Prema

  • November 2019
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  • Words: 41,510
  • Pages: 114
पेमच ंद

पेमा

उपनयास

कम •

पेमा : 3

2

पेमा पहला अधयाय सचची उदारता संधया का समय है , डू बने वाले सूयय की सुनहरी िकरणे रं गीन शीशो की

आड से, एक अंगेजी ढं ग पर सजे हुए कमरे मे झॉक ँ रही है िजससे सारा

कमरा रं गीन हो रहा है । अंगेजी ढं ग की मनोहर तसवीरे , जो दीवारो से लटक रहीं है , इस समय रं गीन वस धारण करके और भी सुंदर मालूम होती है ।

कमरे के बीचोबीच एक गोल मेज है िजसके चारो तरफ नमय मखमली गदोकी रं गीन कुिसय य ॉ िबछी हुई है । इनमे से एक कुसी पर एक युवा पुरष सर नीचा

िकये हुए बैठा कुछ सोच रहा है । वह अित सुंदर और रपवान पुरष है िजस

पर अंगेजी काट के कपडे बहुत भले मालूम होते है । उसके सामने मेज पर एक कागज है िजसको वह बार-बार दे खता है । उसके चेहरे से ऐसा िविदत

होता है िक इस समय वह िकसी गहरे सोच मे डू बा हुआ है । थोडी दे र तक वह इसी तरह पहलू बदलता रहा, िफर वह एकाएक उठा और कमरे से बाहर िनकलकर बरांडे मे टहलने लगा, िजसमे मनोहर फूलो और पतो के गमले सजाकर धरे हुए थे। वह बरांडे से िफर कमरे मे आया और कागज का टु कडा

उठाकर बडी बेचैनी के साथ इधर-उधर टहलने लगा। समय बहुत सुहावना था। माली फूलो की कयािरयो मे पानी दे रहा था। एक तरफ साईस घोडे को

टहला रहा था। समय और सथान दोनो ही बहुत रमणीक थे। परनतु वह

अपने िवचार मे ऐसा लवलीन हो रहा था िक उसे इन बातो की िबलकुल

सुिध न थी। हॉँ, उसकी गदय न आप ही आप िहलाती थी और हाथ भी आप ही आप इशारे करते थे—जैसे वह िकसी से बाते कर रहा हो। इसी बीच मे एक

बाइिसिकल फाटक के अंदर आती हुई िदखायी दी और एक गोरा-िचटठा आदमी कोट

पतलून पहने, ऐनक लगाये, िसगार पीता, जूते चरमर करता,

उतर पडा और बोला, गुड ईविनंग, अमत ृ राय।

अमत ृ राय ने चौककर सर उठाया और बोले—ओ। आप है िमसटर

दाननाथ। आइए बैिठए। आप आज जलसे मे न िदखायी िदये। दाननाथ—कैसा जलसा। मुझे तो इसकी खबर भी नहीं। 3

अमत ृ राय—(आशय य से) ऐं। आपको खबर ही नहीं। आज आगरा के

लाला धनुषधारीलाल ने बहुत अचछा वयाखयान िदया और िवरोिधयो के दॉत ँ खटटे कर िदये।

दाननाथ—ईशर जानता है मुझे जरा भी खबर न थी, नहीं तो मै

अवशय आता। मुझे तो लाला साहब के वयाखयानो के सुनने का बहुत िदनो

से शौक है । मेरा अभागय था िक ऐसा अचछा समय हाथ से िनकल गया। िकस बात पर वयाखयान था?

अमत ृ राय—जाित की उननित के िसवा दस ू री कौन-सी बात हो सकती

थी? लाला साहब ने अपना जीवन इसी काम के हे तु अपण य कर िदया है । आज ऐसा सचचा दे शभक और िनषकास जाित-सेवक इसदे श मे नहीं है । यह दस ू री बात है िक कोई उनके िसदांतो को माने या न माने, मगर उनके

वयाखयानो मे ऐसा जाद ू होता है िक लोग आप ही आप िखंचे चले आते है । मैने लाला साहब के वयाखयानो के सुनने का आनंद कई बार पाप िकया है ।

मगर आज की सपीच मे तो बात ही और थी। ऐसा जान पडता है िक उनकी

जबान मे जाद ू भरा है । शबद वही होते है जो हम रोज काम मे लाया करते है । िवचार भी वही होते है िजनकी हमारे यहॉँ पितिदन चचा य रहती है । मगर उनके बोलने का ढं ग कुछ ऐसा अपूवय है िक िदलो को लुभा लेता है ।

दाननाथ को ऐसी उतम सपीच को न सुनने का अतयंत शोक हुआ।

बोले—यार, मै जंम का अभागा हूँ। कया अब िफर कोई वयाखयान न होगा?

अमत ृ राय—आशा तो नहीं है कयोिक लाला साहब लखनऊ जा रहे है ,

उधर से आगरा को चले जाएंगे। िफर नहीं मालूम कब दशन य दे ।

दाननाथ—अपने कम य की हीनता की कया कहूँ। आपने उससपीच

कीकोई नकल की हो तो जरा दीिजए। उसी को दे खकर जी को ढारस दँ।ू

इस पर अमत ृ राय ने वही कागज का टु कडा िजसको वे बार-बार पढ

रहे थे दाननाथ के हाथ मे रख िदया और बोले —सपीच के बीच-बीच मे जो बाते मुझको

सवार हो जाती है तो आगा-पीछा कुछ नहीं सोचते, समझाने

लगे—िमत, तुम कैसी लडकपन की बाते करते हो। तुमको शायद अभी मालूम

नहीं िक तुम कैसा भारी बोझ अपने सर पर ले रहे हो। जो रासता अभी

तुमको साफ िदखायी दे रहा है वह कॉट ँ ो से ऐसा भरा है िक एक-एक पग धरना किठन है ।

4

अमत ृ राय—अब तो जो होना हो सो हो। जो बात िदल मे जम गयी

वह तम गयीं। मै खूब जानता हूं िक मुझको बडी-बडी किठनाइयो का सामना करना पडे गा। मगर आज मेरा िहसाब ऐसा बढा हुआ है िक मै बडे से बडा काम कर सकता हूं और ऊँचे से ऊँचे पहाड पर चढ सकता हूँ।

दाननाथ—ईशर आपके उतसाह को सदा बढावे। मै जानता हूँ िक आप

िजस काम के िलए उदोग करे गे उसे अवशय पूरा कर िदखायेगे। मै आपके

इरादो मे िवधन डालना कदािप नहीं चाहता। मगर मनुषय का धम य है िक

िजस काम मे हाथ लगावे पहले उसका ऊँच-नीच खूब िवचार ले। अब पचछन बातो से हटकर पतयक बातो की तरफा आइए। आप जानते है िक इस शहर के लोग, सब के सब, पुरानी लकीर के फकीर है । मुझे भय है िक सामािजक

सुधार का बीज यहॉँ कदािप फल-फुल न सकेगा। और िफर, आपका सहायक भी कोई नजर नहीं आता। अकेले आप कया बना लेगे। शायद आपके दोसत भी इस जोिखम के काम मे आपका हाथ न बँटा सके। चाहे आपको बुरा लगे, मगर मै यह जरर कहूँगा िक अकेले आप कुछ भी न कर सकेगे।

अमत ृ राय ने अपने परम िमत की बातो को सुनकर सा उठाया और

बडी गंभीरता से बोले—दाननाथ। यह तुमको कया हो गया है । कया मै तुमहारे

मुँह से ऐसी बोदे पन की बाते सुन रहा हूं। तुम कहते हो अकेले कया बना

लोगे? अकेले आदिमयो की कारगुजािरयो से इितहास भरे पडे है । गौतम बुद

कौन था? एक जंगल का बसनेवाला साधु, िजसका सारे दे श मे कोई मददगार न था। मगर उसके जीवन ही मे आधा िहनदोसतान उसके पैरो पर सर धर चुका था। आपको िकतने पमाण दँ।ू अकेले आदिमयो से कौमो के नाम चल

रहे है । कौमे मर गयी है । आज उनका िनशान भी बाकी नहीं। मगर अकेले आदिमयो के नाम अभी तक िजंदा है । आप जानते है िक पलेटो एक अमर नाम है । मगर आपमे िकतने ऐसे है जो यह जानते हो िक वह िकस दे श का रहने वाला है ।

दाननाथ समझदार आदमी थे। समझ गये िक अभी जोश नया है और

समझाना बुझाना सब वयथय होगा। मगर िफर भी जी न माना। एक बार और उलझना आवशयक

‘अचछी जान पडी मैने उनको तुरंत नकल कर िलया।

ऐसी जलदी मे िलखा है िक मेरे िसवा कोई दस ू रा पढ भी न सकेगा। दे िखए हमारी लापरवाही को कैसा आडे हाथो िलया है : 5

सजजनो। हमारी इस दद ु य शा का कारण हमारी लापरवाही है । हमारी

दशा उस रोगी की-सी हो रही है जो औषिध को हाथ मे लेकर दे खता है मगर

मुँह तक नहीं ले जाता। हॉँ भाइयो। हम ऑख ं े रचाते है मगर अंधे है , हम कान रखते है मगर बहरे है , हम जबान रखते है मगर गूग ँ े है । परं तु अब वह िदन नहीं रहे िक हमको अपनी जीत की बुराइयाँ न िदखायी दे ती हो। हम

उनको दे खते है और मन मे उनसे घण ृ ा भी करते है । मगर जब कोई समय

आ जाता है तो हम उसी पुरानी लकीर पर जाते है और नरअ ् बातो को

असंभव और अनहोनी समझकर छोड दे ते है । हमारे डोगे का पार लगाना, जब िक मललाह ऐसे बाद और कादर है , किठन ही नहीं पतयुत दस ु साधय है ।

अमत ृ राय ने बडे ऊँचे सवरो मे उस कागज को पढा। जब वह चुप हुए

तो दाननाथ ने कहा—िन:संदेह बहुत ठीक कहा है । हमारी दशा के अनुकूल ही है ।

अमत ृ राय—मुझको रह-रहकर अपने ऊपर कोध आता है िक मैने सारी

सपीच कयो न नकल कर ली। अगर कहीं अंगेजी सपीच होती तो सबेरा होते

ही सारे समाचारपतो मे छप जाती। नहीं तो शायद कहीं खुलासा िरपोटय छपे

तो छपे। (रककर) तब मै जलसे से लौटकर आया हूँ तब से बराबर वही शबद

मेरे कान मे गूज ँ रहे है । पयारे िमत। तुम मेरे िवचारो को पहले से जानते हो, आज की सपीच ने उनको और भी मजबूत कर िदया है । आज से मेरी

पितजा है िक मै अपने को जाित पर नयौछावर कर दँग ू ा। तन, मन, धन सब अपनी िगरी हुई जाित की उननित के िनिमत अपण य कर दँग ू ा। अब तक मेरे

िवचार मुझ ही तक थे पर अब वे पतयक होगे। अब तक मेरा हदय दब य ु ल था, मगर आज इसमे कई िदलो का बल आ गया है । मै खूब जानता हूँ िक मै कोई उचच-पदवी नहीं रखता हूं। मेरी जायदाद भी कुछ अिधक नहीं है । मगर मै अपनी सारी जमा जथा अपने दे श के उदार के िलए लगा दँग ू ा। अब

इस पितजा से कोई मुझको िडगा नहीं सकता। (जोश से)ऐ थककर बैठी हुई कौम। ले, तेरी दद ं ू बहानेवालो मे एक दिुखयारा और बढा। इस ु य शा पर ऑस

बात का नयाय करना िक तुझको इस दिुखयारे से कोई लाभ हागा या नहीं, समय पर छोडता हूँ।

यह कहकर अमत ृ राय जमीन की ओर दे खने लगे। दाननाथ, जो उनके

बचपन के साथी थे और उनके बचपन के साथी थे और उनके सवभाव से भलीभॉिँत पिरिचत थे िक जब उनको कोई धुन मालूम हुआ। बोले—अचछा 6

मैने मान िलया िक अकेले लोगो ने बडे बडे काम िकये है और आप भी अपनी जाित का कुछ न कुछ भला कर लेगे मगर यह तो सोिचये िक आप

उन लोगो को िकतना दख ु पहुँचायेगे िजनका आपसे कोई नाता है । पेमा से

बहुत जलद आपका िववाह होनेवाला है । आप जानते है िक उसके मॉँ-बाप

परले िसरे के कटटर िहनद ू है । जब उनको आपकी अंगेजी पोशाक और खानेपीने पर िशकायत है तो बतलाइए जब आप सामिजक सुधार पर कमर बांधेगे तब उनका कया हाल होगा। शायद आपको पेमा से हाथ धोना पडे ।

दाननाथ का यह इशारा कलेजे मे चुभ गया। दो-तीन िमनट तक वह

सननाटे मे जमीन की तरफ ताकते रहे । जब सर उठाया तो ऑख ं े लाल थीं

और उनमे ऑस ं ू डबडबाये थे। बोले—िमत, कौम की भलाई करना साधारण

काम नहीं है । यदिप पहले मैने इस िवषय पर धयान न िदया था, िफर भी मेरा िदल इस वक ऐसा मजबूत हो रहा है िक जाित के िलए हर एक दख ु भोगने को मै किटबद हूँ। इसमे संदेह नहीं िक पेमा से मुझको बहुत ही पेम

था। मै उस पर जान दे ता था और अगर कोई समय ऐसा आता िक मुझको उसका पित बनने का आनंद िमलता तो मै सािबत करता िक पेम इसको

कहते है । मगर अब पेमा की मोहनी मूरत मुझ पर अपना जाद ू नहीं चला सकती। जो दे श और जाित के नाम पर िबक गया उसके िदल मे कोई दस ू री चीज जगह नहीं पा सकती। दे िखए यह वह फोटो है जो अब तक बराबर मेरे

सीने से लगा रहता था। आज इससे भी अलग होता हूं यह कहते-कहते तसवीर जेब से िनकली और उसके पुरजे-पुरजे कर डाले, ‘पेमा को जब मालूम

होगा िक अमत ृ राय अब जाित पर जान दे ने लगा, उसके िदन मे अब िकसी नवयौवना की जगह नही रही तो वह मुझे कमा कर दे गी।

दाननाथ ने अपने दोसत के हाथो से तसवीर छीन लेना चाही। मगर न

पा सके। बोले—अमत ृ राय बडे शोक की बात है िक तुमने उस सुनदरी की तसवीर की यह दशा की िजसकी तुम खूब जानते हो िक तुम पर मोिहत है । तुम कैसे िनठु र हो। यह वही सुंदरी है िजससे शादी करने का तुमहारे वैकुंठवासी िपता ने आगह िकया था और तुमने खुद भी कई बार बात हारी।

कया तुम नहीं जानते िक िववाह का समय अब बहुत िनकट आ गया है । ऐसे वक मे तुमहारा इस तरह मुँह मोड लेना उस बेचारी के िलए बहुत ही शोकदायक होगा।

7

इन बातो को सुनकर अमत ृ राय का चेहरा बहुत मिलन हो गया। शायद

वे इस तरह तसवीर के फाड दे ने का कुछ पछतावा करने लगे। मगर िजस बात पर अड गये थे

उस पर अडे ही रहे । इनहीं बातो मे सूय य असत हो

गया। अँधेरा छा गया। दाननाथ उठ खडे हुए। अपनी बाइिसिकल सँभाली

और चलते-चलते यह कहा—िमसटर राय। खूब सोच लो। अभी कुछ नहीं िबंगडा है । आओ आज तुमको गंगा की सैर करा लाये। मैने एक बजरा िकराये पर ले रकखा है । उस पर चॉद ँ नी रात मे बडी बहार रहे गी।

अमत ृ राय—इस समय आप मुझको कमा कीिजए। िफर िमलूँगा।

दाननाथ तो यह बातचीत करके अपने मकान को रवाना हुए और

अमत ृ राय उसी अँधेरे मे, बडी दे र तक चुपचाप खडे रहे । वह नहीं मालूम कया सोच रहे थे। जब अँधेरा अिधक हुआ तो वह जमीन पर बैठ गये। उनहोने

उस तसवीर के पुजे सब एक-एक करके चुन िलये। उनको बडे पयार से सीने मे लगा िलया और कुछ सोचते हुए कमरे मे चले गए।

बाबू अमत ृ राय शहर के पितिित रईसो मे समझे जाते थे। वकालत का

पेशा कई पुशतो से चला आता था। खुद भी वकालत पास कर चुके थे। और

यदिप वकालत अभी तक चमकी न थी, मगर बाप-दादे ने नाम ऐसा कमाया था िक शहर के बडे -बडे रईस भी उनका दाब मानते थे। अंगेजी कािलज मे इनकी िशका हुई थी और यह अंगेजी सभयता के पेमी थे। जब तक बाप

जीते थे तब तक कोट-पतलून पहनते तिनक डरते थे। मगर उनका दे हांत

होते ही खुल पडे । ठीक नदी के समीप एक सुंदर सथान पर कोठी बनवायी। उसको बहुत कुछ खच य करके अंगेजी रीित पर सजाया। और अब उसी मे रहते थे। ईशर की कृ पा से िकसी चीज कीकमी न थी। धन-दवय, गाडी-घोडे सभी मौजूद थे।

अमत ृ राय को िकताबो से बहुत पेम था। मुमिकन न था िक नयी

िकताब पकािशत हो और उनके पास न आवे। उतम कलाओं से भी उनकी

तबीयत को बहुत लगाव था। गान-िवदा पर तो वे जान दे ते थे। गो िक वकालत पास कर चुके थे मगर अभी वह िववाह नहीं हुआ था। उनहोने ठान

िलया था िक जब वह वकालत खूब न चलने लगेगी तब तक िववाह न करँगा। उस शहर के रईस लाला बदरीपसाद साहब उनको कईसाल से अपनी

इकलौती लडकी पेमा के वासते, चुन बैठे थे। पेमा अित सुंदर लडकी थी और

पढने िलखने , सीने िपरोने मे िनपुण थी। अमत ृ राय के इशारे से उसको थोडी 8

सही अंगेजी भी पढा दी गयी थी िजसने उसके सवभाव मे थोडी-सी सवतंतता पैदा कर दी थी। मुंशी जी ने बहुत कहने-सुनने से दोनो पेिमयो को िचटठी पती िलखने की आजा दे दी थी। और शायद आपस मे तसवीरो की भी अदला-बदली हो गये थी।

बाबू दाननाथ अमत ृ राय के बचपन के सािथयो मे से थे। कािलज मे

भी दोनो का साथ रहा। वकालत भी साथ पास की और दो िमतो मे जैसी सचची पीित हो सकती है वह उनमे थी। कोई बात ऐसी न थी जो एक दस ू रे

के िलए उठा रखे। दाननाथ ने एक बार पेमा को महताबी पर खडे दे ख िलया

था। उसी वक से वह िदल मे पेमा की पूजा िकया करता था। मगर यह बात कभी उसकी जबान पर नहीं आयी। वह िदल ही िदल मे घुटकर रह जाता।

सैकडो बार उसकी सवाथ य दिि ने उसे उभारा था िक तू कोई चाल चलकर बदरीपसाद का मन अमत ृ राय से फेर दे , परं तु उसने हर बार इस कमीनेपन के खयाल को दबाया था। वह सवभाव का बहुत िनमल य और आचरण का

बहुत शुद था। वह मर जाना पसंद करता मगर िकसी को हािन पहुँचाकर अपना मनोरथ कदािप पूरा नहीं कर सकता था। यह भी न था िक वह केवल िदखाने के िलए अमत ृ राय से मेल रखता हो और िदल मे उनसे जलता हो। वह उनके साथ सचचे िमत भाव का बताव य करता था।

आज भी, जब अमत ृ राय ने उससे अपने इरादे जािहर िकये तब उसेन

सचचे िदल से उनको समझाकर ऊँच नीच सुझाया। मगर इसका जो कुछ असर हुआ हम पहले िदखा चुके है । उसने साफ साफ कह िदया िक अगर तुम िरफाम य रो कीमंडली मे िमलोगे तो पेमा से हाथ धोना पडे गा। मगर

अमत ृ राय ने एक न सुनी। िमत का जो धम य है वह दाननाथ ने पूरा कर िदया। मगर जब उसने दे खा िक यह अपने अनुिान पर अडे ही रहे गे तो

उसको कोई वजह न मालूम हुई िक मै यह सब बाते बदरी पसाद से बयान करके कयो न पेमा का पित बनने का उदोग करँ। यहां से वह यही सब बाते सोचते िवचारते घर पर आये। कोट-पतलून उतार िदया और सीधे सादे कपडे

पिहन मुंशी बदरीपसाद के मकान को रवाना हुए। इस वक उसके िदन की जो हालत हो रही थी, बयान नही की जा सकती। कभी

यह िवचार आता िक

मेरा इस तरह जाना, लोगो को मुझसे नाराज न कर दे । मुझे लोग सवाथी न

समझने लगे। िफर सोचता िक कहीं अमत ृ राय अपना इरादा पलट दे और आशय य नहीं िक ऐसा ही हो, तो मै कहीं मुँह िदखाने योगय न रहूँगा। मगर 9

यह सोचते सोचते जब पेमा की मोहनी मूरत ऑख ं के सामने आ गयी। तब यह सब शंकाए दरू हो गयी। और वह बदरीपसाद के मकान पर बाते करते िदखायी िदये।

10

दस ू रा अधयाय

जलन बु री ब ला है लाला बदरीपसाद अमत ृ राय के बाप के दोसतो मे थे और अगर उनसे

अिधक पितिित न थे तो बहुत हे ठे भी न थे। दोनो मे लडके-लडकी के बयाह की बातचीत पककी हो गयी थी। और अगर मुंशी धनपतराय दो बरस भी

और जीते तो बेटे का सेहरा दे ख लेते। मगर कालवश हो गये। और यह अमान य मन मे िलये वैकुणठ को िसधारे । हां, मरते मरते उनकी बेटे हो यह नसीहत थी िक मु० बदरीपसाद की लडकी से अवशय िववाह करना। अमत ृ राय ने भी लजाते लजाते बात हारी थी। मगर मुंशी धनपतराय को मरे

आज पॉच ं बरस बीत चुके थे। इस बीच मे उनहोने वकालत भी पास कर ली थी और अचछे खासे अंगेज बन बैठे थे। इस पिरवतन य ने पिबलक की ऑख ं ो मे उनका आदर घटा िदया

था। इसके िवपरीत बदरीपसाद पकके िहनद ू थे।

साल भर, बारहो मास, उनके यहां शीमदागवत की कथा हुआ करती थी। कोई िदन ऐसा न जाता िक भंडार मे सौ पचास साधुओं का पसाद न बनता हो।

इस उदारता ने उनको सारे शहर मेसविपय बना िदया था। पितिदन भोर होते ही, वह गंगा सनान को पैदल जाया करते थे ओर रासते मे िजतने आदमी

उनको दे खते सब आदर से सर झुकाते थे और आपस मे कानाफुसी करते िक दिुखयारो का यह दाता सदा फलता फूलता रहे ।

यदिप लाला बदरीपसाद अमत ृ राय की चाल-ढाल को पसंद न करते थे

और कई बेर उनको समझा कर हार भी चुके थे, मगर शहर मे ऐसा होनहार, िवदावान, सुंदर और धिनक कोई दस ू रा आदमी न था जो उनकी पाण से अिधक िपय लडकी पेमा के पित बनने के योगय हो। इस कारण वे बेबस हो

रहे थे। लडकी अकेली थी, इसिलए दस ू रे शहर मे बयाह भी न कर सकते थे। इस लडकी के गुण और सुंदरता की इतनी पशंसा थी िक उस शहर के सब

रईस उसे चाहते थे। जब िकसी काम काज के मौके पर पेमा सोलहो शग ं ार करके जीती तो िजतनी और िसयॉँ वहॉँ होतीं उसके पैरो तले आंखे िबछाती।

बडी बूढी औरते कहा करती थी िक ऐसी सुंदर लडकी कहीं दे खने मे नहीं आई। और जैसी पेमा औरतो मे थी वैसे ही अमत ृ राय मदो मे थे। ईशर ने अपने हाथ से दोनो का जोड िमलाया था। 11

हॉँ, शहर के पुराने िहनद ू लोग इस िववाह के िखलाफ थे। वह कहते िक

अमत ृ राय सब गुण आगर सही, मगर है तो ईसाई। उनसे पेमा जैसी लडकी

का िववाह करना ठीक नहीं है । मुंशी जी के नातेदार लोग भी इस शादी के

िवरद थे। इसी खींचातानल मे पॉच ँ बरस बीत चुके थे। अमत ृ राय भी कुछ बहुत उदम न मालूम होते थे। मगर इस साल मुंशी बदरीपसाद ने भी िहयाब िकया, और अमत ृ राय भी मुसतैद हुए और िववाह की साइत िनशय की गयी।

अब दोनो तरफ तैयािरयां हो रही थी। पेमा की मां अमत ृ राय के नाम पर

िबकी हुई थी और लडकी के िलए अभी से गहने पाते बनवाने लगी थी, िक िनदान आज यह महाभयानक खबर पहुँची िक अमत ृ राय ईसाई हो गया है और उसका िकसी मेम से िववाह हो रहा है ।

इस खबर ने मुंशी जी के िदल पर वही काम िकया जो िबजली िकसी

हरे भरे पेड परिगर कर करती है । वे बूढे तो थे ही, इसधकके को न सह सके और पछाड खाकर जमीन पर िगर पडे । उनका बेसध ु होना था िक सारा

भीतर बाहर एक हो गया। तमांम नौकर चाकर, अपने पराये इकटठे हो गये और ‘कया हुआ’। ‘कया हुआ’। का शोर मचने लगा। अब िजसको दे िखये यही कहता िफरता है िक अमत ृ राय ईसाई हो गया है । कोई कहता है थाने मे

रपट करो, कोई कहता है चलकर मारपीट करो। बाहर से दम ही दम मे अंदर खबर पहुँची। वहा भी कुहराम मच गया। पेमा की मां बेचारी बहुत िदनो से

बीमार थी। और उनहीं की िजद थी िक बेटी की शादी जहॉँ तक जलद हो

जाय अचछा है । यदिप वह पुराने िवचार की बूढी औरत थी और उनको पेमा का अमत ृ राय के पास पेम पत भेजना एक ऑख ं न भाता था। तथािप जब से

उनहोने उनको एक बार अपने आंगन मे खडे दे ख िलया था तब से उनको यही धुन सवार थी िक मेरी ऑख ं ो की तारा का िववाह हो तो उनहीं से हो।

वह इस वक बैठी हुई बेटी से बातचीत कर रही थी िक बाहर से यह खबर

पहूँची। वह अमत ृ राय को अपना दमाद समझने लगी थी—और कुछ तो न

हो सका बेटी को गले लगाकर रोने लगी। पेमा ने आसू को रोकना चाहा, मगर न रोक सकी। उसकी बरसो की संिचत आशारपी बेल-कण मात मे

कुमहला गयी। हाय। उससे रोया भी न गया। िचत वयाकुल हो गया। मॉँ को रोती छोड वह अपने कमरे मे आयी, चारपाई पर धम से िगर पडी। जबान से

केवल इतना िनकला िक नारायण, अब कैसे जीऊँगी और उसके भी होश जाते 12

रहे । तमाम धर की लौिडयॉँ उस पर जान दे ती थी। सब की सब एकत हो गयीं। और अमत ृ राय को ‘हतयारे ’ और ‘पापी’ की पदिवयॉँ दी जाने लगी।

अगर घर मे कोई ऐसा था िक िजसको अमत ृ राय के ईसाई होने का

िवशास न आया तो वह पेमा केभाई बाबू कमला पसाद थे। बाबू सहाब बडे

समझदार आदमी थे। उनहोने अमत ृ राय के कई लेख मािसकपतो मे दे खे थे,

िजनमे ईसाई मत का खंडन िकया गया था। और ‘िहनद ू धम य की मिहमा’ नाम की जो पुसतक उनहोने िलखी थी उसकी तो बडे -बडे पंिडतो ने तारीफ की थी। िफर कैसे मुमिकन था िक एकदम उनके खयाल पलट जाते और वह ईसाई मत धारण कर लेते। कमलापसाद यही सोच रहे थे िकदाननाथ आते

िदखायी िदये। उनके चेहरे से घबराहट बरस रही थी। कमलापसाद ने उनको बडे आदर से बैठाया और पूछने लगे—यार, यह खबर कहॉ ं से उडी? मुझे तो िवशास नहीं आता।

दाननाथ—िवशास आने की कोई बात भी तो हो। अमत ृ राय का ईसाई

होना असंभव है । हां वह िरफाम य मंडली मे जा िमले है , मुझसे भूल हो गयी िक यही बात तुमसे न कही।

कमलापसाद—तो कया तुमने लाला जी से यह कह िदया?

दाननाथ ने संकोच से सर झुका कर कहा—यही तो भुल हो गई। मेरी

अकल पर पतथर पड गये थे। आज शाम को जब अमत ृ राय से मुलाकात करने गया तो उनहोने बात बात मे कहा िक अब मै शादी न करँगा। मैने

कुछ न सोचा िवचारा और यह बात आकर मुंशी जी से कह दी। अगर

मुझको यह मालूम होता िक इस बात का यह बतंगड हो जायगा तो मै कभी न कहता। आप जानते है िक अमत ृ राय मेरे परम िमत है । मैने जो यह

संदेशा पहुँचाया तो इससे िकसी की बुराई करने का आशय न था। मैने केवल

भलाइ की नीयत से यह बात कही थी। कया कहूँ, मुंशी जी तो यह बात

सुनते ही जोर से िचलला उठे —‘वह ईसाई हो गया। मैने बहुतेरा अपना मतलब समझाया मगर कौन सुनता है । वह यही कहते मूछा य खाकर िगर पडे ।

कमलापसाद यह सुनते ही लपककर अपने िपता के पास पहूंचे। वह

अभी तक बेसुध थे। उनको होश मे लाये और दाननाथ का मतलब समझाया

और िफर घर मे पहूंचे। उधर सारे मुहलले की िितया पेमा के कमरे मे एकत हो गयी थीं और अपने अपने िवचारनुसार उसको सचेत करने की तरकीबे 13

कर रही थी। मगर अब तक िकसी से कुछ न बन पडा। िनदान एक सुंदर नवयौवना दरवाजे से आती िदखायी दी। उसको दे खते ही सब औरतो ने शोर

मचाया जो पूणा य आ गयी। अब रानी को चेत आ जायेगी। पूणा य एक बाहणी

थी। इसकी उम केवल बीस वष य की होगी। यह अित सुशीला और रपवती थी। उसके बदन पर सादी साडी और सादे गहने बहुत ही भले मालूम होते

थे। उसका िववाह पंिडत बसंतकुमार से हुआ था जो एक दफतर मे तीस रपये महीने के नौकर थे। उनका मकान पडोस ही मे था। पूणा य के घर मे

दस ू रा कोई नथा। इसिलए जब दस बजे पंिडत जी दफतर को चले जाते तो वह पेमा के घर चली आती और दोनो सिखया शाम तक अपने अपने मन

की बाते सुना करतीं। पेमा उसको इतना चाहती थी िक यिद वह कभी िकसी कारण से न आ सकती तो सवयं उसके धर चली जाती। उसे दे खे िबना उसको कल न पडती थी। पूणाय का भी यही हाल था।

पूणाय ने आते ही सब िसयो को वहॉँ से हटा िदया, पेमा को इत सुघाया

केवडे और गुलाब का छींटा मुख पर मारा। धीरे धीरे उसके तलवे सहलाये, सब िखडिकयॉँ खुलवा दीं। इस तरह जब ठं डक पहुँची तो पेमा ने ऑख ं े खोल

दीं और चौककर उठ बैठी। बूढी मॉँ की जान मे जान आई। वह पूणा य की बलाये लेने लगी। और थोडी दे र मे सब िसयाँ पेमा को आशीवाद य दे ते हुए

िसंधारी। पूणा य रह गई। जब एकांत हुआ तो उसने कहा—पयारी पेमा। ऑख ं े खोलो। यह कया गत बना रकखी है ।

पेमा ने बहुत धीरे से कहा—हाय। सखी मेरी तो सब आशाऍ ं िमटटी मे

िमल गयीं।

पूणाय—पयारी ऐसी बाते न करो। जरा िदल को सँभालो और बताओ

तुमको यह खबर कैसे िमली?

पेमा—कुछ न पूछो सखी, मै बडी अभािगनी हूँ (रोकर) हाय, िदल बैठा

जाता है । मै कैसे जीऊँगी।

पूणाय—पयारी जरा िदल को ढारस तो दो। मै अभी सब पता लगये दे ती

हूँ। बाबू अमत ृ राय पर जो दोष लोगो ने लगाया है वह सब झूठ है ।

पेमा—सखी, तुमहारे मुँह मे घी शककर। ईशर करे तुमहारी बाते सच

हो। थोडी दे र चुप रहने के बाद वह िफर बोली—कहीं एक दम के िलए मेरी उस कठकलेिजये से भेट हो जाती तो मै उनका केम कुशल पूछती। िफर मुझे मरने का रं ज न होता।

14

पूणाय—यह कैसी बात कहती हो सखी, मरे वह जो तुमको दे ख न सके।

मुझसे कहो मै तांबे के पत पर िलख दं ू िक अमत ृ राय अगर बयाह करे गे तो

तुमहीं से करे गे। तुमहारे पास उनके बीिसयो पत पडे है । मालूम होता है िकसी

ने कलेजा िनकाल के धर िदया है । एक एक शबद से सचचा पेम टपकता है ।

ऐसा आदमी कभी दगा नहीं कर सकता। पेमा—यही सब सोच सोच कर तो आज चार बरस से िदल को ढारस दे रही हूं। मगर अब उनकी बातो का मुझे

िवशास नहीं रहा। तुमहीं बताओ, मै कैसे जानू िक उनको मुझसे पेम है ? आज चार बरस के िदन बीत गये । मुझे तो एक एक िदन काटना दभ ू र हो रहा है

और वहॉँ कुछ खबर ही नहीं होती। मुझे कभी कभी उनके इस टालमटोल पर

ऐसी झुँझलाहट होती है िक तुमसे कया कहूं। जी चाहता है उनको भूल जाऊँ। मगर कुछ बस नहीं चलता। िदल बेहया हो गया।

यहॉँ अभी यही बाते हो रही थी िक बाबू कमलापसाद कमरे मे दािखल

हुए। उनको दे खते ही पूणा य ने घूघँट िनकाल ली और पेमा ले भी चट ऑख ं ो

से ऑस ं ू पोछ िलए और सँभल बैठी। कमलापसाद—पेमा, तुम भी कैसी नादान

हो। ऐसी बातो पर तुमको िवशास कयोकर आ गया? इतना सुनना था िक पेमा का मुखडा गुलाब की तरह िखल गया। हषय के मारे ऑख ं े चमकने लगी। पूणा य ने आिहसता से उसकी एक उँ गली दबायी। दोनो के िदल धडकने लगे िक दे खे यह कया कहते है ।

कमलापसाद—बात केवल इतनी हुई िक घंटा भर हुआ, लाला जी के

पास बाबू दाननाथ आये हुए थे। शादी बयाह की चचा य होने लगी तो बाबू

साहब ने कहा िक मुझे तो बाबू अमत ृ राय के इरादे इस साल भी पकके नहीं मालू होते। शायद वह िरफाम य मंडली मे दािखल होने वाले है । बस इतनी सी बात लोगो ने कुछ का कुछ समझ िलया। लाला जी अधर बेहोश होकर िगर पडे । अममा उधर बदहवास हो गयी। अब जब तक उनको संभालू िक सारे

घर मे कोलाहल होने लगा। ईसाई होना कया कोई िदललगी है । और िफर

उनको इसकी जररत ही कया है । पूजा पाठ तो वह करते नहीं तो उनहे कया

कुते ने काटा है िक अपना मत छोड कर नककू बने। ऐसी बे सर-पैर की बातो पर एतबार नहीं करना चािहए। लो अब मुँह धो डालो। हँ सी-खुशी की बातचीत की। मुझे तुमहारे रोने-धोने से बहुत रं ज हुआ। यह कहकर बाबू

कमलापसाद बाहर चले गये और पूणा य ने हं सकर कहा—सुना कुछ मै जो कहती थी िक यह सब झूठ है । ले अब मुंह मीठा करावो। 15

पेमा ने पफुिललत होकर पूणा य को छाती से िलपटा िलया और उसके

पतले पतले होठो को चूमकर बोली—मुँह मीठा हुआ या और लोगी?

पूणाय—यह िमठाइयॉँ रख छोडो उनके वासते िजनकी िनठु राई पर अभी

कुढ रही थी। मेरे िलए तो आगरा वाले की दक ु ान की ताजी-ताजी अमिृतयॉँ चािहए।

पेमा—अचछा अब की उनको िचटठी िलखँगी तो िलख दँग ू ी िक पूणाय

आपसे अमिृतयॉँ मॉग ँ ती है । पूणाय—तुम कया िलखोगी, हॉँ, मै आज का सारा

वत ृ ांत िलखूँगी। ऐसा-ऐसा बनाऊँगी िक तुम भी कया याद करो। सारी कलई खोल दँग ू ी।

पेमा—(लजाकर) अचछा रहने दीिजए यह सब िदललगी। सच मानो

पूणाय, अगर आज की कोई बात तुमने िलखी तो िफर मै तुमसे कभी न बोलूगी।

पूणाय—बोलो या न बोलो, मगर मै िलखूग ँ ी जरर। इसके िलए तो उनसे

जो चाहूँगी ले लूँगी। बस इतना ही िलख दँग ू ी िक पेमा को अब बहुत न तरसाइए।

पेमा—(बात काटकर) अचछा िलिखएगा तो दे खूँगी। पंिडत जी से कहकर

वह दग य कराऊँ िक सारी शरारत भूल जाओ। मालूम होता है उनहोने तुमहे ु त बहुत सर चढा रखा है ।

अभी दोनो सिखयॉँ जी भर कर खुश न होने पायी थीं िक उनको रं ज

पहुँचाने का िफर सामान हो गया। पेमा की भावज अपनी ननद से हरदम जला करती थी। अपने सास-ससुर से यहॉँ तक िक पित से भी, कद रहती िक पेमा मे ऐसे कौन से चॉद ँ लगे िक सारा घराना उन पर िनछावर होने को तैयार रहता है । उनका आदर सब कयो करते है मेरी बात तक कोइ नहीं

पूछता। मै उनसे िकसी बात मे कम नहीं हूँ। गोरे पन मे , सुंदरता मे, शग ं ृ ार मे

मेरा नंबर उनसे बराबर बढा-चढा रहता है । हॉँ वह पढी-िलखी है । मै बौरी इस गुण को नहीं जानती। उनहे तो मदो मे िमलना है , नौकरी-चाकरी करना है ,

मुझ बेचारी के भाग मे तो घर का काम काज करना ही बदा है । ऐसी िनरलज लडकी। अभी शादी नहीं हुई, मगर पेम-पत आते-जाते है ।, तसवीरे

भेजी जाती है । अभी आठ-नौ िदन होते है िक फूलो के गहने आये है । ऑख ं ो का पानी मर गया है । और ऐस कुलवंती पर सारा कुनबा जान दे ता है । पेमा

उनके ताने और उनकी बोली-ठोिलयो को हँ सी मे उडा िदया करती और अपने 16

भाई के खाितर भावज को खुश रखने की िफक मे रहती थी। मगर भाभी का

मुँह उससे हरदम फूला रहता। आज उनहोने जयोही सुना िक अमत ृ राय ईसाई

हो गये है तो मारे खुशी के फूली नहीं समायी। मुसकराते, मचलते, मटकते, पेमा के कमरे मे पहुँची और बनावट की हँ सी हँ सकर बोली—कयो रानी आज तो बात खुल गयी। पेमा ने यह सुनकर लाज से सर झुका िलया मगर पूणाय बोली—सारा भॉड ँ ा फूट गया। ऐसी भी कया कोई लडकी मदो पर िफसले।

पेमा ने लजाते हुए जवाब िदया—जाओ। तुम लोगो की बला से । मुझसे मत उलझो।

भाभी—नहीं-नहीं, िदललगी की बात नहीं। मदय सदा के कठकलेजी होते

है । उनके िदल मे पेम होता ही नहीं। उनका जरा-सा सर धमके तो हम खाना-पीना तयाग दे ती है , मगर हम मर ही कयो न जायँ उनको जरा भी परवा नहीं होती। सच है , मदय का कलेजा काठ का।

पूणाय—भाभी। तुम बहुत ठीक कहती हो। मदो का कलेजा सचमुच काठ

का होता है । अब मेरे ही यहॉँ दे खो, महीने मे कम-सेकम दस-बारह िदन उस मुये साहब के साथ दोरे पर रहते है । मै तो अकेली सुनसान घर मे पडे -पडे

कराहा करती हूँ। वहॉँ कुछ खबर ही नहीं होती। पूछती हूँ तो कहते है , रोनागाना औरतो का काम है । हम रोये-गाये तो संसार का काम कैसे चले।

भाभी—और कया, जानो संसार अकेले मदो ही के थामे तो थमा है ।

मेरा बस चले तो इनकी तरफ ऑख ं उठाकर भी न दे खू। अब आज ही दे खो, बाबू अमत ृ राय का करतब खुला तो रानी ने अपनी कैसी गत बना डाली। (मुसकराकर) इनके पेम का तो यह हाल है और वहॉँ चार वषय से हीला हवाला

करते चले आते है । रानी। नाराज न होना, तुमहारे खत पर जाते है । मगर सुनती हूँ वहॉँ से िवरले ही िकसी खत का जवाब आता है । ऐसे िनमोिहयो से कोई कया पेम करे । मेरा तो ऐसो से जी जलता है । कया िकसी को अपनी

लडकी भारी पडी है िक कुऍ ं मे डाल दे । बला से कोई बडा मालदार है , बडा सुंदर है , बडी ऊँची पदवी पर है । मगर जब हमसे पेम ही न करे तो कया हम

उसकी धन-दौलत को लेकर चाटै ? संसार मे एक से एक लाल पडे है । और, पेमा जैसी दल ु िहन के वासते दल ु हो का काल।

पेमा को यह बाते बहुत बुरी मालूम हुई, मगर मारे संकोच के कुछ

बोल न सकी। हॉँ, पूणा य ने जवाब िदया—नहीं, भाभी, तुम बाबू अमत ृ राय पर 17

अनयाय कर रही हो। उनको पेमा से सचचा पेम है । उनमे और दस ू रे मदो मे बडा भेद है ।

भाभी—पूणय अब मुंह न खुलवाओ। पेम नहीं पतथर करते है ? माना िक

वे बडे िवदावाले है और छुटपने मे बयाह करना पसंद नहीं करते। मगर अब

तो दोनो मे कोई भी कमिसन नहीं है । अब कया बूढे होकर बयाह करे गे ? मै तो बात सच कहूंगी उनकी बयाह करने की चेिा ही नहीं है । टालमटोल से

काम िनकालना चाहते है । यही बयाह के लकण है िक पेमा ने जो तसवीर

भेजी थी वह टु कडे -टु कडे करके पैरो तले कुचल डाली। मै तो ऐसे आदमी का मुँह भी न दे खूँ।

पेमा ने अपनी भावज को मुसकराते हुए आते दे खकर ही समझ िलया

था िक कुशल नहीं है । जब यह मुसकराती है , तो अवशय कोई न कोई आग लगाती है । वह उनकी बातचीत का ढं ग दे खकर सहमी जाती थी िक दे खे यह कया सुनावनी सुनाती है । भाभी की यह बात तीर की तरह कलेजे के पार हो

गई हकका बकका होकर उसकी तरफ ताकने लगी, मगर पूणा को िवशास न

आया, बोली यह कया अनथ य करती हो, भाभी। भइया अभी आये थे उनहोने इसकी कुछ भी चचा य नही की। मै। तो जानती हूं िक पहली बात की तरह यह भी झूठी है । यह असंभव है िक वह अपनी पेमा की तसवीर की ऐसी दग य करे । ु त

भाभी—तुमहारे न पितयाने को मै कया करं, मगर यह बात तुमहारे

भइया खुद मुझसे कह रहे थे। और िफर इसमे बात ही कौन-सी है , आज ही तसवीर मँगा भेजो। दे खो कया जवाब दे ते है । अगर यह बात झूठी होगी तो अवशय तसवीर भेज दे गे। या कम से कम इतना तो कहे गे िक यह बात झूठी

है । अब पूणा य को भी कोई जवाब न सूझा। वह चुप हो गयी। पेमा कुछ न

बोली। उसकी ऑख ं ो सेऑस ं ुओ की धारा बह िनकली। भावज का चेहरा ननद

की इस दशा पर िखल गया। वह अतयंत हिषत य होकर अपने कमरे मे आई, दपण य मे मुहँ दे खा और आप ही आप मगन होकर बोली—‘यह घाव अब कुछ िदनो मे भरे गा।‘

18

तीसरा अधयाय

झूठे म ददग ार

बाबू अमत ृ राय रात भर करवटे बदलते रहे । जयो-जयो उनहोने अपने

नये इरादो और नई उमंगो पर िवचार िकया तयो-तयो उनका िदल और भी दढ होता गया और भोर होते-होते दे शभिक का जोश उनके िदल मे लहरे

मारने लगा। पहले कुछ दे र तक पेमा से नाता टू ट जाने की िचंता इस लहर

पर बॉध ँ का काम करती रही। मगर अंत मे लहरे ऐसी उठीं िक वह बॉध ँ टू ट गया।

सुबह होते ही मुँह-हाथ धो, कपडे पिहन और बाइिसिकल पर सवार

होकर अपने दोसतो की तरफ चले। पहले

पिहल िमसटर गुलजारीलालबी.ए.

एल.एल.बी. के यहॉँ पहुँचे। यह वकील साहब बडे उपकारी मनुषय थे और सामािजक सुधार का बडा पक करते है । उनहोने जब अमुतराय के इरादे ओर

उनके पूरे होने की कलपनाए सुनी तो बहुत खुश हुए और बोले —आप मेरी ओर से िनिशंत रिहए और मुझे अपना सचचा िहतैषी समिझए। मुझे बहुत

हष य हुआ िक हमारे शहर मे आप जैसे योगय पुरष ने इस भारी बोझ को

अपने सार िलया। आप जो काम चाहे मुझे सौप दीिजए, मै उसको अवशय पूरा करगा और उसमे अपनी बडाई समझूँगा।

अमत ृ राय वकील साहब की बातो पर लटू हो गये। उनहोने सचचे िदल

से उनको धनयवाद िदया और कहा िक मै इश शहर मे एक सामािजक सुधार की सभा सथािपत करना चाहता हूँ। वकील साहब इस बात पर उछल पडे

और कहा िक आप मुझे उस सभा का सदसय और िहतिचनतक समझे। मै

उसकी मदद िदलोजान से करँ गा। उमत ृ राय इस अचछे शगुन होते हुए दाननाथ के घर पहूँचे। हम पहले कह चुके है िक दाननाथ के घर पहूँचे। हम पहले कह चुके है िक दाननाथ उनके सचचे दोसतो मे थे। वे दनको दे खते ही बडे आदर से उठ खडे हुए और पूछा-कयो भाई, कया इरादे है ?

अमत ृ राय ने बहुत गमभीरत से जवाब िदया—मै अपने इरादे आप पर

पकट कर चका हूँ और आप जानते है िक मै जो कुछ कहता हूँ वह कर

िदखाता हूँ। बस आप के पास केवल इतना पूछना के िलए आया हूँ िक आप इस शुभ काय य मे मेरी कुछ मदद करे गे या नहीं ? दाननाथ सामिजक सुधार को पंसद तो करता था मगर उसके िलए हानी या बदनामी लेना नहीं चाहता 19

था। िफर इस वक तो, वह लाला बदरी पसाद का कृ पापात भी बनना चाहता था, इसिलए उसने जवाब िदया—अमत ृ राय तुम जानते हो िक मै हर काम मे

तुमहारा साथ दे ने को तैयार हूँ। रपया पैसा समय, सभी से सहायता करगॉँ, मगर िछपे-िछपे। अभी मै इस सभा मे खुललम-खुलला सिममिलत होकर नुकसान उठाना उिचत नहीं समझता। िवशेष इस कारण से िक मेरे सिममलत होने से सभा को कोई बल नहीं पहुँचेगा।

बाबू अमत ृ राय ने अिधक वादानुवाद करना अनुिचत समझा। इसमे

सनदे ह नहीं िक उनको दाननाथ से बहुत आशा थी। मगर इस समय वह यहॉँ बहुत न ठहरे और िवदा के िलए पिसद थे। जब अमत ृ राय ने उनसे सभा

संबंध बाते कीं तो वह बहुत खुश हुए। उनहोने अमत ृ राय को गले लगा िलया

और बोले—िमसटर अमरृाय, तुमने मुझे ससते छोड िदया। मै खुद कई िदन से इनहीं बातो के सोच-िवचार मे डू बा हुआ हूँ। आपने मेरे सर से बोझ उतार

िलया। जैसी यागता इस काम के करने की आपमे है वह मुझे नाम को भी नहीं। मै इस सभा का मेमबर हूँ।

बाबू अमत ृ राय को पंिडत जी से इतनी आशा न थी। उनहोने सोचा था

िक अगर पंिडत जी इस काम को पसंद करे गे तो खुललमखुलला शरीक होते

िझझकेगे। मगर पंिडत जी की बातो ने उनका िदल बहुत बढा िदया। यहॉँ से

िनकले तो वह अपनी ही ऑख ं ो मे दो इं च ऊँचे मालूम होते थे। अपनी

अथियसिद के नशे मे झूमते-झामते और मूछ ँ ो पर ताव दे ते एन.बी. अगरवाल साहब की सेवा मे पहुँचे िमसटर अगरावाला अंगेजी और संसकृ त के पंिडत थे। वयाखयान दे ने मे भी िनपुण थे और शहर मे सब उनका आदर करते थे।

उनहोने भी अमत ृ राय की सहायता करने का वादा िकया और इस सभा का

जवाइणट सेकटे री होना सवीकार िकया। खुलासा यह िक नौ बजते-बजते अमत ृ राय सारे शहर के पिसद और नई रोशनीवाले पुरषो से िमल आये और

ऐसा कोई न था िजसने उनके इरादे की पशंसा न की हो, या सहायता करने का वादा न िकया हो। जलसे का समय चार बजे शाम को िनयत िकया गया।

िदन के दो बजे से अमत ृ राय के बँगले पर लजसे की तैयािरयॉँ होने

लगीं। पश य िबछाये गये। छत मे झाड-फानूस, हॉिँडयाँ लटकायी गयीं। मेज

और कुिसय य ॉँ सजाकर धरी गयी और सभासदो के िलए खाने -पीने का भी पबंध िकया गया। अमत ृ राय ने सभा के िलए एक िलए एक िनयमावली 20

बनायी। एक वयाखयान िलखा और इन कामो को पूरा करके मेमबरो की राह

दे खने लगे। दो बज गये, तीन बज गये, मगर कोई न आया। आिखर चार भी बजे, मगर िकसी की सवारी न आयी। हॉँ, इं जीिनयर साहब के पास से एक नौकर यह संदेश लेकर आया िक मै इस समय नहीं आ सकता।

अब तो अमरृाय को िचंता होने लगी िक अगर कोई न आया तो मेरी

बडी बदनामी होगी और सबसे लिजजत होना पडे गा िनदान इसी तरह पॉच ँ

बज गए और िकसी उतसाही पुरष की सूरत न िदखाई दी। तब ता अमत ृ राय को िवशास हो गया िक लोगो ने मुझे धोखा िदया। मुंशी गुलजरीलाल से उनको बहुत कुछ आशा थी। अपना आदमी उनके पास दौडाया। मगर उसने

लौटकर बयान िकया िक वह घर पर नहीं है , पोलो खेलने चले गये। इस समय तक छ: बजे और जब अभी तक कोई आदमी न पधारा तो अमत ृ राय

का मन बहुत मिलन हो गया। ये बेचारे अभी नौजवान आदमी थे और यदिप बात के धनी और धुन के पूरे थे मगर अभी तक झूठे दे शभको और

बने हुए उदोिगयो का उनको अनुभव न हुआ था। उनहे बहुत द :ु ख हुआ। मन मारे हुए चारपाई पर लेट गये और सोचने लगे की अब मै कहीं मुँह िदखाने

योगय नहीं रहा। मै इन लोगो को ऐसा किटल और कपटी नहीं समझता था। अगर न आना था तो मुझसे साफ-साफ कह िदया होता। अब कल तमाम

शहर मे यह बात फैल जाएगी िक अमत ृ राय रईसो के घर दौडते थे , मगर

कोई उनके दरवाजे पर बात पूछने को भी न गया। जब ऐसा सहायक िमलेगे तो मेरे िकये कया हो सकेगा। इनहीं खयालो ने थोडी दे र के िलए उनके उतसाह को भी ठं डा कर िदया।

मगर इसी समय उनको लाला धनुषधारीलाल की उतसाहवधक य बाते

याद आयीं। वही शबद उनहोने लोगो के हौसले बढया थे, उनके कानो मे गूज ँ ने लगे—िमतो, अगर जाित की उननित चाहते हो तो उस पर सवस य व

अपण य कर दो। इन शबदो ने उनके बैठते हुए िदल पर अंकुश का काम िकया। चौक कर उठ बैठे, िसगार जला िलया और बाग की कयािरयो मे टहले

लगे। चॉद ँ नी िछटकी हुई थी। हवा के झोके धीरे -धीरे आ रहे थे। सुनदर फूलो

के पौधे मनद-मनद लहरा रहे थे। उनकी सुगनध चारो ओर फैली हुई थी। अमत ृ राय हरी-हरी दब ू पर बैठ गये और सोचने लगे। मगर समय ऐसा

सुहावना था और ऐसा अननददायक सननाटा छाया हुआ था िक चंचल िचत पेमा की ओर जा पहुँचा। जेब से तसवीर के पुजे िनकाल िलये और चॉद ँ नी 21

रात मे उसी बडी दे र तक गौर से दे खते रहे । मन कहता था—ओ अभागे

अमत ृ राय तू कयोकर िजयेगा। िजसकी मूरत आठो पहर तेरे सामने रहती थी, िजसके साथ आननद भोगने के िलए तू इतने िदनो िवराहािगन मे जला, उसके िबना तेरी जान कैसी रहे गी? तू तो वैरागय िलये है । कया उसको भी

वैरािगन बनायेगा? हतयारे उसको तुझे सचचा पेम है । कया तू दे खता नहीं िक उसके पत पेम मे डू बे हुए रहते है । अमत ृ राय अब भी भला है । अभी कुछ नहीं िबगडा। इन बातो को छोडो। अपने ऊपर तरस खाओ। अपने अमान य ो के

िमटटी मे न िमलाओ। संसार मे तुमहारे जैसे बहुत-से उतसाही पुरष पडे हुए है । तुमहारा होना न होना दोनो बराबर है । लाला बदरीपसाद मुँह खोले बैठे

है । शादी कर लो और पेमा के साथ पेम करो। (बेचैन होकर) हा मै भी कैसा पागल हूँ। भला इस तसवरी ने मेरा कया िबगाडा था जो मैने इसे फाडा डाला। हे ईशर पेमा अभी यह बात न जानती हो।

अभी इसी उधेडबुन मे पडे हुए थे िक हाथो मे एक खत लाकर िदया।

घबराकर पूछा—िकसका खत है ?

नौकर ने जवाब िदया—लाला बदरीपसाद का आदमी लाया है ।

था—

अमत ृ राय ने कॉप ँ ते हुए हाथो से पती ली और पढने लगे। उसमे िलखा ‘‘बाबू अमत ृ राय, आशीवाद य

हमने सुना है िक अब आप सनात धम य को तयाग करके ईसाइसायो

की उस मंडली मे जो िमले है िजसको लोग भूल से सामािजक सुधार सभा कहते है । इसिलए अब हम अित शोक के साथ कहते है िक हम आपसे कोई नाता नहीं कर सकते।

आपका शुभिचंतक

बदरीपसाद ।’’

इस िचटटी को अमत ृ राय ने कई बार पढा और उनके िदल मे अग

खींचातानी होने लगी। आतमसवाथ य कहता था िक इस सुनदरी को अवशय बयाहो और जीवन के सुख उठाइओ। दे शभिक कहती थी जो इरादा िकया है

उस पर अडे रहो। अपना सवाथ य तो सभी चाहते है । तुम दस ू रो का सवाथय करो। इस अिनतय जीवन को वयतीत करने का इससे अचछा कोई ढं ग नहीं

है । कोई पनदह िमनट तक यह लडाई होती रही। इसका िनणय य केवल दो 22

अकर िलखने पर था। दे शभक ने आतमसवाथ य को परासत कर िदया था।

आिखर वहॉँ से उठकर कमरे मे गये और कई पत कागज खबर करने के बाद यह पत िलखा—

‘‘महाशय, पणाम

कृ पा पत आया। पढकर बहुत द ु:ख हुआ। आपने मेरी बहुत िदनो की

बँधी हुई आशा तोड दी। खैर जैसा आप उिचत समझे वैसा करे । मैने जब से

होश सँभाला तब से मै बराबर सामािजक सुधार का पक कर सकता हूँ। मुझे

िवशास है िक हमारे दे श की उननती का इसके िसवाय और कोई उपाय नहीं

है । आप िजसको सनातन धम य समझे हुए बैठै है , वह अिवदा और असभयता का पतयक सवरप है ।

आपका कृ पाकांकी अमत ृ राय।

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चौथा अधयाय

जवान ी की म ौत

समय हवा की तरह उडता चला जाता है । एक महीना गुजर गया।

जाडे का कूँच हुआ और गमी की लैनडोरी होली आ पहुँची। इस बीच मे

अमत ृ राय ने दो-तीन जलसे िकये और यदिप सभासद दस से जयादा कभी न हुए मगर उनहोने िहयाव न छोडा। उनहोने पितजा कर ली थी िक चाहे कोई

आवे या न आवे, मगर िनयत समय पर जलसा जरर िकया करगॉ।ँ इसके

उपरानत उनहोने दे हातो मे जा-जाकर सरल-सरल भाषाओं मे वयाखयान दे ना

शुर िकया और समाचार पतो मे सामािजक सुधार पर अचछे -अचछे लेख भी िलखे। इनको तो इसके िसवाय कोई काम न था। उधर बेचारी पेमा का हाल

बहुत बेहाल हो रहा था। िजस िदन उसे-उनकी आिखरी िचटटी पहुँची थी उसी िदन से उसकी रोिगयो की-सी दशा हो रही थी। हर घडी रोने से काम था।

बेचारी पूण य िसरहाने बैठे समझाया करती। मगर पेमा को जरा भी चैन न आता। वह बहुधा पडे -पडे अमत ृ राय की तसवीर को घणटो चुपचाप दे खा करती। कभी-कभी जब बहुत वयाकुल हो जाती तो उसके जी मे आता िक मौ

भी उनकी तसवीर की वही गत करँ जो उनहोने मेरी तसवीर की की है । मगर

िफर तुरनत यह खयाल पलट खा जाता। वह उस तसवी को ऑख ं ो से लेती, उसको चूमती और उसे छाती से िचपका लेती। रात मे अकेले चारपाई पर

पडे -पडे आप ही आप पेम और मुहबबत की बाते िकया करती। अमरृाय के कुल पेम-पतो को उसने रं गीन कागज पर, मोटे अकरो, मे नकल कर िलया

था। जब जी बहुत बेचैन होता तो पूण य से उनहे पढवाकर सुनती और रोती।

भावज के पास तो वह पहले भी बहुत कम बैठती थी, मगर अब मॉँ से भी

कुछ िखंची रहती। कयोिक वह बेटी की दशा दे ख-दे ख कुढती और अमत ृ राय को इसका करण समझकर कोसती। पेमा से यह कठोर वचन न सुने जाते। वह खुद अमत ृ राय का िजक बहुत कम करती। हॉँ, जब पूणा य या कोई और दस ू री सहे ली उनकी बात चलाती तो उसको खूब कान लगाकर सुनाती। पेमा एक ही मास मे गलकर कॉट ँ ा हो गयी। हाय अब उसको अपने जीवन की

कोई आशा न थी। घर के लोग उसकी दवा-दार मे रपया ठीकरी की तरह फूक रहे थे मगर उसको कुछ फयदा न होता। कई बार लाला बदरीपसाद जी

के जी मे यह बात आई िक इसे अमत ृ राय ही से बयाह दँ।ू मगर िफर भाई24

बहन के डर से िहयाव न पडता। पेमा के साथ बेचारी पूणाय भी रोिगणी बनी हुई थी।

आिखर होली का िदन आया। शहर मे चारो ओर अबीर और गुलाल

उडने लगा, चारो तरफ से कबीर और िबरादरीवालो के यहॉँ से जनानी

सवािरयॉँ आना शुर हुई और उसे उनकी खाितर से बनाव-िसगार करना, अचछे -अचछे कपडा पहनना, उनका आदर-सममान करना और उनके साथ

होली खेलना पडा। वह हँ सने, बोलने और मन को दस ू री बातो मे लगाने के िलए बहुत कोिशश करती रही। मगर कुछ बस न चला। रोज अकेल मे

बैठकर रोया करती थी, िजससे कुछ तसकीन हो जाती। मगर आज शम य के मारे रो भी न सकती थी। और िदन पूण य दस बजे से शाम तक बैठी अपनी बातो से उसका िदल बहलाया करती थी मगर थी मगर आज वह भी सवेरे

ही एक झलक िदखाकर अपने घर पर तयोहार मना रही थी। हाय पूणा य को दे खते ही वह उससे िमलने के िलए ऐसी झपटी जैसे कोई िचिडया बहुत िदनो के बाद अपने िपंजरे से िनकल कर भागो। दोनो सिखयॉँ गले िमल गयीं।

पूणा य ने कोई चीज मॉग ँ ी—शायद कुमकुमे होगे। पेमा ने सनदक ू मगाया।

मगर इस सनदक ं ो मे ऑस ं ू भर आये। कयोिक यह ू को दे खते ही उसकी ऑख अमत ृ राय ने पर साल होली के िदन उसके पास भेजा था। थोडी दे र मे पूणाय अपने घर चली गयी मगर पेमा घंटो तक उस सनदक ू को दे ख-दे ख रोया की।

पूणा य का मकान पडोसी ही मे था। उसके पित पिणडत बसंतकुमार

बहुत सीधे मगर शैकीन और पेमी आदमी थे। वे हर बात सी की इचछानुसार

करते। उनहोने उसे थोडा-बहुत पढया भी था। अभी बयाह हुए दो वष य भी न

होने पाये थे, पेम की उमंगे दोनो ही िदलो मे उमड हुई थी, और जयो-जयो िदन बीतते थे तयो-तयो उनकी मुहबबत और भी गहरी होती

जाती थी। पूणाय

हरदस पित की सेवा पसनन रहती, जब वह दस बजे िदन को दफतर जाने

लगते तो वह उनके साथ-साथ दरवाजे तक आती और जब तक पिणडत जी

िदखायी दे ते वह दरवाजे पर खडी उनको दे खा करती। शाम को जब उनके

आने का समय हाता तो वह िफर दरवाजे पर आकर राह दे खने लगती। और जयोही व आ जाते उनकी छाती से िलपट जाती। और अपनी भोली-भाली बातो से उनकी िदन भर की थकन धो दे ती। पंिडत जी की तरखवाह तीस

रपये से अिधक न थी। मगर पूणा य ऐसी िकफयात से काम चलाती िक हर

महीने मे उसके पास कुछ न कुछ बच रहता था। पंिडत जी बेचारे , केवल 25

इसिलए िक बीवी को अचछे से अचछे गहने और कपडे पहनावे, घर पर भी काम िकया करते। जब कभी वह पूणाय को कोई नयी चीज बनवाकर दे ते वह

फूली न समाती। मगर लालची न थी। खुद कभी िकसी चीज के िलए मुँह न

खोलती। सच तो यह है िक सचचे पेम के आननद ने उसके िदल मे पहननेओढने की लालसा बाकी न रकखी थी।

आिखर आज होली का िदन आ गया। आज के िदन का कया पूछना

िजसने साल भर चाथडो पर काटा वह भी आज कहीं न कहीं से उधार ढू ँ ढकर

लाता है और खुशी मनाता है । आज लोग लँगोटी मे फाग खेलते है । आज के

िदन रं ज करना पाप है । पंिडत जी की शादी के बाद यह दस ू री होली पडी थी। पहली होली मे बेचारे खाली हाथ थे। बीवी की कुछ खाितर न कर सके

थे। मगर अब की उनहोने बडी-बडी तैयािरयाँ की थी। कोई डढ सौ, रपया

ऊपर से कमाया था, उसमे बीवी के वासते एक सुनदर कंगन बनवा था, कई उतम सािडयाँ मोल लाये थे और दोसतो को नेवता भी दे रकखा था। इसके

िलए भॉिँत-भॉिँत के मुरबबे, आचार, िमठाइयॉँ मोल लाये थे। और गाने-बजाने

के समान भी इकटटे कर रकखे थे। पूणा य आज बनाव-चुनाव िकये इधर-उधर छिब िदखाती िफरती थी। उसका मुखडा कुनदा की तरह दमक रहा था उसे

आज अपने से सुनदर संसार मे कोई दस ू री औरत न िदखायी दे ती थी। वह बार-बार पित की ओर पयार की िनगाहो से दे खती। पिणडत जी भी उसके

शग ं ृ ार और फबन पर आज ऐसी रीझे हुए थे िक बेर-बेर घर मे आते और उसको गले लगाते। कोई दस बजे होगे िक पिणडत जी घर मे आये और

मुसकरा कर पूणा य से बोले—पयारी, आज तो जी चाहता है तुमको ऑख ं ो मे बैठे ले। पूणाय ने धीरे से एक ठोका दे कर और रसीली िनगाहो से दे खकर कहा

—वह दे खो मै तो वहॉँ पहले ही से बैठी हूँ। इस छिब ने पिणडत जी को लुभा िलया। वह झट बीवी को गले से लगाकर पयार करने। इनहीं बातो मे दस

बजे तो पूणा य ने कहा—िदन बहुत आ गया है , जरा बैठ जाव ता उबटन मल दँ।ू दे र हो जायगी तो खाने मे अबेर -सबेर होने से सर ददय होने लेगेगा।

पिणडत जी ने कहा—नहीं-नहीं दो। मै उबटन नहीं मलवाऊँगा। लाओ

धोती दो, नहा आऊँ। जाव।

पूणाय—वाह उबटन मलवावैगे। आज की तो यह रीित ही है । आके बैठ पिणडत—नहीं, पयारी, इसी वक जी नहीं चाहता, गमी बहुत है । 26

पूणा य ने लपककर पित का हाथ पकड िलया और चारपाई पर बैठकर

उबटन मलने लगी। हूँ। लो।

पिणडत—मगर जरा जलदी करना, आज मै गंगा जी नही जाना चाहता पूणाय-अब दोपहर को कहॉँ जाओगे। महरी पानी लाएगी, यहीं पर नहा पिणडत—यही पयारी, आज गंगा मे बडी बहार रहे गी।

पूणाय—अचछा तो जरा जलदी लौट आना। यह नहीं िक इधर-उधर तैरने

लगो। नहाते वक तुम बहुत तुम बहुत दरू तक तैर जाया करते हो।

थोडी दे र मे पिणडत जी उबटन मलवा चुके और एक रे शमी धोती,

साबुन, तौिलया और एक कमंडल हाथ मे लेकर नहाने चले। उनका कायदा

था िक घाट से जरा अलग नहा करते यह तैराक भी बहुत अचछे थे। कई

बार शहर के अचछे तैराको से बाजी मार चुके थे। यदिप आज घर से वादा करके चले थे िक न तैरेगे मगर हवा ऐसी धीमी-धीम चल रही थी और पानी

ऐसा िनमल य था िक उसमे मिदम-मिदम हलकोरे ऐसे भले मालूम होते थे

और िदल ऐसी उमंगो पर था िक जी तैरने पर ललचाया। तुरंत पानी मे कूद

पडे और इधर-उधर कललोले करने लगे। िनदान उनको बीच धारे मे कोई लाल चीजे बहती िदखाया दी। गौर से दे खा तो कमल के फूल मालूम हुए।

सूय य की िकरणो से चमकते हूए वह ऐसे सुनदर मालम होते थे िक

बसंतकुमार का जी उन पर मचल पडा। सोचा अगर ये िमल जाये तो पयारी

पूणाय के कानो के िलए झुमके बनाऊँ। वे मोटे -ताजे आदमी थे। बीच धारे तक तैर जाना उनके िलए कोई बडी बात न थी। उनको पूरा िवशास था िक मै

फूल ला सकता हूँ। जवानी दीवानी होती है । यह न सोचा था िक जयो-जयो मै आगे बढू ँ गा तयो-तयो फूल भी बढे गे। उनकी तरफ चले और कोई पनदह िमनट मे बीच धारे मे पहूँच गये। मगर वहॉँ जाकर दे खा तो फूल इतना ही

दरू और आगे था। अब कुछ-कुछ थकान मालूम होने लगी थी। मगर बीच मे

कोई रे त ऐसा न था िजस पर बैठकर दम लेते। आगे बढते ही गये। कभी हाथो से जोर मारते, कभी पैरो से जोर लगाते, फूलो तक पहूँचे। मगर उस

वक तक हाथ-पॉव ँ दोनो बोझल हो गये थे। यहॉँ तक िक फूलो को लेने के िलए जब हाथ लपकाना चाहा तो उठ न सका। आिखर उनको दॉत ँ ो मे दबाया और लौटे । मगर जब वहॉँ से उनहोने िकनारो की तरफ दे खा तो ऐसा 27

मालूम हुआ मानो हजार कोस की मंिजल है । बदन मे जरा भी शिक बाकी

न रही थी और पानी भी िकनारे से धारे की तरफ बह रहा था। उनका िहयाव छूट गया। हाथ उठाया तो वह न उठे । मानो वह अंग मे थे ही नहीं। हाय

उस वक बसंतकुमार के चेहरे पर जो िनराशा और बेबसी छायी हुई थी, उसके खयाल करने ही से छाती फटती है । उनको मालूम हुआ िक मै डू बा जा रहा

हूँ। उस वक पयारी पूणा य की सुिध आयी िक वह मेरी बाट दे ख रही होगी। उसकी पयारी-पयारी मोहनी सूरत ऑख ं े के सामने खडी हो गयी। एक बार और हाथ फेका मगर कुछ बस न चला। ऑख ं ो से ऑस ं ू बहने लगे और

दे खते-दे खते वह लहरो मे लोप हा गये। गंगा माता ने सदा के िलए उनको अपनी गोद मे िलया। काल ने फूल के भेस मे आकर अपना काम िकया।

उधर हाल का सुिलए। पंिडत जी के चले आने के बाद पूणाय ने थािलयॉँ

परसीं। एक बतन य मे गुलाल घोली, उसमे िमलाया। पंिडत जी के िलए सनदक ू

से नये कपडे िनकाले। उनकी आसतीनो मे चुननटे डाली। टोपी सादी थी, उसमे िसतारे टॉक ँ े । आज माथे पर केसर का टीका लगाना शुभ समझा जाता

है । उसने अपने कोमल हाथो से केसर और चनदन रगडा, पान लगाये, मेवे सरौते से कतर-कतर कटोरा मे रकखे। रात ही को पेमा के बगीचे से सुनदर

किलयॉँ लेती आयी थी और उनको तर कपडे मे लपेट कर रख िदया था। इस समय वह खूब िखल गयी थीं। उनको तागे मे गुथ ँ कर सुनदर हार बनाया

और यह सब पबनध करके अपने पयारे पित की राह दे खने लगी। अब पंिडत जी को नहाकर आ जाना चािहए था। मगर नहीं, अभी कुछ दे र नहीं हुई। आते ही होगे, यही सोचकर पूणाय ने दस िमनट और उनका रासता दे खा। अब

कुछ-कुछ िचंता होने लगी। कया करने लगे? धूप कडी हो रही है । लौटने पर

नहाया-बेनहाया एक हो जाएगा। कदािचत यार दोसतो से बातो करने लगे। नहीं-नहीं मै उनको खूब जानती हूँ। नदी नहाने जाते है तो तैरने की सुझती

है । आज भी तैर रहे होगे। यह सोचकर उसने आधा घंटे और राह दे खी।

मगर जब वह अब भी न आये तब तो वह बैचैन होने लगी। महरी से कहा—‘िबललो जरा लपक तो जावा, दे खो कया करने लगे। िबललो बहुत अचछे

सवाभव की बुिढया थी। इसी घर की चाकरी करते-करते उसके बाल पक गये थे। यह इन दोनो पािणयो को अपने लडको के समान समझती थी। वह तुरंत लपकी हुई गंगा जी की तरफ चली। वहॉँ जाकर कया दे खती है िक

िकनारे पर दो-तीन मललाह जमा है । पंिडत जी की धोती, तौिलया, साबुन 28

कमंडल सब िकनारे पर धरे हुए है । यह दे खते ही उसके पैर मन-मन भर के हो गए। िदल धड-धड करने लगा और कलेजा मुँह को आने लगा। या नारायण यह कया गजब हो गया। बदहवास घबरायी हुई नजदीक पहूँची तो एक मललाह ने कहा—काहे िबललो, तुमहारे पंिडत नहाय आवा रहे न।

िबललो कया जवाब दे ती उसका गला रँ ध गया, ऑख ं ो से ऑस ं ू बहने

लगे, सर पीटने लगी। मललाहो ने समझाया िक अब रोये-पीटे का होत है । उनकी चीज वसतु लेव और घर का जाव। बेचारे बडे भले मनई रहे न। िबललो

ने पंिडत जी की चीजे ली और रोते-पीटती घर की तरफ चली। जयो-जयो वह मकान के िनकट आती तयो-तयो उसके कदम िपछे को हटे आते थे। हाय नाराण पूणा य को यह समाचार कैसे सुनाऊँगी वह िबचारी सोलहो िसंगार िकये

पित की राह दे ख रही है । यह खबर सुनकर उसकी कया गत होगी। इस धकके से उसकी तो छाती फट जायगी। इनहीं िवचारो मे डू बी हुई िबललो ने

रोते हुए घर मे कदम रकखा। तमाम चीजे जमीन पर पटक दी और छाती

पर दोहतथड मार हाय-हाय करने लगी। बेचारी पूणा य इस वक आईना दे ख रही थी। वह इस समय ऐसी मगन थी और उसका िदल उमंगो और अरमानो

से ऐसा भरा हुआ था िक पहले उसको िबललो के रोने -पीटने का कारण समझ मे न आया। वह हकबका कर ताकने लगी िक यकायक सब मजारा उसकी समझ मे आ गया। िदल पर एक िबजली कौध गयी। कलेजा सन से

हो गया। उसको मालूम हो गया िक मेरा सुहाग उठ गया। िजसने मेरी बॉह ँ पकडी थी उससे सदा के िलए िबछड गयी। उसके मुह ँ से केवल इतना िनकला—‘हाय नारायण’ और वह पछाड खाकर धम से जमीन पर िगर पडी।

िबललो ने उसको सँभाला और पंखा झलने लगी। थोडी दे र मे पास-पडोस की सैकडो औरते जमा हो गयीं। बाहर भी बहुत आदमी एकत हो गये। राय हुई

िक जाल डलवाया जाय। बाबू कमलापसाद भी आये थे। उनहोने पुिलस को

खबर की। पेमा को जयोही इस आपित की खबर िमली उसके पैर तले से

िमटटी िनकल गयी। चटपट आढकर घबरायी हुई कोठे से उतरी और िगरतीपडती पूणा य की घर की तरफ चली। मॉँ ने बहुत रोका मगर कौन सुनता है ।

िजस वक वह वहॉँ पहुँची चारो ओर रोना-धोना हो रहा था। घर मे ऐसा न

था िजसकी ऑख ं ो से ऑस ं ू की धारा न बह रही हो। अभिगनी पूणा य का िवलाप सुन-सुनकर लोगो के कलेजे मुँह को आय जाते थे। हाय पूणाय पर जो

पहाड टू ट पडा वह सातवे बैरी पर भी न टू टे । अभी एक घंटा पहले वह अपने 29

को संसार की सबसे भागयवान औरतो मे समसझती थी। मगर दे खते ही

दे खते कया का कया हो गया। अब उसका-सा अभागा कौन होगा। बेचारी

समझाने-बूझाने से जरा चुप हो जाती, मगर जयोही पित की िकसी बात की

सुिध आती तयो ही िफर िदल उमड आता और नयनो से नीर की झडी लग

जाती, िचत वयाकुल हो जाता और रोम-रोम से पसीना बहने लगता। हाय कया एक-दो बात याद करने की थी। उसने दो वष य तक अपने पेम का

आननद लूटा था। उसकी एक-एक बात उसका हँ सना, उसका पयार की िनगाहो

से दे खना उसको याद आता था। आज उसने चलते-चलते कहा था—पयारी

पूणाय, जी चाहता है , तुझे ऑख ं ो मे िबठा लूँ। अफसोस हे अब कौन पयार करे गा। अब िकसकी पुतिलयो मे बैठूँगी कौन कलेजे मे बैठायेगा। उस रे शमी

धोती और तोिलया पर दिि पडी तो जोर से चीख उठी और दोनो हाथो से छाती पीटने लगी। िनदान पेमा को दे खा तो झपट कर उठी और उसके गले

से िलपट कर ऐसी फूट-फूट कर रोयी िक भीतर तो भीतर बाहर मुशी बदरीपसाद, बाबू कमलापसाद

और दस ू रे

लोग

आँखो से

रमाल िदये

बेअिखतयार रो रहे थे। बेचारी पेमा के िलए महीने से खाना-पीना दल य हो ु भ रहा था। िवराहनल मे जलते-जलते वह ऐसी दब य हो गयी थी िक उसके मुँह ू ल

से रोने की आवाज तक न िनकलती थी। िहचिकयॉँ बँधी हुई थीं और ऑख ं ो से मोती के दाने टपक रहे थे। पहले व समझती थी िक सारे संसार मे मै ही

एक अभािगन हूँ। मगर इस समय वह अपना द :ु ख भूल गयी। और बडी

मुिशकल से िदल को थाम कर बोली—पयारी सखी यह कया गजब हो गया? पयारी सखी इ़़सके जवाब मे अपना माथा ठोका और आसमान की ओर दे खा। मगर मुँह से कुछ न बोल सकी।

इस दिुखयारी अबला का द ु:ख बहुत ही करणायोगय था। उसकी

िजनदगी का बेडा लगानेवाला कोई न था द ु:ख बहुत ही करणयोगया था उसकी िजनदगी का बेडा पार लगानेवाला कोई न था। उसके मैके मे िसफय

एक बूढे बाप से नाता था और वह बेचारा भी आजकल का मेहमान हो रहा

था। ससुराल मे िजससे अपनापा था वह परलोक िसधारा, न सास न ससुर न अपने न पराये। काई चुललू भर पानी दे ने वाला िदखाई न दे ता था। घर मे

इतनी जथा-जुगती भी न थी िक साल-दो साल के गुजारे भर को गुजारे भर हो जाती। बेचारी पंिडत जी को अभी-नौकरी ही करते िकतने िदन हुए थे िक

रपया जमा कर लेते। जो कमाया वह खाया। पूणा य को वह अभी वह बाते 30

नहीं सुझी थी। अभी उसको सोचने का अवकाश ही न मीला था। हॉँ, बाहर मरदाने मे लोग आपस मे इस िवषय पर बातचीत कर रहे थे।

दो-ढाई घणटे तक उस मकान मे िसयो का ठटटा लगा रहा। मगर

शाम होते-होते सब अपने घरो को िसधारी। तयोहार का िदन था। जयादा कैसे

ठहरती। पेमा कुछ दे र से मूछा य पर मूछा य आने लगी थी। लोग उसे पालकी

पर उठाकर वहाँ से ले गये और िदया मे बती पडते-पडते उस घर मे िसवाय पूणा य और िबलली के और कोई न था। हाय यही वक था िक पंिडत जी

दफतर से आया करते। पूणा य उस वक दारे पर खडी उनकी राह दे खा करती और जयोही वह डयोढी मे कदम रखते वह लपक कर उनके हाथो से छतरी

ले लेती और उनके हाथ-मुँह धोने और जलपान की सामगी इकटटी करती। जब तक वह िमिानन इतयािद खाते वह पान के बीडे लगा रखती। वह पेम

रस का भूख, िदन भर का थका-मॉद ँ ा, सी की दन खाितरदािरयो से गदगद हो

जाता। कहाँ वह पीित बढानेवाले वयवहार और कहॉँ आज का सननटा? सारा घर भॉय ँ -भॉय ँ कर रहा था। दीवारे काटने को दौडती थीं। ऐसा मालूम होता िक इसके बसनेवालो उजड गये। बेचारी पूणा य ऑग ं न मे बैठी हुई। उसके

कलेजे मे अब रोने का दम नहीं है और न ऑख ं ो से ऑस ं ू बहते है । हॉँ , कोई िदल मे बैठा खून चूस रहा है । वह शोक से मतवाली हो गयी है । नहीं मालूम

इस वक वह कया सोच रही है । शायद अपने िसधारनेवाले िपया से पेम की बाते कर रही है या उससे कर जोड के िबनती कर रही है िक मुझे भी अपने

पास बुला लो। हमको उस शोकातुरा का हाल िलखते गलािन होती है । हाय, वह उस समय पहचानी नहीं जाती। उसका चेहरा पीला पड गया है । होठो पर

पपडी छायी हुई है , ऑख ं े सूरज आयी है , िसर के बाल खुलकर माथे पर िबखर गये है , रे शमी साडी फटकार तार-तार हो गयी है , बदन पर गहने का नाम भी

नहीं है चूिडया टू टकर चकनाचूर हो गयी है , लमबी-लमबी सॉस ँ े आ रही है । व िचनता उदासी और शोक का पतयक सवरप मालूम होती है । इस वक कोई ऐसा नहीं है जो उसको तसलली दे । यह सब कुछ हो गया मगर पूणा य की

आस अभी तक कुछ-कुछ बँधी हुई है । उसके कान दरवाजे की तरफ लगे हुए हुए है िक कहीं कोई उनके जीिवत िनकल आने की खबर लाता हो। सच है िवयोिगयो की आस टू ट जाने पर भी बँधी रहती है ।

शाम होते-होते इस शोकदायक घटना की खबर सारे शहर मे गूज ँ उठी।

जो सुनता िसर धुनता। बाबू अमत ृ राय हवा खाकर वापस आ रहे थे िक 31

रासते मे पुिलस के आदिमयो को एक लाश के साथ जाते दे खा। बहुत-से आदिमयो की भीड लगी हुई थी। पहले तो वह समझे िक कोई खून का

मुकदमा होगा। मगर जब दिरयाफत िकया तो सब हाल मालूम हो गया।

पिणडत जी की अचानक मतृयु पर उनको बहुत रोज हुआ। वह बसंतकुमार को भली भॉिँत जानते थे। उनहीं की िसफािरश से पंिडत जी दफतर मे वह

जग िमली थी। बाबू साहब लाश के साथ-साथ थाने पर पहुँचे। डाकटर पहले

से ही आया हुआ था। जब उसकी जॉच ँ के िनिमत लाश खोली गयी तो िजतने लोग खडे थे सबके रोगेटे खडे हो गये और कई आदिमयो की ऑख ं ो

से ऑस ं ू िनकल आये। लाश फूल गयी थी। मगर मुखडा जयो का तयो था

और कमल के सुनदर फूल होठो के बीच दॉत ँ ो तले दबे हुए थे। हाय, यह वही

फूल थे िजनहोने काल बनकर उसको डसा था। जब लाश की जॉच ँ हो चुकी तब अमत ृ राय ने डाकटर साहब से लाश के जलाने की आजा मॉग ँ ी जो उनको सहज ही मे िमल गयी। इसके बाद वह अपने मकान पर आये। कपडे बदले

और बाईिसिकल पर सवार होकर पूणा य के मकान पर पहुँचे। दे खा तो चौतरफासननाटा छाया हुआ है । हर तरफ से िसयापा बरस रहा है । यही

समय पंिडत जी के दफतर से आने का था। पूणा य रोज इसी वक उनके जूते की आवजे सुनने की आदी हो रही थी। इस वक जयोही उसने पैरो की चाप

सुनी वह िबजली की तरह दरवाजे की तरफ दौडी। मगर जयोही दरवाजे पर आयी और अपने पित की जगी पर बाबू अमत ृ राय को खडे पाया तो िठठक

गयी। शम य से सर झुका िलया और िनराश होकर उलटे पॉव ँ वापास हुई। मुसीबत के समय पर िकसी द ु:ख पूछनेवालो की सूरत ऑख ं ो के िलए बहाना

हो जाती है । बाबू अमत ृ राय एक महीने मे दो-तीन बार अवशय आया करते थे और पंिडत जी पर बहुत िवशास रखते थे। इस वक उनके आने से पूणा य के

िदल पर एक ताजा सदमा पहुँचा। िदल िफर उमड आया और ऐसा फूट-फूट कर रोयी िक बाबू अमत ृ राय, जो मोम की तरह नम य िदल रखते थे, बडी दे र तक चुपचाप खडे िबसुरा िकये। जब जरा जी िठकाने हुआ तो उनहोने महीर को बुलाकर बहुत कुछ िदलासा िदया और दे हलीज मे खडे होकर पूणाय को भी

समझया और उसको हर तरहा की मदद दे ने का वादा करके, िचराग जलतेजलते अपने घर की तरफ रवाना हुए। उसी वक पेमा अपनी महताबी पर हवा खाने िनकली थी। सकी ऑख ं े पूणा य के दरवाजे की तरफ लगी हुई थीं। िनदान उसने िकसी को बाइिसिकल पर सवार उधार से िनकलते दखा। गौर 32

से दे खा तो पिहचान गई और चौककर बोली—‘अरे , यह तो अमत ृ राय है ।

33

पाँचवां अधयाय

अँ य ! यह गजर ा क या ह ो गया ?

पंिडत बंसतकुमार का दिुनया से उठ जाना केवल पूणा य ही के िलए

जानलेवा न था, पेमा की हालत भी उसी की-सी थी। पहले वह अपने भागय

पर रोया करती थी। अब िवधाता ने उसकी पयारी सखी पूणा य पर िवपित

डालकर उसे और भी शोकातुर बना िदया था। अब उसका दख ु हटानेवाला,

उसका गम गलत करनेवाला काई न था। वह आजकल रात-िदन मुँह लपेटे चारपाई पर पडी रहती। न वह िकसी से हँ सती न बोलती। कई-कई िदन िबना दाना-पानी के बीत जाते। बनाव-िसगार उसको जरा भी न भाता। सर के बल दो-दो हफते न गूथ ँ े जाते। सुमाद य ानी अलग पडी रोया करती। कँघी

अलग हाय-हाय करती। गहने िबलकुल उतार फेके थे। सुबह से शाम तक

अपने कमरे मे पडी रहती। कभी जमीन पर करवटे बदलती, कभी इधर-उधर बौखलायी हुई घूमती, बहुधा बाबू अमत ृ राय की तसवीर को दे खा करती। और जब उनके पेमपत याद आते तो रोती। उसे अनुभव होता था िक अब मै थोडे िदनो की मेहमान हूँ।

पहले दो महीने तक तो पूणा य का बहणो के िखलाने-िपलाने और पित

के मत ृ क-संसकार से सॉस ँ लेने का अवकाश न िमला िक पेमा के घर जाती। इसके बाद भी दो-तीन महीने तक वह घर से बाहर न िनकली। उसका जी

ऐसा बुझ गया था िक कोई काम अचछा न लगता। हाँ, पेमा मॉँ के मना

करने पर भी दो-तीन बार उसके घर गयी थी। मगर वहॉँ जाकर आप रोती

और पूणा य को भी रलाती। इसिलए अब उधर जाना छोड िदया था। िकनतु एक बात वह िनतय करती। वह सनधया समय महताबी पर जाकर जरर

बैठती। इसिलए नहीं िक उसको समय सुहाना मालूम होता या हवा खाने को जी चाहता था, नहीं पतयुत केवल इसिलए िक वह कभी- कभी बाबू अमत ृ राय

को उधर से आते-जाते दे खती। हाय िलज वक वह उनको दे खते उसका कलेजा बॉस ँ ो उछालने लगता। जी चाहता िक कूद पडू ँ और उनके कदमो पर अपनी जान िनछावर कर दँ।ू जब तक वह िदखायी दे ते अकटकी बॉध ँ े उनको

दे खा करती। जब वह ऑख ं ो से आझला हो जाते तब उसके कलेजे मे एक हूक उठती, आपे की कुछ सुिध न रहती। इसी तरह कई महीने बीत गये।

34

एक िदन वह सदा की भॉिँत अपने कमरे मे लेटी हुई बदल रही थी

िक पूणाय आयी। इस समय उसको दे खकर ऐसा जात होता था िक वह िकसी

पबल रोग से उठी है । चेहरा पीला पड गया था, जैसे कोई फूल मुरझा गया हो। उसके कपोल जो कभी गुलाब की तरह िखले हुए थे अब कुमहला गये

थे। वे मग ृ ी की-सी ऑख ं े िजनमे िकसी समय समय जवानी का मतवालापन

और पेमी का रस भरा हुआ था अनदर घुसी हुई थी, िसर के बाल कंधो पर इधर-उधर िबखरे हुए थे, गहने-पाते का नाम न था। केवल एक नैन सुख की साडी बदन पर पडी हुई थी। उसको दे खते ही पेमा दौडकर उसके गले से िचपट गयी और लाकर अपनी चारपाई पर िबठा िदया।

कई िमनट तक दोनो सिखयॉँ एक-दस ू रे के मुँह को ताकती रहीं। दोनो

के िदल मे खयालो का दिरया उमडा हुआ था। मगर जबान िकसी की न

खुलती थी। आिखर पूणा य ने कहा—आजकल जी अचछा नहीं है कया? गलकर कॉट ँ ा गयी हो

पेमा ने मुसकराने की चेिा करके कहा—नहीं सखी, मै बहुत अचछी

तरह हूँ। तुम तो कुशल से रही?

पूणा य की ऑख ं ो मे आँसू डबडबा आये। बोली—मेरा कुशल-आननद कया

पूछती हो, सखी आननद तो मेरे िलए सपना हो गया। पॉच ँ महीने से अिधक

हो गये मगर अब तक मेरी आँखे नहीं झपकीं। जान पडता है िक नींद ऑस ं ू होकर बह गयी।

पेमा—ईशर जानता है सखी, मेरा भी तो यही हाल है । हमारी-तुमहारी

एक ही गत है । अगर तुम बयाही िवधवा हो तो मै कुँवारी िवधवा हूँ। सच

कहती हूँ सखी, मैने ठान िलया है िक अब परमाथ य के कामो मे ही जीवन वयतीत करँ गा।

पूणाय—कैसी बाते करती हो, पयारी मेरा और तुमहारा कया जोडा? िजतना

सुख भोगना मेरे भाग मे बदा था भोग चुकी। मगर तुम अपने को कयो

घुलाये डालती हो? सच मानो, सखी, बाबू अमत ृ राय की दशा भी तुमहारी ही-सी है । वे आजकल बहुत मिलन िदखायी दे ते है । जब कभी इधर की बात चलती

हूँ तो जाने का नाम ही नहीं लेते। मैने एक िदन दे खा, वह तुमहारा काढा हुआ रमाला िलये हुए थे।

35

यह बाते सुनकर पेमा का चेहरा िखल गया। मारे हष य के ऑख ं े

जगमगाने लगी। पूणा य का हाथ अपने हाथो मे लेकर और उसकी ऑख ं ो से ऑख ं े िमलाकर बोली-सखी, इधर की और कया-कया बाते आयी थीं?

पूणाय-(मुसकराकर) अब कया सब आज ही सुन लोगी। अभी तो कल ही

मैने पूछा िक आप बयाह कब करे गे, तो बोले-‘जब तुम चाहो।’ मै बहुत लजा गई।

पेमा—सखी, तुम बडी ढीठ हो। कया तुमको उनके सामने िनकलते-पैठते

लाज नहीं आती?

पूणाय—लाज कयो आती मगर िबना सामने आये काम तो नहीं चलता

और सखी, उनसे कया परदा करँ उनहोने मुझ पर जो-जो अनुगह िकये है

उनसे मै कभी उऋण नहीं हो सकती। पिहले ही िदन, जब िक मुझ पर वह िवपित पडी रात को मेरे यहाँ चोरी हो गयी। जो कुछ असबाबा था पािपयो ने

मूस िलया। उस समय मेरे पास एक कौडी भी न थी। मै बडे फेर मे पडी हुई थी िक अब कया करँ । िजधर ऑख ं उठाती, अँधेरा िदखायी दे ता। उसके तीसरे

िदन बाबू अमत ृ राय आये। ईशर करे वह युग-युग िजये: उनहोने िबललो की

तनखाह बॉध ँ दी और मेरे साथ भी बहुत सलूक िकया। अगर वह उस वक आडे न आते तो गहने-पाते अब तक कभी के िबक गये होते। सोचती हूँ िक

वह इतने बडे आदमी हाकर मुझ िभखािरनी के दरवाजे पर आते है तो उनसे कया परदा करँ । और दिूनया ऐसी है िक इतना भी नहीं दे ख सकती। वह जो

पडोसा मे पंडाइन रहती है , कई बार आई और बोली िक सर के बाल मुडा

लो। िवधवाओं का बाल न रखना चािहए। मगर मैने अब तक उनका कहना

नहीं माना। इस पर सारे मुहलले मे मेरे बारे मे तरह-तरह की बाते की जाती है । कोई कुछ कहता है , कोई कुछ। िजतने मुँह उतनी बाते। िबललो आकर

सब वत ृ ानत मुझसे कहती है ।सब सुना लेती हूँ और रो-धोकर चुप हो रहती हूँ। मेरे भागय मे दख ु भोगना, लोगो की जली-कटी सुनना न िलखा होता तो यह िवपित ही काहे को पडती। मगर चाहे कुछ हो मै इन बालो को मुँडवाकर

मुणडी नहीं बनना चाहती। ईशर ने सब कुछ तो हर िलया, अब कया इन बालो से भी हाथ धोऊँ।

यह कहकर पूणा य ने कंधो पर िबखरे हुए लमबे-लमबे बालो पर ऐसी

दिि से दे खा मानो वे कोई धन है । पेमा ने भी उनहे हाथ से सँभाला कर

कहा—नहीं सखी खबरदार, बालो को मुँडवाओगी तो हमसे-तुमसे न बनगी। 36

पंडाइन को बकने दो। वह पगला गई है । यह दे खो नीचे की तरफ जो ऐठन

पड गयी है , कैसी सुनदर मालूम होती है यही कहकर पेमा उठी। बकस मे

सुगिनधत तेल िनकाला और जब तक पूणा य हाय-हाय करे िक उसके सर की चादर िखसका कर तेल डाल िदया और उसका सर जाँघ पर रखकर धीरे -धीरे

मलने लगी। बेचारी पूणा य इन पयार की बातो को न सह सकी। ऑख ं ो मे

ऑस ं ू भरकर बोली—पयारी पेमा यह कया गजब करती हो। अभी कया काम उपहास हो रहा है ? जब बाल सँवारे िनकलूँगी तो कया गत होगी। अब तुमसे

िदल की बात कया िछपाऊँ। सखी, ईशर जानता है , मुझे यह बाल खुद बोझ

मालूम होते है । जब इस सूरत का दे खनेवाला ही संसार से उठ गया तो यह बाल िकस काम के। मगर मै इनके पीछे पडोिसयो के ताने सहती हूँ तो केवल इसिलए िक सर मुडाकर मुझसे बाबू अमत ृ राय के सामने न िनकला जाएगा। यह कह कर पूणा य जमीन की तरफ ताकने लगी। मानो वह लजा

गयी है । पेमा भी कुछ सोचने लगी। अपनसखी के सर मे तेल मला, कंघी की बाल गूँथे और तब धीरे से आईना लाकर उसके सामने रख िदया। पूणा य ने इधर पॉच ँ महीने से आईने का मुँह नहीं दे खा था। वह सझती थी िक मेरी

सूरत िबलकूल उतर गयी होगी मगर अब जो दे खा तो िसवया इसके िक मुँह

पीला पड गया था और कोई भेद न मालूम हुआ। मधयम सवर मे बोली— पेमा, ईशर के िलए अब बस करो, भाग से यह िसंगार बदा नहीं है । पडोिसन दे खेगी तो न जाने कया अपराध लगा दे ।

पेम उसकी सूरत को टकटकी लगाकर दे ख रही थी। यकायक

मुसकराकर बोली—सखी, तुम जानती हो मैने तुमहारा िसंगार कयो िकया? पूणाय—मै कया जानूँ। तुमहारा जी चाहत होगा।

पेमा-इसिलए िक तुम उनके सामने इसी तरह जाओ।

पूणाय—तुम बडी खोटी हो। भला मै उनके सामने इस तरह कैसे

जाऊँगी। वह दे खकर िदल मे कया मे कया कहे गे। दे खनेवाले यो ही बेिसर-पैर की बाते उडाया करते है , तब तो और भी नह मालूम कया कहे गे।

थोडी दे र तक ऐसे ही हं सी-िदलली की बातो-बातो मे पेमा ने कहा-सखी,

अब तो अकेले नहीं रहा जाता। कया हज य है तुम भी यहीं उठ आओ। हम तुम दोनो साथ-साथ रहे ।

पूणाय—सखी, मेरे िलए इससे अिधक हष य की कौन-सी बात होगी िक

तुमहारे साथ रहूँ। मगर अब तो पैर फूक-फूक कर धरना होती है । लोग 37

तुमहारे घर ही मे राजी न होगे। और अगर यह मान भी गये तो िबना बाबू अमत ृ राय की मजी के कैसे आ सकती हूँ। संसार के लोग भी कैसे अंधे है ।

ऐसे दयालू पुरष कहते है िक ईसाई हो गया है कहनेवालो के मुँह से न मालूम कैसे ऐसी झूठी बात िनकालती है । मुझसे वह कहते थे िक मै शीघ ही एक ऐसा सथान बनवानेवाला हूँ जहाँ अनाथ जहॉँ अनाथ िवधवाऍ ं आकर

रहे गी। वहॉँ उनके पालन-पोषण और वस का पबनध िकया जाएगा और

उनके पढना-िलखाना और पूजा-पाठ करना िसखाया जायगा। िजस आदमी के

िवचार ऐसे शुद हो उसको वह लोग ईसाई और अधमी बनाते है , जो भूलकर भी िभखमंगे को भीख नहीं दे ते। ऐसा अंधेर है ।

पेमा- बिहन, संसार का यही है । हाय अगर वह मुझे अपनी लौडी बना

लेते तो भी मेरा जीवन सफल हो जाता। ऐसे उदारिचत दाता चेरी बनना भी कोई बडाई की बात है ।

पूणाय—तुम उनकी चेरी काहे को बनेगी। काहे को बनेगी। वह तो आप

तुमहारे सेवक बनने के िलए तैयार बैठे है । तुमहारे लाला जी ही नहीं मानते। िवशास मानो यिद तुमसे उनका बयाह न हुआ तो कवारे ही रहे गे। पेमा—यहॉँ यही ठान ली है िक चेरी बनूँगी तो उनहीं की।

कुछ दे रे तक तो यही बाते हुआ की। जब सूय य असत होने लगा तो

पेमा ने कहा—चलो सखी, तुमको बगीचे की सैर करा लावे। जब से तुमहारा आना-जाना छूटा तब से मै उधर भूलकर भी नहीं गयी।

पूणाय—मेरे बाल खोल दो तो चलूँ। तुमहारी भावज दे खेगी तो ताना

मारे गी।

पेमा—उनके ताने का कया डर, वह तो हवा, से उलझा करती है । दोनो

सिखयां उठी और हाथ िदये कोठे से उतार कर फुलवारी मे आयी। यह एक

छोटी-सी बिगया थी िजसमे भॉिँत-भॉिंत के फूल िखल रहे थे। पेमा को फूलो से बहुत पम था। उसी ने अपनी िदलबलावा के िलए बगीचा था। एक माली

इसी की दे ख-भाल के िलए नौकर था। बाग के बीचो-बीच एक गोल चबूतरा बना हुआ था। दोनो सिखयॉँ इस चबूतेरे पर बैठ गयी। इनको दे खते ही माली बहुत-सी किलयॉँ एक साफ तरह कपडे मे लपेट कर लाया। पेमा ने उनको

पूणा य को दे ना चाहा। मगर उसने बहुत उदास होकर कहा—बिहन, मुझे कमा करो,इनकी बू बास तुमको मुबारक हो। सोहाग के साथ मैने फूल भी तयाग

िदये। हाय िजस िदन वह कालरपी नदी मे नहाने गये है उस िदन ऐसे ही 38

किलयो का हार बनाया था। (रोकर) वह हार धरा का धरा का गया। तब से

मैने फूलो को हाथ नहीं लगाया। यह कहते-कहते वह यकयक चौक पडी और बोली—सखी अब मै जाउँ गी। आज इतवार का िदन है । बाबू साहब आते होगे।

पेमा ने रोनी हँ सकर कहा-‘नही’ सखी, अभी उनके आने मे आध घणटे

की दे र है । मुझे इस समय का ऐसा ठीक पिरचय िमल गया है िक अगर कोठरी मे बनद कर दो तो भी शायद गलती न करँ । सखी कहते लाज आती

है । मै घणटो बैठकर झरोखे से उनकी राह दे खा करती हूँ। चंचल िचत को बहुत समझती हूँ। पर मानता ही नहीं।

पूणाय ने उसको ढारस िदया और अपनी सखी से गले िमल, शमात य ी हुई

घूंघट से चेहरे को िछपाये अपने घर की तरफ चली और पेमी िकसी के दशन य की अिभलाषा कर महताबी पर जाकर टहलने लगी।

पूणा य के मकान पर पहुँचे ठीक आधी घडी हुई थी िक बाबू अमत ृ राय

बाइिसिकल पर फर-फर करते आ पहुँचे। आज उनहोने अंगेजी बाने की जगह बंगाली बाना धारण िकया था, जो उन पर खूब सजता था। उनको दे खकर

कोई यह नहीं कह सकता था िक यह राजकुमार नहीं है बाजारो मे जब िनकलाते तो सब की ऑख ं े उनहीं की तरफ उठती थीं। रीित के िवरद आज

उनकी दािहनी कलाई पर एक बहुत ही सुगिनधत मनोहर बेल का हार िलपटा

हुआ था, िजससे सुगनध उड रही थी और इस सुगनध से लेवेणडर की खुशबू िमलकर मानो सोने मे सोहागा हो गया था। संदली रे शमी के बेलदार कुरते

पर धानी रं ग की रे शमी चादर हवा के मनद-मनद झोको से लहरा-लहरा कर एक अनोखी छिव िदखाती थी। उनकी आहट पाते ही िबललो घर मे से िनकल आई और उनको ले जाकर कमरे मे बैठा िदया। अमत ृ राय—कयो िबललो, सग कुशल है ? िबललो—हॉँ, सरकार सब कुशल है ।

अमत ृ राय—कोई तकलीफ तो नहीं है ?

िबललो—नहीं, सरकार कोई तकलीफ नहीं है ।

इतने मे बैठके का भीतरवाला दरवाजा खुला और पूणा य िनकली।

अमत ृ राय ने उसकी तरफ दे खा तो अचमभे मे आ गये और उनकी िनगाह

आप ही आप उसके चेहरे पर जम गई। पूणा य मारे लजजा के गडी जाती थी

िक आज कयो यह मेरी ओर ऐसे ताक रहे है । वह भूल गयी थी िक आज 39

मैने बालो मे तेल डाला है , कंघी की है और माथे पर लाल िबनदी भी लगायी है । अमत ृ राय ने उसको इस बनाव-चुनाव के साथ कभी नहीं दे खा था और न वह समझे थे िक वह ऐसी रपवती होगी।

कुछ दे र तक तो पूणा य सर नीचा िकये खडी रही। यकायक उसको

अपने गुथ ँ े केश की सुिध आ गयी और उसने झट लजाकर सर और भी िनहुरा िलया, घूँघट को बढाकर चेहरा िछपा िलया। और यह खयाल करके िक

शायद बाबू साहब इस बनाव िसंगार से नाराज हो वह बहुत ही भोलेपन के

साथ बोली—मै कया कर, मै तो पेमा के घर गयी थी। उनहोने हठ करके सर मे मे तेल डालकर बाल गूथ ँ िदये। मै कल सब बाल कटवा डालूग ँ ी। यह कहते-कहते उसकी ऑख ं ो मे ऑस ं ू भर आये।

उसके बनाव िसंगार ने अमत ृ राय पर पहले ही जाद ू चलाया था। अब

इस भोलेपन ने और लुभा िलया। जवाब िदया—नहीं—नहीं, तुमहे कसम है , ऐसा हरिगज न करना। मै बहुत खुश हूँ िक तुमहारी सखी ने तुमहारे ऊपर यह कृ पा की। अगर वह यहॉँ इस समय होती तो इसके िनहोरे मे मै उनको धनयवाद दे ता।

पूणाय पढी-िलखी औरत थी। इस इशारे को समझ गयी और झेपेर गदय न

नीचे कर ली। बाबू अमत ृ राय िदल मे डर रहे थे िक कहीं इस छे ड पर यह दे वी रि न हो जाए। नहीं तो िफर मनाना किठन हो जाएगा। मगर जब उसे

मुसकराकर गदय न नीची करते दे खा तो और भी िढठाई करने का साहस हुआ। बोले—मै तो समझता था पेमा मुझे भूल होगी। मगर मालूम होता है िक अभी तक मुझ पर कुछ-कुछ सनेह बाकी है ।

अब की पूणा य ने गदय न उठायी और अमत ृ राय के चेहरे पर ऑख ं े

जमाकर बोली, जैसे कोई वकील िकसी दख ु ीयारे के िलए नयाधीश से अपील करता हो-बाबू साहब, आपका केवल इतना समझना िक पेमा आपको भूल

गयी होगी, उन पर बडा भारी आपेक है । पेमा का पेम आपके िनिमत सचचा

है । आज उनकी दशा दे खकर मै अपनी िवपित भूल गयी। वह गल कर आधी

हो गयी है । महीनो से खाना-पीना नामात है । सारे िदन आनी कोठरी मे पडे पडे रोय करती है । घरवाले लाख-लाख समझाते है मगर नहीं मानतीं। आज तो उनहोने आपका नाम लेकर कहा-सखी अगर चेरी बनूँगी तो उनहीं की।

यह समाचार सुनकर अमत ृ राय कुछ उदास हो गये। यह अिगन जो

कलेजे मे सुलग रही थी और िजसको उनहोने सामािजक सुधार के राख तले 40

दबा रकखा था इस समय कण भर के िलए धधक उठी, जी बेचैन होने लगा, िदल उकसाने लगा िक मुंशी बदरीपसाद का घर दरू नहीं है । दम भर के िलए

चलो। अभी सब काम हुआ जाता है । मगर िफर दे शिहत के उतसाह ने िदल

को रोका। बोले—पूणाय, तुम जानती हो िक मुझे पेमा से िकतनी मुहबबत थी। चार वष य तक मै िदल मे उनकी पूजा करता रहा। मगर मुंशी बदरपसाद ने

मेरी िदनो की बँधी हुई आस केवल इस बात पर तोड दी िक मै सामािजक

सुधार का पकपाती हो गया। आिखर मैने भी रो-रोकर उस आग को बुझाया

और अब तो िदल एक दस ू री ही दे वी की उपासना करने लगा है । अगर यह आशा भी यो ही टू ट गयी तो सतय मानो, िबना बयाह ही रहूँगा।

पूणा य का अब तक यह खयाल था िक बाबू अमत ृ राय पेमा से बयाह

करे गे। मगर अब तो उसको मालूम हुआ िक उनका बयाह कहीं और लग रहा

है तब उसको कुछ आशय य हुआ। िदल से बाते करने लगी। पयारी पेमा, कया

तेरी पीित का ऐसा दख ु दायी पिरणाम होगा। तेरो मॉँ-बाप, भाई-बंद तेरी जान के गाह हो रहे है । यह बेचारा तो अभी तक तुझ पर जान दे ता है । चाहे वह

अपने मुँह से कुछ भी न कहे , मगर मेरा िदल गवाही दे ता है िक तेरी मुहबबत उसके रोम-रोम मे वयाप रही है । मगर जब तेरे िमलने की कोई

आशा ही न हो तो बेचारी कया करे मजबूर होकर कहीं और बयाह करे गा।

इसमे सका कया दोष है । मन मे इस तरह िवचार कर बोली-बाबू साहब,

आपको अिधकार है जहॉँ चाहो संबध ं करो। मगर मै मो यही कहूँगी िक अगर इस शहर मे आपके जोड की कोई है तो वही पमा है ।

अमत ृ ०—यह कयो नहीं कहतीं िक यहॉँ उनके योगय कोई वर नहीं ,

इसीिलए तो मुंशी बदरीपसाद ने मुझे छुटकार िकया।

पूणाय—यह आप कैसी बात कहते है । पेमा और आपका जोड ईशर ने

अपने हाथ से बनाया है ।

अमत ृ ०—जब उनके योगय मै था। अब नहीं हूँ। पूणाय—अचछा आजकल

िकसके यहॉँ बातचीत हो रही है ?

अमत ृ ०—(मुसकराकर) नाम अभी नहीं बताऊँगा। बातचीत तो हो रही

है । मगर अभी कोई पककी उममेदे नहीं है ।

पूणाय—वाह ऐसा भी कहीं हो सकता है ? यहॉँ ऐसा कौन रईस है जो

आपसे नाता करने मे अपनी बडाई न समझता हो। अमत ृ ०—नहीं कुछ बात ही ऐसी आ पडी है । 41

पूणाय—अगर मुझसे कोई काम हो सके तो मै करने को तैयार हूँ। जो

काम मेरे योगय हो बता दीिजए।

अमत ृ —(मुसकराकर)तुमहारी मरजी िबना तो वह काम कभी पूरा हो ही

नही सकता। तुम चाहो तो बहुत जलद मेरा घर बस सकता है ।

पूणा य बहुत पसनन हुई िक मै भी अब इनके कुछ काम आ सकूँगी।

उसकी समझ मे इस वाकय के अथ य नहीं आये िक ‘तुमहारी मजी िबना तो वह काम पूरा हो ही नहीं सकता। उसने समझा िक शायद मुझसे यही कहे गे िक जा के लडकी को दे ख आवे। छ: महीने के अनदर ही अनदर वह इसका अिभपाय भली भॉिँत समझ गयी समझ गयी।

बाबू अमत ृ राय कुछ दे र तक यहॉँ और बैठे। उनकी ऑख ं े आज इधर-

उधार से घूम कर आतीं और पूणा य के चेहरे पर गड जाती। वह कनिखय से उनकी ओर ताकती तो उनहे अपनी तरफ ताकते पाती। आिखर वह उठे और

चलते समय बोले—पूणाय, यह गजरा आज तुमहारे वासते लाया हूँ। दे खो इसमे से कैसे सुगनध उड रही है ।

पूणा य भौयचक हो गयी। यह आज अनोखी बात कैसी एक िमनट तक

तो वह इस सोच िवचार मे थी िक लूँ या न लूँ या न लूँ। उन गजरो का धयान आया जो उसने अपने पित के िलए होली के िदन बनये थे। िफर की

किलयो का खयाल आया। उसने इरादा िकया मै न लूँगी। जबान ने कहा—मै इसे लेकर कया करँगी, मगर हाथ आप ही आप बढ गया। बाबू साहब ने खुश

होकर गजरा उसके हाथ मे िपनहाया, उसको खूब नजर भरकर दे खा। िफर बाहर िनकल आये और पैरगाडी पर सवार हो रवाना हो गये। पूणा य कई

िमनट तक सननाटे मे खडी रही। वह सोचती थी िक मैने तो गजरा लेने से इनकार िकया था। िफर यह मेरे हाथ मे कैसे आ गया। जी चाह िक फेक दे ।

मगर िफर यह खयाल पलट गया और उसने गजरे को हाथ मे पिहन िलया।

हाय उस समय भी भोली-भाली पूणा य के समझ मे न आया िक इस जुमले का कया मतलब है िक तुम चाहो तो बहुत जलद मेरा घर बस सकता है ।

उधर पेमा महताबी पर टहल रही थी। उसने बाबू साहब को आते दे खा

था।उनकी सज-धज उसकी ऑख ं ो मे खुब गयी थी। उसने उनहे कभी इस बनाव के साथ नहीं दे खा था। वह सोच रही थी िक आज इनके हाथ मे

गजरा कयो है । उसकी ऑख ं े पूणाय के घर की तरफ लगी हुई थीं। उसका जी

झुँझलाता था िक वह आज इतनी दे र कयो लगा रहे है ? एकाएक पैरगाडी 42

िदखाई दी। उसने िफर बाबू साहब को दे खा। चेहरा िखला हुआ था। कलाइयो पर नजर पडी गयी, हँ य वह गजरा कया हो गया?

43

छठा अधयाय

मुय े पर स ौ द ु रे

पूणा य ने गजरा पिहन तो िलया। मगेर रात भर उसकी ऑख ं ो मे नींद

नहीं आयी। उसकी समझ मे यह बात न आती थी। िक अमत ृ राय ने उसे

गजरा कयो िदया। उसे ऐसा मालूम होता था िक पंिडत बसंतकुमार उसकी

तरफ बहुत कोध से दे ख रहे है । उसने चाहा िक गजरा उतार कर फेक दँ ू मगर नहीं मालूम कयो उसके हाथ कॉप ं ने लगे। सारी रात उसने ऑख ं ो मे

काटी। पभात हुआ। अभी सूयय भगवान ने,भी कृ पा न की थी िक पंडाइन और चौबाइन और बाबू कमलापसाद की बद ृ महरािजन और पडोस की सेठानी जी कई दस ू री औरतो के साथ पूणा य के मकान मे आ उपिसथत हुई। उसने बडे आदर से सबको िबठाया, सबके पैर छुएं उसके बाद यह पंचायत होने लगी।

पंडाइन (जो बुढापे की बजह से सूखकर छोहारे की तरह हो गयी थी)-

कयो दल ु िहन, पंिडत जी को गंगालाभ हुए िकतने िदन बीते?

पूणाय-(डरते-डरते) पॉच महीने से कुछ अिधक हुआ होगा।

पंडाइन-और अभी से तुम सबके घर आने-जाने लगीं। कया नाम िक

कल तुम सरकार के घर चली गयी थीं। उनक कवारी कनया के पास िदन भर बैठी रहीं। भला सोचो ओ तुमने कोई अचछा काम िकया। कया नाम िक

तुमहारा और उनका अब कया साथ। जब वह तुमहारी सखी थीं, तब थीं। अब तो तुम िवधवा हो गयीं। तुमको कम से कम साल भर तक घर से बाहर पॉव न िनकालना चािहए। तुमहारे िलए साल भर तक हॅ सना-बोलना मना है

हम यह नहीं कहते िक तुम दशन य को न जाव या सनान को न जाव। सनानपूजा तो तुमहारा धम य ही है । हॉ, िकसी सोहािगन या िकसी कवारी कनया पर तुमको अपनी छाया नही डालनी चािहए।

पंडाइन चुप हुई तो महारािजन टु इयॉ की तरह चहकने लगीं-कया

बतलाऊँ, बडी सरकार और दल ु ािहन दोनो लहू का धूंट पीकर रह गई। ईशर जाने बडी सरकार तो िबलख-िबलख रो रही थीं िक एक तो बेचारी लडकी के

यो हर जान के लाले पडे है । दस ँ बेवा के साथ उठना-बैठना है । ू री अब रॉड नहीं मालूम नारायण कया करनेवाले है । छोटी सकारय मारे कोध के कॉप रही थी। ऑखो से जवाला िनकल रही थी। बारे मैने उनको समझाया िक आज

जाने दीिजए वह बेचारी तो अभी बचचा है । खोटे -खरे का मम य कया जाने। 44

सरकार का बेटा िजये, जब बहुत समझाया तब जाके मानीं। नहीं तो कहती

थीं मै अभी जाकर खडे -खडे िनकाल दे ती हूँ। सो बेटा, अब तुम सोहािगनो के साथ बैठने योगय नहीं रहीं। अरे ईशर ने तो तुम पर िवपित डाल दी। जब

अपना पाणिपय ही न रहा तो अब कैसा हँ सना-बोलना। अब तो तुमहारा धमय

यही है िक चुपचाप अपने घर मे पडी रहो। जो कुछ रखा-सूखा िमले खावो िपयो। और सकारय का बेटा िजये, जाँह तक हो सके, धमय के काम करो।

महारािजन के चुप होते ही चौबाइन गरजने लगीं। यह एक मोटी

भदे िसल और अधेड औरत थी—भला इनसे पूछा िक अभी तुमहारे दल ु हे को उठे पॉच ँ महीने भी न बीते, अभी से तुम कंधी-चोटी करने लगीं। कया िक

तुम अब िवधवा हो गई। तुमको अब िसंगार-पेटार से कया सरोकार ठहरा।

कया नाम िक मैने हजारो औरतो को दे खा है जो पित के मरने के बाद गहना-पाता नहीं पहनती। हँ सना-बोलना तक छोड दे ती है । यह न िक आज

तो सुहाग उठा और कल िसंगार-पटार होने लगा। मै लललो-पतो की बात नहीं जानती। कहूँगी सच। चाहे िकसी को तीता लगे या मीठा। बाबू अमत ृ राय का रोज-रोज आना ठीक नहीं है । है िक नही, सेठानी जी? लोथडे

सेठानी जी बहुत मोटी थीं और भारी-भारी गहनो से लदी थी। मांस के हिडडरयो से अलग होकर नीचे लटक रहे थे। इसकी भी एक बहू रॉड ँ

हो गयी थी िजसका जीवन इसने वयथ य कर रखा था। इसका सवभाव था िक

बात करते समय हाथो को मटकाया करती थी। महारािजन की बात सुनकर

—‘जो सच बात होगी सब कोई कहे गा। इसमे िकसी का कया डर। भला िकसी ने कभी रॉड ँ बेवा को भी माथे पर िबंदी दे ते दे खा है । जब सोहाग उठ गया तो िफर िसंदरू कैसा। मेरी भी तो एक बहू िवधवा है । मगर आज तक

कभी मैने उसको लाल साडी नहीं पिहनने दी। न जाने इन छोकिरयो का जी कैसा है िक िवधवा हो जाने पर भी िसंगार पर जी ललचाया करता है । अरे

इनको चािहए िक बाबा अब रॉड ँ हो गई। हमको िनगोडे िसंगार से कया लेना।

महारािजन—सकारय का बेटा िजये तुम बहुत ठीक कहती हो सेठानी

जी। कल छोटी सकारय ने जो इनको मॉग ँ मे सेदरू लगाये दे खा तो खडी ठक रह गयी। दॉत ँ ो तले उं गली दबायी िक अभी तीन िदन की िवधवा और यह

िसगार। सो बेटा, अब तुमको समझ-बूझकर काम करना चािहए। तुम अब बचचा नहीं हो।

45

सेठानी—और कया, चाहे बचचा हो या बूढी। जब बेराह चलेगी तो सब

ही कहे गे। चुप कयो हो पंडाइन, इनके िलए अब कोई राह-बाट िनकाल दो।

डाइन—जब यह अपने मन की होगयीं तो कोई कया राह-बाट िनकाले।

इनको चािहए िक ये अपने लंबेलंबे केश कटवा डाले। कया नाम िक दस ू रो के घर आना-जाना छोड दे । कंधी-चोटी कभी न करे पान न खाये। रं गीन साडी न पहने और जैसे संसार की िवधवाये रहती है वैसे रहे ।

चौबाइन—और बाबू अमत ृ राय से कह दे िक यहॉँ न आया करे । इस

पर एक औरत ने जो गहने कपडे से बहुत मालदार न जान पडती थी, कहा— चौबाइन यह सब तो तुम कह गयी मगर जो कहीं बाबू अमत ृ राय िचढ गये तो कया तुम इस बेचारी का रोटी-कपडा चला दोगी? कोई िवधवा हो गयी तो कया अब अपना मुँह सी ले। लगी?

महरािजन—(हाथ चमकाकर) यह कौन बोला? ठसो। कया ममता फडकने सेठानी—(हाथ मटकाकर) तुझे िकसने बुलाया जो आ के बीच मे बोल

उठी। रॉड ँ तो हो गयी हो, काहे नहीं जा के बाजर मे बैठती हो।

चौबाइन—जाने भी दो सेठानी जी, इस बौरी के मुँह कया लगती हो।

सेठानी—(कडककर) इस मुई को यहॉँ िकसने बुलाया। यह तो चाहती है

जैसी मै बेहयास हूँ

वैसा हीसंसार हो जाय।

महरािजन—हम तो सीख दे रही थीं तो इसे कयो बुरा लगा? यह कौन

होती है बीच मे बोलनेवाली?

चौबाइन—बिहन, उस कुटनी से नाहक बोलती हो। उसको तो अब

कुटनापा करना है ।

इस भांित कटू िकयो दारा सीख दे कर यह सब िसयाँ यहा से पधारी।

महरािजन भी मुंशी बदरीपदान के यहॉँ खाना पकाने गयीं। इनसे और छोटी सकारय से बहुत बनती थी। वह इन पर बहुत िवशास रखती थी। महरािजन

ने जाते ही सारी कथा खूब नमक-िमचय लगाकर बयान की और छोटी सरकार

ने भी इस बात को गॉठ ँ बॉध ँ िलया और पेमा को जलाने और सुलगाने के िलए उसे उतम समझकर उसके कमरे की तरफ चली।

यो तो पेमा पितिदन सारी रात जगा करती थी। मगर कभी-कभी घंटे

आध घंटे के िलए नींद आ जाती थी। नींद कया आ जाती थी, एक ऊंघ सी आ जाती थी, मगर जब से उसने बाबू अमत ृ राय को बंगािलयो के भेस मे 46

दे खा था और पूणा के घर से लौटते वक उसको उनकी कलाई परगजरा न नजर आया था तब से उसके पेट मे खलबली पडी हुई थी िक कब पूणाय आवे और कब सारा हाल मालूम हो। रात को बेचैनी

के मारे उठ-उठ घडी पर

ऑख ं े दौडाती िक कब भोर हो। इस वक जो भावज के पैरां की चाल सुनी तो

यह समझकर िक पूणा य आ रही है , लपकी हुई दरवाजे तक आयी। मगर जयोही भावज को दे खा िठठक गई और बोली—कैसे चलीं, भाभी?

भाभी तो यह चाहती ही थीं िक छे ड-छाड के िलए कोई मौका िमले।

यह पश सुनते ही ितनक का बोली—कया बताऊ कैसे चली? अब से जब तुमहारे पास आया करँगी तो इस सवाल का जवाब सोचकर आया करँगी। तुमहारी तरह सबका लोहू थोडे ही सफेद हो गया है िक चाहे िकसी की जान

िनकल, जाय, घी का घडा ढलक जाए, मगर अपने कमरे से पॉव ँ बाहर न िनकाले।

पेमा ने वह सवाल यो ही पूछ िलया था। उसके जब यह अथ य लगाये

गये तो उसको बहुत बुरा मालूम हुआ। बोली—भाभी, तुमहारे तो नाक पर गुससा रहता है । तुम जरा-सी बात का बतगंढ बना दे ती हो। भला मैने कौन सी बात बुरा मानने की कही थी?

भाभी—कुछ नहीं, तुम तो जो कुछ कहती हो मानो मुँह से फूल झाडती

हो। तुमहारे मुँह मे िमसरी घोली हुई न। और सबके तो नाक पर गुससा रहता है , सबसे लडा ही करते है ।

पेमा—(झललाकर) भावज, इस समय मेरा तो िचत िबगडा हुआ है । ईशर

के िलए मुझसे मत उलझो। मै तो यो ही अपनी जान को रो रही हूं। उस पर से तुम और भी नमक िछडकने आयीं।

भाभी—(मटककर) हां रानी, मेरा तो िचत िबडा हुआ है , सर िफरा हुआ

है । जरा सीधी-सादी हूँ न। मुझको

दे खकर भागा करो। मै। कटही कुितया हूं ,

सबको काटती चलती हूं। मै भी यारो को चुपके-चुपके िचटठी-पती िलखा करती, तसवीरे बदला करती तो मै भी सीता कहलाती और मुझ पर भी घर

भर जान दे ने लगता। मगर मान न मान मै तेरा मेहमान। तुम लाख जतन करो, लाख िचिटठयॉँ िलखो मगर वह सोने की िचिडया हाथ आनेवाली नहीं।

यह जली-कटी सुनकर पेमा से जबत न हो सका। बेचारी सीधे सवभाव की

औरत थी। उसका वषो से िवरह की बिगन मे जलते-जलते कलेजा और भी पक गया था। वह रोने लगी।

47

भावज ने जब उसको रोते दे खा तो मारे हष य के ऑख ं े जगमगा गयीं।

हतेरे की। कैसा रला िदया। बोली—िबलखने कया लगीं, कया अममा को सुनाकर दे शिनकाला करा दोगी? कुछ झूठ थोडी ही कहती हूँ। वही अमत ृ राय

िजनके पास आप चुपके-चुपके पेम-पत भेजा करती थी अब िदन-दहाडे उस रॉड ँ पूणा य के घर आता है और घंटो वहीं बैठा रहता है । सुनती हूँ फूल के गजरे ला लाकर पहनाता है । शायद दो एक गहने भी िदये है ।

पेमा इससे जयादा न सुन सकी। िगडिग कर बोली—भाभी, मै तुमहारे

पैरो पडती हूं मुझ पर दया करो। मुझे जो चाहो कह लो। (रोकर) बडी हो, जी चाहे मार लो। मगर िकसी का नाम लेकर और उस पर छठे रखाकर मेरे

कदल को मत जलाओ। आिखर िकसी के सर पर झूठ-मूठ अपराध कयो लगाती हो।

पेमा ने तो यह बात बडी दीनता से कही। मगर छोटी सरकार ‘छुदे

रखकर’ पर िबगड गयीं। चमक कर बोलीं—हॉँ, हॉँ रानी, मै दस ू रो पर छुदे

रखकर तुमको जलाने आती हूंन। मै तो झूठ का वयवहार करती हूँ। मुझे तुमहारे सामने झूठ बोनले से िमठाई िमलती होगी। आज मुहलले भर मे घर

घर यही चचाय हो रही है । तुम तो पढी िलखी हो, भला तुमहीं सोचो एक तीस वष य के संडे मदय वे का पूणा य से कया काम? माना िक वह उसका रोटी-कपडा चलाते है मगर यह तो दिुनया है । जब एक पर आ पडती है तो दस ू रा उसके

आड आता है । भले मनुषयो का यह ढं ग नहीं है िक दस ू ारे को बहकाया करे , और उस छोकरी को कया को ई बहकायेगा वह तो आप मदो पर डोरे डाला

करती है । मैने तो िजस िदन उसकी सूरत दे खी रथी उसी िदन ताड गयी थी

िक यह एक ही िवष की गांठ है । अभी तीन िदन भी दल ू हे को मरे हुए नहीं बीते िक सबको झमकडा िदखाने लगी। दल ू हा कया मरा मानो एक बला दरू

हुई। कल जब वह यहॉँ आई थी तो मै बाल बुध ं ा रही थी। नहीं तो डे उढी के भीतर तो पैर धरने ही नहीं दे ती। चुडैल कहीं की, यहॉँ आकर तुमहारी सहे ली

बनती है । इसी से अमत ृ राय को अपना यौवन िदखाकर अपना िलया। कल कैसा लचक-लचक कर ठु मुक-ठु मुक् चलती थी। दे ख-दे ख कर ऑख ं े फूटती

थीं। खबरदार, जो अब कभी, तुमने उस चुडैल को अपने यहॉँ िबठाया। मै उसकी सूरत नहीं दे खना चाहती। जबान वह बला है िक झूठ बात का भी िवशास िदला दे ती है । छोटी सरकार ने जो कुछ कहा वह तो सब सच था।

भला उसका असर कयो न होता। अगर उसने गजरा िलये हुए जाते न दे खा 48

होता तो भावज की बातो को अवशय बनावट समझती। िफर भी वह ऐसी

ओछी नहीं थी िक उसी वक अमत ृ राय और पूणाय को कोसने लगती और यह

समझ लेती िक उन दोनो मे कुछ सॉठ ँ -गॉठ ँ है । हॉँ, वह अपनी चारपाइ पर जाकर लेट गयी और मुँह लपेट कर कुछ सोचने लगी।

पेमा को तो पंलंग पर लेटकर भावज की बातो को तौलने दीिजए और

हम मदान य े मे चले। यह एक बहुत सजा हुआ लंबा चौडा दीवानखाना है । जमीन पर िमजाप य ुर खुबसूरत कालीने िबछी हुई है । भॉिँत-भॉिँत की गदे दार कुिसय य ॉँ लगी हुई है । दीवारे उतम िचतो से भूिकत है । पंखा झला जा रहा है । मुंशी बदरीपसाद एक आरामकुसी पर बैठे ऐनक लगाये एक अखबार पढ रहे

है । उनके दाये-बाये की कुिसय य ो पर कोई और महाशय रईस बैठे हुए है । वह सामने की तरफ मुंशी गुलजारीलाल है और उनके बगल मे बाबू दाननाथ है । दािहनी तरफ बाबू कमलापसाद मुंशी झंममनलाल से कुछ कानाफूसी कर रहे

है । बायीं और दो तीन और आदमी है िजनको हम नहीं पहचानते। कई िमनट तक मुँशी बदरीपसाद अखबार पढते रहे । आिखर सर उठाया और सभा

की तरफ दे खकर बडी गंभीरता से बोले—बाबू अमुतराय के लेख अब बडे ही िनंदनीय होते जाते है ।

गुलजारीलाल—कया आज िफर कुछ जहर उगला?

बदरीपसाद—कुछ न पूिछए, आज तो उनहोने खुली-खुली गािलयॉँ दी है ।

हमसे तो अब यह बदाशयत नहीं होता।

गुलजारी—आिखर कोइ कहॉँ तक बदाशयत करे । मैने तो इस अखबार

का पढना तक छोड िदया।

झममनलाल—गोया अपने अपनी समझ मे बडा भारी काम िकया।

अजी आपकाधम य यह है िक उन लेखो को कािटए, उनका उतर दीिजए। मै आजकल एक किवत रच रहा हूँ, उसमे मैने इनको ऐसा बनाया है िक यह भी कया याद करे गे।

कमलापसाद—बाबू अमत ृ राय ऐसे अधजीवे आदमी नहीं है िक आपके

किवत, चौपाई से डर जाऍ।ं वह िजस काम मे िलपटते है सारे जी से िलपटते है ।

झममन०—हम भी सारे जी से उनके पीछे पड जाऍग ं े। िफर दे खे वह

कैसे शहर मे मुँह िदखाते है । कहो तो चुटकी बजाते उनको सारे शहर मे बदनाम कर दँ।ू

49

कमला०—(जोर दे कर) यह कौन-सी बहादरुी है । अगर आप लोग उनसे

िवरोध मोल िलया चाहते है । तो सोच-समझ कर लीिजए। उनके लेखो को पिढए, उनको मन मे िवचािरए, उनका जवाब िलिखए, उनकी तरह दे हातो मे

जा-जाकर वयाखयान दीिजए तब जा के काम चलेगा। कई िदन हुए मै अपने

इलाके पर से आ रहा था िक एक गॉव ँ मे मैने दस-बारह हजार आदिमयो की भीड दे खी। मैने समझा पैठ है । मगर जब एक आदमी से पूछा तो मालूम

हुआ। िक बाबू अमत ृ राय का वयाखयान था। और यह काम अकेले वही नहीं

करते, कािलज के कई होनहार लडके उनके सहायक हो गये है और यह तो आप लोग सभी जानते है िक इधर कई महीने से उनकी वकालत अंधाधुंध बढ रही है । करे गे।

गुलजारीलाल—आप तो सलाह इस तरह दे ते है गोया आप खुद कुछ न कमलापसाद—न, मै इस काम मे। आपका शरीक नहीं हो सकता। मुझे

अमत ृ राय के सब िसदांतो से मेल है , िसवाय िवधवा-िववाह के।

बदरीपसाद—(डपटकर) बचच, कभी तुमको समझ न आयेगी। ऐसी बाते

मुहँ से मत िनकाला करो। है ?

झमनलाल—(कमलापसाद से) कया आप िवलायत जाने के िलए तैयार कमलापसाद—मै इसमे कोई हािन नहीं समझता।

गुलाजरीलाल—(हं सकर) यह नये िबगडे है। इनको अभी असपताल की

हवा िखलाइए।

बदरीपसाद—(झललाकर) बचचा, तुम मेरे सामने से हट जाओ। मुझे रोज

होता है ।

कमलापसाद को भी गुससा आ गया। वह उठकर जाने लगे िक दो-तीन

आदिमयो ने मनाया और िफर कुसर ् पर लाकर िबठा िदया। इसी बीच मे िमसटर शमाय की सवारी आयी। आप वही उतसाही पुरष है िजनहोने अमत ृ राय को पककी सहायता का वादा िकया था। इनको दे खते ही लोगो ने बडे आदर से कुसी पर िबठा िदया। िमटर शमाय उस शहर मे मयूिनिसपैिलटी के सेकेटरी थे।

गुलाजारीलाल—किहए पंिडत जी कया खबर है ? 50

िमसटर शमाय—(मूँछो पर हाथ फेरकर) वह ताजा खबर लाया हूँ िक

आप लोग सुनकर फडक जायँगे। बाबू अमत ृ राय ने दिरया के िकनारे वाली हरी भरी जमीन के िलए दरखासत है । सुनता हूँ वहॉँ एक अनाथालय बनवायेगे।

बदरीपसाद—ऐसा कदािप नहीं हो सकता। कमलापसाद। तुम आज उसी

जमीन के िलए हमारी तरफ से कमेटी मे दरखासत पेश कर दो। हम वहॉँ ठाकुरदारा और धमश य ाला बनावायेगे।

िमसटर शमाय—आज अमत ृ राय साहब के बँगले पर गये थे। वहॉँ बहुत

दे र तक बातचीत होती रही। साहब ने मेरे सामने मुसकराकर कहा— अमत ृ राय, मै दे खग ूँ ा िक जमीन तुमको िमले।

गुलजारीलाल ने सर िहलाकर कहा—अमत ृ राय बडे चाल के आदमी है ।

मालूम होता है , साहब को पहले ही से उनहोने अपने ढं ग पर लगा िलया है ।

िमसटर शमाय—जनाब, आपको मालूम नहीं अंगेजो से उनका िकतना

मेलजोल है । हमको अंगेज मेमबरो से कोई आशा नहीं रखना चािहए। वह सब के सब अमत ृ राय का पक करे गे।

बदरीपसाद—(जोर दे कर) जहॉँ तक मेरा बस चलेगा मै यह जमीन

अमत ृ राय को न लेने दँग ू ा। कया डर है , अगर और ईसाई मेमबर उनके

तरफदार है । यह लोग पॉच ँ से अिधक नहीं। बाकी बाईस मेबर अपने है । कया हमको उनकी वोट भी न िमलेगी? यह भी न होगा तो मै उस जमीन को दाम दे कर लेने पर तैयार हूँ।

झममनलाल—जनाब, मुझको पकका िवशास है िक हमको आधे से

िजयादा वोट अवशय िमल जायँगे। ×

×

×

एक बहुत ही उतम रीित से सजा हुआ कमरा है । उसमे िमसटर वालटर

साहब बाबू अमत ृ राय के साथ बैठे हुए कुछ बाते कर रहे है । वालटर साहब

यहॉँ के किमशर है और साधारण अंगेजो के अितिरक पजा के बडे िहतैषी

और बडे उतसाही पजापालक है । आपका सवभाव ऐसा िनमल य है िक छोटा-बडा

कोई हो, सबसे हँ सकर केम-कुशल पूछते और बात करते है । वह पजा की अवसथा को उननत दशा मे ले जाने का उदोग िकया करते है और यह 51

उनका िनयम है िक िकसी िहनदस ु तानी से अंगेजी मे नहीं बोलेगे। अभी िपछली साल जब पलेग का डं का चारो ओर घेनघोर बज रहा था, वालटर साहब, गरीब िकसानो के घर जाकर उनका हाल-चाल दे खते थे और अपने पास से उनको कंबल बॉट ँ ते िफरते थे। और अकाल के िदनो मेतो वह सदा

पजा की ओर से सरकार के दरबार मे वादानुवाद करने के िलए ततपर रहते है । साहब अमत ृ राय की सचची दे शभिक की बडी बडाई िकया करते है और

बहुधा पजा की रका करने मे दोनो आदमी एक-दस ू रे की सहायता िकया करते है ।

वालटर—(मुसकराकर) बाबू साहब। आप बडा चालाक है आप चाहता है

िक मुंशी बदरी पसाद से थैली-भर, रपया ले। मगर आपका बात वह नहीं मानने सकता।

अमत ृ राय—मैने तो आपसे कह िदया िक मै अनाथालय अवशय

बनवाउँ गा और इस काम मे बीस हजार से कम न लगेगा। अगर आप मेरी सहायता करे गे तो आशा है िक यह काम भी सफल हो जाए और मै भी बना

रहूँ। और अगर आप कतरा गये तो ईशर की कृ पा से मेरे पास अभी इतनी

जायदाद है िक अकेले दो अनाथालय बनवा सकता हूँ। मगर हॉँ, तब मै और कामो मे कुछ भी उतसाह न िदखा सकूँगा।

वालटर—(हं सकर) बाबू साहब। आप तो जरा से बात मे नाराज हो

गया। हम तो बोलता है िक हम तुमहारा मदद दो हजार से कर सकता है । मगर बदरीपसाद से हम कुछ नहीं कहने सकता। उसने अभी अकाल मे सरकार को पॉच ँ हजार िदया है ।

अमत ृ राय—तो यह दो हजार मे लेकर कया करँगा? मुझे तो आपसे

पंदह हजार की पूरी आशा थी। मुंशी बदरीपसाद के िलए पॉच ँ हजार कया

बडी बात है ? तब से इसका दग ु ना तो वह एक मंिदर बनवाने मे लगा चुके है । और केवल इस आशा पर िक उनको सी आई.ई की पदवी िमल जाएगी, वह इसका दस गुना आज दे सकते है ।

वालटर—(अमत ृ राय से हाथ िमलाकर) वेल, अमत ृ राय। तुम बडा चालाक

है । तुम बडा चालाक है तुम मुंशी बदरीपसाद को लूटना मॉग ँ ता है ।

यह कहकर साहब उठ खडे हुए। अमत ृ राय भी उठे । बाहर िफटन खडी

थी दोनो उस पर बैठ गये। साईस ने घोडे को चाबुक लगाया और दे खते 52

दे खते मुंशी बदरीपसाद के मकान पर जा पहूंचे। ठीक उसी वक जब वहॉँ अमत ृ राय से रार बढाने की बाते सोची जा रही थीं।

पयारे पाठकगण। हम यह वणन य करके िक इन दोनो आदिमयो के

पहुँचते ही वहॉँ कैसी खलबली पड गयी, मुंशी बदरीपसाद ने इनका कैसा आदर िकया, गुलजारीलाल, दाननाथ और िमसटर शमाय कैसी ऑख ं े चुराने लगे, या साहब ने कैसे काट-छांट की बाते की और मुंशी जी को सी.आई.ई

की

पदवी की िकन शबदो मे आशा िदलाइ आपका समय नहीं गँवाया चाहते। खुलासा यह िक अमॄतराय को यहॉँ से सतरह हजार रपया िमला। मुंशी

बदरीपसाद ने अकेले बारह हजार िदया जो उनकी उममेद से बहुत जयादा

था। वह जब यहॉँ से चले तो ऐसा मालूम होता था िक मानो कोई गढी जीते चले आ रहे है । वह जमीन भी िजसके िलए उनहोने कमेटी मे दरखसत की

थी िमल गयी और आज ही इं जीिनयर ने उसको नाप कर अनाथालय का नकशा बनाना आरं भ कर िदया।

साहब और अमत ृ राय के चले जाने पर यहॉँ यो बाते होने लगी।

झममनलाल—यार, हमको तो इस लौडे ने आज पांच सौ के रप मे

डाल िदया।

गुलजारी लाल—जनाब, आप पॉच ँ सौ को रो रही है यहॉँ तो एक हजार

पर पानी िफर गया। मुंशी जी तो सी.आई.ई की पदवी पावेगे।यहॉँ तो कोई रायबहादरुी को भी नहीं पूछता।

कमलापसाद—बडे शोक की बात है िक आप लोग ऐसे शुभ काय य मे

सहायता दे कर पछताते है । अमत ृ राय को दे िखए िक उनहोने अपना एक गॉव ँ बेचकर दस हजार रपया भी िदया और उस पर दौड-धूप अलग कर रहे है ।

मुंशी बदरीपसाद—अमत ृ राय बडा उतसाही आदमी है । मैने आज इसको

जाना। बचचा कमलापसाद। तुम आज शाम को उनके यहॉँ जाकर हमारी ओर से धनयवाद दे दे ना।

झममनलाल—(मुंह फेरकर) आप कयो न पसनन होगे, आपको तो पदवी

िमलेगी न?

कमलापसाद—(हं सकर) अगर आपका वह किवत तैयार हो तो जरा

सुनाइए।

दाननाथ जो अब तक चुपचाप बैठे हुए थे बोले —अब आप उनकी िनंदा

करने की जगह उनकी पंशसा कीिजए।

53

िमसटर शमाय—अचछा, जो हुआ सो हुआ, अब सभा िवसजन य कीिजए,

आज यह मालूम हो गया िक अमत ृ राय अकेले हम सब पर भारी है । कमलापसाद—आपने नहीं सुन, सतय की सदा जय होती है ।

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सातवां अधयाय

आज स े कभी

मिनदर न जा ऊँगी

बेचारी पूणाय, पंडाइन, चौबाइन, िमसराइन आिद के चले जाने के बाद

रोने लगी। वह सोचती थी िक हाय। अब मै ऐसी मनहूस समझी जाती हूं िक िकसी के साथ बैठ नहीं सकती। अब लोगो को मेरी सूरत काटने दौडती है ।

अभी नहीं मालूम कया-कया भोगना बदा है । या नारायण। तू ही मुझ दिुखया

का बेडा पार लगा। मुझ पर न जाने कया कुमित सवार थी िक िसर मे एक तेल डलवा िलयौ। यह िनगोडे बाल न होते तो काहे को आज इतनी फजीहत

होती। इनहीं बातो की सुिध करते करते जब पंडाइन की यह बात याद आ गयी िक बाबू अमत ृ राय का रोज रोज आना ठीक नहीं तब उसने िसर पर हाथ मारकर कहा—वह जब आप ही आप आते है तो मै कैसे मना कर दँ।ू

मै। तो उनका िदया खाती हूँ। उनके िसवाय अब मेरी सुिध लेने वाला कौन है । उनसे कैसे कह दँ ू िक तुम मत आओ। और िफर उनके आने मे हरज ही

कया है । बेचारे सीधे सादे भले मनुषय है । कुछ नंगे नहीं, शोहदे नहीं। िफर उनके आने मे कया हरज है । जब वह और बडे आदिमयो के घर जाते है ।

तब तो लोग उनको ऑख ं ो पर िबठाते है । मुझ िभखािरन के दरवाजे पर आवे

तो मै कौन मुह ँ लेकर उनको भगा दँ।ू नहीं नहीं , मुझसे ऐसा कभी न होगा। अब तो मुझ पर िवपित आ ही पडी है । िजसके जी मे जो आवै कहै ।

इन िवचारो से छुटटी पाकर वह अपने िनयमानुसार गंगा सनान को

चली। जब से पंिडत जी का दे हांत हुआ था तब से वह पितिदन गंगा नहाने जाया करती थी। मगर मुँह अंधेरे जाती और सूयय िनकलते लौट आती। आज इन िबन बुलाये मेहमानो के आने से दे र हो गई। थोडी दरू चली होगी िक

रासते मे सेठानी की बहू से भेट हो गई। इसका नाम रामकली था। यह

बेचारी दो साल से रँ डापा भोग रही थी। आयु १६ अथवा १७ साल से अिधक न होगी। वह अित सुंदरी नख-िशख से दर ु सत थी। गात ऐसा कोमल था िक

दे खने वाले दे खते ही रह जाते थे। जवानी की उमर मुखडे से झलक रही थी।

अगर पूणा य पके हुए आम के समान पीली हो रही थी, तो वह गुलाब के फूल की भाित िखली हुई थी। न बाल मे तेल था, न ऑख ं ो मे काजल, न मॉग ँ मे

संदरू, न दॉत ँ ो पर िमससी। मगर ऑख ं ो मे वह चंचलता थी, चाल मे वह लचक और होठो पर वह मनभवानी लाली थी िक िजससे बनावटी शग ं ृ ार की 55

जररत न रही थी। वह मटकती

इधर-उधर ताकती, मुसकराती चली जा रही

थी िक पूणाय को दे खते ही िठठक गयी और बडे मनोहर भाव से हं सकर बोली —आओ बिहन, आओ। तुम तो जानो बताशे पर पैर धर रही हो।

पूणाय को यह छे ड-छाड की बात बुरी मालूम हुई। मगर उसने बडी नमी

से जवाब िदया—कया करं बिहन। मुझसे तो और तेज नहीं चला जाता। रामकली—सुनती हूं कल हमारी डाइन कई चुडैलो के साथ

तुमको

जलाने गयी थी। जानो मुझे सताने से अभी तक जी नहीं भरा। तुमसे कया

कहू बिहन, यह सब ऐसा दख ु दे ती है िक जी चाहता है माहुर खा लूँ। अगर

यही हाल रहा तो एक िदन अवशय यही होना है । नहीं मालूम ईशर का कया िबगाडा था िक सवपन मे भी जीवन का सुख न पाप हुआ। भला तुम तो

अपने पित के साथ दो वष य तक रहीं भी। मैने तो उसका मुँह भी नहीं दे खा।

जब तमाम औरतो को बनाव-िसंगार िकये हँ सी-खुशी चलते-िफरते दे खती हूँ तो छाती पर सापँ लोटने लगता है । िवधवा कया हो गई घर भर की लौडी

बना दी गयी। जो काम कोई न करे वह मै करं । उस पर रोज उठते जूते, बैठते लात। काजर मत लगाओ। िकससी मत लगाओ। बाल मत गुथ ँ ाओ। रं गीन सािडयॉँ मत पहनो। पान मत खाओ। एक िदन एक गुलाबी साडी पहन

ली तो चुडैल मारने उठी थी। जी मे तो आया िक सर के बाल नोच लूँ मगर

िवष का घूँट पी के रह गयी और वह तो वह, उसकी बेिटयॉँ और दस ू री बहुऍ ं मुझसे कननी काटती िफरती है । भोर के समय कोई मेरा मुँह नहीं दे खता। अभी पडोस मे एक बयाह पडा था। सब की सब गहने से लद लद गाती

बजाती गयी। एक मै ही अभािगनी घर मे पडी रोती रही। भला बिहन, अब कहॉँ तक कोई छाती पर पतथर रख ले। आिखर हम भी तो आदमी है ।

हमारी भी तो जवानी है । दस ू रो का राग-रं ग, हँ सी, चुहल दे ख अपने मन मे भी भावना होती है । जब भूख लगे और खाना न िमले तो हार कर चोरी करनी पडती है ।

यह कहकर रामकली ने पूणा य का हाथ अपने हाथ मे ले िलया और

मुसकराकर धीरे धीरे एक गीत गुनगुनाने लगी। बेचारी पूणाय िदल मे कुढ रही थी िक इसके साथ कयो लगी। रासते मे हजारो आदमी िमले। कोई इनकी

ओर ऑख ं े फाड फाड घूरता था, कोई इन पर बोिलया बोलता था। मगर पूणाय

सर को ऊपर न उठाती थी। हॉँ, रामकली मुसकरा मुसकरा कर बडी चपलता से इधर उधर ताकती, ऑख ं े िमलाती और छे ड छाड का जवाब दे ती जाती थी। 56

पूणा य जब रासते मे मदो को खडे दे खती तो कतरा के िनकल जाती मगर रामकली बरबस उनके बीच मे से घुसकर िनकलती थी। इसी तरह चलते चलते दोनो नदी के तट पर पहुँची। आठ बज गया था। हजारो मदय

िसयॉँ,

बचचे नहा रहे थे। कोई पूजा कर रहा था। कोई सूय य दे वता को पानी दे रहा था। माली छोटी-छोटी

डािलयो मे गुलाब, बेला, चमेली के फूल िलये

नहानेवालो को दे रहे थे। चारो और जै गंगा। जै गंगा। का शबद हो रहा था।

नदी बाढ पर थी। उस मटमैले पानी मे तैरते हुए फूल अित सुंदर मालूम

होते थे। रामकली को दे खते ही एक पंडे ने कही—‘इधर सेठानी जी, इधर।‘ पंडा जी महाराज पीतामबर पहने, ितलक मुदा लगाये, आसन मारे , चंदन

रगडने मे जुटे थे। रामकली ने उसके सथान पर जाकर धोती और कमंउल रख िदया।

पंडा—(घूरका) यह तुमहारे साथ कौन है ?

राम०—(ऑख ं े मटकाकर) कोई होगी तुमसे मतलब। तुम कौन होते हो

पूछने वाले?

पंडा—जरा नाम सुन के कान खुश कर ले।

राम०—यह मेरी सखी है । इनका नाम पूणाय है ।

पंडा—(हँ सकर) ओहो हो। कैसा अचछा नाम है । है भी तो पूणय चंदमा के

समान। धनय भागय है िक ऐसे जजमान का दशन य हुआ।

इतने मे एक दस ं े िनकाले, कंधे पर लठ रखे, ू रा पंडा लाल लाल ऑख

नशे मे चूर, झूमता-झामता आ पहुँचा और इन दोनो ललनाओं की ओर घूर कर बोला, ‘अरे रामभरोसे, आज तेरे चंदन का रं ग बहुत चोखा है ।

रामभरोसे—तेरी ऑख ं े काहे को फूटे है । पेम की बूटी डाली है जब जा

के ऐसा चोखा रं ग भया।

पंडा—तेरे भागय को धनय है यह रक चंदन (रामकली की तरफ

दे खकर) तो तूने पहले ही रगडा रकखा था। परं तु इस मलयािगर (पूणा य की तरफ इशारा करके) के सामने तो उसकी शोभा ही जाती रही।

पूणा य तो यह नोक-झोक समझ-समझ कर झेपी जाती थी। मगर

रामकली कब चूकनेवाली थे। हाथ मटका कर बोली—ऐसे करमठँ िढयो को थोडे ही मलयािगर िमला करता है ।

रामभरोसे—(पंडा से) अरे बौरे , तू इन बातो का ममय कया जाने। दोनो ही

अपने-अपने गुण मे चोखे है । एक मे सुगंध है तो दस ू रे मे रं ग है । 57

पूणा य मन मे बहुत लिजजत थी िक इसके साथ कहॉँ फँस गयी। अब

तक वो नहा-धोके घर पहुँची होती। रामकली से बोली—बिहन, नहाना हो तो नहाओ, मुझको दे र होती है । अगर तुमको दे र हो तो मै अकेले जाऊँ। करो।

रामभरोसे—नहीं, जजमान। अभी तो बहुत सबेरा है । आनंदपूवक य सनान पूणा य ने चादर उतार कर धर दी और साडी लेकर नहाने के िलए

उतरना चाहती थी िक यकायक बाबू अमत ृ राय एक सादा कुता य पहने, सादी टोपी सर पर रकखे , हाथ मे नापने का फीता िलये चंद ठे केदारो के साथ

अित िदखायी िदये। उनको दे खते ही पूणा य ने एक लंगी घूघंट िनकाल ली और चाहा िक सीिढयो पर लंबाई-चौडाइ नापना था कयोिक वह एक जनाना घाट बनवा रहे थे। वह पूणा य के िनकट ही खडे हो गये। और कागज पेिसंल

पर कुछ िलखने लगे। िलखते-िलखते जब उनहोने कदम बढाया तो पैर सीढी के नीचे जा पडा। करीब था िक वह औधै मुँह िगरे और चोट-चपेट आ जाय िक पूणाय ने झपट कर उनको सँभाला िलया। बाबू साहब ने चौककर दे खा तो दिहना हाथ एक सुंदरी के कोमल हाथो मे है । जब तक पूणा य अपना घूँघट

बढावे वह उसको पहचान गये और बोले—पयारी, आज तुमने मेरी जान बचा ली।

पूणा य ने इसका कुछ जवाब न िदया। इस समय न जाने कयो उसका

िदल जोर जोर से धडक रहा था और आखो मे ऑस ं ू भरा आता था। ‘हाय। नारायण, जोकहीं वह आज िगर पडते तो कया होता...यही उसका मन बेर बेर कहता। ‘मै भले संयोग से आ गयी थी। वह िसर नीचा िकये गंगा की लहरो

पर टकटकी लगाये यही बाते गुनती रही। जब तक बाबू साहब खडे रहे , उसने उनकी ओर एक बेर भी न ताका। जब वह चले गए तो रामकली मुसकराती

हुई आयी और बोली—बिहन, आज तुमने बाबू साहब को िगरते िगरते बचा िलया आज से तो वह और भी तुमहारे पैरो पर िसर रकखेगे।

पूणाय—(कडी िनगाहो से दे खकर) रामकली ऐसी बाते न करो। आदमी

आदमी के काम आता है । अगर मैने उनको सँभाल िलया तो इसमे कया बात अनोखी हो गयी।

रामकली—ए लो। तुम तो जरा सी बात पर ितिनक गयीं।

पूणाय—अपनी अपनी रिच है । मुझको ऐसी बाते नहीं भाती। 58

रामकली—अचछा अपराध कमा करो। अब सकयर से िदललगी न

करँगी। चलो तुलसीदल ले लो।

पूणाय—नहीं, अब मै यहॉँ न ठहरँगी। सूरज माथे पसर आ गया।

रामकली—जब तक इधर उधर जी बहले अचछा है । घर पर तो जलते

अंगारो के िसवाय और कुछ नहीं।

जब दोनो नहाकर िनकली तो िफर पंडो ने छे डनाप चाहा, मगर पूणाय

एकदम भी न रकी। आिखर रामकली ने भी उसका साथ छोडना उिचत न

समझा। दोनो थोडी दरू चली होगी। िक रामकली ने कहा—कयो बिहन, पूजा करने न चलोगी?

पूणाय—नहीं सखी, मुझे बहुत दे र हो जायगी।

राम०—आज तुमको चलना पडे गा। तिनक दे खो तो कैसे िवहार की

जगह है । अगर दो चार िदन भी जाओ तो िफर िबना िनतय गये जी न माने।

है ।

पूणाय–तुम जाव, मै न जाऊँगी। जी नहीं चाहता।

राम०—चलो चलो, बहुत इतराओ मत। दम की दम मे तो लौटे आते रासते मे एक तंबोली की दक ू ान पडी। काठ के पटरो पर सुफेद भीगे

हुए कपडे िबछे थे। उस पर भॉिँत-भॉिँत के पान मसालो की खूबसूरत

िडिबयॉँ, सुगध ं की शीिशयॉँ, दो-तीन हरे -हरे गुलदसते सजा कर धरे हुए थे।

सामने ही दो बडे -बडे चौखटे दार आईने लगे हुए थे। पनवाडी एक सजीया जवान था। सर पर दोपलली टोपी चुनकर टे डी दे रकखी थी। बदन मे तंजेब

का फँसा हुआ कुता य था। गले मे सोने की तावीजे। ऑख ं ो मे सुमाय, माथे पर

रोरी, ओठो पर पान की गहरी लीली। इन दोनोिसयो को दे खते ही बोला— सेठानी जी, पान खाती जाव।

रामकली ने चठ सर से चादर खसका दी और िफर उसको एक अनुपम

भाव से ओढकर हं सते हुए नयनो से बोली—‘अभी पसाद नहीं पाया’।

पनवाडी—आवो। आवो। यह भी तो पसाद ही है । संतो के हाथ की

चीज पसाद से बढकर होती है । यह आज तुमहारे साथ कौन शिक है ? राम—यह हमारी सखी है ।

तमबोली—बहुत अचछा जोडा है । धनय ् भागय जो दशन य हुआ। 59

रामकली दक ु ान पर ठमक गयी और शीशे मे दे ख दे ख अपने बाल

सँवारने लगी। उधर पनवाडी ने चाँदी के वरक लपेटे हुए बीडे फुरती से बनाये

और रामकली की तरफ हाथ बढाया। जब वह लेने को झुकी तो उसने अपना हाथ खींच िलया और हँ सकर बोला—तुमहारी सखी ले तो दे ।

राम०—मुँह बनवा आओ, मुँह। (पान लेकर) लो, सखी, पान खाव। पूणाय—मै न खाऊँगी।

राम—तुमहारी कया कोई सास बैठी है जो कोसेगी। मेरी तो सास मना

करती है । मगर मै उस पर भी पितिदन खाती हूँ।

पूणाय—तुमहारी आदत होगी मै पान नहीं खाती।

राम—आज मेरी खाितर से खाव। तुमहे कसम है ।

रामकली ने बहुत हठ की मगर पूणा य ने िगलौिरयॉँ न लीं। पान खाना

उसने सदा के िलए तयाग िदया था। इस समय तक धूप बहुत तेज हो गयी

थी। रामकली से बोली—िकधर है तुमहारा मंिदर? वहाँ चलते-चलते तो सांझ हो जायगी।

राम—अगर ऐसे िदन कटा जाता तो िफर रोना काहे का था।

पूणा य चुप हो गयी। उसको िफर बाबू अमत ृ राय के पैर िफसलने का

धयान आ गया और िफर मन मे यह पश िकया िक कहीं आज वह िगर

पडते तो कया होता। इसी सोच मे थी िक िनदान रामकली ने कहा—लो सखी, आ गया मंिदर।

पूणा य ने चौककर दािहनी ओर जो दे खा तो एक बहुत ऊँचा मंिदर

िदखायी िदया। दरवाजे पर दो बडे -बडे पतथर के शेर बने हुए थे। और सैकडो आदमी भीतर जाने के िलए धककम-धकका कर रहे थे। रामकली पूणा य को इस मंिदर मे ले गयी। अंदर जाकर कया दे खती है िक पकका चौडा ऑग ं न है

िजसके सामने से एक अँधेरी और सँकरी गली दे वी जी के धाम को गयी है ।

दािहनी ओर एक बारादरी है जो अित उतम रीित पर सजी हुई है । यहॉँ एक

युवा पुरष पीला रे शमी कोट पहने, सर पर खूबसूरत गुलाबी रं ग की पगडी

बॉध ँ े, तिकया-मसनद लगाये बैठा है ।पेचवान लगा हुआ है । उगालदान, पानदान और नाना पकार की सुंदर वसतुओं से सारा कमरा भूिषत हो रहा है । उस

युवा पूरष के सामने एक सुधर कािमनी िसंगार िकये िवराज रही है । उसके इधर-उधर सपरदाये बैठे हुए सवर िमला रहे है । सैकडो आदमी बैठे और 60

सैकडो खडे है । पूणा य ने यह रं ग दे खा तो चौककर बोली—सखी, यह तो नाचघर सा मालूम होता है । तुम कहीं भूल तो नहीं गयीं?

राम—(मुसकराकर) चुप। ऐसा भी कोई कहता है । यही तो दे वी जी का

मिदर है । वह बरादरी मे महं त जी बैठे है । दे खती हो कैसा रँ गीला जवान है । आज शुकवार है , हर शुक को यहॉँ रामजनी का नाच होता है ।

इस बीच मे एक ऊँचा आदमी आता िदखायी िदया। कोई छ: फुट का

कद था। गोरा-िचटठा, बालो मे कंधी कह हुई, मुँह पान से भरे , माथे पर

िवभूित रमाये, गले मे बडे -बडे दानो की रदाक की माला पहने कंधे पर एक

रे शमी दोपटटा रकखे, बडी-बडी और लाल ऑख ं ो से इधर उधर ताकता इन दोनो िसयो के समीप आकर खडा हो गया। रामकली ने उसकी तरफ कटाक से दे खकर कहा—कयो बाबा इनदवत कुछ परशाद वरशाद नहीं बनाया?

इनद—तुमहारी खाितर सब हािजर है । पहले चलकर नाच तो दे खो। यह

कंचनी काशमीर से बुलायी गयी है । महं त जी बेढब रीझे है , एक हजार रपया इनाम दे चुके है ।

रामकली ने यह सुनते ही पूणा य का हाथ पकडा और बारादरी की ओर

चली। बेचारी पूणा य जाना न चाहती थी। मगर वहॉँ सबके सामने इनकार

करते भी बन न पडता था। जाकर एक िकनारे खडी हो गयी। सैकडो औरते जमा थीं। एक से एक सुनदर

गहने लदी हुई । सैकडो मदय थे, एक से एक

गबर ,उतम कपडे पहले हुए। सब के सब एक ही

मे िमले जुले खडे थे।

आपस मे बीिलयॉँ बोली जाती थीं, ऑख ं े िमलायी जाती थी, औरते मदो मे। यह मेलजोल पूणाय को न भाया। उसका िहयाव न हुआ िक भीड मे घुसे। वह एक कोने मे बाहर ही दबक गयी। मगर रामकली अनदर घुसी और वहॉँ कोई

आध घणटे तक उसने खूब गुलछरे उडाये। जब वह िनकली तो पसीने मे डू बी हुई थी।तमाम कपडे मसल गये थे।

पूणा य ने उसे दे खते ही कहा—कयो बिहन, पूजा कर चुकीं? अब भी घर

चलोगी या नहीं?

राम 0—(मुसकराकर) अरे , तुम बाहर खडी रह गयीं कया?

जरा अनदर चलके दे खो कया बहार है ? ईशर जाने कंचनी गाती कया है

िदल मसोस लेती है ।

पूणाय—दशन य भी िकया या इतनी दे र केवल गाना ही सुनती रहीं? 61

राम 0—दशन य करने आती है मेरी बला। यहॉँ तो िदल बहलाने से काम

है । दस

आदमी दे खे दस आदिमयो से हँ सी िदललगी की, चलो मन आन हो

गया। आज इनददत ने ऐसा उतम पसाद बनाया है िक करँ।

तुमसे कया बखान

पूणाय –कया है ,चरणामत ृ ?

राम 0—(हॅ सकर) हॉँ, चरणामत ृ मे बूटी िमला दी गयी है । पूणाय—बूटी कैसी?

राम 0—इतना भी नहीं जानती हो, बूटी भंग को कहते है । पूणाय—ऐहै तुमने भंग पी ली।

राम—यही तो पसाद है दे वी जी का। इसके पीने मे कया हज य है । सभी

पीते है । कहो तो तुमको भी िपलाऊँ।

पूणाय—नहीं बिहन, मुझे कमा करो।

इधर यही बाते हो रही थी िक दस-पंदह आदमी बारादरी से आकर

इनके आसपास खडे हो गये।

एक—(पूणाय की तरफ घूरकर) अरे यारो, यह तो कोई नया सवरप है । दस ू रा—जरा बच के चलो, बचकर।

इतने मे िकसी ने पूणा य के कंधे से धीरे से एक ठोका िदया। अब वह

बेचारी बडे फेर मे पडी। िजधर दे खती है आदमी ही आदमी िदखायी दे ती है ।

कोई इधर से हं सता है कोइ उधर से आवाजे कसता है । रामकली हँ स रही है । कभी चादर को िखसकाती है । कभी दोपटटे को सँभालती है । एक आदमी ने उससे पूछा—सेठानी जी, यह कौन है ?

रामकली—यह मेरी सखी है , जरा दशन य कराने को लायी थी।

दस ू रा—इनहे अवशय लाया करो। ओ हो। कैसा खुलता हुआ रं ग है । बारे िकसी तरह इन

आदिमयो से छुटकारा हुआ। पूणा य घर की ओर

भागी और कान पकडे िक आज से कभी मंिदर न जाउँ गी।

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आठवां अधयाय

कुछ और ब ात चीत

पूणा य ने कान पकडे िक अब मंिदर कभी न जाऊगी। ऐसे मंिदरो पर

दई का कोप भी नहीं पडता। उस िदन से वह सारे घर ही पर बैठी रहती। समय काटना पहाड हो जाता। न िकसी के यहॉँ आना न जाना। न िकसी से

भेट न मुलाकात। न कोई काम न धंधा। िदन कैसे कटे । पढी-िलखी तो अवशय थी, मगर पढे कया। दो-चार िकससे-कहानी की पुरानी िकताबे पंिडत जी की संदक ू मे पडी हुई थी, मगर उनकी तरफ दे खने को अब जी नहीं

चाहता था। कोई ऐसा न था जो बाजार से लाती मगर वह िकताबो का मोल

कया जाने। दो-एक बार जी मे आया िक कोई पुसतक पेमा के घर मे मँगवाये। मगर िफर कुछ समझकर चुप हो रही। बेल-बूटे बनाना उसको आते ही न थे। िक उससे जी बहलाये, हॉँ सीना आता था। मगर सीये िकसके

कपडे । िनतय इस तरह बेकाम बैठे रहने से वह हरदम कुछ उदास सी रहा

करती। हॉँ, कभी-कभी पंडाइन और चौबाइन अपने चेले-चापडो के साथ आकर कुछ िसखावन की बाते सुना जाती थीं। मगर जब कभी वह कहतीं िक बाबू

अमत ृ राय का आना ठीक नहीं तो पूणा य साफ-साफ कह दे ती िक मै उनको आने से नहीं रोक सकती और न कोई ऐसा बताव य कर सकती हूँ िजससे वह समझे िक मेरा आना इसको बुरा लगता है । सच तो यह है िक पूणाय के हदय

मे अब अमत ृ राय के िलए पेम का अंकुर जमने लगा था। यदिप वह अभी तक यही समझती थी िक अमत ृ राय यहॉँ दया की राह से आया करते है ।

मगर नहीं मालूम कयो वह उनके आने का एक-एक िदन िगना करती। और जब इतवार आता तो सबेरे ही से उनके शुभगमन की तैयािरयॉँ होने लगती। िबललो बडे पेम से सारा मकान साफ करती। कुिसय य ां और तसवीरो पर से सात िदन की जमी हुई धूल-िमटटी दरू करती। पूणा य खुद भी अचछे और

साफ कपडे पहनती। अब उसके िदल मे आप ही आप बनाव-िसंगार करने की इचछा होती थी। मगर िदल को रोकती। जब बाबू अमत ृ राय आ जाते तो उसका मिलन मुख कुंदन की तरह दमकने लगता। उसकी पयारी सूरत और

भी अिधक पयारी मालूम होने लगती। जब तक बाबू साहब रहते उसे अपना

घर भरा मालूम होता। वह इसी कोिशश मे रहती िक ऐसी कया बात कर िजसमे वह पसनन होकर घर को जावे। बाबू साहब ऐसे हँ समुख थे िक रोते 63

को भी एक बार हँ सा दे ते। यहॉँ वह खूब बुलबुल की तरह चहकते। कोई ऐसी बात न कहते िजससे पूणा य दिुखत हो। जब उनके चलने का समय आता तो

वह कुछ उदास हो जाती। बाबू साहब इसे ताड जाते और पूणाय की खाितर से

कुछ दे र और बैठते। इसी तरह कभी-कभी घंटो बीत जाते। जब िदया मे बती

पडने की बेला आती तो बाबू साहब चले जाते। पूणाय कुछ दे र तक इधर-उधर बौखलाई हुई धूमती। जो जो बाते हुई होती, उनको मन मे दोहराती। यह समय उस आनंददायक सवपन-सा जान पडता था जो ऑख ं के खुलते ही िबलाय जाता है ।

इसी तरह कई मास और बीत गये और आिखर जो बात अमत ृ राय के

मन मे थी वह पूरी हो गयी। अथात य पूणाय को अब मालूम होने लगा िक मेरे िदल मे उनकी मुहबबम समाती जाती है । और उनका िदल भी मेरी मुहबबत से खाली नहीं। अब पूणा य पहले से जयादा उदास रहने लगी। हाय। ओ बौरे

मन। कया एक बार पीित लगाने से तेरा जी नहीं भरा जो तू िफर यह रोग

पाल रहा है । तुझे कुछ मालूम है िक इस रोग की औषिध कया है ? जब तू यह जानता है तो िफर कयो, िकस आशा पर यह सनेह बढा रहा है और बाबू

साहब। तुमको कया कहना मंजरू है ? तुम कया करने पर आये हो? तुमहारे जी मे कया है ? कया तुम नहीं जानते िक यह अिगन धधकेगी तो िफर बुझाये न

बुझेगी? मुझसे ऐसा कौन-सा गुण है ? कहॉँ की बडी सुंदरी हूँ जो तुम पेमा, पयारी पेमा, तो तयागे दे ते हो? वह बेर बेर मुझको बुलाती है । तुमहीं बताओ, कौन मुँह लेकर उसके पास जाऊँ और तुम तो आग लगाकर दरू से तमाशा

दे खोगे। इसे बुझायेगा कौन?बेचारी पूणा य इनहीं िवचारो मे डू बी रहती। बहुत चाहती िक अमतराय का खयाल न आने पावे, मगर कुछ बस न चलता।

अपने िदल का पिरचय उसको एक िदन यो िमला िक बाबू अमत ृ राय

िनयत समय पर नहीं आये। थोडी दे र तक तो वह उनकी राह दे खती रही मगर जब वह अब भी न आये तब तो उसका िदल कुछ मसोसने लगा। बडी

वयाकुलता से दौडी हुई दीवाजे पर आयी और आध घंटे तक कान लगाये खडी रही, िफर भीतर आयी और मन मारकर बैठ गयी। िचत की कुछ वही

अवसथा होने लगी जो पंिडत जी के दौरे पर जाने के वक हुआ करती। शंका

हुई िक कहीं बीमार तो नहीं हो गये। महरी से कहा—िबललो, जरा दे खो तो बाबू साहब का जी कैसा? नहीं मालूम कयो मेरा िदल बैठा जाता है । िबललो

लपकी हुई बाबू साहब के बँगले पर पहुँची तो जात हुआ िक वह आज दो 64

तीन नौकरो को साथ लेकर बाजार गये हुए है । अभी तक नहीं आये। पुराना बूढा कहार आधी टॉग ँ ो तक धोती बॉध ँ े सर िहलाता हुआ आया और कहने

लगा—‘बेटा बडा खराब जमाना आवा है । हजार का सउदा होय तो, दइु हजार का सउदा होय तो हमही लै आवत रहे न। आज खुद आप गये है । भलाइतने

बडे आदमी का उस चाहत रहा। बाकी िफर सब अंगेजी जमाना आया है ।

अँगेजी पढ-पढ के जउन न हो जाय तउन अचरज नहीं। िबललो बूढे कहर केसर िहलाने पर हँ सती हुई घर को लौटी। इधर जब से वह आयी थी पूणाय

की िविचत दशा हो रही थी। िवकल हो होकर कभी भीतर जाती, कभी बाहर आती। िकसी तरह चैन ही न आता। जान पडता िक िबललो के आने मे दे र

हो रही है । िक इतने मे जूते ही आवाज सुनायी दी। वह दौड कर दार पर

आयी और बाबू साहब को टहलते हुए पाया तो मानो उसको कोई धन िमल गया। झटपट भीतर से िकवाढ खोल िदया। कुसी रख दी और चौखट पर सर नीचा करके खडी हो गयी।

अमत ृ राय—िबललो कहीं गयी है कया?

पूणाय—(लजाते हुए) हॉँ, आप ही के यहॉँ तो गयी है । अमत ृ ०—मेरे यहॉँ कब गयी? कयो कुछ जररत थी?

पूणाय—आपके आने मे िवलंब हुआ तो मैने शायद जी न अचछा हो।

उसको दे खने के िलए भेजा।

अमत ृ ०—(पयार से दे खकर) बीमारी चाहे कैसी ही हो, वहमुझे यहॉँ आने

से नहीं रोक सकती। जरा बाजार चला गया था। वहॉँ दे र हो गयी।

यह कहकर उनहोने एक दफे जोर से पुकारा, ‘सुखई, अंदर आओ’ और

दो आदमी कमरे मे दािखल हुए। एक के हाथ मे ऐक संदक ू था और दस ू रे के हाथ मे तह िकये हुए कपडे । सब सामान चौकी पर रख िदया गया। बाबू साहब बोले—पूणा, मुझे पूरी आशा है िक तुम दो चार मामूली चीजे लेकर मुझे कृ ताथय करोगी।(हं सकर) यह दे र मे आने का जुमान य ा है ।

पूणा य अचमभे मे आ गई। यह कया। यह तो िफर वही सनेह बढाने

वाली बाते है । और इनको खरीदने के िलए आप ही बाजार गये थे।

अमत ृ राय। तुमहारे िदल मे जो है वह मै जानती हूं। मेरे िदल मे जो है वह तुम भी जानते हो। मगर इसका नतीजा? इसमे संदेह नहीं िक इन चीजो की

पूणाय को बहुत जररत थी। पंिडत जी की मोल ली हुई सािरया अब तक लंगे तंगे चली थी। मगर अब पहनने को कोई कपडे न थे। उसने सोचा था िक 65

अब की जब बाबू साहब के यहा से मािसक तनखवाह िमलेगी तो मामूली सािरयॉँ मगा लूँगी। उसे यह कया मालूम था िक बीच मे बनारसी और रे शमी सािरयो का ढे र लग जायगा। पिहले

तो वह िसयो

की सवाभािवक

अतयिभलाषा से इन चीजो को दे खने लगी मगर िफर यह चेत कर िक मेरा

इस तरह चीजो पर िगरना उिचत नहीं है वह अलग हट गयी और बोली— बाबू साहब। इस अनुगह के िलए मै आपको धनयवाद दे ती हूँ, मगर यह भारी-भारी जोडे मेरे िकस काम के। मेरे िलए मोटी-झोरी सािरयॉँ चािहए। मै इनहे पहनूगी तो कोई कया कहे गा।

अमत ृ राय—तुमने ले िलया। मेरी मेहनत िठकाने लगी, और मै कुछ

नहीं जानता।

इतने मे िबललो पहुँची और कमरे मे बाबू साहब को दे खते ही िनहाल

हो गयी। जब चौकी पर दिि पडी और इन चीजो को दे खा तो बोली—कया इनके िलए आप बाजार गये थे। बूढा कहर रो रहा था िक मेरी दसतूरी मारी गयी।

अमत ृ राय—(दबी जबान से) वह सब कहार मेरे नौकर है । मेरे िलए

बाजार से चीजे लाते है । तुमहारे सकारय का मै चाकर हूँ।

िबललो यह सुनकर मुसकराती हुई भीतर चली गई। पूणा य के कान मे

भी भनक पड गयी थी। बोली—उलटी बात न किहए। मै तो खुद आपकी

चेिरयो कीचेरी हूँ। इसके बाद इधर-उधर की कुछ बाते हुई। माघ-पूस के िदन थे, सरदी खूब पड रही थी। बाबू साहब दे र तक न बैठ सके और आठ बजते

बजते वह अपने घर को िसधारे । उनके चले जाने के बाद पूणा य ने जो संदक ू खोला तो दं ग रह गयी।

िसयो के िसंगार की सब सामिगयॉँ मौजूद थीं और

जो चीज थी सुंदर और उतम थी। आइना, कंघी, सुगंिधत तेलो की शीिशयॉँ, भॉिँत’भाित के इत, हाथो के कंगन, गले का चंदहार, जडाऊ, एक रपहला

पानदान, िलखने पढने के सामान से भरी एक संदक ू ची, िकससे-कहानी की िकतबो, इनके अितिरक और भी बहुत-सी चीजे बडी उतम रीित से सजाकर धरी हुइ थी। कपडो का बेठन खोला तो अचछी से अचछी सािरया िदखायी

दी। शबत य ी, धानी, गुलाबी, उन पर रे शम के बेल बूट बने हुए। चादरे भारी

सुनहरे काम की। िबललो इन चीजो को दे ख-दे ख फूली न समाती थी। बोली—बहू। यह सब चीजे तुम पहनोगी तो रानी हो जाओगी—रानी। 66

पूणाय—(िगरी हुई आवाज मे) कुछ भंग खा गयी हो कया िबललो। मै

यह चीजे पहनूँगी तो जीती बचूँगी। चौबाइन और सेठानी ताने दे दे कर जान ले लेगी।

िबललो—ताने कया दे गी, कोई िदललगी है । इसमे उनके बाप का कया

इजारा। कोई उनसे मांगने जाता है ।

पूणाय ने महरी को आशय य की ऑख ं ो से दे खा। यही िबललो है जो अभी

दो घंटे पहले चौआइन और पडाइन से सममित करती थी और मुझे बेर-बेर पहनने-ओढने से बजा य करती थी। यकायक यह कया कायापलट हो गयी। बोली—कुछ संसार के कहने की भी तो लाज है । िबललो—मै यह थोडा ही कहती हूँ िक

हरदम यह चीजे पहना करो।

जब बाबू साहब आवे थोडी दे र के िलए पहन िलया।,

पूणाय(लजाकर)—यह िसंगार करके मुझसे उनके सामने कयोकर िनकला

जायगा। तुमहे याद है एक बेर पेमा ने मेरे बाल गूध ँ िदये थे। तुमसे कया

कहूँ। उस िदन वह मेरी तरफ ऐसा ताकते थे जैसे कोई िकसी पर जाद ू करे । नहीं मालूम कया बात है िक उसी िदन से वह जब कभी मेरी ओर दे खते है

तो मेरी छाती-धड धड करने लगती है । मुझसे जान-बूझकर िफर ऐसी भूल न होगी।

िबललो—बहू, उनकी मरजी ऐसी ही है तो कया करोगी, इनहीं चीजो के

िलए कल वह बाजार गये थे। सैकडो नौकर-चाकर है मगर इनहे आप जाकर जाये। तुम इनको न पहनोगी तो वह अपने िदल मे कया कहे गे।

पूणाय—(ऑख ं ो मे ऑस ं ू भरकर) िबललो। बाबू अमत ृ राय नहीं मालूम कया

करने वाले है । मेरी समझ मे नहीं आता िक कया करँ। वह मुझसे िदन-िदन अिधक पेम बढाते जाते है और मै अपने िदल को कया कहूँ, तुमसे कहते लजजा आती है । वह अब मेरे कहने मे नहीं रहा। मोहलले वाले अलग बदनाम कर रहे है । न जाने ईशर को कया करना मंजूर है ।

िबललो ने इसका कुछ जवाब न िदया। पूणा य ने भी उस िदन खाना न

बनाया। सॉझ ं ही से जाकर चारपाई पर लेट रही। दस ू रे िदन सुबह को उठकर

उसने वह िकताबे पढना शुर की, जो बाबू सहाब जाये थे। जयो-जयो वह पढती उसको ऐसा मालूम होता िक कोई मेरी ही दख ु की कहानी कह रहा है ।

इनके पढने मे जो जी लगा तो इतवार का िदन आया। िदन िनकलते ही िबललो ने हँ सकर कहा—आज बाबू साहब के आने का िदन है । 67

पूणाय—(अनजान बनकर) िफर?

िबललो—आज तुमको जरर गहने पहनने पडे गे।

पूणाय—(दबी आवाज से) आज तो मेरे सर मे पीडा हो रही है ।

िबललो—नौज, तुमहारे बैरी का सर ददय करे । इस बहाने से पीछा न

छूटे गा।

पूणाय—और जो िकसी ने मुझे ताना िदया तो तु जानना। िबललो—ताना कौन रॉड ँ दे गी।

सबेरे ही से िबललो ने पूणाय का बनाव-िसंगार करना शुर िकया। महीनो

से सर न मला गया था। आज सुगंिधत मसाले से मला गया, तेल डाला गया, कंघी की गयी, बाल गूथ ँ े गये और जब तीसरे पहर को पूणा य ने गुलाबी

कुती पहनकर उस रे शमी काम की शबत य ी सारी पहनी, गले मे हार और हाथो मे कंगन सजाये तो सुंदरता की मूित य मालूम होने लगी। आज तक कभी

उसने ऐसे रत जिडत गहने और बहुमूलय कपडे न पहने थे। और न कभी

ऐसी सुघर मालूम हुई थी। वह अपने मुखारिवंद को आप दे ख दे ख कुछ पसनन भी होती थी, कुछ लजाती भी थी और कुछ शोच भी करती थी। जब

सॉझ ँ हुई तो पूणा य कुछ उदास हो गयी। िजस पर भी उसकी ऑख ं े दरवाजे

पर लगी हुई थीं और वह चौक कर ताकती थी िक कहीं अमत ृ राय तो नहीं आ गये। पॉच ँ बजते बजते और िदनो से सबेरे बाबू अमत ृ राय आये। कमरे मे

बैठे, िबललो से कुशलानंद पूछा और ललचायी हुई ऑख ं ो से अंदर के दरवाजे

की तरफ ताकने लगे। मगर वहॉँ पूणा य न थीं, कोई दस िमनट तक तो उनहोने चुपचाप उसकी राह दे खी, मगर जब अब भी न िदखायी दी तो िबललो से पूछा—कयो महरी, आज तुमहारी सकारय कहॉँ है ? िबललो—(मुसकराकर) घर ही मे तो है ।

अमत ृ ०—तो आयी कयो नहीं। कया आज कुछ नाराज है कया? िबललो—(हूंसकर) उनका मन जाने।

अमत ृ ०—जरा जाकर िलवा जाओ। अगर नाराज हो तो चलकर मनाऊँ।

यह सुनकर िबललो हँ सती हुई अंदर गई और पूणा य से बोली—बहू,

उठोगी या वह आप ही मनाने आते है ।

पूणाय—िबललो, तुमहारे हाथ जोडती हूँ, जाकर कह दो, बीमार है ।

िबललो—बीमारी का बहाना करोगी तो वह डाकटर को लेने चले जायॅगे। पूणाय—अचछा, कह दो, सो रही है ।

68

िबललो—तो कया वह जगाने न आऍग ं े? पडे ।

पूणाय—अचछा िबललो, तुम ही केई बहाना कर दो िजससे मुझे जाना न िबललो—मै जाकर कहे दे ती हूँ िक वह आपको बुलाती है ।

पूणाय को कोई बहाना न िमला। वह उठी और शमय से सर झुकाये, घूँघट

िनकाले, बदन को चुराती, लजाती, बल खाती, एक िगलौरीदान िलये दरवाजे परआकर खडी हो गइ अमत ृ राय ने दे खा तो अचमभे मे आ गये। ऑख ं े

चौिधया गयीं। एक िमनट तक तो वह इस तरह ताकते रहे जैसे कोई लडके िखलौने को दे खे। इसके बाद मुसकराकर बोले—ईशर, तू धनय है । पूणाय—(लजाती हुई) आप कुशल से थे?

अमत ृ ०—(ितछी िनगाहो से दे खकर) अब तक तो कुशल से था, मगर

अब खैिरयत नहीं नजर आती।

पूणा य समझ गयी, अमत ृ राय की रं गीली बातो का आनंद लेते लेते वह

बोलने मे िनपुण हो गयी थी। बोली—अपने िकये का कया इलाज? अमत ृ ०—कया िकसी को अपनी जान से बैर है ।

पूणा य ने लजाकर मुँह फेर िलया। बाबू साहब हँ सने लगे और पूणा य की

तरफ पयार की िनगाहो से दे खा। उसकी रिसक बाते उनको बहुत भाइ, कुछ काल तक और ऐसी ही रस भरी बाते होती रहीं। पूणाय को इस बात की सुिध

भी न थी िक मेरा इस तरह बोलना चालना मेरे िलए उिचत नहीं है । उसको इस वक न पंडाइन का डर था, न पडोिसयो का भय। बातो ही बातो मे उसने

मुसकराकर अमत ृ राय से पूछा—आपको आजकल पेमा का कुछ समाचार िमला है ?

अमत ृ ०—नहीं पूणाय, मुझे इधर उनकी कुछ खबर नहीं िमली। हॉँ, इतना

जानता हूँ िक बाबू दाननाथ से बयाह की बातचीत हो रही है । पूणाय—बाबू दाननाथ तो आपके िमत है ?

अमत ृ ०—िमत भी है और पेमा के योगय भी है ।

पूणाय—यह तो मै न मानूगी। उनका जोड है तो आप ही से है । हॉ,

आपका बयाह भीतो कहीं ठहरा था?

अमत ृ ०—हॉँ, कुछ बातचीत हो रही थी। पूणाय—कब तक होने की आशा है ? 69

हूं।

अमत ृ ०—दे खे अब कब भागय जागता है । मै तो बहुत जलदी मचा रहा पूणाय—तो कया उधर ही से िखंचाव है । आशयय की बात है ।

अमत ृ ०—नहीं पूणाय, मै जरा भागयहीन हूँ। अभी तक िसवाय बातचीत

होने के और कोई बात तय नहीं हुई।

पूणाय—(मुसकराकर) मुझे अवशय नवता दीिजएगा।

अमत ृ ०—तुमहारे ही हाथो मे तो सब कु है । अगर तुम चाहो तो मेरे

सर सेहरा बहुत जलद बँध जाए।

पूणा य भौचक होकर अमत ृ राय की ओर दे खने लगी। उनका आशय अब

की बार भी वह न समझी। बोली—मेरी तरफ से आप िनिशत रिहए। मुझसे जहॉँ तक हो सकेगा उठा न रखूँगी।

अमत ृ ०—इन बातो को याद रखना, पूणाय, ऐसा न हो भूल जाओ तो मेरे

सब अरमान िमटटी मे िमल जाऍ।ं

यह कहकर बाबू अमत ृ राय उठे और चलते समय पूणा य की ओर दे खा।

उसकी ऑख ं े डबडबायी हुई थी, मानो िवनय कर रही थी िक जरा दे र और बैिठए। मगर अमत ृ राय को कोइ जररी काम था धीरे से उठ खडे हुए और बोले—जी तो नही चाहता िक यहॉँ से जाऊँ। मगर आज कुछ काम ही ऐसा आ पडा। यह कहा और चल िदये। पूणाय खडी रोती रह गई।

70

नौवां अधयाय

तुम स चमु च जाद ू गर ह ो

नौ बजे रात का समय था। पूणा य अँधेरे कमरे मे चारपाई पर लेटी हुई

करवटे बदल रही है और सोच रही है आिखर वह मुझेस कया चाहते है ? मै तो उनसे कह चुकी िक जहॉँ तक मुझसे हो सकेगा आपका काय य िसद करने मे कोई बात उठा न रखूग ँ ी। िफर वह मुझसे िकतना पेम बढाते है । कयो मेरे

सर पर पाप की गठरी लादते है मै उनकी इस मोहनी सूरत को दे खकर बेबस हुई जाती हूँ।

मै कैसे िदल को समझाऊ? वह तो पेम रस पीकर मतवाला हो रहा है ।

ऐसा कौन होगा जो उनकी जादभ ू री बाते सुनकर रीझ न जाय? हाय कैसा कोमल सवभाव है । ऑख ं े कैसी रस से भरी है । मानो हदय मे चुभी जाती है ।

आज वह और िदनो से अिधक पसनन थे। कैसा रह रहकर मेरी और

ताकते थे। आज उनहोने मुझे दो-तीन बार ‘पयारी पूणाय’ कहा। कुछ समझ मे

नहीं आता िक कया करनेवाले है ? नारायण। वह मुझसे कया चाहते है । इस मोहबबत का अंत कया होगा।

यही सोचते-सोचते जब उसका धयान पिरणाम की ओर गया तो मारे

शमय के पसीना आ गया। आप ही आप बोल उठी।

न......न। मुझसे ऐसा न होगा। अगर यह वयवहार उनका बढता गया

तो मेरे िलए िसवाय जान दे दे ने के और कोई उपाय नहीं है । मै जरर जहर

खा लूग ँ ी। नही-नहीं, मै भी कैसी पागल हो गयी हूँ। कया वह कोई ऐसे वैसे आदमी है । ऐसा सजजन पुरष तो संसार मे न होगा। मगर िफर यह पेम

मुझसे कयो लगाते है । कया मेरी परीका लेना चाहती है । बाबू साहब। ईशर के िलए ऐसा न करना। मै तुमहारी परीका मे पूरी न उतरँगी।

पूणा य इसी उधेड-बुन मे पडी थी िक नींद आ गयी। सबेरा हुआ। अभी

नहाने जाने की तैयारी कर रही थी िक बाबू अमुतराय के आदमी ने आकर

िबललो को जोर से पुकारा और उसे एक बंद िलफाफा और एक छोटी सी संदक ू ची दे कर अपनी राह लगा। िबललो ने तुरंत आकर पूणा य को यह चीजे िदखायी।

पूणा य ने कॉप ँ ते हुए हाथो से खत िलया। खोला तो यह िलखा था

—‘पाणपयारी से अिधक पयारी पूणा।य

71

िजस िदन से मैने तुमको पहले पहल दे खा था, उसी िदन से तुमहारे

रसीले नैनो के तीर का घायल हो रहा हूँ और अब घाव ऐसा दख ु दायी हो

गया है िक सहा नहीं जाता। मैने इस पेम की आग को बहुत दबाया। मगर

अब वह जलन असहय हो गयी है । पूणा।य िवशास मानो, मै तुमको सचचे िदल से पयार करता हूं। तुम मेरे हदय कमल के कोष की मािलक हो। उठते बैठते

तुमहारा मुसकराता हुआ िचत आखो के सामने िफरा करता है । कया तुम मुझ

पर दया न करोगी? मुझ पर तरस न खाओगी? पयारी पूणा।य मेरी िवनय मान जाओ। मुझको अपना दास, अपना सेवक बना लो। मै तुमसे कोई अनुिचत बात नहीं चाहता। नारायण। कदािप नहीं, मै तुमसे शासीय रीित पर िववाह

करना चाहता हूँ। ऐसा िववाह तुमको अनोखा मालूम होगा। तुम समझोगी, यह धोखे की बात है । मगर सतय मानो, अब इस दे श मे ऐसे िववाह कहीं

कहीं होने लगे है । मै तुमहारे िवरह मे मर जाना पसंद करँगा, मगर तुमको धोखा न दंग ू ा।

‘पूणा।य नही मत करो। मेरी िपछली बातो को याद करो। अभी कल ही

जब मैने कहा िक ‘तुम चाहो तो मेरे सर बहुत जलद सेहरा बँध सकता है ।‘ तब तुमने कहा था िक ‘मै भर शिक कोई बात उठा न रखूग ँ ी। अब अपना वादा पूरा करो। दे खो मुकर मत जाना।

‘इस पत के साथ मै एक जहाऊ कंगन भेजता हू। शाम को मै तुमहारे

दशन य को आऊँगा। अगर यह कंगन तुमहारी कलाई पर िदखाइ िदया तो समझ जाऊँगा िक मेरी िवनय मान ली गयी। अगर नहीं तो िफर तुमहे मुँह न िदखाऊँगा।

तुमहारी सेवा का अिभलाषी अमत ृ राय।

पूणा य ने बडे गौर से इस खत को पढा और शोच के अथाह समुद मे

गोते खाने लगी। अब यह गुल िखला। महापुरष ने वहॉँ बैठकर यह पाखंड

रचा। इस धूमप य न को दे खो िक मुझसे बेर बेर कहते थे िक तुमहारे ही ऊपर मेरा िववाह ठीक करने का बोझ है , मै बौरी कया जानूँ िक इनके मन मे कया

बात समायी है । मुझसे िववाह का नाम लेते उनको लाज नहीं होती। अगर सुहािगन बनना भाग मे बादा होता तो िवधवा काहे

ि़़ो होती। मै अब

इनको कया जवाब दँ।ू अगर िकसी दस ू रे आदमी ने यह गाली िलखी होती तो 72

उसका कभी मुहँ न दे खती। मै कया सखी पेमा से अचछी हूँ? कया उनसे सुंदर

हूँ?कया उनसे गुणवती हूँ? िफर यह कया समझकर ऐसी बाते िलखते है ? िववाह करे गे। मै समझ गयी जैसा िववाह होगा। कया मुझे इतनी भी समझ

नहीं? यह सब उनकी धूतप य न है । वह मुझे अपने घर रकखा चाहते है । मगर

ऐसा मुझसे कदािप न होगा। मै तो इतना ही चाहती हूँ िक कभी-कभी उनकी मोहनी मूरत का दशन य पाया करँ। कभी-कभी उनकी रसीली बितयॉँ सुना करँ और उनका कुशल आनंद, सुख समाचार पाया करँ। बस। उनकी पती बनने

के योगय मै नहीं हूँ। कया हुआ अगर हदय मे उनकी सूरत जम गयी है । मै इसी घर मे उनका धयान करते करते जान दे दँग ू ी। पर मोह के बस के

आकर मुझसे ऐसा भारी पाप न िकया जाएगा। मगर इसमे उन बेचारे का

दोष नहीं है । वह भी अपने िदल से हारे हुए है । नहीं मालूम कयो मुझ अभािगनी मे उनका पेम लग गया। इस शहर मे ऐसा कौन रईस है जो उनको लडकी दे ने मे अपनी बडाई न समझे। मगर ईशर को न जाने कया

मंजूर था िक उनकी पीित मुझसे लगा दी। हाय। आज की सॉझ ँ को वह

आएगे। मेरी कलाई पर कंगन न दे खेगे तो िदल मे कया कहे गे? कहीं आनाजाना तयाग दे तो मै िबन मारे मर जाऊँ। अगर उनका िचत जरा भी मेरी

ओर से मोटा हुआ, तो अवशय जहर खा लूगीँ । अगर उनके मन मे जरा भी माख आया, जरा भी िनगाह बदली, तो मेरा जीना किठन है ।

िबललो पूणा य के मुखडे का चढाव-उतार बडे गौर से दे ख रही थी। जब

वह खत पढ चुकी तो उसने पूछा—कया िलखा है बहू?

पूणाय—(मिलन सवर मे) कया बताऊँ कया िलखा है ? िबललो—कयो कुशल तो है ?

पूणाय—हॉँ, सब कुशल ही है । बाबू साहब ने आज नया सवॉग ँ रचा। िबललो—(अचंभे से) वह कया?

पूणाय—िलखते है िक मुझसे......

उससे और कुछ न कहा गया। िबललो समझ गयी। मगर वहीं तक

पहुची जहॉँ तक उसकी बुिद ने मदद की। वह अमत ृ राय की बढती हुई मुहबबत को दे ख-दे खकर िदल मे समझे बैठी हुई थी िक वह एक न एक

िदन पूणा य को अपने घर अवशय डालेगे। पूणा य उनको पयार करती है , उन पर जान दे ती है । वह पहले बहुत िहचिकचायगी मगर अंत मे मान ही जायगी।

उसने सैकडो रईसो को दे खा था िक नाइनो कहािरयो, महरािजनो को घर डाल 73

िलया था। अब की भी ऐसा ही होगा। उसे इसमे कोई बात अनोखी नहीं

मालूम होती थी िक बाबू साहब का पेम सचच है मगर बेचारे िसवाय इसके और कर ही कया सकते है िक पूणा य को घर डाल ले। दे खा चािहए िक बहू

मानती है या नहीं। अगर मान गयीं तो जब तक िजयेगे, सुख भोगेगी। मै भी उनकी सेवा मे एक टु कडा रोटी पाया करँगी और जो कहीं इनकार िकया तो

िकसी का िनबाह न होगा। बाबू साहब ही का सहारा ठहरा। जब वही मुँह मोड लेगे तो िफर कौन िकसको पूछता है । दोगी?

इस तरह ऊँच-नीच सोचकर उसने पूणा य से पूछा-तुम कया जवाब दो पूणाय-जवाब ऐसी बातो का भी भल कहीं जवाब होता है । भला

िवधवाओं का कहीं बयाह हुआ है और वही भी बहमण का कितय से। इस तरह की चनद कहािनयां मैने उन िकताबो मे पढी जो वह मुझे दे गये है । मगर ऐसी बात कहीं सैतक ु नहीं दे खने आयी। िबललो समझी थी िक बाबू

साहब उसको घर डरानेवाले है । जब बयाह

का नाम सुना तो चकरा कर बोली-कया बयाह करने को कहते है ? पूणाय-हॉ।ँ

िबललो—तुमसे?

पूणाय-यही तो आशय है ।

िबललो—अचराज सा अचरज है भला ऐसी कहीं भया है । बालक पक

गये मगर ऐसा बयाह नहीं दे खा।

पूणाय-िबललो, यह सब बहाना है । उनका मतलब मै समझ गयी। िबललो-वह तो खुली बात है ।

पूणाय—ऐसा मुझसे न होगा। मै जान दे दँग ू ी पर ऐसा न करँ गी।

िबललो—बहू उनका इसमे कुछ दोष नहीं है । वह बेचारे भी अपने िदल

से हारे हुए है । कया करे ।

पूणाय—हाँ िबललो, उनको नहीं मालूम कयो मुझसे कुछ मुहबबत हो गयी

है और मेरे िदल का हाल तो तुमसे िछपा नहीं। अगर वह मेरी जान मॉग ँ ते तो मै अभी दे दे ती। ईशर जानता है , उनके जरा से इशारे पर मै अपने को िनछावर कर सकती हूँ।

मगर जो बात व चाहते है मुझसे न होगी। उसके सोचती हूँ तो मेरा

कलेजा काँपने लगता है ।

74

िबललो—हॉँ, बात तो ऐसा ही है मुदा...

पूणाय-मगर कया, भलेमानुसो मे ऐसा कभी होता ही नहीं। हॉँ, नीच

जाितयो मे सगाई, डोला सब कुछ आता है ।

िबललो—बहू यह तो सच है । मगर तुम इनकार करोगी तो उनका िदल

टू ट जायेगा।

पूणाय—यही डर मारे डालता है । मगर इनकार न करँ तो कया करँ । यह

तो मै भी जानती हूँ िक वह झूठ-सच बयाह कर लेगे। बयाह कया कर लेगे।

बयाह कया करे गे, बयाह का नाम करे गे। मगर सोचो तो दिूनया कया कहे गी।

लोग अभी से बदनाम कर रहे है , तो न जाने और कया-कया आकेप लगायेगे। मै सखी पेमा को मुँह िदखाने योगस नहीं रहूँगी। बस यही एक उपाय है िक

जान दे दँ ,ू न रह बॉस ँ न बजे बॉस ँ ुरी। उनको दो-चार िदन तक रं ज रहे गा, आिखर भूल जाऐंगे। मेरी तो इजजत बच जायगी।

िबललो—(बात पलट कर) इस सनदक ू चे मे’ कया है ? पूणाय-खोल कर दे खो।

िबललो ने जो उसे खोला तो एक कीमती कंगन हरी मखमल मे

लपेटकर धरा था और सनकू मे संदल की सुगंध आ रही थी। िबललो ने

उसको िनकाल िलया और चाहा की पूणा य के हथ खींच िलया और ऑख ं ो मे ऑस ं ू भर कर बोली—मत िबललो, इसे मत पहनाओ। सनदक ू मे बंद करके रख दो।

िबललो—जरा पहनो तो दे खो कैसा अचछा मालूम होता है ।

पूणाय—कैसे पहनूँ। यह तो इस बात का सूचक हो जाएगा िक उनकी

बात मंजरू है ।

िबललो-कया यह भी इस चीठी मे िलखा है ?

पूणाय—हॉँ, िलखा है िक मै आज शाम को आऊँगा और अगर कलाई पर

कंगन दे खूँगा तो समझ जाऊँगा िक मेरी बात मंजूर है । िबललो—कया आज ही शाम को आऍग ं े? पूणाय—हॉ।ँ

यह कहकर पूणाय ने िसर नीचा कर िलया। नहाने कौन जाता है । खाने

पीने की िकसको सुध है । दोपहर तक चुपचाप बैठी सोचा की। मगर िदल ने कोई बात िनणय य न की हॉँ, -जयो-जयो सॉझ ँ का समय िनकट आया था तयोतयो उसका िदल धडकता जाता था िक उनके सामने कैसे जाऊँगी। वह मेरी 75

कलाई पर कंगन न दे खगे तो कया कहे गे? कहीं रठ कर चले न जायँ? वह कहीं िरसा गये तो उनको कैसे मनाऊँगी?मगर तिबय ता कायदा है िक जब

कोई बात उसको अित लौलीन करनेवाली होती है तो थोडी दे र के बाद वह उसे भागने लगती है । पूणाय से अब सोचा भी न जाता था। माथे पर हाथ घरे

मौन साधे िचनता की िचत बनी दीवार की ओर ताक रही थी। िबललो भी

मान मारे बैठी हुई थी। तीन बजे होगे िक यकायक बाबू अमत ृ राय की मानूस आवाज दरवाजे पर िबललो पुकराते सुनायी दी। िबललो चट बाहर दौडी और

पूणाय जलदी से अपनी कोठरी मे घुस गयी िक दवाजा भेड िलया। उसका िदल

भर आया और वह िकवाड से िचमट कर फूट-फूट रोने लगी। उधर बाबू साहब बहुत बेचैन थे। िबललो जयोही बाहर िनकली िक उनहोने उसकी तरफ आस-भरी ऑख ं ो से दे खा। मगर जब उसके चेहरे पर खुशी का कोई िचह न

िदखायी िदया तो वह उदास हो गये और दबी आवज मे बोली—महरी, तुमहारी उदासी दे खकर मेरा िदल बैठा जाता है । िबललो ने इसका उतर कुछ न िदया।

अमत ृ राय का माथा ठनका िक जरर कुछ गडबड हो गयी। शायद

िबगड गयी। डरते-डरते िबललो से पूछा—आज हमार आदमी आया था? िबललो हा आया था।

अमत ृ —कुछ दे गया?

िबललो—दे कयो नहीं गया।

अमत ृ तो कया हुआ? उसको पहना?

िबललो—हॉँ, पहना अरे ऑख ं भर के दे खा तो हूई नहीं। तब से बैठी रो

रही है । न खाने उठी, न गंगा जी गयी।

अमत ृ —कुछ कहा भी। कया बहुत खफा है ?

िबललो—कहतीं कया? तभी से ऑस ं ू का तार नहीं टू टा।

अमत ृ राय समझ गये िक मेरी चाल बुरी पडी। अभी मुझे कुछ िदन

और धीरज रखना चािहए था। वह जरर िबगड गयीं। अब कया करँ ? कया

अपना-सा मुँह ले के लौट जाऊँ? या एक दफा िफर मुलाकात कर लूँ तब लौट जाऊँ कैसे लौटू ँ । लौटा जायगा? हाय अब न लौटा जायगा। पूणा य तू दे खने मे

बहुत सीधी और भोली है , परनतु तेरा हदय बहुत कठोर है । तूने मेरी बातो का

िवशास नहीं माना तू समझती है मै तुझसे कपट कर रहा हूँ। ईशर के िलए

अपने मन से यह शंका िनकाल डाल। मै धीरे -धीरे तेरे मोह मे कैसा जकड 76

गया हूँ िक अब तेरे िबना जीना किठन है । पयारी जब मैने तुझसे पहल

बातचीत की थी तो मुझे इसकी कोई आशा न थी िक तुमहारी मीठी बातो

और तुमहारी मनद मुसकान का जाद ू मुझ पर ऐसा चल जायगा मगर वह जाद ू चल गया। और अब िसवाय तुमहारे उसे और कौन अतार सकता है । नहीं, मै इस दरवाजे से कदािप नहीं िहलूँगा। तुम नाराज होगी। झललाओगी। मगर कभी न कभी मुझ पर तरस आ ही जायगा। बस अब यही करना

उिचत है । मगर दे खी पयारी, ऐसा न करना िक मुझसे बात करना छोड दो। नहीं तो मेरा कहीं िठकाना नहीं। कया तुम हमसे सचमुच नाराज हो। हाय कया तुम पहरो से इसिलए रो रही हो िक मेरी बातो ने तुमको दख ु िदया।

यह बाते सोचते-सोचते बाबू साहब की ऑख ं ो मे ऑस ं ू भर आये और

उनहोने गदगद सवर मे िबललो से कहा—महरी, हो सके तो जरा उनसे मेरी

मुलाकात करा दो। कह दो एक दम के िलए िमल जाये। मुझ पर इतनी कृ पा करो।

महरी ने जो उनकी ऑख ं े लाल दे खीं तो दौड हुई घर मे आयी पूणाय के

कमरे मे िकवाड खटखटाकर बोली---बहू, कया गजब करती हो, बाहर िनकलो, बेचारे खडे रो रहे है ।

पूणा य ने इरादा कर िलया था िक मै उनके सामने कदािप न जाऊँगी।

वह महरी से बातचीत करके आप ही चले जायँगे। मगर जब सुना िक रो रहे है तो पितजा टू ट गयी। बोली—तुमन जा के कया कह िदया? महरी—मैन तो कुछ भी नहीं कहा।

पूणा य से अब न रहा गया। चट िकवाड खोल िदये। और कॉप ँ ती हुई

आवाज से बोली-सच बतलाओ िबललो, कया बहुत रो रहे है ?

महरी-नारायण जाने, दोनो ऑख ं े लाल टे सू हो गयी है । बेचारे बैठे तक

नहीं। उनको रोते दे खकर मेरा भी िदल भर आया।

इतने मे बाबू अमत ृ राय ने पुकार कर कहा—िबललो, मै जाता हूँ। अपनी

सकारय से कह दो अपराध कमा करे ।

पूणाय ने आवाज सुनी। वह एक ऐसे आदमी की आवाज थी जो िनराशा

के समुद मे डू बता हो। पूणाय को ऐसा मालूम हुआ जैसे उसके हदय को िकसी

ने छे द िदया। ऑख ं ो से ऑस ं ू की झडी लग गयी। िबललो ने कहा—बहू, हाथ जोडती हूँ, चली चलो िजसमे उनकी भी खाितरी हो जाए। 77

यह कहकर उसने आप से उठती हुई पूणा य का हाथ पकड कर उठाया

और वह घूँघट िनकाल कर, ऑस ं ू पोछती हुई, मदान य े कमरे की तरफ चली। िबललो ने दे खा िक उसके हाथो मे कंगन नहीं है । चट सनदक ू ची उठा लायी

और पूणा य का हाथ पकड कर चाहती थी िक कंगन िपनहा दे । मगर पूणा य ने

हाथ झटक कर छुडा िलया और दम की दम मे बैठक के भीतर दरवाजे पर आके खडी रो रही थी। उसकी दोनो ऑख ं े लाल थी और ताजे ऑस ं ुओ की

रे खाऍ ं गालो पर बनी हुई थी। पूणा य ने घूँघट उठाकर पेम-रस से भरी हुई ऑख ं ो से उनकी ओर ताका। दोनो की ऑख ं े चार हुई। अमत ृ राय बेबस होकर

बढे । िससकती हुई पूणा य का हाथ पकड िलया और बडी दीनता से बोले — पूणाय, ईशर के िलए मुझ पर दया करो।

उनके मुँह से और कुछ न िनकला। करणा से गला बँध गया और वह

सर नीचा िकये हुए जवाब के इिनतजार मे खडा हो गये। बेचारी पूणा य का

धैय य उसके हाथ से छूट गया। उसने रोते-रोते अपना सर अमत ृ राय के कंधे

पर रख िदया। कुछ कहना चाहा मगर मुँह से आवाज न िनकली। अमत ृ राय ताड गये िक अब दे वी पसनन हो गयी। उनहोने ऑख ं ो के इशारे से िबललो से कंगन मँगवाया। पूणा य को धीरे स कुसी पर िबठा िदया। वह जरा भी न

िझझकी। उसके हाथो मे कंगन िपनहाये, पूणाय ने जरा भी हाथ न खींचा। तब

अमत ृ राय न साहसा करके उसके हाथो को चूम िलया और उनकी ऑख ं े पेम से मगन होकर जगमगाने लगीं। रोती हुई पूणा य ने मोहबबत-भरी िनगाहो से उनकी ओर दे खा और बोली—पयार अमत ृ राय तुम सचमुच जादग ू र हो।

78

दसवाँ अधयाय

िवव ाह ह ो ग या

यह ऑख ं ो दे खी बात है िक बहुत करके झुठी और बे-िसर पैर की बाते

आप ही आप फैल जाया करती है । तो भला िजस बात मे सचचाई नाममात

भी िमली हो उसको फैलते िकतनी दे र लगती है । चारो ओर यही चचाय थी िक अमत ृ राय उस िवधवा बाहणी के घर बहुत आया जाया करता है । सारे शहर

के लोग कसम खाने पर उदत थे िक इन दोनो मे कुछ सॉठ ँ -गॉठ ँ जरर है ।

कुछ िदनो से पंडाइन औरचौबाइन आिद ने भी पूणा य के बनाव-चुनाव पर नाक-भौ चढाना छोड िदया था। कयोिक उनके िवचार मे अब वह ऐसे बनधनो की भागी थी। जो लोग िवदान थे और िहनदस ु तान के दस ू रे दे शो के हाल

जानते थे उनको इस बात की बडी िचनता थी िक कहीं यह दोनो िनयोग न करे ले। हजारो आदमी इस घात मे थे िक अगर कभी रात को अमत ृ राय

पूणा य की ओर जाते पकडे जायँ तो िफर लौट कर घर न जाने पावे। अगर कोई अभी तक अमत ृ राय की नीयत की सफाई पर िवशास रखता था तो वह पेमा थी। वह बेचारी िवराहिगन मे जलते-जलते कॉट ँ ा हो गई थी, मगर अभी

तक उनकी मुहबबत उसके िदल मे वैसी ही बनी हुई थी। उसके िदल मे कोई बैठा हुआ कह रहा था िक तेरा िववाह उनसे अवशय होगौ। इसी आशा पर उसके जीवन का आधार था। वह उन लोगो मे थी जो एक ही बार िदल का सौदा चुकाते है ।

आज पूणा य से वचन लेकर बाबू साहब बँगले पर पहुँचने भी न पाये थे

िक यह खबर एक कान से दस ू रे कान फैलने लगी और शाम होते-होते सारे

शहर मे यही बात गूज ँ ने लगी। जो कोई सुनता उसे पहले तो िवशास न

आता। कया इतने मान-मयाद य ा के ईसाई हो गये है , बस उसकी शंका िमट जाती। वह उनको गािलयॉँ दे ता, कोसता। रात तो िकसी तरह कटी। सवेरा

होते ही मुंशी बदरीपसाद के मकान पर सारे नगर के पंिडत, िवदान धनाढय और पितिित लोग एकत हुए और इसका िवचार होने लगा िक यह शादी कैसे रोकी जाय।

पंिडत भग ृ ुदत—िवधवा िववाह विजत य है कोई हमसे शासथ य कर ले।

वेदपुराण मे कहीं ऐसा अिधकार कोई िदखा दे तो हम आज पंिडताई करना छोड दे ।

79

इस पर बहुत से आदमी िचललाये, हॉँ, हॉँ, जरर शासाथय हो।

शासथ य का नाम सुनते ही इधर-उधर से सैकडो पंिडत िवदाथी बगलो

मे पोिथयां दबाये, िसर घुटाये, अँगोछा कँधे पर रकखे, मुँह मे तमाकू भरे , इकटटे हो गये और झक-झक होने लगी िक जरर शासथ य हो। पहले यह शोक पूछा जाय। उसका यह उतर दे तो िफर यह पश िकया जावे। अगर उतर दे ने मे वह लोग सािहतय या वयाकरण मे जरा भी चूके तो जीत हमारे

हाथ हो जाय। सैकडो कठमुलले गँवार भी इसी मणडली मे िमलकर कोलाहल

मचा रहे थे। मुँशी बदरीपसाद ने जब इनको शासथय करने पर उतार दे खा तो बोले—िकस से करोगे शासाथय? मान लो वह शासाथय न करे तब?

सेठ धूनीमल—िबना शासाथय िकये िववाह कर लेगे (धोती समहाल कर)

थाने मे रपट कर दँग ू ा।

ठं कुर जोरावर िसंह—(मोछो पर ताव दे कर) कोई ठटठा है बयाह करना,

िसर काट डालूँगा। लोहू की नदी बह जायगी।

राव साहब—बारता की बारात काट डाली जायगी।

इतने मे सैकडो आदमी और आ डटे । और आग मे ईधन लगाने लगे। एक—जरर से जरर िसर गंजा कर िदया जाए।

दस ू रा—घर मे आग लगा दे गे। सब बारात जल-भुन जायगी। तीसरा—पहले उस याती का गला घोट दे गे।

इधर तो यह हरबोग मचा हुआ था, उधर दीवानखाने मे बहुत से वकील

और मुखतार रमझलला मचा रहे थे। इस िववाह को नयाय िवरद सािबत

करने के िलए बडा उदोग िकया जा रहा था। बडी तेजी से मोटी-मोटी पुसतको के वरक उलटे जा रहे थे। बरसो की पुरानी-धुरानी नजीरे पढी जा रही थी िक कहीं से कोई दाँव-पकड िनकल आवे। मगर कई घणटे तक सर खपाने पर कुछ न हो सका। आिखर यह सममित हुई िक पहले ठाकुर जोरावर िसंह अमत ृ राय का धमकावे। अगर इस पर भी वह न माने तो िजस

िदन बारात िनकले सडक पर मारपीट की जाय। इस पसताव के बाद न मानो

तो िवसजन य हुई। बाबू अमत ृ राय बयाह की तैयािरयो मे लगे हुए थे िक ठाकुर जोरावर िसंह का पत पहुँचा। उसमे िलखा था—

‘बाबू अमत ृ राय को ठाकुर जोरावर िसंह का सलाम-बंदगी बहुत-बहुत

तरह से पहुँचे। आगे हमने सुना है िक आप िकसी िवधवा बाहणी से िववाह 80

करने वाले है । हम आपसे कहे दे ते है िक भूल कर भी ऐसा न कीिजएगा। नहीं तो आप जाने और आपका काम।’

जोरावर िसंह एक धनाढय और पितिित आदमी होने के उपरानत उस

शहर के लठै तो औरबॉक ँ े आदिमयो का सरदार था और कई बेर बडे -बडो को नीचा िदखा चुका था। असकी धमकी ऐसी न थी िक अमत ृ राय पर उसका

कुछ असर न पडता। िचटठी को दे खते ही उनके चेहरे का रं ग उड गया। सोचना लगे िक ऐसी कौन-सी चाल चलूँ िक इसको अपना आदमी बना लूँ िक इतने मे दस ू री िचटठी पहुँची। यह गुमनाम थी और

सका आशा भी

पहली िचटठी से िमलता था। इसके बाद शाम होते-होते सैकडो गुमनाम िचिटटयॉँ आयीं। कोई की कहता था िक अगर िफर बयाह का नाम िलया तो घर मे आग लगा दे गे। कोई सर काटने की धमकी दे ता था। कोई पेट मे छुरी भोकने के िलए तैयार था। ओर कोई मूँछ के बात उखाडने के िलए

चुटिकयॉँ गम य कर रहा था। अमत ृ राय यह तो जानते िक शहरवाले िवरोध अवशय करे गे मगर उनको इस तरह की राड का गुमान भी न था। इन

धमिकयो ने जरा दे र के िलए उनहे भय मे डाल िदया। अपने से अिधक खटका उनको पूणा य के बारे मे था िक कहीं यही सब दि ु उसे न कोई हािन

पहुँचावे। उसी दम कपडे पिहन, पैरगाडी पर सवांर होकर चटपट मिजसटे ट की

सेवा मे उपिसथत हुए और उनसे पूरा-पूरा वत ृ ानत कहा। बाबू साहब का अंगेजो मे बहुत मान था। इसिलए नहीं िक वह खुशामदी थे या अफसरो की

पूजा िकया करते थे िकनतु इसिलए िक वह अपनी मयाद य ा रखना आप जानते थे। साहब ने उनका बडा आदर िकया। उनकी बाते बडे धयान से सुनी।

सामािजक सुधार की आवशकता को माना और पुिलस के सुपिरणटे णडे ट को िलखा िक आप अमत ृ राय की रका के वासते एक गारद रवाना कीिजए और

खबर लेते रिहए िक मारपीट, खूनखराब न हो जाय। सॉझ ँ होते—होते तीस

िसपािहयो का एक गारद बाबू साहब के मकान पर पहुँच गया, िजनमे से पॉच ँ बलवान आदमी पूणाय के मकान की िहफाजत करने के िलए भेज गये।

शहरवालो ने जब दे खा िक बाबू साहब ऐसा पबनध कर रहे है तो और

भी झललाये। मुंशी बदरीपसाद अपने सहायको को लेकर मिजसटे ट के पास पहुँचे और दहुाई मचाई िक अगर वह िववाह रोक न िदया गया तो शहर मे बडा उपदव होगा और बलवा हो जाने का डर है । मगर साहब समझ गये िक

यह लोग िमलजुल कर अमत ृ राय को हािन पहुँचाया चाहते है । मुंशी जी से 81

कहा िक सकारय िकसी आदमी की शादी-िववाह मे िवघन डालना िनयम के िवरद है । जब तक िक उस काम से िकसी दस ू रे मनुषय को कोई दख ु न हो।

यह टका-सा जवाब पाकर मुंशी जी बहुत लिजजत हुए। वहॉँ से जल-भुनकर मकान पर आये और अपने सहायको के साथ बैठकर फैसला िकया िक जयो

ही बारात िनकले, उसी दम पचास आदमी उस पर टू ट पडे । पुिलसवालो की भी खबर ले और अमत ृ राय की भी हडडी-पसली तोडकर धर दे ।

बाबू अमत ृ राय के िलए यह समय बहुत नाजु क था। मगर वह दे श का

िहतैषी तन-मन-धन से इस सुधार के काम मे लगा हुआ था। िववाह का िदन

आज से एक सपाह पीछे िनयत िकया गया। कयोिक जयादा िवलमब करना उिचत न था और यह सात िदन बाबू साहब ने ऐसी है रानी मे काटे िक िजसक वणन य नहीं िकया जासकात। पितिदन वह दो कांसटे िबलो के साथ िपसतौलो की जोडी लगयो दो बेर पूणा य के मकान पर आते। वह बेचारी मारे

डर के मरी जाती थी। वह अपने को बार-बार कोसती िक मैने कयो उनको आशा िदलाकर यह जोिखम मोल ली। अगर इन दि ु ो ने कहीं उनहे कोई हािन पहुँचाई तो वह मेरी ही नादानी का फल होगा। यदिप उसकी रका के िलए

कई िसपाही िनयत थे मगर रात-रात भर उसकी ऑख ं ो मे नींद न आती। पता भी खडकता तो चौककर उठ बैठती। जब बाबू साहब सबेरे आकर उसको ढारस दे ते तो जाकर उसके जान मे जान आती।

अमत ृ राय ने िचिटटयॉँ तो इधर-उधर भेज ही दी थीं। िववाह के तीन-

चार िदन पहले से मेहमान आने लगे। कोई मुमबई से आता था, कोई मदरास से, कोई पंजाब से और कोई बंगाल से । बनारस मे सामािजक सुधार के

िवरािधयो का बडा जोर था और सारे भारतवष य के िरफमरयो के जी मे लगी हुई थी िक चाहे जो हो, बनारस मे सुधार के चमतकार फैलाने का ऐसा अपूवय

समय हाथ से न जाने दे ना चािहए, वह इतनी दरू-दरू से इसिलए आते थे िक सब काशी की भूिम मे िरफाम य की पताका अवशय गाड दे । वह जानते थे िक

अगर इस शहर मे यह िववाह हो तो िफर इस सूबे के दस ू रे शहरो के िरफामरयो के िलए रासता खुल जायगा। अमत ृ ाराय मेहमानो की आवभगत मे

लगे हुए थे। और उनके उतसाही चेले साफ-सुथरे कपडे पहने सटे शन पर जाजाकर मेहमानो को आदरपूवक य लाते और उनहे सजे हुए कमरो मे ठहराते थे। िववाह के िदन तक यहॉँ कोई डे ढ सौ मेहमान जमा हो गये। अगर कोई

मनुषय सारे आयाव य त य की सभयता, सवतंतता, उदारता और दे शभिक को 82

एकितत दे खना चाहता था तो इस समय बाबू अमत ृ राय के मकान पर दे ख सकता था। बनारस के पुरानी लकीर पीटने वाले लोग इन तैयािरयो और ऐसे

पितिित मेहमानो को दे ख-दे ख दॉत ँ ो उँ गली दबाते। मुंशी बदरीपसाद और उनके सहायको ने कई बेर धूम-धाम से जनसे िकये हरबेर यही बात तय हुई िक चाहे जो मारपीट जरर की जाय। िववाह क पहले शाम को बाबू अमत ृ राय अपने सािथयो को लेकर पूणा य के मकान पर पहुँचे और वहॉँ उनको बराितयो

के आदर-सममान का पबंध करने के िलए ठहरा िदया। इसके बाद पूणा य के पास गये। इनको दे खते ही उसकी ऑख ं े मे ऑस ं ू भर आये।

अमत ृ —(गले से लगाकर) पयारी पूणाय, डरो मत। ईशर चाहे गा तो बैरी

हमारा बाल भी बॉक ं ा न करा सके। कल जो बरात यहॉँ आयेगी वैसी आज तक इस शहर मे िकसी के दरवाजे पर न आयी होगी।

पूणाय—मगर मै कया करँ । मुझे मो मालूम होता है िक कल जरर

मारपीट होगी। चारो ओ से यह खबर सुन-सुन मेरा जी आधा हो रहा है । इस वक भी मुंशी जी के यहॉँ लाग जमा है ।

अमत ृ —पयारी तुम इन बातो को जरा भी धयान मे न लाओं। मुंशी जी

के यहॉँ तो ऐसे जलसे महीनो से हो रहे है और सदा हुआ करे गे। इसका कया

डर। िदल को मजबूत रकखो। बस, यह रात और बीच है । कल पयारी पूणाय मेरे घर पर होगी। आह वह मेरे िलए कैसे आननद का समय होगा।

पूणा य यह सुनकर अपना डर भूल गयी। बाबू साहब को पयारी की

िनगाहो से दे खा और जब चलने लगे तो उनके गले से िलपट कर बोली— तुमको मेरी कसम, इन दि ु ो से बचे रहाना।

अमत ृ राय ने उसे छाती से लगा िलया और समझा-बुझाकर अपने

मकान को रवाना हुए।

पहर रात गये, पूणा य के मकान पर, कई पंिडत रे शमी बाना सजे, गले मे

फूलो का हार डाले आये िविधपूवक य लकमी की पूजा करने लगे। पूणा य सोलहो

िसंगार िकये बैठी हुई थी। चारो तरफ गैस की रोशनी से िदन के समान

पकाश हो रहा था। कांसटे िबल दरवाजे पर टहल रहे थे। दरवाजे का मैदान साफ िकया जा रहा था और शािमयाना खडा िकया जा रहा था। कुिसय य ॉँ

लगायी जा रही थीं, फश य िबछाया गया, गमले सजसये गये। सारी रात इनहीं तैयािरयो मे कटी और सबेरा होते ही बारात अमत ृ राय के घर से चली। 83

बारात कया थी सभयता और सवाधीनता की चलती-िफरती तसवीर थी।

न बाजे का धड-धड पड-पड, न िबगुलो की धो धो पो पो, न पालिकयो का झुमट य , न सजे हुए घोडो की िचललापो, न मसत हािथयो का रे लपेल, न सोटे

बललमवालो की कतारा, न फुलवाडी, न बगीचे, बिलक भले मानुषो की एक

मंडली थी जो धीरे -धीरे कदम बढाती चली जा रही थी। दोनो तरफ जंगी

पुिलस के आदमी विदय यॉँ डॉट ँ े सोटे िलये खडे थे। सडक के इधर-उधर झुंड के

झुंड आदमी लमबी-लमबी लािठयॉँ िलये एकत और थे बारात की ओर दे खदे ख दॉत ँ पीसते थे। मगर पुिलस का वह रोब था िक िकसी को चूँ करने का

भी साहस नहीं होता था। बाराितयो से पचास कदम की दरूी पर िरजवय पुिलस के सवार हिथयारो से लैस, घोडो पर रान पटरी जामये, भाले चमकाते

ओर घोडो को उछालते चले जाते थे। ितस पर भी सबको यह खटका लग हुआ था िक कहीं पुिलस के भय का यह ितिलसम टू ट न जाय। यदिप

बाराितयो के चेहरे से घबराहट लेशमात भी न पाई जाती थी तथािप िदल सबके धडक रहे थे। जरा भी सटपट होती तो सबके कान खडे हो जाते। एक बेर दि ु ो ने सचमुच धावा कर ही िदया। चारो ओर हलचल मचगी। मगर

उसी दम पुिलस ने भी डबल माच य िकया और दम की दम मे कई फसािदयो की मुशके कस लीं। िफर िकसी को उपदव मचाने का साहस न हुआ। बारे

िकसी तरह घंटे भर मे बारात पूणा य के मकान पर पहुँची। यहॉँ पहले से ही

बाराितयो के शुभागमन का सामान िकया गया था। ऑग ं न मे फशय लगा हुआ था। कुिसय य ॉँ धरी हुई थीं ओर बीचोबीच मे कई पूजय बहण हवनकुणड के िकनारे बैठकर आहुित दे रहे थे। हवन की सुगनध चारो ओर उड रही थी। उस पर मंतो के मीठे -मीठे मधयम और मनोहर सवर जब कान मे आते तो िदल आप ही उछलने लगता। जब सब बारती बैठ गये तब उनके माथे पर केसर और चनदन मला गया। उनके गलो मे हार डाले गये और बाबू

अमत ृ राय पर सब आदमीयो ने पुषपो की वषाय की। इसके पीछे घर मकान के

भीतर गया और वहॉँ िविधपूवक य िववाह हुआ। न गीत गाये गये, न गालीगलौज की नौबत आयी, न नेगचार का उधम मचा।

भीतर तो शादी हो रही थी, बाहर हजारो आदमी लािठयॉँ और सोटे

िलए गुल मचा रहे थे। पुिलसवाले उनको रोके हुए मकान के चौिगदय खडे थे।

इसी बची मे पुिलस का कपान भ आ पहुँचा। उसने आते ही हुकम िदया िक भीड हटा दी जाय। और उसी दम पुिलसवालो ने सोटो से मारमार कर इस 84

भीड को हटाना शुर िकया। जंगी पुिलस ने डराने के िलए बनदक ू ो की दो-चार बाढे हवा मे सर कर दी। अब कया था, चारो ओर भगदड मच गयी। लोग

एक पर एक िगरने लगे। मगर ठीक उसी समय ठाकुर जोरावर िसंह बाँकी पिगया बॉध ँ े, रजपूती बाना सजे, दोहरी िपसतौल लगाये िदखायी, िदया। उसकी मूँछे खडी थी। ऑख ं ो से अंगारे उड रहे थे। उसको दे खते ही वह लोब जो

िछितर-िबित हो रहे थे िफर इकटठा होने लगो। जैसे सरदार को दे खकर भागती हुई सेना दम पकड ले। दे खते ही दे खते हजार आदमी से अिधक

एकत हो गये। और तलवार के धनी ठाकुर ने एक बार कडक कर कहा—‘जै दग ु ा य जी की वहीं सारे िदलो मे मानो िबजली कौध गयी, जोश भडक उठा। तेविरयो पर बल पड गये और सब के सब नद की तरह उमडते हुए आगे को

बढे । जंगी पुिलसवाले भी संगीने चढाये, साफ बॉध ँ े, डटे खडे थे। चारो ओर भयानक सननाटा छाया हुआ था। धडका लगा हुआ था िक अब कोई दम मे लोहू की नदी बहा चाहती है । कपान ने जब इस बाढ को अपने ऊपर आते

दे खा तो अपने िसपािहयो को ललकारा और बडे जीवट से मैदान मे आकर सवारो को उभारने लगा िक यकायक िपसतौल की आवाज आयी और कपान की टोपी जमीन पर िगर पडी मगर घाव ओछा लगा। कपान ने दे ख िलया

था। िक यह िपसतौल जोरावर िसंह ने सर की है । उसने भी चट अपनी

बनदक ँ से आवाज हुई ओर ू सँभाली ओर िनशाने का लगाना था िक धॉय

जोरावर िसंह चारो खाने िचत जमीन पर आ रहा। उसके िगरते ही सबके

िहयाव छूट गये। वे भेडो की भॉिँत भगाने लगे। िजसकी िजधर सींग समाई चल िनकला। कोई आधा घणटे मे वहॉँ िचिडया का पूत भी न िदखायी िदया।

बाहर तो यह उपदव मचा था, भीतर दल ु हा-दल ु िहन मारे डर के सूखे

जाते थे। बाबू अमत ृ राय जी दम-दम की खबर मँगाते और थर-थर कॉप ँ ती

हुई पूणा य को ढारस दे ते। वह बेचारी रो रही थी िक मुझ अभािगनी के िलए माथा िपटौवल हो रही है िक इतने मे बनदक ू छूटी। या नारायण अब की िकसकी जान गई। अमत ृ राय घबराकर उठे िक जरा बाहर जाकर दे खे। मगर

पूणा य से हाथ न छुडा सके। इतने मेएक आदमी ने िफर आकर कहा—बाबू साहब ठाकूर ढे र हो गये। कपान ने गोली मार दी।

आधा घणटे मे मैदान साफ हो गया और अब यहॉँ से बरात की िबदाई

की ठहरी। पूणाय और िबललो एक सेजगाडी मे िबठाई गई और िजस सज-धज से बरात आयी थी असी तरह वापस हुई। अब की िकसी को सर उठाने का 85

साहस नहीं हुआ। इसमे सनदे ह नहीं िक इधर-उधर झुंड आदमी जमा थे और

इस मंडली को कोध की िनगाहो से दे ख रहे थे। कभी-कभी मनचला जवान एकाध पतथर भी चला दे ता था। कभी तािलयॉँ बजायी जाती थीं। मुँह िचढाया जाता था। मगर इन शरारतो से ऐसे िदल के पोढे आदिमयो की गमभीरता मे कया िवधन पड सकता था। कोई आधा घणटे मे बरात िठकाने पर पहुँची। दिुलहन उतारी गयी ओर बराितयां की जान मे जान अयी। अमत ृ राय की

खुशी का कया पूछना। वह दौड-दौड सबसे हाथ िमलाते िफरते

थे। बॉछ ँ े िखली जाती थीं। जयोही दिुलहन उस कमरे मे पहुँची जो सवयं आप

ही दिुलहन की तरह सजा हुआ था तो अमत ृ राय ने आकर कहा—पयारी, लोहम कुशल से पहुँच गये। ऐं, तुम तो रो रही हो...यह कहते हुए उनहोने रमाल से उसके ऑस ं ू पोछे और उसे गलेसे लगाया।

पेम रस की माती पूणाय ने अमत ृ राय का हाथ पकड िलया और बोली—

आप तो आज ऐसे पसननिचत है , मानो कोई राज िमल गया है ।

अमत ृ —(िलपटाकर) कोई झूठ है िजसे ऐसी रानी िमले उसे राज की

कया परवाह

आज का िदन आननद मे कटा। दस ू रे िदन बराितयो ने िबदा होने की

आजा मॉग ँ ी। मगर अमत ृ राय की यह सलाह हुई िक लाला धनुषधारीलाल

कम से कम एक बार सबको अपने वयाखयान से कृ तज करे यह सलाह सबो पसंद आयी। अमत ृ राय ने अपने बगीचे मे एक बडा शािमयान खडा करवाया और बडे उतसव से सभा हुई। वह धुऑध ं र वयाखयान हुए िक सामािजक

सुधार का गौरव सबके िदलो मे बैठे गया। िफर तो दो जलसे और भी हुए और दन ू े धूमधाम के साथ। सारा शहर टू टा पडता था। सैकडो आदिमयो का जनेऊ टू ट गया। इस उतसव के बाद दो िवधवा िववाह और हुए। दोनो दल ू हे

अमत ृ राय के उतसाही सहायको मे थे और दिुलहनो मे से एक पूणा य के साथ

गंगा नहानेवाली रामकली थी। चौथे िदन सब नेवतहरी िबदा हुए। पूणा य बहुत

कननी काटती िफरी, मगर बराितयो के आगह से मजबूर होकर उनसे मुलाकात करनी ही पडी। और लाला धनुषधारीलाल ने तो तीन िदन उसे बराबर सी-धमय की िशका दी।

शादी के चौथे िदन बाद पूणा य बैठी हुई थी िक एक औरत ने आकर

उसके एक बंद िलफाफा िदया। पढा तो पेमा का पेम-पत था। उसने उसे

मुबारकबादी दी थी और बाबू अमत ृ राय की वह तसवीर जो बरसो से उसके 86

गले का हार हो रही थी, पूणा य के िलए भेज दी थी। उस खत की आिखरी सतरे यह थीं---

‘सखी, तुम बडी भागयवती हो। ईशर सदा तुमहारा सोहाग कायम रखे।

तुमहारे पित की तसवीर तुमहारे पास भेजती हूँ। इसे मेरी यादगार समझाना। तुम जानती हो िक मै इसको जान से जयादा पयारी समझती रही। मगर अब मै इस योगय नही िक इसे अपने पास रख सकूँ। अब यह तुमको मुबारक हो। पयारी, मुझे भूलना मत । अपने पयारे पित को मेरी ओर से धनयवाद दे ना।

तुमहारी अभािगनी सखी— पेमा’

अफसोस आज के पनदवे िदन बेचारी पेमा बाबू दाननाथ के गले बॉध ँ ी

दी गयी। बडे धूमधम से बरात िनकली। हजारो रपया लुटा िदया गया। कई

िदन तक सारा शहर मुंशी बदरीपसाद के दरवाजे पर नाच दे खता रहा। लाखो का वार-नयारा हो गया। बयाह के तीसरे ही िदन मुंशी जी परलोक को िसधारे । ईशर उनको सवगव य ास दे ।

87

गयारहवाँ अधयाय

िव रोिधय ो का िव रोध

मेहमानो के िबदा हो जाने के बाउ यह आशा की

जाती थी िक

िवरोधी लोग अब िसर न उठायेगे। िवशेष इसिलए िक ठाकुर जोरावार िसंह और मुंशी बदरीपसाद के मर जाने से उनका बल बहुत कम हो गया था।

मगर यह आशा पूरी न हुई। एक सपाह भी न गुजरने पाया था िक और अभी सुिचत से बैठने भी न पाये थे िक िफर यही दॉत ँ िकलिकल शुर हो गयी।

अमत ृ राय कमरे मे बैठे हुए एक पत पढ रहे थे िक महराज चुपके से

आया और हाथ जोडकर खडा हो गया। अमत ृ राय ने सर उठाकर उसको दे खा तो मुसकराकर बोले—कैसे चले महाराज? महराज—हजूर, जान

अमत ृ —शौक से कहो।

बकसी होय तो कहूँ।

महराज—ऐसा न हो िक आप िरसहे हो जायँ। अमत ृ —बात तो कहो।

महराज—हजूर, डर लगती है ।

अमत ृ —कया तनखवाह बढवाना चाहते हो? महराज—नाहीं सरकार

अमत ृ —िफर कया चाहते हो?

महराज—हजूर,हमारा इसतीफा ले िलया जाय। अमत ृ —कया नौकरी छोडोगे?

महराज—हॉँ सरकार। अब हमसे काम नहीं होता।

अमत ृ —कयो, अभी तो मजबूत हो। जी चाहे तो कुछ िदन आराम कर

लो। मगर नौकरी कयो छोडो महराज—नाहीं सरकार, अब हम घर को जाइब।

अमत ृ —अगर तुमको यहॉँ कोई तकलीफ हा तो ठीक-ठीक कह दो।

अगर तनखवाह कहीं और इसके जयादा िमलने की आशा हो तो वैसा कहो। दे गा। हो?

महराज—हजूर, तनखयावह जो आप दे ते है कोई कया माई का लाल अमत ृ राय—िफर समझ मे नहीं आता िक कयो नौकरी छोडना चहाते

88

महराज—अब सरकार, मै आपसे कया कहूँ। यहॉँ तो यह बाते हो रही

थीं उधर चममन व रममन कहार और भगेलू व दक ु खी बारी आपस मे बाते कर रहे थे।

भगेल— ू चलो, चलो जलदी। नहीं तो कचहरी की बेला आ जैहै। चममन—आगे-आगे तुम चलो।

भगेल— ू हमसे आगूँ न चला जैहै। चममन—तब कौन आगूँ चलै? भगेल— ू हम केका बताई।

रममन—कोई न चलै आगूँ तो हम चिलत है ।

दक ु खी—तै आगे एक बात किहत है । नह कोई आगूँ चले न कोई पीछूँ। चममन---िफर कैसे चला जाय। भगेल— ू सब साथ-साथ चलै। चममन—तुमहार कपार

भगेल— ू साथ चले माँ कौन हरज है ?

मममन—तब सरकार से बितयाये कौन?

भगेल— ू दक ु खी का खूब िबितयाब आवत है ।

दक ु खी—अरे राम रे मै उनके ताई न जैहूँ। उनका दे ख के मोका मुतास

हो आवत है ।

भगेल-ू --अचछा, कोऊ न चलै तो हम आगूँ चिलत है

सब के सब चले। जब बरामदे मे पहुँचे तो भगेलू रक गया। मममन—ठाढे काहे हो गयो? चले चलौ।

भगेल-ू --अब हम न जाबै। हमारा तो छाती धडत है ।

अमत ृ राय ने जो बरामदे मे इनको सॉय ँ -साँय बाते करते सुना तो कमरे

से बाहर िनकल आये और हँ स कर पूछा—कैसे चले, भगेल?ू

भगेलू का िहयाव छूट गया। िसर नीचा करके बोला—हजूर, यह सब

कहार आपसे कुछ कहने आये है ।

अमत ृ राय—कया कहते है ? यह सब तो बोलते ही नहीं

भगेल— ू (कहारो से) तुमको जौन कुछ कहना होय सरकार से कहो।

कहार भगेलू के इस तरह िनकल जाने पर िदल मे बहुत झललये।

चममन ने जरा तीखे होकर कहा—तुम काहे नाहीं कहत हौ? तुमहार मुँह मे जीभ नहीं है ?

89

अमत ृ राय—हम समझ गये। शायद तुम लोग इनाम मॉग ँ ने आये हो।

कहारो से अब िसवाय हॉँ कहने के और कुछ न बन पडा। अमत ृ राय ने उसी दम पॉच ँ रपया भगेलू के हाथ पर रख िदया। जब यह सब िफर अपनी काठरी मे आये तो यो बाते करने लगे— चममन—भगेलुआ बडा बोदा है ।

रममन—अस रीस लागत रहा िक खाय भरे का दे ई। दक ु खी—वहॉँ जाय के ठकुरासोहाती करै लागा।

भगेल— ू हमासे तो उनके सामने कुछ कहै न गवा। दक ँ े आगे-आगे गया रहो। ु खी---तब काहे को यहॉस

इतने मे सुखई कहार लकडी टे कता खॉसता हुआ आ पहुँचा। और

इनको जमा दे खकर बोला—का भवा? सरकार का कहे न?

दक ु खी—सरकार के सामने जाय कै सब गूँगे हो गये। कोई के मुँह से

बात न िलकली।

भगेल— ू सुखई दादा तुम िनयाव करो, जब सरकार हँ सकर इनाम दे

लागे तब कैसे कहा जात िक हम नौकरी छोडन आये है ।

सुखई—हम तो तुमसे पहले कह दीन िक यहॉँ नौकरी छोडी के सब

जने पछतैहो। अस भलामानुष कहूँ न िमले।

भगेल— ू दादा, तुम बात लाख रपया की कहत हो।

चममन—एमॉँ कौन झूठ है । अस मनई काहॉँ िमले।

रममन आज दस बरस रहत भये मुदा आधी बात कबहूँ नाहीं कहे न। भगेल— ू रीस तो उनके दे ह मे छू नहीं गै। जब बात करत है हँ सकर।

मममन—भैया, हमसे कोऊ कहत िक तुम बीस कलदार लेव और हमारे

यहॉँ चल के काम करो तो हम सराकर का छोड के कहूँ न जाइत। मुदा िबरादरी की बात ठहरी। हुकका-पानी बनद होई गवा तो िफर केह के दारे जैब।

रममन—यही डर तो जान मारे डालते है ।

चममन—चौधरी कह गये है िकआज इनकेर काम न छोड दे हो तो टाट

बाहर कर दीन जैही।

सुखई—हम एक बेर कह दीन िक पछतौहो। जस मन मे आवे करो।

90

कहार भगेलू के इस तरह िनकल जाने पर िदल मे बहुत झललये।

चममन ने जरा तीखे होकर कहा—तुम काहे नाहीं कहत हौ? तुमहार मुँह मे जीभ नहीं है ?

अमत ृ राय—हम समझ गये। शायद तुम लोग इनाम मॉग ँ ने आये हो।

कहारो से अब िसवाय हॉँ कहने के और कुछ न बन पडा। अमत ृ राय ने

उसी दम पॉच ँ रपया भगेलू के हाथ पर रख िदया। जब यह सब िफर अपनी काठरी मे आये तो यो बाते करने लगे— चममन—भगेलुआ बडा बोदा है ।

रममन—अस रीस लागत रहा िक खाय भरे का दे ई। दक ु खी—वहॉँ जाय के ठकुरासोहाती करै लागा।

भगेल— ू हमासे तो उनके सामने कुछ कहै न गवा। दक ँ े आगे-आगे गया रहो। ु खी---तब काहे को यहॉस

इतने मे सुखई कहार लकडी टे कता खॉसता हुआ आ पहुँचा। और

इनको जमा दे खकर बोला—का भवा? सरकार का कहे न?

दक ु खी—सरकार के सामने जाय कै सब गूँगे हो गये। कोई के मुँह से

बात न िलकली।

भगेल— ू सुखई दादा तुम िनयाव करो, जब सरकार हँ सकर इनाम दे

लागे तब कैसे कहा जात िक हम नौकरी छोडन आये है ।

सुखई—हम तो तुमसे पहले कह दीन िक यहॉँ नौकरी छोडी के सब

जने पछतैहो। अस भलामानुष कहूँ न िमले।

भगेल— ू दादा, तुम बात लाख रपया की कहत हो।

चममन—एमॉँ कौन झूठ है । अस मनई काहॉँ िमले।

रममन आज दस बरस रहत भये मुदा आधी बात कबहूँ नाहीं कहे न। भगेल— ू रीस तो उनके दे ह मे छू नहीं गै। जब बात करत है हँ सकर।

मममन—भैया, हमसे कोऊ कहत िक तुम बीस कलदार लेव और हमारे

यहॉँ चल के काम करो तो हम सराकर का छोड के कहूँ न जाइत। मुदा िबरादरी की बात ठहरी। हुकका-पानी बनद होई गवा तो िफर केह के दारे जैब।

रममन—यही डर तो जान मारे डालते है ।

चममन—चौधरी कह गये है िकआज इनकेर काम न छोड दे हो तो टाट

बाहर कर दीन जैही।

91

सुखई—हम एक बेर कह दीन िक पछतौहो। जस मन मे आवे करो।

आठ बजे रात को जब बाबू अमत ृ राय सैर िरके आये तो कोई टमटम

थानेवाला न था। चारो ओर घूम-घूम कर पुकारा। मगर िकसी आहट न पायी। महाराज, कहार, साईस सभी चल िदये। यहाँ तक िक जो साईस उनके

साथ था वह भी न जाने कहॉँ लोप हो गया। समझ गये िक दि ु ो ने छल िकया। घोडे को आप ही खोलने लगे िक सुखई कहार आता िदखाई िदया।

उससे पूछा—यह सब के सब कहॉँ चले गये? सुखई—(खॉस ँ कर) सब छोड गये। अब काम न करै गे।

अमत ृ राय—तुमहे कुछ मालूम है इन सभो ने कयो छोड िदया?

सुखई—मालूम काहे नाहीं, उनके िबरादरीवाले कहते है इनके यहॉँ काम

मत करो। अमत ृ राय राय की समझ मे पूरी बात आ गयी िक िवरािधयो ने अपना कोई और बस न चलते दे खकर अब यह ढं ग रचा है । अनदर गये तो

कया दे खते है िक पूणा य बैठी खाना पका रही है । और िबललो इधर-उधर दौड रही है । नौकरो पर दॉत ँ पीसकर रह गये। पूणास य े बोले---आज तुमको बडा कि उठाना पडा।

पूणाय—(हँ सकर) इसे आप कि कहते है । यह तो मेरा सौभागय है । पती

के अधरो पर मनद मुसकान और ऑख ं ो मे पेम दे खकर बाबू साहब के चढे

हुए तेवर बदल गये। भडकता हुआ कोध ठं डा पड गया और जैसे नाग सूँबी बाजे का शबद सुनकर िथरकने लगता है और मतवाला हो जाता उसी भॉिँत

उस घडी अमत ृ राय का िचत भी िकलोले करने लगा। आव दे खा न ताव। कोट पतलून, जूते पहने हुए रसोई मे बेधडक घुस गये। पूणा य हॉँ,हॉँ करती

रही। मगर कौन सुनता है । और उसे गले से लगाकर बोले—मै तुमको यह न करने दग ू ॉ।ँ

पूणाय भी पित के नशे मे बसुध होकर बोली-मै न मानूग ँ ी।

अमत ृ ०—अगर हाथो मे छाले पडे तो मै जुरमाना ले लूँगा।

पूणाय—मै उन छालो को फूल समझूँगी, जुरामान कयो दे ने लगी। अमत ृ ०—और जो िसर मे धमक-अमक हुई तो तुम जानना। पूणाय-वाह ऐसे ससते न छूटोगे। चनदन रगडना पडे गा। अमत ृ —चनदन की रगडाई कया िमलेगी।

पूणाय—वाह (हं सकर) भरपेट भोजन करा दँग ू ी। अमत ृ —कुछ और न िमलेगा?

92

पूणाय—ठं डा पानी भी पी लेना।

अमत ृ —(िरिसयाकर) कुछ और िमलना चािहए। पूणाय—बस,अब कुछ न िमलेगा।

यहॉँ अभी यही बाते हो रही थीं िक बाबू पाणनाथ और बाबू जीवननाथ

आये। यह दोनो काशमीरी थे और कािलज मे िशका पाते थे। अमत ृ राय क पकपाितयो मे ऐसा उतसाही और कोई न था जैसे यह दोनो युवक थे। बाबू साहब का अब तक जो अथय िसद हुआ था, वह इनहीं परोपकािरयो के पिरशम का फल था। और वे दोनो केवल जबानी बकवास लगानेवाली नहीं थे। वरन

बाबू साहब की तरह वह दोनो भी सुधार का कुछ-कुछ कतवयय कर चुके थे। यही दोनो वीर थे िजनहोने सहिो रकावटो और आधाओं को हटाकर

िवधवाओं से बयाह िकया था। पूणा य की सखी रामकली न अपनी मरजी से

पाणनाथ के साथ िववाह करना सवीकार िकया था। और लकमी के मॉँ-बॉप ँ जो आगरे के बडे पितित रईस थे, जीवननाथ से उसका िववाह करने के िलए बनारस आये थे। ये दोनो अलग-अलग मकान मे रहते थे।

बाबू अमत ृ राय उनके आने की खबर पाते ही बाहर िनकल आये और

मुसकराकर पूछा—कयो, कया खबर है ?

जीवननाथ—यह आपके यहॉँ सननाटा कैसा? अमत ृ ०—कुछ न पूछो, भाई।

जीवन०—आिखर वे दरजन-भर नौकरी कहाँ समा गये?

अमत ृ ०—सब जहननुम चले गये। जािलमो ने उन पर िबरादरी का

दबाव डालकर यहॉँ से िनकलवा िदया।

पाणनाथ ने ठटठा लगाकर काह---लीिजए यहॉँ भी वह ढं ग है । अमत ृ राय—कया तुम लोगो के यहॉँ भी यही हाल है ।

पाणनाथ---जनाब, इससे भी बदतर। कहारी सब छोड भागो। िजस

कुएसे पानी आता था वहॉँ कई बदमाश लठ िलए बैठे है िक कोई पानी भरने आये तो उसकी गदय न झाडे ।

जीवननाथ—अजी, वह तो कहो कुशल होयी िक पहले से पुिलस का

पबनध कर िलया नहीं तो इस वक शायद असपताल मे होते। चलेगा?

अमत ृ राय—आिखर अब कया िकया जाए। नौकरो िबना कैसे काम

93

चाकर।

पाणनाथ—मेरी तो राय है िक आप ही ठाकुर बिनए और आप ही जीवनाथ—तुम तो मोटे -ताजे हो। कुएं से दस-बीस कलसे पानी खींच

ला सकते हो।

पाणनाथ—और कौन कहे िक आप बतन य -भॉड ँ े नहीं मॉज ँ सकते।

अमत ृ -अजी अब ऐसे कंगाल भी नहीं हो गये है । दो नौकर अभी है ,

जब तक इनसे थोडा-बहुत काम लेगे। आज इलाके पर िलख भेजता हूँ वहॉँ दो-चार नौकर आ जायँगे। चले।

जीवन—यह तो आपने अपना इिनतजाम िकया। हमारा काम कैसे अमत ृ .—बस आज ही यहॉँ उठ आओ, चटपट।

जीवन.—यह तो ठीक नहीं। और िफर यहॉँ इतनी जगह कहॉँ है ?

अमत ृ .—वह िदल से राजी है । कई बेर कह चुकी है िक अकेले जी

घबराता है । यह खबर सुनकर फूली न समायेगी। जीवन—अचछा अपने यहॉँ तो टोह लूँ।

पाण—आप भी आदमी है या घनचककर। यहॉँ टोह लूँ वहॉँ टोह लूँ।

भलमानसी चाहो तो बगघी जोतकर ले चलो। दोनो पािणयो को यहॉँ बैठा दो। नहीं तो जाव टोह िलया करो।

लाकर

अमत ृ —और कया, ठीक तो कहते है । रात जयादा जायगी तो िफर कुछ

बनाये न बनेगी।

जीवन—अचछा जैसी आपकी मरजी।

दोनो युवक असतबल मे गये। घोडा खोला और गाडी जोतकर ले गये।

इधर अमत ृ राय ने आकर पूणा य से यह समाचार कहा। वह सुनते ही पसनन

हो गई और इन मेहमानो के िलए खाना बनाने लगी। बाबू साहब ने सुखई

की मदद से दो कमरे साफ कराये। उनमे मेज, कुिसय य ाँ और दस ू री जररत की चीजे रखवा दीं। कोई नौ बजे होगे िक सवािरयॉँ आ पहुँचीं। पूणा य उनसे बडे

पयार से गले िमली और थोडी ही दे र मे तीनो सिखयॉँ बुलबुल की तरह

चहकने लगीं। रामकली पहले जरा झेपी। मगर पूणा य की दो-चार बातो न उसका िहयाव भी खोल िदया।

थोडी दे र मे भोजन तैयार हा गया। ओर तीनो आदमी रसोई पर गये।

इधर चार-पॉच ँ बरस से अमत ृ राय दाल-भात खाना भूल गये थे। कशमीरी 94

बावरची तरह तरह क सालना, अनेक पकार के मांस िखलाया करता था और

यदिप जलदी मे पूणाय िसवाय सादे खानो के और कुछ न बना सकी थी, मगर

सबने इसकी बडी पशंसा की। जीवननाथ और पाणनाथ दोनो काशमीरी ही थे, मगर वह भी कहते थेिक रोटी-दाल ऐसी सवािदि हमने कभी नहीं खाई।

रात तो इस तरह कटी। दस ू र िदन पूणा य ने िबललो से कहा िक जरा

बाजार से सौदा लाओ तो आज मेहानो को अचछी-अचछी चीजे िखलाऊँ। िबललो ने आकर सुखई से हुकम लगाया। और सुखई एक टोकरा लेकर बाजार चले। वह आज कोई तीस बरस से एक ही बिनये से सौदा करते थे।

बिनया एक ही चालाक था। बुढऊ को खूब दसतूरी दे ता मगर सौदा रपये मे बारह आने से कभी अिधक न दे ता। इसी तरह इस घूरे साहु ने सब रईसो

को फॉस ँ ा रकखा था। सुखई ने उसकी दक ू ान पर पहुँचते है टाकरा पटक िदया

और ितपाई पर बैठकर बोला—लाव घूरे, कुछ सौदा सुलुफ तो दो मगर दे री न लगे।

और हर बेर तो घूरे हँ सकर सुखई को तमाखू िपलाता और तुरनत

उसके हुकम की तामील करने लगता। मगर आज उसने उसको और बडी रखाई से दे खकर कहा—आगे जाव। हमारे यहॉँ सौदा नहीं है ।

सुखई—जरा आदमी दे ख के बात करो। हमे पहचानते नहीं कया? घूरे—आगे जाव। बहुत टे -टे न करो।

सुखई-कुछ मॉग ँ -वॉग ँ तो नहीं खा गये कया? अरे हम सुखई है । घूरे—अजी तुम लाट हो तो कया? चलो अपना रासता दे खो।

सुखई—कया तुम जानते हो हमे दस ू री दक ु ान पर दसतूरी न िमलेगी?

अभी तुमहरे सामने दो आने रपया लेकर िदखा दे ता हूँ।

घूरे—तूम सीधे से जाओगे िक नहीं? दक ु ान से हटकर बात करो। बेचारा

सुखई साहु की सइ रखाई पर आशय य करता हुआ दस ू री दक ु ान पर गया। वहॉँ भी यही जवाब िमला। तीसरी दक ू ान पर पहुँचा। यहॉँ भी वही धुतकार

िमली। िफर तो उसने सारा-बाजार छान डाला। मगर कहीं सौदा न िमला।

िकसी ने उसे दक ु ान पर खडा तक होने न िदया। आिखर झक मारकर-सा मुँह िलये लौट आया और सब समाचार कह। मगर नमक-मसाले िबना कैसे काम चले। िबललो ने वहा, अब ् की मै जाती हूँ। दे खूँ कैसे कोई सौदा नहीं

दे ता। मगर वह हाते जयो ही बाहर िनकली िक एक आदमी उसे इधर-उधर टहलता िदखायी िदया। िबललो को दे खते ही वह उसके साथ हो िलया और 95

िजस िजस दक ु ान पर िबललो गई वह भी परछाई की तरह साथ लगा रहा।

आिखर िबललो भी बहुत दौड-धूप कर हाथ झुलाते लौट आयी। बेचरी पूणाय ने हार कर सादे पकवान बनाकर धर िदये।

बाबू अमत ृ राय ने जब दे खा िक दोही लोग इसी तरह पीछे पडे तो उसी

दम लाला धनुषधारीलाल को तार िदया िक आप हमारे याहॉँ पॉच ँ होिशयार

िखदमतगार भेज दीिजए। लाला साहब पहले ही समझे हुए थे िक बनारस मे दि ु लोग िजतना ऊधम मचाये थोडा है । तार पाते ही

उनहोने अपने अपने

होटल के पॉच ँ नौकरो को बनारस रवाना िकया। िजनमे एक काशमीरी महराज

भी थी। दस ू रे िदन यह सब आ पहुँचे। सब के सब पंजाबी थे, जो न तो िबरादरी के गुलाम थे और न िजनको टाट बाहर िकये जाने का खटका था। िवरोिधयो ने उसके भी कान भरने चाहे । मगर कुछ दॉव ँ चला। सौदा भी लखनऊ से इतना मॉग ँ ा िलया जो कई महीनो को काफी था।

जब लोगो ने दे खा इन शरारतो से अमत ृ राय को कुछ हािन पहुँची तो

और ही चाल चले। उनके मुविककलो को बहकाना शुर िकया िक वह तो ईसाई हो गये है । साहबो के संग

बैठकर खाते है । उनको िकसी जानवर के

मांस से िवचार नहीं है । एक िवधवा बहाणी से िववाह कर िलया है । उनका

मुँह दे खना, उनसे बातचीत करना भी शास के िवरद है । मुविककलो को बहकाना शुर िक याह िक वह तो ईसाई हो गये है । िवधवा बहणी से िववाह

कर िलया है । उनका मुँह दे खना, उनसे बातचीत करना भी शास के िवरद है । मुविककलो मे बहुधा करके दे हातो के राजपूत ठाकुर और भुंइहार थे जो यहाता अिवदा की कालकोठरी मे पडे हुए थे या नये जमाने क चमतकार ने

उनहे चौिधया िदया था। उनहोने जब यह सब ऊटपटाँग बाते सुनी तब वे

बहुत िबगडे , बहुत झललाये और उसी दम कसम खाई की अब चाहे जो हो इस अधमी को कभी मुकदमा न दे गे। राम राम इसको वेदशास का तिनक िवचार नहीं भया िक चट एक रॉड ँ को घर मे बैठाल िलया। छी छी अपना

लोक-परलोक दोनो िबगाड िदया। ऐसा ही था तो िहनद ू के घर मे काहे को जनम िलया था। िकसी चोर-चंडाल के घर जनमे होते। बाप-दादे का नाम िमटा िदया। ऐसी ही बाते कोई दो सपाह तक उने मुविककलो मे फैली। िजसका पिरणाम यह हुआ िक बाबू अमत ृ राय का रं ग फीका पडने लगा। जहॉँ मारे मुकदमो के सॉस ँ लेने का अवकाश न िमलता था। वहॉँ 96

अब िदन-भर

हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की नौबत आ गयी। यहॉँ तक िक तीसरा सपाह कोरा बीत गया और उनको एक भी अचछा मुकदमा न िमला।

जज साहब एक बंगाली बाबू थे। अमत ृ राय के पिरशम और तीवता,

उतसाह और चपलता ने जज साहब की ऑख ं ो मे उनहोने बडी पशंसा दे

रकखी थी। वह अमत ृ राय की बढती हुई वकालत को दे ख-दे ख समझ गये थे

िक थोडी ही िदनो मे यह सब वकीलो का सभापित हा जाएगा। मगर जब तीन हफते से उनकी सूरत न िदखायी दी तब उनको आशयय हुआ। सिरशतेदार

से पूछा िक आजकल बाबू अमत ृ राय कहॉँ है । सिरशतेदार साहब जाित के मुसलमान और बडे सचचे, साफ आदमी थे। उनहोने सारा बयोरा जो सुना था कह सुनाया। जज साहब सुनते ही समझ गये िक बेचारे अमत ृ राय सामािजक

कामो मे अगणय बनने का फल भोग रहे है । दस ू रे िदन उनहोने खुद अमत ृ राय को इजलास पर बुलवाया और दे हाती जमींदारी के सामने उनसे

बहुत दे र तक इधर-उधर की बाते की। अमत ृ राय भी हँ स-हँ स उनकी बातो का

जवाब िदया िकये। इस बीच मे कई वकीलो और बैिरसटर जज साहब को िदखाने िक िलए कागज पत - लाये मगर साहब ने िकसी के ओर धयान नहीं िदया। जब वह चले तो

साहब ने कुसी उठकर हाथ िमलाया और जरा जोर

से बोलो – बहुत अचछा, बाबू साहब जैसा आप वैसा ही होगा।

बोलता है , इस मुकदमे मे

आज जब कचहरी बरखासत हुई तो उन जमीदारो मे िजनके मुकदमे

आज पेश थे, यो गलेचौर

होने लगी।

ठाकुर साहब- ( पगडी.बॉध ं ,े मूछे खडी.िकये, मोटासा लद हाथ मे िलये) आज जज साहब अमत ृ राय से खुब- खुब बितयात रहे ।

िमश जी- (िसर घुटाये,टीका लगाये, मुह मे तमबाकु दाबाये और कनघे

पर अगोछा रकखे)

खूब ब बितयावत रहा मानो कोउ अपने िमत से बितयावै। ठाकुर- अमत ृ राय

कस हँ स- हँ स मुडी िहलावत रहा।

िमश जी- बडे . आदिमयन का सबजगह आदर

होत है ।

ठाकुर- जब लो दोनो बितयात रहे तब तलुक कउ वकील आये बाकी

साहे ब कोउ की ओर तिनक नाहीं तािकन।

97

िमश जी- हम कहे दे इत है तुमार मुकदमा उनहीं के

राय से चले।

सुनत रहयो िक नाहीं जब अमत ृ राय चले लागे तो जज साहब इस मुकदमे मे वैसा ही होगा

कहे न िक

ठाकुर- सुना काहे नहीं, बाकी िफर काव करी। िमश जी- इतना

नाहीं ना।

तो हम किहत है

िक अस विकल िपरथी भर मे

ठाकुर- कसबहस करत है मानो िजहवा पर सरसवती बैठी होय। उनकर

बराबरी

करै या आज कोई नाहीं है ।

िमश जी- मुदा इसाई

होइ गया। रॉडं.से बयाह िकहे िस।

ठाकुर- एतनै तो बीच परा है । अगर उनका वकील िकहे होईत तो

बाजी बद के

जीत जाईत।

इसी तरह दोनो मे बाते हुई और िदया मे बती पडते - पडते दोनो

अमत ृ राय के पास गये और उनसे मुकदमे साहब ने

पहले

की कुल रयदाद बयान िक। बाबू

ही समझ िलया था िक इस मुकदमे मे

कुछ जान नहीं

है । ितस पर उनहोने मूकदमा ले िलया और दस ु रे िदन एसी योगयता से बहस की

जीत

िक दस ू री ओर के विकल- मुखितयार खडे .मुह ताकते रह गये। का सेहरा भी उनहीं

आििर

के िसर रहा। जज साहब उनकी बकतय ृ ा पर एसे

पसनन हुए िक उनहोने हँ सकर घनयबाद िदया और हाथ

िमलया। बस अब

कया था । एक तो अमत ृ राय यो ही पिसद थे, उस पर जज साहब का यह वताव और भी सोने पर सुहागा हो गया । वह बँगले पर पहुँच कर चैन से

बैठने भी न पाये थे, िक मुविककलो के दल के दल आने लगे और दस बजे रात तक यही ताता लगा रहा। दस ू रे िदन से उनकी वकालत पहले से भी अिधक चमक उठी ।

दोिहयो जब दे खा िक हमारी चाल भी उलटी पडी. तो और भी दॉत

पीसने लगे। अब मुंशी बदरीपसाद तो थे िह नहीं िक उनहे सीधी चाले

बताते। और न ठाकुर थे िक कुछ बाहुबल का चमतकार िदखाते । बाबू

कमलापसाद अपने िपता के सामने ही से इन बातो से अलग हो गये थे। इसिलये दोिहयो को अपना और कुछ बस न दे ख कर पंिडत भगुदत का दार खटखटाया उनसे कर जोड

कर कहा िक महाराज! कृ पा-िसनधु! अब भारत

वष य मे महा उतपात और घोर पाप हो रहा है । अब आप ही चाहो तो उसका उदार हो सकता है । िसवाय आप के इस नौका 98

को पार लगाने वाला इस

संसार मे कोई नहीं है । महाराज ! अगर इस समय पूरा

बल न लगाया

तो

िफर इस नगर के वासी कहीं मुह िदखाने के योगय नहीं रहे गे। कृ पा के परनाले और धम य के पोखरा ने जब अपने जजमानो को ऐसी दीनता से सतुित करते दे खा तो दॉत िनकालकर बोले आप लोग जौन है तैन घबराये मत। आप दे खा करे िक भग ृ ुदत कया करते है ।

सेठ धूनीमल- महाराज! कुछ ऐसा यतन कीिजये िक इस दि ु का

सतयानाश ् हो जाय ! कोई नाम लेवा न बचे।

कई आदमी- हॉ महाराज! इस घडी तो यही चािहये।

भग ृ ुदत- यही चािहये तो यही लेना। सवथ य ा नाश न कर द ू तो बाहमण

नहीं। आज के सातवे िदन उसका नाश हो

जायेगा।

सेठ जी- दवय जो लगे बेखटके कोठी से मॅगा लेना । भग ृ ुदत- इसके कहने की कोइ आवशयकता नहीं।

बाहमण का पितिदन भोजन होगा।

केवल पॉच सौ

बाबू दीनानाथ-तो किहये तो कोई हलवाई लगा िदया जाए। राघो

हलवाई पेडे और लडू बहुत अचछे बनाता है ।

भग ृ ुदत- जो पूजा मै कराउगा उसमे पेडा खाना विजत य है । अिधक

इमरती का सेवन हो उतना ही कायय िसद हो जाता है । इस पर पंिडत जी के एक चेले ने

कहा- गर जी! आज

तो आप ने

नयाय का पाठ दे ते समय कहा था िक पेडे के साथ दही िमला िदया जाए तो उसमे कोइ दोष नहीं रहता।

भग ृ ुदत- (हॅ सकर) हॉ- हॉ अब समरण हुआ। मनु जी ने इस

इस बात का पमाण िदया है ।

शलोक मे

दीनानाथ-(मुसकराकर) महाराज! चेला तो बडा ितब है । सेठ जी- यह अपने गरजी से बाजी ले भग ृ ुदत- अब िक इसने एक यज मे

जायेगा।

दो सेर पूिरयॉ खायी। उस िदन से

मैने इसका नाम अंितम परीका मे िलख िदया।

चेला- मै अपने मन से थोडा ही उठा । अगर जजमान हाथ जोडकर

उठा न दे ते तो अभी

सेर भर और खा के उठता।

दीनानाथ-कयो न हो पटे ! जैसे गुर वैसे चेला!

99

सेठ जी- महाराज, अब हमको आजा दीिजए। आज हलवाई आ जाएगा।

मुनीम जी भी उसके साथ लगे रहे गे। जो सौ दो सौ का काम लगे मुनीम जी से फरमा दे ना। मगर बात तब है िक आप भी इस िबषय मे जान लडा दे । पंिडत जी ने िसर का कद ू िहलाकर कहा- इसमे

आप कोई खटका न

समिझये। एक सपाह मे अगर दि ृ ुदत नहीं। अब ु का न नाश हो जाए तो भग आपको पूजन की िबिध भी बता ही द।ू सुिनए तांितक िबदा मे एक मंत एसा भी है िजसके जगाने से बैरी की आयु कीण होती है । अगर दस आदमी

पितिदवस उसका पाठ करे तो आयु मे दोपहर की हािन होगी। अगर सौ आदमी पाठ करे तो

दस िदन की हािन होगी।

यिद पाच सौ पाठ िनतय हो तो हर िदन पाच वष आयु घटती है । सेठ जी- महाराज, आप ने

मसत हो गया , मसत हो गया ,

इस घडी एसी बात

कही िक हमारा चोला

दीनानाथ- कृ पािसनघु, आप घनय हो ! आप घनय हो ! बहुत से आदमी- एक बार बोलो- पंिडत भग ृ ुदत जय ! बहुत से आदमी- एक बार बोलो- दि ु ो की छै ! छै ! !

इस तरह कोलाहल मचाते हुए लोग अपने- अपने घरो को लौटे । उसी

िदन राघो हलवाई पंिडत जी पाच सौ भुकखड

के मकान पर जा डटा। पूजा-पाठ होने लगे ।

एकत हो गये और दोनो जून माल उडाने लगे। धीरे - धीरे

पाच सौ से एक हजार नमबर पहुचा पूजा-पाठ कौन करता है । सबेरे से

भोजन का पबनध करते – करते दोपहर हो जाता था। और दोपहर से भंगबूटी छानते रात हो जाती थी। हॉ पंिडत भग ृ ुदत दास का नाम पुरे शहर मे उजागर हो रहा था। चारो ओर उनकी बडाई गाई जा रही थ। सात िदन यही अधाधुंध मचा रहा। यह सब कुछ हुआ । मगर बाबू बाँका न हो सका।

कही चमार

के सरापे डागर

अंधे और गँठ के पुरे न फँसे तो भग ृ ुदत

अमत ृ राय

िमलते है । एसे

का बाल ऑख ं ् के

जैसे गुगो को चखौितया कौन

कराये। सेठ जी के आदमी ितल- ितल पर अमत ृ राय के मकान पर दौडते थे िक दे खे कुछ जंत –मत का फल हुआ

िक नहीं। मगर सात िदन के बीतने

पर कुछ फल हुआ तो यही िक अमत ृ राय की वकालत सदा से बढकर चमकी हुई थी।

100

बारहवाँ अधयाय

एक सी क े दो पुरष नहीं ह ो सक ते

पेमा का बयाह हुए दो महीने से अिधक बीत चुके है मगर अभी तक

उसकी अवसथा वही है जो कुँवारापन मे थी। वह हरदम उदास और मिलन

रहती है । उसका मुख पीला पड गया। ऑख ं े बैठे हुई, सर के बाल िबखरे , उसके िदल मे अभी तक बाबू अमत ृ राय की मुहबबत बनी हुई है । उनकी मूितय हरदम उसकी ऑख ं ो के सामने नाचा करती है । वह बहुत चाहती है िक

उनकी सूरत हदय से िनकाल दे मगर उसका कुछ बस नहीं चलता। यदिप

बाबू दाननाथ उससे सचचा पेम रखते है और बडे सुनदर हँ समुख, िमलनसार

मनुषय है । मगर पेमा का िदल उनसे नहीं िमलता। वह उनसे पेम-भाव िदखाने मे कोई बात उठा नहीं रखती। जब वह मौजूद होते है तो वह हँ सती भी है । बातचीत भी करती है । पेम भी जताती है । मगर जब वह चले जाते है

तब उसके मुख पर िफर उदासी छा जाती है । उसकी सूरत िफर िवयोिगन

की-सी हो जाती है । अपने मैके मे उसे रोने की कोई रोक-टोक न थी। जब चाहती और जब तक चाहती, रोया करती थी। मगर यहॉँ रा भी नहीं सकती। या रोती भी तो िछपकर। उसकी बूढी सास उसे पान की तरह फेरा करती है । केवल इसिलए नहीं िक वह उसका पास और दबाव मानती है बिलक इसिलए

िक वह अपने साथ बहुत-सा दहे ज लायी है । उसने सारी गह ृ सथी पतोहू के ऊपर छोड रकखी है और हरदम ईशर से िवनय िकया करती है िक पोता खेलाने के िदन जलद आये।

बेचारी पेमा की अवसथा बहुत ही शोचनीय और करणा के योगय है ।

वह हँ सती है तो उसकी हँ सी मे रोना िमला होता है । वह बातचीत करती है

तो ऐसा जान पडता है िक अपने दख ु की कहानी कह रही है । बनाव-िसंगार

से उसकी तिनक भी रिच नहीं है । अगर कभी सास के कहने-सुनने से कुछ सजावट करती भी है तो उस पर नहीं खुलता। ऐसा मालूम होता है िक इसकी कोमल गात मे जो मोिहन थी वह रठ कर कहीं और चली गयी। वह

बहुधा अपने ही कमरे मे बैठी रहती है । हॉँ, कभी-कभी गाकर िदल बहलाती है । मगर उसका गाना इसिलए नहीं होता िक उससे िचत को आननद पाप हो। बिलक वह मधुर सवरो मे िवलाप और िवषाद के राग गाया करती है ।

101

बाबू दाननाथ इतना तो शादी करने के पहले ही जानते थे िक पेमा

अमत ृ राय पर जान दे ती है । मगर उनहोने समझा था िक उसकी पीित

साधारण होगी। जब मै उसको बयाह कर लाऊँगा, उससे सनहे , बढाऊँगा, उस पर अपने के िनछावर करँ गा तो उसके िदल से िपछली बाते िमट जायँगी

और िफर हमारी बडे आननद से कटे गी। इसिलए उनहोने एक महीने के

लगभग पेमा के उदास और मिलन रहने की कुछ परवाह न की। मगर

उनको कया मालूम था िक सनहे का वह पौधा जो पेम-रस से सींच-सींच कर परवान चढाया गया है महीने-दो महीने मे कदािप नहीं मुरझा सकता। उनहोने दस ू रे महीने भर भी इस बात पर धयान न िदया। मगर जब अब भी पेमा के

मुख से उदासी की घटा फटते न िदखायी दी तब उनको दख ु होने लगा। पेम

और ईषयाय का चोली-दामन का साथ है । दाननाथ सचचा पेम दे खते थे। मगर सचचे पेम के बदले मे सचचा पेम चाहते भी थे। एक िदन वह मालूम से

सबेर मकान पर आये और पेमा के कमरे मे गये तो दे खा िक वह सर झुकाये हुए बैठी है । इनको दे खते ही उसने सर उठाया और चोट ऑच ं ल से

ऑस ं ू पोछ उठ खडी हुई और बोली—मुझे आज न मालूम कयो लाला जी की याद आ गयी थी। मै बडी से रो रही हूँ।

दाननाथ ने उसको दे खते ही समझ िलया था िक अमत ृ राय के िवयोग

मे ऑस ं ू बाहये जा रहे है । इस पर पेमा ने जो यो हवा बतलायी तो उनके बदन मे आग लग गयी। तीखी िचतवनो से दे खकर बोले—तुमहारी ऑख ं े है

और तुमहारे ऑस ं ू, िजतना रोया जाय रो लो। मगर मेरी ऑख ं ो मे धूल मत झोको।

पेमा इस कठोर वचन को सुनकर चौक पडी और िबना कुछ उतर िदये

पित की ओर डबडबाई हुई ऑख ं ो से ताकने लगी। दाननाथ ने िफर कहा—

कया ताकती हो, पेमा? मै ऐसा मूखय नहीं हूँ, जैसा तुम समझती हो। मैने

भी आदमी दे खे है और मै भी आदमी पहचानता हूँ। मै तुमहारी एक-एक बात की गौर से दे खता हूँ मगर िजतना ही दे खता हूँ उतना ही िचत को दख ु होता है । कयोिक तुमहारा बताव य मेरे साथ फीका है । यदिप तुमको यह सुनना

अचछा न मालूम होगा मगर हार कर कहना पडता है िक तुमको मुझसे लेशमात भी पेम नहीं है । मैने अब तक इस िवषय मे जबान खोलने का साहस नहीं िकया था और ईशर जानता है िक तुमसे िकस कदर मुहबबत करता हूँ।

मगर मुहबबत सब कुछ सह सकती है , रखाई नहीं सह सकती और वह भी 102

कैसी रखाई जो िकसी दस ू रे पुरष के िवयोग मे उतपनन हुई हो। ऐसा कौन बेहाय, िनलज य ज आदमी होगा जो यह दे खे िक उसकी पती िकसी दस ू रे के

िलए िवयोिगन बनी हुई है और उसका लहू उबलने न लगे और उसके हदय

मे कोध िक जवाला धधक न उठे । कया तुम नहीं जानती हो िक धमश य ास के अनुसार सी अपने पित के िसवाय िकसी दस ु रे मनुषय की ओर कुदिि से

दे खने से भी पाप की भीगी हो जाती है और उसका पितवत भंग हो जाता है ।

पेमा तुम एक बहुत ऊँचे घराने की बेटी हो और िजस घराने की तुम

बहू हो वह भी इस शहर मे िकसी से हे ठा नहीं। कया तुमहारे िलए यह शमय

की बात नहीं है िक तुम एक बाजारो की घूमनेवाली रॉड ँ बाहणीं के तुलय भी न समझी जाओ और वह कौन है िजसने तुमहारा ऐसा िनरादर िकया? वही अमत ृ राय, िजसके िलए तुम ओठो पहर मोती िपरोया करती हो। अगर उस

दि ु के हदय मे तुमहारा कुछ भी पेम होता तो वह तुमहारे िपता के बार-बार कहने पर भी तुमको इस तरह धता न बताता। कैसे खेद की बात है । इनहीं

ऑख ं ो ने उसे तुमहारी तसवीर को पैरो से रौदते हुए दे खा है । कया तुमको मेरी बातो का िवशास नहीं आता? कया अमत ृ राय के कतवयय से नहीं िविदत होता

है की उनको तुमहारी रती-भर भी परवाह नहीं है कया उनहोने डं के की चोट पर नहीं सािबत कर िदया िक वह तुमको तुचछा समझते है ? माना िक कोई िदन ऐसा था िक वह िववाह करने की अिभलाषा रखते थे। पर अब तो वह बात नहीं रही। अब वह अमत ृ राय है िजसकी बदचलनी की सारे शहर मे धूम

मची हुई। मगर शोक और अित शोक की बात है िक तुम उसके िलए ऑस ं ू बहा-बहाकर अपने मेरे खानदान के माथे कािलख का टीका लगाती हो।

दाननाथ मारे कोध के काँप रहे थे। चेहरा तमतमाया हुआ था। ऑख ं ो

से िचनगारी िनकल रही थी। बेचारी पेमा िसर नीचा िकये हुए खडी रो रही थी। पित की एक-एक बात उसके कलेजे के पार हुई जाती थी। आिखर न

रहा गया। दाननाथ के पैरो पर िगर पडी और उनहे गमय-गम य ऑस ं ू की बूँदो से िभगो िदया। दाननाथ ने पैर खसका िलया। पेमा को चारपाई पर बैठा

िदया ओर बोले—पेमा, रोओ मत। तुमहारे रोने से मेरे िदल पर चोट लगती

है । मै तुमको रलाना नहीं चाहता। परनतु उन बातो को कहे िबना रह भी नहीं सकता। अगर यह िदल मे रह गई तो नतीजा बुरा पैदा करे गी। कान खोलकर सुनो। मै तुमको पाण से अिधक पयार करता हूँ। तुमको आराम 103

पहुँचाने के िलए हािजर हूँ। मगर तुमको िसवाय अपने िकसी दस ू रे का खयाल करते नहीं दे ख सकता। अब तक न जाने कैसे-कैसे मैने िदल को समझाया। मगर अब वह मेरे बस का नहीं। अब वह यह जलन नहीं सह सकता। मै

तुमको चेताये दे ता हूँ िक यह रोना-धोना छोडा। यिद इस चेताने पर भी तुम मेरी बात न मानो तो िफर मुझे दोष मत दे ना। बस इतना कहे दे ता हूँ। िक सी के दो पित कदािप जीते नहीं रह सकते।

यह कहते हुए बाबू दाननाथ कोध मे भरे बाहर चले आये। बेचारी पेमा

को ऐसा मालूम हुआ िक मानो िकसी ने कलेजे मे छुरी मार दी। उसको

आज तक िकसी ने भूलकर भी कडी बात नहीं सुनायी थी। उसकी भावज कभी-कभी ताने िदया करती थी मगर वह ऐसा न होते थे। वह घंटो रोती

रही। इसके बाद उसने पित की सारी बातो पर िवचार करना शुर िकया और उसके कानो मे यह शबद गूज ँ ने लगे-एक सी के दो पित कदािप जीते नहीं रह सकते।

इनका कया मतलब है ?

104

तेरहवां अधयाय

शोक दाय क घ टन ा

पूणाय, रामकली और लकमी तीनो बडे आननद से िहत-िमलकर रहने

लगी। उनका समय अब बातचीत, हँ सी-िदललगी मे कट जात। िचनता की परछाई भी न िदखायी दे ती। पूणा य दो-तीन महीने मे िनखर कर ऐसी

कोमलागी हो गयी थी िक पिहचान न जाती थी। रामकली भी खूब रं ग-रप िनकाले थी। उसका िनखार और यौवन पूणा य को भी मात करता था। उसकी

ऑख ं ो मे अब चंचलता और मुख पर वह चपलता न थी जो पहले िदखायी दे ती थी। बिलक अब वह अित सुकुमार कािमनी हो गयी थी। अचछे संग मे

बैठते-बैठते उसकी चाल-ढाल मे गमभीरता और धैय य आ गया था। अब वह

गंगा सनान और मिनदर का नाम भी लेती। अगर कभी-कभी पूणा य उसको

छोडने के िलए िपछली बाते याद िदलाती तो वह नाक-भौ चढा लेती, रठ जाती। मगर इन तीनो मे लकमी का रप िनराला था। वह बडे घर मे पैदा

हुई थी। उसके मॉँ-बाप ने उसे बडे लाड-पयार से पाला था और उसका बडी

उतम रीित पर िशका दी थी। उसका कोमल गत, उसकी मनोहर वाणी, उसे

अपनी सिखयॉँ मे रानी की पदावी दे ती थी। वह गाने-बजाने मे िनपुण थी और अपनी सिखयो को यह गुण िसखाया करती थी। इसी तरह पूणा य को

अनेक पकार के वयंजन बनाने का वयसन था। बेचारी रामकली के हाथो मे

यह सब गुण न थे। हॉँ, वह हँ सोडी थी और अपनी रसीली बातो से सिखयो को हँ साया करती थी।

एक िदन शाम को तीनो सिखयाँ बैठी बातिचत कर रही थी िक पूणाय

ने मुसकराकर रामकली से पूछा—कयो रममन, आजकल मिनदर पूजा करने नहीं जाती हो।

रामकली ने झेपकर जवाब िदया—अब वहॉँ जाने को जी नहीं चाहता।

लकमी रामकली का सब वत ृ ानत सुन चुकी थी। वह बोली—हॉँ बुआ, अब तो हँ सने-बोलने का सामान घर ही पर ही मौजूद है ।

रामकली—(ितनककर) तुमसे कौन बोलता है , जो लगी जहर उगलने।

बिहन, इनको मना कर दो, यह हमारी बातो मे न बोला करे । नहीं तो अभी कुछ कह बैठूँगी तो रोती िफरे गी।

पूणाय—मत लिछमी (लकमी) सखी को मत छोडो। 105

लकमी—(मुसकराकर) मैने कुछ झूठ थोडे ही कहा था जो इनको ऐसा

कडु आ मालूम हुआ।

रामकली—जैसी आप है वैसी सबको समझती है ।

पूणाय— लिछमी, तुम हमारी सखी को बहुत िदक िकया करती हो।

तुमहरी बाल से वह मिनदर मे जाती थी।

लकमी—जब मै कहती हूँ तो रोती काहे को है ।

पूणाय—अब यह बात उनको अचछी नहीं लगती तो तुम काहे को कहती

हो। खबरदार, अब िफर मिनदर का नाम मत लेना।

लकमी—अचछा रममन, हमे एक बात दो तो, हम िफर तुमहे कभी न

छे डे —महनत जी ने मंत दे ते समय तुमहरे कान मे कया कहा? हमारा माथा छुए जो झूठ बोले।

रामकली—(िचटक कर) सुना लिछमी, हमसे शरारत करोगी तो ठीक न

होगा। मै िजतना ही तरह दे ती हूँ, तुम उतनी ही सर चढी जाती हो। पूणाय—ऐ तो बतला कयो नहीं दे ती, इसमे कया हजय है ?

रामकली—कुछ कहा होगा, तुम कौन होती हो पूछनेवाली? बडी आयीं

वहॉँ से सीता बन के

पूणाय—अचछा भाई, मत बताओ, िबगडती काहे को हो? लकमी—बताने की बात ही नहीं बतला कैसे दे ।

रामकली—कोई बात भी हो िक यो ही बतला दँ।ू

पूणाय—अचछा यह बात जाने दो। बताओ उस तंबोली ने तुमहे पान

िखलाते समय कया कहा था।

रामकली—िफर छे डखानी की सूझी। मै भी पते की बात कह दँग ू ी तो

लजा जाओगी।

लकमी—तुमहे हमार कसम सखी, जरर कहो। यह हम लोगो की बातो

तो पूछ लेती है , अपनी बाते एक नहीं कहतीं।

रामकली—कयो सखी, कहूँ? कहती हूँ, िबगडना मत। पूणाय- कहो, सॉच ँ को ऑच ं कया।

रामकली—उस िदन घाट पर तुमने िकस छाती से िलपटा िलया था। पूणाय— तुमहारा सर

लकमी— समझ गयी। बाबू अमत ृ राय होगे। कयो है न? 106

यह तीनो सिखयॉँ इसी तरह हँ स-बोल रहीं थीं िक एक बूढी औरत ने

आकर पूणाय को आशीवाद य िदया और उसके हाथ मे एक खत रख िदया। पूणाय ने अकर पिहचाने, पेमा का पत था। उसमे यह िलखा था—

‘‘पयारी पूणा य तुमसे भेट करने को बहुत जी चाहता है । मगर यहॉँ घर

से बाहर पॉव ँ िनकालने की मजाल नहीं। इसिलए यह खत िलखती हूँ। मुझे

तुमसे एक अित आवशयक बात करनी है । जो पत मे नहीं िलख सकती हूँ। अगर तुम िबललो को इस पत का जवाब दे कर भेजो तो जबानी कह दँग ू ी।

दे खा दे र मत करना। नहीं तो अनथ य हो जाएगा। आठ बजे के पहले िबललो यहॉँ अवशय आ जाए।

तुमहारी सखी

पेमा’’

पत पढते ही पूणा य का िचत वयाकुल हो गया। चेहरे का रं ग उड गया

और अनेक पकार की शंकाएँ लगी। या नारायण अब कया होनेवाला है । िलखती है दे खो दे र मत करना। नहीं तो अनथय हो जाएगा। कया बात है ।

अभी तक वह कचहरी से नहीं लौटे । रोज तो अब तक आ जाया करते

थे। इनकी यही बात तो हम को अचछी नहीं लगती।

लकमी और रामकली ने जब उसको ऐसा वयाकुल दे खा तो घबराकर

बोलीं—कया बिहन, कुशल तो है ? इस पत मे कया िलखा है ?

पूणाय—कया बताऊँ कया िलखा है । रामकली, तुम जरा कमरे मे जा के

झॉक ँ ो तो आये या नहीं अभी।

रामकली ने आकर कहा—अभी नहीं आये।

लकमी—अभी कैसे आयेगे? आज तो तीन आदमी वयाखयान दे ने गये

है । इसी घबराहट मे आठ बजा। पूणा य ने पेमा के पत का जवाब िलखा और

िबललो को दे कर पेमा को घर भेज िदया। आधा घंटा भी न बीता था िक

िबललो लौट आयी। रं ग उडा हुआ। बदहवास और घबरायी हुई। पूणा य ने उसे दे खते ही घबराकर पूछा—कहो िबललो, कुशल कहो।

िबललो (माथा ठोककर) कया कहूँ, बहू कहते नहीं बनता। न जाने अभी

कया होने वाला है ।

पूणाय—कया कहा? कुछ िचटठी-पती तो नहीं िदया?

107

िबललो—िचटठी कहॉँ से दे ती? हमको अनदर बुलाते डरती थीं। दे खते ही

रोने लगी और कहा—िबललो, मै कया करँ , मेरा जी यहॉँ िबलकुल नहीं लगता।

मै िपछली बाते याद करके रोया करती हूँ। वह (दाननाथ) कभी जब मुझे रोते दे ख लेते है तो बहुत झललाते है । एक िदन मुझे बहुत जली-कटी सुनायी और

चलते-समय धमका कर कहा—एक औरत के दो चाहनेवाले कदािप जीते नहीं

रह सकते। यह कहकर िबललो चुप हो गयी। पूणा य के समझ मे पूरी बात न आयी। उसने कहा—चुप कयो हो गयी? जलदी कहो, मेरा दम रका हुआ है ।

िबललो—इतना कहकर वह रोने लगी। िफर मुझको नजदीक बुला के

कान मे कहा—िबललो, उसी िदन से मै उनके तेवर बदले हुए दे खती हूँ। वह तीन आदिमयो के साथ लेकर रोज शाम को न जाने कहॉँ जाते है । आज मैने िछपकर उनकी बातचीत सुन ली। बारह बजे रात को जब अमत ृ राय पर चोट

करने की सलाह हुई है । जब से मैने यह सुना है , हाथो के तोते उडे हुए है । मुझ अभािगनी के कारण न जाने कौन-कौन दख ु उठायेगा।

िबललो की जबानी यह बाते सुनकर पूणाय के पैर तले से िमटटी िनकल

गयी। दनानाथ की तसवीर भयानक रप धारण िकये उसकी ऑख ं ो के सामने आकर खडी हो गयी।

वह उसी दम दौडती हुई बैठक मे पहुँची। बाबु अमत ृ राय का वहॉँ पता

न था। उसने अपना माथा ठोक िबललो से कहॉँ—तुम जाकर आदिमयो कह दो। फाटक पर खडे हो जाए। और खुद उसी जगह एक कुसी पर बैठकर

गुनने लगी िक अब उनको कैसे खबर करँ िक इतने मे गाडी की खडखडाहट

सुनायी दी। पूणा य का िदल बडे जोर से धड-धड करने लगा। वह लपक कर

दरवाजे पर आयी और कॉप ँ ती हुई आवाज से पुकार बोली—इतनी दे र कहॉँ लगायी? जलदी आते कयो नहीं?

अमत ृ राय जलदी से उतरे और कमरे के अनदर कदम रखते ही पूणाय

ऐसे िलपट गयी मानो उनहे िकसी के वार से बचा रही है और बोली—इतनी जलदी कयो आये, अभी तो बहुत सवेरा है ।

अमत ृ राय—पयारी, कमा करो। आज जरा दे र हो गयी।

पूणाय—चिलए रहने दीिजए। आप तो जाकर सैर-सपाटे करते है । यहॉँ

दस ू रो की जान हलकान होती है

अमत ृ राय—कया बताये, आज बात ऐसी आ पडी िक रकना पडा। आज

माफ करो। िफर ऐसी दे र न होगी।

108

यह कहकर वह कपडे उतारने लगे। मगर पूणा य वही खडी रही जैसे

कोई चौकी हुई हिरणी। उसकी ऑख ं े दरवाजे की तरफ लगी थीं। अचानक उसको िकसी मनुषय की परछाई दरवाजे के सामने िदखायी पडी।

और वह

िबजली की राह चमककर दरवाजा रोककर खडी हो गयी। दे खा तो कहार था।

जूता खोलने आ रहा था। बाबू साहब न धयान से दे खा तो पूणाय कुछ घबरायी हुई िदखायी दी। बोले---पयारी, आज तुम कुछ घबरायी हुई हो। पूणाय—सामनेवाला दरवाजा बनद करा दो।

अमत ृ राय—गरमी हो रही है । हवा रक जाएगी। पूणाय—यहॉँ न बैठने दँग ू ी। ऊपर चलो।

अमत ृ राय—कयो बात कया है ? डरने की कोई वजह नहीं।

पूणाय—मेरा जी यहॉँ नहीं लगता। ऊपर चलो। वहॉँ चॉद ँ नी मे खूब ठं डी

हवा आ रही होगी।

अमत ृ राय मन मे बहुत सी बाते सोचते-सोचते पूणा य के साथ कोठे पर

गये। खुली हुई छत थी। कुिसय य ॉँ धरी हुई थी। नौ बजे रात का समय, चैत के िदन, चॉद ँ नी खूब िछटकी हुई, मनद-मनद शीतल वायु चल रही थी। बगीचे के हरे -भरे वक ृ धीरे -धीरे झूम-झूम कर अित शोभायमान हो रहे थे। जान पडता

था िक आकाश ने ओस की पतली हलकी चादर सब चीजो पर डाल दी है । दरू-दरू के धुँधले-धुध ँ ले पेड ऐसे मनोहर मालूम होते है मानो वह दे वताओं के रमण करने के सथान है । या वह उस तपोवन के वक ृ है िजनकी छाया मे

शकुनतला और उसकी सिखयॉँ भमण िकया करती थीं और जहॉँ उस सुनदरी

ने अपने जान के अधार राजा दषुयनत को कमल के पते पर पेम-पाती िलखी थी।

पूणा य और अमत ृ राय कुिसय य ा पर बैठ गये। ऐसे सुखदाय एकांत मे

चनदमा की िकरणो ने उनके िदलो पर आकमण करना शुर िकया। अमत ृ राय ने पूणाय के रसीले अधर चूमकर कहा—आज कैसी सुहावनी चाँदनी है । पूणाय—मेरी जी इस घडी चाहत है िक मै िचिडया होती। अमत ृ राय—तो कया करतीं।

पूणाय—तो उडकर उन दरूवाले पेडो पर जा बैठती।

अमत ृ राय—अहा हा दे खा लकमी कैसा अलाप रही है ।

पूणाय—लकमी का-सा गाना मैने कहीं नहीं सुना। कोयला की तरह

कूकती है ।

109

सुनो कौन गीत है । सुना

मोरी सुिध जिन िबसरै हो, महराज।

अमत ृ राय—जी चाहता है , उसे यहीं बुला लूँ। पूणाय- नहीं। यहॉँ गाते लजायेगी। सुनो।

इतनी िवनय मै तुमसे करत हौ िदन-िदन सनेह बढै यो महराज।

अमत ृ राय—हाय जी बेचैन हुआ जाता है ।

पूणाय---जैसे कोई कलेजे मे बैठा चुटिकयॉँ ले रहा हो। कान लगाओ,

कुछ सुना, कहती है ।

मै मधुमाती अरज करत हूँ

िनत िदन पितया पठै यो, महराज

अमत ृ राय—कोई पेम—रस की माती अपने सजन से कह रही है ।

पूणाय—कहती है िनत िदन पितया पठै यो, महराज हाय बेचारी पेम मे

डू बी हुई है । है ।

अमत ृ राय---चुप हो गयी। अब वह सननटा कैसा मनोहर मालूम होता पूणाय---पेमा भी बहुत अचछा गाती थी। मगर नहीं।

पेमा का नाम जबान पर आते ही पूणा य यकायक चौक पडी और

अमत ृ राय के गले मे हाथ डालकर बोली—कयो पयारे तुम उन गडबडी के िदनो मे हमारे घर जाते थे तो अपने साथ कया ले जाया करते थे। अमत ृ राय—(आशयय से) कयो? िकसिलए पूछती हो? पूणाय—यो ही धयान आ गया।

अमत ृ राय—अंगेजी तमंचा था। उसे िपसतौला कहते है ।

पूणाय—भला िकसी आदमी के िपसतौल की गोली लगे तो कया हो। अमत ृ राय—तुरंत मर जाए।

पूणाय—मै चलाना सीखूँ तो आ जाए।

अमत ृ राय—तुम िपसतौल चलाना सीखकर कया करोगी? (मुसकराकर)

कया नैनो की कटारी कुछ कम है ? इस दम यही जी चाहता है िक तुमको कलेजा मे रख लूँ।

पूणाय—(हाथ जोडकर) मेरी तुमसे यही िवनय है — मेरा सुिध जिन िबसरै हो, महाराज 110

यह कहते-कहते पूणा य की ऑख ं ो मे नीर भर आया। अमत ृ राय। अमत ृ राय भी

गदगद सवर हो गये और उसको खूब भेच-भेच पयार िकया, इतने मे िबललो ने आकर कहा—चिलए रसोई तैयार है ।

अमत ृ राय तो उधर भोजन पाने गये और पूणा य ने इनकी अलमारी

खोलकर िपसतौल िनकाल ली और उसे उलट-पुलट कर गौर से दे खने लगी। जब अमत ृ राय अपने दोनो िमतो के साथ भोजन पाकर लौटे और पूणा य को

िपसतौल िलये दे खा तो जीवननाथ ने मुसकराकर पूछा—कयो भाभी, आज िकसका िशकार होगा?

पूणाय-इसे कैसे छोडते है , मेरे तो समझ ही मे नहीं आत। जीवननाथ—लाओ मै बता दँ।ू

यह कहकर जीवननाथ ने िपसतौल हाथ मे लीं। उसमे गोली भरी और

बरामदे मे आये और एक पेड के तने मे िनशान लगा कर दो-तीन फायर िकये। अब पूणा य ने िपसतैल हाथ मे ली। गोली भरी और िनशाना लगाकर दागा, मगर ठीक न पडा। दस ू रा फायर िफर िकया। अब की िनशाना ठीक बैठा। तीसरा फायर िकया। वह भी ठीक। िपसतौल रख दी और मुसकराते हुए

अनदर चली गयी। अमत ृ राय ने िपसतौल उठा िलया और जीवननाथ से बोले

—कुछ समझ मे नहीं आता िक आज इनको िपसतौल की धुन कयो सवार है ।

जीवननाथ—िपसतौल रकख दे ख के छोडने की जी चाहा होगा।

अमत ृ राय—नहीं,आज जब से मै आया हूँ,कुछ घबरया हुआ दे ख रहा हूँ। जीवननाथ—आपने कुछ पूछा नहीं।

अमत ृ राय—पूछा तो बहूत मगर जब कुछ बतलाये भी, हूँ-हॉँ कर के

टाल गई। कया?

जीवननाथ—िकसी िकताब मे िपसतौल की लडाई पढी

होगी। और

पाणनाथ—यही मै भी समझता हूँ।

जीवननाथ—िसवाय इसके और हो ही कया सकता है ?

कुछ दे र तक तीनो आदमी बैठे गप-शप करते रहे । जब दस बजने को

आये तो लोग अपने-अपने कमरो मे िवशाम करने चले गये। बाबू साहब भी

लेटे। िदन-भर के थके थे। अखबार पढते-पढते सो गये। मगर बेचारी पूणाय की

ऑख ं ो मे नींद कहॉँ? वह बार बजे तक एक कहानी पढती रही। जब तमाम 111

सोता पड गया और चारो तरफ सननाटा छा गया तो उसे

अकेले डर मालूम

होने लगा। डरते ही डरते उठी और चारो तरफ के दरवाजे बनद कर िलये। मगर जवनी की नींद, बहुत रोकने पर भी एक झपकी आ ही गयी। आधी

घडी भी न बीती थी िक भय मे सोने के कारण उसे एक अित भंयकर सवपन िदखायी िदया। चौककर उठ बैठी, हाथ-पॉव ँ थर-थर कॉप ँ ने लगे। िदल मे धडकन होने लगी। पित का हाथ पकडकर चाहती थी िक जगा दे । मगर िफर

यह समझकर िक इनकी पयारी नींद उचट जएगी तो तकलीफ होगी, उनका हाथ छोड िदया। अब इस समय उसकी जो अवसथा है वणन य नहीं की जा

सकती। चेहरा पीला हो रहा है , डरी हुई िनगाहो से इधर-उधर ताक रही है , पता भी खडखडाता है ता चौक पडती है । कभी अमत ृ राय के िसरहाने खडी होती है , कभी पैताने। लैमप की धुंधली रोशनी मे वह सननाटा और भी

भयानक मालूम हो रहा है । तसवीरे जो दीवारो से लटक रही है , इस समय उसको घूरते हुए मालूम होती है । उसके सब रोगटे खडे है । िपसतौल हाथ मे

िलये घबरा-घबरा कर घडी की तरफ दे ख रही है । यकायक उसको ऐसा मालूम हुआ िक कमरे की छत दबी जाती है । िफर घडी की सुइयो को दे खा।

एक बज गया था इतने ही मे उसको कई आदिमयो के पॉव ँ की आहट मालूम हुई। कलेजा बॉस ं ो उछालने लगा। उसने िपसतौल समहाली। यह समझ

गयी िक िजन लोगो के आने का खटका था वह आ गये। तब भी उसको िवशास था िक इस बनद कमरे मे कोई न आ सकेगा। वह कान लगाये पैरो

की आहट ले रही थी िक अकसमात दरवाजे पर बडे जोर से धकका लगा और

जब तक वह बाबू अमत ृ राय को जगाये िक मजबूत िकवाड आप ही आप खुल गये और कई आदमी धडधडाते हुए अनदा घुस आये। पूणा य ने िपसतौल

सर की। तडाके की आवाज हुई। कोई धमम से िगर पडा, िफर कुछ खट-खट होने लगा। दो आवाजे िपसतौल के छुटने की और हुई। िफर धमाका हुआ।

इतने मे बाबू अमत ृ राय िचललाये। दौडो-दौडो, चोर, चोर। इस आवाज के सुनते ही दो आदमी उनकी तरफ लपके। मगर इतने मे दरवाजे पर लालटे न की रोशनी नजर आयी और पाणानाथ और जीवननाथ हाथो मे सोटे िलए आ

पहुँचे। चोर भागने लगे, मगर दो के दोनो पकड िलए गये। जब लालटे ने लेकर जमीन पर दे खा तो दो लाशे िदखायी दीं। एक तो पूणा य की लाश थी

और दस ू री एक मदय की। यकायक पाणनाथ ने िचलला कर कहा—अरे यह तो बाबू दाननाथ है ।

112

बाबू अमत ृ राय ने एक ठं डी साँस भरकर कहा—आज जब मैने उसके

हाथ मे िपसतौल दे खा तभी से िदल मे एक खटका-सा लगा हुआ था। मगर, हाय कया जानता था िक ऐसी आपित आनेवाली है । पाणनाथ—दाननाथ तो आपके िमतो मे थे।

अमत ृ राय---िमतो मे जब थे तब थे। अब तो शतु है ।

×

×

×

×

×

पूणा य को दिुनया से उठे दो वष य बीत गया है । सॉझ ँ का समय है ।

शीतल-सुगिं धत िचत को हष य दे नेवाली हवा चल रही है । सूय य की िवदा होनेवाली िकरणे िखडकी से बाबू अमत ृ राय के सजे हुए कमेरे मे जाती है

और पूणा य के पूरे कद की तसवीर के पैरो को चूम-चूम कर चली जाती है । उनकी लाली से सारा कमरा सुनहरा हो रहा है । रामकली और लकमी के

मुखडे इस समय मारे आननद के गुलाब की तरह िखले हुए है । दोनो गहने पाते से लौस है और जब वह िखडकी से भर िनकालती है और सुनहरी

िकरणे उनके गुलाब-से मुखडो पर पडती है तो जान पडता है िक सूय य आप बलैया ले रहा है । वह रह-रहकर ऐसी िचतवनो से ताकती है से ताकती है

जैसी िकसी की रही है । यकायक रामकली ने खुश होकर कहा—सुखी वह दे खो आ गये। उनके कपडे कैसे सुनदर मालूम दे ते है ।

एक अित सुनदर िफटन चम-चम करती हुई फाटक के अंदर दािखल

होती है और बँगले के बरामदे मे आकर रकती है । बाबू अमत ृ राय उसमे से

उतरते है । मगर अकेले नहीं। उनका एक हाथ पेमा के हाथ मे है । यदिप बाबू साहब का सुनदर चेहरा कुछ पीला हो रहा है । मगर होठो पर हलकी-सी मुसकराहट झलक रही है और माथे पर केशर का टीका और गले मे खूबसूरत हार और शोभा बढा रहे है ।

पेमा सुनदरता की मूरत और जवानी की तसवीर हो रही है । जब हमने

उसको िपछली बार दे खा था तो िचनता और दब य ता के िचह मुखडे से पाये ु ल जाते थे। मगर कुछ और ही यौवन है । मुखडा कुनदन के समान दमक रहा

है । बदन गदराय हुआ है । बोटी—बोटी नाच रही है । उसकी चंचलता दे खकर

आशय य होता है िक कया वही पीली मुँह और उलझे बाल वाली रोिगन है । उसकी ऑख ं ो मे इस समय एक घडे का नशा समाया हुआ है । गुलाबी जमीन की हरे िकनारे वाली साडी और ऊदे रं ग की कलोइयो पर चुनी हुई जाकेट उस

पर िखल रही है । उस पर गोरी-गारी कलाइयो मे जडाऊ कडे बालो मे गुथ ँ े 113

हुए गुलाब के फूल, माथे पर लाल रोरी की गोल-िबंदी और पॉव ँ मे जरदोज के काम के सुनदर मे सुहागा हो रहे है । इस ढग के िसंगार से बाबू साहब को िवशेष करके लगाव है कयोिक पूणाय दे वी की तसवीर भी ऐसी ही कपडे पिहने

िदखायी दे ती है और उसे दे खकर कोई मुिशकल से कह सकता है िक पेमा ही की सुरत आइने मे उतर कर ऐसा यौवन नहीं िदखा रही है ।

अमत ृ राय ने पेमा को एक मखमली कुसी पर िबठा िदया और मुसकरा

कर बोले—पयारी पेमा आज मेरी िजनदगी का सबसे मुबारक िदन है ।

पेमा ने पूणा य की तसवीर की तरफ मिलन िचतवनो से दे खकर कहा—

हमारी िजनगी का कयो नही कहते?

पेमा ने यह कहा था िक उसकी नजर एक लाल चीज पर जा पडी जो

पूणा य की तसवीर के नीचे एक खूबसूरत दीवारगीर पर धरी हुई थी। उसने लपककर उसे उठा िलया। और ऊपर का रे शमी िगलाफ हटाकर दे खा तो िपसतौल था।

बाबू अमत ृ राय ने िगरी हुई आवाज मे कहा—यह पयारी पूणा य की

िनशानी है , इसी से उसने मेरी जान बचायी थी।

यह कहते—कहते उनकी आवाज कॉप ँ ने लगी।

पेमा ने यह सुनकर उस िपसतौला को चूम िलया और िफर बडी

िलहाज के साथ उसी जगह पर रख िदया।

इतने मे दस ू री िफटन दािखल होती है । और उसमे से तीन युवक

हँ सते हुए उतरते है । तीनो का हम पहचानते है ।

एक तो बाबू जीवननाथ है , दस ू रे बाबू पाणनाथ और तीसरे पेमा के

भाई बाबू कमलापसाद है ।

कमलापसाद को दे खते ही पेमा कुसी से उठ खडी हुई , जलदी से घूघँट

िनकाल कर िसर झुका िलया।

कमलापाद ने बिहन को मुसकराकर छाती से लगा िलया और बोले—मै

तुमको सचचे िदल से मुबारबाद दे ता हूँ।

दोनो युवको ने गुल मचाकर कहा—जलसा कराइये जलसा, यो पीछा न

छूटे गा।

114

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