Narayan Kavach.docx

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  • Words: 2,043
  • Pages: 5
32 सेवापराध ों से हटकर करें नारायण कवच शास्त्रों में 32 प्रकार के सेवापराधरों का उल्ले ख ममलता है । यमि 'नारायण कवच' करते समय इन 32 सेवापराधरों से सावधानी बरतें तर ईश्वर उनकी मनरकामना जरूर पूरी करते हैं । श्रीमद्भागवत के अध्याय आठ में नारायण कवच के सोंबोंध में न्यास व कवच पाठ हे तु बताया गया है मक भगवान श्री हरर गरुड़ की पीठ पर अपने चरण-कमल रखे हुए हैं । अमणमामि आठरों मसद्धियााँ उनकी सेवा कर रही हैं । आठ हाथरों में शों ख, चक्र, ढाल, तलवार, गिा, बाण धनु ष और पाश (फोंिा)धारण मकए हुए हैं । वे ही ऊाँकारस्वरूप प्रभु सब प्रकार से, सब ओर से, मत्स्य मूर्ति भगवान जल के भीतर जल जों तुओों से और वरुण के पाश से, वामन भगवान स्थल पर और मवश्वरूप श्री मिमवक्रम भगवान आकाश में , भगवान नृ र्सोंह मकले , जों गल, रणभू मम आमि मवकट स्थानरों में , अपनी िाढ़रों पर पृथ्वी कर धारण करने वाले यज्ञ मू मति वराह भगवान मागि में , परशुरामजी पवितरों के मशखररों पर और लक्ष्मणजी के समहत भगवान रामचोंद्रजी प्रवास के समय, भगवान नारायण मारण, मरहन आमि भयोंकर अमभचाररों और सब प्रकार के प्रमािरों से, ऋर्िश्रेष्ठ नर गवि से, य गे श्वर भगवान दत्तात्रय यरग के मवघ्रों से और र्त्रगु णार्धपर्त भगवान कर्पल कमि बोंधनरों से, परमर्िि सनतकुमार कामिे व से, हयग्रीव भगवान मागि में चलते समय िे वमू मतियरों कर नमस्कार आमि न करने के अपराध से, दे वर्िि नारद 'सेवापराधरों' से, भगवान कच्छप सब प्रकार के नरकरों से, भगवान धनवों तरर कुपथ्य से, मजतेंमिय भगवान ऋिभदे व सुख-िु ुःख आमि भयिायक द्वों द्वरों में , यज्ञ भगवान लरकापवाि से, बलरामजी मनु ष्यकृत कष्रों से और श्री शेिजी मवषै ले एवों क्ररधी सााँ परों से, भगवान श्री कृष्ण द्वै पायन व्यास की अज्ञान से तथा बु द्धदे व पाखों मियरों से और प्रमाि से, भगवान कल्कि पाप बहुल कमलकाल के िरषरों से, प्रातुःकाल भगवान केशव अपनी गिा ले कर, कुछ मिन चढ़ आने पर भगवान ग र्वन्द अपनी बााँ सुरी ले कर, िरपहर कर भगवान र्वष्णु चक्रराज सुिशि न ले कर और िरपहर के बाि भगवान मधु सूदन अपना धनुष ले कर, सायोंकाल में ब्रह्मा आमि मिमू मतिधारी माधव, सूयाि स्त के बाि ऋिीकेश, अधिरामि के समय तथा उसके पूवि अकेले भगवान पद्मनाभ, रामि के मपछले प्रहर में श्री वत्सलाञ्छन हरर, उषाकाल में खि् गधारी भगवान जनादि न, सूयोिय से पूवि श्री दाम दर और सम्पू णि सोंध्याओों में कालमू मति भगवान र्वश्वेश्वर मे री रक्षा करें । उपररक्त कवच में िे वमषि नारि 'सेवापराधरों' से रक्षा करने के सोंबोंध में शास्त् में बत्तीस प्रकार के सेवापराध माने गए हैं ।

1. सवारी पर चढ़कर अथवा पैररों में खड़ाऊ पहनकर श्रीभगवान के मोंमिर में जाना। 2. रथयािा, जन्माष्मी आमि उत्सवरों का न करना या उनके िशि न न करना। 3. श्रीमू मति के िशि न करके प्रणाम न करना। 4. अशौच-अवस्था में िशिन करना। 5. एक हाथ से प्रणाम करना। 6. पररक्रमा करते समय भगवान के सामने आकर कुछ िे र न रुककर मफर पररक्रमा करना अथवा केवल सामने ही पररक्रमा करते रहना। 7. श्री भगवान के श्रीमवग्रह के सामने पैर पसारकर बैठना। 8. िरनरों घुटनरों कर ऊाँचा करके उनकर हाथरों से लपेटकर बैठ जाना। 9. मू मति के समक्ष सर जाना। 10. भरजन करना। 11. झूठ बरलना। 12. श्री भगवान के श्रीमवग्रह के सामने जरर से बरलना। 13. आपस में बातचीत करना। 14. मूमति के सामने मचल्लाना। 15. कलह करना। 16. पीड़ा िे ना। 17. मकसी पर अनु ग्रह करना। 18. मनष्ठु र वचन बरलना। 19. कम्बल से सारा शरीर ढाँ क ले ना। 20. िू सररों की मनन्दा करना। 21. िू सररों की स्तु मत करना। 22. अश्लील शब्द बरलना। 23. अधरवायु का त्याग करना। 24. शद्धक्त रहते हुए भी गौण अथाि त सामान्य उपचाररों से भगवान की सेवा पूजा करना। 25. श्री भगवान कर मनवेमित मकए मबना मकसी भी वस्तु का खाना-पीना। 26. मजस ऋतु में जर फल हर, उसे सबसे पहले श्री भगवान कर न चढ़ाना। 27. मकसी शाक या फलामि के अगले भाग कर तरड़कर भगवान के व्योंजनामि के मलए िे ना। 28. श्री भगवान के श्रीमवग्रह कर पीठ िे कर बैठना। 29. श्री भगवान के श्रीमवग्रह के सामने िू सरे मकसी कर भी प्रणाम करना। 30. गुरुिे व की अभ्यथि ना, कुशल-प्रश्न और उनका स्तवन न करना। 31. अपने मुख से अपनी प्रशों सा करना। 32. मकसी भी िे वता की मनोंिा करना। भय का अवसर उपद्धस्थत हरने पर नारायण कवच धारण करके अपने शरीर की रक्षा कर ले नी चामहए। कवच शु ि व मवमधपूविक मकया जाना चामहए।

|| सुिशि न कवच || श्री सुिशि न कवच द्वारा जीवन शिु रमहत करें .. ‘श्रीसुिशि न – चक्र ’ भगवान् मवष्णु का प्रमु ख आयुध है , मजसके माहात्म्य की कथाएाँ पुराणरों में स्थान – स्थान पर मिखाई िे ती है । ‘मत्स्य -पुराण ’ के अनु सार एक मिन मिवाकर भगवान् ने मवश्वकमाि जी से मनवेिन मकया मक ‘कृपया मे रे प्रखर तेज कर कुछ कम कर िें , क्रोंमक अत्यमधक उग्र तेज के कारण प्रायुः सभी प्राणी सन्तप्त हर जाते हैं ।’ मवश्वकमाि जी ने सूयि कर ‘चक्र – भू मम ’ पर चढ़ा कर उनका तेज कम कर मिया। उस समय सूयि से मनकले हुए तेज –पुञ्रों कर ब्रह्माजी ने एकमित कर भगवान् मवष्णु के ‘सुिशि न – चक्र ’ के रुप में , भगवान् मशव के ‘ मिशूल′रुप में तथा इन्द्र के ‘वज्र ’ के रुप में पररणत कर मिया। ‘पद्म -पुराण ’ के अनु सार मभन्न – मभन्न िे वताओों के तेज से युक्त ‘सुिशि न – चक्र ’ कर भगवान् मशव ने श्रीकृष्ण कर मिया था। ‘ वामन -पुराण ’के अनु सार भी इस कथा की पुमष् हरती है । ‘मशव -पुराण ’ के अनु सार ‘खाण्डव -वन ’ कर जलाने के मलए भगवान् शों कर ने श्रीकृष्ण कर ‘ सुिशि न -चक्र ’ प्रिान मकया था। इसके सम्मुख इन्द्र की शद्धक्त भी व्यथि थी। ‘वामन -पुराण ’ के अनु सार िामासुर नामक भयोंकर असुर कर मारने के मलए भगवान् शोंकर ने मवष्णु कर ‘ सुिशि न- चक्र ’ प्रिान मकया था। बताया है मक एक बार भगवान् मवष्णु ने िे वताओों से कहा था मक ‘आप लरगरों के पास जर अस्त् हैं , उनसे असुररों का वध नहीों मकया जा सकता। आप सब अपना – अपना तेज िें । ’ इस पर सभी िे वताओों ने अपना – अपना तेज मिया। सब तेज एकि हरने पर भगवान् मवष्णु ने भी अपना तेज मिया। मफर महािे व शों कर ने इस एकमित तेज के द्वारा अत्युत्तम शस्त् बनाया और उसका नाम ‘सुिशि न – चक्र ’ रखा। भगवान् मशव ने ‘सुिशिन- चक्र ’ कर िु ष्रों का सोंहार करने तथा साधुओों की रक्षा करने के मलए मवष्णु कर प्रिान मकया। ‘हरर – भद्धक्त- मवलास ’ में मलखा है मक ‘सुिशि न-चक्र ’ बहुत पुज्य है । वैष्णव लरग इसे मचह्न के रुप में धारण करें । ‘गरुड़ -पुराण ’ में ‘सुिशिन – चक्र ’ का महत्त्व बताया गया है और इसकी पूजा – मवमध िी गई है । ‘श्रीमि् – भागवत ’ में ‘सुिशिन – चक्र ’ की स्तु मत इस प्रकार की गई है – ‘ हे सुिशि न! आपका आकार चक्र की तरह है । आपक ेे मकनारे का भाग प्रलय – कालीन अमि के समान अत्यन्त तीव्र है । आप भगवान् मवष्णु की प्रेरणा से सभी ओर घूमते हैं । मजस प्रकार अमि वायु की सहायता से शु ष्क तृण कर जला िालती है , उसी प्रकार आप हमारी शिु – सेना कर तत्काल जला िीमजए। ’ ‘मवष्णु – धमोत्तर -पुराण ’ में ‘सुिशि न – चक्र ’ का वणिन एक पुरुष के रुप में हुआ है । इसकी िर आाँ खें तथा बड़ा – सा पेट है । चक्र का यह रुप अने क अलों काररों से सुसद्धित तथा चामर से युक्त है । वल्लभाचायि कृत ‘सुिशि न -कवच ’—– वैष्णवानाों मह रक्षाथं , श्रीवल्लभुः – मनरुमपतुः। सुिशि न महामन्त्रर, वैष्णवानाों महतावहुः।।

मन्त्रा मध्ये मनरुप्यन्ते , चक्राकारों च मलख्यते। उत्तरा – गभि - रक्षाों च , परीमक्षत – महते- रतुः।। ब्रह्मास्त् – वारणों चैव , भक्तानाों भय – भञ्नुः। वधों च सुष् -िै त्यानाों , खण्डों - खण्डों च कारयेत्।। वैष्णवानाों महताथाि य , चक्रों धारयते हररुः। पीताम्बरर पर- ब्रह्म, वन – माली गिाधरुः।। करमट – कन्दपि-लावण्यर , गरमपका -प्राण – वल्लभुः। श्री – वल्लभुः कृपानाथर , मगररधरुः शिु मिि नुः।। िावामि -िपि – हताि च , गरपीनाों भय – नाशनुः। गरपालर गरप -कन्यामभुः , समावृत्तरऽमध – मतष्ठते।। वज्र – मण्डल- प्रकाशी च , कामलन्दी -मवरहानलुः। स्वरुपानन्द-िानार् थों , तापनरत्तर -भावनुः।। मनकुञ् -मवहार-भावािे , िे मह मे मनज िशि नम् । गर –गरमपका -श्रु ताकीणो , वेणु –वािन -तत्परुः।। काम – रुपी कला -वाों श्च , काममन्याों कामिर मवभु ुः। मन्मथर मथु रा – नाथर , माधवर मकर -ध्वजुः।। श्रीधरुः श्रीकरश्चै व , श्री-मनवासुः सताों गमतुः। मु द्धक्तिर भुद्धक्तिरमवष्णु ुः , भू – धरर भु त -भावनुः।। सवि -िु ुःख – हरर वीरर , िु ष् – िानव-नाशकुः। श्रीनृ मसोंहर महामवष्णुुः, श्री-मनवासुः सताों गमतुः।। मचिानन्द – मयर मनत्युः , पूणि – ब्रह्म सनातनुः। करमट –भानु - प्रकाशी च , करमट – लीला –प्रकाशवान् ।। भक्त – मप्रयुः पद्म – ने िर , भक्तानाों वाद्धित -प्रिुः। हृमि कृष्णर मु खे कृष्णर , ने िे कृष्णश्च कणियरुः।। भद्धक्त – मप्रयश्च श्रीकृष्णुः , सवं कृष्ण – मयों जगत्। कालों मृ त्युों यमों िू तों, भू तों प्रेतों च प्रपूयते।। “ॐ नमर भगवते महा- प्रतापाय महा – मवभू मत- पतये , वज्र – िे ह वज्र – काम वज्र – तुण्ड वज्र – नख वज्र -मुख वज्र – बाहु वज्र – ने ि वज्र – िन्त वज्र – कर-कमठ भू मात्म-कराय , श्रीमकर- मपोंगलाक्ष उग्र –प्रलय कालामिरौि- वीर- भिावतार पूणि –ब्रह्म परमात्मने , ऋमष -मु मन – वन्द्य- मशवास्त्- ब्रह्मास्त्- वैष्णवास्त्- नारायणास्त्काल- शद्धक्त- िण्ड-कालपाश -अघररास्त्- मनवारणाय , पाशुपातास्त्- मृिास्त् -सविशद्धक्त- परास्त -कराय , पर – मवया- मनवारण अमि -िीप्ताय , अथवि -वेि- ऋग्वे ि- साम – वेि -यजु वेि- मसद्धि-कराय , मनराहाराय , वायु – वेग मनरवेग श्रीबाल- कृष्णुः प्रमतषठानन्द – करुः स्थल -जलामि –गमे मतरि् -भे मि , सवि – शिु छे मि – छे मि, मम बैरीन् खाियरत्खािय , सञ्ीवन – पवितरच्चाटय, िामकनी – शामकनी – मवध्वों स – कराय महा – प्रतापाय मनज – लीला- प्रिशि काय मनष्कलों कृत – नन्द-कुमार – बटु क- ब्रह्मचारी -मनकुञ्स्थ-भक्त – स्नेह- कराय िु ष् – जन

स्तम्भनाय सवि-पाप – ग्रह- कुमागि-ग्रहान् छे िय छे िय, मभद्धन्द- मभद्धन्द, खािय, कण्टकान् तािय तािय मारय मारय, शरषय शरषय, ज्वालय- ज्वालय, सोंहारय – सोंहारय, (िे वित्तों ( नाशय नाशय , अमत – शरषय शरषय , मम सविि रक्ष रक्ष, महा –पुरुषाय सवि – िु ुःख- मवनाशनाय ग्रह- मण्डल- भू त- मण्डल- प्रेत- मण्डल- मपशाच- मण्डल उच्चाटन उच्चाटनाय अन्तर-भवामिक – ज्वर- माहे श्वर – ज्वर- वैष्णव- ज्वर-ब्रह्म – ज्वर-मवषम – ज्वर -शीत – ज्वर- वात- ज्वर- कफ- ज्वर-एकामहक -द्वामहक- त्र्यामहक- चातुमथि क- अिि - मामसक मामसक षाण्मामसक सम्वत्सरामि- कर भ्रमम – भ्रमम, छे िय छे िय, मभद्धन्द मभद्धन्द, महाबल- पराक्रमाय महा -मवपमत्त- मनवारणाय भक्र जन- कल्पना – कल्प- िुमाय- िु ष्- जन- मनररथ-स्तम्भनाय क्ीों कृष्णाय गरमवन्दाय गरपी -जन – वल्लभाय नमुः।। मपशाचान् राक्षसान् चैव, हृमि – ररगाों श्च िारुणान् भू चरान् खे चरान् सवे , िामकनी शामकनी तथा।। नाटकों चेटकों चैव, छल –मछिों न दृश्यते। अकाले मरणों तस्य, शरक – िरषर न लभ्यते।। सवि -मवघ्- क्षयों याद्धन्त , रक्ष मे गरमपका – मप्रयुः। भयों िावामि- चौराणाों , मवग्रहे राज – सोंकटे ।। ।।फल -श्रु मत।। व्याल -व्याघ्र -महाशिु - वैरर– बन्धर न लभ्यते। आमध –व्यामध-हरश्चै व , ग्रह -पीिा –मवनाशने ।। सोंग्राम -जयिस्तस्माि् , ध्याये िे वों सुिशि नम् । सप्तािश इमे श्लरका , यन्त्र – मध्ये च मलख्यते।। वैष्णवानाों इिों यन्त्रों , अन्ये भ्श्श्च न िीयते। वोंश –वृद्धिभि वेत् तस्य, श्ररता च फलमाप्नुयात्।। सुिशि न -महा -मन्त्रर , लभते जय – मों गलम्।। सवि – िु ुःख- हरश्चे िों , अोंग- शूल-अक्ष -शूल- उिर- शूल- गुि -शू ल -कुमक्ष- शूल- जानु - शू ल-जों घ -शूल -हस्त शू ल – पाि-शूल – वायु-शू ल – स्तन- शूल- सवि- शूलान् मनमूिलय , \ िानव – िै त्य- कामममन वेताल – ब्रह म् - राक्षस -कालाहल- अनन्त – वासुकी- तक्षक- ककोट – तक्षक- कालीयस्थल -ररग -जल- ररग- नाग- पाश- काल- पाश- मवषों मनमविषों कृष्ण! त्वामहों शरणागतुः। वैष्णवाथं कृतों यि श्रीवल्लभ- मनरुमपतम् ।। ॐ इसका मनत्य प्रातुः और रािी में सरते समय पाों च – पाों च बार पाठ करने माि से ही समस्त शिु ओों का नाश हरता है और शिु अपनी शिु ता छरड़ कर ममिता का व्यवहार करने लगते है . शु भमस्तु !!!!

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