चीलंे - भीष्म साहनी
चील ने िफर से झपट्टा मारा है। ऊपर, आकाश मंे मण्डरा रही थी जब सहसा, अधर्वृत्त बनाती हुई तेजी से नीचे उतरी और एक ही झपट्टे मंे, मांस के लोथड़े क़ो पंजों मंे दबोच कर िफर से वैसा ही अद्वर्वृत्त बनाती हुई ऊपर चली गई। वह कबर्गाह के ऊंचे मुनारे पर जा बैठी है और अपनी पीली चोंच, मांस के लोथडे मंे बार-बार गाड़ने लगी है। कबर्गाह के इदर्-िगदर् दूर तक फैले पाकर् मंे हल्की हल्की धंुध फैली है। वायुमण्डल मंे अिनश्चय सा डोल रहा है। पुरानी कबर्गाह के खंडहर जगह-जगह िबखरे पड़े हंै। इस धंुधलके मंे उसका गोल गंुबद और भी ज्यादा वृहदाकार नजर आता है। यह मकबरा िकसका है, मंै जानते हुए भी बार-बार भूल जाता हँू। वातावरण मंे फैली धंुध के बावजूद, इस गुम्बद का साया घास के पूरे मैदान को ढके हुए है जहाँ मंै बैठा हँू िजससे वायुमण्डल मंे सूनापन और भी ज्यादा बढ ग़या है, और मंै और भी ज्यादा अकेला महसूस करने लगा हँू। चील मुनारे पर से उड़ कर िफर से आकाश मंे मंडराने लगी है, िफर से न जाने िकस िशकार पर िनकली है। अपनी चोंच नीची िकए, अपनी पैनी आँखंे धरती पर लगाए, िफर से चक्कर काटने लगी है, मुझे लगने लगा है जैसे उसके डैने लम्बे होते जा रहे हंै और उसका आकार िकसी भयावह जंतु के आकार की भांित फूलता जा रहा है। न जाने वह अपना िनशाना बांधती हुई कब उतरे, कहाँ उतरे। उसे देखते हुए मंै तर्स्त सा महसूस करने लगा हँू। िकसी जानकार ने एक बार मुझसे कहा था िक हम आकाश मंे मंडराती चीलों को तो देख सकते हंै पर इन्हीं की भांित वायुमण्डल मंे मंडराती उन अदृश्य 'चीलों' को नहीं देख सकते जो वैसे ही नीचे उतर कर झपट्टा मारती हंै और एक ही झपट्टे मंे इन्सान को लहु-लुहान करके या तो वहीं फंेक जाती हंै, या उसके जीवन की िदशा मोड़ देती हंै। उसने यह भी कहा था िक जहाँ चील की आँखंे अपने लक्ष्य को देख कर वार करती हंै, वहाँ वे अदृश्य चीलंे अंधी होती हंै, और अंधाधंुध हमला करती हंै। उन्हंे झपट्टा मारते हम देख नहीं पाते और हमंे लगने लगता है िक जो कुछ भी हुआ है, उसमंे हम स्वयं कहीं दोषी रहे होंगे। हम जो हर घटना को कारण की कसौटी पर परखते रहे हंै, हम समझने लगते हंै िक अपने सवर्नाश मंे हम स्वयं कहीं िजम्मेदार रहे होंगे। उसकी बातंे सुनते हुए मंै और भी ज्यादा िवचिलत महसूस करने लगा था। उसने कहा था, 'िजस िदन मेरी पत्नी का देहान्त हुआ, मंै अपने िमतर्ों के साथ, बगल वाले कमरे मंे बैठा बितया रहा था। मंै समझे बैठा था िक वह अंदर सो रही है। मंै एक बार उसे बुलाने भी गया था िक आओ, बाहर आकर हमारे पास बैठो। मुझे क्या मालूम था िक मुझसे पहले ही कोई अदृश्य जंतु अन्दर घुस आया है और उसने मेरी पत्नी को अपनी जकड़ मंे ले रखा है। हम सारा वक्त इन अदृश्य जंतुओं मंे िघरे रहते है।' अरे, यह क्या! शोभा? शोभा पाकर् मंे आई है! हाँ, हाँ, शोभा ही तो है। झािड़यों के बीचों-बीच वह धीरे-धीरे एक ओर बढ़ती आ रही है। वह कब यहाँ आई है और िकस ओर से इसका मुझे पता ही नहीं चला। मेरे अन्दर ज्वार सा उठा। मंै बहुत िदन बाद उसे देख रहा था। शोभा दुबली हो गई है, तिनक झुक कर चलने लगी है, पर उसकी चाल मंे अभी भी पहले सी कमनीयता है, वही धीमी चाल, वही बांकापन, िजसमंे उसके समूचे व्यिक्तत्व की छिव झलकती है। धीरे-धीरे चलती हुई वह घास का मैदान लांघ रही है। आज भी बालों मंे लाल रंग का फूल ढंके हुए है। शोभा, अब भी तुम्हारे होंठों पर वही िस्नग्ध सी मुस्कान खेल रही होगी िजसे देखते मंै थकता नहीं था, होंठों के कोनों मंे दबी-िसमटी मुस्कान। ऐसी मुस्कान तो तभी होंठों पर खेल सकती है जब तुम्हारे मन मंे िकन्हीं अलौिकक भावनाओं के फूल िखल रहे हों। मन चाहा, भाग कर तुम्हारे पास पहँुच जाऊँ और पूछंू, शोभा, अब तुम कैसी हो? बीते िदन क्यों कभी लौट कर नहीं आते? पूरा कालखण्ड न भी आए, एक िदन ही आ जाए, एक घड़ी ही, जब मंै तुम्हंे अपने िनकट पा सकँू, तुम्हारे समूचे व्यिक्तत्व की महक से सराबोर हो सकँू। मंै उठ खड़ा हुआ और उसकी ओर जाने लगा। मंै झािड़यों, पेड़ों के बीच िछप कर आगे बढंूगा तािक उसकी नजर मुझ पर न पड़े। मुझे डर था िक यिद उसने मुझे देख िलया तो वह जैसे-तैसे कदम बढ़ाती, लम्बे-लम्बे डग भरती पाकर् से बाहर िनकल जाएगी। जीवन की यह िवडम्बना ही है िक जहाँ स्तर्ी से बढ़ कर कोई जीव कोमल नहीं होता, वहाँ स्तर्ी से बढ़कर कोई जीव िनष्ठुर भी नहीं होता। मंै कभी-कभी हमारे सम्बन्धों को लेकर क्षुब्ध भी हो उठता हँू। कई बार तुम्हारी ओर से मेरे आत्म-सम्मान को धक्का लग चुका है। हमारे िववाह के कुछ ही समय बाद तुम मुझे इस बात का अहसास कराने लगी थी यह िववाह तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हुआ है और तुम्हारी ओर से हमारे आपसी सम्बन्धों मंे एक पर्कार का ठण्डापन आने लगा था। पर मंै उन िदनों तुम पर िनछावर था, मतवाला बना घूमता था। हमारे बीच िकसी बात को लेकर मनमुटाव हो जाता, और
तुम रूठ जाती, तो मंै तुम्हंे मनाने की भरसक चेष्ठा िकया करता, तुम्हंे हँसाने की। अपने दोनों कान पकड़ लेता, 'कहो तो दण्डवत लेटकर जमीन पर नाक से लकीरंे भी खींच दँू, जीभ िनकाल कर बार-बार िसर िहलाऊं?' और तुम, पहले तो मँुह फुलाए मेरी ओर देखती रहती, िफर सहसा िखलिखला कर हँसने लगती, िबल्कुल बच्चों की तरह जैसे तुम हँसा करती थी और कहती, 'चलो, माफ कर िदया।' और मंै तुम्हंे बाहों मंे भर लेता था। मंै तुम्हारी टुनटुनाती आवाज सुनते नहीं थकता था, मेरी आँखंे तुम्हारे चेहरे पर तुम्हारी िखली पेशानी पर लगी रहती और मंै तुम्हारे मन के भाव पढ़ता रहता। स्तर्ी-पुरूष सम्बन्धों मंे कुछ भी तो स्पष्ट नहीं होता, कुछ भी तो तकर्-संगत नहीं होता। भावनाओं के संसार के अपने िनयम हंै, या शायद कोई भी िनयम नहीं। हमारे बीच सम्बन्धों की खाई चौड़ी होती गई, फैलती गई। तुम अक्सर कहने लगी थी, 'मुझे इस शादी मंे क्या िमला?' और मंै जवाब मंे तुनक कर कहता, 'मंैने कौन से ऐसे अपराध िकए हंै िक तुम सारा वक्त मँुह फुलाए रहो और मंै सारा वक्त तुम्हारी िदलजोई करता रहँू? अगर एक साथ रहना तुम्हंे फल नहीं रहा था तो पहले ही मुझे छोड़ जाती। तुम मुझे क्यों नहीं छोड़ कर चली गई? तब न तो हर आये िदन तुम्हंे उलाहनंे देने पड़ते और न ही मुझे सुनने पड़ते। अगर गृहस्थी मंे तुम मेरे साथ िघसटती रही हो, तो इसका दोषी मंै नहीं हँू, स्वयं तुम हो। तुम्हारी बेरूखी मुझे सालती रहती है, िफर भी अपनी जगह अपने को पीिड़त दुिखयारी समझती रहती हो।' मन हुआ, मंै उसके पीछे न जाऊँ। लौट आऊँ, और बंेच पर बैठ कर अपने मन को शांत करूँ। कैसी मेरी मन:िस्थित बन गई है। अपने को कोसता हँू तो भी व्याकुल, और जो तुम्हंे कोसता हँू तो भी व्याकुल। मेरा सांस फूल रहा था, िफर भी मंै तुम्हारी ओर देखता खड़ा रहा। सारा वक्त तुम्हारा मँुह ताकते रहना, सारा वक्त लीपा-पोती करते रहना, अपने को हर बात के िलए दोषी ठहराते रहना, मेरी बहुत बड़ी भूल थी। पटरी पर से उतर जाने के बाद हमारा गृहस्थ जीवन िघसटने लगा था। पर जहाँ िशकवे-िशकायत, खीझ, िखंचाव, असिहष्णुता, नुकीले कंकड़-पत्थरों की तरह हमारी भावनाओं को छीलने-काटने लगे थे, वहीं कभी-कभी िववािहत जीवन के आरिम्भक िदनों जैसी सहज-सद्भावना भी हर-हराते सागर के बीच िकसी िझलिमलाते द्वीप की भांित हमारे जीवन मंे सुख के कुछ क्षण भी भर देती। पर कुल िमलाकर हमारे आपसी सम्बन्धों मंे ठण्डापन आ गया था। तुम्हारी मुस्कान अपना जादू खो बैठी थी, तुम्हारी खुली पेशानी कभी-कभी संकरी लगने लगी थी, और िजस तरह बात सुनते हुए तुम सामने की ओर देखती रहती, लगता तुम्हारे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ रहा है। नाक-नक्श वही थे, अदाएँ भी वही थीं, पर उनका जादू गायब हो गया था। जब शोभा आँखंे िमचिमचाती है- मंै मन ही मन कहता- तू बड़ी मूखर् लगती है। मंैने िफर से नजर उठा कर देखा। शोभा नजर नहीं आई। क्या वह िफर से पेड़ों-झािड़यों के बीच आँखों से ओझल हो गई है? देर तक उस ओर देखते रहने पर भी जब वह नजर नहीं आई, तो मंै उठ खड़ा हुआ। मुझे लगा जैसे वह वहाँ पर नहीं है। मुझे झटका सा लगा। क्या मंै सपना तो नहीं देख रहा था? क्या शोभा वहाँ पर थी भी या मुझे धोखा हुआ है? मंै देर तक आँखंे गाड़े उस ओर देखता रहा िजस ओर वह मुझे नजर आई थी। सहसा मुझे िफर से उसकी झलक िमली। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था। पहले भी वह आँखों से ओझल होती रही थी। मुझे िफर से रोमांच सा हो आया। हर बार जब वह आँखों से ओझल हो जाती, तो मेरे अन्दर उठने वाली तरहतरह की भावनाओं के बावजूद, पाकर् पर सूनापन सा उतर आता। पर अबकी बार उस पर नजर पड़ते ही मन िवचिलत सा हो उठा। शोभा पाकर् मंे से िनकल जाती तो? एक आवेग मेरे अन्दर िफर से उठा। उसे िमल पाने के िलए िदल मंे ऐसी छटपटाहट सी उठी िक सभी िशकवेिशकायत, कचरे की भांित उस आवेग मंे बह से गए। सभी मन-मुटाव भूल गए। यह कैसे हुआ िक शोभा िफर से मुझे िववािहत जीवन के पहले िदनों वाली शोभा नजर आने लगी थी। उसके व्यिक्तत्व का सारा आकषर्ण िफर से लौट आया था। और मेरा िदल िफर से भर-भर आया। मन मंे बार-बार यही आवाज उठती, 'मंै तुम्हंे खो नहीं सकता। मंै तुम्हंे कभी खो नहीं सकता।' यह कैसे हुआ िक पहले वाली भावनाएँ मेरे अन्दर पूरे वेग से िफर से उठने लगी थीं। मंैने िफर से शोभा की ओर कदम बढा िदए। हाँ, एक बार मेरे मन मंे सवाल जरूर उठा, कहीं मंै िफर से अपने को धोखा तो नहीं दे रहा हँू? क्या मालूम वह िफर से मुझे ठुकरा दे?
पर नहीं, मुझे लग रहा था मानो िववाहोपरांत, क्लेश और कलह का सारा कालखण्ड झूठा था, माना वह कभी था ही नहीं। मंै वषोर् बाद तुम्हंे उन्हीं आँखों से देख रहा था िजन आँखों से तुम्हंे पहली बार देखा था। मंै िफर से तुम्हंे बाहों मंे भर पाने के िलए आतुर और अधीर हो उठा था। तुम धीरे-धीरे झािड़यों के बीच आगे बढ़ती जा रही थी। तुम पहले की और अकेली सी लग रही थी। अबकी बार तुम पर नज़र पड़ते ही मेरे भुरभुरा कर िगर गया था। तुम इतनी दुबली, इतनी िनसहाय सी लग िधक्कराने लगा। तुम्हारी सुनक सी काया कभी एक झाड़ी क़े पीछे तो भी तुम बालों मंे लाल रंग का फूल टांकना नहीं भूली थी।
तुलना मंे दुबला गई थी और मुझे बड़ी िनरीह मन का सारा क्षोभ, बालू की भीत की भांित रही थी िक मंै बेचैन हो उठा और अपने को कभी दूसरी झाड़ी क़े पीछे िछप जाती। आज
िस्तर्याँ मन से झुब्ध और बेचैन रहते हुए भी, बन-संवर कर रहना नहीं भूलतीं। स्तर्ी मन से व्याकुल भी होगी तो भी साफ-सुथरे कपड़े पहने, संवरे-संभले बाल, नख-िशख से दुरूस्त होकर बाहर िनकलेगी। जबिक पुरूष, भाग्य का एक ही थपेड़ा खाने पर फूहड़ हो जाता है। बाल उलझे हुए, मँुह पर बढ़ती दाढ़ई, क़पड़े मुचडे हए और आँखो मंे वीरानी िलए, िभखमंगों की तरह घर से बाहर िनकलेगा। िजन िदनों हमारे बीच मनमुटाव होता और तुम अपने भाग्य को कोसती हुई घर से बाहर िनकल जाती थी, तब भी ढंग के कपड़े पहनना और चुस्त-दुरूस्त बन कर जाना नहीं भूलती थी। ऐसे िदनो मंे भी तुम बाहर आंगन मंे लगे गुलाब के पौधे मंे से छोटा सा लाल फूल बालों मंे टांकना नहीं भूलती थी। जबिक मंै िदन भर हांफता, िकसी जानवर की तरह एक कमरे से दूसरे कमरे मंे चक्कर काटता रहता था। तुम्हारी शॉल, तुम्हारे दायंे कंधे पर से िखसक गई थी और उसका िसरा जमीन पर तुम्हारे पीछे-िघसटने लगा था, पर तुम्हंे इसका भास नहीं हुआ क्योंिक तुम पहले की ही भांित धीरे-धीरे चलती जा रही थी, कंधे तिनक आगे को झुके हुए। कंधे पर से शॉल िखसक जाने से तुम्हारी सुडौल गदर्न और अिधक स्पष्ट नजर आने लगी थी। क्या मालूम तुम िकन िवचारों मंे खोयी चली जा रही हो। क्या मालूम हमारे बारे मंे, हमारे सम्बन्ध-िवच्छेद के बारे मंे ही सोच रही हो। कौन जाने िकसी अंत: पर्ेरणावश, मुझे ही पाकर् मंे िमल जाने की आशा लेकर तुम यहाँ चली आई हो। कौन जाने तुम्हारे िदल मंे भी ऐसी ही कसक ऐसी ही छटपटाहट उठी हो, जैसी मेरे िदल मंे। क्या मालूम भाग्य हम दोनों पर मेहरबान हो गया हो और नहीं तो मंै तुम्हारी आवाज तो सुन पाऊँगा, तुम्हे आँख भर देख तो पाऊँगा। अगर मंै इतना बेचैन हँू तो तुम भी तो िनपट अकेली हो और न जाने कहां भटक रही हो। आिखरी बार, सम्बन्धिवच्छेद से पहले, तुम एकटक मेरी ओर देखती रही थी। तब तुम्हारी आँखंे मुझे बड़ी-बड़ी सी लगी थीं, पर मंै उनका भाव नहीं समझ पाया था। तुम क्यों मेरी ओर देख रही थी और क्या सोच रही थी, क्यों नहीं तुमने मँुह से कुछ भी कहा? मुझे लगा था तुम्हारी सभी िशकायतंे िसमट कर तुम्हारी आँखों के भाव मंे आ गए थे। तुम मुझे िन:स्पंद मूितर् जैसी लगी थी, और उस शाम मानो तुमने मुझे छोड़ जाने का फैसला कर िलया था। मंै िनयमानुसार शाम को घूमने चला गया था। िदल और िदमाग पर भले ही िकतना ही बोझ हो, मंै अपना िनयम नहीं तोड़ता। लगभग डेढ घण्टे के बाद जब मंे घर वापस लौटा तो डयोढी मंे कदम रखते ही मुझे अपना घर सूनासूना लगा था। और अन्दर जाने पर पता चलता िक तुम जा चुकी हो। तभी मुझे तुम्हारी वह एकटक नजर याद आई थी? मेरी ओर देखती हुई। तुम्हंे घर मंे न पाकर पहले तो मेरे आत्म-सम्मान को धक्का-सा लगा था िक तुम जाने से पहले न जाने क्या सोचती रही हो, अपने मन की बात मँुह तक नहीं लाई। पर शीघर् ही उस वीराने घर मंे बैठा मंै मानो अपना िसर धुनने लगा था। घर भांय-भांय करने लगा था। अब तुम धीरे-धीरे घास के मैदान को छोड़ कर चौड़ी पगडण्डी पर आ गई थी जो मकबरे की पर्दिक्षणा करती हुई-सी पाकर् के पर्वेश द्वारा की ओर जाने वाले रास्ते से जा िमलती है। शीघर् ही तुम चलती हुई पाकर् के फाटक तक जा पहँुचोगी और आंखों से ओझल हो जाओगी। तुम मकबरे का कोना काट कर उस चौकोर मैदान की ओर जाने लगी हो जहाँ बहुत से बंेच रखे रहते हंै और बड़ी उमर् के थके हारे लोग सुस्ताने के िलए बैठ जाते हंै। कुछ दूर जाने के बाद तुम िफर से िठठकी थी मोड़ आ गया था और मोड़ क़ाटने से पहले तुमने मुड़कर देखा था। क्या तुम मेरी ओर देख रही हो? क्या तुम्हंे इस बात की आहट िमल गई है िक मंै पाकर् मंे पहँुचा हुआ हँू और धीरेधीरे तुम्हारे पीछे चला आ रहा हँू? क्या सचमुच इसी कारण िठठक कर खड़ी हो गई हो, इस अपेक्षा से िक मंै भाग कर तुम से जा िमलँूगा? क्या यह मेरा भर्म ही है या तुम्हारा स्तर्ी-सुलभ संकोच िक तुम चाहते हुए भी मेरी ओर कदम नहीं बढ़ाओगी? पर कुछ क्षण तक िठठके रहने के बार तुम िफर से पाकर् के फाटक की ओर बढ़ने लगी थी।
मंैने तुम्हारी और कदम बढ़ा िदए। मुझे लगा जैसे मेरे पास िगने-चुने कुछ क्षण ही रह गए हंै जब मंै तुमसे िमल सकता हँू। अब नहीं िमल पाया तो कभी नहीं िमल पाऊँगा। और न जाने क्यों, यह सोच कर मेरा गला रूंधने लगा था। पर मंै अभी भी कुछ ही कदम आगे की और बढ़ा पाया था िक जमीन पर िकसी भागते साये ने मेरा रास्ता काट िदया। लम्बा-चौड़ा साया, तैरता हुआ सा, मेरे रास्ते को काट कर िनकल गया था। मंैने नजर ऊपर उठाई और मेरा िदल बैठ गया। चील हमारे िसर के ऊपर मंडराए जा रही थी। क्या यह चील ही हंै? पर उसके डैने िकतने बड़े हंै और पीली चोंच लम्बी, आगे को मुड़ी हुई। और उसकी छोटी-छोटी पैनी आँखों मंे भयावह सी चमक है। चील आकाश मंे हमारे ऊपर चक्कर काटने लगी थी और उसका साया बार-बार मेरा रास्ता काट रहा था। हाय, यह कहीं तुमपर न झपट पड़े। मंै बदहवस सा तुम्हारी ओर दौड़ने लगा, मन चाहा, िचल्ला कर तुम्हंे सावधान कर दँू, पर डैने फैलाये चील को मंडराता देख कर मंै इतना तर्स्त हो उठा था िक मँुह मंे से शब्द िनकल नहीं पा रहे थे। मेरा गला सूख रहा था और पांव बोिझल हो रहे थे। मंै जल्दी तुम तक पहँुचना चाहता था मुझे लगा जैसे मंै साये को लांघ ही नहीं पा रहा हँू। चील जरूर नीचे आने लगी होगी। जो उसका साया इतना फैलता जा रहा है िक मंै उसे लांघ ही नहीं सकता। मेरे मिस्तष्क मंे एक ही वाक्य बार-बार घूम रहा था, िक तुम्हंे उस मंडराती चील के बारे मंे सावधान कर दँू और तुमसे कहँू िक िजतनी जल्दी पाकर् मंे से िनकल सकती हो, िनकल जाओ। मेरी सांस धौंकनी की तरह चलने लगी थी, और मँुह से एक शब्द भी नहीं फूट पा रहा था। बाहर जाने वाले फाटक से थोड़ा हटकर, दायंे हाथ एक ऊँचा सा मुनारा है िजस पर कभी मकबरे की रखवाली करनेवाला पहरेदार खड़ा रहता होगा। अब वह मुनार भी टूटी-फूटी हालत मंे है। िजस समय मंै साये को लांघ पाने को भरसक चेष्टा कर रहा था उस समय मुझे लगा था जैसे तुम चलती हुई उस मुनारे के पीछे जा पहँुची हो, क्षण भर के िलए मंै आश्वस्त सा हो गया। तुम्हंे अपने िसर के ऊपर मंडराते खतरे का आभास हो गया होगा। न भी हुआ हो तो भी तुमने बाहर िनकलने का जो रास्ता अपनाया था, वह अिधक सुरिक्षत था। मंै थक गया था। मेरी सांस बुरी तरह से फूली हुई थी। लाचार, मंै उसी मुनारे के िनकट एक पत्थर पर हांफता हुआ बैठ गया। कुछ भी मेरे बस नहीं रह गया था। पर मंै सोच रहा था िक ज्योंही तुम मुनारे के पीछे से िनकल कर सामने आओगी, मंै िचल्ला कर तुम्हंे पाकर् मंे से िनकल भागने का आगर्ह करूँगा। चील अब भी िसर पर मंडराये जा रही थी। तभी मुझे लगा तुम मुनारे के पीछे से बाहर आई हो। हवा के झोंके से तुम्हारी साड़ी क़ा पल्लू और हवा मंे अठखेली सी करती हुई तुम सीधा फाटक की ओर बढ़ने लगी हो। 'शोभा!' मंै िचल्लाया। पर तुम बहुत आगे बढ़ चुकी थी, लगभग फाटक के पास पहँुच चुकी थी। तुम्हारी साड़ी क़ा पल्लू अभी भी हवा मंे फरफरा रहा थ। बालों मंे लाल फूल बड़ा िखला-िखला लग रहा था। मंै उठ खड़ा हुआ और जैसे तैसे कदम बढ़ता हुआ तुम्हारी ओर जाने लगा। मंै तुमसे कहना चाहता था, 'अच्छा हुआ जो तुम चील के पंजों से बच कर िनकल गई हो, शोभा।' फाटक के पास तुम रूकी थी, और मुझे लगा था जैसे मेरी ओर देख कर मुस्कराई हो और िफर पीठ मोड़ ली थी और आँखों से ओझल हो गई थी। मंै भागता हुआ फाटक के पास पहँुचा था। फाटक के पास मैदान मंे हल्की-हल्की धूल उड़ रही थी और पाकर् मंे आने वाले लोगों के िलए चौड़ा, खुला रास्ता भांय-भांय कर रहा था। तुम पाकर् मंे से सही सलामत िनकल गई हो, यह सोच कर मंै आश्वस्त सा महसूस करने लगा था। मंैने नजर उठा कर ऊपर की ओर देखा। चील वहाँ पर नहीं था। चील जा चुकी थी। आसमान साफ था और हल्की-हल्की धंुध के बावजूद उसकी नीिलमा जैसे लौट आई थी। - समाप्त -
काबुलीवाला रवीन्दर्नाथ ठाकुर की कहानी
मेरी पाँच बरस की लड़की िमनी से घड़ीभर भी बोले िबना नहीं रहा जाता। एक िदन वह सवेरे-सवेरे ही बोली, "बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह ‘काक’ को ‘कौआ’ कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।" मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। "देखो, बाबूजी, भोला कहता है – आकाश मंे हाथी सँूड से पानी फंेकता है, इसी से वषार् होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?" और िफर वह खेल मंे लग गई। मेरा घर सड़क के िकनारे है। एक िदन िमनी मेरे कमरे मंे खेल रही थी। अचानक वह खेल छोड़कर िखड़की के पास दौड़ी गई और बड़े ज़ोर से िचल्लाने लगी, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!" कँधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ मंे अँगूर की िपटारी िलए एक लंबा सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। जैसे ही वह मकान की ओर आने लगा, िमनी जान लेकर भीतर भाग गई। उसे डर लगा िक कहीं वह उसे पकड़ न ले जाए। उसके मन मंे यह बात बैठ गई थी िक काबुलीवाले की झोली के अंदर तलाश करने पर उस जैसे और भी दो-चार बच्चे िमल सकते हंै। काबुली ने मुसकराते हुए मुझे सलाम िकया। मंैने उससे कुछ सौदा खरीदा। िफर वह बोला, "बाबू साहब, आप की लड़की कहाँ गई?" मंैने िमनी के मन से डर दूर करने के िलए उसे बुलवा िलया। काबुली ने झोली से िकशिमश और बादाम िनकालकर िमनी को देना चाहा पर उसने कुछ न िलया। डरकर वह मेरे घुटनों से िचपट गई। काबुली से उसका पहला पिरचय इस तरह हुआ। कुछ िदन बाद, िकसी ज़रुरी काम से मंै बाहर जा रहा था। देखा िक िमनी काबुली से खूब बातंे कर रही है और काबुली मुसकराता हुआ सुन रहा है। िमनी की झोली बादाम-िकशिमश से भरी हुई थी। मंैने काबुली को अठन्नी देते हुए कहा, "इसे यह सब क्यों दे िदया? अब मत देना।" िफर मंै बाहर चला गया। कुछ देर तक काबुली िमनी से बातंे करता रहा। जाते समय वह अठन्नी िमनी की झोली मंे डालता गया। जब मंै घर लौटा तो देखा िक िमनी की माँ काबुली से अठन्नी लेने के कारण उस पर खूब गुस्सा हो रही है। काबुली पर्ितिदन आता रहा। उसने िकशिमश बादाम दे-देकर िमनी के छोटे से हर्दय पर काफ़ी अिधकार जमा िलया था। दोनों मंे बहुत-बहुत बातंे होतीं और वे खूब हँसते। रहमत काबुली को देखते ही मेरी लड़की हँसती हुई पूछती, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली मंे क्या है?" रहमत हँसता हुआ कहता, "हाथी।" िफर वह िमनी से कहता, "तुम ससुराल कब जाओगी?" इस पर उलटे वह रहमत से पूछती, "तुम ससुराल कब जाओगे?" रहमत अपना मोटा घँूसा तानकर कहता, "हम ससुर को मारेगा।" इस पर िमनी खूब हँसती। हर साल सरिदयों के अंत मंे काबुली अपने देश चला जाता। जाने से पहले वह सब लोगों से पैसा वसूल करने मंे लगा रहता। उसे घर-घर घूमना पड़ता, मगर िफर भी पर्ितिदन वह िमनी से एक बार िमल जाता। एक िदन सवेरे मंै अपने कमरे मंे बैठा कुछ काम कर रहा था। ठीक उसी समय सड़क पर बड़े ज़ोर का शोर सुनाई िदया। देखा तो अपने उस रहमत को दो िसपाही बाँधे िलए जा रहे हंै। रहमत के कुतर्े पर खून के दाग हंै और िसपाही के हाथ मंे खून से सना हुआ छुरा। कुछ िसपाही से और कुछ रहमत के मँुह से सुना िक हमारे पड़ोस मंे रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक चादर खरीदी। उसके कुछ रुपए उस पर बाकी थे, िजन्हंे देने से उसने इनकार कर िदया था। बस, इसी पर दोनों मंे बात बढ़ गई, और काबुली ने उसे छुरा मार िदया। इतने मंे "काबुलीवाले, काबुलीवाले", कहती हुई िमनी घर से िनकल आई। रहमत का चेहरा क्षणभर के िलए िखल उठा। िमनी ने आते ही पूछा, ‘’तुम ससुराल जाओगे?" रहमत ने हँसकर कहा, "हाँ, वहीं तो जा रहा हँू।" रहमत को लगा िक िमनी उसके उत्तर से पर्सन्न नहीं हुई। तब उसने घँूसा िदखाकर कहा, "ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हंै।" छुरा चलाने के अपराध मंे रहमत को कई साल की सज़ा हो गई।
काबुली का ख्याल धीरे-धीरे मेरे मन से िबलकुल उतर गया और िमनी भी उसे भूल गई। कई साल बीत गए। आज मेरी िमनी का िववाह है। लोग आ-जा रहे हंै। मंै अपने कमरे मंे बैठा हुआ खचर् का िहसाब िलख रहा था। इतने मंे रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया। पहले तो मंै उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न चेहरे पर पहले जैसी खुशी। अंत मंे उसकी ओर ध्यान से देखकर पहचाना िक यह तो रहमत है। मंैने पूछा, "क्यों रहमत कब आए?" "कल ही शाम को जेल से छूटा हँू," उसने बताया। मंैने उससे कहा, "आज हमारे घर मंे एक जरुरी काम है, मंै उसमंे लगा हुआ हँू। आज तुम जाओ, िफर आना।" वह उदास होकर जाने लगा। दरवाज़े के पास रुककर बोला, "ज़रा बच्ची को नहीं देख सकता?" शायद उसे यही िवश्वास था िक िमनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। वह अब भी पहले की तरह "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले" िचल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों की उस पुरानी हँसी और बातचीत मंे िकसी तरह की रुकावट न होगी। मंैने कहा, "आज घर मंे बहुत काम है। आज उससे िमलना न हो सकेगा।" वह कुछ उदास हो गया और सलाम करके दरवाज़े से बाहर िनकल गया। मंै सोच ही रहा था िक उसे वापस बुलाऊँ। इतने मे वह स्वयं ही लौट आया और बोला, “'यह थोड़ा सा मेवा बच्ची के िलए लाया था। उसको दे दीिजएगा।“ मैने उसे पैसे देने चाहे पर उसने कहा, 'आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब! पैसे रहने दीिजए।' िफर ज़रा ठहरकर बोला, “आपकी जैसी मेरी भी एक बेटी हंै। मंै उसकी याद कर-करके आपकी बच्ची के िलए थोड़ा-सा मेवा ले आया करता हँू। मंै यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।“ उसने अपने कुरते की जेब मंे हाथ डालकर एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा िनकला औऱ बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनो हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख िदया। देखा िक कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हंे से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप हंै। हाथ मंे थोड़ी-सी कािलख लगाकर, कागज़ पर उसी की छाप ले ली गई थी। अपनी बेटी इस याद को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ते के गली-कूचों मंे सौदा बेचने के िलए आता है। देखकर मेरी आँखंे भर आईं। सबकुछ भूलकर मैने उसी समय िमनी को बाहर बुलाया। िववाह की पूरी पोशाक और गहनंे पहने िमनी शरम से िसकुड़ी मेरे पास आकर खड़ी हो गई। उसे देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद मंे वह हँसते हुए बोला, “लल्ली! सास के घर जा रही हंै क्या?” िमनी अब सास का अथर् समझने लगी थी। मारे शरम के उसका मँुह लाल हो उठा। िमनी के चले जाने पर एक गहरी साँस भरकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया। उसकी समझ मंे यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी िक उसकी बेटी भी इतने िदनों मंे बड़ी हो गई होगी। इन आठ वषोर्ं मंे उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? वह उसकी याद मंे खो गया। मैने कुछ रुपए िनकालकर उसके हाथ मंे रख िदए और कहा, “रहमत! तुम अपनी बेटी के पास देश चले जाओ।“
हार की जीत सुदशर्न की कहानी माँ को अपने बेटे और िकसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवद्-भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अपर्ण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा संुदर था, बड़ा बलवान। उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाके मंे न था। बाबा भारती उसे ‘सुल्तान’ कह कर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते, खुद दाना िखलाते और देख-देखकर पर्सन्न होते थे। उन्होंने रूपया, माल, असबाब, ज़मीन आिद अपना सब-कुछ छोड़ िदया था, यहाँ तक िक उन्हंे नगर के जीवन से भी घृणा थी। अब गाँव से बाहर एक छोटे-से मिन्दर मंे रहते और भगवान का भजन करते थे। “मंै सुलतान के िबना नहीं रह सकँूगा”, उन्हंे ऐसी भर्ािन्त सी हो गई थी। वे उसकी चाल पर लट्टू थे। कहते, “ऐसे चलता है जैसे मोर घटा को देखकर नाच रहा हो।” जब तक संध्या समय सुलतान पर चढ़कर आठ-दस मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हंे चैन न आता। खड़गिसंह उस इलाके का पर्िसद्ध डाकू था। लोग उसका नाम सुनकर काँपते थे। होते-होते सुल्तान की कीितर् उसके कानों तक भी पहँुची। उसका हृदय उसे देखने के िलए अधीर हो उठा। वह एक िदन दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहँुचा और नमस्कार करके बैठ गया। बाबा भारती ने पूछा, “खडगिसंह, क्या हाल है?” खडगिसंह ने िसर झुकाकर उत्तर िदया, “आपकी दया है।” “कहो, इधर कैसे आ गए?” “सुलतान की चाह खींच लाई।” “िविचतर् जानवर है। देखोगे तो पर्सन्न हो जाओगे।” “मंैने भी बड़ी पर्शंसा सुनी है।” “उसकी चाल तुम्हारा मन मोह लेगी!” “कहते हंै देखने मंे भी बहुत सँुदर है।” “क्या कहना! जो उसे एक बार देख लेता है, उसके हृदय पर उसकी छिव अंिकत हो जाती है।” “बहुत िदनों से अिभलाषा थी, आज उपिस्थत हो सका हँू।” बाबा भारती और खड़गिसंह अस्तबल मंे पहँुचे। बाबा ने घोड़ा िदखाया घमंड से, खड़गिसंह ने देखा आश्चयर् से। उसने संैकड़ो घोड़े देखे थे, परन्तु ऐसा बाँका घोड़ा उसकी आँखों से कभी न गुजरा था। सोचने लगा, भाग्य की बात है। ऐसा घोड़ा खड़गिसंह के पास होना चािहए था। इस साधु को ऐसी चीज़ों से क्या लाभ? कुछ देर तक आश्चयर् से चुपचाप खड़ा रहा। इसके पश्चात् उसके हृदय मंे हलचल होने लगी। बालकों की-सी अधीरता से बोला, “परंतु बाबाजी, इसकी चाल न देखी तो क्या?” दूसरे के मुख से सुनने के िलए उनका हृदय अधीर हो गया। घोड़े को खोलकर बाहर गए। घोड़ा वायु-वेग से उडने लगा। उसकी चाल को देखकर खड़गिसंह के हृदय पर साँप लोट गया। वह डाकू था और जो वस्तु उसे पसंद आ जाए उस पर वह अपना अिधकार समझता था। उसके पास बाहुबल था और आदमी भी। जाते-जाते उसने कहा, “बाबाजी, मंै यह घोड़ा आपके पास न रहने दँूगा।” बाबा भारती डर गए। अब उन्हंे रात को नींद न आती। सारी रात अस्तबल की रखवाली मंे कटने लगी। पर्ित क्षण खड़गिसंह का भय लगा रहता, परंतु कई मास बीत गए और वह न आया। यहाँ तक िक बाबा भारती कुछ असावधान हो गए और इस भय को स्वप्न के भय की नाईं िमथ्या समझने लगे। संध्या का समय था। बाबा भारती सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे। इस समय उनकी आँखों मंे चमक थी, मुख पर पर्सन्नता। कभी घोड़े के शरीर को देखते, कभी उसके रंग को और मन मंे फूले न समाते थे। सहसा एक ओर से आवाज़ आई, “ओ बाबा, इस कंगले की सुनते जाना।” आवाज़ मंे करूणा थी। बाबा ने घोड़े को रोक िलया। देखा, एक अपािहज वृक्ष की छाया मंे पड़ा कराह रहा है। बोले, “क्यों तुम्हंे क्या कष्ट है?” अपािहज ने हाथ जोड़कर कहा, “बाबा, मंै दुिखयारा हँू। मुझ पर दया करो। रामावाला यहाँ से तीन मील है, मुझे वहाँ जाना है। घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा।”
“वहाँ तुम्हारा कौन है?” “दुगादर्त्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा। मंै उनका सौतेला भाई हँू।” बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपािहज को घोड़े पर सवार िकया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे। सहसा उन्हंे एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई। उनके आश्चयर् का िठकाना न रहा, जब उन्होंने देखा िक अपािहज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए िलए जा रहा है। उनके मुख से भय, िवस्मय और िनराशा से िमली हुई चीख िनकल गई। वह अपािहज डाकू खड़गिसंह था।बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे और कुछ समय पश्चात् कुछ िनश्चय करके पूरे बल से िचल्लाकर बोले, “ज़रा ठहर जाओ।” खड़गिसंह ने यह आवाज़ सुनकर घोड़ा रोक िलया और उसकी गरदन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “बाबाजी, यह घोड़ा अब न दँूगा।” “परंतु एक बात सुनते जाओ।” खड़गिसंह ठहर गया। बाबा भारती ने िनकट जाकर उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा जैसे बकरा कसाई की ओर देखता है और कहा, “यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है। मंै तुमसे इसे वापस करने के िलए न कहँूगा। परंतु खड़गिसंह, केवल एक पर्ाथर्ना करता हँू। इसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा िदल टूट जाएगा।” “बाबाजी, आज्ञा कीिजए। मंै आपका दास हँू, केवल घोड़ा न दँूगा।” “अब घोड़े का नाम न लो। मंै तुमसे इस िवषय मंे कुछ न कहँूगा। मेरी पर्ाथर्ना केवल यह है िक इस घटना को िकसी के सामने पर्कट न करना।” खड़गिसंह का मँुह आश्चयर् से खुला रह गया। उसका िवचार था िक उसे घोड़े को लेकर यहाँ से भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्वयं उसे कहा िक इस घटना को िकसी के सामने पर्कट न करना। इससे क्या पर्योजन िसद्ध हो सकता है? खड़गिसंह ने बहुत सोचा, बहुत िसर मारा, परंतु कुछ समझ न सका। हारकर उसने अपनी आँखंे बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं और पूछा, “बाबाजी इसमंे आपको क्या डर है?” सुनकर बाबा भारती ने उत्तर िदया, “लोगों को यिद इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुिखयों पर िवश्वास न करंेगे।” यह कहते-कहते उन्होंने सुल्तान की ओर से इस तरह मँुह मोड़ िलया जैसे उनका उससे कभी कोई संबध ं ही नहीं रहा हो। बाबा भारती चले गए। परंतु उनके शब्द खड़गिसंह के कानों मंे उसी पर्कार गँूज रहे थे। सोचता था, कैसे ऊँचे िवचार हंै, कैसा पिवतर् भाव है! उन्हंे इस घोड़े से पर्ेम था, इसे देखकर उनका मुख फूल की नाईं िखल जाता था। कहते थे, “इसके िबना मंै रह न सकँूगा।” इसकी रखवाली मंे वे कई रात सोए नहीं। भजन-भिक्त न कर रखवाली करते रहे। परंतु आज उनके मुख पर दुख की रेखा तक िदखाई न पड़ती थी। उन्हंे केवल यह ख्याल था िक कहीं लोग दीनदुिखयों पर िवश्वास करना न छोड़ दे। ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं देवता है। राितर् के अंधकार मंे खड़गिसंह बाबा भारती के मंिदर पहँुचा। चारों ओर सन्नाटा था। आकाश मंे तारे िटमिटमा रहे थे। थोड़ी दूर पर गाँवों के कुत्ते भौंक रहे थे। मंिदर के अंदर कोई शब्द सुनाई न देता था। खड़गिसंह सुल्तान की बाग पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहँुचा। फाटक खुला पड़ा था। िकसी समय वहाँ बाबा भारती स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्हंे िकसी चोरी, िकसी डाके का भय न था। खड़गिसंह ने आगे बढ़कर सुलतान को उसके स्थान पर बाँध िदया और बाहर िनकलकर सावधानी से फाटक बंद कर िदया। इस समय उसकी आँखों मंे नेकी के आँसू थे। राितर् का तीसरा पहर बीत चुका था। चौथा पहर आरंभ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुिटया से बाहर िनकल ठंडे जल से स्नान िकया। उसके पश्चात्, इस पर्कार जैसे कोई स्वप्न मंे चल रहा हो, उनके पाँव अस्तबल की ओर बढ़े। परंतु फाटक पर पहँुचकर उनको अपनी भूल पर्तीत हुई। साथ ही घोर िनराशा ने पाँव को मन-मन भर का भारी बना िदया। वे वहीं रूक गए। घोड़े ने अपने स्वामी के पाँवों की चाप को पहचान िलया और ज़ोर से िहनिहनाया। अब बाबा भारती आश्चयर् और पर्सन्नता से दौड़ते हुए अंदर घुसे और अपने प्यारे घोड़े के गले से िलपटकर इस पर्कार रोने लगे मानो कोई िपता बहुत िदन से िबछड़े हुए पुतर् से िमल रहा हो। बार-बार उसकी पीठपर हाथ फेरते, बार-बार उसके मँुह पर थपिकयाँ देते। िफर वे संतोष से बोले, “अब कोई दीन-दुिखयों से मँुह न मोड़ेगा।”
वरदान मँुशी पर्ेमचँद की कहानी
िवन्घ्याचल पवर्त मध्यराितर् के िनिवड़ अन्धकार मंे काल देव की भांित खड़ा था। उस पर उगे हुए छोटे-छोटे वृक्ष इस पर्कार दिष्टगोचर होते थे, मानो ये उसकी जटाएं है और अष्टभुजा देवी का मिन्दर िजसके कलश पर श्वेत पताकाएं वायु की मन्द-मन्द तरंगों मंे लहरा रही थीं, उस देव का मस्तक है मंिदर मंे एक िझलिमलाता हुआ दीपक था, िजसे देखकर िकसी धंुधले तारे का मान हो जाता था।
अधर्राितर् व्यतीत हो चुकी थी। चारों और भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। गंगाजी की काली तरंगंे पवर्त के नीचे सुखद पर्वाह से बह रही थीं। उनके बहाव से एक मनोरंजक राग की ध्विन िनकल रही थी। ठौर-ठौर नावों पर और िकनारों के आस-पास मल्लाहों के चूल्हों की आंच िदखायी देती थी। ऐसे समय मंे एक श्वेत वस्तर्धािरणी स्तर्ी अष्टभुजा देवी के सम्मुख हाथ बांधे बैठी हुई थी। उसका पर्ौढ़ मुखमण्डल पीला था और भावों से कुलीनता पर्कट होती थी। उसने देर तक िसर झुकाये रहने के पश्चात कहा। ‘माता! आज बीस वषर् से कोई मंगलवार ऐसा नहीं गया जबिक मंैने तुम्हारे चरणो पर िसर न झुकाया हो। एक िदन भी ऐसा नहीं गया जबिक मंैने तुम्हारे चरणों का ध्यान न िकया हो। तुम जगतािरणी महारानी हो। तुम्हारी इतनी सेवा करने पर भी मेरे मन की अिभलाषा पूरी न हुई। मंै तुम्हंे छोड़कर कहां जाऊ?’ ‘माता! मंैने सैकड़ों वर्त रखे, देवताओं की उपासनाएं की’, तीथर्याञाएं की, परन्तु मनोरथ पूरा न हुआ। तब तुम्हारी शरण आयी। अब तुम्हंे छोड़कर कहां जाऊं? तुमने सदा अपने भक्तो की इच्छाएं पूरी की है। क्या मंै तुम्हारे दरबार से िनराश हो जाऊं?’ सुवामा इसी पर्कार देर तक िवनती करती रही। अकस्मात उसके िचत्त पर अचेत करने वाले अनुराग का आकर्मण हुआ। उसकी आंखंे बन्द हो गयीं और कान मंे ध्विन आयी। ‘सुवामा! मंै तुझसे बहुत पर्सन्न हंू। मांग, क्या मांगती है? सुवामा रोमांिचत हो गयी। उसका हृदय धड़कने लगा। आज बीस वषर् के पश्चात महारानी ने उसे दशर्न िदये। वह कांपती हुई बोली ‘जो कुछ मांगंूगी, वह महारानी दंेगी’ ? ‘हां, िमलेगा।’ ‘मंैने बड़ी तपस्या की है अतएव बड़ा भारी वरदान मांगूगी।’ ‘क्या लेगी कुबेर का धन’? ‘नहीं।’ ‘इन्द का बल।’ ‘नहीं।’ ‘सरस्वती की िवद्या?’ ‘नहीं।’ ‘िफर क्या लेगी?’ ‘संसार का सबसे उत्तम पदाथर्।’ ‘वह क्या है?’ ‘सपूत बेटा।’ ‘जो कुल का नाम रोशन करे?’
‘नहीं।’ ‘जो माता-िपता की सेवा करे?’ ‘नहीं।’ ‘जो िवद्वान और बलवान हो?’ ‘नहीं।’ ‘िफर सपूत बेटा िकसे कहते हंै?’ ‘जो अपने देश का उपकार करे।’ ‘तेरी बुिद्व को धन्य है। जा, तेरी इच्छा पूरी होगी।’
वैराग्य -मँुशी पर्ेमचँद
मँुशी शािलगर्ाम बनारस के पुराने रईस थे। जीवन-वृित वकालत थी और पैतृक सम्पित्त भी अिधक थी। दशाश्वमेध घाट पर उनका वैभवािन्वत गृह आकाश को स्पशर् करता था। उदार ऐसे िक पचीस-तीस हजार की वािषकर् आय भी व्यय को पूरी न होती थी। साधु-बर्ाहमणों के बड़े शर्द्वावान थे। वे जो कुछ कमाते, वह स्वयं बर्हर्मभोज और साधुओं के भंडारे एवं सत्यकायर् मंे व्यय हो जाता। नगर मंे कोई साधु-महात्मा आ जाये, वह मंुशी जी का अितिथ। संस्कृत के ऐसे िवद्वान िक बड़े-बड़े पंिडत उनका लोहा मानते थे वेदान्तीय िसद्वान्तों के वे अनुयायी थे। उनके िचत्त की पर्वृित वैराग्य की ओर थी। मंुशीजी को स्वभावत: बच्चों से बहुत पर्ेम था। मुहल्ले-भर के बच्चे उनके पर्ेम-वािर से अिभिसंिचत होते रहते थे। जब वे घर से िनकलते थे तब बालाकों का एक दल उसके साथ होता था। एक िदन कोई पाषाण-हृदय माता अपने बच्वे को मार थी। लड़का िबलख-िबलखकर रो रहा था। मंुशी जी से न रहा गया। दौड़े, बच्चे को गोद मंे उठा िलया और स्तर्ी के सम्मुख अपना िसर झुक िदया। स्तर्ी ने उस िदन से अपने लड़के को न मारने की शपथ खा ली जो मनुष्य दूसरो के बालकों का ऐसा स्नेही हो, वह अपने बालक को िकतना प्यार करेगा, सो अनुमान से बाहर है। जब से पुतर् पैदा हुआ, मंुशी जी संसार के सब कायोर् से अलग हो गये। कहीं वे लड़के को िहंडोल मंे झुला रहे हंै और पर्सन्न हो रहे हंै। कहीं वे उसे एक सुन्दर सैरगाड़ी मंे बैठाकर स्वयं खींच रहे हंै। एक क्षण के िलए भी उसे अपने पास से दूर नहीं करते थे। वे बच्चे के स्नेह मंे अपने को भूल गये थे। सुवामा ने लड़के का नाम पर्तापचन्दर् रखा था। जैसा नाम था वैसे ही उसमंे गुण भी थे। वह अत्यन्त पर्ितभाशाली और रुपवान था। जब वह बातंे करता, सुनने वाले मुग्ध हो जाते। भव्य ललाट दमक-दमक करता था। अंग ऐसे पुष्ट िक िद्वगुण डीलवाले लड़कों को भी वह कुछ न समझता था। इस अल्प आयु ही मंे उसका मुख-मण्डल ऐसा िदव्य और ज्ञानमय था िक यिद वह अचानक िकसी अपिरिचत मनुष्य के सामने आकर खड़ा हो जाता तो वह िवस्मय से ताकने लगता था। इस पर्कार हंसते-खेलते छ: वषर् व्यतीत हो गये। आनंद के िदन पवन की भांित सन्न-से िनकल जाते हंै और पता भी नहीं चलता। वे दुभार्ग्य के िदन और िवपित्त की रातंे हंै, जो काटे नहीं कटतीं। पर्ताप को पैदा हुए अभी िकतने िदन हुए। बधाई की मनोहािरणी ध्विन कानों मे गंूज रही थी छठी वषर्गांठ आ पहंुची। छठे वषर् का अंत दुिदर्नों का शर्ीगणेश था। मंुशी शािलगर्ाम का सांसािरक सम्बन्ध केवल िदखावटी था। वह िनष्काम और िनस्सम्बद्व जीवन व्यतीत करते थे। यद्यिप पर्कट वह सामान्य संसारी मनुष्यों की भांित संसार के क्लेशों से क्लेिशत और सुखों से हिषर्त दृिष्टगोचर होते थे, तथािप उनका मन सवर्था उस महान और आनन्दपूवर् शांित का सुख-भोग करता था, िजस पर दु:ख के झोंकों और सुख की थपिकयों का कोई पर्भाव नहीं पड़ता है। माघ का महीना था। पर्याग मंे कुम्भ का मेला लगा हुआ था। रेलगािड़यों मंे यातर्ी रुई की भांित भर-भरकर पर्याग पहंुचाये जाते थे। अस्सी-अस्सी बरस के वृद्व-िजनके िलए वषोर् से उठना किठन हो रहा था- लंगड़ाते, लािठयां टेकते मंिजल तै करके पर्यागराज को जा रहे थे। बड़े-बड़े साधु-महात्मा, िजनके दशर्नो की इच्छा लोगों को िहमालय की अंधेरी गुफाओं मंे खींच ले जाती थी, उस समय गंगाजी की पिवतर् तरंगों से गले िमलने के िलए आये हुए थे। मंुशी शािलगर्ाम का भी मन ललचाया। सुवाम से बोले- कल स्नान है। सुवामा - सारा मुहल्ला सूना हो गया। कोई मनुष्य नहीं दीखता।
मंुशी - तुम चलना स्वीकार नहीं करती, नहीं तो बड़ा आनंद होता। ऐसा मेला तुमने कभी नहीं देखा होगा। सुवामा - ऐसे मेला से मेरा जी घबराता है। मंुशी - मेरा जी तो नहीं मानता। जब से सुना िक स्वामी परमानन्द जी आये हंै तब से उनके दशर्न के िलए िचत्त उिद्वग्न हो रहा है। सुवामा पहले तो उनके जाने पर सहमत न हुई, पर जब देखा िक यह रोके न रुकंेगे, तब िववश होकर मान गयी। उसी िदन मंुशी जी ग्यारह बजे रात को पर्यागराज चले गये। चलते समय उन्होंने पर्ताप के मुख का चुम्बन िकया और स्तर्ी को पर्ेम से गले लगा िलया। सुवामा ने उस समय देखा िक उनके नेञ सजल हंै। उसका कलेजा धक से हो गया। जैसे चैतर् मास मंे काली घटाओं को देखकर कृषक का हृदय कॉंपने लगता है, उसी भाती मंुशीजी ने नेतर्ों का अशर्ुपूणर् देखकर सुवामा किम्पत हुई। अशर्ु की वे बंूदंे वैराग्य और त्याग का अगाघ समुदर् थीं। देखने मंे वे जैसे नन्हे जल के कण थीं, पर थीं वे िकतनी गंभीर और िवस्तीणर्। उधर मंुशी जी घर के बाहर िनकले और इधर सुवामा ने एक ठंडी श्वास ली। िकसी ने उसके हृदय मंे यह कहा िक अब तुझे अपने पित के दशर्न न होंगे। एक िदन बीता, दो िदन बीते, चौथा िदन आया और रात हो गयी, यहा तक िक पूरा सप्ताह बीत गया, पर मंुशी जी न आये। तब तो सुवामा को आकुलता होने लगी। तार िदये, आदमी दौड़ाये, पर कुछ पता न चला। दूसरा सप्ताह भी इसी पर्यत्न मंे समाप्त हो गया। मंुशी जी के लौटने की जो कुछ आशा शेष थी, वह सब िमट्टी मंे िमल गयी। मंुशी जी का अदृश्य होना उनके कुटुम्ब मातर् के िलए ही नहीं, वरन सारे नगर के िलए एक शोकपूणर् घटना थी। हाटों मंे दुकानों पर, हथाइयो मंे अथार्त चारों और यही वातार्लाप होता था। जो सुनता, वही शोक करता- क्या धनी, क्या िनधर्न। यह शौक सबको था। उसके कारण चारों और उत्साह फैला रहता था। अब एक उदासी छा गयी। िजन गिलयों से वे बालकों का झुण्ड लेकर िनकलते थे, वहां अब धूल उड़ रही थी। बच्चे बराबर उनके पास आने के िलए रोते और हठ करते थे। उन बेचारों को यह सुध कहां थी िक अब पर्मोद सभा भंग हो गयी है। उनकी माताएं ऑंचल से मुख ढांप-ढांपकर रोतीं मानों उनका सगा पर्ेमी मर गया है। वैसे तो मंुशी जी के गुप्त हो जाने का रोना सभी रोते थे। परन्तु सब से गाढ़े आंसू, उन आढितयों और महाजनों के नेतर्ों से िगरते थे, िजनके लेने-देने का लेखा अभी नहीं हुआ था। उन्होंने दस-बारह िदन जैसे-जैसे करके काटे, पश्चात एक-एक करके लेखा के पतर् िदखाने लगे। िकसी बर्हृनभोज मे सौ रुपये का घी आया है और मूल्य नहीं िदया गया। कही से दो-सौ का मैदा आया हुआ है। बजाज का सहसर्ों का लेखा है। मिन्दर बनवाते समय एक महाजन के बीस सहसर् ऋण िलया था, वह अभी वैसे ही पड़ा हुआ है लेखा की तो यह दशा थी। सामगर्ी की यह दशा िक एक उत्तम गृह और तत्सम्बिन्धनी सामिगर्यों के अितिरक्त कोई वस्त न थी, िजससे कोई बड़ी रकम खड़ी हो सके। भू-सम्पित्त बेचने के अितिरक्त अन्य कोई उपाय न था, िजससे धन पर्ाप्त करके ऋण चुकाया जाए। बेचारी सुवामा िसर नीचा िकए हुए चटाई पर बैठी थी और पर्तापचन्दर् अपने लकड़ी के घोड़े पर सवार आंगन मंे टख-टख कर रहा था िक पिण्डत मोटेराम शास्तर्ी - जो कुल के पुरोिहत थे - मुस्कराते हुए भीतर आये। उन्हंे पर्सन्न देखकर िनराश सुवामा चौंककर उठ बैठी िक शायद यह कोई शुभ समाचार लाये हंै। उनके िलए आसन िबछा िदया और आशा-भरी दृिष्ट से देखने लगी। पिण्डतजी आसान पर बैठे और संुघनी संूघते हुए बोले तुमने महाजनों का लेखा देखा? सुवामा ने िनराशापूणर् शब्दों मंे कहा-हां, देखा तो। मोटेराम-रकम बड़ी गहरी है। मंुशीजी ने आगा-पीछा कुछ न सोचा, अपने यहां कुछ िहसाब-िकताब न रखा। सुवामा-हां अब तो यह रकम गहरी है, नहीं तो इतने रुपये क्या, एक-एक भोज मंे उठ गये हंै। मोटेराम-सब िदन समान नहीं बीतते। सुवामा-अब तो जो ईश्वर करेगा सो होगा, क्या कर सकती हंू। मोटेराम- हां ईश्वर की इच्छा तो मूल ही है, मगर तुमने भी कुछ सोचा है ? सुवामा-हां गांव बेच डालंूगी। मोटेराम-राम-राम। यह क्या कहती हो ? भूिम िबक गयी, तो िफर बात क्या रह जायेगी? मोटेराम- भला, पृथ्वी हाथ से िनकल गयी, तो तुम लोगों का जीवन िनवार्ह कैसे होगा?
सुवामा-हमारा ईश्वर मािलक है। वही बेड़ा पार करेगा। मोटेराम यह तो बड़े अफसोस की बात होगी िक ऐसे उपकारी पुरुष के लड़के-बाले दु:ख भोगंे। सुवामा-ईश्वर की यही इच्छा है, तो िकसी का क्या बस? मोटेराम-भला, मंै एक युिक्त बता दंू िक सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। सुवामा- हां, बतलाइए बड़ा उपकार होगा। मोटेराम-पहले तो एक दरख्वास्त िलखवाकर कलक्टर सािहब को दे दो िक मालगुलारी माफ की जाये। बाकी रुपये का बन्दोबस्त हमारे ऊपर छोड दो। हम जो चाहंेगे करंेगे, परन्तु इलाके पर आंच ना आने पायेगी। सुवामा-कुछ पर्कट भी तो हो, आप इतने रुपये कहां से लायंेगी? मोटेराम- तुम्हारे िलए रुपये की क्या कमी है? मंुशी जी के नाम पर िबना िलखा-पढ़ी के पचास हजार रुपये का बन्दोस्त हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। सच तो यह है िक रुपया रखा हुआ है, तुम्हारे मंुह से ‘हां’ िनकलने की देरी है। सुवामा- नगर के भदर्-पुरुषों ने एकतर् िकया होगा? मोटेराम- हां, बात-की-बात मंे रुपया एकतर् हो गया। साहब का इशारा बहुत था। सुवामा-कर-मुिक्त के िलए पर्ाथर्ना-पञ मुझसे न िलखवाया जाएगा और मंै अपने स्वामी के नाम ऋण ही लेना चाहती हंू। मंै सबका एक-एक पैसा अपने गांवों ही से चुका दंूगी। यह कहकर सुवामा ने रुखाई से मंुह फेर िलया और उसके पीले तथा शोकािन्वत बदन पर कर्ोध-सा झलकने लगा। मोटेराम ने देखा िक बात िबगड़ना चाहती है, तो संभलकर बोले- अच्छा, जैसे तुम्हारी इच्छा। इसमंे कोई जबरदस्ती नहीं है। मगर यिद हमने तुमको िकसी पर्कार का दु:ख उठाते देखा, तो उस िदन पर्लय हो जायेगा। बस, इतना समझ लो। सुवामा-तो आप क्या यह चाहते हंै िक मंै अपने पित के नाम पर दूसरों की कृतज्ञता का भार रखंू? मंै इसी घर मंे जल मरुंगी, अनशन करते-करते मर जाऊंगी, पर िकसी की उपकृत न बनंूगी। मोटेराम-िछ:िछ:। तुम्हारे ऊपर िनहोरा कौन कर सकता है? कैसी बात मुख से िनकालती है? ऋण लेने मंे कोई लाज नहीं है। कौन रईस है िजस पर लाख दो-लाख का ऋण न हो? सुवामा- मुझे िवश्वास नहीं होता िक इस ऋण मंे िनहोरा है। मोटेराम- सुवामा, तुम्हारी बुिद्व कहां गयी? भला, सब पर्कार के दु:ख उठा लोगी पर क्या तुम्हंे इस बालक पर दया नहीं आती? मोटेराम की यह चोट बहुत कड़ी लगी। सुवामा सजलनयना हो गई। उसने पुतर् की ओर करुणा-भरी दृिष्ट से देखा। इस बच्चे के िलए मंैने कौन-कौन सी तपस्या नहीं की? क्या उसके भाग्य मंे दु:ख ही बदा है। जो अमोला जलवायु के पर्खर झोंकों से बचाता जाता था, िजस पर सूयर् की पर्चण्ड िकरणंे न पड़ने पाती थीं, जो स्नेह-सुधा से अभी िसंिचत रहता था, क्या वह आज इस जलती हुई धूप और इस आग की लपट मंे मुरझायेगा? सुवामा कई िमनट तक इसी िचन्ता मंे बैठी रही। मोटेराम मन-ही-मन पर्सन्न हो रहे थे िक अब सफलीभूत हुआ। इतने मंे सुवामा ने िसर उठाकर कहा-िजसके िपता ने लाखों को िजलाया-िखलाया, वह दूसरों का आिशर्त नहीं बन सकता। यिद िपता का धमर् उसका सहायक होगा, तो स्वयं दस को िखलाकर खायेगा। लड़के को बुलाते हुए ‘बेटा। तिनक यहां आओ। कल से तुम्हारी िमठाई, दूध, घी सब बन्द हो जायंेगे। रोओगे तो नहीं?’ यह कहकर उसने बेटे को प्यार से बैठा िलया और उसके गुलाबी गालों का पसीना पोंछकर चुम्बन कर िलया। पर्ताप- क्या कहा? कल से िमठाई बन्द होगी? क्यों क्या हलवाई की दुकान पर िमठाई नहीं है? सुवामा-िमठाई तो है, पर उसका रुपया कौन देगा?
पर्ताप- हम बड़े होंगे, तो उसको बहुत-सा रुपया दंेगे। चल, टख। टख। देख मां, कैसा तेज घोड़ा है। सुवामा की आंखों मंे िफर जल भर आया। ‘हा हन्त। इस सौन्दयर् और सुकुमारता की मूितर् पर अभी से दिरदर्ता की आपित्तयां आ जायंेगी। नहीं नहीं, मंै स्वयं सब भोग लंूगी। परन्तु अपने पर्ाण-प्यारे बच्चे के ऊपर आपित्त की परछाहीं तक न आने दंूगी।’ माता तो यह सोच रही थी और पर्ताप अपने हठी और मंुहजोर घोड़े पर चढ़ने मंे पूणर् शिक्त से लीन हो रहा था। बच्चे मन के राजा होते हंै। अिभपर्ाय यह िक मोटेराम ने बहुत जाल फैलाया। िविवध पर्कार का वाक्चातुयर् िदखलाया, परन्तु सुवामा ने एक बार ‘नहीं करके ‘हां’ न की। उसकी इस आत्मरक्षा का समाचार िजसने सुना, धन्य-धन्य कहा। लोगों के मन मंे उसकी पर्ितष्टा दूनी हो गयी। उसने वही िकया, जो ऐसे संतोषपूणर् और उदार-हृदय मनुष्य की स्तर्ी को करना उिचत था। इसके पन्दर्हवंे िदन इलाका नीलामा पर चढ़ा। पचास सहसर् रुपये पर्ाप्त हुए कुल ऋण चुका िदया गया। घर का अनावश्यक सामान बेच िदया गया। मकान मंे भी सुवामा ने भीतर से ऊंची-ऊंची दीवारंे िखंचवा कर दो अलग-अलग खण्ड कर िदये। एक मंे आप रहने लगी और दूसरा भाड़े पर उठा िदया।