मुकेश जैन की कवितायं
िे तुम्हारे पास आयंगे ×××
और तुम संकोच
से अपने को वसकोड़ने लगोगे। िे चाहंगे कक तुम इतने वसकु ड़ जाओ कक वसफ़र हो जाओ।
सन् 2009
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कविता के उन्माद मं मं हिाओं को चीरता हुआ चला जाता हूँ वचकु साई की भाँवत
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मुकेश जैन । गढ़ाकोटा (सागर) मं जन्म । 6 कदसम्बर, 1965 सोमिार ।
मध्यम िगीय पररिार ।
पेशा व्यिसाय । बचपन से ही बे-परिाह । सागर विश्वविद्यालय को वपकवनक स्पाट की तरह माना, जहाँ 4 साल मजे ककये । एम. काम. पूिााध्दा । सम्रवत- बवनयावगरी । पता-
सब्जी मण्डी, गढ़ाकोटा (सागर) म. र. भारत मोबाइल नं. +919329258031 E-mail-
[email protected]
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आओ, मुझे ज़रुरत है तुम्हारी वसर रखकर तुम्हारी गोद मं विस्मृवत मं डू ब जाऊं !
आओ, तुम मंथर नदी हो , ज़रुरत है मुझे विश्रावन्त की अपने सीने पर मुझे वसर रखने दो .
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आओ , उस टपरे पर एक -एक कप चाय पीलं कु छ बातं हो जायंगी इसी बहानं गुज़रे कदनं की
पढ़ने के कदन की बातं तो गुज़री बातं है उन बातं के बाद की बातं कर लं
घर के धक्कों की बातं बेतरतीब बालं , दाढ़ी की बातं जूतं से हिाई चप्पल पर आने की बातं , देखकर खूबसूरत लड़ककयं को चाल धीमी न होने की बातं , भूल गये आदशं की बातं ,
बातं बातं
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कहाँ हो पायी बातं
आया चाय का कप पतली बेस्िाद चाय कह गई सारी बातं .
08/11/1989
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हेलो वडयर तुमने देखी हं उस लड़की की जाँघं जो अभी अभी सायककल से वगरी थी यहाँ क्या सेक्सी जाँघं थं . मेरे तो मुँह मं पानी आ गया था सभी की नज़रं वचपकी थं उसकी जाँघं से सभी चचाा कर रहे थे उसकी स्काटा के बारे मं : ‘कै सा ज़माना आ गया है वछ: . वछ: . .‘
06/11/1990
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कु छ बातं करनी हं तुमसे आओ बैठें उस मंकदर की सीढ़ी पर जब कहा था मंने तुम्हारा उत्तैर क्या था हंठे मौन थे . शब्दं को भीतर ही तुमने टुकड़े-टुकड़े कर डाला था और एक गहरी दृवि मुझ पर ऎसा क्या था मं काँप उठेा था . कहा जब मंने साहस करके क्या मं पसंद नहं जो तुम दो-बातं करने भी नहं आते तब तड़फ उठें थं तेरी धुँधली आँखं कु छ बोली थं , कहती थं मं लड़की हूं तुमसे दो-बातं करने नहं आ सकती लोग क्या कहंगे »»»
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डरती हूं , लेककन तुम्हारे आँसू कु छ और भी कहते थे : ‘ कहं गहरे कु छ चुभता है लड़की होना ‘ .
23/04/88
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मत करो मत करो प्यार प्यार करना पागलपन है .
सािधान सािधान समाज की औक़ात का ध्यान रखो .
मत तोड़ो मत तोड़ो मत तोड़ो इयत्ता , खतरा है
अंधेरे मं हो जाओ मदाखोर औरतखोर इसमं कोई खतरा नहं
लेककन , उजाले मं मत छू लेना एक-दूसरे को ऎसा करना विकृ वत है .
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14/12/1989
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उसके वलए सड़क रास्ता भर होती है मोड़ इस तरह मुड़ जाता है जैसे मोड़ ही न हो आदमी तो होते ही नहं हं सड़क पर उसके वलए न मक़ान, न दुकानं लड़ककयाँ भी नहं
यह पक्कोा है िह उदास नहं है
उसकी भाषा वसगरे ट के धुएँ मं वमलकर और तल्ख़ हो जाती है
िह समाज के मुँह पर थूंकता है धुआं
तुम्हे लगेगा िह रदूषण फं कता है . 03/05/1992
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मं नहं जानता / यह क्या है , मन-मृग बािरा भटकता है मं गेर नहं पाता मं नहं मानता यह मेरी कमज़ोरी है पर नहं जानता यह क्या है .
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ककसी ने दरिाज़ा खटखटाया कफर खटखटाया नाम लेकर पुकारा मेरा मं सुनता रहा आिाज़ लेककन उठेा नहं
मुझे आश्चया हुआ कोई मुझे जानता है मेरे नाम से
मंने आइने मं अपने चेहरे की एक एक रे खा ध्यान से देखी , मं कु छ हूँ यह सोचता रहा मं शायद , पहली बार हंठे वखल उठेे थे
मेरा सारा वज़स्म जो कभी वसकु ड़कर »»»
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नम्बरं मं बदल गया था
आज़ कदखा है समूचा का समूचा .
27/03/1989
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िह इधर से रोज़ भुनसारे गुज़रता है बैलं को हाँकता हुआ . एक क्षण को िह बैलं को रोकता है सामने देखता है मुस्कराता हुआ बढ़ जाता है . सामने एक घर है दरिाज़े के दोनं ओर चबूतरे हं छप्पर को ढकतं बेलं कु म्हड़ा की , गोबर से छापी लीपी गयं दीिारं वजन्हं हर साल िह अपनी माँ के साथ छापती , लीपती है . िह कहता है इन दीिारं मं उसकी गंध समायी है जो नया उत्साह देती है ठेीक खेत की गंध की तरह .
09/12/1987
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मं ककताब खोलता हूँ चंद पंवियाँ ही पढ़ पाता धुंधला जाते हं अक्षर खो जाता हूँ पन्नों मं स्मृवत के एक बड़ी दुघाटना है यह
नहं, दुघाटना नहं ये सुखद क्षण हं मेरे मं खोता हूँ तुम मं तुम होती हो मुझ मं जब लौटता हूँ हर बार मँजा होता हूँ
ऎसा क्यं होता है तुम्हारी बेरुखी ही (िह नहं वजसमं प्यार नहं होता, तुम्हारी आँखं मं कूं द पड़ने को तत्पर प्यार देखा है मंने)
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मुझे तप्त और व्याकु ल करती है, कहं गहरे पैठे तुम मुझमं मुझको अपने मं खीचा करती हो.
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िह मुझे प्यार करती है बंद कमरे मं मुझे चूमते हुए उसका वज़स्म काँप जाता है िह बार बार मेरी बाहं से वखसलकर , दरिाजे से झाँकती है इतने-से ही अंतराल मं िह मुझे समूचा पा लेना चाहती है िह मुझे प्यार करती है बंद कमरे मं पुस्तकं मेज़ पर खुली , पेन का ढक्कोन बंद नहं , कु सी इस तरह रखी है कक जरा-सा खटका हो , और िह कु सी पर हो हाथ मं पेन वलए बंद कमरे मं प्यार करती है िह .
08/12/1989
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वनशान्त जैन कालेज मं पढ़ रहा है . उसने रथम श्रेणी मं स्नातक परीक्षा पास की . वनशान्त जैन एक होवशयार लड़का है . उसके माता - वपता खुश हं .
वनशान्त जैन ने स्नातकोत्तर परीक्षा भी रथम श्रेणी मं पास की . िह एक होवशयार लड़का है . उसके माता - वपता खुश है .
अब वनशान्त जैन रोज़गार समाचार पढ़ रहा है . उसने कई टॆस्ट भी कदये . िह पास भी हुआ . उसने साक्षात्कार भी कदये . वनशान्त जैन एक होवशयार लड़का है .
अब वनशान्त जैन ने परचून की »»»
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दुकान खोल ली है .
वनशान्त जैन सचमुच एक होवशयार लड़का है . उसके माता - वपता खुश हं .
7/02/2005
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मंने जब पत्थर छु आ जानता नहं पत्थछर मं कु छ घरटत हुआ पर मं सहसा स्पंकदत हो उठेा जैसे मंने तुम्हं छु आ हो . पत्थ र मेरे ताप से तप्तक हो उठेा होगा तभी तो मुझ को ऎसी अनुभूवत हुई , इस अनुभूवत मं मेरा अवस्थर मन सहसा डोल उठेा , इस अवस्थरता मं मं वनिाावसत नहं हुआ था स्ियं मं डू बा था . मुझको चारं तरफ़ तुम्हारा ही स्पशा वबखरा हुआ कदखता है ये अवखल विश्वह सारी की सारी िस्तुएं तुम बन गईं . और जब मेरा - तुम्हारा स्पशा होता मं स्ियं से बाहर आ कर तुम मं समावहत हो जाता . कफर मं और तुम मं और तुम नहं होते : अवखल विश्व मं फै ल जाते हं .
21/07/1987
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मरने से ठेीक पवहले मं याद करना चाहूँगा िे क्षण जो उस क्षण मधुरतम थे . कफर उस पीर को धो डालूंगा जो उस क्षण ने दी थी .
- मुकेश जैन 18/04/1996
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हर क्षण जीता हूँ अहसास यही तुम मं रीता हूँ और तुम्हे अपने मं जीता हूँ .
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अन्योन्-रभािकारी तेजवस्िता सूक्ष्म-अवत-सूक्ष्म-रूपविता. विशुद्ध सौन्दया ! स्िणा-रं ग रस्फु ररता. कौन हो तुम ? क्यं आनंद वन:सृत होता ? परम रहस्य यही है क्या ? -तुम को नमन सौन्दयाता .
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िे बड़े हं ( िे अपना बड़ा होना बताना चाहते हं ) िे चाहते हं हम उन्हं सुबह - शाम नमस्ते करं . (िे विश्वब विद्यालय के छात्र नहं हं) हमं ध्यान रखना है िे कु वपत न हं . िे पीटंगे हमं . ( विश्ि विद्यालय के िररि छात्रं की तरह नहं ) मरटयामेट कर दंगे . िे बड़ी सफाई से हफ्ता िसूली करते हं . जो उन्हं नमस्ते नहं करते , उनसे दुवनया को खतरा है . िे हमं उनसे मुविी कदलाते हं . िे बड़े हं ( समय - समय पर इसकी याद कदलाते हं ) .
21/02/2005
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मुझे सब-कु छ अब अच्छा लगता है िसन्त को समझने लगा हूँ महसूस कर सकता हूँ जब से तुम आये .
रास्ता अनन्त था रवतक्षारत कदम चूमने मेरे , मं था कमा-हीन-सा न जाने कब से -चल पड़ा अनन्त-यात्रा की ओर अनिरत् जब से »»»
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तुम आये .
तुम्हारी आँखं मं आशाओं के गहरे -सागर, उनसे टपकती-सी राग-द्युवत, और तेजस् उसकी द्युवत के सामने सब की आभा मन्द
मन मं तेरे वजजीविषा अदम्य साहस -वनरन्तर गवत – क्रमश: .
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बच्चे उगे बच्चे उगे बड़े हुए जैसे जंगली पौधे
12/05/1988
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िह आती है लकड़ी का गठ्ठर लादे
काँछ लगाकर धोती पहनी है उसने काली काली वपवण्डवलयाँ दीखती हं इन वपवण्डवलयं को देख मन मं कु छ भी घरटत नहं होता है -बस दो बातं होती हं समय वबतानं.
िह मुहािरे दार भाषा नहं जानती / अथा-अनथा कर लेती है. सीदी-सादी भासा कै ती.
मंने एक दु:साहस ककया अपना हाथ बढ़ा कदया : वमलाने वझझकक िह कफर मेरी आँखं मं देखा »»»
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न जाने क्या दीखा कु छ सोचा उसने और हाथ बढ़ा कदया
मुझे ऎसा लगा कक मंने ककसी छाल दार पेड़ को पकड़ा हो िह खुरदरापन खरंच गया
हथेली लाल हुई .
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िे तुम्हारे पास आयंगे .समझायंगे . उनके अथं मं तुम सामावजक नहं हो . तुम नहं चलते हो उनके पदवचन्हं को टटोलते हुए . िे तुम्हं बतायंगे समाज के माने . िे तुम्हे भय कदखायंगे .
िे तुम्हे बतायंगे , तुम विचारं मं जीते हो . विचार व्यिहाररक नहं होते . कफर , िे तुम्हे बतायंगे कक ये कु ण्ठेाओं के बदले हुए रूप हं . तुम इसका विरोध करोगे . तका दोगे . िे कहंगे बेमानी . और हंस दंगे एक खास अंदाज मं .
िे बहुत शविे शाली हं . तुमसे भी अवधक . िे तुम्हं तोड़ने का पूरा रयास करं गे . िे तुमसे कहंगे , तुम पागल हो . सनकी हो . रचार करं गे . िे »»»
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तुम्हारा उपहास उड़ायंगे . तुम्हारी बातं पर हँसंगे . िे तुम्हं इसका एहसास करायंगे . िे तुम्हारे चतुर्ददक एक िृत्त बना लंगे . वगरधर राठेी की ‘ऊब के अनंत कदन ‘की तरह .
कफर धीरे धीरे तुम्हं उनकी बातं पर यक़ीन होने लगेगा . और तुम संकोच से अपने को वसकोड़ने लगोगे . िे चाहंगे कक तुम इतने वसकु ड़ जाओ कक वसफ़र हो जाओ .
23/12/1991
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एक खवण्डत नदी - तालाबनुमा पानी गंदला - सड़ा हुआ कक पैर छु आने से भी डर लगता है , सीवड़याँ - पंजा मात्र आड़ा रखा जा सकता है काई - भीगं पानी मं शैतान एक जो खंचता है पैर पकड़ .
खड़ा हूँ दीिार पकड़े रथम सीड़ी पर नीचे पानी चढ़ने की कोवशस शैतान हर बार »»»
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खंचता है वछटकता हूँ पहुँचता हूँ
अवन्तम सीड़ी पर पसीने से तरबतर हाँपता हुआ पीछे जब देखता हूँ शैतान भागता हूँ
भागता हूँ ...
27/08/1987
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छोटा बच्चा रोता है उसको भूख लगी है घंटं चढ़ी पतीली कब उतरे गी चूल्हे की न-आगी भी शान्त हो चुकी कब की अम्मा , मुन्नोे को क्यो भरमाती हो . अम्मा कहती आ जाने दो उसका बाबा िह शायद कु छ गेहूँ लाये सुबह जब िह वनकला था सट्टे पर बीड़ी देने मैने उसको जता कदया था घर मं नहं है इक दाना गेहूँ , िह आया नशे मं धुत्त गाली बकता साली इत्तीश-सी बीड़ी बनाती मेरी पूरी भी दारू नहं आती वपटती अम्मा अपना भाग्य कोसा करती कफर , आधी रात तक »»»
36
उसकी ऊँगवलयाँ सूपे पर चलती रहतं
बच्चा रोता पानी पी कर सो जाता है .
16/04/1988
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मुझे टी. व्ही. पर पता चला कक मैसम बदल चुका है इसकी दो-बातं दोस्तं से भी की हं मंने इससे अवधक कु छ नहं
बागं मं वखले फू ल मुझे आकर्षषत नहं करते ( मेरे पास िि नहं है ! )
मुझे आकर्षषत करती हं वसटी बसं की नम्बर प्लेटं बस स्टाप पर खड़ा मं घूरा करता हूं वसटी बसं की नम्बर प्लेटं को क्यंकक मुझे जाना होता है एक ख़ास स्थान पर काम करने ख़ास बसं को बदल कर , »»»
38
मेरी आँखं मं भय होता है .
19/11/1988
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रेम, शब्द नहं है वनव्याास रकाश-पुन्ज है अकृ वतम आकदम है . घनीभूत तेजस्-कण तीव्र रखर-दीप्त कक कृ वतम रकाश-रं ग खो जाता है .
रेम – आकदम होता है .
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बवनया होने के माने हं चोर और कमीना होना एक गँिार आदमी होना जो वजन्दगी जीना नहं जानता है
खूबसूरत लड़ककयाँ बवनयं के वलए नहं होतं हं और बौवद्धकं के वलए तो बवनया बात करने के कावबल भी नहं
बवनया होने के माने हं वजन्दगी ढोना कोई बाप सीधा रुख नहं करता है बवनयं की तरफ़ क्लकं के बाद आती है बवनयं की औकात
बवनया होने के माने हं अयोग्य होना रगवतशीलं के वलए अछू त »»»
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मं बवनया हूं और कविता वलखता हूँ .
21/03/1992
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जब आदमी अपनी आकदमता मं जीते होते हं िह चंखता है भयानक ( तो ) रात और स्याह हो जाती है ,
अपने बंद कमरे मं चादर को अपने चारं ओर और कसकर लपेट लेता हूं और स्िस्थ सांस लेने को मुँह चादर से बाहर वनकालने का साहस नहं होता ,
िह क्यं चंखता है यह सिाल बहरहाल »»»
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मं रात के अंधेरे मं नहं पूछता कदन के उजाले मं सोचता हूं . कफ़लहाल मेरे पास
इस सिाल का कोई ज़िाब नहं िह ककसके विरुद्ध चंखता है
क्यंकक शायद इसवलए कक िह पागल है .
02/12/1988
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मेरी आँखं मं एक सपना है वछपा-हुआ है धुन्ध के पीछे कांपता है कांपता है कांपता है िह , जब भी उसको उत्तेैैजनावमलती है ( शायद िह जानता है उस पर मेरे माँ-बाप की सत्ता है , िह जकड़ा है ) सपने का कं पना , मुझको वहला वहला जाता है ब्यौरे सपने के , या अपने वहलने की आिाज़ं तुमको कै से दूं मेरी जीभ कटी हुई है .
10/11/1989
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मुझे दुवनयाँ का फलसफ़ा मालूम नहं है . बच्चा खुद को नंगा देखकर खुश होता है . न - जाने - हुए फलसफ़े को ढोते ढेरं लोग रोज़ मरते हं . लोगं की आँखं मं झाँको तो न - जाना - सा फलसफ़ा एक खौफ़ की मांनिनद भीतर उतर जाता है . जहाँ बच्चं की आँखं की नग्नता अँकुराती है . अखिार पढ़ते हुए अचानक कविता पढ़ना पढ़े तो एक बैचेनी - सी होती है . यहं से दुवनयाँ के फलसफ़े का वसरा शुरु होता है . कविता वरया की तरह नहं आती है . तग़ादा करने आये बवनया की तरह एहसास कराती है .
20/01/1996
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मं तुम्हं प्यार नहं करता कफर भी कदल मं एक अज़ब सी कसक उठेती है जब अचानक तुम्हारा वज़क्र आता है , अनजाने ही तुम्हं िह सम्मान देने लगा हूँ जो आज तक ककसी लड़की को नहं कदया मं तुम्हं प्यार नहं करता कफर भी तुम से वमलना चाहता हूँ तुम्हारा घर पास ही है लेककन पग - दो - पग बढ़ा कर िावपस लौट आता हूँ इसवलए नहं कक मं तुम्हं प्यार नहं करता हूँ कफर भी , नहं जानता ऎसा क्यं होता है . मं तुम्हं प्यार नहं करता कफर भी जहाँ तुम्हारे पहुँचने की सम्भािना होती है मं िहाँ अिश्य पहुँचता हूँ और यकद िहाँ तुम नहं वमलते तो कदल टूट - सा जाता है .
24/02/1987
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घर पर सभी कहते हं तुम देर से उठेने लगे हो
मं आज भी छह बजे उठेता हूँ लेककन लेटा रहता हूँ और सोचता रहता हूँ तुम्हारे-अपने बारे मं
सभी कहते हं तुम्हं क्या हो गया है पुकारने पर सुनते नहं
अपने मं ही कभी मुस्कराहट कभी उदासी मं नहं जानता कक ऎसा क्यं होता है . 22/11/1987
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जलने लगे बदन अपने ही ताप से , लंगं के आिरण राख हुए
आकर्षषत हुए झील से कू द गये लोग जल िाष्प बन उड़ गया
कोहरा छा गया
कोहरा थरथरा उठेा चंखं से .
07/04/1986
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मेरी चप्पल वघस गई हं अब क्या होगा इसी सोच मं बैठेा हूँ मं खीझ-खीझ उठेता हूँ मं उस पर , वजसने पहली चप्पल बनाई होगी , यकद नहं बनाता , तो यह कदन नहं देखना पड़ता मुझको , मेरी सारी वचन्ता चप्पल है नंगे पैरं कै से चलूं मेरी भी तो कोई इज़्ज़त है अब क्या होगा अब खरीदनी ही होगी चप्पल एक जोड़ी कतर-ब्यौत करके खचं मं , खचे , जो मेरी इज़्ज़त बरकरार रखते हं
22/06/1989
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मन का कोना कोना छाना तुम्ही हर ज़गह थे, मं न था रक् त-कणं मं भी खोज़ा था मं वबन अब क्या खोना, पाना
तुम मुझ मं, तो मं भी हूँगा शायद मं अन्ज़ान बना हूँ या कफर मं नादान बना हूँ साथ तुम्हारा, पा ही लूगाँ
क्यं व्याकु ल हूँ मं को पाने मं होगा तो रचना होगी जो जीिन का सपना होगी कफर खोना, पाना को माने
मं प्यार को सुविस्मृत करता कफर वनखार कर अर्षपत करता
25/06/1989
51
आज मं उविग्न हूँ
समर्षपत करता हूँ अक्षत् दो अश्रु-कण तुम्हं
मं इस योग्य कहाँ था कक तुम्हं पुकार सकूँ तुम्हारा नाम लेकर, लेककन आज ध्िवन देता हूँ तुम्हारा नाम मंत्रोच्चार बना
मुझ से उच्चाररत ये कम्पन मुझ मं समा रहा है. 16/01/1989
52
मेरे होने का मुझे – कोई अथा नहं है, मं हूँ – इसवलये हूँ नहं होता – तो नहं होता
अथा है , मेरे होने का – दुवनया को,
मं न होता – तो भी दुवनया को अथा होता – मेरे न होने का।
मुझे अथा है – दुवनया के होने का। 09/01/1989
53
वनस्तब्ध लम्बी रात अके लापन क्षण क्षण लम्बा मन चंचल / विकल करिटं बदल बदल नहं कटती रात। तीखी िेदना। संसय जलता। तप्त मं आखं मं क्षार क्षार धुआं- सा नहं वगरता अश्रु जल। 27/10/1988
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दोस्त! तुमने पत्र वलखा/ वमला स्याही को माध्यम बनाया नहं शायद संकीणा हो जाता कागज कोरा वलखा। मंने पढ़ा उसे सह-अनुभूत ककया न समपाण था/ न आकांक्षा ही आनंद तत्ि वमला। उिेवलत हुई हंगी तरं गं मन की तभी तो आनंद-तत्ि वनष्पन्नो हुआ।
मन मं स्पन्दन हुआ/ तरं वगत हो उठेा उिेलन/ कफर वनष्पन्नो-आनंद-तत्ि 03/06/2008
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गुजरता हुआ मुदाा ककसी बुद्ध से ही सिाल कर सकता है कक ’आदमी क्यं मरता है’
रोज ककतने ही मुदे गुजरते हं ककतने ही आदवमयं की नजरं के सामने से
कोई मुदाा सिाल नहं करता ककसी आदमी से कक’आदमी क्यं मरता है’
गुजरता हुआ मुदाा यह जरूर कहता है कक ’आदमी मरता है’
और आदमी घर आकर »»»
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औरत को बाहं मं भर वबस्तर पर चला जाता है क्यंकक मुदाा आदमी से कहता है कक ’आदमी मरता है’। 05/12/1988
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ककतने अच्छे थे! िे कदन बचपन के तुम वबन िे कदन कहाँ गुजरते थे! जब भी इच्छा होती तत्क्षण पास तुम्हारे आ जाता था मन वनमाल थे।
ककतने खेल रचाये थे संग तुम्हारे साथ सावथयं के ; मन को कु छ भी घंट घंट खाता नहं था मन वनश्छल थे।
आज कहाँ कह सकता तुम से आओ, जरा चलं घूमने बाहर तक कु छ खेल रचायं
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हम बड़े हुए हं।
08/01/1989
आज मं उविग्न हूँ
समर्षपत करता हूँ अक्षत् दो अश्रु-कण तुम्हं
मं इस योग्य कहाँ था कक तुम्हं पुकार सकूँ तुम्हारा नाम लेकर, लेककन आज ध्िवन देता हूँ तुम्हारा नाम मंत्रोच्चार बना
मुझ से उच्चाररत ये कम्पन मुझ मं समा रहा है. 16/01/1989