जो ज ागत ह ै सो पा वत ह ै जगत का सब ऐशयय भोगने को ििल जाय परनतु अपने आतिा-परिातिा का जान नहीं ििला तो अंत िे इस जीवातिा का सवस य व ििन जाता है । िजनके पास आतिजान नहीं है और दस ू रा भले सब कुि हो परनतु वह सब नशर है । उसका शरीर भी नशर है । विशषजी कहते है ः
"िकसी को सवगय का ऐशयय ििले और आतिजान न ििले तो वह आदिी अभागा है । बाहर का ऐशयय ििले चाहे न ििले, अिपतु ऐसी कोई कििनाई हो िक चंडाल के घर की िभका
िीकरे िे खाकर जीना पडे ििर भी जहाँ आतिजान ििलता हो उसी दे श िे रहना चािहए, उसी
वातावरण िे अपने िचत को परिातिा िे लगाना चािहए। आतिजान िे ततपर िनुषय ही अपने आपका िित है । जो अपना उदार करने के रासते नहीं चलता वह िनुषय शरीर िे दो पैर वाला पशु िाना गया है ।"
तुलसीदास जी ने तो यहाँ तक कहा है ः
िजन ह हिर क था सुनी नह ीं कान ा। शवण र ं ध अिह भवन सिाना
िजनहोने सतसंग नहीं सुना, हिरकथा नहीं सुनी उनके कान साँप के िबल के बराबर है । विशषजी कहते है ः "जो जानवान ऋिि, िहििय है , भले उनके जीवन िे कई िवघन-बाधाएँ
भी आती है परं तु उनका िचत सदा अपने आति-अभयास से सुसजज होता है ।"
भगवान राि ने बालयकाल से संधया, पाणायाि धयान आिद िकया था, और सोलह साल
की उम िे तीथय य ाता करने िनकल गये थे। साल भर तीथय य ाता करते संसार की िसथित का गहन अधययन करते हुए इस नतीजे पर आये िक बडे -बडे िहल खणडहर हो जाते है , बडे -बडे नाले
निदयाँ रख बदल दे ती है । बसती शिशान हो जाती है और शिशान बसती िे बदल जाता है । यह सब संसार की नशरता दे खकर भगवान रािजी को वैरागय हुआ। संसार के िवकारी जीवन से,
िवकारी सुख से उनहे वैरागय हुआ। वे विशषजी िुिन का जान सुनते थे। जान सुनते-सुनते उसिे तललीन हो जाते थे। रात भर आतिजान के िवचारो िे जागते रहते थे। कभी घडी भर सोते थे
और ििर झट से बाहिुहूतय िे उि जाते थे। शीरािचनदजी ने थोडे ही सिय िे अपने सदगुर के वचनो का साकातकार कर िलया।
िववेकाननद सात साल तक साधना िे लगे रहे । भोजन िे िकसी पिवत घर की ही िभका
खाते थे। साधन-भजन के िदनो िे बिहिुख य िनगुरे लोगो के हाथ का अनन कभी नहीं लेते थे।
पिवत घर की रोटी िभका िे लेते और वह रोटी लाकर रख दे ते थे। धयान करते जब भूख लगती तो रोटी खा लेते थे। कभी तो सात िदन की बासी रोटी हो जाती। उसको चबाते-चबाते िसूढो िे खून िनकल आता। ििर भी िववेकाननद आधयाितिक िागय पर डटे रहे । ऐसा नहीं सोचते थे िक
"घर जाकर ताजा रोटी खाकर भजन करे गे।" वे जानते थे िक िकतनी भी कििनाई आ जाये ििर भी आतिजान पाना जररी है । गुर के वचनो का साकातकार करना जररी है । जो बुिदिान ऐसा सिझता है उसको पतयेक ििनट का सदप ु योग करने की रिच होती है । उसे कहना नहीं पडता िक धयान करो, िनयि करो, सुबह जलदी उिकर संधया िे बैिो। जो अपनी िजनदगी की कदर
करता है वह ततपर हो जाता है । िजसका िन िूख य है और वह खुद िन का गुलाि है , वह तो चाबुक खाने के बाद थोडा चलेगा और ििर चलना िोड दे गा। िूख य हदय न
चेत
यदिप ग ुर िि लह ीं िबर ं िच स ि।
भले बहाजी गुर ििल जाये ििर भी िूखय आदिी सावधान नहीं रहता। बुिदिान आदिी गुर की युिि पर डट जाता है । जैसे, एकलवय गुर की िूितय बनाकर अभयास िे लग जाता था।
कोई गलती होती थी तो अपना कान पकडता था। बाँये हाथ से कान पकडता था और दायाँ हाथ गुर का िानकर चाँटा िारता था। ऐसा करते करते गुर की िूितय के आगे धनुिवद य ा सीखा और उसिे शष े ता पाप की।
जो गुर वचन लग जाते है उनहे हजार िवघन-बाधाएँ भी आये ििर भी आधयाितिक रासता
नहीं िोडते। सबसे ऊँचे पद का साकातकार कर ही लेते है । ऐसे आतिवेता अदभुत होते है ।
भोजन िे खूब हरी ििचय खाने वाले का वीयय किजोर हो जाता है । वीयय किजोर होगा तो
िन किजोर हो जायेगा। िन किजोर होगा तो बुिद किजोर होगी और ििर उस बुिद को कोई
भी घसीट ले जाएगा। उसके साकातकार का रासता लमबा हो जाएगा। जो भगवान के भि होते है उनके िदवय परिाणु होते है । िदवय परिाणु वाले को हलके परिाणु वाले के संपकय से अपने को बचाना चािहए। ईशर साकातकार के रासते जो िवघन आते है उनसे जो भी अपने को बचाता है वह जलदी तर जाता है , आतिानुभव कर लेता है ।
िजसको सुिवचार उपजता है वह तंदरसती के िलए भोजन करता है । तन ढँ कने के िलए
कपडा पहनता है । खा-पीकर, कपडा पहनकर िजा लेने का उसका भाव चला जाता है । 'जरा िजा ले लूँ' यह बेवकूिी उसकी चली जाती है । कुता रोटी का टु कडा दे खता है , उसके िुह ँ िे पानी आ जाता है । िगर उति साधक के आगे िपपन भोग रख दो ििर भी उसके िुँह िे पानी नहीं
आयेगा कयोिक बुिद िवकिसत हो गई है । वह अब हलके केनदो िे नहीं है , थोडा ऊपर उि गया
है । अगर ऊपर उि गया है तब तक तो साधक है परनतु सवािदष भोजन दे खकर दो गास जयादा खा लेता है या सवाद के िलए ही भोजन करता है तो अब तक साधकपना नहीं आया।
कया खाना, कैसे खाना, कब खाना, कया करना, कैसे करना, कया बोलना, कैसे बोलना यह
सब साधकपन आने से अपने आप ही पता चलने लगता है । उसका अंतःकरण इतना िधुर पिवत हो जाता है िक वह परायो को अपना बना लेता है । यह पहली भूििका शुभेचिा है । शुभेचिा यह है िक "कब िै परिातिा को पाऊँ, ईशर गुर को िरझाऊँ? हदय िे ही बैिा है परिातिदे व, उसका साकातकार कब हो?"
सवािी राितीथय पोिेसर की नौकरी करते थे। अपनी आय के पैसे से खाद पदाथय, कािपयाँ,
िल, पुसतके आिद सािान लेकर गरीब, अनाथ, जररतिंद बचचो को बाँट दे ते थे। पती ने कहाः "किाते हो तो बचचो का जरा खयाल तो करो।"
सवािी राितीथय ने कहाः "बचचो के िलए ही तो किाता हूँ।" पती ने कहाः "यह दो बेटे है उनका तो खयाल करो।"
राितीथय ने कहाः "यह ही दो बेटे राि के नहीं, सब बेटे राि के है । इनको भी लाईन िे लगा दो।"
लोग अपनी रोटी के िलए िल-कपट करके भी पैसे इकटिे करते है । शुभिवचार जब आयेगा तब वब िल कपट का पैसा अचिा नहीं लगेगा। वह तो अपना भी दस ू रो के िहत िे लगा दे गा। वह कया िल-कपट करे गा।
सवािी राितीथय ने अपने बेटो के िलए कोई खास िचनता नहीं की थी। दस ू रे लोग
सिझाते थेः "तुि पोिेसर हो, किाते हो। बचचो के िलए रखो, इन बेचारो की िजनदगी का भी कुि खयाल करो। इन बचचो की िजनदगी की िचंता तो िजसने बचचे पैदा िकये है , बचचो को जनि िदया है उसे करना ही चािहए।"
सवािी राितीथय कहतेः "िजसको इनका खयाल करना चािहए वह कर ही रहा है । राि की
सता से इनका जनि हुआ, राि ने ही जनि िदया और राि िे ही वे जी रहे है । राि कोई िर थोडे ही गया है ।"
दस ू रे पोिेसरो ने अपने बेटो के संगह तो िकया िगर वे बेटे कोई कलकय हुए, तो कोई
िासटर हुए। राितीथय ने अपने एक ही शरीर से उतपनन बेटो के िलए धयान नहीं िदया, वे दो बेटो िे एक नयायाधीश हुआ और दस ू रा कलेकटर हुआ।
िोह-िाया, धोखा-धडी, िल कपट करके जो अपने बचचो के िलए धनसंगह करते है उनके
व ही बचचे उनके िुँह पर थूक दे ते है । नानक जी कहते है -
संगी सा थी च ले ग ये सार े कोई न िनिभयो सा
थ।
कह ना नक इह िवपत ि े ट ेक ए क र घुनाथ।।
जब भगवान के िसवाय सब बेकार लगे तो सिझो िक वह पहली भूििका पर पहुँचा है ।
उसके िलए िवघन-बाधाएँ साधन बन जाएँगी। िवघन-बाधाएँ जीवन का संगीत है । िवघन-बाधाएँ नहीं आये तो संगीत ििडे गा नहीं।
भौरी कीडे को उिाकर अपने िबल िे रखती है । एक डं क िारती है , वह कीडा िटपटाता
है । उसके शरीर से पसीने जैसा कुि पवाह िनकलता है । ििर भौरी जब दस ू रा डं क िारती है तब कीडा तेजी से िटपटाता है और वह पसीना कडा हो जाता है , जाला बन जाता है । जब तीसरा
डं क िारती है तो कीडा खूब िटपटाता है , बहुत दःुखी होता है िगर उस डं क के कारण पसीने से जो जाला बना है उसी िे से पंख िूट िनकलते है और वह उडान भरता है ।
वैजािनको ने कीडे िे से िकडी बनने की इस पििया को दे खा। भौरी के दारा तीसरे डं क
सहने की तीव पीडा से उन कीडो को बचाने के िलए वैजािनको ने एक बारीक कैची बनाई और
तीसरे डं क से कीडा िटपटाकर जाला काटे उसकी अपेका उनहोने कैची से वह जाला काट िदया। कीडे को राहत ििली, पीडा तो नहीं हुई, िगर ििर उसके पंख नहीं िूटे । उडान भरने की योगयता उसिे नहीं आयी।
ऐसे ही परिातिा जब अपने साधक को अपनी िदवय अनुभूित िे उडान भरवाते है तब उसको चारो तरि से िवघन-बाधाएँ दे ते है तािक उसका िवचारबल, िनोबल, सिझशिि एवं
आतिशिि बढ जाये। िीरा के िलए परिातिा ने राणा को तैयार कर िदया। नरिसंह िेहता का भाई ही उनका िवरोध करता था, साथ िे पूरी नगरी जुड गयी। शबरी भीलनी हो, चाहे संत कबीर हो, चाहे एकनाथ जी हो या संत तुकाराि हो, कोई भी हो, लोग ऐसे भिो के िलए एक पकार का
जाला बना लेते है । एकनाथ जी िहाराज के िखलाि िहनद ू और िुसलिान दोनो ने ििलकर एक चांडाल चौकडी बनायी थी।
जैसे कीडे के िलए तीसरा डं क पंख िूट िनकलने के िलए होता है ऐसे ही पकृ ित की ओर
से यह सारा िखलवाड साधक के उतथान के िलए होता है । िजनहे सतसंग का सहारा नहीं है , पहली दस ू री भूििका िे दढता नहीं है वे िहल जाते है ।
बुद के िन िे एक बार आया िक यहाँ तो कोई पहचानता भी नहीं, खाने का भी ििकाना
नहीं है , लोग िुझ पर थूकते है , हालाँिक िै उनहे कुि कहता भी नहीं। यह भी कोई िजनदगी है ! चलो, वापस घर चले। उस सिय वे िसदाथय थे। सतसंग का सहारा नहीं था। पहली भूििका िे
दढता चािहए। बचपन का वैरागय हो तो िीक है िगर बुढापे िे वैरागय जगा है या ििर भी भोग भोगने के बाद, बचचो को जनि दे ने के बाद पहली भूििका ििली हो तो जरा किजोर है । बुद के िन िे आया िक चलो घर जाये। उनहीं िवचारो िे खोये से बैिे थे। इतने िे दे खते है िक सािने
पेड पर एक कीडा चड रहा है । हवा का झोका आया और िगर पडा। ििर उसने चढना शुर िकया। हवा का दस ू रा झोका आया और ििर िगर पडा। ऐसे वह कीडा सात बार िगरा और चढा। आिखर वह आिवीं बार िे चढ गया। िसदाथय उसको धयान से दे ख रहे थे। उनहोने सोचा िक यह कोई
झूिी घटना नहीं है । यह तो संदेश है । एक साधारण कीडा अपने लकय पर पहुँच जाता है और िै इनसान होकर पीिे हट जाऊँ?
िसदाथय की पहली भूििका थी। अपने आप संसकार जग गये। िसदाथय ने िनशय कर
िलयाः "कायय साधयािि व दे हं पातयािि। या तो कायय साध लूँगा या िर जाऊँगा। िहल िे भी एक िदन िर ही जाना है । साधना करते-करते भी िर जाऊँगा तो हजय नहीं। ऐसा सोचकर पककी गाँि बाँध ली और चल पडे । सात साल के अनदर ही उनहे परि शांित ििल गयी।
जब आदिी के शुभ िवचार जगते है तब सनान, दान, सेवा, सिरण, सतसंग परिहत उसे
अचिे लगते है । िजसे पहली भूििका पाप नहीं हुई उसे इन सब कायो के िलए िुसत य ही नहीं
ििलेगी। वहाँ से वह पलायन हो जायेगा। उसे वह सब अचिा नहीं लगेगा। वाह-वाही पाने, यश किाने को तो आगे आ जायेगा पर ििर िखसक जायेगा। ऐसे लोग ििर पशु, पकी, कीट की िनमन योिनयो िे जाते है ।
दस ू री भूििका होती है शुभेचिा। 'ऐसे िदन कब आयेगे िक परिातिा ििले, ऐसे िदन कब
आयेगे िक दे ह से दे हातीत ततव का साकातकार हो जाये? अिसर, साहब, सेि, साहूकार बन गये िगर आिखर कया?' ऐसा िवचार उसे आता रहता है ।
यह दस ू री भूििका िजसे पाप हो गई वह घर िे भी है तो घर वाले उसे दबा नहीं सकेगे।
सतसंग और सतकिय िे रिच रहे गी। भोग-वासना िीकी पड जायेगी। िगर ििर रोकने वाले आ
जायेगे। उसे िहसूस होगा िक ईशर के रासते िे जाने िे बहुत सारे िायदे है । िवघन करने वाले
साधक के आगे आिखर हार िान जायेगे। ईशर का दशन य तो इतने िे नहीं होगा िगर जो संसार कोसता था वह अनुकूल होने लगेगा।
उसके बाद तीसरी भूििका आयेगी, उसिे सतसंग के वचन बडे िीिे लगेगे। उनहीं वचनो
का िनिदधयासन करे गा, धयान करे गा, शासोचिोवास को दे खेगा। 'िै आतिा हूँ, चैतनय हूँ' ऐसा
िचनतन-धयान करे गा। गुरदे व का धयान करे गा तो गुरदे व िदखने लगेगे। गुरदे व से िानिसक बातचीत भी होगी, पसननता और आनंद आने लगेगा। संसार का आकिण य िबलकुल कि हो जायेगा। ििर भी कभी-कभी संसार लुभाकर िगरा दे गा। ििर से उि खडा होगा। ििर से
िगरायेगा, ििर खडा होगा। परिातिा का रस भी ििलता रहे गा और संसार का रस कभी-कभी खींचता रहे गा। ऐसा करते-करते चौथी भूििका आ जाती है तब साकातकार हो जाता है ििर
संसार का आकिण य नहीं रहता। जब सवपन िे से उिे तो ििर सवपन की चीजो का आकिण य
खति हो गया। चाहे वे चीजे अचिी थीं या बुरी थीं। चाहे दःुख ििला, चाहे सुख ििला, सवपन की चीजे साथ िे लेकर कोई भी आदिी जग नहीं सकता। उनहे सवपन िे ही िोड दे ता है । ऐसे ही जगत की सतयता साथ िे लेकर साकातकार नहीं होता। चौथी भूििका िे जगत का ििथयातव दढ हो जाता है । विृत वयापक हो जाती है । वह िहापुरि होते हुए भी अनेक बहाणडो िे िैल
जाता है । उसको यह अनुभव होता है िक सूरज िुझिे है , चनद िुझिे है , नकत िुझिे है । यहाँ तक िक बहा, िवषणु, िहे श के पद भी िुझिे है । ऐसा उन िहापुरिो का अनुभव होता है । उनको कहा जाता है बहवेता। वे बहजानी बन जाते है ।
बहजा नी को खोज े िह े शर। बहजा नी आप परि ेशर।
बहजानी
िुगत ज ु गत का दाता।
बहजा नी प ूरण पुरि िव धाता।
बहजानी
का क थय ा न जाई आधा आखर।
ना नक ! बहजानी
स बका िाक ुर।
चौथी भूििका िे वह सबका िाकुर हो जाता है । ििर उसके िलए कोई दे वी-दे वता पूजनीय
नहीं रहते, नरक िे ले जाने वाले यि नहीं रहते। उसके िलए सब अपने अंग हो जाते है । जैसे,
रोिकूप आपको कभी चुभता? आपका पैर, अंगूिा, ऊँगली आपको चोट पहुँचाती है ? नहीं। सब आप
ही हो। ऐसे ही वह बहजानी वयापक हो जाता है । बह-साकातकार करके बहिय हो जाता है । ििर उसके िलए कोई रीित-िरवाज, कोई िजहब, कोई पंथ, कोई भगवान या दे वी-दे वता शेि नहीं रहते। वह जो बोलता है वह शास बन जाता है । संत तुकाराि ने जो अभंग गाये थे वे िहाराष
यूिनविसट य ी िे, एि.ए. के िवदािथय य ो के पाठयपुसतक िे है । संत तुकाराि अिधक पढे -िलखे नहीं थे िगर नरे नद जैसे, केशवचनद सेन जैसे, कई िवदानो को िागद य शन य दे ने िे सिथय हो गये। वयिि
जब चौथी भूििका िे पहुँच जाता है तब उसकी वाणी वेदवाणी हो जाती है । संत तुकाराि कहते है - "अिी सांगतो वेद सांगते। हि बोलते है वह वेद बोलते है ।"
बहजान हो गया ििर बहजानी शास का आधार लेकर बोले िक ऐसे ही बोले, उनकी वाणी
वेदवाणी हो जाती है । वे िजस धरती पर पैर रखते है वह धरती काशी हो जाती है । वे िजस जल
को िनहारते है वह जल उनके िलए गंगाजल हो जाता है । िजस वसतु को िूते है वह वसतु पसाद
हो जाती है और जो अकर बोलते है वे अकर िंत हो जाते है । वे िहापुरि िात 'ढे ...ढे ... करो' ऐसा कह दे और करने वाला शदा से करता रहे , तो उसको अवशय लाभ हो जाता है । हालांिक ढे ... ढे ... कोई िंत नहीं है िगर उन िहापुरि ने कहा है और जपने वाले को पकका िवशास है िक िुझे िायदा होगा तो उसे िायदा होकर ही रहता है ।
िंत िूल ं ग ुरोवा य कयि ् .....
िजनका वचन िंत हो जाता है उनहे संसार की कौन-सी चीज की जररत पडे गी? उनहे
कौन-सी चीज अपापय रहे गी? 'धयानिूलं गुरोिूियतय....' ईशर के धयान से भी जयादा िहापुरि के धयान से हिारा कलयाण होता है । जब तक ऐसे जीिवत िहापुरि नहीं ििलते तब तक ईशर की िूितय का धयान िकया जाता है । जब ऐसे िहापुरि ििल गये तो ििर उनहीं का धयान करना चािहए।
िैने पहले शी कृ षण का, िाँ काली का, भगवान झूलेलाल का, भगवान िशव का धयान करते
हुए न जाने िकतने पापड बेले। थोडा-थोडा िायदा हुआ िगर सब दे वी-दे वता एक िे िदखे ऐसे
गुरजी जब ििल गये तो िेरा परि पापवय िुझे शीघ पाप हो गया। िेरे डीसा के िनवास िे जहाँ िै सात साल रहा था वहाँ, िेरी कुिटया िे एक िात गुरदे व का ही िोटो रहता था। अभी भी वही है और िकसी दे वी दे वता का िचत नहीं है । गुर के धयान िे सब धयानो का िल आ जाता है । धयानि ूल ं ग ुरोि ूय ित य ः।
'िवचारसागर' िे यह बात आती है । वेदानत का एक बडा ऊँचा गनथ है 'िवचारसागर'। उसिे कहा है िक पहली, दस ू री या तीसरी भूििका िे िजसको भी बहजानी गुर ििल जाये वह बहजानी गुर का धयान करे , उनके वचन सुने। उसिे तो यहाँ तक कह िदया है िकः
ईश त े अ िधक ग ुर ि े धार े भ िि स ुजान।
िबन गुरकृपा पवीनह ुँ ल हे न आ ति जान।।
ईशर से भी जयादा गुर िे पेि होना चािहए। ििर सवाल उिाया गया िकः "ईशर िे पेि करने से भी अिधक गुर िे पेि करना चािहए। इससे कया लाभ होगा?
उतर िे कहाः 'ईशर िे पेि करके सेवा पूजा करोगो तो हदय शुद होगा और जीिवत
िहापुरि िे पीित करोगे, सेवा-पूजा, धयान करोगे तो हदय तो शुद होगा ही, वे तुमहारे िे कौन सी किी है वह बताकर ताडन करके वह गलती िनकाल दे गे। िूितय तो गलती नहीं िनकालेगी। िूितय से तुमहारा भाव शुद होगा परनतु तुमहारी ििया और जान की शुिद के िलए, अनुिित के िलए िूितय कया करे गी?
भावशुिद के िलए धयान िचनतन करते है । गुर िे जब पीित हो जायेगी तो गुर हिे
अपना िानेगे, हि गुर को अपना िानेगे। गुरजी हिारी गलती िदखायेगे तो हि आसानी से सवीकार करके गलती को िनकालेगे। गुरजी के सािने नहीं पडे गे, कयोिक अपनतव है । िशषय
िवचार करे गा िक कौन गलती िदखा रहा है ? िेरे गुरदे व िदखा रहे है । तो ििर िेरे िहत िे ही है । ििर पितशोध की भावना नहीं होगी। दस ू रा कोई डाँट दे , अपिान करे तो पितशोध की भावना
उिे गी और गुरजी डाँट दे तो खुशी होगी िक गुरजी िुझे अपना सिझते है , िेरी घडाई करते है , िकतने दयालू है !
'िवचारसागर' कहता है ः ईश त े अ िधक ग ुर ि े धार े भ िि स ुजान।
ईशर का भजन करने से केवल भाव शुद होगे, हदय शुद होगा गुरदे व का भजन करने से ििया और जान शुद होगा। गुर का दै वी कायय करना भी गुरदे व का भजन है । गुर का िचनतन
करना भी गुर का भजन है । जो काि करने से गुर पसनन हो वह सारा काि भजन हो जाता है । हनुिानजी ने रावण की लंका जलाई ििर भी वह भजन हो गया। ताडका वध भी राि जी का
भजन हो गया। राकसो का संहार करना भी राि जी का िवशािित के पित भजन हो गया। ििया तुि कैसी कर रहे हो, अचिी या बुरी, यह नहीं परनतु ििया करने के पीिे तुमहारा भाव कया है
यह िहतव रखता है । जैसे िाँ बचचे को कभी कटु दवा िपलाती है कभी िििाई िखलाती है िगर उसका भाव तो बचचे की तनदरसती का है । ऐसे ही गुर िे हिारा भाव अगर शुद है तो कभी कुि करना पडे तो कोई दोि नहीं लगता। कभी िकसी से सनेह से चलना हो या रोि करके
चलना पडे ििर भी भगवान के, गुर के िागय पर चलते है , गुरकायय िे लगे है तो वह भजन, पूजा,
साधना हो जाती है । उस सिय तुमहारी ििया के पीिे जो भाव है उसका िूलय है । जब तक ऐसा भाव नहीं जगा तब तक ििया िुखय रहती है । भाव जग गया तब ििया गौण हो जाती है ।
पहली भूििका िे तुमहे िविय, िवकार, िवलास बहुत कि अचिे लगते है । िचत िे कुि
खोज बनी रहती है । दस ू री भूििका िे खोज करके तुि सतसंग िे जाओगे। लोगो से तुमहारा शुभ वयवहार होने लगेगा। पहले संसार के ऐश-आराि िे जो रिच थी वह अब गायब हो जायेगी।
तीसरी भूििका िे आननद आने लगेगा। धयान जिने लगेगा। सिािध का सुख पगाढ होने लगेगा। बहाकार विृत की थोडी झलक आयेगी, िगर सतसंग, साधन, भजन िोड दोगे तो ििर नीचे आ जाओगे।
चौथी भूििका िे िसद बना हुआ साधक नीचे नहीं आता, िगरता नहीं। जैसे पदाथय
गुरतवाकिण य केत के पार चला गया तो ििर वापस नहीं िगरे गा। िगर गुरतवाकिण य के अनदर रहा, दस ू रो की अपेका वह ऊँचे तो है , ििर भी िगरने का डर है । वैसे ही जब तक आति-
साकातकार नहीं होता तब तक संसार के कीचड िे िगरने का डर रहता है । आति-साकातकार होने के बाद तो संसार के कीचड िे होते हुए भी वह िनलप े है । दही िबलोते है तब िकखन िनकलने से पहले झाग िदखती है । अगर गिी जयादा है तो थोडा िं डा पानी डालना पडता है , िं ड जयादा
हो तो थोडा गिय पानी ििलाना पडता है और िकखन िनकाल लेना पडता है । अगर िोड दे गे तो ििर िकखन हाथ नहीं आयेगा। जब िकखन िनकालकर उसका िपणड बना िलया ििर उसे िाि िे रखो तो कोई िचनता नहीं। पहले एक बार उसे दही िे से िनकाल लेना पडता है । ऐसे ही
संसार से नयारे होकर एक बार अपने हदय िे परिाति-साकातकार का अनुभव कर लेना पडता है । ििर भले संसार िे रहो, कोई बात नहीं। िाि िे िकखन तैरता रहता है । पहले तो िाि िे
िकखन िदखता भी नहीं था, अब डू बता ही नहीं है । दोनो अवसथा िे िकखन है उसी िाि िे ही। रहत िाया
िे ििरत उदा सी।
कहत कबीर ि ै उस की दा सी।। बहजा नी सदा िनल े पा।
जैस े ज ल ि े कि ल अल ेपा।। ििर उन बहजानी के शरीर से िदवय परिाणु िनकलते है । उनकी िनगाहो से िदवय
रिशियाँ िनकलती है । िवचारो से भी िदवयता िनःसत ृ होती है । िंद और मलान जगत को वह कांित और तेजिसवता पदान करता है । जैसे चनदिा सवाभािवक शीतल है , औििध को पुष करता है वैसे ही वे पुरि सवाभािवक ही सिाज की आधयाितिकता पुष करते है । ऐसे पुरि बार-बार
आते है इसीिलए संसकृ ित िटकी रहती है । धिय िटका हुआ है । नहीं तो धिय के नाि पर दक ु ानदारी बढ जाती है । िजहब के नाि पर िारकाट बढ जाती है ।
चौथी भूििका पाप हो जाये तो साकातकार तो हो गया, परनतु उसके बाद एकानत िे रहते
है , अपनी िसती िे ही रहते है तो पाँचवीं भूििका हो जाती है । वह जीवनिुि पुरि हो जाता है । चौथी भूििका वाले को कभी-कभी िवकेप होगा िगर अपने आप सँभल जायेगा। पाँचवी भूििका वाला िवकेप करने वाले लाखो लोगो के बीच रहे ििर भी िवकेप उसके अंदर तक नहीं पहुँचता, कभी हलका सा, बहते पानी िे लकीर जैसा लगे परनतु तुरनत जान के बल से िवकेप हट जायेगा।
ििी भूििका िे तो जगत का पता भी नहीं चलेगा। कोई िुह ँ िे कौर दे -दे कर िखलावे ऐसी अवसथा हो जाती है । जयो-जयो जान िे जायेगा तयो-तयो लोगो की, जगत की पहचान भूलता जायेगा। पाँचवी भूििका िे भी थोडी-थोडी िवसििृत होती है िगर ििी िे िवसििृत गहरी हो जाती है । दस िदन पहले कुि कहा और आज वह सब भूल गया।
एक तो होती है िवसििृत और ततवजान की इतनी गहराई होती है िक बोलते सिय भी
उस वचन की सतयता नहीं है , दे खते सिय भी सािने वाले वयिि के नािरप की सतयता नहीं
है । उसके जान िे नाि, रप का िहससा कि हो जाता है । उस अवसथा िे और भी जयादा डू बा रहे तो उसे जब कोई कहे िक 'यह रोटी है , िुँह खोलो' तब वह िुँह खोलेगा। ऐसी अवसथा भी आ जाती है ।
घाटवाले बाबा का कहना है ः "भगवान शीकृ षण की चौथी भूििका थी। इसिलए उनको
बाहर का जान भी था, बहजान भी था। रािजी की चौथी भूििका थी। जडभरत की पाँचवीं
भूििका थी। जब कभी, जहाँ कहीं चल िदया। पता भी नहीं चलता था। ऋिभदे व की ििी भूििका
हो गई। वे वन िे गये। वन िे आग लगी है तो भी पता नहीं। कौन बताये? उसी आग िे वे चले गये। शरीर शांत हो गया। वे सवयं बह िे ििल गये।
पहली भूििकाः यूँ िान लो िक दरू से दिरया की िं डी हवाएँ आती पतीत हो रही है । दस ू री भूििकाः आप दिरया के िकनारे पहुँचे है ।
तीसरी भूििकाः आपके पैरो को दिरया का पानी िू रहा है । चौथी भूििकाः आप किर तक दिरया िे पहुँच गये है । अब गिय हवा आप पर पभाव नहीं
डालेगी। शरीर को भी पानी िू रहा है आसपास भी िं डी लहरे उभर रही है । पाँचवीं भूििकाः िाती तक, गले तक आप दिरया िे आ गये।
ििी भूििकाः जल आपकी आँखो को िू रहा है , बाहर का जगत िदखता नहीं। पलको तक पानी आ गया। कोिशश करने पर बाहर का जगत िदखता है । सातवीं भूििकाः आप पूरे दिरया िे डू ब गये।
ऐसी अवसथा िे कभी-कभी हजारो, लाखो विो िे कोई िहापुरि की होती है । कई विो के
बाद चौथी भूििका वाले बहजानी पुरि पैदा होते है । करोडो िे से कोई ऐसा चौथी भूििका तक
पहुँचा हुआ वीर ििलता है । कोई उनहे िहावीर कह दे ते है । कोई उनहे भगवान कह दे ते है । कोई
उनहे बह कहते है , कोई अवतारी कहते है , कोई तारणहार कहते है । उनका कभी कबीर नाि पडा, कभी रिण नाि पडा, कभी राितीथय नाि पडा, िगर जो भगवान कृ षण है वही कबीर है । जो
शंकराचायय है , राजा जनक, भगवान बुद है वही कबीर है । जान िे सबकी एकता होती है । चौथी भूििका िे आति-साकातकार हो जाता है । ििर उसके िवशेि आनंद िे पाँचवीं-ििी भूििका िे रहे या लोकसंपकय िे अपना सिय लगाये उनकी िौज है । जो चार-साढे चार भूििका िे रहते है ,
उनके दारा लोककलयाण के काि बहुत जयादा होते है । इसिलए वे लोग पिसद होते है और जो
पाँचवीं, ििी भूििका िे चले जाते है वे पिसद नहीं होते। िुिि सबकी एक जैसी होती है । चौथी भूििका के बाद ही पाँचवी िे पहुँच सकता है । ऐसा नहीं िक कोई आलसी है , बुदु है और उसे हि सिझ ले िक ििी भूििका िे है । िदखने िे तो पागल और ििी भूििका वाला दोनो एक जैसे लगेगे। िगर पागल और इसिे िकय है । पागल के हदय िे एकदि अँधेरा है इसिलए पागल है
और जानी अंदर से पूरी ऊँचाई पाप है इसिलए उनहे दिुनया का सिरण नहीं। जैसे काबन य िे ही हीरा बनता है । कचची अवसथा िे कोयला है और ऊँची अवसथा िे हीरा है । वैसे ही जानी ऊँची अवसथा िे पहुँचे हुए होते है । अनुभिू त के दस ू रे िोर पर होते है ।
बहजान सुनने से जो पुणय होता है वह चानदायण वत करने से नहीं होता। बहजानी के
दशन य करने से जो शांित और आनंद ििलता है , पुणय होता है वह गंगा सनान से, तीथय, वत,
उपवास से नहीं होता। इसिलए जब तक बहजानी िहापुरि नहीं ििलते तब तक तीथय करो, वत
करो, उपवास करो, परं तु जब बहजानी िहापुरि ििल गये तो वयवहार िे से और तीथय-वतो िे से भी सिय िनकाल कर उन िहापुरिो के दै वी कायय िे लग जाओ कयोिक वह हजार गुना जयादा िलदायी होता है ।
कबीरजी ने कहा है ः
तीथ य नहाय े ए क िल स ं त िि ले िल चार।
तीथय नहायेगे तो धिय होगा। एक पुरिाथय िसद होगा। संत के सािननधय से, सतसंग से
साधक धिय, अथय, काि और िोक चारो के दार पर पहुँच जायेगा। सतगुर ििलेगे तो वे दार खुल जायेगे, उनिे पवेश हो जायेगा।
सत गुर िि ले अन ंत िल कह े क बीर िवचार।
'न अंतः इित अनंतः।' िजस िल का अंत न हो ऐसा अनंत िल, बहरस जगाने वाला िल
ििल जायेगा। वही बहजानी जब हिारे सदगुर होते है तो उनके साथ अपना तादातिय हो जाता है । उनसे संबंध जुड जाता है । िंत के दारा, दिष के दारा अपने अंतःकरण िे उनकी आँिशक
िकरण आ जाती है । ििर वह िशषय चाहे कहीं भी रहे , िगर जब सदगुर का सिरण करे गा तब उसका हदय थोडा गदगद हो जायेगा। जो सदगुर से जुड गया है उसे अनंत िल ििलता है । वे सदगुर कैसे होते है ?
सतगुर ि ेरा स ूरिा कर े शबद की चो ट।
उपदे शरपी ऐसी चोट भीतर करे गे िक हिारे अजान के संसकार हटते जायेगे, जान बढता जाएगा।
िार े गोला प ेि का हर े भरि की कोट।
चोट तो करते है िगर भीतर से उनके हदय िे हिारे िलए पेि, सनेह होता है और वे
हिारा कलयाण चाहते है । हिे भरि है िक "िै अिुक का लडका हूँ, अिुक का पित हूँ।' यह सब
भरि है । यह तुमहारा शरीर तुि नहीं हो, तुि तो अजर अिर आतिा हो, ऐसा जान दे कर गुर उसिे िसथित करवाते है ।
कबीरा वे नर अंध ह ै हिर को कहत े और , गुर को कहत े और।
वे हदय के अंधे है जो भगवान को और गुर को अलग िानते है । हिर रि े िौर ह ै गुर रि े नही ं िौर।।
भगवान रि जाये तो गुर संभाल लेगे, भगवान को राजी होना पडे गा। िगर गुर रि गये तो भगवान कहे गेः "यह केस हि नहीं ले सकते कयोिक हि जब अवतार धारण करते है तब भी गुर की शरण जाते है । तूने गुर का अनादर िकया और िेरे पास आया, िेरे पास तेरी जगह नहीं है ।"
सदगुर िजसको ििल जाते है और जो उन गुर को पहचान कर उनके वचन को पकड
लेता है उसके तो हजारो जनिो के किय एक ही जनि िे पूरे हो जाते है । िशषय ईिानदारी से
चलता है तो िजतना चल पाये उतना चलता रहे । ऐसा नहीं िक बैिा रहे , चले ही नहीं और िानता रहे िक गुर उिा लेगे। नहीं ! खुद चलो। गुर दे खेगे िक इससे िजतना ईिानदारी से चला गया उतना चला है , तो बाकी का गुर अपना धकका लगाकर उसे पहुँचा दे ते है ।
आप ततपर होकर चलो, वे धकका लगायेगे। आप पालथी िारकर बैिोगे तो कुि नहीं
होगा। बेटा चलना सीखना चाहे तो बाप ऊँगली दे गा िकनतु पैर तो बेटे को ही चलाने पडे गे। गुर बताते है उस ढं ग से िशषय चलता है तो ििर बाकी का काि गुर संभाल लेते है ।
गुर िशषय के बीच की बात भगवान को भी नहीं बतायी जाती। गुर िशषय का संबंध बडा
सूकि होता है ।
तुलसीदास जी ने कहा है ः गुर िबन भविन िध तर िहं न को ई। चाह े िबर ंिच शंकर स ि होई।।
िशवजी जैसा पलय करने का सािथयय हो और बहाजी जैसा सिृष बनाने का सािथयय हो
िगर बहजानी गुर की कृ पा के िबना आदिी संसार सागर से नहीं तर सकता। संसार िे कुि भी ििल गया तो आिखर कया? आँख बनद होते ही सब गायब। बिढया से बिढया पित ििल गया तो कया? सुख ही तो तुिसे लेगा। बूढी होओगी तब दे खेगा भी नहीं। सुनदर पती ििल गयी तो तुि
से सुख चाहे गी। तुि बूढे हो गये तो थूक दे गी। बेटे ििल गये तो पैसे चाहे गे तुिसे। बेटा तुमहारा वािरस हो जाता है । पती तुमहारे शरीर से सुख की चाह करती है । पित तुमहारे शरीर का िािलक
होना चाहता है । परनतु तुमहारा कलयाण करने वाला कौन होता है ? नेता तो तुमहारे वोट का भागी बनना चाहता है । जनता तुिसे सहुिलयते िाँगती है । यह सब एक-दस ू रे से सवाथय से ही जुडे है ।
भगवान और भगवान को पाप िहापुरि ही तुमहारा िचत चाहे गे। असली िहत तो वे ही कर सकते
है । दस ू रे कर भी नहीं सकते। भोजन-िाजन, नौकरी-पिोशन की थोडी सहूिलयत कर सकते है । शरीर का िहत तो भगवान और सदगुर ही कर सकते है । दस ू रे के बस की बात नहीं। तुमहारा
सचचा िहत अगर कोई करता है तो वह गुर ही है । िाँ अगर आति-साकातकार करा दे ती है तो िाँ गुर है । अगर िाँ या बाप बहजानी है तो वे तुमहे आति-साकातकार करा सकते है । शरीर की शुिद तो आपको कोई भी दे दे गा परनतु आपकी शुिद का कया?
एक किय होता है अपने िलए, दस ू रा होता है शरीर के िलए। शरीर के िलए तो िजनदगी
भर करते है , अपने िलए कब करोगे? और शरीर तो यहीं धरा रह जायेगा यह िबलकुल पककी बात है । अपने िलए कुि नहीं िकया तो शरीर के िलए कर-कर के कया िनषकिय िनकाला? कार के िलए
तो बहुत कुि िकया िगर इिनजन के िलए नहीं िकया तो कार िकतने िदन चलेगी? शरीर के िलए सब िकया िगर अपने िलये कुि नहीं िकया तो तुि तो आिखर अशुभ योिनयो िे घसीटे
जाओगे। पेत योिन िे, वक ृ के शरीर िे, कोई अपसरा के शरीर िे जाओगे, वहाँ दे वता लोग तुमहे नोचेगे। कहीं भी जाओ, सब एक-दस ू रे को नोचते ही है । सवतनत आति-साकातकार जब तक नहीं
होता तब तक धोखा ही धोखा है । अतः तुमहारा कीिती जीवन, कीिती सिय, कीिती से कीिती आतिा-परिातिा को जानने के िलए लगाओ और सदा के िलए सुखी हो जाओ.... तनाव रिहत, भयरिहत, शोक रिहत, जनि रिहत, ितृयु रिहत अिर आतिपद पाओ।
उि जा ग ि ुसा ििर ! भोर भ ई। अब र ैन कह ाँ जो सोवत ह ै।। जो सोवत ह ै सो खोवत ह ै।
जो जाग त ह ै स ो पावत ह ै।। ॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पू जय बाप ू का जय ोिति य य सनद ेश िनिशनतता, िनभीकता और पसननता से जीवन का सवाग य ीण िवकास होगा। अतः उनहे
बढाते जाओ। ईशर और संतो पर शदा-पीित रखने से िनिशनतता, िनभीकता, पसननता अवशय बढती है ।
आितिक ऐशयय, िाधुयय और पूणय पेि....। िनषकािता और एकागता से आितिक ऐशयय
बढता है । आितिक ऐशयय से, सवात य िभाव से शुद पेि की अिभवयिि होती है । आप सबके जीवन िे इसके िलए पुरिाथय हो और िदवय सािथयय पकट हो....।
थके, हारे , िनराशावादी को सूयय भले पुराना िदखे लेिकन आशावादी, उतसाही, पसननिचत
सिझदार को तो पुराणपुरिोति सूयय िनतय नया भासता है । आपका हर पल िनतय नये आननद और चिकता दिकता वयतीत हो।
आपका जीवन सिलता, उतसाह, आरोगयता और आननद के िवचार से सदै व चिकता दिकता रहे ... आप िवघन-बाधाओं के िसर पर नतृय करते हुए आति-नारायण िे िनरनतर आननद पाते रहे यह शुभ कािना....
नूतन विय के िंगल पभात िे जीवन को तेजसवी बनाने का संकलप करे । ईशर और संतो
के िंगलिय आशीवाद य आपके साथ है ।
दीप-पाकटय के साथ साथ आपकी आनतर जयोत का भी पाकटय हो। जयोत से जयोत जगाओ स
दगुर !
जयोत स े जयोत
ज गाओ .....
जयोत स े जयोत
ज गाओ .....
िेरा अन तर ित ििर िि टाओ स दगुर ! संसार की लहिरयाँ तो बदलती जाएँगी, इसिलए हे िित ! हे िेरे भैया ! हे वीर पुरि ! रोते, चीखते, िससकते कया जीना? िुसकराते रहो.... हिर गीत गाते रहो.... हिर रस पाते रहो... यही शुभ कािना। आज से आपके नूतन विय का पारमभ.....
दब य एवं हलके िवचारो से आपने बहुत बहुत सहन िकया है । अब इसका अनत कर दो। ु ल
दीपाविल के दीपक के साथ साहस एवं सजजनता को पकटाओ। जय हो ! शाबाश वीर ! शाबाश! हे िानव ! अभी तुि चाहो तो जीवन का सूयय डू ब जाये उससे पहले सूयो के सूय,य दे वो के
दे व आतिदे व का अनुभव करके िुि हो सकते हो। जीवनदाता िे िसथर हो सकते हो। सोहं के संगीत का गुँजन कर दो। ििर तो सदा दीवाली है ।
हि भारत वासी सचिुच भागयशाली है । िभनन िभनन भगवानो की, दे वी-दे वताओं की
उपासना-अचन य ा से हिारे बहुआयािी िन को आनतिरक िाधुयय ििल पाता है , जो तथाकिथत धनाढय दे शो िे ििलना संभव नहीं है । िभननता िे अिभनन आतिा-परिातिा एक ही है ।
संयि और सदाचार के साथ संसकृ ित के पचार िे लगकर भारतभूिि की सेवा करो। कदि अ पने आग े ब ढाता च ला जा ....
िद लो के िदय े जगि गाता च ला जा ....
भय, िचनता एवं बेचैनी से ऊपर उिो। आपकी जान जयोित जगिगा उिे गी। सदा साहसी बनो। धैयय न िोडो। हजार बार असिल होने पर भी ईशर के िागय पर एक
कदि और रखो।
ॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ