Mehakate Phool

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  • Words: 13,654
  • Pages: 30
अनुकररम संसार में कई पररकार के समरबनरध होते हैं। उनमें कुछ समरबंध लौिकक होते हैं तो कुछ पारलौिकक, कुछ भौितक होते हैं तो कुछ आधरयाितरमक। उनमें सबसे ििलकरषण, पिितरर और सिोररपिर समरबंध है गुरु-ििषय समबनध, करयोंिक अनरय सभी समरबनरध मनुषरय को सिियों से िुःख िेनेिाले संसार-बंधन से मुकरत करने में अकरषम हैं। एकमातरर गुरुििषय समबध ं ही उसे संसार-बंधन से मुकरत कर सकता है। सर ि िामी ििानंिसरसरिती अपनी पुसरतक'गुरुभिकरतयोग में कहते हैं- "गुरु-ििषय का समबध ं पिितरर एिं जीिनपयररनरत का है।" अथारर ि तर जब तक िषरय मुकरत नहीं हो जाता, नये-नये िरीर धारण कर जीिन जीता रहता है, तब तक गुरु उसका हाथ थामकर उसे मुिकरतमागरर पर आगे बढ़ाते रहते हैं, बिि तेरर िषरय उनका हाथ थामे रहे, उनरहें अपना जीिन गढ़ने में सहयोग िे। ेमधुस ं त ििषयोक ऐसे सदगुरओं एव स -परर रजीवन ंगों का रसासरिािन कर हम गुरुभिकरत के अमृत से अपने हृिय को पिरतृपरत एिं जीिन को रसमय बना सकें, यही िुभ भािना मन में सँजोये इस सिितरर रंगीन पुसरतक का संकलन िकया गया है। इसमें ििये गये घिित पररसंग इस पिितररतम समरबंध के ििििध पहलुओं पर पररका डालते हैं। आ ा है आप इसका लाभ उठाकर अपने जीिन को मधुमय, आनंिमय, सुख-िाितमय बनायेगे और दस ू रो को भी इसका लाभ उठाने हेतु पररेिरत करने का िैिी कायरर करेंगे। , , , ।

भगिान िररीकृषरण और सुिामा का गुर-ु पररेम। भगिान िररीराम की गुरुसेिा। छतरर ि पित ििाजीमहाराज की अनूठी गुर-सेिा। ु बाबा फरीि की गुरुभिकरत। रामू का गुरु-समपररण। िमलारेपा की आजरञाकािरता। संत गोंििलेकर महाराज की गुरुिनषरठा। संत िररी आसारामजी बापू का मधुर संसरमरण। सरिामी िििेकानंि जी की गुरुभिकरत। भाई लहणा का अिडग िि िर िास। संत एकनाथ जी की अननरय गुरुिनषरठा। अमीर खुसरो की गुरुभिकरत। आनंि की अिूि िररिरधा। एकलिरय की गुरु-ििकरषणा। नाग महािय का अिभुत गुर-ु पररेम। आरूिण का गुरुसेिा। उपमनरयु की गुरुभिकरत। गुिररषरिकमर। सत ि ि षरयकोसीख। भागित में गुर-ु मिहमा।

कंस िध के बाि भगिान िररीकृषरण तथा बलराम गुरुकुल में िनिास करने की इिरछा से का िर यपगोतररसानर ी िीपिन मुिन के पास गये , जो िेषरिाओंको सिररथािनयितरर ं तरखेहुए थे। गुरज ु ी तो उनरहें अतरयंत सरनेह करते ही थे, भगिान िररीकृषरण और बलराम भी गुरि ु ेि की उतरतम सेिा कैसे करनी िािहए, इसका आिररि लोगों के सामने रखते हुए बड़ी भिकरतपूिररक, इषरििेि के समान उनकी सेिा करने लगे। गुरुिर सानरिीपिन उनकी िुदभाव से युकत सेवा से बहत ु पसन हएु। उनरहोंने िोनों भाइयों को छहों अंगों र उपिनषिों सिहत समर ि पूणरर िेिों की िकरषा िी। इनके अितिरकरत मंतरर और िेिताओं के जरञान के साथ धनुिेररि, मनुसरमृित आिि धमररिासरतरर, मीमांसा आिि िेिों का तातरपयरर बतलाने िाले िासरतरर, तकररिििरया (नरयायिासरतरर) ि आिि की भी िकरषा िी। साथ ही सिनरध, ििगररह, यान, आसन, िरिैध (िुरंगी नीित) और आिररय – इन छः भेिों से युकरत राजनीित का भी अधरययन कराया। भगिान िररीकृषरण और बलराम सारी िििरयाओं के पररितररक (आरमरभ करने िाले) हैं। उस समय िे केिल िररेषरठ मनुषरय का-सा िरयिहार करते हुए अधरययन कर रहे थे। उनरहोंने गुरुजी िरिारा सभी िििरयाएँ

केिल एक बार िसखाने मातरर से ही सीख लीं। केिल िौंसठ ििन-रात में ही ि संयम ि र ो म ि ण ि ो न ोंभाइयोंनेिौंसठोंकलाओंकाजरञा 'शीमदभागवत' के िसिें सरकनरध के 80 िें अधरयाय में अपने सहपाठी सुिामा से गुरुमिहमा का िणररन करते हुए भगिान ररीकृषरण कहते हैं-"बरर ि ाहरमण िरोमणे! करया आपको उस समय की बात याि है, जब हम िोनों एक साथ गुरुकुल मेंिनिास करते थे। सिमुि , गुरुकुल में ही ििरिजाितयों को अपने जरञातिरय िसरतु का जरञान होता है, िजसकेिरिारा अजरञानानधकार र सेपार हो जाते हैं। िमतरर ! इस संसार में िरीर का कारण जनरमिाता िपता, पररथम गुरु है। इसके बाि उपनयन संसरकार करके सतरकमोररं की िकरषा िेने िाला िूसरा गुरु है, िह मेरे ही समान पूजरय है। तिननरतर जरञानोपिेि िेकर परमातरमा को पररापरत करानेिाला गुरु तो मेरा सरिरूप ही है। िणाररिररिमयों में जो लोग अपने गुरुिेि के उपिेिानुसार अनायास ही भिसागर पार कर लेते हैं, िे अपने सरिाथरर और परमाथरर के सिरिे जानकार हैं। अनुकररम िपररय िमतरर ! मैं सबका आतरमा हूँ, सबके हृिय में अनरतयाररमीरूप से ििराजमान हूँ। मैं गृहसरथ के धमरर पंिमहायजरञ आिि से, बररहरमिारी के धमरर उपनयन-िेिाधरययन आिि से, िानपररसरथी के धमरर तपसरया से और सब ओर से उपरत हो जाना – इस संनरयासी के धमरर से भी उतना संतुषरि नहीं होता, िजतना गुरि ु ेिकी सेिा-िुशूषा से सतुष होता हँ। ू बररहरमनर ! िजस समय हम लोग गुरुकुल मेंिनिास कर रहेथेउस समय की िह बात आपको याि हैकरया, जब एक ििन हम िोनों के हमारी गुरुमाता ने ईंधन (लकिड़याँ) लाने के िलए जंगल में भेजा था। उस समय हम लोग एक घोर जंगल मे गये थे और िबना ऋतु के ही बड़ा भयंकर आँधीपानी आ गया था। आकाि में िबजली कड़कने लगी थी। जब सूयाररसरत हो गया , तब िारों ओर अँधेरा-ही-अँधेरा फैल गया था। धरती पर इस पररकार पानी-ही-पानी हो गया िक कहाँ गडरडा है, कहाँ िकनारा, इसका पता ही नहीं िलता था ! िह िषारर करया थी, एक छोिा-मोिा पररलय ही था। आँधी के झिकों और िषारर की बौछारों से हम लोगों को बड़ी पीड़ा हुई , िििा का जरञान न रहा। हम लोग अतरयनरत आतुर हो गये और एक िूसरे का हाथ पकड़कर जंगल में इधर उधर भिकते रहे। सूयोररिय होते ही हमारे गुरुिेि सानरिीपिन मुिन हम लोगों को ढूँढते हुए जंगल में पहुँिे और उनरहोंने िेखा िक हम अतरयनरत आतुर हो रहे हैं। िे कहने लगेः "आ िर ियरर है, आ िर ियरर है! पुतररो ! तुम लोगों ने हमारे िलए अतरयनरत कषरि उठाया। सभी पररािणयों को अपना िरीर सबसे अिधक िपररय होता है, परनरतु तुम िोनों उसकी भी परिाह िकए िबना हमारी सेिा में ही संलगरन रहे। गुरु के ऋण से मुकरत होने के िलए सत ि ष र यों का इतना ही कतररिरय है िक िे िि िु -िरभाि ध से अपना सब कुछ और िरीर भी गुरुिेि की सेिा में समिपररत कर िें। ििरिज-ििरोमिियो ! मैं तुम िोनों से अतरयनरत पररसनरन हूँ। तुमरहारे सारे मनोरथ, सारी अिभलाषाएँ पूणरर हों और तुम लोगों ने मुझसे जो िेिाधरययन िकया है, िह तुमरहें सिररिा कणरठसरथ रहे तथा इस लोक और पर लोक में कहीं भी िनषरफल न हो।' िपररय िमतरर ! िजस समय हम लोग गुरुकुल मेंिनिास कर रहेथे, हमारे जीिन में ऐसी अनेकों घिनाएँ घिित हुई थीं। इसमें सनरिेह नहीं िक गुरुिेि की कृपा से ही मनुषरय ांित का अिधकारी होता है और पूणररता को पररापरत करता है।" भगिान ि ििजीने भी कहा हैः धनरया माता िपता धनरयो गोतररं धनरयं कुलोिर भिः। धनरया ि िसुधा िेिि यतरर सरयािर गुरुभकरतता।। 'िजसकेअंिरगुरभ ु िकरतहो उसकी माता धनरय है, उसका िपता धनरय है, उसका िंि धनरय है, उसके िंि में जनरम लेनेिाले धनरय हैं, समगरर धरती माता धनरय है।' अनुकररम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

मयाररिापुरुषोतरतम भगिान ररीराम अपने िकरषागुरु िि र िािमतरर क जी े पास बहुत संयम, ििनय और िििेक से रहते थे। गुरु की सेिा में िे सिैि ततरपर रहते थे। उनकी सेिा के ििषय में भकरत किि तुलसीिासजी ने िलखा हैः । ।। । ।। । ।। (

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225.2.3)

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226)

सीता सरियंिर में जब सब राजा एक-एक करके धनुष उठाने का पररयतरन कर रहे थे, तब िररीराम संयम से बैठे ही रहे। जब गुरु िि िर िािमतररकी आजरञा हुई तभी िे खड़े हुए और उनरहें पररणाम करके धनुष उठाया। । ।। (

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253.4)

।। (

शी सदगुरदेव के आदर और सतकार मे शीराम िकतन ि

,



260.3)

व व े क ी औ रसचेत थे इसकाउदाह िमलता है, जब उनको राजयो र िित े ििकि देन क े ि ल एउनकेगुर विसषजी महाराज महल में आते हैं। सिगुरु के आगमन का समािार िमलते ही िररीराम सीता जी सिहत िरिाजे पर आकर गुरुिेि का समरमान करते हैं- अनुकररम । ।। । ।।



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8.1.2)

इसके उपरांत िररीरामजी भिकरतभािपूिररक कहते हैं- "नाथ ! आप भले पधारे। आपके आगमन से घर पिितरर हुआ। परंतु होना तो यह िािहए था िक आप समािार भेज िेते तो यह िास सरियं सेिा में उपिसरथत हो जाता।" इस पररकार ऐसी ििनमरर भिकरत से िररीराम अपने गुरुिेि को संतुषरि रखते थे। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

"भाई ! तुझे नहीं लगता िक गुरुिेि हम सबसे जरयािा ििवाजी को चाहते है ? ििवाजी के कारण हमारे पररित उनका यह पकरषपात मेरे अंतर में िूल की नाई चुभ रहा है।" समथरर रामिास सरिामी का एक ििषय दस ू रे ििषय से इस तरह की

गुफरतगू कर रहा था। "हाँ, बंधु ! तेरी बात ित-पररितिि त सही है। ििाजीराजा है, छतररपित हैं इसीिलए समथरर हम सबसे जरयािा उन पर पररेम बरसाते हैं। इसमें हमको कुछ गलत नहीं लगना िािहए।" ििषय तो इस तरह की बाते करके अपने -अपने काम में लग गये, लेिकन इन िोनों का यह िाताररलाप अनायास ही समथरर रामिास सरिामी के कानों में पड़ गया था। समथरर ने सोिा िक 'उपिेि से काम नहीं िलेगा, इनको पररयोगसिहत समझाना पड़ेगा।' एक ििन समथरर ने लीला की। िे िषरयों को साथ लेकर जंगल में घूमने गये। िलते-िलते समथरर पूिररिनयोजन के अनुसार राह भूलकर घोर जंगल में इधर-उधर भिकने लगे। सब जंगल से बाहर िनकलने का रासरता ढूँढ रहे थे, तभी अिानक समथरर को उिर-िूल उठा। पीड़ा असहरय होने से उनरहोंने िषरयों को आस-पास में कोई आिररय-सरथान ढूँढने को कहा। ि ढूँढने पर थोड़ी िूरी पर एक गुफा िमला गयी। िषरयों के कनरधों के सहारे िलते हुए िकसी तरह समथरर उस गुफा तक पहुँि गये। गुफा में पररिे करते ही िे जमीन पर लेि गये एिं पीड़ा से कराहने लगे। िषरय उनकी पीड़ा िमिाने का उपाय खोजने की उलझन में े खोयी-सी िसरथित में उनकी सेिा-िुशूषा करन ल ग े । स भ ी न िेम लकर गुरदेव से इस पी पूछा। अनुकररम समथरर ने कहाः "इस रोग की एक ही औषिध है – बाघनी का िूध ! लेिकन उसे लाना माने मौत को िनमंतररण िेना !" अब उिर िूल िमिाने के िलए बाघनी का िूध कहाँ से लायें और लाये कौन? सब एक िूसरे का मुँह ताकते हुए िसर पकड़कर बैठ गये। उसी समय ििाजी को अपने गुरुिेि के िररिन क रने की इिरछा हुई। आिररम पहुँिने पर उनरहें पता िला िक गुरुिेि तो िषरयों को साथ लेकर बहुत िेर से जंगल में गये हैं। गुरुिररिन के िलए ििाजी का तड़प तीिरर हो उठी। अंततः ििाजी ने समथरर के िररिन ह ोने तक िबना अनरन-जल केरहनेकािन िर िय िकया और उनकी तलाि मेंसैिनकों की एक िोली केसाथ जंगल की ओर िल पड़े। खोजते-खोजते िाम हो गयी िकंतु उनरहें समथरर के िररिन नहीं हुए। िेखते-हीिेखते अँधेरा छा गया। जंगली जानिरों की डरािनी आिाजें सुनायी पड़ने लगीं, िफर ि भी ििाजी' ! !!' ऐसा पुकारते हएु आगे बढते गये। अब तो सैिनक भी मन-ही-मन िखनर ि न हो गये परंतु ििाजीकी गुर-िमलन ु की िरयाकुलता के आगे िे कुछ भी कहने की िहमरमत नहीं कर सके। आिखर सैिनक भी पीछे रह गये परंतु ििा को इस बात की ििंता नहीं थी, उनरहें तो गुरि ु ररिन की तड़प थी। घोड़े पर सिार ििा में हाथ में मिाल ि ल ये आगे बढ़ते ही रहे। मधरयराितरर हो गयी। कृषरणपकरष की अँधेरी राितरर में जंगली जानिरों के िलने िफरने की आिाज सुनायी पड़ने लगी। इतने में ििाजी ने बाघ की िहाड़ सुनी। िे रुक गये। कुछ समय तक जंगल में िहाड़ की पररितधरििन गूँजती रही और िफर सनरनािा छा गया। इतने में एक करुण सरिर िन में गूँजाः 'अरे भगिान ! हे रामरायाऽऽऽ.... मुझे इस पीड़ा से बिाओ।' 'यह करया ! यह तो गुरु समथरर की िाणी है ! ििवाजी आवाज तो पहचान गये, परंतु सोि में पड़ गये िक 'समथरर जैसे महापुरुष ऐसा करुण कररंिन कैसे कर सकते हैं? िे तो िरीर के समरबनरध से पार पहुँिे हुए समथरर योगी हैं।' े े ििवाजी को संिय न घ े र ि ल य ा । इ त नम े ििरउसीधविनकापुन पता िला िक िे िजस पहाड़ी के नीिे हैं, ि उसी के िखर से यह करुण धरििन आ रही है। पहाड़ी पर िढ़ने के िलए कहीं से भी कोई रासरता न ििखा। ििाजी घोड़े से उतरे और अपनी तलिार से कँिीली झािड़यों को कािकर रासरता बनाते हुए आिखर गुफा तक पहुँि ही गये। ििाजी को अपनी आँखों पर िि ि र िास न हीं हुआ, जब उनरहोंनेसमथरर की पीड़ा सेकराहतेऔर लोि पोि होते िेखा। ििा की आँखें आँसुओं से छलक उठीं। िे मिाल क ो एक तरफ रखकर समथरर के िरणों में िगर पड़े। समथरर के रीर को सहलाते हुए ििाजीने पूछाः"गुरुिेि !

आपको यह कैसी पीड़ा हो रही है? आप इस घने जंगल में कैसे? गुरुिेि ! कृपा करके बताइये।" समथरर कराहते हुए बोलेः "ििवा ! तू आ गया? मेरे पेि में जैसे िूल िुभ रहे हों ऐसी असह वेदना हो रही है रे ..." अनुकररम "गुरुिेि ! आपको तो धनरिंतिर महाराज भी हाजरा-हजूर हैं। अतः आप इस उिर िूल की औषिध तो जानते ही होंगे। मुझे औषिध का नाम किहये। ििा आका -पाताल एक करके भी िह औषिध ले आयेगा।" "ििवा ! यह तो असाधरय रोग है। इसकी कोई औषिध नहीं है। हाँ, एक औषिध से राहत जरूर िमल सकती हैलेिकन जानेिे। इस बीमारी का एक ही इलाज हैऔर िह भी अित िुलररभहै। मैंउस ििा केिलएही यहाँ आया था, लेिकन अब तो िला भी नहीं जाता.... ििरर बढ़ता ही जा रहा है..." ििवा को अपने -आपसे गरलािन होने लगी िक 'गुरुिेि लमरबे समय से ऐसी पीड़ा सहन कर रहे हैं और मैं राजमहल में बैठा था। िधकरकार है मुझे ! िधकरकार है !!' ि अब ििा से रहा न गया। उनरहोंने िृढ़तापूिररक कहाः "नहीं गुरि ु ेि ! ििवा आपकी यातना नही देख सकता। आपको सरिसरथ िकये िबना मेरी अंतरातरमा ांित से नहीं बैठेगी। मन में जरा भी संकोि रखे िबना मुझे इस रोग की औषिध के बारे में बतायें। गुरि ु ेि ! मैं लेकर आता हूँ िह ििा।" समथरर ने कहाः "ििवा ! इस रोग की एक ही औषिध है – बाघनी का िूध ! लेिकन उसे लाना माने मौत का िनमंतररण िेना है। ििा! हम तो ठहरे अरणरयिासी। आज यहाँ कल िहाँ होंगे, कुछ पता नहीं। परंतु तुम तो राजा हो। लाख गये तो िलेगा, परंतु लाखों का रकरषक िजनरिा रहना िािहए।" "गुरुिेि ! िजनकी कृपािृिषरिमातररसेहजारों ििातैयार हो सकतेहैं, ऐसे समथत सदगुर की सेवा मे एक ििवा की कुबाररनी हो भी जाये तो कोई बात नहीं। मुगलों के साथ लड़ते-लड़ते मौत के साथ सिैि जूझता आया हूँ, गुरुसेिा करते-करते मौत आ जायेगी तो मृतरयु भी महोतरसि बन जायेगी। गुरुिेिआपनेही तो िसखाया हैिक आतरमा कभी मरती नहीं और न रिरिेहको एकििन जला ही िेना है। सी िेह का मोह कैसा? गुरुिेि ! मैं अभी बाघनी का िूध लेकर आता हूँ।" अनुकररम 'करया होगा? कैसे िमलेगा?' अथिा 'ला सकूँगा या नहीं?' – ऐसा सोचे िबना ििवाजी गुर को पररणाम करके पास में पड़ा हुआ कमंडलु लेकर िल पड़े। सत ि ष र यकीकसौिीकरन िलए पररकृित ने भी मानों, कमर कसी और आँधी-तुफान के साथ जोरिार बािर ु रु हुई। बरसते पानी में ििाजी िृढ़ िि ि र िास क े साथ िल पड़े बाघनी को ढूँढने। लेिकन करया यह इतना आसान था? मौत के पंजे में पररिेि कर िहाँ से िापस आना कैसे संभि हो सकता है? परंतु ि ििाजी को तो गुरुसेिा की धुन लगी थी। उनरहें इन सब बातों से करया लेनािेना? ि पररितकूल संयोगों का सामना करते हुए नरिीर ििाजी आगे बढ़ रहे थे। जंगल में बहु िित िूर जाने पर ििा को अँधेरे में िमकती हुई िार आँखें ििखीं। ििा उनकी ओर आगे बढ़ने लगे। उनको अपना लकरषरय ििख गया। िे समझ गये िक ये बाघनी के बिरिे हैं, अतः बाघनी भी कहीं पास में ही होगी। । ! ? । े े े ििवाजी ककदमो की आवाज सुनकर बाघनी कबचचो न स म झ ािकउनकीमाहै ,ि परंतु ििाजी को अपने बिरिों के पास िुपके-िुपके जाते िेखकर पास में बैठी बाघनी कररोिधत हो उठी। उसने े ं ु कुिल योदा ििवाजी न अ ं े से बचािलया।ििर ििवाजी पर छलाग लगायी परत प नक े ो ब ा घ न ीकेपज पर बाघनी के िाँत अपना िनिान छोड़ िुके थे। पिरिसरथितयाँ ििपरीत थीं। बाघनी कररोध से जल रही थी। उसका रोम-ि रोम ििा के रकरत का परयासा बना हुआ था, परंतु ििा का िन रि िय अिल था। िे अब भी हार मानने को तैयार नहीं थे, करयोंिक समथरर सिगुरु के सत िषरय जो ठहरे ! े गे 'िक ििवाजी बाघनी से पाथतना करन ल ! । ।

। ! । । ' प िि ु भी पररेम की भाषा समझते हैं। ििाजी की परराथररना से एक महान आ िि र ियरर घिित हुआ – ििाजी के रकरत की परयासी बाघनी उनके आगे गौमाता बन गयी ! े ा ििवाजी न ब घ न ी क े ि र ी र प र प े म पूवतकहाथिेराऔरअवसरपाक परराथररना का िकतना पररभाि ! ि िूध लेकर ििागुफा में आये। समथरर ने कहाः "आिखर तू बाघनी का िूध भी ले आया, ििवा ! ि िजसका िषरय गुरस ु ेिा मेंअपने जीिन की बाजी लगा िे, परराणों को हथेली पर रखकर मौत से जूझे, उसके गुरु को उिर-िूल कैसे रह सकता है? मेरा उिर-िूल तो जब तू बाघनी का दध ांत हो गया था। ििातू ू लेन गेया, तभी अपने-आप िि धनरय है ! धनरय है तेरी गुरुभिकरत ! ि तेरे जैसा एकिनषरठ िषरय पाकर मैं गौरि का अनुभि े ि व ा े प करता हूँ।" ऐसा कहकर समथत न ि ज ी क ि त ईषया रखनवेाले उन द िेखा। 'गु ि रुिेि ििाजी को अिधक करयों िाहते हैं?' – इसका रहसरय उनको समझ में आ गया। उनको इस बात की पररतीित कराने के िलए ही गुरुिेि ने उिर-िूल की लीला की थी, इसका उनरहें जरञानहो गया। ! सिगुरु और सत ि

ि



! .... धनरय है भारतमाता ! जहाँऐसे

र यपायेजातेहैं। अनुकररम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

पािकसरतान में बाबा फरीि नाम के एक फकीर हो गये। िे अननरय गुरुभकरत थे। गुरुजी की सेिा में ही उनका सारा समय िरयतीत होता था। एक बार उनके गुरु खरिाजा बहाउिरिीन ने उनको िकसी खास काम के िलए मुलतान भेजा। उन ििनों िहाँ मरसतबरेज के िषरयों ने गुरु के नाम का िरिाजा बनाया था और घोषणा की थी िक आज इस िरिाजे से जो गुजरेगा िह जरूर सरिगररमेंजायेगा। हजारों फकीरों नेिरिाजेसेगुजर रहेथे। न िरिरिरीर केतरयाग केबाि सरिगररमेंसरथानिमलेगा े र े ,ेिलएखू ऐसी सबको आिा थी। िरीद को भी उनकेिमत िकीरो न द व ा ज ेसेगुजरनक परंतुबसमझाया फरीि तो उनको जैसे-तैसे समझा-पिाकर अपना काम पूरा करके, िबना िरिाजे से गुजरे ही अपने गुरुिेि के िरणों में पहुँि गये। सिाररनरतयाररमी गुरुिेि ने उनसे मुलतान के समािार पूछे और कोई िििेष घिना हो तो बताने के िलए कहा। फरीि ने िाह िमरसतबरेज के िरिाजे का िणररन करके सारी हकीकत सुना िी। गुरुिेि बोलेः "मैं भी िहीं होता तो उस पिितरर िरिाजे से गुजरता। तुम िकतने भागरय ाली हो फरीि िक तुमको उस पिितरर िरिाजे से गुजरने का सुअिसर पररापरत हुआ !" सिगुरु की लीला बड़ी अजीबो गरीब होती है। िषर य को पता भी नहीं िलता और िे उसकी कसौिी कर लेते हैं। फरीि तो सत ि षरय थे। उनको अपने गुरुिेि के पररित अननरय भिकरत थी। गुरुिेि के बरि सुनकर बोलेः "कृपानाथ ! मैं तो उस िरिाजे से नहीं गुजरा। मैं तो केिल आपके िरिाजे से ही गुजरूँगा। एक बार मैंने आपकी िरण ले ली है तो अब िकसी और की िरण मुझे नहीं जाना है।" यह सुनकर खरिाजा बहाउिरिीन की आँखों में पररेम उमड़ आया। ििषय की दढ ृ शदा और अननय िरिागित िेखकर उसे उनरहोंने छाती से लगा िलया। उनके हृिय की गहराई से आिीिाररि के िबरि िनकल पड़ेः "फरीि ! िमसतबरेज का दरवाजा तो केवल एक ही ििन खुला था, परंतु तुमरहारा

िरिाजा तो ऐसा खुलेगा िक उसमें से जो हर गुरुिार को गुजरेगा िह सीधा सरिगरर में जायेगा।" अनुकररम आज ि भी प ि र ि म ी प ा ि क स र तान के पाक प िरिाजे में से हर गुरि ु ार के गुजरकर हजारों यातररी अपने को धनरयभागी मानते हैं। यह है गुरुिेि के पररित अननरय िनषरठा की मिहमा ! धनरयिाि है बाबा फरीि जैसे सत िषर,योंको िजनरहोंनेसिगुरु केहाथों मेंअपनेजीिन की बागडोर हमे ा केिलए सौंप िी औरिन ि र ि ंतहोगये।आतरमसाकरषातक ततरतरिबोध तब तक संभि नहीं, जब तक बररहमरिेतरता महापुरष ु साधक केअनरतःकरण का संिालन नहीं करते। आतरमिेतरता महापुरुष जब हमारे अनरतःकरण का संिालन करते हैं, तभी अनरतःकरण परमातरम-ततरतरि में िसरथत हो सकता है, नहीं तो िकसी अिसरथा में, िकसी मानरयता में, िकसी िृितरत में, िकसी आित में साधक रुक जाता है। रोज आसन िकये, परराणायाम िकये, िरीर सवसथ रहा, सुख-िुःख के पररसंग में िोिें कम लगीं, घर में आसिकरत कम हुई, पर िरयिकरततरि बना रहेगा। उससे आगे जाना है तो महापुरुषों के आगे िबलरकुल 'मर जाना' पड़ेगा। बररहरमिेतरता सिगुरु के हाथों में जब हमारे 'मैं' की लगाम आती है, तब आगे की यातररा आती है। । ।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

संत परम िहतकारी होते हैं। िे जो कुछ कहें, उसका पालन करने के िलए डि जाना िािहए। इसी में हमारा कलरयाण िनिहत है। महापुरुष "हे रामजी ! ितररभुिन में ऐसा कौन है जो संत की आजरञा का उलरलंघन करके सुखी रह सके?" शी गुरगीता में भगिान िंकर कहते हैं-



।। 'गुरुओं की बात सिरिी हो या झूठी परंतु उसका उलरलंघन कभी नहीं करना िािहए। रात और ििन गुरुिेि की आजरञा का पालन करते हुए उनके सािनरनधरय में िास बनकर रहना िािहए।' गुरुिेि की कही हुई बात िाहे झूठी ििखती हो िफर भी िषरय को संिेह नहीं करना िािहए, कूि पड़ना िािहए उनकी आजरञा का पालन करने के िलए। सौराषरिरर (गुज.) में रामू नाम ि के महान गुरुभकरत िषरय हो गये। लालजी महाराज(सौराषरिरर के एक संत) के नाम उनका पतरर आता रहता था। लालजी महाराज ने ही रामू के जीिन की यह घिना बतायी थीएक बार रामू के गुरु ने कहाः "रामू ! घोड़ागाड़ी ले आ। भगत के घर भोजन करने जाना है।" अनुकररम

रामू घोड़ागाड़ी ले आया। गुरु नाराज होकर बोलेः "अभी सुबह के सात बजे हैं, भोजन तो 11-12 बजे होगा। बेिकूफ कहीं का, 12 बजे भोजन करने जाना है और गाड़ी अभी ले आया? बेिारा ताँगेिाला तब तक बैठा रहेगा?" रामू गया, ताँगेिाले को छुिरिी िेकर आ गया। गुरु ने पूछाः "करया िकया?" "ताँगा िापस कर ििया।" हाथ जोड़कर रामू बोला। गुरुजीः "जब जाना ही था तो िापस करयोंिकया? जा लेआ।" रामू गया और ताँगेिाले को बुला लाया। "गुरुजी ! ताँगा आ गया।" गुरुजीः "अरे ! ताँगा ले आया? हमें जाना तो बारह बजे है न? पहले इतना समझाया अभी तक नहीं समझा? भगिान को करया समझेगा? ताँगे की छोिी-सी बात को नहीं समझता, राम को करया समझेगा?" ताँगा िापस कर ििया गया। रामू आया तो गुरु गरज उठे। "िापस कर ििया? िफर समय पर िमले-न-िमले, करया पता? जा, ले आ।" नौ बार ताँगा गया और िापस आया। रामू यह नहीं कहता िक गुरु महाराज ! आपने ही तो कहा ि था। िह सतरपातरर िषरय जरा-भी ििढ़ता नहीं। गुरुजी तो ििढ़ने का िरयििसरथत संयोग खड़ा कर रहे थे। रामू को गुरुजी के सामने ििढ़ना तो आता ही नहीं था, कुछ भी हो, गुरुजी के आगे िह मुँह िबगाड़ता ही नहीं था। िसिीं बार ताँगा सरिीकृत हो गया। तब तक बारह बज गये थे। रामू और गुरुजी भकरत के घर गये। भोजन िकया। भकरत था कुछ साधन समरपनरन। िििाई के समय उसने गुरुजी के िरणों में िसरतररािि रखे और साथ में, रूमाल में सौ-सौ के िस नोि भी रख ििये और हाथ जोड़कर ििनमररता से परराथररना कीः "गुरुजी ! कृपा करें, इतना सरिीकार कर लें। इनकार न करें।" िफर िे ताँगे में बैठकर िापस आने लगे। रासरते में गुरुजी ताँगिाले से बातिीत करने लगे। ताँगेिाले ने कहाः "गुरुजी ! हजार रुपये में यह घोड़ागाडी बनी है, तीन सौ का घोड़ा लाया हूँ और सात सौ की गाड़ी। परंतु गुजारा नहीं होता। धनरधा िलता नहीं, बहुत ताँगेिाले हो गये हैं।" "गुरुजीः "हजार रुपये में यह घोड़ागाड़ी बनी है तो हजार रुपये में बेिकर और कोई काम कर।" ताँगेिालाः "गुरुजी ! अब इसका हजार रुपया कौन िेगा? गाड़ी नयी थी तब कोई हजार िे भी िेता, परंतु अब थोड़ी-बहुत िली है। हजार कहाँ िमलेंगे?" गुरुजी ने उसे सौ-सौ के िस नोि पकड़ा ििये और बोलेः "जा बेिा ! और िकसी अिरछे धनरधे में लग जा। रामू ! तू िला ताँगा।" अनुकररम रामू यह नहीं कहता िक 'गुरुजी मुझे नहीं आता। मैंने ताँगा कभी नहीं िलाया'। गुरुजी कहते हैं तो बैठ गया कोििान होकर। रासरते में एक िििाल िििृकरष आया। गुरुजी ने उसके पास ताँगा रुकिा ििया। उस समय पकरकी सड़कें नहीं थीं, िेहाती िातािरण था। गुरुजी सीधे आ ररम में जानेिाले नहीं थे। सिरता के िकनारे िहलकर िफर ाम को जाना था। ताँगा रख ििया िििृकरष की छाया में। गुरज ु ी सो गये। सोये थे तब छाया थी, समय बीता तो ताँगे पर धूप आ गयी। घोड़ा जोतने के डणरडे थोड़े तप गये थे। गुरुजी उठे, डणरडे को छूकर िेखा तो बोलेः "अरे, रामू ! इस बेिारी गाड़ी को बुखार आ गया है। गमरर हो गयी है। जा पानी ले आ।" रामू ने पानी लाकर गाड़ी पर छाँि ििया। गुरुजी ने िफर गाड़ी की नाड़ी िेखी और रामू से पूछाः रामूः "हाँ।" गुरुजीः "तो यह गाड़ी मर गयी.... ठणरडी हो गयी है िबलरकुल।" रामूः "जी, गुरुजी !" गुरुजीः "मरे हुए आिमी का करया करते हैं?"

रामूः "जलाििया जाता है।" गुरुजीः "तो इसको भी जला िो। इसकी अंितम िकररया कर िो।" गाड़ी जला िी गयी। रामू घोड़ा ले आया। "अब घोड़े का करया करेंगे?" रामू ने पूछा। गुरुजीः "घोड़े को बेि िे और उन पैसों से गाड़ी का बारहिाँ करके पैसे खतरम कर िे।" घोड़ा बेिकर गाड़ी का िकररया-कमरर करिाया, िपणरडिान ििया और बारह बरराहरमणों को भोजन कराया। मृतक आिमी के िलए जो कुछ िकया जाता है िह सब गाड़ी के िलए िकया गया। गुरुजी िेखते हैं िक रामू के िेहरे पर अभी तक फिरयाि का कोई ििहरन नहीं ! अपनी अकरल का कोई पररिररिन नहीं ! रामू की अिभुत िररिरधा-भिकरत िेखकर बोलेः "अिरछा, अब पैिल जा और भगिान का ी िि र िनाथके िरर न पैिल करके आ। " कहाँ सौराषरिरर (गुज.) और कहाँ कािी िि िर िनाथ (उ.परर.) ! रामू गया पैिल। भगिान कािी िि िर िनाथ के िररिन पैिल करके लौि आया। गुरुजी ने पूछाः "कािी िि िर िनाथ के िररिन िकये ?" रामूः "हाँ गुरुजी।" गुरुजीः "गंगाजी में पानी िकतना था?" रामूः "मेरे गुरुिेि की आजरञा थीः 'कािी िि िर िनाथके िररिन करके आ ' तो िररिन करके आ गया।" गुरुजीः "अरे ! िफर गंगा-िकनारे नहीं गया? और िहाँ मठ-मंििर िकतने थे?" अनुकररम रामूः "मैंने तो एक ही मठ िेखा है – मेरे गुरुिेि का।" गुरुजी का हृिय उमड़ पड़ा। रामू पर ई र िरीयकृपा का पररपात बरस पड़ा। गुरुजी ने रामू को छाती से लगा िलयाः "िल आ जा.... तू मैं है.... मैं तू हूँ.... अब अहं कहाँ रहेगा !" , । ।। रामू का काम बन गया, परम कलरयाण उसी करषण हो गया। रामू अपने आननरिसरिरूप आतरमा में जग गया, उसे आतरमसाकरषातरकार हो गया.... ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ितबरबत में करीब 850 िषरर पहले एक बालक का जनरम हुआ। उसका नाम रखा गया िमलारेपा। जब िह सात िषरर का था, तब उसके िपता का िेहांत हो गया। िािा और बुआ ने उनकी सारी िमिलरकयत हड़प ली। अपनी छोिी बहन और माता सिहत िमलारेपा को खूब िुःख सहने पड़े। अपनी िमिलरकयत पुनः पाने के िलए उसकी माता ने कई पररयतरन िकये लेिकन िािा और बुआ ने उसके सारे पररयतरन िनषरफल कर ििये। िह ितलिमला उठी। उसके मन से िकसी भी तरह से इस बात का रंज नहीं जा रहा था। एक ििन की बात है। तब िमलारेपा की उमरर करीब 15 िषरर थी। िह कोई गीत गुनगुनाते हुए घर लौिा। गाने की आिाज सुनकर उसकी माँ एक हाथ में लाठी और िूसरे हाथ में राख

लेकर बाहर आयी और िमलारेपा के मुँह पर राख फेंककर लाठी से उसे बुरी तरह पीिते हुए बोलीः "कैसा कुपुतरर जनरमा है तू ! अपने बाप का नाम लजा ििया।" उसे पीिते-पीिते माँ बेहोि हो गयी। होि आने पर उसे फिकारते हुए िमलारेपा से बोलीः "िधकरकार है तुझे ! िु िर मनों से िैर लेना भूलकर गाना सीखा ? सीखना हो तो कुछ ऐसा सीख, िजससेउनका िंि ही खतरम हो जाय।" अनुकररम बस... िमलारेपा के हृिय में िोि लग गयी। घर छोड़कर उसने तंतररिििरया िसखानेिाले गुरु को खोज िनकाला और पूरी िनषरठा एिं भाि से सेिा करके उनको पररसनरन िकया। उनसे िु िर मनों को खतरम करने एिं िहमिषारर करने की िििरया सीख ली। इनका पररयोग कर उसने अपने िािा और बुआ की खेती एिं उनके कुिुिमरबयों को नषरि कर डाला। िािा और बुआ को उसने िजंिा रखा, तािक िे तड़प-तड़पकर िुःख भोगते हुए मरें। यह िेखकर लोग िमलारेपा से खूब भयभीत हो गये। समय बीता। िमलारेपा के हृिय की आग थोड़ी िांत हुई। अब उसने बिला लेने की िृितरत पर प र िातापहोने लगा। से में उसकी एक लामा(ितबरबत के बौिरध आिायरर) के साथ भेंि हुई। उसने सलाह िीः "तुझे अगर िििरया ही सीखनी है तो एकमातरर योगिििरया ही सीख। भारत से यह योगिििरया सीखकर आय हुए एकमातरर गुरु हैं – मारपा।" योगिििरया जानने िाले गुरु के बारे में सुनते ही उसका मन उनके िरर न के िलए अधीर हो गया। िमलारेपा में लगन तो थी ही, साथ में िृढ़ता भी थी और तंतररिििरया सीखकर उसने गुरु के पररित िनषरठा भी सािबत कर ििखायी थी। एक बार हाथ में िलया हुआ काम पूरा करने में िह िृढ़ िन िर ियीथा। उसमें भरपूर आतरमिि िर िासथा। िह तो सीधा िल पड़ा मारपा को िमलने। रासरता पूछते-पूछते, िनराि हुए िबना िमलारेपा आगे-ही-आगे बढ़ता गया। रासरते में एक गाँि के पास खेत में उसने िकसी िकसान को िेखा, उसके पास जाकर मारपा के बारे में पूछा। िकसान ने कहाः "मेरे बिले में तू खेती कर तो मैं तुझे मारपा के पास ले जाऊँगा।" िमलारेपा उतरसाह से सहमत हो गया। थोड़े ििनों के बाि िकसान ने रहसरयोिघािन िकया िक िह खुि ही मारपा है। िमलारेपा ने गुरुिेि को भािपूिररक पररणाम िकया और अपनी आपबीती कह सुनायी। उसने सरियं के िरिारा हुए मानि-संहार की बात भी कही। बिले की भािना से िकये हुए पाप के बारे में बताकर प र िातापिकया। िमलारेपा की िनखािलस सरिीकारोिकरत स गुरु का मन पररसनरन हुआ, लेिकन उनरहोंने अपनी पररसनरनता को गुपरत ही रखा। अब िमलारेपा की परीकरषा िुरु हुई। गुरु के पररित, शदा, िनषरठा एिं िृढ़ता की कसौिियाँ पररारमरभ हुईं। गुरु मारपा िमलारेपा के साथ खूब कड़ा िरयिहार करते, जैसेउनमेंिया की एक बूँि भी न हो। लेिकन िमलारेपा अपनी गुरुिनषरठा में पकरका था। िह गुरु के बताये पररतरयेक कायरर को खूब ततरपरता एिं िनषरठा से करने लगा। कुछ महीने बीते, िफर भी गुरु ने िमलारेपा को कुछ जरञान नहीं ििया। िमलारेपा ने काफी नमररता से गुरुजी के समकरष जरञान के िलए परराथररना की। गुरुजी भड़क उठेः "मैं अपना सिररसरि िेकर भारत से यह योगिििरया सीखकर आया हूँ। यह तेरे जैसे िुषरि के िलए है करया? तूने जो पाप िकये हैं िे जला िे, तो मैं तुझे यह िििरया िसखाऊँ। जो खेती तूने नषरि की है िह उनको िापस िे िे, िजनको तूनेमारा डाला हैउन सबको जीिित कर ि...." े यह सुनकर िमलारेपा खूब रोया। िफर भी िह िहमरमत नहीं हारा, उसने गुरु की िरण नहीं छोड़ी। कुछ समय और बीता। मारपा ने एक ििन िमलारेपा से कहाः "मेरे पुतरर के िलए एक पूिररमुखी गोलाकार मकान बना िे, लेिकन याि रखना उसे बनाने में तुझे िकसी की मिि नहीं लेनी है। मकान में लगने िाली लकड़ी भी तुझे ही कािनी है, गढ़नी है और मकान में लगानी है।" अनुकररम िमलारेपा खुि हो गया िक 'िलो, गुरुजी की सेिा करने का मौका तो िमल रहा है न !' उसने बड़े उतरसाह से कायरर िुरु कर ििया। िह सरियं ही लकिड़याँ कािता और उनरहें तथा

पतरथरों को अपनी पीठ पर उठा-उठाकर लाता। िह सरियं ही िूर से पानी भरकर लाता। िकसी की भी मिि लेने की मनाई थी न! गुरु की आजरञा पालने में िह पकरका था। मकान का आधा काम तो हो गया। एक ििन गुरुजी मकान िेखने आये। िे गुसरसे में बोलेः "धतर तेरे की ! ऐसा मकान नहीं िलेगा। तोड़ डाल इसको और याि रखना, जो िीज जहाँसेलाया है, उसे िहीं रखना।" िमलारेपा ने िबना िकसी फिरयाि के गुरुजी की आजरञा का पालन िकया। फिरयाि का 'फ' तक मुँह में नहीं आने ििया। कायरर पूरा िकया। िफर गुरज ु ी ने िूसरी जगह बताते हुए कहाः "हाँ, ि यह जगह ठीक है। यहाँ प ि र ि म क ी ओरिर " िारिालाअधररिनरि िमलारेपा पुनः काम में लग गया। काफी मेहनत के बाि आधा मकान पूरा हुआ। तब गुरुजी िफर से फिकारते हुए बोलेः "कैसा भिरिा लगता है यह ! तोड़ डाल इसे और एक-एक पतरथर उसकी मूल जगह पर िापस रख आ।" िबलरकुल न ििढ़ते हुए उसने गुरु के बरि झेल िलये। िमलारेपा की गुरुभिकरत गजब की थी! थोड़े ििन बाि गुरुजी ने िफर से नयी जगह बताते हुए हुकरम िकयाः "यहाँ ितररकोणाकार मकान बना िे।" िमलारेपा ने पुनः काम िालू कर ििया। पतरथर उठाते-उठाते उसकी पीठ एिं कंधे िछल गये थे। िफर भी उसने अपनी पीड़ा के बारे में िकसी को भी नहीं बताया। ितररकोणाकार मकान बँधकर मकान बँधकर पूरा होने आया, तब गुरुजी ने िफर से नाराजगी िरयकरत करते हुए कहाः "यह ठीक नहीं लग रहा। इसे तोड़ डाल और सभी पतरथरों को उनकी मूल जगह पर रख िे।" इस िसरथित में भी िमलारेपा के िेहरे पर असंतोष की एक भी रेखा नहीं ििखी। गुरु के आिेििको पररसनरन िितरत से िरोधायरर कर उसने सभी पतरथरों को अपनी-अपनी जगह िरयििसरथत रख ििया। इस बार एक िेकरी पर जगह बताते हुए गुरु ने कहाः "यहाँ नौ खंभे िाला िौरस मकान बना िे।" गुरुजी ने तीन-तीन बार मकान बनिाकर तुड़िा डाले थे। िमलारेपा के हाथ एिं पीठ पर छाले पड़ गये थे। िरीर की रग-रग में पीड़ा हो रही थी। िफर भी िमलारेपा गुरु से फिरयाि नहीं करता िक 'गुरुजी ! आपकी आजरञा के मुतािबक ही तो मकान बनाता हूँ। िफर भी आप मकान पसंि नहीं करते, तुड़िा डालते हो और िफर से िूसरा बनाने को कहते हो। मेरा पिरिररम एिं समय िरयथरर जा रहा है।' अनुकररम िमलारेपा तो िफर से नये उतरसाह के साथ काम में लग गया। जब मकान आधा तैयार हो गया, तब मारपा ने िफर से कहाः "इसके पास में ही बारह खंभे िाला िूसरा मकान बनाओ।" कैसे भी करके बारह खंभे िाला मकान भी पूरा होने को आया, तब िमलारेपा ने गुरुजी से जरञान के िलए परराथररना की गुरुजी ने िमलारेपा के िसर के बाल पकड़कर उसको घसीिा और लात मारते हुए यह कहकर िनकाल ििया िक 'मुफरत में जरञान लेना है?' ियालु गुरुमाता (मारपा की पतरनी) से िमलारेपा की यह हालत िेखी नहीं गयी। उसने मारपा से िया करने की ििनती की लेिकन मारपा ने कठोरता न छोड़ी। इस तरह िमलारेपा गुरुजी के ताने भी सुन लेता ि मार भी सह लेता और अकेले में रो लेता लेिकन उसकी जरञानपररिपर ा तकीिजजरञासा केसामनेयेसब िुःख कुछ मायना नहींरखतेथे। एकििन तो उसकेगुरु नेउसेखूब मारा। अब िमलारेपा के धैयरर का अंत आ गया। बारह-बारह साल तक अकेले अपने हाथों से मकान बनाये, िफर भी गुरुजी की ओर से कुछ नहीं िमला। अब िमलारेपा थक गया और घर की िखड़की से कूिकर बाहर भाग गया। गुरुपतरनी यह सब िेख रही थी। उसका हृिय कोमल था। िमलारेपा की सहनििकरत के कारण उसके पररित उसे सहानुभूित थी। िह िमलारेपा के पास गयी और उसे समझाकर िोरी-िछपे िूसरे गुरु के पास भेज ििया। साथ में बनाििी संिेिपतरर भी िलख ििया िक 'आनेिाले युिक को जरञान ििया जाय।' ि यह िूसरा गुरु मारपा का ही िषरय था। उसने िमलारेपा को एकांत में साधना का मागरर िसखाया। िफर भी िमलारेपा की पररगित नहीं हो पायी। िमलारेपा के नये गुरु को लगा िक जरूर कहीं-न-कहीं गड़बड़ है। उसने

िमलारेपा को उसकी भूतकाल की साधना एिं अनरय कोई गुरु िकये हों तो उनके बारे में बताने को कहा। िमलारेपा ने सब बातें िनखािलसता से कह िीं। नये गुरु ने डाँिते हुए कहाः "एक बात धरयान में रख-गुरु एक ही होते हैं और एक ही बार िकये जाते हैं। यह कोई सांसािरक सौिा नहीं है िक एक जगह नहीं जँिा तो िले िूसरी जगह। आधरयाितरमक मागरर में इस तरह गुरु बिलनेिाला धोबी के कुतरते की नाईं न तो घर का रहता है न ही घाि का। ऐसा करने से गुरुभिकरत का घात होता है। िजसकी गुरुभिकरत खंिडत होती है, उसे अपना लकरषरय पररापरत करने में बहुत लमरबा समय लग जाता है। तेरी पररामािणकता मुझे जँिी। िल, हम िोनों िलते हैं गुरु मारपा के पास और उनसे माफी े माँग लेते हैं।" ऐसा कहकर दस प न ी स ा र ी सं प ििअपनगेुरमारपाक ू रे गुर न अ ले ली। िसफरर एक लंगड़ी बकरी को ही घर पर छोड़ ििया। िोनों पहुँिे मारपा के पास। िषरय िरिारा अिपररत की हुई सारी संपितरत मारपा ने सरिीकार कर ली, िफर पूछाः "िह लंगड़ी बकरी करयों नहीं लाये?" ि तब िह िषरय िफर से उतनी िूरी तय करके िापस घर गया। बकरी को कंधे पर उठाकर लाया और गुरुजी को अिपररत की। यह िेखकर गुरुजी बहुत खुि हुए। िमलारेपा के सामने िेखते हुए बोलेः "िमलारेपा ! मुझे ऐसी गुरुभिकरत िािहए। मुझे बकरी की जरूरत नहीं थी लेिकन मुझे तुमरहें पाठ िसखाना था" िमलारेपा ने भी अपने पास जो कुछ था उसे गुरुिरणों में अिपररत कर ििया। िमलारेपा के िरिारा अिपररत की हुई िीजें िेखकर मारपा ने कहाः "ये सब िीजें तो मेरी पतरनी की हैं। े म लारेपा को िूसरे की िीजें तू कैसे भेंि में िे सकता है?" ऐसा कहकर उनहोन ि धमकाया। अनुकररम िमलारेपा िफर से खूब हताि हो गया। उसने सोिा िक "मैं कहाँ किरिा सािबत हो रहा हूँ, जो मेरेगुरज ु ी मुझ पर पररसनरन नहीं होते?" उसने मन-ही-मन भगिान से परराथररना की और िन र िय िकया िक 'इस जीिन में गुरुजी पररसनरन हों सा नहीं लगता। अतः इस जीिन का ही गुरज ु ी के िरणों में बिलिान कर िेना िािहए।' ऐसा सोचकर जैसे ही वह गुरजी केचरिो मे पाितयाग करन क े ोउदत हुआ, तुरंत ही गुरु मारपा समझ गये, 'हाँ, अब िेला तैयार हुआ है।' मारपा ने खड़े होकर िमलारेपा को गले लगा िलया। मारपा की अमीिृिषरि िमलारेपा पर बरसी। परयारभरे सरिर में गुरुिेि बोलेः "पुतरर ! मैंने जो तेरी सखरत कसौिियाँ लीं, उनके पीछे एक ही कारण था – तूने आिेि में आकर जो पाप िकये थे , िे सब मुझे इसी जनरम मेंभसरमीभूत करनेथे, तेरी कई जनरमों की साधना को मुझे इसी जनरम में फलीभूत करना था। तेरे गुरु को न तो तेरी भेंि की आि िर यकताहै न मकान की। तेरे कमोररं की िुििरध के िलए ही यह मकार बँधिाने की सेिा खूब महतरतरिपूणरर थी। सरिणरर को ुिरध करने के िलए तपाना ही पड़ता है न ! िि तू मेरा ही िषरय है। मेरे परयारे िषरय ! तेरी कसौिी पूरी हुई। िल, अब तेरी साधना िुरु करें।" िमलारेपा ििन-रात िसर पर िीया रखकर आसन जमाये धरयान में बैठता। इस तरह गरयारह महीने तक गुरु के सतत सािनरनधरय में उसने साधना की। पररसनरन हुए गुरु ने िेने में कुछ बाकी न रखा। िमलारेपा को साधना के िौरान से-ऐसे अनुभि हुए, जो उसकेगुरु मारपा को भी नहीं हुए थे। िषरय गुरु सेसिायािनकला। अंत मेंगुरु नेउसेिहमालय की गहन कंिराओं में जाकर धरयान-साधना करने को कहा। अपनी गुरुभिकरत, िृढ़ता एिं गुरु के आ ीिाररि से िमलारेपा ने ितबरबत में सबसे बड़े योगी के रूप में खरयाित पायी। बौिरध धमरर की सभी िाखायें िमलारेपा की मानती हैं। ि कहा जाता है िक कई िेिताओं ने भी िमलारेपा का िषरयतरि सरिीकार करके अपने को धनरय माना। ितबरबत में आज भी िमलारेपा के भजन एिं सरतोतरर घर-घर में गाये जाते हैं। िमलारेपा ने सि ही कहा हैः " । ।" ििषय की दढ ृ ता, गुरुिनषरठा, ततरपरता एिं समपररण की भािना उसे अि र यही सत िषरय बनाती है, इसका जरिलंत पररमाण हैं िमलारेपा। आज के कहलानेिाले िषर यों को

ई िर िरपररािपरतके िलए , योगिििरया सीखने के िलए आतरमानुभिी सतरपुरुषों के िरणों में कैसी िृढ़ िररिरधा रखनी िािहए इसकी समझ िेते हैं योगी िमलारेपा। अनुकररम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ महाराषरिरर में औरंगाबाि से आगे येहले गाँि में संत तुकाराम िैतनरय रहते थे, िजनकेलोग पररेमसे 'तुकामाई' कहते थे। िे ई िर िरीयसतरता से जुड़े हुए बड़े उिरिकोिि के संत थे। 19 फरिरी 1854 को बुधिार के ििन गोंििाले गाँि में गणपित नामक एक बालक का जनरम हुआ जब िह 12 िषरर का हुआ तब तुकामाई के िररीिरणों में आकर बोलाः 'बाबाजी ! मुझे अपने पास रख लीिजये।' तुकामाई ने करषणभर के िलए आँखे मूँिकर उसका भूतकाल िेख िलया िक यह कोई साधारण आतरमा नहीं है और बालक गणपित को अपने पास रख िलया। तुकामाई उसे 'गणु' कहते थे। िह उनकी रसोई की सेिा करता, पैरिंपी करता, झाड़ू बुहारी करता। बाबा की सारी सेिा-िाकरी बड़ी िनपुणता से करता था। बाबा उसे सरनेह भी करते िकंतु कहीं थोड़ी-सी गलती हो जाती तो धड़ाक से मार भी िेते। महापुरुष बाहर से कठोर ििखते हुए भी भीतर से हमारे िहतैषी होते हैं, िे ही जानते हैं। 12 साल के उस बिरिे से जब गलती होती तो उसकी ऐसी घुटाई-िपिाई होती िक िेखने िाले बड़े-बड़े लोग भी तौबा पुकार जाते, लेिकन गणु ने कभी गुरुिि र ार छोड़ने का सोिा तक नहीं। उस पर गुरु का सरनेह भीतर से बढ़ता गया। एक बार तुकामाई गणु को लेकर निी में सरनान के िलए गये। िहाँ निी पर तीन माइयाँ कपड़े धो रही थीं। उन माइयों के तीन छोिे-छोिे बिरिे आपस में खेल रहे थे। तुकामाई ने कहाः "गणु ! गडरडा खोि।" एक अिरछा-खासा गडरढा खुििा िलया। िफर कहाः "ये जो बिरिे खेल रहे हैं न, उनरहें िहाँ ले जा और गडरढे में डाल िे। िफर ऊपर से जलरिी-जलरिीिमिरिीडाल केआसन जमाकर धरयान करने लग।" इस पररकार तुकामाई ने गणु के िरिारा तीन मासूम बिरिों को गडरढे में गड़िा ििया और खुि िूर बैठ गये। गणु बालू का िीला बनाकर धरयान करने बैठ गया। कपड़े धोकर जब माइयों ने अपने बिरिों को खोजा तो उनरहें िे न िमले। तीनों माइयाँ अपने बिरिों को खोजते-खोजते परेिान हो गयीं। गणु को बैठे िेखकर िे माइयाँ उससे पूछने लगीं िक 'ए लड़के ! करया तूने हमारे बिरिों को िेखा है?' माइयाँ पूछ-पूछ कर थक गयीं। लेिकन गुरु-आजरञापालन की मिहमा जानने िाला गणु कैसे बोलता? इतने में माइयों ने िेखा िक थोड़ी िूरी पर परमहंस संत तुकामाई बैठे हैं। िे सब उनके पास गयीं और बोलीं- "बाबा ! हमारे तीनों बिरिे नहीं ििख रहे हैं। आपने कहीं िेखे हैं?" बाबाः "िह जो लड़का आँखें मूँिकर बैठा है न, उसको खूब मारो-पीिो। तुमरहारे बेिे उसी के पास हैं। उसको बराबर मारो तब बोलेगा।" यह कौन कह रहा है? गुरु कह रहे हैं। िकसके िलए? आजर ि ञाकारी िषरय के िलए। हि हो गयी ! गुरु कुमरहार की तरह अंिर हाथ रखते हैं और बाहर से घुिाई-िपिाई करते हैं।

, । , ।। माइयों ने गणु को खूब मारा पीिा, िकंतु उसने कुछ न कहा। ऐसा नहीं बोला िक, 'मुझको तो गुरु ने कहा है।' मार-मारकर उसको अधमरा कर ििया िकंतु गणु कुछ नहीं बोला। आिखर तुकामाई आये और बोलेः "अभी तक नहीं बोलता है? और मारो इसको। इसी बिमाि ने तुमरहारे बिरिों को पकड़कर गडरढे में डाल ििया है। ऊपर िमिरिी डालकर साधु बनने का ढोंग करता है।" माइयों ने िीला खोिा तो तीनों बिरिों की ला िमली। िफर तो माइयों का कररोध.... अपने मासूम बिरिों तो मारकर ऊपर से िमिरिी डालकर कोई बैठ जाय, उस िरयिकरत को कौनसी माई माफ करेगी? माइयाँ पतरथर ढूँढने लगीं िक इसको तो िुकड़े-िुकड़े कर िेंगे। तुकामाईः "तुमरहारे बिरिे मार ििये न?" "हाँ, अब इसको हम िजंिा न छोड़ेंगी।" "अरे, िेखो अिरछी तरह से। मर गये हैं िक बेहो हो गये हैं? जरा िहलाओ तो सही।" गाड़े हुए बिरिे िजंिा कैसे िमल सकते थे? िकंतु महातरमा ने अपना संकलरप िलाया। , ।। तीनों बिरिे हँसते-खेलते खड़े हो गये। अब िे माइयाँ अपने बिरिों से िमलतीं िक गणु को मारने जातीं? माइयों ने अपने बिरिों को गले लगाया और उन पर िारीिारी जाने लगीं। मेले जैसा माहौल बन गया। तुकामाई महाराज माइयों की नजर बिाकर अपने गणु को लेकर आिररम में पहुँि गये, िफर पूछाः "गणु ! कैसा रहा?" "गुरुकृपा है !" गणु के मन में यह नहीं आया िक 'गुरुजी ने मेरे हाथ से तो बिरिे गड़िा ििये और िफर माइयों से कहा िक इस बिमा छोरे ने तुमरहारे बिरिों को मार डाला है। इसको बराबर मारो तो बोलेगा। िफर भी मैं नहीं बोला....' कैसी-कैसी आतरमाएँ इस िेि में हो गयीं ! आगे िलकर िही गणु बड़े उिरिकोिि के पररिसिरध महातरमा गोंििलेकर महाराज हो गये। उनका िेहािसान 22 ििसमरबर 1913 के ििन हुआ। अभी भी लोग उन महापुरुष के लीलासरथान पर आिर से जाते हैं। अनुकररम गु ि रुकृपा िह केिलं िषरयसरय परं मंगलमर। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

एक बार नैनीताल में गुरुिेि (सरिामी िररी लीलािाहजी महाराज) के पास कुछ लोग आये। िे 'िाइना पीक' (िहमालय पिररत का एक पररिसिरध िखर ि िेखना िाहते थे। गुरि ु ेि ने मुझसे कहाः "ये लोग िाइना पीक िेखना िाहते हैं। सुबह तुम जरा इनके साथ जाकर ििखा के आना।" मैंने कभी िाइना पीक िेखा नहीं था, परंतु गुरुजी ने कहाः "ििखा के आओ।" तो बात पूरी हो गयी।

सुबह अँधेरे-अँधेरे में मैं उन लोगों को ले गया। हम जरा िो-तीन िकलोमीिर पहािड़यों पर िले और िेखा िक िहाँ मौसम खराब है। जो लोग पहले िेखने गये थे िे भी लौिकर आ रहे थे। िजनको मैं ििखाने ले गया था िे बोलेः "मौसम खराब है, अब आगे नहीं जाना है।" मैंने कहाः "भकरतो ! कैसे नहीं जाना है, बापूजी ने मुझे आजरञा िी है िक 'भकरतों को िाइना पीक ििखाके आओ' तो मैं आपको उसे िेखे िबना कैसे जाने िूँ?" िे बोलेः "हमको नहीं िेखना है। मौसम खराब है, ओले पडन क े ीसंभ " ावनाहै। मैंने कहाः "सब ठीक हो जायेगा।" लेिकन थोड़ा िलने के बाि िे िफर हतोतरसािहत हो गये और िापस जाने की बात करने लगे। 'यिि कुहरा पड़ जाय या ओले पड़ े े ो-बार जायें तो....' ऐसा कहकर आनाकानी करन ल ग े । ऐ स ा अनक बुझहआ ाते उनको समझाते ु । मैआिखर गनरतिरय सरथान पर ले गया। हम िहाँ पहुँिे तो मौसम साफ हो गया और उनरहोंने िाइनाप िेखा। िे बड़ी खुिी से लौि और आकर गुरुजी को पररणाम िकया। गुरुजी बोलेः "िाइना पीक िेख िलया?" िे बोलेः "साँई ! हम िेखने िाले नहीं थे, मौसम खराब हो गया था परंतु आसाराम हमें उतरसािहत करते-करते ले गये और िहाँ पहुँिे तो मौसम साफ हो गया।" अनुकररम उनरहोंने सारी बातें ििसरतार से कह सुनायीं। गुरुजी बोलेः "जो गुरु की आजरञा िृढ़ता से मानता है, पररकृित उसके अनुकूल जो जाती है।" मुझे िकतना बड़ा आिीिाररि िमल गया ! उनरहोंने तो िाइना पीक िेखा लेिकन मुझे जो िमला िह मैं ही जानता हूँ। । मैंने गुरुजी की बात कािी नहीं, िाली नहीं, बहाना नहीं बनाया, हालाँिक िे तो मना ही कर रहे थे। बड़ी किठन िढ़ाईिाला ि घुमाििार रासरता है िाइना पीक का और कब बािरि आ जाये, कब आिमी को ठंडी हिाओं का, आँधी-तूफानों का मुकाबला करना पड़े, कोई पता नहीं। िकंतु कई बार मौत का मुकाबला करते आये हैं तो यह करया होता है? कई बार तो मरके भी आये, िफर इस बार गुरु की आजरञा का पालन करते-करते मर भी जायेंगेतो अमर हो जायेंगे, घािा करया पड़ता है? ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ िि िर िििखरयात सरिामी िििेकाननरिजी अपना जीिन अपने गुरुिेि सरिामी रामकृषरण परमहंस को समिपररत कर िुके थे। िररी रामकृषरण परमहंस के िरीर-तरयाग के ििनों में िे अपने घर और कुिुमरब की नाजुक हालत की परिाह िकये िबना, सरियं के भोजन की परिाह िकये िबना गुरुसेिा में सतत हािजर रहते। गले के कैंसर के कारण रामकृषरण परमहंस का िरीर अतरयंत रुगरण हो गया था। गले में से थूक, रकरत कफ आिि िनकलता था। इन सबकी सफाई िे खूब धरयान से एिं पररेम से करते थे। एक बार िकसी िषरय ने िररी रामकृषरण की सेिा में लापरिाही ििखायी तथा घृणा से नाक-भौहं िसकोड़ी। यह िेखकर िििेकाननरि जी को गुसरसा आ गया। उस गुरुभाई को पाठ पढ़ाते हुए और गुरुिेि की पररतरयेक िसरतु के पररित पररेम ि ाररते हुए िे उनके िबसरतर के पास रखी रकरत, कफ आिि से भी भरी थूकिानी उठाकर पूरी पी गये।

गुरु के पररित ऐसी अननरय भिकरत और िनषरठा के पररताप से ही िे गुरु के िरीर की और उनके िििरयतम आििोररं को लोगों तक पहुँिाने की उतरतम सेिा कर सके। गुरि ु ेि को िे समझ सके, सरियं के अिसरततरि को गुरुिेि के सरिरूप में ििलीन कर सके। समगरर िि र ि में भारत के अमूलरय आधरयाितरमक खजाने की महक फैला सके। अनुकररम सरिामी िििेकानंि गुरुभिकरत के ििषय में कहते हैं- "सरिानुभूित जरञान की परम सीमा है, िह गररनरथों से नहीं पररापरत हो सकती। पृथरिी का पयररिन कर िाहे आप सारी भूिम पिाकररांत कर डालें, िहमालय, काकेिस, आलरपस पिररत लाँघ जायें, समुिरर में गोता लगाकर उसकी गहराई में बैठ जायें, ितबरबत िेि िेख लें या गोबी (अफररीका) का मरुसरथल छान डालें, परंतु सरिानुभि का यथाथरर धमरररहसरय इन बातों से, शीगुर केकृपा -पररसाि के िबना ितररकाल में भी जरञात नहीं होगा। इसिलए भगिान की कृपा से जब सा भागरयोिय हो िक शीगुर दितन दे, तब सिाररनरतःकरण से िररीगुरु की िरण लो, उनरहें ऐसा समझो जैसे यही परबररहरम हों, उनके बालक बनकर अननरयभाि से उनकी सेिा करो, इससे आप धनरय होंगे। ऐसे परम पेम और आदर के साथ जो शीगुर के िरिागत हएु , उनरहीं को और केिल उनरहीं को सििरििाननरि पररभु ने पररसनरन होकर अपनी परम भिकरत िी है और अधरयातरम के अलौिकक िमतरकार ििखाये हैं।" ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ खडूरगाँि (िज. अमृतसर, पंजाब) के लहणा िौधरी गुरु नानकिेि के िरणागत हुए। गुरु नानक उनरहें भाई लहणा कहते थे। करतार में गुरु नानक िेि ने प िु ओंकी िेखभाल करने की सेिा भाई लहणा को सौंप िी। िहाँ और भी कई िषरय थे जो खेती-बाड़ी ि प िु ओंकी िेखरेख करते थे। एक बार लगातार कई ििनों तक िषारर होती रही। जब िषारर बनरि हुई तो िारों ओर कीचड ह गया। पिुओं का चारा समापरत हो गया था लेिकन कोई भी ि िषरय िारा लाने के िलए जाने को तैयार नहीं था, करयोंिक उस कीिड़ में, कीिड़ से भरी घास लाना कोई आसान कायरर न था। भाई लहणा िारा लेने िले गये। जब िे िारा लेकर लौिे तो उनके कपड़े ही नहीं, सारा िरीर भी कीिड़ से लथपथ था, परंतु उनरहें इस बात का कोई िुःख नहीं था करयोंिक गुरुसेिा को ही उनरहोंने अपना सिररसि र बना िलया था। एक बार गुरु नानक ने जानबूझकर अपना काँसे का किोरा कीिड़ के भरे एक गडरढे में फेंक ििया और अपने पुतररों तथा िषरयों को आिे ििया िक िे किोरा िनकाल लायें। गडरढे में घुिने से भी ऊपर तक कीिड़ भरा हुआ था। सब लोग कोई-न-कोई बहाना बनाकर िखसक गये। भाई लहणा ततरकाल गडरढे में उतर गये किोरा िनकाल लाये। उनरहें इस बात की रतरतीभर भी ििंता नहीं हुई िक कीिड़ उनके रीर पर लग जायेगा और उनके कपड़े कीिड़ से भर जायेंगे। उनके िलए तो गुरुिेि का आिे ही सिोररपिर था। अनुकररम एक ििन कुछ भकरत लंगर (सामूिहक भोजन) खतरम हो जाने के बाि डेरे पर पहुँिे। िे बहुत िूर से िलकर आये थे। उनरहें भूख लगी थी। गुरुनानक िेि ने अपने िोनों पुतररों को सामने खड़े बबूल के एक पेड़ की ओर इिारा करते हुए कहाः "तुम िोनों उस पेड़ पर

िढ़ जाओ और डािलयों को जोर-से िहलाओ। इससे तरह-तरह की िमठाइयाँ िपकेंगी। िे इन लोगों को िखला िेना।" गुरु नानक की बात सुनकर उनके िोनों पुतरर आ र ियरर से उनका मुँह िेखने लगे। 'पेड़ से.... और िह भी बबूल के पेड़ से... िमठाइयाँ, भला कैसे िपक सकती हैं? िपताजी अकारण ही हमारा मजाक उड़िाना िाहते हैं।' ऐसा सोचकर वे दोनो चुपके-से िहाँ से िखसक गये। गुरु नानक ने अपने अनरय िषरयों से भी यही कहा परंतु कोई तैयार नहीं हुआ। सब ि िषरय यही सोि रहे थे िक गुरुिेि उनरहें बेिकूफ बनाना िाहते हैं। भाई लहणा को गुरु नानकिेि में अगाध ररिरधा थी, अिडग िि िर िास था। िे उठे , बबूल के पेड़ पर जा िढ़े और उसकी डािलयाँ जोर-से िहलानी िुरु कर िी। िूसरे ही पल काँिों से भरे बबूल के पेड़ से तरह-तरह की सरिाििषरि िमठाइयाँ िपकने लगीं। िहाँ उपिसरथत लोगों की आँखें आ िर ियररसे फिी रह गयीं। भाई लहणा ने पेड़ से उतरकर िमठाइयाँ इकिरठी कीं और आये हुए भकरतों को िखला िीं। पुतररों ने नानक जी की अिजरञा की लेिकन भाई लहणा के मन में ई र िररूपगुरुनानक के िकसी भी िबरि के पररित अिि िर िासका नामोिनिान तक नहीं था। भगिान िररीकृषरण के पुतररों ने भी िररीकृषरण की अिजरञा की, उनका फायिा नहीं उठाया, िमिों के िकरकर में रहे जबिक आज भी लाखों लोग िररीकृषरण सेफायिा उठा रहेहैं। " । " िजनरहेंअित सािनरनधरय िमलता है िे लाभ नहीं उठाते। कैसा आ र ियररहै! गुरु नानक समािध लगाये अपनी गिरिी पर बैठे थे। उनके सामने बैठे अनेक िषरय उनके उपिेि की पररतीकरषा कर रहे थे। अिानक उनरहोंने आँखें खोलीं , एक नजर सामने बैठे िि िषरयों पर डाली और िफर पास ही पड़ा डंडा उठाकर िषरयों पर िूि पड़े। जो भी सामने आया, उस पर डंडे बरसाने लगे। उनकी रौिरर मूितरर और पागलों जैसी अिसरथा िेखकर उनके िोनों पुतरर तथा अनरय िषरय ीघररता से भागे, परंतु भाई लहणा िहीं खड़े रहे एिं गुरु नानक के डंडों की मार बड़े िांत भाि से सहन करते रहे। अनुकररम गुरु नानक िेि ने भाई लहणा की अनेक परीकरषाएँ लीं परंतु िे सभी परीकरषाओं में उतरतीणरर हुए। तब उनरहोंने सबसे अिधक भीषण परीकरषा लेने का िन र ियकर िलया। िे कुछ िेर तक इसी तरह पागलों जैसी हरकतें करते रहे और िफर जंगल की िल ििये। उनकी पागलों जैसी हरकत िेखकर बहुत-से कुतरते उनके पीछे लग गये, परंतु गुरुनानक अपने डंडे से उनरहें धमकाते हुए जंगल की ओर बढ़ते रहे। यह िेखकर उनके कुछ ििषय और दोनो पुत भी उनके पीछे -पीछे िल ििये। उन िषरयों में भाई लहणा भी िािमल थे। िलते-िलते गुरु नानक िरमिान में पहुँिे और कफन से ढके एक मुिेरर के पास जाकर रुक गये। िे बड़े धरयान से उस मुिेरर को िेख ही रहे थे िक उनके िोनों पुतरर और िषरय भी िहाँ पहुँि गये। "तुम लोग बहुत िूर से मेरे पीछे-पीछे आ रहे हो। िोपहर का िकरत है, भोजन का समय हो िुका है। तुम लोगों को भूख भी लगी होगी। तुमरहें आज बहुत ही सरिाििषरि िीज िखलाता हूँ।" यह कहकर गुरु नानक िेि ने मुिेरर की ओर इिारा िकया और अपने पुतररों तथा ििषयो की ओर देखते हएु बोलेः "इसे खाओ।" यह बात सुनकर सब लोग सरतबरध रह गये। िकतना िििितरर और भयानक था गुरु का आिे !ि उनके िोनों पुतररों और िषरयों ने घृणा से अपने मुँह फेर िलए और िहाँ से िखसकने लगे, परंतु भाई लहणा आगे बढ़े और पूछाः "गुरुिेि ! इस मुिेरर को िकस ओर से खाना िुरु करूँ, िसर की ओर से या पैरों की ओर से?" गुरु नानक ने कहाः "पैरों की ओर से खाना िुरु करो।" "जो आजरञा !" कहकर भाई लहणा मुिेरर के पैरों के पास जा बैठे। उनके मन में न घृणा थी, न कोई परेिानी ही। उनरहोंने हाथ बढ़ाकर मुिेरर के ऊपर पड़ा कफन हिा ििया। कफन के नीिे कोई मुिारर नहीं था। िह सफेि िािर धरती पर इस तरह पड़ी थी, जैसेउससेिकसी लाि को ढक ििया गया हो। गुरु नानक िेि के िेहरे पर करुणाभरी मुसरकराहि िखल उठी। उनकी आँखें सरनेह से िमक उठीं। उन पर छाया हुआ पागलपन जाता रहा और िे सामानरय िसरथित

में आ गये। उनरहोंने आगे बढ़कर भाई लहणा को अपनी बाँहों में भर हृिय से लगा िलया। उनका हृिय छलक पड़ा और िे कृपापूणरर सरिर में बोलेः "आज से तुमरहारा नाम भाई लहणा नहीं, अंगििेि है। मैंने तुमरहें अपने अंग से लगा िलया है। अब तुम मेरे ही पररितरूप हो।" कैसे ि थे िषरय! िजनरहोंनेगु रु ओंका माहातरमरय जानकर समझािक गुरुओंकी कृपा कैसेपिायी जाती हैऔर आज के....... अनुकररम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ संत एकनाथ िेिगढ़ राजरय के िीिान ररी जनािररन सरिामी के िषरय थे। 12 िषरर की छोिी उमरर में ही उनरहोंने िररीगुरुिरणों में अपना जीिन समिपररत कर ििया था। िे गुरि ु ेि के कपड़े धोते, पूजा के िलए फूल लाते, गुरुिेि भोजन करते तब पंखा झलते, गुरुिेि के नाम आये हुए पतरर पढ़ते और उनके संकेत-अनुसार उनका जिाब िेते और गुरुपुतररों की िेखभाल करते। ऐसे एिं अनरय भी कई पररकार के छोिे-मोिे काम िे गुरुिरणों में करते। एक बार जनािररन सरिामी ने एकनाथ जी को राजिरबार का िहसाब करने को कहा। एकनाथ जी बिहयाँ लेकर िहसाब करने बैठ गये। िूसरे ही ििन पररातः िहसाब-िकताब राजिरबार में बताना था। सारा ििन िहसाब-िकताब िलखने ि िेखने बीत गया। िहसाब में एक पाई (एक पुराना िसकरका, जो पैसेका एकितहाई होता था) की भूल आ रही थी। रात हुई, नौकर िीपक जलाकर िला गया। एकनाथ को पता भी नहीं िला िक रात ु रु हो गयी है। आधी रात बीत गयीिफर भी भूल पकड़में नहीं आयी लेिकन िे अपने काम में लगे रहे। पररातः जलरिी उठकर गुरुिेि ने िेखा िक एकनाथ तो अभी भी िहसाब िेख रहे हैं। िे आकर िीपक के आगे िुपिाप खड़े हो गये। बिहयों पर थोड़ा अँधेरा छा गया, िफर भी एकनाथ एकागररिितरत से बिहयाँ िेखते रहे। िे अपने काम में इतने मिगूल थे िक अँधेरे में भी उनरहें अकरषर साफ ििख रहे थे। इतने में भूल पकड़ में आ गयी िे हषरर से ििलरला उठेः "िमल गयी... िमल गयी....!" गुरुिेि ने पूछाः "करया िमल गयी, बेिी?" एकनाथ जी िौंक गये ! ऊपर िेखो तो गुरुिेि सामने खड़े हैं ! उठकर पररणाम िकया और बोलेः "गुरुिेि ! एक पाई की भूल पकड़ में नहीं आ रही थी। अब िह िमल गयी।" हजारों िहसाब में एक पाई की भूल !.... और उसको पकड़ने के िलए रात भर जागरण ! गुरु की सेिा में इतनी लगन, इतनी ितितकरषा और भिकरत िेखकर िीिान जनािररन सरिामी के हृिय में गुरुकृपा उछाले मारने लगी। उनरहें जरञानामृत की िषारर करने के योगरय अिधकारी का उर-आँगन (हृिय) ि िमल गया। सिगूरु की आधरयाितरमक िसीयत सँभालनेिाला सत िषरय िमल गया। उसके बाि एकनाथ जी के जीिन में जरञान का सूयरर उिय हुआ और उनके सािनरनधरय में अनेक साधकों ने अपनी आतरमजरयोित जगाकर धनरयता का अनुभि िकया। साकरषात गोिािरी माता भी अपने में लोगों िरिारा छोड़े गये पापों को धोने के िलए इन बररहरमिनषरठ संत के सतरसंग में आती थीं। संत एक नाथ जी के 'एकनाथी भागित' को सुनकर आज भी लोग तृपरत होते हैं। अनुकररम

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हजरत िनजामुिि र ीन औिलया के हजारों िषर य थे। उनमें से22 ऐसे समिपतत ििषय थे जो उनहे खुिा मानते थे, अलरलाह का सरिरूप मानते थे। एक बार हजरत िनजामुिरिीन औिलया ने उनकी परीकरषा लेनी िािहए। िे िषरयों के साथ ििन भर ििलरली के बाजार में घूमे। राितरर हुई तो औिलया एक िे िर याकी कोठी पर गये। िे िर याउनरहें बड़े आिर से कोठी की ऊपरी मंिजल ि पर ले गयी। सभी िषरय नीिे इंतजार करने लगे िक'गुरुजी अब नीिे पधारेगे... अब पधारेंगे।' िे िर यातो बड़ी पररसनरन हो गयी िक मेरे ऐसे कौने -से सौभागरय हैं जो ये िरिेि मेरे िरिार पर पधारे? उसने औिलया से कहाः "मैं तो कृताथरर हो गयी जो आप मेरे िरिार पर पधारे। मैं आपकी करया िखिमत करूँ?" औिलया ने कहाः "अपनी नौकरानी के िरिारा भोजन का थाल और िराब की बोतल में पानी इस ढंग से मँगिाना िक मेरे िेलों को लगे िक मैंने भोजन ि िराब मँगिायी है।" िे िर या को तो हुकरम का पालन करना था। उसने अपने नौकरानी से कह ििया। थोड़ी िेर बाि नौकरानी तिनुरूप आिरण करती हुई भोजन का थाल और िराब की बोतल ले कर ऊपर जाने लगी। तब कुछ िषर यों को लगा िक 'अरे ! हमने तो कुछ और सोिा था, िकंतु िनकला कुछ और.... औिलया ने तो िराब मँगिायी है.... 'ऐसा सोचकर कुछ ििषय भाग गये। जयो -जरयों रा ितररबढ़ती गयी, तरयों-तरयों एक-एक करके े ििषय िखसकन ल गे। ऐसाकरते -करते सुबह हो गयी। िनजामूिरिीन औिलया नीिे उतरे। िेखा तो केिल अमीर खुसरो ही खड़े थे। अनजान होकर उनरहोंने पूछाः "सब कहाँ िले गये?" अमीर खुसरोः "सब भाग गये।" औिलयाः "तू करयों नहीं भागा? तूने िेखा नहीं करया िक मैंने िराब की बोतल मँगिायी और सारी रात िे िर या के पास रहा ?" अमीर खुसरोः "मािलक ! भागता तो मैं भी िकंतु आपके किमों के िसिाय और कहाँ भागता?" िनजामुिरिीन औिलया की कृपा बरस पड़ी और बोलेः "बस, हो गया तेरा काम पूरा।" कैसी अननरय िनषरठा थी अमीर खुसरो की ! आज भी िनजामुिरिीन औिलया की मजार के पास ही उनके सत ि ष र यअमीरखुसरोक मजार उनकी गुरुिनषरठा, गुरुभिकरत की खबर िे रही है। अनुकररम , । , ।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

गुरु को केिल ततरतरि मानकर उनकी िेह का अनािर करेंगे तो हम िनगुरे रह जायेंगे। िजस िेहमेंिह ततरतरि पररकि होता है, िह िेह भी ििनरमय, आनंिसरिरूप हो जाती है। समथरर रामिास का आनंि नाम का एक िषरय था। िे ि उसको बहुत परयार करते थे। ि यह िेखकर अनरय िषरयों को ईषरयारर होने लगी। िे सोितेः "हम ि भी िषरय हैं, हम भी गुरुिेि की सेिा करते हैं िफर भी गुरुिेि हमसे जरयािा आननरि को परयार करते हैं।" ईषर ि याररलु िषरयों को सीख िेने के िलए एक बार समथरर रामिास ने एक युिकरत की। अपने पैर में एक किरिा आम बाँधकर ऊपर कपड़े की पिरिी बाँध िी। िफर पीड़ा से ििलरलाने लगेः "पैर में फोड़ा िनकला है.... बहुत पीड़ा करता है... आह...! ऊह...!" कुछ ििनों में आम पक गया और उसका पीला रस बहने लगा। गुरुजी पीड़ा से जरयािा कराहने लगे। उनरहोंने सब िषरयों को बुलाकर कहाः "अब फोड़ा पक गया है, फि गया है। इसमें से मिाि िनकल रहा है। मैं पीड़ा से मरा जा रहा हूँ। कोई मेरी सेिा करो। यह फोड़ा कोई अपने मुँह से िूस ले तो पीड़ा िमि सकती है।" ि सब िषरय एक-िूसरे का मुँह ताकने लगे। बहाने बना-बनाकर सब एक-एक करके िखसकने लगे। िषरय आनंि को पता िला। िह तुरनरत आया और गुरुिेि के पैर को अपना ि मुँह लगाकर फोड़े का मिाि िूसने लगा। गुरुिेि का हृिय भर आया। िे बोलेः "बस.... आनंि ! बस मेरी पीड़ा िली गयी।" मगर आनंि ने कहाः "गुरुजी ! ऐसा माल िमल रहा है ििर छोडूँ कैसे ?" ईषरयारर करने िाले ििषयो केचेहरे िीकेपड गये। बाहर से फोड़ा ििखते हुए भी भीतर तो आम का रस था। से ही बाहर से अिसरथमांसमय ििखनेिाले गुरुिेि के रीर में आतरमा का रस िपकता है। महािीर सरिामी के समकरष बैठने िालों को पता था िक करया िपकता है महािीर के सािनरनधरय में बैठने से। संत कबीरजी के इिरर-िगिरर बैठनेिालों को पता था, शीकृषि केसाथ खेलन व े ा ल ेगवालोऔरगोिपयोको पता था िक उनके सािनरनधरय में करया बरसता है। अनुकररम अभी तो ििजरञान भी सािबत करता है िक हर िरयिकरत के सरपंिन (िायबररेिन) उसके इिरर-िगिरर फैले रहते हैं। लोभी और कररोधी के इिरर-िगिरर राजसी-तामसी सरपंिन फैले रहते हैं और संत-महापुरुषों के इिरर-िगिरर आनंि-िाित केसपदंन िैले रहते है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

ििषािराज िहरणरयधनु का पुतरर एकलिरय एक ििन हिसरतनापुर आया और उसने उस समय के धनुििररिरया के सिररिररेषरठ आिायरर, कौरिपाणरडिों के िसरतरर-गुरु िररोणािायररजी के िरणों मे िूर से साषरिाँग पररणाम िकया। अपनी िेि-भूषा से ही िह

अपने िणरर की पहिान िे रहा था। आिायरर िररोण ने जब उससे आने का कारण पूछा, तब उसने परराथररनापूिररक कहाः "मैं आपके िि ररीिरणों के समीप रहकर धनुििररिरया की िकरषा लेने आया हूँ।" आिायरर संकोि में पड़ गये। उस समय कौरि तथा पाणरडि बालक थे और आिायरर उनर ििहें िकरषा िे रहे थे। एक भील बालक उनके साथ िकरषा पाये , यह राजकुमारों को सरिीकार नहीं होता और यह उनकी मयाररिा के अनुरूप भी नहीं था। अतएि उनरहोंने कहाः "बेिा एकलिरय ! मुझे िुःख है िक मैं िकसी ििरिजेतर बालक को सरतरर-ििका नही दे सकता।" एकलिरय ने तो िररोणािायररजी को मन-ही-मन गुरु मान िलया था। िजनरहें गुरु मान िलया, उनकी िकसी भी बात को सुनकर रोष या िोषिृिषरि करने की तो बात ही मन में कैसे आती? एकलिरय के मन में भी िनरा ा नहीं हुई। उसने आिायरर के समरमुख िणरडित पररणाम िकया और बोलाः "भगिनर ! मैंने तो आपको गुरुिेि मान िलया है। मेरे िकसी काम से आपको संकोि हो, यह मैं नहीं िाहता। मुझे केिल आपकी कृपा िािहए।" अनुकररम बालक एकलिरय हिसरतनापुर से लौिकर घर नहीं गया। िह िन में िला गया और िहाँ उसने गुरु िररोणािायरर की िमिरिी की मूितरर बनायी। िह गुरुिेि की मूितरर को िकिकी लगाकर िेखता, परराथररना करता तथा आतरमरूप गुरु से पररेरणा पाता और धनुििररिरया के अभरयास में लग जाता। जरञान के एकमातरर िाता तो भगिान ही हैं। जहाँ अिििल ररिरधा और िृढ़ िन िर ियहोता है , िहाँ सबके हृिय में रहने िाले िे ररीहिर गुरुरूप में या िबना बाहरी गुरु के भी जरञान का पररकाि कर िेते हैं। महीने-पर-महीने बीतते गये, एकलिरय का अभरयास अखणरड िलता रहा और िह महान धनुधररर हो गया। एक ििन समसरत कौरि और पाणरडि आिायरर िररोण की अनुमित से रथों पर बैठकर िहंसक प िु ओंका िकार खेलने िनकले। संयोगिि इनके साथ का एक कुतरता भिकता हुआ एकलिरय के पास पहुँि गया और काले रंग के तथा िििितरर िे धारी एकलिरय को िेखकर भौंकने लगा। एकलिरय के केि बढ़ गये थे और उसके पास िसरतरर के सरथान पर िरयाघरर िमरर ही था। िह उस समय अभरयास कर रहा था। कुतरते के भौंकने से अभरयास में बाधा पड़ती िेख उसने सात बाण िलाकर कुतरते का मुख बंि कर ििया। कुतरता भागता हुआ राजकुमारों के पास पहुँिा। सबने बड़े आ र ियररसे िेखा िक बाणों से कुतरते को कहीं भी िोि नहीं लगी है, िकंतु िे बाण आड़े-ितरछे उसके मुख में इस पररकार फँसे हैं िक कुतरता भौंक नहीं सकता। िबना िोि पहुँिाये इस पररकार कुतरते के मुख में बाण भर िेना, बाण िलाने का बहुत बड़ा कौिल है। अजुररन इस कौिल को िेखकर बहुत ििकत हुए। उनरहोंने लौिने पर सारी घिना गुरु िररोणािायररजी को सुनायी और कहाः "गुरुिेि ! आपने िरिान ििया था िक आप मुझे पृथरिी का सबसे बड़ा धनुधररर बना िेंगे, िकंतु इतना कौिल तो मुझमें भी नहीं है।" िररोणािायरर जी ने अजुररन को साथ लेकर उस बाण िलानेिाले को िन में ढूँढना पररारमरभ िकया और ढूँढते-ढूँढते िे एकलिरय के आिररम पर पहुँि गये। आिायरर को िेखकर एकलिरय उनके िरणों में िगर पड़ा। िररोणािायरर ने पूछाः "सौमरय ! तुमने धनुििररिरया का इतना उतरतम जरञान िकससे पररापरत िकया है?" एकलिरय ने हाथ जोड़कर नमररतापूिररक कहाः "भगिनर ! मैं तो आपके िररीिरणों का ही िास हूँ।" उसने आिायरर की िमिरिी की उस मूितरर की ओर संकेत िकया। िररोणािायरर ने कुछ सोिकर कहाः "भिरर ! मुझे गुरुििकरषणा नहीं िोगे?" "आजरञा करें भगिनर !" एकलिरय ने अतरयिधक आननरि का अनुभि करते हुए कहा। िररोणािायरर ने कहाः "मुझे तुमरहारे िािहने हाथ का अँगूठा िािहए !" िािहने हाथ का अँगूठा न रहे तो बाण िलाया ही कैसे जा सकता है? इतने ििनों की अिभलाषा, इतना अिधक पिरिररम, इतना अभरयास-सब िरयथरर हुआ जा रहा था, िकंतु एकलिरय के मुख पर खेि की एक रेखा तक नहीं आयी। उस िीर गुरुभकरत बालक ने बायें हाथ में छुरा

िलया और तुरंत अपने िािहने हाथ का अँगूठा कािकर अपने हाथ में उठाकर गुरुिेि के सामने धर ििया। भरे कणरठ से िररोणािायरर ने कहाः "पुतरर ! सृिषरि में धनुििररिरया के अनेकों महान जरञाता हुए हैंऔर होंगे, िकंतु मैं आिीिाररि िेता हूँ िक तुमरहारे इस भिरय तरयाग और गुरुभिकरत का सुयि सिा अमर रहेगा। ऊँिी आतरमाएँ, संत और भकरत भी तुमरहारी गुरुभिकरत का य ोगान करेंगे।" अनुकररम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सरिामी रामकृषरण परमहंस के अननरय िषरय िररी िुगाररिरण नाग संसारी बातों में रूिि नहीं लाते थे। यिि कोई ऐसी बात िुरु करता तो िे युिकरत से उस ििषय को आधरयाितरमक ििारर में बिल िेते थे। यिि उनको िकसी पर कररोध आता तो उस िकरत उनरहें जो भी िसरतु िमल जाती उससे अपनेआपको पीिने लगते और सरियं को सजा िेते। िे न तो िकसी का ििरोध करते और न ही िननरिा ही। एक बार अनजाने में उनके िरिारा िकसी िरयिकरत के िलए िननरिातरमक िबरि िनकल गये। जैसे ही िे सािधान हुए, िैसे ही एक पतरथर उठाकर अपने ही िसर पर जोर-जोर सेतब तक मारतेरहेजब तक िक खून न बहनेलगा । इस घाि को ठीक होनेमेंएक महीना लग गया। इस िििितरर कायरर को योगरय ठहराते हुए उनरहोंने कहाः "िुषरि को सही सजा िमलनी ही िािहए।" सरिामी रामकृषरण को जब गले का कैंसर हो गया था, तब नाग महािय रामकृषरणिेि की पीड़ा को िेख नहीं पाते थे। एक ििन जब नाग महा य उनको पररणाम करने गये, तब रामकृषरणिेि ने कहाः "ओह ! तुम आ गये। िेखो, डॉकरिर ििफल हो गये। करया तुम मेरा इलाज कर सकते हो?" िुगाररिरण एक करषण के िलए सोिने लगे। िफर रामकृषरणिेि के रोग क अपने रीर पर लाने के िलए मन ही मन संकलरप िकया और बोलेः "जी गुरि ु ेि! आपका इलाज मैं जानता हूँ। आपकी कृपा से मैं अभी िह इलाज करता हूँ।" लेिकन जैसे ही िे परमहंसजी के िनकि पहुँिे, रामकृषरण परमहंस उनक इरािा जान गये। उनरहोंनेनाग महािय को हाथ सेधकरकािेकर िूर कर ििया और कहाः"हाँ, मैं जानता हूँ िक तुममें यह रोग िमिाने की ििकरत है।" अनुकररम , । , ।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

पररािीन काल में आयोि धौमरय नाम के एक ऋिष थे। उनके सुरमरय पिितरर आिररम में बहुत ििषय रहते थे। उनमे आरिि नाम का ििषय बडा ही नम, सेिाभािी और आजरञापालक था। एक बार खूब िषारर हुई। गुरु ने आरूणी को आिररम के खेतों की िेखभाल के िलए भेजा। आरूणी ने खेत जाकर िेखा िक खेत का सारा पानी तो सीमा तोड़कर बाहर िनकला जा रहा है। थोड़ी िेर में तो पानी का िेग सारी पाल तोड़ िेगा और िमिरिी बह जायेगी। आरूणी ने कमर कसी। जहाँ से पानी िनकल रहा था िहाँ उसने िमिरिी डालना ुरु िकया, परंतु पानी का िेग सब िमिरिी बहा ले जाता। आिखर आरूणी पानी रोकनेके िलए सरियंही उस िूिी हुई सीमा मेंलेिगया। उसकेिरीर केअिरोध केकारण बहता पानी तो रुक गया, परंतु इस तरह उसे सारी रात ठंडे पानी में लेिे रहना पड़ा। इस पररकार उसने खेत की रकरषा की। पररातःकाल हुआ। आिि ररम के सब िषरय जब गुरुिेि को पररणाम करने गये तब उनमें ि आरूणी ििखा नहीं। गुरु िषरयों को साथ लेकर आरूणी को ढूँढने खेत की ओर गये और आिाज लगायीः "आरूणी...! आरूणी...!!" आरूणी ने गुरु की आिाज सुनी। उसका िरीर तो ठंड से िठठुर गया था, आिाज िब गयी थी, िफर भी िह उठा और गुरि ु ेि को पररणाण करके बोलाः "करया आजरञा है गुरुिेि?" गुरु आयोि धौमरय का हृिय भर आया। िषरय की सेिा िेखकर उनका गुरुतरि छलक उठा। आरूणी के अंतर में िासरतररों का जरञान अपने-आप पररकि होने लगा। गुरु ने उसका नाम उिरिालक रखा। धनरय है गुरुभकरत आरूणी ! अनुकररम , । ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ आयोि ि धौमरय का िूसरा एक िषरय था – उपमनरयु। गुरु ने उसे गायें िराने की सेिा िी। उपमनरयु सारा ििन गायें िराता और ाम को गायों के साथ आ ररम पहुँि जाता। उसका िरीर हृष-पुषरि िेखकर गुरु ने एक ििन पूछाः "बेिा ! तू रोज करया खाता है?" उपमनरयुः "गुरुिेि ! िभकरषा में मुझे जो िमलता है िह खाता हूँ।" गुरुः "यह तो अधमरर है। िभकरषा गुरु को अपररण िकये िबना नहीं खानी िािहए।" । ।। िूसरे ििन से उपमनरयु गायों को जंगल में छोड़कर, गाँि से िभकरषा माँगकर ले आता और गुरुिेि के िरणों में अिपररत

कर िेता। गुरुिेि सारी िभकरषा रख लेते और उसे कुछ नहीं िेते। कुछ ििन बाि उपमनरयु को िैसा ही तनरिुरुसरत िेखकर गुरु ने पूछा तो उसने बतायाः "गुरुिेि ! एक बार िभकरषा माँगकर आपके िरणों में अिपररत कर िेता हूँ, िफर िूसरी बार माँगकर सरियं खा लेता हूँ।" गुरुः "तुम ऐसा करके िूसरे िभकरषाजीिी लोगों की जीििका में बाधा डालते हो, अतः लोभी हो। तुमरहें िुबारा िभकरषा नहीं लानी िािहए।" गुरुिेि की यह आजरञा भी उपमनरयु ने आिरपूिररक सरिीकार की। कुछ ििन बाि िफर उपमनरयु को उसके िनिाररह के बारे में पूछा तो िह बोलाः "पररभु ! मैं गायों का िूध पीकर िनिाररह कर लेता हूँ।" गुरुः "यह तो अधमरर है। गुरु की गायों का िूध गुरु की आजरञा के िबना पी लेना तो िोरी हो गयी। ऐसा मत करो।" िूध पीना बंि होने के बाि भी उपमनरयु को िैसा ही तनरिुरुसरत िेखा तो िफर गुरु ने उसे बुलाया। पूछने पर उपमनरयु बोलाः "गाय का िूध जब बछड़े पीते हैं तब थोड़ा फेन बाहर आता है। मैं उसे ही िािकर संतोष कर लेता हूँ।" गुरुः "बेिा ! तुमको ऐसा करते िेखकर तो बछड़े जरयािा फेन बाहर छोड़ते होंगे और सरियं भूखे रह जाते होंगे। ऐसा करना तुमरहारे िलय योगरय नहीं है।" अब उपमनरयु के िलए भोजन के सब रासरते बनरि हो गये। परंतु गुरु के पररित उसके अहोभाि और िररिरधा में लेिमातरर भी फकरर नहीं पड़ा। गुरु िरिारा सौंपी गयी सेिा िालू रही। बहुत भूख लगती तो िह कभी िकसी िृकरष या िनसरपित के पतरते िबा लेता। एक बार करषुधापीिड़त उपमनरयु भूल से आक के पतरते खा गया और अपनी आँखें खो बैठा। रासरता न ििखने के कारण िह एक कुएँ में िगर पड़ा। अनुकररम । ििषय के कलयाि के िलए , उसके जीिन को गढ़ने के िलए बाहर से तो िजरर से भी कठोर ििखने िाले परंतु भीतर से फूल से भी कोमल कृपालु गुरुिेि ने जब गायों के पीछे उपमनरयु को लौिता हुआ नहीं िेखा तो उसे ढूँढने के िलए सरियं जंगल की ओर िल पड़े। 'उपमनरयु...! बेिा उपमनरयु..... !' की पुकार जंगल में गूँज उठी। (हे उपमनरयु ! तू धनरय है ! हजारों भकरत पूजा के समय िजनरहें पुकारते हों िे गुरु तुझे पुकार रहे हैं। धनरय है तेरी सेिा !) गुरु के मुख िरिारा अपने नाम का उिरिार सुनकर कुएँ में से उपमनरयु ने उतरतर ििया। कुएँ के पास आकर गुरु ने सारी हकीकत जानी और आँखों के उपिार के िलए अिभमनरयु को िि िेिों के िैिरय अ ि र ि न ी क ु म ा रों की सरतुित स उसे आँखों की ििा के रूप में पूआ खाने को ििया। उपमनरयु बोलाः "अब मुझसे गुरु की आजरञा के िबना कुछ भी नहीं खाने जायेगा।" अ ि ि रिनीकुमारः "यह तो ििाई है। इसे लेने में कोई हजरर नहीं है। तुमरहारे गुरु की भी ऐसी ही अिसरथा हुई थी, तब उनरहोंने भी खा िलया था।" उपमनरयु ने नमरर भाि से कहाः " । ।" ि अ ि र ि न ी क ु म ा र पररसनरन हुए। उनरह कुएँ से बाहर आया और सब िृतरतांत कहकर गुरुिेि के िरणों में िगर पड़ा। गुरुिेि का हृिय भर आया और उनके मुखारििनरि से अमृत-ििनों के रूप में आिीिाररि िनकल पड़ेः "बेिा ! तू िेि-िेिांग का जरञाता, धमाररिलंबी और महान पंिडत बनेगा।" हुआ भी ऐसा ही। लाख-लाख िंिन हों, बाहर से कठोर ििखते हुए भी अनरिर से िषरय का कलरयाण करने िाला बररहरमिेतरता सिगुरुओं को ! धनरय है ऐसी कठोर कसौिी में भी अिडग रहकर पररितकार न करने िाले एिं गुरु िरिारा िमलने िाले आधरयाितरमक अमृत को पिाकर पार ही जाने िाले उपमनरयु जैसे सत िषरय! अनुकररम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

। ।। 1 यिि िरीर रुपिान हो, पतरनी भी रूपसी हो और सतरकीितरर िारों िििाओं में ििसरतिरत हो, मेरु पिररत के तुलरय अपार धन हो, िकंतु गुरु के िररीिरणों में यिि मन आसकरत न हो तो इन सारी उपलिबरधयों से करया लाभ? । ।। 2 सुनरिरी पतरनी, धन, पुतरर-पौतरर, घर एिं सरिजन आिि पररारबरध से सिरर सुलभ हो िकंतु गुरु के ररीिरणों में मन की आसिकरत न हो तो इस पररारबरध-सुख से करया लाभ? । ।। 3 िेि एिं षििेिांगािि िासरतरर िजनरहें कंठसरथ हों, िजनमेंसुनरिर कािरय-िनमाररण की पररितभा हो, िकंतु उसका मन यिि गुरु के िररीिरणों के पररित आसकरत न हो तो इन सिगुणों से करया लाभ? । ।। 4 िजनरहेंिििेिोंमेंसमािरिमलता हो, अपने िेि में िजनका िनतरय जय-जयकार सेसरिागतिकया जाता हो और जो सिािार-पालन में भी अननरय सरथान रखता हो, यिि उसका भी मन गुरु के शीचरिो केपित अनासकत हो तो इन सदगुिो से कया लाभ ? । ।। 5 िजन महानुभाि केिरणकमल पृथरिीमणरडल केराजा -महाराजाओं से िनतरय पूिजत रहा करते हों, िकंतु उनका मन यिि गुरु के िररी िरणों में आसकरत न हो तो इसे सिभागरय से करया लाभ? अनुकररम । ।। 6 िानिृितरत के पररताप से िजनकी कीितरर ििगििगानरतरों में िरयापरत हो, अित उिार गुरु की सहज कृपािृिषरि से िजनरहें संसार के सारे सुख-ऐशयत हसतगत हो, िकंतु उनका मन यिि गुरु के िररीिरणों में आसिकरतभाि न रखता हो तो इन सारे ऐिि र योररं से करया लाभ?

। ।। 7 िजनका मन भोग, योग, अ ि,र राजर ि य, धनोपभोग और सरतररीसुख से कभी ििििलत न हुआ हो, िफर भी गुरु के िररीिरणों के पररित आसकरत न बन पाया हो तो इस मन की अिलता से करया लाभ? । ।। 8 िजनका मन िन या अपनेिि िाल भिन ,मेअपने ं कायरर या िरीर में तथा अमूलरय भंडार में आसकरत न हो, पर गुरु के िररीिरणों में भी यिि िह मन आसकरत न हो पाये तो उसकी सारी अनासिकरतयों का करया लाभ? । ।। 9 अमूलरय मिण-मुकरतािि रतरन उपलबरध हो, राितरर में समिलंिगता ििलािसनी पतरनी भी पररापरत हो, िफर भी मन गुरु के िररीिरणों के पररित आसकरत न बन पाये तो इन सारे ऐिरियररभोगािि सुखों से करया लाभ? अनुकररम । ।। 10 जो यती, राजा, बररहरमिारी एिं गृहसरथ इस गुरु-अषरिक का पठन-पाठन करता है और िजसका मन गुरु केििन मेंआसकरत है, िह पुणरयिाली िरीरधारी अपने इििरछताथरर एिं बररहरमपि इन िोनों को समरपररापरत कर लेता है यह िन ि रितहै। शी भैरवी देवी भगवान भैरव से कहती है। ।। 'िजसकेहृिय मेंगुरभ ु िकरत हैिह इनरिरर-पि को पररापरत होता है अथाररतर उसके हृिय में िेितरि िखलता है एिं िजसकी गुरुिरणों में भिकरत नहीं है िह ू कर (सूअर) होता है अथाररतर उसमें असुरतरि पररकि होता है। समसरत भिकरत ासरतररों में यह कहा गया है िक गुरुभिकरत से िररेषरठ कुछ भी नहीं है।' ( – 1.243) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जगत मेंसिाररिधक पाप कािनेऔर आधरयाितरमक तौर पर ऊँिा उठानेिाला कोई साधन हैतो िह हैबररहमरजर ञानी महापुरुषों की डाँि, मार ि उनके ममररभेिी िबरि। िषरयोंके िििेष प ापों की सफाई के िलए अथिा उनरहें ऊँिा उठाने के िलए सिगुरु िरिारा िी जाने िाली डाँि-ि मार के पीछे िषरय की गलती िनिमतरतमातरर होती है। मूल कारण तो सिररतरर िरयापरत गुरुततरतरि िरिारा बनाया गया माहौल होता है।

जब भी िकसी बररहमिनषर र ठसिगुरु िरिारािकसी िषरय को िी जानेिाली डाँि-मार अथिा ममररभेिी िबरिों से ि िषरय को मृतरयुतुलरय कषरि हो और सिगुरु का सािनरनधरय छोड़कर घर भाग जाने के िििार आयें तो उसे भागना नहीं िािहए, लेिकन समझना िािहए िक इस मनःसंताप से अपने कई जनरमोंकेपाप भसरम हो रहेहैं। अनुकररम सिरिे सिगुरु तो तुमरहारे सरिरिित सपनों की धिजरजयाँ उड़ा िेंगे। अपने ममररभेिी िबरिों से तुमरहारे अंतःकरण को झकझोर िेंगे। िजरर की तरह िे िगरेंगे तुमरहारे ऊपर। तुमको नया रूप िेना है, नयी मूितरर बनाना है, नया जनरम िेना है न ! िे तरह-तरह की िोि पहुँिायेगे, तुमरहें तरह-तरह से कािेंगे तभी तो तुम पूजनीय मूितरर बनोगे। अनरयथा तो िनरे पतरथर रह जाओगे। तुम पतरथर न रह जाओ इसीिलए तो तुमरहारे अहंकार को तोड़ना है, भररांितयों के जाल को कािना है। तुमरहें नये जनरम के िलए नौ माह के गभररिास और जनरम लेते समय होने िाली पीड़ा तो सहनी पड़ेगी न ! बीज से िृकरष बनने के िलए बीज के िपछले रूप को तो सड़ना-गलना पड़ेगा न ! ििषय केिलए सदगुर की कृपापूित िकररया एक िलरयिकररया के समान है। सिगुरु के िरणों में रहना है तो एक बात मत भूलना – िोि लगेगी, छाती फि जायेगी गुरु के िबरि-बाणों से। खून भी बहेगा। घाि भी होंगे। पीड़ा भी होगी। उस पीड़ा से लाखों जनरमों की पीड़ा िमिती है। । िसििरधयाँ पीड़ा से पररापरत होती हैं। जो हमारे आतरमा के आतरमा हैं, जो सब कुछहैंउनरहींकी पररिपर ा तरूपिसििरध िमलेगी।.... लेिकन भैया ! याि रखना, अपने िबना िकसी सरिाथरर के अपनी िलरयिकररया िरिारा कभी-कभी आते हैं इस धरा पर। उनरहीं के िरिारा लोगों का कलरयाण होता है बड़ी भारी संखरया में। कई जनरमों के संिित पुणरयों का उिय होने पर भागरय से अगर इतने करुणािान महापुरष ु िमल जायें तो हे िमतरर ! परराण जायें तो जायें, पर भागना मत। कबीरजी कहते हैं, । अतः कायरता मत ििखाना। भागना मत। भगोड़े मत बनना। अनरयथा तो करया होगा िक पुनः पुनः आना पड़ेगा। पूछोगेः "कहाँ?" ...तो जिाब है, यहीं.... इसी धरा पर घोड़ा, गधा, कुतरता िृकरषािि बनकर.... पता नहीं करया-करया बनकर आना पड़ेगा। अब तुमरहीं िनणररय कर लो। बहुत-से साधकों को सिगुरु के सािनरनधरय में रहना तब तक अिरछा लगता है जब तक िे पररेम िेते हैं। परंतु जब उनके उतरथानाथरर सिगुरु उनका ितरसरकार करते हैं, फिकारते हैं, उनका िेहाधरयास तोड़ने के िलए उनरहें िििभनरन कसौिियों में कसते हैं तब साधक कहता है.... "मैं सिगुरु के सािनरनधरय में रहना तो िाहता हूँ, पर करया करूँ? बड़ी परेिानी है। इतना कठोर िनयंतररण !" भैया ! घबरा मत। एक तेरे िलए सिगुरु अपने िनयम नहीं बिलेंगे। उनरहें लाखों का कलरयाण करना है। उनकी लड़ाई तेरे से नहीं, तेरी मिलन कलरपनाओं से है। तेरे मन को, तेरे अहंकार को िमिाना है, तेरे मन के ऊपर गाज िगराना है... तभी तो तू बररहरमसरिरूप में जागेगा। तेरे अहं का अिसरततरि िमिेगा तभी तो तेरा कलरयाण होगा। अभी तो मन तुझे िगा िे रहा है। मन के िरिारा माँगी जाने िाली यह सरितंतररता िासरतििक सरितंतररता नहीं है अिपतु सरिेिरछािार है। सिरिी सरितंतररता तो आतरमजरञान में है। आतरमजरञान के रासरते जलरिी आगे बढ़ाने के िलए ही सिगुरु साधक को कंिन की तरह तपाना िुरु करते हैं। परंतु साधक में यिि िििेक जागृत न हो तो उसका मन उसे ऐसे खडरडे में पिकता है िक जहाँ से उठने में उसे िषोररं नहीं, जनरमों लग जातेहैं। िफर तो िह... , । अनुकररम याि रखो, जब भी तुमरहेंसिगुरु की गढ़ाई का सामना करना पडे ़, अपनी ििनियारर को झाँक लो, अपनी गलितयों को िनहार लो। िन ि र ि त ह ीतु , कोई मसेकोईगलतीहु पाप हुआ हैईआगेहै पीछे अथिा कोई पकड़ आ गयी है। तातरकािलक गलती तो िनिमतरतमातरर है। सिगुरु तो तुमरहारे एक-एक पाप की सफाई करके तुमरहें आगे बढ़ाना िाहते हैं। सबके भागरय में नहीं होती सिगुरु की गढ़ाई। तुम भागरय ाली हो िक सिगुरु ने तुमरहें गढ़ने के योगरय समझा है। तुम भागरयिाली हो िक सिगुरु ने तुमरहें गढ़ने के योगरय समझा है। तुम अपनी

सहनििकरत का पिरिय िेते हुए उनरहें सहयोग िो और जरा सोिो िक 'तुमसे उनरहें कुछ पाना नहीं है, उनका िकसी पररकार का सरिाथरर नहीं है। केिल एिं केिल तुमरहारे कलरयाण के िलए ही िे अपना बररहरमभाि छोड़कर सा कररोधपूणरर बीभतरस रूप धारण करते हैं।' अरे, रो ले एकानरत में बैठकर... रो ले भैया ! इतना जानकर भी सिगुरु के पररित तुमरहारे अंतःकरण में िरिेष उतरपनरन हो रहा है तो फि नहीं जाती छाती तेरी? िैसे ऑपरेिन के समय सिगुरु इतनी माया फैलाकर रखते हैं िक गढ़ाई से उतरपनरन िििारों का पोषण करने की िषरय की औकात नहीं करयोंिक.... , । िफर भी िितरत सिगुरु का अपमान करता है, अहंकारिि जरयािा हठ करता है तो सिगुरु स िूर हो सकता है। अतः हे साधक ! सािधान ! अनुकररम , । , ।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

। ।। । ।। । ।। । ।। । ।। । ।। िेििषरर नारिजी धमररराज युिधिषरठर से कहते हैं- "धमररराज ! संकलरपों के पिरतरयाग से काम को, कामनाओं के तरयाग से कररोध को, संसारी लोग िजसे 'अथरर' कहते हैं उसे अनथरर समझकर लोभ को और ततरतरि के िििार से भय को जीत लेना िािहए। अधरयातरम-िििरया से िोक और मोह पर, संतों की उपासना से िमरभ पर, मौन के िरिारा योग के ििघरनों पर और िरीर-परराण आिि को िन िर िेषरि करके िहंसा पर ििजय पररापरत करनी िािहए। आिधभौितक िुःख को िया के िरिारा, आिधिैििक िेिना को समािध के िरिारा और आधरयाितरमक िुःख को योगबल से एिं िनिररा को साितरतरिक भोजन, संग आिि के सेिन से जीत लेनािािहए। सतरतरिगुण के िरिारा रजोगुण एिं तमोगुण पर और उपरित के िरिारा सतरतरिगुण पर ििजय पररापरत करनी िािहए। ररीगुरुिेि की भिकरत के िरिारा साधक इन सभी िोषों पर सुगमता से ििजय पररापरत कर सकता है। हृियों में जरञान का िीपक जलानेिाले गुरुिेि साकरषातर भगिान ही हैं। जो िुबुरिर िरध पुरुष उनरहें मनुषरय समझता है, उसका समसरत िासरतरर-शवि हाथी केसनान केसमान वयथत है।

बड़े-बड़े योगे िर िरिजनके िरणकमलों का अनुसंधान करते रहते हैं , पररकृित और पुरुष के अधी िर िरिे सरियं भगिान ही गुरुिेि के रूप में पररकि हैं। इनरहें लोग भररम से मनुषरय मानते हैं। अनुकररम ( 7.15.22-27) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

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