जानी की ग त जानी ज ाने .... 'शी सुखमनी साििब' मे बहजानी की मििमा का वणन ण करते िुए किा गया िै ः बह िग आनी का क ििआ न जाइ अ धाख यर।। बह िग आनी सरब का ठाक ुर।।
बह िग आनी िक िम ित क उनु बखान ै।।
बह िग आनी की ग ित बह
िगआनी जान ै।।
'बहजानी के बारे मे आधा अकर भी निीं किा जा सकता िै । वे सभी के ठाकुर िै । उनकी
मित का कौन बखान करे ? बहजानी की गित को केवल बहजानी िी जान सकते िै ।'
ऐसे बह जानी के, ऐसे अनंत-अनंत बहाणडो के शाि के वयविार की तुलना िकस पकार,
िकसके साि की जाय?
शुक ः तयागी
कृषण भो गी जनक राघव नर ेनदाः।
विश ष कम ण िनषश सव े ष ां जानी नां स मानम ुकाः।।
'शुकदे व जी तयागी िै , शी कृ षण भोगी िै , जनक और शीराम राजा िै , विशषजी मिाराज
कमिणनषावाले िै ििर भी सभी जािनयो का अनुभव समान िै ।'
'शी योग वािशष मिारामायण' मे विशषजी मिाराज किते िै -
'जानवान आतमपद को पाकर आनंिदत िोता िै और वि आनंद कभी दरू निीं िोता,
कयोिक उसको उस आनंद के आगे अषिसिियाँ तण ृ के समान लगती िै । िे राम ! ऐसे पुरषो का आचार तिा िजन सिानो मे वे रिते िै , वि भी सुनो। कई तो एकांत मे जा बैठते िै , कई शुभ
सिानो मे रिते िै , कई गि ृ सिी मे िी रिते िै , कई अवधूत िोकर सबको दव ण न किते िै , कई ु च
तपसया करते िै , कई परम धयान लगाकर बैठते िै , कई नंगे ििरते िै , कई बैठे राजय करते िै , कई
पिणडत िोकर उपदे श करते िै , कई परम मौन धारे िै ष कई पिाड की कनदराओं मे जा बैठते िै , कई बाहण िै , कई संनयासी िै , कई अजानी की नाई िवचरते िै , कई नीच पामर की नाई िोते िै , कई आकाश मे उडते िै और नाना पकार की ििया करते िदखते िै परनतु सदा अपने सवरप मे िसित िै ।'
"जानवान बािर से अजानी की नाई वयविार करते िै , परं तु िनशय मे जगत को भांित
मात जानते िै अिवा सब बह जानते िै । वे सदा सवभाव मे िसित रिते िै और अिनििित पारबध को भोगते िै , परं तु जागत मे सुषिु ि की नाई िसित रिते िै ।"
(शीय ोगवा . िनवा ण ण प . सगण . 212)
जानवान को कैसे पिचाना जाय? तसय तुलना केन जायत े ? उनकी तुलना िकससे करे ? इसीिलए नानकजी ने किाः
बह िग आनी की ग ित बह
िगआनी जान े।
'बहजानी की गित को तो केवल बहजानी िी जान सकते िै ।'
कुि ऐसे जानवान िै जो लोकाचार करते िै , उपदे श दे ते िै , वैिदक जानधयान का पकाश दे ते िै । कुि ऐसे िै िक सब कुि िोडकर एकांत मे समािध मे रिते िै । कुि जानवान ऐसे िै िक
पागलो जैसा या उगरप धारण कर लेते िै और लोक संपकण से बचे रिते िै । कुि ऐसे िोते िै िक लोकांतर मे योग शिक से िवचरण करते िै और कोई ऐसे िोते िै िक योिा और राजा िोकर राज करते िै ।
जैसे – भगवान शीकृ षण िै । वे बडा राजकाज करते िै – दािरका का राज चलाते िै ,
संिधदत ू बनकर जाते िै , 'नरो वा कुंजरो वा ' भी कर दे ते िै , करवा दे ते िै , रणिोडराय भी िो जाते िै परं तु अदर से जयो-के-तयो िै ! अरे ! वि कालयवन नाराज िै , भागो-रे -भागो ! किकर भाग जाते िै तो कायर लोग बोलेगे िक िम मे और शीकृ षण मे कोई िकण निीं िै । िम भी भागते िै और शीकृ षण भी भाग गये। अरे मूख ण ! शीकृ षण भागे, परं तु वे अपने आप मे ति ृ िे। उनका भागना
भय या कायरता निीं, वयवसिा िी, माँग िी िकंतु औरो के िलए िववशता और कायरता िोती िै । वे रण िोडकर भागे िै , युि का मैदान िोडकर भागे िै ििर भी किा जाता िै – रणिोडराय की जय ! कयोिक वे अपने आप मे पूणण िै , सता समान मे िसित िै ।
ऐसे िी भगवान शी राम 'िो सीता, िा ! सीते' कर रिे िै .... कामी आदमी पती के िलए रोये
और शीराम जी रोते िुए िदखे, बािर से तो दोनो को एक िी तराजू मे तौलने का कोई दःुसािस कर ले
परं तु शीरामचंदजी 'िो सीते ! िो सीते !' करते िुए भी भीतर से तो अपने सता समान मे
िसित िै ।
शुकदे व जी मिाराज को दे खे तो मिान तयागी और शीकृ षण बडे िवलकण भोगी... राजा जनक को दे खे तो भोग और राज-काज मे उलझे िदखेगे और विशष जी बडे कमक ण ांडी... इन सब जािनयो का वयविार अलग-अलग िै , परं तु भीतर से सब समान रप से परमातम-अनुभव मे रमण करते िै ।
सती अनसूयाजी के तीन बेटे िे और तीनो बहजानी, आतमसाकातकारी, भगवतसवरप।
परं तु तीनो का वयविार दे खो तो एकदम अलग। दतातेयजी सतय पधान बहवेता िे, बडे िवरक िे। दस ू रे पुत िे चंद। वे रजोगुणी िे, बडे िवलासी िे। िियो के बीच, ललनाओं के बीच रिते िे। दव ण ाजी तमस पधान मिान िोधी िे, ििर भी जानी िे.... ु ास
एक बार कोई बाहण जा रिा िा। दव ण ा जी ने उसे बुलायाः ु ास "ऐ.... इधर आ। किाँ जा रिा िै ?"
"मिाराजजी ! मै तप करने गया िा। अंबा की उपासना की िी संतान पािि के िलए। माँ पकट िुई और आशीवाद ण िदया िक 'तुझे संतान िोगी।' तप करके लौट रिा िूँ।"
"मै आशीवाद ण िनरसत करता िूँ। िम यिाँ बैठे िै और तू उधर से पणाम िकये िबना िी
चला गया? जा, तेरा वरदान िनरसत।"
इस पकार लोगो को बताया िक िजन माता की, िशव की या कृ षण की उपासना करते िो
वे िशव, कृ षण या माता िजस परमातमसता से वरदान दे सकते िै , विी परमातमसता तुमिारे अंदर
भी िै , मिातमा के अंदर भी िै । मिातमा ने उसका अनुभव िकया िै तो वे वरदान िनरसत भी कर सकते िै । समाज को उपदे श दे ने के िलए उनका ऐसा उगरप िक बाहण ने तपसया करके माँ से तो वरदान िलया और दव ण ा जी ने कि िदयाः "जा, वरदान िनरसत !' ु ास
एक बार दव ण ा जी को अितिि िोने की बात जँच गयी। वे किने लगेः ु ास "िै कोई माई का लाल ! दव ण ा को अपना मेिमान बना ले?" ु ास
लोगो ने दे खा िक 'दव ण ा जी तो बहजानी तो िै परनतु जरा-जरा बात मे िोिधत िो जाते ु ास
िै और बम-गोला भी कुि मायना निीं रखता ऐसा शाप दे डालते िै । अपने यिाँ पर मेिमान
रखने पर यश, आशीवाद ण तो बिुत िमलेगा परं तु नाराज िो जायेगे तो शाप भी भयंकर िमलेगा। इसिलए यक, गंधवण, दे वता आिद िकसी ने भी ििममत निीं की उनिे मेिमान बनाने की।
दव ण ा जी सब लोक-लोकांतर मे घूमे, िकंतु यक, गंधवण, िकननर यिाँ तक िक दे वता लोग ु ास
भी सािस न जुटा सके। आिखर वे धरती पर आये और िवचरण करते िुए किने लगेः " िै कोई ईशर का पयारा ! िै कोई ििममतवाला ! जो दव ण ा को अपना अितिि बनाये? शतण भी सुन लो िक ु ास जब चािूँ आऊँ, जब चािूँ जाऊँ, जो चािूँ सो खाऊँ, औरो को िखलाऊँ, घर की चीज लुटाऊँ। इसके
िलए बािर से तो मना निीं करे गा परं तु मन से भी रोकेगा-टोकेगा तो शाप दँग ू ा, शाप! िै कोई ििर का पयारा ! संत का दल ण ा को अपना अितिि बनाये?" ु ारा ! जो दव ु ास
अब कौन रखे? जब आये, जैसे आये, िजनको लाये, भोजन तैयार चाििए। िजतना खाये, िजतना दे , िजतना लुटाये, कोई कुि न किे ? बािर से तो न किे परं तु मन से भी जरा भी इधरउधर न सोचे। अगर सोचता िुआ िदखेगा तो भयंकर शाप दे दे गे। दव ण ा जी जैसे मिापुरष को ु ास अपने यिाँ रखकर कौन संकट मोल ले?
कभी आ गये तो उनके दस िजार िशषय इकटठे िो गये , खाना बनाओ। चलो, िम निा
कर
आते िै , निाने गये तो गये। ििर कब आते िै , कोई पता निीं। अंबरीष जैसे राजा ने इं तजार
करते-करते बारस के िदन पारणे के वक िोडा जल पी िलया और दव ण ाजी जरा दे र -से पिुँचे। ु ास आते िी बोल उठे ः
"िमारे आने के पिले तूने जल पी िलया? जा िम तुझे शाप दे ते िै ।" – भागवत मे किा
आती िै ।
शाप दे ने मे पिसि िे दव ण ाजी। अब ऐसे दव ण ा जी को पुणयलाभ के िलए, यश लाभ के ु ास ु ास
िलए अितिि रखना तो कई चािते िै परनतु ििममत िकसी की निीं िो रिी। आिखर घूमते-घूमते दािरका पिुँचेः
"िै कोई ििर का पयारा ! संतो का दल ण ा ऋिष ु ारा ! िै कोई धरती पर माई का लाल ! दव ु ास
को अपना अितिि बनाने की िै िकसी की ताकत?"
दािरका मे ठीक चौरािे पर जाकर यिी पुकारने लगे, िजससे शीकृ षण के कानो तक आवाज
पिुँचे। उनको तो मौज लेनी िी, बाँटना िा। 'बहजान कया िोता िै ? जीवातमा िकतना सवतंत िै ? तप मे िकतना सामथयण िै ?' यि समझाने की, उनके उपदे श की यिी रीित िी।
जानी का सविनिमत ण िवनोद िोता िै । कौन जानी, िकस िवनोद से, कैसे, िकसका कलयाण
कर दे , उसकी कोई मापतौल िम निीं िनकाल सकते िै । शाप दे कर भी कलयाण, पयार दे कर भी कलयाण, वसतु दे कर भी कलयाण, वसतु लेकर भी कलयाण.... ऐसे िोते िै जानवान !
मनु मिाराज राजा इकवाकु से किते िै िक 'िे राजन ् ! जानवान सवद ण ा नमसकार करने
और पूजने योगय िै । िजस सिान पर जानवान बैठते िै , उस सिान को भी नमसकार िै । िजससे
वे बोलते िै , उस िजहा को भी नमसकार िै । िजस पर जानवान दिष डालते िै , उसको भी नमसकार िै ।'
अगर शष े पुरष वसतु निीं ले तो ििर दे ने वाला किाँ दे गा?
'शी मिाभारत' मे िलखा िै िक दान दे ना तो पुणयदायी िै , परं तु उतम पुरष दान न ले दान वयिण िो जाता िै । जो लोभी िै , िोधी िै , कामी िै , कपटी िै , पातकी िै , पापी िै , ऐसो को िदया गया दान वयिण िो जाता िै । िाँ लाचार िै मोिताज िै तो दया करना अलग बात िै परं तु दान तो शष े पुरषो को िी िदया जाता िै । जो भजन करते िै , करवाते िै , जो शुभ करते िै , करवाते िै ।
भीषम जी युिधिषर मिाराज को किते िै िक "दाता को दान दे ने मे जो पुणय िोता िै ,
उतम गिृीता को लेने मे भी विी पुणय िोता िै । ऐसे तो दान लोिे का चना िै । परं तु गि ृ ीता उतम
िै , दान की वसतु ली और उसका ठीक से उपयोग कर िदया तो दाता को जो पुणय िोता िै , विी गि ृ ीता को भी िोता िै ।"
दव ण ाजी ऐसे मिापुरष िे। अपनी योगलीला से, योगबल से िवचरण करते िे जान की ु ास
मसती मे.. उनिोने इस तरि से आवाज लगायी िक दािरकाधीश शीकृ षण सुने।
'िै कोई माई का लाल !' माई का लाल, यशोदा का लाल, दे वकी का लाल तो विाँ मौजूद
िै । सारे लोको के लालो का लाल िदलबर लाल िै , कनिै या लाल िै , विाँ दव ण ा जी टे र लगाये और ु ास
कोई लाल पकट न िो यि शीकृ षण कैसे दे ख लेगे ? शी कृ षण कैसे चुपके से बैठे रिे गे? चुनौती िमल रिी िै िक "िै कोई धरती पर माई का लाल ! शी कृ षण ने धयान से सुना िक कौन िै ? दे खा तो दव ण ा जी ! आज तो दव ण ा जी को अितिि रखने की चुनौती िमल रिी िै । ु ास ु ास
'जब आऊँ, जब जाऊँ, जो चािूँ, जिाँ चािूँ, िजतना चािूँ खाऊँ, िजनको चािूँ िखलाऊँ, िजनको
चािूँ, जो चािूँ दँ ू, िजतना भी लुटाऊँ, जो भी लुटाऊँ, जैसा करँ, िजतना भी करँ, जब भी करँ, न कोई
रोके न कोई टोके। बािर से तो कया मन से भी रोकेगा-टोकेगा तो शाप दँग ू ा। सुन ले , िै कोई माई का लाल ! जो मुझे अितिि रखता िै तो आ जाय।' शीकृ षणजी आये और बोलेः "मिाराज ! यि िै ।" दव ण ाजीः "मेरी शतण िै ।" ु ास
"मिाराज ! आपने जो किीं वे सभी सवीकार िै और जो भूल गये िो या िजतनी भी और
शते िो वे भी सवीकार िै ।"
मिाराज ! ये तो ठीक िै परं तु घर का सामान िकसी को दँ ू, िकसी को िदलाऊँ, चािे
जलाऊँ... अपनी शत ण मे ऐसा भी रख दीिजए। घर का सामान उठाकर दे नेवाला कोई िमलेगा तो आप दोगे, आप उठा तो निीं सकोगे। आप चािे तो घर को भी जला दे तो भी िमारे मन मे कभी कोभ निीं िोगा, मिाराज ! आइये, िमारे अितिि बिनये।"
जिाँ कृ षण िे, विाँ मिाराज िे। अब दोनो मिाराज िमल गये।
दोनो की स ूरत एक ि ै िक सको ख ुदा कि े ? तुझ े ख ुदा कि े िक उस े ख ुदा कि े ?
दव ण ाजी को धरती पर पकाश करना िा की जीवातम अपने परमातमा मे िसित िो जाय। ु ास
दव ण ा ऋिष आये, एक दो िदन रिे .... उनको तो करनी िी कुि लीला। किीं भोजन मे नमक कम ु ास िो तो िचललावे, झूठ कैसे बोले? यिाँ तो सब ठीक-ठाक िा।
दव ण ा जीः "अििा, तो िम अभी जायेगे और िोडी दे र मे आयेगे। िमारे जो भगत िोगे ु ास
उनको भी लायेगे। भोजन तैयार िो।"
दव ण ाजी जाये, आये तो भोजन तैयार िमले। िकसी को बाँटे, बँटवाये.... ऐसा-वैसा करे । ििर ु ास
भी दे खा िक 'शीकृ षण िकसी भी गलती मे निीं आते परं तु मुझे लाना िै । शीकृ षण को अििा निीं
लगे अिवा रिकमणी को अििा निीं लगे – ऐसा कुि करना िै । शत ण िै िक 'ना' बोल दे गे अिवा अंदर से भी कुि बोल दे गे तो ििर मै शाप दँग ू ा।'
शीकृ षण को शाप दे ने का मौका ढू ँ ढ रिे िे। सती अनुसूयाजी के पुत दव ण ा ऋिष कैसे िै ! ु ास
एक िदन दोपिर के समय दव ण ाजी िवचारने लगे िक 'सब सेवा-चाकरी ठीक से िो रिी ु ास
िै । जो माँगता िूं, तैयार िमलता िै । जो माँगता िूँ या तो पकट कर दे ते िै या ििर िसिि के बल से धर दे ते िै । सब िसिियाँ इनके पास मौजूद िै , 64 कलाओं के जानकार िै । अब ऐसा कुि करे िक शीकृ षण नाराज िो जाये।'
घर का सारा लकडी का सामान इकटठा िकया। ििर आग लगा दी और जटाएँ खोलकर
बोलेः "िोली रे िोली.... कृ षण ! दे खो, िोली जल गयी।" कृ षणः "िाँ, गुरजी ! िोली रे िोली...."
गुर तो पकका परं तु चेला भी पकका... "िाँ गुरजी।" शीकृ षण चेला बनने मे भी कोई कसर बाकी निीं रखते िै ! कोई इनकार निीं, कोई ििरयाद निीं।
अरे , कृ षण ! ये सब लकडी का सामान जल रिा िै तेरा ! "िाँ ! मेरी सारी सिृषयाँ कई बार जलती िै , कई बार बनती िै , गुरजी ! िोली रे िोली !" "कृ षण ! हदय मे चोट निीं लगती िै ?"
"आप गुरओं का पसाद िै तो चोट कयो लगेगी?"
'अििा ! कृ षण िँसे निीं, ये तो िँ स रिे िै । ठीक िै , मेरा नाम भी दव ण ा िै ।' मन मे ठान ु ास
िलया दव ण ा जी ने। ु ास
ऐसा करते-करते मौका दे खकर एक िदन दव ण ा जी बोलेः ु ास "िम निाने
जा रिे िै ।"
कृ षणः "गुरजी ! आप आयेगे तो आपके िलए भोजन कया िोगा?" "िम निाकर आयेगे तब जो इििा िोगी बोल दे गे, विी भोजन दे दे ना।"
दव ण ा जी ने सोचा 'पिले बोलकर जायेगे तो सब तैयार िमलेगा। आकर ऐसी चीज ु ास
माँगूगा जो घर मे तैयार न िो। कृ षण लेने जायेगे या मँगवायेगे तो मै रठ जाऊँगा...' दव ण ा जी निाकर आये और बोलेः "मुझे ढे र सारी खीर खाना िै ।" ु ास शीकृ षण बडा कडाि भरकर ले आयेः "लीिजए, गुरजी !" "अरे , तुमको कैसे पता चला?"
आप यिी बोलनेवाले िै , मुझे पता चल गया तो मैने तैयार करके रखवा िदया। जिाँ से
आपका िवचार उठता िै विाँ तो मै रिता िूँ। आपको कौन-सी चीज अििी लगती िै ? आप िकस समय कया माँगेगे? यि तो आपके मन मे आयेगा न? मन मे आयेगा, उसकी गिराई मे तो िम िै ।"
"तुमिीं गिराई मे रिते िो? िम निीं रिते िै ?"
"आप और िम िदखते दो िै , िै तो एक िी।" "अििा, एक िै । एक तुम, एक िम। तो एक और एक दो िो गये?" निीं, एक मेव अिद तीय िै । एक और एक दो निीं, विी एक िै ।"
जैसे एक घडे का आकाश, दस ू रे घडे का दस ू रा आकाश, तीसरे घडे का तीसरा आकाश...
तीन आकाश िुए? निीं, आकाश तो एक िी िै । एकमेव अिदतीय िै । जैसे, तरं गे कई िै परं तु पानी एक िै । पंखे, ििज, कूलर, िीटर, गीजर... सब अलग-अलग िै परं तु िवदुत एक की एक, ऐसे िी एकम ेव अ िदतीय िै वि परमातमा।
िजस सता से माँ की आँख पेम से दे खती िै , उसी सता से बिचे की आँख भी सनेि से
िनिारती िै । िजस सता से पती दे खती िै उसी सता से पित दे खता िै , आँखे भले अलग-अलग िै , मन के िवचार और िवकार अनेक िै परं तु आतमसता एक िी िै । सारी मानव जाित उसी
परमातमा की सता से दे खती िै । सारे मानव, सारी गाये, सारे पशु, सारे पकी... उसी चैतनय की सता से दे खते िै । उसी मे शीकृ षण जयो-के-तयो िै । उनकी पेमावतार की लीला िै और दव ण ा जी ु ास की शापावतार की लीला िै । लीला अलग-अलग िै , परं तु लीला का सामथयण और दषा एक िी िै । बिची?"
दव ण ाजी खीर खा रिे िै । दे खा िक रिकमणी िँ स रिी िै । "अरे ! कयो िँ सी? रिकमणी की ु ास "गुरजी ! आप तो मिान िै , परनतु आपका चेला भी कम निीं िै । आप माँगेगे खीर... यि
जानकर उनिोने पिले से िी कि िदया िक खीर का कडाि तैयार रखो। िोडी बनाते तो डाँट
पडती... आप आयेगे और ढे र सारी खीर माँगेगे तो इस कडािे मे खीर भी ढे र सारी िै । जैसा आपने माँगा, वैसा िमारे पभु ने पिले से िी तैयार रखवाया िै । इस बात की िँ सी आती िै ।" "िाँ, बडी िँ सती िै सफलता ििखती है तेरे पररभु की?" इधर आ। दी।
रिकमणीजी आयीं तो दव ण ाजी ने रिकमणी की चोटी पकडी और उनके मुि ँ पर खीर मल ु ास अब कोई पित कैसे दे खे िक कोई बाबा पती की चोटी पकड कर उसे 'बंदर िाप' बना रिा
िै ? िोडा बिुत कुि तो िोगा िक 'यि कया?' अगर िोडी भी िशकन आयेगी चेिरे तो सेवा सब नष और शाप दँग ू ा, शाप।' यि शतण िी।
दव ण ाजी ने शीकृ षण की ओर दे खा तो शीकृ षण के चेिरे पर िशकन निीं िै । ु ास अनदर से कोई रोष निीं िै । शी कृ षण जयो-के-तयो खडे िै । "शी कृ षण ! कैसी लगती िै ये रिकमणी?"
"िाँ, गुरजी ! जैसी आप चािते िै , वैसी िी लगती िै ।" अगर 'अििी लगती िै ' बोले तो िै निीं और 'ठीक निीं लगती' बोले तो गलती िै । इसिलए
किाः "गुरजी ! जैसा आप चािते िै , वैसी लगती िै ।"
अरे ! जानिनिध िै शीकृ षण तो ! पढने िलखने से शीकृ षण का पता िोडे िी चलता िै ? िजतना तुम कृ षण-ततव मे जाओ, उतना िी कृ षण का िुपा िुआ अमत ृ पकट िोता िै ।
दव ण ाजी ने दे खा िक पती को ऐसा िकया तो भी कृ षण मे कोई िकण निीं पडा। रिकमणी ु ास
तो अधािागनी िै । कृ षण को कुि गडबड करे तो रिकमणी के चेिरे पर िशकन पडे गी ऐसा सोचकर कृ षण को बुलायाः
"कृ षण ! यि खीर बिुत अििी िै ।" "िाँ, गुरजी ! अििी िै ।"
"तो ििर कया दे खते िो? खाओ।" शीकृ षण ने खीर खायी।
"इतना िी निीं, सारे शरीर को खीर लगाओ। जैसे मुलतानी िमटटी लगाते िै ऐसे पूरे
शरीर को लगाओ। घुँघराले बालो मे लगाओ। सब जगि लगाओ।" "िाँ, गुरजी।"
"कैसे लग रिे िो, कृ षण?" "गुरजी, जैसा आप चािते िै वैसा।"
दव ण ा जी ने दे खा िक 'अभी-भी ये निीं िँसे। कया करँ?' ििर बोलेः ु ास "मुझे रि मे बैठना िै , रि मँगवाओ। निाना निीं, ऐसे िी चलो।" रि मँगवाया। दव ण ाजी बोलेः ु ास
"घोडे िटा दो।" घोडे िटा िदये गये।
"मै रि मे बैठूँगा। एक तरि रिकमणी, एक तरि शी कृ षण, रि खींचेगे।" दव ण ाजी को िुआ 'अब तो ना बोलेगे िक ऐसी िसिित मे? खीर लगी िुई िै , रिकमणी भी ु ास
बनी िुई िै 'िनुमान कंपनी।'
परं तु दोनो ने रि खींचा। मैने किा सुनी िै िक जैसे, घोडे को चलाते िै ऐसे उनको
चलाया। रि चौरािे पर पिुँचा। लोगो की भीड इकटठी िो गयी िक 'शीकृ षण कौन-से बाबा के चककर मे आ गये?'
अब बाबा कया िै यि शीकृ षण जानते िै और शीकृ षण कया िै यि बाबा िजतना जानते िै
उतना शीकृ षण के बेटे या पोते भी निीं जानते। अरे ! शीकृ षण के सािी भी शीकृ षण को उतना निीं जानते िोगे िजतना दव ण ा जी जानते िै कयोिक दव ण ाजी अपने को जानते िै । वे तो मोि ु ास ु ास से पार िे, दे िाधयास से पार िे।
बहवेता िजतना अपने को जानता िै उतना िी दिुनया को ठीक से जानता िै और अजानी
अपने को िी ठीक से निीं जानता तो दिुनया को कया जानेगा? वि भले बािर से बाल की खाल उतारे दे । परं तु ततवरप से तो जानी, जानी िोता िै ।
लोगो ने दे खा िक 'यि कया ! दव ण ाजी रि पर बैठे िै । खीर और पसीने से तरबतर शी ु ास
कृ षण और रिकमणी जी दोनो रि िाँक रिे िै ? मुँि पर, सवाग ा पर खीर लगी िुई िै ?'
लोगो को शीकृ षण पर तरस आया िक "कैसे बाबा के चककर मे आ गये िै ?" परं तु
शीकृ षण अपने को दीन-िीन निीं मान रिे । शी कृ षण जानते िै िवनोदमात वयविा
र िज सका बहिन ष पमाण।
'िजसका वयविार िवनोदमात िो, वि बहवेता िै ।'
दािरका के लोग इकटठे िो गये, चौरािे पर रि आ गया िै ििर भी शीकृ षण को कोई िकण निीं पड रिा िै ? दव ण ाजी उतरे और जैसे, घोडे को पुचकारते िै वैसे िी पुचकारते िुए पूिाः "कयो ु ास रिकमणी ! कैसा रिा?"
"गुरजी आनंद िै ।"
"कृ षण ! कैसा रिा?" "जैसा आपको अििा लगता िै , वैसा िी अििा िै ।"
जो ितद भाव े सो भ लीकार ... जो बह को अििा लगे वि अििा िै । दव ण ाजी ने शीकृ षण से किाः ु ास
"कृ षण ! मै तुमिारी सेवा पर, समता पर, सजगता पर, सूझबूझ पर पसनन िूँ। पिरिसिितयाँ
सब माया मे िै और मै मायातीत िूँ, तुमिारी ये समझ इतनी बिढया िै िक इससे मै बिुत खुश िूँ। तुम जो वरदान माँगना चािो, माँग लो। परं तु दे खो कृ षण ! तुमने एक गलती की। मैने किा
खीर चुपडो, तुमने खीर सारे शरीर पर चुपडी पर िे कनिै या ! पैरो के तलुओं पर निीं चुपडी।
तुमिारा सारा शरीर अब वजकाय िो गया िै । इस शरीर पर अब कोई ििियार सिल निीं िोगा, परं तु पैरो के तलुओं का खयाल करना। पैरो के तलुओं मे कोई बाण न लगे, कयोिक तुमने विाँ मेरी जूठी खीर निीं लगायी िै ।"
शीकृ षण को िशकारी ने मग ृ जानकर बाण मारा और पैर के तलुए मे लगा। और जगि
लगता तो कोई असर निीं िोता। युि के मैदान मे शीकृ षण अजुन ण का रि चला िी रिे िेष विाँ पर शतु पक के बाणो का उन पर कोई िवशेष पभाव निीं पडा िा। दव ण ाजीः "कया चाििए, कृ षण?" ु ास "गुरजी ! आप पसनन रिे ।"
"मै तो पसनन िूँ, परं तु कृ षण ! जिाँ कोई तुमिारा नाम लेगा विाँ भी पसननता िािजर िो
जायेगी, वरदान दे ता िूँ."
शीकृ षण का नाम लेते िी पसननता िािजर िो जाती िै । शीकृ षण का नाम लेने से
पसननता िमलेगी – ये दव ण ा ऋिष के वचन अभी तक पकृ ित सतय कर रिी िै । परबह ु ास
परमातमा मे िटके िुए दव ण ाजी का शरीर िम लोगो के सामने निीं िै , परं तु उनका वचन अभीु ास भी सिचा मिसूस िोता िै ।
कैसे िोते िै वे बहवेता मिापुरष ! सचमुच, उनके िवषय मे किना िकसी के बस की बात निीं.... नानकजी ने ठीक िी किाः
बह िगआनी का
क िि आ न जा इ अधयाखयर।
बह िग आनी सरब का ठाक ुर।।
ऐसे बहवेता मिापुरष कब, िकस रप मे, किाँ िमल जाये? किना मुििकल िै । कोई ऐसे जानवान िै जो तयागी िै , कोई ऐसे जानवान िै जो एकांत अरणय मे िनवास करते िै , कोई ऐसे जानवान िै जो शूरमा िोकर युि करते िै और कोई ऐसे जानवान िै जो िियो के साि रमण
करते िै । जानवान भीतर से सता समान मे िसित िोते िै और बािर से पारबध के अनुसार वयविार करते िदखते िै ।
संत मे एक भी सदगुण िदखे तो लाभ ले ले। उनमे दोष दे खना और सुनना अपने को
मुिकिल से वंिचत करके अशांित की आग मे झोकने के बराबर िै ।
'शी योगवािशष मिारामायण' के िनवाण ण पकरण के 208 वे सग ण मे आता िै ः "िे रामजी !
िजसकी संतो की संगित पाि िोती िै , वि भी संत िो जाता िै । संतो का संग वि ृ ा निीं जाता।
जैसे, अिगन से िमला पदाि ण अिगनरप िो जाता िै , वैसे िी संतो के संग से असंत भी संत िो
जाता िै और मूखो की संगित से साधु भी मूख ण िो जाता िै । जैसे, उजजवल वि मल के संग से मिलन िो जाता िै , वैसे िी मूढ का संग करने से साधु भी मूढ िो जाता िै । कयोिक पाप के वश
उपदव भी िोते िै , इसी से दज ण ो की संगित से साधु को भी दज ण ता घेर लेती िै । इससे िे राम! ु न ु न
दज ण की संगित सवि ण ा तयागनी चाििए और संतो की संगित कतवणय िै । जो परमिं स संत िमले ु न और जो साधु िो और िजसमे एक गुण भी शुभ िो, उसका भी अंगीकार कीिजए, परं तु साधु के दोष न िवचािरये, उसके शुभ गुण िी गिण कीिजये।"
दे ष बुिि से तो शीकृ षण, शीराम, संत कबीर आिद दिुनया के सभी संतो मे दोष दे खने को
िमलेगे। उनके यश को दे खकर िनंदा करने वाले भी बिुत िमलेगे, परं तु गुणगािियो ने संतमिापुरषो से लाभ उठाया िै और अपना जीवन सिल िकया िै ।
िजनका जीवन आज भी िकसी संत या मिापुरष के पतयक या अपतयक सािननधय मे िै ,
उनके जीवन मे िनिशनतता, िनिवक ण ािरता, िनभय ण ता, पसननता, सरलता, समता व दयालुता के दै वी गुण साधारण मानवो की अपेका अिधक िी िोते िै तिा दे र-सवेर वे भी मिान िो जाते िै और जो लोग मिापुरषो का, धम ण का सामीपय व मागद ण शन ण पाने से कतराते िै , वे पायः अशांत, उिदगन
व दःुखी दे खे जाते िै व भटकते रिते िै । इनमे से कई लोग आसुरी विृतयो से युक िोकर संतो के िननदक बनकर अपना सवन ण ाश कर लेते िै ।
शािो मे आता िै िक संत की िननदा, िवरोध या अनय िकसी तुिट के बदले मे संत िोध
कर दे , शाप दे दे तो इतना अिनष निीं िोता िजतना अिनष संतो की खामोशी व सिनशीलता के कारण िोता िै । सिचे संतो की बुराई का िल तो भोगना िी पडता िै । संत तो दयालु और उदार
िोते िै । वे तो कमा कर दे ते िै , परं तु पकृ ित कभी निीं िोडती। इितिास उठाकर दे खे तो पता चलेगा िक सिचे संतो व मिापुरषो के िननदको को कैसे -कैसे भीषण कषो को सिते िुए बेमौत मरना पडा िै और पता निीं िकन-िकन नरको सडना पडा िै । अतएव समझदारी इसी मे िै िक
िम संतो की पशंसा करके या उनके आदशो को अपनाकर लाभ न ले सके तो उनकी िननदा करके पुणय व शांित भी नष निीं करे ।
पराशर मुिन ने राजा जनक को किा िै ः
कृ तािन य ािन क माण िण द ैवत ै मुण िनभसत िा।
न च रेत ् तािन ध माण तमा श ु तवा चािप
न कुत सयेत।् ।
'दे वताओं और मुिनयो दारा जो अनुिचत कमण िदये गये िो, धमातणमा पुरष उनका अनुकरण न करे और उन कमो को सुनकर भी उन दे वता आिद की िननदा न करे ।'
मिा . शांितप वण (291/17)
यि सतय िै किचे कान के लोग दष ु िननदको के वागजाल मे िँस जाते िै । िजस वयिक
ने अपने जीवन मे आतमशांित दे ने वाला, परमातमा से जोडने वाला कोई काम निीं िकया िै , उसकी बात सिची मानने का कोई कारण िी निीं िै । तदप ु रानत मनुषय को यि भी िवचार करना
चाििए िक िजसकी वाणी और वयविार से िमे जीवन-िवकास की पेरणा िमलती िै , उसका यिद कोई अनादर कराना चािे तो िम उस मिापुरष की िननदा कैसे सुन लेगे? व कैसे मान लेगे?
सतपुरष िमे जीवन के िशखर पर ले जाना चािते िै , िकंतु कीचड उिालने वाला आदमी
िमे खाई की ओर खींचकर ले जाना चािता िै । उसके चककर मे िम कयो िँसे ? ऐसे अधम वयिक
के िननदाचारो मे पडकर िमे पाप की गठरी बाँधने की कया आवियकता िै ? इस जीवन मे तमाम अशांितयाँ भरी िुई िै । उन अशांितयो मे विृि करने से कया लाभ?
िनजानंद मे मगन इन आतमजानी संत पुरषो को भला िनंदा-सतुित कैसे पभािवत कर
सकती िै ? वे तो सदै व िी उस अनंत परमातमा के अनंत आनंद मे िनमगन रिते िै । वे मिापुरष उस पद मे पितिषत िोते िै जिाँ इनद का पद भी िोटा िो जाता िै ।
पीतवा बहरस ं यो िगन ो भ ूतवा उ नमत ः।
इनदो ऽिप र ंकव त ् भास येत ् अनयसय का वाता तीन ट ूक कौपीन
ण ।।
की भा जी िबना लूण।
तुल सी हदय रघ ुवीर बस े तो इ ंद बापडो क ूण।। इनद का वैभव भी तुिि समझने वाले ऐसे संत , जगत मे कभी-कभी, किीं-किीं, िवरले िी
िुआ करते िै । समझदार तो उनसे लाभ उठाकर अपनी आधयाितमक याता तय कर लेते िै , परं तु उनकी िनंदा करने-सुनने वाले तिा उनको सताने वाले दष ु , अभागे, असामािजक ततव कौन सी योिनयो मे, कौन सी नरक मे पच रिे िोगे यि िम निीं जानते। ॐ
'शी योगवािशष मिारामायण' मे विशषजी मिाराज ने किा िै ः "िे रामजी ! अजानी जो कुि मुझे किते और िँ सते िै , सो मै सब जानता िूँ, परं तु मेरा दया का सवभाव िै । इससे मै चािता िूँ िक िकसी पकार वे नरकरप संसार से िनकले। इसी कारण मै उपदे श करता िूँ। संतो के गुणदोष न िवचारना, परं तु उनकी युिक लेकर संसार सागर से तर जाना।"
'शी योगवािशष' के उपशम पकरण के 72 वे सग ण मे विशषजी मिाराज ने किा िै ः
"जानवान अिभमान से रिित चेषा करता िै । वि दे खता, िँ सता, लेता, दे ता िै परं तु हदय से सदा शीतल बुिि रिता िै । सब कामो मे वि अकताण िै , संसार की ओर से सो रिा िै और आतमा की
ओर जागत ृ िै । उसने हदय से सबका तयाग िकया िै , बािर सब कायो को करता िै और हदय मे िकसी पदािण की इििा निीं करता। बािर जैसा पकृ त आचार पाि िोता िै उसे अिभमान से रिित िोकर करता िै , दे ष िकसी मे निीं करता और सुख-दःुख मे पवन की नाई िोता िै ।
बािर से सब कुि करता दिष आता िै पर हदय से सदा असंग िै । िे रामजी ! वि भोका
मे भोका िै , अभोका िै , मूखो मे मूखव ण त ् िसित िै , बालको मे बालकवत ्, वि ृ ो मे वि ृ वत ्, धैयव ण ानो
मे धैयव ण ान, सुख मे सुखी, दःुख मे धैयव ण ान िै । वि सदा पुणयकताण, बुििमान, पसनन, मधुरवाणी संयुक और हदय से ति ृ िै । उसकी दीनता िनवत ृ िुई िै , वि सवि ण ा कोमल भाव चंदमा की नाई शीतल और पूणण िै ।
शुभकम ण करने मे उसे कुि अिण निीं और अशुभ कुि पाप निीं, गिण मे गिण निीं और
तयाग मे तयाग निीं। वि न बंध िै , न मुक िै और न उसे आकाश मे कायण िै न पाताल मे कायण
िै । वि यिावसतु और यिादिष आतमा को दे खता िै , उसको दै तभाव कुि निीं िुरता और न उसको बंध-मुक िोने के िनिमत कुि कतवणय िै , कयोिक समयक् जान से उसके सब संदेि जल गये िै ।"
भोले बाबा ने किा िै ः यि िवश सब ि ै आत म िी , इस भा ँित स े जो जानता। यश व ेद उ सका गा रि े , पारबधव श वि बत ण ता।।
ऐसे िवव ेकी सन त को , न िनष ेध ि ै न िव धान िै।
सुख द ु ःख दोनो एक स े , सब िािन -लाभ स मान िै।। कोई न उ सका शत ु ि ै , कोई न उसका
कलयाण सबका चा
िमत ि ै।
िता ि ै , सव ण का स िनम त ि ै।।
सब द ेश उ सको एक स े , बस ती भ ले स ुनसान ि ै।
भोला ! उसे ििर भय किा ँ , सब िािन -ला भ समान ि ै।। सव ण के कलयाण मे रत ऐसे बहवेता, चािे ििर वे शीराम के रप मे िो या शीकृ षण के,
शुकदे व जी के रप मे िो या जनक के, दव ण ाजी के रप मे िो या दतातेयजी के, संत कबीर के ु ास रप मे िो या मदालसा के, सती अनुसूयाजी के रप मे िो या सुलभा के..... ििर सबका बाहा
आचार भले पारबधानुसार िभनन-िभनन िो परं तु भीतर से समान रप से बहानंद मे रमण करने वाले उन बहवेताओं के शीचरणो मे कोिट-कोिट पणाम ! ॐ
सनतुषोऽ िप न सन तुषः िखननोऽिप
न च िखदत े।
तसयाशय ण दशा ं त ां त ां तादशा एव जानत
े।।
धीर पुरष संतष ु िोते िुए भी संतुष निीं िोता और िखनन िदखता िुआ भी िखनन निीं
िोता। उसकी ऐसी आशयण दशा को उसके जैसा पुरष
िी जान सकता िै ।
िचन ता सिि त ि ै दीखता , ििर भी न िच नताय ुक ि ै। मन ब ुिि वाला भासता
अषावि ग ीता
, मन ब ुिि स े िनम ुण क ि ै।।
दीख े भल े िी िखनन , पर िजसम े नि ीं ि ै िखननता। गमभीर ऐस े धीर को , वै सा िी िवरला जानता।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
भोल े बाबा