Dharamveer Bharti

  • November 2019
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  • Words: 5,999
  • Pages: 48
कनुिूया (इितहास: अमंगल छाया) घाट से आते हए ु

कदम्ब के नीचे खड़े कनु को

ध्यानमग्न दे वता समझ, ूणाम करने िजस राह से तू लौटती थी बावरी आज उस राह से न लौट उजड़े हए ु कुंज

रौंदी हई ु लताएँ

आकाश पर छायी हई ु धूल

क्या तुझे यह नहीं बता रहीं िक आज उस राह से

कृ ंण की अठारह अक्षौिहणी सेनाएँ युद्ध में भाग लेने जा रही हैं !

आज उस पथ से अलग हट कर खड़ी हो बावरी!

लताकुंज की ओट

िछपा ले अपने आहट प्यार को आज इस गाँव से

द्वारका की युद्धोन्मत्त सेनाएँ गुजर रही हैं मान िलया िक कनु तेरा सवार्िधक अपना है मान िलया िक तू

उसकी रोम-रोम से पिरिचत है

मान िलया िक ये अगिणत सैिनक एक-एक उसके हैं :

पर जान रख िक ये तुझे िबलकुल नहीं जानते पथ से हट जा बावरी

यह आॆवृक्ष की डाल

उनकी िवशेष िूय थी तेरे न आने पर

सारी शाम इस पर िटक

उन्होंने वंशी में बार-बार

तेरा नाम भर कर तुझे टे रा थाआज यह आम की डाल

सदा-सदा के िलए काट दी जायेगी क्योंिक कृ ंण के सेनापितयों के वायुवेगगामी रथों की

गगनचुम्बी ध्वजाओं में

यह नीची डाल अटकती है और यह पथ के िकनारे खड़ा छायादार पावन अशोक-वृक्ष

आज खण्ड-खण्ड हो जाएगा तो क्या यिद मामवासी, सेनाओं के ःवागत में तोरण नहीं सजाते

तो क्या सारा माम नहीं उजाड़ िदया जायेगा?

दःख क्यों करती है पगली ु क्या हआ जो ु

कनु के ये वतर्मान अपने,

तेरे उन तन्मय क्षणों की कथा से अनिभज्ञ हैं

उदास क्यों होती है नासमझ िक इस भीड़-भाड़ में

तू और तेरा प्यार िनतान्त अपिरिचत ू गये हैं , छट

गवर् कर बावरी!

कौन है िजसके महान ् िूय की अठारह अक्षौिहणी सेनाएँ हों?

कनुिूया (इितहास: उसी आम के नीचे) उस तन्मयता में

तुम्हारे वक्ष में मुँह िछपाकर लजाते हए ु

मैंने जो-जो कहा था

पता नहीं उसमें कुछ अथर् था भी या नहीं: आॆ-मंजिरयों से भरी माँग के दपर् में मैंने समःत जगत ् को अपनी बेसुधी के

एक क्षण में लीन करने का

जो दावा िकया था - पता नहीं वह सच था भी या नहीं:

जो कुछ अब भी इस मन में कसकता है इस तन में काँप काँप जाता है वह ःवप्न था या यथाथर् - अब मुझे याद नहीं

पर इतना ज़रूर जानती हँू

िक इस आम की डाली के नीचे

जहाँ खड़े होकर तुम ने मुझे बुलाया था

अब भी मुझे आ कर बड़ी शािन्त िमलती है – न,

मैं कुछ सोचती नहीं

कुछ याद भी नहीं करती

िसफर् मेरी, अनमनी, भटकती उँ गिलयाँ मेरे अनजाने, धूल में तुम्हारा वह नाम िलख जाती हैं

जो मैंने प्यार के गहनतम क्षणों में खुद रखा था

और िजसे हम दोनों के अलावा कोई जानता ही नहीं

और ज्यों ही सचेत हो कर अपनी उँ गिलयों की

इस धृष्टता को जान पाती हँू चौंक कर उसे िमटा दे ती हँू

(उसे िमटाते द:ु ख क्यों नहीं होता कनु!

क्या अब मैं केवल दो यन्ऽों का पुज ं -माऽ हँू ? - दो परःपर िवपरीत यन्ऽ-

उन में से एक िबना अनुमित के नाम िलखता है दसरा उसे िबना िहचक िमटा दे ता है !) ू – तीसरे पहर

चुपचाप यहाँ छाया में बैठती हँू

और हवा ऊपर ताजी नरम टहिनयों से,

और नीचे कपोलों पर झूलती मेरी रूखी अलकों से खेल करती है

और मैं आँख मूँद कर बैठ जाती हँू और कल्पना करना चाहती हँू िक

उस िदन बरसते में िजस छौने को

अपने आँचल में िछपा कर लायी थी

वह आज िकतना, िकतना, महान ् हो गया है लेिकन मैं कुछ नहीं सोच पाती िसफर्-

जहाँ तुमने मुझे अिमत प्यार िदया था

ु वहीं बैठ कर कंकड़, पत्ते, ितनके, टकड़े चुनती रहती हँू

तुम्हारे महान ् बनने में

ू कर िबखर गया है कनु! क्या मेरा कुछ टट वह सब अब भी ज्यों का त्यों है

िदन ढले आम के नये बौरों का

चारों ओर अपना मायाजाल फेंकना

जाल में उलझ कर मेरा बेबस चले आना नया है

केवल मेरा

सूनी माँग आना

सुनी माँग, िशिथल चरण, असमिपर्ता ज्यों का त्यों लौट जाना…….

उस तन्मयता में - आॆ-मंजरी से सजी माँग को तुम्हारे वक्ष में िछपाकर लजाते हए ु बेसुध होते-होते

जो मैंने सुना था

क्या उसमें भी कुछ अथर् नहीं था?

कनुिूया (इितहास - सेतु : मैं) नीचे की घाटी से

ऊपर के िशखरों पर

िजस को जाना था वह चला गया हाय मुझी पर पग रख

मेरी बाँहों से

इितहास तुम्हें ले गया! सुनो कनु, सुनो

क्या मैं िसफर् एक सेतु थी तुम्हारे िलए लीलाभूिम और युद्धक्षेऽ के अलंघ्य अन्तराल में!

अब इन सूने िशखरों, मृत्यु-घािटयों में बने सोने के पतले गुथ ँ े तारों वालों पुल- सा िनजर्न

िनरथर्क

ू गया - मेरा यह सेतु िजःम काँपता-सा, यहाँ छट - िजस को जाना था वह चला गया

कनुिूया (इितहास - िवूलब्धा) ू हए बुझी हई ु राख, टटे ु गीत, बुझे हए ु चाँद, रीते हए ु पाऽ, बीते हए ु क्षण-सा - मेरा यह िजःम

कल तक जो जाद ू था, सूरज था, वेग था तुम्हारे आश्लेष में

आज वह जूड़े से िगरे हए ु बेले-सा ू है , म्लान है टटा

दगु ु ना सुनसान है

बीते हए ु उत्सव-सा, उठे हए ु मेले-सामेरा यह िजःम -

ू खंडहरों के उजाड़ अन्तःपुर में टटे

ू छटा हआ एक सािबत मिणजिटत दपर्ण-सा ु आधी रात दं श भरा बाहहीन ु प्यासा सपीर्ला कसाव एक िजसे जकड़ लेता है अपनी गुज ं लक में:

अब िसफर् मैं हँू , यह तन है , और याद है खाली दपर्ण में धुध ँ ला-सा एक ूितिबंब मुड़-मुड लहराता हआ ु

िनज को दोहराता हआ ु ! ………………………………… ………………………………… कौन था वह

िजस ने तुम्हारी बाँहों के आवतर् में

गिरमा से तन कर समय को ललकारा था! कौन था वह

िजस की अलकों में जगत ् की समःत गित बँध कर परािजत थी! कौन था वह

िजसके चरम साक्षात्कार का एक गहरा क्षण सारे इितहास से बड़ा था, सशक्त था!

कौन था कनु, वह तुम्हारी बाँहों में

जो सूरज था, जाद ू था, िदव्य था, मंऽ था

अब िसफर् मैं हँू , यह तन है , और याद है ! ू गए तुम तो कनु, मंऽ-पढ़े बाण-से छट शेष रही मैं केवल, काँपती ूत्यंचा-सी

अब भी जो बीत गया, उसी में बसी हई ु

अब भी उन बाँहों के छलावे में कसी हई ु

िजन रूखी अलकों में

मैंने समय की गित बाँधी थी हाय उन्हीं काले नागपाशों से

िदन-ूितिदन, क्षण-ूितक्षण बार-बार डँ सी हई ु

अब िसफर् मैं हँू , यह तन है - और संशय है

- बुझी हई ु राख में िछपी िचनगारी-सा रीते हए ु पाऽ की आिखरी बूँद-सा

पा कर खो दे ने की व्यथा-भरी गूज ँ सा…..

कनुिूया (सृिष्ट-संकल्प - केिलसखी) आज की रात

हर िदशा में अिभसार के संकेत क्यों हैं ? हवा के हर झोंके का ःपशर्

सारे तन को झनझना क्यों जाता है ? और यह क्यों लगता है

िक यिद और कोई नहीं तो

यह िदगन्त-व्यापी अँधेरा ही

मेरे िशिथल अधखुले गुलाब-तन को पी जाने के िलए तत्पर है

और ऐसा क्यों भान होने लगा है िक मेरे ये पाँव, माथा, पलकें, होंठ मेरे अंग-अंग - जैसे मेरे नहीं हैं मेरे वश में नहीं हैं -बेबस एक-एक घूँट की तरह

अँिधयारे में उतरते जा रहे हैं खोते जा रहे हैं

िमटते जा रहे हैं और भय,

आिदम भय, तकर्हीन, कारणहीन भय जो मुझे तुमसे दरू ले गया था, बहत ु दरूक्या इसी िलए िक मुझे

दगु ु ने आवेग से तुम्हारे पास लौटा लावे

और क्या यह भय की ही काँपती उँ गिलयाँ हैं जो मेरे एक-एक बन्धन को िशिथल करती जा रही हैं

और मैं कुछ कह नहीं पाती! मेरे अधखुले होठ काँपने लगे हैं और कण्ठ सूख रहा है

और पलकें आधी मुँद गयी हैं

और सारे िजःम में जैसे ूाण नहीं हैं मैंने कस कर तुम्हें जकड़ िलया है और जकड़ती जा रही हँू और िनकट, और िनकट

िक तुम्हारी साँसें मुझमें ूिवष्ट हो जायें तुम्हारे ूाण मुझमें ूितिष्ठत हो जायें

तुम्हारा रक्त मेरी मृतपाय िशराओं में ूवािहत होकर िफर से जीवन संचिरत कर सकेऔर यह मेरा कसाव िनमर्म है

और अन्धा, और उन्माद भरा; और मेरी बाँहें नागवधू की गुंजलक की भाँित कसती जा रही हैं

और तुम्हारे कन्धों पर, बाँहों पर, होठों पर

नागवधू की शुॅ दन्त-पंिक्तयों के नीले-नीले िचह्न उभर आये हैं

और तुम व्याकुल हो उठे हो धूप में कसे

अथाह समुि की उत्ताल, िवक्षुब्ध

हहराती लहरों के िनमर्म थपेड़ों सेछोटे -से ूवाल-द्वीप की तरह बेचैन-

………………………………………. …………………………………. …………………………… ……………………. – उठो मेरे ूाण

और काँपते हाथों से यह वातायन बंद कर दो यह बाहर फैला-फैला समुि मेरा है

पर आज मैं उधर नहीं दे खना चाहती यह ूगाढ़ अँधेरे के कण्ठ में झूमती महों-उपमहों और नक्षऽों की ज्योितमार्ला मैं ही हँू

और अंख्य ॄह्माण्डों का िदशाओं का, समय का

अनन्त ूवाह मैं ही हँू

पर आज मैं अपने को भूल जाना चाहती हँू उठो और वातायन बन्द कर दो

िक आज अँधेरे में भी दृिष्टयाँ जाग उठी हैं

और हवा का आघात भी मांसल हो उठा है और मैं अपने से ही भयभीत हँू – …………………………………. ……………………………………… लो मेरे असमंजस! अब मैं उन्मुक्त हँू

और मेरे नयन अब नयन नहीं हैं ूतीक्षा के क्षण हैं

और मेरी बाँहें, बाँहें नहीं हैं पगडिण्डयाँ हैं

और मेरा यह सारा

हलका गुलाबी, गोरा, रुपहली

धूप-छाँव वाला सीपी जैसा िजःम अब िजःम नहीं-

िसफर् एक पुकार है उठो मेरे उत्तर!

और पट बन्द कर दो

और कह दो इस समुि से

िक इसकी उत्ताल लहरें द्वार से टकरा कर लौट जाएँ और कह दो िदशाओं से

िक वे हमारे कसाव में आज घुल जाएँ

और कह दो समय के अचूक धनुधरर् से िक अपने शायक उतार कर तरकस में रख ले

और तोड़ दे अपना धनुष

और अपने पंख समेट कर द्वार पर चुपचाप ूतीक्षा करे -

जब तक मैं

अपनी ूगाढ़ केिलकथा का अःथायी िवराम िचह्न अपने अधरों से

तुम्हारे वक्ष पर िलख कर, थक कर शैिथल्य की बाँहों में डब ू न जाऊँ…..

आओ मेरे अधैय!र्

िदशाएँ घुल गयी हैं

जगत ् लीन हो चुका है

समय मेरे अलक-पाश में बँध चुका है । और इस िनिखल सृिष्ट के अपार िवःतार में

तुम्हारे साथ मैं हँू - केवल मैंतुम्हारी अंतरं ग केिलसखी!

कनुिूया (सृिष्ट-संकल्प - आिदम भय) अगर यह िनिखल सृिष्ट मेरा ही लीलातन है

तुम्हारे आःवादन के िलएअगर ये उत्तुंग िहमिशखर

मेरे ही - रुपहली ढलान वाले

गोरे कंधे हैं - िजन पर तुम्हारा

गगन-सा चौड़ा और साँवला और तेजःवी माथा िटकता है अगर यह चाँदनी में

िहलोरें लेता हआ महासागर ु मेरे ही िनरावृत िजःम का उतार-चढ़ाव है

अगर ये उमड़ती हई ु मेघ-घटाएँ

मेरी ही बल खाती हई ु वे अलकें हैं िजन्हें तुम प्यार से िबखेर कर अक्सर मेरे पूण-र् िवकिसत

चन्दन फूलों को ढँ क दे ते हो अगर सूयार्ःत वेला में

पिच्छम की ओर झरते हए ु ये

अजॐ-ूवाही झरने

मेरी ही ःवणर्-वणीर् जंघाएँ हैं और अगर यह रात मेरी ूगाढ़ता है और िदन मेरी हँ सी और फूल मेरे ःपशर्

और हिरयाली मेरा आिलंगन तो यह तो बताओ मेरे लीलाबंधु

िक कभी-कभी “मुझे” भय क्यों लगता है ? – अक्सर आकाशगंगा के

सुनसान िकनारों पर खड़े हो कर जब मैंने अथाह शून्य में अनन्त ूदीप्त सूयोर्ं को

ू कोहरे की गुफाओं में पंख टटे

जुगनुओं की तरह रें गते दे खा है

तो मैं भयभीत होकर लौट आयी हँू …… क्यों मेरे लीलाबन्धु

क्या वह आकाशगंगा मेरी माँग नहीं है ? िफर उसके अज्ञात रहःय मुझे डराते क्यों हैं ?

और अक्सर जब मैंने

चन्िलोक के िवराट्, अपिरिचत, झुलसे

पहाड़ों की गहरी, दलर्ं ु घ्य घािटयों में

अज्ञात िदशाओं से उड़ कर आने वाले धुॆपुंजों को टकराते और अिग्नवणीर् करकापात से वळ की चट्टानों को

घायल फूल की तरह िबखरते दे खा है तो मुझे भय क्यों लगा है

और मैं लौट क्यों आयी हँू मेरे बन्धु! क्या चन्िमा मेरे ही माथे का सौभाग्य-िबन्द ु नहीं है ?

और अगर ये सारे रहःय मेरे हैं और तुम्हारा संकल्प मैं हँू और तुम्हारी इच्छा मैं हँू

और इस तमाम सृिष्ट में मेरे अितिरक्त

यिद कोई है तो केवल तुम, केवल तुम, केवल तुम, तो मैं डरती िकससे हँू मेरे िूय!

और अगर यह चन्िमा मेरी उँ गिलयों के पोरों की छाप है

और मेरे इशारों पर घटता और बढ़ता है और अगर यह आकाशगंगा मेरे ही केश-िवन्यास की शोभा है

और मेरे एक इं िगत पर इसके अनन्त ॄह्माण्ड अपनी िदशा बदल

सकते हैं -

तो मुझे डर िकससे लगता है मेरे बन्धु! – कहाँ से आता है यह भय

जो मेरे इन िहमिशखरों पर महासागरों पर चन्दनवन पर

ःवणर्वणीर् झरनों पर

मेरे उत्फुल्ल लीलातन पर कोहरे की तरह फन फैला कर

गुंजलक बाँध कर बैठ गया है । उद्दाम बीड़ा की वेला में

भय का यह जाल िकसने फेंका है ? दे खो न

इसमें उलझ कर मैं कैसे

शीतल चट्टानों पर िनवर्सना जलपरी की तरह छटपटा रही हँू

और मेरे भींगे केशों से िसवार िलपटा है

और मेरी हथेिलयों से

समुिी पुखराज और पन्ने

िछटक गये हैं

और मैं भयभीत हँू ! सुनो मेरे बन्धु

अगर यह िनिखल सृिष्ट मेरा लीलातन है

तुम्हारे आःवादन के िलए

तो यह जो भयभीत है - वह छायातन िकसका है ?

िकस िलए है मेरे िमऽ?

कनुिूया (सृिष्ट-संकल्प - सृजन-संिगनी) सुनो मेरे प्यार-

यह काल की अनन्त पगडं डी पर

अपनी अनथक याऽा तय करते हए ु सूरज और चन्दा, बहते हए ु अन्धड़

गरजते हए ु महासागर

झकोरों में नाचती हई ु पित्तयाँ धूप में िखले हए ु फूल, और

चाँदनी में सरकती हई ु निदयाँ इनका अिन्तम अथर् आिखर है क्या? केवल तुम्हारी इच्छा?

और वह क्या केवल तुम्हारा संकल्प है

जो धरती में सोंधापन बन कर व्याप्त है जो जड़ों में रस बन कर िखंचता है कोंपलों में पूटता है , पत्तों में हिरयाता है , फूलों में िखलता है ,

फलों में गदरा आता है यिद इस सारे सृजन, िवनाश, ूवाह और अिवराम जीवन-ूिबया का अथर् केवल तुम्हारी इच्छा है तुम्हारा संकल्प,

तो जरा यह तो बताओ मेरे इच्छामय, िक तुम्हारी इस इच्छा का, इस संकल्प काअथर् कौन है ? कौन है वह

िजसकी खोज में तुमने

काल की अनन्त पगडं डी पर

सूरज और चाँद को भेज रखा है ………………………………………. कौन है िजसे तुमने

झंझा के उद्दाम ःवरों में पुकारा है ……………………………………….. कौन है िजसके िलए तुमने महासागर की उत्ताल भुजाएँ फैला दी हैं

कौन है िजसकी आत्मा को तुमने फूल की तरह खोल िदया है और कौन है िजसे

निदयों जैसे तरल घुमाव दे -दे कर तुमने तरं ग-मालाओं की तरह

अपने कण्ठ में, वक्ष पर, कलाइयों में लपेट िलया है -

वह मैं हँू मेरे िूयतम! वह मैं हँू वह मैं हँू – और यह समःत सृिष्ट रह नहीं जाती लीन हो जाती है

जब मैं ूगाढ़ वासना, उद्दाम बीड़ा और गहरे प्यार के बाद

थक कर तुम्हारी चन्दन-बाँहों में अचेत बेसुध सो जाती हँू

यह िनिखल सृिष्ट लय हो जाती है और मैं ूसुप्त, संज्ञाशून्य,

और चारों ओर गहरा अँधेरा और सूनापनऔर मजबूर होकर

तुम िफर, िफर उसी गहरे प्यार

को दोहराने के िलए

मुझे आधी रात जगाते हो आिहःते से, ममता से-

और मैं िफर जागती हँू संकल्प की तरह इच्छा ती तरह और लो

वह आधी रात का ूलयशून्य सन्नाटा िफर

काँपते हए ु गुलाबी िजःमों गुनगुने ःपशोर्ं

कसती हई ु बाँहों

अःफुट सीत्कारों

गहरी सौरभ भरी उसाँसों

और अन्त में एक साथर्क िशिथल मौन से आबाद हो जाता है रचना की तरह

सृिष्ट की तरहऔर मैं िफर थक कर सो जाती हँू अचेत-संज्ञाहीन-

और िफर वही चारों ओर फैला

गहरा अँधेरा और अथाह सूनापन और तुम िफर मुझे जगाते हो!

और यह ूवाह में बहती हई ु

तुम्हारी असंख्य सृिष्टयों का बम महज हमारे गहरे प्यार ूगाढ़ िवलास

और अतृप्त बीड़ा की अनन्त पुनरावृित्तयाँ हैं ओ मेरे ॐष्टा

तुम्हारे सम्पूणर् अिःतत्व का अथर् है माऽ तुम्हारी सृिष्ट

तुम्हारी सम्पूणर् सृिष्ट का अथर् है माऽ तुम्हारी इच्छा

और तुम्हारी सम्पूणर् इच्छा का अथर् हँू केवल मैं!

केवल मैं!!

केवल मैं!!!

कनुिूया (मंजरी पिरणय - तुम मेरे कौन हो?) तुम मेरे कौन हो कनु

मैं तो आज तक नहीं जान पायी बार-बार मुझ से मेरे मन ने

आमह से, िवःमय से, तन्मयता से पूछा है ‘यह कनु तेरा है कौन? बूझ तो!’

बार-बार मुझ से मेरी सिखयों ने

व्यंग्य से, कटाक्ष से, कुिटल संकेत से पूछा है ‘कनु तेरा कौन है री, बोलती क्यों नहीं?’ बार-बार मुझ से मेरे गुरुजनों ने

कठोरता से, अूसन्नता से, रोष से पूछा है ‘यह कान्ह आिखर तेरा है कौन?’

मैं तो आज तक कुछ नहीं बता पायी तुम मेरे सचमुच कौन हो कनु! अक्सर जब तुम ने

माला गूथ ँ ने के िलए

कँटीले झाड़ों में चढ़-चढ़ कर मेरे िलए श्वेत रतनारे करौंदे तोड़ कर मेरे आँचल में डाल िदये हैं

तो मैंने अत्यन्त सहज ूीित से गरदन झटका कर

वेणी झुलाते हए ु कहा है :

‘कनु ही मेरा एकमाऽ अंतरं ग सखा है !’ अक्सर जब तुम ने

दावािग्न में सुलगती डािलयों,

ू टटते वृक्षों, हहराती हई ु लपटों और घुटते हए ु धुएँ के बीच

िनरुपाय, असहाय, बावली-सी भटकती हई ु

मुझे

साहसपूवक र् अपने दोनों हाथों में

फूल की थाली-सी सहे ज कर उठा िलया और लपटें चीर कर बाहर ले आये

तो मैंने आदर, आभार और ूगाढ़ ःनेह से भरे -भरे ःवर में कहा है :

‘कान्ह मेरा रक्षक है , मेरा बन्धु है सहोदर है ।’

अक्सर जब तुम ने वंशी बजा कर मुझे बुलाया है और मैं मोिहत मृगी-सी भागती चली आयी हँू

और तुम ने मुझे अपनी बाँहों में कस िलया है तो मैंने डब ू कर कहा है :

‘कनु मेरा लआय है , मेरा आराध्य, मेरा गन्तव्य!’ पर जब तुम ने दष्टता से ु

अक्सर सखी के सामने मुझे बुरी तरह छे ड़ा है तब मैंने खीझ कर

आँखों में आँसू भर कर शपथें खा-खा कर सखी से कहा है :

‘कान्हा मेरा कोई नहीं है , कोई नहीं है मैं कसम खाकर कहती हँू मेरा कोई नहीं है !’

पर दसरे ही क्षण ू

जब घनघोर बादल उमड़ आये हैं और िबजली तड़पने लगी है और घनी वषार् होने लगी है

और सारे वनपथ धुँधला कर िछप गये हैं

तो मैंने अपने आँचल में तुम्हें दबका िलया है ु तुम्हें सहारा दे -दे कर

अपनी बाँहों मे घेर गाँव की सीमा तक तुम्हें ले आयी हँू और सच-सच बताऊँ तुझे कनु साँवरे !

िक उस समय मैं िबलकुल भूल गयी हँू िक मैं िकतनी छोटी हँू

और तुम वही कान्हा हो जो सारे वृन्दावन को

जलूलय से बचाने की सामथ्यर् रखते हो, और मुझे केवल यही लगा है

िक तुम एक छोटे -से िशशु हो

असहाय, वषार् में भीग-भीग कर मेरे आँचल में दबक ु े हए ु

और जब मैंने सिखयों को बताया िक गाँव की सीमा पर

िछतवन की छाँह में खड़े हो कर ममता से मैंने अपने वक्ष में

उस छौने का ठण्ढा माथा दबका कर ु

अपने आँचल से उसके घने घुँघराले बाल पोंछ िदये तो मेरे उस सहज उद्गार पर

सिखयाँ क्यों कुिटलता से मुसकाने लगीं यह मैं आज तक नहीं समझ पायी! लेिकन जब तुम्हीं ने बन्धु

तेज से ूदीप्त हो कर इन्ि को ललकारा है ,

कािलय की खोज में िवषैली यमुना को मथ डाला है तो मुझे अकःमात ् लगा है

िक मेरे अंग-अंग से ज्योित फूटी पड़ रही है तुम्हारी शिक्त तो मैं ही हँू तुम्हारा संबल,

तुम्हारी योगमाया,

इस िनिखल पारावार में ही पिरव्याप्त हँू िवराट्,

सीमाहीन, अदम्य,

ददार् ु न्त; िकन्तु दसरे ही क्षण ू

जब तुम ने वेतसलता-कुंज में गहराती हई ु गोधूिल वेला में

आम के एक बौर को चूर-चूर कर धीमे से अपनी एक चुटकी में भर कर मेरे सीमन्त पर िबखेर िदया

तो मैं हतूभ रह गयी

मुझे लगा इस िनिखल पारावार में शिक्त-सी, ज्योित-सी, गित-सी फैली हई ु मैं

अकःमात ् िसमट आयी हँू सीमा में बँध गयी हँू

ऐसा क्यों चाहा तुमने कान्ह? पर जब मुझे चेत हआ ु

तो मैंने पाया िक हाय सीमा कैसी

मैं तो वह हँू िजसे िदग्वधू कहते हैं , कालवधू-

समय और िदशाओं की सीमाहीन पगडं िडयों पर अनन्त काल से, अनन्त िदशाओं में

तुम्हारे साथ-साथ चलती आ रही हँू , चलती चली जाऊँगी…..

इस याऽा का आिद न तो तुम्हें ःमरण है न मुझे

और अन्त तो इस याऽा का है ही नहीं मेरे सहयाऽी! ु हो पर तुम इतने िनठर और इतने आतुर िक

तुमने चाहा है िक मैं इसी जन्म में

इसी थोड़-सी अविध में जम्नजन्मांतर की समःत याऽाएँ िफर से दोहरा लूँ

और इसी िलए सम्बन्धों की इस घुमावदार पगडं डी पर क्षण-क्षण पर तुम्हारे साथ

मुझे इतने आकिःमक मोड़ लेने पड़े हैं िक मैं िबलकुल भूल ही गयी हँू िक मैं अब कहाँ हँू

और तुम मेरे कौन हो

और इस िनराधार भूिम पर

चारों ओर से पूछे जाते हए ु ूश्नों की बौछार से घबरा कर मैंने बार-बार

तुम्हें शब्दों के फूलपाश में जकड़ना चाहा है । सखा-बन्धु-आराध्य िशशु-िदव्य-सहचर

और अपने को नयी व्याख्याएँ दे नी चाही हैं सखी-सािधका-बान्धवीमाँ-वधू-सहचरी

और मैं बार-बार नये-नये रूपों में उमड़- उ ड कर

तुम्हारे तट तक आयी

और तुम ने हर बार अथाह समुि की भाँित मुझे धारण कर िलयािवलीन कर िलया-

िफर भी अकूल बने रहे मेरे साँवले समुि

तुम आिखर हो मेरे कौन

मैं इसे कभी माप क्यों नहीं पाती?

कनुिूया (मंजरी पिरणय - आॆ-बौर का अथर्) अगर मैं आॆ-बौर का ठीक-ठीक संकेत नहीं समझ पायी

तो भी इस तरह िखन्न मत हो िूय मेरे!

िकतनी बार जब तुम ने अद्धोर्न्मीिलत कमल भेजा

तो मैं तुरत समझ गयी िक तुमने मुझे संझा िबिरयाँ बुलाया है िकतनी बार जब तुम ने अँजुरी भर-भर बेले के फूल भेजे तो मैं समझ गयी िक तुम्हारी अंजिु रयों ने िकसे याद िकया है

िकतनी बार जब तुम ने अगःत्य के दो उजले कटावदार फूल भेजे तो मैं समझ गई िक

तुम िफर मेरे उजले कटावदार पाँवों में - तीसरे पहर - टीले के पास वाले सहकार की घनी छाँव में

बैठ कर महावर लगाना चाहते हो। आज अगर आम के बौर का संकेत नहीं भी

समझ पायी तो क्या इतना बड़ा मान ठान लोगे? – मैं मानती हँू

िक तुम ने अनेक बार कहा है :

“राधन ्! तुम्हारी शोख चंचल िवचुिम्बत पलकें तो पगडिण्डयाँ माऽ हैं :

जो मुझे तुम तक पहँु चा कर रीत जाती हैं ।” तुम ने िकतनी बार कहा है :

“राधन ्! ये पतले मृणाल सी तुम्हारी गोरी अनावृत बाँहें पगडिण्डयाँ माऽ हैं : जो मुझे तुम तक पहँु चा कर रीत जाती हैं ।”

तुम ने िकतनी बार कहा है :

“सुनो! तुम्हारे अधर, तुम्हारी पलकें, तुम्हारी बाँहें, तुम्हारे

चरण, तुम्हारे अंग-ूत्यंग, तुम्हारी सारी चम्पकवणीर् दे ह माऽ पगडिण्डयाँ हैं जो

चरम साक्षात्कार के क्षणों में रहती ही नहीं रीत-रीत जाती हैं !” हाँ चन्दन,

तुम्हारे िशिथल आिलंगन में

मैंने िकतनी बार इन सबको रीतता हआ पाया है ु मुझे ऐसा लगा है

जैसे िकसी ने सहसा इस िजःम के बोझ से मुझे मुक्त कर िदया है

और इस समय मैं शरीर नहीं हँू … मैं माऽ एक सुगन्ध हँू -

आधी रात में महकने वाले इन रजनीगन्धा के फूलों की

ूगाढ़, मधुर गन्ध -

आकारहीन, वणर्हीन, रूपहीन… – मुझे िनत नये िशल्प मे ढालने वाले ! मेरे उलझे रूखे चन्दनवािसत केशों मे पतली उजली चुनौती दे ती हई ु मांग

क्या वह आिखरी पगडण्डी थी िजसे तुम िरता दे ना चाहते थे इस तरह

उसे आॆ मंजरी से भर भरकर; मैं क्यों भूल गयी थी िक

मेरे लीलाबन्धु, मेरे सहज िमऽ की तो पिद्ध्त ही यह है िक वह िजसे भी िरक्त करना चाहता है उसे सम्पूणत र् ा से भर दे ता है ।

यह मेरी मांग क्या मेरे-तुम्हारे बीच की अिन्तम पाथर्क्य रे खा थी,

क्या इसी िलए तुमने उसे आॆ मंजिरयों से भर-भर िदया िक वह

ू जाए! भर कर भी ताजी, क्वाँरी, रीती छट तुम्हारे इस अत्यन्त रहःयमय संकेत को

ठीक-ठीक न समझ मैं उसका लौिकक अथर् ले बैठी तो मैं क्या करूँ,

तुम्हें तो मालूम है

िक मैं वही बावली लड़की हँू न

जो पानी भरने जाती है तो भरे घड़े में

अपनी चंचल आँखों की छाया दे ख कर

ु मछिलयाँ समझ कर उन्हें कुलेल करती चटल बार-बार सारा पानी ढलका दे ती है ! सुनो मेरे िमऽ

यह जो मुझ में, इसे, उसे, तुम्हें , अपने को कभी-कभी न समझ पाने की नादानी है न इसे मत रोको होने दो:

वह भी एक िदन हो-हो कर रीत जायेगी

और मान लो न भी रीते

और मैं ऐसी ही बनी रहँू तो तो क्या?

मेरे हर बावलेपन पर

कभी िखन्न हो कर, कभी अनबोला ठानकर, कभी हँ स कर तुम जो प्यार से अपनी बाँहों में कस कर बेसुध कर दे ते हो

उस सुख को मैं छोड़ँू क्यों? करूँगी!

बार-बार नादानी करूँगी

तुम्हारी मुँहलगी, िजद्दी, नादान िमऽ भी तो हँू न!

– आज इस िनभृत एकांत में तुम से दरू पड़ी मैं:

और इस ूगाढ़ अँधकार में

तुम्हारे चंदन कसाव के िबना मेरी दे हलता के बड़े -बड़े गुलाब धीरे -धीरे टीस रहे हैं

और ददर् उस िलिप का अथर् खोल रहा है जो तुम ने आॆ मंजिरयों के अक्षरों में मेरी माँग पर िलख दी थी

आम के बौर की महक तुशर् होती है -

तुम ने अक्सर मुझमें डब ू -डब ू कर कहा है िक वह मेरी तुशीर् है

िजसे तुम मेरे व्यिक्तत्व में

िवशेष रूप से प्यार करते हो! आम का वह पहला बौर

मौसम का पहला बौर था ू , ताजा सवर्ूथम! अछता

मैंने िकतनी बार तुम में डब ू -डब ू कर कहा है िक मेरे ूाण! मुझे िकतना गुमान है िक मैंने तुम्हें जो कुछ िदया है ू वह सब अछता था, ताजा था, सवर्ूथम ूःफुटन था

तो क्या तुम्हारे पास की डार पर िखली तुम्हारे कन्धों पर झुकी

वह आम की ताजी, क्वाँरी, तुशर् मंजरी मैं ही थी और तुम ने मुझ से ही मारी माँग भरी थी! यह क्यों मेरे िूय!

क्या इस िलए िक तुमने बार-बार यह कहा है िक तुम अपने िलए नहीं

मेरे िलए मुझे प्यार करते हो

और क्या तुम इसी का ूमाण दे रहे थे

जब तुम मेरे ही िनजत्व को, मेरे ही आन्तिरक अथर् को मेरी माँग में भर रहे थे

और जब तुम ने कहा िक, “माथे पर पल्ला डाल लो!” तो क्या तुम िचता रहे थे

िक अपने इसी िनजत्व को, अपने आन्तिरक अथर् को मैं सदा मयार्िदत रक्खू,ँ रसमय और पिवऽ रक्खूँ

नववधू की भाँित! हाय! मैं सच कहती हँू

मैं इसे नहीं समझी; नहीं समझी; िबलकुल नहीं समझी! यह सारे संसार से पृथक् पद्धित का जो तुम्हारा प्यार है न

इस की भाषा समझ पाना क्या इतना सरल है ितस पर मैं बावरी

जो तुम्हारे पीछे साधारण भाषा भी इस हद तक भूल गई हँू

िक ँयाम ले लो! ँयाम ले लो! पुकारती हई ु हाट-बाट में नगर-डगर में

अपनी हँ सी कराती घूमती हँू ! िफर मैं उपनी माँग पर

आम के बौर की िलिप में िलखी भाषा का ठीक-ठीक अथर् नहीं समझ पायी

तो इसमें मेरा क्या दोष मेरे लीला-बन्धु! आज इस िनभृत एकांत में तुम से दरू पड़ी हँू

और तुम क्या जानो कैसे मेरे सारे िजःम में आम के बौर टीस रहे हैं

और उन की अजीब-सी तुशर् महक तुम्हारा अजीब सा प्यार है

जो सम्पूणत र् : बाँध कर भी

सम्पूणत र् : मुक्त छोड़ दे ता है ! छोड़ क्यों दे ता ही िूय?

क्या हर बार इस ददर् के नये अथर् समझने के िलए!

कनुिूया (मंजरी पिरणय - आॆ-बौर का गीत) यह जो मैं कभी-कभी चरम साक्षात्कार के क्षणों में िबलकुल जड़ और िनःपंद हो जाती हँू

इस का ममर् तुम समझते क्यों नहीं साँवरे ! तुम्हारी जन्म-जन्मांतर की रहःयमयी लीला की एकान्त-संिगनी मैं

इन क्षणों में अकःमात ्

तुम से पृथक् नहीं हो जाती मेरे ूाण,

तुम यह क्यों नहीं समझ पाते िक लाज िसफर् िजःम की नहीं होती मन की भी होती है एक मधुर भय

एक अनजाना संशय,

एक आमह भरा गोपन,

एक िनव्यार्ख्या वेदना; उदासी,

जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी अिभभूत कर लेती है ।

भय, संशय, गोपन, उदासी

ये सभी ढीठ, चंचल, सरचढ़ी सहे िलयों की तरह मुझे घेर लेती हैं

और मैं चाह कर भी तुम्हारे पास ठीक उसी समय नहीं पहँु च पाती जब आॆ मंजिरयों के नीचे

अपनी बाँसुरी में मेरा नाम भर भर के मुझे बुलाते हो! उस िदन तुम उस बौर लदे आम की

झुकी डािलयों से िटके िकतनी दे र मुझे वंशी से टे रते रहे ढलते सूरज की उदास काँपती िकरणें तुम्हारे माथे के मोरपंखों

से बेबस िवदा माँगने लगीं मैं नहीं आयी

यमुना के घाट पर

ु मछओं ने अपनी नावें बाँध दीं

और कंधों पर पतवारें रख चले गये मैं नहीं आयी

तुम ने वंशी होठों से हटा ली थी

और उदास, मौन, तुम आॆ-वृक्ष की जड़ों से िटक कर बैठ गये थे

और बैठे रहे , बैठे रहे , बैठे रहे

मैं नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी तुम अन्त में उठे

एक झुकी टाल पर िखला एक बौर तुमने तोड़ा और धीरे -धीरे चल िदये

अनमने तुम्हारे पाँव पगडं डी पर चल रहे थे

पर जानते हो तुम्हारे अनजान में ही तुम्हारी उँ गिलयाँ क्या कर रही थीं!

वे उस आॆ मंजरी को चूर-चूर कर

ँयामल वनघासों में िबछी उस माँग-सी उजली पगडण्डी पर िबखेर रहीं थीं…

यह तुम ने क्या िकये िूय! क्या अनजाने में ही

उस आम के बौर से मेरी क्वाँरी उजली पिवऽ माँग भर रहे थे साँवरे ?

पर मुझे दे खो िक मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर इस अलौिकक सुहाग से ूदीप्त हो कर माथे पर पल्ला डाल कर

झुक कर तुम्हारी चरणधूिल ले कर तुम्हें ूणाम करने -

नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी! – पर मेरे ूाण

यह क्यों भूल जाते हो िक मैं वही

बावली लड़की हँू न जो - कदम्ब के नीचे बैठ कर जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को

तोड़ कर, मसल कर, उन की लाली से मेरे पाँवों को महावर रचने के िलए अपनी गोद में रखते हो

तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हँू

और अपने पाँव पूरे बल से समेट कर खींच लेती हँू अपनी दोनों बाँहों में अपने घुटने कस मुँह फेर कर िनश्चल बैठ जाती हँू

पर शाम को जब घर आती हँू तो

िनभृत एकांत में दीपक के मन्द आलोक में अपने उन्हीं चरणों को अपलक िनहारती हँू

बावली-सी उन्हें प्यार करती हँू

जल्दी-जल्दी में अधबनी उन महावर की रे खाओं को चारों ओर दे ख कर धीमे-से चूम लेती हँू ।

– रात गहरा गई है

और तुम चले गए हो

और मैं िकतनी दे र तक बाँह से

उसी आॆ डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हँू

िजस पर िटक कर तुम मेरी ूतीक्षा करते हो और मैं लौट रही हँू , हताश, और िनंफल

और ये आम के बौर के कण-कण

मेरे पावों में बुरी तरह साल रहे हैं । पर तुम्हें यह कौन बतायेगा साँवरे िक दे र ही में सही

पर मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी और माँग-सी उजली पगडं डी पर िबखरे

ये मंजरी कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो

इसी िलए न िक िकतने लंबा राःता

िकतना जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है और काँटों और काँकिरयों से

मेरे पाँव िकस बुरी तरह घायल हो गये हैं ! यह कैसे बताऊँ तुम्हें

िक चरम साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी ू जाते हैं जो कभी-कभी मेरे हाथ से छट

तुम्हारी ममर्-पुकार जो मैं कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती तुम्हारी भेंट की अथर् जो नहीं समझ पाती तो मेरे साँवरे -

लाज मन की भी होती है एक अज्ञात भय,

अपिरिचत संशय,

आमह भरा गोपन, और सुख के क्षण

में भी िघर आने वाली िनव्यार्ख्या उदासीिफर भी उसे चीर कर

दे र में ही आऊँगी ूाण,

तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी

चन्दन-बाँहों में भर कर बेसध ु नहीं कर दोगे?

कनुिूया (पूवरर् ाग - पहला गीत) ओ पथ के िकनारे खड़े

छायादार पावन अशोक वृक्ष तुम यह क्यों कहते हो िक

तुम मेरे चरणों के ःपशर् की ूतीक्षा में जन्मों से पुंपहीन खड़े थे तुम को क्या मालूम िक

मैं िकतनी बार केवल तुम्हारे िलए धूल में िमली हँू

धरती से गहरे उतर जड़ों के सहारे

तुम्हारे कठोर तने के रे शों में

किलयाँ बन, कोंपल बन, सौरभ बन, लाली बन चुपके से सो गई हँू

िक कब मधुमास आये और तुम कब मेरे ूःफुटन से छा जाओ!

िफर भी तुम्हें याद नहीं आया, नहीं आया,

तब तुम को मेरे इन जावक-रिचत पाँवों ने

केवल यह ःमरण करा िदया िक मैं तुम्हीं में हँू तुम्हारे ही रे शे-रे शे में सोयी हई ु और अब समय आ गया िक

मैं तुम्हारी नस-नस में पंख पसार कर उड़ँू गी

और तुम्हारी डाल-डाल में गुच्छे -गुच्छे लाल-लाल किलयाँ बन िखलूँगी!

ओ पथ के िकनारे खड़े

छायादार पावन अशोक वृक्ष तुम यह क्यों कहते हो िक

तुम मेरे चरणों के ःपशर् की ूतीक्षा में जन्मों से पुंपहीन खड़े थे

कनुिूया (पूवरर् ाग - दस ू रा गीत) यह जो अकःमात ्

आज मेरे िजःम के िसतार के

एक-एक तार में तुम झंकार उठे हो सच बतलाना मेरे ःविणर्म संगीत

तुम कब से मुझ में िछपे सो रहे थे। सुनो, मैं अक्सर अपने सारे शरीर को -

पोर-पोर को अवगुण्ठन में ढँ क कर तुम्हारे सामने गयी मुझे तुमसे िकतनी लाज आती थी, मैंने अक्सर अपनी हथेिलयों में

अपना लाज से आरक्त मुँह िछपा िलया है मुझे तुमसे िकतनी लाज आती थी

मैं अक्सर तुमसे केवल तम के ूगाढ़ परदे में िमली

जहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझता था

मुझे तुमसे िकतनी लाज आती थी, पर हाय मुझे क्या मालूम था

िक इस वेला में जब अपने को

अपने से िछपाने के िलए मेरे पास कोई आवरण नहीं रहा

तुम मेरे िजःम के एक-एक तार से झंकार उठोगे

सुनो! सच बतलाना मेरे ःविणर्म संगीत इस क्षण की ूतीक्षा मे तुम

कब से मुझ में िछपे सो रहे थे!

कनुिूया (पूवरर् ाग - तीसरा गीत) घाट से लौटते हए ु

तीसरे पहर की अलसायी वेला में मैंने अक्सर तुम्हें कदम्ब के नीचे चुपचाप ध्यानमग्न खड़े पाया

मैंने कोई अज्ञात वनदे वता समझ

िकतना बार तुम्हें ूणाम कर सर झुकाया

पर तुम खड़े रहे अिडग, िनिलर्प्त, वीतराग, िनश्चल! तुम ने कभी उसे ःवीकारा ही नहीं!

िदन पर िदन बीतते गये

और मैंने तुम्हें ूणान करना भी छोड़ िदया

पर मुझे क्या मालूम था िक वह अःवीकृ ित ही ू बंधन बन कर अटट

मेरी ूणाम-बद्ध अंजिलयों में, कलाइयों में इस तरह िलपट जायेगी िक कभी खुल ही नहीं पायेगी और मुझे क्या मालूम था िक

तुम केवल िनश्चल खड़े नहीं रहे

तुम्हें वह ूणाम की मुिा और हाथों की गित इस तरह भा गई िक

तुम मेरे एक-एक अंग की एक-एक गित को पूरी तरह बाँध लोगे

इस सम्पूणर् के लोभी तुम

भला उस ूणाम माऽ को क्यों ःवीकारते? और मुझ पगली को दे खो िक मैं

तुम्हें समझती थी िक तुम िकतने वीतराग हो िकतने िनिलर्प्त!

कनुिूया (पूवरर् ाग - चौथा गीत) यह जो दोपहर के सन्नाटे में

यमुना के इस िनजर्न घाट पर अपने सारे वस्तर् िकनारे रख

मैं घण्टों जल में िनहारती हँू क्या समझते हो िक मैं

इस भाँित अपने को दे खती हँू ? नहीं मेरे साँवरे !

यमुने के नीले जल में

मेरा यह वेतसलता-सा काँपता तन-िबम्ब, और उस के चारों ओर साँवली गहराई का अथाह ूसार, जानते हो कैसा लगता है -

मानों यह यमुना की साँवली गहराई नहीं है यह तुम हो जो सारे आवरण दरू कर

मुझे चारों ओर से कण-कण, रोम-रोम

अपने ँयामल ूगाढ़ अथाह आिलंगन में पोर-पोर कसे हए ु हो!

यह क्या तुम समझते हो

घण्टों - जल में - मैं अपने को िनहारती हँू नहीं, मेरे साँवरे

कनुिूया (पूवरर् ाग - पाँचवाँ गीत) यह जो मैं गृहकाज से अलसा कर अक्सर इधर चली आती हँू

और कदम्ब की छाँह में िशिथल, अःतव्यःत अनमनी-सी पड़ी रहती हँू …

यह पछतावा अब मुझे हर क्षण सालता रहता है िक

मैं उस रास की रात तुम्हारे पास से लौट क्यों आयी? जो चरण चुम्हारे वेणुमादन की लय पर

तुम्हारे नील जलज तन की पिरबमा दे कर नाचते रहे वे िफर घर की ओर उठ कैसे पाये मैं उस िदन लौटी क्यों -

कण-कण अपने को तुम्हें दे कर रीत क्यों नहीं गयी? तुम ने तो उस रास की रात

िजसे अंशतः भी आत्मसात ् िकया उसे सम्पूणर् बना कर

वापस अपने-अपने घर भेज िदया पर हाय वही सम्पूणत र् ा तो

इस िजःम के एक-एक कण में बराबर टीसती रहती है , तुम्हारे िलए!

कैसे हो जी तुम?

जब जाना ही नहीं चाहती

तो बाँसुरी के एक गहरे आलाप से मदे न्मत्त मुझे खींच बुलाते हो

और जब वापस नहीं आना चाहती तब मुझे अंशतः महण कर

सम्पूणर् बना कर लौटा दे ते हो!

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