अनुकम
पातः समरणीय परम प
ूजय
संत शी आस ारामज ी बाप ू के सतस ंग पवचन
हमार े आद शश शी योग वेदानत सेवा सिमित संत शी आसारामजी आशम साबरमती
अमदाबाद -380005 फोनः 079-7505010, 7505011 अनुकम
पासतािवक अगर तुम ठान
लो , तार े गगन क े तोड स कते हो।
अगर त ुम ठान लो , तूफान का म ुख मोड सकत े हो।। कहने का तातपय श यही है िक जीवन मे ऐसा कोई काय श नहीं िजसे मानव न कर सके।
जीवन मे ऐसी कोई समसया नहीं िजसका समाधान न हो।
जीवन मे संयम, सदाचार, पेम, सिहषणुता, िनभय श ता, पिवतता, दढ आतमिवशास, सतसािहतय
का पठन, उतम संग और महापुरषो का मागद श शन श हो तो हमारे िलए अपना लकय पाप करना
आसान हो जाता है । जीवन को इन सदगुणो से युक बनाने के िलए तथा जीवन के ऊँचे -मे-ऊँचे धयेय परमातम-पािप के िलए आदशश चिरतो का पठन बडा लाभदायक है होता है ।
पूजय बापू जी के सतसंग पवचनो मे से संकिलत महापुरषो, दे शभिक व साहसी वीर
बालको के पेरणादायक जीवन पसंगो का यह संगह पुसतक के रप मे आपके करकमलो तक
पहुँचाने का बालयत सिमित ने िकया है । आप इसका लाभ ले और इसे दस ू रो तक पहुँचा कर पुणयभागी बने।
शी य ोग व े दानत सेवा सिम ित अमदावाद
हािनकारक और ला
सात बाते बडी हािनकारक है -
आ शम।
भदायक बात े
अिधक बोलना, वयथ श का भटकना, अिधक शयन, अिधक भोजन, शग ं ृ ार, हीन भावना और अहं कार।
जीवन मे िनमनिलिखत आठ गुण हो तो वह बडा यशसवी हो जाता है ः शांत सवभाव, उतसाह, सतयिनषा, धैयश, सहनशिक, नमता, समता, साहस।
अनुकम सबसे शष े संपितः चिरत
सफलता की कुंजी
चार पकार के बल
अपनी संसकृ ित का आदर करे ....
माथे पर तो भारत ही रहे गा
धमिशनष दे शभक केशवराव हे डगेवार
भाई मितदास की धमिशनषा
सवधमे िनधनं शय े .....
धमश के िलए बिलदान दे ने वाले अमर शहीद
अमर शहीद गुरतेगबहादरु
धन छोडा पर धमश न छोडा...
सवधमिशनषा
छतसाल की वीरता
महाराणा पताप की महानता
साहिसक लडका
चनदशेखर आजाद की दढिनषा
हजारो पर तीन सौ की िवजय !
मन के सवामी राजा भतह शृ िर
मीरा की अिडगता
राजेनदबाबू की दढता
िजसके चरणो को रावण भी न िहला सका....
काली की वीरता
आतमजान की िदवयता
पितभावान बालक रमण
ितलकजी की सतयिनषा
दयालु बालक शतमनयु
सारसवतय मंत और बीरबल
मातृ-िपतृ-गुर भक पुणडिलक
दीघाय श ु का रहसय
सफलता कैसे पाये?
िवदािथय श ो से दो बाते
सबस े श े ष स ंपित ःः चिरत चिरत मानव की शष े संपित है , दिुनया की समसत संपदाओं मे महान संपदा है । पंचभूतो
से िनिमत श मानव-शरीर की मतृयु के बाद, पंचमहाभूतो मे िवलीन होने के बाद भी िजसका अिसततव बना रहता है , वह है उसका चिरत।
चिरतवान वयिक ही समाज, राष व िवशसमुदाय का सही नेततृव और मागद श शन श कर
सकता है । आज जनता को दिुनयावी सुख-भोग व सुिवधाओं की उतनी आवशयकता नहीं है ,
िजतनी चिरत की। अपने सुिवधाओं की उतनी आवशयकता नहीं है , िजतनी की चिरत की। अपने चिरत व सतकमो से ही मानव िचर आदरणीय और पूजनीय हो जाता है । सवामी िशवानंद कहा करते थेः
"मनुषय जीवन का सारांश है चिरत। मनुषय का चिरतमात ही सदा जीिवत रहता है । चिरत
का अजन श नहीं िकया गया तो जान का अजन श भी िकया जा सकता। अतः िनषकलंक चिरत का िनमाण श करे ।"
अपने अलौिकक चिरत के कारण ही आद शंकराचायश, महातमा बुद, सवामी िववेकानंद, पूजय
लीलाशाह जी बापू जैसे महापुरष आज भी याद िकये जाते है ।
वयिकतव का िनमाण श चिरत से ही होता है । बाह रप से वयिक िकतना ही सुनदर कयो न
हो, िकतना ही िनपुण गायक कयो न हो, बडे -से-बडा किव या वैजािनक कयो न हो, पर यिद वह चिरतवान न हुआ तो समाज मे उसके िलए सममािनत सथान का सदा अभाव ही रहे गा।
चिरतहीन वयिक आतमसंतोष और आतमसुख से वंिचत रहता है । आतमगलािन व अशांित दे र-सवेर चिरतहीन वयिक का पीछा करती ही है । चिरतवान वयिक के आस-पास आतमसंतोष, आतमशांित
और सममान वैसे ही मंडराते है . जैसे कमल के इदश -िगदश भौरे , मधु के इदश -िगदश मधुमकखी व सरोवर के इदश -िगदश पानी के पयासे।
चिरत एक शिकशाली उपकरण है जो शांित, धैयश, सनेह, पेम, सरलता, नमता आिद दै वी गुणो
को िनखारता है । यह उस पुषप की भाँित है जो अपना सौरभ सुदरू दे शो तक फैलाता है । महान िवचार तथा उजजवल चिरत वाले वयिक का ओज चंुबक की भाँित पभावशाली होता है ।
भगवान शीकृ षण ने अजुन श को िनिमत बनाकर समपूण श मानव-समुदाय को उतम चिरत-िनमाण श के िलए शीमद भगवद गीता के सोलहवे अधयाय मे दै वी गुणो का उपदे श िकया है , जो मानवमात के िलए पेरणासोत है , चाहे वह िकसी भी जाित, धम श अथवा संपदाय का हो। उन दै वी गुणो को पयतपूवक श अपने आचरण मे लाकर कोई भी वयिक महान बन सकता है ।अनुकम
िनषकलंक चिरत िनमाण श के िलए नमता, अिहं सा, कमाशीलता, गुरसेवा, शुिचता, आतमसंयम,
िवषयो के पित अनासिक, िनरहं कािरता, जनम-मतृयु-जरा-वयािध तथा दःुखो के पित अंतदश िि,
िनभय श ता, सवचछता, दानशीलता, सवाधयाय, तपसया, तयाग-परायणता, अलोलुपता, ईषयाश, अिभमान, कुिटलता व कोध का अभाव तथा शाँित और शौयश जैसे गुण िवकिसत करने चािहए।
काय श करने पर एक पकार की आदत का भाव उदय होता है । आदत का बीज बोने से
चिरत का उदय और चिरत का बीज बोने से भागय का उदय होता है । वतम श ान कमो से ही भागय बनता है , इसिलए सतकमश करने की आदत बना ले।
िचत मे िवचार, अनुभव और कम श से संसकार मुिदत होते है । वयिक जो भी सोचता तथा
कम श करता है , वह सब यहाँ अिमट रप से मुिदत हो जाता है । वयिक के मरणोपरांत भी ये संसकार जीिवत रहते है । इनके कारण ही मनुषय संसार मे बार-बार जनमता-मरता रहता है ।
दश ु िरत वयिक सदा के िलए दश ु िरत हो गया – यह तकश उिचत नहीं है । अपने बुरे चिरत
व िवचारो को बदलने की शिक पतयेक वयिक मे िवदमान है । आमपाली वेशया, मुगला डाकू, िबलवमंगल, वेमना योगी, और भी कई नाम िलये जा सकते है । एक वेशया के चँगुल मे फँसे वयिक िबलवमंगल से संत सूरदास हो गये। पती के पेम मे दीवाने थे लेिकन पती ने िववेक के
दो शबद सुनाये तो वे ही संत तुलसीदास हो गये। आमपाली वेशया भगवान बुद की परम भिकन बन कर सनमागश पर चल पडी।
िबगडी जनम अ नेक की स ु धरे अब और आज।
यिद बुरे िवचारो और बुरी भावनाओं का सथान अचछे िवचारो और आदशो को िदया जाए
तो मनुषय सदगुणो के माग श मे पगित कर सकता है । असतयभाषी सतयभाषी बन सकता है , दषुचिरत सचचिरत मे पिरवितत श हो सकता है , डाकू एक नेक इनसान ही नहीं ऋिष भी बन सकता है । वयिक की आदतो, गुणो और आचारो की पितपकी भावना (िवरोधी गुणो की भावना) से बदला
जा सकता है । सतत अभयास से अवशय ही सफलता पाप होती है । दढ संकलप और अदमय साहस से जो वयिक उननित के मागश पर आगे बढता है , सफलता तो उसके चरण चूमती है ।
चिरत-िनमाण श का अथ श होता है आदतो का िनमाण श । आदत को बदलने से चिरत भी बदल
जाता है । संकलप, रिच, धयान तथा शदा से सवभाव मे िकसी भी कण पिरवतन श िकया जा सकता है । योगाभयास दारा भी मनुषय अपनी पुरानी कुद आदतो को तयाग कर नवीन कलयाणकारी आदतो को गहण कर सकता है ।
आज का भारतवासी अपनी बुरी आदते बदलकर अचछा इनसान बनना तो दरू रहा, पतयुत
पाशातय संसकृ ित का अंधानुकरण करते हुए और जयादा बुरी आदतो का िशकार बनता जा रहा है , जो राष के सामािजक व नैितक पतन का हे तु है ।अनुकम
िजस राष मे पहले राजा-महाराजा भी जीवन का वासतिवक रहसय जानने के िलए, ईशरीय
सुख पाप करने के िलए राज-पाट, भौितक सुख-सुिवधाओं को तयागकर बहजानी संतो की खोज करते थे, वहीं िवषय -वासना
व पाशातय
अपना प तन आ प आम ं ितत कर रह े है।
चका चौध
पर लटटू होकर
कई भारतवासी
ॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सफलता की क ुं जी साधक के जीवन मे, मनुषय मात के जीवन मे अपने लकय की समिृत और ततपरता होनी ही चािहए। जो काम िजस समय करना चािहए कर ही लेना चािहए। संयम और ततपरता सफलता की कुंजी है । लापरवाही और संयम का अनादर िवनाश का कारण है । िजस काम को
करे , उसे ईशर का काय श मान कर साधना का अंग बना ले। उस काम मे से ही ईशर की मसती का आनंद आने लग जायेगा।
दो िकसान थे। दोनो ने अपने-अपने बगीचे मे पौधे लगाये। एक िकसान ने बडी ततपरता
से और खयाल रखकर िसंचाई की, खाद पानी इतयािद िदया। कुछ ही समय मे उसका बगीचा सुंदर नंदनवन बन गया। दरू-दरू से लोग उसके बगीचे मे आने लगे और खूब कमाई होने लगी।
दस ू रे िकसान ने भी पौधे तो लगाये थे लेिकन उसने धयान नहीं िदया, लापरवाही की,
अिनयिमत खाद-पानी िदये। लापरवाही की तो उसको पिरणाम वह नहीं िमला। उसका बगीचा उजाड सा िदखता था।
अब पहले िकसान को तो खूब यश िमलने लगा, लोग उसको सराहने लगे। दस ू रा िकसान
अपने भागय को कोसने लगा, भगवान को दोषी ठहराने लगा। अरे भाई ! भगवान ने सूय श िक िकरणे और विृि तो दोनो के िलए बराबर दी थी, दोनो के पास साधन थे, लेिकन दस ू रे िकसान मे कमी थी ततपरता व सजगता की, अतः उसे वह पिरणाम नहीं िमल पाया।
पहले िकसान का ततपर व सजग होना ही उसकी सफलता का कारण था और दस ू रे
िकसान की लापरवाही ही उसकी िवफलता का कारण थी। अब िजसको यश िमल रहा है वह बुिदमान िकसान कहता है िक 'यह सब भगवान की लीला है ' और दस ू रा भगवान को दोषी ठहराता है । पहला िकसान ततपरता व सजगता से काम करता है और भगवान की समिृत रखता
है । ततपरता व सजगता से काम करने वाला वयिक कभी िवफल नहीं होता और कभी िवफल हो भी जाता है तो िवफलता का कारण खोजता है । िवफलता का कारण ईशर और पकृ ित नहीं है । बुिदमान वयिक अपनी बेवकूफी िनकालते है और ततपरता तथा सजगता से कायश करते है ।
एक होता है आलसय और दस ू रा होता है पमाद। पित जाते-जाते पती को कह गयाः "मै
जा रहा हूँ। फैकटरी मे ये-ये काम है । मैनेजर को बता दे ना।" दो िदन बाद पित आया और पती से पूछाः "फैकटरी का काम कहाँ तक पहुँचा?"
पती बोलीः "मेरे तो धयान मे ही नहीं रहा।"अनुकम
यह आलसय नहीं है , पमाद है । िकसी ने कुछ काय श कहा िक इतना काय श कर दे ना। बोलेः "अचछा, होगा तो दे खते है ।" ऐसा कहते हुए काम भटक गया। यह है आलसय।
आल स कबह ुँ न की िजए , आलस अिर स म जािन।
आलस स े िवदा घटे , सुख -समपित की हािन।। आलसय और पमाद मनुषय की योगयाताओं के शतु है । अपनी योगयता िवकिसत करने के
िलए भी ततपरता से काय श करना चािहए। िजसकी कम समय मे सुनदर, सुचार व अिधक-सेअिधक काय श करने की कला िवकिसत है , वह आधयाितमक जगत मे जाता है तो वहाँ भी सफल
हो जायगा और लौिकक जगत मे भी। लेिकन समय बरबाद करने वाला, टालमटोल करने वाला तो वयवहार मे भी िवफल रहता है और परमाथश मे तो सफल हो ही नहीं सकता।
लापरवाह, पलायनवादी लोगो को सुख सुिवधा और भजन का सथान भी िमल जाय लेिकन
यिद काय श करने मे ततपरता नहीं है , ईशर मे पीित नहीं है , जप मे पीित नहीं है तो ऐसे वयिक को बहाजी भी आकर सुखी करना चाहे तो सुखी नहीं कर सकते। ऐसा वयिक दःुखी ही रहे गा।
कभी-कभी दै वयोग से उसे सुख िमलेगा तो आसक हो जायेगा और दःुख िमलेगा तो बोलेगाः "कया करे ? जमाना ऐसा है ।" ऐसा करकर वह फिरयाद ही करे गा।
काम-कोध तो मनुषय के वैरी है ही, परं तु लापरवाही, आलसय, पमाद – ये मनुषय की
योगयाओं के वैरी है ।
अद ढं हत ं जानम। ्
'भागवत' मे आता है िक आतमजान अगर अदढ है तो मरते समय रका नहीं करता। पमाद े हत ं श ु तम।्
पमाद से जो सुना है उसका फल और सुनने का लाभ िबखर जाता है । जब सुनते है तब ततपरता से सुने। कोई वाकय या शबद छूट न जाय।
संिदगधो ह तो मंतः वयग िचतो हतो जप ः।
मंत मे संदेह हो िक 'मेरा यह मंत सही है िक नहीं? बिढया है िक नहीं?' तुमने जप िकया
और िफर संदेह िकया तो केवल जप के पभाव से थोडा बहुत लाभ तो होगा लेिकन पूणश लाभ तो
िनःसंदेह होकर जप करने वाले को हो ही होगा। जप तो िकया लेिकन वयगिचत होकर बंदर-छाप जप िकया तो उसका फल कीण हो जाता है । अनयथा एकागता और ततपरतापूवक श जप से बहुत लाभ होता है । समथ श रामदास ने ततपरता से जप कर साकार भगवान को पकट कर िदया था।
मीरा ने जप से बहुत ऊँचाई पायी थी। तुलसीदास जी ने जप से ही किवतव शिक िवकिसत की थी।अनुकम
जपात ् िसिद ः जपात ् िसिद ः जपात ् िस िदन श संशयः।
जब तक लापरवाही है , ततपरता नहीं है तो लाख मंत जपो, कया हो जायेगा? संयम और
ततपरता से छोटे -से-छोटे वयिक को महान बना दे ती है और संयम का तयाग करके िवलािसता और लापरवाही पतन करा दे ती है । जहाँ िवलास होगा, वहाँ लापरवाही आ जायेगी। पापकमश, बुरी आदते लापरवाही ले आते है , आपकी योगयताओं को नि कर दे ते है और ततपरता को हडप लेते है ।
िकसी दे श पर शतुओं ने आकमण की तैयारी की। गुपचरो दारा राजा को समाचार पहुँचाया गया िक शतुदेश दारा सीमा पर ऐसी-ऐसी तैयािरयाँ हो रही है । राजा ने मुखय सेनापित के िलए संदेशवाहक दारा पत भेजा। संदेशवाहक की घोडी के पैर की नाल मे से एक कील िनकल
गयी थी। उसने सोचाः 'एक कील ही तो िनकल गयी है , कभी ठु कवा लेगे।' उसने थोडी लापरवाही की। जब संदेशा लेकर जा रहा था तो उस घोडी के पैर की नाल िनकल पडी। घोडी िगर गयी। सैिनक मर गया। संदेश न पहुँच पाने के कारण दशुमनो ने आकमण कर िदया और दे श हार गया।
कील न ठु कवायी.... घोडी िगरी.... सैिनक मरा.... दे श हारा।
एक छोटी सी कील न लगवाने की लापरवाही के कारण पूरा दे श हार गया। अगर उसने उसी समय ततपर होकर कील लगवायी होती तो ऐसा न होता। अतः जो काम जब करना चािहए, कर ही लेना चािहए। समय बरबाद नहीं करना चािहए।
आजकल ऑिफसो मे कया हो रहा है ? काम मे टालमटोल। इं तजार करवाते है । वेतन पूरा
चािहए लेिकन काम िबगडता है । दे श की व मानव-जाित की हािन हो रही है । सब एक-दस ू रे के िजममे छोडते है । बडी बुरी हालत हो रही है हमारे दे श की जबिक जापान आगे आ रहा है , कयोिक वहाँ ततपरता है । इसीिलए इतनी तेजी से िवकिसत हो गया।
महाराज ! जो वयवहार मे ततपर नहीं है और अपना कतवशय नहीं पालता, वह अगर साधु
भी बन जायेगा तो कया करे गा? पलायनवादी आदमी जहाँ भी जायेगा, दे श और समाज के िलए बोझा ही है । जहाँ भी जायेगा, िसर खपायेगा।
भगवान शीकृ षण ने उदव, सातयिक, कृ तवमा श से चचा श करते-करते पूछाः "मै तुमहे पाँच
मूखो, पलायनवािदयो के साथ सवगश मे भेजूँ यह पसंद करोगे िक पाँच बुिदमानो के साथ नरक मे भेजूँ यह पसंद करोगे?" उनहोने
कहाः "पभु ! आप कैसा पश पूछते है ? पाँच पलायनवादी-लापरवाही अगर सवगश मे
भी जायेगे तो सवग श की वयवसथा ही िबगड जायेगी और अगर पाँच बुिदमान व ततपर वयिक
नरक मे जायेगे तो कायक श ु शलता और योगयता से नरक का नकशा ही बदल जायेगा, उसको सवगश बना दे गे।"अनुकम
पलायनवादी, लापरवाही वयिक घर-दक ु ान, दफतर और आशम, जहाँ भी जायेगा दे र-सवेर
असफल हो जायेगा। कम श के पीछे भागय बनता है , हाथ की रे खाएँ बदल जाती है , पारबध बदल जाता है । सुिवधा पूरी चािहए लेिकन िजममेदारी नहीं, इससे लापरवाह वयिक खोखला हो जाता है ।
जो ततपरता से काम नहीं करता, उसे कुदरत दब ु ारा मनुषय-शरीर नहीं दे ती। कई लोग अपने-आप काम करते है , कुछ लोग ऐसे होते है , िजनसे काम िलया जाता है लेिकन ततपर वयिक को कहना
नहीं पडता। वह सवयं काय श करता है । समझ बदलेगी तब वयिक बदलेगा और वयिक बदलेगा तब समाज और दे श बदलेगा।
जो मनुषय-जनम मे काम कतराता है , वह पेड पौधा पशु बन जाता। िफर उससे डं डे मारमार कर, कुलहाडे मारकर काम िलया जाता है । पकृ ित िदन रात काय श कर रही है , सूय श िदन रात
कायश कर रहा है , हवाएँ िदन रात कायश कर रही है , परमातमा िदन रात चेतना दे रहा है । हम अगर कायश से भागते िफरते है तो सवयं ही अपने पैर पर कुलहाडा मारते है ।
जो काम, जो बात अपने बस की है , उसे ततपरता से करो। अपने काय श को ईशर की पूजा
समझो। राजवयवसथा मे भी अगर ततपरता नहीं है तो ततपरता िबगड जायेगी। ततपरता से जो
काम अिधकािरयो से लेना है , वह नहीं लेते कयोिक िरशत िमल जाती है और वे लापरवाह हो जाते है । इस दे श मे 'ऑपरे शन' की जररत है । जो काम नहीं करता उसको तुरंत सजा िमले , तभी दे श सुधरे गा।
शतु या िवरोधी पक की बात भी यिद दे श व मानवता के िहत की हो तो उसे आदर से
सवीकार करना चािहए और अपने वाले की बात भी यिद दे श के , धमश के अनुकूल नहीं हो तो उसे नहीं मानना चािहए।
आप लोग जहाँ भी हो, अपने जीवन को संयम और ततपरता से ऊपर उठाओ। परमातमा
हमेशा उननित मे साथ दे ता है । पतन मे परमातमा साथ नहीं दे ता। पतन मे हमारी वासनाएँ, लापरवाही काम करती है । मुिक के रासते भगवान साथ दे ता है , पकृ ित साथ दे ती है । बंधन के िलए तो हमारी बेवकूफी, इिनदयो की गुलामी, लालच र हलका संग ही कारणरप होता है । ऊँचा संग हो तो ईशर भी उतथान मे साथ दे ता है । यिद हम ईशर का समरण करे तो चाहे हमे हजार
फटकार िमले, हजारो तकलीफे आये तो भी कया? हम तो ईशर का संग करे गे, संतो-शासो की
शरण जायेगे, शष े संग करे गे और संयमी व ततपर होकर अपना काय श करे गे-यही भाव रखना चािहए।
हम सब िमलकर संकलप करे िक लापरवाही, पलायनवाद को िनकालकर, संयमी और ततपर
होकर अपने को बदलेगे, समाज को बदलेगे और लोक कलयाण हे तु ततपर होकर दे श को उननत करे गे।अनुकम
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चार पकार क े बल जीवन मे सवाग ा ीण उननित के िलए चार पकार के बल जररी है - शारीिरक बल, मानिसक
बल, बौिदक बल, संगठन बल।
पहला बल है शारीिरक बल। शरीर तनदरसत होना चािहए। मोटा होना शारीिरक बल नहीं
है वरन ् शरीर का सवसथ होना शारीिरक बल है ।
दस ू रा बल है मानिसक बल। जरा-जरा बात मे कोिधत हो जाना, जरा-जरा बात मे डर
जाना, िचढ जाना – यह कमजोर मन की िनशानी है । जरा-जरा बात मे घबराना नहीं चािहए, िचिनतत-परे शान नहीं होना चािहए वरन ् अपने मन को मजबूत बनाना चािहए।
तीसरा बल है बुिदबल। शास का जान पाकर अपना, कुल का, समाज का, अपने राष का
तथा पूरी मानव-जाित का कलयाण करने की जो बुिद है , वही बुिदबल है ।
शारीिरक, मानिसक और बौिदक बल तो हो, िकनतु संगठन-बल न हो तो वयिक वयापक
कायश नहीं कर सकता। अतः जीवन मे संगठन बल का होना भी आवशयक है ।
ये चारो पकार के बल कहाँ से आते है ? इन सब बलो का मूल केनद है आतमा। अपना
आतमा-परमातमा िवश के सारे बलो का महा खजाना है । बलवानो का बल, बुिदमानो की बुिद, तेजिसवयो का तेज, योिगयो का योग-सामथयश सब वहीं से आते है ।
ये चारो बल िजस परमातमा से पाप होते है , उस परमातमा से पितिदन पाथन श ा करनी
चािहएः
'हे भगवान ! तुझमे सब शिकयाँ है । हम तेरे है , तू हमारा है । तू पाँच साल के धुव के िदल
मे पकट हो सकता है , तू पहाद के आगे पकट हो सकता है .... हे परमेशर ! हे पांडुरं ग ! तू हमारे िदल मे भी पकट होना....'
इस पकार हदयपूवक श , पीितपूवक श व शांतभाव से पाथन श ा करते-करते पेम और शांित मे
सराबोर होते जाओ। पभुपीित और पभुशांित सामथय श की जननी है । संयम और धैयप श ूवक श इिनदयो को िनयंितत रखकर परमातम-शांित मे अपनी िसथित बढाने वाले को इस आतम-ईशर की संपदा
िमलती जाती है । इस पकार पाथन श ा करने से तुमहारे भीतर परमातम-शांित पकट होती जायेगी और परमातम-शांित से आितमक शिकयाँ पकट होती है , जो शारीिरक, मानिसक, बौिदक और संगठन बल को बडी आसानी से िवकिसत कर सकती है ।
हे िवदािथय श ो ! तुम भी आसन-पाणायाम आिद के दारा अपने तन को तनदरसत रखने की
कला सीख लो। जप-धयान आिद के दारा मन को मजबूत बनाने की युिक जान लो। संतमहापुरषो के शीचरणो मे आदरसिहत बैठकर उनकी अमत ृ वाणी का पान करके तथा शासो का अधययन कर अपने बौिदक बल को बढाने की कुंजी जान लो और आपस मे संगिठत होकर रहो।
यिद तुमहारे जीवन मे ये चारो बल आ जाये तो िफर तुमहारे िलए कुछ भी असंभव न होगा। अनुकम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
अपनी स ंसकृित का आदर कर े .....
िकसी गाँव का एक लडका पढ-िलखकर पैसे कमाने के िलए िवदे श गया। शुर मे तो उसे कहीं िठकाना न िमला, परं तु धीरे -धीरे पेटोल पंप आिद जगहो पर काम करके कुछ धन कमाया और भारत आया। अब उसके िलए अपना दे श भारत 'भारत' नहीं रहा, 'इं िडया' हो गया।
परदे श के वातावरण, बाह चकाचौध तथा इिनदयगत जान से उसकी बुिद इतनी पभािवत
हो गयी थी की वह सामानय िववेक तक भूल गया था। पहले तो वह रोज माता-िपता को पणाम करता था, िकंतु आज दो वष श के बाद इतनी दरू से आने पर भी उसने िपता को पणाम न िकया बिलक बोलाः
"ओह, पापा ! कैसे हो?"
िपता की तीकण नजरो ने परख िलया िक पुत का वयवहार बदल गया है । दस ू रे िदन िपता
ने पुत से कहाः
"चलो, बेटा ! गाँव मे जरा चककर लगाकर आये और सबजी भी ले आये।" िपता पुत दोनो गये। िपता ने सबजीवाले से 250 गाम िगलकी तौलने के िलए कहा।
पुतः "पापा ! आपके इं िडया मे इतनी छोटी-छोटी िगलकी? हमारे अमेिरका मे तो इससे दग ु नी बडी िगलकी होती है ।"
अब इं िडया उसका अपना न रहा, िपता का हो गया। कैसी समझ ! अपने दे श से कोई
पढने या पैसा कमाने के िलए परदे श जाय तो ठीक है , िकंतु कुछ समय तक वहाँ रहने के बाद
वहाँ की बाह चकाचौध से आकिषत श होकर अपने दे श का गौरव तथा अपनी संसकृ ित भूल जाय, वहाँ की फालतू बाते अपने िदमाग मे भल ले और यहाँ आने पर अपने बुिदमान बडे -बुजुगो के साथ ऐसा वयवहार करे , इससे अिधक दस श ा होगी? ू री कया मूखत
िपता कुछ न बोले। थोडा आगे गये। िपता ने 250 गाम िभंडी तुलवायी। तब पुत बोलाः
है ।"
"हाट इज िदस, पापा? इतनी छोटी िभंडी ! हमारे अमेिरका मे तो बहुत बडी-बडी िभंडी होती िपता को गुससा आया िकंतु वे सतसंगी थे, अतः अपने मन को समझाया िक कबसे डींग
हाँक रहा है ... मौका दे खकर समझाना पडे गा। पकट मे बोलेः
"पुत ! वहाँ सब ऐसा खाते होगे तो उनका शरीर भी ऐसा ही भारी-भरकम होगा और
उनकी बुिद भी मोटी होगी। भारत मे तो हम साििवक आहार लेना पसनद करते है , अतः हमारे मन-बुिद भी साििवक होते है ।" लेगे?"
चलते-चलते उनकी तरबूज के ढे र पर गयी। पुत ने कहाः "पापा ! हम वॉटरमेलन (तरबूज) िपता ने कहाः "बेटा ! ये नींबू है । अभी कचचे है , पकेगे तब लेगे।"
पुत िपता की बात का अथश समझ गया और चुप हो गया।अनुकम
परदे श का वातावरण ठं डा और वहाँ के लोगो का आहार चबीयुक होने से उनकी तवचा गोरी तथा शरीर का कद अिधक होता है । भौितक सुख-सुिवधाएँ िकतनी भी हो, शरीर चाहे िकतना भी हि-पुि और गोरा हो लेिकन उससे आकिषत श नहीं होना चािहए।
वहाँ की जो अचछी बाते है उनको तो हम लेते नहीं, िकंतु वहाँ के हलके संसकारो के हमारे
युवान तुरंत गहण कर लेते है । कयो? कयोिक अपनी संसकृ ित के गौरव से वे अपिरिचत है । हमारे
ऋिष-मुिनयो दारा पदत जान की मिहमा को उनहोने अब तक जाना नहीं है । राम तिव के, कृ षण तिव के, चैतनय-तिव के जान से वे अनिभज है ।
वाईन पीने वाले, अणडे -मांस-मछली खाने वाले परदे श के लेखको की पुसतके खूब रपये
खच श करके भारत के युवान पढते है , िकंतु अपने ऋिष मुिनयो ने वलकल पहनकर, कंदमूल, फल और पते खाकर, पानी और हवा पर रहकर तपसया-साधना की, योग की िसिदयाँ पायीं, आतमापरमातमा का जान पाया और इसी जीवन मे जीवनदाता से मुलाकात हो सके ऐसी युिकयाँ बताने वाले शास रचे। उन शासो को पढने का समय ही आज के युवानो के पास नहीं है ।
उपनयास, अखबार और अनय पत-पितकाएँ पढने को समय िमलता है , मन मिसतषक को
िवकृ त करने वाले तथा वयसन, फैशन और िवकार उभारने वाले चलिचत व चैनल दे खने को समय
िमलता है , फालतू गपशप लगाने को समय िमलता है , शरीर को बीमार करने वाले अशुद खानपान के िलए समय िमलता है , वयसनो के मोह मे पडकर मतृयु के कगार पर खडे होने के िलए समय िमलता है
लेिकन सतशास पढने के िलए, धयान-साधना करके तन को तनदर ु सत, मन को
पसनन और बुिद को बुिददाता मे लगाने के िलए उनके पास समय ही नहीं है । खुद की, समाज की, राष की उननित मे सहभागी होने की उनमे रिच ही नहीं है ।
हे भारत के युवानो ! इस िवषय मे गंभीरता से सोचने का समय आ गया है । तुम इस
दे श के कणध श ार हो। तुमहारे संयम, तयाग, सचचिरतता, समझ और सिहषणुता पर ही भारत की उननित िनभरश है ।
वक ृ , कीट, पशु, पकी आिद योिनयो मे जीवन पकृ ित के िनयमानुसार चलता है ।
उनहे
अपने िवकास की सवतंतता नहीं होती है लेिकन तुम मनुषय हो। मनुषय जनम मे कम श करने की
सवतनतता होती है । मनुषय अपनी उननित के िलए पुरषाथ श कर सकता है , कयोिक परमातमा ने उसे समझ दी है , िववेक िदया है ।
अगर तुम चाहते हो सफल उदोगपित, सफल अिभयंता, सफल िचिकतसक, सफल नेता
आिद बनकर राष के िवकास मे सहयोगी हो सकते हो, साथ ही िकसी बहवेता महापुरष का सतसंग-सािननधय तथा मागद श शन श पाकर अपने िशवतव मे भी जाग सकते हो। इसीिलए तुमहे यह मानव तन िमला है ।अनुकम
भतह शृ िर ने भी कहा है ः यावतसवसथिम दं कल ेवर गृ हं यावच च द ू रे जरा
यावचच ेिनदय शिकरप ितहता यावतकयो
नाय ुषः।
आत मश े य िस तावद ेव िवद ु षा काय श ः प यतो म हान ् पोदीप े भवन े च कूपखनन ं प तयु दम ः कीदश ः।।
"जब तक काया सवसथ है और वद ृ ावसथा दरू है , इिनदयाँ अपने-अपने कायो को करने मे
अशक नहीं हुई है तथा जब तक आयु नि नहीं हुई है , तब तक िवदान पुरष को अपने शय े के िलए पयतशील रहना चािहए। घर मे आग लग जाने पर कुआँ खोदने से कया लाभ?"
(वैराग यशत कः 75)
अतः हे महान दे श के वासी ! बुढापा, कमजोरी व लाचारी आ घेरे, उसके पहले अपनी
िदवयता को, अपनी महानता को, महान पद को पा लो, िपय !
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
माथ े पर तो भारत ही रह
ेगा
अपने ढाई वष श के अमरीकी पवास मे सवामी रामतीथ श को भेटसवरप जो पचुर धनरािश
िमली थी, वह सब उनहोने अनय दे शो के बुभुिकतो के िलए समिपत श कर दी। उनके पास रह गयी
केवल एक अमरीकी पोशाक। सवामी राम ने अमरीका से वापस लौट आने के बाद एक वह पोशाक पहनी। कोट पैट तो पहनने के बजाय उनहोने कंधो से लटका िलये और अमरीकी जूते
पाँव मे डालकर खडे हो गये, िकंतु कीमती टोपी की जगह उनहोने अपना सादा साफा ही िसर पर बाँधा।
जब उनसे पूछा गया िक 'इतना सुंदर है ट तो आपने पहना ही नहीं?' तो बडी मसती से
उनहोने जवाब िदयाः 'राम के िसर माथे पर तो हमेशा महान भारत ही रहे गा, अलबता अमरीका पाँवो मे पडा रह सकता है ....' इतना कह उनहोने नीचे झुककर मातभ ृ िू म की िमटटी उठायी और उसे माथे पर लगा िलया।अनुकम
ॐॐॐॐ
धमश िनष देश भक केशवराव
हेडग ेवार
िवदालय मे बचचो को िमठाई बाँटी जा रही थी। जब एक 11 वष श के बालक
केशव
को िमठाई का टु कडा िदया गया तो उसने पूछाः "यह िमठाई िकस बात की
है ?" का धनी होगा।
कैसा बुिदमान रहा होगा वह बालक ! जीभ का लंपट नहीं वरन ् िववेक िवचार
बालक को बताया गयाः "आज महारानी िवकटोिरया का बथ श डे (जनमिदन) है इसिलए
खुशी मनायी जा रही है ।"
बालक ने तुरंत िमठाई के टु कडे को नाली मे फेक िदया और कहाः "रानी िवकटोिरया अंगेजो की रानी है और उन अंगजो ने हमको गुलाम बनाया है । गुलाम बनाने वालो के जनमिदन की खुिशयाँ हम कयो मनाये? हम तो खुिशयाँ तब मनायेगे जब हम अपने दे श भारत को आजाद करा लेगे।"
वह बुिदमान बालक केशव जब नागपुर के 'नीलिसटी हाई सकूल' मे पढता था, तब उसने
दे खा िक अंगेज जोर जुलम करके हमे हमारी संसकृ ित से, हमारे धम श से, हमारी मातभ ृ िक से दरू कर रहे है । यहाँ तक िक वनद े मा तरम ् कहने पर भी पितबनध लगा िदया है !
वह धैयव श ान और बुिदमान लडका हर कका के पमुख से िमला और उनके साथ गुप बैठक
की। उसने कहाः "हम अपनी मातभ ृ िू म मे रहते है और अंगेज सरकार दारा हमे ही वनदे मातरम ् कहने से रोका जाता है । अंगेज सरकार की ऐसी-तैसी...."
जो िहममतवान और बुिदमान लडके थे उनहोने केशव का साथ िदया और सभी ने
िमलकर तय िकया िक कया करना है । लेिकन 'यह बात गुप रखनी है और नेता का नाम नहीं लेना है ।' यह बात पतयेक कका-पमुख ने तय कर ली।
जयो ही सकूल का िनरीकण बडा अिधकारी और कुछ लोग केशव की कका मे आये , तयो
ही उसके साथ कका के सभी बचचे खडे हो गये और बोल पडे ः वनद े मा तरम ् ! िशकक भारतीय तो थे लेिकन अंगेजो की गुलामी से जकडे हुए, अतः चौके। िनरीकक हडबडाकर बोलेः यह कया बदतमीजी है ? यह वनदे मातरम ् िकसने िसखाया? उसको खोजो पकडो।
दस ू री कका मे गये। वहाँ भी बचचो ने खडे होकर कहाः वनदे मातरम ् ! अिधकारीः ये भी िबगड गये?
सकूल की हर एक कका के िवदािथय श ो ने ऐसा ही िकया।
अंगेज अिधकारी बौखला गया और िचललायाः 'िकसने दी यह सीख?' सब बचचो से कहा गया परं तु िकसी ने नाम नहीं बताया। अिधकारी ने कहाः "तुम सबको सकूल से िनकाल दे गे।"
बचचे बोलेः "तुम कया िनकालोगे? हम ही चले। िजस सकूल मे हम अपनी मातभ ृ ूिम की
वंदना न कर सके, वनदे मातरम ् न कह सके – ऐसे सकूल मे हमे नहीं पढना।
उन दि ु अिधकािरयो ने सोचा िक अब कया करे ? िफर उनहोने बचचो के माँ बाप पर दबाव
डाला िक बचचो को समझाओ, िसखाओ तािक वे माफी माँग ले। केशव के माता िपता ने कहाः "बेटा ! माफी माँग लो।"
केशवः "हमने कोई गुनाह नहीं िकया तो माफी कयो माँगे?" िकसी ने केशव से कहाः "दे शसेवा और लोगो को जगाने की बात इस उम मे मत करो,
अभी तो पढाई करो।"अनुकम
केशवः "बूढे-बुजग ु श और अिधकारी लोग मुझे िसखाते है िक दे शसेवा बाद मे करना। जो काम आपको करना चािहए वह आप नहीं कर रहे है , इसिलए हम बचचो को करना पडे गा। आप मुझे अकल दे ते है ? अंगेज हमे दबोच रहे है , हमे गुलाम बनाये जा रहे है तथा िहनदओ ु ं का
धमात ा रण कराये जा रहे है और आप चुपपी साधे जुलम सह रहे है ? आप जुलम के सामने लोहा लेने का संकलप करे तो पढाई मे लग जाऊँगा, नहीं तो पढाई के साथ दे श की आजादी की पढाई भी मै पढू ँ गा और दस श ो को भी मजबूत बनाऊँगा।" ू रे िवदािथय
आिखर बडे -बूढे-बुजग ु ो को कहना पडाः "यह भले 14 वष श का बालक लगता है लेिकन है
कोई होनहार।" उनहोने केशव की पीठ थपथपाते हुए कहाः "शाबाश है , शाबाश!"
"आप मुझे शाबाशी तो दे ते है लेिकन आप भी जरा िहममत से काम ले। जुलम करना तो
पाप है लेिकन जुलम सहना दग ु ना पाप है ।"
केशव ने बूढे-बुजग ु ो को सरलता से, नमता से, धीरज से समझाया। डे ढ महीने बाद वह सकूल चालू हुई। अंगेज शासक 14 वषीय बालक का लोहा मान गये
िक उसके आगे हमारे सारे षडयंत िवफल हो गये। उस लडके के पाँच िमत थे। वैसे ये पाँच िमत रहते तो सभी िवदािथय श ो के साथ है , लेिकन अकलवाले िवदाथी ही उनसे िमतता करते है । वे पाँच िमत कौन से है ?
िवदा शौय श च दाकय ं च ब लं ध ैय ा च प ं चकम।् िमतािण स हज नयाह ु ः वत श िनत एव
ितब ुश धाः।।
िवदा, शूरता, दकता, बल और धैयश – ये पाँच िमत सबके पास है । अकलवाले िवदाथी इनका
फायदा उठाते है , लललू-पंजू िवदाथी इनसे लाभ नहीं उठा पाते।
केशव के पास ये पाँचो िमत थे। वह शतु और िवरोिधयो को भी नमता और दकता से
समझा-बुझाकर अपने पक मे कर लेता था।
एक बार नागपुर के पास यवतमाल (महाराष) मे केशव अपने सािथयो के साथ कहीं
टहलने जा रहा था। उस जमाने मे अंगेजो का बडा दबदबा था। वहाँ का अंगेज कलेकटर तो इतना िसर चढ गया था िक कोई भी उसको सलाम मारे िबना गुजरता तो उसे दं िडत िकया जाता था।
सैर करने जा रहे केशव और उसके सािथयो को वही अंगेज कलेकटर सामने िमला। बडी-
बडी उम के लोग उसे पणाम कर रहे थे। सबने केशव से कहाः "अंगेज कलेकटर साहब आ रहे है । इनको सलाम करो।"
उस 15-16 वषीय केशव ने पणाम नहीं िकया। कलेकटर के िसपािहयो ने उसे पकड िलया
और कहाः "तू पणाम कयो नहीं करता? साहब तेरे से बडे है ।"
केशवः "मै इनको पणाम कयो करँ? ये कोई महातमा नहीं है , वरन ् सरकारी नौकर है ।
अगर अचछा काम करते तो आदर से सलाम िकया जाता, जोर जुलम से पणाम करने की कोई जररत नहीं है ।"
िसपाहीः "अरे बालक ! तुझे पता नहीं, सभी लोग पणाम करते है और तू ऐसी बाते बोलता
है ?" अनुकम
कलेकटर गुराक श र दे खने लगा। अंगेज कलेकटर की तरफ पेम की िनगाह डालते हुए केशव
ने कहाः "पणाम भीतर के आदर की चीज होती है । जोर जुलम से पणाम करना पाप माना जाता है , िफर आप मुझे कयो जोर-जबरदसती करके पाप मे डालते हो? िदखावटी पणाम से आपको कया फायदा होगा?" है ।"
अंगेज कलेकटर का िसर नीचा हो गया, बोलाः "इसको जाने दो, यह साधारण बालक नहीं 15-16 वषीय बालक की कैसी दकता है िक दशुमनी के भाव से भरे कलेकटर को भी िसर
नीचे करके कहना पडाः 'इसको जाने दो।'
यवतमाल मे यह बात बडी तीव गित से फैल गयी और लोग वाहवाही करने लगेः 'केशव
ने कमाल कर िदया ! आज तक जो सबको पणाम करवाता था, सबका िसर झुकवाता था, केशव ने उसी का िसर झुकवा िदया !'
पढते-पढते आगे चलकर केशव मेिडकल कॉलेज मे भती हुआ। मेिडकल कॉलेज मे सुरेद
घोष नामक एक बडा लंबा तगडा िवदाथी था। वह रोज 'पुल अपस' करता था और दं ड-बैठक भी लगाता था। अपनी भुजाओं पर उसे बडा गवश था िक 'अगर एक घूँसा िकसी को लगा दँ ू तो दस ू रा न मांगे।'
एक िदन कॉलेज मे जब उसने केशव की पशंसा सुनी तब वह केशव के सामने गया और
बोलाः
"कयो रे ! तू बडा बुिदमान, शौयव श ान और धैयव श ान होकर उभर रहा है । है शूरता तो मुझे
मुकके मार, मै भी तेरी ताकत दे खूँ।"
केशवः "नहीं-नहीं, भैया ! मै आपकी नहीं मारँ गा। आप ही मुझे मुकके मािरये।" ऐसा
कहकर केशव ने अपनी भुजा आगे कर दी।
वह जो पुल अपस करके, कसरत करके अपने शरीर को मजबूत बनाता था, उसने मुकके
मारे – एक, दो, तीन.... पाँच... पनदह.. पचचीस... तीस.... चालीस.... मुकके मारते-मारते आिखर सुरेनद
घोष थक गया, पसीने से तर-बतर हो गया। दे खने वाले लोग चिकत हो गये। आिखर सुरेनद ने कहाः
"तेरा शरीर हाड-मांस का है िक लोहे का? सच बता, तू कौन है ? मुकके मारते-मारते मै थक
गया पर तू उफ तक नहीं करता?
पाणायाम का रहसय जाना होगा केशवराव ने ! आतमबल बचपन से ही िवकिसत था। दशुमनी के भाव से भरा सुरेद घोष केशव का िमत बन गया और गले लग गया।
कलकता के पिसद मौलवी िलयाकत हुसैन 60 साल के थे और नेतािगरी मे उनका बडा
नाम था। नेतािगरी से उनको जो खुिशयाँ िमलती थी, उनसे वे 60 साल के होते हुए भी चलने, बोलने और काम करने मे जवानो को भी पीछे कर दे ते थे।अनुकम
मौलवी िलयाकत हुसैन ने केशवराव को एक सभा मे दे खा। उस सभा मे िकसी ने भाषण
मे लोकमानय ितलक के िलए कुछ हलके शबदो का उपयोग िकया। दे शभिक से भरे हुए
लोकमानय ितलक के िलए हलके शबद बोलने और भारतीय संसकृ ित को वनद े मा तरम ् कर के िनहारनेवालो लोगो को खरी-खोटी सुनाने की जब उसने बदतमीजी की तो युवक केशव उठा, मंच पर पहुँचा और उस वका का कान पकड कर उसके गाल पर तीन तमाचे जड िदय।
आयोजक तथा उनके आदमी आये और केशव का हाथ पकडने लगे। केशव ने हाथ
पकडने वाले को भी तमाचे जड िदये। केशव का यह शौयश, दे शभिक और आतमिनभरशता दे खकर मौलवी िलयाकत हुसैन बोल उठे ः
"आफरीन है , आफरीन है ! भारत के लाल ! आफरीन है ।"
िलयाकत हुसैन दौड पडे और केशव को गले लगा िलया, िफर बोलेः "आज से आप और
हम िजगरी दोसत ! मेरा कोई भी कायक श म होगा, उसमे मै आपको बुलाऊँ तो कया आप आयेगे?" केशवः "कयो नहीं भैया ! हम सब भारतवासी है ।"
जब भी िलयाकत हुसैन कायक श म करते, तब केशव को अवशय बुलाते और केशव अपने
सािथयो सिहत भगवा धवज लेकर उनके कायक श म मे जाते। वहाँ वनद े मा तरम ् की धविन से आकाश गूँज उठता था।
यह साहसी, वीर, िनडर, धैयव श ान और बुिदमान बालक केशव और कोई नहीं, केशवराव
बिलराम हे डगेवार ही थे, िजनहोने आगे चलकर राषीय सवयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) की सथापना की, िजनके संसकार आज दिुनयाभर के बचचो और जवानो के िदल तक पहुँच रहे है । अनुकम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
भाई मित दास की धम श िनषा औरं गजेब ने पूछाः "मितदास कौन है ?"....तो भाई मितदास ने आगे
बढकर कहाः "मै हूँ मितदास। यिद गुरजी आजा दे तो मै यहाँ बैठे-बैठे ईट बजा सकता हूँ।"
िदलली और लाहौर का सभी हाल बता सकता हूँ। तेरे िकले की ईट-से-
औरं गजेब गुराय श ा और उसने भाई मितदास को धमश-पिरवतन श करने के िलए िववश करने
के उदे शय से अनेक पकार की यातनाएँ दे ने की धमकी दी। खौलते हुए गरम तेल के कडाहे
िदखाकर उनके मन मे भय उतपनन करने का पयत िकया, परं तु धमव श ीर पुरष अपने पाणो की िचनता नहीं िकया करते। धमश के िलए वे अपना जीवन उतसगश कर दे ना शष े समझते है ।
जब औरं गजेब की सभी धमिकयाँ बेकार गयीं, सभी पयत असफल रहे , तो वह िचढ गया।
उसने काजी को बुलाकर पूछाः
"बताओ इसे कया सजा दी जाये?" काजी ने कुरान की आयतो का हवाला दे कर हुकम सुनाया िक 'इस कािफर को इसलाम
गहण न करने के आरोप मे आरे से लकडी की तरह चीर िदया जाये।'
औरं गजेब ने िसपािहयो को काजी के आदे श का पालन करने का हुकम जारी कर िदया।
िदलली के चाँदनी चौक मे भाई मितदास को दो खंभो के बीच रससो से कसकर बाँध िदया गया और िसपािहयो ने ऊपर से आरे के दारा उनहे चीरना पारं भ िकया। िकंतु उनहोने 'सी' तक नहीं की। औरं गजेब ने पाँच िमनट बाद िफर कहाः "अभी भी समय है । यिद तुम इसलाम कबूल
कर लो, तो तुमहे छोड िदया जायेगा और धन-दौलत से मालामाल कर िदया जायेगा।" वीर मितदास ने िनभय श होकर कहाः
"मै जीते जी अपना धमश नहीं छोडू ँ गा।"
ऐसे थे धमव श ीर मितदास ! जहाँ आरे से िचरवाया गया, आज वह चौक 'भाई मितदास चौक' के नाम से पिसद है ।अनुकम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सवधम े िनधन ं श े यः ...... पतयेक मनुषय को अपने धम श के पित शदा और आदर होना चािहए। भगवान शीकृ षण ने भी कहा है ः
शे यानसव धमो िव गुणः परध माश तसवन ुिषतात। ् सवध मे िनधन ं श े यः परधमो भयावह
ः।।
'अचछी पकार आचरण मे लाये हुए दस ू रे के धम श से गुणरिहत भी अपना धम श अित उतम
है । अपने धमश मे तो मरना भी कलयाणकारक है और दस ू रे का धमश भय को दे ने वाला है ।' (गीताः
3.35)
जब भारत पर मुगलो का शासन था, तब की यह घिटत घटना है ः ने िमलकर उसे
गािलयाँ दीं। पहले तो वह चुप रहा। वैसे भी सहनशीलता तो िहनदओ ु ं का गुण है ही... िकंतु जब
उन उदं ड बचचो ने गुरओं के नाम की और झूलेलाल व गुरनानक के नाम की गािलयाँ दे नी शुर कीं, तब उस वीर बालक से अपने गुर और धमश का अपमान से सहा नहीं गया।
हकीकत राय ने कहाः "अब हद हो गयी ! अपने िलए तो मैने सहनशिक को
उपयोग िकया लेिकन मेरे धमश, गुर और भगवान के िलए एक भी शबद बोलोगे तो यह मेरी सहनशिक से बाहर की बात है । मेरे पास भी जुबान
है । मै भी तुमहे बोल सकता हूँ।"
उदं ड बचचो ने कहाः "बोलकर तो िदखा ! हम तेरी खबर ले लेगे।" हकीकत राय ने भी उनको दो-चार कटु शबद सुना िदये। बस, उनहीं दो-चार शबदो को
सुनकर मुलला-मौलिवयो को खून उबल पडा। वे हकीकत राय को ठीक करने का मौका ढू ँ ढने लगे। सब लोग एक तरफ और हकीकत राय अकेला दस ू रा तरफ।
उस समय मुगलो का ही शासन था, इसिलए एकितत राय को जेल मे कैद कर िदया
गया।
मुगल शासको की ओर हकीकत राय को यह फरमान भेजा गया िक 'अगर तुम कलमा
पढ लो और मुसलमान बन जाओ तो तुमहे अभी माफ कर िदया जायेगा और यिद तुम मुसलमान नहीं बनोगे तो तुमहारा िसर धड से अलग कर िदया जायेगा।'
हकीकत राय के माता-िपता जेल के बाहर आँसू बहा रहे थेः "बेटा ! तू मुसलमान बन जा।
कम से कम हम तुमहे जीिवत तो दे ख सकेगे !" .....लेिकन उस बुिदमान िसंधी बालक ने कहाः "कया मुसलमान बन जाने के बाद मेरी मतृयु नहीं होगी?" माता-िपताः "मतृयु तो होगी ही।"
हकीकत रायः ".... तो िफर मै अपने धमश मे ही मरना पसंद करँ गा। मै जीते जी दस ू रो का
धमश सवीकार नहीं करँगा।"
कूर शासको ने हकीकत राय की दढता दे खकर अनेको धमिकयाँ दीं लेिकन उस बहादरु
िकशोर पर उनकी धमिकयो का जोर न चल सका। उसके दढ िनशय को पूरा राजय-शासन भी न िडगा सका।
अंत मे मुगल शासक ने उसे पलोभन दे कर अपनी ओर खींचना चाहा लेिकन वह बुिदमान
व वीर िकशोर पलोभनो मे भी नहीं फँसा।
आिखर कूर मुसलमान शासको ने आदे श िदया िक 'अमुक िदन बीच मैदान मे हकीकत
राय का िशरोचछे द िकया जायेगा।'
उस वीर हकीकत राय ने गुर का मंत ले रखा था। गुरमंत जपते-जपते उसकी बुिद सूकम
हो गयी थी वह 14 वषीय िकशोर जललाद के हाथ मे चमचमाती हुई तलवार दे खकर जरा भी
भयभीत न हुआ वरन ् अपने गुर के िदये हुए जान को याद करने लगे िक 'यह तलवार िकसको मारे गी? मार-मारकर इस पाँचभौितक शरीर को ही तो मारे गी और ऐसे पंचभौितक शरीर तो कई
बार िमले और कई बार मर गये। ....तो कया यह तलवार मुझे मारे गी? नहीं मै तो अमर आतमा हूँ... परमातमा का सनातन अंश हूँ। मुझे यह कैसे मार सकती है ? ॐ....ॐ....ॐ...
हकीकत राय गुर के इस जान का िचनतन कर रहा था, तभी कूर कािजयो ने जललाद को तलवार चलाने का आदे श िदया। जललाद ने तलवार उठायी लेिकन उस िनदोष बालक को दे खकर उसकी अंतरातमा थरथरा उठी। उसके हाथो से तलवार िगर पडी और हाथ काँपने लगे। काजी बोलेः "तुझे नौकरी करनी है िक नहीं? यह तू कया कर रहा है ?" अनुकम
तब हकीकत राय ने अपने हाथो से तलवार उठायी और जललाद के हाथ मे थमा दी। िफर वह िकशोर आँखे बंद करके परमातमा का िचनतन करने लगाः 'हे अकाल पुरष ! जैसे साँप केचुली का तयाग करता है , वैसे ही मै यह नशर दे ह छोड रहा हूँ। मुझे तेरे चरणो की पीित दे ना तािक मै तेरे चरणो मे पहुँच जाऊँ .... िफर से मुझे वासना का पुतला बनकर इधर-उधर न भटकना पडे .... अब तू मुझे अपनी ही शरण मे रखना.... मै तेरा हूँ... तू मेरा है .... हे मेरे अकाल पुरष !'
इतने मे जललाद ने तलवार चलायी और हकीकत राय का िसर धड से अलग हो गया।
हकीकत राय ने 14 वष श की छोटी सी उम मे धम श के िलए अपनी कुबान श ी दे दी। उसने शरीर छोड िदया लेिकन धमश न छोडा।
गुर त ेगबहाद ु र बोिलया ,
सुन ो िस खो ! बडभािगया , धड दीज े धर म न छो िडय े ....
हकीकत राय ने अपने जीवन मे यह वचन चिरताथश करके िदखा िदया।
हकीकत राय तो धम श के िलए बिलवेदी पर चढ गया लेिकन उसकी कुबान श ी ने समाज क
हजारो-लाखो जवानो मे एक जोश भर िदया िक 'धम श की खाितर पाण दे ने पडे तो दे गे लेिकन िवधिमय श ो के आगे कभी नहीं झुकेगे। अपने धम श मे भले भूखे मारना पडे तो भी सवीकार है लेिकन परधमश की सभी सवीकार नहीं करे गे।'
ऐसे वीरो के बिलदान के फलसवरप ही हमे आजादी पाप हुई है और ऐसे लाखो-लाखो
पाणो की आहुित दारा पाप की गयी इस आजादी को हम कहाँ वयसन, फैशन और चलिचतो से पभािवत होकर गँवा न दे ! अब दे शवािसयो को सावधान रहना होगा।अनुकम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
धमश के िलए बिलदान
देन े वाल े चार अमर
शहीद धनय है पंजाब की माटी जहाँ समय-समय पर अनेक महापुरषो का मे
है ?
पादभ श हुआ ! धमश की पिवत यजवेदी मे बिलदान दे ने वालो की परं परा ु ाव गुर गोिवंदिसंह के चार लाडलो को, अमर शहीदो को भारत भूल सकता
नहीं, कदािप नहीं। अपने िपतामह गुर तेगबहादरु की कुबान श ी और भारत
की सवतंतता के िलए संघषरशत िपता गुर गोिवनदिसंह ही उनके आदश श थे। तभी तो 8-10 वष श की
छोटी सी अवसथा मे उनकी वीरता र धमप श रायणता को दे खकर भारतवासी उनके िलए शदा से नतमसतक हो उठते है ।
गुरगोिवंदिसंह की बढती हुई शिक और शूरता को दे खकर औरं गजेब झुँझलाया हुआ था।
उसने शाही फरमान िनकाला िक 'पंजाब के सभी सूबो के हािकम और सरदार तथा पहाडी राजा िमलकर आनंदपुर को बरबाद कर डालो और गुर गोिवंदिसंह को िजंदा िगरफतार करो या उनका िसर काटकर शाही दरबार मे हािजर करो।'
बस िफर कया था? मुगल सेना दारा आनंदपुर पर आकमण कर िदया गया। आनंदपुर के िकले मे रहते हुए मुटठीभर िसकख सरदारो की सेना ने िवशाल मुगल सेना को भी तसत कर िदया। िकंतु धीरे -धीरे
रसद-सामान घटने लगा और िसकख सेना भूख से वयाकुल हो उठी।
आिखरकार अपने सािथयो के िवचार से बाधय होकर अनुकूल अवसर पाकर गुरगोिवंदिसंह ने आधी रात मे सपिरवार िकला छोड िदया।
.....िकंतु न जाने कहाँ से यवनो को इसकी भनक िमल गयी और दोनो सेनाओं मे हलचल
मच गयी। इसी भागदौड मे गुर गोिवनदिसंह के पिरवार वाले अलग होकर भटक गये। गुर
गोिवंदिसंह की माता अपने दो छोटे -छोटे पौतो, जोरावरिसंह और फतेहिसंह के साथ दस ू री ओर िनकल पडी। उनके साथ रहने वाले रसोइये के िवशासघात के कारण ये लोग िवपिकयो दारा
िगरफतार िकये गये और सूबा सरिहं द के पास भेज िदये गये। सूबेदार ने गुर गोिवनदिसंह के हदय पर आघात पहुँचाने के खयाल से उनके दोनो छोटे बचचो को मुसलमान बनाने का िनशय िकया।
भरे दरबार मे गुर गोिवनदिसंह के इन दोनो पुतो से सूबेदार ने पूछाः "ऐ बचचो ! तुम
लोगो को दीन(मजहब) इसलाम की गोद मे आना मंजूर है या कतल होना?" दो-तीन बार पूछने पर जोरावरिसंह ने जवाब िदयाः "हमे कतल होना मंजूर है ।"
कैसी िदलेरी है ! िकतनी िनभीकता ! िजस उम मे बचचे िखलौनो से खेलते रहते है , उस
ननहीं सी सुकुमार अवसथा मे भी धमश के पित इन बालको की िकतनी िनषा है !
वजीद खाँ बोलाः "बचचो ! दीन इसलाम मे आकर सुख से जीवन वयतीत करो। अभी तो
तुमहारा फलने-फूलने का समय है । मतृयु से भी इसलाम धम श को बुरा समझते हो? जरा सोचो ! अपनी िजंदगी वयथश कयो गँवा रहे हो?"
गुर गोिवंदिसंह के लाडले वे वीर पुत... मानो गीता के इस जान को उनहोने पूरी तरह
आतमसात ् कर िलया थाः सवध मे िन धनं शे यः
पर धमो
भयावह ः।
जोरावरिसंह ने कहाः
"िहनद ू धम श से बढकर संसार मे कोई धम श नहीं। अपने धम श पर अिडग रहकर मरने से बढकर सुख दे ने वाला दिुनया मे कोई काम नहीं। अपने धम श की मयाद श ा पर िमटना तो हमारे कुल की
रीित है । हम लोग स कणभंगुर जीवन की परवाह नहीं करते। मर-िमटकर भी धम श की रका करना ही हमारा अंितम धयेय है । चाहे तुम कतल करो या तुमहारी जो इचछा हो, करो।" गुर गो िवनद िसंह के प ुत महान , न छोडा ध मश हु ए कुबा श न .........
इसी पकार फतेहिसंह ने भी धम श को न तयागकर बडी िनभीकतापूवक श मतृयु का वरण शय े सकर समझा। शाही सलतनत आशयच श िकत हो उठी िक 'इस ननहीं-सी आयु मे भी अपने धमश
के पित िकतनी अिडगता है ! इन ननहे -ननहे सुकुमार बालको मे िकतनी िनभीकता है !' िकंतु अनयायी शासक को भला यह कैसे सहन होता? कािजयो और मुललाओं की राय से इनहे जीते -जी दीवार मे िचनवाने का फरमान जारी कर िदया गया।अनुकम
कुछ ही दरूी पर दोनो भाई दीवार मे िचने जाने लगे तब धमाध ा सूबेदार ने कहाः "ऐ
बालको ! अभी भी चाहो तो तुमहारे पाण बच सकते है । तुम लोग कलमा पढकर मुसलमान धमश सवीकार कर लो। मै तुमहे नेक सलाह दे ता हूँ।"
यह सुनकर वीर जोरावरिसंह गरज उठाः "अरे अतयाचारी नराधम ! तू कया बकता है ? मुझे
तो खुशी है िक पंचम गुर अजुन श दे व और दादागुर तेगबहादरु के आदशो को कायम करने के िलए मै अपनी कुबान श ी दे रहा हूँ तेरे जैसे अतयाचािरयो से यह धमश िमटनेवाला नहीं, बिलक हमारे खून से वह सींचा जा रहा है और आतमा तो अगर है , इसे कौन मार सकता है ?"
दीवार शरीर को ढकती हुई ऊपर बढती जा रही थी। छोटे भाई फतेहिसंह की गदश न तक
दीवार आ गयी थी। वह पहले ही आँखो से ओझल हो जाने वाला था। यह दे खकर जोरावरिसंह
की आँखो मे आँसू आ गये। सूबेदार को लगा िक अब मुलिजम मतृयु से भयभीत हो रहा है । अतः मन ही मन पसनन होकर बोलाः "जोरावर ! अब भी बता दो तुमहारी कया इचछा है ? रोने से कया लाभ होगा?"
जोरावर िसंहः "मै बडा अभागा हूँ िक अपने छोटे भाई से पहले मैने जनम धारण िकया,
माता का दध ू और जनमभूिम का अनन जल गहण िकया, धम श की िशका पायी िकंतु धम श के िनिमत जीवन-दान दे ने का सौभागय मुझसे पहले मेरे छोटे भाई फतेह को पाप हो रहा है । मुझसे पहले मेरा छोटा भाई कुबान श ी दे रहा है , इसीिलए मुझ आज खेद हो रहा है ।"
लोग दं ग रह गये िक िकतने साहसी है ये बालक ! जो पलोभन िदये जाने और जुिलमयो
दारा अतयाचार िकये जाने पर भी वीरतापूवक श सवधमश मे डटे रहे ।
उधर गुर गोिवंदिसंह की पूरी सेना युद मे काम आ गयी। यह दे खकर उनके बडे पुत
अजीतिसंह से नहीं रहा गया और वे िपता के पास आकर बोल उठे ः
"िपताजी ! जीते जी बंदी होना कायरता है और भागना बुजिदली है । इनसे अचछा है
लडकर मरना। आप आजा करे , मै इन यवनो के छकके छुडा दँग ू ा या मतृयु का आिलंगन करँगा।" वीर पुत अजीतिसंह की बात सुनकर गोिवंदिसंह का हदय पसनन हो उठा और वे बोलेः
"शाबाश ! धनय हो पुत ! जाओ, सवदे श और सवधम श के िनिमत अपना कतवशयपालन करो। िहनद ू धमश को तुमहारे जैसे वीर बालको की कुबान श ी की आवशयकता है ।"
िपता से आजा पाकर अतयंत पसननता तथा जोश के साथ अजीतिसंह आठ-दस िसकखो
के साथ युद सथल मे जा धमका और दे खते ही दे खते यवन सेना के बडे -बडे सरदारो को मौत के घाट उतारते हुए खुद भी शहीद हो गया।अनुकम
ऐसे वीर बालको की गाथा से ही भारतीय इितहास अमर हो रहा है । अपने बडे भाइयो को
वीरगित पाप करते दे खकर उनसे छोटा भाई जुझारिसंह भला कैसे चुप बैठता? वह भी अपने िपता गुर गोिवंदिसंह के पास जा पहुँचा और बोलाः
"िपताजी ! बडे भैया तो वीरगित को पाप हो गये, इसिलए मुझे भी भैया का अनुगामी
बनने की आजा दीिजए।"
गुर गोिवनदिसंह का हदय भर आया और उनहोने उठकर जुझार को गले लगा िलया। वे
बोलेः "जाओ, बेटा ! तुम भी अमरपद पाप करो, दे वता तुमहारा इं तजार कर रहे है ।"
धनय है पुत की वीरता और धनय है िपता की कुबान श ी ! अपने तीन पुतो की मतृयु के
पशात ् सवदे श तथा सवधम श पालन के िनिमत अपने चौथे और अंितम पुत को भी पसननता से धमश और सवतनतता की बिलवेदी पर चढने के िनिमत सवीकृ ित पदान कर दी !
वीर जुझारिसंह 'सत ् शी अकाल' कहकर उछल पडा। उसका रोम-रोम शतु को परासत करने
के िलए फडकने लगा। सवयं िपता ने उसे वीरो के दे श से सुसिजजत करके आशीवाद श िदया और
वीर जुझार िपता को पणाम करके अपने कुछ सरदार सािथयो के साथ िनकल पडा युदभूिम की ओर। िजस ओर जुझार गया उस ओर दशुमनो का तीवता से सफाया होने लगा और ऐसा लगता
मानो महाकाल की लपलपाती िजहा सेनाओं को चाट रही है । दे खते-दे खते मैदान साफ हो गया। अंत मे शतुओं से जूझते-जूझते वह वीर बालक भी मतृयु की भेट चढ गया। दे खनेवाले दशुमन भी उसकी पशंसा िकये िबना न रह सके।
धनय है यह दे श ! धनय है वे माता-िपता िजनहोने इन चार पुतरतो को जनम िदया और
धनय है वे चारो वीर पुत िजनहोने दे श, धमश और संसकृ ित के रकणाथश अपने पाणो तक का उतसगश कर िदया।अनुकम
चाहे िकतनी भी िवकट पिरिसथित हो अथवा चाहे िकतनी भी बडे -बडे पलोभन आये, िकंतु
वीर वही है जो अपने धमश तथा दे श की रका के िलए उनकी परवाह न करते हुए अपने पाणो की भी बाजी लगा दे । वही वासतव मे मनुषय कहलाने योगय है । िकसी ने सच कहा है ः
िज सको नही ं िनज द ेश पर िनज जा ित पर अिभ मान है। वह नर नह ीं पर पश ु िनरा और म ृ त क समान ह ै।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
अमर श हीद गुर तेग बहाद ु रजी
धमश , देश के िहत म े िज सने प ूरा जीवन
इस द ु िनय ा म े उ सी मन ु ज न े नर तन
ल गा िदया।
को सा थश क िकया।।
िहनदसतान मे औरं गजेब का शासनकाल था। िकसी इितहासकार ने िलखा
है ः
'औरं गजेब ने यह हुकम िदया िक िकसी िहनद ू को राजय के कायश मे िकसी
उचच
सथान पर िनयत न िकया जाये तथा
िदया
िहनदओ ु ं पर जिजया (कर) लगा
जाय। उस समय अनेको नये कर केवल िहनदओ ु ं पर लगाये गये। इस
भय
से अनेको िहनद ू मुसलमान हो गये। िहनदओ ु ं के पूजा-आरती आिद सभी
धािमक श काय श बंद होने लगे। मंिदर िगराये गये, मसिजदे बनवायी गयीं और अनेको धमातशमा मरवा िदये गये। उसी समय की उिक है िक 'सवा मन यजोपवीत रोजाना उतरवा कर औरं गजेब रोटी खाता था....'
उसी समय कशमीर के कुछ पंिडतो ने आकर गुर तेगबहादरुजी से िहनदओ ु ं पर हो रहे
अतयाचार का वणन श िकया। तब गुर तेगबहादरुजी का हदय दवीभूत हो उठा और वे बोलेः
"जाओ, तुम लोग बादशाह से कहो िक हमारा पीर तेगबहादरु है । यिद वह मुसलमान हो
जाये तो हम सभी इसलाम सवीकार कर लेगे।"
पंिडतो ने वैसा की िकया जैसा िक शी तेगबहादरुजी ने कहा था। तब बादशाह औरं गजेब
ने तेगबहादरुजी को िदलली आने का बुलावा भेजा। जब उनके िशषय मितदास और दयाला औरं गजेब के पास पहुँचे तब औरं गजेब ने कहाः
"यिद तुम लोग इसलाम धमश कबूल नहीं करोगे तो कतल कर िदये जाओगे।" मितदासः "शरीर तो नशर है और आतमा का कभी कतल नहीं हो सकता।"
बोलाः
तब औरं गजेब ने कोिधत होकर मितदास को आरे से िचरवा िदया। यह दे खकर दयाला "औरं गजेब ! तूने बाबर वंश को और अपनी बादशािहयत को िचरवाया है ।" यह सुनकर औरं गजेब ने दयाला को िजंदा ही जला िदया।
औरं गजेब के अतयाचार का अंत नहीं आ रहा था। िफर गुरतेगबहादरुजी सवयं गये। उनसे
भी औरं गजेब ने कहाः यही िसर
"यिद तुम मुसलमान होना सवीकार नहीं करोगे तो कल तुमहारी भी दशा होगी।"
दस श ीष श शुकल पंचमी को) बीच चौराहे पर तेगबहादरुजी का ू रे िदन (मागश धड से अलग कर िदया गया। धम श के िलए एक संत कुबान श हो गये।
तेगबहादरुजी के बिलदान ने जनता मे रोष पैदा कर िदया। अतः लोगो मे बदला लेने की धुन सवार हो गयी। अनेको शूरवीर धम श के ऊपर नयोछावर होने को तैयार होने लगे। तेग बहादरुजी
के बिलदान ने समय को ही बदल िदया। ऐसे शूरवीरो का, धमप श ेिमयो का बिलदान ही भारत को दासता की जंजीरी से मुक करा सका है ।
दे श तो मुक हुआ िकंतु कया मानव की वासतिवक मुिक हुई? नहीं। िवषय-िवकार, ऐश-
आराम और भोग-िवलासरपी दासता से अभी भी वह आबद ही है और इस दासता से मुिक तभी िमल सकती है जब संत महापुरषो की शरण मे जाकर उनके बताये माग श पर चलकर मुिक पथ का पिथक बना जाय। तभी मानव-जीवन साथक श हो सकेगा।अनुकम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
धन छ ोडा पर धम श न छोडा ..... बंगाल के मालदा िजले के केनदरूपुर नामक गाँव मे एक नुमाई नाम का बालक था जो
बाद मे एक अचछे सवयंसेवक के रप मे पिसद हुआ। उसे बचपन मे एक बार जोरदार बुखार आ
गया और पैर मे चोट लग गयी। अनेको छोटे -मोटे इलाज करने पर बुखार तो िमट गया, िकंतु घाव िमटने का नाम नहीं ले रहा था।
आिखरकार थककर िकसी की सलाह से उसे बडे असपताल मे भती कर िदया गया। वह
असपताल ईसाई िमशनरी का था, अतः वहाँ उसके घाव को भरने के साथ-साथ नुमाई मे ईसाइयत
के संसकार भरने का भी पयास िकया जाने लगा। छोटे -से घाव को भरने के िलए उसे 5-6 महीने तक असपताल मे रखा तािक धीरे -धीरे उसका हदय ईसाइयत के संसकारो से भर जाये।
लेिकन वह बालक नुमाई अपने धम श पर अिडग रहा और बोलाः "मै िहनद ू हँ और िहनद ू
ही रहूँगा। तुमहारे चककर मे आकर मै ईसाई बनने वाला नहीं हूँ।"
अंितम पयास करते हुए ईसाई िमशनरीवालो ने उसके गरीब िपता से कहाः "इसके घाव
भरने मे 6 हजार रपये खच श हो गये है । तुम अपने लडके से कह दो िक वह ईसाइयत सवीकार
कर ले। अगर वह ईसाइयत सवीकार कर लेगा तो 6 हजार रपये माफ हो जायेगे, नहीं तो तुमहे वे रपये भरने पडे गे जबिक तुम तो गरीब हो। तुमहारे पास केवल 12 बीघा जमीन है । (उस समय एक बीघा जमीन की कीमत एक हजार रपये थी।) या तो तुम 6 बीघा जमीन दे दो जो िक तुमहारा भरण-पोषण का एक मात आधार है या नुमाई को ईसाइयत सवीकार करने के िलए राजी कर लो।"
तब िपता बोलाः "मै धन का गरीब हूँ लेिकन धम श का नहीं। धम श बेचने के िलए नहीं
होता। मै 6 बीघा जमीन बेचकर भी 6 हजार रपये तुमहे दे दँग ू ा।"
उस गरीब िपता ने 6 बीघा जमीन बेचकर रपये दे िदये, िकंतु धम श नहीं बेचा। उस बालक
ने िहनद ू रहकर ही अपना पूरा जीवन ईशर के रासते लगा िदया। िकतनी िनषा है सवधमश मे !
कभी भी अपने धम श का तयाग नहीं करना चािहए वरन ् अपने ही धम श मे अिडग रहकर,
अपने धमश का पालन करते हुए अपने धमश और अपनी संसकृ ित के गौरव की रका करनी चािहए। इसी मे हमारा कलयाण है ।अनुकम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सवधम श िनषा गीता मे कहा गया है ः
सवध मे िनधन ं श े यः परधमो भयावह
ः।
'अपने धमश मे मर जाना भी शय े सकर है िकंतु दस ू रे का धमश भयावह है ।' (गीताः
3.35)
िकसी को धमच श युत करने की चाहे कोई लाख कोिशश कयो न करे , यिद वह बुिदमान होगा तो न तो िकसी के पलोभन मे आयेगा न ही भय मे, वह तो हर कीमत पर अपने ही धम श मे अिडग रहे गा।
ईसाइयत वाले गाँव-गाँव जाकर पचार करते है िक 'हमारे धम श मे आ जाओ। हम तुमको
मुिक िदलायेगे।'
एक समझदार वद ृ सजजन ने उनहे पूछाः "मुिक कौन दे गा?"
"यीशु भगवान दे गे।"
"यीशु भगवान कौन है ?" "वे भगवान के बेटे है ।"
तब उस वद ृ सजजन ने कहाः "हम तो सीधे भगवान का जान पा रहे है , िफर भगवान के बेटे के पास कयो जाये? भगवान के बेटे मुिक कयो माँगे?"
इतना जान तो भारत का एक गामीण िकसान भी रखता है िक भगवान के बेटे से कया
मुिक माँगनी? िजस बेटे को खीले लगीं और जो खून बहाते-बहाते चला गया, उससे हम मुिक माँगे? इससे तो जो मुकातमा-परमातमा शीकृ षण िवघन-बाधाओं के बीच भी चैन की बंसी बजा रहे
है , िजनको दे खते ह िचनता गायब हो जाती है और पेम पकट होने लगता है , सीधा उनहीं से मुिक कयो न ले ले? भगवान के बेटे से हमको मुिक नहीं चािहए। हम तो भगवान से ही मुिक लेगे। कैसी उतम समझ है !
ॐ
भारत का एक बालक कानवेट सकूल मे अपना नाम खािरज करवाकर भारतीय पदित से
पढानेवाली शाला मे भती हो गया। उस लडके की दिि बडी पैनी थी। उसने दे खा िक शाला के पधानाचाय श कुता श और धोती पहन कर पाठशाला मे आते है । अतः वह भी अपनी पाठशाला की
पोशाक उतारकर धोती-कुते मे पाठशाला जाने लगा। उसे इस पकार जाते दे खकर िपता ने पूछाः "बेटा ! तूने यह कया िकया?"
बालकः "िपताजी ! यह हमारी भारतीय वेशभूषा है । दे श तब तक शाद-आबाद नहीं रह
सकता जब तक हम अपनी संसकृ ित का और अपनी वेशभूषा का आदर नहीं करते। िपता जी ! मैने कोई गलती तो नहीं की?"
िपताजीः "बेटा ! गलती तो नहीं की लेिकन ऐसा पहन कैसे िलया?"
बालकः "िपताजी ! हमारे पधानाचाय श यही पोशाक पहनते है । टाई, शटश , कोट, पैनट आिद तो ठणडे पदे शो की आवशयकता है । हमारा पदे श तो गरम है । हमारी वेशभूषा तो ढीली-ढाली ही होनी चािहए। यह वेशभूषा सवासथयपद भी है और हमारी संसकृ ित की पहचान भी।" िपता ने बालक को गले लगाया और कहाः
"बेटा ! तू बडा होन हार है । िकसी के िवचारो से तू दबना नहीं। अपने िवचारो को बुलंद रखना। बेटा ! तेरी जय-जयकार होगी।"अनुकम
पाठशाला मे पहुँचने पर अनय िवदाथी उसे दे खकर दं ग रह गये िक यह कया ! जब उस
बालक से पूछा गया िक 'तू पाठशाला की पोशाक पहनकर कयो नहीं आया?' तब उसने कहाः
"पाशातय दे शो मे ठणडी रहती है , अतः वहाँ शटश -पैनट आिद की जररत पडती है । ठणडी
हवा शरीर मे घुसकर सदी न कर दे , इसिलए वहाँ के लोग टाई बाँधते है । हमारे दे श मे तो गमी
है । िफर हम उनके पोशाक की नकल कयो करे ? जब हमारी पाठशाला के पधानाचाय श भारतीय पोशाक पहन सकते है तो भारतीय िवदाथी कयो नहीं पहन सकते?"
उस बालक ने अनय िवदािथय श ो को भी अपनी संसकृ ित के पित पोतसािहत िकया। उसने
दे खा िक कानवेट सकूल मे पादरी लोग िहनद ू धम श की िननदा करते है और माता-िपता की अवहे लना करना िसखाते है । हमारे शास कहते है - 'मा तृ देवो भव। िप तृ देवो भव। आचाय श देवो
भव। ' ....और अमेिरका मे कहते है िक 'माँ या बाप डाँट दे तो पुिलस को खबर कर दो।' जो
िशका माता-िपता को भी दं िडत करने की सीख दे , ऐसी िशका हम कयो पाये? हम तो भारतीय पदित से िशका दे नेवाली पाठशाला मे ही पढे गे।' ऐसा सोचकर उस बालक ने कानवेट सकूल से अपना नाम कटवाकर भारतीय िशका पदितवाली पाठशाला मे दजश करवाया था।
इतनी छोटी सी उम मे भी अपने राष का, अपने धम श का तथा अपनी संसकृ ित का आदर
करने वाले वे बालक थे सुभाषचंद बोस।
ॐ
एक पादरी िकसी कानवेट सकूल मे िवदािथय श ो के आगे िहनद ू धम श की िननदा कर रहा था
और अपनी ईसाइयत की डींग हाँक रहा था। इतने मे एक िहममतवान लडका उठ खडा हुआ और
पादरी को भी तौबा पुकारनी पडे , ऐसा सवाल िकया। लडके ने कहाः "पादरी महोदय ! कया आपका ईसाई धमश िहनद ू धमश की िननदा करना िसखाता है ?"
पादरी िनरतर हो गया, िफर थोडी दे र बाद कूटनीित से बोलाः "तुमहारा धमश भी तो िननदा करता है ।"अनुकम
उस लडके ने कहाः "हमारे धमग श नथ मे कहाँ िकसी धमश की िनंदा की गयी है ? गीता मे तो आता है ः न िह जान ेन सदशं पिव तिम ह िवदत े। 'इस संसार मे जान के समान पिवत करने वाला िनःसंदेह कुछ भी नहीं है ।'
(गीताः 4.38) गीता के एक-एक शबद मे मानवमात का उतथान करने का सामथय श छुपा हुआ है । ऐसा
जान दे नेवाली गीता मे कहाँ िकसी के धम श की िननदा की गयी है ? हमारे एक अनय धम श गंथ – रचियता भगवान वेदवयासजी का शोक भी सुन लोः
धमश यो बा धते न स ध मश ः कुवत मश तत।्
अिवरोधाद यो ध
मश ः स ध मश ः सतय िवक म।।
हे िवकम ! जो धम श िकसी दस ू रे धम श का िवरोध करता है , वह धम श नहीं कुमाग श है । धमश
वही है िजसका िकसी धमश से िवरोध नहीं है । पादरी िनरतर हो गया।
वही 10-11 साल का लडका आगे चलकर गीता, रामायण, उपिनषद आिद गंथो का अधययन करके एक पिसद धुरंधर दाशिशनक बना और भारत के राषपित पद पर शोभायमान हुआ। उसका नाम था डॉ. सवप श लली राधाकृ षणन।्
कैसी िहममत और कैसा साहस था भारत के उन ननहे -ननहे बचचो मे ! उनके साहस,
सवािभमान और सवधमश-पीित ने ही आगे चलकर उनहे भारत का पिसद नेता व दाशिशनक बना िदया।
जो धम श की रका करते है , धम श उनकी रका अवशय करता है । उठो, जागो, भारतवािसयो !
िवधिमय श ो की कुचालो और षडयंतो के कारण िफर से पराधीन होना पडे इससे पहले ही अपनी
संसकृ ित के गौरव को पहचानो। अपने राष की अिसमता की रका के िलए कमर कसकर तैयार हो जाओ। अब भी वक है ..... िफर कहीं पछताना न पडे । भगवान और भगवतपाप संतो की कृ पा तुमहारे साथ है िफर भय िकस बात का? दे र िकस बात की? शाबाश, वीर ! शाबाश...!! अनुकम ॐॐॐॐॐॐॐ
छतसाल क ी वीरता बात उस समय की है , जब िदलली के िसंहासन पर औरं गजेब बैठ चुका था।
िवंधयवािसनी दे वी के मंिदर मे मेला लगा हुआ था, जहाँ उनके दशन श हे तु लोगो की खूब
भीड जमी थी। पननानरे श छतसाल उस वक 13-14 साल के िकशोर थे। छतसाल ने सोचा िक
'जंगल से फूल तोडकर िफर माता के दशन श के िलए जाऊँ।' उनके साथ हम उम के दस ू रे राजपूत
बालक भी थे। जब वे जंगल मे फूल तोड रहे थे, उसी समय छः मुसलमान सैिनक घोडे पर सवार होकर वहाँ आये और उनहोने पूछाः "ऐ लडके ! िवंधयवािसनी का मंिदर कहाँ है ?"
छतसालः "भागयशाली हो, माता का दशन श करने के िलए जा रहे हो। सीधे... सामने जो
टीला िदख रहा है , वहीं मंिदर है ।"
सैिनकः "हम माता के दशन श करने नहीं जा रहे , हम तो मंिदर को तोडने के िलए जा रहे
है ।"
छतसाल ने फूलो की डिलया एक दस ू रे बालक को पकडायी और गरज उठाः "मेरे जीिवत
रहते हुए तुम लोग मेरी माता का मंिदर तोडोगे?"
सैिनकः "लडके तू कया कर लेगा? तेरी छोटी सी उम, छोटी-सी-तलवार.... तू कया कर
सकता है ?"
छतसाल ने एक गहरा शास िलया और जैसे हािथयो के झुड ं पर िसंह टू ट पडता है , वैसे ही
उन घुडसवारो पर वह टू ट पडा। छतसाल ने ऐसी वीरता िदखाई िक एक को मार िगराया, दस ू रा बेहोश हो गया.... लोगो को पता चले उसके पहले ही आधा दजन श सैिनको को मार भगाया। धमश की रका के िलए अपनी जान तक की परवाह नहीं की वीर छतसाल ने। भारत के ऐसे ही वीर सपूतो के िलए िकसी ने कहा है ः तुम अिगन की भीषण ल
पट , जलत े ह ु ए अ ंगार हो।
तु म च ंचला की द ुित च पल , तीखी पखर अिस धार हो। तु म खौलती जलिन
िध -लहर , गितमय पवन उनचास हो।
तुम राष क े इ ितहास हो , तु म का ं ित की आखयाियका। भैरव पलय क े गान हो , तुम इ नद के द ु दश मय प िव।
तु म िचर अ मर बिल दान हो , तु म कािल का के कोप हो। पशुप ित रद क े भ ू लास हो , तुम राष क े इ ितहास हो।
ऐसे वीर धमरशकको की िदवय गाथा यही याद िदलाती है िक दि ु बनो नहीं और दि ु ो से
डरो भी नहीं। जो आततायी वयिक बहू-बेिटयो की इजजत से खेलता है या दे श के िलए खतरा
पैदा करता है , ऐसे बदमाशो का सामना साहस के साथ करना चािहए। अपनी शिक जगानी चािहए। यिद तुम धम श और दे श की रका के िलए काय श करते हो तो ईशर भी तुमहारी सहायता करता है ।
'हिर ॐ.. हिर ॐ... िहममत... साहस... ॐ...ॐ...बल... शिक... हिर ॐ... ॐ... ॐ...' ऐसा
उचचारण करके भी तुम अपनी सोयी हुई शिक को जगा सकते हो। अभी से लग जाओ अपनी सुषुप शिक को जगाने के कायश मे और पभु को पाने मे।अनुकम ॐ
महाराणा पताप क
ी महानता
बात उन िदनो की है जब भामाशाह की सहायता से राणा पताप पुनः सेना एकत करके
मुगलो के छकके छुडाते हुए डू ं गरपुर, बाँसवाडा आिद सथानो पर अपना अिधकार जमाते जा रहे थे।
एक िदन राणा पताप असवसथ थे, उनहे तेज जवर था और युद का नेततृव उनके सुपुत कुँवर अमर िसंह कर रहे थे। उनकी मुठभेड अबदरुशहीम खानखाना
की
सेना से हुई। खानखाना और उनकी सेना जान बचाकर भाग खडी हुई। अमर
िसंह ने बचे हुए सैिनको तथा खानखाना पिरवार की मिहलाओं को वहीं कैद
कर
िलया। जब यह समाचार महाराणा को िमला तो वे बहुत कुद हुए और बोलेः
"िकसी सी पर राजप ूत हा थ उठाय े , यह मै सहन नही ं कर सकता। यह हमार े
िल ए डूब मरन े की बात ह ै। "
वे तेज जवर मे ही युद-भूिम के उस सथान पर पहुँच गये जहाँ खानखाना पिरवार की
मिहलाएँ कैद थीं।
राणा पताप खानखाना के बेगम से िवनीत सवर मे बोलेः
"खानखाना मेरे बडे भाई है । उनके िरशते से आप मेरी भाभी है । यदिप यह मसतक आज तक िकसी वयिक के सामने नहीं झुका, परं तु मेरे पुत अमर िसंह ने आप लोगो को जो कैद कर िलया और उसके इस वयवहार से आपको जो कि हुआ उसके िलए मै माफी चाहता हूँ और आप लोगो को ससममान मुगल छावनी मे पहुँचाने का वचन दे ता हूँ।"
उधर हताश-िनराश खानखाना जब अकबर के पास पहुँचा तो अकबर ने वयंगयभरी वाणी
से उसका सवागत िकयाः गये?"
"जनानखाने की युद-भूिम मे छोडकर तुम लोग जान बचाकर यहाँ तक कुशलता से पहुँच खानखाना मसतक नीचा करके बोलेः "जहाँपनाह ! आप चाहे िजतना शिमन श दा कर ले, परं तु
राणा पताप के रहते वहाँ मिहलाओं को कोई खतरा नहीं है ।" तब तक खानखाना पिरवार की मिहलाएँ कुशलतापूवक श वहाँ पहुँच गयीं।
यह दशय दे ख अकबर गंभीर सवर मे खानखाना से कहने लगाः "राणा पताप
ही
ने तुमहार े पिरवार
नह ीं , पूरे मुग ल खानदा न की
महानता
के आगे मेरा मसतक
की ब ेगमो को
इजजत
को
यो सस ममान पह ुँचाकर त ुमहारी
सममान
िदया
है।
राण ा पताप
झुका जा रहा है। राण ा पताप जैस े उदार
कोई ग ु लाम नही ं बना सकता। " अनुकम
ॐ
की
योद ा को
साह िसक लडका एक लडका काशी मे हिरशनद हाई सकूल मे पढता था। उसका गाँव काशी से 8 मील दरू
था। वह रोजाना वहाँ से पैदल चलकर आता, बीच मे जो गंगा नदी बहती है उसे पार करता और िफर िवदालय पहुँचता।
उस जमाने मे गंगा पार करने के िलए नाववाले को दो पैसे दे ने पडते थे।
दो
पैसे आने के और दो पैसे जाने के, कुल चार पैसे यानी पुराना एक आना।
से
भी कम था तब के दो रपये। आज के तो पाँच-पचचीस रपये हो जाये।
महीने मे करीब दो रपये हुए। जब सोने के एक तोले का भाव सौ रपयो
उस लडके ने अपने माँ-बाप पर अितिरक बोझा न पडे इसिलए एक भी
पैसे की माँग नहीं की। उसने तैरना सीख िलया। गमी हो, बािरश हो िक ठणडी हो गंगा पार करके हाई सकूल मे जाना उसका कम हो गया। ऐसा करते-करते िकतने ही महीने गुजर गये।
एक बार पौष मास की ठणडी मे वह लडका सुबह की सकूल भरने के िलए गंगा मे कूदा।
तैरते-तैरते मझधार मे आया। एक नाव मे कुछ याती नदी पार कर रहे थे। उनहोने दे खा िक छोटा सा लडका अभी डू ब मरे गा। वे नाव को उसके पास ले गये और हाथ पकडकर उसे नाव मे खींच
िलया। लडके के मुख पर घबराहट या िचनता का कोई िचनह नहीं था। सब लोग दं ग रह गये िक इतना छोटा है और इतना साहसी ! वे बोलेः
"तू अभी डू ब मरता तो? ऐसा साहस नहीं करना चािहए।" तब लडका बोलाः "साहस तो होना ही चािहए ही। अगर अभी से साहस नहीं जुटाया तो
जीवन मे बडे -बडे कायश कैसे कर पायेगे?"
लोगो ने पूछाः "इस समय तैरने कयो आये? दोपहर को नहाने आते?"
लडका बोलता है ः "मै नदी मे नहाने के िलए नहीं आया हूँ, मै तो सकूल जा रहा हूँ।" "िफर नाव मे बैठकर जाते?"
"रोज के चार पैसे आने-जाने के लगते है । मेरे गरीब माँ-बाप पर मुझे बोझ नहीं बनना है । मुझे तो अपने पैरो पर खडे होना है । मेरा खचश बढे गा तो मेरे माँ-बाप की िचनता बढे गी, उनहे घर चलाना मुिशकल हो जायेगा।"
लोग उस लडके को आदर से दे खते ही रह गये। वही साहसी लडका आगे चलकर भारत
का पधानमंती बना। वह लडका था लाल बहादरु शासी। शासी जी उस पद पर भी सचचाई, साहस, सरलता, ईमानदारी, सादगी, दे शपेम आिद सदगुण और सदाचार के मूितम श नत सवरप थे। ऐसे महामानव भले िफर थोडे समय ही राजय करे पर एक अनोखा पभाव छोड जाते है जनमानस पर।अनुकम
ॐ
चनदश ेखर आ जाद क ी द ढिनषा महान दे शभक, कांितकारी, वीर चनदशेखर आजाद बडे ही दढपितज थे। उनके गले मे
यजोपवीत, जेब मे गीता और साथ मे िपसतौल रहा करती थी। वे ईशरपरायण, बहादरु, संयमी और सदाचारी थे।
एक बार वे अपने एक िमत के घर ठहरे हुए थे। उनकी नवयुवती कनया ने
उनहे कामजाल मे फँसाना चाहा, आजाद ने डाँटकर कहाः 'इस बार तुमहे कमा
करता हूँ, भिवषय मे ऐसा हुआ तो गोली से उडा दँग ू ा।' यह बात उनहोने उसके िपता को भी बता दी और उनके यहाँ ठहरना तक बंद कर िदया।
िजन िदनो आजाद भूिमगत होकर मातभ ृ िू म की सवाधीनता के िलए िबिटश
हुकूमत से संघषश कर रहे थे, उन िदनो उनकी माँ जगरानी दे वी अतयनत िवपननावसथा मे रह रही थीं। तन ढँ कने को एक मोटी धोती तथा पेट भरने को दो रोटी व नमक भी उनहे उपलबध नहीं
हो पा रहा था। अडोस-पडोस के लोग भी उनकी मदद नहीं करते थे। उनहे भय था िक अंगेज पुिलस आजाद को सहायता दे ने के संदेह मे उनकी ताडना करे गी।
माँ की इस किपूण श िसथित का समाचार जब कांितकािरयो को िमला तो वे पीडा से
ितलिमला उठे । एक कांितकारी ने, िजसके पास संगिहत धन रखा होता था, कुछ रपये चनदशेखर की माँ को भेज िदये। रपये भेजने का समाचार जब आजाद को िमला तो वे कोिधत हो गये और
उस कांितकारी की ओर िपसतौल तानकर बोलेः 'गदार ! यह तूने कया िकया? यह पैसा मेरा नहीं है , राष का है । संगिहत धन का इस पकार अपवयय कर तूने हमारी दे शभिक को लांिछत िकया
है । चनदशेखर इसमे से एक पैसा भी वयिकगत कायो मे नहीं लगा सकता।' आजाद की यह अलौिकक पमािणकता दे खकर वह कांितकारी दं ग रह गया। अपराधी की भाँित वह नतमसतक होकर खडा रहा। कणभर बाद आजाद िपसतौल बगल मे डालते हुए बोलेः
'आज तो छोड िदया, परं तु भिवषय मे ऐसी भूल की पुनराविृत नहीं होनी चािहए।'
दे श के िलए अपना सवस श व नयोछावर करने वाले चनदशेखर आजाद जैसे संयमी, सदाचारी दे शभको के पिवत बिलदान से ही भारत अंगेजी शासन की दासता से मुक हो पाया है ।अनुकम ॐ
हजारो पर तीन सौ की िवजय
!
सपाटा श एक छोटा सा टापू है । वहाँ शतु के हजारो सैिनको ने एकाएक हमला कर िदया। सपाटाश के 300 सैिनक अपने टापू की रका मे लगे और हजारो शतुओं को मार भगाया ! सपाटाश की िवजय हुई।
अनवेषणकताओ श ं ने सपाटाश से सैिनको से पूछाः
"आप लोगो के पास कया कोई जाद ू है ? हजारो सैिनको ने आकर आपके टापू पर एकाएक
हमला िकया और केवल 300 सैिनको ने हजारो को मार भगाया और अपने दे श की रका की ! इसका कया कारण है ?"
सैिनको ने कहाः "हमारे दे श सपाटा श मे पहले बहुत िवषय-िवलास और सेकस चलता था
और उससे हमारी सेना और नगरजन िनसतेज हो गये थे। िफर एक महापुरष ने बताया िक 'संयम-सदाचार से जीकर दो-तीन बचचो को जनम दे ना – यह तो ठीक है लेिकन अपनी शिक को हर 8-15 िदन मे नि करना, अपना िवनाश करना है । पैर पर कुलहाडी मारने से इतना घाटा नहीं होता कयोिक उससे तो केवल पैर को नुकसान होता है लेिकन िवकार से शिक नि होती है तो
सारा शरीर कमजोर हो जाता है ।' इस पकार की सीख दे कर उन महापुरष ने सपाटा श के सैिनको तथा नागिरको को संयम और बहचय श का पाठ पढाया िक 'हम लोग भले मुटठीभर है लेिकन
बडे -से-बडा राष भी अगर हमको बुरी नजर से दे खता है या हडपने की कोिशश करता है तो हम उसकी नाक मे दम ला दे ने की ताकत रखते है ।"
िजनके जीवन मे सयंम है , सदाचार है , जो यौवन सुरका के िनयमो को जानते है और
उनका पालन करते है , जो अपने जीवन को मजबूत बनाने की कला जानते है और उनका पालन
करते है , जो अपने जीवन को मजबूत बनाने की कला जानते है वे भागयशाली साधक, चाहे िकसी दे वी-दे वता या गुर की सेवा-उपासना करे , सफल हो जाते है । िजसके जीवन मे संयम है ऐसा युवक बडे -बडे कायो को भी हँ सते-हँ सते पूणश कर सकता है ।
हे िवदाथी ! तू अपने को अकेला मत समझना... तेरे िदल मे िदलबर र िदलबर का जान
दोनो है .... ईशर की असीम शिक तेरे साथ जुडी है । परमातम-चेतना और गुरतिव-चेतना, इन दोनो का सहयोग लेता हुआ तू िवकारो को कुचल डाल, नकारातमक िचनतन को हटा दे , सेवा और सनेह से, शुद पेम और पिवतता से आगे बढता जा.....
जो महान बनना चाहते है वे पिवत िवदाथी कभी फिरयादातमक िचनतन नहीं करते,
दश ु िरतवान वयिकयो का अनुकरण नहीं करते... जो महान आतमाएँ, संयमी है ऐसे मुटठीभर दढ संकलपवाले संयमी पुरषो का ही तो इितहास िलखा जाता है । इितहास कया है ? िजनके जीवन मे दढ मनोबल तथा दढ चिरतबल है , उन महाभागयशाली वयिकयो का चिरत ही तो इितहास है !
हे िवदाथी ! तू दढ संकलप कर िक 'एक सपाह के िलए इधर-उधर वयथ श समय नहीं
गवाऊँगा।' अगर युवती है तो युवान की तरफ िबनजररी िनगाह नहीं उठाऊँगी। और युवक है तो िकसी युवती की तरफ िबनजररी िनगाह नहीं उठाऊँगा। अगर िनगाह उठानी ही पडी, बात करनी ही पडी तो संयम को, पिवतता को और भगवान को आगे रखकर िफर ही बात करँगा।
हे िवदाथी ! तू अपने ओज को अभी से सुरिकत कर, अभी से संयम-सदाचार का पालन
कर तािक जीवन के हर केत मे तू सफल सके। चाहे हजार िवघन-बाधाएँ आ जाये, िफर भी जो संयम-सदाचार और धयान का रासता नहीं छोडता, वह संसार मे बाजी मार लेता है ।अनुकम
ॐ
मन के सवामी राजा भत
शृ हिर
यह घटना तब की है जब राजा भतह शृ िर समपूण श राज-पाट का तयाग करके गोरखनाथ जी के शीचरणो मे जा पहुँचे थे और उनसे दीका लेकर, उनकी आजानुसार कौपीन पहनकर िवचरण करने लगे थे।
एक बार भतह शृ िर िकसी गाँव से गुजर रहे थे। वहाँ उनहोने दे खा िक िकसी हलवाई की
दक ु ान पर गरमागरम जलेबी बन रही है । भूतपूव श समाट के मन मे आया िक 'आहा ! यह गरमागरम जलेबी िकतनी अचछी लगती है !' वे दक ु ान पर जाकर खडे हो गये और बोलेः "थोडी जलेबी दे दो।"
राज-पाट का तयाग कर िदया, माया और कािमनी को भी छोड िदया िफर भी जब तक
साकातकार नहीं हुआ, तब तक मन कब धोखा दे दे कोई पता नहीं।
दक ु ानदार ने डाँटते हुए कहाः "अरे ! मुफत का खाने को साधु बना है ? सुबह-सुबह का
समय है , अभी कोई गाहक भी नहीं आया है और मै तुझे मुफत मे जलेबी दे दँ ू तो सारा िदन ऐसे
ही मुफत मे खाने वाले आते रहे गे। जरा काम-धंधा करो और कुछ टके कमा लो, िफर आना। गाँव के बाहर तालाब खुद रहा है , वहाँ काम करो तो दो टके िमल जायेगे, िफर मजे से जलेबी खाना।"
भतह शृ िर मजदरूी करने तालाब पर चले गये। िदन भर तालाब की िमटटी खोदी, टोकरी भर-
भरकर फेकी तो शाम को दो टके िमल गये। भतह शृ िर दो टके की जलेबी ले आये। िफर मन से कहने लगेः 'दे ख, िदनभर मेहनत की है , अब खा लेना भरपेट जलेबी।'
रासते मे से उनहोने िभकापात मे गोबर भर िलया और तालाब के िकनारे बैठे। िफर मन
से कहने लगेः 'ले ! िदनभर की मेहनत का फल खा ले।' एक हाथ से होठो तक जलेबी लायी व
दस ँ मे गोबर ठू ँ स िदया और वह जलेबी पानी मे फेक दी। िफर दस ू रे हाथ से मुह ू री लीः 'ले, ले, खा....' कहकर जलेबी तालाब मे फेक दी और मुँह मे गोबर भर िदया। भतह शृ िर मन को डाँटने लगे।
'राज-पाट छोडा, सगे-समबनधी छोडे , िफर भी अभी तक सवाद नहीं छूटा? मछली की तरह
िजहा के िवकार मे फँसा है तो ले, खा ले।' ऐसा कहकर िफर से मुह ँ मे गोबर ठू ँ स िदया। मुँह से
थू-थू होने लगा तब भी वे बोलेः 'नहीं, नहीं, अभी और खा ले। यह भी तो जलेबी है । गाय ने भी जब चारा खाया था तो उसके िलए वह जलेबी ही था। गाय का खाया हुआ चारा तो अब गोबर बना है ।'
ऐसा करते-करते उनहोने सारी जलेिबयाँ तालाब मे फेक दीं। अब हाथ मे आिखरी जलेबी
बची थी। मन ने कहाः 'दे खो, तुमने मुझे इतना सताया है , िदनभर मेहनत करके इतना थकाया है िक चलना भी मुिशकल हो रहा है । अब कुलला करके केवल एक जलेबी तो खाने दो।'
भतह शृ िर ने मन से कहाः 'अचछा, अभी भी तू मेरा सवामी ही बना रहना चाहता है तो ले...' और झट से वह आिखरी जलेबी भी तालाब मे डाल दी और कहाः 'अब और जलेबी कल ला दँग ू ा और ऐसे ही िखलाऊँगा।'
अब भतह शृ िर के मन ने तो मानो, उनके आगे हाथ जोड िदये िक 'अब जलेबी नहीं माँगग ू ा,
कभी नहीं माँगूगा। अब मै वही करँ गा, जो आप कहोगे।'
अब मन हो गया नौकर और खुद हो गये सवामी। मन के कहने मे आकर खुद सवामी
होते हुए भी नौकर जैसे बन गये थे तथा मन बन गया था सवामी।
इस तरह संयम से, शिक से अथवा मन को समझा-बुझाकर भी आप अपनी रका करने को
ततपर होगे तभी रका हो सकेगी अनयथा तैतीस करोड दे वता भी आ जाये परं तु जब तक आप सवयं िवकारो से बचकर ऊँचे उठना नहीं चाहोगे तब तक आपका कलयाण संभव ही नहीं है ।
मन मे िवकार आये तो िवकारो को सहयोग दे कर अपना सतयानाश मत करो। दढता नहीं
रखोगे और मन को जरा-सी भी छूट दे दोगे िक 'जरा चखने मे कया जाता है .... जरा दे खने मे कया जाता है .... जरा ऐसा कर िलया तो कया? ....जरा-सी सेवा ले ली तो उसमे कया?...' तो ऐसे
जरा-जरा करते-करते मन कब पूरा घसीटकर ले जाता है , पता भी नहीं चलता। अतः सावधान ! मन को जरा भी छूट मत दो।अनुकम
ॐ
मीरा क ी अिड गता मीरा के जीवन मे कई िवपितयाँ आयीं लेिकन मीरा के िचत मे अशांित नहीं
हुई। मीरा के कीतन श -भजन मे भिक रस से लोग इतने सराबोर हो जाते िक बात िदलली मे अकबर के कानो तक जा पहुँची। अकबर ने तानसेन को बुलाया और कहाः
"तानसेन ! मैने सुना है िक मीरा की महिफल मे जाने स लोग संसारी दःुख भूल जाते है ।" तानसेनः "हाँ।"
अकबरः "मैने सुना है िक मीरा के पद सुनते-सुनते वह रस पकट होने लगता है िजसके आगे संसार का रस फीका हो जाता है ! कया ऐसा हो सकता है ?" तानसेनः "हाँ, जहाँपनाह ! हो सकता है ।"
अकबरः "मेने यह भी सुना है िक मीरा के कीतन श -भजन मे लोग अपनी मान-बडाई,
छोटापन-बडपपन वगैरह भूलकर रसमय हो जाते है । कया ऐसा भी हो सकता है ?" तानसेनः "हाँ, जहाँपनाह ! हो सकता है ।"
अकबरः "मैने यह भी सुना है िक मीरा के कीतन श -भजन मे लोग अपनी मान-बडाई, छोटापन-बडपपन वगैरह भूलकर रसमय हो जाते है ! कया ऐसा भी हो सकता है ?" तानसेनः "हाँ, जहाँपनाह ! हो सकता नहीं, होता है ।" अकबरः "तो मुझे ले चलो मीरा के पास।"
तानसेनः "अगर आप राजािधराज महाराज होकर चलोगे तो मीरा की करणा-कृ पा का लाभ आपको नहीं िमल सकेगा। हमे भक का वेश बनाकर जाना चािहए।"
अकबर और तानसेन ने भक का वेश बनाया और मीरा के कीतन श -भजन मे आकर बैठे। एक वैजािनक तथय है ः
आप एक कमरे मे दस तंबूरे मँगवा लो। नौ तंबूरो को नौ वयिक बजाये एवं दसवे तंबूरे को यूँ ही दीवार के सहारे रख दो। अगर नौ तंबूरे झंकार करते है तो दसवाँ तंबूरा िबना वाले के भी झंकृत होने लगता है । उसके तारो मे सपंदन होने लगते है ।
बजाने
जब जड तंबूरा सपंदन झेल लेता है तो जहाँ भगवान के सैकडो तंबूरे आनंद ले रहे हो वहाँ
ये दो तंबूरे भी चुप कैसे बैठ सकते थे? तानसेन भी झूमा और अकबर भी।
जब सतसंग-कीतन श पूरा हुआ तब एक-एक करके लोग वहाँ रखी हुई ठाकुरजी की मूितश
तथा मीरा को पणाम करने लगे। तानसेन ने भी मतथा टे का। अकबर ने सोचाः 'कोई दध ू का पयाला भी िपला दे ता है तो बदले मे उसे आमंतण दे ते है िक 'भाई ! तू हमारे यहाँ आना।' इस मीरा ने तो रब की भिक का पयाला िपलाया है , अब इसे कया दे ?' अकबर ने अपने गले से मोितयो की माला िनकालकर मीरा के चरणो मे रख दी।
मीरा के सतसंग-कीतन श मे केवल सतसंगी ही आते थे, ऐसी बात नहीं थी। िवकम राणा के
खुिफया िवभाग के गुपचर भी वहाँ आते थे। उनकी नजर उस माला पर पडीः 'मोितयो की माला! यह साधारण तो नहीं लगती...' उनहोने मोितयो की माला लाने वाले का पीछा िकया और िवकम राणा को जाकर भडकायाः
"आपकी भाभी के गले मे जो हार पडा है वह िकसी साधारण वयिक का हार नहीं है ।
अकबर आपकी भाभी को हार दे गया है । हमको लगता है िक अकबर और मीरा का आपस मे गलत िरशता है ।"
खुिफयावालो को पता था िक िवकम राणा मीरा का िवरोधी है । अतः उनहोने भी कुछ
मसाला डालकर बात सुना दी। िवकम राणा मीरा को बदनाम करके मौत के घाट उतारने की
सािजशो मे लगा रहता था। उसने सकूल के िशकको को आदे श िदया था िक बचचो से कहे - 'मीरा ऐसी है .... वैसी है ....' मीरा के िलए घर-घर मे नफरत और अपने घर मे भी मुसीबत.... िफर भी
मीरा की भिक इतनी अिडग थी िक इतने िवरोधो के बावजूद भी भगवान के आनंद-माधुय श मे मीरा सवयं तो डू बी ही रहती थी, औरो को डु बोने का सामथयश भी उसके पास था।
िवकम राणा को जब यह पता चला िक अकबर आया था, तब वह पैर पटकता-पटकता मीरा के कक के पास आया और दरवाजा खटखटाते हुए बोलाः
"भाभीऽऽऽ....! दरवाजा खोल। तू मेवाड पर कलंक है । अब मै तेरी एक न सुनूँगा। मेवाड मे
अब तेरा एक घंटे के िलए रहना भी मुझे सवीकार नहीं है ।"
िवकम हाथो मे नंगी तलवार िलए हुए बडबडाये जा रहा था। मीरा ने दरवाजा खोला।
मीरा के चेहरे पर भय की रे खा तक न थी। यही है भिक का पभाव ! मतृयु सामने है िफर भी िचत मे उिदगनता नहीं।
िवकमः "अपना िसर नीचे झुका दे । मै तेरी एक बात नहीं सुनना चाहता। आज तेरे िसर
रपी नािरयल की बिल मेवाड की भूिम को दँग ू ा तािक मेवाड के पाप िमट जाये। " भको के जीवन मे कैसी-कैसी िवपितयाँ आती है !
मीरा ने िसर झुका िदया। िवकम राणा पुनः बोलाः "आज तक तो सुना था िक तू मुणडो (साधुओं के िलए पयुक हलका शबद) के चककर मे है
लेिकन आज पता चला है िक अकबर जैसो के साथ भी तेरी साँठ-गाँठ है । अब तू इस धरती पर नहीं जी सकती।"
िवकम ने दोनो हाथो से तलवार उठायी और जयो ही पहार करने के िलए उदत हुआ , तयो
ही हाथ रक गये और उठे हुए हाथ नीचे आने की चेतना ही खो बैठे। एक-दो िमनट तो िवकम राणा ने अपनी बहादरु की डींग हाँकी लेिकन मीरा की भिक के आगे उसकी शिक कीण हो गयी। राणा घबराया और बोल पडाः "भाभीऽऽऽ....! यह कया हो गया?" मीरा ने िसर ऊँचा िकया और पूछाः "कया बात है ?" िवकमः "भाभी ! यह तुमने कया कर िदया?" मीराः "मैने तो कुछ नहीं िकया।"
िफर मीरा ने पभु से पाथन श ा कीः "हे कृ षण ! इनहे माफ कर दो।"
िवकम राणा के हाथो मे चेतना आयी, तलवार कोने मे िगरी और उसका िसर मीरा के चरणो मे झुक गया।
परमातम-पथ के पिथक कभी भी, िकसी भी िवघन-बाधा से नहीं घबराते। सामने मतृयु ही
कयो न खडी हो, उनका िचत िवचिलत नहीं होता। अनुकम ठीक ही कहा है ः
बाधाए ँ कब ब ाँध स की ह ै , आगे बढ नेवालो को ?
िवपदा एँ कब रोक
स की ह ै पथ पर च लनेवा लो को ? ॐ
राज ेनदबाब ू क ी द ढता
राजेनद बाबू बचपन मे िजस िवदालय मे पढते थे, वहाँ कडा अनुशासन था। एक बार राजेनदबाबू मलेिरया के रोग से पीिडत होने से परीका बडी मुिशकल से दे पाये थे। एक िदन
पाचाय श उनके वग श मे आकर कहने लगेः "पयारे बचचो ! मै िजनके नाम बोल रहा हूँ वे सब िवदाथी परीका मे उतीणश हुए है ।"
पाचाय श ने नाम बोलना शुर कर िदया। पूरी सूिच खतम हो गयी िफर भी राजेनदबाबू का नाम नहीं आया। तब राजेनदबाबू ने उठकर कहाः "साहब ! मेरा
नाम
नहीं आया।"
पाचाय श ने गुससे होकर कहाः "तुमने अनुशासन का भंग िकया है । जो िवदाथी उतीणश हुए है उनका ही नाम सूिच मे है , समझे? बैठ जाओ।"
"लेिकन मै पास हूँ।" "5 रपये दं ड।"
"आप भले दं ड दीिजए, परं तु मै पास हूँ।" "10 रपये दं ड।"
"आचायद श े व ! भले मै बीमार था, मुझे मलेिरया हुआ था लेिकन मैने परीका दी है और मै
उतीणश हुआ हूँ।"
"15 रपये दं ड।"
"मै पास हूँ.... सच बोलता हूँ।" "20 रपये दं ड।"
"मैने पेपर ठीक से िलखा था।" पाचाय श कोिधत हो गये िक मै दं ड बढाता जा रहा हूँ िफर भी यह है िक अपनी िजद नहीं
छोडता !
"25 रपये दं ड।"
"मेरा अंतरातमा नहीं मानता है िक मै अनुतीणश हो गया हूँ।"
जुमान श ा बढता जा रहा था। इतने मे एक कलकश दौडता-दौडता आया और उसने पाचाय श के
कानो मे कुछ कहा। िफर कलकश ने राजेनदबाबू के करीब आकर कहाः "कमा करो। तुम पहले नंबर से पास हुए हो लेिकन साहब की इजजत रखने के िलए अब तुम चुपचाप बैठ जाओ।" राजेनदबाबू नमसकार कर के बैठ गये।
राजेनदबाबू ने अपने हाथ से पेपर िलखा था। उनहे दढ िवशास था िक मै पास हूँ तो उनहे
कोई िडगा नहीं सका। आिखर उनकी ही जीत हुई। दढता से उनहे कोई िडगा नहीं सका। आिखर उनकी ही जीत हुई। दढता मे िकतनी शिक है ! मानव यिद िकसी भी काय श को ततपरता से करे और दढ िवशास रखे तो अवशय सफल हो सकता है ।अनुकम ॐ
िजसके चरणो क े रावण
भी न िहला
सका ....
भगवान शीराम जब सेतु बाँधकर लंका पहुँच गये तब उनहोने बािलकुमार अंगद को दत ू
बनाकर रावण के दरबार मे भेजा।
रावण ने कहाः "अरे बंदर ! तू कौन है ?"
अंगदः "हे दशगीव ! मै शीरघुवीर का दत ू हूँ। मेरे िपता से तुमहारी िमतता
थी,
इसीिलए मै तुमहारी भलाई के िलए आया हूँ। तुमहारा कुल उतम है ,
पुलसतय ऋिष के तुम पौत हो। तुमने िशवजी और बहाजी की बहुत पकार से पूजा की है । उनसे
वर पाये है और सब काम िसद िकये है । िकंतु राजमद से या मोहवश तुम जगजजननी सीता जी को हर लाये हो। अब तुम मेरे शुभ वचन सुनो। पभु शीरामजी तुमहारे सब अपराध कमा कर दे गे।
दसन गह हु त ृ न कंठ कुठार ी। पिरजन स िहत स ंग िनज नारी।।
सादर जनकस ु ता क िर आग े। ए िह िब िध चल हु सकल भय तयाग े।। 4।।
(शी रा मच िरत . लं का का णडः 19.4)
दाँतो मे ितनका दबाओ, गले मे कुलहाडी डालो और अपनी िसयो सिहत कुटु िमबयो को साथ लेकर, आदरपूवक श जानकी जी को आगे करके इस पकार सब भय छोडकर चलो और हे
शरणागत का पालन करने वाले रघुवंशिशरोमिण शीरामजी ! मेरी रका कीिजए.... रका कीिजए...' इस पकार आतश पाथन श ा करो। आतश पुकार सुनते ही पभु तुमको िनभय श कर दे गे।" अंगद को इस पकार कहते हुए दे खकर रावण हँ सने लगा और बोलाः
"कया राम की सेना मे ऐसे छोटे -छोटे बंदर ही भरे है ? हाऽऽऽ हाऽऽऽ हाऽऽऽ.... यह राम का
मंती है ? एक बंदर आया था हनुमान और यह वानर का बचचा अंगद !"
अंगदः "रावण ! मनुषय की परख अकल होिशयारी से होती है , न िक उम से।"
िफर अंगद को हुआ िक 'यह शठ है , ऐसे नहीं मानेगा। इसे मेरे पभु शीराम का पभाव
िदखाऊँ।' अंगद ने रावण की सभा मे पण करके दढता के साथ अपना पैर जमीन पर जमा िदया और कहाः
"अरे मूखश ! यिद तुममे से कोई मेरा पैर हटा सके तो शीरामजी जानकी माँ को िलए िबना
ही लौट जायेगे।"
कैसी दढता थी भारत के उस युवक अंगद मे ! उसमे िकतना साहस और शौय श था िक
रावण से बडे -बडे िदगपाल तक डरते थे उसी की सभा मे उसी को ललकार िदया !
मेघनाद आिद अनेको बलवान योदाओं ने अपने पूरे बल से पयास िकये िकंतु कोई भी
अंगद के पैर को हटा तो कया, टस-से-मस तक न कर सका। अंगद के बल के आगे सब हार
गये। तब अंगद के ललकारने पर रावण सवयं उठा। जब वह अंगद का पैर पकडने लगा तो अंगद ने कहाः
"मेरे पैर कया पकडते हो रावण ! जाकर शीरामजी के पैर पकडो तो तुमहारा कलयाण हो
जायेगा।"
यह सुनकर रावण बडा लिजजत हो उठा। वह िसर नीचा करके िसंहासन पर बैठ गया।
कैसा बुिदमान था अंगद ! िफर रावण ने कूटनीित खेली और बोलाः
"अंगद ! तेरे िपता बािल मेरे िमत थे। उनको राम ने मार िदया और तू राम के पक मे
रहकर मेरे िवरद लडने को तैयार है ? अंगद ! तू मेरी सेना मे आ जा।"अनुकम
अंगद वीर, साहसी, बुिदमान तो था ही, साथ ही साथ धमप श रायण भी था। वह बोलाः "रावण ! तुम अधमश पर तुले हो। यिद मेरे िपता भी ऐसे अधम श पर तुले होते तो उस वक
भी मै अपने िपता को सीख दे ता और उनको िवरद शीरामजी के पक मे खडा हो जाता। जहाँ धम श और सचचाई होती वहीं जय होती है । रावण ! तुमहारी यह कूटनीित मुझ पर नहीं चलेगी। अभी भी सुधर जाओ।"
कैसी बुिदमानी की बात की अंगद ने ! इतनी छोटी उम मे ही मंतीपद को इतनी कुशलता
से िनभाया िक शतुओं के छकके छूट गये। साहस, शौयश, बल, पराकम, तेज-ओज से संपनन वह भारत का युवा अंगद केवल वीर ही नहीं, िवदान भी था, धमश-नीितपरायण भी था और साथ ही पभुभिक भी उसमे कूट-कूटकर भरी हुई थी।
हे भारत के नौजवानो ! याद करो उस अंगद की वीरता को िक िजसने रावण जैसे राकस
को भी सोचने पर मजबूर कर िदया। धम श तथा नीित पर चलकर अपने पभु की सेवा मे अपना
तन-मन अपण श करने वाला वह अंगद इसी भूिम पर पैदा हुआ था। तुम भी उसी भारतभूिम की संताने हो, जहाँ अंगद जैसे वीर रत पैदा हुए। भारत की आज की युवा पीढी चाहे तो बहुत कुछ सीख सकती है अंगद के चिरत से।अनुकम
ॐ
काली की वीरता राजसथान के डू ं गरपुर िजले के रासतपाल गाँव की 19 जून, 1947 की घटना है ः उस गाँव की 10 वषीय कनया काली अपने खेत से चारा िसर पर उठाकर आ रही थी।
हाथ मे हँ िसया था। उसने दे खा िक 'टक के पीछे हमारे सकूल के मासटर साहब बँधे है और घसीटे जा रहे है ।'
काली का शौयश उभरा, वह टक के आगे जा खडी हुई और बोलीः "मेरे मासटर को छोड दो।"
िसपाहीः "ऐ छोकरी ! रासते से हट जा।"
"नहीं हटू ँ गी। मेरे मासटर साहब को टक के पीछे बाँधकर कयो घसीट रहे हो?" "मूखश लडकी ! गोली चला दँग ू ा।"
िसपािहयो ने बंदक ू सामने रखी। िफर भी उस बहादरु लडकी ने उनकी परवाह न की और
मासटर को िजस रससी से टक से बाँधा गया था उसको हँ िसये काट डाला !
लेिकन िनदश यी िसपािहयो ने, अंगेजो के गुलामो ने धडाधड गोिलयाँ बरसायीं। काली नाम
की उस लडकी का शरीर तो मर गया लेिकन उसकी शूरता अभी भी याद की जाती है ।
काली के मासटर का नाम था सेगाभाई। उसे कयो घसीटा जा रहा था? कयोिक वह कहता
था िक 'इन वनवािसयो की पढाई बंद मत करो और इनहे जबरदसती अपने धम श से चयुत मत करो।'
अंगेजो ने दे खा िक 'यह सेगाभाई हमारा िवरोध करता है सबको हमसे लोहा लेना िसखाता
है तो उसको टक से बाँधकर घसीटकर मरवा दो।'
वे दि ु लोग गाँव के इस मासटर की इस ढँ ग से मतृयु करवाना चाहते थे िक पूरे डू ं गरपुर
िजले मे दहशत फैल जाय तािक कोई भी अंगेजो के िवरद आवाज न उठाये। लेिकन एक 10 वषश की कनया ने ऐसी शूरता िदखाई िक सब दे खते रह गये !
कैसा शौयश ! कैसी दे शभिक और कैसी धमिशनषा थी उस 10 वषीय कनया की। बालको ! तुम
छोटे नहीं हो।
हम बाल क ह ै तो कया ह ु आ , उतसाही ह ै हम वीर ह ै। हम ननह े -मुनन े ब चचे ही , इस द ेश की त कदीर है।।
तुम भी ऐसे बनो िक भारत िफर से िवशगुर पद पर आसीन हो जाय। आप अपने जीवनकाल मे ही िफर से भारत को िवशगुर पद पर आसीन दे खो... हिरॐ....ॐ....ॐ.... अनुकम ॐ
आतमजान की िदवयता भारत की िवदष ू ी कनया सुलभा एक बार राजा जनक के दरबार मे पहुँची। यह बात उस
समय की है जब कनयाएँ राजदरबार मे नहीं जाया करती थीं। वह साहसी कनया सुलभा जब
साििवक वेषभूषा मे राजा जनक के दरबार मे पहुँची तब उसकी पिवत, सौमय मूित श दे खकर राजा जनक का हदय शदा से अिभभूत हो उठा।
जनक ने पूछाः "दे िव ! तुम यहाँ कैसे आयी हो? तुमहारा पिरचय कया है ?" कनयाः "राजन ! मै आपकी परीका लेने के िलए आयी हूँ।"
कैसा रहा होगा भारत की उस कनया मे िदवय आधयाितमक ओज ! जहाँ पंिडत लोग खुशामद करते थे, जहाँ तपसवी लोग भी जनक की जय-जयकार िकये िबना नहीं रहते थे और
भाट-चारण िदन रात िजनके गुणगान गाने मे अपने को भागयशाली मानते थे वहाँ भारत की वह 16-17 वषश की कनया कहती है ः "राजन ! मै तुमहारी परीका लेने आयी हूँ।"
सुलभा की बात सुनकर राजा जनक पसनन हुए िक मेरे दे श मे ऐसी भी बािलकाएँ है ! वे
बोलेः "मेरी परीका?"
कनयाः "हाँ, राजन ् ! आपकी परीका। आप मेरा पिरचय जानना चाहते है तो सुिनये। मेरा
नाम सुलभा है । मै 16 वषश की हुई तो मेरे माता-िपता मेरे िववाह के िवषय मे कुछ िवचार-िवमशश
करने लगे। मैने िखडकी से उनकी सारी बाते सुन लीं। मैने उनसे कहाः 'संसार मे तो जब पवेश होगा तब होगा, पहले जीवातमा को अपनी आतमशिक जगानी चािहए। आप एक बार मुझे सतसंग
मे ले गये थे, िजसमे मैने सुना था िक पािणमात के हदय मे जो परमातमा िछपा है , उस परमातमा की िजतनी शिकयाँ मनुषय जगा सके उतना ही वह महान बनता है । अतः मुझे पहले महान बनने की दीका-िशका िदलाने की कृ पा करे ।'
पहले तो मेरे िपता िहचिकचाने लगे िकंतु मेरी माँ ने उनहे पोतसािहत िकया। मेरे माता-
िपता ने िजन गुरदे व से दीका ली थी उनसे मुझे भी दीका िदलवा दी। मेरे गुरदे व ने मुझे
पाणायाम-धयानािद की िविध िसखायी। मैने डे ढ सपाह तक उनकी बतायी िविध के अनुसार साधना की तो मेरी सुषुप शिक जागत होने लगी। कभी मै धयान मे हँ सती, कभी रदन करती.... इस पकार िविभनन अनुभवो से गुजरते-गुजरते और आतमशिक का एहसास करते-करते 6 महीनो
मे मेरी साधना मे चार चाँद लग गये। िफर गुरदे व ने मुझे तिवजान का उपदे श िदयाः 'बुिद की िनणय श शिक का, मन की पसननता का और शरीर की रोगपितकारक शिक का िवकास जहाँ से होता है उस अपने सवरप को जान।'
मन त ू जयोितसवरप अपना म
ूल िपछान।
पूजय गुरदे व ने तिवजान की वषाश कर दी। अब मै आपसे यह पूछना चाहती हूँ िक मै तो
एकानत मे रोज एक-दो घणटे जप-धयान करती थी िजससे मेरी समरणशिक, बुिदशिक, अनुमान
शिक, कमा शिक, शौय श आिद का िवकास हुआ और बाद मे जहाँ से सारी शिकयाँ बढती है उस परबह परमातमा का, सोऽहं सवरप का जान गुर से िमला तब मुझे साकातकार के बाद आपको इन भँवर डु लानेवाली ललनाओं और छत की कया जररत है ? इस राज-वैभव और महलो की कया जररत है ? िजसके हदय मे आतमसुख पैदा हो गया उसे संसार का सुख तो तुचछ लगता है । िफर भी हे राजन ् ! आप संसार के नशर सुख मे कयो िटके है ?"
सुलभा के पशो को सुनकर जनक बोलेः "सुनो, सुलभा ! िपछले जनम मे मै व मेरे कुछ
साथी हमारे गुरदे व के आशम मे जाते थे। गुरदे व हमे पाणायाम आिद साधना की िविध बताते थे। एक बार गुरदे व कहीं घूमने िनकल गये। हम सब छात िमलकर नदी मे नहा रहे थे और
हममे से जो सबसे छोटा िवदाथी था उसकी मजाक उडा रहे थे िक 'बडा जोगी आया है .... तेरे को ईशर नहीं िमलेगे, हम िमलेगे.....' और मैने तो उदणडता करके उस छोटे -से िवदाथी के िसर पर
टकोरा मार िदया। हमारे वयवहार से दःुखी होकर वह रोने लगा। इतने मे गुरदे व पधारे और सारी
बात जानकर नाराज होकर मुझसे बोलेः 'जब तक इस ननहे िवदाथी को परमातमा का अनुभव नहीं होगा तब तक तुमको भी नहीं होगा और जब होगा तब इसी की कृ पा से होगा।'
समय पाकर हमारा वह जीवन पूरा हुआ लेिकन गुरदार पर रहे थे, साधना आिद की थी
अतः इस जनम मे मै राजा बना और वह ननहा सा िवदाथी अिावक मुिन बना। अिावक मुिन को माता के गभश मे ही परमातमा का साकातकार हो गया।
उनहीं अिावक मुिन के शीचरणो मे मैने परमातम-जान की पाथन श ा की, तब वे बोलेः 'िशषय सतपात हो और सदगुर समथ श हो तो घोडे की रकाब मे पैर डालते -डालते भी
परमातम-तिव का साकातकार हो सकता है । डाल रकाब मे पैर।' मैने रकाब मे पैर डाला तो वे बोलेः
'तुझे ईशर के दशन श करने है । लेिकन तू मुझे कया मानता है ?' 'आपको मै गुर नहीं, सदगुर मानता हूँ।'
'अचछा, सदगुर मानता है , तो ला दिकणा।' 'गुरजी ! तन, मन, धन सब आपका है ।'
मै जैसे ही पैर उठाने गया तो वे बोल उठे ः 'जनक ! तन मेरा हो गया तो मेरी आजा के िबना कयो पैर उठा रहा है ?'
मै सोचने लगा तो वे बोलेः 'मन भी मेरा हो गया, इसका उपयोग मत कर।' मेरा मन कण भर के िलए शांत हो गया। िफर बुिद से िवचारने लगा तो गुरदे व बोलेः
'छोड अब सोचना।'
गुरदे व ने थोडी दे र शांत होकर कृ पा बरसायी और मुझे परमातमा-तिव का साकातकार हो
गया। अब मुझे यह संसार सवपन जैसा लगता है और चैतनयसवरप आतमा अपना लगता है । दःुख के समय मुझे दःुख की चोट नहीं लगता और सुख के समय मुझे सुख का आकषण श नहीं होता। मै मुकातमा होकर राजय करता हूँ।
सुलभा ! तुमहारा दस ू रा पश था िक 'जब परमातमा का आनंद आ रहा है तो िफर आप
राजगदी का मजा कयो ले रहे है '
मेरे गुरदे व ने कहा थाः 'अचछे वयिक अगर राजगदी से हट जायेगे तो सवाथी, लोलुप और
एक-दस ू रे की टाँग खींचनेवाले लोगो का पभाव बढ जायेगा। बहजानी अगर राजय करे गे तो पजा मे भी बहजान का पचार-पसार होगा।
सुलभा ! ये चँवर और छत राजपद का है । इसिलए इस राज-पिरधान का उपयोग करके मै
अचछी तरह से राजय करता हूँ और राज-काज से िनपटकर रोज आतमधयान करता हूँ।"
सुलभा के एक-एक पश का संतोषपद जवाब राजा जनक ने िदया, िजससे सुलभा का हदय पसनन हुआ और राजा जनक भी सुलभा के पशो से पसनन होकर बोलेः "सुलभा ! मुझे तुमहारा पूजन करने दो।"
साधुओं का नाम लो तो शुकदे व जी का पहला नंबर आता है । उन शुकदे वजी के गुर राजा
जनक, जीवनमुक िमिथलानरे श, 17 वषीय सुलभा का पूजन करते है । कैसा िदवय आदर है आतमजान का !
जो मनुषय आतमजान का आदर करता है वह आधयाितमक जगत मे तो उननत होता ही
है लेिकन भौितक जगत की वसतुएँ भी उसके पीछे -पीछे दौडी चली आती है । ऐसा िदवय है आतमजान ! अनुकम
ॐ
पितभावना बालक रम
ण
महाराष मे एक लडका था। उसकी माँ बडी कुशल और सतसंगी थी। वह उसे थोडा-बहुत
धयान िसखाती थी। अतः जब लडका 14-15 साल का हुआ तब तक उसकी बुिद िवलकण बन चुकी थी।
चार डकैत थे। उनहोने कहीं डाका डाला तो उनहे हीरे -जवाहरात से भरी अटै ची िमल गयी।
उसे सुरिकत रखने के िलए चारो एक ईमानदार बुिढया के पास गये। अटै ची दे ते हुए बुिढया से बोलेः
"माताजी ! हम चारो िमत वयापार धंधा करने िनकले है । हमारे पास कुछ पूँजी है । इस
जोिखम को कहाँ साथ लेकर घूमे? यहाँ हमारी कोई जान-पहचान भी नहीं है । आप इसे रखो और जब हम चारो िमलकर एक साथ लेने के िलए आये तब लौटा दे ना।" बुिढया ने कहाः "ठीक हो।"
अटै ची दे कर चारो रवाना हुए, आगे गये तो एक चरवाहा दध ू लेकर बेचने जा रहा था। इन
लोगो को दध श तो था नहीं। तीन डकैतो ने अपने चौथे ू पीने की इचछा हुई। पास मे कोई बतन
साथी को कहाः "जाओ, वह बुिढया का घर िदख रहा है , वहाँ से बतन श ले आओ। हम लोग यहाँ इं तजार करते है ।"
डकैत बतन श लेने चला गया। रासते मे उसकी नीयत िबगड गयी। वह बुिढया के पास
आकर बोलाः "माताजी ! हम लोगो ने िवचार बदल िदया है । हम यहाँ नहीं रकेगे, आज ही दस ू रे
नगर मे चले जायेगे। अतः हमारी अटै ची लौटा दीिजए। मेरे तीन दोसत सामने खडे है । उनहोने मुझे अटै ची लेने भेजा है ।"
बुिढया ने बाहर आकर उसके सािथयो की तरफ दे खा तो तीनो दरू खडे है । बुिढया ने
बाहर आकर उसके सािथयो की तरफ दे खा तो तीनो दरू खडे है । बुिढया ने बात पककी करने के िलए उनको इशारे से पूछाः "इसको दे दँ ू?"
डकैतो को लगा िक 'माई पूछ रही है – इसको बतन श दँ ू?' तीनो ने दरू से ही कह िदयाः
"हाँ, हाँ, दे
दो।"
बुिढया घर मे गयी। िपटारे से अटै ची िनकालकर उसे दे दी। वह चौथा डकैत अटै ची लेकर
दस ू रे रासते से पलायन कर गया।
तीनो साथी काफी इं तजार करने के बाद बुिढया के पास पहुँचे। उनहे पता चला िक चौथा
साथी अटै ची ले भागा है । अब तो वे बुिढया पर ही िबगडे ः "तुमने एक आदमी को अटै ची दी ही कयो? जबिक शतश तो चारो एक साथ िमलकर आये तभी दे ने की थी।"
उलझी बात राजदरबार मे पहुँची। डकैतो ने पूरी हकीकत राजा को बतायी। राजा ने भाई
से पूछाः
"कयो, जी ! इन लोगो ने बकसा िदया था?'' अनुकम "जी महाराज !"
ऐसा कहा था िक जब चारो िमलकर आये तब लौटाना?" "जी महाराज।"
राजा ने आदे श िदयाः "तुमने एक ही आदमी को अटै ची दे दी, अब इन तीनो को भी
अपना-अपना िहससा िमलना चािहए। तेरी माल-िमिलकयत, जमीन-जायदाद जो कुछ भी हो उसे बेचकर तुमहे इन लोगो का िहससा चुकाना पडे गा। यह हमारा फरमान है ।"
बुिढया रोने लगी। वह वधवा थी और घर मे छोटे बचचे थे। कमानेवाला कोई था नहीं।
समपित नीलाम हो जायेगी तो गुजारा कैसे होगा?। वह अपने भागय को कोसती हुई, रोती-पीटती रासते से गुजर रही थी। जब 15 साल से रमण ने उसे दे खा तब वह पूछने लगाः "माताजी ! कया हुआ? कयो रो रही हो?"
बुिढया ने सारा िकससा कह सुनाया। आिखर मे बोलीः "कया करँ , बेटे? मेरी तकदीर ही फूटी है , वरना उनकी अटै ची लेती ही कयो?"
रमण ने कहाः "माताजी ! आपकी तकदीर का कोई कसूर नहीं है , कसूर तो राजा की खोपडी का है ।"
संयोगवश राजा गुपवेश मे वहीं से गुजर रहा था। उसने सुन िलया और पास आकर पूछने
लगाः "कया बात है ?"
"बात यह है िक नगर के राजा को नयाय करना नहीं आता। इस माताजी के मामले मे
उनहोने गलत िनणय श िदया है ।" रमण िनभय श ता से बोल गया।
राजाः "अगर तू नयायधीश होता तो कैसा नयाय दे ता?" िकशोर रमण की बात सुनकर राजा की उतसुकता बढ रही थी।
रमणः "राजा को नयाय करवाने की गरज होगी तो मुझे दरबार मे बुलायेगे। िफर मै
नयाय दँग ू ा।"
दस ू रे िदन राजा ने रमण को राजदरबार मे बुलवाया। पूरी सभा लोगो से खचाखच भरी
थी। वह बुिढया माई और तीनो िमत भी बुलाये गये थे। राजा ने पूरा मामला रमण को सौप िदया।
रमण ने बुजुग श नयायधीश की अदा से मुकदमा चलाते हुए पहले बुिढया से पूछाः "कयो,
माताजी ! चार सजजनो ने आपको अटै ची सँभालने के िलए दी थी?" बुिढयाः "हाँ।"
रमणः "चारो सजजन िमलकर एक साथ अटै ची लेने आये तभी अटै ची लौटाने के िलए कहा था?"
"हाँ।"अनुकम रमण ने अब तीनो िमतो से कहाः "अरे , तब तो झगडे की कोई बात ही नहीं है ।
सदगहृसथो ! आपने ऐसा ही कहा था न िक जब हम चारो िमलकर आये तब हमे अटै ची लौटा दे ना?"
डकैतः "हाँ, ठीक बात है । हमने इस माई से ऐसा ही तय िकया था।" रमणः "ये माताजी तो अभी भी आपको अटै ची लौटाने को तैयार है , मगर आप ही अपनी
शतश को भंग कर रहे है ।" "कैसे?"
"आप चार साथी िमलकर आओ तो अभी आपको आपकी अमानत िदलवा दे ता हूँ। आप
तो तीन ही है , चौथा कहाँ है ?"
"साहब ! वह तो.... वह तो....." "उसे बुलाकर लाओ। जब चारो एक साथ आओगे तभी आपको अटै ची िमलेगी, नाहक मे
इन बेचारी माताजी को परे शान कर रहे हो।"
तीनो वयिक मुह ँ लटकाये रवाना हो गये। सारी सभा दं ग रह गयी। सचचा नयाय करने
वाले पितभासंपनन बालक की युिकयुक चतुराई दे खकर राजा भी बडा पभािवत हुआ।
वही बालक रमण आगे चलकर महाराष का मुखय नयायधीश बना और मिरयाडा रमण के
नाम से सुिवखयात हुआ।
पितभा िवकिसत करने की कुंजी सीख लो। जरा सी बात मे िखनन न होना , मन को
सवसथ व शांत रखना, ऐसी पुसतके पढना जो संयम और सदाचार बढाये, परमातमा का धयान
करना और सतपुरषो का सतसंग करना – ये ऐसी कुंिजयाँ है िजनके दारा तुम भी पितभावान बन सकते हो।अनुकम
ॐ
ितलकजी की सतयिनषा बाल गंगाधर ितलकजी के बालयकाल की यह घटना है ः एक बार वे घर पर अकेले ही बैठे थे िक अचानक उनहे चौपड खेलने की
इचछा हुई। िकंतु अकेले चौपड कैसे खेलते? अतः उनहोने घर के खंभे को
अपना साथी बनाया। वे दाये हाथ से खंभे के िलए और बाये हाथ से
अपने िलए खेलने लगे। इस पकार खेलते-खेलते वे दो बार हार गये।
दादी माँ दरू से यह सब नजारा दे ख रही थीं। हँ सते हुए वे बोलीः "धत ् तेरे की... एक खंभे से हार गया?"
ितलकजीः "हार गया तो कया हुआ? मेरा दायाँ हाथ खंभे के हवाले था और मुझे दाये हाथ
से खेलने की आदत है । इसीिलए खंभा जीत गया, नहीं तो मै जीतता।"
कैसा अदभुत था ितलकजी का नयाय ! िजस हाथ से अचछे से खेल सकते थे उससे खंभे
के पक मे खेले और हारने पर सहजता से हार भी सवीकार कर ली। महापुरषो का बालयकाल भी नैितक गुणो से भरपूर ही हुआ करता है ।
इसी पकार एक बार छः मािसक परीका मे ितलकजी ने पशपत के सभी पशो के सही
जवाब िलख डाले।
जब परीकाफल घोिषत हुआ तब िवदािथय श ो को पोतसािहत करने के िलए भी बाँटे जा रहे
थे। जब ितलक जी की कका की बारी आयी तब पहले नंबर के िलए ितलकजी का नाम घोिषत
िकया गया। जयो ही अधयापक ितलकजी को बुलाकर इनाम दे ने लगे, तयो ही बालक ितलकजी रोने लगे।
यह दे खकर सभी को बडा आशय श हुआ ! जब अधयापक ने ितलकजी से रोने का कारण
पूछा तो वे बोलेः
"अधयापक जी ! सच बात तो यह है िक सभी पशो के जवाब मैने नहीं िलखे है । आप
सारे पशो के सही जवाब िलखने के िलए मुझे इनाम दे रहे है , िकंतु एक पश का जवाब मैने अपने िमत से पूछकर िलखा था। अतः इनाम का वासतिवक हकदार मै नहीं हूँ।" अधयापक पसनन होकर ितलकजी को गले लगाकर बोलेः
"बेटा ! भले तुमहारा पहले नंबर के िलए इनाम पाने का हक नहीं बनता, िकंतु यह इनाम अब तुमहे सचचाई के िलए दे ता हूँ।"
ऐसे सतयिनष, नयायिपय और ईमानदार बालक ही आगे चलकर महान कायश कर पाते है ।
पयारे िवदािथय श ो ! तुम ही भावी भारत के भागय िवधाता हो। अतः अभी से अपने जीवन मे सतयपालन, ईमानदारी, संयम, सदाचार, नयायिपयता आिद गुणो को अपना कर अपना जीवन
महान बनाओ। तुमहीं मे से कोई लोकमानय ितलक तो कोई सरदार वललभभाई पटे ल, कोई िशवाजी तो कोई महाराणा पताप जैसा बन सकता है । तुमहीं मे से कोई धुव , पहाद, मीरा, मदालसा का आदशश पुनः सथािपत कर सकता है ।
उठो, जागो और अपने इितहास-पिसद महापुरषो के जीवन से पेरणा लेकर अपने जीवन
को भी िदवय बनाने के माग श पर अगसर हो जाओ.... भगवतकृ पा और संत-महापुरषो के आशीवाद श तुमहारे साथ है ।अनुकम
ॐ
दयाल ु बालक शतमनय ु सतययुग की एक घटना है ः एक बार हमारे दे श मे अकाल पडा। वषा श के अभाव के कारण अनन पैदा नहीं हुआ।
पशुओं के िलए चारा नहीं रहा। दस ू रे वषश भी वषाश नहीं हुई। िदनो िदन दे श की हालत खराब होती
चली गयी। सूयश की पखर िकरणो के पभाव से पथ ृ वी का जल सतर बहुत नीचे चला गया। फलतः धरती के ऊपरी सतह की नमी गायब हो गयी। नदी तालाब सब सूख गये। वक ृ भी सूखने लगे। मनुषय और पशुओं मे हाहाकार मच गया।
अकाल की अविध बढती गयी। एक-दो वष श नहीं, पूरे बारह वषो तक बािरश की एक बूँद
भी धरती पर नहीं िगरी। लोग तािह माम ्-तािह माम ् पुकारने लगे। कहीं अनन नहीं... कहीं जल नहीं.... वषाश और शीत ऋतुएँ नहीं.... सवत श सदा एक ही गीषम ऋतु पवतम श ान रही। धरती से उडती
हुई धूल और तेज लू मे पशु पकी ही नहीं, न जाने िकतने मनुषय काल कविलत हो गये, कोई
िगनती नहीं। भुखमरी के कारण माताओं के सतनो मे दध ू सूख गया। अतः दध ू न िमलने के कारण िकतने ही नवजात िशशु मतृयु की गोद मे सदा के िलए सो गये। इस पकार पूरे दे श मे
नर-कंकालो और अनय जीवो की हििडयो का ढे र लग गया। एक मुटठी अनन भी कोई िकसी को कहाँ से दे ता? पिरिसथित िदनोिदन िबगडती ही चली गयी। अनन-जल के लाले पड गये।
इस दौरान िकसी ने कहा िक नरमेध यज िकया जाय तो वषा श हो सकती है । यह बात
अिधकांश लोगो को जँच गयी।
अतः एक िनशित ितिथ और िनिशत सथान पर एक िवशाल जनसमूह एकत हुआ। पर
सभी मौन थे। सभी के िसर झुके हुए थे। पाण सबको पयारे होते है । जबरदसती करके िकसी की भी बिल नहीं दी जा सकती थी कयोिक यजो का िनयम ही ऐसा था।
इतने मे अचानक सभा का मौन टू टा। सबने दिि उठायी तो दे खा िक एक 12 वष श का अतयंत सुंदर बालक सभा के बीच मे खडा है । उसके अंग-पतयंग कोमल िदखाई दे रहे थे। उसने कहाः
"उपिसथत महानुभावो ! असंखय पािणयो की रका और दे श को संकट की िसथित से
उबारने के िलए मै अपनी बिल दे ने को सहषश पसतुत हूँ। ये पाण दे श के है और दे श के काम आ
जाये, इससे अिधक सदप ु योग इनका और कया हो सकता है ? इसी बहाने िवशातमरप पभु की सेवा इस नशर काया के बिलदान से हो जायेगी।"
"बेटा शतमनयु ! तू धनय है ! तून अपने पूवज श ो को अमर कर िदया।" ऐसा उदघोष करते
हुए एक वयिक ने दौडकर उसे अपने हदय से लगा िलया।अनुकम
वह वयिक कोई और नहीं वरन ् सवयं उसके िपता थे। शतमनयु की माता भी वहीं कहीं पर
उपिसथत थीं। वे भी शतमनयु के पास आ गयीं। उनकी आँखो से झर-झर अशध ु ारा पवािहत हो रही थी। माँ ने शतमनयु को अपनी छाती से इस पकार लगा िलया जैसे उसे कभी नहीं छोडे गी।
िनयत समय पर यज-समारोह यथािविध शुर हुआ। शतमनयु को अनेक तीथो के पिवत
जल से सनान कराकर नये वसाभूषण पहनाये गये। शरीर पर सुगिं धत चंदन का लेप लगाया गया। उसे पुषपमालाओं से अलंकृत िकया गया।
इसके बाद बालक शतमनयु यज-मणडप मे आया। यज-सतमभ के समीप खडा होकर वह
दे वराज इनद का समरण करने लगा। यज-मणडप एकदम शांत था। बालक शतमनयु िसर झुकाये हुए अपने-आपका बिलदान दे ने को तैयार खडा था। एकितत जनसमूह मौन होकर उधर एकटक दे ख रहा था। उस कण शूनय
मे िविचत बाजे बज उठे । शतमनयु पर पािरजात पुषपो की विृि
होने लगी। अचानक मेघगजन श ा के साथ वजधारी इनद पकट हो गये। सब लोग आँखे फाडफाडकर आशयश के साथ इस दशय को दे ख रहे थे।
शतमनयु के मसतक पर अतयनत सनेह से हाथ फेरते हुए सुरपित बोलेः "वतस ! तेरी
दे शभिक और जनकलयाण की भावना से मै संतुि हूँ। िजस दे श के बालक अपने दे श की रका के
िलए अपने पाणो को नयोछावर करने के िलए हमेशा उदत रहते है , उस दे श का कभी पतन नहीं
हो सकता। तेरे तयागभाव से संतुि होने के कारण तेरी बिल के िबना ही मै यज-फल पदान कर दँग श हो गये। ू ा।" इतना कहकर इनद अनतधान
दस श जल-ही-जल िदखने लगा। ू रे ही िदन इतनी घनघोर वषा श हुई िक धरती पर सवत
पिरणामसवरप पूरे दे श मे अनन-जल, फल-फूल का पाचूय श हो गया। दे श के िलए पाण अिपत श करने वाले शतमनयु के तयाग, तप और जन कलयाण की भावना ने सवत श खुिशयाँ ही खुिशयाँ िबखेर दीं। सबके हदय मे आनंद के िहलोरे उठने लगे।
धनय है भारतभूिम ! धनय है भारत के शतमनयु जैसे लाल ! जो दे श की रका के िलए
अपने पाणो का तयाग करने को भी तैयार रहते है ।अनुकम
ॐ
सारसवतय म ं त और बीरबल 11 वष श का बीरबल आगरा मे पान का गलला चलाता था। गलले मे बैठकर सरौते से सुपारी काटता जाता और सारसवतय मंत का जप भी
करता जाता। पितिदन बैठकर िनयमपूवक श 5 मालाएँ करता था, इसके अलावा जब भी समय िमलता तब मानिसक जप िकया करता। सारसवतय मंत के पभाव से उसकी बुिद भी खूब िवकिसत हो गयी थी।
एक िदन एक खोजा आया और उसने बीरबल से पूछाः "अरे भाई ! चूना िमलेगा? पावभर
लेना है ।"
बीरबल ने खोजा िक तरफ दे खा और थोडी दे र शांत हो गया। उसे खोजा की पूरी हकीकत
का पता चल गया कयोिक बीरबल ने तो अपने गुर से सारसवतय मंत ले रखा था। उसने खोजा से पूछाः
"कया आप अकबर बादशाह के यहाँ पान लगाते है ?" खोजाः "हाँ, हाँ...."
"आपने कल बादशाह को पान लगाकर िदया होगा और उसमे चूना जयादा लग गया होगा िजसकी वजह से उनके मुँह मे छाले पड गये होगे। इसीिलए आज बादशाह ने आपके दारा
पावभर चूना मँगवाया है । अब तलवार और भाले वाले िसपािहयो के बीच घेरकर आपको यह पावभर चूना खाने के िलए बाधय िकया जायेगा।"
"तौबा...! तौबा....! िफर तो मै मर जाऊँगा। कया करँ ? भाग जाऊँ या अपने-आपको खतम
कर दँ ू?"
"भाग जाने से काम नहीं बनेगा, पकडे जाओगे। मर जाने से भी काम नहीं चलेगा।
आतमहतया करने वाला तो कायर होता है , कायर। डरपोक मनुषय ही आतमहतया करता है । आतमहतया करना महापाप है ।"
आतमहतया के िवषय मे तो सोचना तक नहीं चािहए। जो आतमहतया करने का िवचार
करता है , उसे समझ लेना चािहए िक आतमहतया कायरता की पराकाषा है । आतमहतया िनराशा की पराकाषा है । कभी कायर न बने, िनराश न हो। पयत करे , पुरषाथ श करे । हजार बार हार जाने पर भी िनराश न हो। िफर से पयास करे । Try and try, you will succeed.
पतयेक िवघन-बाधारपी अँधेरी रात के पीछे सफलतारपी पभात आता ही है । पयत करते
रहने से एक बार नहीं तो दस ू री बार, दस ू री बार नहीं तो तीसरी बार.... माग श िमल ही जायेगा, आपके िलए सफलता का दार जरर खुल जायेगा। उदोगी बने, पुरषाथी बने, िनभय श रहे ।
बीरबलः "भागने से भी काम नहीं चलेगा और मर जाने से भी काम नहीं चलेगा।"
खोजाः "खुदा खैर करे , बंदा मौज करे ...." "खुदा खैर तो बहुत करता है , िकंतु बंदा अपनी बुिद का उपयोग करे तब न?"
"तो अब कया करँ? तू ही बता। तू है तो छोटा-सा बचचा, िकंतु तेरी अकल जोरदार है !" "खोजाजी ! पावभर चूना ले जाइये और दे शी घी भी ले जाइये। पावभर घी पीकर दरबार
मे जाना। यिद बादशाह पावभर चूना खाने को कहे गे तो भी िचनता न रहे गी। घी चूने को मारे गा और चूना घी को मारे गा। आप जीिवत रह जायेगे।" "ऐसा?"
"हाँ, ऐसा ही होगा। सुपारी बहुत कडक होती है इसिलए बूढे लोग ठीक से नहीं चबा
सकते। िकंतु यिद बादाम के साथ सुपारी को चबाया जाये तो सुपारी आसानी से चबायी जा सकती है । उसी पकार घी पीकर जाओगे तो चूना घी को मारे गा और घी चूने को मारे गा। आप बच जाओगे।"अनुकम
खोजा ने पावभर चूना िलया और दे शी घी पीकर पहुँच गया दरबार मे अकबर को पावभर
चूना िदया। अकबर कोिधत होते हुए कहने लगाः
"नालायक ! मूख श ! लापरवाही से काम करता है ? पान मे जयादा चूना डालने से कया होता
है , अब दे ख। यह पावभर चूना अभी मेरे सामने ही खा जा।"
खोजा के आस-पास तलवार और भाले लेकर िसपाही तैनात कर िदये गये, िजससे खोजा
भाग न पाये। खोजा िबना घबराये चूना
खाने लगा। िजसे बीरबल जैसा सीख दे नेवाला िमल
गया हो, उसे भय िकसका? िचनता िकसकी? लोग जैसे मकखन खाते है , वैसे ही वह चूना खा गया कयोिक वह दे शी घी पीकर आया था।
अकबरः "जा, नालायक ! अब घर जाकर मर।"
परं तु खोजा जानता था िक वह मरनेवाला नहीं है । दस ू रे ही िदन खोजा िफर से दरबार मे
हािजर हो गया। अकबर आशयच श िकत होकर उसे दे खता ही रह गया।
"अरे ! तू िजंदा कैसे रह गया? तेरे मुँह और पेट मे छाले नहीं पडे ? जरा मुँह खोलकर तो
िदखा।"
खोजा का मुह ँ दे खकर अकबर दं ग रह गया। अरे ! इसको तो चूने की कोई असर ही नहीं
हुई ! उसने खोजा से पूछाः "यह कैसे हुआ?"
खोजाः "जहाँपनाह ! जब मै चूना लेने के िलए पान के गलले पर पहुँचा, तब वह पानवाला
बीरबल आपके मन की बात जान गया। मुझे तो कुछ पता ही नहीं था। उसने ही मुझे कहा िक
'बादशाह तुझे यह चूना िखलायेगे।' मै तौबा.... तौबा.... पुकार उठा। उसने दया करके मुझे उपाय बताया िक 'आप घी पीकर जाना। घी चूने को मारे गा, चूना घी को मारे गा और आप जीिवत रह
जाओगे।' इसीिलए जहाँपनाह ! मै घी पीकर ही दरबार मे आया था। पावभर चूना खाने के बावजूद भी घी के कारण बच गया।"
अकबर िवचारने लगा िक 'मेरे मन की बात पान के गलले पर बैठने वाले 11 वषीय
बीरबल ने कैसे जान ली? घी चूने को मारता है और चूना घी को मारता है ऐसी अकल तो मेरे
पास भी नहीं है , िफर इस छोटे -से बालक मे कैसे आयी? जरर वह बालक होनहार और खूब होिशयार होगा।'
अकबर ने अपने वजीर को हुकम िकयाः "जाओ, उस बालक को आदरसिहत पालकी मे
िबठाकर ले आओ।"
बीरबल को आदरपूवक श पालकी मे िबठाकर राज-दरबार मे लाया गया। उससे कई पश पूछे
गये। अकबर ने पूछाः
"12 मे से एक जाय तो िकतने बचते है ?" बीरबलः "मै जवाब दँ ू उससे पहले दस ू रे वजीरो से पूछना है ?" अकबरः "पहले दस ू रे वजीर इसका जवाब दे ।"अनुकम
िकसी वजीर ने कहा '11' तो िकसी ने कहा '5 और 6' िकसी ने कहा '8 और 3' तो िकसी ने
कहा '7 और 4'।
बुिदमान बीरबल ने िवचार िकया िक 12 मे से एक जाये तो 11 बचते है । इस पश का
जवाब तो यही होगा, परं तु ऐसा सामानय पश बादशाह नहीं पूछ सकते। िफर भी यिद पूछ रहे है तो जरर इसमे कोई रहसय होगा।
आिखर बीरबल ने िवचार कर कहाः "12 मे से एक जाये तो शूनय बाकी बचता है ।"
सब वजीर बीरबल की ओर दे खने लगे। अकबर ने पूछाः "इसका अथश कया?" "वष श मे 12 महीने होते है । उसमे से सावन का महीना बरसात के िबना ही िनकल जाय
तो अनाज उगेगा ही नहीं, इससे िकसान के तो बारह-के-बारह महीने गये।" "शाबाश.....! शाबाश....!"
अकबर ने जो भी सवाल पूछे उन सबके बीरबल ने युिकयुक जवाब िदये। अकबर ने कहाः "पान का गलला चलाने वाले ! तू तो मेरा वजीर बनने के योगय है ।"
उसी वक अकबर ने 11 वष श के छोटे -से बीरबल को अपना वजीर िनयुक कर िदया। िफर
तो जीवनभर बीरबल अकबर का िपय वजीर बना रहा।
सारसवतय मंत के जप और सतसंग का ही यह पभाव था, िजससे बीरबल इतनी ननहीं सी
उम मे ही चमक उठा।
बीरबल अपनी बुिदमता के कारण अकबर का िपयपात बन गया। इससे बहुत-से लोग
बीरबल से ईषयाश से जलने लगे। बीरबल को कई बार दरबार मे से िनकालने के पयत िकये गये ,
परं तु बीरबल इतना चतुर था िक हर बार षियंत से बच िनकलता। बीरबल को हटाने के िलए िवरोधी अनेक पकार की युिक-पयुिकयाँ आजमाते, िकंतु िवजय हमेशा बीरबल की ही होती। िफर भी दस ू रे वजीर जब तब बादशाह के कान भरते रहते।
एक बार वजीरो ने कहाः "जहाँपनाह ! आपने बीरबल को िसर चढा रखा है । आज हम सब
िमलकर उसकी हँ सी उडायेगे।"
अकबर भी उनके साथ िमल गया। इतने मे ही बीरबल आया। उसे दे खकर अकबर और
सब वजीर हँ सने लगे, उसका मखौल उडाने लगे। बीरबल समझ गया िक बादशाह और मुझसे
ईषया श करने वाले वजीर जान-बूझकर मुझ पर हँ स रहे है । जहाँ सभी हँ स रहे है , वहाँ मै कयो खामोश रहूँ? बीरबल भी पेट पकडकर हँ सने लगा। वह इतना हँ सा, इतना हँ सा िक उसे हँ सते
दे खकर सब वजीरो का मुह ँ छोटा हो गया। वे िवचारने लगे िक हम िजस बीरबल की हँ सी उडा रहे है , वह तो सवयं ही हँ स रहा है !
कोई हँ सकर आपको फीका िदखाना चाहे तो युिक आजमाकर अपने असली हासय से उस
फीकेपन को मधुरता मे बदल दे ना चािहए।अनुकम अकबरः "बीरबल ! तुम कयो हँ से?"
बीरबलः "जहाँपनाह ! आप कयो हँ से? पहले आप बताये।" "मैने तो राित मे एक सवपन दे खा था।" "कया सवपन दे खा?"
"सवपन मे हम दोनो याता कर रहे थे। बहुत गमी पड गयी थी, इसिलए हम दोनो ने
सनान िकया। जंगल मे दो कुंड थे। एक था दध ू -मलाई का कुंड और दस ू रा था गटर के पानी का कुंड। मैने दध ू -मलाईवाले कुंड मे डु बकी मारी और तुमने गटर के पानी पीने वाले कुंड मे। तू भी
नहाया और मै भी। मै तो दध ू मे नहाया और तू गटर के गंदे पानी मे। अभी उसे याद करके ही हँ स रहा था।"
"मै भी इसीिलए हँ स रहा था िक आपका सवपन और मेरा सवपन एक ही है । हम दोनो कुंड
मे तो िगर गये थे, परं तु नहाने के उदे शय से न िनकलने के कारण साथ मे तौिलया नहीं ले गये थे। गमी लगी इसिलए नहाये। जब हम बाहर िनकले, तब आपने मुझे चाटा और मैने आपको। मुझे दध ू -मलाई चाटने को िमली और आपको गटर का मसाला ! इसिलए मुझे हँ सी आ रही है ।" "तौबा.... तौबा... यह कया कर रहे हो?"
"मैने जो सवपन दे खा वही कह रहा हूँ। आपका सवपन तो बीच मे ही टू ट गया, परं तु मैने
यह आगे का भी दे खा।"
बीरबर भगवद भजन, महापुरषो के सतसंग, शास-अधययन और सारसवतय मंत के पभाव
से इतना बुिदमान बन गया िक अकबर जैसा समाट भी उसकी बुिद के आगे हार मान लेता था।
जब तक बीरबल जीिवत रहा, तब तक अकबर का जीवन आनंद, उललास और उतसाह से पिरपूणश रहा। बीरबल का दे हावसान होने पर अकबर बोल उठाः
"आज तक मै एक मदश के साथ जीता था। अब मुझे िहजडो के साथ जीना पडे गा। हे
खुदाताला ! अब मेरे जीवन का रस चला गया। बीरबल जैसा रसीला वयिक मुझे एक ही िमला। दस ू रा कोई वजीर उसके जैसा नहीं है ।"
अकबर ने बीरबल के संग मे रहकर कई ऐसी बाते जानीं, िजसे सामानय राजा नहीं जान
पाते। बीरबल ने भी यह सब बाते परम सता की कृ पा से वहाँ जानीं, जहाँ से सब ऋिष जानते है ।
यिद बालयावसथा से ही मानव को िकसी बहिनष सदगुर का सािननधय िमल जाये , सतसंग
िमल जाय, सारसवतय मंत िमल जाये और वह गुर के मागद श शन श के अनुसार धयान-भजन करे , मंतजप करे तो उसके िलए महान बनना सरल हो जाता है । वह िजस केत मे चाहे , उस केत मे पगित कर सकता है । आधयाितमक माग श मे भी वह खूब उननित कर सकता है और ऐिहक उननित तो आधयाितमक उननित के पीछे -पीछे सवयं ही चली आती है ।अनुकम ॐॐॐॐॐॐॐॐ
मात ृ -िपत ृ -गुर भक प ुणडिलक शासो मे आता है िक िजसने माता-िपता और गुर का आदर कर िलया उसके दारा समपूण श लोको का आदर हो गया और िजसने इनका अनादर कर िदया उसके समपूण श शुभ कमश
िनषफल हो गये। वे बडे ही भागयशाली है िजनहोने माता-िपता और गुर की सेवा के महिव को समझा तथा उनकी सेवा मे अपना जीवन सफल िकया। ऐसा ही एक भागयशाली सपूत था पुणडिलक।
पुणडिलक अपनी युवावसथा मे तीथय श ाता करने के िलए िनकला। याता करते-करते काशी
पहुँचा। काशी मे भगवान िवशनाथ के दशन श करने के बाद पुणडिलक ने लोगो से पूछाः "कया यहाँ कोई पहुँचे हुए महातमा है िजनके दशन श करने से हदय को शांित िमले और जान पाप हो?"
लोगो ने कहाः हाँ, है । गंगा पार कुककुर मुिन का आशम है । वे पहुँचे हुए आतमजानी संत
है । वे सदा परोपकार मे लगे रहते है । वे इतनी ऊँची कमाई के धनी है िक साकात ् माँ गंगा, माँ यमुना और सरसवती उनके आशम मे रसोईघर की सेवा के िलए पसतुत हो जाती है ।"
पुणडिलक के मन मे कुककुर मुिन से िमलने की िजजासा तीव हो उठी। पता पूछते -पूछते
वह पहुँच गया कुककुर मुिन के आशम मे। भगवान की कृ पा से उस समय कुककुर मुिन अपनी
कुिटया के बाहर ही िवराजमान थे। मुिन को दे खकर पुणडिलक ने मन ही मन पणाम िकया और सतसंग-वचन सुने। मुिन के दशन श और सतसंग शवण के पशात ् पुणडिलक को हुआ िक मुिनवर से
अकेले मे अवशय िमलना चािहए। मौका पाकर पुणडिलक एकानत मे मुिन से िमल गया। मुिन ने पूछाः
"वतस ! तुम कहाँ से आ रहे हो?" पुणडिलकः "मै पंढरपुर, महाराष से आया हूँ।" "तुमहारे माता-िपता जीिवत है न?" "हाँ, है ।"
"तुमहारे गुर है ?" "हाँ, है । हमारे गुर बहजानी है ।"
कुककुर मुिन रि हो गयेः "पुणडिलक ! तू बडा मूख श है । माता-िपता िवदमान है , बहजानी गुर है िफर भी यहाँ तीथ श करने के िलए भटक रहा है ? अरे पुणडिलक ! मैने जो कथा सुनी थी उससे तो मेरा जीवन बदल गया। मै तुझे वही कथा सुनाता हूँ। तू धयान से सुन।
एक बार भगवान शंकर के यहाँ उनके दोनो पुतो मे होड लगी िक 'कौन बडा?' काितक श ने कहाः 'गणपित मै तुमसे बडा हूँ।'
गणपितः 'आप भले उम मे बडे है लेिकन गुणो से भी बडपपन होता है ।'अनुकम
िनणय श लेने के िलए दोनो गये िशव-पावत श ी के पास। िशव-पावत श ी ने कहाः 'जो समपूणश पथ ृ वी की पिरकमा करके पहले पहुँचेगा, उसी का बडपपन माना जायेगा।'
काितक श े य तुरंत अपने वाहन मयूर पर िनकल गये पथ ृ वी की पिरकमा करने। गणपित जी
चुपके से िकनारे चले गये। थोडी दे र शांत होकर उपाय खोजा। िफर आये िशव-पावत श ी के पास।
माता-िपता का हाथ पकडकर दोनो को ऊँचे आसन पर िबठाया, पत-पुषप से उनके शीचरणो की पूजा की और पदिकणा करने लगे। एक चककर पूरा हुआ तो पणाम िकया.... दस ू रा चककर लगाकर पणाम िकया... इस पकार माता-िपता की सात पदिकणाएँ कर लीं। िशव-पावत श ी ने पूछाः 'वतस ! ये पदिकणाएँ कयो कीं?" गणपितः 'सव श ती थश मयी मा ता .... सवश देवमयो
िपता .... सारी पथ ृ वी की पदिकणा करने से
जो पुणय होता है वही पुणय माता की पदिकणा करने से हो जाता है , यह शासवचन है । िपता का पूजन करने से सब दे वताओं का पूजन हो जाता है । िपता दे वसवरप है । अतः आपकी पिरकमा करके मैने समपूणश पथ ृ वी की सात पिरकमाएँ कर ली है ।' तबसे गणपित पथम पूजय हो गये। िशवपुराण मे आता है ः
िप तोश प ूजन ं कृतवा पकािनत ं च करोित य ः। तसय व ै प ृ िथ वीजनयफल ं भ वित िनिश तम।् । अप हाय ग ृ हे यो व ै िपतरौ तीथ श मावज ेत।्
तसय पाप ं त था प ोकं हन ने च तयोय श था।। पुतसय य
म हतीथ ा िपतोशरणप ंकजम।्
अनयतीथ ा तु द ू रे व ै गतवा सम पाप यते प ुनः।। इदं स ंिन िहत ं ती था सुल भं धम श साधनम।्
पु तसय च िसयाश ैव तीथ ा गेहे स ु शोभनम।् । 'जो पुत माता-िपता की पूजा करके उनकी पदिकणा करता है , उसे पथ ृ वी पिरकमाजिनत
फल सुलभ हो जाता है । जो माता िपता को घर पर छोडकर तीथय श ाता के िलए जाता है , वह
माता-िपता की हतया से िमलने वाले पाप का भागी होता है , कयोिक पुत के िलए माता-िपता के चरण-सरोज ही महान तीथश है । अनय तीथश तो दरू जाने पर पाप होते है , परं तु धम श का साधनभूत यह तीथ श तो पास मे ही सुलभ है । पुत के िलए माता-िपता और सी के पित सुनदर तीथश घर मे ही िवदमान है ।'अनुकम
(िश .पु ., रद.सं ., कु . खं - 19.39-42)
पुणडिलक ! मैने यह कथा सुनी और मैने मेरे माता-िपता की आजा का पालन िकया। यिद
मेरे माता-िपता मे कभी कोई कमी िदखती थी तो मै उस कमी को अपने जीवन मे नहीं लाता
था और अपनी शदा को भी कम नहीं होने दे ता था। मेरे माता-िपता पसनन हुए। उनका आशीवाद श मुझ पर बरसा। िफर मुझ पर मेरे गुरदे व की कृ पा बरसी इसीिलए मेरी बहजान मे िसथित हुई और मुझे योग मे सफलता िमली। माता-िपता की सेवा के कारण मेरा हदय भिकभाव से भरा है । मुझे िकसी अनय इिदे व की भिक करने की कोई मेहनत न करनी पडी। मात ृ देवो
भव।
िप तृ देवो भ व। आचाय श देवो भव।
मंिदर मे तो पतथर की मूित श मे भगवान की भावना की जाती है जबिक माता-िपता और
गुरदे व मे तो सचमुच परमातमदे व है , ऐसा मानकर मैने उनकी पसननता पाप की। िफर तो मुझे
न वषो तक तप करना पडा न ही अनय िविध-िवधानो की कोई मेहनत करनी पडी। तुझे भी पता है िक यहाँ के रसोईघर मे सवयं गंगा-यमुना-सरसवती आती है । तीथ श भी बहजानी के दार पर
पावन होने के िलए आते है । ऐसा बहजान माता-िपता और बहजानी गुर की कृ पा से मुझे िमला है ।
पुणडिलक को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने कुककुर मुिन को पणाम िकया और
पंढरपुर जाकर माता-िपता की सेवा मे लग गया।
माता-िपता की सेवा को ही उसने पभु की सेवा मान िलया। माता-िपता के पित उसकी
सेवा की िनषा दे खकर भगवान नारायण बडे पसनन हुए और सवयं उसके समक पकट हुए। पुणडिलक उस समय माता-िपता की सेवा मे वयसत था। उसने भगवान को बैठने के िलए एक ईट दी।
अभी भी पंढरपुर मे पुणडिलक की दी हुई ईट पर भगवान िवषणु खडे है और पुणडिलक की
मातृ-िपतभ ृ िक की खबर दे रहा है पंढरपुर का तीथ।श
मैने तो यह भी दे खा है िक िजनहोने अपने माता-िपता और बहजानी गुर को िरझा िलया
है वे भगवान तुलय पूजे जाते है । उनको िरझाने के िलए पूरी दिुनया लालाियत रहती है । इतने महान हो जाते है वे मातृ-िपतभ ृ क से और गुरभक से ! अनुकम
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दीघा श यु का रहसय चीन के पेिकंग (बीिजंग) शहर के एक 250 वषीय वद ृ से पूछा गयाः "आपकी इतनी दीघाय श ु का रहसय कया है ?"
उस चीनी वद ृ ने जो उतर िदया, वह सभी के िलए लाभदायक व उपयोगी है । उसने कहाः "मेरे जीवन मे तीन बाते है िजनकी वजह से मै इतनी लमबी आयु पा सका हूँ।
एक तो यह है िक मै कभी उतेजना के िवचार नहीं करता तथा िदमाग मे उतेजनातमक िवचार नहीं भरता हूँ। मेरे िदल-िदमाग शांत रहे , ऐसे ही िवचारो को पोषण दे ता हूँ।
दस ू री बात यह है िक मै उतेिजत करनेवाला, आलसय को बढानेवाला भोजय पदाथ श नहीं
लेता और ही अनावशयक भोजन लेता हूँ। मै सवाद के िलए नहीं, सवासथय के िलए भोजन करता हूँ।
तीसरी बात यह है िक मै गहरा शास लेता हूँ। नािभ तक शास भर जाये इतना शास
लेता हूँ और िफर छोडता हूँ। अधूरा शास नहीं लेता।"
लाखो-करोडो लोग इस रहसय को नहीं जानते। वे पूरा शास नहीं लेते। पूरा शास लेने से
फेफडो का और दस ू रे अवयवो का अचछी तरह से उपयोग होता है तथा शास की गित कम होती है । जो लोग जलदी-जलदी शास लेते है वे एक िमनट मे 14-15 शास गँवा दे ते है । जो लोग लमबे शास लेते है वे एक िमनट मे 10-12 शास ही खचश करते है । इससे आयुषय की बचत होती है ।
काय श करते समय एक िमनट मे 12-13 शास खच श होते है । दौडते समय या चलते-चलते
बात करते समय एक िमनट मे 18-20 शास खचश होते है । कोध करते समय एक िमनट मे 24 से 28 वष श शास खच श हो जाते है और काम-भोग के समय एक िमनट मे 32 से 36 शास खच श जाते
है । जो अिधक िवकारी है उनके शास जयादा खतम होते है , उनकी नस-नािडयाँ जलदी कमजोर हो जाती है । हर मनुषय का जीवनकाल उसके शासो के मुतािबक कम-अिधक होता है । कम शास (पारबध) लेकर आया हो तो भी िनिवक श ारी होगा तो जयादा जी लेगा। भले कोई अिधक शास लेकर
आया हो लेिकन अिधक िवकारी जीवन जीने से वह उतना नहीं जी सकता िजतना पारबध से जी सकता था।
जब आदमी शांत होता है तो उसके शरीर से जो आभा िनकलती है वह बहुत शांित से
िनकलती है और जब आदमी उतेजातमक भावो मे, िवचारो मे आता है या कोध के समय काँपता है , उस वक उसके रोमकूप से अिधक आभा िनकलती है । यही कारण है िक कोधी आदमी जलदी थक जाता है जबिक शांत आदमी जलदी नहीं थकता।
शांत होने का मतलब यह नहीं िक आलसी होकर बैठे रहे । अगर आलसी होकर बैठे रहे गे तो शरीर के पुजे बेकार हो जायेगे, िशिथल हो जायेगे, बीमार हो जायेगे। उनहे ठीक करने के िलए िफर शास जयादा खचश होगे।
अित पिरशम न करे और अित आरामिपय न बने। अित खाये नहीं और अित भुखमरी न
करे । अित सोये नहीं और अित जागे नहीं। अित संगह न करे और अित अभावगसत न बने। भगवान शीकृ षण ने गीता मे कहा है ः युकाहा रिव हारस य.....
डॉ. फेडिरक कई संसथाओं के अगणी थे। उनहोने 84 वषीय एक वद ृ सजजन को सतत
कमश श ील रहते हुए दे खकर पूछाः "एक तो 84 वष श की उम, नौकरी से सेवािनवत ृ , िफर भी इतने सारे काय श और इतनी भाग-दौड आप कैसे कर लेते है ? गह-नकत की जाँच-परख मे आप मेरा इतना साथ दे रहे है ! कया आपको थकान या कमजोरी महसूस नहीं होती? कया आपको कोई बीमारी नहीं है ?"
जवाब मे उस वद ृ ने कहाः "आप अकेले ही नहीं, और भी पिरिचत डॉकटरो को बुलाकर
मेरी तनदर ु सती की जाँच करवा ले, मुझे कोई बीमारी नहीं है ।"अनुकम
कई डॉकटरो ने िमलकर उस वद ृ की जाँच की और दे खा िक उस वद ृ के शरीर मे बुढापे
के लकण तो पकट हो रहे थे लेिकन िफर भी वह वद ृ पसननिचत था। इसका कया कारण हो सकता है ?
जब डॉकटरो ने इस बात की खोज की तब पता चला िक वह वद ृ दढ मनोबल वाला है ।
शरीर मे बीमारी के िकतने ही कीटाणु पनप रहे है लेिकन दढ मनोबल, पसननिचत सवभाव और
िनरं तर िकयाशील रहने के कारण रोग के कीटाणु उतपनन होकर नि भी हो जाते है । वे रोग इनके मन पर कोई पभाव नहीं डाल पाते।"
आलसय शैतान का घर है । आलसय से बढकर मानव का दस ू रा कोई शतु नहीं है । जो
सतत पयतशील और उदमशील रहता है , सफलता उसका वरण करती है । कहा भी गया है ः उदम ेन िह िसदय िनत काया श िण न मनोरथ ै ः।
न िह स ुपसय िसंहसय पिव शिनत म ुख े म ृ गाः।।
'उदमशील के ही काय श िसद होते है , आलसी के नहीं। कभी भी सोये हुए िसंह के मुख मे
मग ृ सवयं पवेश नहीं करते।'
अतः हे िवदािथय श ो ! उदमी बनो। साहसी बनो। अपना समय बरबाद मत करो। जो समय
को बरबाद करते है , समय उनहे बरबाद कर दे ता है । समय को ऊँचे और शष े कायो मे लगान से
समय का सदप ु योग होता है तथा तुमहे भी लाभ होता है । जैसे, कोई वयिक चपरासी के पद पर हो तो 8 घंटे के समय का सदप ु योग करे , िजलाधीश के पद पर हो तो भी उतना ही करे तथा
राषपित के पद पर हो तो भी उतना ही करे , िफर भी लाभ अलग-अलग होता है । अतः समय का सदप ु योग िजतने ऊँचे कायो मे करोगे, उतना ही लाभ जयादा होगा और ऊँचे-मे-ऊँचे कायश
परमातमा की पािप मे समय लगाओगे तो तुम सवयं परमातमरप होने का सवोचच लाभ भी पाप कर सकोगे।
उठो... जागो... कमर कसो। शष े िवचार, शष े आहार-िवहार और शास की गित के िनयंतण
की युिक को जानो और दढ मनोबल रखकर, सतत कमश श ील रहकर दीघाय श ु बनो। अपने समय को शष े कायो
मे लगाओ। िफर तुमहारे िलए महान बनना उतना ही सहज हो जायेगा, िजतना
सूयोदय होने पर सूरजमुखी का िखलना सहज होता है ।अनुकम
ॐ शांित.... ॐ िहममत.... ॐ साहस ..... ॐ बल.... ॐ दढता.... ॐ....ॐ....ॐ.... ॐॐॐॐॐॐॐॐ
सफलता क ैस े पाय े ? िकसी ने कहा है ः
अगर तुम ठान
लो , तार े गगन क े तोड स कते हो।
अगर त ुम ठान लो , तूफान का म ुख मोड सकत े हो।।
यह कहने का तातपय श यही है िक जीवन मे ऐसा कोई काय श नहीं िजसे मानव न कर सके। जीवन मे ऐसी कोई समसया नहीं िजसका समाधान न हो।
जीवन मे संयम, सदाचार, पेम, सिहषणुता, िनभय श ता, पिवतता, दढ आतमिवशास और उतम
संग हो तो िवदाथी के िलए अपना लकय पाप करना आसान हो जाता है ।
यिद िवदाथी बौिदक-िवकास के कुछ पयोगो को समझ ले, जैसे िक सूय श को अघय श दे ना,
भामरी पाणायाम करना, तुलसी के पतो का सेवन करना, ताटक करना, सारसवतय मंत का जप करना आिद तो उनके िलए परीका मे अचछे अंको से उतीणश होना आसान हो जायेगा।
िवदाथी को चािहए िक रोज सुबह सूयोदय से पहले उठकर सबसे पहले अपने इि का, गुर
का समरण करे । िफर सनानािद करके अपने पूजाकक मे बैठकर गुरमंत, इिमंत अथवा सारसवतय मंत का जाप करे । अपने गुर या इि की मूित श की ओर एकटक िनहारते हुए ताटक करे । अपने
शासोचछवास की गित पर धयान दे ते हुए मन को एकाग करे । भामरी पाणायाम करे जो 'िवदाथी सवाग ा ीण उतथान िशिवर' मे िसखाया जाता है ।
पितिदन सूयश को अघयश दे और तुलसी के 5-7 पतो को चबाकर 2-4 घूँट पानी िपये। रात को दे र तक न पढे वरन ् सुबह जलदी उठकर उपयुक श िनयमो को करके अधययन करे
तो इससे पढा हुआ शीघ याद हो जाता है ।
जब परीका दे ने जाये तो तनाव-िचनता से युक होकर नहीं वरन ् इि-गुर का समरण करके,
पसनन होकर जाय।
परीका भवन मे भी जब तक पशपत हाथ मे नहीं आता तब तक शांत तथा सवसथ िचत
होकर पसननता को बनाये रखे।
पशपत हाथ मे आने पर उसे एक बार पूरा पढ लेना चािहए और िजस पश का उतर आता है उसे पहले िलखे। ऐसा नहीं िक जो नहीं आता उसे दे खकर घबरा जाये। घबराने से जो पश आता है वह भी भूल जायेगा।
जो पश आते है उनहे हल करने के बाद जो नहीं आते उनकी ओर धयान दे । अंदर दढ
िवशास रखे िक मुझे ये भी आ जायेगे। अंदर से िनभय श रहे और भगवतसमरण करके एकाध िमनट शांत हो जाय, िफर िलखना शुर करे । धीरे -धीरे उन पशो के उतर भी िमल जायेगे।
मुखय बात यह है िक िकसी भी कीमत पर धैयश न खोये। िनभय श ता तथा दढ आतमिवशास
बनाये रखे।
िवदािथय श ो को अपने जीवन को सदै व बुरे संग से बचाना चािहए। न तो वह सवयं धूमपान
आिद करे न ही ऐसे िमतो का संग करे । वयसनो से मनुषय की समरणशिक पर बडा खराब पभाव पडता है ।अनुकम
वयसन की तरह चलिचत भी िवदाथी की जीवनशिक को कीण कर दे ते है । आँखो की
रोशनी को कम करने के साथ ही मन और िदमाग को भी कुपभािवत करने वाले चलिचतो से िवदािथय श ो को सदै व सावधान रहना चािहए। आँखो के दारा बुरे दशय अंदर घुस जाते है और वे
मन को भी कुपथ पर ले जाते है । इसकी अपेका तो सतसंग मे जाना, सतशासो का अधययन करना अनंतगुना िहतकारी है ।
यिद िवदाथी ने अपना िवदाथी-जीवन सँभाल िलया तो उसका भावी जीवन भी सँभल
जाता है , कयोिक िवदाथी-जीवन ही भावी जीवन की आधारिशला है । िवदाथीकाल मे वह िजतना
संयमी, सदाचारी, िनभय श और सिहषणु होगा, बुरे संग तथा वयसनो को तयागकर सतसंग का आशय लेगा, पाणायाम-आसनािद को सुचार रप से करे गा उतना ही उसका जीवन समुननत होगा। यिद नींव सुदढ होती है तो उस पर बना िवशाल भवन भी दढ और सथायी होता है । िवदाथीकाल मानवजीवन की नींव के समान है , अतः उसको सुदढ बनाना चािहए।
इन बातो को समझकर उन पर अमल िकया जाये तो केवल लौिकक िशका मे ही
सफलता पाप होगी ऐसी बात नहीं है वरन ् जीवन की हर परीका मे िवदाथी सफल हो सकता है ।
हे िवदािथय श ो ! उठो... जागो... कमर कसो। दढता और िनभय श ता से जुट पडो। बुरे संग तथा
वयसनो को तयागकर, संतो-सदगुरओं के मागद श शन श के अनुसार चल पडो... सफलता तुमहारे चरण चूमेगी।
धनय है वे लोग िजनमे ये छः गुण है ! अंतयाम श ी दे व सदै व उनकी सहायता करते है उदम ः साहस ं ध ैय ा बु िद श िकः पराकम ः। षडेत े यत व तश नते त त द ेवः स हायकृत।।
'उदोग, साहस, धैयश, बुिद, शिक और पराकम – ये छः गुण िजस वयिक के जीवन मे है , दे व उसकी सहायता करते है ।'अनुकम
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िवदािथ श यो स े दो बात े जबसे भारत के िवदाथी 'गीता', 'गुरवाणी', 'रामायण' की मिहमा भूल गये, तबसे वे पाशातय संसकृ ित के अंधानुकरण के िशकार बन गये। नहीं तो िवदे श के िवशिवखयात िवदानो को भी चिकत कर दे – ऐसा सामथयश भारत के ननहे -मुनहे बचचो मे था।
आज का िवदाथी कल का नागिरक है । िवदाथी जैसा िवचार करता है , दे र सवेर वैसा ही
बन जाता है । जो िवदाथी परीका दे ते समय सोचता है िक 'मै पशो को हल नहीं कर पाऊँगा... मै पास नहीं हो पाऊँगा.... ' वह अनुतीण हो जाता और जो सोचता है िक मै सारे पशो को हल कर लूँगा..... मै पास हो जाऊँगा....' वह पास भी हो जाता है ।
िवदाथी के अंदर िकतनी अदभुत शिकयाँ िछपी हुई है , इसका उसे पता नहीं है । जररत तो
है उन शिकयो को जगाने की। िवदाथी को कभी िनबल श िवचार नहीं करना चािहए।
वह कौन -सा उ कदा ह ै जो हो नह ीं सकता ? तेरा जी न चाह े तो हो नही ं स कता। छोटा -सा कीडा पतथर म
े घर कर े , इन सान कया िदल े -िदलबर म े घर न
कर े ?
हे भारत के िवदािथय श ो !
अपने जीवन मे हजार-हजार िवघन आये, हजार बाधाएँ आ जाये लेिकन एक उतम लकय बनाकर चलते जाओ। दे र सवेर तुमहारे लकय की िसिद होकर ही रहे गी। िवघन और बाधाएँ तुमहारी सुषुप चेतना को, सुषुप शिकयो को जागत ृ करने के शुभ अवसर है ।अनुकम
कभी भी अपने आप को कोसो मत। हमेशा सफलता के िवचार करो, पसननता के िवचार
करो, आरोगयता के िवचार करो। दढ एव ं प ुरषा थी बनो और भारत क े श े ष नागिर क बनकर भारत की शान बढाओ। ईशर एव
ं ई शरपा प महाप ुर षो के आ शीवा श द त ुमहार े साथ ह ै ...
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