Mirror

  • Uploaded by: Kuldip Gupta
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  • April 2020
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  • Words: 163
  • Pages: 1
जब कभी आईना दे खता हूँ ििहर उठता हूँ

हर बार एक नया चेहरा हर बार आईना एक िबना धार के चाकु िे मेरे वयिितव का कुछ न कुछ अंश तराश ही दे ता है । और ििर मुझे इि कीण होते वयिितव की िवभीििका िे भय लगता है । कभी कभी पतीत होता है िक िमभवतः अगली बार जब आईना दे खूं तो उिमे, मेरा लुपपायः वयिितव शायद नजर ही न आए। अब अब इि िमभावना िे िनजात हे तू मैने अपने हाल के अपने िबखरे िछतरे चेहरे को िमेट कर उिकी एक तसवीर बनवा ली है िमय के थपेड़ो िे बचाने के िलये इि तसवीर को शीशे मे मढ़ भी िदया है । अब आईने मे न िही आईने के बाहर तो कम िे कम कहीं तो बचा रहे गा मेरा वयिितव िजिे मै खुद भी िनहार पाउं गा और परीिचतो के िमकक भी चाहे िनषपाण ही पसतुत कर पाउं गा। कहीं तो, इिी तरह बाकी रह जायेगा ये मेरा चेहरा।

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