Ekadashi Vrat Katha

  • Uploaded by: Rajesh Kumar Duggal
  • 0
  • 0
  • November 2019
  • PDF

This document was uploaded by user and they confirmed that they have the permission to share it. If you are author or own the copyright of this book, please report to us by using this DMCA report form. Report DMCA


Overview

Download & View Ekadashi Vrat Katha as PDF for free.

More details

  • Words: 22,653
  • Pages: 62
एकादशी महातमय पुराणो पर आधािरत

एकादशी वत िििध................................................................................................................4 वत खोलने की िििध :.........................................................................................................5 1.

उतपिि एकादशी............................................................................................................6

2.

मोकदा एकादशी............................................................................................................9

4.

पुतदा एकादशी............................................................................................................13

6.

जया एकादशी..............................................................................................................17

8.

आमलकी एकादशी......................................................................................................21

3. 5. 7. 9.

सफला एकादशी...........................................................................................................11 षटितला एकादशी........................................................................................................15 ििजया एकादशी..........................................................................................................19 पापमोचनी एकादशी....................................................................................................25

10.

कामदा एकादशी......................................................................................................27

12.

मोिहनी एकादशी.....................................................................................................31

14.

िनजल ज ा एकादशी.....................................................................................................34

16.

शयनी एकादशी.......................................................................................................39

18.

पुतदा एकादशी........................................................................................................42

20.

पधा एकादशी..........................................................................................................46

22.

पापांकुशा एकादशी...................................................................................................51

24.

पबोिधनी एकादशी...................................................................................................55

26.

पििनी एकादशी......................................................................................................59

11.

13. 15. 17. 19. 21.

23. 25.

िरििनी एकादशी....................................................................................................30 अपरा एकादशी........................................................................................................33 योििनी एकादशी.....................................................................................................37 कािमका एकादशी....................................................................................................40 अजा एकादशी.........................................................................................................44 इििदरा एकादशी......................................................................................................49 रमा एकादशी...........................................................................................................52 परमा एकादशी........................................................................................................57

एकादशी

क ी रा ित म े शीहिर क े समीप

जािरण का माहा

तमय

सब धमो के जाता, िेद और शासो के अिज ज ान मे पारं ित, सबके हदय मे रमण करनेिाले शीििषणु के तति को जाननेिाले तिा भिितपरायण पहादजी जब सुखपूिक ज बैठे हुए िे, उस समय उनके समीप सिधमज का पालन करनेिाले महिषज कुछ पूछने के िलए आये । महिष ज यो

ने कहा

: पहादजी ! आप कोई ऐसा साधन बताइये, िजससे जान, धयान और

इििियिनगह के िबना ही अनायास भििान ििषणु का परम पद पाप हो जाता है । उनके ऐसा कहने पर संपूण ज लोको के िहत के िलए उदत रहनेिाले ििषणुभक महाभाि पहादजी ने संकेप मे इस पकार कहा : महिषय ज ो ! जो अठारह पुराणो का सार से भी सारतर तति है , िजसे काितक ज े यजी के पूछने पर भििान शंकर ने उिहे बताया िा, उसका िणन ज करता हूँ, सुिनये ।

महाद ेिजी का ितज केय से बो ले

: जो किल मे एकादशी की रात मे जािरण करते समय िैषणि

शास का पाठ करता है , उसके कोिट जिमो के िकये हुए चार पकार के पाप नष हो जाते है । जो एकादशी के िदन िैषणि शास का उपदे श करता है , उसे मेरा भक जानना चािहए ।

िजसे एकादशी के जािरण मे िनिा नहीं आती तिा जो उतसाहपूिक ज नाचता और िाता है , िह मेरा ििशेष भक है । मै उसे उिम जान दे ता हूँ और भििान ििषणु मोक पदान करते है । अत: मेरे भक को ििशेष रप से जािरण करना चािहए । जो भििान ििषणु से िैर करते है , उिहे

पाखणडी जानना चािहए । जो एकादशी को जािरण करते और िाते है , उिहे आधे िनमेष मे अििनषोम तिा अितरात यज के समान फल पाप होता है । जो राित जािरण मे बारं बार भििान ििषणु के मुखारििंद का दशन ज करते है , उनको भी िही फल पाप होता है । जो मानि दादशी ितिि को भििान ििषणु के आिे जािरण करते है , िे यमराज के पाश से मुक हो जाते है । जो दादशी को जािरण करते समय िीता शास से मनोििनोद करते है , िे भी यमराज के बिधन से मुक हो जाते है । जो पाणतयाि हो जाने पर भी दादशी का जािरण नहीं छोड़ते , िे धिय और पुणयातमा है । िजनके िंश के लोि एकादशी की रात मे जािरण करते है , िे ही धिय है । िजिहोने एकादशी को जािरण िकया है , उिहोने यज, दान , ियाशाद और िनतय पयािसनान कर िलया । उिहे संियािसयो का पुणय भी िमल िया और उनके दारा इषापूत ज कमो का भी भलीभाँित पालन हो िया । षडानन ! भििान ििषणु के भक जािरणसिहत एकादशी वत करते

है , इसिलए िे मुझे सदा ही ििशेष िपय है । िजसने ििदजनी एकादशी की रात मे जािरण िकया है , उसने पुन: पाप होनेिाले शरीर को सियं ही भसम कर िदया । िजसने ितसपश ृ ा एकादशी को रात मे जािरण िकया है , िह भििान ििषणु के सिरप मे लीन हो जाता है । िजसने हिरबोिधनी एकादशी की रात मे जािरण िकया है , उसके सिल ू सूकम सभी पाप नष हो जाते है । जो दादशी की रात मे जािरण तिा ताल सिर के साि संिीत का आयोजन करता है , उसे महान पुणय की पािप होती है । जो एकादशी के िदन ॠिषयो दारा बनाये हुए िदवय सतोतो से , ॠििेद , यजुिद े तिा सामिेद के िैषणि मितो से, संसकृ त और पाकृ त के अिय सतोतो से ि िीत िाद आिद के दारा भििान ििषणु को सितुष करता है उसे भििान ििषणु भी परमानिद पदान करते है । य: पुन : पठत े रातौ िाता ं नामस हस कम ्



दादशया ं पु रतो ििषणोि ैषणिाना ं समापत : ।

स िचछ े तपरम सिान यत नारा यण : तियम ् । जो एकादशी की रात मे भििान ििषणु के आिे िैषणि भको के समीप िीता और ििषणुसहसनाम का पाठ करता है , िह उस परम धाम मे जाता है , जहाँ साकात ् भििान नारायण ििराजमान है ।

पुणयमय भािित तिा सकिदपुराण भििान ििषणु को िपय है । मिरुा और वज मे भििान ििषणु के बालचिरत का जो िणन ज िकया िया है , उसे जो एकादशी की रात मे भििान केशि का पूजन करके पढ़ता है , उसका पुणय िकतना है , यह मै भी नहीं जानता । कदािचत ् भििान ििषणु जानते हो । बेटा ! भििान के समीप िीत, नतृय तिा सतोतपाठ आिद से जो फल

होता है , िही किल मे शीहिर के समीप जािरण करते समय ‘ििषणुसहसनाम, िीता तिा शीमदािित’ का पाठ करने से सहस िुना होकर िमलता है । जो शीहिर के समीप जािरण करते समय रात मे दीपक जलाता है , उसका पुणय सौ कलपो मे भी नष नहीं होता । जो जािरणकाल मे मंजरीसिहत तुलसीदल से भिकपूिक ज शीहिर का पूजन करता है , उसका पुन: इस संसार मे जिम नहीं होता । सनान, चिदन , लेप, धप ू , दीप, नैिेघ और तामबूल यह सब जािरणकाल मे भििान को समिपत ज िकया जाय तो उससे अकय पुणय होता है । काितक ज े य ! जो भक मेरा धयान करना चाहता है , िह एकादशी की राित मे शीहिर के समीप भिकपूिक ज जािरण करे । एकादशी के िदन जो लोि जािरण करते है उनके शरीर मे इिि आिद दे िता आकर िसित होते है । जो जािरणकाल मे महाभारत का पाठ करते है , िे उस परम धाम मे जाते है जहाँ संियासी महातमा जाया करते है । जो उस समय शीरामचििजी का चिरत, दशकणठ िध पढ़ते है िे योििेिाओं की िित को पाप होते है ।

िजिहोने शीहिर के समीप जािरण िकया है , उिहोने चारो िेदो का सिाधयाय, दे िताओं का पूजन, यजो का अनुषान तिा सब तीिो मे सनान कर िलया । शीकृ षण से बढ़कर कोई दे िता नहीं है और एकादशी वत के समान दस ू रा कोई वत नहीं है । जहाँ भािित शास है , भििान

ििषणु के िलए जहाँ जािरण िकया जाता है और जहाँ शालगाम िशला िसित होती है , िहाँ साकात ् भििान ििषणु उपिसित होते है ।

एकादशी वत िि िध दशमी की राित को पूण ज बहचय ज का पालन करे तिा भोि ििलास से भी दरू रहे । पात:

एकादशी को लकड़ी का दातुन तिा पेसट का उपयोि न करे ; नींबू, जामुन या आम के पिे लेकर

चबा ले और उँ िली से कंठ शुद कर ले । िक ृ से पिा तोड़ना भी ििजत ज है , अत: सियं ििरे हुए पिे का सेिन करे । यिद यह समभि न हो तो पानी से बारह कुलले कर ले । िफर सनानािद कर

मंिदर मे जाकर िीता पाठ करे या पुरोिहतािद से शिण करे । पभु के सामने इस पकार पण करना चािहए िक: ‘आज मै चोर, पाखणडी और दरुाचारी मनुषय से बात नहीं करँ िा और न ही

िकसीका िदल दख ु ाऊँिा । िौ, बाहण आिद को फलाहार ि अिनािद दे कर पसिन करँ िा । राित को जािरण कर कीतन ज करँ िा , ‘ॐ नमो भिि ते िासुदेिाय’

इस दादश अकर मंत अििा

िुरमंत का जाप करँ िा, राम, कृ षण , नारायण इतयािद ििषणुसहसनाम को कणठ का भूषण बनाऊँिा ।’ – ऐसी पितजा करके शीििषणु भििान का समरण कर पािन ज ा करे िक : ‘हे ितलोकपित ! मेरी लाज आपके हाि है , अत: मुझे इस पण को पूरा करने की शिक पदान करे ।’ मौन, जप, शास पठन , कीतन ज , राित जािरण एकादशी वत मे ििशेष लाभ पँहुचाते है । एकादशी के िदन अशुद िवय से बने पेय न पीये । कोलड ििं कस, एिसड आिद डाले हुए

फलो के िडबबाबंद रस को न पीये । दो बार भोजन न करे । आइसकीम ि तली हुई चीजे न खाये । फल अििा घर मे िनकाला हुआ फल का रस अििा िोड़े दध ू या जल पर रहना ििशेष

लाभदायक है । वत के (दशमी, एकादशी और दादशी) –इन तीन िदनो मे काँसे के बतन ज , मांस, पयाज, लहसुन, मसूर, उड़द, चने, कोदो (एक पकार का धान), शाक, शहद, तेल और अतयमबुपान (अिधक जल का सेिन) – इनका सेिन न करे । वत के पहले िदन (दशमी को) और दस ू रे िदन

(दादशी को) हििषयािन (जौ, िेहूँ, मूँि, सेधा नमक, कालीिमचज, शकजरा और िोघत ृ आिद) का एक बार भोजन करे ।

फलाहारी को िोभी, िाजर, शलजम, पालक, कुलफा का साि इतयािद सेिन नहीं करना चािहए । आम, अंिूर, केला, बादाम, िपसता इतयािद अमत ृ फलो का सेिन करना चािहए ।

जुआ, िनिा, पान, परायी िनिदा, चि ु ली, चोरी, िहं सा, मैिन ु , कोध तिा झूठ, कपटािद अिय कुकमो से िनताित दरू रहना चािहए । बैल की पीठ पर सिारी न करे । भूलिश िकसी िनिदक से बात हो जाय तो इस दोष को दरू करने के िलए भििान सूयज

के दशन ज तिा धप ू दीप से शीहिर की पूजा कर कमा माँि लेनी चािहए । एकादशी के िदन घर मे झाडू नहीं लिाये, इससे चींटी आिद सूकम जीिो की मतृयु का भय रहता है । इस िदन बाल नहीं कटाये । मधरु बोले, अिधक न बोले, अिधक बोलने से न बोलने योिय िचन भी िनकल जाते है । सतय भाषण करना चािहए । इस िदन यिाशिक अिनदान करे िकितु सियं िकसीका िदया हुआ

अिन कदािप गहण न करे । पतयेक िसतु पभु को भोि लिाकर तिा तुलसीदल छोड़कर गहण करनी चािहए । एकादशी के िदन िकसी समबिधी की मतृयु हो जाय तो उस िदन वत रखकर उसका फल संकलप करके मत ृ क को दे ना चािहए और शीिंिाजी मे पुषप (अिसि) पिािहत करने पर भी एकादशी वत रखकर वत फल पाणी के िनिमि दे दे ना चािहए । पािणमात को अितयाम ज ी का अितार समझकर िकसीसे छल कपट नहीं करना चािहए । अपना अपमान करने या कटु िचन बोलनेिाले पर भूलकर भी कोध नहीं करे । सितोष का फल सिद ज ा मधरु होता है । मन मे दया रखनी चािहए । इस िििध से वत करनेिाला उिम फल को पाप करता है । दादशी के िदन बाहणो को िमषािन, दिकणािद से पसिन कर उनकी पिरकमा कर लेनी चािहए ।

वत खोल ने की िििध : दादशी को सेिापूजा की जिह पर बैठकर भुने हुए सात चनो के चौदह टु कड़े करके अपने

िसर के पीछे फेकना चािहए । ‘मेरे सात जिमो के शारीिरक, िािचक और मानिसक पाप नष हुए’ – यह भािना करके सात अंजिल जल पीना और चने के सात दाने खाकर वत खोलना चािहए ।

1.

उतपिि एकादशी उतपिि एकादशी का वत हे मित ॠतु मे मािश ज ीष ज मास के कृ षणपक ( िुजरात महाराष

के अनुसार काितक ज ) को करना चािहए । इसकी किा इस पकार है : यु िधिषर

ने भििान

शीकृषण से पूछा

: भििन ् ! पुणयमयी एकादशी ितिि कैसे उतपिन

हुई? इस संसार मे िह कयो पिित मानी ियी तिा दे िताओं को कैसे िपय हुई? शी भििान

बो ले : कुितीनिदन ! पाचीन समय की बात है । सतययुि मे मुर नामक दानि

रहता िा । िह बड़ा ही अदभुत, अतयित रौि तिा समपूण ज दे िताओं के िलए भयंकर िा । उस कालरपधारी दरुातमा महासुर ने इिि को भी जीत िलया िा । समपूण ज दे िता उससे परासत होकर सिि ज से िनकाले जा चक ु े िे और शंिकत तिा भयभीत होकर पथ ृ िी पर ििचरा करते िे । एक

िदन सब दे िता महादे िजी के पास िये । िहाँ इिि ने भििान िशि के आिे सारा हाल कह सुनाया । इिि बो ले : महे शर ! ये दे िता सििल ज ोक से िनकाले जाने के बाद पथ ृ िी पर ििचर रहे है । मनुषयो के बीच रहना इिहे शोभा नहीं दे ता । दे ि ! कोई उपाय बतलाइये । दे िता िकसका सहारा ले ? महाद ेिजी

ने कहा : दे िराज ! जहाँ सबको शरण दे नेिाले, सबकी रका मे ततपर रहने िाले

जित के सिामी भििान िरड़धिज ििराजमान है , िहाँ जाओ । िे तुम लोिो की रका करे िे । भििान

शीकृषण कह ते है : युिधिषर ! महादे िजी की यह बात सुनकर परम बुिदमान दे िराज

इिि समपूण ज दे िताओं के साि कीरसािर मे िये जहाँ भििान िदाधर सो रहे िे । इिि ने हाि जोड़कर उनकी सतुित की । इिि बोल े : दे िदे िेशर ! आपको नमसकार है ! दे ि ! आप ही पित, आप ही मित, आप ही किाज और आप ही कारण है । आप ही सब लोिो की माता और आप ही इस जित के िपता है । दे िता और दानि दोनो ही आपकी ििदना करते है । पुणडरीकाक ! आप दै तयो के शतु है । मधस ु ूदन ! हम लोिो की रका कीिजये । पभो ! जििनाि ! अतयित उग सिभाििाले महाबली मुर नामक दै तय ने इन समपूण ज दे िताओं को जीतकर सिि ज से बाहर िनकाल िदया है । भििन ् ! दे िदे िेशर ! शरणाितितसल ! दे िता भयभीत होकर आपकी शरण मे आये है । दानिो का ििनाश करनेिाले कमलनयन ! भकितसल ! दे िदे िेशर ! जनादजन ! हमारी रका कीिजये… रका कीिजये । भििन ् ! शरण मे आये हुए दे िताओं की सहायता कीिजये ।

इिि की बात सुनकर

भििान

ििषण ु बो ले : दे िराज ! यह दानि कैसा है ? उसका रप

और बल कैसा है तिा उस दष ु के रहने का सिान कहाँ है ? इिि बो ले : दे िेशर ! पूिक ज ाल मे बहाजी के िंश मे तालजंघ नामक एक महान असुर उतपिन हुआ िा, जो अतयित भयंकर िा । उसका पुत मुर दानि के नाम से ििखयात है । िह भी

अतयित उतकट, महापराकमी और दे िताओं के िलए भयंकर है । चििािती नाम से पिसद एक निरी है , उसीमे सिान बनाकर िह िनिास करता है । उस दै तय ने समसत दे िताओं को परासत करके उिहे सििल ज ोक से बाहर कर िदया है । उसने एक दस ू रे ही इिि को सिि ज के िसंहासन पर

बैठाया है । अििन, चििमा, सूयज, िायु तिा िरण भी उसने दस ू रे ही बनाये है । जनादज न ! मै सचची बात बता रहा हूँ । उसने सब कोई दस ू रे ही कर िलये है । दे िताओं को तो उसने उनके पतयेक सिान से िंिचत कर िदया है ।

इिि की यह बात सुनकर भििान जनादज न को बड़ा कोध आया । उिहोने दे िताओं को साि लेकर चििािती निरी मे पिेश िकया । भििान िदाधर ने दे खा िक “दै तयराज बारं बार िजन ज ा कर रहा है और उससे परासत होकर समपूणज दे िता दसो िदशाओं मे भाि रहे है ।’ अब िह दानि भििान ििषणु को दे खकर बोला : ‘खड़ा रह … खड़ा रह ।’ उसकी यह ललकार सुनकर भििान के नेत कोध से लाल हो िये । िे बोले : ‘ अरे दरुाचारी दानि ! मेरी इन भुजाओं को

दे ख ।’ यह कहकर शीििषणु ने अपने िदवय बाणो से सामने आये हुए दष ु दानिो को मारना आरमभ िकया । दानि भय से ििहल हो उठे । पाणडडनिदन ! ततपशात ् शीििषणु ने दै तय सेना पर चक का पहार िकया । उससे िछिन िभिन होकर सैकड़ो योदा मौत के मुख मे चले िये ।

इसके बाद भििान मधस ु ूदन बदिरकाशम को चले िये । िहाँ िसंहािती नाम की िुफा िी, जो बारह योजन लमबी िी । पाणडडनिदन ! उस िुफा मे एक ही दरिाजा िा । भििान ििषणु उसीमे सो िये । िह दानि मुर भििान को मार डालने के उदोि मे उनके पीछे पीछे तो लिा ही िा । अत: उसने भी उसी िुफा मे पिेश िकया । िहाँ भििान को सोते दे ख उसे बड़ा हष ज हुआ । उसने सोचा : ‘यह दानिो को भय दे नेिाला दे िता है । अत: िन:सिदे ह इसे मार

डालूँिा ।’ युिधिषर ! दानि के इस पकार ििचार करते ही भििान ििषणु के शरीर से एक किया पकट हुई, जो बड़ी ही रपिती, सौभाियशािलनी तिा िदवय अस शसो से सुसििजत िी । िह

भििान के तेज के अंश से उतपिन हुई िी । उसका बल और पराकम महान िा । युिधिषर ! दानिराज मुर ने उस किया को दे खा । किया ने युद का ििचार करके दानि के साि युद के िलए याचना की । युद िछड़ िया । किया सब पकार की युदकला मे िनपुण िी । िह मुर नामक महान असुर उसके हुंकारमात से राख का ढे र हो िया । दानि के मारे जाने पर भििान

जाि उठे । उिहोने दानि को धरती पर इस पकार िनषपाण पड़ा दे खकर किया से पूछा : ‘मेरा यह शतु अतयित उग और भयंकर िा । िकसने इसका िध िकया है ?’

किया बोली : सिािमन ् ! आपके ही पसाद से मैने इस महादै तय का िध िकया है । शी भििान

ने कहा

: कलयाणी ! तुमहारे इस कम ज से तीनो लोको के मुिन और दे िता

आनििदत हुए है । अत: तुमहारे मन मे जैसी इचछा हो, उसके अनुसार मुझसे कोई िर माँि लो । दे िदल ज होने पर भी िह िर मै तुमहे दँि ु भ ू ा, इसमे तिनक भी संदेह नहीं है । िह किया साकात ् एकादशी ही िी। उसने कहा: ‘पभो ! यिद आप पसिन है तो मै आपकी कृ पा से सब तीिो मे पधान, समसत ििघनो का नाश करनेिाली तिा सब पकार की िसिद दे नेिाली दे िी होऊँ । जनादज न ! जो लोि आपमे भिक रखते हुए मेरे िदन को उपिास करे िे, उिहे सब पकार की िसिद पाप हो ।

माधि ! जो लोि उपिास, नक भोजन अििा एकभुक करके मेरे वत का पालन करे , उिहे आप धन, धमज और मोक पदान कीिजये ।’ शी ििषण ु बो ले : कलयाणी ! तुम जो कुछ कहती हो, िह सब पूणज होिा । भििान

शीकृषण कह ते है : युिधिषर ! ऐसा िर पाकर महावता एकादशी बहुत पसिन हुई ।

दोनो पको की एकादशी समान रप से कलयाण करनेिाली है । इसमे शुकल और कृ षण का भेद

नहीं करना चािहए । यिद उदयकाल मे िोड़ी सी एकादशी, मधय मे पूरी दादशी और अित मे िकंिचत ् तयोदशी हो तो िह ‘ितसपश ृ ा एकादशी’ कहलाती है । िह भििान को बहुत ही िपय है । यिद एक ‘ितसपश ृ ा एकादशी’ को उपिास कर िलया जाय तो एक हजार एकादशी वतो का फल

पाप होता है तिा इसी पकार दादशी मे पारण करने पर हजार िुना फल माना िया है । अषमी, एकादशी, षषी, तत ृ ीय और चतुदजशी – ये यिद पूििजतिि से ििद हो तो उनमे वत नहीं करना चािहए । परिितन ज ी ितिि से युक होने पर ही इनमे उपिास का ििधान है । पहले िदन मे और रात मे भी एकादशी हो तिा दस ू रे िदन केिल पात: काल एकदणड एकादशी रहे तो पहली ितिि का पिरतयाि करके दस ू रे िदन की दादशीयुक एकादशी को ही उपिास करना चािहए । यह िििध मैने दोनो पको की एकादशी के िलए बतायी है ।

जो मनुषय एकादशी को उपिास करता है , िह िैकुणठधाम मे जाता है , जहाँ साकात ्

भििान िरड़धिज ििराजमान रहते है । जो मानि हर समय एकादशी के माहातमय का पाठ करता है , उसे हजार िौदान के पुणय का फल पाप होता है । जो िदन या रात मे भिकपूिक ज इस

माहातमय का शिण करते है , िे िन:संदेह बहहतया आिद पापो से मुक हो जाते है । एकादशी के समान पापनाशक वत दस ू रा कोई नहीं है ।

2. मो कदा एका दशी यु िधिषर

बो ले : दे िदे िेशर ! मािश ज ीषज मास के शुकलपक मे कौन सी एकादशी होती है ? उसकी

कया िििध है तिा उसमे िकस दे िता का पूजन िकया जाता है ? सिािमन ् ! यह सब यिािज रप से बताइये ।

शीकृषण ने कहा

: नप ृ शष े ! मािश ज ीष ज मास के शुकलपक की एकादशी का िणन ज करँ िा, िजसके

शिणमात से िाजपेय यज का फल िमलता है । उसका नाम ‘मोकदा एकादशी’ है जो सब पापो का अपहरण करनेिाली है । राजन ् ! उस िदन यतपूिक ज तुलसी की मंजरी तिा धप ू दीपािद से भििान दामोदर का पूजन करना चािहए । पूिाक ज िििध से ही दशमी और एकादशी के िनयम का

पालन करना उिचत है । मोकदा एकादशी बड़े बड़े पातको का नाश करनेिाली है । उस िदन राित मे मेरी पसििता के िलए नतृय, िीत और सतुित के दारा जािरण करना चािहए । िजसके िपतर पापिश नीच योिन मे पड़े हो, िे इस एकादशी का वत करके इसका पुणयदान अपने िपतरो को करे तो िपतर मोक को पाप होते है । इसमे तिनक भी संदेह नहीं है । पूिक ज ाल की बात है , िैषणिो से ििभूिषत परम रमणीय चमपक निर मे िैखानस नामक राजा रहते िे । िे अपनी पजा का पुत की भाँित पालन करते िे । इस पकार रािय करते हुए राजा ने

एक िदन रात को सिपन मे अपने िपतरो को नीच योिन मे पड़ा हुआ दे खा । उन सबको इस

अिसिा मे दे खकर राजा के मन मे बड़ा ििसमय हुआ और पात: काल बाहणो से उिहोने उस सिपन का सारा हाल कह सुनाया ।

राजा बो ले : बहाणो ! मैने अपने िपतरो को नरक मे ििरा हुआ दे खा है । िे बारं बार रोते हुए

मुझसे यो कह रहे िे िक : ‘तुम हमारे तनुज हो, इसिलए इस नरक समुि से हम लोिो का उदार करो। ’ िदजिरो ! इस रप मे मुझे िपतरो के दशन ज हुए है इससे मुझे चन ै नहीं िमलता ।

कया करँ ? कहाँ जाऊँ? मेरा हदय रँ धा जा रहा है । िदजोिमो ! िह वत, िह तप और िह योि, िजससे मेरे पूिज ज ततकाल नरक से छुटकारा पा जाये, बताने की कृ पा करे । मुझ बलिान तिा साहसी पुत के जीते जी मेरे माता िपता घोर नरक मे पड़े हुए है ! अत: ऐसे पुत से कया लाभ है ?

बाहण बो ले : राजन ् ! यहाँ से िनकट ही पित ज मुिन का महान आशम है । िे भूत और भििषय के भी जाता है । नप ृ शष े ! आप उिहींके पास चले जाइये ।

बाहणो की बात सुनकर महाराज िैखानस शीघ ही पित ज मुिन के आशम पर िये और िहाँ उन मुिनशष े को दे खकर उिहोने दणडित ् पणाम करके मुिन के चरणो का सपशज िकया । मुिन ने भी राजा से रािय के सातो अंिो की कुशलता पूछी ।

राजा बो ले : सिािमन ् ! आपकी कृ पा से मेरे रािय के सातो अंि सकुशल है िकितु मैने सिपन मे

दे खा है िक मेरे िपतर नरक मे पड़े है । अत: बताइये िक िकस पुणय के पभाि से उनका िहाँ से छुटकारा होिा ? राजा की यह बात सुनकर मुिनशष े पित ज एक मुहूत ज तक धयानसि रहे । इसके बाद िे

राजा से बोले :

‘महाराज! मािश ज ीष ज के शुकलपक मे जो ‘मोकदा’ नाम की एकादशी होती है , तुम सब लोि उसका वत करो और उसका पुणय िपतरो को दे डालो । उस पुणय के पभाि से उनका नरक से उदार हो जायेिा ।’ भििान

शीकृषण कह ते है

: युिधिषर ! मुिन की यह बात सुनकर राजा पुन: अपने घर लौट

आये । जब उिम मािश ज ीष ज मास आया, तब राजा िैखानस ने मुिन के किनानुसार ‘मोकदा एकादशी’ का वत करके उसका पुणय समसत िपतरोसिहत िपता को दे िदया । पुणय दे ते ही कणभर मे आकाश से फूलो की िषाज होने लिी । िैखानस के िपता िपतरोसिहत नरक से छुटकारा पा िये और आकाश मे आकर राजा के पित यह पिित िचन बोले: ‘बेटा ! तुमहारा कलयाण हो ।’ यह कहकर िे सििज मे चले िये । राजन ् ! जो इस पकार कलयाणमयी ‘‘मोकदा एकादशी’ का वत करता है , उसके पाप नष

हो जाते है और मरने के बाद िह मोक पाप कर लेता है । यह मोक दे नेिाली ‘मोकदा एकादशी’

मनुषयो के िलए िचितामिण के समान समसत कामनाओं को पूण ज करनेिाली है । इस माहातमय के पढ़ने और सुनने से िाजपेय यज का फल िमलता है ।

3. सफला एकादशी यु िधिषर

ने पूछा : सिािमन ् ! पौष मास के कृ षणपक (िुज., महा. के िलए मािश ज ीषज) मे जो

एकादशी होती है , उसका कया नाम है ? उसकी कया िििध है तिा उसमे िकस दे िता की पूजा की जाती है ? यह बताइये । भििान

शीकृषण कह ते है

: राजेिि ! बड़ी बड़ी दिकणािाले यजो से भी मुझे उतना संतोष

नहीं होता, िजतना एकादशी वत के अनुषान से होता है । पौष मास के कृ षणपक मे ‘सफला’ नाम की एकादशी होती है । उस िदन िििधपूिक ज भििान नारायण की पूजा करनी चािहए । जैसे नािो मे शेषनाि, पिकयो मे िरड़ तिा दे िताओं मे शीििषणु शष े है , उसी पकार समपूण ज वतो मे एकादशी ितिि शष े है । राजन ् ! ‘सफला एकादशी’ को नाम मंतो का उचचारण करके नािरयल के फल, सुपारी,

िबजौरा तिा जमीरा नींबू, अनार, सुिदर आँिला, लौि, बेर तिा ििशेषत: आम के फलो और धप ू दीप से शीहिर का पूजन करे । ‘सफला एकादशी’ को ििशेष रप से दीप दान करने का ििधान है

। रात को िैषणि पुरषो के साि जािरण करना चािहए । जािरण करनेिाले को िजस फल की पािप होती है , िह हजारो िषज तपसया करने से भी नहीं िमलता । नप ृ शष े ! अब ‘सफला एकादशी’ की शुभकािरणी किा सुनो । चमपािती नाम से ििखयात एक पुरी है , जो कभी राजा मािहषमत की राजधानी िी । राजिष ज मािहषमत के पाँच पुत िे । उनमे जो ियेष िा, िह सदा पापकम ज मे ही लिा रहता िा । परसीिामी और िेशयासक िा । उसने िपता के धन को पापकम ज मे ही खच ज िकया । िह सदा दरुाचारपरायण तिा िैषणिो और

दे िताओं की िनिदा िकया करता िा । अपने पुत को ऐसा पापाचारी दे खकर राजा मािहषमत ने राजकुमारो मे उसका नाम लुमभक रख िदया। िफर िपता और भाईयो ने िमलकर उसे रािय से बाहर िनकाल िदया । लुमभक िहन िन मे चला िया । िहीं रहकर उसने पाय: समूचे निर का धन लूट िलया । एक िदन जब िह रात मे चोरी करने के िलए निर मे आया तो िसपािहयो ने उसे पकड़ िलया । िकितु जब उसने अपने को राजा मािहषमत का पुत बतलाया तो िसपािहयो ने उसे छोड़ िदया । िफर िह िन मे लौट आया और मांस तिा िक ृ ो के फल खाकर जीिन िनिाह ज करने लिा । उस दष ृ बहुत िषो पुराना िा । उस िन मे िह िक ृ ु का ििशाम सिान पीपल िक एक महान दे िता माना जाता िा । पापबुिद लुमभक िहीं िनिास करता िा ।

एक िदन िकसी संिचत पुणय के पभाि से उसके दारा एकादशी के वत का पालन हो िया । पौष मास मे कृ षणपक की दशमी के िदन पािपष लुमभक ने िक ृ ो के फल खाये और िसहीन

होने के कारण रातभर जाड़े का कष भोिा । उस समय न तो उसे नींद आयी और न आराम ही िमला । िह िनषपाण सा हो रहा िा । सूयोदय होने पर भी उसको होश नहीं आया । ‘सफला एकादशी’ के िदन भी लुमभक बेहोश पड़ा रहा । दोपहर होने पर उसे चेतना पाप हुई । िफर इधर

उधर दिष डालकर िह आसन से उठा और लँिड़े की भाँित लड़खड़ाता हुआ िन के भीतर िया । िह भूख से दब ज और पीिड़त हो रहा िा । राजन ् ! लुमभक बहुत से फल लेकर जब तक ििशाम ु ल सिल पर लौटा, तब तक सूयद ज े ि असत हो िये । तब उसने उस पीपल िक ृ की जड़ मे बहुत से

फल िनिेदन करते हुए कहा: ‘इन फलो से लकमीपित भििान ििषणु संतुष हो ।’ यो कहकर लुमभक ने रातभर नींद नहीं ली । इस पकार अनायास ही उसने इस वत का पालन कर िलया ।

उस समय सहसा आकाशिाणी हुई: ‘राजकुमार ! तुम ‘सफला एकादशी’ के पसाद से रािय और पुत पाप करोिे ।’ ‘बहुत अचछा’ कहकर उसने िह िरदान सिीकार िकया । इसके बाद उसका रप

िदवय हो िया । तबसे उसकी उिम बुिद भििान ििषणु के भजन मे लि ियी । िदवय आभूषणो से सुशोिभत होकर उसने िनषकणटक रािय पाप िकया और पंिह िषो तक िह उसका संचालन करता रहा । उसको मनोज नामक पुत उतपिन हुआ । जब िह बड़ा हुआ , तब लुमभक ने तुरंत ही रािय की ममता छोड़कर उसे पुत को सौप िदया और िह सियं भििान शीकृ षण के समीप चला िया, जहाँ जाकर मनुषय कभी शोक मे नहीं पड़ता । राजन ् ! इस पकार जो ‘सफला एकादशी’ का उिम वत करता है , िह इस लोक मे सुख

भोिकर मरने के पशात ् मोक को पाप होता है । संसार मे िे मनुषय धिय है , जो ‘सफला एकादशी’ के वत मे लिे रहते है , उिहीं का जिम सफल है । महाराज! इसकी मिहमा को पढ़ने, सुनने तिा उसके अनुसार आचरण करने से मनुषय राजसूय यज का फल पाता है ।

4. पुतदा ए कादशी यु िधिषर

बो ले : शीकृ षण ! कृ पा करके पौष मास के शुकलपक की एकादशी का माहातमय

बतलाइये । उसका नाम कया है ? उसे करने की िििध कया है ? उसमे िकस दे िता का पूजन िकया जाता है ? भििान

शीकृषण ने कहा : राजन ्! पौष मास के शुकलपक की जो एकादशी है , उसका नाम

‘पुतदा’ है ।

‘पुतदा एकादशी’ को नाम-मंतो का उचचारण करके फलो के दारा शीहिर का पूजन करे । नािरयल के फल, सुपारी, िबजौरा नींबू, जमीरा नींबू, अनार, सुिदर आँिला, लौि, बेर तिा ििशेषत: आम के फलो से दे िदे िेशर शीहिर की पूजा करनी चािहए । इसी पकार धप ू दीप से भी भििान की अचन ज ा करे । ‘पुतदा एकादशी’ को ििशेष रप से दीप दान करने का ििधान है । रात को िैषणि पुरषो के साि जािरण करना चािहए । जािरण करनेिाले को िजस फल की पािप होित है , िह हजारो िषज तक तपसया करने से भी नहीं िमलता । यह सब पापो को हरनेिाली उिम ितिि है । चराचर जितसिहत समसत ितलोकी मे इससे बढ़कर दस ू री कोई ितिि नहीं है । समसत

कामनाओं तिा िसिदयो के दाता भििान नारायण इस ितिि के अिधदे िता है ।

पूिक ज ाल की बात है , भिाितीपुरी मे राजा सुकेतुमान रािय करते िे । उनकी रानी का नाम चमपा िा । राजा को बहुत समय तक कोई िंशधर पुत नहीं पाप हुआ । इसिलए दोनो पित पती सदा िचिता और शोक मे डू बे रहते िे । राजा के िपतर उनके िदये हुए जल को

शोकोचछिास से िरम करके पीते िे । ‘राजा के बाद और कोई ऐसा नहीं िदखायी दे ता, जो हम लोिो का तपण ज करे िा …’ यह सोच सोचकर िपतर द ु:खी रहते िे । एक िदन राजा घोड़े पर सिार हो िहन िन मे चले िये । पुरोिहत आिद िकसीको भी इस बात का पता न िा । मि ृ और पिकयो से सेिित उस सघन कानन मे राजा भमण करने लिे । मािज मे कहीं िसयार की बोली सुनायी पड़ती िी तो कहीं उललुओं की । जहाँ तहाँ भालू और मि ृ दिषिोचर हो रहे िे । इस पकार घूम घूमकर राजा िन की शोभा दे ख रहे िे , इतने मे दोपहर हो ियी । राजा को भूख और पयास सताने लिी । िे जल की खोज मे इधर उधर भटकने लिे । िकसी पुणय के पभाि से उिहे एक उिम सरोिर िदखायी िदया, िजसके समीप मुिनयो के बहुत से

आशम िे । शोभाशाली नरे श ने उन आशमो की ओर दे खा । उस समय शुभ की सूचना दे नेिाले

शकुन होने लिे । राजा का दािहना नेत और दािहना हाि फड़कने लिा, जो उिम फल की सूचना दे रहा िा । सरोिर के तट पर बहुत से मुिन िेदपाठ कर रहे िे । उिहे दे खकर राजा को बड़ा

हष ज हुआ । िे घोड़े से उतरकर मुिनयो के सामने खड़े हो िये और पि ृ क् पि ृ क् उन सबकी

ििदना करने लिे । िे मुिन उिम वत का पालन करनेिाले िे । जब राजा ने हाि जोड़कर बारं बार दणडित ् िकया, तब मुिन बोले : ‘राजन ् ! हम लोि तुम पर पसिन है ।’ राजा

बोल े : आप लोि कौन है ? आपके नाम कया है तिा आप लोि िकसिलए यहाँ एकितत

हुए है ? कृ पया यह सब बताइये ।

मु िन बो ले : राजन ् ! हम लोि ििशेदेि है । यहाँ सनान के िलए आये है । माघ मास िनकट

आया है । आज से पाँचिे िदन माघ का सनान आरमभ हो जायेिा । आज ही ‘पुतदा’ नाम की एकादशी है ,जो वत करनेिाले मनुषयो को पुत दे ती है । राजा न े कहा : ििशेदेििण ! यिद आप लोि पसिन है तो मुझे पुत दीिजये। मु िन बो ले : राजन ्! आज ‘पुतदा’ नाम की एकादशी है । इसका वत बहुत ििखयात है । तुम आज

इस उिम वत का पालन करो । महाराज! भििान केशि के पसाद से तुमहे पुत अिशय पाप होिा । भििान

शीकृषण कह ते है : युिधिषर ! इस पकार उन मुिनयो के कहने से राजा ने उक उिम

वत का पालन िकया । महिषय ज ो के उपदे श के अनुसार िििधपूिक ज ‘पुतदा एकादशी’ का अनुषान िकया । िफर दादशी को पारण करके मुिनयो के चरणो मे बारं बार मसतक झुकाकर राजा अपने घर आये । तदनितर रानी ने िभध ज ारण िकया । पसिकाल आने पर पुणयकमा ज राजा को तेजसिी पुत पाप हुआ, िजसने अपने िुणो से िपता को संतुष कर िदया । िह पजा का पालक हुआ । इसिलए राजन ्! ‘पुतदा’ का उिम वत अिशय करना चािहए । मैने लोिो के िहत के िलए तुमहारे

सामने इसका िणन ज िकया है । जो मनुषय एकागिचि होकर ‘पुतदा एकादशी’ का वत करते है , िे इस लोक मे पुत पाकर मतृयु के पशात ् सििि ज ामी होते है । इस माहातमय को पढ़ने और सुनने से अििनषोम यज का फल िमलता है ।

5. षट ितल ा एकादशी यु िधिषर

ने शीकृषण से पूछा : भििन ् ! माघ मास के कृ षणपक मे कौन सी एकादशी होती

है ? उसके िलए कैसी िििध है तिा उसका फल कया है ? कृ पा करके ये सब बाते हमे बताइये । शी भििान

बोल े : नप ृ शष े ! माघ (िुजरात महाराष के अनुसार पौष) मास के कृ षणपक की

एकादशी ‘षटितला’ के नाम से ििखयात है , जो सब पापो का नाश करनेिाली है । मुिनशष े

पुलसतय ने इसकी जो पापहािरणी किा दालभय से कही िी, उसे सुनो । दालभय

ने पूछा : बहन ्! मतृयुलोक मे आये हुए पाणी पाय: पापकम ज करते रहते है ।

उिहे नरक मे न जाना पड़े इसके िलए कौन सा उपाय है ? बताने की कृ पा करे । पुलसतयजी

बोल े : महाभाि ! माघ मास आने पर मनुषय को चािहए िक िह नहा धोकर

पिित हो इििियसंयम रखते हुए काम, कोध, अहं कार ,लोभ और चुिली आिद बुराइयो को तयाि दे । दे िािधदे ि भििान का समरण करके जल से पैर धोकर भूिम पर पड़े हुए

िोबर का संगह करे । उसमे ितल और कपास िमलाकर एक सौ आठ िपंिडकाएँ बनाये ।

िफर माघ मे जब आिाज या मूल नकत आये, तब कृ षणपक की एकादशी करने के िलए िनयम

गहण करे । भली भाँित सनान करके पिित हो शुद भाि से दे िािधदे ि शीििषणु की पूजा करे । कोई भूल हो जाने पर शीकृ षण का नामोचचारण करे । रात को जािरण और होम करे । चिदन, अरिजा, कपूर, नैिेघ आिद सामगी से शंख, चक और िदा धारण करनेिाले दे िदे िेशर शीहिर की पूजा करे । ततपशात ् भििान का समरण करके बारं बार शीकृ षण नाम का उचचारण करते हुए कुमहड़े , नािरयल अििा िबजौरे के फल से भििान को िििधपूिक ज पूजकर अधय ज दे । अिय सब

सामिगयो के अभाि मे सौ सुपािरयो के दारा भी पूजन और अधयद ज ान िकया जा सकता है । अधयज का मंत इस पकार है : कृषण कृषण क ृपाल ुसति मितीना ं िितभ ज ि । संसाराण ज ि मिन ाना ं प सीद प ुरषोि म ॥ नमस ते पुणडरीकाक

नमसत े ििशभािन



सुब हणय नमसत े S सतु म हाप ुरष पूि ज ज ॥ िृ हाणाधय य मया दि ं लकमया स ह जितप ते ।

‘सिचचदानिदसिरप शीकृ षण ! आप बड़े दयालु है । हम आशयहीन जीिो के आप आशयदाता होइये । हम संसार समुि मे डू ब रहे है , आप हम पर पसिन होइये । कमलनयन ! ििशभािन ! सुबहणय ! महापुरष ! सबके पूिज ज ! आपको नमसकार है ! जितपते ! मेरा िदया हुआ अधयज आप लकमीजी के साि सिीकार करे ।’

ततपशात ् बाहण की पूजा करे । उसे जल का घड़ा, छाता, जूता और िस दान करे । दान करते

समय ऐसा कहे : ‘इस दान के दारा भििान शीकृ षण मुझ पर पसिन हो ।’ अपनी शिक के अनुसार शष े बाहण को काली िौ का दान करे । िदजशष े ! ििदान पुरष को चािहए िक िह ितल से भरा हुआ पात भी दान करे । उन ितलो के बोने पर उनसे िजतनी शाखाएँ पैदा हो सकती है , उतने हजार िषो तक िह सििल ज ोक मे पितिषत होता है । ितल से सनान होम करे , ितल का उबटन लिाये, ितल िमलाया हुआ जल पीये, ितल का दान करे और ितल को भोजन के काम मे ले ।’

इस पकार हे नप ृ शष े ! छ: कामो मे ितल का उपयोि करने के कारण यह एकादशी

‘षटितला’ कहलाती है , जो सब पापो का नाश करनेिाली है ।

6. जया एका दशी यु िधिषर

ने भििान

शीकृषण से पूछा

: भििन ् ! कृ पा करके यह बताइये िक माघ मास के

शुकलपक मे कौन सी एकादशी होती है , उसकी िििध कया है तिा उसमे िकस दे िता का पूजन िकया जाता है ? भििान

शीकृषण बोल े : राजेिि ! माघ मास के शुकलपक मे जो एकादशी होती है , उसका

नाम ‘जया’ है । िह सब पापो को हरनेिाली उिम ितिि है । पिित होने के साि ही पापो का नाश करनेिाली तिा मनुषयो को भाि और मोक पदान करनेिाली है । इतना ही नहीं , िह बहहतया जैसे पाप तिा िपशाचति का भी ििनाश करनेिाली है । इसका वत करने पर मनुषयो को कभी पेतयोिन मे नहीं जाना पड़ता । इसिलए राजन ् ! पयतपूिक ज ‘जया’ नाम की एकादशी का वत करना चािहए ।

एक समय की बात है । सििल ज ोक मे दे िराज इिि रािय करते िे । दे ििण पािरजात िक ृ ो से युक नंदनिन मे अपसराओं के साि ििहार कर रहे िे । पचास करोड़ ििधिो के नायक दे िराज इिि ने सिेचछानुसार िन मे ििहार करते हुए बड़े हषज के साि नतृय का आयोजन िकया । ििधि ज उसमे िान कर रहे िे, िजनमे पुषपदित, िचतसेन तिा उसका पुत – ये तीन पधान िे ।

िचतसेन की सी का नाम मािलनी िा । मािलनी से एक किया उतपिन हुई िी, जो पुषपििती के नाम से ििखयात िी । पुषपदित ििधि ज का एक पुत िा, िजसको लोि मालयिान कहते िे । मालयिान पुषपििती के रप पर अतयित मोिहत िा । ये दोनो भी इिि के संतोषाि ज नतृय करने के िलए आये िे । इन दोनो का िान हो रहा िा । इनके साि अपसराएँ भी िीं । परसपर अनुराि के कारण ये दोनो मोह के िशीभूत हो िये । िचि मे भािित आ ियी इसिलए िे शुद िान न िा सके । कभी ताल भंि हो जाता िा तो कभी िीत बंद हो जाता िा । इिि ने इस पमाद पर ििचार िकया और इसे अपना अपमान समझकर िे कुिपत हो िये । अत: इन दोनो को शाप दे ते हुए बोले : ‘ओ मूखो ! तुम दोनो को िधककार है ! तुम

लोि पितत और मेरी आजाभंि करनेिाले हो, अत: पित पती के रप मे रहते हुए िपशाच हो जाओ ।’

इिि के इस पकार शाप दे ने पर इन दोनो के मन मे बड़ा द ु :ख हुआ । िे िहमालय पित ज

पर चले िये और िपशाचयोिन को पाकर भयंकर द ु:ख भोिने लिे । शारीिरक पातक से उतपिन

ताप से पीिड़त होकर दोनो ही पित ज की किदराओं मे ििचरते रहते िे । एक िदन िपशाच ने अपनी पती िपशाची से कहा : ‘हमने कौन सा पाप िकया है , िजससे यह िपशाचयोिन पाप हुई है

? नरक का कष अतयित भयंकर है तिा िपशाचयोिन भी बहुत द ु:ख दे नेिाली है । अत: पूणज पयत करके पाप से बचना चािहए ।’

इस पकार िचितामिन होकर िे दोनो द ु:ख के कारण सूखते जा रहे िे । दै ियोि से उिहे

माघ मास के शुकलपक की एकादशी की ितिि पाप हो ियी । ‘जया’ नाम से ििखयात िह ितिि सब ितिियो मे उिम है । उस िदन उन दोनो ने सब पकार के आहार तयाि िदये, जल पान तक नहीं िकया । िकसी जीि की िहं सा नहीं की, यहाँ तक िक खाने के िलए फल तक नहीं काटा । िनरितर द ु:ख से युक होकर िे एक पीपल के समीप बैठे रहे । सूयास ज त हो िया । उनके पाण हर

लेने िाली भयंकर राित उपिसित हुई । उिहे नींद नहीं आयी । िे रित या और कोई सुख भी नहीं पा सके ।

सूयाद ज य हुआ, दादशी का िदन आया । इस पकार उस िपशाच दं पित के दारा ‘जया’ के

उिम वत का पालन हो िया । उिहोने रात मे जािरण भी िकया िा । उस वत के पभाि से

तिा भििान ििषणु की शिक से उन दोनो का िपशाचति दरू हो िया । पुषपििती और मालयिान अपने पूिर ज प मे आ िये । उनके हदय मे िही पुराना सनेह उमड़ रहा िा । उनके शरीर पर पहले जैसे ही अलंकार शोभा पा रहे िे । िे दोनो मनोहर रप धारण करके ििमान पर बैठे और सििल ज ोक मे चले िये । िहाँ दे िराज इिि के सामने जाकर दोनो ने बड़ी पसिनता के साि उिहे पणाम िकया । उिहे इस रप मे उपिसित दे खकर इिि को बड़ा ििसमय हुआ ! उिहोने पूछा: ‘बताओ,

िकस पुणय के पभाि से तुम दोनो का िपशाचति दरू हुआ है ? तुम मेरे शाप को पाप हो चक ु े िे, िफर िकस दे िता ने तुमहे उससे छुटकारा िदलाया है ?’ मालयिान

बोला : सिािमन ् ! भििान िासुदेि की कृ पा तिा ‘जया’ नामक एकादशी के वत से

हमारा िपशाचति दरू हुआ है ।

इिि ने कहा : … तो अब तुम दोनो मेरे कहने से सुधापान करो । जो लोि एकादशी के वत मे ततपर और भििान शीकृ षण के शरणाित होते है , िे हमारे भी पूजनीय होते है । भििान

शीकृषण कह ते है : राजन ् ! इस कारण एकादशी का वत करना चािहए । नप ृ शष े !

‘जया’ बहहतया का पाप भी दरू करनेिाली है । िजसने ‘जया’ का वत िकया है , उसने सब पकार के दान दे िदये और समपूण ज यजो का अनुषान कर िलया । इस माहातमय के पढ़ने और सुनने से अििनषोम यज का फल िमलता है ।

7. िि जय ा एकादशी यु िधिषर ने प ूछा : हे िासुदेि! फालिुन (िुजरात महाराष के अनुसार माघ) के कृ षणपक मे िकस नाम की एकादशी होती है और उसका वत करने की िििध कया है ? कृ पा करके बताइये । भििान

शीकृषण बोल े : युिधिषर ! एक बार नारदजी ने बहाजी से फालिुन के कृ षणपक की

‘ििजया एकादशी’ के वत से होनेिाले पुणय के बारे मे पूछा िा तिा बहाजी ने इस वत के बारे मे उिहे जो किा और िििध बतायी िी, उसे सुनो : बहाजी

ने कहा : नारद ! यह वत बहुत ही पाचीन, पिित और पाप नाशक है । यह एकादशी

राजाओं को ििजय पदान करती है , इसमे तिनक भी संदेह नहीं है ।

तेतायुि मे मयाद ज ा पुरषोिम शीरामचििजी जब लंका पर चढ़ाई करने के िलए समुि के िकनारे पहुँच,े तब उिहे समुि को पार करने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा िा । उिहोने

लकमणजी से पूछा : ‘सुिमतानिदन ! िकस उपाय से इस समुि को पार िकया जा सकता है ? यह अतयित अिाध और भयंकर जल जितुओं से भरा हुआ है । मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं िदखायी दे ता, िजससे इसको सुिमता से पार िकया जा सके ।‘

लक मणजी बोल े : हे पभु ! आप ही आिददे ि और पुराण पुरष पुरषोिम है । आपसे कया िछपा है ? यहाँ से आधे योजन की दरूी पर कुमारी दीप मे बकदालभय नामक मुिन रहते है । आप उन पाचीन मुनीशर के पास जाकर उिहींसे इसका उपाय पूिछये ।

शीरामचििजी महामुिन बकदालभय के आशम पहुँचे और उिहोने मुिन को पणाम िकया ।

महिषज ने पसिन होकर शीरामजी के आिमन का कारण पूछा ।

शीराम चि िजी बो ले : बहन ् ! मै लंका पर चढ़ाई करने के उदे शय से अपनी सेनासिहत यहाँ आया हूँ । मुने ! अब िजस पकार समुि पार िकया जा सके, कृ पा करके िह उपाय बताइये । बकदा लभय मुिन ने कहा

: हे शीरामजी ! फालिुन के कृ षणपक मे जो ‘ििजया’ नाम की

एकादशी होती है , उसका वत करने से आपकी ििजय होिी । िनशय ही आप अपनी िानर सेना के साि समुि को पार कर लेिे । राजन ् ! अब इस वत की फलदायक िििध सुिनये :

दशमी के िदन सोने, चाँदी, ताँबे अििा िमटटी का एक कलश सिािपत कर उस कलश को जल से भरकर उसमे पललि डाल दे । उसके ऊपर भििान नारायण के सुिणम ज य ििगह की सिापना करे । िफर एकादशी के िदन पात: काल सनान करे । कलश को पुन: सिािपत करे । माला,

चिदन, सुपारी तिा नािरयल आिद के दारा ििशेष रप से उसका पूजन करे । कलश के ऊपर सपधािय और जौ रखे । ििध, धप ू , दीप और भाँित भाँित के नैिेघ से पूजन करे । कलश के सामने बैठकर उिम किा िाता ज आिद के दारा सारा िदन वयतीत करे और रात मे भी िहाँ जािरण करे । अखणड वत की िसिद के िलए घी का दीपक जलाये । िफर दादशी के िदन सूयोदय होने पर उस कलश को िकसी जलाशय के समीप (नदी, झरने या पोखर के तट पर) सिािपत करे और उसकी िििधित ् पूजा करके दे ि पितमासिहत उस कलश को िेदिेिा बाहण के

िलए दान कर दे । कलश के साि ही और भी बड़े बड़े दान दे ने चािहए । शीराम ! आप अपने सेनापितयो के साि इसी िििध से पयतपूिक ज ‘ििजया एकादशी’ का वत कीिजये । इससे आपकी ििजय होिी । बहाजी

कह ते है : नारद ! यह सुनकर शीरामचििजी ने मुिन के किनानुसार उस समय

‘ििजया एकादशी’ का वत िकया । उस वत के करने से शीरामचििजी ििजयी हुए । उिहोने

संगाम मे रािण को मारा, लंका पर ििजय पायी और सीता को पाप िकया । बेटा ! जो मनुषय इस िििध से वत करते है , उिहे इस लोक मे ििजय पाप होती है और उनका परलोक भी अकय बना रहता है । भििान

शीकृषण कह ते है

: युिधिषर ! इस कारण ‘ििजया’ का वत करना चािहए । इस

पसंि को पढ़ने और सुनने से िाजपेय यज का फल िमलता है ।

8. आमल की एकाद शी यु िधिषर

ने भििान

शीकृषण

से कहा

: शीकृ षण ! मुझे फालिुन मास के शुकलपक की

एकादशी का नाम और माहातमय बताने की कृ पा कीिजये । भििान

शीकृषण बोल े : महाभाि धमन ज िदन ! फालिुन मास के शुकलपक की एकादशी का नाम

‘आमलकी’ है । इसका पिित वत ििषणुलोक की पािप करानेिाला है । राजा मािधाता ने भी महातमा ििशषजी से इसी पकार का पश पूछा िा, िजसके जिाब मे ििशषजी ने कहा िा : ‘महाभाि ! भििान ििषणु के िक ू ने पर उनके मुख से चििमा के समान कािितमान एक िबिद ु

पकट होकर पथ ृ िी पर ििरा । उसीसे आमलक (आँिले) का महान िक ृ उतपिन हुआ, जो सभी िक ृ ो का आिदभूत कहलाता है । इसी समय पजा की सिृष करने के िलए भििान ने बहाजी को

उतपिन िकया और बहाजी ने दे िता, दानि, ििधिज, यक, राकस, नाि तिा िनमल ज अंतःकरण िाले महिषय ज ो को जिम िदया । उनमे से दे िता और ॠिष उस सिान पर आये, जहाँ ििषणुिपय आमलक का िक ृ िा । महाभाि ! उसे दे खकर दे िताओं को बड़ा ििसमय हुआ कयोिक उस िक ृ

के बारे मे िे नहीं जानते िे । उिहे इस पकार िििसमत दे ख आकाशिाणी हुई : ‘महिषय ज ो ! यह सिश ज ष े आमलक का िक ृ है , जो ििषणु को िपय है । इसके समरणमात से िोदान का फल िमलता है । सपश ज करने से इससे दि ु ना और फल भकण करने से ितिुना पुणय पाप होता है । यह सब

पापो को हरनेिाला िैषणि िक ृ है । इसके मूल मे ििषणु , उसके ऊपर बहा, सकिध मे परमेशर भििान रि, शाखाओं मे मुिन, टहिनयो मे दे िता, पिो मे िसु, फूलो मे मरदण तिा फलो मे समसत पजापित िास करते है । आमलक सिद ज े िमय है । अत: ििषणुभक पुरषो के िलए यह परम पूिय है । इसिलए सदा पयतपूिक ज आमलक का सेिन करना चािहए ।’ ॠिष बो ले : आप कौन है ? दे िता है या कोई और ? हमे ठीक ठीक बताइये । पुन : आकाशिाणी

हुई : जो समपूण ज भूतो के किा ज और समसत भुिनो के सषा है , िजिहे

ििदान पुरष भी किठनता से दे ख पाते है , मै िही सनातन ििषणु हूँ।

दे िािधदे ि भििान ििषणु का यह किन सुनकर िे ॠिषिण भििान की सतुित करने लिे । इससे भििान शीहिर संतुष हुए और बोले : ‘महिषय ज ो ! तुमहे कौन सा अभीष िरदान दँ ू ? ॠिष

बोल े : भििन ् ! यिद आप संतुष है तो हम लोिो के िहत के िलए कोई ऐसा वत

बतलाइये, जो सििज और मोकरपी फल पदान करनेिाला हो ।

शी ििषण ुजी बो ले : महिषय ज ो ! फालिुन मास के शुकलपक मे यिद पुषय नकत से युक एकादशी हो तो िह महान पुणय दे नेिाली और बड़े बड़े पातको का नाश करनेिाली होती है । इस िदन आँिले के िक ृ के पास जाकर िहाँ राित मे जािरण करना चािहए । इससे मनुषय सब पापो से छुट जाता है और सहस िोदान का फल पाप करता है । ििपिण ! यह वत सभी वतो मे उिम है , िजसे मैने तुम लोिो को बताया है । ॠिष बो ले : भििन ् ! इस वत की िििध बताइये । इसके दे िता और मंत कया है ? पूजन कैसे करे ? उस समय सनान और दान कैसे िकया जाता है ? भििान

शी ििषण ुजी ने कहा : िदजिरो ! इस एकादशी को वती पात:काल दितधािन करके

यह संकलप करे िक ‘ हे पुणडरीकाक ! हे अचयुत ! मै एकादशी को िनराहार रहकर दस ु रे िदन

भोजन करँ िा । आप मुझे शरण मे रखे ।’ ऐसा िनयम लेने के बाद पितत, चोर, पाखणडी, दरुाचारी, िुरपतीिामी तिा मयाद ज ा भंि करनेिाले मनुषयो से िह िाताल ज ाप न करे । अपने मन

को िश मे रखते हुए नदी मे, पोखरे मे, कुएँ पर अििा घर मे ही सनान करे । सनान के पहले शरीर मे िमटटी लिाये ।

मृ ििका लिान े का म ं त अशकाित े रिका िते ििषण ु काित े िस ु िधर े । मृ ििके हर म े पाप ं ज िमकोटया ं स मिज ज तम ् ।। िसुिधरे ! तुमहारे ऊपर अश और रि चला करते है तिा िामन अितार के समय भििान ििषणु ने भी तुमहे अपने पैरो से नापा िा । मिृिके ! मैने करोड़ो जिमो मे जो पाप िकये है , मेरे उन सब पापो को हर लो ।’ सनान का म ं त तिं मात : सिज भूताना ं जीि नं ति ु रककम। ्

सिेद जोिद िजजातीना ं रसा नां पतय े नम :॥ सनातो S हं सि ज तीि े षु हदप सिण ेष ु च।् नदीष ु द ेिखात ेष ु इद ं सनान ं त ु म े भ िेत।् । ‘जल की अिधषाती दे िी ! मातः ! तुम समपूण ज भूतो के िलए जीिन हो । िही जीिन, जो सिेदज और उिदिज जाित के जीिो का भी रकक है । तुम रसो की सिािमनी हो । तुमहे नमसकार है । आज मै समपूण ज तीिो, कुणडो, झरनो, निदयो और दे िसमबिधी सरोिरो मे सनान कर चक ु ा । मेरा यह सनान उक सभी सनानो का फल दे नेिाला हो ।’

ििदान पुरष को चािहए िक िह परशुरामजी की सोने की पितमा बनिाये । पितमा अपनी शिक और धन के अनुसार एक या आधे माशे सुिण ज की होनी चािहए । सनान के पशात ् घर

आकर पूजा और हिन करे । इसके बाद सब पकार की सामगी लेकर आँिले के िक ृ के पास जाय । िहाँ िक ृ के चारो ओर की जमीन झाड़ बुहार, लीप पोतकर शुद करे । शुद की हुई भूिम मे

मंतपाठपूिक ज जल से भरे हुए निीन कलश की सिापना करे । कलश मे पंचरत और िदवय ििध आिद छोड़ दे । शेत चिदन से उसका लेपन करे । उसके कणठ मे फूल की माला पहनाये । सब

पकार के धप ू की सुििध फैलाये । जलते हुए दीपको की शण े ी सजाकर रखे । तातपयज यह है िक

सब ओर से सुिदर और मनोहर दशय उपिसित करे । पूजा के िलए निीन छाता, जूता और िस भी मँिाकर रखे । कलश के ऊपर एक पात रखकर उसे शष े लाजो(खीलो) से भर दे । िफर उसके ऊपर परशुरामजी की मूित ज (सुिणज की) सिािपत करे । ‘िि शोकाय नम :’ कहकर उनके चरणो की, ‘ििश रिप णे नम :’ से दोनो घुटनो की, ‘उगाय नम :’ से जाँघो की, ‘दामो दरा य नम :’ से किटभाि की, ‘पधनाभाय नम :’ से उदर की, ‘शीितस धािर णे नम :’ से िक: सिल की, ‘चिक णे नम :’ से बायीं बाँह की, ‘ििदन े नम :’ से दािहनी बाँह की, ‘िैकुणठाय नम :’ से कणठ की, ‘यजम ुखाय नम :’ से मुख की, ‘ििशोक िनधय े नम :’ से नािसका की, ‘िास ुदेिाय नम :’ से नेतो की, ‘िामनाय नम :’ से ललाट की, ‘सिा ज त मने नम :’ से संपूणज अंिो तिा मसतक की पूजा करे । ये ही पूजा के मंत है । तदनितर भिकयुक िचि से शुद फल के दारा दे िािधदे ि परशुरामजी को अधयज पदान करे । अधयज का मंत इस पकार है : नमसत े देिद ेि ेश जामदििय

नमो S सतु ते ।

िृ हाणाधय जिमम ं दि माम लकया य ुत ं हर े ॥ ‘दे िदे िेशर ! जमदििननिदन ! शी ििषणुसिरप परशुरामजी ! आपको नमसकार है , नमसकार है । आँिले के फल के साि िदया हुआ मेरा यह अधयज गहण कीिजये ।’

तदनितर भिकयुक िचि से जािरण करे । नतृय, संिीत, िाघ, धािमक ज उपाखयान तिा शीििषणु संबंधी किा िाता ज आिद के दारा िह राित वयतीत करे । उसके बाद भििान ििषणु के नाम ले लेकर आमलक िक ृ की पिरकमा एक सौ आठ या अटठाईस बार करे । िफर सिेरा होने पर शीहिर की आरती करे । बाहण की पूजा करके िहाँ की सब सामगी उसे िनिेिदत कर दे । परशुरामजी का कलश, दो िस, जूता आिद सभी िसतुएँ दान कर दे और यह भािना करे िक : ‘परशुरामजी के सिरप मे भििान ििषणु मुझ पर पसिन हो ।’ ततपशात ् आमलक का सपशज

करके उसकी पदिकणा करे और सनान करने के बाद िििधपूिक ज बाहणो को भोजन कराये । तदनितर कुटु िमबयो के साि बैठकर सियं भी भोजन करे ।

समपूण ज तीिो के सेिन से जो पुणय पाप होता है तिा सब पकार के दान दे ने दे जो फल िमलता है , िह सब उपयुक ज िििध के पालन से सुलभ होता है । समसत यजो की अपेका भी अिधक फल िमलता है , इसमे तिनक भी संदेह नहीं है । यह वत सब वतो मे उिम है ।’ ििशषजी

कह ते है : महाराज ! इतना कहकर दे िेशर भििान ििषणु िहीं अितधान ज हो िये ।

ततपशात ् उन समसत महिषय ज ो ने उक वत का पूणर ज प से पालन िकया । नप ृ शष े ! इसी पकार तुमहे भी इस वत का अनुषान करना चािहए । भििान है ।

शीकृषण कह ते है : युिधिषर ! यह दध ज ज वत मनुषय को सब पापो से मुक करनेिाला ु ष

9. पाप मोचन ी ए कादशी महाराज युिधिषर ने भििान शीकृ षण से चत ै (िुजरात महाराष के अनुसार फालिुन ) मास के कृ षणपक की एकादशी के बारे मे जानने की इचछा पकट की तो िे बोले : ‘राजेिि ! मै तुमहे इस ििषय मे एक पापनाशक उपाखयान सुनाऊँिा, िजसे चकिती नरे श मािधाता के पूछने पर महिषज लोमश ने कहा िा ।’ मा िधाता

ने पूछा : भििन ् ! मै लोिो के िहत की इचछा से यह सुनना चाहता हूँ िक चत ै

मास के कृ षणपक मे िकस नाम की एकादशी होती है , उसकी कया िििध है तिा उससे िकस फल की पािप होती है ? कृ पया ये सब बाते मुझे बताइये । लो मशजी ने कहा

: नप ृ शष े ! पूिक ज ाल की बात है । अपसराओं से सेिित चत ै रि नामक िन मे ,

जहाँ ििधिो की कियाएँ अपने िकंकरो के साि बाजे बजाती हुई ििहार करती है , मंजुघोषा नामक अपसरा मुिनिर मेघािी को मोिहत करने के िलए ियी । िे महिष ज चत ै रि िन मे रहकर बहचयज का पालन करते िे । मंजुघोषा मुिन के भय से आशम से एक कोस दरू ही ठहर ियी और सुिदर

ढं ि से िीणा बजाती हुई मधरु िीत िाने लिी । मुिनशष े मेघािी घूमते हुए उधर जा िनकले और उस सुिदर अपसरा को इस पकार िान करते दे ख बरबस ही मोह के िशीभूत हो िये । मुिन की

ऐसी अिसिा दे ख मंजुघोषा उनके समीप आयी और िीणा नीचे रखकर उनका आिलंिन करने लिी । मेघािी भी उसके साि रमण करने लिे । रात और िदन का भी उिहे भान न रहा । इस पकार उिहे बहुत िदन वयतीत हो िये । मंजुघोषा दे िलोक मे जाने को तैयार हुई । जाते समय उसने मुिनशष े मेघािी से कहा: ‘बहन ् ! अब मुझे अपने दे श जाने की आजा दीिजये ।’

मेघािी बो ले : दे िी ! जब तक सिेरे की संधया न हो जाय तब तक मेरे ही पास ठहरो । अपसरा

ने कहा : ििपिर ! अब तक न जाने िकतनी ही संधयाँए चली ियीं ! मुझ पर कृ पा

करके बीते हुए समय का ििचार तो कीिजये ! लो मशजी

ने कहा

: राजन ् ! अपसरा की बात सुनकर मेघािी चिकत हो उठे । उस समय

उिहोने बीते हुए समय का िहसाब लिाया तो मालूम हुआ िक उसके साि रहते हुए उिहे सिािन

िष ज हो िये । उसे अपनी तपसया का ििनाश करनेिाली जानकर मुिन को उस पर बड़ा कोध आया । उिहोने शाप दे ते हुए कहा: ‘पािपनी ! तू िपशाची हो जा ।’ मुिन के शाप से दिध होकर िह ििनय से नतमसतक हो बोली : ‘ििपिर ! मेरे शाप का उदार कीिजये । सात िाकय बोलने

या सात पद साि साि चलनेमात से ही सतपुरषो के साि मैती हो जाती है । बहन ् ! मै तो आपके साि अनेक िषज वयतीत िकये है , अत: सिािमन ् ! मुझ पर कृ पा कीिजये ।’

मु िन बोल े : भिे ! कया करँ ? तुमने मेरी बहुत बड़ी तपसया नष कर डाली है । िफर भी सुनो

। चत ै कृ षणपक मे जो एकादशी आती है उसका नाम है ‘पापमोचनी ।’ िह शाप से उदार करनेिाली तिा सब पापो का कय करनेिाली है । सुिदरी ! उसीका वत करने पर तुमहारी िपशाचता दरू होिी । ऐसा कहकर मेघािी अपने िपता मुिनिर चयिन के आशम पर िये । उिहे आया दे ख चयिन ने पूछा : ‘बेटा ! यह कया िकया ? तुमने तो अपने पुणय का नाश कर डाला !’ मेघािी

बोल े : िपताजी ! मैने अपसरा के साि रमण करने का पातक िकया है । अब आप ही

कोई ऐसा पायिशत बताइये, िजससे पातक का नाश हो जाय । चयिन ने कहा : बेटा ! चत ै कृ षणपक मे जो ‘पापमोचनी एकादशी’ आती है , उसका वत करने पर पापरािश का ििनाश हो जायेिा । िपता का यह किन सुनकर मेघािी ने उस वत का अनुषान िकया । इससे उनका पाप नष हो िया और िे पुन: तपसया से पिरपूणज हो िये । इसी पकार मंजुघोषा ने भी इस उिम वत का पालन िकया । ‘पापमोचनी’ का वत करने के कारण िह िपशाचयोिन से मुक हुई और िदवय रपधािरणी शष े अपसरा होकर सििल ज ोक मे चली ियी । भििान

शीकृषण कह ते है : राजन ् ! जो शष े मनुषय ‘पापमोचनी एकादशी’ का वत करते है

उनके सारे पाप नष हो जाते है । इसको पढ़ने और सुनने से सहस िौदान का फल िमलता है ।

बहहतया, सुिण ज की चोरी, सुरापान और िुरपतीिमन करनेिाले महापातकी भी इस वत को करने से पापमुक हो जाते है । यह वत बहुत पुणयमय है ।

10. का मदा एकादश ी यु िधिषर

ने पूछा : िासुदेि ! आपको नमसकार है ! कृ पया आप यह बताइये िक चत ै शुकलपक

मे िकस नाम की एकादशी होती है ? भििान

शीकृषण बोल े : राजन ् ! एकागिचि होकर यह पुरातन किा सुनो, िजसे ििशषजी ने

राजा िदलीप के पूछने पर कहा िा । ििशषजी

बोल े : राजन ् ! चत ै शुकलपक मे ‘कामदा’ नाम की एकादशी होती है । िह परम

पुणयमयी है । पापरपी ईधन के िलए तो िह दािानल ही है ।

पाचीन काल की बात है : नािपुर नाम का एक सुिदर निर िा, जहाँ सोने के महल बने हुए िे । उस निर मे पुणडरीक आिद महा भयंकर नाि िनिास करते िे । पुणडरीक नाम का नाि

उन िदनो िहाँ रािय करता िा । ििधिज, िकिनर और अपसराएँ भी उस निरी का सेिन करती िीं । िहाँ एक शष े अपसरा िी, िजसका नाम लिलता िा । उसके साि लिलत नामिाला ििधिज भी िा । िे दोनो पित पती के रप मे रहते िे । दोनो ही परसपर काम से पीिड़त रहा करते िे । लिलता के हदय मे सदा पित की ही मूितज बसी रहती िी और लिलत के हदय मे सुिदरी लिलता का िनतय िनिास िा । एक िदन की बात है । नािराज पुणडरीक राजसभा मे बैठकर मनोरं जन कर रहा िा । उस समय लिलत का िान हो रहा िा िकितु उसके साि उसकी पयारी लिलता नहीं िी । िाते िाते उसे लिलता का समरण हो आया । अत: उसके पैरो की िित रक ियी और जीभ लड़खड़ाने लिी । नािो मे शष े ककोटक को लिलत के मन का सिताप जात हो िया, अत: उसने राजा पुणडरीक को उसके पैरो की िित रकने और िान मे तुिट होने की बात बता दी । ककोटक की बात सुनकर नािराज पुणडरीक की आँखे कोध से लाल हो ियीं । उसने िाते हुए कामातुर लिलत

को शाप िदया : ‘दब ज े ! तू मेरे सामने िान करते समय भी पती के िशीभूत हो िया, इसिलए ु ुद राकस हो जा ।’

महाराज पुणडरीक के इतना कहते ही िह ििधि ज राकस हो िया । भयंकर मुख, ििकराल आँखे और दे खनेमात से भय उपजानेिाला रप – ऐसा राकस होकर िह कम ज का फल भोिने लिा ।

लिलता अपने पित की ििकराल आकृ ित दे ख मन ही मन बहुत िचिितत हुई । भारी द ु:ख

से िह कष पाने लिी । सोचने लिी: ‘कया करँ ? कहाँ जाऊँ? मेरे पित पाप से कष पा रहे है …’

िह रोती हुई घने जंिलो मे पित के पीछे पीछे घूमने लिी । िन मे उसे एक सुिदर

आशम िदखायी िदया, जहाँ एक मुिन शाित बैठे हुए िे । िकसी भी पाणी के साि उनका िैर

ििरोध नहीं िा । लिलता शीघता के साि िहाँ ियी और मुिन को पणाम करके उनके सामने खड़ी हुई । मुिन बड़े दयालु िे । उस द ु:िखनी को दे खकर िे इस पकार बोले : ‘शुभे ! तुम कौन हो ? कहाँ से यहाँ आयी हो? मेरे सामने सच सच बताओ ।’

लिलत ा ने कहा : महामुने ! िीरधििा नामिाले एक ििधि ज है । मै उिहीं महातमा की पुती हूँ । मेरा नाम लिलता है । मेरे सिामी अपने पाप दोष के कारण राकस हो िये है । उनकी यह

अिसिा दे खकर मुझे चन ै नहीं है । बहन ् ! इस समय मेरा जो किवजय हो, िह बताइये । ििपिर! िजस पुणय के दारा मेरे पित राकसभाि से छुटकारा पा जाये, उसका उपदे श कीिजये ।

ॠिष बोल े : भिे ! इस समय चत ै मास के शुकलपक की ‘कामदा’ नामक एकादशी ितिि है , जो सब पापो को हरनेिाली और उिम है । तुम उसीका िििधपूिक ज वत करो और इस वत का जो पुणय हो, उसे अपने सिामी को दे डालो । पुणय दे ने पर कणभर मे ही उसके शाप का दोष दरू हो जायेिा ।

राजन ् ! मुिन का यह िचन सुनकर लिलता को बड़ा हष ज हुआ । उसने एकादशी को

उपिास करके दादशी के िदन उन बहिष ज के समीप ही भििान िासुदेि के (शीििगह के) समक अपने पित के उदार के िलए यह िचन कहा: ‘मैने जो यह ‘कामदा एकादशी’ का उपिास वत िकया है , उसके पुणय के पभाि से मेरे पित का राकसभाि दरू हो जाय ।’ ििशषजी

कहत े है : लिलता के इतना कहते ही उसी कण लिलत का पाप दरू हो िया । उसने

िदवय दे ह धारण कर िलया । राकसभाि चला िया और पुन: ििधितजि की पािप हुई ।

नप ृ शष े ! िे दोनो पित पती ‘कामदा’ के पभाि से पहले की अपेका भी अिधक सुिदर रप धारण करके ििमान पर आरढ़ होकर अतयित शोभा पाने लिे । यह जानकर इस एकादशी के वत का यतपूिक ज पालन करना चािहए । मैने लोिो के िहत के िलए तुमहारे सामने इस वत का िणन ज िकया है । ‘कामदा एकादशी’ बहहतया आिद पापो तिा िपशाचति आिद दोषो का नाश करनेिाली है । राजन ् ! इसके पढ़ने और सुनने से िाजपेय यज का फल िमलता है ।

11. िरिि नी एकादश ी यु िधिषर

ने पूछा : हे िासुदेि ! िैशाख मास के कृ षणपक मे िकस नाम की एकादशी होती है ?

कृ पया उसकी मिहमा बताइये। भििान

शीकृषण

बोल े : राजन ् ! िैशाख (िुजरात महाराष के अनुसार चत ै ) कृ षणपक की

एकादशी ‘िरििनी’ के नाम से पिसद है । यह इस लोक और परलोक मे भी सौभािय पदान

करनेिाली है । ‘िरििनी’ के वत से सदा सुख की पािप और पाप की हािन होती है । ‘िरििनी’ के वत से ही मािधाता तिा धि ु धम ु ार आिद अिय अनेक राजा सििल ज ोक को पाप हुए है । जो

फल दस हजार िषो तक तपसया करने के बाद मनुषय को पाप होता है , िही फल इस ‘िरििनी एकादशी’ का वत रखनेमात से पाप हो जाता है । नप ृ शष े ! घोड़े के दान से हािी का दान शष े है । भूिमदान उससे भी बड़ा है । भूिमदान से भी अिधक महति ितलदान का है । ितलदान से बढ़कर सिणद ज ान और सिणद ज ान से बढ़कर अिनदान है , कयोिक दे िता, िपतर तिा मनुषयो को अिन से ही तिृप होती है । ििदान पुरषो ने कियादान को भी इस दान के ही समान बताया है । कियादान के तुलय ही िाय का दान है , यह साकात ् भििान का किन है । इन सब दानो से भी बड़ा ििदादान है । मनुषय ‘िरििनी एकादशी’ का वत करके ििदादान का भी फल पाप कर लेता है । जो लोि पाप से मोिहत होकर

किया के धन से जीििका चलाते है , िे पुणय का कय होने पर यातनामक नरक मे जाते है । अत: सिि ज ा पयत करके किया के धन से बचना चािहए उसे अपने काम मे नहीं लाना चािहए । जो अपनी शिक के अनुसार अपनी किया को आभूषणो से ििभूिषत करके पिित भाि से किया का दान करता है , उसके पुणय की संखया बताने मे िचतिुप भी असमि ज है । ‘िरििनी एकादशी’ करके भी मनुषय उसीके समान फल पाप करता है । राजन ् ! रात को जािरण करके जो भििान मधस ु ूदन का पूजन करते है , िे सब पापो से

मुक हो परम िित को पाप होते है । अत: पापभीर मनुषयो को पूण ज पयत करके इस एकादशी

का वत करना चािहए । यमराज से डरनेिाला मनुषय अिशय ‘िरििनी एकादशी’ का वत करे । राजन ् ! इसके पढ़ने और सुनने से सहस िौदान का फल िमलता है और मनुषय सब पापो से मुक होकर ििषणुलोक मे पितिषत होता है ।

(सुयोिय पाठक इसको पढ़े , सुने और िौदान का पुणयलाभ पाप करे ।)

12. मोिहन ी एकादशी यु िधिषर

ने पूछा : जनादज न ! िैशाख मास के शुकलपक मे िकस नाम की एकादशी होती है ?

उसका कया फल होता है ? उसके िलए कौन सी िििध है ? भििान

शीकृषण

बोल े

: धमरजाज ! पूिक ज ाल मे परम बुिदमान शीरामचििजी ने महिषज

ििशषजी से यही बात पूछी िी, िजसे आज तुम मुझसे पूछ रहे हो । शीराम

ने कहा : भििन ् ! जो समसत पापो का कय तिा सब पकार के द ु :खो का िनिारण

करनेिाला, वतो मे उिम वत हो, उसे मै सुनना चाहता हूँ ।

ििशषजी बो ले : शीराम ! तुमने बहुत उिम बात पूछी है । मनुषय तुमहारा नाम लेने से ही सब पापो से शुद हो जाता है । तिािप लोिो के िहत की इचछा से मै पिितो मे पिित उिम वत का

िणन ज करँ िा । िैशाख मास के शुकलपक मे जो एकादशी होती है , उसका नाम ‘मोिहनी’ है । िह सब पापो को हरनेिाली और उिम है । उसके वत के पभाि से मनुषय मोहजाल तिा पातक समूह से छुटकारा पा जाते है । सरसिती नदी के रमणीय तट पर भिािती नाम की सुिदर निरी है । िहाँ धिृतमान नामक राजा, जो चिििंश मे उतपिन और सतयपितज िे, रािय करते िे । उसी निर मे एक िैशय रहता िा, जो धन धािय से पिरपूण ज और समद ृ शाली िा । उसका नाम िा धनपाल । िह सदा पुणयकम ज मे ही लिा रहता िा । दस ू रो के िलए पौसला (पयाऊ), कुआँ, मठ, बिीचा, पोखरा

और घर बनिाया करता िा । भििान ििषणु की भिक मे उसका हािदज क अनुराि िा । िह सदा शाित रहता िा । उसके पाँच पुत िे : सुमना, धिुतमान, मेघािी, सुकृत तिा धष ृ बुिद । धष ृ बुिद पाँचिाँ िा । िह सदा बड़े बड़े पापो मे ही संलिन रहता िा । जुए आिद दवुयस ज नो मे उसकी बड़ी आसिक िी । िह िेशयाओं से िमलने के िलए लालाियत रहता िा । उसकी बुिद न तो दे िताओं

के पूजन मे लिती िी और न िपतरो तिा बाहणो के सतकार मे । िह दष ु ातमा अियाय के मािज पर चलकर िपता का धन बरबाद िकया करता िा। एक िदन िह िेशया के िले मे बाँह डाले चौराहे पर घूमता दे खा िया । तब िपता ने उसे घर से िनकाल िदया तिा बिधु बािधिो ने भी उसका पिरतयाि कर िदया । अब िह िदन रात द ु:ख और शोक मे डू बा तिा कष पर कष उठाता हुआ इधर उधर भटकने लिा । एक िदन िकसी पुणय के उदय होने से िह महिष ज कौिणडिय के आशम पर जा पहुँचा । िैशाख का महीना िा । तपोधन कौिणडिय िंिाजी मे सनान करके आये िे । धष ृ बुिद शोक के भार से पीिड़त हो मुिनिर कौिणडिय के पास िया और हाि जोड़ सामने

खड़ा होकर बोला : ‘बहन ् ! िदजशष े ! मुझ पर दया करके कोई ऐसा वत बताइये, िजसके पुणय के पभाि से मेरी मुिक हो ।’

कौ िणडि य बो ले : िैशाख के शुकलपक मे ‘मोिहनी’ नाम से पिसद एकादशी का वत करो । ‘मोिहनी’ को उपिास करने पर पािणयो के अनेक जिमो के िकये हुए मेर पित ज जैसे महापाप भी नष हो जाते है |’ ििशषजी

कहत े है : शीरामचििजी ! मुिन का यह िचन सुनकर धष ृ बुिद का िचि पसिन हो

िया । उसने कौिणडिय के उपदे श से िििधपूिक ज ‘मोिहनी एकादशी’ का वत िकया । नप ृ शष े ! इस वत के करने से िह िनषपाप हो िया और िदवय दे ह धारण कर िरड़ पर आरढ़ हो सब पकार के उपििो से रिहत शीििषणुधाम को चला िया । इस पकार यह ‘मोिहनी’ का वत बहुत उिम है । इसके पढ़ने और सुनने से सहस िौदान का फल िमलता है ।’

13. अपरा ए कादशी यु िधिषर

ने पूछा : जनादजन ! ियेष मास के कृ षणपक मे िकस नाम की एकादशी होती है ? मै

उसका माहातमय सुनना चाहता हूँ । उसे बताने की कृ पा कीिजये । भििान

शीकृषण बोल े : राजन ् ! आपने समपूण ज लोको के िहत के िलए बहुत उिम बात पूछी

है । राजेिि ! ियेष (िुजरात महाराष के अनुसार िैशाख ) मास के कृ षणपक की एकादशी का नाम ‘अपरा’ है । यह बहुत पुणय पदान करनेिाली और बड़े बडे पातको का नाश करनेिाली है ।

बहहतया से दबा हुआ, िोत की हतया करनेिाला, िभस ज ि बालक को मारनेिाला, परिनिदक तिा परसीलमपट पुरष भी ‘अपरा एकादशी’ के सेिन से िनशय ही पापरिहत हो जाता है । जो झूठी

ििाही दे ता है , माप तौल मे धोखा दे ता है , िबना जाने ही नकतो की िणना करता है और कूटनीित से आयुिद े का जाता बनकर िैध का काम करता है … ये सब नरक मे िनिास करनेिाले पाणी है । परितु ‘अपरा एकादशी’ के सिेन से ये भी पापरिहत हो जाते है । यिद कोई कितय अपने कातधम ज का पिरतयाि करके युद से भािता है तो िह कितयोिचत धम ज से भष होने के कारण घोर नरक मे पड़ता है । जो िशषय ििदा पाप करके सियं ही िुरिनिदा करता है , िह भी महापातको से युक होकर भयंकर नरक मे ििरता है । िकितु ‘अपरा एकादशी’ के सेिन से ऐसे मनुषय भी सदिित को पाप होते है । माघ मे जब सूयज मकर रािश पर िसित हो, उस समय पयाि मे सनान करनेिाले मनुषयो को जो पुणय होता है , काशी मे िशिराित का वत करने से जो पुणय पाप होता है , िया मे िपणडदान करके िपतरो को तिृप पदान करनेिाला पुरष िजस पुणय का भािी होता है , बह ृ सपित के िसंह रािश पर िसित होने पर िोदािरी मे सनान करनेिाला मानि िजस फल को पाप करता है , बदिरकाशम की याता के समय भििान केदार के दशन ज से तिा बदरीतीि ज के सेिन से जो पुणय फल उपलबध होता है तिा सूयग ज हण के समय कुरकेत मे दिकणासिहत यज करके हािी, घोड़ा और सुिण ज दान करने से िजस फल की पािप होती है , ‘अपरा एकादशी’ के सेिन से भी मनुषय िैसे ही फल पाप करता है । ‘अपरा’ को उपिास करके भििान िामन की पूजा करने से मनुषय सब पापो से मुक हो शीििषणुलोक मे पितिषत होता है । इसको पढ़ने और सुनने से सहस िौदान का फल िमलता है ।

14. िन जज ला एका दशी यु िधिषर

ने कहा : जनादज न ! ियेष मास के शुकलपक मे जो एकादशी पड़ती हो, कृ पया उसका

िणन ज कीिजये । भििान

शीकृषण बोल े : राजन ् ! इसका िणन ज परम धमात ज मा सतयितीनिदन वयासजी करे िे,

कयोिक ये समपूणज शासो के ततिज और िेद िेदांिो के पारं ित ििदान है । तब िेदवयासजी

कहन े लिे : दोनो ही पको की एकादिशयो के िदन भोजन न करे । दादशी

के िदन सनान आिद से पिित हो फूलो से भििान केशि की पूजा करे । िफर िनतय कम ज समाप होने के पशात ् पहले बाहणो को भोजन दे कर अित मे सियं भोजन करे । राजन ् ! जननाशौच और मरणाशौच मे भी एकादशी को भोजन नहीं करना चािहए । यह

सुनकर

भीमस ेन

बोल े : परम बुिदमान िपतामह ! मेरी उिम बात सुिनये । राजा

युिधिषर, माता कुिती, िौपदी, अजुन ज , नकुल और सहदे ि ये एकादशी को कभी भोजन नहीं करते तिा मुझसे भी हमेशा यही कहते है िक : ‘भीमसेन ! तुम भी एकादशी को न खाया करो…’ िकितु मै उन लोिो से यही कहता हूँ िक मुझसे भूख नहीं सही जायेिी । भी मसेन की बात सुनकर वय ास जी ने कहा : यिद तुमहे सििल ज ोक की पािप अभीष है और नरक को दिूषत समझते हो तो दोनो पको की एकादशीयो के िदन भोजन न करना । भी मसेन बो ले : महाबुिदमान िपतामह ! मै आपके सामने सचची बात कहता हूँ । एक बार भोजन करके भी मुझसे वत नहीं िकया जा सकता, िफर उपिास करके तो मै रह ही कैसे सकता

हूँ? मेरे उदर मे िक ृ नामक अििन सदा पिििलत रहती है , अत: जब मै बहुत अिधक खाता हूँ,

तभी यह शांत होती है । इसिलए महामुने ! मै िषभ ज र मे केिल एक ही उपिास कर सकता हूँ । िजससे सिि ज की पािप सुलभ हो तिा िजसके करने से मै कलयाण का भािी हो सकूँ , ऐसा कोई एक वत िनशय करके बताइये । मै उसका यिोिचत रप से पालन करँ िा । वयासजी

ने कहा : भीम ! ियेष मास मे सूयज िष ृ रािश पर हो या िमिन ु रािश पर, शुकलपक

मे जो एकादशी हो, उसका यतपूिक ज िनजल ज वत करो । केिल कुलला या आचमन करने के िलए मुख मे जल डाल सकते हो, उसको छोड़कर िकसी पकार का जल ििदान पुरष मुख मे न डाले, अियिा वत भंि हो जाता है । एकादशी को सूयौदय से लेकर दस ू रे िदन के सूयौदय तक मनुषय जल का तयाि करे तो यह वत पूण ज होता है । तदनितर दादशी को पभातकाल मे सनान करके

बाहणो को िििधपूिक ज जल और सुिण ज का दान करे । इस पकार सब काय ज पूरा करके िजतेिििय पुरष बाहणो के साि भोजन करे । िषभ ज र मे िजतनी एकादशीयाँ होती है , उन सबका फल िनजल ज ा एकादशी के सेिन से मनुषय पाप कर लेता है , इसमे तिनक भी सिदे ह नहीं है । शंख, चक और िदा धारण करनेिाले भििान केशि ने मुझसे कहा िा िक: ‘यिद मानि सबको छोड़कर एकमात मेरी शरण मे आ जाय और एकादशी को िनराहार रहे तो िह सब पापो से छूट जाता है ।’ एकादशी वत करनेिाले पुरष के पास ििशालकाय, ििकराल आकृ ित और काले रं ििाले दणड पाशधारी भयंकर यमदत ू नहीं जाते । अंतकाल मे पीतामबरधारी, सौमय सिभाििाले, हाि मे सुदशन ज धारण करनेिाले और मन के समान िेिशाली ििषणुदत ू आिखर इस िैषणि पुरष को

भििान ििषणु के धाम मे ले जाते है । अत: िनजल ज ा एकादशी को पूण ज यत करके उपिास और शीहिर का पूजन करो । सी हो या पुरष, यिद उसने मेर पित ज के बराबर भी महान पाप िकया हो तो िह सब इस एकादशी वत के पभाि से भसम हो जाता है । जो मनुषय उस िदन जल के िनयम का पालन करता है , िह पुणय का भािी होता है । उसे एक एक पहर मे कोिट कोिट सिणम ज ुिा दान करने का फल पाप होता सुना िया है । मनुषय िनजल ज ा एकादशी के िदन सनान, दान, जप, होम आिद जो कुछ भी करता है , िह सब अकय होता है , यह भििान शीकृ षण का किन है । िनजल ज ा एकादशी को िििधपूिक ज उिम रीित से उपिास करके मानि िैषणिपद को पाप कर लेता है । जो मनुषय एकादशी के िदन अिन खाता है , िह पाप का भोजन करता है । इस लोक मे िह चाणडाल के समान है और मरने पर दि ु िजत को पाप होता है । जो ियेष के शुकलपक मे एकादशी को उपिास करके दान करे िे, िे परम पद को पाप होिे । िजिहोने एकादशी को उपिास िकया है , िे बहहतयारे , शराबी, चोर तिा िुरिोही होने पर भी सब पातको से मुक हो जाते है । कुितीनिदन ! ‘िनजल ज ा एकादशी’ के िदन शदालु सी पुरषो के िलए जो ििशेष दान और किवजय िििहत है , उिहे सुनो: उस िदन जल मे शयन करनेिाले भििान ििषणु का पूजन और जलमयी धेनु का दान करना चािहए अििा पतयक धेनु या घत ृ मयी धेनु का दान उिचत है । पयाप ज दिकणा और भाँित भाँित के िमषािनो दारा यतपूिक ज बाहणो को सितुष करना चािहए । ऐसा करने से बाहण अिशय संतुष होते है और उनके संतुष होने पर शीहिर मोक पदान करते है । िजिहोने शम, दम, और दान मे पित ृ हो शीहिर की पूजा और राित मे जािरण करते हुए इस ‘न ििजल ज ा एकादशी’ का वत िकया है , उिहोने अपने साि ही बीती हुई सौ पीिढ़यो को और आनेिाली सौ पीिढ़यो को भििान िासुदेि के परम धाम मे पहुँचा िदया है । िनजल ज ा एकादशी के िदन

अिन, िस, िौ, जल, शैयया, सुिदर आसन, कमणडलु तिा छाता दान करने चािहए । जो शष े तिा सुपात बाहण को जूता दान करता है , िह सोने के ििमान पर बैठकर सििल ज ोक मे पितिषत होता है । जो इस एकादशी की मिहमा को भिकपूिक ज सुनता अििा उसका िणन ज करता है , िह

सििल ज ोक मे जाता है । चतुदजशीयुक अमािसया को सूयग ज हण के समय शाद करके मनुषय िजस फल को पाप करता है , िही फल इसके शिण से भी पाप होता है । पहले दितधािन करके यह िनयम लेना चािहए िक : ‘मै भििान केशि की पसििता के िलए एकादशी को िनराहार रहकर आचमन के िसिा दस ू रे जल का भी तयाि करँ िा ।’ दादशी को दे िेशर भििान ििषणु का पूजन करना चािहए । ििध, धप ू , पुषप और सुिदर िस से िििधपूिक ज पूजन करके जल के घड़े के दान का संकलप करते हुए िनमनांिकत मंत का उचचारण करे : देिद ेि हषीक ेश संसाराण ज ितारक । उदकु मभप दान ेन न य मां परमा ं िित म॥् ‘संसारसािर से तारनेिाले हे दे िदे ि हषीकेश ! इस जल के घड़े का दान करने से आप मुझे परम िित की पािप कराइये ।’ भीमसेन ! ियेष मास मे शुकलपक की जो शुभ एकादशी होती है , उसका िनजल ज वत करना चािहए । उस िदन शष े बाहणो को शककर के साि जल के घड़े दान करने चािहए । ऐसा करने से मनुषय भििान ििषणु के समीप पहुँचकर आनिद का अनुभि करता है । ततपशात ्

दादशी को बाहण भोजन कराने के बाद सियं भोजन करे । जो इस पकार पूण ज रप से पापनािशनी एकादशी का वत करता है , िह सब पापो से मुक हो आनंदमय पद को पाप होता है । यह सुनकर भीमसेन ने भी इस शुभ एकादशी का वत आरमभ कर िदया । तबसे यह लोक मे ‘पाणडि दादशी’ के नाम से ििखयात हुई ।

15. योििन यु िधिषर

ी एकादश ी

ने पूछा : िासुदेि ! आषाढ़ के कृ षणपक मे जो एकादशी होती है , उसका कया नाम

है ? कृ पया उसका िणन ज कीिजये । भििान

शीकृषण बोल े : नप ृ शष े ! आषाढ़ (िुजरात महाराष के अनुसार ियेष ) के कृ षणपक

की एकादशी का नाम ‘योििनी’ है । यह बड़े बडे पातको का नाश करनेिाली है । संसारसािर मे डू बे हुए पािणयो के िलए यह सनातन नौका के समान है । अलकापुरी के राजािधराज कुबेर सदा भििान िशि की भिक मे ततपर रहनेिाले है । उनका ‘हे ममाली’ नामक एक यक सेिक िा, जो पूजा के िलए फूल लाया करता िा । हे ममाली की पती का नाम ‘ििशालाकी’ िा । िह यक कामपाश मे आबद होकर सदा अपनी पती मे आसक रहता िा । एक िदन हे ममाली मानसरोिर से फूल लाकर अपने घर मे ही ठहर िया और पती के पेमपाश मे खोया रह िया, अत: कुबेर के भिन मे न जा सका । इधर कुबेर मििदर मे बैठकर िशि का पूजन कर रहे िे । उिहोने दोपहर तक फूल आने की पतीका की । जब पूजा का समय वयतीत हो िया तो यकराज ने कुिपत होकर सेिको से कहा : ‘यको ! दरुातमा हे ममाली कयो नहीं आ रहा है ?’

यको ने कहा : राजन ् ! िह तो पती की कामना मे आसक हो घर मे ही रमण कर रहा है । यह

सुनकर कुबेर कोध से भर िये और तुरित ही हे ममाली को बुलिाया । िह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो िया । उसे दे खकर कुबेर बोले : ‘ओ पापी ! अरे दष ु ! ओ दरुाचारी ! तूने भििान की अिहे लना की है , अत: कोढ़ से युक और अपनी उस िपयतमा से िियुक होकर इस सिान से भष होकर अियत चला जा ।’ कुबेर के ऐसा कहने पर िह उस सिान से नीचे ििर िया । कोढ़ से सारा शरीर पीिड़त िा परितु िशि पूजा के पभाि से उसकी समरणशिक लुप नहीं हुई । तदनितर िह पित ज ो मे शष े मेरिििर के िशखर पर िया । िहाँ पर मुिनिर माकजणडे यजी का उसे दशन ज हुआ । पापकमा ज यक

ने मुिन के चरणो मे पणाम िकया । मुिनिर माकजणडे य ने उसे भय से काँपते दे ख कहा : ‘तुझे कोढ़ के रोि ने कैसे दबा िलया ?’ यक बोला

: मुने ! मै कुबेर का अनुचर हे ममाली हूँ । मै पितिदन मानसरोिर से फूल लाकर

िशि पूजा के समय कुबेर को िदया करता िा । एक िदन पती सहिास के सुख मे फँस जाने के कारण मुझे समय का जान ही नहीं रहा, अत: राजािधराज कुबेर ने कुिपत होकर मुझे शाप दे

िदया, िजससे मै कोढ़ से आकाित होकर अपनी िपयतमा से िबछुड़ िया । मुिनशष े ! संतो का िचि सिभाित: परोपकार मे लिा रहता है , यह जानकर मुझ अपराधी को किवजय का उपदे श दीिजये । माकज णडेयजी

ने कहा : तुमने यहाँ सचची बात कही है , इसिलए मै तुमहे कलयाणपद वत का

उपदे श करता हूँ । तुम आषाढ़ मास के कृ षणपक की ‘योििनी एकादशी’ का वत करो । इस वत के पुणय से तुमहारा कोढ़ िनशय ही दरू हो जायेिा । भििान

शीकृषण कह ते है : राजन ् ! माकजणडे यजी के उपदे श से उसने ‘योििनी एकादशी’ का

वत िकया, िजससे उसके शरीर को कोढ़ दरू हो िया । उस उिम वत का अनुषान करने पर िह पूणज सुखी हो िया ।

नप ृ शष े ! यह ‘योििनी’ का वत ऐसा पुणयशाली है िक अठठासी हजार बाहणो को भोजन कराने से जो फल िमलता है , िही फल ‘योििनी एकादशी’ का वत करनेिाले मनुषय को िमलता है । ‘योििनी’ महान पापो को शाित करनेिाली और महान पुणय फल दे नेिाली है । इस माहातमय को पढ़ने और सुनने से मनुषय सब पापो से मुक हो जाता है ।

16. शय नी एकादश ी यु िधिषर

ने पूछा : भििन ् ! आषाढ़ के शुकलपक मे कौन सी एकादशी होती है ? उसका नाम

और िििध कया है ? यह बतलाने की कृ पा करे । भििान

शीकृषण बोल े

: राजन ् ! आषाढ़ शुकलपक की एकादशी का नाम ‘शयनी’ है ।

मै

उसका िणन ज करता हूँ । िह महान पुणयमयी, सिि ज और मोक पदान करनेिाली, सब पापो को हरनेिाली तिा उिम वत है ।

आषाढ़ शुकलपक मे ‘शयनी एकादशी’ के िदन िजिहोने कमल

पुषप से कमललोचन भििान ििषणु का पूजन तिा एकादशी का उिम वत िकया है , उिहोने तीनो लोको और तीनो सनातन दे िताओं का पूजन कर िलया । ‘हिरशयनी एकादशी’ के िदन मेरा एक सिरप राजा बिल के यहाँ रहता है और दस ू रा कीरसािर मे शेषनाि की शैयया पर तब तक शयन करता है , जब तक आिामी काितक ज की एकादशी नहीं आ जाती, अत: आषाढ़ शुकल पक की

एकादशी से लेकर काितक ज शुकल एकादशी तक मनुषय को भलीभाँित धम ज का आचरण करना चािहए । जो मनुषय इस वत का अनुषान करता है , िह परम िित को पाप होता है , इस कारण यतपूिक ज इस एकादशी का वत करना चािहए । एकादशी की रात मे जािरण करके शंख , चक और िदा धारण करनेिाले भििान ििषणु की भिकपूिक ज पूजा करनी चािहए । ऐसा करनेिाले पुरष के पुणय की िणना करने मे चतुमुख ज बहाजी भी असमिज है । राजन ् ! जो इस पकार भोि और मोक पदान करनेिाले सिप ज ापहारी एकादशी के उिम वत का

पालन करता है , िह जाित का चाणडाल होने पर भी संसार मे सदा मेरा िपय रहनेिाला है । जो

मनुषय दीपदान, पलाश के पिे पर भोजन और वत करते हुए चौमासा वयतीत करते है , िे मेरे िपय है । चौमासे मे भििान ििषणु सोये रहते है , इसिलए मनुषय को भूिम पर शयन करना चािहए । सािन मे साि, भादो मे दही, किार मे दध ज मे दाल का तयाि कर दे ना ू और काितक

चािहए । जो चौमसे मे बहचय ज का पालन करता है , िह परम िित को पाप होता है । राजन ् ! एकादशी के वत से ही मनुषय सब पापो से मुक हो जाता है , अत: सदा इसका वत करना चािहए । कभी भूलना नहीं चािहए । ‘शयनी’ और ‘बोिधनी’ के बीच मे जो कृ षणपक की एकादशीयाँ होती है , िह ृ सि के िलए िे ही वत रखने योिय है – अिय मासो की कृ षणपकीय एकादशी िह ृ सि के रखने योिय नहीं होती । शुकलपक की सभी एकादशी करनी चािहए ।

17. कािम का एकाद शी यु िधिषर ने पूछा : िोिििद ! िासुदेि ! आपको मेरा नमसकार है ! शािण (िुजरात महाराष के अनुसार आषाढ़) के कृ षणपक मे कौन सी एकादशी होती है ? कृ पया उसका िणन ज कीिजये । भििान

शीकृषण बोल े : राजन ् ! सुनो । मै तुमहे एक पापनाशक उपाखयान सुनाता हूँ, िजसे

पूिक ज ाल मे बहाजी ने नारदजी के पूछने पर कहा िा । नारदजी

ने पशन िकया

: हे भििन ् ! हे कमलासन ! मै आपसे यह सुनना चाहता हूँ िक

शिण के कृ षणपक मे जो एकादशी होती है , उसका कया नाम है ? उसके दे िता कौन है तिा उससे कौन सा पुणय होता है ? पभो ! यह सब बताइये । बहाजी

ने कहा : नारद ! सुनो । मै समपूण ज लोको के िहत की इचछा से तुमहारे पश का उिर

दे रहा हूँ । शािण मास मे जो कृ षणपक की एकादशी होती है , उसका नाम ‘कािमका’ है । उसके

समरणमात से िाजपेय यज का फल िमलता है । उस िदन शीधर, हिर, ििषणु, माधि और मधस ु ूदन आिद नामो से भििान का पूजन करना चािहए । भििान शीकृ षण के पूजन से जो फल िमलता है , िह िंिा, काशी, नैिमषारणय तिा पुषकर केत मे भी सुलभ नहीं है । िसंह रािश के बह ृ सपित होने पर तिा वयतीपात और दणडयोि मे िोदािरी सनान से िजस फल की पािप होती है , िही फल भििान शीकृ षण के पूजन से भी िमलता है । जो समुि और िनसिहत समूची पथ ृ िी का दान करता है तिा जो ‘कािमका एकादशी’ का वत करता है , िे दोनो समान फल के भािी माने िये है । जो बयायी हुई िाय को अियािय सामिगयोसिहत दान करता है , उस मनुषय को िजस

फल की पािप होती है , िही ‘कािमका एकादशी’ का वत करनेिाले को िमलता है । जो नरशष े

शािण मास मे भििान शीधर का पूजन करता है , उसके दारा ििधिो और नािोसिहत समपूणज दे िताओं की पूजा हो जाती है । अत: पापभीर मनुषयो को यिाशिक पूरा पयत करके ‘कािमका एकादशी’ के िदन शीहिर का पूजन करना चािहए । जो पापरपी पंक से भरे हुए संसारसमुि मे डू ब रहे है , उनका उदार करने के िलए ‘कािमका एकादशी’ का वत सबसे उिम है । अधयातम ििधापरायण पुरषो को िजस

फल की पािप होती है , उससे बहुत अिधक फल ‘कािमका एकादशी’ वत का सेिन करनेिालो को िमलता है ।

‘कािमका एकादशी’ का वत करनेिाला मनुषय राित मे जािरण करके न तो कभी भयंकर यमदत ू का दशन ज करता है और न कभी दि ु िजत मे ही पड़ता है ।

लालमिण, मोती, िैदय ू ज और मूँिे आिद से पूिजत होकर भी भििान ििषणु िैसे संतुष नहीं

होते, जैसे तुलसीदल से पूिजत होने पर होते है । िजसने तुलसी की मंजिरयो से शीकेशि का पूजन कर िलया है , उसके जिमभर का पाप िनशय ही नष हो जाता है । या दषा िन िखलाघस ंघ शमनी सप ृ षा िप ुषपािन ी रोिाणामिभ िििदता िनरसनी

िसकाि तकता िसनी ।

पतयासिि ििधा ियनी भिित : कृषणसय संरोिपता ियस ता तच चरण े िि मुिक फलदा तसय ै त ु लसय ै नम : ।। ‘जो दशन ज करने पर सारे पापसमुदाय का नाश कर दे ती है , सपश ज करने पर शरीर को पिित बनाती है , पणाम करने पर रोिो का िनिारण करती है , जल से सींचने पर यमराज को भी भय पहुँचाती है , आरोिपत करने पर भििान शीकृ षण के समीप ले जाती है और भििान के चरणो मे चढ़ाने पर मोकरपी फल पदान करती है , उस तुलसी दे िी को नमसकार है ।’

जो मनुषय एकादशी को िदन रात दीपदान करता है , उसके पुणय की संखया िचतिुप भी नहीं जानते । एकादशी के िदन भििान शीकृ षण के सममुख िजसका दीपक जलता है , उसके िपतर सििल ज ोक मे िसित होकर अमत ृ पान से तप ृ होते है । घी या ितल के तेल से भििान के सामने दीपक जलाकर मनुषय दे ह तयाि के पशात ् करोड़ो दीपको से पूिजत हो सििल ज ोक मे जाता है ।’

भििान

शीकृषण कह ते है : युिधिषर ! यह तुमहारे सामने मैने ‘कािमका एकादशी’ की मिहमा

का िणन ज िकया है । ‘कािमका’ सब पातको को हरनेिाली है , अत: मानिो को इसका वत अिशय करना चािहए । यह सििल ज ोक तिा महान पुणयफल पदान करनेिाली है । जो मनुषय शदा के साि इसका माहातमय शिण करता है , िह सब पापो से मुक हो शीििषणुलोक मे जाता है ।

18. पुतदा एकादश ी यु िधिषर

ने पूछा

: मधस ु ूदन ! शािण के शुकलपक मे िकस नाम की एकादशी होती है ?

कृ पया मेरे सामने उसका िणन ज कीिजये । भििान

शीकृषण बोल े : राजन ् ! पाचीन काल की बात है । दापर युि के पारमभ का समय

िा । मािहषमतीपुर मे राजा महीिजत अपने रािय का पालन करते िे िकितु उिहे कोई पुत नहीं िा, इसिलए िह रािय उिहे सुखदायक नहीं पतीत होता िा । अपनी अिसिा अिधक दे ख राजा को बड़ी िचिता हुई । उिहोने पजािि ज मे बैठकर इस पकार कहा: ‘पजाजनो ! इस जिम मे मुझसे कोई पातक नहीं हुआ है । मैने अपने खजाने मे अियाय से कमाया हुआ धन नहीं जमा िकया है । बाहणो और दे िताओं का धन भी मैने कभी नहीं िलया है । पुतित ् पजा का पालन

िकया है । धमज से पथ ृ िी पर अिधकार जमाया है । दष ु ो को, चाहे िे बिधु और पुतो के समान ही

कयो न रहे हो, दणड िदया है । िशष पुरषो का सदा सममान िकया है और िकसीको दे ष का पात नहीं समझा है । िफर कया कारण है , जो मेरे घर मे आज तक पुत उतपिन नहीं हुआ? आप लोि इसका ििचार करे ।’

राजा के ये िचन सुनकर पजा और पुरोिहतो के साि बाहणो ने उनके िहत का ििचार करके िहन िन मे पिेश िकया । राजा का कलयाण चाहनेिाले िे सभी लोि इधर उधर घूमकर ॠिषसेिित आशमो की तलाश करने लिे । इतने मे उिहे मुिनशष े लोमशजी के दशन ज हुए । लोमशजी धम ज के ितिज, समपूण ज शासो के िििशष ििदान, दीघाय ज ु और महातमा है । उनका शरीर लोम से भरा हुआ है । िे बहाजी के समान तेजसिी है । एक एक कलप बीतने पर

उनके शरीर का एक एक लोम ििशीण ज होता है , टू टकर ििरता है , इसीिलए उनका नाम लोमश हुआ है । िे महामुिन तीनो कालो की बाते जानते है । उिहे दे खकर सब लोिो को बड़ा हष ज हुआ । लोिो को अपने िनकट आया दे ख लोमशजी

ने पूछा : ‘तुम सब लोि िकसिलए यहाँ आये हो? अपने आिमन का कारण बताओ । तुम लोिो के िलए जो िहतकर कायज होिा, उसे मै अिशय करँ िा ।’ पजाजनो

ने कहा : बहन ् ! इस समय महीिजत नामिाले जो राजा है , उिहे कोई पुत नहीं है ।

हम लोि उिहींकी पजा है , िजनका उिहोने पुत की भाँित पालन िकया है । उिहे पुतहीन दे ख, उनके द ु:ख से द ु:िखत हो हम तपसया करने का दढ़ िनशय करके यहाँ आये है । िदजोिम ! राजा के भािय से इस समय हमे आपका दशन ज िमल िया है । महापुरषो के दशन ज से ही मनुषयो

के सब काय ज िसद हो जाते है । मुने ! अब हमे उस उपाय का उपदे श कीिजये, िजससे राजा को पुत की पािप हो । उनकी बात सुनकर महिष ज लोमश दो घड़ी के िलए धयानमिन हो िये । ततपशात ् राजा

के पाचीन जिम का िि ृ ाित जानकर उिहोने कहा : ‘पजाििृद ! सुनो । राजा महीिजत पूिज ज िम मे मनुषयो को चस ू नेिाला धनहीन िैशय िा । िह िैशय िाँि–िाँि घूमकर वयापार िकया करता िा । एक िदन ियेष के शुकलपक मे दशमी ितिि को, जब दोपहर का सूय ज तप रहा िा, िह िकसी िाँि की सीमा मे एक जलाशय पर पहुँचा । पानी से भरी हुई बािली दे खकर िैशय ने िहाँ जल पीने का ििचार िकया । इतने मे िहाँ अपने बछड़े के साि एक िौ भी आ पहुँची । िह पयास से

वयाकुल और ताप से पीिड़त िी, अत: बािली मे जाकर जल पीने लिी । िैशय ने पानी पीती हुई िाय को हाँककर दरू हटा िदया और सियं पानी पीने लिा । उसी पापकम ज के कारण राजा इस समय पुतहीन हुए है । िकसी जिम के पुणय से इिहे िनषकणटक रािय की पािप हुई है ।’

पजाजनो न े कहा : मुने ! पुराणो मे उललेख है िक पायिशतरप पुणय से पाप नष होते है , अत: ऐसे पुणयकमज का उपदे श कीिजये, िजससे उस पाप का नाश हो जाय । लो मशजी बोल े : पजाजनो ! शािण मास के शुकलपक मे जो एकादशी होती है , िह ‘पुतदा’ के नाम से ििखयात है । िह मनोिांिछत फल पदान करनेिाली है । तुम लोि उसीका वत करो । यह सुनकर पजाजनो ने मुिन को नमसकार िकया और निर मे आकर िििधपूिक ज ‘पुतदा एकादशी’ के वत का अनुषान िकया । उिहोने िििधपूिक ज जािरण भी िकया और उसका िनमल ज पुणय राजा को अपण ज कर िदया । ततपशात ् रानी ने िभध ज ारण िकया और पसि का समय आने पर बलिान पुत को जिम िदया ।

इसका माहातमय सुनकर मनुषय पापो से मुक हो जाता है तिा इहलोक मे सुख पाकर परलोक मे सििीय िित को पाप होता है ।

19. अजा एक ादशी यु िधिषर

ने पूछा : जनादज न ! अब मै यह सुनना चाहता हूँ िक भािपद (िुजरात महाराष के

अनुसार शािण) मास के कृ षणपक मे कौन सी एकादशी होती है ? कृ पया बताइये । भििान

शीकृषण

बोल े

: राजन ् ! एकिचि होकर सुनो । भािपद मास के कृ षणपक की

एकादशी का नाम ‘अजा’ है । िह सब पापो का नाश करनेिाली बतायी ियी है । भििान हषीकेश का पूजन करके जो इसका वत करता है उसके सारे पाप नष हो जाते है । पूिक ज ाल मे हिरशिि नामक एक ििखयात चकिती राजा हो िये है , जो समसत भूमणडल के सिामी और सतयपितज िे । एक समय िकसी कम ज का फलभोि पाप होने पर उिहे रािय से भष होना पड़ा । राजा ने अपनी पती और पुत को बेच िदया । िफर अपने को भी बेच िदया । पुणयातमा होते हुए भी उिहे चाणडाल की दासता करनी पड़ी । िे मुदो का कफन िलया करते िे । इतने पर भी नप ृ शष े हिरशिि सतय से ििचिलत नहीं हुए ।

इस पकार चाणडाल की दासता करते हुए उनके अनेक िष ज वयतीत हो िये । इससे राजा

को बड़ी िचिता हुई । िे अतयित द ु:खी होकर सोचने लिे: ‘कया करँ ? कहाँ जाऊँ? कैसे मेरा उदार होिा?’ इस पकार िचिता करते करते िे शोक के समुि मे डू ब िये ।

राजा को शोकातुर जानकर महिष ज िौतम उनके पास आये । शष े बाहण को अपने पास आया हुआ दे खकर नप ृ शष े ने उनके चरणो मे पणाम िकया और दोनो हाि जोड़ िौतम के सामने खड़े होकर अपना सारा द ु:खमय समाचार कह सुनाया ।

राजा की बात सुनकर महिष ज िौतम ने कहा :‘राजन ् ! भादो के कृ षणपक मे अतयित

कलयाणमयी ‘अजा’ नाम की एकादशी आ रही है , जो पुणय पदान करनेिाली है । इसका वत करो । इससे पाप का अित होिा । तुमहारे भािय से आज के सातिे िदन एकादशी है । उस िदन उपिास करके रात मे जािरण करना ।’ ऐसा कहकर महिष ज िौतम अितधान ज हो िये । मुिन की बात सुनकर राजा हिरशिि ने उस उिम वत का अनुषान िकया । उस वत के

पभाि से राजा सारे द ु:खो से पार हो िये । उिहे पती पुन: पाप हुई और पुत का जीिन िमल िया । आकाश मे दिुदिुभयाँ बज उठीं । दे िलोक से फूलो की िषाज होने लिी ।

एकादशी के पभाि से राजा ने िनषकणटक रािय पाप िकया और अित मे िे पुरजन तिा पिरजनो के साि सििल ज ोक को पाप हो िये । राजा युिधिषर ! जो मनुषय ऐसा वत करते है , िे सब पापो से मुक हो सििल ज ोक मे जाते है । इसके पढ़ने और सुनने से अशमेघ यज का फल िमलता है ।

20. पधा एका दशी यु िधिषर

ने पूछा : केशि ! कृ पया यह बताइये िक भािपद मास के शुकलपक मे जो एकादशी

होती है , उसका कया नाम है , उसके दे िता कौन है और कैसी िििध है ? भििान

शीकृषण बोल े : राजन ् ! इस ििषय मे मै तुमहे आशयज ज नक किा सुनाता हूँ, िजसे

बहाजी ने महातमा नारद से कहा िा । नारदजी

ने पूछा : चतुमुख ज ! आपको नमसकार है ! मै भििान ििषणु की आराधना के िलए

आपके मुख से यह सुनना चाहता हूँ िक भािपद मास के शुकलपक मे कौन सी एकादशी होती है ? बहाजी

ने कहा : मुिनशष े ! तुमने बहुत उिम बात पूछी है । कयो न हो, िैषणि जो ठहरे !

भादो के शुकलपक की एकादशी ‘पधा’ के नाम से ििखयात है । उस िदन भििान हषीकेश की

पूजा होती है । यह उिम वत अिशय करने योिय है । सूयि ज ंश मे मािधाता नामक एक चकिती, सतयपितज और पतापी राजिष ज हो िये है । िे अपने औरस पुतो की भाँित धमप ज ूिक ज पजा का पालन िकया करते िे । उनके रािय मे अकाल नहीं पड़ता िा, मानिसक िचिताएँ नहीं सताती िीं और वयािधयो का पकोप भी नहीं होता िा । उनकी पजा िनभय ज तिा धन धािय से समद ृ िी । महाराज के कोष मे केिल ियायोपािजत ज धन का ही संगह िा । उनके रािय मे समसत िणो और आशमो के लोि अपने अपने धम ज मे लिे रहते िे । मािधाता के रािय की भूिम कामधेनु के समान फल दे नेिाली िी । उनके राियकाल मे पजा को बहुत सुख पाप होता िा । एक समय िकसी कम ज का फलभोि पाप होने पर राजा के रािय मे तीन िषो तक िषाज नहीं हुई । इससे उनकी पजा भूख से पीिड़त हो नष होने लिी । तब समपूण ज पजा ने महाराज के पास आकर इस पकार कहा :

पजा बोली : नप ृ शष े ! आपको पजा की बात सुननी चािहए । पुराणो मे मनीषी पुरषो ने जल को ‘नार’ कहा है । िह ‘नार’ ही भििान का ‘अयन’ (िनिास सिान) है , इसिलए िे ‘नारायण’ कहलाते है । नारायणसिरप भििान ििषणु सित ज वयापकरप मे ििराजमान है । िे ही मेघसिरप होकर िषा ज करते है , िषा ज से अिन पैदा होता है और अिन से पजा जीिन धारण करती है । नप ृ शष े ! इस समय अिन के िबना पजा का नाश हो रहा है , अत: ऐसा कोई उपाय कीिजये, िजससे हमारे योिकेम का िनिाह ज हो ।

राजा ने कहा : आप लोिो का किन सतय है , कयोिक अिन को बह कहा िया है । अिन से पाणी उतपिन होते है और अिन से ही जित जीिन धारण करता है । लोक मे बहुधा ऐसा सुना जाता है तिा पुराण मे भी बहुत ििसतार के साि ऐसा िणन ज है िक राजाओं के अतयाचार से पजा

को पीड़ा होती है , िकितु जब मै बुिद से ििचार करता हूँ तो मुझे अपना िकया हुआ कोई अपराध नहीं िदखायी दे ता । िफर भी मै पजा का िहत करने के िलए पूणज पयत करँ िा ।

ऐसा िनशय करके राजा मािधाता इने ििने वयिकयो को साि ले, ििधाता को पणाम करके सघन िन की ओर चल िदये । िहाँ जाकर मुखय मुखय मुिनयो और तपिसियो के आशमो पर घूमते िफरे । एक िदन उिहे बहपुत अंििरा ॠिष के दशन ज हुए । उन पर दिष पड़ते ही राजा हष ज मे भरकर अपने िाहन से उतर पड़े और इििियो को िश मे रखते हुए दोनो हाि जोड़कर

उिहोने मुिन के चरणो मे पणाम िकया । मुिन ने भी ‘सििसत’ कहकर राजा का अिभनिदन िकया और उनके रािय के सातो अंिो की कुशलता पूछी । राजा ने अपनी कुशलता बताकर मुिन के सिासिय का समाचार पूछा । मुिन ने राजा को आसन और अधय ज िदया । उिहे गहण करके जब िे मुिन के समीप बैठे तो मुिन ने राजा से आिमन का कारण पूछा । राजा ने कहा : भििन ् ! मै धमान ज ुकूल पणाली से पथ ृ िी का पालन कर रहा िा । िफर भी मेरे रािय मे िषाज का अभाि हो िया । इसका कया कारण है इस बात को मै नहीं जानता । ॠिष

बो ले : राजन ् ! सब युिो मे उिम यह सतययुि है । इसमे सब लोि परमातमा के

िचितन मे लिे रहते है तिा इस समय धम ज अपने चारो चरणो से युक होता है । इस युि मे केिल बाहण ही तपसिी होते है , दस ू रे लोि नहीं । िकितु महाराज ! तुमहारे रािय मे एक शूि

तपसया करता है , इसी कारण मेघ पानी नहीं बरसाते । तुम इसके पितकार का यत करो, िजससे यह अनाििृष का दोष शांत हो जाय । राजा ने कहा : मुिनिर ! एक तो िह तपसया मे लिा है और दस ू रे , िह िनरपराध है । अत: मै उसका अिनष नहीं करँ िा । आप उक दोष को शांत करनेिाले िकसी धमज का उपदे श कीिजये ।

ॠिष बोल े : राजन ् ! यिद ऐसी बात है तो एकादशी का वत करो । भािपद मास के शुकलपक

मे जो ‘पधा’ नाम से ििखयात एकादशी होती है , उसके वत के पभाि से िनशय ही उिम ििृष होिी । नरे श ! तुम अपनी पजा और पिरजनो के साि इसका वत करो । ॠिष के ये िचन सुनकर राजा अपने घर लौट आये । उिहोने चारो िणो की समसत पजा के साि भादो के शुकलपक की ‘पधा एकादशी’ का वत िकया । इस पकार वत करने पर मेघ पानी बरसाने लिे । पथ ृ िी जल से आपलािित हो ियी और हरी भरी खेती से सुशोिभत होने लिी । उस वत के पभाि से सब लोि सुखी हो िये ।

भििान

शीकृषण कह ते है

: राजन ् ! इस कारण इस उिम वत का अनुषान अिशय करना

चािहए । ‘पधा एकादशी’ के िदन जल से भरे हुए घड़े को िस से ढकँकर दही और चािल के

साि बाहण को दान दे ना चािहए, साि ही छाता और जूता भी दे ना चािहए । दान करते समय िनमनांिकत मंत का उचचारण करना चािहए : नमो नमसत े िोििि द ब ुध शिण संजक ॥ अघौघस ंकय ं कृतिा सिज सौखयपदो भ ि । भु िकम ु िकप दशै ि लोकाना ं स ुख दायकः ॥ ‘बुधिार और शिण नकत के योि से युक दादशी के िदन बुदशिण नाम धारण करनेिाले भििान िोिििद ! आपको नमसकार है … नमसकार है ! मेरी पापरािश का नाश करके आप मुझे सब पकार के सुख पदान करे । आप पुणयातमाजनो को भोि और मोक पदान करनेिाले तिा सुखदायक है |’ राजन ् ! इसके पढ़ने और सुनने से मनुषय सब पापो से मुक हो जाता है ।

21. इििद रा एकाद शी यु िधिषर

ने पूछा : हे मधस ु ूदन ! कृ पा करके मुझे यह बताइये िक आिशन के कृ षणपक मे

कौन सी एकादशी होती है ? भििान

शीकृषण बोल े : राजन ् ! आिशन (िुजरात महाराष के अनुसार भािपद) के कृ षणपक

मे ‘इििदरा’ नाम की एकादशी होती है । उसके वत के पभाि से बड़े बड़े पापो का नाश हो जाता है । नीच योिन मे पड़े हुए िपतरो को भी यह एकादशी सदिित दे नेिाली है ।

राजन ् ! पूिक ज ाल की बात है । सतययुि मे इििसेन नाम से ििखयात एक राजकुमार िे,

जो मािहषमतीपुरी के राजा होकर धमप ज ूिक ज पजा का पालन करते िे । उनका यश सब ओर फैल चक ु ा िा । राजा इििसेन भििान ििषणु की भिक मे ततपर हो िोिििद के मोकदायक नामो का जप करते हुए समय वयतीत करते िे और िििधपूिक ज अधयातमतति के िचितन मे संलिन रहते िे ।

एक िदन राजा राजसभा मे सुखपूिक ज बैठे हुए िे , इतने मे ही दे ििषज नारद आकाश से उतरकर िहाँ

आ पहुँचे । उिहे आया हुआ दे ख राजा हाि जोड़कर खड़े हो िये और िििधपूिक ज पूजन करके

उिहे आसन पर िबठाया । इसके बाद िे इस पकार बोले: ‘मुिनशष े ! आपकी कृ पा से मेरी सिि ज ा कुशल है । आज आपके दशन ज से मेरी समपूण ज यज िकयाएँ सफल हो ियीं । दे िषे ! अपने आिमन का कारण बताकर मुझ पर कृ पा करे । नारदजी

ने कहा : नप ृ शष े ! सुनो । मेरी बात तुमहे आशय ज मे डालनेिाली है । मै बहलोक से

यमलोक मे िया िा । िहाँ एक शष े आसन पर बैठा और यमराज ने भिकपूिक ज मेरी पूजा की । उस समय यमराज की सभा मे मैने तुमहारे िपता को भी दे खा िा । िे वतभंि के दोष से िहाँ आये िे । राजन ् ! उिहोने तुमसे कहने के िलए एक सिदे श िदया है , उसे सुनो । उिहोने कहा है : ‘बेटा ! मुझे ‘इििदरा एकादशी’ के वत का पुणय दे कर सिि ज मे भेजो ।’ उनका यह सिदे श लेकर

मै तुमहारे पास आया हूँ । राजन ् ! अपने िपता को सििल ज ोक की पािप कराने के िलए ‘इििदरा एकादशी’ का वत करो ।

राजा ने पूछा : भििन ् ! कृ पा करके ‘इििदरा एकादशी’ का वत बताइये । िकस पक मे, िकस ितिि को और िकस िििध से यह वत करना चािहए । नारदजी

ने कहा : राजेिि ! सुनो । मै तुमहे इस वत की शुभकारक िििध बतलाता हूँ ।

आिशन मास के कृ षणपक मे दशमी के उिम िदन को शदायुक िचि से पतःकाल सनान करो ।

िफर मधयाहकाल मे सनान करके एकागिचि हो एक समय भोजन करो तिा राित मे भूिम पर सोओ । राित के अित मे िनमल ज पभात होने पर एकादशी के िदन दातुन करके मुँह धोओ । इसके बाद भिकभाि से िनमनांिकत मंत पढ़ते हुए उपिास का िनयम गहण करो : अघ िसि तिा िनराहारः सि ज भोिििि िजज त ः । शो भोकय े पुणडरीकाक

शरण ं म े भिा चयुत ॥

‘कमलनयन भििान नारायण ! आज मै सब भोिो से अलि हो िनराहार रहकर कल भोजन करँ िा । अचयुत ! आप मुझे शरण दे |’ इस पकार िनयम करके मधयाहकाल मे िपतरो की पसिनता के िलए शालगाम िशला के सममुख िििधपूिक ज शाद करो तिा दिकणा से बाहणो का सतकार करके उिहे भोजन कराओ । िपतरो को िदये हुए अिनमय िपणड को सूँघकर िाय को िखला दो । िफर धप ू और ििध आिद से

भििान हिषकेश का पूजन करके राित मे उनके समीप जािरण करो । ततपशात ् सिेरा होने पर

दादशी के िदन पुनः भिकपूिक ज शीहिर की पूजा करो । उसके बाद बाहणो को भोजन कराकर भाई बिधु, नाती और पुत आिद के साि सियं मौन होकर भोजन करो । राजन ् ! इस िििध से आलसयरिहत होकर यह वत करो । इससे तुमहारे िपतर भििान

ििषणु के िैकुणठधाम मे चले जायेिे । भििान

शीकृषण कह ते है : राजन ् ! राजा इििसेन से ऐसा कहकर दे ििष ज नारद अितधान ज हो

िये । राजा ने उनकी बतायी हुई िििध से अित: पुर की रािनयो, पुतो और भतृयोसिहत उस उिम वत का अनुषान िकया ।

कुितीनिदन ! वत पूणज होने पर आकाश से फूलो की िषाज होने लिी । इििसेन के िपता िरड़ पर आरढ़ होकर शीििषणुधाम को चले िये और राजिष ज इििसेन भी िनषकणटक रािय का उपभोि करके अपने पुत को राजिसंहासन पर बैठाकर सियं सििल ज ोक को चले िये । इस पकार मैने तुमहारे सामने ‘इििदरा एकादशी’ वत के माहातमय का िणन ज िकया है । इसको पढ़ने और सुनने से मनुषय सब पापो से मुक हो जाता है ।

22. पापा ंकुशा एका दशी यु िधिषर

ने पूछा : हे मधस ु ूदन ! अब आप कृ पा करके यह बताइये िक आिशन के शुकलपक

मे िकस नाम की एकादशी होती है और उसका माहातमय कया है ? भििान

शीकृषण

बोल े

: राजन ् ! आिशन के शुकलपक मे जो एकादशी होती है , िह

‘पापांकुशा’ के नाम से ििखयात है । िह सब पापो को हरनेिाली, सिि ज और मोक पदान करनेिाली, शरीर को िनरोि बनानेिाली तिा सुिदर सी, धन तिा िमत दे नेिाली है । यिद अिय काय ज के पसंि से भी मनुषय इस एकमात एकादशी को उपास कर ले तो उसे कभी यम यातना नहीं पाप होती । राजन ् ! एकादशी के िदन उपिास और राित मे जािरण करनेिाले मनुषय अनायास ही

िदवयरपधारी, चतुभुज ज , िरड़ की धिजा से युक, हार से सुशोिभत और पीतामबरधारी होकर भििान ििषणु के धाम को जाते है । राजेिि ! ऐसे पुरष मातप ृ क की दस, िपतप ृ क की दस तिा पती के पक की भी दस पीिढ़यो का उदार कर दे ते है । उस िदन समपूण ज मनोरि की पािप के िलए मुझ िासुदेि का पूजन करना चािहए । िजतेिििय मुिन िचरकाल तक कठोर तपसया करके िजस फल को पाप करता है , िह फल उस िदन भििान िरड़धिज को पणाम करने से ही िमल जाता है । जो पुरष सुिणज, ितल, भूिम, िौ, अिन, जल, जूते और छाते का दान करता है , िह कभी यमराज को नहीं दे खता । नप ृ शष े ! दिरि पुरष को भी चािहए िक िह सनान, जप धयान आिद करने के बाद यिाशिक होम, यज तिा दान ििैरह करके अपने पतयेक िदन को सफल बनाये । जो होम, सनान, जप, धयान और यज आिद पुणयकम ज करनेिाले है , उिहे भयंकर यम यातना नहीं दे खनी पड़ती । लोक मे जो मानि दीघाय ज ु, धनाढय, कुलीन और िनरोि दे खे जाते है , िे पहले के पुणयातमा है । पुणयकिा ज पुरष ऐसे ही दे खे जाते है । इस ििषय मे अिधक कहने से कया लाभ, मनुषय पाप से दि ु िजत मे पड़ते है और धमज से सििज मे जाते है । राजन ् ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा िा, उसके अनुसार ‘पापांकुशा एकादशी’ का माहातमय

मैने िणन ज िकया । अब और कया सुनना चाहते हो?

23. रमा एकादश ी यु िधिषर

ने पूछा : जनादज न ! मुझ पर आपका सनेह है , अत: कृ पा करके बताइये िक काितक ज

के कृ षणपक मे कौन सी एकादशी होती है ? भििान

शीकृषण बोल े : राजन ् ! काितक ज (िुजरात महाराष के अनुसार आिशन) के कृ षणपक

मे ‘रमा’ नाम की ििखयात और परम कलयाणमयी एकादशी होती है । यह परम उिम है और बड़े -बड़े पापो को हरनेिाली है ।

पूिक ज ाल मे मुचक ु ु िद नाम से ििखयात एक राजा हो चक ु े है , जो भििान शीििषणु के भक और सतयपितज िे । अपने रािय पर िनषकणटक शासन करनेिाले उन राजा के यहाँ निदयो मे शष े ‘चििभािा’ किया के रप मे उतपिन हुई । राजा ने चििसेनकुमार शोभन के साि उसका

िििाह कर िदया । एक बार शोभन दशमी के िदन अपने ससुर के घर आये और उसी िदन समूचे निर मे पूिि ज त ् िढं ढ़ोरा िपटिाया िया िक: ‘एकादशी के िदन कोई भी भोजन न करे ।’ इसे

सुनकर शोभन ने अपनी पयारी पती चििभािा से कहा : ‘िपये ! अब मुझे इस समय कया करना चािहए, इसकी िशका दो ।’ चिि भािा बोली : पभो ! मेरे िपता के घर पर एकादशी के िदन मनुषय तो कया कोई पालतू पशु आिद भी भोजन नहीं कर सकते । पाणनाि ! यिद आप भोजन करे िे तो आपकी बड़ी िनिदा होिी । इस पकार मन मे ििचार करके अपने िचि को दढ़ कीिजये । शो भन न े कहा : िपये ! तुमहारा कहना सतय है । मै भी उपिास करँ िा । दै ि का जैसा ििधान है , िैसा ही होिा । भििान

शीकृषण कह ते है : इस पकार दढ़ िनशय करके शोभन ने वत के िनयम का पालन

िकया िकितु सूयोदय होते होते उनका पाणाित हो िया । राजा मुचक ु ु िद ने शोभन का राजोिचत दाह संसकार कराया । चििभािा भी पित का पारलौिकक कम ज करके िपता के ही घर पर रहने लिी । नप ृ शष े ! उधर शोभन इस वत के पभाि से मिदराचल के िशखर पर बसे हुए परम

रमणीय दे िपुर को पाप हुए । िहाँ शोभन िदतीय कुबेर की भाँित शोभा पाने लिे । एक बार राजा मुचक ु ु िद के निरिासी ििखयात बाहण सोमशमाज तीिय ज ाता के पसंि से घूमते हुए मिदराचल

पित ज पर िये, जहाँ उिहे शोभन िदखायी िदये । राजा के दामाद को पहचानकर िे उनके समीप

िये । शोभन भी उस समय िदजशष े सोमशमाज को आया हुआ दे खकर शीघ ही आसन से उठ खड़े

हुए और उिहे पणाम िकया । िफर कमश : अपने ससुर राजा मुचक ु ु िद, िपय पती चििभािा तिा समसत निर का कुशलकेम पूछा ।

सो मश माज ने कहा : राजन ् ! िहाँ सब कुशल है । आशय ज है ! ऐसा सुिदर और िििचत निर तो कहीं िकसीने भी नहीं दे खा होिा । बताओ तो सही, आपको इस निर की पािप कैसे हुई?

शो भन बोल े : िदजेिि ! काितक ज के कृ षणपक मे जो ‘रमा’ नाम की एकादशी होती है , उसीका वत करने से मुझे ऐसे निर की पािप हुई है । बहन ् ! मैने शदाहीन होकर इस उिम वत का अनुषान िकया िा, इसिलए मै ऐसा मानता हूँ िक यह निर सिायी नहीं है । आप मुचक ु ु िद की सुिदरी किया चििभािा से यह सारा िि ृ ाित किहयेिा ।

शोभन की बात सुनकर बाहण मुचक ु ु िदपुर मे िये और िहाँ चििभािा के सामने उिहोने सारा िि ृ ाित कह सुनाया । सो मश माज बोले : शुभे ! मैने तुमहारे पित को पतयक दे खा । इििपुरी के समान उनके दद ु ज षज निर का भी अिलोकन िकया, िकितु िह निर अिसिर है । तुम उसको िसिर बनाओ ।

चिि भािा ने कहा : बहषे ! मेरे मन मे पित के दशन ज की लालसा लिी हुई है । आप मुझे िहाँ ले चिलये । मै अपने वत के पुणय से उस निर को िसिर बनाऊँिी । भििान

शीकृषण

कह ते है

: राजन ् ! चििभािा की बात सुनकर सोमशमा ज उसे साि ले

मिदराचल पित ज के िनकट िामदे ि मुिन के आशम पर िये । िहाँ ॠिष के मंत की शिक तिा

एकादशी सेिन के पभाि से चििभािा का शरीर िदवय हो िया तिा उसने िदवय िित पाप कर ली । इसके बाद िह पित के समीप ियी । अपनी िपय पती को आया हुआ दे खकर शोभन को

बड़ी पसिनता हुई । उिहोने उसे बुलाकर अपने िाम भाि मे िसंहासन पर बैठाया । तदनितर

चििभािा ने अपने िपयतम से यह िपय िचन कहा: ‘नाि ! मै िहत की बात कहती हूँ, सुिनये । जब मै आठ िष ज से अिधक उम की हो ियी, तबसे लेकर आज तक मेरे दारा िकये हुए एकादशी वत से जो पुणय संिचत हुआ है , उसके पभाि से यह निर कलप के अित तक िसिर रहे िा तिा सब पकार के मनोिांिछत िैभि से समिृदशाली रहे िा ।’

नप ृ शष े ! इस पकार ‘रमा’ वत के पभाि से चििभािा िदवय भोि, िदवय रप और िदवय आभरणो से ििभूिषत हो अपने पित के साि मिदराचल के िशखर पर ििहार करती है । राजन ् ! मैने तुमहारे समक ‘रमा’ नामक एकादशी का िणन ज िकया है । यह िचितामिण तिा कामधेनु के समान सब मनोरिो को पूणज करनेिाली है ।

24. पबोिध नी एकाद शी भििान

शीकृषण ने कहा : हे अजुन ज ! मै तुमहे मुिक दे नेिाली काितक ज मास के शुकलपक की

‘पबोिधनी एकादशी’ के समबिध मे नारद और बहाजी के बीच हुए िाताल ज ाप को सुनाता हूँ । एक

बार नारादजी ने बहाजी से पूछा : ‘हे िपता ! ‘पबोिधनी एकादशी’ के वत का कया फल होता है , आप कृ पा करके मुझे यह सब ििसतारपूिक ज बताये ।’ बहाजी

बो ले : हे पुत ! िजस िसतु का ितलोक मे िमलना दषुकर है , िह िसतु भी काितक ज मास

के शुकलपक की ‘पबोिधनी एकादशी’ के वत से िमल जाती है । इस वत के पभाि से पूि ज जिम

के िकये हुए अनेक बुरे कमज कणभर मे नष हो जाते है । हे पुत ! जो मनुषय शदापूिक ज इस िदन

िोड़ा भी पुणय करते है , उनका िह पुणय पित ज के समान अटल हो जाता है । उनके िपतृ ििषणुलोक मे जाते है । बहहतया आिद महान पाप भी ‘पबोिधनी एकादशी’ के िदन राित को जािरण करने से नष हो जाते है । हे नारद ! मनुषय को भििान की पसिनता के िलए काितक ज मास की इस एकादशी का वत अिशय करना चािहए । जो मनुषय इस एकादशी वत को करता है , िह धनिान, योिी, तपसिी तिा इििियो को जीतनेिाला होता है , कयोिक एकादशी भििान ििषणु को अतयंत िपय है । इस एकादशी के िदन जो मनुषय भििान की पािप के िलए दान, तप, होम, यज (भििािनामजप भी परम यज है ।

‘यजाना ं जपयजोऽ िसम’ । यजो मे जपयज मेरा ही सिरप

है ।’ – शीमदििदिीता ) आिद करते है , उिहे अकय पुणय िमलता है । इसिलए हे नारद ! तुमको भी िििधपूिक ज ििषणु भििान की पूजा करनी चािहए । इस एकादशी के िदन मनुषय को बहमुहूत ज मे उठकर वत का संकलप लेना चािहए और पूजा करनी

चािहए । राित को भििान के समीप िीत, नतृय, किा-कीतन ज करते हुए राित वयतीत करनी चािहए ।

‘पबोिधनी एकादशी’ के िदन पुषप, अिर, धप ू आिद से भििान की आराधना करनी चािहए, भििान को अधय ज दे ना चािहए । इसका फल तीि ज और दान आिद से करोड़ िुना अिधक होता है ।

जो िुलाब के पुषप से, बकुल और अशोक के फूलो से, सफेद और लाल कनेर के फूलो से, दि ज ल से, शमीपत से, चमपकपुषप से भििान ििषणु की पूजा करते है , िे आिािमन के चक से ू ाद

छूट जाते है । इस पकार राित मे भििान की पूजा करके पात:काल सनान के पशात ् भििान की पािन ज ा करते हुए िुर की पूजा करनी चािहए और सदाचारी ि पिित बाहणो को दिकणा दे कर अपने वत को छोड़ना चािहए ।

जो मनुषय चातुमास ज य वत मे िकसी िसतु को तयाि दे ते है , उिहे इस िदन से पुनः गहण करनी चािहए । जो मनुषय ‘पबोिधनी एकादशी’ के िदन िििधपूिक ज वत करते है , उिहे अनित सुख िमलता है और अंत मे सििज को जाते है ।

25. परमा एका दशी अजुज न बो ले : हे जनादज न ! आप अिधक (लौद/मल/पुरषोिम) मास के कृ षणपक की एकादशी का नाम तिा उसके वत की िििध बतलाइये । इसमे िकस दे िता की पूजा की जाती है तिा इसके वत से कया फल िमलता है ? शीकृषण बोले : हे पाि ज ! इस एकादशी का नाम ‘परमा’ है । इसके वत से समसत पाप नष हो जाते है तिा मनुषय को इस लोक मे सुख तिा परलोक मे मुिक िमलती है । भििान ििषणु की धप ू , दीप, नैिेध, पुषप आिद से पूजा करनी चािहए । महिषय ज ो के साि इस एकादशी की जो मनोहर किा कािमपलय निरी मे हुई िी, कहता हूँ । धयानपूिक ज सुनो : कािमपलय निरी मे सुमेधा नाम का अतयंत धमात ज मा बाहण रहता िा । उसकी सी अतयित पिित तिा पितवता िी । पूिज के िकसी पाप के कारण यह दमपित अतयित दिरि िा । उस बाहण की पती अपने पित की सेिा करती रहती िी तिा अितिि को अिन दे कर सियं भूखी रह जाती िी । एक िदन सुमेधा अपनी पती से बोला: ‘हे िपये ! िह ृ सिी धन के िबना नहीं चलती इसिलए मै परदे श जाकर कुछ उदोि करँ ।’ उसकी पती बोली: ‘हे पाणनाि ! पित अचछा और बुरा जो कुछ भी कहे , पती को िही करना चािहए । मनुषय को पूिज ज िम के कमो का फल िमलता है । ििधाता ने भािय मे जो कुछ िलखा है , िह टाले से भी नहीं टलता । हे पाणनाि ! आपको कहीं जाने की आिशयकता नहीं, जो भािय मे होिा, िह यहीं िमल जायेिा ।’ पती की सलाह मानकर बाहण परदे श नहीं िया । एक समय कौिणडिय मुिन उस जिह आये । उिहे दे खकर सुमेधा और उसकी पती ने उिहे पणाम िकया और बोले: ‘आज हम धिय हुए । आपके दशन ज से हमारा जीिन सफल हुआ ।’ मुिन को उिहोने आसन तिा भोजन िदया । भोजन के पशात ् पितवता बोली: ‘हे मुिनिर ! मेरे भािय से आप आ िये है । मुझे पूणज

ििशास है िक अब मेरी दिरिता शीघ ही नष होनेिाली है । आप हमारी दिरिता नष करने के िलए उपाय बताये ।’

इस पर कौिणडिय मुिन बोले : ‘अिधक मास’ (मल मास) की कृ षणपक की ‘परमा एकादशी’ के वत से समसत पाप, द ु:ख और दिरिता आिद नष हो जाते है । जो मनुषय इस वत

को करता है , िह धनिान हो जाता है । इस वत मे कीतन ज भजन आिद सिहत राित जािरण करना चािहए । महादे िजी ने कुबेर को इसी वत के करने से धनाधयक बना िदया है ।’ िफर मुिन कौिणडिय ने उिहे ‘परमा एकादशी’ के वत की िििध कह सुनायी । मुिन बोले : ‘हे बाहणी ! इस िदन पात: काल िनतयकम ज से िनिि ृ होकर िििधपूिक ज पंचराित वत आरमभ करना चािहए । जो मनुषय पाँच िदन तक िनजल ज वत करते है , िे अपने माता िपता और सीसिहत सििल ज ोक को जाते है । हे बाहणी ! तुम अपने पित के साि इसी वत को करो । इससे तुमहे अिशय ही िसिद और अित मे सििज की पािप होिी |’ कौिणडिय मुिन के कहे अनुसार उिहोने ‘परमा एकादशी’ का पाँच िदन तक वत िकया । वत समाप होने पर बाहण की पती ने एक राजकुमार को अपने यहाँ आते हुए दे खा । राजकुमार ने बहाजी की पेरणा से उिहे आजीििका के िलए एक िाँि और एक उिम घर जो िक सब

िसतुओं से पिरपूण ज िा, रहने के िलए िदया । दोनो इस वत के पभाि से इस लोक मे अनित सुख भोिकर अित मे सििल ज ोक को िये । हे पाि ज ! जो मनुषय ‘परमा एकादशी’ का वत करता है , उसे समसत तीिो ि यजो आिद का फल िमलता है । िजस पकार संसार मे चार पैरिालो मे िौ, दे िताओं मे इििराज शष े है , उसी पकार मासो मे अिधक मास उिम है । इस मास मे पंचराित अतयित पुणय दे नेिाली है । इस महीने मे ‘पििनी एकादशी’ भी शष े है । उसके वत से समसत पाप नष हो जाते है और पुणयमय लोको की पािप होती है ।

26. पिि नी एक ादशी अजुज न ने कहा : हे भििन ् ! अब आप अिधक (लौद/ मल/ पुरषोिम) मास की शुकलपक की

एकादशी के ििषय मे बताये, उसका नाम कया है तिा वत की िििध कया है ? इसमे िकस दे िता की पूजा की जाती है और इसके वत से कया फल िमलता है ? शीकृषण बोल े : हे पाि ज ! अिधक मास की एकादशी अनेक पुणयो को दे नेिाली है , उसका नाम ‘पििनी’ है । इस एकादशी के वत से मनुषय ििषणुलोक को जाता है । यह अनेक पापो को नष करनेिाली तिा मुिक और भिक पदान करनेिाली है । इसके फल ि िुणो को धयानपूिक ज सुनो: दशमी के िदन वत शुर करना चािहए । एकादशी के िदन पात: िनतयिकया से िनिि ृ होकर पुणय केत मे सनान करने चले जाना चािहए । उस समय िोबर, मिृिका, ितल, कुश तिा आमलकी चण ू ज से िििधपूिक ज सनान करना चािहए । सनान करने से पहले शरीर मे िमटटी लिाते हुए उसीसे

पािन ज ा करनी चािहए: ‘हे मिृिके ! मै तुमको नमसकार करता हूँ । तुमहारे सपश ज से मेरा शरीर पिित हो । समसत औषिधयो से पैदा हुई और पथ ृ िी को पिित करनेिाली, तुम मुझे शुद करो । बहा के िक ू से पैदा होनेिाली ! तुम मेरे शरीर को छूकर मुझे पिित करो । हे शंख चक िदाधारी दे िो के दे ि ! जििनाि ! आप मुझे सनान के िलए आजा दीिजये ।’ इसके उपराित िरण मंत को जपकर पिित तीिो के अभाि मे उनका समरण करते हुए

िकसी तालाब मे सनान करना चािहए । सनान करने के पशात ् सिचछ और सुिदर िस धारण करके संधया, तपण ज करके मंिदर मे जाकर भििान की धप ू , दीप, नैिेघ, पुषप, केसर आिद से पूजा करनी चािहए । उसके उपराित भििान के सममुख नतृय िान आिद करे । भकजनो के साि भििान के सामने पुराण की किा सुननी चािहए । अिधक मास की शुकलपक की ‘पििनी एकादशी’ का वत िनजल ज करना चािहए । यिद मनुषय मे िनजल ज रहने की शिक न हो तो उसे जल पान या अलपाहार से वत करना चािहए । राित मे जािरण करके नाच और िान करके भििान का समरण करते रहना चािहए । पित पहर मनुषय को भििान या महादे िजी की पूजा करनी चािहए । पहले पहर मे भििान को नािरयल, दस ू रे मे िबलिफल, तीसरे मे सीताफल और चौिे मे

सुपारी, नारं िी अपण ज करना चािहए । इससे पहले पहर मे अििन होम का, दस ू रे मे िाजपेय यज का, तीसरे मे अशमेघ यज का और चौिे मे राजसूय यज का फल िमलता है । इस वत से बढ़कर संसार मे कोई यज, तप, दान या पुणय नहीं है । एकादशी का वत करनेिाले मनुषय को समसत तीिो और यजो का फल िमल जाता है ।

इस तरह से सूयोदय तक जािरण करना चािहए और सनान करके बाहणो को भोजन करना चािहए । इस पकार जो मनुषय िििधपूिक ज भििान की पूजा तिा वत करते है , उनका जिम सफल होता है और िे इस लोक मे अनेक सुखो को भोिकर अित मे भििान ििषणु के परम धाम को जाते है । हे पािज ! मैने तुमहे एकादशी के वत का पूरा ििधान बता िदया । अब जो ‘पििनी एकादशी’ का भिकपूिक ज वत कर चक ु े है , उनकी किा कहता हूँ,

धयानपूिक ज सुनो । यह सुिदर किा पुलसतयजी ने नारदजी से कही िी : एक समय काति ज ीय ज ने रािण को अपने बंदीिह ृ मे बंद कर िलया । उसे मुिन पुलसतयजी ने काति ज ीय ज से ििनय करके

छुड़ाया । इस घटना को सुनकर नारदजी ने पुलसतयजी से पूछा : ‘हे महाराज ! उस मायािी रािण को, िजसने समसत दे िताओं सिहत इिि को जीत िलया, काति ज ीय ज ने िकस पकार जीता, सो आप मुझे समझाइये ।’ इस पर पुल सतयजी

बो ले : ‘हे नारदजी ! पहले कृ तिीय ज नामक एक राजा रािय करता िा ।

उस राजा को सौ िसयाँ िीं, उसमे से िकसीको भी राियभार सँभालनेिाला योिय पुत नहीं िा । तब राजा ने आदरपूिक ज पिणडतो को बुलिाया और पुत की पािप के िलए यज िकये, परितु सब असफल रहे । िजस पकार द ु:खी मनुषय को भोि नीरस मालूम पड़ते है , उसी पकार उसको भी

अपना रािय पुत िबना दःुखमय पतीत होता िा । अित मे िह तप के दारा ही िसिदयो को पाप

जानकर तपसया करने के िलए िन को चला िया । उसकी सी भी (हिरशिि की पुती पमदा) िसालंकारो को तयािकर अपने पित के साि ििधमादन पित ज पर चली ियी । उस सिान पर इन लोिो ने दस हजार िष ज तक तपसया की परितु िसिद पाप न हो सकी । राजा के शरीर मे केिल हिडडयाँ रह ियीं । यह दे खकर पमदा ने ििनयसिहत महासती अनसूया से पूछा: मेरे पितदे ि को तपसया करते हुए दस हजार िषज बीत िये, परितु अभी तक भििान पसिन नहीं हुए है , िजससे मुझे पुत पाप हो । इसका कया कारण है ?

इस पर अनसूया बोली िक अिधक (लौद/मल ) मास मे जो िक छिीस महीने बाद आता है , उसमे दो एकादशी होती है । इसमे शुकलपक की एकादशी का नाम ‘पििनी’ और कृ षणपक की एकादशी का नाम ‘परमा’ है । उसके वत और जािरण करने से भििान तुमहे अिशय ही पुत दे िे । इसके पशात ् अनसूयाजी ने वत की िििध बतलायी । रानी ने अनसूया की बतलायी िििध

के अनुसार एकादशी का वत और राित मे जािरण िकया । इससे भििान ििषणु उस पर बहुत पसिन हुए और िरदान माँिने के िलए कहा । रान ी ने कहा

: आप यह िरदान मेरे पित को दीिजये ।

पमदा का िचन सुनकर भििान ििषणु बोले : ‘हे पमदे ! मल मास (लौद) मुझे बहुत

िपय है । उसमे भी एकादशी ितिि मुझे सबसे अिधक िपय है । इस एकादशी का वत तिा राित

जािरण तुमने िििधपूिक ज िकया, इसिलए मै तुम पर अतयित पसिन हूँ ।’ इतना कहकर भििान

ििषणु राजा से बोले: ‘हे राजेिि ! तुम अपनी इचछा के अनुसार िर माँिो । कयोिक तुमहारी सी ने मुझको पसिन िकया है ।’ भििान की मधरु िाणी सुनकर राजा बोला : ‘हे भििन ् ! आप मुझे सबसे शष े , सबके

दारा पूिजत तिा आपके अितिरक दे ि दानि, मनुषय आिद से अजेय उिम पुत दीिजये ।’ भििान तिासतु कहकर अितधान ज हो िये । उसके बाद िे दोनो अपने रािय को िापस आ िये । उिहींके यहाँ काति ज ीयज उतपिन हुए िे । िे भििान के अितिरक सबसे अजेय िे । इिहोने रािण को जीत िलया िा । यह सब ‘पििनी’ के वत का पभाि िा । इतना कहकर पुलसतयजी िहाँ से चले िये । भििान श ीकृषण न े क हा : हे पाणडु निदन अजुन ज ! यह मैने अिधक (लौद/मल/पुरषोिम) मास के शुकलपक की एकादशी का वत कहा है । जो मनुषय इस वत को करता है , िह ििषणुलोक को जाता है |

Related Documents

Ekadashi Vrat Katha
November 2019 16
Katha
November 2019 43
Vrat Patrika 2009
June 2020 5
Katha-ii
October 2019 22
Musahko Katha
December 2019 20

More Documents from ""

June 2020 0
June 2020 0
June 2020 0
June 2020 0
June 2020 0
June 2020 0