मंत जाप मिि मा एव ं अ नुष ान िविि भगवननाम -मिि मा भगवननाम अननत मािुयय, ऐशयय और सुख की खान िै । सभी शासो मे नाम की
मििमा का वणन य िकया गया िै । इस नानािवि आिि-वयािि से गसत कििकाि मे
ििरनाम-जप संसार सागर से पार िोने का एक उतम सािन िै । भगवान वेदवयास जी तो किते िै -
िरेना य म िर ेना य म िर ेना य मैव केव िम।्
किौ नासतय ेव नासतय ेव नासतय ेव ग ितर नयथा।। (बृ िननारदीय
पदपुराण मे आया िै ः ये वदिनत
पुराणः
38.127)
नरा िनतय ं ििर िरतयकरद यम।्
तसयोचचारणमात ेण िवम ुकासत े न स ं शयः।। ‘जो मनुषय परमातमा के इस दो अकरवािे नाम ‘ििर’ का िनतय उचचारण करते
िै , उसके उचचारणमात से वे मुक िो जाते िै , इसमे शंका निीं िै ।’ गरड पुराण मे उपिदष िै िकः
यदीचछ िस पर ं जान ं जानाचच परम ं पद म।् तदा यत े न मि ता कुर शीििर कीत य नम।् ।
‘यिद परम जान अथात य आतमजान की इचछा िै और उस आतमजान से परम पद पाने की इचछा िै तो खूब यतपूवक य शी ििर के नाम का कीतन य करो।’ एक बार नारद जी ने भगवान बहा जी से किाः
फँसूं।"
"ऐसा कोई उपाय बतिाइए, िजससे मै िवकराि कििकाि के काि जाि मे न इसके उतर मे बहाजी ने किाः आिदप ुरषसय नाराय णसय नामोचचारणमात
िनि ूय त किि भय वित ।
ेण
‘आिद पुरष भगवान नारायण के नामोचचार करने मात से िी मनुषय किि से तर
जाता िै ।’
(कििस ंवरणोपिनषद )
शीमदभागवत के अंितम शोक मे भगवान वेदवयास किते िै -
नामस ंकीत य नं यस य सव य पापपणा शनम।्
पणामो द ु ःखशमनसत ं नमा िम ि िरं पदम।् ।
‘िजसका नाम-संकीतन य सभी पापो का िवनाशक िै और पणाम दःुख का शमन
करने वािा िै , उस शीििर-पद को मै नमसकार करता िूँ।’
कििकाि मे नाम की मििमा का बयान करते िुए भगवान वेदवयास जी
शीमदभागवत मे किते िै -
कृत े यद धयायतो
िवषण ुं त ेताया ं यजतो मख ैः।
दापर े प िरचया य यां किौ तदिरकीत
य नात।् ।
‘सतयुग मे भगवान िवषणु के धयान से, तेता मे यज से और दापर मे भगवान की पूजा-अचन य ा से जो फि िमिता था, वि सब किियुग मे भगवान के नाम कीतन य मात से िी पाप िो जाता िै ।’
(शीमदभागव तः 13.3.52)
‘शीरामचिरतमानस’ मे गोसवामी तुिसी दास जी मिाराज इसी बात को इस रप मे किते िै -
कृ तजुग त ेत ाँ दापर
पूजा म ख अर जोग।
जो ग ित िोइ सो क िि ि िर नाम त े पाविि ं िोग।।
‘सतयुग, तेता और दापर मे जो गित पूजा, यज और योग से पाप िोती िै , विी गित किियुग मे िोग केवि भगवान के नाम से पा जाते िै ।’
(शीर ाम चिरत . उतरकाण डः 102 ख)
आगे गोसवामी जी किते िै -
किि जुग केव ि ििर ग ुन गा िा। गाव त न र पाविि ं भ व थािा।।
कििज ु ग जोग न जगय एक आ िार राम
न गया ना।
गुन ग ान ा।।
सब भरोस त िज जो भ ज रामिि। पेम सम े त गाव ग ुन गाम िि।।
सोइ भव तर कछ ु स ंसय नािी ं। नाम पताप पगय क
िि माि ीं।।
‘किियुग मे तो केवि शी ििर की गुणगाथाओं का गान करने से िी मनुषय भवसागर की थाि पा जाते िै ।
किियुग मे न तो योग और यज िै और न जान िी िै । शी राम जी का गुणगान
िी एकमात आिार िै । अतएव सारे भरोसे तयागकर जो शीरामजी को भजता िै और
पेमसिित उनके गुणसमूिो को गाता िै , विी भवसागर से तर जाता िै , इसमे कुछ भी संदेि निीं। नाम का पताप किियुग मे पतयक िै ।’
(शी रामच िरत . उतरकाणड ः 102.4 से 7) चिुँ ज ु ग चि ुँ श ु ित नाम पभाऊ।
किि िबस ेिष निि ं आन उ पाऊ।। ‘यो तो चारो युगो मे और चारो िी वेदो मे नाम का पभाव िै िकनतु किियुग मे
िवशेष रप से िै । इसमे तो नाम को छोडकर दस ू रा कोई उपाय िी निीं िै ।’
(शीर ाम चिरत . बाि काणडः
21.8)
गोसवामी शी तुिसीदास जी मिाराज के िवचार मे अचछे अथवा बुरे भाव से, कोि अथवा आिसय से िकसी भी पकार से भगवननाम का जप करने से वयिक को दसो िदशाओं मे कलयाण-िी-कलयाण पाप िोता िै ।
भाय ँ कुभाय ँ अनख आ िसि ूँ।
नाम जपत म ंगि िदिस दसि ूँ।।
(शीर ाम चिरत . बाि काणडः
27.1)
यि कलपवक ृ सवरप भगवननाम समरण करने से िी संसार के सब जंजािो को नष कर दे ने वािा िै । यि भगवननाम कििकाि मे मनोवांिछत फिो को दे ने वािा, परिोक
का परम िितैषी एवं इस संसार मे वयिक का माता-िपता के समान सब पकार से पािन एवं रकण करने वािा िै ।
नाम कामतर का ि करािा। सु िमरत समन स कि जग जा िा।। राम न ाम क िि अ िभम त दाता।
िि त परिोक िोक िप
तु माता।।
(शीर ाम चिरत . बाि काणडः
26.5-6)
इस भगवननाम-जपयोग के आधयाितमक एवं िौिकक पक का सुंदर समनवय करते
िुए गोसवामी जी किते िै िक बहाजी के बनाये िुए इस पपंचातमक दशयजगत से भिी भाँित छूटे िुए वैरागयवान ् मुिक योगी पुरष इस नाम को िी जीभ से जपते िुए
ततवजानरप िदन मे जागते िै और नाम तथा रप से रिित अनुपम, अिनवच य नीय, अनामय बहसुख का अनुभव करते िै । जो परमातमा के गूढ रिसय को जानना चािते िै , वे िजहा दारा भगवननाम का जप करके उसे जान िेते िै । िौिकक िसिदयो के आकाँकी सािक िययोग दारा भगवननाम जपकर अिणमािद िसिदयाँ पाप कर िसद िो जाया करते िै ।
इसी पकार जब संकट से घबराये िुए आतय भक नामजप करते िै तो उनके बडे -बडे संकट िमट जाते िै और वे सुखी िो जाते िै ।
नाम जीि ँ ज िप जाग ििं जोगी। िबरती
िबर ंिच पप ं च िबयोगी।।
बहसुखिि अन ुभविि ं अन ूपा। अक थ अनामय
नाम न रपा।।
जाना च ििि ं ग ूढ गित
जेऊ।
नाम जीि ँ जिप जानिि ं त ेऊ।।
सािक नाम जप ििं िय िाए ँ। िो ििं िसद अिन मािदक पाए ँ।। जप ििं नाम ु जन आर त भारी।
िम टिि ं कु संकट िोिि ं स ुखा री।।
( शी रामच िरत . बािकाणड ः 21,1 से 5)
नाम को िनगुण य (बह) एवं सगुण (राम) से भी बडा बताते िुए तुिसीदास जी ने तो
यिाँ तक कि िदया िकः
अगुन स गुन द ु इ बह स रपा।
अक थ अगाि अनािद अन
ूपा।।
मोर े म त बड नाम ु द ु िू ते।
िकए ज े ििं ज ुग िन ज बस िनज ब ूत े।। बह के दो सवरप िै - िनगुण य और सगुण। ये दोनो िी अकथनीय, अथाि, अनािद
और अनुपम िै । मेरी मित मे नाम इन दोनो से बडा िै , िजसने अपने बि से दोनो को वश मे कर रखा िै ।
(शीर ाम चिरत . बाि काणडः
22,1-2)
अंत मे नाम को राम से भी अििक बताते िुए तुिसीदास जी किते िै सबरी गीघ
सुस ेवकिन स ुगित दीिनि
र घुनाथ।
नाम उिार े अ िमत ख ि ब ेद ग ुन गाथ।।
‘शी रघुनाथ जी ने तो शबरी, जटायु िगद आिद उतम सेवको को िी मुिक दी, परनतु नाम ने अनिगनत दष ु ो का भी उदार िकया। नाम के गुणो की कथा वेदो मे भी पिसद िै ।’
(शीर ाम चिरत . बाि काणडः
24)
अपत ु अजा िमि ु ग जु गिन काऊ। भए म ुकुत ि िरनाम पभाऊ।। किौ क िौ ििग
नाम ब डाई।
राम ु न सक ििं नाम गुन गा ई।।
‘नीच अजािमि, गज और गिणका भी शीििर के नाम के पभाव से मुक िो गये। मै नाम की बडाई किाँ तक किूँ? राम भी नाम के गुणो को निीं गा सकते।’
(शीर ाम चिरत . बाि काणडः 25,7-8) िकनिीं मिापुरषो ने किा िै ः
आिो s यं सव य शास ािण िवचाय य च प ुन ः प ुनः। एक मेव स ुिनषप ननं ि िरना य मैव केविम।् ।
सवश य ासो का मनथन करने के बाद, बार-बार िवचार करने के बाद, ऋिष-मुिनयो को जो एक सतय िगा, वि िै भगवननाम। तुकारामजी मिाराज किते िै -
‘नामजप स े बढकर कोई भी सा
िना नि ीं ि ै। त ुम और जो चािो स
करो , पर नाम ि ेत े रिो। इसम े भ ूि न िो। यिी
स बसे प ुकार -पुकारकर म ेरा
किना ि ै। अ नय िक सी स ािन की कोई जररत निी नाम ज पते रिो। ’
े
ं ि ै। बस िनषा के स ाथ
इस भगवननाम-जप की मििमा अनंत िै । इस जप के पसाद से िशवजी अिवनाशी
िै एवं अमंगि वेशवािे िोने पर भी मंगि की रािश िै । परम योगी शुकदे वजी, सनकािद
िसदगण, मुिनजन एवं समसत योगीजन इस िदवय नाम-जप के पसाद से िी बहनंद का भोग करते िै । भवतिशरोमिण शीनारद जी, भक पहाद, धुव, अमबरीष, परम भागवत शी
िनुमानजी, अजािमि, गिणका, िगद जटायु, केवट, भीिनी शबरी- सभी ने इस भगवननामजप के दारा भगवतपािप की िै ।
मधयकािीन भक एवं संत किव सूर, तुिसी, कबीर, दाद ू, नानक, रै दास, पीपा,
सुनदरदास आिद संतो तथा मीराबाई, सिजोबाई जैसी योिगिनयो ने इसी जपयोग की सािना करके संपूणय संसार को आतमकलयाण का संदेश िदया िै ।
नाम की मििमा अगाि िै । इसके अिौिकक सामथयय का पूणत य या वणन य कर पाना
संभव निीं िै । संत-मिापुरष इसकी मििमा सवानुभव से गाते िै और विी िम िोगो के ििए आिार िो जाता िै ।
नाम की मििमा के िवषय मे संत शी जानेशर मिाराज किते िै -
"नाम संकीतन य की ऐसी मििमा िै िक उससे सब पाप नष िो जाते िै । िफर पापो के ििए पायिित करने का िविान बतिाने वािो का वयवसाय िी नष िो जाता िै ,
कयोिक नाम-संकीतन य िेशमात भी पाप निीं रिने दे ता। यम-दमािद इसके सामने फीके पड जाते िै , तीथय अपने सथान छोड जाते िै , यमिोक का रासता िी बंद िो जाता िै । यम
किते िै - िम िकसको यातना दे ? दम किते िै - िम िकसका भकण करे ? यिाँ तो दमन के ििए भी पाप-ताप निीं रि गया! भगवननाम का संकीतन य इस पकार संसार के दःुखो को नष कर दे ता िै एवं सारा िवश आनंद से ओत-पोत िो जाता िै ।"
(जान े शरीगीताः अ .9,197-200)
नामो चार ण का फ ि शीमदभागवत मे आता िै : सांकेतय ं पािरिासय ं वा स तोत ं ि ेिनम ेव वा वैकुणठनामगिणम शेषििर ं िवटुः
|
||
पितत ः सखिि तो भगन ः स ंदषसतप आ ितः | ििरिरतयवश ेनाि प ुमा ननाि य ित यातन ाम ् ||
‘भगवान का नाम चािे जैसे ििया जाय- िकसी बात का संकेत करने के ििए, िँ सी
करने के ििए अथवा ितरसकार पूवक य िी कयो न िो, वि संपूण य पापो का नाश करनेवािा िोता िै | पतन िोने पर, िगरने पर, कुछ टू ट जाने पर, डँ से जाने पर, बाह या आनतर ताप िोने पर और घायि िोने पर जो पुरष िववशता से भी ‘ििर’ ये नाम का उचचारण करता िै , वि यम-यातना के योगय निीं | (शीमदभागवत: 6.2.14,15) मंत जाप का पभाव सूकम िकनतु गिरा िोता िै | जब िकमणजी ने मंत जप कर सीताजी की कुटीर के चारो तरफ भूिम पर एक रे खा खींच दी तो िंकाििपित रावण तक उस िकमणरे खा को न िाँघ सका | िािाँिक
रावण मायावी िवदाओं का जानकार था, िकंतु जयोिि वि रे ख को िाँघने की इचछा करता तयोिि उसके सारे शरीर मे जिन िोने िगती थी | मंतजप से पुराने संसकार िटते जाते िै , जापक मे सौमयता आती जाती िै और उसका आितमक बि बढता जाता िै | मंतजप से िचत पावन िोने िगता िै | रक के कण पिवत िोने िगते िै | दःुख,
िचंता, भय, शोक, रोग आिद िनवत ृ िोने िगते िै | सुख-समिृद और सफिता की पािप मे मदद िमिने िगती िै |
जैसे, धविन-तरं गे दरू-दरू जाती िै , ऐसे िी नाि-जप की तरं गे िमारे अंतमन य मे गिरे
उतर जाती िै तथा िपछिे कई जनमो के पाप िमटा दे ती िै | इससे िमारे अंदर शिकसामथय य पकट िोने िगता िै और बुिद का िवकास िोने िगता िै | अििक मंत जप से दरूदशन य , दरूशवण आिद िसदयाँ आने िगती िै , िकनतु सािक को चाििए िक इन िसिदयो के चककर मे न पडे , वरन ् अंितम िकय परमातम-पािप मे िी िनरं तर संिगन रिे |
मनु मिाराज किते थे िक: “जप मात से िी बाहण िस िद को पा िे ता िै और बडे -मे -बडी िसिद िै
हदय की
शुिद |”
भगवान बुद किा करते थे: “मंतज प असीम मानवता
को एकाकार
कर द े ता िै |”
के सा थ तुमिार े हदय
मंतजप से शांित तो िमिती िी िै , वि भिक व मुिक का भी दाता िै | मंतजप करने से मनुषय के अनेक पाप-ताप भसम िोने िगते िै | उसका हदय शुद िोने िगता िै तथा ऐसे करते-करते एक िदन उसके हदय मे हदतेशर का पाकटय भी िो जाता िै |
मंतजापक को वयिकगत जीवन मे सफिता तथा सामािजक जीवन मे सममान
िमिता िै | मंतजप मानव के भीतर की सोयी िुई चेतना को जगाकर उसकी मिानता को पकट कर दे ता िै | यिाँ तक की जप से जीवातमा बह-परमातमपद मे पिुँचने की कमता भी िवकिसत कर िेता िै |
जपात ् िसिद ः जपात ् िसिद ः जपात ् िस िदन य संशयः | मंत िदखने मे बिुत छोटा िोता िै िेिकन उसका पभाव बिुत बडा िोता िै | िमारे
पूवज य ॠिष-मुिनयो ने मंत के बि से िी तमाम ॠिदयाँ-िसिदयाँ व इतनी बडी िचरसथायी खयाित पाप की िै |
‘गीतापेस’ गोरखपुर के शी जयदयाि गोयनदकाजी ििखते िै : “वासतव मे, नाम की मििमा विी पुरष जान सकता िै िजसका मन िनरं तर शी भगवननाम के िचंतन मे संिगन रिता िै , नाम की िपय और मिुर समिृत से िजसको
कण-कण मे रोमांच और अशप ु ात िोते िै , जो जि के िवयोग मे मछिी की वयाकुिता के समान कणभर के नाम-िवयोग से भी िवकि िो उठता िै , जो मिापुरष िनमेषमात के ििए भी भगवान के नाम को छोड निीं सकता और जो िनषकामभाव से िनरं तर पेमपूवक य जप करते-करते उसमे तलिीन िो चुका िै |
सािना-पथ मे िवघनो को नष करने और मन मे िोने वािी सांसािरक सफुरणाओं का नाश करने के ििए आतमसवरप के िचंतनसिित पेमपूवक य भगवननाम-जप करने के समान दस ू रा कोई सािन निीं िै |”
नाम और नामी की अिभननता िै | नाम-जप करने से जापक मे नामी के सवभाव
का पतयारोपण िोने िगता िै | इससे उसके दग यु , दोष, दरुाचार िमटकर उसमे दै वी संपित ु ण के गुणो का सथापन िोता िै व नामी के ििए उतकट पेम-िािसा का िवकस िोता िै |
सदग ुर और मंत दीका अपनी इचछानुसार कोई मंत जपना बुरा निीं िै , अचछा िी िै , िेिकन जब मंत सदगुर दारा िदया जाता िै तो उसकी िवशेषता बढ जाती िै | िजनिोने मंत िसद िकया िुआ िो, ऐसे मिापुरषो के दारा िमिा िुआ मंत सािक को भी िसदावसथा मे पिुँचाने मे सकम िोता िै
| सदगुर से िमिा िुआ मंत ‘सबीज मंत’ कििाता िै कयोिक उसमे परमेशर का अनुभव कराने वािी शिक िनिित िोती िै |
सदगुर से पाप मंत को शदा-िवशासपूवक य जपने से कम समय मे िी काम बा
जाता िै |
शासो मे यि कथा आती िै िक एक बार भक धुव के संबि ं मे सािुओं की गोषी
िुई | उनिोने किा:
“दे खो, भगवान के यिाँ भी पिचान से काम िोता िै | िम िोग कई वषो से सािु
बनकर नाक रगड रिे िै , िफर भी भगवान दशन य निीं दे रिे | जबिक धुव िै नारदजी का
िशषय, नारदजी िै बहा के पुत और बहा जी उतपनन िुए िै िवषणुजी की नािभ से | इस
पकार धुव िुआ िवषणुजी के पौत का िशषय | धुव ने नारदजी से मंत पाकर उसका जप िकया तो भगवान धुव के आगे पकट िो गये |”
इस पकार की चचा य चि िी रिी थी िक इतने मे एक केवट विाँ और बोिा: “िे सािुजनो ! िगता िै आप िोग कुछ परे शान से िै | चििए, मै आपको जरा नौका िविार करवा दँ ू |”
सभी सािु नौका मे बैठ गये | केवट उनको बीच सरोवर मे िे गया जिाँ कुछ टीिे
थे | उन टीिो पर अिसथयाँ िदख रिीं थीं | तब कुतुिि वश सािुओं ने पूछा:
“केवट तुम िमे किाँ िे आये? ये िकसकी अिसथयो के ढे र िै ?” तब केवट बोिा: “ये अिसथयो के ढे र भक धुव के िै | उनिोने कई जनमो तक
भगवान को पाने के ििये यिीं तपसया की थी | आिखरी बार दे विष य नारद िमि गये तो उनकी तपसया छः मिीने मे फि गई और उनिे पभु के दशन य िो गये | सब सािुओं को अपनी शंका का समािान िमि गया | इस पकार सदगुर से पाप मंत का िवशासपूवक य जप शीघ फिदायी िोता िै | दस ू री बात: गुरपदत मंत कभी पीछा निीं छोडता | इसके भी कई दषांत िै | तीसरी बात : सदगुर िशषय की योगयता के अनुसार मंत दे ते िै | जो सािक िजस
केनद मे िोता िै , उसीके अनुरप मंत दे ने से कुणडििनी शिक जलदी जागत िोती िै | गुर दो पकार के माने जाते िै : 1. सांपदाियक गुर और 2. िोक गुर
सांपदाय के संत सबको को एक पकार का मंत दे ते िै तािक उनका संपदाय मजबूत िो | जबिक िोकसंत सािक की योगयता के अनुसार उसे मंत दे ते िै | जैसे, दे विष य नारद | नारदजी ने रताकर डाकू को ‘मरा -मरा’
मंत िदया जबिक धुव को ‘ॐ नमो भगवत े
वास ुदेवाय’ मंत िदया | मंत भी तीन पकार के िोते िै : 1. साबरी
2. तांितक और 3. वैिदक साबरी तथा तांितक मंत से छोटी-मोटी िसिदयाँ पाप िोती िै िेिकन बहिवदा के ििए तो वैिदक मंत िी िाभदायी िै | वैिदक मंत का जप इििोक और परिोक दोनो मे िाभदायी िोता िै |
िकस सािक के ििये कौन सा मंत योगय िै ? यि बत सवज य , सवश य िकमान शी
सदगुरदे व की दिष िछपी निीं रिती | इसीसे दीका के संबि ं मे पूणत य ः उनिीं पर िनभरय
रिना चाििए | वे िजस िदन, िजस अवसथा मे िशषय पर कृ पा कर दे ते िै , चािे जो मंत दे ते िै , िवििपूवक य या िबना िविि के, सब जयो-का-तयो शास सममत िै | विी शुभ मुिूतय िै , जब
शीगुरदे व की कृ पा िो | विी शुभ मंत िै , जो वे दे दे | उसमे िकसी पकार के संदेि या िवचार के ििए सथान निीं िै | वे अनाििकारी को अििकारी बना सकते िै | एक-दो की तो बात िी कया, सारे संसार का उदार कर सकते िै ‘शीगुरगीता’ मे आता िै : गुरम ंतो म ुख े यसय त सय िसिदय िनत नानयथा
|
दीकया सव य क माय िण िसदय िनत ग ुर प ु तके || ‘िजसके मुख मे गुरमंत िै , उसके सब कम य िसद िोते िै , दस ू रे के निीं | दीका के कारण िशषय के सवय कायय िसद िो जाते िै |
मंतदी का गुर मंतदीका के दार िशषय की सुषुप शिक को जगाते िै | दीका का अथ य िै : ‘दी’ अथात य जो िदया जाय, जो ईशरीय पसाद दे ने की योगयता रखते िै तथा ‘का’ अथात य जो
पचाया जाय या जो पचाने की योगयता रखता िै | पचानेवािे सािक की योगयता तथा दे नेवािे गुर का अनुगि, इन दोनो का जब मेि िोता िै , तब दीका समपनन िोती िै | गुर मंत दीका दे ते िै तो साथ-साथ अपनी चैतनय शिक भी िशषय को दे ते िै | िकसान अपने खेत मे बीज बो दे ता िै तो अनजान आदमी यि निीं कि सकता िक बीज बोया िुआ िै या निीं | परनतु जब िीरे -िीरे खेत की िसंचाई िोती िै , उसकी सुरका की जाती िै , तब बीज मे से अंकुर फूट िनकिते िै और तब सबको पता चिता िै िक खेत मे
बुवाई िुई िै | ऐसे िी मंत दीका के समय िमे जो िमिता िै , वि पता निीं चिता िक
कया िमिा, परनतु जब िम सािन-भजन से उसे सींचते िै तब मंत दीका का जो पसाद िै , बीजरप मे जो आशीवाद य िमिा िै , वि पनपता िै |
शी गुरदे व की कृ पा और िशषय की शदा, इन दो पिवत िाराओं का संगम िी दीका
िै |गुर का आतमदान और िशषय का आतमसमपण य , एक की कृ पा व दस ू रे की शदा के
मेि से िी दीका संपनन िोती िै | दान और केप, यिी दीका िै | जान, शिक व िसिद का दान और अजान, पाप और दिरदता का कय, इसी का नाम दीका िै |
सभी सािको के ििये यि दीका अिनवाय य िै |चािे जनमो की दे र िगे, परनतु जब तक ऐसी दीका निीं िोगी तब तक िसिद का मागय रका िी रिे गा | यद समसत सािको का अििकार एक िोता, यिद सािनाएँ बिुत निीं िोतीं और
िसिदयो के बिुत-से-सतर न िोते तो यि भी समभव था िक िबना दीका के िी परमाथय
पािप िो जाती | परं तु ऐसा निीं िै | इस मनुषय शरीर मे कोई पशु-योनी से आया िै और कोई दे व-योनी से,
कोई पूवय जनम मे सािना-संंपनन िोकर आया िै और कोई सीिे
नरककुणड से, िकसी का मन सुप िै और िकसी का जागत | ऐसी िसथित मे सबके ििये एक मंत, एक दे वता और एक पकार की धयान-पणािी िो िी निीं सकती |
यि सतय िै िक िसद, सािक, मंत और दे वताओं के रप मे एक िी भगवान पकट िै | िफर भी िकस हदय मे, िकस दे वता और मंत के रप मे उनकी सफूितय सिज िै - यि जानकर उनको उसी रप मे सफुिरत करना, यि दीका की िविि िै |
दीका एक दिष से गुर की ओर आतमदान, जानसंचार अथवा शिकपात िै तो दस ू री
दिष से िशषय मे सुषुप जान और शिकयो का उदबोिन िै | दीका से हदयसथ सुप शिक
के जागरण मे बडी सिायता िमिती िै और यिी कारण िै िक कभी-कभी तो िजनके िचत मे बडी भिक िै , वयाकुिता और सरि िवशास िै , वे भी भगवतकृ पा का उतना अनुभव निीं कर पाते िजतना िक िशषय को दीका से िोता िै | दीका बिुत बार निीं िोती कयोिक एक बार रासता पकड िेने पर
आगे के सथान
सवयं िी आते रिते िै | पििी भूिमका सवयं िी दस य िसत िोती ू री भूिमका के रप मे पयव िै |
सािना का अनुषान कमशः हदय को शुद करता िै और उसीके
अनुसार िसिदयो
का और जान का उदय िोता जाता िै | जान की पूणत य ा सािना की पूणत य ा िै |
िशषय के अििकार-भेद से िी मंत और दे वता का भेद िोता िै जैसे कुशि वैद रोग
का िनणय य िोने के बाद िी औषि का पयोग करते िै |
रोगिनणय य के िबना
औषि का
पयोग िनरथक य िै | वैसे िी सािक के ििए मंत और दे वता के िनणय य मे भी िोता िै | यिद
रोग का िनणय य ठीक िो, औषि और उसका वयविार िनयिमत रप से िो, रोगी कुपथय न करे तो औषि का फि पतयक दे खा जाता िै | इसी पकार सािक के ििए उसके पूवज य नम की सािनाएँ, उसके संसकार, उसकी
वतम य ान वासनाएँ जानकर उसके अनुकूि
मंत तथा
दे वता का िनणय य िकया जाय और सािक उन िनयमो का पािन करे तो वि बिुत थोडे पिरशम से और बिुत शीघ िी िसिदिाभ कर सकता िै |
मंत दीक ा के पकार दीका तीन पकार की िोती िै : 1. मांितक
2. शांभवी और 3. सपशय जब मंत बोिकर िशषय को सुनाया जाता िै तो वि िोती िै मांितक दीका | िनगािो से दी जानेवािी दीका शांभवी दीका कििाती िै | जब िशषय के िकसी भी केनद को सपशय करके उसकी कुणडििनी शिक जगायी जाती िै तो उसे सपशय दीका किते िै | शुकदे वजी मिाराज ने पाँचवे िदन पिरिकत पर अपनी दिष से कृ पा बरसायी पिरिकत को ऐसा िदवय अनुभव िुआ िक वे अपनी भूख-पयास तक भूि गये | वचनो से उनिे बडी तिृप िमिी | पचायी िै |
और गुर के
शुकदे वजी मिाराज समझ गये िक सतपात ने कृ पा
सातवे िदन शुकदे वजी मिारज ने पिरिकत को सपशय दीका भी दे दी और
पिरिकत को पूणय शांित की अनुभूित िो गयी |
कुिाणव य तंत मे तीन पकार की दीकाओं का इस पकार वणयन िै :
सपश य द ीक ा : यथा पकी सवप काभया ं िश शू नसंव िय येचछन ै ः | सप शय दीकोपद ेशस तु तादश ः किथ तः िपय े || 'सपशद य ीका
उसी पकार की िै िजस पकार पिकणी अपने पंखो से सपशय से अपने
बचचो का िािन-पािन-वदय न करती िै |'
जब तक बचचा अणडे से बािर निीं िनकिता तब तक पिकणी
अणडे पर बैठती िै
और अणडे से बािर िनकिने के बाद जब तक बचचा छोटा िोता िै तब तक अपने पंखो से ढाँके रिती िै |
द
उसे वि
: सवपतयािन
य था कूमी वीकण े नैव पोषय ेत ् |
दगदीका खयोपद ेशसत ु ताद शः क िथ तः िपय े || ‘दगदीका उसी पकार की िै िजस पकार कछवी दिषमात से अपने बचचो का पोषण
करती िै |’
धया नदी का : यथा मत सी स वतनय ान ् धया नमात ेण पोषय ेत ् | वेिदीकापद े शसत ु मनस ः सया तथा िविाः
||
‘धयानदीका मन से िोती िै और उसी पकार िोती िै िजस पकार मछिी अपने
बचचो को धयानमात से पोसती िै |’
पिकणी, कछवी और मछिी के समान िी शीसदगुर अपने सपश य से , दिष से तथा
संकलप से िशषय मे अपनी शिक का संचार करके उसकी अिवदा का नाश करते िै और मिावाकय के उपदे श से उसे कृ ताथय कर दे ते िै | सपशय, दिष और संकलप के अितिरक एक ‘शबददीका’ भी िोती िै | इस पकार चतुिवि य दीका िै और उसका का आगे ििखे अनुसार िै : िविद स थूि ं स ूकम ं स ूकमतर ं स ूक मतम मिप क मतः | सपश य नभाषणद शय नसंकलपनजतवतशत ु िाय त म ् || ‘सपशय, भाषण, दशन य , संकलप – यि चार पकार की दीका कम से सथूि, सूकम, सूकमतर और सूकमतम िै |’
इस पकार दीका पाये िुए िशषयो मे कोई ऐसे िोते िै , जो दस ू रो को विी दीका
दे कर कृ ताथय कर सकते िै और कोई केवि सवयं कृ ताथय िोते िै , परनतु दस ू रो को शिकपात करके कृ ताथय निीं सकते |
सामय ं त ु श िकपात े ग ुर वतसवसयािप सामथय
यम ् |
चार पकार की दीका मे गुरसामयासामय कैसा िोता िै , यि आगे बतिाते िै :
सपश य : सथू िं जा नं िद िवि ं ग ुरसामयासामयदतवभ दीपपसतरयोिरव स
ेदेन |
ंसप शाय ितसनगिवतय य यसोः ||
िकसी जिते िुए दीपक से िकसी दस ृ ाक या तैिाक बती को सपशय ू रे दीपक की घत
करते िी वि बती जि उठती िै , िफर यि दस ू री जिती िुई बती चािे िकसी भी अनय
िसनगि बती को अपने सपश य से पजविित कर सकती िै | यि शिक उसे पाप िो गयी |
यिी शिक इस पकार पजविित सभी दीपो को पाप िै | इसीको परमपरा किते िै | दस ू रा उदािरण पारस िै | पारस के सपश य से िोिा सोना बन जाता िै , परनतु इस सोने मे यि
सामथय य निीं िोता िक वि दस ू रे िकसी िोिखणड को अपने सपश य से सोना बना सके | सामयदान करने की शिक उसमे निीं िोती अथात य परमपरा आगे निीं बनी रिती |
शबद ः तदद िदिवि ं स ूकम ं श बदशवण ेन कोिक िामब ुदयोः
|
ततस ुत मयूर योिरव तदज ेय ं य थास ंखयम ् || कौओं के बीच मे पिा िुआ कोयि का बचचा कोयि का शबद सुनते िी यि जान
जाता िै क मै कोयि िूँ | िफर अपने शबद से यिी बोि उतपनन करने की शिक भी उसमे आ जाती िै | मेघ का शबद सुनकर मोर आननद से नाच उठता िै , पर यिी आननद दस ू रे को दे ने का सामथयय मोर के शबद मे निीं आता |
दिष : इतथ ं सूकमतरम िप िद िवि ं कूमया य िनरीकणातसयाः पुतयासतथ ै व सिव तुिन य रीकणातक ोक िमथ ुनसय ||
|
कछवी के दिष िनकेपमात से उसके बचचे िनिाि िो जाते िै और िफर यिी शिकपात उन बचचो को भी पाप िोती िै | इसी पकार सदगुर के करणामय दिषपात से
िशषय मे जान का उदय िो जाता िै और िफर उसी पकार की करणामय दिषपात से अनय अििकािरयो मे भी जान उदय कराने की शिक उस िशषय मे भी आ जाती िै | परनतु चकवा-चकवी को सूयद य शन य से जो आननद पाप िोता िै , विी आननद वे अपने दशन य के दारा दस ू रे चकवा-चकवी के जोडो को निीं पाप करा सकते |
संक लपः सूकमतम िप िदिवि ं मतसयाः स ंक लपतसत ु तद ु िित ुः | तृ िपन य गरािदज िनमा य िनत कसं कलपति भ ुिव तद त || मछिी के संकलप से उसके बचचे िनिाि िोते िै और इसी पकार संकलपमात से अपने बचचो को िनिाि करने सामथय य िफर उन बचचो को भी पाप िो जाता िै | परनतु आंितक अपने संकलप से िजन वसतुओं का िनमाण य करता िै , उन वसतुओं मे वि संकलपशिक उतपनन निीं िोती | इन सब बातो का िनषकषय यि िै िक सदगुर अपनी सारी शिक एक कण मे अपने िशषय को दे सकते िै | यिी बात परम भगवदभक संत तुकारामजी अपने अभंग मे इस पकार किते िै : “सदगुर िबना रासता निीं िमिता, इसििए सब काम छोडकर पििे उनके चरण
पकड िो | वे तुरंत शरणागत को अपने जैसा बना िेते िै | इसमे उनिे जरा भी दे र निीं िगती |” गुरकृ पा से जब शिक पबुद िो उठती िै , तब सािक को आसन, पाणायाम, मुद आिद करने की आवशयकता निीं िोती | पबुद कुणडििनी ऊपर बहरनि की ओर जाने के ििए छटपटाने िगती िै | उसके इस छटपटाने मे जो कुछ िकयाएँ अपने-आप िोती िै , वे िी आसन, मुद, बनि और पाणयाम िै | शिक का माग य खुि जाने के बाद सब िकयाएँ
अपने-आप िोती िै और उनसे िचत को अििकाििक िसथरता पाप िोती िै | ऐसे सािक दे खे गये िै , िजनिोने कभी सवपन मे भी आसन-पाणयामािद का कोई िवषय निीं जाना थ,
न गनथो मे दे खा था, न िकसीसे कोई िकया िी सीखी थी, पर जब उनमे शिकपात िुआ
तब वे इन सब िकयाओं को अनतःसफूित य से ऐसे करने िगे जैसे अनेक वषो का अभयास िो | योगशास मे विणत य िविि के अननुसार इन सब िकयाओ। का उनके दारा अपने-आप िोना दे खकर बडा िी आिय य िोता िै | िजस सािक के दारा िजस िकया का िोना
आवशयक िै , विी िकया उसके दारा िोती िै , अनय निीं | िजन िकयाओं के करने मे अनय
सािको को बिुत काि कठोर अभयास करना पडता िै , उन आसनािद िकयाओं को
शिकपात से युक सािक अनायास कर सकते िै | यथावशयक रप से पाणयाम भी िोने
िगता िै और दस-पनदि िदन की अविि के अनदर दो-दो िमनट का कुमभक अनायास िोने िगता िै | इस पकार िोनेवािी यौिगक िकयाओं से सािक को कोई कष निीं िोता, िकसी अिनष के भय का कोई कारण निीं रिता, कयोिक पबुद शिक सवयं िी ये सब
िकयाएँ सािक से उसकी पकृ ित से अनुरप करा ििया करती िै | अनयथा िठयोग से सािन मे जरा सी भी तुिट िोने पर बिुत बडी िािन िोने का भय रिता िै | जैसा िक ‘िठ
योगपदीिपका’ ने ‘आय ुका -भयासय ोगेन सवय रोगसम ुद भवः’ यि कि कर चेता िदया िै , परनतु शिकपात से पबुद िोने वािी शिक के दारा सािक को जो िकयाएँ िोती िै , उनसे शरीर रोग रिित िोता िै , बडे -बडे असाधय रोग भी भसम िो जाते िै | इससे गि ृ सथ सािक
बिुत िाभ उठा सकते िै | अनय सािनो के अभयास मे तो भिवषय मे कभी िमिनेवािे सुख की आशा से पििे कष-िी-कष उठाने पडते िै , परनतु इस सािन मे आरमभ से िी सुख की अनुभिू त िोने िगती िै | शिक का जागना जिाँ एक बार िुआ िक फ वि शिक
सवयं िी सािक को परमपद की पािप कराने तक अपना काम करती रिती िै | इस बीच सािक के िजतने भी जनम बीत जाये, एक बार जागी िुई कुणडििनी शकित िफर कभी सुप निीं िोती िै |
शिकसंचार दीका पाप करने के पिात सािक अपने पुरषाथ य से कोई भी यौिगक िकया निीं कर सकता, न इसमे उसका मन िी िग सकता िै | शिक सवयं अंदर से जो सफूितय पदान करती िै , उसी के अनुसार सािक को सब िकयाएँ िोती रिती िै | यिद उसके
अनुसार वि न करे अथवा उसका िवरोि करे तो उसका िचत सवसथ निीं रि सकता, ठीक वैसे िी जैसे नींद आने पर भी जागनेवािा मनुषय असवसथ िोता िै | सािक को शिक के आिीन िोकर रिना िोता िै | शिक िी उसे जिाँ जब िे जाय, उसे जाना िोता िै और उसीमे संतोष करना िोता िै | एक जीवन मे इस पकार किाँ-से-किाँ तक उसकी पगित
िोगी, इसका पििे से कोई िनिय या अनुमान निीं िकया जा सकता | शिक िी उसका भार विन करती िै और शिक िकसी पकार उसकी िािन न कर उसका कलयाण िी करती रिती िै |
योगाभयास की इचछा करनेवािो के ििए इस काि मे शिकपात जैसा सुगम सािन अनय कोई निीं िै | इसििए ऐसे शिकसमपनन गुर जब सौभागय से िकसीको पाप िो तब उसे चाििए िक ऐसे गुर का कृ पापसाद पाप करे | इस पकार अपने कतवयो का पिन
करते िुए ईशरपसाद का िाभ पाप करके कृ तकृ तय िोने के ििए सािक को सदा पयतशीि रिना चाििए |
गुर मे िवश ास गुरतय ागाद भव े नम ृ तयुम म ततयागादिरदता
|
गुरम ंतप िरतय ागी र ैरव ं नरकं वज ेत ् ||
‘गुर का तयाग करने से मतृयु िोती िै , मंत को छोडने से दिरदता आती िै और
गुर व मंत क तयाग करने से रौरव नरक िमिता िै |’
एक बार सदगुर करके िफर उनिे छोडा निीं जा सकता | जो िमारे जीवन की
वयवसथा करना जानते िै , ऐसे आतमवेता, शोितय, बहिनष सदगुर िोते िै | ऐसे मिापुरष
अगर िमे िमि जाये तो िफर किना िी कया ? जैसे, उतम पितवता सी अपने पित के
िसवाय दस ू रे िकसीको पुरष निीं मानती | मधयम पितवता सी बडो को िपता के समान, छोटो को अपने बचचो के समान और बराबरी वािो को अपने भाई के समान मानती िै
िकनतु पित तो उसे िरती पर एक िी िदखता िै | ऐसे िी सतिशषय को िरती पर सदगुर तो एक िी िदखते िै | िफर भिे सदगुर के अिावा अनय कोई बहिनष संत िमि जाये घाटवािे बाबा जैसे, उनका आदर जरर करे गे िकनतु उनके ििए सदगुर तो एक िी िोते िै |
पावत य ीजी से किा गया: “तुम कयो भभूतिारी, शमशानवासी िशवजी के ििए इतना
तप कर रिी िो ? भगवान नारायण के वैभव को दे खो, उनकी पसननता को दे खो | ऐसे वर को पाकर तुमिारा जीवन िनय िो उठे गा |” तब पावत य ीजी ने किा: “आप मुझे पििे िमि गये िोते तो शायद, मैने आपकी बात पर िवचार िकया िोता | अब तो मै ऐसा सोच भी निीं सकती | मैने तो मन से िशवजी को िी पित के रप मे वर ििया िै |
“िशवजी तो आयेगे िी निीं, कुछ सुनेगे भी निीं, तुम तपसया करते-करते मर
जाओगी | िफर भी कुछ निीं िोगा |
पावत य ीजी बोिीं: “इस जनम मे निीं तो अगिे जनम मे | करोड जनम िेकर भी मै पाऊँगी तो िशवजी को िी पाऊँगी |”
कोिट जनम ि िग रगर ि मारी |
बरऊँ स ंभ ू न तो रिौउ ँ कुमारी
||
सािक को भी एक बार सदगुर से मंत िमि गया तो िफर अटि िोकर िगे रिना चाििए |
मंत म े िव शास एक बार सदगुर से मंत िमि गया, िफर उसमे शंका निीं करनी चाििए | मंत चािे जो िो, िकनतु यिद उसे पूणय िवशास के साथ जपा जाय तो अवशय फिदायी िोता िै | िकसी नदी के तट पर एक मंिदर मे एक मिान गुरजी रिते थे | सारे दे श मे उनके सैकडो-िजारो िशषय थे | एक बार अपना अंत समय िनकट जानकर गुरजी ने अपने
सब िशषयो को दे खने के ििए बुिाया | गुरजी के िवशेष कृ पापात िशषयगण, जो सदा उनके समीप िी रिते थे, िचंितत िोकर रात और िदन उनके पास िी रिने िगे | उनिोने सोचा:
‘न मािूम कब और िकसके सामने गुरजी अपना रिसय पकट कर दे , िजसके कारण वे
इतने पूजे जाते िै |’ अतः यि अवसर न जाने दे ने के ििए रात-िदन िशषयगण उनिे घेरे रिने िगे |
वैसे तो गुरजी ने अपने िशषयो को अनेक मंत बतिाये थे , िकनतु िशषयो ने उनसे
कोई िसिद पाप निीं की थी | अतः उनिोने सोचा िक िसिद पाप करने के उपाय को
गुरजी िछपाये िी िै , िजसके कारण गुरजी का इतना मान िै | गुरजी के दशन य ो के ििए िशषयगण बडे दरू-दरू से आये और बडी आशा से रिसय के उदघाटन का इनतजार करने िगे |
एक बडा नम िशषय था जो नदी के दस ू रे तट पर रिता था | वि भी गुरजी का
अंत समय जानकर दशन य के ििए जाने िगा | िकनतु उस समय नदी मे बाढ आयी िुई थी और जि की िारा इतनी तेज थी िक नाव भी निीं चि सकती थी |
िशषय ने सोचा: ‘जो भी िो, उसे चिना िी िोगा कयोिक किीं ऐसा न िो िक दशन य
पाये िबना िी गुरजी का दे िानत िो जाय…’
वि जानता था िक गुरजी ने उसे जो मंत िदय िै वि बडा शिकशािी िै और उसमे सब कुछ करने की शिक िै | ऐसा िवशास करके शदापूवक य मंत जपता िुआ वि नदी के जि पर पैदि िी चिकर आया |
गुरजी के अनय सब िशषय उसकी यि चमतकारी शिक दे खकर चिकत िो गये |
उनिे उस िशषय को पिचानते िी याद आया िक बिुत िदनो। पूव य यि िशषय केवि एक
िदन रिकर चिा गया था | सब िशषयो को िुआ िक अवशय गुरजी ने उसी िशषय को मंत का रिसय बतिाया िै | अब तो सब िशषय गुरजी पर बिुत िबगडे और बोिे:
“आपने िम सबको िोखा कयो िदया? िम सबने वषो आपकी सेवा की और बराबर
आपकी आजाओं का पािन िकया | िकनतु मंत का रिसय आपने एक ऐसे अजात िशषय को बता िदया जो केवि एक िदन, सो भी बिुत िदन पििे, आपके पास रिा |”
गुरजी ने मुसकराकर सब िशषयो को शांत िकया और नवागत नम िशषय को पास बुिाकर आजा की वि उपदे श जो उसे बिुत िदन पििे िदया था, उपिसथत िशषयो को सुनाये |
गुरजी की आजा से िशषय ने ‘कुडु -कुडु ’ शबद का उचचारण िकया तो पूरी
िशषयमंडिी चिकत िो उटई |
िफर गुरजी ने किा: “दे खो ! इन शबदो मे इस शदावान िशषय को िवशास था िक
गुरजी ने सारी शिकयो का भेद बतिा िदया िै | इस िवशास, एकागता और भिक से इसने मंत का जप िकया तो उसका फि भी इसे िमि गया, िकनतु तुम िोगो का िचत सदा
संिदगि िी रिा और सदा यिी सोचते रिे िक गुरजी अभी-भी कुछ िछपाये िुए िै | यदिप
मैने तुम िोगो को बडे चमतकारपूण य मंतो का उपदे श िदया था | िकनतु िछपे रिसय के संदेियुक िवचारो ने तुम िोगो के मन को एकाग न िोने िदया, मन को चंचि िकये रिा | तुम िोग सदा मंत की अपूणत य ा की बात सोचा करते थे | अनजानी भूि से जो तुम सबने अपूणत य ा पर धयान जमाया, तो फिसवरप तुम सभी अपूणय िी रि गये |” िकसीने ठीक िी किा िै : मंत े तीथ े िदज े द ैवज े भ ेषज े ग ुरौ | यादशीभा य वना यस य िस िदभ य व ित ताद शीः ||
“मंत मे, तीथ य मे, बाहण मे, दे व मे, जयोितिष मे, औषिि मे और गुर मे िजसकी जैसी भावना िोती िै उसको वैसी िी िसिद िोती िै |
दस ना मापराि सदगुर से पाप मंत को िवशासपूवक य तो जपे िी, साथ िी यि भी धयान रखे िक जप दस अपराि से रिित िो | िकसी मिातमा ने किा िै : राम राम
अ ब कोई कि े , दशिरत कि े न कोय
एक बार द शिरत कि ै , को िट यजफि िोय
| ||
‘राम-राम’ तो सब किते िै िकनतु दशिरत अथात य दस नामापराि से रिित नामजप निीं करते | यिद एक बार दस नामापराि से रिित िोकर नाम िे तो कोिट यजो का फि िमिता िै |”
पभुनाम की मििमा अपरं पार िै , अगाि िै , अमाप िै , असीम िै | तुिसीदासजी
मिाराज तो यिाँ तक किते िै िक किियुग मे न योग िै , न यज और न िी जान, वरन ् एकमात आिार केवि पभुनाम का गुणगान िी िै |
कििज ु ग जोग न जगय एक आिार राम ग
न गया ना | ुन गाना
||
निि ं क िि कर म न भ गित िबब ेकु | राम नाम अवि ंबन ु एकु || यिद आप भीतर और बािर दोनो ओर उजािा चािते िै तो मुखरपी दार की जीभरपी दे ििी पर रामनामरपी मिणदीपक को रखो | राम नाम मिनदीप ि
र, जीि द ेिर ीं दार
|
तु िसी भीतर बाि ेरि ुँ , जौ चाि ेिस उ िज आर || अतः जो भी वयिक रामनाम का, पभुनाम का पूरा िाभ िेना चािे , उसे दस दोषो से अवशय बचना चाििए | ये दस दोष ‘नामापराि’ कििाते िै | वे दस नामापराि कौन- से िै ? ‘िवचारसागर’ मे आता िै :
सिनन नदाऽस ितनामव ैभवक था शीश े शय ोभे द ििः अशदा श ु ित शासद ैिश कागरा ं नामनयथा य वादभ मः |
नामासतीित
िनिषदव ृ ित िविि ततय ागो िि ि माय नतर ैः
सामय ं न ािमन जप े िशवसय च
1. सतपुरष की िननदा
िर ेन ाय मापरािा दशा
||
2. असािु पुरष के आगे नाम की मििमा का कथन 3. िवषणु का िशव से भेद 4. िशव का िवषणु से भेद 5. शिुतवाकय मे अशदा
6. शासवाकय मे अशदा 7. गुरवाकय मे अशदा
8. नाम के िवषय मे अथव य ाद ( मििमा की सतुित) का भम
9. ‘अनेक पापो को नष करनेवािा नाम मेरे पास िै ’ – ऐसे िवशास से िनिषद कमो का आचरण और इसी िवशास से िविित कमो का तयाग तथा
10. अनय िमो (अथात य नामो) के साथ भगवान के नाम की तुलयता जानना – ये दस िशव और िवषणु के जप मे नामापराि िै
पि िा अ पर ाि िै , सतप ुर ष क ी िन ंदा : यि पथम नामापराि िै | सतपुरषो मे तो राम-ततव अपने पूणतयव मे पकट िो चुका िोता िै | यिद सतपुरषो की िनंदा की जाय तो िफर नामजप से कया िाभ पाप िकया जा
सकता िै ? तुिसीदासजी, नानकजी, कबीरजी जैसे संत पुरषो ने तो संत-िनंदा को बडा भारी पाप बताया िै | ‘शीरामचिरतमानस’ मे संत तुिसीदासजी किते िै : ििर िर िन ंदा स ुनइ जो काना िोई पाप गोघात स
|
मान ा ||
‘जो अपने कानो से भगवान िवषणु और िशव की िनंदा सुनता िै , उसे गोवि के समान पाप िगता िै |’ िर ग ुर िन ंदक दाद ु र िोई
जनम स िस पाव तन सोई
| ||
‘शंकरजी और गुर की िनंदा करनेवािा अगिे जनम मे मेढक िोता िै और िजार जनमो तक मेढक का शरीर पाता िै |’ िो ििं उि ूक स ंत िन ंदा रत
|
मोि िन सा िपय ग यान भान ु ग त ||
‘संतो की िनंदा मे िगे िुए िोग उलिू िोते िै , िजनिे मोिरपी राित िपय िोती िै
और जानरपी सूयय िजनके ििए बीत गया (असत िो गया) िोता िै |’ संत कबीरजी किते िै : कबीरा वे नर अंि ि ै ,
जो ििर को कित
े और , गुर को कित े और |
ििर रठ े ग ु र ठौ र ि ै , गुर रठ े निी ं ठौर
||
‘सुखमिन’ मे शी नानकजी के वचन िै : संत का िन ंद कु मिा अतताई
|
संत का िन ंद कु ख ुिन िटकन ु न पाई संत का िन ंद कु मिा ि ितआरा
संत का िन ंदकु परम ेस ु िर मारा
|| | ||
‘संत की िनंदा करनेवािा बडा पापी िोता िै | संत का िनंदक एक कण भी निीं
िटकता | संत का िनंदक बडा घातक िोता िै | संत के िनंदक को ईशर की मार िोती िै |’ संत का दोखी सदा सि
संत का दोखी
संत का दोखी
काईऐ |
न मर ै न जीवाईऐ
की प ुज ै न आसा
संत का दोखी उिठ च
िै िनरासा
‘संत का दशुमन सदा कष्ट सहता रहता है | संत का दु
|| | || ं्मन कभी न जीता िै ,
न मरता िै | संत के दशुमन की आशा पूण य निीं िोती | संत का दशुमन िनराश िोकर मरता िै |’
दू सर ा अप राि ि ै , असा िु पुर ष के आ गे ना म क ी म िि मा क ा क थन : िजनका हदय सािन-संपनन निीं िै , िजनका हदय पिवत निीं िै , जो न तो सवयं सािन-भजन करते िै और न िी दस ू रो को करने दे ते िै , ऐसे अयोगय िोगो के आगे नाममििमा का कथन करना अपराि िै |
ती सर ा और चौथा अप राि िै , िव षणु का िश व से भेद व िशव का िव षणु के स ाथ भ ेद मा नन ा :
‘मेरा इष बडा, तेरा इष छोटा…’ ‘िशव बडे िै , िवषणु छोटे िै …’ अथवा तो ‘िवषणु
बडे िै , िशव छोटे िै …’ ऐसा मानना अपराि िै |
पा चवाँ , छठा और सा तव ाँ अप राि िै शु ित , शा स और गुर के वचन मे अ शदा :
नाम का जप तो करना िकनतु शिुत-पुराण-शास के िवपरीत ‘राम’ शबद को
समझना और गुर के वाकय मे अशदा करना अपराि िै | रमनत े योगीनः
यिसमन ् स
रामः | िजसमे योगी िोग रमण करते िै वि िै राम | शिुत वे शास िजस ‘राम’ की
मििमा का वणन य करते-करते निीं अघाते, उस ‘राम’ को न जानकर अपने मनःकिलपत खयाि के अनुसार ‘राम-राम’ करना यि एक बडा दोष िै | ऐसे दोष से गिसत वयिक रामनाम का पूरा िाभ निीं िे पाते |
आठ वाँ अपर ाि िै , ना म के िवष य मे अथय वा द का भम :
(मििम ा की सतु ित )
अपने ढं ग से भगवान के नाम का अथय करना और शबद को पकड रखना भी एक
अपराि िै |
चार बचचे आपस मे झगड रिे थे | इतने मे विाँ से एक सजजन गुजरे | उनिोने
पूछा: “कयो िड रिे िो ?”
तब एक बािक ने किा : “िमको एक रपया िमिा िै | एक किता िै ‘तरबूज’
खाना िै , दस ू रा किता िै ‘वाटरिमिन’ खाना िै , तीसरा बोिता िै ‘कििंगर’ खाना िै तथा चौथा किता िै ‘छाँई’ खाना िै |”
यि सुनकर उन सजजन को िुआ िक िै तो एक िी चीज िेिकन अिग-अिग
अथव य ाद के कारण चारो आपस मे िड रिे िै | अतः उनिोने एक तरबूज िेकर उसके चार टु कडे िकये और चारो के दे ते िुए किा:
“यि रिा तुमिारा तरबूज, वाटरिमिन, कििंगर व छाँई |” चारो बािक खुश िो गये |
इसी पकार जो िोग केवि शबद को िी पकड रखते िै , उसके िकयाथ य को निीं
समझते, वे िोग ‘नाम’ का पूरा फायदा निीं िे पाते |
नौ वाँ अपराि िै , ‘अनेक पाप ो को नष करने वािा नाम मेरे पा स िै ’ - ऐसे िव शास के कारण िन िष द कमो का आचर ण तथा िव िि त कमो का तय ाग :
ऐसा करने वािो को भी नाम जप का फि निीं िमिता िै |
दसव ाँ अप राि िै अनय िम ो (अथाय त अनय ना मो ) के सा थ भगव ान के ना म क ी तुलयत ा ज ानन ा :
कई िोग अनय िमो के साथ, अनय नामो के साथ भगवान के नाम की तुलयता समझते िै , अनय गुर के साथ अपने गुर की तुलयता समझते िै जो उिचत निीं िै | यि भी एक अपराि िै |
जो िोग इन दस नामापरािो मे से िकसी भी अपराि से गसत िै , वे नामजप का
पूरा िाभ निीं उठा सकते | िकनतु जो इन अपरािो से बचकर शदा-भिक तथा िवशासपूवक य नामजप करते िै , वे अखंड फि के भागीदार िोते िै |
मंत जाप िविि िकसी मंत अथवा ईशर-नाम को बार-बार भाव तथा भिकपूवक य दि ु राने को जप
किते िै | जप िचत की समसत बुराईयो का िनवारण कर जीव को ईशर का साकातकार कराता िै |
जपयोग अचेतन मन को जागत करने की वैजािनक रीित िै | वैिदक मंत मनोबि दढ, आसथा को पिरपकव और बुिद को िनमि य करने का िदवय कायय करते िै | शीरामकृ षण परमिं स किते िै : “एका ं त मे भग वननाम
गुणो का आवािन करन
जप करना - यि सार े दोषो
े का पिव त काय य िै |”
सवामी िशवानंद किते िै :
“इस स ंसारसागर को पार समान ि ै | अिंभाव को नष करन
कर ने के िि ए ईशर का नाम
को िनकाि ने तथा
सुरिकत नौका क े
े के ििए ई शर का नाम अच ूक अस ि ै
|”
शासो मे तो यिाँ तक किा गया िै िक िजहा सोम िै और हदय रिव िै | जैसे चंदमा और सूय य से सथूि जगत मे ऊजा य उतपनन िोती िै वैसे िी िजहा दारा भगवननाम के उचचारण और हदय के भाव के सिममिित िोने पर सूकम जगत मे भी शिक उतपनन िोती िै |
जा पक के पक ार जापक चार पकार के िोते िै 1. किनष
2. मधयम 3. उतम
4. सवोतम कुछ ऐसे जापक िोते िै जो कुछ पाने के ििए, सकाम भाव से जप करते िै | वे
किनष कििाते िै |
दस ू रे ऐसे जापक िोते िै जो गुरमंत िेकर केवि िनयम की पूित य के ििए 10 मािा
करके रख दे ते िै | वे मधयम कििाते िै |
तीसरे ऐसे जापक िोते िै जो िनयम तो पूरा करते िी िै , कभी दो-चार मािा जयादा
भी कर िेते िै , कभी चिते-चिते भी जप कर िेते िै | ये उतम जापक िै |
कुछ ऐसे जापक िोते िै िक िजनके सािननधयमात से, दशन य -मात से सामनेवािे का जप शुर िो जाता िै | ऐसे जापक सवोतम िोते िै | ऐसे मिापुरष िाखो वयिकयो के बीच रिे , िफर िाखो वयिक चािे कैसे भी िो िकनतु जब वे कीतन य कराते िै तथा िोगो पर अपनी कृ पादिष डािते िै तो वे सभी उनकी कृ पा से झूम उठते िै |
जप के पकार वैिदक मंत जप करने की चार पदितयाँ िै 1. वैखरी 2. मधयमा 3. पशयंती 4. परा शुर-शुर मे उचच सवर से जो जप िकया जाता िै , उसे वैखरी मंतजप किते िै | दस ू री िै मधयमा | इसमे िोठ भी निीं िििते, व दस ू रा कोई वयिक मंत को सुन भी
निीं सकता |
िजस जप मे िजहा भी निीं िििती, हदयपूवक य जप िोता िै और जप के अथ य मे
िमारा िचत तलिीन िोता जाता िै उसे पशयंती मंतजाप किते िै |
चौथी िै परा | मंत के अथय मे िमारी विृत िसथर िोने की तैयारी िो, मंतजप करते-
करते आनंद आने िगे तथा बुिद परमातमा मे िसथर िोने िगे, उसे परा मंतजप किते िै |
वैखरी जप िै तो अचछा िेिकन वैखरी से भी दस गुना जयादा पभाव मधयमा मे
िोता िै | मधयमा से दस गुना पभाव पशयंती मे तथा पशयंती से भी दस गुना जयादा पभाव परा मे िोता िै | इस पकार परा मे िसथत िोकर जप करे तो वैखरी का िजार गुना पभाव िो जायेगा |
‘याजवलकयसंििता’ मे आता िै : उच चैज य प उप ांश ु ि सि सगुण उचयत े |
मानसि त थोपा ं शोः सि सगुण उ चयत े | मानस ि तथा धयान ं स िस गुण उचयत े || परा मे एक बार जप करे तो वैखरी की दस मािा के बराबर िो जायेगा | दस बार जप करने से सौ मािा के बराबर िो जायेगा | •
जैसे पानी की बूँद को बाषप बनाने से उसमे 1300 गुनी ताकत आ जाती िै वैसे िी मंत को िजतनी गिराई से जपा जाता िै , उसका पभाव उतना िी जयादा िोता िै | गिराई से जप करने से मन की चंचिता कम िोती िै व एकागता बढती िै | एकागता सभी सफिताओं की जननी िै |
•
मंतजाप िनषकाम भाव से पीितपूवक य िकया जाना चाििए | भगवान के िोकर भगवान का जप करो | ऐसा निीं िक जप तो करे भगवान का और कामना करे
संसार की | निीं … िनषकाम भाव से पेमपूवक य िवििसिित जप करने वािा सािक बिुत शीघ अचछा िाभ उठा सकता िै | •
ईशर के नाम का बार-बार जप करो | िचत को फुरसत के समय मे पभु का नाम रटने की आदत डािे | िचत को सदै व कुछ-न-कुछ चाििए | िचत खािी रिे गा तो
संकलप-िवकलप करके उपदव पैदा करे गा | इसििए पूरा िदन व राित को बार-बार ििरसमरण करे | िचत या तो ििर-समरण करे गा या िफर िवषयो का िचंतन करे गा | इसििए जप का ऐसा अभयास डाि िे िक मन परवश िोकर नींद मे या जागत मे बेकार पडे िक तुरंत जप करने िगे | इससे मन का इिर-उिर भागना कम िोगा | मन को परमातमा के िसवाय िफर अनय िवषयो मे चैन निीं िमिेगा | •
‘मन बार-बार अवांछनीय िवचारो की ओर झुकता िै और शुभ िवचारो के ििए, शुभ
िनयम पािने के ििए दं गि करता िै |’ सािक को ऐसी अनुभूित कयो िोती िै ? इसका कारण िै पूवज य नम के संसकार और मन मे भरी िुई वासना तथा संसारी
िोगो का संग | इन सब दोषो को िमटाने के ििए नाम-जप, ईश-भजन के िसवाय अनय कोई सरि उपाय निीं िै | जप मन को अनेक िवचारो मे से एक िवचार मे िाने की और एक िवचार मे से िफर िनिवच य ार मे िे जानेवािी सांखय पिकया िै |
सािक का हदय जप से जयो-जयो शुद िोता जायेगा, तयो-तयो पुसतक के िमय
से भी अििक िनमि य िम य का बोि उसके हदय मे बैठा ईशर उससे किे गा | जप से िी धयान मे भी िसथरता आती िै |
जप िचत की िसथरता का पबि सािन िै | जब जप मे एकागता िसद िोित िै तो वि बुिद को िसथर करके सनमागग य ािमनी बनाती िै | •
भगवतकृ पा व गुरकृ पा का आवािन करके मंत जपना चाििए, िजससे छोटे -मोटे िवघन दरू रिे औ शदा का पाकटय िो | कभी-कभी िमारा जप बढता िै तो आसुरी
शिकयाँ िमे पेिरत करके नीच कम य करवाकर िमारी शिकयाँ कीण करती िै | कभी किियुग भी िमे इस माग य से शष े पुरषो से दरू करने के ििए पेिरत करता िै इसीििए कबीरजी कित िै :
“संत के दशन य िदन मे कई बार करो | कई बर निीं तो दो बार, दो बार
निीं तो सपाि मे एक बार, सपाि मे भी निीं तो पाख-पाख मे (15-15 िदन मे) और पाख-पाख मे भी न कर सको तो मास-मास मे तो जरर करो |” भगवदशन य , संत-दशन य िवघनो को िटाने मे मदद करता िै | •
सािक को मन, वचन और कम य से िननदनीय आचरण से बचने का सदै व पयत करना चाििए |
•
चािे िकतनी भी िवपरीत पिरिसथितयाँ कयो न आ जाये, िेिकन आप अपने मन
को उिदगन न िोने दे | समय बीत जायेगा, पिरिसथितयाँ बदि जायेगी, सुिर जायेगी … तब जप-धयान करँगा यि सोचकर अपना सािन-भजन न छोडे | िवपरीत पिरिसथित आने पर यिद सािन-भजन मे ढीि दी तो पिरिसथितयाँ आप पर िावी िो जायेगी | िेिकन यिद आप मजबूत रिे , सािन-भजन पर अटि रिे तो पिरिसथितयो के िसर पर पैर रखकर आगे बढने का सामथयय आ जायेगा | •
संसार सवपन िै या ईशर की िीिामात िै , यि िवचार करते रिना चाििए | ऐसे िवचार से भी पिरिसथितयो का पभाव कम िो जाता िै |
•
सािक को अपने गुर से कभी-भी, कुछ भी िछपाना निीं चाििए | चािे िकतना बडा पाप या अपराि कयो न िो गया िो िकनतु गुर पूछे , उसके पििे िी बता दे ना चाििए | इससे हदय शुद िोगा व सािना मे सिायता िमिेगी |
•
सािक को गुर की आजा मे अपना परम कलयाण मानना चाििए |
िश षय चार पकार के िोत े िै : एक वे िोते िै जो गुर के भावो को समझकर उसी पकार से सेवा, काय य और िचंतन करने िगते िै | दस ू रे वे िोते िै जो गुर के संकेत के अनुसार काय य करते िै | तीसरे वे िोते िै जो आजा िमिने पर काम करते िै और चौथे वे िोते िै िजनको गुर कुछ काय य बताते िै तो ‘िाँ जी… िाँ
जी…’ करते रिते िै िकनतु काम कुछ निीं करते | सेवा का िदखावामात िी करते िै | गुर की स ेवा सा िु जान े , गुरस ेवा का म ुढ िपछान ै | पििे िै उतम, दस ू रे िै मधयम, तीसरे िै किनष और चौथे िै किनषतर |
सािक को सदै व उतम सेवक बनने के ििए पयतशीि रिना चाििए | अनयथा
बुिदमान और शदािु िोने पर भी सािक िोखा खा जाते िै | उनकी िजतनी याता िोनी चाििए, उतनी निीं िो पाती | •
सािक को चाििए िक एक बार सदगुर चुन िेने के बाद उनका तयाग न करे | गुर
बनाने से पूवय भिे दस बार िवचार कर िे, िकसी टोने-टोटकेवािे गुर के चककर मे न फँसे, बिलक ‘शीगुरगीता’ मे बताये गये िकणो के अनुसार सदगुर को खोज िे
| िकनतु एक बार सदगुर से दीका िे िी तो िफर इिर-उिर न भटके | जैसे पितवता सी यिद अपने पित को छोडकर दस ू रे पित की खोज करे तो वि
पितवता निीं, वयिभचािरणी िै | उसी पकार वि िशषय िशषय निीं, जो एक बार सदगुर बन िेने के बाद उनका तयाग कर दे | सदगुर न बनाकर भवाटवी मे भटकना अचछा िै िकनतु सदगुर बनाकर उनका तयाग कदािप न करे | •
सदगुर से मंतदीका पाप करके सािक क पितिदन कम-से-कम 10 मािा जपने का िनयम रखना चाििए | इससे उसका आधयाितमक पतन निीं िोगा |
िजसकी गित िबना मािा के भी 24-50 मािा करने की िै , उसके ििए मेरा कोई आगि निीं िै िक मािा िेकर जप करे , िेिकन नये सािक को मािा िेकर आसन बैठकर 10 मािा करनी चाििए | िफर चिते-िफरते िजतना भी जप िो जाय, वि अचछा िै |
कई िोग कया करते िै ? कभी उनके घर मे यिद शादी-िववाि या अनय
कोई बडा काय य िोता िै तो वे अपने िनयम मे कटौित करते िै | िफर 10 मािाएँ
या तो जलदी-जलदी करते िै या कुछ मािा छोड दे ते िै | कोई भी दस ू रा काय य आ
जाने पर िनयम को िी िनशाना बनाते िै | निीं, पििे अपना िनयम करे , िफर उसके बाद िी दस ू रे कायय करे | कोई किता िै : ‘भाई ! कया करे ? समय िी निीं िमिता …’ अरे भैया ! समय निीं िमिता िफर भी भोजन तो कर िेते िो, समय निीं िमिता िफर भी पानी तो पी िेते िो | ऐसे िी समय न िमिे िफर भी िनयम कर िो, तो बिुत अचछा िै |
यिद कभी ऐसा दभ ु ागयय िो िक एक साथ बैठकर 10 मािाएँ पूरी न िो
सकती िो तो एक-दो मािाएँ कर िे और बाकी की मािाएँ दोपिर की संिि मे
अथवा उसमे भी न कर सके तो िफर राित को सोने से पूव य तो अवशय िी कर िेनी चाििए | िकनतु इतनी छूट मनमुखता के ििए निीं, अिपतु केवि आपदकाि के ििए िी िै |
वैसे तो स्नान करके जप-ध्यान करना चाििए िेिकन यिद बुखार िै ,
सनान करने से सवासथय जयादा िबगड जायेगा और सनान निीं करे गे तो िनयम
कैसे करे ? विाँ आपदिम य की शरण िेकर िनयम कर िेना चाििए | िाथ-पैर
िोकर, कपडे बदिकर िनमनांिकत मंत पढकर अपने ऊपर जि िछडक िे | िफर जप करे | ॐ अ पिवत ः पिव तो वा स वाय वसथ ां गतोऽ िप वा यः समर ेत ् पु णडरीकाक ं स बाहभयनतर
|
ः श ु िचः ||
‘पिवत िो या अपिवत, िकसी भी अवसथा मे गया िुआ िो िकनतु
पुणडरीकाक भगवान िवषणु का समरण करते िी आनतर-बाह शुिद िो जाती िै |’ ऐसा करके िनयम कर िेना चाििए | •
‘राम -राम…
ििर ॐ … ॐ नम ः िशवाय
…’
आिद मंत िमने कई बार
सुने िै िकनतु विी मंत गुरदीका के िदन जब सदगुर दारा िमिता िै तो पभाव कुछ िनरािा िी िो जाता िै | अतः अपने गुरमंत को सदै व गुप रखना चाििए |
आपक गुरमंत आपकी पती या पित, पुत-पुती तक को पता निीं चिना चाििए | यिद पित-पती दोनो साथ मे गुरमंत िेते िो तो अिग बात िै , वरना
अपना गुरमंत गुप रखे | गुरमंत िजतना गुप िोता िै उतना िी उसका पभाव िोता िै | िजसके मनन से मन तर जाये, उसे मंत किते िै | •
सािक को चाििए िक वि जप-धयान आिद िदखावे के ििए न करे अथात य ‘मै नाम जपता िूँ तो िोग मेरे को भक माने… अचछा माने… मुझे दे खे…’ यि भाव
िबलकुि निीं िोना चाििए | यिद यि भाव रिा तो जप का पूरा िाभ निीं िमि पायेगा | •
यिद कभी अचानक जप करने की इचछा िो तो समझ िेना िक भगवान ने, सदगुर ने जप करने की पेरणा दी िै | अतः अिोभाव से भरकर जप करे |
•
सूयग य िण, चंदगिण तथा तयौिारो पर जप करने से कई गुना िाभ िोता िै | अतः उन दोनो मे अििक जप करना चाििए |
•
सािक को चाििए िक वि जप का फि तुचछ संसारी चीजो मे नष न करे … िीरे मोती बेचकर कंकर-पतथर न खरीदे | संसारी चीजे तो पारबि से, पुरषाथ य से भी
िमि जायेगी कयोिक जापक थोडा िवशेष जप करता िै तो उसके काय य सवाभािवक िोने िगते िै | ‘जो िोग पििे घण ृ ा करते थे, अब वे िी पेम करने िागते िै … जो बॉस (सेठ या सािब) पििे डाँटता रिता था, विी अब सिाि िेने िगता िै …’ ऐसा
सब िोने िगे िफर भी सािक सवंय ऐसा न चािे | कभी िवघन-बािाएँ आये, तब भी जप दारा उनिे िटाने की चेषा न करे बिलक जप के अथय मे तलिीन िोता जाये | •
जप करते समय मन इिर-उिर जाने िगे तब िाथ-मुि ँ िोकर, दो-तीन आचमन
िेकर तथा पाणायाम करके मन को पुनः एकाग िकया जा सकता िै | िफर भी मन भागने िगे तो मािा को रखकर खडे िो जाओ, नाचो, कूदो, गाओ, कीतन य करो | इससे मन वश मे िोने िगेगा | •
जप चािे जो करो, जप-त-जप िी िै , िकनतु जप करने मे इतनी शत य जररी िै िक
जप करते-करते खो जाओ | विाँ आप न रिना | ‘मै पुणयातमा िूँ… मैने इतना जप िकया…’ ऐसी पिरिचछननता निीं अिपतु ‘मै िूँ िी निीं…जो कुछ भी िै वि परमातमा िी िै …’ इस पकार भावना करते-करते परमातमा मे िविीन िोते जाओ | मेरा मुझम े कुछ नि ीं , जो कुछ ि ै सो तोर तेरा त ुझको सौपत े कया ि ागत ि ै मोर
| ||
शरीर परमातमा का, मन परमातमा का, अंतःकरण भी परमातमा, तो िफर समय िकसका ? समय भी तो उसीका िै | ‘उसीका समय उसे दे रिे िै …’ ऐसा सोचकर जप करना चाििए | •
जब तक सदगुर निीं िमिे, तब तक अपने इषदे व को िी गुर मानकर उनके नाम का जप आरं भ कर दो … शु भसय श ीघम ् |
जप के ििए आवश यक िविा न उपरोक बातो को धयान मे रखने के अितिरक पितिदन की सािना के ििए कुछ
बाते नीचे दी जा रिी िै : 1. समय
2. सथान 3. िदशा
4. आसन 5. मािा
6. नामोचचारण 7. पाणायाम 8. जप
9. धयान
1. सम य: सबसे उतम समय पातः काि बहमुिूतय और तीनो समय (सुबि सूयोदय के
समय, दोपिर 12 बजे के आसपास व सांय सूयास य त के समय) का संधयाकाि िै | पितिदन िनिित समय पर जप करने से बिुत िाभ िोता िै |
2. सथा न: पितिदन एक िी सथान पर बैठना बिुत िाभदायक िै | अतः अपना
सािना-कक अिग रखो | यिद सथानाभाव के कारण अिग कक न रख सके तो
घर का एक कोना िी सािना के ििए रखना चाििए | उस सथान पर संसार का कोई भी काय य या वाताि य ाप न करो | उस कक या कोने को िूप-अगरबती से सुगिं ित रखो | इष अथवा गुरदे व की छिव पर सुगिं ित पुषप चढाओ और दीपक
करो | एक िी छिव पर धयान केिनदत करो | जब आप ऐसे करोगे तो उससे जो शिकशािी सपनदन उठे गे, वे उस वातावरण मे ओतपोत िो जायेगे |
3. िदश ा
जप पर िदशा का भी पभाव पडता िै | जप करते समय आपक मुख उतर अथवा पूवय की ओर िो तो इससे जपयोग मे आशातीत सिायता िमिती िै |
4. आस न
आसन के ििए मग ृ चमय, कुशासन अथवा कमबि के आसन का पयोग करना चाििए | इससे शरीर की िवदुत-शिक सुरिकत रिती िै | सािक सवयं पदासन, सुखासन अथवा सविसतकासन पर बैठकर जप करे | विी आसन अपने ििए चुनो िजसमे काफी दे र तक कषरिित िोकर बैठ सको | िसथ रं सुखासनम ् | शरीर को िकसी भी सरि अवसथा मे सुखपूवक य िसथर रखने को आसन किते िै |
एक िी आसन मे िसथर बैठे रिने की समयािविि को अभयासपूवक य बढाते जाओ | इस बात का धयान रखो िक आपका िसर, गीवा तथा कमर एक सीि मे
रिे | झुककर निीं बैठो | एक िी आसन मे दे र तक िसथर िोकर बैठने से बिुत िाभ िोता िै |
5. मािा मंतजाप मे मािा अतयंत मितवपूण य िै | इसििए समझदार सािक मािा को पाण जैसी िपय समझते िै और गुप िन की भाँित उसकी सुरका करते िै | मािा को केवि िगनने की एक तरकीब समझकर अशुद अवसथा मे भी अपने पास रखना, बाये िाथ से मािा घुमाना, िोगो को िदखाते िफरना, पैर तक िटकाये रखना, जिाँ-तिाँ रख दे ना, िजस िकसी चीज से बना िेना तथा िजस पाकार से गूँथ िेना सवथ य ा विजत य िै | जपमािा पायः तीन पकार की िोती िै : करमािा, वणम य ािा और मिणमािा | a. करमािा
अँगिु ियो पर िगनकर जो जप िकया जाता िै , वि करमािा जाप िै | यि दो पकार से िोता िै : एक तो अँगिु ियो से िी िगनना और दस ू रा अँगिु ियो के पवो पर िगनना | शासतः दस ू रा पकार िी सवीकृ त िै |
इसका िनयम यि िै िक िचत मे दशाय य े गये कमानुसार अनािमका के मधय
भाग से नीचे की ओर चिो | िफर किनिषका के मूि से अगभाग तक और िफर अनािमका और मधयमा के अगभाग पर िोकर तजन य ी के मूि तक जाये | इस कम से अनािमका के दो, किनिषका के तीन, पुनः अनािमका का एक, मधयमा का एक और तजन य ी के तीन पव… य कुि दस संखया िोती िै | मधयमा के दो पव य सुमेर के रप मे छूट जाते िै |
सािारणतः करमािा का यिी कम िै , परनतु अनुषानभेद से इसमे अनतर भी पडता
िै | जैसे शिक के अनुषान मे अनािमका के दो पवय, किनिषका के तीन, पुनः अनािमका का एक, मधयमा के तीन पव य और तजन य ी का एक मूि पवय- इस पकार दस संखया पूरी िोती िै |
शीिवदा मे इससे िभनन िनयम िै | मधयमा का मूि एक, अनािमका का मूि एक,
किनिषका के तीन, अनािमका और मधयमा के अगभाग एक-एक और तजन य ी के तीन – इस पकार दस संखया पूरी िोती िै | करमािा से जप करते समय अँगुिियाँ अिग-अिग निीं िोनी चाििए | थोडी-सी िथेिी मुडी रिनी चाििए | सुमेर का उलिंघन और पवो की सिनि (गाँठ) का सपशय िनिषद
िै | यि िनिित िै िक जो इतनी साविानी रखकर जप रखकर जप करे गा, उसका मन अििकांशतः अनयत निीं जायेगा | िाथ को हदय के सामने िाकर, अँगिु ियो को कुछ टे ढी करके वस से उसे ढककर दाििने िाथ से िी जप करना चाििए | जप अििक संखया मे करना िो तो इन दशको को समरण निीं रखा जा सकता | इसििए उनको समरण करके के ििए एक पकार की गोिी बनानी चाििए | िाका, रकचनदन, िसनदरू और गौ के सूखे कंडे को चूण य करके सबके िमशण से गोिी तैयार
करनी चाििए | अकत, अँगि ु ी, अनन, पुषप, चनदन अथवा िमटटी से उन दशको का समरण रखना िनिषद िै | मािा की िगनती भी इनके दारा निीं करनी चाििए | b. वण य मािा
वणम य ािा का अथ य िै अकरो के दारा जप की संखया िगनना | यि पायः अनतजप य
मे काम आती िै , परनतु बििजप य मे भी इसका िनषेि निीं िै | वणम य ािा के दारा जप करने का िविान यि िै िक पििे वणम य ािा का एक अकर िबनद ु िगाकर उचचारण करो और िफर मंत का- अवग य के सोिि, कवग य से पवग य तक पचचीस और यवगय से िकार तक आठ और पुनः एक िकार- इस कम से पचास तक की िगनती करते जाओ | िफर िकार से िौटकर अकार तक आ जाओ, सौ की संखया पूरी िो जायेगी | ‘क’ को सुमेर मानते िै | उसका उलिंघन निीं िोना चाििए |
संसकृ त मे ‘त’ और ‘ज’ सवतंत अकर निीं, संयुकाकर माने जाते िै | इसििए
उनकी गणना निी िोती | वगय भी सात निीं, आठ माने जाते िै | आठवाँ सकार से पारमभ िोता िै | इनके दारा ‘अं’, कं, चं, टं , तं, पं, यं, शं’ यि गणना करके आठ बार और जपना चाििए- ऐसा करने से जप की संखया 108 िो जाती िै |
ये अकर तो मािा के मिण िै | इनका सूत िै कुणडििनी शिक | वि मूिािार से
आजाचकपयनयत सूतरप से िवदमान िै | उसीमे ये सब सवर-वण य मिणरप से गुथ ँ े िुए िै |
इनिींके दारा आरोि और अवरोि कम से अथात य नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे जप करना चाििए | इस पकार जो जप िोता िै , वि सदः िसदपद िोता िै | c. मिण मािा
मिणमािा अथात य मनके िपरोकर बनायी गयी मािा दारा जप करना मिणमािा जाप किा जाता िै | िजनिे अििक संखया मे जप करना िो, उनिे तो मिणमामा रखना अिनवायय िै | यि मािा अनेक वसतुओं की िोती िै जैसे िक रदाक, तुिसी, शंख, पदबीज, मोती, सफिटक, मिण, रत, सुवणय, चाँदी, चनदन, कुशमूि आिद | इनमे वैषणवो के ििए तुििस और समातय,
शाक, शैव आिद के ििए रदाक सवोतम माना गया िै | बाहण कनयाओं के दारा िनिमत य सूत से बनायी गयी मािा अित उतम मानी जाती िै |
मािा बनाने मे इतना धयान अवशय रखना चाििए िक एक चीज की बनायी िुई
मािा मे दस ू री चीज न आये | मािा के दाने छोटे -बडे व खंिडत न िो | सब पकार के जप मे 108
दानो की मािा काम आती िै |
शािनतकमय मे
शेत,
वशीकरण मे रक, अिभचार पयोग मे कािी और मोक तथा ऐशयय के ििए रे शमी सूत की मािा िवशेष उपयुक िै | मािा घुमाते वक तजन य ी (अंगूठे के पासवािी ऊँगिी) से मािा के मनको को कभी सपशय निीं करना चाििए | मािा दारा जप करते समय अंगूठे
मािा के मनको को घुमाना चाििए | मािा घुमाते समय सुमेर
तथा मधयमा ऊँगिी दारा
का उलिंघन निीं करना
चाििए | मािा घुमाते-घुमाते जब सुमेर आये तब मािा को उिटकर
दस ू री ओर घुमाना
पारं भ करना चाििए |
यिद पमादवश मािा िाथ िगर जाये तो मंत को
अिगनपुराण मे आता िै :
दो सौ बार जपना चाििए,
ऐसा
पा मादा तपितत े स ूत े जपवय ं तु शत दयम ् |
अिगनपुराण: ३.२८.५
यिद मािा टू ट जाय तो पुनः गूथ ँ कर उसी मािा से जप करो | यिद दाना टू ट जाय
या खो जाय तो दस ू री ऐसी िी मािा का दाना िनकाि कर अपनी मािा िकनतु जप सदै व करो अपनी िी मािा मािा अतयंत पभावशािी िोती िै |
मे डाि िो |
से कयोिक िम िजस मािा पर जप करते
िै वि
मािा को सदै व सवचछ कपडे से ढाँककर घुमाना चाििए | गौमुखी मे मािा रखकर घुमाना सवोतम व सुिविाजनक िै | धयान नीचे का
रिे िक मािा शरीर के अशुद माने जाने अंगो का सपशय न करे | नािभ के
पूरा शरीर अशुद माना जाता िै |
अतः मािा घुमाते वक मािा नािभ से नीचे
निीं िटकनी चििए तथा उसे भूिम का सपशय भी निीं िोना चििए |
गुरमंत िमिने के बाद एक बार मािा का पूजन अवशय करो |
कभी गिती से
अशुदावसथा मे या िसयो दारा अनजाने मे रजसविावसथा मे मािा का सपशय
िो गया िो
तब भी मािा का िफर से पूजन कर िो | मािा प ूजन की िव िि : पीपि के नौ पते िाकर एक को बीच मे और आठ को अगिबगि मे इस ढं ग से रखो िक वि अषदि कमि सा मािूम
िो | बीचवािे पत पर मािा
रखो और जि से उसे िो डािो | िफर पंचगवय ( दि ू , दिी, घी, गोबर व गोमूत) से सनान कराके पुनः शुद जा से मािा को िो िो | िफर चंदन पुषप आिद से मािा का पूजन करो | तदनंतर उसमे अपने इषदे वता की पाण-पितषा करो और मािा से पाथन य ा करो िक : माि े माि े म िामाि े सव य ततवसव रिपणी
|
चतुव य गय सतव िय न यसतसतसमा नमे िस िददा भव
||
ॐ तव ं माि े सवय दे वाना ं सव य िसिदपदा म ता |
तेन स तयेन म े िस िदं द े िि मातन य मो ऽसत ु त े | तवं म िे सव य देवाना ं पी ितदा श ुभ दा भ व |
िशव ं कु रषव मे भद े यशो वीय म च सव य दा
||
इस पकारा मािा का पूजन करने से उसमे परमातम-चेतना का अिभभाव य िो जाता
िै | िफर मािा गौमुखी मे रखकर जप कर सकते िै | 6.
नामोचचार ण:
जप-सािना के बैठने से पूवय थोडी
दे र तक ॐ (पणव)
का
उचचारण करने से एकागता मे मदद िमिती िै | ििरनाम का उचचारण तीन पकार से िकया जा सकता िै :
1. हसव : 'ििर ॐ ... ििर ॐ ... ििर ॐ ...' इस पकार का हसव उचचारण पापो का नाश करता िै |
2. दीघ य : 'ििर ओऽऽऽऽम ् ...' इस
पकार थोडी जयादा दे र तक दीघय उचचारण से
ऐशयय की पािप मे सफिता िमिती िै |
3. पिुत : ‘ििर ििर ओऽऽऽम ् ...' इस पकार जयादा िंबे समय के पिुत उचचारण से परमातमा मे िवशांित पायी जा सकती िै |
यिद सािक थोडी दे र तक यि पयोग करे तो
मन शांत िोने मे बडी मदद
िमिेगी | िफर जप मे भी उसका मन सिजता से िगने िगेगा | 7. पाणा याम :
जप करने से पूवय सािक यिद पाणायाम करे तो एकागता मे विृद
िोती िै िकंतु पाणायाम करने मे साविानी रखनी चाििए | कई सािक पारं भ मे उतसाि-उतसाि मे ढे र सारे पाणायाम करने िगते िै | फिसवरप उनिे गमी का
एिसास िोने िगता िै |
जयादा पाणायाम करने खुशकी भी
कई बार दब य शरीरवािो को ु ि
चढ जाती िै | अतः अपने सामथयय के अनुसार
िी पाणायाम करो | पाणायाम का समय 3
िमनट तक बढाया जा सकता िै |
िकनतु िबना
अभयास के यिद कोई पारं भ मे िी तीन िमनट की कोिशश करे तो अथय का अनथय
भी िो सकता िै | अतः पारं भ मे कम समय और कम संखया मे िी पणायम करो | यिद ितबंियुक पाणायाम करने के पिात ् जप करे तो िाभ जयादा िोता िै
| ितबंियुक पाणायाम की िविि 'योगासन' पुसतक मे बतायी गयी िै |
8. जप : जप करते समय मंत का उचचारण सपष तथा शुद िोना चाििए | गौमुखी मे मािा रखकर िी जप करो | जप इस पकार करो िक पास बैठने वािे की बात तो दरू अपने कान को
भी मंत के शबद सुनायी न दे | बेशक, यज मे आिुित दे ते समय मंतोचचार वयक
रप से िकया जाता िै , वि अिग बात िै | िकनतु इसके अिावा इस पकार जोरजोर से
मंतोचचार करने से मन की एकागता और बुिद की िसथरता िसद निीं िो
पाती | इसििए मौन िोकर िी जप करना चििए |
जब तुम दे खो िक तुमिारा मन चंचि िो रिा िै तो थोडी दे र के ििए खूब जलदी-जलदी जप करो | सािारणतयः सबसे अचछा तरीका यि िै िक न तो बिुत जलदी और न बिुत िीरे िी जप करना चाििए | जप करते-करते जप के अथय मे तलिीन
िोते जाना चाििए |
अपनी
िनिाियरत संखया मे जप पूरा करके िी उठो | चािे िकतना िी जररी काम कयो न िो, किंनतु िनयम अवशय पूरा करो | जप करते-करते सतकय रिो | यि अतयंत आवशयक गुण िै | जब आप जप आरं भ करते िो तब आप एकदम ताजे और साविान रिते िो, पिात आपका िचत चंचि िोकर इिर-उिर भागने िगता िै |
पर कुछ समय
िनदा आपको िर
दबोचने िगती िै | अतः जप करते समय इस बात से सतकय रिो | जप करते समय तो आप जप करो िी िकनतु जब कायय करो तब भी िाथो को कायय मे िगाओ तथा मन को जप मे अथात य मानिसक जप करते रिो | जिाँ किीं भी जाओ,
जप करते रिो िेिकन वि जप िनषकाम भाव से िी
िोना चाििए | मिििा
सा ििकाओ ं के ििए स ूचना :
मिििाएँ मािसक िमय के समय केवि
मानिसक जप कर सकती िै | इन िदनो मे उनिे ॐ (पणव) के िबना िी मंत जप करना चाििए |
िकसीका मंत 'ॐ राम' िै तो मािसक िमय के पांच िदनो तक या पूणय शुद
न िोने तक केवि 'राम-राम' जप सकती िै | िसयो का मािसक िमय जब तक जारी िो, तब तक वे दीका भी
निीं िे सकती | अगर अजानवश पांचवे-छठवे िदन भी
मािसक िमय जारी रिने पर दीका
िे िी गयी िै या इसी पकार अनजाने मे
संतदशन य या मंिदर मे भगवदशन य िो गया िो पंचमी' (गुरपंचमी) का वत कर िेना चाििए | यिद
तो उसके पायिित के ििए 'ऋिष
िकसीके घर मे सूतक िगा िुआ िो तब जननाशौच (संतान-जनम के
समय िगनेवािा अशौच-सूतक) के समय पसूितका सी (माता) 40 िदन तक व िपता 10 िदन तक मािा िेकर जप निीं कर सकता |
इसी पकार मरणाशौच (मतृयु के समय पर िगनेवाि अशौच सूतक) मे 13 िदन तक मािा िेकर जप निीं िकया जा सकता िकनतु मानिसक जप तो पतयेक अवसथा मे िकया जा सकता िै |
जप की िनयत संखया पूरी िोने के बाद अििक जप िोता िै तो बिुत
अचछी बात िै | िजतना अििक जप उतना अििक फि | अिि कसय
अििकं
फि म ् | यि सदै व याद रखो | नीरसता, थकावट आिद दरू करने के ििए, जप मे एकागता िाने के ििए
जप-िविि मे थोडा पिरवतन य कर ििया जाय तो कोई िािन निीं | कभी ऊँचे सवर मे, कभी मंद सवर मे और कभी मानिसक जप भी िो सकता िै |
जप की समािप पर तुरंत आसन न छोडो, न िी िोगो से िमिो-जुिो
अथवा न िी बातचीत करो | िकसी सांसािरक िकया-किाप मे वयसत निीं िोना िै , बिलक कम-से-कम दस िमनट तक उसी आसन पर शांितपूवक य बैठे रिो | पिभ का िचंतन करो | पभु के पेमपयोिि मे डु बकी िगाओ | ततपिात सादर पणाम करने के बाद िी आसन तयाग करो | पभुनाम का समरण तो शास-पितशास के साथ चिना चाििए | नाम-जप का दढ अभयास करो | 9. धयान : पितिदन सािक को जप के पिात या जप के साथ धयान अवशय करना चाििए | जप करते-करते जप के अथ य मे मन को िीन करते जाओ अथवा मंत के
दे वता या गुरदे व का धयान करो | इस अभयास से आपकी सािना सुदढ बनेगी और आप शीघ िी परमेशर का साकातकार कर सकोगे | यिद जप करते-करते धयान िगने िगे तो िफर जप की िचंता न करो कयोिक जप का फि िी िै धयान और मन की शांित | अगर मन शांत िोता जाता िै तो िफर उसी शांित डू बते जाओ | जब मन पुनः बििमुख य िोने िगे, तो जप शुर कर दो | जो भी जापक-सािक सदगुर से पदत मंत का िनयत समय, सथान, आसन व संखया मे एकागता तथा पीितपूवक य उपरोक बातो को धयान मे रखकर जप
करता िै , तो उसका जप उसे आधयाितमकता के िशखर की सैर करवा दे ता | उसकी आधयाितमक पगित मे िफर कोई संदेि निीं रिता |
मंतान ु षा न ‘शीरामचिरतमानस’ मे आता िै िक मंतजप भिक का पाँचवाँ सोपान िै | मंतजाप म म दढ िवशासा
पंच म भिक यि ब ेद पाकासा
| ||
मंत एक ऐसा सािन िै जो मानव की सोयी िुई चेतना को, सुषुप शिकयो को
जगाकर उसे मिान बना दे ता िै |
िजस पकार टे िीफोन के डायि मे 10 नमबर िोते िै | यिद िमारे पास कोड व
फोन नंबर सिी िो तो डायि के इनिीं 10 नमबरो को ठीक से घुमाकर िम दिुनया के िकसी कोने मे िसथत इिचछत वयिक से तुरंत बात कर सकते िै | वैसे िी गुर-पदत मंत
को गुर के िनदे शानुसार जप करके, अनुषान करके िम िवशेशवर से भी बात कर सकते िै | मंत जपने की िविि, मंत के अकर, मंत का अथय, मंत-अनुषान की िविि जानकर तदनुसार जप करने से सािक की योगयताएँ िवकिसत िोती िै | वि मिे शर से मुिाकात
करने की योगयता भी िवकिसत कर िेता िै | िकनतु यिद वि मंत का अथ य निीं जानता या अनुषान की िविि निीं जानता या िफर िापरवािी करता िै , मंत के गुथ ं न का उसे पता निीं िै तो िफर ‘राँग नंबर’ की तरि उसके जप के पभाव से उतपनन आधयाितमक
शिकयाँ िबखर जायेगी तथा सवयं उसको िी िािन पिुंचा सकती िै | जैसे पाचीन काि मे ‘ इनद को मारनेवािा पुत पैदा िो’ इस संकलप की िसिद के ििए दै तयो दारा यज िकया
गया | िेिकन मंतोचचारण करते समय संसकृ त मे हसव और दीघ य की गिती से ‘इनद से मारनेवािा पुत पैदा िो’ – ऐसा बोि िदया गया तो वत ृ ासुर पैदा िुआ, जो इनद को निीं मार पाया वरन ् इनद के िाथो मारा गया | अतः मंत और अनुषान की िविि जानना आवशयक िै |
1. अनुषान कौन करे ?: गुरपदत मंत का अनुषान सवयं करना सवोतम िै | किींकिीं अपनी िमप य ती से भी अनुषान कराने की आजा िै , िकनतु ऐसे पसंग मे पती पुतवती िोनी चाििए |
िसयो को अनुषान के उतने िी िदन आयोिजत करने चाििए िजतने िदन उनके िाथ सवचछ िो | मािसक िमय के समय मे अनुषान खिणडत िो जाता िै | 2. सथान : जिाँ बैठकर जप करने से िचत की गिािन िमटे और पसननता बढे अथवा जप मे मन िग सके, ऐसे पिवत तथा भयरिित सथान मे बैठकर िी अनुषान करना चाििए |
3. िद शा : सामानयतया पूव य या उतर िदशा की ओर मुख करके जप करना चाििए | िफर भी अिग-अिग िे तुओं के ििए अिग-अिग िदशाओं की ओर मुख करके जप करने का िविान िै | ‘शीगुरगीता’ मे आता िै :
“उतर िदशा की ओर मुख करके जप करने से शांित, पूवय िदशा की ओर वशीकरण,
दिकण िदशा की ओर मारण िसद िोता िै तथा पििम िदशा की ओर मुख करके जप करने से िन की पािप िोती िै | अिगन कोण की तरफ मुख करके जप करने से आकषण य , वायवय कोण की तरफ शतु नाश, नैॠतय कोण की तरफ दशन य और
ईशान कोण की तरफ मुख करके जप करने से जान की पािप िोती िै | आसन
िबना या दस ू रे के आसन पर बैठकर िकया गया जप फिता निीं िै | िसर पर कपडा रख कर भी जप निीं करना चाििए |
सािना -सथान मे िद शा का िनण य य : िजस िदशा मे सूयोदय िोता िै वि िै पूवय िदशा | पूव य के सामने वािी िदशा पििम िदशा िै | पूवाियभमुख खडे िोने पर बाये िाथ पर उतर िदशा और दाििने िाथ पर दिकण िदशा पडती िै | पूव य और दिकण
िदशा के बीच अिगनकोण, दिकण और पििम िदशा के बीच नैॠतय कोण, पििम और उतर िदशा के बीच वायवय कोण तथा पूव य और उतर िदशा के बीच ईशान कोण िोता िै |
4. आसन : िवदुत के कुचािक (आवािक) आसन पर व िजस योगासन पर सुखपूवक य काफी दे र तक िसथर बैठा जा सके, ऐसे सुखासन, िसदासन या पदासन पर बैठकर जप करो | दीवार पर टे क िेकर जप न करो |
5. मािा : मािा के िवषय मे ‘मंतजाप िविि’ नामक अधयाय मे िवसतार से बताया जा चुका िि | अनुषान िे तु मिणमािा िी सवश य ष े मानी जाती िै |
6. जप की संखया
: अपने इषमंत या गुरमंत मे िजतने अकर िो उतने िाख
मंतजप करने से उस मंत का अनुषान पूरा िोता िै | मंतजप िो जाने के बाद
उसका दशांश संखया मे िवन, िवन का दशांश तपण य , तपण य का दशांश माजन य और माजन य का दशांश बहभोज कराना िोता िै | यिद िवन, तपण य ािद करने का सामथयय या अनुकूिता न िो तो िवन, तपण य ािद के बदिे उतनी संखया मे अििक जप
करने से भी काम चिता िै | उदािणाथय: यिद एक अकर का मंत िो तो 100000 + 10000 + 1000 + 100 + 10 = 1,11,110 मंतजप करने सेसब िविियाँ पूरी मानी जाती िै | अनुषान के पारमभ मे िी जप की संखया का िनिारयण कर िेना चाििए। िफर पितिदन िनयत सथान पर बैठकर िनिित समय मे, िनिित संखया मे जप करना चाििए। अपने मंत के अकरो की संखया के आिार पर िनमनांिकत ताििका के अनुसार
अपने जप की संखया िनिाियरत करके रोज िनिित संखया मे िी मािा करो। कभी कम, कभी जयादा......... ऐसा निीं।
सुिविा के ििए यिाँ एक अकर के मंत से िेकर सात अकर के मंत की िनयत
िदनो मे िकतनी मािाएँ की जानी चाििए, उसकी ताििका यिाँ दी जा रिी िै ः
अनुष ान ि ेत ु पितिदन
की मािा की स
ंखया
िकतने िदन मे अनुषान पूरा करना िै ? मंत के अकर
7 िदन मे
9 िदन मे
11 िदन मे
15 िदन मे
21 िदन मे
40 िदन मे
एक अकर का मंत
150 मािा
115 मािा
95 मािा
70 मािा
50 मािा
30 मािा
दो अकर का मंत
300 मािा
230 मािा
190 मािा
140 मािा
100 मािा
60 मािा
तीन अकर का मंत
450 मािा
384 मािा
285 मािा
210 मािा
150 मािा
90 मािा
चार अकर का मंत
600 मािा
460 मािा
380 मािा
280 मािा
200 मािा
120 मािा
पाँच अकर का मंत
750 मािा
575 मािा
475 मािा
350 मािा
250 मािा
150 मािा
छः अकर का मंत
900 मािा
690 मािा
570 मािा
420 मािा
300 मािा
180 मािा
सात अकर का मंत
1050 मािा
805 मािा
665 मािा
490 मािा
350 मािा
210 मािा
जप करन े की स ंख या चावि , मूँग आ िद के दानो
से अथवा क ं कड -पतथरो
से निी ं ब िलक मा िा से िगननी च ाििए। च ावि आ िद स े स ंखया िगनन े पर जप का फि इ नद ि े ि ेत े ि ै।
7.मंत स ंख या का िनिा य रणः कई िोग ‘ॐ’ को ‘ओम’ के रप मे दो अकर मान िेते
िै और नमः को नमि के रप मे तीन अकर मान िेते िै । वासतव मे ऐसा निीं िै ।
‘ॐ’ एक अकर का िै और ‘न मः’ दो अकर का िै । इसी पकार कई िोग ‘ॐ ि िर’ या ‘ॐ राम’
को केवि दो अकर मानते िै जबिक ‘ॐ... ि... िर ...’ इस पकार तीन अकर
िोते िै । ऐसा िी ‘ॐ राम’ साविानी रखनी चाििए।
संदभय मे भी समझना चाििए। इस पकार संखया-िनिारयण मे
8.जप कैस े कर े - जप मे मंत का सपष उचचारण करो। जप मे न बिुत जलदबाजी करनी
चाििए और न बिुत िविमब। गाकर जपना, जप के समय िसर िििाना, ििखा िुआ मंत
पढकर जप करना, मंत का अथय न जानना और बीच मे मंत भूि जाना.. ये सब मंतिसिद के पितबंिक िै । जप के समय यि िचंतन रिना चाििए िक इषदे वता, मंत और गुरदे व एक िी िै ।
9.समय ः जप के ििए सवोतम समय पातःकाि बह मुिूतय िै िकनतु अनुषान के समय
मे जप की अििक संखया िोने की वजि से एक साथ िी सब जप पूरे िो सके, यि संभव निीं िो पाता। अतः अपना जप का समय 3-4 बैठको मे िनिित कर दो। सूयोदय, दोपिर के 12 बजे के आसपास एवं सूयास य त के समय जप करो तो िाभ जयादा िोगा। 10.आिारः
अनुषान के िदनो मे आिार िबलकुि सादा, साितवक, िलका, पौिषक एवं ताजा
िोना चाििए। िो सके तो एक िी समय भोजन करो एवं राित को फि आिद िे िो।
इसका अथय भूखमरी करना निीं वरन ् शरीर को िलका रखना िै । बासी, गिरष, कबज करने वािा, तिा िुआ, पयाज, ििसुन, अणडे -मांसािद तामिसक भोजन कदािप गिण न करो।
भोजन बनने के तीन घंटे के अंदर िी गिण कर िो। अनयाय से अिजत य , पयाज आिद
सवभाव से अशुद, अशुद सथान पर बना िुआ एवं अशुद िाथो से (मािसक िमव य ािी सी के िाथो से) बना िुआ भोजन गिण करना सवथ य ा वजयय िै । 11.िविारः
अनुषान के िदनो मे पूणत य या बहचयय का पािन जररी िै । अनुषान से पूवय
आशम से पकािशत ‘यौवन स ुरका’ रका के ििए एक मंत भी िै ः
पुसतक का गिरा अधययन िाभकारी िोगा। बहचयय-
ॐ नमो भगवत े म िाबि े पराकमाय सवािा।
मनो िभिा िषत ं मनः स तंभ कुर कुर
रोज दि ू मे िनिार कर 21 बार इस मंत का जप करो और दि ू पी िो। इससे बहचयय की रका िोती िै । यि िनयम तो सवभाव मे आतमसात ् कर िेने जैसा िै ।
12.मौन ए वं एकानत ः अनुषान अकेिे िी एकांत मे करना चाििए एवं यथासंभव मौन
का पािन करना चाििए। अनुषान करने वािा यिद िववािित िै , गि ृ सथ िै , तो भी अकेिे िी अनुषान करे ।
13.शयनः अनुषान के िदनो मे भूिमशयन करो अथवा पिंग से कोमि गदे िटाकर
चटाई, कंतान (टाट) या कंबि िबछाकर जप-धयान करते-करते शयन करो।
14.िनदा , तनदा एव ं मनोराज स े बचो ः शरीर मे थकान, राित-जागरण, गिरष पदाथय का
सेवन, ठू ँ स-ठू ँ सकर भरपेट भोजन-इन कारणो से भी जप के समय नींद आती िै । सथूि िनदा को जीतने के ििए आसन करने चाििए।
कभी-कभी जप करते-करते झपकी िग जाती िै । ऐसे मे मािा तो यंतवत चिती रिती िै , िेिकन िकतनी मािाएँ घूमीं इसका कोई खयाि निीं रिता। यि सूकम िनदा अथात य तंदा िै । इसको जीतने के ििए पाणायाम करने चाििए।
कभी-कभी ऐसा भी िोता िै िक िाथ मे मािा घूमती िै िजहा मंत रटती िै िकनतु
मन कुछ अनय बाते सोचने िगता िै । यि िै मनोराज। इसको जीतने के ििए ‘ॐ’ का दीघय सवर से जप करना चाििए। 15.सवचछता और प िवतताः
सनान के पिात ् मैिे, बासी वस निीं पिनने चाििए। शौच
के समय पिने गये वसो को सनान के पिात ् कदािप निीं पिनना चाििए। वे वस उसी समय सनान के साथ िो िेना चाििए। िफर भिे िबना साबुन के िी पानी मे साफ कर िो।
िघुशंका करते वक साथ मे पानी िोना जररी िै । िघुशंका के बाद इिनदय पर
ठणडा पानी डािकर िो िो। िाथ-पैर िोकर कुलिे भी कर िो। िघुशंका करके तुरंत पानी न िपयो। पानी पीकर तुरंत िघुशंका न करो।
दाँत भी सवचछ और शेत रिने चाििए। सुबि एवं भोजन के पिात भी दाँत
अचछी तरि से साफ कर िेना चाििए। कुछ भी खाओ-िपयो, उसके बाद कुलिा करके मुखशुिद अवशय करनी चाििए।
जप करने के ििए िाथ-पैर िोकर, आसन पर बैठकर शुिद की भावना के साथ
जि के तीन आचमन िे िो। जप के अंत मे भी तीन आचमन करो।
जप करते समय छींक, जमिाई, खाँसी आ जाये या अपानवायु छूटे तो यि अशुिद
िै । उस समय की मािा िनयत संखया मे निीं िगननी चाििए। आचमन करके शुद िोने के बाद वि मािा िफर से करनी चाििए। आचमन के बदिे ‘ॐ’ संपुट के साथ गुरमंत सात बार दि ु रा िदया जाये तो भी शुिद िो जाएगी। जैसे मंत िै ‘न मः िशवाय’ बार ‘ॐ नमः िशवाय ॐ’
दि ृ िो जाएगा। ु रा दे ने से पडा िुआ िवघन िनवत
तो सात
जप के समय यिद मिमूत की िाजत िो जाये तो उसे दबाना निीं चाििए। ऐसी
िसथित मे जप करना छोडकर कुदरती िाजत िनपटा िेनी चाििए। शौच गये िो तो
सनानािद से शुद िोकर सवचछ वस पिन कर िफर जप करो। यिद िघुशंका करने गये िो तो केवि िाथ-पैर-मुँि िोकर कुलिा करके शुद-पिवत िो जाओ। िफर से जप का पारं भ करके बाकी रिी िुई जप-संखया पूणय करो। 16.िचत के िवक ेप का िनवारण करोः
अनुषान के िदनो मे शरीर-वसािद को शुद
रखने के साथ-साथ िचत को भी पसनन, शानत और िनमि य रखना आवशयक िै । रासते मे यिद मि-िवषा, थूक-बिगम अथवा कोई मरा िुआ पाणी आिद गंदी चीज के दशन य िो
जाये तो तुरंत सूयय, चंद अथवा अिगन का दशन य कर िो, संत-मिातमा का दशन य -समरण कर िो, भगवननाम का उचचारण कर िो तािक िचत के कोभ का िनवारण िो जाये।
17.नेतो िक िसथ ित ः आँखे फाड-फाड कर दे खने से आँखो के गोिको की शिक कीण
िोती िै । आँखे बँद करके जप करने से मनोराज की संभावना िोती िै । अतः मंतजप एवं धयान के समय अिोनमीिित नेत िोने चाििए। इससे ऊपर की शिक नीचे की शिक से
एवं नीचे की शिक ऊपर की शिक से िमि जायेगी। इस पकार िवदुत का वतुि य पूणय िो जायेगा और शिक कीण निीं िोगी।
18.मंत म े द ढ िवशा सः मंतजप मे दढ िवशास िोना चाििए। िव शासो फ िदायकः।
‘यि मंत बिढया िै िक वि मंत बिढया िै ... इस मंत से िाभ िोगा िक निीं िोगा...’ ऐसा संदेि करके यिद मंतजप िकया जायेगा तो सौ पितशत पिरणाम निीं आयेगा। 19.एकागताः
जप के समय एकागता का िोना अतयंत आवशयक िै । एकागता के कई
उपाय िै । भगवान, इषदे व अथवा सदगुरदे व के फोटो की ओर एकटक दे खो। चंद अथवा धुव तारे की ओर एकटक दे खो। सविसतक या ‘ॐ’ पर दिष िसथर करो। ये सब ताटक कििाते िै । एकागता मे ताटक का पयोग बडी मदद करता िै । 20.नीच कमो का तयागः
अनुषान के िदनो मे समसत नीच कमो का तयाग कर दे ना
चाििए। िनंदा, ििं सा, झूठ-कपट, कोि करने वािा मानव जप का पूरा िाभ निीं उठा सकता। इिनदयो को उतेिजत करनेवािे नाटक, िसनेमा, नतृय-गान आिद दशयो का
अविोकन एवं अशीि सािितय का पठन निीं करना चाििए। आिसय निीं करना चाििए। िदन मे निीं सोना चाििए।
21.यिद जप क े स मय काम -कोिािद स ताय े तो ः काम सताये तो भगवान निृसंि का
िचंतन करो। मोि के समय कौरवो को याद करो। िोभ के समय दान पुणय करो। सोचो
िक कौरवो का िकतना िंबा-चौडा पिरवार था िकनतु आिखर कया? अिं सताए तो अपने से िन, सता एवं रप मे बडे िो, उनका िचंतन करो। इस पकार इन िवकारो का िनवारण करके, अपना िववेक जागत रखकर जो अपनी सािना करता िै , उसका इषमंत जलदी फिता िै ।
िवििपूवक य िकया गया गुरमंत का अनुषान सािक के तन को सवसथ, मन को
पसनन एवं बुिद को सूकम करने मे तथा जीवन को जीवनदाता के सौरभ से मिकाने मे सिायक िोता िै । िजतना अििक जप, उतना अििक फि। अििक सय अ ििकं फि म।्
िवद ािथ य यो के ििए स ार सवत य मंत के अनुष ान क ी िविि
यिद िवदाथी अपने जीवन को तेजसवी-ओजसवी, िदवय एवं िर केत मे सफि बनाना चािे तो सदगुर से पाप सारसवतय मंत का अनुषान अवशय करे । सारसवतय मंत का अनुषान सात िदन का िोता िै । इसमे पितिदन 170 मािा करने का िविान िै ।
सात िदन तक केवि शेत वस िी पिनने चाििए। सात िदन तक भोजन भी िबना नमक का करना चाििए। दि ू चावि की खीर
बनाकर खाना चाििए।
शेत पुषपो से सरसवती दे वी की पूजा करने के बाद जप करो। दे वी को भोग भी
खीर का िी िगाओ।
माँ सरसवती से शुद बुिद के ििए पाथन य ा करो।
सफिटक के मोितयो की मािा से जप करना जयादा िाभदायी िै । बाकी के सथान, शयन, पिवतता आिद के िनयम मंतानुषान जैसे िी िै ।
‘पिरपश े न ...’
पशः ज प करत े समय भग वान के िकस सवरप का
िवचार करन ा चा ििए ?
उतरः अपनी रिच के अनुसार सगुण अथवा िनगुण य सवरप मे मन को एकाग िकया जा
सकता िै । सगुण का िवचार करोगे, िफर भी अंितम पािप तो िनगुण य की िी िोगी। जप मे सािन और साधय एक िी िै जबिक अनय सािना मे दोनो अिग िै । योग मे अषांग योग का अभयास सािना िै और िनिवल य प समािि साधय िै । वेदांत मे आतमिवचार सािन के
और तुरीयावसथा साधय िै । िकनतु जप-सािना मे जप के दारा िी अजपा िसथित को िसद करना िै अथात य ् सतकयपूवक य िकये गये जप के दारा सिज जप को पाना िै । मंत के अथय मे तदाकार िोना िी सचची सािना िै । पशः कया दो य
ा तीन म ंतो का जप
िकया जा स कता िै ?
उतरः निीं, एक समय मे एक िी मंत और वि भी सदगुर पदत मंत का िी जप करना शष े िै । यिद आप शी कृ षण भगवान के भक िै तो शीरामजी, िशवजी, दग य ाता, गायती ु ाम इतयािद मे भी शीकृ षण के िी दशन य करो। सब एक िी ईशर के रप िै । शी कृ षण की उपासना िी शीराम की या दे वी की उपासना िै । सभी को अपने इषदे व के ििए इसी
पकार समझना चाििए। िशव की उपासना करते िै तो सबमे िशव की िी सवरप दे खे। पशः कया ग ृ िस थ श ुद पणव का जप कर स
कता ि ै ?
उतरः सामानयतया गिृसथ के ििए केवि पणव यािन ‘ॐ’ का जप करना उिचत निीं िै । िकनतु यिद वि सािन-चतुषय से समपनन िै , मन िवकेप से मुक िै और उसमे जानयोग सािना के ििए पबि मुमुकतव िै तो वि ‘ॐ’ का जप कर सकता िै ।
पशः ‘ ॐ नमः िशवाय’ प ंचाकरी म ंत ि ै या ष डाकरी ? इसका अन ुषान करन ा िो तो िकत ने िाख जप कर े ? उतरः केवि ‘न मः िशवाय’
पंचाकरी मंत िै एवं ‘ॐ नमः िशवाय’
अतः इसका अनुषान तदनुसार करे ।
पशः ज प करत े -करत े मन एकदम
श
षडाकरी मंत िै ।
ांत िो जा ता िै एव ं ज प छूट जा ता िै तो
कया कर े ?
उतरः जप का फि िी िै शांित और धयान। यिद जप करते-करते जप छूट जाये एवं मन शांत िो जाये तो जप की िचंता न करो। धयान मे से उठने के पिात पुनः अपनी िनयत संखया पूरी कर िो।
पशः ज ब जप करत े ि ै तो काम -को िािद िव कार अ ििक सतात े -से पतीत िोत े िै और जप करना
छोड द ेत े ि ै। कया यि उिच
त िै ?
उतरः कई बार सािक को ऐसा अनुभव िोता िै िक पििे इतना काम-कोि निीं सताता
था िजतना मंतदीका के बाद सताने िगा िै । इसका कारण िमारे पूवज य नम के संसकार िो सकते िै । जैसे घर की सफाई करने पर कचरा िनकिता िै , ऐसे िी मंतजाप करने से
कुसंसकार िनकिते िै । अतः घबराओ निीं, न िी मंतजप करना छोड दो वरन ् ऐसे समय
मे दो-तीन घूँट पानी पीकर थोडा कूद िो, पणव का दीघय उचचारण करो एवं पभु से पाथन य ा करो। तुरंत इन िवकारो पर िवजय पाने मे सिायता िमिेगी। जप तो िकसी भी अवसथा मे तयाजय निीं िै ।
पशः अ िि क जप स े ख ुशकी चढ जा ये तो कय ा कर े ? उतरः जप से खुशकी निीं चढती, वरन ् सािक की आसाविानी से खुशकी चढती िै । नया
सािक िोता िै , दब य शरीर िोता िै एवं उतसाि-उतसाि मे अििक पाणायाम करता िै , िफर ु ि भूखामरी करता िै तो खुशकी चढने की संभावना िोती िै । अतः उपरोक कारणो का
िनराकरण कर िो। िफर भी यिद िकसी को खुशकी चढ िी जाये तो पातःकाि सात काजू शिद के साथ िेना चाििए अथवा भोजन के पिात िबना शिद के सात काजू खाने
चाििए। (सात से जयादा काजू िदनभर मे खाना शरीर के ििए िितावि निीं िै ।) इसके अिावा िसर के तािू पर एवं ििाट के दोनो छोर पर गाय के घी की माििश करो। इससे िाभ िोता िै । खुशकी चढने मे, पागिपन मे पकके पेठे का रस या उसकी सबजी िितावि
िै । कचचे पेठे निीं िेना चाििए। आिार मे घी, दि ू , बादाम का उपयोग करना चाििए। ऐसा करने से ठीक िोता िै । खुशकी या िदमाग की िशकायत मे िवदुत का झटका िदिाना बडा िािनकारक िै । पश : सवपन
मे मं त दीका
िमिी
मंत दीका ि ेना अिनवाय य िै ?
िो तो कया करे ? कया पुनः पतयक
रप मे
उतर : िाँ पश : पिि े िकसी मं त का जप करत े थे , विी मंत यिद मंतदीका तो कय ा कर े ?
के समय िमि े ,
उतर : आदर से उसका जप करना चाििए | उसकी मिानता बढ जाती िै | पश : मंतदीका क े स मय कान म े अ ं गुिी कयो
ड िवात े ि ै ?
उतर : दाये कान से गुरमंत सुनने से मंत का पभाव िवशेष रिता िै ऐसा किा गया िै | पश : यिद ग ुर मंत न ििया िो उतर : िाँ, िकया जाता िै |
, िफर भी अन ुषान िकया जा सकता ि
ै कया
?