायी नहीं दे ता है । यदिप बिव की चदर की ओट मे वह मधुर िनदा मे अलिसत पडा रहता था, तथािप जब गरमी का सामाजय 104

होता है , तो बिव िपघल जाती है और रजतवणव नदी अपनी बिव का चदर उठा

लेती है , ििर मछिलयाँ और जलजनतु आ बहते है , नौकाओं के पाल लहराने लगते है और तट पर मनुषयो और पिकयो का जमघट हो जाता है ।

परनतु पेमवती की यह दशा बहुत िदनो तक िसथर न रही। यह

चेतनता मानो मतृयु का सनदे श थी। इस िचतोिदगनता ने उसे अब तक

जीवन-कारावास मे रखा था, अनथा पेमवती जैसी कोमल-हदय सी िवपितयो के ऐसे िोके कदािप न सह सकती।

सेवती ने चारो ओर तार िदलवाये िक आकर माताजी को दे ख जाओ

पर कहीं से कोई न आया। पाणनाथ को छुटटी न िमली, िवरजन बीमार थी, रहे राधाचरण। वह नैनीताल वायु-पिरवतन व करने गये हुए थे। पेमवती को पुि ही को दे खने की लालसा थी, पर जब उनका पि आ गया िक इस समय

मै नहीं आ सकता, तो उसने एक लमबी साँस लेकर ऑख ं े मूँद ली, और ऐसी सोयी िक ििर उठना नसीब न हुआ !

105

20 मन का प ाबल य मानव हदय एक रहसयमय वसतु है । कभी तो वह लाखो की ओर

ऑख उठाकर नहीं दे खता और कभी कौिडयो पर ििसल पडता है । कभी

सैकडो िनदव षो की हतया पर आह ‘तक’ नहीं करता और कभी एक बचचे को

दे खकर रो दे ता है । पतापचनद और कमलाचरण मे यदिप सहोदर भाइयो कासा पेम था, तथािप कमला की आकिसमक मतृयु का जो शोक चािहये वह न

हुआ। सुनकर वह चौक अवशय पडा और थोडी दे र के िलए उदास भी हुआ, पर शोक जो िकसी सचचे िमि की मतृयु से होता है उसे न हुआ। िनससंदेह वह िववाह के पूव व ही से िवरजन को अपनी समिता था तथािप इस िवचार

मे उसे पूण व सिलता कभी पाप न हुई। समय-समय पर उसका िवचार इस पिवि समबनध की सीमा का उललंघन कर जाता था। कमलाचरण से उसे

सवत: कोई पेम न था। उसका जो कुछ आदर, मान और पेम वह करता था, कुछ तो इस िवचार से िक िवरजन सुनकर पसनन होगी और इस िवचार से

िक सुशील की मतृयु का पायिशत इसी पकार हो सकता है । जब िवरजन ससुराल चली आयी, तो अवशय कुछ िदनो पताप ने उसे अपने धयान मे न आने िदया, परनतु जब से वह उसकी बीमारी का समाचार पाकर बनारस गया

था और उसकी भेट ने िवरजन पर संजीवनी बूटी का काम िकया था, उसी िदन से पताप को िवशास हो गया था िक िवरजन के हदय मे कमला ने वह सथान नहीं पाया जो मेरे िलए िनयत था।

पताप ने िवरजन को परम करणापूण व शोक-पि िलखा पर पि िलखता

जाता था और सोचता जाता था िक इसका उस पर कया पभाव होगा? सामानयत: समवेदना पेम को पौढ करती है । कया आशयव है जो यह पि कुछ काम कर जाय? इसके अितिरक उसकी धािमक व पविृत ने िवकृ त रप धारण करके उसके मन मे यह िमथया िवचार उतपनन िकया िक ईशर ने मेरे पेम

की पितिा की और कमलाचरण को मेरे माग व से हटा िदया, मानो यह आकाश से आदे श िमला है िक अब मै िवरजन से अपने पेम का पुरसकार लूँ। पताप यह जो जानता था िक िवरजन से िकसी ऐसी बात की आशा

करना, जो सदाचार और सभयता से बाल बराबर भी हटी हुई हो, मूखत व ा है । परनतु उसे िवशास था िक सदाचार और सतीतव के सीमानतगत व यिद मेरी 106

कामनाएँ पूरी हो सके, तो िवरजन अिधक समय तक मेरे साथ िनदव यता नहीं कर सकती।

एक मास तक ये िवचार उसे उिदगन करते रहे । यहाँ तक िक उसके

मन मे िवरजन से एक बार गुप भेट करने की पबल इचछा भी उतपनन हुई।

वह यह जानता था िक अभी िवरजन के हदय पर तातकािलकघव है और यिद मेरी िकसी बात या िकसी वयवहार से मेरे मन की दश ु ेिा की गनध

िनकली, तो मै िवरजन की दिि से हमश के िलए िगर जाँऊगा। परनतु िजस पकार कोई चोर रपयो की रािश दे खकर धैयव नहीं रख सकता है , उसकी पकार

पताप अपने मन को न रोक सका। मनुषय का पारबध बहुत कुछ अवसर के हाथ से रहता है । अवसर उसे भला नहीं मानता है और बुरा भी। जब तक

कमलाचरण जीिवत था, पताप के मन मे कभी इतना िसर उठाने को साहस न हुआ था। उसकी मतृयु ने मानो उसे यह अवसर दे िदया। यह सवाथप व ता

का मद यहाँ तक बढा िक एक िदन उसे ऐसाभस होने लगा, मानो िवरजन मुिे समरण कर रही है । अपनी वयगता से वह िवरजन का अनुमान करे न लगा। बनारस जाने का इरादा पकका हो गया।

दो बजे थे। रािि का समय था। भयावह सननाटा छाया हुआ था। िनदा

ने सारे नगर पर एक घटाटोप चादर िैला रखी थी। कभी-कभी वक ृ ो की

सनसनाहट सुनायी दे जाती थी। धुआं और वक ृ ो पर एक काली चदर की भाँित िलपटा हुआ था और सडक पर लालटे ने धुऍ ं की कािलमा मे ऐसी दिि

गत होती थीं जैसे बादल मे िछपे हुए तारे । पतापचनद रे लगाडी पर से उतरा।

उसका कलेजा बांसो उछल रहा था और हाथ-पाँव काँप रहे थे। वह जीवन मे पहला ही अवसर था िक उसे पाप का अनुभव हुआ! शोक है िक

हदय की

यह दशा अिधक समय तक िसथर नहीं रहती। वह दग व ध-माग व को पूरा कर ु न लेती है । िजस मनुषय ने कभी मिदरा नहीं पी, उसे उसकी दग व ध से घण ृ ा ु न

होती है । जब पथम बार पीता है , तो घणटे उसका मुख कडवा रहता है और वह आशयव करता है िक कयो लोग ऐसी िवषैली और कडवी वसतु पर आसक

है । पर थोडे ही िदनो मे उसकी घण ृ ा दरू हो जाती है और वह भी लाल रस का दास बन जाता है । पाप का सवाद मिदरा से कहीं अिधक भंयकर होता है ।

पतापचनद अंधेरे मे धीरे -धीरे जा रहा था। उसके पाँव पेग से नहीं

उठते थे कयोिक पाप ने उनमे बेिडयाँ डाल दी थी। उस आहलाद का, जो ऐसे 107

अवसर पर गित को तीव कर दे ता है , उसके मुख पर कोई लकण न था। वह चलते-चलते रक जाता और कुछ सोचकर आगे बढता था। पेत उसे पास के खडडे मे कैसा िलये जाता है ?

पताप का िसर धम-धम कर रहा था और भय से उसकी िपंडिलयाँ

काँप रही थीं। सोचता-िवचारता घणटे भर मे मुनशी शयामाचरण के िवशाल भवन के सामने जा पहुँचा। आज अनधकार मे यह भवन बहुत ही भयावह

पतीत होता था, मानो पाप का िपशाच सामने खडा है । पताप दीवार की ओट मे खडा हो गया, मानो िकसी ने उसक पाँव बाँध िदये है । आध घणटे तक वह

यही सोचता रहा िक लौट चलूँ या भीतर जाँऊ? यिद िकसी ने दे ख िलया

बडा ही अनथव होगा। िवरजन मुिे दे खकर मन मे कया सोचेगी? कहीं ऐसा न हो िक मेरा यह वयवहार मुिे सदा के िलए उसकी िदि से िगरा दे । परनतु इन सब सनदे हो पर िपशाच का आकषण व पबल हुआ।

इिनदयो के वश मे

होकर मनुषय को भले-बुरे का धयान नहीं रह जाता। उसने िचत को दढ िकया। वह इस कायरता पर अपने को िधककार दे ने लगा, तदनतर घर मे पीछे की ओर जाकर वािटका की चहारदीवारी से िाँद गया। वािटका से घर जाने

के िलए एक छोटा-सा दार था। दै वयेग से वह इस समय खुला हुआ

था। पताप को यह शकुन-सा पतीत हुआ। परनतु वसतुत: यह अधम व का दार

था। भीतर जाते हुए पताप के हाथ थरान व े लगे। हदय इस वेग से धडकता था; मानो वह छाती से बाहर िनकल पडे गा। उसका दम घुट रहा था। धम व ने

अपना सारा बल लगा िदया। पर मन का पबल वेग न रक सका। पताप दार

के भीतर पिवि हुआ। आंगन मे तुलसी के चबूतरे के पास चोरो की भाित

खडा सोचने लगा िक िवरजन से कयोकर भेट होगी? घर के सब िकवाड बनद है ? कया िवरजन भी यहाँ से चली गयी? अचानक उसे एक बनद दरवाजे की दरारो से पेकाश की िलक िदखाई दी। दबे पाँव उसी दरार मे ऑख ं े लगाकर भीतर का दशय दे खने लगा।

िवरजन एक सिेद साडी पहले, बाल खोले, हाथ मे लेखनी िलये भूिम

पर बैठी थी और दीवार की ओर दे ख-दे खकर कागेज पर िलखती जाती थी, मानो कोई किव िवचार के समुद से मोती िनकाल रहा है । लखनी दाँतो तले

दबाती, कुछ सोचती और िलखती ििर थोडी दे र के पशात ् दीवार की ओर ताकने लगती। पताप बहुत दे र तक शास रोके हुए यह िविचि दशय दे खता

रहा। मन उसे बार-बार ठोकर दे ता, पर यह धम व का अिनतम गढ था। इस 108

बार धम व का परािजत होना मानो हदाम मे िपशाच का सथान पाना था। धमव ने इस समय पताप को उस खडडे मे िगरने से बचा िलया, जहाँ से आमरण

उसे िनकलने का सौभागय न होता। वरन ् यह कहना उिचत होगा िक पाप के खडडे से बचानेवाला इस समय धम व न था, वरन ् दषुपिरणाम और लजजा का

भय ही था। िकसी-िकसी समय जब हमारे सदभाव परािजत हो जाते है , तब दषुपिरणाम का भय ही हमे कतववयचयुत होने से बचा लेता है । िवरजन को पीले बदन पर एक ऐसा तेज था, जो उसके हदय की सवचछता और िवचार की उचचता का पिरचय दे रहा था। उसके मुखमणडल की उजजवलता और

दिि की पिविता मे वह अिगन थी ; िजसने पताप की दश ु ेिाओं को कणमाि मे भसम कर िदया ! उसे जान हो गया और अपने आितमक पतन पर ऐसी लजजा उतपनन हुई िक वहीं खडा रोने लगा।

इिनदयो ने िजतने िनकृ ि िवकार उसके हदय मे उतपनन कर िदये थे,

वे सब इस दशय ने इस पकार लोप कर िदये, जैसे उजाला अंधेरे को दरू कर दे ता है । इस समय उसे यह इचछा हुई िक िवरजन के चरणो पर िगरकर

अपने अपराधो की कमा माँगे। जैसे िकसी महातमा संनयासी के सममुख जाकर हमारे िचत की दशा हो जाती है , उसकी पकार पताप के हदय मे

सवत: पायिशत के िवचार उतपनन हुए। िपशाच यहाँ तक लाया, पर आगे न ले जा सका। वह उलटे पाँवो ििरा और ऐसी तीवता से वािटका मे आया और चाहरदीवारी से कूछा, मानो उसका कोई पीछा करता है ।

अरणोदय का समय हो गया था, आकाश मे तारे ििलिमला रहे थे

और चककी का घुर-घुर शबद कवणगोचर हो रहा था। पताप पाँव दबाता, मनुषयो की ऑख ं े बचाता गंगाजी की ओर चला। अचानक उसने िसर पर हाथ रखा तो टोपी का पता न था और जेब जेब मे घडी ही िदखाई

दी।

उसका कलेजा सनन-से हो गया। मुहॅ से एक हदय-वेधक आह िनकल पडी।

कभी-कभी जीवन मे ऐसी घटनाँए हो जाती है , जो कणमाि मे मनुषय

का रप पलट दे ती है । कभी माता-िपता की एक ितरछी िचतवन पुि को सुयश के उचच िशखर पर पहुँचा दे ती है और कभी सी की एक िशका पित के जान-चकुओं को खोल दे ती है । गवश व ील पुरष अपने सगो की दिियो मे अपमािनत होकर संसार का भार बनना नहीं चाहते। मनुषय जीवन मे ऐसे

अवसर ईशरदत होते है । पतापचनद के जीवन मे भी वह शुभ अवसर था, जब वह संकीण व गिलयो मे होता हुआ गंगा िकनारे आकर बैठा और शोक तथा 109

लजजा के अशु पवािहत करने लगा। मनोिवकार की पेरणाओं ने उसकी अधोगित मे कोई कसर उठा न रखी थी परनतु उसके िलए यह कठोर कृ पालु

गुर की ताडना पमािणत हुई। कया यह अनुभविसद नहीं है िक िवष भी समयानुसार अमत ृ का काम करता है ?

िजस पकार वायु का िोका सुलगती हुई अिगन को दहका दे ता है , उसी

पकार बहुधा हदय मे दबे हुए उतसाह को भडकाने के िलए िकसी बाह उदोग

की आवशयकता होती है । अपने दख ु ो का अनुभव और दस ू रो की आपित का

दशय बहुधा वह वैरागय उतपनन करता है जो सतसंग, अधययन और मन की पविृत से भी संभव नहीं। यदिप पतापचनद के मन मे उतम और िनसवाथव

जीवन वयतीत करने का िवचार पूवव ही से था, तथािप मनोिवकार के धकके ने

वह काम एक ही कण मे पूरा कर िदया, िजसके पूरा होने मे वष व लगते। साधारण दशाओं मे जाित-सेवा उसके जीवन का एक गौण काय व होता, परनतु इस चेतावनी ने सेवा को उसके जीवन का पधान उदे शय बना िदया। सुवामा

की हािदव क अिभलाषा पूण व होने के सामान पैदा हो गये। कया इन घटनाओं के अनतगत व कोई अजात पेरक शािक थी? कौन कह सकता है ?

110

21 िव द ु षी व ृ जरा नी जब से मुंशी संजीवनलाल तीथव यािा को िनकले और पतापचनद पयाग

चला गया उस समय से सुवामा के जीवन मे बडा अनतर हो गया था। वह

ठे के के काय व को उननत करने लगी। मुंशी संजीवनलाल के समय मे भी

वयापार मे इतनी उननित नहीं हुई थी। सुवामा रात-रात भर बैठी ईट-पतथरो से माथा लडाया करती और गारे -चूने की िचंता मे वयाकुल रहती। पाई-पाई का िहसाब समिती और कभी-कभी सवयं कुिलयो के काय व की दे खभाल

करती। इन कायो मे उसकी ऐसी पविृत हुई िक दान और वत से भी वह

पहले का-सा पेम न रहा। पितिदन आय विृद होने पर भी सुवामा ने वयय

िकसी पकार का न बढाया। कौडी-कौडी दाँतो से पकडती और यह सब

इसिलए िक पतापचनद धनवान हो जाए और अपने जीवन-पयन व त साननद रहे ।

सुवामा को अपने होनहार पुि पर अिभमान था।

उसके जीवन की

गित दे खकर उसे िवशास हो गया था िक मन मे जो अिभलाषा रखकर मैने पुि माँगा था, वह अवशय पूण व होगी। वह कालेज के िपंिसपल और पोिेसरो से पताप का समाचार गुप रीित से िलया करती थी ओर उनकी सूचनाओं का अधययन उसके िलए एक रसेचक कहानी के तुलय था। ऐसी दशा मे पयाग से पतापचनद को लोप हो जाने का तार पहुँचा मानो उसके हुदय पर वज का िगरना था। सुवामा एक ठणडी साँसे ले, मसतक पर हाथ रख बैठ गयी। तीसरे

िदन पतापचनद की पुसत, कपडे और सामिगयाँ भी आ पहुँची, यह घाव पर नमक का िछडकाव था।

पेमवती के मरे का समाचार पाते ही पाणनाथ पटना से और राधाचरण

नैनीताल से चले। उसके जीते-जी आते तो भेट हो जाती, मरने पर आये तो

उसके शव को भी दे खने को सौभागय न हुआ। मत ृ क-संसकार बडी धूम से िकया गया। दो सपाह गाँव मे बडी धूम-धाम रही। ततपशात ् मुरादाबाद चले गये और पाणनाथ ने पटना जाने की तैयारी पारमभ कर दी। उनकी इचछा थी िक सीको पयाग पहुँचाते हुए पटना जायँ। पर सेवती ने हठ िकया िक

जब यहाँ तक आये है , तो िवरजन के पास भी अवशय चलना चािहए नहीं तो 111

उसे बडा द ु:ख होगा। समिेगी िक मुिे असहाय जानकर इन लोगो ने भी तयाग िदया।

सेवती का इस उचाट भवन मे आना मानो पुषपो मे सुगनध मे आना

था। सपाह भर के िलए सुिदन का शुभागमन हो गया। िवरजन बहुत पसनन हुई और खूब रोयी। माधवी ने मुननू को अंक मे लेकर बहुत पयार िकया।

पेमवती के चले जाने पर िवरजन उस गह ृ मे अकेली रह गई थी।

केवल माधवी उसके पास थी। हदय-ताप और मानिसक द ु:ख ने उसका वह गुण पकट कर िदया, जा अब तक गुप था। वह कावय और पद-रचना का अभयास करने लगी। किवता सचची भावनाओं का िचि है और सचची

भावनाएँ चाहे वे द ु:ख हो या सुख की, उसी समय समपनन होती है जब हम

द :ु ख या सुख का अनुभव करते है । िवरजन इन िदनो रात-रात बैठी भाष मे

अपने मनोभावो के मोितयो की माला गूँथा करती। उसका एक-एक शबद करणा और वैरागय से पिरवूण व होता थां अनय किवयो के मनो मे िमिो की वहा-वाह और कावय-पेितयो के साधुवाद से उतसाह पैदा होता है , पर िवरजन अपनी द ु:ख कथा अपने ही मन को सुनाती थी।

सेवती को आये दो- तीन िदन बीते थे। एक िदन िवरजन से कहा- मै

तुमहे बहुधा िकसी धयान मे मगन दे खती हूँ और कुछ िलखते भी पाती हूँ। मुिे न बताओगी? िवरजन लिजजत हो गयी। बहाना करने लगी िक कुछ

नहीं, यो ही जी कुछ उदास रहता है । सेवती ने कहा-मैन मानूग ँ ी। ििर वह िवरजनका बाकस उठा लायी, िजसमे किवता के िदवय मोती रखे हुए थे।

िववश होकर िवरजन ने अपने नय पद सुनाने शुर िकये। मुख से पथम पद

का िनकलना था िक सेवती के रोएँ खडे हो गये और जब तक सारा पद समाप न हुआ, वह तनमय होकर सुनती रही। पाणनाथ की संगित ने उसे

कावय का रिसक बना िदया था। बार-बार उसके नेि भर आते। जब िवरजन चुप हो गयी तो एक समाँ बँधा हुआ था मानो को कोई मनोहर राग अभी

थम गया है । सेवती ने िवरजन को कणठ से िलपटा िलया, ििर उसे छोडकर दौडी हुई

पाणनाथ के पास गयी, जैसे कोई नया बचचा नया िखलोना पाकर

हष व से दौडता हुआ अपने सािथयो को िदखाने जाता है । पाणनाथ अपने

अिसर को पाथन व ा-पि िलख रहे थे िक मेरी माता अित पीिडता हो गयी है , अतएव सेवा मे पसतुत होने मे िवलमब हुआ। आशा करता हूँ िक एक सपाह

का आकिसमक अवकाश पदान िकया जायगा। सेवती को दे खकर चट आपना 112

पाथन व ा-पि िछपा िलया और मुसकराये। मनुषय कैसा धूत व है ! वह अपने आपको भी धोख दे ने से नहीं चूकता।

सेवती- तिनक भीतर चलो, तुमहे िवरजन की किवता सुनवाऊं, िडक

उठोगे।

पाण 0- अचछा, अब उनहे किवता की चाट हुई है ? उनकी भाभी तो गाया

करती थी – तुम तो शयाम बडे बेखबर हो।

सेवती- तिनक चलकर सुनो, तो पीछे हॅ सना। मुिे तो उसकी किवता

पर आशयव हो रहा है ।

पाण 0- चलो, एक पि िलखकर अभी आता हूं।

सेवती- अब यही मुिे अचछा नहीं लगता। मै आपके पि नोच डालूंगी।

सेवती पाणनाथ को घसीट ले आयी। वे अभी तक यही जानते थे िक

िवरजन ने कोई सामानय भजन बनाया होगा। उसी को सुनाने के िलए

वयाकुल हो रही होगी। पर जब भीतर आकर बैठे और िवरजन ने लजाते हुए

अपनी भावपूण व किवता ‘पेम की मतवाली’ पढनी आरमभ की तो महाशय के नेि खुल गये। पद कया था, हदय के दख ु की एक धारा और पेम –रहसय की

एक कथा थी। वह सुनते थे और मुगध होकर िुमते थे। शबदो की एक-एक योजना पर, भावो के एक-एक उदगार पर लहालोट हुए जाते थे। उनहोने बहुतेरे किवयां के कावय दे खे थे, पर यह उचच िवचार, यह नूतनता, यह भावोतकष व कहीं दीख न पडा था। वह समय िचिित हो रहा था जब

अरणोदय के पूव व मलयािनल लहराता हुआ चलता है , किलयां िवकिसत होती है , िूल महकते है और आकाश पर हलकी लािलमा छा जाती है । एक –एक

शबद मे नविवकिसत पुषपो की शोभा और िहमिकरणो की शीतलता िवदमान

थी। उस पर िवरजन का सुरीलापन और धविन की मधुरता सोने मे सुगनध थी। ये छनद थे, िजन पर िवरजन ने हदय को दीपक की भॉिँत जलाया था।

पाणनाथ पहसन के उदे शय से आये थे। पर जब वे उठे तो वसतुत : ऐसा पतीत होता था, मानो छाती से हदय िनकल गया है । एक िदन उनहोने िवरजन से कहा- यिद तुमहारी किवताऍ ं छपे, तो उनका बहुत आदर हो। िवरजन ने िसर नीचा करके कहा- मुिे िवशास नहीं िक कोई

पसनद करे गा।

इनको

पाणनाथ- ऐसा संभव ही नहीं। यिद हदयो मे कुछ भी रिसकता है तो

तुमहारे कावय की अवशय पितिा होगी। यिद ऐसे लोग िवदमान है , जो पुषपो 113

की सुगनध से आनिनदत हो जाते है , जो पिकयो के कलरव और चाँदनी की मनोहािरणी छटा का आननद उठा सकते है , तो वे तुमहारी किवता को अवशय

हदय मे सथान दे गे। िवरजन के हदय मे वह गुदगुदी उतपनन हुई जो पतयेक

किव को अपने कावयिचनतन की पशंसा िमलने पर, किवता के मुिदत होने के िवचार से होती है । यदिप

वह नहीं–नहीं करती रही, पर वह, ‘नहीं’, ‘हाँ’ के

समान थी। पयाग से उन िदनो ‘कमला’ नाम की अचछी पििका िनकलती

थी। पाणनाथ ने ‘पेम की मतवाली’ को वहां भेज िदया। समपादक एक

कावय–रिसक महानुभाव थे किवता पर हािदव क धनयवाद िदया ओर जब यह किवता पकािशत हुई, तो सािहतय–संसार मे धूम मच गयी। कदािचत ही िकसी किव को पथम ही बार ऐसी खयाित िमली हो। लोग पढते और

िवसमय से एक-दस ू रे का मुंह ताकते थे। कावय–पेिमयो मे कई सपाह तक मतवाली बाला के चचे रहे । िकसी को िवशास ही न आता था िक यह एक

नवजात किव की रचना है । अब पित मास ‘कमला’ के पि ृ िवरजन की

किवता से सुशोिभत होने लगे और ‘भारत मिहला’ को लोकमत ने किवयो के

सममािनत पद पर पहुंचा िदया। ‘भारत मिहला’ का नाम बचचे-बचचे की िजहवा पर चढ गया। को इस समाचार-पि या पििका ‘भारत मिहला’ को

ढू ढने लगते। हां, उसकी िदवय शिकया अब िकसी को िवसमय मे न डालती उसने सवयं किवता का आदशव उचच कर िदया था।

तीन वष व तक िकसी को कुछ भी पता न लगा िक ‘भारत मिहला’

कौन है । िनदान पाण नाथ से न रहा गया। उनहे िवरजन पर भिक

हो गयी

थी। वे कई मांस से उसका जीवन –चिरि िलखने की धुन मे थे। सेवती के दारा धीरे -धीरे

उनहोने उसका सब जीवन चिरि

जात कर िदया और ‘भारत

मिहला’ के शीषक व से एक पभाव–पूिरत लेख िलया। पाणनाथ ने पिहले लेख न िलखा था, परनतु शदा ने अभयास की कमी पूरी कर दी थी। लेख अतयनत रोचक, समालोचनातमक और भावपूणव था।

इस लेख का मुिदत होना था िक िवरजन

को चारो तरि से पितिा

के उपहार िमलने लगे। राधाचरण मुरादाबाद से उसकी भेट को आये। कमला, उमादे वी, चनदकुवंर और सिखया िजनहोने उसे िवसमरण कर िदया था पितिदन ममता

िवरजन के दशनो

के अभीमान से

को आने लगी। बडे बडे

गणमानय सजजन जो

हिकमो के सममुख िसर न िुकाते, िवरजन के दार 114

पर दशनव

को आते थे। चनदा सवयं तो न आ सकी, परनतु

जो चाहता है िक तुमहारे चरणे पर िसर रखकर घंटो रोऊँ।

115

पि मे िलखा –

22 माध वी कभी–कभी वन के िूलो मे वह सुगिनधत और रं ग-रप िमल जाता है

जो सजी हुई वािटकाओं को कभी पाप नहीं हो सकता। माधवी थी तो एक मूख व और दिरद मनुषय की लडकी, परनतु िवधाता ने उसे नािरयो के सभी

उतम गुणो से सुशोिभत कर िदया था। उसमे िशका सुधार को गहण करने की िवशेष योगयता थी।

माधवी और िवरजन का िमलाप उस समय हुआ

जब िवरजन ससुराल आयी। इस भोली–भाली कनया ने उसी समय से

िवरजन के संग असधारण पीित पकट करनी आरमभ की। जात नहीं, वह उसे

दे वी समिती थी या कया? परनतु कभी उसने िवरजन के िवरद एक शबद भी मुख से न िनकाला। िवरजन भी उसे अपने संग सुलाती और अचछी–अचछी

रे शमी वस पिहनाती इससे अिधक पीित वह अपनी छोटी भिगनी से भी नहीं कर सकती थी। िचत का िचत से समबनध होता है । यिद पताप को वज ृ रानी से हािदवक समबनध था तो वज ृ रानी

भी पताप के पेम मे पगी हुई थी। जब

कमलाचरण से उसके िववाह की बात पककी दख ु ी न हुई। हां लजजावश उसके हदय

हुई जो वह पतापचनद से कम

के भाव कभी पकट न होते थे।

िववाह हो जाने के पशात उसे िनतय िचनता रहती थी िक पतापचनद के पीिडत हदय को कैसे तसलली दं ू? मेरा जीवन तो इस भांित आननद से बीतता है । बेचारे पताप के ऊपर न जाने कैसी बीतती होगी। माधवी उन

िदनो गयारहवे वष व मे थी। उसके रं ग–रप की सुनदरता, सवभाव और गुण दे ख–दे खकर आशय व होता था। िवरजन को अचानक यह धयान आया िक कया मेरी माधवी

इस योगय नहीं िक पताप उसे अपने कणठ

का हार

बनाये? उस िदन से वह माधवी के सुधार और पयार मे और भी अिधक पवत ृ हो गयी थी वह सोच-सोचकर मन –ही मन-िूली न समाती िक जब माधवी सोलह–सिह वष व की हो जायेगी, तब मै पताप के पास जाऊंगी

और उससे

हाथ जोडकर कहूंगी िक माधवी मेरी बिहन है । उसे आज से तुम अपनी चेरी

समिो कया पताप मेरी बात टाल दे गे? नहीं– वे ऐसा नहीं कर सकते। आननद तो तब है जब िक चाची सवयं माधवी को अपनी बहू बनाने की

मुिसे इचछा करे । इसी िवचार से िवरजन ने पतापचनद के पशसनीय गुणो

का िचि माधवी के हदय मे खींचना आरमभ कर िदया था, िजससे िक उसका 116

रोम-रोम पताप के पेम मे पग जाय। वह जब पतापचनद का वणन व करने

लगती तो सवत: उसके शबद असामानय रीित से मधुर और सरस हो जाते।

शनै:-शनै: माधवी का कामल हदय पेम–रस का आसवादन करने लगा। दपण व मे बाल पड गया।

भोली माधवी सोचने लगी, मै कैसी भागयवती हूं। मुिे ऐसे सवामी

िमलेगे िजनके चरण धोने के योगय भी मै नहीं हूं, परनतु कया वे मुिे अपनी चेरी बनायेगे? कुछ तो, मै अवशय उनकी दासी बनूंगी और यिद पेम मे कुछ

आकषणव है , तो मै उनहे अवशय अपना बना लूंगी। परनतु उस बेचारी को कया मालूम था िक ये आशाएं शोक बनकर

नेिो

के माग व से बह जायेगी ?

उसको पनदहवां पूरा भी न हुआ था िक िवरजन पर गह ृ -िवनाश की आपितयां आ पडी। उस आंधी के िोके ने माधवी की इस किलपत पुषप वािठका

का

सतयानाश कर िदया। इसी बीच मे पताप चनद के लोप होने का समाचार िमला। आंधी ने जो कुछ अविशि रखा था वह भी इस अिगन भसम कर िदया।

परनतु मानस कोई वसतु है , तो माधवी पतापचनद की सी

थी। उसने अपना तन और मन उनहे समपण व

ने जलाकर बन चुकी

कर िदया। पताप को जान

नहीं। परनतु उनहे ऐसी अमूलय वसतु िमली, िजसके बराबर संसार मे कोई वसतु नहीं तुल सकती। माधवी ने केवल एक बार पताप केवल एक ही बार उनके अमत ृ –वचन सुने थे। पर इसने भी उजजवल कर िदया था, जो उसके हदय

पर पहले

को दे खा था और

उस िचि को और

ही िवरजन ने खींच

रखा था। पताप को पता नहीं था, पर माधवी उसकी पेमािगन मे िदनपितिदन घुलती जाती है । उस िदन से कोई ऐसा वत नहीं था, जो माधवी रखती हो , कोई ऐसा दे वता नहीं था, िजसकी वह पूजा न करती हो और सब इसिलए िक ईशर पताप

को



वह

जहां कहीं वे हो कुशल से रखे। इन पेम–

कलपनाओं ने उस बािलका को और अिधक दढ सुशील और कोमल बना िदया। शायद उसके िचत ने यह िनणय व कर िलया था िक मेरा िववाह

पतापचनद से हो चुका। िवरजन उसकी यह दशा दे खती और रोती िक यह आग मेरी ही लगाई

हुई है । यह नवकुसुम

िकसके कणठ

का हार बनेगा?

यह िकसकी होकर रहे गी? हाय रे िजस चीज को मैने इतने पिरशम से अंकुिरत िकया और मधुकीर से सींचा, उसका िूल

इस पकार शाखा

पर ही

कुमहलाया जाता है । िवरजन तो भला किवता करने मे उलिी रहती, िकनतु 117

माधवी को यह सनतोष भी न था उसके पेमी और साथी उसके

िपयतम का

धयान माि था–उस िपयतम का जो उसके िलए सवथ व ा अपिरिचत था पर पताप के चले जाने के कई मास पीछे एक िदन माधवी ने सवपन दे खा िक

वे सतयासी हो गये है । आज माधवी का अपार पेम पकट हं आ है । आकाशवाणी सी हो गयी

िक पताप ने अवशय संनयास ते िलया। आज से

वह भी तपसवनी बन गयी उसने सुख और िवलास की लालसा हदय से िनकाल दी।

जब कभी बैठे–बैठे माधवी का जी बहुत आकुल होता तो वह

पतापचनद के घर चली जाती। वहां उसके िचत की थोडी दे र

के िलए शांित

िमल जाती थी। परनतु जब अनत मे िवरजन के पिवि और आदशो ने यह गाठ खोल दी वे

गंगा यमुना

की भांित परसपर गले िमल गयीं , तो

माधवी का आवागमन भी बढ गया। सुवामा के पास िदन –िदन रह जाती, इस भवन की, एक-एक अंगुल पथ ृ वी पताप का समारक आँगन मे पताप ने काठ के घोडे

जीवन

भर बैठी

थी। इसी

दौडाये और इसी कुणड मे कागज की नावे

चलायी थीं। नौकरी तो सयात काल के भंवर मे पडकर डू ब गयीं, परनतु घोडा अब भी िवदमान थी। माधवी ने उसकी जजीरत अिसथयो मे पाण डाल िदया और उसे वािटका मे कुणड के िकनारे एक पाटलवक ृ की छायो

मे बांध

िदया। यहीं भवन पतापचनद का शयनागार था।माधवी अब उसे अपने दे वता का मिनदर समिती है । इस पलंग ने पंताप

को बहुत िदनो तक अपने अंक

मे थपक–थपककर सुलाया था। माधवी अब उसे पुषपो से सुसिजजत

करती

है । माधवी ने इस कमरे को ऐसा सुसिजजत कर िदया, जैसे वह कभी न था। िचिो के मुख पर से धूल का यविनका उठ गयी। लैमप का भागय पुन: चमक

उठा। माधवी की इस अननत पेम-भािक से सुवामा का द ु:ख भी दरू हो गया। िचरकाल से उसके मुख पर पतापचनद का नाम अभी न आया था। िवरजन

से मेल-िमलाप हो गया, परनतु दोनो िसयो मे कभी पतापचनद की चचा व भी

न होती थी। िवरजन लजजा की संकुिचत थी और सुवामा कोध से। िकनतु माधवी के पेमानल से पतथर भी िपघल गया। अब वह पेमिवहवल होकर पताप के बालपन की बाते पूछने लगती तो सुवामा से न रहा जाता। उसकी

आँखो से जल भर आता। तब दोनो रोती और िदन-िदन भर पताप की बाते समाप न होती। कया अब माधवी के िचत की दशा सुवामा से िछप सकती

थी? वह बहुधा सोचती िक कया तपिसवनी इसी पकार पेमिगन मे जलती 118

रहे गी और वह भी िबना िकसी आशा के? एक िदन वज ृ रानी ने ‘कमला’ का पैकेट खोला, तो पहले ही पि ृ पर एक परम पितभा-पूणव

िचि िविवध रं गो मे

िदखायी पडा। यह िकसी महातम का िचि था। उसे धयान आया िक मैने इन महातमा को कहीं अवशय दे खा है । सोचते-सोचते अकसमात उसका घयान पतापचनद तक जा पहुंचा। आननद के उमंग मे उछल पडी और बोली – माधवी, तिनक यहां आना।

माधवी िूलो की कयािरयां सींच रहीं थी। उसके िचत–िवनोद का

आजकल वहीं काय व था। वह साडी पानी मे लथपथ, िसर के बाल िबखरे

माथे पर पसीने के िबनद ु और निो मे पेम का रस भरे हुए आकर खडी हो गयी। िवरजन ने कहा – आ तूिे एक िचि िदखाऊं। माधवी ने कहा – िकसका िचि है , दे खूं।

माधवी ने िचि को घयानपूवक व दे खा। उसकी आंखो मे आंसू आ गये।

िवरजन – पहचान गयी ?

माधवी - कयो? यह सवरप तो कई बार सवपन मे दे ख चुकी हूं? बदन

से कांित बरस रही है ।

िवरजन – दे खो वत ृ ानत भी िलखा है ।

माधवी ने दस व लेख िमला ू रा पनना उलटा तो ‘सवामी बालाजी’ शीषक

थोडी दे र तक दोनो तनमय होकर यह लेख पढती रहीं, तब बातचीत होने लगी।

िवरजन – मै तो पथम ही जान गयी थी िक उनहोने अवशय सनयास

ले िलया होगा।

माधवी पथृवी की ओर दे ख रही थी, मुख से कुछ न बोली।

िवरजन –तब मे और अब मे िकतना अनतर है । मुखमणडल से कांित

िलक रही है । तब ऐसे सुनदर न थे। माधवी –हूं।

िवरजन – इशरव उनकी सहायता करे । बडी तपसया की है ।(नेिो मे जल

भरकर) कैसा संयोग

है । हम और वे संग–संग खेले, संग–संग रहे , आज वे

सनयासी है और मै िवयोिगनी। न जाने उनहे हम लोगो की कुछ

सुध भी है

या नहीं। िजसने सनयास ले िलया, उसे िकसी से कया मतलब? जब चाची के पास पि न िलखा तो भला हमारी सुिध कया होगी? माधवी बालकपन मे वे कभी योगी–योगी खेलते तो मै िमठाइयो िक िभका िदया करती थी। 119

माधवी ने रोते हुए ‘न जाने कब दशन व होगे’ कहकर लजजा से िसर

िुका िलया।

िवरजन– शीघ ही आयंगे। पाणनाथ ने यह लेख बहुत सुनदर िलखा है । माधवी– एक-एक शबद से भािक टपकती है ।

िवरजन -वकृ तता की कैसी पशंसा की है ! उनकी वाणी मे तो पहले ही

जाद ू था, अब कया पूछना! पाणनाथ केिचत पर िजसकी वाणी का ऐसा पभाव हुआ, वह समसत पथ ृ वी पर अपना जाद ू िैला सकता है । माधवी – चलो चाची के यहाँ चले।

िवरजन- हाँ उनको तो धयान ही नहीं रहां दे खे, कया कहती है । पसनन

तो कया होगी।

मधवी- उनको तो अिभलाषा ही यह थी, पसनन कयो न होगीं?

उनकी तो अिभलाषा ही यह थी, पसनन कयो न होगी?

िवरजन- चल? माता ऐसा समाचार सुनकर कभी पसनन नहीं हो

सकती। दोनो सीयाँ घर से बाहर िनकलीं। िवरजन का मुखकमल मुरिाया हुआ था, पर माधवी का अंग–अंग हष व िसला जाता था। कोई उससे

पूछे –

तेरे चरण अब पथ ृ वी पर कयो नहीं पहले? तेरे पीले बदन पर कयो पसननता

की लाली िलक रही है ? तुिे कौन-सी समपित िमल गयी? तू अब शोकािनवत

और उदास कयो न िदखायी पडती? तुिे अपने िपयतम से िमलने की अब कोई आशा नहीं, तुि पर पेम की दिि कभी नहीं पहुची ििर तू कयो िूली

नहीं समाती? इसका उतर माधवी दे गी? कुछ नहीं। वह िसर िुका लेगी, उसकी आंखे नीचे िुक जायेगी, जैसे डिलयां िूलो के भार से िुक जाती है ।

कदािचत ् उनसे कुछ अशिुबनद ु भी टपक पडे ; िकनतु उसकी िजहवा से एक शबद भी न िनकलेगा।

माधवी पेम के मद से मतवाली है । उसका हदय पेम से उनमत है ।

उसका पेम, हाट का सौदा नहीं। उसका पेमिकसी वसतु का भूखा सनहीं है । वह पेम के बदले पेम नहीं चाहती। उसे अभीमान

है िक ऐसे

पवीिता पुरष

की मूितव मेरे हदय मे पकाशमान है । यह अभीमान उसकी उनमता का कारण है , उसके पेम का पुरसकार है ।

दस ृ रानी ने, बालाजी के सवागत मे एक पभावशाली ू रे मास मे वज

किवता िलखी यह एक िवलकण रचना थी। जब वह मुिदत हुई तो िवदा जगत ् िवरजन की कावय–पितभा से पिरिचत होते हुए भी चमतकृ त हो गया। 120

वह कलपना-रपी पकी, जो कावय–गगन मे वायुमणडल से भी आगे िनकल

जाता था, अबकी तारा बनकर चमका। एक–एक शबद आकाशवाणी की जयोित से पकािशत था िजन लोगो ने यह किवता पढी वे बालाजी के भक हो गये। किव वह संपेरा है िजसकी िपटारी मे सॉपो के सथान

121

मे हदय बनद होते है ।

23 काशी मे आगम न जब से वज ृ रानी का कावय–चनद उदय हुआ, तभी से उसके यहां सदै व

मिहलाओं

का जमघट लगा रहता था। नगर मे सीयो की कई सभाएं थी

उनके पबंध का सारा भार उसी को उठाना पडता था। उसके अितिरक अनय नगरो से भी बहुधा सीयो उससे भेट करने को आती रहती थी जो तीथय व ािा

करने के िलए काशी आता, वह िवरजन से अवरशय िमलता। राज धमिवसंह ने उसकी किवताओं का सवाग ि –सुनदर संगह पकािशत िकया था। संगह

ने उसके

उस

कावय–चमतकार का डं का, बजा िदया था। भारतवष व की

कौन कहे , यूरोप और अमेिरका के पितिित किवयो ने उसे उनकी कावय मनोहरता पर धनयवाद िदया था। भारतवष व मे एकाध ही कोई

रिसक

मनुषय रहा होगा िजसका पुसतकालय उसकी पुसतक से सुशोिभत न होगा। िवरजन की किवताओं को पितिा करने वालो मे बालाजी का पद सबसे ऊंचा था। वे अपनी पभावशािलनी

वकृ ताओं

की सिवसतार समालोचना भी

िलखी थी।

और

लेखो मे बहुधा

उसी के

वाकयो का पमाण िदया करते थे। उनहोने ‘सरसवती’ मे एक बार उसके संगह एक िदन पात: काल ही सीता, चनदकुंवरी ,रकमणी और रानी िवरजन

के घर आयीं। चनदा ने इन िसतयो को िंश व पर िबठाया और आदर सतकार िकया। िवरजन वहां नहीं थी कयोिक

उसने पभात

का समय कावय िचनतन

अितिरक् सिखयो से िमलती–जुलती

नहीं थी। वािटका मे एक रमणीक कुंज

के िलए िनयत कर िलया था। उस समय यह िकसी आवशयक

काय व के

था। गुलाब की सगिनधत से सुरिभत वायु चलती थी। वहीं िवरजन िशलायन पर बैठी हुई

एक

कावय–रचना िकया करती थी। वह कावय रपी समुद

से िजन मोितयो को िनकालती, उनहे माधवी लेखनी की माला मे िपरो िलया

करती थी। आज बहुत िदनो के बाद नगरवािसयो के अनुरोध करने पर िवरजन ने बालाजी की काशी आने का िनमंिण दे ने के िलए लेखनी को उठाया था। बनारस ही वह नगर था, िजसका समरण कभी–कभी

वयग कर िदया करता था। िकनतु काशी वालो के िनरं तर आगह

बालाजी को

करने पर

भी उनहे काशी आने का अवकाश न िमलता था। वे िसंहल और रं गून तक गये, परनतु उनहोने काशी की ओर मुख न िेरा इस नगर को वे अपना 122

परीका

भवन समिते थे। इसिलए

आज िवरजन

उनहे काशी आने का

िनमंिण दे रही है । लोगे का िवचार आ जाता है , तो िवरजन का चनदानन चमक उठता है , परनतु इस समय जो िवकास और छटा इन दोनो पुषपो पर है , उसे दे ख-दे खकर दरू से िूल लिजजत हुए जाते है ।

नौ बजते –बजते िवरजन घर मे आयी। सेवती ने कहा– आज बडी दे र

लगायी।

िवरजन – कुनती ने सूयव को बुलाने के िलए िकतनी तपसया की थी। सीता – बाला जी बडे िनिू र है । मै तो ऐसे मनुषय से कभी न बोलूं। रकिमणी- िजसने संनयास ले िलया, उसे घर–बार से कया नाता?

चनदकुँविर– यहां आयेगे तो मै मुख पर कह दंग ू ी िक महाशय , यह

नखरे कहां सीखे ?

रकमणी – महारानी। ऋिष-महातमाओं का तो िशिाचार िकया करो

िजहवा कया है कतरनी है ।

चनदकुँविर– और कया , कब तक सनतोष करे जी। सब जगह जाते है ,

यहीं आते पैर थकते है ।

िवरजन– (मुसकराकर) अब बहुत शीघ दशन व पाओगे। मुिे िवशास है

िक इस मास मे वे अवशय आयेगे।

सीता– धनय भागय िक दशन व िमलेगे। मै तो जब उनका वत ृ ांत

हूं यही जी चाहता है िक पाऊं तो चरण पकडकर घणटो रोऊँ।

पढती

रकमणी – ईशर ने उनके हाथो मे बडा यश िदया। दारानगर की रानी

सािहबा मर चुकी थी सांस टू ट रही थी िक बालाजी को सूचना हुई। िट आ पहुंचे और कण–माि मे उठाकर बैठा िदया। हमारे मुंशीजी (पित) उन िदनो वहीं थे। कहते थे िक रानीजी ने कोश की कुंजी बालाजी के चरणो पर रख दी

ओर कहा–‘आप इसके सवामी है ’। बालाजी ने कहा–‘मुिे धन की आवशयका

नहीं अपने राजय मे तीन सौ गौशलाएं खुलवा दीिजये’। मुख से िनकलने की दे र थी। आज दारानगर मे दध ू की नदी बहती है । ऐसा महातमा कौन होगा।

चनदकुवंिर – राजा नवलखा का तपेिदक उनही की बूिटयो से छूटा।

सारे वैद डाकटर जवाब दे चुके थे। जब बालाजी चलने लगे, तो महारानी जी ने नौ लाख का मोितयो का हार उनके चरणो पर रख िदया। बालाजी ने उसकी ओर दे खा तक नहीं।

रानी – कैसे रखे मनुषय है । 123

रकमणी - हॉ, और कया, उनहे उिचत था िक हार ले लेते– नहीं –नहीं

कणठ मे डाल लेते।

िवरजन – नहीं, लेकर रानी को पिहना दे ते। कयो सखी? रानी – हां मै उस हार के िलए गुलामी िलख दे ती।

चनदकुंविर – हमारे यहॉ (पित) तो भारत–सभा के सभय बैठे है ढाई सौ

रपये लाख यत करके रख छोडे थे, उनहे यह कहकर उठा ले गये िक घोडा लेगे। कया भारत–सभावाले िबना घोडे के नहीं चलते?

रानी–कल ये लोग शण े ी बांधकर मेरे घर के सामने से जा रहे थे,बडे

भले मालूम होते थे।

इतने ही मे सेवती नवीन समाचार–पि ले आयी। िवरजन ने पूछा – कोई ताजा समाचार है ?

सेवती–हां, बालाजी मािनकपुर आये है । एक अहीर ने अपनी पुि ् के

िववाह का िनमंिण भेजा था।

उस पर पयाग से भारतसभा के सभयो िहत

रात को चलकर मािनकपुर पहुंचे। अहीरो ने बडे उतसाह और समारोह के साथ उनका सवागत िकया है और सबने िमलकर पांच सौ गाएं भेट दी है

बालाजी ने वधू को आशीवारवद िदया ओर दल ु हे को हदय से लगाया। पांच अहीर भारत सभा के सदसय िनयत हुए। कुछ?

िवरजन-बडे अचछे समाचार है । माधवी, इसे काट के रख लेना। और सेवती- पटना के पािसयो ने एक ठाकुददारा बनवाया है वहाँ की

भारतसभा ने बडी धूमधाम से उतसव िकया।

िवरजन – पटना के लोग बडे उतसाह से कायव कर रहे है ।

चनदकुँविर– गडू िरयां भी अब िसनदरू लगायेगी। पासी लोग ठाकुर दारे

बनवायंगे ?

रकमणी-कयो, वे मनुषय नहीं है ? ईशर ने उनहे नहीं बनाया। आप हीं

अपने सवामी की पूजा करना जानती है ?

चनदकुँविर - चलो, हटो, मुिे पािसयो से िमलाती हो। यह मुिे अचछा

नहीं लगता।

रकिमणी – हाँ, तुमहारा रं ग गोरा है न? और वस-आभूषणो से सजी

बहुत हो। बस इतना ही अनतर है िक और कुछ? 124

चनदकुँविर - इतना ही अनतर कयो है ? पतृवी आकाश से िमलाती हो? यह

मुिे अचछा नहीं लगता। मुिे कछवाहो वंश मे हूँ, कुछ खबर है ?

रिकमणी- हाँ, जानती हूँ और नहीं जानती थी तो अब जान गयी।

तुमहारे ठाकुर साहब (पित) िकसी पासी से बढकर मलल –युद करे गे? यह िसिव टे ढी पाग रखना जानते है ? मै जानती उनहे काँख –तले दबा लेगा।

हूं िक कोई छोटा –सा पासी भी

िवरजन - अचछा अब इस िववाद को जाने तो। तुम दोनो जब आती

हो, लडती हो आती हो।

सेवती- िपता और पुि का कैसा संयोग हुआ है ? ऐसा मालुम होता है

िक मुंशी शिलगाम ने पतापचनद ही के िलए संनयास िलया था। यह सब उनहीं कर िशका का िल है ।

रिकमणी – हां और कया? मुनशी शिलगाम तो अब सवामी बहमाननद

कहलाते है । पताप को दे खकर पहचान गये होगे । सेवती – आननद से िूले न समाये होगे।

रिकमणी-यह भी ईशर की पेरणा थी, नहीं तो पतापचनद मानसरोवर कया करने जाते?

सेवती–ईशर की इचछा के िबना कोई बात होती है ?

िवरजन–तुम लोग मेरे लालाजी को तो भूल ही गयी। ऋषीकेश मे

पहले लालाजी ही से पतापचनद की भेट हुई थी। पताप उनके साथ साल-भर तक रहे । तब दोनो आदमी मानसरोवर की ओर चले।

रिकमणी–हां, पाणनाथ के लेख मे तो यह वत ृ ानत था। बालाजी तो यही

कहते है िक मुंशी संजीवनलाल से िमलने का सौभागय मुिे पाप न होता तो मै भी मांगने–खानेवाले साधुओं मे ही होता।

चनदकुंविर -इतनी आतमोननित के िलए िवधाता ने पहले ही से सब

सामान कर िदये थे।

सेवती–तभी इतनी–सी अवसथा मे भारत के सुय व बने हुए है । अभी

पचीसवे वषव मे होगे?

िवरजन – नहीं, तीसवां वषव है । मुिसे साल भर के जेठे है । रिकमणी -मैने तो उनहे जब दे खा, उदास ही दे खा।

चनदकुंविर – उनके सारे जीवन की अिभलाषाओं पर ओंस पड गयी।

उदास कयो न होगी?

125

रिकमणी – उनहोने तो दे वीजी से यही वरदान मांगा था। चनदकुंविर – तो कया जाित की सेवा गह ृ सथ

बनकर नहीं हो सकती ?

रिकमणी – जाित ही कया, कोई भी सेवा गह ृ सथ बनकर नहीं हो

सकती। गह ृ सथ केवल अपने बाल-बचचो की सेवा कर सकता है ।

चनदकुंविर – करनेवाले सब कुछ कर सकते है , न करनेवालो के िलए

सौ बहाने है ।

एक मास और बीता। िवरजन की नई किवता सवागत का सनदे शा

लेकर बालाजी के पास पहुची

परनतु यह न पकट

हुआ िक उनहोने िनमंिण

सवीकार िकया या नहीं। काशीवासी पतीका करते–करते थक गये। बालाजी पितिदन दिकण की ओर बढते चले जाते थे। िनदान लोग िनराश हो गये और सबसे अधीक िनराशा िवरजन को हुई।

एक िदन जब िकसी को धयान भी न था िक बालाजी आयेगे, पाणनाथ

ने आकर कहा–बिहन। लो पसनन हो जाओ, आज बालाजी आ रहे है ।

िवरजन कुछ िलख रही थी, हाथो से लेखनी छूट पडी। माधवी उठकर

दार की ओर लपकी। पाणनाथ ने हं सकर कहा – कया अभी आ थोडे ही गये है िक इतनी उिदगन

हुई जाती हो।

माधवी – कब आयंगे इधर से हीहोकर जायंगे नए?

पाणनाथ – यह तो नहीं जात है िक िकधर से आयेगे – उनहे आडमबर

और धूमधाम से बडी घण ृ ा है । इसिलए पहले से आने की ितिथ

नहीं िनयत

की। राजा साहब के पास आज पात:काल एक मनुषय ने आकर सूचना दी िक

बालाजी आ रहे है और कहा है िक मेरी आगवानी के िलए धूमधाम न हो, िकनतु यहां के लोग कब मानते है ? अगवानी होगी, समारोह के साथ सवारी िनकलेगी, और ऐसी िक इस नगर के इितहास

मे समरणीय हो। चारो ओर

आदमी छूटे हुए है । जयोही उनहे आते दे खेगे, लोग पतयेक मुहलले मे टे लीिोन दारा सूचना दे दे गे। कालेज और सकूलो के िवदाथी विदव यां पहने और ििणडयां िलये इनतजार मे खडे है घर–घर पुषप–वषा व की तैयािरयां हो रही है बाजार मे दक ु ाने सजायी जा रहीं है । नगर मे एक धूम सी मची हुई है । माधवी - इधर से जायेगे तो हम रोक लेगी।

पाणनाथ – हमने कोई तैयारी तो की नहीं, रोक कया लेगे? और यह भी

तो नहीं जात है िक िकधर से जायेगे।

िवरजन – (सोचकर) आरती उतारने का पबनध 126

तो करना ही होगा।

पाणनाथ – हॉ अब इतना भी न होगा? मै बाहर िबछावन आिद

िबछावाता हूं।

पाणनाथ बाहर की तैयािरयो मे लगे, माधवी िूल चुनने लगी, िवरजन

ने चांदी का थाल भी धोकर सवचछ िकया। सेवती और चनदा भीतर सारी वसतुएं कमानुसार सजाने लगीं।

माधवी हष व के मारे िूली न समाती थी। बारमबार चौक–चौककर दार

की ओर दे खती िक कहीं आ तो नहीं गये। बारमबार कान लगाकर सुनती िक कहीं बाजे की धविन तो नहीं आ रही है । हदय हष व के मारे धडक रहा था। िूल चुनती थी, िकनतु धयान दस ू री ओर था।

हाथो मे िकतने ही कांटे चुभा

िलए। िूलो के साथ कई शाखाऍ ं मरोड डालीं। कई बार शाखाओं मे उलिकर िगरी। कई बार साडी कांटो मे िंसा दीं उसस समय उसकी दशा िबलकुल बचचो की-सी थी।

िकनतु िवरजन का बदन बहुत सी मिलन था। जैसे जलपूण व पाि

तिनक िहलने से भी छलक जाता है , उसी पकार

जयो-जयो पाचीन घटनाएँ

समरण आती थी, तयो-तयो उसके नेिो से अशु छलक पडते थे। आह! कभी वे

िदन थे िक हम और वह भाई-बिहन थे। साथ खेलते, साथ रहते थे। आज चौदह वष व वयतीत हुए, उनकास मुख दे खने का सौभगय भी न हुआ। तब मै तिनक भी रोती वह मेरे ऑस ं ू पोछते और मेरा जी बहलाते। अब उनहे कया

सुिध िक ये ऑख ं े िकतनी रोयी है और इस हदय ने कैसे-कैसे कि उठाये है । कया खबर थी की हमारे भागय ऐसे दशय िदखायेगे? एक िवयोिगन हो जायेगी और दस ू रा सनयासी।

अकसमात ् माधवी को धयान आया िक सुवमस को कदािचत बाजाजी

के आने की सुचना न हुई हो। वह िवरजन के पास आक बोली- मै तिनक चची के यहॉँ जाती हूँ। न जाने िकसी ने उनसे कहा या नहीं?

पाणनाथ बाहर से आ रहे थे, यह सुनकर बोले- वहॉँ सबसे पहले सूचना

दी गयीं भली-भॉिँत तैयािरयॉँ हो रही है । बालाजी भी सीधे घर ही की ओर पधारे गे। इधर से अब न आयेगे।

िवरजन- तो हम लोगो का चलना चािहए। कहीं दे र न हो जाए। माधवी- आरती का थाल लाऊँ?

िवरजन- कौन ले चलेगा ? महरी को बुला लो (चौककर) अरे ! तेरे हाथो

मे रिधर कहॉँ से आया?

127

माधवी- ऊँह! िूल चुनती थी, कॉट ँ े लग गये होगे।

चनदा- अभी नयी साडी आयी है । आज ही िाड के रख दी। माधवी- तुमहारी बला से!

माधवी ने कह तो िदया, िकनतु ऑखे अशप ु ूण व हो गयीं। चनदा

साधारणत: बहुत भली सी थी। िकनतु जब से बाबू राधाचरण ने जाित-सेवा के िलए नौकरी से इसतीिा दे िदया था वह बालाजी के नाम से िचढती थी।

िवरजन से तो कुछ न कह सकती थी, परनतु माधवी को छे डती रहती थी।

िवरजन ने चनदा की ओर घूरकर माधवी से कहा- जाओ, सनदक ू से दस ू री साडी िनकाल लो। इसे रख आओ। राम-राम, मार हाथ छलनी कर डाले! माधवी- दे र हो जायेगी, मै इसी भॉिँत चलूँगी।

िवरजन- नही, अभी घणटा भर से अिधक अवकाश है ।

यह कहकर िवरजन ने पयार से माधवी के हाथ धोये। उसके बाल गूंथे,

एक सुनदर साडी पिहनायी, चादर ओढायी और उसे हदय से लगाकर सजल नेिो

से दे खते हुए कहा- बिहन! दे खो, धीरज हाथ से न जाय।

माधवी मुसकराकर बोली- तुम मेरे ही संग रहना, मुिे सभलती रहना।

मुिे अपने हदय पर भरोसा नहीं है ।

िवरजन ताड गई िक आज पेम ने उनमततास का पद गहण िकया है

और कदािचत ् यही उसकी पराकािा है । हॉँ ! यह बावली बालू की भीत उठा रही है ।

माधवी थोडी दे र के बाद िवरजन, सेवती, चनदा आिद कई सीयो के

संग सुवाम के घर चली। वे वहॉँ की तैयािरयॉँ दे खकर चिकत हो गयीं। दार

पर एक बहुत बडा चँदोवा िबछावन, शीशे और भॉिँत-भाँित की सामिगयो से सुसिजजत खडा था। बधाई बज रही थी! बडे -बडे टोकरो मे िमठाइयॉँ और मेवे रखे हुए थे। नगर के पितिित सभय उतमोतम वस पिहने हुए सवागत करने

को खडे थे। एक भी ििटन या गाडी नहीं िदखायी दे ती थी, कयोिक बालाजी

सवद व ा पैदल चला करते थे। बहुत से लोग गले मे िोिलयॉँ डाले हुए िदखाई दे ते थे, िजनमे बालाजी पर समपण व करने के िलये रपये-पैसे भरे हुए थे।

राजा धमिवसंह के पॉच ँ ो लडके रं गीन वस पिहने, केसिरया पगडी बांधे, रे शमी ििणडयां कमरे से खोसे िबगुल बजा रहे थे। जयोिह लोगो की दिि िवरजन

पर पडी, सहसो मसतक िशिाचार के िलए िुक गये। जब ये दे िवयां भीतर

गयीं तो वहां भी आंगन और दालान नवागत वधू की भांित सुसिजजत िदखे ! 128

सैकडो सीयां मंगल गाने के िलए बैठी थीं। पुषपो की रािशयाँ ठौर-ठौर पडी थी। सुवामा एक शेत साडी पिहने सनतोष और शािनत की मूितव बनी हुई दार

पर खडी थी। िवरजन और माधवी को दे खते ही सजल नयन हो गयी। िवरजन बोली- चची! आज इस घर के भागय जग गये।

सुवामा ने रोकर कहा- तुमहारे कारण मुिे आज यह िदन दे खने का

सौभागय हुआ। ईशर तुमहे इसका िल दे ।

दिुखया माता के अनत:करण से यह आशीवाद व िनकला। एक माता के

शाप ने राजा दशरथ को पुिशोक मे मतृयु का सवाद चखाया था। कया सुवामा का यह आशीवाद व पभावहीन होगा?

दोनो अभी इसी पकार बाते कर रही थीं िक घणटे और शंख की धविन

आने लगी। धूम मची की बालाजी आ पहुंचे। सीयो ने मंगलगान आरमभ

िकया। माधवी ने आरती का थाल ले िलया माग व की ओर टकटकी बांधकर दे खने लगी। कुछ ही काल मे अदै तामबरधारी नवयुवको का समुदाय दखयी पडा। भारत सभा के सौ सभय घोडो पर सवार चले आते थे। उनके पीछे

अगिणत मनुषयो का िुणड था। सारा नगर टू ट पडा। कनधे से कनधा िछला जाता था मानो समुद की तरं गे बढती चली आती है । इस भीड मे बालाजी

का मुखचनद ऐसा िदखायी पडताथ मानो मेघाचछिदत चनद उदय हुआ है । ललाट पर अरण चनदन का ितलक था और कणठ मे एक गेरए रं ग की चादर पडी हुई थी।

सुवामा दार पर खडी थी, जयोही बालाजी का सवरप उसे िदखायी िदया

धीरज हाथ से जाता रहा। दार से बाहर िनकल आयी और िसर िुकाये, नेिो से मुकहार गूथ ं ती बालाजी के ओर चली। आज उसने अपना खोया हुआ लाल पाया है । वह उसे हदय से लगाने के िलए उिदगन है ।

सुवामा को इस पकार आते दे खकर सब लोग रक गये। िविदत होता

था िक आकाश से कोई दे वी उतर आयी है । चतुिदव क सननाटा छा गया। बालाजी ने कई डग आगे बढकर मातीजी को पमाण िकया और उनके चरणो पर िगर पडे । सुवामा ने उनका मसतक अपने अंक मे िलया। आज उसने अपना खोया हुआ लाल पाया है । उस पर आंखो से मोितयो की विृि कर रहीं है ।

इस उतसाहवदव क दशय को दे खकर लोगो के हदय जातीयता के मद मे

मतवाले हो गये ! पचास सहस सवर से धविन आयी-‘बालाजी की जय।’ मेघ 129

गजा व और चतुिदव क से पुषपविृि होने लगी। ििर उसी पकार दस ू री बार मेघ

की गजन व ा हुई। ‘मुंशी शािलगाम की जय’ और सहसो मनुषये सवदे श-पेम के मद से मतवाले होकर दौडे और सुवामा के चरणो की रज माथे पर मलने

लगे। इन धविनयो से सुवामा ऐसी पमुिदत हो रहीं थी जैसे महुअर के सुनने से नािगन मतवाली हो जाती है । आज उसने अपना खोया

हुआ लाल पाया है । अमूलय रत पाने से वह रानी हो गयी है । इस रत के

कारण आज उसके चरणो की रज लोगो के नेिो का अंजन और माथे का चनदन बन रही है ।

अपूव व दशय था। बारमबार जय-जयकार की धविन उठती थी और सवगव

के िनवािसयो को भातर की जागिृत का शुभ-संवाद सुनाती थी। माता अपने पुि को कलेजे से लगाये हुए है । बहुत िदन के अननतर उसने अपना खोया हुआ लाल है , वह लाल जो उसकी जनम-भर की कमाई था। िूल चारो और

से िनछावर हो रहे है । सवण व और रतो की वषा व हो रही है । माता और पुि

कमर तक पुषपो के समुद मे डू बे हुए है । ऐसा पभावशाली दशय िकसके नेिो ने दे खा होगा।

सुवामा बालाजी का हाथ पकडे हुए घरकी ओर चली। दार पर पहुँचते

ही सीयॉँ मंगल-गीत गाने लगीं और माधवी सवण व रिचत थाल दीप और

पुषपो से आरती करने लगी। िवरजन ने िूलो की माला-िजसे माधवी ने अपने रक से रं िजत िकया था- उनके गले मे डाल दी। बालाजी ने सजल नेिो से िवरजन की ओर दे खकर पणाम िकया।

माधवी को बालाजी के दशन व की िकतनी अिभलाषा थी। िकनतु इस

समय उसके नेि पथ ृ वी की ओर िुके हुए है । वह बालाजी की ओर नहीं दे ख

सकती। उसे भय है िक मेरे नेि पथ ृ वी हदय के भेद को खोल दे गे। उनमे

पेम रस भरा हुआ है । अब तक उसकी सबसे बडी अिभलाषा यह थी िक

बालाजी का दशन व पाऊँ। आज पथम बार माधवी के हदय मे नयी

अिभलाषाएं उतपनन हुई, आज अिभलाषाओं ने िसर उठाया है , मगर पूण व होने के िलए नहीं, आज अिभलाषा-वािटका मे एक नवीन कली लगी है , मगर

िखलने के िलए नहीं, वरन मुरिाने िमटटी मे िमल जाने के िलए। माधवी को कौन समिाये िक तू इन अिभलाषाओं को हदय मे उतपनन होने दे । ये

अिभलाषाएं तुिे बहुत रलायेगी। तेरा पेम कालपिनक है । तू उसके सवाद से पिरिचत है । कया अब वासतिवक पेम का सवाद िलया चाहती है ? 130

24 पे म का स वपन मनुषय का हदय अिभलाषाओं का कीडासथल और कामनाओं का

आवास है । कोई समय वह थां जब िक माधवी माता के अंक मे खेलती थी। उस समय हदय अिभलाषा और चेिाहीन था। िकनतु जब िमटटी के घरौदे

बनाने लगी उस समय मन मे यह इचछा उतपनन हुई िक मै भी अपनी

गुिडया का िववाह करँ गी। सब लडिकयां अपनी गुिडयां बयाह रही है , कया मेरी गुिडयाँ कुँवारी रहे गी ? मै अपनी गुिडयाँ के िलए गहने बनवाऊँगी, उसे वस पहनाऊँगी, उसका िववाह रचाऊँगी। इस इचछा ने उसे कई मास तक रलाया। पर गुिडयो के भागय मे िववाह न बदा था। एक िदन मेघ िघर आये और मूसलाधार पानी बरसा। घरौदा विृि मे बह गया और गुिडयो के िववाह की अिभलाषा अपूणव हो रह गयी।

कुछ काल और बीता। वह माता के संग िवरजन के यहॉँ आने -जाने

लगी। उसकी मीठी-मीठी बाते सुनती और पसनन होती, उसके थाल मे खाती

और उसकी गोद मे सोती। उस समय भी उसके हदय मे यह इचछा थी िक मेरा भवन परम सुनदर होता, उसमे चांदी के िकवाड लगे होते, भूिम ऐसी

सवचछ होती िक मकखी बैठे और ििसल जाए ! मै िवरजन को अपने घर ले

जाती, वहां अचछे -अचछे पकवान बनाती और िखलाती, उतम पलंग पर सुलाती और भली-भॉिँत उसकी सेवा करती। यह इचछा वषो तक हदय मे चुटिकयाँ लेती रही। िकनतु उसी घरौदे की भाँित यह घर भी ढह गया और आशाएँ िनराशा मे पिरवितत व हो गयी।

कुछ काल और बीता, जीवन-काल का उदय हुआ। िवरजन ने उसके

िचत पर पतापचनद का िचत खींचना आरमभ िकया। उन िदनो इस चचा व के

अितिरक उसे कोई बात अचछी न लगती थी। िनदान उसके हदय मे पतापचनद की चेरी बनने की इचछा उतपनन हुई। पडे -पडे हदय से बाते िकया करती। राि मे जागरण करके मन का मोदक खाती। इन िवचारो से िचत पर

एक उनमाद-सा छा जाता, िकनतु पतापचनद इसी बीच मे गुप हो गये और उसी िमटटी के घरौदे की भाँित ये हवाई िकले ढह गये। आशा के सथान पर हदय मे शोक रह गया।

131

अब िनराशा ने उसक हदय मे आशा ही शेष न रखा। वह दे वताओं की

उपासना करने लगी, वत रखने लगी िक पतापचनद पर समय की कुदिि न पडने पाये। इस पकार अपने जीवन के कई वष व उसने तपिसवनी बनकर

वयतीत िकये। किलपत पेम के उललास मे चूर होती। िकनतु आज तपिसवनी

का वत टू ट गया। मन मे नूतन अिभलाषाओं ने िसर उठाया। दस वष व की तपसया एक कण मे भंग हो गयी। कया यह इचछा भी उसी िमटटी के घरौदे की भाँित पददिलत हो जाएगी?

आज जब से माधवी ने बालाजी की आरती उतारी है ,उसके आँसू नहीं

रके। सारा िदन बीत गया। एक-एक करके तार िनकलने लगे। सूय व थककर

िछप गय और पकीगण घोसलो मे िवशाम करने लगे, िकनतु माधवी के नेि नहीं थके। वह सोचती है िक हाय! कया मै इसी पकार रोने के िलए बनायी

गई हूँ? मै कभी हँ सी भी थी िजसके कारण इतना रोती हूँ? हाय! रोते-रोते आधी आयु बीत गयी, कया शेष भी इसी पकार बीतेगी? कया मेरे जीवन मे

एक िदन भी ऐसा न आयेगा, िजसे समरण करके सनतोष हो िक मैने भी कभी सुिदन दे खे थे? आज के पहले माधवी कभी ऐसे नैराशय-पीिडत और िछननहदया नहीं हुई थी। वह अपने किलपत पेम मे िनमगन थी। आज उसके हदय मे नवीन अिभलाषाएँ उतपनन हुई है । अशु उनहीं के पेिरत है । जो हदय

सोलह वष व तक आशाओं का आवास रहा हो, वही इस समय माधवी की भावनाओं का अनुमान कर सकता है ।

सुवामा के हदय मे नवीन इचछाओं ने िसर उठाया है । जब तक

बालजी को न दे खा था, तब तक उसकी सबसे बडी अिभलाषा यह थी िक वह

उनहे आँखे भर कर दे खती और हदय-शीतल कर लेती। आज जब आँखे भर

दे ख िलया तो कुछ और दे खने की अचछा उतपनन हुई। शोक ! वह इचछा उतपनन हुई माधवी के घरौदे की भाँित िमटटी मे िमल जाने क िलए।

आज सुवामा, िवरजन और बालाजी मे सांयकाल तक बाते होती रही।

बालाजी ने अपने अनुभवो का वणन व िकया। सुवामा ने अपनी राम कहानी सुनायी और िवरजन ने कहा थोडा, िकनतु सुना बहुत। मुंशी संजीवनलाल के

सनयास का समाचार पाकर दोनो रोयीं। जब दीपक जलने का समयआ पहुँचा, तो बालाजी गंगा की ओर संधया करने चले और सुवामा भोजन बनाने

बैठी। आज बहुत िदनो के पशात सुवामा मन लगाकर भोजन बना रही थी। दोनो बात करने लगीं।

132

सुवामा-बेटी! मेरी यह हािदव क अिभलाषा थी िक मेरा लडका संसार मे

पितिित हो और ईशर ने मेरी लालसा पूरी कर दी। पताप ने िपता और कुल का नाम उजजवल कर िदया। आज जब पात:काल मेरे सवामीजी की जय

सुनायी जा रही थी तो मेरा हदय उमड-उमड आया था। मै केवल इतना चाहती हूँ िक वे यह वैरागय तयाग दे । दे श का उपकार करने से मै उनहे नहीं

राकती। मैने तो दे वीजी से यही वरदान माँगा था, परनतु उनहे संनयासी के वेश मे दे खकर मेरा हदय िवदीणव हुआ जाता है ।

िवरजन सुवामा का अिभपाय समि गयी। बोली-चाची! यह बात तो मेरे

िचत मे पिहले ही से जमी हुई है । अवसर पाते ही अवशय छे डू ँ गी।

सुवामा-अवसर तो कदािचत ही िमले। इसका कौन िठकान? अभी जी

मे आये, कहीं चल दे । सुनती हूँ सोटा हाथ मे िलये अकेले वनो मे घूमते है । मुिसे अब बेचारी माधवी की दशा नहीं दे खी जाती। उसे दे खती हूँ तो जैसे

कोई मेरे हदय को मसोसने लगता है । मैने बहुतेरी सीयाँ दे खीं और अनेक

का वत ृ ानत पुसतको मे पढा ; िकनतु ऐसा पेम कहीं नहीं दे खा। बेचारी ने आधी आयु रो-रोकर काट दी और कभी मुख न मैला िकया। मैने कभी उसे रोते नहीं दे खा ; परनतु रोने वाले नेि और हँ सने वाले मुख िछपे नहीं रहते।

मुिे ऐसी ही पुिवधू की लालसा थी, सो भी ईशर ने पूण व कर दी। तुमसे सतय कहती हूँ, मै उसे पुिवधू समिती हूँ। आज से नहीं, वषो से। है ।

वज ृ रानी- आज उसे सारे िदन रोते ही बीता। बहुत उदास िदखायी दे ती सुवामा- तो आज ही इसकी चचाव छे डो। ऐसा न हो िक कल िकसी ओर

पसथान कर दे , तो ििर एक युग पतीका करनी पडे ।

वज ृ रानी- (सोचकर) चचाव करने को तो मै करँ , िकनतु माधवी सवयं िजस

उतमता के साथ यह कायव कर सकती है , कोई दस ू रा नहीं कर सकता। सुवामा- वह बेचारी मुख से कया कहे गी?

वज ृ रानी- उसके नेि सारी कथा कह दे गे? सुवामा- लललू अपने मन मे कया कहं गे?

वज ृ रानी- कहे गे कया ? यह तुमहारा भम है जो तुम उसे कुँवारी समि

रही हो। वह पतापचनद की पती बन चुकी। ईशर के यहाँ उसका िववाह

उनसे हो चुका यिद ऐसा न होता तो कया जगत ् मे पुरष न थे ? माधवी जैसी सी को कौन नेिो मे न सथान दे गा? उसने अपना आधा यौवन वयथव 133

रो-रोकर िबताया है । उसने आज तक धयान मे भी िकसी अनय पुरष को

सथान नहीं िदया। बारह वषव से तपिसवनी का जीवन वयतीत कर रही है । वह पलंग पर नहीं सोयी। कोई रं गीन वस नहीं पहना। केश तक नहीं गुथ ँ ाये।

कया इन वयवहारो से नहीं िसद होता िक माधवी का िववाह हो चुका? हदय का िमलाप सचचा िववाह है । िसनदरू का टीका, गिनथ-बनधन और भाँवर- ये सब संसार के ढकोसले है । हूँ।

सुवामा- अचछा, जैसा उिचत समिो करो। मै केवल जग-हँ साई से डरती रात को नौ बजे थे। आकाश पर तारे िछटके हुए थे। माधवी वािटका

मे अकेली िकनतु अित दरू है । कया कोई वहाँ तक पहुँच सकता है ? कया मेरी

आशाएँ भी उनही नकिो की भाँित है ? इतने मे िवरजन ने उसका हाथ पकडकर िहलाया। माधवी चौक पडी।

िवरजन-अँधेरे मे बैठी कया कर रही है ?

माधवी- कुछ नहीं, तो तारो को दे ख रही हूँ। वे कैसे सुहावने लगते है ,

िकनतु िमल नहीं सकते।

िवरजन के कलेजे मे बछी-सी लग गयी। धीरज धरकर बोली- यह तारे

िगनने का समय नहीं है । िजस अितिथ के िलए आज भोर से ही िूली नहीं समाती थी, कया इसी पकार उसकी अितिथ-सेवा करे गी?

माधवी- मै ऐसे अितिथ की सेवा के योगय कब हूँ?

िवरजन- अचछा, यहाँ से उठो तो मै अितिथ-सेवा की रीित बताऊँ।

दोनो भीतर आयीं। सुवामा भोजन बना चुकी थी। बालाजी को माता के

हाथ की रसोई बहुत िदनो मे पाप हुई। उनहोने बडे पेम से भोजन िकया।

सुवामा िखलाती जाती थी और रोती जाती थी। बालाजी खा पीकर लेटे, तो िवरजन ने माधवी से कहा- अब यहाँ कोने मे मुख बाँधकर कयो बैठी हो? माधवी- कुछ दो तो खाके सो रहूँ, अब यही जी चाहता है ।

िवरजन- माधवी! ऐसी िनराश न हो। कया इतने िदनो का वत एक िदन

मे भंग कर दे गी?

माधवी उठी, परनतु उसका मन बैठा जाता था। जैसे मेघो की काली-

काली घटाएँ उठती है और ऐसा पतीत होता है िक अब जल-थल एक हो जाएगा, परनतु अचानक पछवा वायु चलने के कारण सारी घटा काई की भाँित िट जाती है , उसी पकार इस समय माधवी की गित हो रही है । 134

वह शुभ िदन दे खने की लालसा उसके मन मे बहुत िदनो से थी। कभी

वह िदन भी आयेगा जब िक मै उसके दशन व पाऊँगी? और उनकी अमत ृ -वाणी से शवण तप ृ करँ गी। इस िदन के िलए उसने मानयाएँ कैसी मानी थी? इस िदन के धयान से ही उसका हदय कैसा िखला उठता था!

आज भोर ही से माधवी बहुत पसनन थी। उसने बडे उतसाह से िूलो

का हार गूथ ँ ा था। सैकडो काँटे हाथ मे चुभा िलये। उनमत की भाँित िगर-िगर पडती थी। यह सब हष व और उमंग इसीिलए तो था िक आज वह शुभ िदन

आ गया। आज वह िदन आ गया िजसकी ओर िचरकाल से आँखे लगी हुई थीं। वह समय भी अब समरण नहीं, जब यह अिभलाषा मन मे नहीं, जब यह अिभलाषा मन मे न रही हो। परनतु इस समय माधवी के हदय की वह गाते नहीं है । आननद की भी सीमा होती है । कदािचत ् वह माधवी के आननद की सीमा थी, जब वह वािटका मे िूम-िूमकर िूलो से आँचल भर रही थी।

िजसने कभी सुख का सवाद ही न चखा हो, उसके िलए इतना ही आननद बहुत है । वह बेचारी इससे अिधक आननद का भार नहीं सँभाल सकती। िजन

अधरो पर कभी हँ सी आती ही नहीं, उनकी मुसकान ही हँ सी है । तुम ऐसो से अिधक हँ सी की आशा कयो करते हो? माधवी बालाजी की ओर परनतु इस पकार इस पकार नहीं जैसे एक नवेली बहू आशाओं से भरी हुई शग ं ृ ार िकये

अपने पित के पास जाती है । वही घर था िजसे वह अपने दे वता का मिनदर

समिती थी। जब वह मिनदर शूनय था, तब वह आ-आकर आँसुओं के पुषप

चढाती थी। आज जब दे वता ने वास िकया है , तो वह कयो इस पकार मचलमचल कर आ रही है ?

रािि भली-भाँित आदव हो चुकी थी। सडक पर घंटो के शबद सुनायी दे

रहे थे। माधवी दबे पाँव बालाजी के कमरे के दार तक गयी। उसका हदय

धडक रहा था। भीतर जाने का साहस न हुआ, मानो िकसी ने पैर पकड िलए। उलटे पाँव ििर आयी और पथ ृ वी पर बैठकर रोने लगी। उसके िचत ने

कहा- माधवी! यह बडी लजजा की बात है । बालाजी की चेरी सही, माना िक तुिे उनसे पेम है ; िकनतु तू उसकी सी नहीं है । तुिे इस समय उनक गह ृ

मे रहना उिचत नहीं है । तेरा पेम तुिे उनकी पती नहीं बना सकता। पेम और वसतु है और सोहाग और वसतु है । पेम िचत की पविृत है और बयाह

एक पिवि धम व है । तब माधवी को एक िववाह का समरण हो आया। वर ने भरी सभा मे पती की बाँह पकडी थी और कहा था िक इस सी को मै अपने 135

गह ृ की सवािमनी और अपने मन की दे वी समिता रहूँगा। इस सभा के

लोग, आकाश, अिगन और दे वता इसके साकी रहे । हा! ये कैसे शुभ शबद है ।

मुिे कभी ऐसे शबद सुनने का मौका पाप न हुआ! मै न अिगन को अपना साकी बना सकती हूँ, न दे वताओं को और न आकाश ही को; परनतु है

अिगन! है आकाश के तारो! और हे दे वलोक-वािसयो! तुम साकी रहना िक

माधवी ने बालाजी की पिवि मूित व को हदय मे सथान िदया, िकनतु िकसी िनकृ ि िवचार को हदय मे न आने िदया। यिद मैने घर के भीतर पैर रखा

हो तो है अिगन! तुम मुिे अभी जलाकर भसम कर दो। हे आकाश! यिद तुमने अपने अनेक नेिो से मुिे गह ृ मे जाते दे खा, तो इसी कण मेरे ऊपर इनद का वज िगरा दो।

माधवी कुछ काल तक इसी िवचार मे मगन बैठी रही। अचानक उसके

कान मे भक-भक की धविन आयीय। उसने चौककर दे खा तो बालाजी का कमरा अिधक पकािशत हो गया था और पकाश िखडिकयो से बाहर

िनकलकर आँगन मे िैल रहा था। माधवी के पाँव तले से िमटटी िनकल

गयी। धयान आया िक मेज पर लैमप भभक उठा। वायु की भाँित वह बालाजी के कमरे मे घुसी। दे खा तो लैमप िटक पथ ृ वी पर िगर पडा है और भूतल के िबछावन मे तेल िैल जाने के कारण आग लग गयी है । दस ू रे

िकनारे पर बालाजी सुख से सो रहे थे। अभी तक उनकी िनदा न खुली थी।

उनहोने कालीन समेटकर एक कोने मे रख िदया था। िवदत ु की भाँित लपककर माधवी ने वह कालीन उठा िलया और भभकती हुई जवाला के ऊपर

िगरा िदया। धमाके का शबद हुआ तो बालाजी ने चौककर आँखे खोली। घर मे धुआँ भरा था और चतुिदव क तेल की दग व ध िैली हुई थी। इसका कारण ु न वह समि गये। बोले- कुशल हुआ, नहीं तो कमरे मे आग लग गयी थी। माधवी- जी हाँ! यह लैमप िगर पडा था। बालाजी- तुम बडे अवसर से आ पहुँची। माधवी- मै यहीं बाहर बैठी हुई थी।

बालाजी –तुमको बडा कि हुआ। अब जाकर शयन करो। रात बहुत हा

गयी है ।

माधवी– चली जाऊँगी। शयन तो िनतय ही करना है । यअ अवसर न

जाने ििर कब आये?

136

माधवी की बातो से अपूव व करणा भरी थी। बालाजी ने उसकी ओर

धयान-पूवक व दे खा। जब उनहोने पिहले माधवी को दे खा था,उसक समय वह एक िखलती हुई कली थी और आज वह एक मुरिाया हुआ पुषप है । न मुख

पर सौनदय व था, न नेिो मे आननद की िलक, न माँग मे सोहाग का संचार था, न माथे पर िसंदरू का टीका। शरीर मे आभूषाणो का िचनह भी न था।

बालाजी ने अनुमान से जाना िक िवधाता से जान िक िवधाता ने ठीक

तरणावसथा मे इस दिुखया का सोहाग हरण िकया है । परम उदास होकर बोले-कयो माधवी! तुमहारा तो िववाह हो गया है न?

माधवी के कलेज मे कटारी चुभ गयी। सजल नेि होकर बोली- हाँ, हो

गया है ।

बालाजी- और तुमहार पित?

माधवी- उनहे मेरी कुछ सुध ही नहीं। उनका िववाह मुिसे नहीं हुआ। बालाजी िविसमत होकर बोले- तुमहारा पित करता कया है ? माधवी- दे श की सेवा।

बालाजी की आँखो के सामने से एक पदा व सा हट गया। वे माधवी का

मनोरथ जान गये और बोले- माधवी इस िववाह को िकतने िदन हुए?

बालाजी के नेि सजल हो गये और मुख पर जातीयता के मद का

उनमाद– सा छा गया। भारत माता! आज इस पिततावसथा मे भी तुमहारे

अंक मे ऐसी-ऐसी दे िवयाँ खेल रही है , जो एक भावना पर अपने यौवन और

जीवन की आशाऍ ं समपण व कर सकती है । बोले- ऐसे पित को तुम तयाग कयो नहीं दे ती?

माधवी ने बालाजी की ओर अिभमान से दे खा और कहा- सवामी जी!

आप अपने मुख से ऐसे कहे ! मै आयव-बाला हूँ। मैने गानधारी और सािविी के कुल मे जनम िलया है । िजसे एक बार मन मे अपना पित मान ेाचुकी उसे

नहीं तयाग सकती। यिद मेरी आयु इसी पकार रोते-रोते कट जाय, तो भी अपने पित की ओर से मुिे कुछ भी खेद न होगा। जब तक मेरे शरीर मे पाण रहे गा मै ईशर से उनक िहत चाहती रहूँगी। मेरे िलए यही कया कमक

है , जो ऐसे महातमा के पेम ने मेरे हदय मे िनवास िकया है ? मै इसी का अपना सौभागय समिती हूँ। मैने एक बार अपने सवामी को दरू से दे खा था। वह िचि एक कण के िलए भी आँखो से नही उतरा। जब कभी मै बीमार हुई हूँ, तो उसी िचि ने मेरी शुशष ु ा की है । जब कभी मैने िवयोेेग के आँसू 137

बहाये है , तो उसी िचि ने मुिे सानतवना दी है । उस िचि वाले पित को मै।

कैसे तयाग दँ ?ू मै उसकी हूँ और सदै व उसी का रहूँगी। मेरा हदय और मेरे पाण सब उनकी भेट हो चुके है । यिद वे कहे तो आज मै अिगन के अंक मंेे

ऐसे हषप व ूवक व जा बैठूँ जैसे िूलो की शैयया पर। यिद मेरे पाण उनके िकसी काम आये तो मै उसे ऐसी पसननता से दे दँ ू जैसे कोई उपसाक अपने इिदे व को िूल चढाता हो।

माधवी का मुखमणडल पेम-जयोित से अरणा हो रहा था। बालाजी ने

सब कुछ सुना और चुप हो गये। सोचने लगे- यह सी है ; िजसने केवल मेरे धयान पर अपना जीवन समपण व कर िदया है । इस िवचार से बालाजी के नेि

अशप ु ूण व हो गये। िजस पेम ने एक सी का जीवन जलाकर भसम कर िदया

हो उसके िलए एक मनुषय के घैय व को जला डालना कोई बात नहीं ! पेम के

सामने धैय व कोई वसतु नहीं है । वह बोले- माधवी तुम जैसी दे िवयाँ भारत की गौरव है । मै बडा भागयवान हूँ िक तुमहारे पेम-जैसी अनमोल वसतु इस पकार मेरे हाथ आ रही है । यिद तुमने मेरे िलए योिगनी बनना सवीकार िकया है

तो मै भी तुमहारे िलए इस सनयास और वैरागय का तयाग कर सकता हूँ।

िजसके िलए तुमने अपने को िमटा िदया है ।, वह तुमहारे िलए बडा-से-बडा बिलदान करने से भी नहीं िहचिकचायेगा।

माधवी इसके िलए पहले ही से पसतुत थी, तुरनत बोली- सवामीजी! मै

परम अबला और बुिदहीन सिी हूँ। परनतु मै आपको िवशास िदलाती हूँ िक

िनज िवलास का धयान आज तक एक पल के िलए भी मेरे मन मे नही आया। यिद आपने यह िवचार िकया िक मेर पेम का उदे शय केवल यह क

आपके चरणो मे सांसािरक बनधनो की बेिडयाँ डाल दँ ू, तो (हाथ जोडकर)

आपने इसका ततव नहीं समिा। मेरे पेम का उदे शय वही था, जो आज मुिे पाप हो गया। आज का िदन मेरे जीवन का सबसे शुभ िदन है । आज मे अपने पाणनाथ के सममुख खडी हूँ और अपने कानो से उनकी अमत ृ मयी

वाणी सुन रही हूँ। सवामीजी! मुिे आशा न थी िक इस जीवन मे मुिे यह िदन दे खने का सौभागय होगा। यिद मेरे पास संसार का राजय होता तो मै

इसी आननद से उसे आपके चरणो मे समपण व कर दे ती। मै हाथ जोडकर

आपसे पाथन व ा करती हूँ िक मुिे अब इन चरणो से अलग न कीिजयेगा। मै।

सनयस ले लूँगी और आपके संग रहूँगी। वैरािगनी बनूँगी, भभूित रमाऊँगी; 138

परनत ् आपका संग न छोडू ँ गी। पाणनाथ! मैने बहुत द :ु ख सहे है , अब यह जलन नहीं सकी जाती।

यह कहते-कहते माधवी का कंठ रँ ध गया और आँखो से पेम की धारा

बहने लगी। उससे वहाँ न बैठा गया। उठकर पणाम िकया और िवरजन के पास आकर

बातचीत हुई?

बैठ गयी। वज ृ रानी ने उसे गले लगा िलया और पूछा– कया

माधवी- जो तुम चहाती थीं। वज ृ रानी- सच, कया बोले? माधवी- यह न बताऊँगी।

वज ृ रानी को मानो पडा हुआ धन िमल गया। बोली- ईशर ने बहुत

िदनो मे मेरा मनारे थ पूरा िकया। मे अपने यहाँ से िववाह करँ गी।

माधवी नैराशय भाव से मुसकरायी। िवरजन ने किमपत सवर से कहा-

हमको भूल तो न जायेगी? उसकी आँखो से आँसू बहने लगे। ििर वह सवर सँभालकर बोली- हमसे तू िबछुड जायेगी।

माधवी- मै तुमहे छोडकर कहीं न जाऊँगी। िवरजन- चल; बाते ने बना। माधवी- दे ख लेना।

िवरजन- दे खा है । जोडा कैसा पहनेगी? माधवी- उजजवल, जैसे बगुले का पर।

िवरजन- सोहाग का जोडा केसिरया रं ग का होता है । माधवी- मेरा शेत रहे गा।

िवरजन- तुिे चनदहार बहुत भाता था। मै अपना दे दँग ू ी। माधवी-हार के सथान पर कंठी दे दे ना। िवरजन- कैसी बाते कर रही है ? माधवी- अपने शग ं ृ ार की!

िवरजन- तेरी बाते समि मे नहीं आती। तू इस समय इतनी उदास

कयो है ? तूने इस रत के िलए कैसी-कैसी तपसयाएँ की, कैसा-कैसा योग साधा, कैसे-कैसे वत िकये और तुिे जब वह रत िमल गया तो हिषत व नहीं दे ख पडती!

माधवी- तुम िववाह की बातीचीत करती हो इससे मुिे द ु:ख होता है । िवरजन- यह तो पसनन होने की बात है । 139

माधवी- बिहन! मेरे भागय मे पसननता िलखी ही नहीं! जो पकी बादलो

मे घोसला बनाना चाहता है वह सवद व ा डािलयो पर रहता है । मैने िनणय व कर िलया है िक जीवन की यह शेष समय इसी पकार पेम का सपना काट दँग ू ी।

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दे खने मे

25 िव दा ई दस ृ होकर राजा धमिवसंह की ू रे िदन बालाजी सथान-सथान से िनवत

पतीका करने लगे। आज राजघाट पर एक िवशाल गोशाला का िशलारोपण होने वाला था, नगर की हाट-बाट और वीिथयाँ मुसकाराती हुई जान पडती थी। सडृ क के दोनो पाश व मे िणडे और ििणयाँ लहरा रही थीं। गह ृ दार िूलो

की माला पिहने सवागत के िलए तैयार थे, कयोिकआज उस सवदे श-पेमी का शुभगमन है , िजसने अपना सवस व व दे श के िहत बिलदान कर िदया है ।

हष व की दे वी अपनी सखी-सहे िलयो के संग टहल रही थी। वायु िूमती

थी। द ु:ख और िवषाद का कहीं नाम न था। ठौर-ठौर पर बधाइयाँ बज रही

थीं। पुरष सुहावने वस पहने इठालते थे। सीयाँ सोलह शग ं ृ ार िकये मंगलगीत गाती थी। बालक-मणडली केसिरया सािा धारण िकये कलोले करती थीं

हर पुरष-सी के मुख से पसननता िलक रही थी, कयोिक आज एक सचचे जाित-िहतैषी का शुभगमन है िजसेने अपना सवस व व जाित के िहत मे भेट कर िदया है ।

बालाजी अब अपने सुहदो के संग राजघाट की ओर चले तो सूयव

भगवान ने पूव व िदशा से िनकलकर उनका सवागत िकया।

उनका तेजसवी

मुखमणडल जयो ही लोगो ने दे खा सहसो मुखो से ‘भारत माता की जय’ का घोर शबद सुनायी िदया और वायुमंडल को चीरता हुआ आकाश-िशखर तक जा पहुंवा। घणटो और शंखो की धविन िननािदत हुई और उतसव का सरस

राग वायु मे गूज ँ ने लगा। िजस पकार दीपक को दे खते ही पतंग उसे घेर लेते है उसी पकार बालाजी को दे खकर लोग बडी शीघता से उनके चतुिदवक एकि

हो गये। भारत-सभा के सवा सौ सभयो ने आिभवादन िकया। उनकी सुनदर

वािदव याँ और मनचले घोडो नेिो मे खूब जाते थे। इस सभा का एक-एक सभय जाित का सचचा िहतैषी

था और उसके उमंग-भरे शबद लोगो के िचत

को उतसाह से पूण व कर दे ते थे सडक के दोनो ओर दशक व ो की शण े ी थी। बधाइयाँ बज रही थीं। पुषप और मेवो की विृि हो रही थी। ठौर-ठौर नगर की

ललनाएँ शग ं ृ ार िकये, सवण व के थाल मे कपूर, िूल और चनदन िलये आरती करती जाती थीं। और दक ू ाने नवागता वधू की भाँित सुसिजजत थीं। सारा

नगेर अपनी सजावट से वािटका को लिजजत करता था और िजस पकार 141

शावण मास मे काली घटाएं उठती है और रह-रहकर वन की गरज हदय को

कँपा दे ती है और उसी पकार जनता की उमंगवदव क धविन (भारत माता की जय) हदय मे उतसाह और उतेजना उतपनन करती थी। जब बालाजी चौक मे

पहुँचे तो उनहोने एक अदत ु दशय दे खा। बालक-वनृद ऊदे रं ग के लेसदार कोट

पिहने, केसिरया पगडी बाँधे हाथो मे सुनदर छिडयाँ िलये माग व पर खडे थे। बालाजी को दे खते ही वे दस-दस की शिेणयो मे हो गये एवं अपने डणडे बजाकर यह ओजसवी गीत गाने लगे:-

बालाजी तेरा आना मुबारक होवे।

धिन-धिन भागय है इस नगरी के ; धिन-धिन भागय हमारे ।। धिन-धिन इस नगरी के बासी जहाँ तब चरण पधारे । बालाजी तेरा आना मुबारक होवे।।

कैसा िचताकषक व दशय था। गीत यदिप साधारण था, परनतु अनके और

सधे हुए सवरो ने िमलकर उसे ऐसा मनोहर और पभावशाली बना िदया िक पांव रक गये। चतुिदव क सननाटा छा गया। सननाटे मे यह राग ऐसा सुहावना

पतीत होता था जैसे रािि के सननाटे मे बुलबुल का चहकना। सारे दशक व िचत की भाँित खडे थे। दीन भारतवािसयो, तुमने ऐसे दशय कहाँ दे खे? इस समय जी भरकर दे ख लो। तुम वेशयाओं के नतृय-वाद से सनतुि हो गये। वारांगनाओं की काम-लीलाएँ बहुत दे ख चुके, खूब सैर सपाटे िकये ; परनतु यह

सचचा आननद और यह सुखद उतसाह, जो इस समय तुम अनुभव कर रहे हो

तुमहे कभी और भी पाप हुआ था? मनमोहनी वेशयाओं के संगीत और

सुनदिरयो का काम-कौतुक तुमहारी वैषियक इचछाओं को उतेिजत करते है । िकनतु तुमहारे उतसाहो को और िनबल व बना दे ते है और ऐसे दशय तुमहारे

हदयो मे जातीयता और जाित-अिभमान का संचार करते है । यिद तुमने

अपने जीवन मे एक बार भी यह दशय दे खा है , तो उसका पिवि िचहन तुमहारे हदय से कभी नहीं िमटे गा।

बालाजी का िदवय मुखमंडल आितमक आननद की जयोित से पकािशत

था और नेिो से जातयािभमान की िकरणे िनकल रही थीं। िजस पकार कृ षक

अपने लहलहाते हुए खेत को दे खकर आननदोनमत हो जाता है , वही दशा इस समय बालाजी की थी। जब रागे बनद हो गेया, तो उनहोने कई डग आगे बढकर दो छोटे -छोटे बचचो को उठा कर अपने कंधो पर बैठा िलया और बोले, ‘भारत-माता की जय!’

142

इस पकार शनै: शनै लोग राजघाट पर एकि हुए। यहाँ गोशाला का

एक गगनसपशी िवशाल भवन सवागत के िलये खडा था। आँगन मे मखमल का िबछावन िबछा हुआ था। गह ृ दार और सतंभ िूल-पितयो से सुसिजजत खडे थे। भवन के भीतर एक सहस गाये बंधी हुई थीं। बालाजी ने अपने हाथो से उनकी नॉद ँ ो मे खली-भूसा डाला। उनहे पयार से थपिकयॉँ दी। एक िवसतत ृ गह ृ मे संगमर का अिभुज कुणड बना हुआ था। वह दध ू से पिरवूणव था। बालाजी ने एक चुललू दध ू लेकर नेिो से लगाया और पान िकया।

अभी आँगन मे लोग शािनत से बैठने भी न पाये थे कई मनुषय दौडे

हुए आये और बोल-पिणडत बदलू शासी, सेठ उतमचनद और लाला माखनलाल

बाहर खडे कोलाहल मचा रहे है और कहते है । िक हमा को बालाजी से दो-दो बाते कर लेने दो। बदलू शासी काशी के िवखयात पंिणडत थे। सुनदर चनदितलक लगाते, हरी बनात का अंगरखा पिरधान करते औश बसनती पगडी

बाँधत थे। उतमचनद और माखनलाल दोनो नगर के धनी और लकाधीश मनुषये थे। उपािध के िलए सहसो वयय करते और मुखय पदािधकािरयो का सममान और सतकार करना अपना पधान कतववय जानते थे। इन महापुरषो

का नगर के मनुषयो पर बडा दबवा था। बदलू शासी जब कभी शासीथव करते, तो िन:संदेह पितवादी की पराजय होती। िवशेषकर काशी के पणडे और पागवाल तथा इसी पनथ के अनय धािमकगि व तो उनके पसीने की जगह रिधर बहाने का उदत रहते थे। शासी जी काशी मे िहनद ू धमव के रकक और महान ् सतमभ पिसद थे।

उतमचनद और माखनलाल भी धािमक व उतसाह की

मूितव थे। ये लोग बहुत िदनो से बालाजी से शासाथव करने का अवसर ढू ं ढ रहे

थे। आज उनका मनोरथ पूरा हुआ। पंडो और पागवालो का एक दल िलये आ पहुँचे।

बालाजी ने इन महातमा के आने का समाचार सुना तो बाहर िनकल

आये। परनतु यहाँ की दशा िविचि पायी। उभय पक के लोग लािठयाँ सँभाले

अँगरखे की बाँहे चढाये गुथने का उदत थे। शासीजी पागवालो को िभडने के िलये ललकार रहे थे और सेठजी उचच सवर से कह रहे थे िक इन शूदो की

धिजजयॉँ उडा दो अिभयोग चलेगा तो दे खा जाएगा। तुमहार बाल-बॉक ँ ा न होने पायेगा। माखनलाल साहब गला िाड-िाडकर िचललाते थे िक िनकल आये िजसे कुछ अिभमान हो। पतयेक को सबजबाग िदखा दँग ू ा। बालाजी ने

जब यह रं ग दे खा तो राजा धमिवसंह से बोले-आप बदलू शासी को जाकर 143

समिा दीिजये िक वह इस दि ु ता को तयाग दे , अनयथा दोनो पकवालो की हािन होगी और जगत मे उपहास होगा सो अलग।

राजा साहब के नेिो से अिगन बरस रही थी। बोले- इस पुरष से बाते

करने मे अपनी अपितिा समिता हूँ। उसे पागवालो के समूहो का अिभमान है परनतु मै। आज उसका सारा मद चूणव कर दे ता हूँ। उनका अिभपाय इसके

अितिरक और कुछ नहीं है िक वे आपके ऊपर वार करे । पर जब तक मै। और मरे पॉच ँ पुि जीिवत है तब तक कोई आपकी ओर कुदिि से नहीं दे ख

सकता। आपके एक संकेत-माि की दे र है । मै पलक मारते उनहे इस दि ु ता का सवाद चखा दंग ू ा।

बालाजी जान गये िक यह वीर उमंग मे आ गया है । राजपूत जब

उमंग मे आता है तो उसे मरने-मारने क अितिरक और कुछ नहीं सूिता। बोले-राजा साहब, आप दरूदशी होकर ऐसे वचन कहते है ? यह अवसर ऐसे वचनो का नहीं है । आगे बढकर अपने आदिमयो को रोिकये, नहीं तो पिरणाम बुरा होगा।

बालालजी यह कहते-कहते अचानक रक गये। समुद की तरं गो का

भाँित लोग इधर-उधर से उमडते चले आते थे। हाथो मे लािठयाँ थी और नेिो

मे रिधर की लाली, मुखमंडल कुद, भक ृ ु टी कुिटल। दे खते-दे खते यह जनसमुदाय पागवालो के िसर पर पहुँच गया। समय सिननकट था िक लािठयाँ िसर को चुमे िक बालाजी िवदत ु की भाँित लपककर एक घोडे पर सवार हो गये और अित उचच सवर मे बोले:

‘भाइयो ! कया अंधेर है ? यिद मुिे आपना िमि समिते हो तो िटपट

हाथ नीचे कर लो और पैरो को एक इं च भी आगे न बढने दो। मुिे अिभमान है िक तुमहारे हदयो मे वीरोिचत कोध और उमंग तरं िगत हो रहे

है । कोध एक पिवि उदोग और पिवि उतसाह है । परनतु आतम-संवरण उससे भी अिधक पिवि धम व है । इस समय अपने कोध को दढता से रोको। कया तुम अपनी

जाित के साथ कुल का कतववय पालन कर चुके िक इस पकार

पाण िवसजन व करने पर किटबद हो कया तुम दीपक लेकर भी कूप मे िगरना चाहते हो? ये उलोग तमहारे सवदे श बानधव और तुमहारे ही रिधर है । उनहे

अपना शिु मत समिो। यिद वे मूखव है तो उनकी मूखत व ा का िनवारण करना

तुमहारा कतववय है । यिद वे तुमहे अपशबद कहे तो तुम बुरा मत मानो। यिद ये तुमसे युद करने को पसतुत हो तुम नमता से सवीकार कर तो और एक 144

चतुर वैद की भांित अपने िवचारहीन रोिगयो की औषिध करने मे तललीन हो जाओ। मेरी इस आशा के पितकूल यिद तुममे से िकसी ने हाथ उठाया तो वह जाित का शिु

होगा।

इन समुिचत शबदो से चतुिदव क शांित छा गयी। जो जहां था वह वहीं

िचि िलिखत सा हो गया। इस मनुषय के शबदो मे कहां का पभाव भरा

था,िजसने पचास सहस मनुषयो के उमडते हुए उदे ग को इस पकार शीतल

कर िदया ,िजस पकार कोई चतुर सारथी दि ु घोडो को रोक लेता है , और यह शिक उसे िकसने की दी थी ? न उसके िसर पर राजमुकुट था, न वह िकसी

सेना का नायक था। यह केवल उस पिवि ् और िन:सवाथ व जाित सेवा का पताप था, जो उसने की थी। सवजित सेवक के मान और पितिा का कारण

वे बिलदान होते है जो वह अपनी जित के िलए करता है । पणडो और

पागवालो नेबालाजी का पतापवान रप दे खा और सवर सुना, तो उनका कोध

शानत हो गया। िजस पकार सूय व के िनकलने से कुहरा आ जाता है उसी पकार बालाजी के आने से िवरोिधयो की सेना िततर िबतर हो गयी। बहुत से

मनुषय – जो उपदव के उदे शय से आये थे – शदापूवक व बालाजी के चरणो मे मसतक िुका उनके अनुयािययो के वग व मे सिमलत हो गये। बदलू शासी ने

बहुत चाहा िक वह पणडो के पकपात और मूखरवता को उतेिजत करे ,िकनतु सिलता न हुई।

उस समय बालाजी ने एक परम पभावशाली वकृ ता

दी िजसका एक

–एक शबद आज तक सुननेवालो के हदय पर अंिकत है और जो भारत –

वािसयो के िलए सदा दीप का काम करे गी। बालाजी की वकृ ताएं पाय:

सारगिभत व है । परनतु वह पितभा, वह ओज िजससे यह वकृ ता अलंकृत है , उनके िकसी वयाखयान मे दीख नहीं पडते। उनहोने अपने वाकयो के जाद ू से थोडी ही दे र मे पणडो को अहीरो और पािसयो से गले िमला िदया। उस वकतत ृ ा के अंितम शबद थे:

यिद आप दढता से काय व करते जाएंगे तो अवशय एक िदन आपको

अभीि िसिद का सवण व सतमभ िदखायी

दे गा। परनतु धैय व को कभी हाथ से

न जाने दे ना। दढता बडी पबल शिक है । दढता पुरष के सब गुणो का राजा है । दढता वीरता का एक पधान अंग है । इसे कदािप हाथ से न जाने दे ना। तुमहारी परीकाएं होगी। ऐसी दशा मे दढता के अितिरक कोई िवशासपाि 145

पथ-पदशक व नहीं िमलेगा। दढता अपना नाम छोड जाती है ’।

यिद सिल न भी हो सके, तो संसार मे

बालाजी ने घर पहुचक ं र समाचार-पि खोला, मुख पीला हो गया, और

सकरण हदय से एक ठणडी सांस िनकल आयी। धमिवसंह ने घबराकर पूछा– कुशल तो है ?

बालाजी–सिदया मे नदी का बांध िट गया बस साहस मनुषय गह ृ हीन

हो गये।

धमिवसंह- ओ हो।

बालाजी– सहसो मनुषय पवाह की भेट हो गये। सारा नगर नि हो

गया। घरो की छतो पर नावे चल रही है । भारत सभा के लोग पहुच गये है और यथा है ।

शिक लोगो की रका कर रहे है , िकनतु उनकी संखया बहुत कम

धमिवसंह(सजलनयन होकर) हे इशर। तू ही इन अनाथो को नाथ है ।

गयीं। तीन घणटे तक िनरनतर मूसलाधार पानी बरसता रहा। सोलह इं च

पानी िगरा। नगर के उतरीय िवभाग मे सारा नगर एकि है । न रहने को गह ृ है , न खाने को अनन। शव की रािशयां लगी हुई है बहुत से लोग भूखे मर जाते है । लोगो के िवलाप और करणाकनदन से कलेजा मुंह को आता है । सब उतपात–पीिडत मनुषय बालाजी को बुलाने की रट लगा रह है । यह है िक मेरे पहुंचने से उनके द ु:ख दरू हो जायंगे।

उनका िवचार

कुछ काल तक बालाजी धयान मे मगन रहे , ततपशात बोले–मेरा जाना

आवशयक है । मै तुरंत जाऊंगा। आप सिदयो की , ‘भारत सभा’ की तार दे दीिजये िक वह इस कायव मे मेरी सहायता करने को उदत ् रहे ।

राजा साहब ने सिवनय िनवेदन िकया – आजा हो तो मै चलूं ?

बालाजी – मै पहुंचकर आपको सूचना दँग ू ा। मेरे िवचार मे आपके जाने

की कोई आवशयकता न होगी।

धमिवसंह -उतम होता िक आप पात:काल ही जाते।

बालाजी – नहीं। मुिे यहॉँ एक कण भी ठहरना किठन जान पडता है ।

अभी मुिे वहां तक पहुचंने मे कई िदन लगेगे।

पल – भर मे नगर मे ये समाचार िैल गये िक सिदयो मे बाढ आ

गयी और बालाजी इस समय वहां आ रहे है । यह सुनते ही सहसो मनुषय बालाजी को पहुंचाने के िलए िनकल पडे । नौ बजते–बजते दार पर पचीस 146

सहस मनुषयो क समुदाय एकि ् हो गया। सिदया की दघ व ना पतयेक मनुषय ु ट

के मुख पर थी लोग उन आपित–पीिडत मनुषयो की दशा पर सहानुभूित

और िचनता पकािशत कर रहे थे। सैकडो मनुषय बालाजी के संग जाने को

किटबद हुए। सिदयावालो की सहायता के िलए एक िणड खोलने का परामशव होने लगा।

उधर धमिवसंह के अनत: पुर मे नगर की मुखय पितिित िसयो ने आज

सुवामा को धनयावाद दे ने के िलए एक सभा एकि की थी। उस उचच पसाद का एक-एक कौना िसयो से भरा हुआ

था। पथम वज ृ रानी ने कई

के साथ एक मंगलमय सुहावना गीत गाया। उसके पीछे सब िसयां

िसयो

मणडल

बांध कर गाते – बजाते आरती का थाल िलये सुदामा के गह ृ पर आयीं। सेवती और चनदा अितिथ-सतकार करने के िलए पहले ही से पसतुत थी सुवामा पतयेक मिहला से गले िमली और उनहे आशीवादव िदया िक तुमहारे

अंक मे भी ऐसे ही सुपूत बचचे खेले। ििर रानीजी ने उसकी आरती की और

गाना होने लगा। आज माधवी का मुखमंडल पुषप की भांित िखला हुआ था। माि वह उदास और िचंितत न थी। आशाएं िवष की गांठ है । उनहीं आशाओं

ने उसे कल रलाया था। िकनतु आज उसका िचि उन आशाओं से िरक हो

गया है । इसिलए मुखमणडल िदवय और नेि िवकिसत है । िनराशा रहकर उस दे वी ने सारी आयु काट दी, परनतु आशापूणव रह कर उससे एक िदन का द ु:ख भी न सहा गया।

सुहावने रागो के आलाप से भवन गूज ं रहा था िक अचानक सिदया का

समाचार वहां भी पहुंचा और राजा धमिवसहं यह कहते यह सुनायी िदये – आप लोग बालाजी को िवदा करने के िलए तैयार हो जाये वे अभी सिदया जाते है ।

यह सुनते ही अधरवािि

का सननाटा छा गया। सुवामा घबडाकर उठी

और दार की ओर लपकी, मानो वह बालाजी को रोक लेगी। उसके संग सब – की–सब िसयां उठ खडी हुई और उसके पीछे –पीछे चली। वज ृ रानी ने कहा –चची। कया उनहे बरबस िवदा करोगी ? अभी तो वे अपने कमरे मे है । ‘मै उनहे न जाने दंग ू ी। िवदा करना कैसा ?

वज ृ रानी- मै कया सिदया को लेकर चाटू ं गी ? भाड मे जाय। मै भी तो कोई हूं? मेरा भी तो उन पर कोई अिधकार है ?

147

वज ृ रानी –तुमहे मेरी शपथ, इस समय ऐसी बाते न करना। सहसो

मनुषय केवल उनके भरासे पर जी रहे है । यह न जायेगे तो पलय हो जायेगा।

माता की ममता ने मनुषयतव और जािततव को दबा िलया था, परनतु

वज ृ रानी ने समिा–बुिाकर उसे रोक िलया। सुवामा इस घटना को समरण

करके सवद व ा पछताया करती थी। उसे आशय व होता था िक मै आपसे बाहर

कयो हो गयी। रानी जी ने पूछा-िवरजन बालाजी को कौन जयमाल पिहनायेगा।

िवरजन –आप।

रानीजी – और तुम कया करोगी ?

िवरजन –मै उनके माथे पर ितलक लगाऊंगी। रानीजी – माधवी कहां है ?

िवरजन (धीरे –से) उसे न छडो। बेचार, अपने घयान मे मगन है । सुवामा

को दे खा तो िनकट आकर उसके चरण सपश व िकये। सुवामा ने उनहे उठाकर

हदय मे लगाया। कुछ कहना चाहती थी, परनतु ममता से मुख न खोल

सकी। रानी जी िूलो की जयमाल लेकर चली िक उसके कणठ मे डाल दं ,ू िकनतु चरण थराय व े और आगे न बढ सकीं। वज ृ रानी चनदन का थाल लेकर

चलीं, परनतु नेि-शावण –धन की भित बरसने लगे। तब माधव चली। उसके नेिो मे पेम की िलक थी और मुंह पर पेम की लाली। अधरो पर मिहनी

मुसकान िलक रही थी और मन पेमोनमाद मे मगन था। उसने बालाजी की ओर ऐसी िचतवन से दे खा जो अपार पेम से भरी हुई। तब िसर नीचा करके

िूलो की जयमाला उसके गले मे डाली। ललाट पर चनदन का ितलक लगाया। लोक–संसकारकी नयूनता, वह भी पूरी हो गयी। उस समय बालाजी

ने गमभीर सॉस ली। उनहे पतीत हुआ िक मै अपार पेम के समुद मे वहां जा रहा हूं। धैय व का लंगर उठ गया और उसे मनुषय की भांित जो अकसमात ् जल मे ििसल पडा हो, उनहोने माधवी

ितनके का उनहोने सहारा िलया वह सवयं

की बांह पकड ली। परनतु हां :िजस पेम की धार मे तीब गित से बहा

जा रहा था। उनका हाथ पकडते ही माधवी

के रोम-रोम मे िबजली दौड

गयी। शरीर मे सवेद-िबनद ु िलकने लगे और िजस पकार वायु के िोके से

पुषपदल पर पडे हुए ओस के जलकण पथ ृ वी पर िगर जाते है , उसी पकार माधवी के नेिो से अशु के िबनद ु बालाजी के हाथ पर टपक पडे । पेम के 148

मोती थे, जो उन मतवाली आंखो ने बालाजी को भेट िकये। आज से ये ओंखे ििर न रोयेगी।

आकाश पर तारे िछटके हुए थे और उनकी आड मे बैठी हुई िसयां

यह दशय दे ख रही थी आज पात:काल बालाजी के सवागत मे यह गीत गाया था :

बालाजी तेरा आना मुबारक होवे। और इस समय

िसयां

अपने मन –भावे सवरो से गा रहीं है :

बालाजी तेरा आना मुबारक होवे।

आना भी मुबारक था और जाना भी मुबारक है । आने के समय भी

लोगो की आंखो से आंसूं िनकले थे और जाने के समय भी िनकल रहे है । कल वे नवागत के

अितिथ सवागत के िलए आये

थे। आज उसकी िवदाई

कर रहे है उनके रं ग – रप सब पूवव व त है :परनतु उनमे िकतना अनतर है ।

149

26 य ोिगन ी

मतवा ली

माधवी पथम ही से मुरिायी हुई कली थी। िनराशा ने उसे खाक मे

िमला िदया। बीस वष व की तपिसवनी योिगनी हो गयी। उस बेचारी का भी

कैसा जीवन था िक या तो मन मे कोई अिभलाषा ही उतपनन न हुई, या हुई दद ु ै व ने उसे कुसुिमत न होने िदया। उसका पेम एक अपार समुद था। उसमे ऐसी

बाढ आयी िक जीवन

की आशाएं और

अिभलाषाएं सब नि हो

गयीं। उसने योिगनी के से वस ् पिहन िलये। वह सांसिरक बनधनो से मुक हो गयी। संसार इनही इचछाओं और आशाओं का दस ू रा नाम है । िजसने उनहे नैराशय–नद मे पवािहत कर िदया, उसे संसार मे समिना भम है ।

इस पकार के मद से मतवाली योिगनी को एक सथन पर शांित न

िमलती थी। पुषप की सुगिधं की भांित दे श-दे श भमण करती और पेम के शबद सुनाती ििरती थी। उसके पीत वण व पर गेरए रं ग का वस परम शोभा दे ता था। इस पेम की मूित व को दे खकर लोगो के नेिो थे। जब अपनी वीणा बजाकर कोई

से अशु

टपक पडते

गीत गाने लगती तो वुनने वालो के

िचत अनुराग मे पग जाते थे उसका एक–एक शबद पेम–रस

डू बा होता था।

मतवाली योिगनी को बालाजी के नाम से पेम था। वह अपने पदो मे

पाय: उनहीं की कीित व सुनाती थी। िजस िदन से उसने योिगनी का वेष घारण

िकया और लोक–लाज को पेम के िलए पिरतयाग कर िदया उसी िदन से

उसकी िजहा पर माता सरसवती बैठ गयी। उसके सरस पदो को सुनने के िलए लोग सैकडो कोस चले जाते थे। िजस पकार मुरली की धविन सुनकर गोिपंयां घरो से वयाकुल होकर िनकल पडती थीं उसी पकार इस योिगनी की

तान सुनते ही शोताजनो का नद उमड पडता था। उसके पद सुनना आननद के पयाले पीना था।

इस योिगनी को िकसी ने हं सते या रोते नहीं दे खा। उसे न िकसी बात

पर हष व था, न िकसी बात का िवषाद। िजस मन मे कामनाएं न हो, वह कयो

हं से और कयो रोये ? उसका मुख–मणडल आननद की मूित व था। उस पर दिि पडते ही दशक व के नेि पिवि ् आननद से पिरपूणव हो जाते थे।

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