मनावन
बाबू दयाशंकर उन लोगो मे थे िजनहे उस वकत तक सोहबत का मजा नही िमलता जब तक िक वह पेिमका की जबान की तेजी का मजा न उठाये। रठे हुए को मनाने मे उनहे बडा आननद िमलता िफरी हुई िनगाहे कभी-कभी मुहबबत के नशे की मतवाली ऑंखे से भी जयादा मोहक जान पडती। आकषरक लगती। झगडो मे िमलाप से जयादा मजा आता। पानी मे हलके-हलके झकोले कैसा समॉँ िदखा जाते है। जब तक दिरया मे धीमी-धीमी हलचल न हो सैर का लुतफ नही। अगर बाबू दयाशंकर को इन िदलचिसपयो के कम मौके िमलते थे तो यह उनका कसूर न था। िगिरजा सवभाव से बहुत नेक और गमभीर थी, तो भी चूंिक उनका कसूर न था। िगिरजा सवभाव से बहुत नेक और गमभीर थी, तो भी चूंिक उसे अपने पित की रिच का अनुभव हो चुका था इसिलए वह कभी-कभी अपनी तिबयत के िखलाफ िसफर उनकी खाितर से उनसे रठ जाती थी मगर यह बे-नीव की दीवार हवा का एक झोका भी न समहाल सकती। उसकी ऑंखे, उसके होठ उसका िदल यह बहुरिपये का खेल जयादा देर तक न चला सकते। आसमान पर घटाये आती मगर सावन की नही, कुआर की। वह डरती, कही ऐसा न हो िक हँसी-हँसी से रोना आ जाय। आपस की बदमजगी के खयाल से उसकी जान िनकल जाती थी। मगर इन मौको पर बाबू साहब को जैसी-जैसी िरझाने वाली बाते सूझती वह काश िवदाथी जीवन मे सूझी होती तो वह कई साल तक कानून से िसर मारने के बाद भी मामूली कलकर न रहते। 2
दयाशंकर को कौमी जलसो से बहुत िदलचसपी थी। इस िदलचसपी की बुिनयाद उसी जमाने मे पडी जब वह कानून की दरगाह के मुजािवर थे और वह अक तक कायम थी। रपयो की थैली गायब हो गई थी मगर कंधो मे ददर मौजूद था। इस साल काफेस का जलसा सतारा मे होने वाला था। िनयत तारीख से एक रोज पहले बाबू साहब सतारा को रवाना हुए। सफर की तैयािरयो मे इतने वयसत थे िक िगिरजा से बातचीत करने की भी फुसरत न िमली थी। आनेवाली खुिशयो की उममीद उस किणक िवयोग के खयाल के ऊपर भारी थी। कैसा शहर होगा! बडी तारीफ सुनते है। दकन सौनदयर और संपदा की खान है। खूब सैर रहेगी। हजरत तो इन िदल को खुश करनेवाले खयालो मे मसत थे और िगिरजा ऑंखो मे आंसू भरे अपने दरवाजे पर खडी यह कैिफयल देख रही थी और ईशर से पाथरना कर रही थी िक इनहे खैिरतय से लाना। वह खुद एक हफता कैसे काटेगी, यह खयाल बहुत ही कष देनेवाला था। िगिरजा इन िवचारो मे वयसत थी दयाशंकर सफर की तैयािरयो मे। यहॉँ तक िक सब तैयािरयॉँ पूरी हो गई। इका दरवाजे पर आ गया। िबसतर और टंक उस पर रख िदये और तब िवदाई भेट की बाते होने लगी। दयाशंकर िगिरजा के सामने आए और मुसकराकर बोले-अब जाता हूँ। िगिरजा के कलेजे मे एक बछी-सी लगी। बरबस जी चाहा िक उनके सीने से िलपटकर रोऊँ। ऑंसुओं की एक बाढ-सी ऑंखे मे आती हुई मालूम हुई मगर जबत करके बोली-जाने को कैसे कहूँ, कया वकत आ गया? इयाशंकर-हॉँ, बिलक देर हो रही है। िगिरजा-मंगल की शाम को गाडी से आओगे न? दयाशंकर-जरर, िकसी तरह नही रक सकता। तुम िसफर उसी िदन मेरा इंतजार करना। िगिरजा-ऐसा न हो भूल जाओ। सतारा बहुत अचछा शहर है। दयाशंकर-(हँसकर) वह सवगर ही कयो न हो, मंगल को यहॉँ जरर आ जाऊँगा। िदल बराबर यही
रहेगा। तुम जरा भी न घबराना। यह कहकर िगिरजा को गले लगा िलया और मुसकराते हुए बाहर िनकल आए। इका रवाना हो गया। िगिरजा पलंग पर बैठ गई और खूब रोयी। मगर इस िवयोग के दुख, ऑंसुओं की बाढ, अकेलेपन के ददर और तरह-तरह के भावो की भीड के साथ एक और खयाल िदल मे बैठा हुआ था िजसे वह बार-बार हटाने की कोिशश करती थी-कया इनके पहलू मे िदल नही है! या है तो उस पर उनहे पूरा-पूरा अिधकार है? वह मुसकराहट जो िवदा होते वकत दयाशंकर के चेहरे र लग रही थी, िगिरजा की समझ मे नही आती थी।
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सतारा मे बडी धूधम थी। दयाशंकर गाडी से उतरे तो वदीपोश वालंिटयरो ने उनका सवागात िकया। एक िफटन उनके िलए तैयार खडी थी। उस पर बैठकर वह काफेस पंडाल की तरफ चले दोनो तरफ झंिडयॉँ लहरा रही थी। दरवाजे पर बनदवारे लटक रही थी। औरते अपने झरोखो से और मदर बरामदो मे खडे हो-होकर खुशी से तािलयॉँ बाजते थे। इस शान-शौकत के साथ वह पंडाल मे पहुँचे और एक खूबसूरत खेमे मे उतरे। यहॉँ सब तरह की सुिवधाऍं एकत थी, दस बजे काफेस शुर हुई। वकता अपनी-अपनी भाषा के जलवे िदखाने लगे। िकसी के हँसीिदललगी से भरे हुए चुटकुलो पर वाह-वाह की धूम मच गई, िकसी की आग बरसानेवाले तकरीर ने िदलो मे जोश की एक तहर-सी पेछा कर दी। िवदतापूणर भाषणो के मुकाबले मे हँसी-िदललगी और बात कहने की खुबी को लोगो ने जयादा पसनद िकया। शोताओं को उन भाषणो मे िथयेटर के गीतो का-सा आननद आता था। कई िदन तक यही हालत रही और भाषणो की दृिशट से काफेस को शानदार कामयाबी हािसल हुई। आिखरकार मंगल का िदन आया। बाबू साहब वापसी की तैयािरयॉँ करने लगे। मगर कुछ ऐसा संयोग हुआ िक आज उनहे मजबूरन ठहरना पडा। बमबई और यू.पी. के डेलीगेटो मे एक हाकी मैच ठहर गई। बाबू दयाशंकर हाकी के बहुत अचछे िखलाडी थे। वह भी टीम मे दािखल कर िलये गये थे। उनहोने बहुत कोिशश की िक अपना गला छुडा लूँ मगर दोसतो ने इनकी आनाकानी पर िबलकुल धयान न िदया। साहब, जो जयादा बेतकललुफ थे, बोल-आिखर तुमहे इतनी जलदी कयो है? तुमहारा दफतर अभी हफता भर बंद है। बीवी साहबा की जाराजगी के िसवा मुझे इस जलदबाजी का कोई कारण नही िदखायी पडता। दयाशंकर ने जब देखा िक जलद ही मुझपर बीवी का गुलाम होने की फबितयॉँ कसी जाने वाली है, िजससे जयादा अपमानजनक बात मदर की शान मे कोई दस ू री नही कही जा सकती, तो उनहोने बचाव की कोई सूरत न देखकर वापसी मुलतवी कर दी। और हाकी मे शरीक हो गए। मगर िदल मे यह पका इरादा कर िलया िक शाम की गाडी से जरर चले जायेगे, िफर चाहे कोई बीवी का गुलाम नही, बीवी के गुलाम का बाप कहे, एक न मानेगे। खैर, पाच बजे खेल शुनू हुआ। दोनो तरफ के िखलाडी बहुत तेज थे िजनहोने हाकी खेलने के िसवा िजनदगी मे और कोई काम ही नही िकया। खेल बडे जोश और सरगमी से होने लगा। कई हजार तमाशाई जमा थे। उनकी तािलयॉँ और बढावे िखलािडयो पर मार बाजे का काम कर रहे थे और गेद िकसी अभागे की िकसमत की तरह इधर-उधर ठोकरे खाती िफरती थी। दयाशंकर के हाथो की तेजी और सफाई, उनकी पकड और बेऐब िनशानेबाजी पर लोग हैरान थे, यहॉँ तक िक जब वकत खतम होने मे िसफर एक िमनट बाकी रह गया था और दोनो तरफ के लोग िहममते हार चुके थे तो दयाशंकर ने गेद िलया और िबजली की तरह िवरोधी पक के गोल पर पहुँच गये।
एक पटाखे की आवाज हुई, चारो तरफ से गोल का नारा बुलनद हुआ! इलाहाबाद की जीत हुई और इस जीत का सेहरा दयाशंकर के िसर था-िजसका नतीजा यह हुआ िक बेचारे दयाशंकर को उस वकत भी रकना पडा और िसफर इतना ही नही, सतारा अमेचर कलब की तरफ से इस जीत की बधाई मे एक नाटक खेलने का कोई पसताव हुआ िजसे बुध के रोज भी रवाना होने की कोई उममीद बाकी न रही। दयाशंकर ने िदल मे बहुत पेचोताब खाया मगर जबान से कया कहते! बीवी का गूलाम कहलाने का डर जबान बनद िकये हुए था। हालॉँिक उनका िदल कह रहा था िक अब की देवी रठेगी तो िसफर खुशामदो से न मानेगी।
4
बाबू दयाशंकर वादे के रोज के तीन िदन बाद मकान पर पहुँचे। सतारा से िगिरजा के िलए कई अनूठे तोहफे लाये थे। मगर उसने इन चीजो को कुछ इस तरह देखा िक जैसे उनसे उसका जी भर गया है। उसका चेहरा उतरा हुआ था और होठ सूखे थे। दो िदन से उसने कुछ नही खाया था। अगर चलते वकत दयाशंकर की आंख से आँसू की चनद बूंदे टपक पडी होती या कम से कम चेहरा कुछ उदास और आवाज कुछ भारी हो गयी होती तो शायद िगिरजा उनसे न रठती। आँसुओं की चनद बूँदे उसके िदल मे इस खयाल को तरो-ताजा रखती िक उनके न आने का कारण चाहे ओर कुछ हो िनषुरता हरिगज नही है। शायद हाल पूछने के िलए उसने तार िदया होता और अपने पित को अपने सामने खैिरयत से देखकर वह बरबस उनके सीने मे जा िचमटती और देवताओं की कृतज होती। मगर आँखो की वह बेमौका कंजूसी और चेहरे की वह िनषुर मुसकान इस वकत उसके पहलू मे खटक रही थी। िदल मे खयाल जम गया था िक मै चाहे इनके िलए मर ही िमटू ँ मगर इनहे मेरी परवाह नही है। दोसतो का आगह और िजद केवल बहाना है। कोई जबरदसती िकसी को रोक नही सकता। खूब! मै तो रात की रात बैठकर काटू ँ और वहॉँ मजे उडाये जाऍं! बाबू दयाशंकर को रठो के मनाने मे िवषेश दकता थी और इस मौके पर उनहोने कोई बात, कोई कोिशश उठा नही रखी। तोहफे तो लाए थे मगर उनका जाद ू न चला। तब हाथ जोडकर एक पैर से खडे हुए, गुदगुदाया, तलुवे सहलाये, कुछ शोखी और शरारत की। दस बजे तक इनही सब बातो मे लगे रहे। इसके बाद खाने का वकत आया। आज उनहोने रखी रोिटयॉँ बडे शौक से और मामूली से कुछ जयादा खायी-िगिरजा के हाथ से आज हफते भर बाद रोिटयॉँ नसीब हुई है, सतारे मे रोिटयो को तरस गये पूिडयॉँ खाते-खाते आँतो मे बायगोले पड गये। यकीन मानो िगिरजन, वहॉँ कोई आराम न था, न कोई सैर, न कोई लुतफ। सैर और लुतफ तो महज अपने िदल की कैिफयत पर मुनहसर है। बेिफकी हो तो चिटयल मैदान मे बाग का मजा आता है और तिबयत को कोई िफक हो तो बाग वीराने से भी जयादा उजाड मालूम होता है। कमबखत िदल तो हरदम यही धरा रहता था, वहॉँ मजा कया खाक आता। तुम चाहे इन बातो को केवल बनावट समझ लो, कयोिक मै तुमहारे सामने दोषी हँू और तुमहे अिधकार है िक मुझे झूठा, मकार, दगाबाज, वेवफा, बात बनानेवाला जो चाहे समझ लो, मगर सचचाई यही है जो मै कह रहा हँू। मै जो अपना वादा पूरा नही कर सका, उसका कारण दोसतो की िजद थी। दयाशंकर ने रोिटयो की खूब तारीफ की कयोिक पहले कई बार यह तरकीब फायदेमनद सािबत हुई थी, मगर आज यह मनत भी कारगर न हुआ। िगिरजा के तेवर बदले ही रहे। तीसरे पहर दयाशंकर िगिरजा के कमरे मे गये और पंखा झलने लगे; यहॉँ तक िक िगिरजा झुँझलाकर बोल उठी-अपनी नाजबरदािरयॉँ अपने ही पास रिखये। मैने हुजूर से भर पाया। मै
तुमहे पहचान गयी, अब धोखा नही खाने की। मुझे न मालूम था िक मुझसे आप यो दगा करेगे। गरज िजन शबदो मे बेवफाइयो और िनषुरताओं की िशकायते हुआ करती है वह सब इस वकत िगिरजा ने खचर कर डाले।
5
शाम हुई। शहर की गिलयो मे मोितये और बेले की लपटे आने लगी। सडको पर िछडकाव होने लगा और िमटी की सोधी खुशबू उडने लगी। िगिरजा खाना पकाने जा रही थी िक इतने मे उसके दरवाजे पर इका आकर रका और उसमे से एक औरत उतर पडी। उसके साथ एक महरी थी उसने ऊपर आकर िगिरजा से कहा—बहू जी, आपकी सखी आ रही है। यह सखी पडोस मे रहनेवाली अहलमद साहब की बीवी थी। अहलमद साहब बूढे आदमी थे। उनकी पहली शादी उस वकत हुई थी, जब दध ू के दॉँत न टू टे थे। दस ू री शादी संयोग से उस जमाने मे हुई जब मुँह मे एक दॉँत भी बाकी न था। लोगो ने बहुत समझाया िक अब आप बूढे हुए, शादी न कीिजए, ईशर ने लडके िदये है, बहुएँ है, आपको िकसी बात की तकलीफ नही हो सकती। मगर अहलमद साहब खुद बुढडे और दुिनया देखे हुए आदमी थे, इन शुभिचंतको की सलाहो का जवाब वयावहािरक उदाहरणो से िदया करते थे—कयो, कया मौत को बूढो से कोई दुशमनी है? बूढे गरीब उसका कया िबगाडते है? हम बाग मे जाते है तो मुरझाये हुए फूल नही तोडते, हमारी आँखे तरो-ताजा, हरे-भरे खूबसूरत फूलो पर पडती है। कभी-कभी गजरे वगैरह बनाने के िलए किलयॉँ भी तोड ली जाती है। यही हालत मौत की है। कया यमराज को इतनी समझ भी नही है। मै दावे के साथ कह सकता हूँ िक जवान और बचचे बूढो से जयादा मरते है। मै अभी जयो का तयो हूँ, मेरे तीन जवान भाई, पॉँच बहने, बहनो के पित, तीनो भावजे, चार बेट,े पॉँच बेिटयॉँ, कई भतीजे, सब मेरी आँखो के सामने इस दुिनया से चल बसे। मौत सबको िनगल गई मगर मेरा बाल बॉँका न कर सकी। यह गलत, िबलकुल गलत है िक बूढे आदमी जलद मर जाते है। और असल बात तो यह है िक जबान बीवी की जररत बुढापे मे ही होती है। बहुएँ मेरे सामने िनकलना चाहे और न िनकल सकती है, भावजे खुद बूढी हईु , छोटे भाई की बीवी मेरी परछाई भी नही देख सकती है, बहने अपने -अपने घर है, लडके सीधे मुंह बात नही करते। मै ठहरा बूढा, बीमार पडू ँ तो पास कौन फटके
एक लोटा पानी कौन दे, देखूँ िकसकी आँख से, जी कैसे बहलाऊँ? कया आतमहतया कर लूँ। या कही डू ब मरँ? इन दलीलो के मुकािबले मे िकसी की जबान न खुलती थी। गरज इस नयी अहलमिदन और िगिरजा मे कुछ बहनापा सा हो गया था, कभी-कभी उससे िमलने आ जाया करती थी। अपने भागय पर सनतोष करने वाली सती थी, कभी िशकायत या रंज की एक बात जबान से न िनकालती। एक बार िगिरजा ने मजाक मे कहा था िक बूढे और जवान का मेल अचछा नही होता। इस पर वह नाराज हो गयी और कई िदन तक न आयी। िगिरजा महरी को देखते ही फौरन ऑंगन मे िनकल आयी और गो उस इस वकत मेहमान का आना नागवारा गुजरा मगर महरी से बोली-बहन, अचछी आयी, दो घडी िदल बहलेगा।
जरा देर मे अहलमिदन साहब गहने से लदी हुई, घूंघट िनकाले, छमछम करती हुई आँगन मे आकर खडी हो गई। िगिरजा ने करीब आकर कहा-वाह सखी, आज तो तुम दुलिहन बनी हो। मुझसे पदा करने लगी हो कया? यह कहकर उसने घूंघट हटा िदया और सखी का मुंह देखते ही चौककर एक कदम पीछे हट गई। दयाशंकर ने जोर से कहकहा लगाया और िगिरजा को सीने से िलपटा िलया और िवनती के सवर मे बोले-िगिरजन, अब मान जाओ, ऐसी खता िफर कभी न होगी। मगर िगिरजन अलग हट गई और रखाई से बोली-तुमहारा बहुरप बहुत देख चुकी, अब तुमहारा असली रप देखना चाहती हँू। 6
दयाशंकर पेम-नदी की हलकी-हलकी लहरो का आननद तो जरर उठाना चाहते थे मगर तूफान से उनकी तिबयत भी उतना ही घबराती थी िजतना िगिरजा की, बिलक शायद उससे भी जयादा। हृदय-पिवतरन के िजतने मंत उनहे याद थे वह सब उनहोने पढे और उनहे कारगर न होते देखकर आिखर उनकी तिबयत को भी उलझन होने लगी। यह वे मानते थे िक बेशक मुझसे खता हईु है मगर खता उनके खयाल मे ऐसी िदल जलानेवाली सजाओं के कािबल न थी। मनाने की कला मे वह जरर िसदहसत थे मगर इस मौके पर उनकी अकल ने कुछ काम न िदया। उनहे ऐसा कोई जाद ू नजर नही आता था जो उठती हुई काली घटाओं और जोर पकडते हुए झोको को रोक दे। कुछ देर तक वह उनही खयालो मे खामोश खडे रहे और िफर बोले-आिखर िगिरजन, अब तुम कया चाहती हो। िगिरजा ने अतयनत सहानुभूित शूनय बेपरवाही से मुँह फेरकर कहा-कुछ नही। दयाशंकर-नही, कुछ तो जरर चाहती हो वना चार िदन तक िबना दाना-पानी के रहने का कया मतलब! कया मुझ पर जान देने की ठानी है? अगर यही फैसला है तो बेहतर है तुम यो जान दो और मै कतल के जुमर मे फॉँसी पाऊँ, िकससा तमाम हो जाये। अचछा होगा, बहुत अचछा होगा, दुिनया की परेशािनयो से छुटकारा हो जाएगा। यह मनतर िबलकुल बेअसर न रहा। िगिरजा आँखो मे आँसू भरकर बोली-तुम खामखाह मुझसे झगडना चाहते हो और मुझे झगडे से नफरत है। मै तुमसे न बोलती हूँ और न चाहती हूँ िक तुम मुझसे बोलने की तकलीफ गवारा करो। कया आज शहर मे कही नाच नही होता, कही हाकी मैच नही है, कही शतरंज नही िबछी हुई है। वही तुमहारी तिबयत जमती है, आप वही जाइए, मुझे अपने हाल पर रहने दीिजए मै बहुत अचछी तरह हँू। दयाशंकर करण सवर मे बोले-कया तुमने मुझे ऐसा बेवफा समझ िलया है? िगिरजा-जी हॉँ, मेरा तो यही तजुबा है। दयाशंकर-तो तुम सखत गलती पर हो। अगर तुमहारा यही खयाल है तो मै कह सकता हूँ िक औरतो की अनतदरृ िष के बारे मे िजतनी बाते सुनी है वह सब गलत है। िगरजन, मेरे भी िदल है... िगिरजा ने बात काटकर कहा-सच, आपके भी िदल है यह आज नयी बात मालूम हुई। दयाशंकर कुछ झेपकर बोले-खैर जैसा तुम समझो। मेरे िदल न सही, मेर िजगर न सही, िदमाग तो साफ जािहर है िक ईशर ने मुझे नही िदया वना वकालत मे फेल कयो होता? गोया मेरे शरीर मे िसफर पेट है, मै िसफर खाना जानता हूँ और सचमुच है भी ऐसा ही, तुमने मुझे कभी फाका करते नही देखा। तुमने कई बार िदन-िदन भर कुछ नही खाया है, मै पेट भरने से कभी बाज नही आया। लेिकन कई बार ऐसा भी हुआ है िक िदल और िजगर िजस कोिशश मे असफल रहे वह इसी पेट ने पूरी कर िदखाई या यो कहो िक कई बार इसी पेट ने िदल और िदमाग और िजगर का काम कर िदखाया है और मुझे अपने इस अजीब पेट पर कुछ गवर होने लगा था मगर अब मालूम
हुआ िक मेरे पेट की अजीब पेट पर कुछ गवर होने लगा था मगर अब मालूम हुआ िक मेरे पेट की बेहयाइयॉँ लोगो को बुरी मालूम होती है...इस वकत मेरा खाना न बने। मै कुछ न खाऊंगा। िगिरजा ने पित की तरफ देखा, चेहरे पर हलकी-सी मुसकराहट थी, वह यह कर रही थी िक यह आिखरी बात तुमहे जयादा समहलकर कहनी चािहए थी। िगिरजा और औरतो की तरह यह भूल जाती थी िक मदों की आतमा को भी कष हो सकता है। उसके खयाल मे कष का मतलब शारीिरक कष था। उसने दयाशंकर के साथ और चाहे जो िरयायत की हो, िखलाने -िपलाने मे उसने कभी भी िरयायत नही की और जब तक खाने की दैिनक माता उनके पेट मे पहुँचती जाय उसे उनकी तरफ से जयादा अनदेशा नही होता था। हजम करना दयाशंकर का काम था। सच पूिछये तो िगिरजा ही की सिखयतो ने उनहे हाकी का शौक िदलाया वना अपने और सैकडो भाइयो की तरह उनहे दफतर से आकर हुके और शतरंज से जयादा मनोरंजन होता था। िगिरजा ने यह धमकी सुनी तो तयोिरया चढाकर बोली-अचछी बात है, न बनेगा। दयाशंकर िदल मे कुछ झेप-से गये। उनहे इस बेरहम जवाब की उममीद न थी। अपने कमरे मे जाकर अखबार पढने लगे। इधर िगिरजा हमेशा की तरह खाना पकाने मे लग गई। दयाशंकर का िदल इतना टू ट गया था िक उनहे खयाल भी न था िक िगिरजा खाना पका रही होगी। इसिलए जब नौ बजे के करीब उसने आकर कहा िक चलो खाना खा लो तो वह ताजजुब से चौक पडे मगर यह यकीन आ गया िक मैने बाजी मार ली। जी हरा हुआ, िफर भी ऊपर से रखाई से कहामैने तो तुमसे कह िदया था िक आज कुछ न खाऊँगा। िगिरजा-चलो थोडा-सा खा लो। े दयाशंकर-मुझ जरा भी भूख नही है। िगिरजा-कयो? आज भूख नही लगी? दयाशंकर-तुमहे तीन िदन से भूख कयो नही लगी? िगिरजा-मुझे तो इस वजह से नही लगी िक तुमने मेरे िदल को चोट पहुँचाई थी। दयाशंकर-मुझे भी इस वजह से नही लगी िक तुमने मुझे तकलीफ दी है। दयाशंकर ने रखाई के साथ यह बाते कही और अब िगिरजा उनहे मनाने लगी। फौरन पॉँसा पलट गया। अभी एक ही कण पहले वह उसकी खुशामदे कर रहे थे, मुजिरम की तरह उसके सामने हाथ बॉँधे खडे, िगडिगडा रहे थे, िमनते करते थे और अब बाजी पलटी हुई थी, मुजिरम इनसाफ की मसनद पर बैठा हुआ था। मुहबबत की राहे मकडी के जालो से भी पेचीदा है। दयाशंकर ने िदन मे पितजा की थी िक मै भी इसे इतना ही हैरान करँगा िजतना इसने मुझे िकया है और थोडी देर तक वह योिगयो की तरह िसथरता के साथ बैठे रहे। िगिरजा न उनहे गुदगुदाया, तलुवे खुजलाये, उनके बालो मे कंघी की, िकतनी ही लुभाने वाली अदाएँ खचर की मगर असर न हुआ। तब उसने अपनी दोनो बॉँहे उनकी गदरन मे डाल दी और याचना और पेम से भरी हुई आँखे उठाकर बोली-चलो, मेरी कसम, खा लो। फूस की बॉँध बह गई। दयाशंकर ने िगिरजा को गले से लगा िलया। उसके भोलेपन और भावो की सरलता ने उनके िदल पर एक अजीब ददरनाक असर पेदा िकया। उनकी आँखे भी गीली हो गयी। आह, मै कैसा जािलम हूँ, मेरी बेवफाइयो ने इसे िकतना रलाया है, तीन िदन तक उसके आँसू नही थमे, आँखे नही झपकी, तीन िदन तक इसने दाने की सूरत नही देखी मगर मेरे एक जरा-से इनकार ने , झूठे नकली इनकार ने , चमतकार कर िदखाया। कैसा कोमल हृदय है! गुलाब की पंखुडी की तरह, जो मुरझा जाती है मगर मैली नही होती। कहॉँ मेरा ओछापन, खुदगजी और कहॉँ यह बेखुदी, यह तयागा, यह साहस। दयाशंकर के सीने से िलपटी हईु िगिरजा उस वकत अपने पबल आकषरण से अनके िदल को खीचे लेती थी। उसने जीती हुई बाजी हारकर आज अपने पित के िदल पर कबजा पा िलया। इतनी जबदरसत जीत उसे कभी न हुई थी। आज दयाशंकर को मुहबबत और भोलेपन की इस मूरत पर िजतना गवर था उसका अनुमान लगाना किठन है। जरा देर मे वह उठ खडे हुए और बोले-एक शतर पर चलूँगा।
िगिरजा-कया? दयाशंकर-अब कभी मत रठना। िगिरजा-यह तो टेढी शतर है मगर...मंजूर है। दो-तीन कदम चलने के बाद िगिरजा ने उनका हाथ पकड िलया और बोली-तुमहे भी मेरी एक शतर माननी पडेगी। दयाशंकर-मै समझ गया। तुमसे सच कहता हँू, अब ऐसा न होगा। दयाशंकर ने आज िगिरजा को भी अपने साथ िखलाया। वह बहुत लजायी, बहुत हीले िकये, कोई सुनेगा तो कया कहेगा, यह तुमहे कया हो गया है। मगर दयाशंकर ने एक न मानी और कई कौर िगिरजा को अपने हाथ से िखलाये और हर बार अपनी मुहबबत का बेददी के साथ मुआवजा िलया। खाते-खाते उनहोने हँसकर िगिरजा से कहा-मुझे न मालूम था िक तुमहे मनाना इतना आसान है। िगिरजा ने नीची िनगाहो से देखा और मुसकरायी, मगर मुँह से कुछ न बोली। --उदरू ‘पेम पचीसी’