सतस ंग म ििमा शो कनाश क उपद ेश भगवान राम जी को राजय की जगि बनवास िमला। भरत जी अयोधया आये। उनिोने दे खा िक कौसलयाजी बिुत िवलाप कर रिी िै तो उनिोने उनके पाँव पकड िलए और बोले िक "म
ााँ ! तुम मेरी बात मानो। राम के राजयािभषेक मे िवघन डालने के िलए कैकेयी ने जो कुछ िकया िै या दस ू री जो बाते िै वे मै िबलकुल निीं जानता िूँ। मेरा उनसे अँशमात भी संबंध निीं िै ।
मुझे सौ-सौ बहितयाएँ करने का पाप िो, यिद मुझे उनकी कुछ जानकारी िो या उनमे मेरी कोई चेषा रिी िो। अरनधती-विसष को मारने से जो पाप लगेगा, वि पाप मुझे लगे।" ऐसी उनिोने
शपथ ली और रोने लग गये। कौसलया ने उनको छाती से लगाया, बोलीं- "बेटा ! मै जानती िूँ। इसके िलए शपथ लेने की जररत निीं िै । शोक मत करो।"
भरतजी आ गये िै यि बात मालूम पडने पर विसषजी राजमंिदर मे आये। भरत को रोते
दे खकर विसषजी सांतवनापद परमोचच उपदे श दे ने लगेः
"दे खो भरत ! राजा दशरथ बडे -बूढे थे, जानी थेष उनका पराकम सतय था। उनिोने
मतयल य ोक मे िजतना सुख िमलता िै सब भोगा और बडी-बडी दििणाएँ दे कर अशमेधािद बडे -बडे यज िकये तथा उनको राम जैसा परमेशर पुत के रप मे पाप िुआ। अंत मे वे दे वलोक मे गये
और उनको इनद का अधास य न िमला। तुम अब उनके िलए शोक मत करो। वे शोक करने योगय निीं िै , वे तो मोि के पात िै ।
यि शरीर अिनतय िै और आतमा िनतय िै । शरीर का वयय िोता िै और आतमा का वयय
निीं िोता। शरीर अशुद िै और आतमा शुद िै । शरीर का जनम-मरण िोता िै , आतमा का जनम मरण निीं िोता। शरीर अतयंत जड िै , अतयंत अपिवत िै और अतयंत िवनशर िै तथा आतमा
चेतन िै , परम पिवत िै और अिवनाशी िै । यिद आतमा और अनातम इन दोनो के भेद का िवचार िकया जाये तो किीं भी शोक का अवकाश निीं िै । कोई भी मरे , चािे िपता मरे चािे बेटा मरे – िपता व तनयो वािप यिद म
ृ तयुवश ं गत ः – मनुषय का जीवन िै तो उसके सामने बाप भी
मर सकता िै और बेटा भी मर सकता िै । यिद ऐसा िो जाये तो उसके िलए शोक निीं करना चाििए। अपने आतमा को ताडना निीं दे नी चाििए। यि संसार िनःसार िै । यिद जािनयो के
जीवन मे कोई िवयोग का अवसर आता िै तो उनका वैरागय और बढता िै उनकी शांित और
बढती िै , उनको और सुख िमलता िै , वे िनििंत िो जाते िै । संसार के वयिियो और वसतुओं का िवयोग समझदारो को वैरागय, शांित, सुख दे जाता िै ।
जो संसार मे जनम लेता िै उसके पीछे मतृयु लगी िुई िै । इसिलए िजसका जनम िै
उसकी मतृयु अपिरिायय िै । सवकम य व शत ः सव य ज नतूना ं पभवापययौ
– अपने-अपने कमो के
अनुसार सभी पािणयो का जनम और मरण िोता िै । जो समझदार िै वि इस तरि संसार मे कयो शोक करे गा? अब तक करोड-करोड बहांड बने िै और िबगड गये िै – बहाणडकोटयो सृ षयो बि ु शो ग ताः –
नषाः
न जाने िकतनी सिृषयाँ बदल गयी िै , िकतने िी समुद सूख चुके िै ।
यि तो एक बुलबुला – िणमात का जीवन िै , इसके िलए शोक करने का कया कारण िै ? मरण ं पकृ ितः शरीिरण ां िव कृित जीिवतम ु चयत े बु धैः।
जैसे पानी का बुलबुला पैदा िुआ तो िमटकर पानी मे िमल जाना यि उसका सवभाव िै ।
यिद वि थोडी दे र तक बना रिता िै तो यि तो पानी का िवकार िै । तो पानी का िवकार बुलबुले का िोना और पानी का सवभाव िै बुलबुले का िमट जाना। इसिलए मरना सवभाव िै , जीना
िबलकुल िवकार िै , इसके िलए दःुखी िोने का कोई कारण निीं िै । जैसे पीपल के पते की पूँछ पर, उसकी नोक पर एक पानी की बूँद जाकर लटक गयी िो, अब िगरी-तब िगरी.... इसी पकार इस जीवन की िसथित िै ।
आप तीन िवभाग कर लो। संसार को दे खनेवाला जीवातमा, करोड-करोड अनिगनत
जीवातमाओं को दे खने वाला एक परमेशर और उस परमेशर का पकाशक सवयं पकाश सािात ् परबह, िजसमे ईशर, जीव, जगत का कोई भेद निीं िै । वि अपना अनुभवसवरप िै । वि आनंदसवरप िै , बुिद आिद का
सािी िै । उसमे सिृष का उतपित-लय िबलकुल निीं िै ।
मिावाकय के दारा इसकी विृत अंतःकरण मे करायी जाती िै और जब वि अजान को
िमटा दे ती िै तो उसके साथ सवयं िमट जाती िै तथा आतमा से अिभनन परमातमा िी रिता िै । जो सबसे परे परमातमा िै वि एक िी िै और अिदतीय िै , उसके िसवाय दस ू री कोई वसतु निीं िै , वि सम िै । इस पकार आतमा का दढ जान पाप करे शोक छोड दो और िपता का िकयाकमय करो।"
जब गुरजी ने ऐसा समझाया तो भरत जी ने अजानजिनत शोक छोड िदया और गुर के
बताये िुए ढं ग से िपता की अंतिकया की।
गुर अंतःकरण मे जान-विृत का सजन य करते िै , िविभनन दषानतो एवं युिियो से उसे पुष
करते िै , तथा अंत मे अजान का संिार कर जानविृत को भी बािधत कर दे ते िै । ििर िनदयःुख, िनःशोक सिजावसथा मे िसथित िो जाती िै । इसिलए शास किते िै -
गुरब य हा गुररिवषण ुः ग ुरद ेवो मि ेशरः।
गुरसा य िातपरबह तसम ै श ीगुरव े नमः।। ॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐॐॐॐ