किि आज सुना िह गान रे / अटल ििहारी िाजपेयी किि आज सुना िह गान रे , िजससे खुल जाएँ अलस पलक। नस – नस मे जीिन झंकृत हो, हो अंग – अंग मे जोश झलक। ये - िंधन ििरिंधन टू टे – फूटे पासाद गगनिुमिी हम िमलकर हषष मना डाले, हूके उर की िमट जायँ सभी। यह भूख – भूख सतयानाशी िुझ जाय उदर की जीिन मे। हम िषो से रोते आए अि पिरितन ष हो जीिन मे। कंदन – कंदन िीतकार और, हाहाकारो से ििर पिरिय। कुछ कण को दरू िला जाए, यह िषो से दख ु का संिय।
हम ऊि िुके इस जीिन से, अि तो ििसफोट मिा दे गे। हम धू - धू जलते अंगारे है , अि तो कुछ कर िदखला दे गे। अरे ! हमारी ही हडडी पर, इन दष ु ो ने महल रिाए।
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हमे िनरं तर िूस – िूस कर, झूम – झूम कर कोष िढाए। रोटी – रोटी के टु कडे को, ििलख–ििलखकर लाल मरे है । इन – मतिाले उनमतो ने, लूट – लूट कर गेह भरे है । पानी फेरा मयाद ष ा पर, मान और अिभमान लुटाया। इस जीिन मे कैसे आए, आने पर भी कया पाया ? रोना, भूखो मरना, ठोकर खाना, कया यही हमारा जीिन है ? हम सिचछं द जगत मे जनमे, िफर कैसा यह िंधन है ? मानि सिामी िने और— मानि ही करे गुलामी उसकी। िकसने है यह िनयम िनाया, ऐसी है आजा िकसकी ? सि सिचछं द यहाँ पर जनमे, और मतृयु सि पाएँगे। िफर यह कैसा िंधन िजसमे, मानि पशु से िँध जाएँगे ? अरे ! हमारी जिाला सारे — िंधन टू क-टू क कर दे गी। पीिडत दिलतो के हदयो मे, अि न एक भी हूक उठे गी।
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हम दीिाने आज जोश की— मिदरा पी उनमत हुए।
सि मे हम उललास भरे गे, जिाला से संतप हुए। रे किि ! तू भी सिरलहरी से, आज आग मे आहुित दे ।
और िेग से भभक उठे हम, हद – तंती झंकृत कर दे ।
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िैभि के अिमट िरण-ििह / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी संगह का मुख पृ ष : न दैनय ं न पलायन म् / अट ल ििह ारी िा जपेय ी
ििजय का पिष ! जीिन संगाम की काली घिडयो मे किणक पराजय के छोटे -छोट कण अतीत के गौरि की सििणम ष गाथाओं के पुणय समरण मात से पकािशत होकर ििजयोनमुख भििषय का पथ पशसत करते है । अमािस के अभेद अंधकार का— अनतःकरण पूिणम ष ा का समरण कर थराष उठता है । सिरता की मँझधार मे अपरािजत पौरष की संपूणष उमंगो के साथ जीिन की उताल तरं गो से हँ स-हँ स कर कीडा करने िाले नैराशय के भीषण भँिर को कौतुक के साथ आिलंगन आननद दे ता है ।
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पित ष पाय लहिरयाँ उसे भयभीत नहीं कर सकतीं उसे ििनता कया है ? कुछ कण पूिष ही तो िह सिेचछा से कूल-कछार छोडकर आया उसे भय कया है ? कुछ कण पशात ् ही तो िह संघषष की सिरता पार कर िैभि के अिमट िरण-ििह अंिकत करे गा। हम अपना मसतक आतमगौरि के साथ तिनक ऊँिा उठाकर दे खे ििश के गगन मंडल पर हमारी किलत कीितष के असंखय दीपक जल रहे है । युगो के िज कठोर हदय पर हमारी ििजय के सतमभ अंिकत है । अनंत भूतकाल हमारी िदवय ििभा से अंिकत है । भािी की अगिणत घिडयाँ हमारी ििजयमाला की लिडयाँ िनने की पतीका मे मौन खडी है ।
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हमारी ििशिििदत ििजयो का इितहास अधमष पर धमष की जयगाथाओं से िना है । हमारे राष जीिन की कहानी ििशुद राषीयता की कहानी है ।
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न दै नयं न पलायनम ्. / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी संगह का मुख पृ ष : न दैनय ं न पलायन म् / अट ल ििह ारी िा जपेय ी
कतवषय के पुनीत पथ को हमने सिेद से सींिा है , कभी-कभी अपने अशु और— पाणो का अधयष भी िदया है । िकनतु, अपनी धयेय-याता मे— हम कभी रके नहीं है । िकसी िुनौती के सममुख कभी झुके नहीं है । आज, जि िक राष-जीिन की समसत िनिधयाँ, दाँि पर लगी है , और, एक घनीभूत अँधेरा— हमारे जीिन के सारे आलोक को िनगल लेना िाहता है ; हमे धयेय के िलए जीने, जूझने और आिशयकता पडने पर— मरने के संकलप को दोहराना है ।
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आगनेय परीका की इस घडी मे— आइए, अजुन ष की तरह उदोष करे : ‘‘न दै नयं न पलायनम।्’’
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िहरोिशमा की पीडा / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
िकसी रात को मेरी नींद आिानक उिट जाती है आंख खुल जाती है मै सोिने लगता हूँ िक
िजन िैजािनको ने अणु असो का आििषकार िकया था िे िहरोिशमा-नागासाकी के भीषण नरसंहार के समािार सुनकर रात को कैसे सोये होगे? कया उनहे एक कण के िलये सही ये अनुभूित नहीं हुई िक
उनके हाथो जो कुछ हुआ अचछा नहीं हुआ!
यिद हुई, तो िकत उनहे कटघरे मे खडा नहीं करे गा िकनतु यिद नहीं हुई तो इितहास उनहे कभी माफ नहीं करे गा!
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सितंतता िदिस की पुकार / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
पनदह अगसत का िदन कहता आजादी अभी अधूरी है । सपने सि होने िाकी है , रािी की शपथ न पूरी है ।। िजनकी लाशो पर पग धर कर आजादी भारत मे आई। िे अि तक है खानािदोश गम की काली िदली छाई।। कलकते के फुटपाथो पर जो आँधी-पानी सहते है । उनसे पूछो, पनदह अगसत के िारे मे कया कहते है ।। िहनद ू के नाते उनका दःुख
सुनते यिद तुमहे लाज आती। तो सीमा के उस पार िलो सभयता जहाँ कुिली जाती।। इनसान जहाँ िेिा जाता, ईमान खरीदा जाता है । इसलाम िससिकयाँ भरता है , डालर मन मे मुसकाता है ।।
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भूखो को गोली नंगो को हिथयार िपनहाये जाते है । सूखे कणठो से जेहादी नारे लगिाए जाते है ।। लाहौर, करांिी, ढाका पर मातम की है काली छाया। पखतूनो पर, िगलिगत पर है गमगीन गुलामी का साया।। िस इसीिलए तो कहता हूँ आजादी अभी अधूरी है ।
कैसे उललास मनाऊँ मै? थोडे िदन की मजिूरी है ।। िदन दरू नहीं खंिडत भारत को पुनः अखणड िनाएँगे।
िगलिगत से गारो पितष तक आजादी पिष मनाएँगे।। उस सिणष िदिस के िलए आज से कमर कसे ििलदान करे । जो पाया उसमे खो न जाएँ, जो खोया उसका धयान करे ।।
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दो अनुभूितयाँ / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
पहली अनुभूित : गीत नहीं गाता हूँ िेनकाि िेहरे है , दाग िडे गहरे है टू टता ितिलसम आज सि से भय खाता हूँ गीत नहीं गाता हूँ
लगी कुछ ऐसी नजर ििखरा शीशे सा शहर
अपनो के मेले मे मीत नहीं पता हूँ गीत नहीं गाता हूँ
पीठ मे छुरी सा िाँद राहु गया रे खा फांद
मुिि के कणो मे िार िार िंध जाता हूँ गीत नहीं जाता हूँ
दस ू री अनुभूित : गीत नया गाता हूँ टू टे हुए तारो से फूटे िासंती सिर
पतथर की छाती मे उग आया नि अंकुर झरे सि पीले पात कोयल की कुहुक रात
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पािी मे अरिणम की रे ख दे ख पता हूँ गीत नया गाता हूँ
टू टे हुए सपनो की कौन सुने िससकी
अनतर की िीर वयथा पलको पर िठठकी हार नहीं मानूँगा, रार नई ठानुगा, काल के कपाल पे िलखता िमटाता हूँ गीत नया गाता हूँ
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ऊँिाई / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
ऊँिे पहाड पर, पेड नहीं लगते, पौधे नहीं उगते, न घास ही जमती है । जमती है िसफष िफष, जो, कफन की तरह सफेद और, मौत की तरह ठं डी होती है । खेलती, िखल-िखलाती नदी, िजसका रप धारण कर, अपने भागय पर िूद ं -िूद ं रोती है । ऐसी ऊँिाई, िजसका परस पानी को पतथर कर दे , ऐसी ऊँिाई िजसका दरस हीन भाि भर दे , अिभननदन की अिधकारी है , आरोिहयो के िलये आमंतण है , उस पर झंडे गाडे जा सकते है , िकनतु कोई गौरै या, िहाँ नीड नहीं िना सकती, ना कोई थका-मांदा िटोही, उसकी छांि मे पलभर पलक ही झपका सकता है ।
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सचिाई यह है िक केिल ऊँिाई ही काफी नहीं होती, सिसे अलग-थलग, पिरिेश से पथ ृ क, अपनो से कटा-िंटा, शूनय मे अकेला खडा होना, पहाड की महानता नहीं, मजिूरी है । ऊँिाई और गहराई मे आकाश-पाताल की दरूी है । जो िजतना ऊँिा, उतना एकाकी होता है , हर भार को सियं ढोता है , िेहरे पर मुसकाने ििपका, मन ही मन रोता है । जररी यह है िक ऊँिाई के साथ ििसतार भी हो, िजससे मनुषय, ठू ं ट सा खडा न रहे , औरो से घुले-िमले, िकसी को साथ ले, िकसी के संग िले। भीड मे खो जाना, यादो मे डू ि जाना, सियं को भूल जाना, अिसतति को अथष, जीिन को सुगंध दे ता है ।
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धरती को िौनो की नहीं, ऊँिे कद के इनसानो की जररत है । इतने ऊँिे िक आसमान छू ले, नये नकतो मे पितभा की िीज िो ले, िकनतु इतने ऊँिे भी नहीं, िक पाँि तले दि ू ही न जमे, कोई कांटा न िुभे, कोई कली न िखले। न िसंत हो, न पतझड, हो िसफष ऊँिाई का अंधड, मात अकेलापन का सननाटा। मेरे पभु! मुझे इतनी ऊँिाई कभी मत दे ना, गैरो को गले न लगा सकँू, इतनी रखाई कभी मत दे ना।
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झुक नहीं सकते / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
टू ट सकते है मगर हम झुक नहीं सकते सतय का संघषष सता से नयाय लडता िनरं कुशता से अंधेरे ने दी िुनौती है िकरण अंितम असत होती है दीप िनषा का िलये िनषकमप िज टू टे या उठे भूकमप यह िरािर का नहीं है युद हम िनहतथे, शतु है सननद हर तरह के शस से है सजज और पशुिल हो उठा िनलज ष ज िकनतु िफर भी जूझने का पण अंगद ने िढाया िरण पाण-पण से करे गे पितकार समपण ष की माँग असिीकार दाँि पर सि कुछ लगा है , रक नहीं सकते टू ट सकते है मगर हम झुक नहीं सकते
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अपने ही मन से कुछ िोले / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
कया खोया, कया पाया जग मे िमलते और ििछुडते मग मे मुझे िकसी से नहीं िशकायत यदिप छला गया पग-पग मे एक दिष िीती पर डाले, यादो की पोटली टटोले! पथ ृ िी लाखो िषष पुरानी जीिन एक अननत कहानी पर तन की अपनी सीमाएँ यदिप सौ शरदो की िाणी इतना काफी है अंितम दसतक पर, खुद दरिाजा खोले! जनम-मरण अििरत फेरा जीिन िंजारो का डे रा आज यहाँ, कल कहाँ कूि है कौन जानता िकधर सिेरा अंिधयारा आकाश असीिमत,पाणो के पंखो को तौले! अपने ही मन से कुछ िोले!
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आओ िफर से िदया जलाएँ / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
आओ िफर से िदया जलाएं भरी दप ु हरी मे अंिधयारा सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह िनिोडे िुझी हुई िाती सुलगाएं।
आओ िफर से िदया जलाएं हम पडाि को समझे मंिजल लकय हुआ आंखो से ओझल ितमान ष के मोहजाल मे-
आने िाला कल न भुलाएं। आओ िफर से िदया जलाएं। आहुित िाकी यज अधूरा अपनो के ििघनो ने घेरा
अंितम जय का िज िनानेनि दधीिि हिडडयां गलाएं। आओ िफर से िदया जलाएं
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एक िरस िीत गया / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
एक िरस िीत गया झुलासाता जेठ मास शरद िाँदनी उदास िससकी भरते सािन का अंतघट ष रीत गया एक िरस िीत गया सीकिो मे िसमटा जग िकंतु ििकल पाण ििहग धरती से अमिर तक गूँज मुिि गीत गया एक िरस िीत गया
पथ िनहारते नयन िगनते िदन पल िछन लौट कभी आएगा मन का जो मीत गया एक िरस िीत गया
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मै न िप ु हूँ न गाता हूँ / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
न मै िुप हूँ न गाता हूँ सिेरा है मगर पूरि िदशा मे िघर रहे िादल रई से धुंधलके मे मील के पतथर पडे घायल िठठके पाँि ओझल गाँि जडता है न गितमयता सियं को दस ू रो की दिष से मै दे ख पाता हूं
न मै िुप हूँ न गाता हूँ समय की सदर साँसो ने ििनारो को झुलस डाला, मगर िहमपात को दे ती िुनौती एक दम ष ाला, ु म ििखरे नीड, ििहँ से िीड, आँसू है न मुसकाने, िहमानी झील के तट पर अकेला गुनगुनाता हूँ।
न मै िुप हूँ न गाता हूँ
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मौत से ठन गई / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
ठन गई! मौत से ठन गई! जूझने का मेरा इरादा न था, मोड पर िमलेगे इसका िादा न था, रासता रोक कर िह खडी हो गई, यो लगा िजनदगी से िडी हो गई। मौत की उमर कया है ? दो पल भी नहीं, िजनदगी िसलिसला, आज कल की नहीं। मै जी भर िजया, मै मन से मरँ, लौटकर आऊँगा, कूि से कयो डरँ? तू दिे पाँि, िोरी-िछपे से न आ, सामने िार कर िफर मुझे आजमा। मौत से िेखिर, िजनदगी का सफर, शाम हर सुरमई, रात िंसी का सिर। िात ऐसी नहीं िक कोई गम ही नहीं, ददष अपने-पराए कुछ कम भी नहीं। पयार इतना परायो से मुझको िमला, न अपनो से िाकी है कोई िगला। हर िुनौती से दो हाथ मैने िकये, आँिधयो मे जलाए है िुझते िदए।
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आज झकझोरता तेज तूफान है , नाि भँिरो की िाहो मे मेहमान है । पार पाने का कायम मगर हौसला, दे ख तेिर तूफाँ का, तेिरी तन गई। मौत से ठन गई।
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जीिन की ढलने लगी साँझ / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
जीिन की ढलने लगी साँझ उमर घट गई डगर कट गई जीिन की ढलने लगी साँझ | िदले है अथष शबद हुए वयथष
शािनत ििना खुिशयाँ है िाँझ | सपनो मे मीत ििखरा संगीत िठठक रहे पाँि और िझझक रही झाँझ | जीिन की ढलने लगी साँझ |
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पुनः िमकेगा िदनकर / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
आजादी का िदन मना, नई गुलामी िीि ; सूखी धरती, सूना अंिर, मन-आंगन मे कीि ; मन-आंगम मे कीि, कमल सारे मुरझाए ; एक-एक कर िुझे दीप, आँिधयारे छाए ; कह कैदी कििराय न अपना छोटा जी कर ; िीर िनशा का िक पुनः िमकेगा िदनकर ।
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दध ू मे दरार पड गई / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
खून कयो सफेद हो गया ? भेद मे अभेद खो गया | िँट गये शहीद, गीत कट गए, कलेजे मे कटार दड गई | दध ू मे दरार पड गई | खेतो मे िारदी गंध, टु ट गये नानक के छं द सतलुज सहम उठी, वयािथत सी िितसता है | िसंत से िहार झड गई दध ू मे दरार पड गई | अपनी ही छाया से िैर, गले लगने लगे है गैर, खुदकुशी का रासता, तुमहे ितन का िासता | िात िनाएँ, ििगड गई | दध ू मे दरार पड गई |
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कौरि कौन, कौन पाणडि / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
कौरि कौन कौन पाणडि, टे ढा सिाल है | दोनो ओर शकुिन का फैला कूटजाल है | धमरषाज ने छोडी नहीं जुए की लत है | हर पंिायत मे पांिाली अपमािनत है | ििना कृ षण के आज महाभारत होना है , कोई राजा िने, रं क को तो रोना है |
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हरी हरी दि ू पर / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
हरी हकी दि ू पर ओस की िूँदे अभी थी, अभी नहीं है | ऐसी खुिशयाँ जो हमेशा हमारा साथ दे कभी नहीं थी, कहीँ नहीं है | ककाँयर की कोख से फूटा िाल सूयष, जि पूरि की गोद मे पाँि फैलाने लगा, तो मेरी िगीिी का पता-पता जगमगाने लगा, मै उगते सूयष को नमसकार करँ या उसके ताप से भाप िनी, ओस की िुँदो को ढु ँ ढुँ ? सूयष एक सतय है िजसे झुठलाया नहीं जा सकता मगर ओस भी तो एक सचिाइ है यह िात अलग है िक ओस किणक है कयो न मै कण कण को िजऊँ ? कण-कण मे ििखरे सौनदयष को िपऊँ ?
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सूयष तो िफर भी उगेगा, धूप तो िफर भी िखलेगी, लेिकन मेरी िगीिी की हरी-हरी दि ू पर, ओस की िूँद
हर मौसम मे नहीँ िमलेगी |
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कदम िमला कर िलना होगा / अटल ििहारी िाजपेयी रिनाकार : अट ल ििहारी िाजप ेय ी
िाधाये आती है आये िघरे पलय की घोर घटाये, पािो के नीिे अंगारे , िसर पर िरसे यिद जिालाये, िनज हाथो मे हं सते-हं सते, आग लगाकर जलना होगा। कदम िमलाकर िलना होगा। हासय-रदन मे, तूफानो मे, अगर असंखयक ििलदानो मे, उदानो मे, िीरानो मे, अपमानो मे, सममानो मे, उननत मसतक, उभरा सीना, पीडाओं मे पलना होगा। कदम िमलाकर िलना होगा। उिजयारे मे, अंधकार मे, कल कहार मे, िीि धार मे, घोर घण ृ ा मे, पूत पयार मे, किणक जीत मे, दीघर हार मे, जीिन के शत-शत आकषक ष , अरमानो को ढलना होगा। कदम िमलाकर िलना होगा।
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सममुख फैला अगर धयेय पथ, पगित ििरं तन कैसा इित अि, सुिसमत हिषत ष कैसा शम शथ, असफल, सफल समान मनोरथ, सि कुछ दे कर कुछ न मांगते, पािस िनकर ढलना होगा। कदम िमलाकर िलना होगा। कुछ कांटो से सिजजत जीिन, पखर पयार से िंिित यौिन, नीरिता से मुखिरत मधुिन, परिहत अिपत ष अपना तन-मन, जीिन को शत-शत आहुित मे, जलना होगा, गलना होगा।
कदम िमलाकर िलना होगा।
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