Nai Chetna Mahendra Bhatnagar

  • November 2019
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  • Words: 9,702
  • Pages: 109
मह भटनागर का क वता सं ह –

नई चेतना

-भा षक क व — ह द और अं ेज़ी।

सन ्१९४१ के लगभग अंत से का य-रचना आर भ। तब क व (प



वष य) ' व टो रया कॉलेज, वािलयर' म इं टरमी डएट ( थम वष) का छा

था। स भवतः थम क वता 'सुख-दख ु ' है ; जो वा षक प का

' व टो रया कॉलेज मेगज़ीन' के कसी अंक म छपी थी। व तुतः थम कािशत क वता 'हंु कार' है ; जो ' वशाल भारत' (कलक ा) के माच

१९४४ के अंक म कािशत हई। ु

लगभग छह वष क का य-रचना का प र े य वतं ता-पूव भारत; शेष वातं यो र।

ह द क त कालीन तीन का य-धाराओं से स पृ

— रा ीय का य-

धारा, उ र छायावाद गीित-का य, गितवाद क वता।

समाजािथक-रा ीय-राजनीितक चेतना-स प न रचनाकार। सन ्१९४६ से

गितवाद का या दोलन से स



प से स ब । 'हं स'

(बनारस / इलाहाबाद) म क वताओं का काशन। तदपरा तअ य ु जनवाद -वाम प काओं म भी। गितशील ह द क वता के

तीय

उ थान के चिचत ह ता र।

सन ्१९४९ से का य-कृ ितय का

मशः काशन।

गितशील मानवतावाद क व के

के अित र

अ य

प म ित त। समाजािथक यथाथ

मुख का य- वषय — ेम, कृ ित, जीवन-दशन। दद

क गहन अनुभूितय के समा तर जीवन और जगत के ित

आ थावान क व। अद य जजी वषा एवं आशा- व ास के अ त ु अक प वर के सजक।

का य-िश प के

ित वशेष

प से जाग क।

छं दब और मु -छं द दोन म का य-सॄ । छं द-मु

ग ा मक क वता

अ य प। मु -छं द क रचनाएँ भी मा क छं द से अनुशािसत। का य-भाषा म त सम श द के अित र

त व व दे शज श द एवं

अरबी-फ़ारसी (उद)ू , अं ेज़ी आ द के चिलत श द का चुर सव

ांजल अिभ य

के पुर कता। सीिमत वचार -भाव को

योग।

। ल णा- यंजना भी द ु ह नह ं। सहज का य संग-गभ व।

धानता। क वता क अ तव तु के

ित सजग।

२६ जून १९२६ को ातः ६ बजे झाँसी (उ. .) म, ननसार म, ज म। ार भक िश ा झाँसी, मुरार ( वािलयर), सबलगढ़ (मुरैना) म।

शासक य व ालय, मुरार ( वािलयर) से मै क (सन ्१९४१), व टो रया कॉलेज, वािलयर (स ४१-४२) और माधव महा व ालय, उ जैन

(स ्४२-४३) से इं टरमी डएट (सन ्१९४३), व टो रया कॉलेज, वािलयर से बी. ए. (सन ्१९४५), नागपुर व

व ालय से सन ्१९४८ म एम. ए.

( ह द ) और सन ्१९५७ म 'सम यामूलक उप यासकार ेमचंद' वषय पर पी-एच. ड .

जुलाई १९४५ से अ यापन-काय — उ जैन, दे वास, धार, दितया, इं दौर, वािलयर, महू, मंदसौर म।

'कमलाराजा क या नातको र महा व ालय, वािलयर (जीवाजी व

व ालय, वािलयर) से १ जुलाई १९८४ को ोफ़ेसर-अ य

पद से

सेवािनवृ । काय े : च बल-अंचल, मालवा, बुंदेलखंड।



ित शोध-िनदशक — ह द भाषा एवं सा ह य।

अिधकांश सा ह य 'मह का य-सृ

भटनागर-सम ' के छह-खंड म एवं

'मह भटनागर क क वता-गंगा' के तीन खंड म

कािशत।

स पक : डा. मह भटनागर सजना-भवन, ११० बलव तनगर, गांधी रोड, वािलयर — ४७४ ००२ [म. .] फ़ोन : ०७५१-४०९२९०८ / मो. ९८ ९३४ ०९७९३ E-Mail : [email protected] [email protected]

*********

'मह भटनागर क क वता-गंगा' खंड : १



तार के गीत



वहान

३ अ तराल ४ अिभयान ५ बदलता युग ू ६ टटती शृंखलाएँ

खंड : २

७ नयी चेतना ८ मधु रमा



जजी वषा

१० संतरण ११ संवत

खंड : ३

१२ संक प १३ जूझते हए ु १४ जीने के िलए १५ आहत युग १६ अनुभूत- ण १७ मृ यु-बोध : जीवन-बोध १८ राग-संवेदन

ितिनिध संकलन

१९ गीित-संगीित [ ितिनिध गेय गीत] २० मह भटनागर क क वता-या ा [ ितिनिध क वताएँ]

मू यांकन / शोध

[१]

मह भटनागर क का य-संवेदना : अ तःअनुशासनीय आकलन डा. वीर िसंह (जयपुर)

[२]

क व मह भटनागर का रचना-कम डा. करणशंकर साद (दरभंगा)

[३]

डा. मह भटनागर क का य-साधना ममता िम ा ( व.)

[४]

मह भटनागर क क वता : परख और पहचान सं. डा. पा डे य शिशभूषण 'शीतांशु' (अमृतसर)

[५]

डा. मह भटनागर क का य-सृ सं. डा. रामसजन पा डे य (रोहतक)

[६]

डा. मह भटनागर का क व य



सं. डा. र व रं जन (है दराबाद)

[७]

सामा जक चेतना के िश पी : क व मह भटनागर सं. डा. ह रचरण शमा (जयपुर)

[८]

क व मह भटनागर का रचना-संसार सं. डा. वनयमोहन शमा ( व.)

[९]

क व मह भटनागर : सृजन और मू यांकन डा. दगा साद झाला (शाजापुर) ु

[१०]

मह भटनागर क सजनशीलता (शोध / नागपुर व.) डा. वनीता मानेकर (ितरोड़ा-भंडारा / महारा )

[११]

गितवाद क व मह भटनागर : अनुभूित और अिभ य (शोध / जीवाजी व., वािलयर) डा. माधुर शु ला ( व.)

/

[१२]

मह भटनागर के का य का वैचा रक एवं संवेदना मक धरातल (शोध / स बलपुर व., उड़ सा) डा. रजत कुमार षड़ं गी (कोरापुट-उड ़सा)

[१३]

डा. मह भटनागर : य

व और कृ ित व (शोध / कनाटक व.)

डा. मंगलोर अ दलरज़ाक बाबुसाब (गदग-कनाटक) ु

[१४]

डा. मह भटनागर के का य का नव- वछं दतावाद मू यांकन (शोध / दयालबाग ड ड व., आगरा) डा. क वता शमा (आगरा)

[१५]

डा. मह भटनागर के का य म सां कृ ितक चेतना (शोध / कानपुर व.) डा. अलका रानी (क नौज)

[१६]

मह भटनागर के का य म युग-बोध (शोध / लिलतनारायण व., दरभंगा)

डा. मीना गामी (दरभंगा)

********

CRITICAL STUDY OF MAHENDRA BHATNAGAR'S POETRY

[1]The Poetry of Mahendra Bhatnagar : Realistic & Visionary Aspects Ed. Dr. O.P. Budholia

[2]Living Through Challenges : A Study of Dr.Mahendra Bhatnagar's Poetry By Dr. B.C. Dwivedy.

[3] Poet Dr. Mahendra Bhatnagar : His Mind And Art / (In Eng. & French) Ed. Dr. S.C. Dwivedi & Dr. Shubha Dwivedi

Works : Forty Poems of Mahendra Bhatnagar

After The Forty Poems Exuberance and other poems Dr. Mahendra Bhatnagar's Poetry Death-Perception : Life-Perception Poems : For A Better World Passion and Compassion Lyric-Lute A Handful of Light Dawn to Dusk

Translations : In French : A Modern Indian Poet : Dr. Mahendra Bhatnagar : UN POÈTE INDIEN ET MODERNE / Tr. Mrs. Purnima Ray

In Tamil : Kaalan Maarum, Mahendra Bhatnagarin Kavithaigal. In Telugu : Deepanni Veliginchu. In Kannad & In Bangla : Mrityu-Bodh : Jeewan-Bodh.

In Marathi : Samkalp Aaani Anaya Kavita In Oriya : Kala-Sadhna. In Malyalam, Gujrati, Manipuri, Urdu. In Czech, Japanese, Nepali,

******

Links : HINDI www.blogbud.com/author 5652

ENGLISH-FRENCH www.poetrypoem.com/mpb1 ENGLISH (1) www.poetrypoem.com/mpb2 [Selected Poems 1,2,3] (2) www.poetrypoem.com/mpb4 [‘Exuberance and other poems’ / ‘Poems : For A Better World / Passion and Compassion] (3) www.poetrypoem.com/mpb3 [‘Death-Perception : Life-Perception’ / ‘A Handful Of Light’] (4) www.poetrypoem.com/mpb [‘Lyric-Lute’] (5)www.anindianenglishpoet.blogspot.com [‘…A Study Of Dr. Mahendra Bhatnagar’s Poetry’]

(6)www.mahendrabhatnagar.blogspot.com [ Critics & Mahendra Bhatnagar’s Poetry]

तुित : डा. शालीन कुमार िसंह, बदायूँ [उ. .]

नई चेतना

-डॉ. मह

भटनागर

क वताएँ ’

1

बजिलयाँ िगरने नह ं दगे ! ’



2 ललकार ’



3 आजाद का योहार



4 अपरा जत







5 चेतना





6 काटो धान



7 रोक न पाओगे



8 जागते रहगे



9 नया इं सान



10 आँधी



11 झंझावात ’



12 नव-िनमाण ’



13 ज दगी का कारवाँ ’



14 बढ़ते चलो ’



15 नये इं सान से तट थ-वग ’



16 नयी दशा ’



17 पर परा





18 ग त य





19



20 दरू खेत पार

’ ’ ’ ’



या हआ ु

’ ’



21 युग और क व





22 व ास ’



23 आ



24 द पक जलाओ ’



25 आभास होता है



26 आज दे खा है



27 मुझे भरोसा है



28 मुख को िछपाती रह



29 नया समाज ’



30 युगा तर



31 छलना ’



32 मत कहो ’



33 नया युग ’



34 पदचाप ’



35 भोर का आ ान



36 िनरापद

त ’

’ ’ ’











37 सु खयाँ िनहार लो ’



38 युग-प रवतन



39 नयी सं कृ ित ’



40 गंगा बहाओ



41 नयी रे खाएँ



42 भ व य के िनमाताओं ’



43 मेघ-गीत ’



44 बरगद



45 क व ’



’ ’



-----

(1) बजिलयाँ िगरने नह ं दगे!

कुछ लोग चाहे ज़ोर से कतना बजाएँ यु

का डं का

पर, हम कभी भी

शांित का झंडा ज़रा झुकने नह ं दगे ! हम कभी भी शांित क आवाज़ को दबने नह ं दगे !

य क हम इितहास के आर भ से इं सािनयत म, शांित म व ास रखते ह, गौतम और गांधी को दय के पास रखते ह !

कसी को भी सताना पाप सचमुच म समझते ह, नह ं हम यथ म पथ म कसी से जा उलझते ह !

हमारे पास केवल

व -मै ी का पर पर यार का संदेश है ,

हमारा

नेह -

पी ड़त

व त दिनया के िलए ु

अवशेष है ! हमारे हाथ िगरत को उठाएंगे, हज़ार मूक, बंद ,

त, नत,

भयभीत, घायल औरत को दानव के

ू र पंज से बचाएंगे !

हम नादान ब च क हँ सी लगती बड़

यार ;

हम लगती कसान के गड़ रय के गल से गीत क क ड़याँ

मनोहार !

खुशी के गीत गाते इन गल म हम कराह और आह को कभी जाने नह ं दगे ! हँ सी पर ख़ून के छ ंटे कभी पड़ने नह ं दगे !

नये इं सान के मासूम सपन पर कभी भी बजिलयाँ िगरने नह ं दगे ! 1950 (2) ललकार

शैतान के सा ा य म तूफ़ान आया है , जो ज़ दगी को मु

का पैग़ाम लाया है !

इं सान क तक़द र को बदलो, भयभीत हर त वीर को बदलो, हमारे संग ठत बल क यह ललकार है ! मासूम लाश पर खड़ा सा ा य हलता है ,

तम चीर कर जन-श

का सूरज िनकलता है ,

च टान जैसे हाथ उठते ह फ़ौलाद से

ढ़ हाथ उठते ह

अमन के श ु से जो छ नते हिथयार ह ! हमारे संग ठत बल क यह ललकार है !

लो

क गया र



खर सैलाब का पानी,

अब दरू होगी आदमी क हर परे शानी ! सूखी लताएँ लहलहाती ह, नव- योित सागर म नहाती ह, खुशी के मेघ छाये ह, बरसता यार है ! हमारे संग ठत बल क यह ललकार है ! 1951

(3) आज़ाद का योहार

ल जा ढकने को मेर खरगोश सर खी भोली प ी के पास नह ं ह व ,

क जसका रोना सुनता हँू सव

!

घर म, बाहर, सोते-जगते मेर आँख के आगे फर- फर जाते ह वे दो गंगाजल जैसे िनमल आँसू जो उस दन तुमने मैले आँचल से प छ िलए थे !

मेरे दोन छोटे मूक खलौन -से द ु बल ब चे जनके तन पर गो त नह ं है , जनके मुख पर र

नह ं है ,

अभी-अभी लड़कर सोये ह, ु रोट के टकड़े पर, य द व ास नह ं हो तो अब भी तुम उनक ल बी िससक सुन सकते हो जो वे सोते म रह-रह कर भर लेते ह !

जनको वषा क ठं ड रात म म उर से िचपका लेता हँू, तूफ़ान के अंधड़ म बाह म दबका लेता हँू ! ु

य क, नये युग के सपन क ये त वीर ह ! बंजर धरती पर अंकुर उगते धीरे -धीरे ह !

इनक र ा को आज़ाद का योहार मनाता हँू ! ू छ जे पर अपने िगरते घर के टटे कज़ा लेकर आज़ाद के द प जलाता हँू ! अपने सूखे अधर से आज़ाद के गाने गाता हँू ! य क, मुझे आज़ाद बेहद यार है ! मने अपने हाथ से इसक सींची फुलवार है !

पर, सावधान ! लोभी िग द ! य द तुमने इसके फल-फूल पर अपनी

गड़ाई,

तो फर करनी होगी आज़ाद क फर से और लड़ाई ! 1951 (4) अपरा जत

हो नह ं सकती परा जत युग-जवानी !

संग ठत जन-चेतना को, नव-सृजन क कामना को, स वहारा-वग क युग युग पुरानी साधना को, आदमी के सुख-सपन को, शांित के आशा-भवन को, और ऊषा क ललाई से भरे जीवन-गगन को,

मेटने वाली सुनी है

पैर इ पाती कड़े

या कहानी ?

जो

आँिधय से जा लड़े जो, हल न पाये एक पग भी पवत से

ढ़ खड़े जो,

श ु को ललकारते ह, जूझते ह, मारते ह, व

केर कत य पर जो

ज़ दगी को वारते ह, कब िशिथल होती,



खर उनक रवानी !

का आ ान करती,

ाण म उ साह भरती, सुन जसे दबल मनुज क ु शान से छाती उभरती, जो ितिमर म पथ बताती, हर दशा म गूँज जाती, ांित का संदेश नूतन

जा िसतार को सुनाती, बंद हो सकती नह ं जन- ाण-वाणी ! 1951 (5) चेतना

हर दशा म जल उठ

वाला नयी,

लािलमा जीवन-जगत पर छा गयी !

है नयी पदचाप से गुं जत मह , योित अिभनव हर करण बखरा रह !

िछ न स दय का अंधेरा हो गया, राह पर जगमग सबेरा है नया !

यह वगत युग का न कोई साज़ है , प ह बदला धरा ने आज है !

वग-भेद को िमटाने चेतना कर रह सामा य क आराधना !

काल बदला और बदली स यता, दे रह नव फूल सं कृ ित क लता !

फूल वे जनम मधुर सौरभ भरा, मुसकराती पा ज ह भू-उवरा !

वाथ, शोषण क इमारत ढह रह , ू पर सृजन-स र बह रह ! भ न ढह

शीत के लघु-ताप से िसकुड़े हओं ु , पास आता जा रहा ' यूरो िसवो' !

धूप से झुलसे हए ु 'होर ' कृ षक आ रह 'जल क हवा' जीवन-जनक !

उर लगाले जीण 'धिनया'-दे ह को (रोक ले रे ! छलछलाते

नेह को !)

आज तो आकाश अपना हो गया,

आदमी का, स य सपना हो गया ! 1948 (6) काटो धान

काटो धान, काटो धान, काटो धान !

सारे खेत दे खो दरू तक कतने भरे , कतने भरे

/ पूरे भरे !

िघर लहलहाते ह न फूले रे समाते ह ! हवा म िमल कुसुम-से खल

उठो, आओ, चलो, इन जी ण कु टय से बुलाता है तु ह, साथी ! खुला मैदान ! जब हम-नद का चू पड़ा था जल

अनेक धार म चंचल, हमालय से बहायी जो गयी थी धूल उसम आज खलते रे

िमक !

तेरे पसीने से िसँचे ित पेड़ क हर डाल म िसत, लाल, पीले, फूल ! जीन के िलए दे ती तु ह ओ ! आज भू माता सहज वरदान ! आकाश म जब िघर गये थे मॉनसूनी घन सघन काले, दय सूखे हए ु तब आश-रस से भर गये थे झूम मतवाले !

कसी सु दर, सलोनी, कशोर के नयन

व थ, कोमल, मधु

कुछ मूक भाषा म नयी आभा सजाए जगमगाए

ेत-कजरारे !

हए ु साकार भाव से भरे अिभनव सरल जीवन िलए, नूतन जगत के गान ! जो सृ

के िनमाण हत बोए

तु हार साधना ने बीज थे वे प ल वत ! सपने पलक क छाँह म पा चाह शीतल

यो

ना क गोद म खेले !

(अर इन डािलय को बाँह म ले ले !) उठो ! क या-कुमार से अ खल कैलाश के वासी सुनो, गूँजी नयी झंकार ! ह षत हो उठो ! प रवार सारे गाँव के दे खो क िच त हो रहे अरमान ! ू दाँत / सूखे केश, टटे

मुख पर झु रय क वह सहज मुसकान, मु दत मु ध फैला व

म सौरभ

महकता नभ, सजग हो आज मेर दे श का अिभमान ! 1948 (7) रोक न पाओगे

जग म आज सुनायी दे ती आवाज़ नयी, जसक

ित विन भू के कण-कण म गूँज गयी !

समझ गये शो षत-पी ड़त जसका अथ सभी, अब तो जन-श

- वपथ के साधन यथ सभी !

मूक जन को आज िगरा का वरदान िमला, मजीवी-जन को अपना यारा गान िमला,

युग-युग क अव जन-पथ के सब

उपे

त नव-राह खुली,

ार खुले, जग-जनता िनकली !

वजयी घोष से फट-फट पड़ती है तुरह , काँप रहा है आज गगन, काँपी आज मह ! वशृख ं ल; वग क िनिमत सार क ड़याँ, दे श-काल क अब सीमा िमटने क घ ड़याँ !

नक़ली द वार ! नह ं

केगी नयी हवा ,

बस, कर दो राह क बचने क है यह दवा !

जजर सं कृ ित के र क भागो ! आग लगी ! इन अंगार से तो लपट क धार जगी !

इसको और आस

दय से िचपटाना घातक है ,

, तु हार ह काया क भ क है !

1948 (8) जागते रहगे

आग बन गया

उपे

त का वग ;

क ढह रहा

वंचना का दग ु !

प थर के कोयले धधक उठे , लपट मशाल बन हवा के संग अंधकार पर

हार कर रह !

जगमगा उठ दिमत युग क रात; पव है 'नुशरू ' का मृतक शर र क

फोड़

जागता है नींद छोड़ !

जंगल के पेड़ खड़खड़ा उठे ! ये आँिधयाँ ह जो कभी उड़ नह ं, ये बजिलयाँ ह जो कभी िगर नह ं,

क बदिलयाँ गभीर जो कभी िघर नह ं ! गरज से कड़कड़ा रहा दं त पीस



दग- दग त !

संग ठत समूह क दहाड़ से नये समाज म तमाम शोषक के कागज़ी पहाड़ राख हो रहे ! क जड़ समेत सब उखड़ हवा के तामसी महल सहज म ख़ाक हो रहे !

यह आग है क बफ़ क तह से दब न पायगी, क

जल क धार से

कभी भी बुझ न पायगी ! जब तलक है अंधकार शेष इस ज़मीन पर तब तलक

अमीर खटमल -सा चूसता रहे गा िनधन का र

!

हर गली म भूत क डरावनी हँ सी िनराट गूँजती रहे गी तब तलक !

सु तर क चादर को छोड़, ांशु भाल, ा य श ुव

,

तीित ले

उठा रहा

हारना का अ

!

है असाँच-गव मृत, असार अ तमन, वधुर, वप न ; अब वभी षका- वभावर वभास से वभीत पंगला !

नवीन सश

योित का कारवाँ चला,

ू -टट ू कर क िगर रहा है टट क़दम-क़दम पर अंधकार ! जागते रहगे हम, क जब तलक यह

-राह- ार

खुल न जायगा, यह वग-भेद, जाित- े ष िमट न जायगा, हमार धमिनय म ख़ून खौलता रहे गा तब तलक ! 1949 (9) नया इं सान

आज नया इं सान, पड़ चरण क , तोड़ रहा ज़ंजीर !

उबल उठा है

व थ युग क ताक़त का उ माद,

जन-जन के बंद जीवन को करने को आज़ाद,

उजड़े

व त घर को फर से करना है आबाद,

आगे बढ़ना है स दय का छाया सघन अंधेरा चीर !

हलते महल क द वार से आती आवाज़, भय से

त क मान हो ह िगरने वाली गाज,

िमटनेवाला है अब जग का शोषक-जीण-समाज, िन य, अब रह न सकगे दिनया म आदमख़ोर ु अमीर !

जन-बल के क़दम क आहट से गूँजा संसार, दबल बन द ु मन का व ु खुलते जाते अव

दहलता है हर बार,

-पंथ के लो सारे

ार,

अब धार नह ं बाक़ , खा ज़ंग गयी सामंती-शमशीर !

स य

खर अब स मुख आया, जीत गया व ास,

वांिछत नवयुग पास क लु अब रखनी न सुर

हआ पछला आभास, ु

त मन म कोई खोयी आस,

दिनया के परदे पर, हर मानव क आज नयी तसवीर ! ु

आज नया इं सान, पड़ चरण क , तोड़ रहा ज़ंजीर ! 1950 (10) आँधी

बड़ा शोर करती उठ आज आँधी, ितज-से-

ितज तक िघर आज आँधी !

समु दर जसे दे खकर खल खलाया, िन खल सृ

काँपी

लय-भय समाया !

पुराने भवन सब िगरे लड़खड़ाकर, बड़ तेज़ आयीं हवाएँ हहर कर !

दवाकर कसी का िछपा थाम दामन, दहलता भयावह बना व -आँगन !

उमड़ता नये जोश म व य-द रया, लहरता नवल होश म व य-द रया ! केगी न आँधी सर खी जवानी, बना कर रहे गी नयी ह कहानी !

अस भव क ठहरे

कावट पुरानी,

िशिथल हो न पायी कभी भी रवानी !

न रोके

केगी बड़ श

न फ क पड़े गी कभी

शाली, ोह लाली !

क चील उतरती चली आ रह ह, अंधेर घटाएँ घुमड़ छा रह ह !

मगर खोल सीना अकेला डगर पर बढ़ा जा रहा जूझता जो िनर तर,

वह



ढ़ श

-युग का त ण है ,

बदलना धरा को क जसक लगन है !

वरोधी

कावट िमटाता चला जो,

नद शांित क नव बहाता चला जो,

वह

ांित आभास-

ा सदा से,

वह

व -इितहास-

उसी क सबल मु

ा सदा से, लंबी भुजाएँ

नये ख़ून से मोड़ दगी हवाएँ ! 1951 (11) झंझावात

पूरब म नयी जन-चेतना का आज झंझावात आया है ! अिमट व ास ने इं सान के उर म, बड़ा मज़बूत अपना घर बनाया है !

तभी तो द ु मन के श

शाली दग ु पर

ोिधत हवाएं दौड़तीं ललकारतीं जा जूझ टकरायीं, क जससे दग ु के

ाचीर, गु बज, कोट होते ह धराशायी ! उभरती श

जनता क

दबाये अब नह ं दबती, धधकती

ोह क

वाला

बुझाये अब नह ं बुझती ! अथक संघष चार ओर नूतन ज़ दगी का है , क नूतन ज़ दगी वह जो िमटाये िमट नह ं सकती !

गगन को घेर कर िचनगा रयाँ जसक चमकती और उड़ती ह, उसी के ताप से फ़ौलाद क

ढ़ शृख ं लाएँ

मुड़ती ह ! बड़ गहर घटाएँ आसमान पर घुमड़ती ह !

न सरकेगी कभी च टान जस पर उठ रह दभ ु

नव द वार !

हं सक भे ड़य नंगे लुटेर क कह ं नीचे दबी है लाश ! होगी सवहारा-वग क िन य सुर ा; य क आया आज पूरब म नयी जन-चेतना का ती

झंझावात !

1950 (12) नव-िनमाण

म िनंरतर राह नव-िनमाण करता चल रहा हँू और चलता ह रहँू गा !

राह - जस पर कंटक का जाल, तम का आवरण है ,

राह - जस पर प थर क रािश, अित दगम वजन है, ु राह - जस पर बह रहा है टायफ़ूनी- वर- भंजन, राह - जस पर िगर रहा हम मौत का जस पर िनमं ण,

म उसी पर तो अकेला द प बनकर जल रहा हँू , और जलता ह रहँू गा !

आज जड़ता-पाश, जीवन ब , घायल युग- वहं गम, फड़फड़ाता पर,

वयं

ाचीर म फँस, जानकर मौन मरघट

त धता है

वर हआ है आज कुं ठत, ु सामने बीहड़ भयातं कत दशाएँ कुहर गुं ठत,

म,



के उजड़े चमन म फूल बनकर खल रहा हँू और खलता ह रहँू गा !

1948 (13) ज़ दगी का कारवाँ

ज़ दगी का कारवाँ

ये

कता नह ं,

कता नह ं !

णक तूफ़ान तो आते गुज़र जाते,

केश केवल कुछ हवा म उड़ बखर जाते ! पर, सतत गितमय क़दम इंसान के कब डगमगाये ? और ताक़त से इसी

ण पैर जनबल ने उठाये !

ज़ दगी का कारवाँ यह आफ़त के सामने झुकता नह ं, झुकता नह ं !

रह नह ं सकती हमेशा यािमनी काली, रोज़ फूटे गी नयी आकाश से लाली दे ख कर जसको, मनुज हर, दौड़ कर पर, ितिमर से डर भयावह



वागत करे गा,

या साँस भरे गा ?

ज़ दगी का कारवाँ यह भा य के िनिमत िसतार को कभी तकता नह ं !

ु मेघ के टकड़े सर खा यह अकेलापन, है बड़ा इससे कह ं चलता हआ जीवन ! ु राह चाहे जल- वह ना, वृ -ह ना, रे तमय हो, राह चाहे



ह ना, घर- वह ना,

योित लय हो,

ज़ दगी का कारवाँ यह हार कर संघष-पथ पर भूल कर थकता नह ं !

जस

दय ने साफ़ अपना ल य दे ख िलया

वह तो बहाएगा सदा ह आस का द रया ! लड़खड़ाता चल रहा जो, मौत क तसवीर है वह, जो

का है म य पथ म, रोग-वाहक नीर है वह, ज़ दगी का कारवाँ यह

िमट िनराशा क नद म डू ब बह सकता नह ं ! 1952 (14) बढ़ते चलो

राह पर बढ़ते चलो !

दरू मं ज़ल है तु हार , पर, क़दम ह गे न भार , आज तक युग क जवानी ने कभी ह मत न हार ! आँिधय से जूझनेवाल ! िनडर हँ स-हँ स

खर बढ़ते चलो !

बल अिमट व ास का है , बल अतुल इितहास का है , बल अथक भावी जगत म फर नये मधुमास का है , ओ युवक ! िनज र इमारत व

से नव- ढ़

म गढ़ते चलो !

तम बखरता जा रहा है , नव सबेरा आ रहा है , सृ

का कण-कण सृजन का गीत अिभनव गा रहा है ,

इसिलए तुम भी नये युग क

ित ा के िलए लड़ते चलो !

1952

(15) नये इं सान से तट थ-वग

ओ नये इं सान ! तुमसे एक मुझको बात करनी है ; बात वह ऐसी क जसको वग के मेरे अनेक मद, औरत, वृ , ब चे, नवयुवक सब चाहते ह आज तुमसे पूछना।

और वह है ज़ दगी क आज से बेहतर, नयी, खुशहाल यार

ज़ दगी क बात !

जो क उस दन, याद है मुझको अधर म

क गयी थी,

य क तुम संघष म रत थे ! वरोधी चोट से सारे तु हारे अंग आहत थे !

तु हारे पास, पर, उ

वल भ व यत ् का बड़ा व ास था,

आदमी क श उसक

का इितहास था;

वजय का िच

आँख म उभरता था, युग का

नेह

इस घायल ध र ी पर बखरता था,

तभी तो तुम दमन के बादल को चीर कर काली मुसीबत क भयानक रात का उर भेद कर, अिभनव करण बनकर नये इं सान क सं ा जगत से पा रहे हो ! और उसको तुम गित पथ पर सतत ले जा रहे हो !

पास मं ज़ल है , उछलता भोर का दल है, बड़ा नज़द क सा हल है ! भरोसा है मुझे िन य तु हारे हर इरादे पर, अकेली बात इतनी है क तुम कैसी नयी दिनया बनाओगे ? ु दय म आज मेरे भी नयी रं गीन दिनया क ु नयी तसवीर है , दिन ु या को बदलने क स वनी पीर है ! या तुम उसे भी दे ख मुझको साथ लेकर चल सकोगे ?◌े य क म अबतक वलग, िनिल

तुमसे

म यवत , दरू, और तट थ था !

1951

(16) नयी दशा

चार ओर है गितरोध ! पथ अव

,

खं डत मा यताएँ ह न, जजर

ढ़य क सामने

ाचीन

फैली 'चीन क द वार' ! कैसे चढ़ सकोगे और कैसे कर सकोगे पार ?

बोलो ! ये पुरातन नीितयाँ, व ास, मृत औ' संकुिचत दशन पुराना ले, पुरानी धारणाओं से, पुरानी क पनाओं से कभी

या जीत पाओगे ?

कभी अपने बनाये ल य को

साकार कर

या दे ख पाओगे ?

बदलते व

के स मुख,

क अनुसंधान जब व ान के बढ़ते चले जाते, नये साधन, कल नूतन व आ व कार बढ़

ितपल

चुनौती आज गव नत 'जगत क छत' खड़े पामीर को दे ते, उठे एवरे ट, गहन

शा त-सागर को,

अनेक

ह-िसतार को,

चमकते दरू चंदा को, नये उ नत वचार के सहारे जो सतत अिधकार म अपने सदा करते बढ़े जाते ! हए ु पूरे न होनी आज चाह के सभी सपने !

ज़रा उठ खोल तो आँख नयी फैली दमकती रोशनी के सामने ! लो फर करो उपयोग, तुम हर व तु का उपभोग ! मनुज हो तुम िलए बल-बु

का भंडार,

मनुजता के सभी अिधकार, गित का है तु ह वरदान, ददम श ु तु हारा

का अिभमान, येय है

तोड़ो पुरानी ज़ दगी के तार, जनम बज न सकती अब मधुर झंकार ! कहाँ तक कर सकोगे शोध ? है सब यथ सारा

ोध !

जब सब डगमगायी ह द वार नींव से िगर कर रहगी ह , क जब ये आँिधयाँ चल द ं शी

आ िघर कर रहगी ह !

ितज से

तु ह तो छोड़ना है आज यह अपन व क हर वासना का

प,

कर दो ब द तम से

त अवनित कूप !

असफल मोह से कर िम या

ोह,

व न क माया,

खड़ बन शू य क िन सार धुँधली

ीण-सी छाया

क जसम है न कोई आज आकषण ! िनरथक

या ?

अरे घातक !

सजग हो जा नह ं तो नाश िन

त है ,

खड़ा हो जा सु ढ़ च टान-सा बनकर नह ं तो धम तेरा रे कलं कत है ,

क बढ़कर रोक ले तूफ़ान वरना आज पौ ष धैय वगिलत है ! न हो भयभीत तेरे सामने हंु कारता है बढ़ ज़माना न य, भावी व

क ले क पना

जनता क

खर आवाज़

ढ़ भ य !

गूँजी आज, जो कंिचत नह ं अब चाहती है 'ताजवाल ' का कह ं भी राज !

पी ड़त,

त, शो षत, सवहारा क

उमड़ती बाढ़-सी धारा, लगाकर यह गगन-भेद सबल नारा नयी दिनया बनानी है ! ु न होगा िच ह जसम एक भी मृत घृ णत पूँजीवाद का, बरबाद होगा व

से

हर

प तानाशाह का,

केवल जगत ् नव-सा य-पथ पर ले सकेगा साँस, सुख क साँस ! जसम आस नूतन ज़ दगी क ह भर होगी, क जसक राह पर चलकर धरा सूखी हर होगी ! िमटा दे गा उसी पथ का बटोह द:ु ख के पवत, वषमता क गहनतम खाइयाँ सब पाट दे गा कम का उ साह, नूतन चेतना क

ेरणा से

ये पुराने सब ू जाएँगे ! क़ले, द वार, दर टट 1949 (17) पर परा

पर परा, पर परा, पर परा !

जकड़ िलया िमटा दया िनशान धूल झ क कर युग चला िलया, गुलाम हो गये बना

वयं अनेक र ितयाँ था बनाम

नवीन नया

ढ़याँ !

वर नह ं सुना ? व प भी नह ं दखा ?

बदल गया जहान स य आ गया खरा ! कहाँ गयी पर परा, पर परा, पर परा ?

अंध मा यता, कठोर मा यता, असार मा यता !

अरे बता क धम ... धम ...

धम ... क पुकार

मच रह , यहाँ वहाँ सभी जगह क मार-धाड़, हो गया मनुज गँवार,

कौन-सा अमू य धम वह सुना रहा ?

क़ुरान ? वेद ? उपिनषद ? पुराण ? बाइ बल ? सभी बदल चुके ! नवीन

थ और एक 'ईश' चा हए,

क जो युगीन जोड़ दे नया, नया, नया ! व लहलहा उठे मनुज-महान-धम क सड़ -गली लता !

सुधार मा यता, नवीन मा यता, सश

मा यता !

न यथ मोह म पड़ो न कुछ यहाँ धरा ! बदल पर परा, पर परा, पर परा ! 1948 (18) ग त य

यह जीवन का ग त य नह ं !

िन फल

य-

त कराह का,

इन सूनी-सूनी राह का, असफल जीवन क आह का, व न-िनमीिलत, मोह- िसत यह जा त-उर का म त य नह ं ! वैय



वाथ पर िनिमत ,

आ म-तु

के साधन सीिमत,

पथ पािथव सुख पर कर ल

त,

जन-मन-राग से दरू कह ं मानवता का भ वत य नह ं ! बीते युग पर पछताने का, या याद पुरानी गाने का, है

येय न आज ज़माने का,

युग क वाणी से रह एकांत-कला

वमुख

या भ य कह ं ?

1952 (19)

या हआ ु ?

वह िशिथल, अ व थ,

ण है शर र,

या हआ पहन िलया नवीन चीर ? ु वह थके चरण, वह दबे नयन, क

या हआ ु

णक सुरा

उतर गयी गले ? िनिमष नज़र के सामने अगर यह छा गया चमन ! सपन बहार आ गयी !

समीर है वह गरम-गरम, मरण-वरण बुख़ार वह िगर रह उसी

कार

शीश से मनु य के अशेष र -धार ! झनझना रहे दय के तार-तार ! 1951 (20) दरू खेत पार

शीत क काली भयावह रात !

ू दरू खेत पार जजर ढह जीवन

त ध,

धुंध भीषण, काँपती

ित

ह;

जन-मन द ध, मूक

ाण के दमन क बात !

मम पर अंितम वनाशक चोट घायल

त,

ले ितर कृ त

ाण, रज म लोट

पीड़ा



ब , शो षत, र

से तन

नात !

एक रोदन का क णतम शोर गौरव न , छा रहा वैष य- वष चहँु ओर सं कृ ित साँस

,

ित कंपन िसहरता गात !

ू नाशकार गाज िसर पर टट मानव द न, स यता का अथ हं सा लूट ममता ह न, खो गया तम के वजन म 1951 (21) युग और क व

नाश का यह हार का

दन भरा,

ात !

दा र य का दिभ ु

का

अव

पथ का

यु

का

िमटता हआ ु , बंधु व से हटता हआ ु इितहास है , इितहास है ! सं कृ ित, कला औ' स यता का सामने मान खड़ा उपहास है !

जब आज दानव कर रहा शोषण भयंकर प मानव का बनाये, और उठती जा रह ह नेह, ममता क मनुज-उर-भावनाएँ, बढ़ रह ह ती

गित से

ास पर हर िचर बुभु

त मानव के

द ध-जीवन क वषैली गैस-सी घातक कराह !

वंस का िनमम मरण का, घोर काला यातना का िच

यह ि यमाण है !

उजड़ा हआ है अ दमन-सा ! ु िसहरता तीखा मरण का गान है !

आदश सारे िगर रहे ; मानव बुझा कर ान का द पक िन वड़तम-ब

दिनया ु

दे खना बस चाहता है ; य क उसके पाप अग णत कौन है जो दे ख पाएगा ? धरा पर 'शांित, सुख, नवयुग- यव था' के िलए

वह लूट लेगा व

का सव व !

लोभी ! लड़ रहा है , कर रहा है

व त

कतने लहलहाते खेत, मधु जीवन ! रह है िमट मनुजता ह मान

वयं

क क

'हारा कर ' भगवान ने ! है मंद जीवन-द प क आभा सुनहली। युग हआ शा पत कलं कत ; ु क तु तुम होना न कंिचत धैय वगिलत, चरण वज ड़त !

क व उठो ! रचना करो, तुम एक ऐसे व



जसम क सुख-दख ु बँट सक,

िनब ध जीवन क लह रयाँ बह चल, िन

वासर

नेह से प रपूण रात कट सक, सब क , मा मा क , गर ब क न हो यवधान कोई भी ! नये युग का नया संदेश दो ! हर आदमी को आदमी का वेश दो ! 1947 (22) व ास

बढ़ो व ास ले, अवरोध पथ का दरू होएगा !

तु हार

ज़ दगी क आग बन अंगार चमकेगी,

अंधेर सब दशाएँ रोशनी म डू ब दमकगी, तु हारे द ु मन का गव चकनाचूर होएगा ! सतत गाते रहो वह गीत जसम हो भर आशा, बताए ल य क

ढ़ता तु हार आँख क भाषा,

वरोधी हार कर फर तो, तु हारे पैर धोएगा !

ू जाएँगी, मुसीबत क िशलाएँ सब चटककर टट गरजती आँिधयाँ दख ु क तु हारे

वनत हो धूल खाएँगी,

ेरणा-जल से मनुज सुख-बीज बोएगा !

1951 (23) आ



ज़ दगी के द प जसने ह बुझाये, और भू के गभ से उगते हए ु पौधे िमटाये, श य- यामल भूिम को बंजर कया जसने, नवल युग के

दय पर मार

पैना गम यह खंजर दया जसने उसी से कर रह है लेखनी मेर बग़ावत ! क नह ं सकती क जब तक िगर न जाएगा धरा पर आततायी म

गव नत,

क नह ं सकता कभी जब मुखर होकर गले से हो गया बाहर,

वर

क नह ं सकता कभी तूफ़ान जसने योम म ह फड़फड़ाए पर, क नह ं सकता कभी द रया क जसने खोल आँख ख़ूब ली पहचान बहने क डगर ! वह तो फैल उमड़े गा, क चढ़कर पवत क छाितय पर कूद उछलेगा ! सभी पथ म अड़ भीत गरज उ मु

तोड़े गा !

मुझे व ास है साथी तु हारे हाथ इतने श क

ित

शाली ह परा जत हो

अविन पर लोट जाएगा, तु हार आँख म उतर बड़ गहर चमकती ती लाली है क जससे आज म आ

त हँू !

युग का अंधेरा िछ न होएगा, सभी फर से बुझे द पक नयी युग-चेतना के

नेह को पाकर

लहर कर जल उठगे ! सृ

नूतन कोपल से भर

सुखी हो लहलहाएगी ! क मेर मोरनी-सी व नये

क जनता

वर-गीत गाएगी !

व खेत म िनडर हो नाचकर पायल बजाएगी ! 1952 (24) द पक जलाओ

आज मेरे



नेह से द पक जलाओ !

कुहरा छ न, धूिमल सब दशाएँ,

चल रह ह घोर

ित

हवाएँ,

ाण मेरे अंक म, आकर समाओ !

आज नूतन फूटती आओ जवानी, मु

वर म गूँज लो अव

वाणी,

यह नवल संदेश युग का, क व, सुनाओ !

िगर रह ह जीण द वार सहज म, ू टटती ह शीण मीनार सहज म, हो नया िनमाण, जजरता हटाओ !

आज मेर बाहओं का बल तु हारा, ु आज मेरा शीश त, घायल, सु

ण अ वचल तु हारा, दिनया को जगाओ ! ु

1950 (25) आभास होता है

आभास होता है क स दय ब

बंधन

आज खुलकर ह रहगे ! इन धुएँ के बादल से आग क लपट लरज कर योम को

िनज बाहओं म घेर लगी ! ु श

म -मद

वषैला-नद जलेगा, हर उपे

त भीम गरजेगा

तुमुल संगर धरा पर !

गढ़ दमन के राह के फैले हए ु आटे स श संघष क भीषण हहरती आँिधय के बीच उड़ िमट जाएँगे !

व ास होता है क दौड़ा आ रहा उ मु

युग-खग,

सब पुरातन जाल जजर तोड़कर !

अब तो जलेगा स य का अंगार !

जसके ह िलए यह आज तक अ व ांत लालाियत रहा है पी ड़त भूले हओं का ु जागता संसार ! मोचन शोक, दख ु हत तेज, िगर रह है भंिगमा माया वभेदन, द खती अिभनव- करण 1950 (26) आज दे खा है आज दे खा है मनुज को ज़ दगी से जूझते, संघष करते ! ू वंचना क टटती च टान क आवाज़ कान ने सुनी है , और पैर को हआ महसूस ु धरती हल रह है ! आज मन भी

दे रहा िन य गवाह द:ु ख-पूणा-रात काली अब

ितज पर िगर रह है !

भूिम जननी को हआ कुछ भास ु उसक आस का संसार नूतन अंकुर का उग रहा अंबार ! सूखे वृ

के आ पास

बहती वायु कुछ



कह रह संदेश ऐसा जो नया, बलकुल नया है ! सुन जसे खग डाल का अब च च अपनी खोलने को हो रहा आतुर, फु लत, फड़फड़ाकर कर पर थ कत ! छतनार यह काला धुआँ अब द खता हलका

नह ं गाढ़ा अंधेरा है वह कल का ! 1951 (27) मुझे भरोसा है

म क़ैद पड़ा हँू आज अंधेर द वार म; द वार जनम कहते ह रहती क़ैद हवा है , रहता क़ैद

काश !

जहाँ क केवल फैला स नाटे का राज ! पर, म तो अनुभव करता हँू बेरोक हवा का, आँख से दे खा करता हँू ल -ल

योितमय- प ड को,

मुझको तो खूब सुनायी दे ती ह मेरे साथी मनुज के

चलते, बढ़ते, लड़ते क़दम क आवाज़ ! मेरे साथी मनुज के अिभयान के गान क अिभयान के बाज क आवाज़ !

मुझे भरोसा है मेरे साथी आकर कारा के ताले तोड़गे, जन- ोह स ा का ऊँचा गव ला म तक फोड़गे !

इं सान नह ं फर कुचला जाएगा, इं सान नह ं फर इ छाओं का खेल बनाया जाएगा ! 1951 (28) मुख को िछपाती रह

धुआँ ह धुआँ है , नगर आज सारा नहाता हआ है ! ु

अंगीठ जली ह व चू हे जले ह, वहग बाल-ब च से िमलने चले ह !

िनकट खाँसती है िछपी एक नार मृदल ु भ य लगती कभी थी, बनी थी कसी क

वमल

ाण यार !

उसी क शक़ल अब धुएँ म सराबोर है ! और मुख क ललाई अंधेर -अंधेर िनगाह म खोयी !

जसे ज़ दगी से

न कोई िशकायत रह अब, व जसके िलए है न दिनया ु भर

व न मधु से

लजाती हयी नत ! ु

अनेक बरस से धुएँ म नहाती रह है ! क गंगा व यमुना-सा आँसू का द रया बहाती रह है ! फटे जीण दामन म मुख को िछपाती रह है !

मगर अब चमकता है पूरब से आशा का सूरज, क आती है गाती करन, िमटे गी यह िन य ह दख ु क िशकन !

1951 (29) नया समाज

करवट बदल रहा समाज, आज आ रहा है लोकराज !

व त सव जीण-शीण साज़, धूल चूमते अनेक ताज !

आ रह मनु यता नवीन, दानवी

वृ याँ वलीन !

अंधकार हो रहा है दरू; खंड-खंड और चूर-चूर !

र मय ने भर दया

काश,

ज़ दगी को िमल गयी है आश।

चल पड़ा है कारवाँ स ाण श

वान, संग ठत, महान !

रे त-सा यह उड़ रहा वरोध, माग हो रहा सरल सुबोध; बढ़ रहा

बल

गित- सार,

बजिलय स श चमक अपार !

दे ख काल दब गया वशाल, आग जल उठ है लाल-लाल !

उठ रहा नया गरज पहाड़, म य जो वह खा गया पछाड़ !

पस गया गला-सड़ा पुराण, बन रहा नवीन

ाणवान !

गूँजता वहान-न य-गान; मु

औ' वरामह न तान !

1949

(30) युगा तर

आँधी उठ है समु दर कनारे बढ़ती सतत कुछ न सोचे- वचारे , लहर उमड़तीं बना श

हारे

र तार यह तो समय क !

मानव िनकलते चले आ रहे ह, उ म

हो गीत नव गा रहे ह,

रं गीन बादल बखर छा रहे ह ! झंकार यह तो समय क !

जजर इमारत िगर डगमगाकर, आमूल वष-वृ बहता पघल पूण

िगरता धरा पर, ाचीन प थर,

है मार यह तो समय क !

रोड़े बछे थे हज़ार डगर म नौका कभी भी न डोली भँवर म, बढ़ती गयी य

-झंझा समर म

पतवार यह तो समय क !

इं सान लेता नयी आज करवट, स मुख नयन के उठा है नया पट, गूँजी जगत म युगा तर क आहट, ललकार यह तो समय क ! 1950 (31) छलना

आज सपन क नह ं म बात करता हँू ! चाँद-सी तुमको समझकर अब न रह-रह कर वरह म आह भरता हँू !

नह ं है ण मन के यार का उ माद बाक़ , अब न आँख म सतत यह झलिमलाती

तु हारे

प क झाँक !

क मने आज जी वत स य क तसवीर दे खी है , जगत क

ज़ दगी क

एक याकुल दद क तसवीर दे खी है ! कसी मासूम क उर-वेदना बन धार आँसू क धरा पर िगर रह है , और चार ओर है जसके अंधेरे क घटा, जा

ठ बैठ है

सबेरे क छटा !

उसको मनाने के िलए अब म हज़ार गीत गाऊँगा, अंधेरे को हटाने के िलए नव

योित

ाण म सजाऊँगा !

न जब तक सृ

के

येक उपवन म

बस ती यार छाएगा, न जब तक मुसकराहट का नया सा ा य धरती पर उतर कर जगमगाएगा, क तब तक पास आने तक न दँ ग ू ा याद जीवन म तु हार !

य क तुम कत य से संसार का मुख मोड़ दे ती हो ! हज़ार के सरल शुभ-भावनाओं से भरे उर तोड़ दे ती हो ! 1952 (32) मत कहो

आज भय क बात मुझसे मत कहो,

आज बहक बात मुझसे मत कहो !

ाण म तूफ़ान-से

अरमान ह,

कंठ म नव-मु

के नव-गान ह !

वार तन म

व थ यौवन का बहा,



ह बंधन, सबल उर ने कहा !

है त ण क साधना, गितरोध है त ण क चेतना, अवरोध



या ?

भीषण, है चुनौती सामने,

बीज भावी



या ?

ा त बोती सामने !

ितपग पर सम त समाज है;

आग म तपना सभी को आज है ! आज जन-जन को िशिथलता छोड़ना, है नह ं कत य से मुख मोड़ना ! इस लगन क अ न से जजर जले र



ित बूँद क सौग ध ले

ाण का उ सग करना है तु ह, व

भर म यार भरना है तु ह !

धम मानव का बसाना है तु ह, कम जीवन का दखाना है तु ह !

मम

ाण का बताना है तु ह,

योित से िनज, तम िमटाना है तु ह ! व

नव-सं कृ ित

गित पर बढ़ चला,

जीवन िमट समय के संग गला !

काल क गित, भा य का दशन मरण, आज ह

येक

वर के नव-चरण !

जीणता पर हँ स रह है न यता, खल रह ं किलयाँ

मर को मधु बता !

वंस के अंितम वजन-पथ पर लहर, सृ

के आर भ के जा त- हर !

जागरण है , जागते ह तुम रहो,

नींद म खोये हए ु अब मत बहो !

आज भय क बात मुझसे मत कहो, आज बहक बात मुझसे मत कहो ! 1950 (33) नया युग

ओ ! मनुजता क क ण, िन पंद बुझती मेरे

योित

नेह से भर विलत हो जा !

िन वड़-तम-आवरण सब व - यापी जागरण म आ सहज खो जा !

हमालय-सी भुजाओं म भर है श जन-जन रोक दगे आँिधय को, फक दगे दरू बढ़ती

वार क लहर !

नयी वकिसत युग क साधना क फूटती आभा, नयी पुल कत युग क चेतना क जागती आशा !

ू से दिलत, नत, भ न ढह उठ है आज नव-िनमाण क



ेरणा !

धु ् रव स य होगी क पना साकार ! अिभनव वेग से संसार का कण-कण नया जीवन, नया यौवन, लहू नूतन, सु ढ़तम श

का

संचार पाएगा !

नया युग यह खर दनकर सर खा ह नह ं,

पर, है पहँु च आगे बड़ इसक घने फैले हए ु जंगल भयानक म

'एवर- ीन',

भूतल ठोस के नीचे, अतल जल के जहाँ बस है नह ं र व का वहाँ तक है नये युग के वचार का अथक सं ाम !

कैसे बच सकोगे ओ पलायन के पुजार ! आज अपनी बु

क हर गाँठ को

लो खोल, बढ़कर आँक लो नूतन सजग युग का समझकर मोल ! 1950 (34) पदचाप

पड़ रहे नूतन क़दम

फ़ौलाद-से

ढ़,

और छोट पड़ रह छाया नये युग आदमी क आज ! धरती सुन रह पदचाप अिभनव ज़ दगी क ! बज रह झंकार, मुख रत हो रहा संसार, नव-नव श

का संचार !

प रवतन ! बदलती एक के उपरा त सु दरतर जगत ् क

ित िनिमष तसवीर,

घटती जा रह है पीर, जागी आदमी क आज तो सोयी हई ु तक़द र !

क गया मेरे जगर का दद,

बरस का उमड़ता नैन का यह नीर ! गीले ने

क णा-पूण

तुझको दे खते व ास से

ढ़तर,

यह आशा लगाये ह क जब यह उठ रहा परदा पुराना तब नया ह

य आएगा,

क पहले से कह ं खुशहाल दिनया को दखाएगा ! ु 1949 (35) भोर का आ ान

खुल रह आँख नयी इस ज़ दगी के भोर म ! उठ रहा उठते दवाकर संग जन-समुदाय, भर कर भावना बहजन हताय ! ु

अंतर से िनकलती आ रह ह व

के क याण क

काली अंधेर रात के तार सर खी, एक के उपरा त अग णत शृख ं ला-सी न य-जीवन क सुनहर आब-सी विगक दआएँ ! ु

दे ख ली है आज नयन ने नये युग क धधकती आग, जसक उड़ रह ं िचनगा रयाँ हर

ाम-वन-सागर-नगर के योम म !

उस घास क गंजी सर खा जो लपट से

त धू-धू जल रह है ,

व त होता जा रहा छल, झूठ, आड बर !

क जसके व

पर यह हो रहा है

रोशनी-सा दौड़ता अिभनव- करण-सा आज म वंतर ! क व ुत वेग भी पीछे

लरज कर रह गया, लाख हर केनी हवाएँ तक ठठक कर रह गयीं; लाख उबलते भूिम के

वालामुखी तक

जम गये, बह न पाया एक पग भी दे खकर लावा ! गगन के फट गये बादल व खं डत हो गयी सार गरज ! भव का भयानकतम भ व यत ् भी भरे भय भग गया !

व ास है यह अब न आएगा कभी, ऐसा

हण फर

स न पाएगा कभी जन-चेतना के सूय को ! रे आज स दय

जनता-कंठ

सहसा खुल गया संसार के इस शोर म ! खुल रह आँख

नयी◌े इस ज़ दगी के भोर म ! 1950 (36) िनरापद

नयी रोशनी है , नयी रोशनी है ! िनरापद हआ आज जीवन, ु िनराशा पुरावृत वसजन !

वषा दत-युग क िनशा भी गगन से अंधेरा उठाकर भगी इस जलन से।

महाबल वपुल अब भुजाएँ उठाकर वरोधी सभी ताक़त को गरजकर बगड़



ललकारता है ! गुनाह के पवत पघल कर धँसे जा रहे ह ! (सुमन शु क उपवन म

खलते चले जा रहे ह !)

बदलते जगत पर पुरातन गिलत नीित हरिगज़ नह ं थोपनी है ! नयी रोशनी है ! 1949

(37) सु खयाँ िनहार लो!

नये वचार लो ! समाज क िगर दशा सुधार लो, सुधार लो !

का

वाह फर बहे ,

स ाण गीित- वर कहे , दय अपार

नेह-धन

भरे उठ असं य जन, भात को धरा जगो पुकार लो,

पुकार लो !

वतन सुसंग ठत रहे , न एक जन दिमत रहे , न भूख- यास शेष हो, बना नवीन वेश हो, समय बहाल, सु खयाँ िनहार लो, िनहार लो !

वभोर हष-धार म, सफ़ेद लाल यार म, बहो, बहो, बहो, बहो ! बनी नयी कुट र है , वहार लो, वहार लो ! 1950 (38) युग-प रवतन

नये

भात क

थम करण

वलोक मुसकरा रहा गगन !

इधर-उधर सभी जगह नवीन ज़ दगी के फूल खल गये, िसहर-िसहर क झूम-झूम एक दसरे को चूम-चूम िमल गये ! ू

धूल बन गया पहाड़ अंधकार का, ू वेग है ज़मीन पर अटट नयी बयार का !

क साथ-साथ उठ रहे चरण, क साथ-साथ िगर रहे चरण ! नये

भात क नयी बहार बीच

जगमगा उठा गगन ! क झलिमला उठा गगन !

उवरा धरा सुहाग पा गयी, शर र म हर िनखार आ गयी !

िनहार लो उभार

प का

पड़ा है िसफ़ रे शमी मह न आवरण अतेज घूप का !

बजिलय ने कर िलया शयन, हहरती आँिधयाँ पड़ ं शरण, वकास का सश

का फ़ला नवीन

कर रहा सु ढ़ भवन-सृजन ! बेशरम

के खड़े ह राह पर,

क कापु ष के कंठ से िनकल रहा कराह- वर, सभीत दबल के बंद ह नयन, ु व मोच खा गये चरण ! 1950 (39) नयी सं कृ ित

युग-रा िन य व

के

येक नभ से िमट गयी !

अिभनव

खर- व णम- करण बन

झलिमलाती आ रह सं कृ ित नयी !

सामने जसके वरोधी श

याँ तम क

पर, ये वरोधी श

बखरती जा रह ं,

याँ

कोई थक जजर नह ं, क तु; इनसे जूझने का आ गया अवसर !

यह वह है समय जब बल नया पाता वजय !

हमला ज़ र है , क दे श , जाितय , वग सभी क यह पर पर क िमटाना आज दरू है !

इसी के ह िलए

ाचीन-नूतन

क आवाज़ है ,

ाचीन जो ि यमाण, जसका आज वशृख ं ल हआ सब साज़ है ! ु जसक रोशनी सार नये ने छ न ली, और जसके हाथ से िनकला सम त समाज है ! बस, पास केवल एक धुँधली याद है, जसका तड़पता शेष यह उ माद है 'बीते युग म हम सुखी थे; कंतु अब रथ स यता का ती

गित से बढ़

पतन-पथ पर जगत का नाश करने हो रहा आतुर !'

हम अब जान लेना है वनाशी त व घातक ह वह जो आज यह झूठा ितिमर करते विनिमत,

और र क-द प बनने का वफल गीदड़ सर खा

वाँग भरते ह !

क धोखे से उदर अपना भरा हर रोज़ करते ह। भला ऐसे मनुज या लोक के कुछ काम आते ह ? नयी हर बात से मुख मोड़ लेते ह समय के साथ चलना भूल जाते ह !

नज़र से ट, बेबीलोन के ख डहर गुज़रते ह ! बहाना है न उनको दे खकर आँसू, न उनक अब

शंसा के

हज़ार गीत गाने ह ! नह ं बीते युग के दन बुलाने ह ! नया युग आ रहा है जो उसी के माग म हमको बछाने फूल ह कोमल, उसी के माग को हमको बनाना है सरल !

जससे नयी सं कृ ित-लता के कुंज म हम सब खुशी का गा सक नूतन तराना ! भूलकर दख ु -दद जीवन का पुराना ! 1950 40) गंगा बहाओ

आज ऊसर भूिम पर गंगा बहाओ !

उ च

ढ़ पाषाण िगर-िगर कर चटकते,

रे त के कण न न धरती पर चमकते, अ न क लहर हवा म बह रह ह; प घन का शांितमय जग को दखाओ !

त नत मानव

क पत पात से झर,

झुक गये सब आततायी के चरण पर, थूक ठोकर नाश दख ु िनमम मरण पर; आ म-धन उ सग क

ुव लौ जगाओ !

बह चुक ह ख़ून क न दयाँ, बरानी भू हई ु , सत ् क असत ् ने कुछ न मानी, और फूटा भय- िसत-र

म-सबेरा,

सूय पर छाये हए ु बादल हटाओ ! 1950 (41) नयी रे खाएँ

इन धुँधली-धुँधली रे खाओं पर, फर से िच

बनाओ मत !

दिनया पहले से बदल गयी, ु आभा फैली है नयी-नयी, यह

प पुराना, नह ं-नह ं !

आँख से ओझल है कल क सं कृ ित क गंगा का पानी, ू -टट ू -सी लगती है टट गत वैभव क शेष कहानी, जसम मन से झूठ , क पत बात को सोच िमलाओ मत !

पहले के बादल बरस चुके, अब तो खाली सब थके- के, यह गरज बरसने वाली कब ? नव-अंकुर फूट रहे रज से भर कर जीवन क ह रयाली, िन य है , फूटे गी नभ से जनयुग के जीवन क लाली, िन सार, िमटा, जजर, खोया फर से आज अतीत बुलाओ मत ! 1948 (42) भ व य के िनमाताओं!

जन सपन को साकार करोगे तुम उन पर मुझको व ास बड़ा, म दे ख रहा हँू क़दम-क़दम पर आज तु हारे वागत को युग का इ सान खड़ा ! जसके फ़ौलाद हाथ म

हँ सते फूल क खुशबू वाली माला है, जसने जीवन क सार जड़ता और िनराशा का वारा- यारा कर डाला है ! वह माला वह इनसान तु हारे उर पर डालेगा; य क तु हारा व

थल

जन-जन क पीड़ा से बो झल है , य क तु हारे फ़ौलाद तन का मख़मल जैसा मन युग- यापी

दन से

हो-हो उठता चंचल है ! तुम ह हो जो इन फूल क क़ मत समझोगे, फर सार दिनया म ु हँ सते फूल का उपवन नभ के नीचे लहराएगा ! मानव फूल को यार करे गा, अपनी '

ा' का शृग ं ार करे गा,

ब च को चूमेगा,

उनके साथ रोज़ हरे लॉन पर 'घोड़ा-घोड़ा' खेलेगा ! नयन म आँसू तो आएँगे पर, वे बेहद मीठे ह गे ! मरघट क आग जलेगी य ह पर, उसम न कसी के अरमान अधूरे ह गे ! जैसे अब िमलना दलभ है ु 'ईश' जगत म वैसे ह तब भी होगा, पर, हमको-तुमको (सच मानो !) उसक इतनी िच ता ना होगी ! उसका और हमारा अ तर िन य ह िमट जाएगा, जस दन मानव का सपना सच हो जाएगा ! 1953 (43) मेघ-गीत

उमड़ते-गरजते चले आ रहे घन िघरा योम सारा क बहता

भंजन

अंधेर उभरती अविन पर िनशा-सी घटाएँ सुहानी उड़ ं दे िनम

ण !

क बरसो जलद रे जलन पर िनरं तर तपी और झुलसी वजन-भूिम दन भर, करो शा त

येक कण आज शीतल

हर हो, भर हो

कृ ित न य सु दर !

झड़ पर, झड़ पर, झड़ पर, झड़ हो, जगत मंच पर सौ य शोभा खड़ हो, गगन से झरो मेघ ओ! आज रम झम, बरस लो सतत, मोितय -सी लड़ हो !

हवा के झकोरे उड़ा गंध-पानी िमटा द सभी उ णता क िनशानी, नहाती द वार नयी औ' पुरानी डगर म कह ं

ोत चंचल रवानी !

कृ षक ने पसीने बहाये नह ं थे, नवल बीज भू पर उगाये नह ं थे, सृजन-पंथ पर हल न आये अभी थे खले औ' पके फल न खाये कह ं थे !

ग को उठा कर, गगन म अड़ा कर ती ा तु हार सतत लौ लगा कर दय से,

वण से, नयन से व तन से,

िघरो घन, उड़ो घन घुमड़कर जगत पर !

अजब हो छटा बजिलयाँ चमचमाएँ, अंधेरा सघन, लु

हो सब दशाएँ

भरन पर, भरन पर सुना राग नूतन नया

ेम का मु -संदेश छाये !

वजन शु क आँचल हरा हो, हरा हो, जवानी भर हो सुहािगन धरा हो, चपलता बछलती, सरलता शरमती,

नयन

नेहमय

योित, जीवन भरा हो !

1950 (44) बरगद

त धता सुनसान पथ वीरान, सीमाह न नीला योम ! मटमैली धरा पर वृ

बरगद का झुका

मान

क है

ाचीनता सा ात ् !

िनबल वृ -सा जजर िशिथल, उखड़ हई ु साँस, जड़ भू पर बछ ह और िगरने के मरण- ण पर भयंकर

व न ने

कं पत कया झकझोर कर भय क बना मु ा खड़ा य कर दया !

उड़कर धूल कहना चाहती है 'ओ गगनचु बी ! िगरो पूर न आकां ा हई ु , आकर िमलो मुझसे ववश होकर धराशायी ! न जाना मू य लघुता का कया उपहास !'

जड़ के पास खं डत औ' कु पा जो रँ गा िस दरू से हनुमान-सा पाषाण टक कर गोद म बैठा क जसक अचना करते मनुज कतने नमन हो प र मा करते व आधी रात को आ

ान जसको चाटते ! 1959 (43) क व

युग बदलेगा क व के ित विन आएगी उस

क व का

ाण के

वर से,

वर क घर-घर से !

वर सामू हक जनता का

वर है ,

उसक वाणी आकषक और िनडर है !

जससे

ढ़-रा य पलट जाया करते ह,

शोषक अ यायी भय खाया करते ह !

उसके आवाहन पर, नत शो षत पी ड़त, नूतन बल धारण कर होते एक त !

जो आकाश हला दे ते हंु कार से दख ु -दग ु ढहा दे ते ती

हार से !

क व के पीछे इितहास सदा चलता है ,

वाला म र व से बढ़कर क व जलता है !

क व िनमम युग-संघष म जीता है , क व है जो िशव से बढ़कर वष पीता है !

उर-उर म जो भाव-लह रय क धड़कन, मूक

ती ा-रत

य भटक गित बन-बन,

नेह भरा जो आँख म माँ क िन छल, लहराया करता क व के दल म

ितपल !

खेत म जो बरहा गाया करता है , या क िमलन का गीत सुनाया करता है ,

उसके भीतर िछपा हआ है क व का मन, ु क व है जो पाषाण म भरता जीवन! 1953 (समा ) तुित : रचनाकार – http://rachanakar.blogspot.com/

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