कहानी
दे श, आज़ादी की पचासवीं वषगांठ और एक मामूली सी ूेम कहानी सूरज ूकाश यहां कही ज ा रही कहानी दे श की आज़ादी के पचासव बरस के दौरान की एक छोटी सी, मामूली-सी ूेम कहानी है । हो सकता है आपको यह ूेम कहानी तो *या, कहानी ही न लगे और आप कह िक यह सब *या बकवास है ? ज ीवन के साथ यही तो तकलीफ़ है । ज ब ज ीवन की बात की ज ाये तो कहानी लगती है और ज ब कहानी सुनायी ज ाये तो लगता है , इसम कहानी ज ैसा तो कुछ भी नहीं। हम यही सब कुछ तो रोज दे खते-सुनते रहते ह2 । िफ र भी यह कहानी कहनी ही है । ज ीवन या कहानी ज ो कुछ भी है , यही है । बाकी फ़ैसला आपका। खैर। तो, िपछले कई बरस6 की कई-कई शाम6 की तरह, आज की शाम भी हमारा कथानायक मुंबई महानगर, िज से दे श की आिथक राज धानी भी कहा ज ाता है , के मैरीन साइव की मुंडेर पर िपछले आधे घंटे से कथानाियका के इं तज़ार म बैठा हआ अरब महासागर की उठती ु िगरती लहर दे ख रहा है । सूय अभी-अभी डू बा है और ज ाते-ज ाते ज ैसे अपने पीछे रं ग6 की बा?टी को ठोकर मार गया है । सारे रं ग ग@ड म@ड होकर िAितज म िबखर गये ह2 । कथा नायक का नाम कुछ भी हो सकता है । उसकी उॆ बीस-बाइस बरस से लेकर अCठाइस-तीस बरस, कुछ भी हो सकती है । वह िकसी भी िवषय का मेज ुएट या पोःट मेज ुएट हो सकता है । वह िकसी ब2क म *लक या िकसी ूाइवेट फ म म ज ूिनयर अिसःटट या िकसी फै *टरी म ःटोरकीपर भी हो सकता है । ऐसे पचास6 धंधे ह2 इस महानगर म ज ो कथानायक या कथानायक ज ैसे दसरे नौज वान करते िमलगे। वैसे भी इस कहानी म बात ू से कोई फ़क नहीं पड़ता िक वह इस वH ठीक-ठीक कौन-सा काम कर रहा है । ज हां तक उसके रहने का सवाल है , वह मुंबई महानगर के दरू या पास के िकसी उपनगर म ःटे शन से काफ ी दरू िकसी झोपड़पCटी म रह सकता है और एंटाप िहल, बांिा सरकारी वसाहत, सहार पी एंड टी कालोनी म *लास फ ोर *वाट स म से िकसी Lलैट म सब-लैिटं ग करके एक कमरा भी लेकर रह सकता है और यह भी हो सकता है िक कहीं खाने की
सुिवधा के साथ पेइंग गेःट बन कर रह रहा हो। यह भी हो सकता है िक वह िकसी हे ड *लक नुमा अपने िकसी बॉस के डे ढ़ कमरे के मकान म रात को िबःतर िबछाने भर की ज गह म रह रहा हो। होने को तो यह भी हो सकता है िक वह िकसी लाज म छः या आठ िबःतर6 वाले एक बड़े से कमरे म रह रहा हो ज हां रहने के साथ-साथ खाने की भी सुिवधा हो। बेशक वहां का खाना इतना घिटया हो िक आये िदन उसका पेट खराब हो ज ाता हो, लेिकन िफ र भी वहीं ज मा हआ हो और चाह कर भी उसे छोड़ने की िहPमत न ु ज ुटा पाता हो। इतना तय है िक वह कहीं भी रह रहा हो, िकराये का कमरा ले कर रहने की उसकी है िसयत नहीं है । होती तो कथानाियका से कब की उसकी शादी हो चुकी होती और वह इस समय यहां बैठा उसका इं तज़ार न कर रहा होता। कथानाियका को अब तक आ ज ाना चािहये, उसने सोचा और राह चलते एक आदमी की घड़ी पर िनगाह डाली। उसे यहां बैठे हए ु प2तालीस िमनट होने को आये थे। कथानाियका से उसकी मुलाकात यहीं, इसी ज गह पर हई ु थी। लगभग ढाई साल पहले। कथा नाियका की िज़ंदगी भी कमोबेश कथानायक ज ैसी ही है । उसका भी कोई भी नाम, नौकरी, िडमी, ज ाित, धम हो सकता है । अलबRा वह रहती अपने घर म है और इस तरह से कुछ मायन6 म कथानायक से बेहतर िःथित म है । बाकी बात कथानायक से िमलती ज ुलती ह2 । शायद इसी वज़ह से दोन6 के बीच बातचीत शुS हई ु होगी। दोन6 म दो-एक फ़क और ह2 । कथानायक इस शहर म परदे सी है । यहां उसका कोई नहीं है । कथानाियका ःथानीय है । उसका अपना घर बार है । बाकी सारे दख ु एक ज ैसे। सांझे और लगभग बराबर भी। कथानाियका साधारण काठी की, औसत-सी िदखने वाली लड़की है । बेशक उसकी आंख खूब गहरी और ख़ास तरह की चमक िलये हए ु ह2 , उसका बाकी चेहरा-मोहरा साधारण है । रं ग भी थोड़ा दबा हआ है िज सकी वज ह वह कई बार हीनता भी महसूस ु करती है । एक िमनट ठहर। यहां इस बात की ज़Sरत महसूस हो रही है िक कहानी म बेहतर संवाद ःथािपत करने की VिW से कथा नायक और कथा नाियका का नामकरण कर िदया ज ाये तािक उन दोन6 की कहानी पढ़ते हए ु हम यह महसूस करते रह िक वे भी हमारी तरह हाड़ मांस के ज ीते ज ागते इXसान ह2 और उनकी भी, बेशक मामूली ही हो, अपनी खुद का िज़ंदगी है , और उनकी भी एक पहचान है । चूिं क यहां कही ज ा रही कहानी भारत दे श, उसकी आज़ादी की पचासवीं वषगांठ और उस दौरान की, कथा नायक तथा कथा नाियका के ूेम की कहानी है , अत: इन दोन6 के नाम भारत और भारती रख िदये ज ाय तो आप शायद एतराज़ न कर। संयोग से कथा नाियका भारती उपनाम से किवताएं भी िलखती है ।
हमारे कथा नायक और कथा नाियका, िज Xह हम आगे पूरी कहानी म भारत और भारती के नाम से ज ानगे, हालात के मारे दो अदने से इXसान ह2 । बेहद शरीफ और ज़माने भर के सताए हए। उनकी पूरी िज़ंदगी को िसफ़ तीन लफ़ज 6 म बयान िकया ज ा सकता है ु संघष, संघष और संघष। सफ लता एक भी नहीं। वैसे मौका िमलता तो वे भी िज़ंदगी की सारी सीिढ़यां आपको एक साथ चढ़ कर िदखा दे ते। बस, उXह अपनी िज़ंदगी संवारने के मौके ही नहीं िमले। हर तरह से योZय होने के बावज़ूद। अपनी तरफ से हर संभव कोिशश कर लेने के बावज़ूद। वैसे उनकी इस हालत के िलए उXह तो कRई दोषी नहीं ठहराया ज ा सकता। यह बात भी है िक वे हालात का िशकार होने वाले अकेले, पहले या आिखरी भी नहीं ह2 । दरअसल इसके पीछे एक लPबी कहानी है और उसे बयान करने के िलए हम अपनी इस ूेम कहानी को थोड़ी दे र के िलए यहीं रोक कर हालात की उस कहानी की तह म ज ाना होगा। हां, इतना ज़Sर है िक ज ब हम कथा नायक और कथा नाियका के बहाने उन सारी िःथितय6 की पड़ताल कर रहे ह6गे, तो वे दोन6 भी लगातार इस कहानी म हमारे आस पास बने रहगे बि?क ज हां भी मौका िमला, हम आगे की अपनी कहानी खुद ही सुनायगे। तो, दे श की आज़ादी की यह पचासवीं वषगांठ थी। वैसे तो कथा नायक और कथा नाियका के िलए आज़ादी के इस साल और िपछले उनचास साल6 म कोई अंतर नहीं था। यह साल भी िपछले सारे साल6 की तरह वैसे ही शुS हो कर यूं ही गुज़र ज ाने वाला था, िफ र भी, यह साल िपछले साल6 से इस Sप म अलग था िक सरकारी तौर पर और सरकारी खच[ पर पूरे दे श म साल भर तक उ\सव का माहौल रहने वाला था। इस मद के िलए सरकार ने करोड़6 ]पये पहले ही एक तरफ रख िदये थे िज Xह साल भर चलने वाले सरकारी समारोह6, उ\सव6, नाटक6 और नौटं िकय6 म खुले हाथ6 खच िकया ज ाना था। इन आयोज न6 के िलए बहत ु ऊंचे दरज े की बीिसय6 सिमितयां बना दी गयी थीं और उनके सलाह मशिवरे से ये सारे भ_य आयोज न िकये ज ाने थे। ज हां तक कथा नायक और नाियका का इन सब आयोज न6 से ज ुड़ने का सवाल था, वे इन सारी चीज़6 के ूित पूरी तरह उदासीन थे। वैसे भी सरकार ने उXह इन सबम शािमल होने के िलए नहीं कहा था। कहता भी कौन? िकसी ने न तो उXह इन सबके िलए आमंिऽत िकया था और न ही िकसी भी ःटे ज पर उXह िवaास म ही िलया गया था। वे चाह कर भी इन सबम शािमल नहीं हो सकते थे। कथा नाियका के इं तज़ार म बैठे कथा नायक भारत की सोचने की गPभीर मुिा दे ख कर क?पना करना मुिँकल नहीं लगता िक वह इस समय िकस उधेड़बुन से गुज़र रहा होगा। हो सकता है , वह इस समय दरू िकसी गांव म या छोटे शहर म अपनी बीमार मां, िरटायड
बाप, बेरोज़गार छोटे भाई, शादी के इं तज़ार म बैठी बहन के बारे म सोच रहा हो और इस महीने भी उXह अब तक मनी आड र न भेज पाने के बारे म परे शान हो रहा हो या उसे आज अपनी इस नौकरी से भी ज वाब िमल गया हो और वह एक बार िफ र बेरोज़गार होने ज ा रहा हो। हो सकता है कल उसकी ूेिमका का ज Xमिदन हो और वह उसके िलए कोई छोटा-मोटा तोहफ ा लेने के बारे म सोच रहा हो। इस बात की भी सPभावना है िक आज शिनवार हो और उसकी ज ेब म एक भी पैसा न हो, उसे हर हालत म आज अपने ठीये का िकराया चुकाना हो, नहीं तो .. ..। या उसने नाियका को आज बिढ़या खाना िखलाने का वादा कर रखा हो या उसकी नौकरी म कोई लफ ड़ा या रहने की ज गह या.. या... या... । बहत ु कुछ हो सकता है िज सके बारे म कथा नायक सोच रहा हो। आिखर हम उसे ज ानते ही कहां ह2 िक इतने दावे के साथ बता द िक वह इस वH *या सोच रहा है । उसके _यिH\व के, ज ीवन के, उसके संघषe के बारे म बहत ु सारे ऐसे पहलू हो सकते ह2 िज नके बारे म हम कुछ भी तो नहीं ज ानते। हो सकता है िक अभी तक हमने ज ो भी अनुमान लगाये ह2 , वे सारे ही गलत ह6। हम उसके बारे म ज ो कुछ सोच रहे ह2 , ऐसा कुछ हो ही नहीं। वह उस िकःम का आदमी हो न हो। वह तो बस, यूं ही यहां मौसम और शाम की रं गीिनयां दे खकर कुछ वH िबताने की नीयत से मैरीन साइव की मुंडेर पर आ कर बैठ गया हो। नहीं, हम गलत नहीं ह2 । कथा नायक को ले कर हमने िज तनी भी बात सोची ह2 , वे सारी की सारी सही ह2 । कुछ बात अगर आज सही ह2 तो कुछ सfचाइयां आने वाले या बीते हए ु कल की भी हो सकती ह2 । दरअसल, ज ैसािक म2ने बताया, दे श की आज़ादी का यह पचासवां साल िपछले उनचास साल6 से कोई खास फ़क नहीं रखता था। सब कुछ वैसा ही था। बि?क कई मायन6 म बदतर भी। अगर इस बीच ज नसंgया बढ़ी थी तो बेरोज़गारी उसके अनुपात म कई गुना बढ़ी थी। हालांिक आज़ादी के इस पचासव बरस म भी िपछले बरस और उससे भी िपछले कई बरस6 की तरह दे श के सभी िवaिवhालय6, महािवhालय6, तकनीकी और ूबंध संःथान6 ने लाख6 की संgया म हर तरह से योZय और कुछ कर गुज़रने के उ\साह से लबरे ज़ पोःट मेज ुएCस और मेज ुएCस तैयार करके सड़क पर उतार िदये थे। उनकी ज गह तुरंत ही, और उनसे अिधक ही तादाद म, नये लोग उनकी ज गह लेने के िलए इन संःथान6 आिद म पहंु च गये थे। भीतर सबके समाने लायक ज गह नहीं थी, िफ र भी लोग थे िक िकसी भी तरह एक बार दािखला पा लेने के िलए आकुल-_याकुल थे। कई लोग तो इसके िलए
अपनी है िसयत से कई गुना iयादा पैसे खच करके भी भीतर ज गह पाने के िलए होड़ सी लगा रहे थे। इससे कोई फ़क नहीं पड़ता था िक उनकी ]िच िकस िवषय म थी और ूवेश िकस िवषय म िमल रहा था। उXह तो बस, एक अदद िडमी से मतलब था। कैसे भी, िकसी भी िवषय की िमले। वे ज ानते थे िक उXह ज ो नौकरी, अगर कभी िमली तो, िसफ िडमी के आधार पर िमलेगी। उसम दज िवषय के आधार पर नहीं। उनकी िवशेषjता के आधार पर तो कRई नहीं। उधर बाहर, सड़क6 पर अभी भी िपछले कई बरस6 के बकाया पोःट मेज ुएCस और मेज ुएCस ु हर तरह से योZय, ज़Sरतमंद और इfछक होने के बावज ूद अपने लायक कोई काम नहीं तलाश पाये थे और हर वH अपने हाथ म मैली पड़ चुकी िडिमय6, आवेदन पऽ6 की कॉिपय6 और अखबार6 की कतरन6 कर बंडल उठाये दLतर6, फै *टिरय6, सेवायोज न कायालय6 के गेट के आसपास और चौराह6, नु*कड़6 पर दे खे ज ा सकते थे। वे हर कहीं मौज ूद थे। वे सब ज गह6 पर अरसे से थे। बेरोज़गार6 की इस भीड़ म इन नये लोग6 के आ ज ाने से हर कहीं भीड़ बेतहाशा बढ़ गयी थी और लगभग हर कहीं एक-दसरे को धिकयाने की-सी नौबत आ गयी थी। इन सब ू लोग6 का धैय हालांिक अब तक तो चुक ज ाना चािहये था और मनोिवjान के िनयम6 के अराज क िःथितय6 की िहसाब से मारा-मारी, िसर फु Cटौवल, और इसी तरह की दसरी ू शुSआत हो ज ानी चािहये थी, िफ र भी न ज ाने *य6 आम तौर पर यह िःथित नहीं आ पायी थी। ये लोग बेहद आःथावान थे। ूतीAा और आaासन6 के सहारे यहां तक की किठन और असPभव याऽा पूरी करके आ पहंु चे थे। उXह अभी भी उPमीद थी िक कोई ज ादईु िचराग़ उनकी िज़ंदगी का अंधेरा दरू करने के िलए, बस आता ही होगा। उXह इस तरह अपने लायक काम की तलाश करते हए ु अब तक तो सिदयां बीतने को आयीं थीं, बि?क िपछली पीढ़ी म से भी अिधकतर लोग िबना कोई ढं ग का काम पाये अपनी िज़ंदगी की आधी सदी पूरी कर चुके थे। न तो उनका इं तज़ार ख\म हआ था और न ही कोई ु ज ादईु िचराग़ ही उनकी अंधेरी िज़ंदगी म रौशनी का एकाध कतरा ही ला पाया था। ये सारे के सारे लोग, ज ो बेरोज़गार थे, और काम करना चाहते थे, अरसे से खाली पेट और लगभग सुXन िदमाग़ िलये अब तक पःत होने को आये थे, लेिकन ज ैसा िक म2ने बताया, उनकी आंख6 म चमक अभी भी बाकी थी और वे सब एकटक, सड़क़ के उस मुहाने की तरफ़ दे ख रहे थे, ज हां से कभी-कभी रोज़गार के कुछे क मौके मुहैया कराने वाल6 के आने की बारीक-सी उPमीद रहती थी। अमूमन वे लोग कभी इस तरफ़ आते दे खे तो नहीं गये थे, िसफ सुने गये थे और अगर कभी वे आये भी थे तो आगे आगे खड़े दो-चार लोग6 को
अपने पीछे आने का इशारा करके बहत ु तेज ी से लौट गये थे। उनके आने और लौट ज ाने के बीच का अंतराल इतना कम होता था िक पीछे खड़े लोग6 को हवा भी नहीं लग पाती थी और वे लौट चुके होते थे। हमारा कथा नायक भारत हमेशा ऐसी कतार6 म मौज ूद था। कभी सबसे आगे तो कभी बेइXतहां भीड़ म सबसे पीछे । वह कहीं भी रहा हो, हमेशा छला गया था। उसके िहःसे म कभी भी कोई भी ढं ग की नौकरी नहीं आयी थी। हर बार उसी की बारी आने पर सब कुछ ख\म हो ज ाता था। उसे आज भी याद करके हँ सी आती है । उसकी पहली नौकरी नगर पािलका म थी। तब वह बारहवीं पूरी कर चुका था। उसकी उॆ अCठारह की थी। यह दसेक साल पहले की बात है । एPपलायमट ए*सचज से बड़ी मुिँकल से सौ ]पये दे कर नाम िनकलवाया था उसने। यह तो वहीं ज ा कर पता चला था िक ये नौकरी गली-गली घूम कर मfछर मारने की दवा िछड़कने की है । साइिकल अपनी होनी चािहये। िसर पीट िलया था उसने। इस नौकरी के िलए मना करने का मतलब होता अगले तीन महीने तक ए*सचज से दोबारा िकसी नौकरी के िलए नाम नहीं आयेगा और ःवीकार करने का मतलब अगले छ: महीने तक नाम नहीं आयेगा। िफ र भी उसने नौकरी यही सोच कर ले ली थी िक कुछ तो पैसे िमलगे ही। साइिकल का इं तज़ाम उसे करना पड़ा था। िज स पड़ोसी के बfच6 को वह Cयूशन पढ़ाता था, उनसे िमली थी साइिकल उसे। एक और बfचे को मुLत पढ़ाने की शत पर। लेिकन यह नौकरी िसफ़ तीन िदन चल पायी थी। वैसे चलाने वाले इससे बदतर नौकिरयां भी चला ही रहे थे, बि?क कथा नायक ने भी आगे-पीछे कई वािहयात नौकिरयां की ही थीं, लेिकन मfछर मारने वाली उस नौकरी से वह एक पल के िलए भी खुद को ज ोड़ नहीं पाया था। बहत ु बेमन से दो-ढाई िदन काट कर उससे अलग हो गया था। ऐसा नहीं था िक बेरोज़गारी के लPबे-लPबे दौर से गुज़रते हए ु कथा नायक या उसके साथ के दसरे सारे बेरोज़गार लोग कभी िनराश नहीं होते थे या इXह गुःसा नहीं आता था। ू दरअसल इनकी िनराशा और इनका गुःसा िसफ़ इXहीं की ज ान लेता था। चरम हताशा की हालत म कुछे क लोग खुदकुशी कर लेते थे, या घर वाल6 के साथ सामूिहक Sप से ज़हर खा लेते थे, लेिकन अब तक कोई ऐसी वारदात सुनने म नहीं आयी थी िक नौकरी मांगने वाल6 ने कोई भी काम न िमलने पर िमल मािलक6, ब2क6 या सरकारी दLतर6 वगैरह का घेराव िकया हो, िहं सा का राःता अपनाया हो या कहीं ऊंची आवाज म बात ही की हो। ऐसी एक भी घटना सुनने म नहीं आयी थी। शायद बेरोज़गार6 की ही ज मात ऐसी थी ज ो िक संगिठत नहीं थी। उनका कोई गुट नहीं था और उनका कोई रहनुमा भी नहीं था। हां,
कभी-कभार कुछ ःवाथn त\व ज़Sर इन लोग6 को अपने मतलब के िलए अपने पीछे आने वाली भीड़ म शािमल कर लेते थे और अपना काम सधते ही इXह वािपस सड़क6 पर ठे ल दे ते थे। कथा नायक अपने चार6 तरफ गहरी हताशा और िनराशा से दे खता था। वह ज ानता था िक अकेले के बलबूते पर पूरे दे श म बरस6 से फै ली भयंकर अ_यवःथा, बेरोज़गारी और हद दरज े की उदासीनता से कभी भी नहीं लड़ पायेगा। कोई भी नहीं लड़ सकता था। यहां िकसी को भी तो िकसी की परवाह नहीं थी। कहीं कोई सुनवाई नहीं थी। हालत इतनी खराब थी िक रोज़गार दLतर6 के रिज ःटर6 म और नाम िलखने की ज गह ही नहीं बची थी। िफ र भी हर बेरोज़गार नौकरी की हलकी-सी उPमीद म रोज़गार दLतर6 के आगे लगी कतार6 म िदन भर खड़ा रहता। िफ र भी घंट6 एक पैर पर भूखे oयासे खड़े रहने के बाद भी नाम िलखवाने के िलए उसका नPबर नहीं आ पाता था। दे री की िशकायत करने पर यही बताया ज ाता िक ःटाफ की कमी है , दे र तो लगेगी ही। यही हालत सब ज गह थी। छोटे से छोटा काम कराने के िलए भी उसे घंट6 लाइन6 म लगना पड़ता। एक लाइन का काम ख\म करके दसरे काम के िलए दसरी लाइन म नये ू ू िसरे से अपनी बारी लगानी पड़ती। इXहीं लाइन6 के च*कर म कई बार िसफ आधे घXटे के काम के िलए पंिह-पंिह िदन तक लग ज ाते। सभी ज गह ःटाफ की कमी का रोना रोया ज ाता। सच तो यह था िक एक तरफ ःटाफ की बेहद कमी थी और दरी ू तरफ़ काम करने लायक अमूमन हर तीसरा आदमी बेकार था या अपनी योZयता और है िसयत से कम का काम औने-पौने दाम6 पर करने के िलए मज़बूर था। यह भी हो रहा था िक एक लPबा अरसा बीत ज ाने के बाद इस तरह का बेकार युवक सचमुच ही बेकार हो चुका होता था। तब उसम न तो काम करने का माpा बचता था और न इfछा शिH ही। एक तरह से उसे तैयार करने म समाज की ढे र सारी पूंज ी तो बेकार ज ाती ही थी, उसकी खुद की बरस6 की मेहनत, पूंज ी, लगन और ईमानदार कोिशश भी बेकार चली ज ाती थी। कहीं - कही तो एकएक काम से तीन-तीन आदमी िचपके हए ु थे। रोज़गार हो न हो, पेट सबके पास लगभग एक ज ैसा ही था ज ो आधा-अधूरा ही सही, अनाज मांगता था। इसी खाली पेट को िकसी भी हालत म भरने की मज़बूरी कई लोग6 को आपरािधक ज गत की तरफ़ मोड़ दे ती थी, ज हां ज ाने के तो कई आसान राःते थे, लेिकन वापसी का कोई भी राःता नहीं होता था।
कथा नायक के पास कुछ भी तो नहीं था िक दे िदला कर ही कहीं खुद को िफ ट करवा लेता। न तो उसके पास कोई िसफ़ािरश होती थी और न ही िखलाने िपलाने के िलए पैसे ही। वैसे भी वह रोज़ ही तो दे खता था िक ज ो लोग िकसी न िकसी तरह की ज ुगत िभड़ा कर, कुछ दे -िदला कर या ऊंची िसफ़ािरश वगैरह लगवा कर इन थोड़ी-सी नौकिरय6 से िचपक भी गये थे, वे भी इतने िवरोधाभास की िज़ंदगी ज ी रहे थे िक आqय होता था िक अब तक ये लोग पागल *य6 नहीं हो गये। बाटनी का गो?ड मैडिलःट ब2क के काउं टर पर बैठा िदन भर नोट िगनता था और िफ िज *स का फ ःट *लास फ ःट कहीं सड़े हए ु सरकारी दLतर म घुन लगी कुसn पर बैठा आलतू-फ ालतू की िचिCठय6 को दज कर रहा था। अंमेज ी सािह\य के एमए पास युवक होटल म माहक6 के िडनर के आड र लेते िमलते और िहXदी का पीएच डी िकसी दरू-दराज की चुग ं ी पर बैठा ज ािहल शक साइवर6 से माथा-पfची कर रहा होता। बायो कैिमःटी की ूथम ौेणी की एमएससी पास लड़की टे िलफ ोन ऑपरे टर ु की टfची सी नौकरी करने पर मज़बूर थी और पािलएःटर टै *नालाज ी म पीएच डी युवक िकसी चाय कPपनी म माक[िटं ग मैनेज र होता। कहीं कहीं ऐसा भी होता िक घोड़ा डा*टरी की िडमी ले लेने के बाद भी ज ब िकसी युवक को दरू पास कहीं भी छोटी-सी नौकरी नहीं िमलती थी तो वह मोटर पाCस की या िकताब6 की से?समैनी वाली घुमंतू नौकरी िसफ़ इस िलए ःवीकार कर लेता था िक बेरोज़गार रहने से तो अfछा है , कुछ बेच ही लो। घर वाल6 के सामने हर समय थोबड़ा लटकाये रहने से तो यही बेहतर था। उसने खुद भी तो मेज ुएट होने के बाद ऐसे ऐसे काम िकये थे िज Xह कोई आठवीं पास भी आराम से कर सकता था बि?क कर भी रहा था। यह इस वH का सबसे बड़ा सच था िक कई डाकखान6 के बाहर दिसय6 की संgया म बेकार मेज ुएCस बैठे हए ू के घर पर भेज े ज ाने ु एक-एक दो-दो ]पये ले कर अनपढ़ मज़दर6 वाले मिनआड र6 के फ ाम भर कर रोज़ी रोटी कमा रहे थे। िनिqत ही सड़क पर मज़दरी ू करने वाले ये मज़दरू इन मेज ुएट6 की तुलना म बेहतर िःथित म थे ज ो अपने रहने-खाने के अलावा घर भेज ने लायक पैसे कमा रहे थे और परोA Sप से ही सही, महानगर6 के इन पढ़े िलखे लोग6 के रोज़गार के िनिमR बने हए ु थे। खैर..। िविचऽ संयोग था िक कथा नायक को हमेशा फ ालतू, अनु\पादक और अपने ःतर से कम के काम करने पड़े थे। अब तक की पfचीस तीस नौकिरय6 म से एक भी तो उसके लायक नहीं थी। कथा नायक हमेशा यही सोच कर अपने को तस?ली दे लेता िक वह अकेला नहीं है । उसके साथ के लाख6 की तादाद म बेरोज गार लोग एक साथ कई सािज़श6 के िशकार ह2 । सरकार की िचंता तो इतनी भर थी िक उसके आंकड़6 म िकसी तरह यह
दज हो ज ाये िक दे श की अिधकतर आबादी उनके ूयास6 की वज़ह से आज साAर है , िशिAत, ूिशिAत है और हर तरह से योZय है । वह अAर बांच सकती है । सबको नौकरी दे ने की न तो उसकी नैितक िज Pमेवारी है , न उसकी औकात ही है , और न ही उसने कभी ऐसा वायदा ही िकया था। अगर कहीं काम6 की गुंज ाइश थी भी, तो सरकार की ऊंची, गpे दार कुिसय6 पर बैठे लोग6 के पास इतनी दरदिश ता ही नहीं थी िक तय कर सकते, ू िकस काम के िलए कौन-सा आदमी ठीक रहे गा। सबसे बड़ी िवडPबना तो यही थी िक तय करने की ताकत रखने वाले कई अफ सर और लीडर खुद ही गलत ज गह6 और गलत कुिसय6 पर गलत तरीके से बैठे हए ु थे। उनसे िकसी भी तरह की कोई भी उPमीद करना उनके साथ iयादती ही होती। सबसे अिधक तकलीफ़ की बात तो यही थी िक िज न लोग6 के भरोसे यह दे श चल रहा था, वे ही लोग िपछले बरस6 म सबसे iयादा नाकारा, ॅW, लापरवाह और अवसरवादी िसv हए ु थे। 100 करोड़ की ज नसंgया के मुहाने पर खड़े दे श के िलए यह बहत ु ही शम की बात थी िक पूरे दे श म आदश कहे ज ा सकने लायक एक भी नेता नहीं था। आज़ादी की पचासवीं वषगांठ मना रहे िवa की सबसे वैभवशाली परPपराओं और माXयताओं और समृy लोक तंऽ वाले पूरे दे श म इस समय एक भी ऐसा _यिH नहीं था िज स पर दे श की ज नता मन से भरोसा कर सके और िज सके होते हए ु अपने आप को सुरिAत और िनिqत महसूस कर सके। मज े की बात यह थी िक पूरे दे श म न केवल राज नीित म, बि?क िकसी भी Aेऽ म इस तरह का एक भी _यिH नहीं था। ये दे श बौन6 का दे श बन चुका था। दभा ु Zय से िज न हाथ6 म दे श का नेत\ृ व सzपा गया था, उनम आधे से iयादा लुfचे, आवारा, काितल, ह\यारे , शाितर अपराधी, बीस बीस ह\याओं के िसv दोषी डकैत और िगरहकट भरे पड़े थे। राज नीित के Aेऽ म कुल िमला कर यह आलम था िक आप एक नेता और ह\यारे म फ क नहीं िदखा सकते थे। फ क था भी नहीं। दोन6 एक ही काम कर रहे थे और कमोबेश दोन6 का तरीका भी एक ही था। आये िदन अखबार नेताओं vारा करोड़6 ]पये की िरaत लेने, ह\याएं, बला\कार करने और दसरे इतर अपराध6 म िल{ पाये ू ज ाने की खबर6 से भरे रहते थे। अ*सर पता चलता िक फ लां नेता या मुgय मंऽी के घर से करोड़6 ]पये की नकदी पायी गयी है या फ लां ूधान मंऽी पर करोड़6 ]पये सूटकेस म अपरािधय6 से लेने के आरोप लगाये गये ह2 । अ*सर ूधान मंऽी पर दसरे ू दे श6 के हिथयार बेचने वाले कारोबािरय6 से िरaत लेने के आरोप लगते रहते और वे इन आरोप6 से न िवचिलत होते और न ही इनका खंडन ही करते। वे पूरी बेशरमी से अदालत6 से अिमम ज मानत भी ले आते थे। बेशरमी का यह आलम होता था िक वे दोबारा चुनाव लड़ने के
िलए एक बार िफ र ज नता के ूितिनिध बन कर हाथ ज ोड़े वोट मांगने के िलए चल पड़ते थे। उन पर आपरािधक मुकदमे चलते रहते, वे ज ेल भी हो आते और इस बीच सRा अपने पिरवार वाल6 को सzप ज ाते, मानो सRा न हो, लाला की दकान हो िक कोई भी सौदा ु सुलुफ बेच लेगा। दे श की आज़ादी की पचासवीं सालिगरह के वष म अब राज नीित ही ऐसा _यवसाय बचा था िज सम भरपूर पैसा था, सRा सुख था और असीम सुिवधाएं थीं। यह इसी दे श म हो रहा था िक दे श की बेहतरीन सुरAा मशीनरी अपराध की दिनया से राज नीित म आये ु लोग6 और उनके कुनब6 की हाज री बज ा रही थी। राज नीित एक खुज ैली रं डी का नाम हो गया था। इस रं डी के पास सुख तो था लेिकन रोग और खाज भी थे। लोग थे िक िफ र भी इस रं डी के पास ज ाने के िलए कुछ भी िलए करने ु और अब सरे आम। के तैयार थे। पहले चोरी छपे इस रं डी के पास ज ाने वाल6 का दीन दिनया से नैितक अनैितक कोई संबंध नहीं रह ज ाता ु था। दे श उनके िलए एक खुला और हरा भरा चरागाह था और उनका काम िसफ हरी घास चरना था और कुछ भी नहीं। राज नीित नाम की इस रं डी के पास बेइंतहा पैसा था। इतना िक आप क?पना भी नहीं कर सकते थे। वहां ज ाने वाले िखलाड़ी अभी भी राज े महाराज ाओं की तरह ऐशो आराम से रहते और सरकारी मशीनरी का ज म कर द]पयोग करते थे। ु मशीनरी के इस द]पयोग का ही पिरणाम था िक इस राज नीितक कुनबापरःती की छऽ ु छाया म लगभग कथानायक की ही पीढ़ी का एक ऐसा वग भी अंगड़ाइयां ले रहा था िज सके पास कोई िदशा नहीं थी, कोई लआय नहीं था, िज सके पास कोई िज Pमेवारी भी नहीं थी और सामािज क बोध तो दरू दरू तक नहीं था। फ ाःट लाइफ का िहमायती यह युवा वग िज स रLतार से बड़ी बड़ी गािड़यां चलाता था, उसी रLतार से अपने सारे काम पूरे होते दे खना चाहता था। यह युवा वग बेहद ज ?दी म था और उसे ज़रा सा भी इं तज़ार करना गवारा नहीं था। वह अपने पास आधुिनक आZनेय हिथयार पैन या लाइटर की तरह रखता था और उनका इःतेमाल भी वैसा ही करता था। वह आधी रात को *लब म शराब परोसने म एक पल की भी दे र होने पर या बार बाला vारा पैग के साथ चुब ं न दे ने से इनकार करने पर उसकी कनपटी पर गोली मार कर दो सौ आदिमय6 की मौज ूदगी म सरे आम उसकी ह\या कर सकता था, अपनी मनपसंद आइसबीम न िमलने पर वेटर की
ह\या कर सकता था, शराब का नशा बढ़ाने के िलए अपनी ही ूेिमका को मार कर उसे म*खन के साथ तंदरू म भून सकता था और सै*स संबंधी अपनी िवकृ ितय6 को पूरा करने के िलए भारी िटकट खरीद कर पु]ष6 का नंगा नाच भी दे खने ज ा सकता था। उसे िकसी का, िकसी का भी डर नहीं था, *य6िक उसे पता था िक इस दे श का कानून उसकी मुCठी म है और कोई उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता। उसकी उfछंृ खलता का यह आलम था िक वह कहना न मानने वाली िकसी छाऽा का उसके हॉःटल म ज ा कर सामूिहक Sप से बला\कार कर सकता था और िशकायत की धमकी िदये ज ाने पर उसे सबक िसखाने के िलए दोबारा उसे सड़क से उठवा कर उसके साथ िफ र से उसके साथ सामूिहक बला\कार कर सकता था। इस वग की ताकत इतनी iयादा बढ़ गयी थी िक यह अपने सामने िकसी को भी कुछ नहीं समझता था और सारी दिनया को अपने ठगे पर रखता था। वह दे र रात तक सड़क6 ु पर तेज गािड़यां चलाता, ऐ~याशी के िनत नये चरागाह तलाशता, भzडे Sप म सै*स का ूदशन करता, कराता और नशे म धुत हो कर घर लौटते समय िकसी को भी अपनी गाड़ी के नीचे कुचल सकता था। उसे इस हादसे पर कोई अफ सोस न होता। उसे पता था िक ज ब गवािहयां दी ज ायगी तो वहां उसकी बीएमडी गाड़ी का नहीं, िकसी अनाड़ी शराबी vारा चलाये ज ा रहे शक का िज ब होगा। यह वही वग था ज ो िदन भर काले धंधे म अनाप शनाप पैसा कमाता और रात को अपनी औकात बताने के िलए खच कर डालता। उसके सामने हर बार एक ही लआय होतावह दसर6 से आगे है । कमाने म भी और खच करने म भी। इसके िलए उसे िनत नये ू तरीक6 की तलाश रहती। कई बार कथा नायक सोचता था िक काश उसके पास भी कोई बेहतर िडमी ही होती और बाहर ज ाने लायक थोड़े बहत ु पैसे ही होते। वह भी इनके सहारे अfछी िडमी, है िसयत और िज़ंदगी म कुछ कर गुज़रने की तमXना रखने वाले तमाम इं ज ीिनयर, डॉ*टर और दसरे ू Aेऽ6 के ूोफे शनल6 की तरह िकसी भी कीमत पर, बाहर के मु?क6 की तरफ िनकल ज ाता। बेशक वहां दोयम दरज े के ज ीवन था, िफ र भी कम से कम इतना तो िमल ज ाता िक वह खुद का और अपने पीछे पिरवार का gयाल तो रख पाता। वह िकतने ही ऐसे लोग6 को ज ानता था ज ो यहां से बड़ी बड़ी िडिमयां ले कर गये थे और बाहर के मुलक6 म बैरािगरी कर रहे थे। वे िकXहीं शतe पर भी वहां ज ाना चाहते।
एक िवकासशील और गरीब दे श की पूंज ी पर तैयार होने वाले ये हर तरह से ौे िदमाग िवकिसत दे श6 के िवकास और ूगित के वाहक बन रहे थे। हमारी सरकार को इस ूितभा पलायन की कRई िचंता नहीं थी। दे श की इसी बे]खी की वज़ह से ही तो वे अपनी सर ज़मीं छोड़ कर गये थे। बाहर िकXहीं भी शतe पर हो, रोज़गार और पैसा तो था। हर साल बाहर ज ाने वाले िदमाग6 की संgया बढ़ती ज ाती। उXह रोकने के िलए न तो कोई िनयम थे और न ही कोई ूलोभन ही। ज हां तक िनज ी संःथान6, बड़े -बड़े औhोिगक घरान6 और िवशालकाय दे शी िवदे शी उhम6 म नौकिरय6 का सवाल था, तो वहां के लायक पढ़ाई तो कथा नायक के पास थी लेिकन िकःमत नहीं थी। उसे कोई मामूली नौकरी दे ने को तैयार नहीं था, इतनी आला नौकरी करती थीं कौन दे ता। वह दे खता था िक वहां हमेशा कुछे क आला दरज े की नौकिरयां हआ ु और अ*सर लायक आदिमय6 को िमल भी ज ाती थीं, लेिकन आम तौर पर इन उhोग वाल6 की िनगाह तकनीकी और ूबंध संःथान6 म हर साल तैयार होने वाली बेहतरीन बीम पर ही रहती थी। इन संःथान6 म फ ाइनल वष के शुS होते ही औhोिगक समूह6 के ूितिनिध वहां च*कर काटना शुS कर दे ते और वहां तैयार हो रहे बेहतरीन िदमाग6 को बहत ु ऊंची, उPमीद से कहीं अिधक और योZयता के अनुपात म दो - तीन गुना ऊंची बोिलयां लगा कर एक तरह से खरीद लेते थे और अपने यहां की टॉप मशीनरी म िफ ट कर दे ते थे। एक बार इन युवा, ऊज ावान और शाितर िदमाग6 को खरीद लेने के बाद ये उhोग धंधे वाले इनसे बारह पंिह घXटे कस कर काम लेते और उन पर खच की ज ाने वाली एक-एक पाई वसूल कर लेते। यह बात दीगर होती िक इस तरह से क2पस सेले*शन से लाये गये ये शाितर िदमाग िकसी एक ज गह साल छ: महीने िटकना भी अपनी तौहीन समझते और अपनी छाती पर अपने बाज़ार भाव का िब?ला लगाये एक और ऊंची छलांग लगाने के िलए दसरी कंपिनय6 से भाव तौल करने लगते। हालत यह हो ज ाती िक एक ू कंपनी म पचास हज ार ]पये मािसक, कार, बंगला, *लब मैPबरिशप ज ैसी सुिवधाओं को भोगने वाला तेईस वष का सयाना िदमाग पचपन हज़ार वाली कंपनी म ज ाने की िफ़राक म रहता और पचपन वाला िकसी साठ हज़ार वाली कंपनी म सौदा पटा रहा होता। ऊपर के ःतर पर यह आवागमन इतना तेज , आकिःमक और अिनवाय-सा लगने लगता िक पता ही नहीं चलता था िक कल तक ज ो आदमी िकसी को?ड िसं क कंपनी म सीिनयर माक[िटं ग मैनेज र के Sप म नया ूॉड*ट लाँच करने के िलए अपनी टीम से और अिधक डे िडकेशन, समपण और डै िशंग एूोच की मांग कर रहा था, अचानक अगली सुबह िकसी ज ूता कंपनी म कैसे ज ा पहंु चा।
लेिकन ये सारी बात बहत ु ऊपर के ःतर पर चलतीं थीं। िसफ़ उस ःतर पर ज हां बेहतरीन िदमाग और बेहतरीन पद लगभग बराबर संgया म थे। एक ख़ास िकःम के लोग6 के िलए। दोन6 ही सीिमत। िगने-चुने। लगभग हर कुशल और तेज़ िदमाग के िलए एक पद तो था ही। कई बार एक से iयादा भी होते। दो-चार हज ार ]पये कम या iयादा पर। कथा नायक की पहंु च से बहत ू उसके ज ैस6 के सामने तो हमेशा संकट था *य6िक उनके ु दर। पास िसफ़ सामाXय िडिमयां थीं। िवaिवhालयीन िडिमयां। सािह\य की, कला की, और समाज शाःऽीय िवषय6 की। कई बार िवjान की िविशW शाखाओं की भी। ये िडिमयां उXह िकसी भी िविशW, तकनीकी, ूबंध या ए*स*यूिटव या कई बार साधारण दरज े के पद6 तक भी नहीं पहंु चातीं थीं। उनके िलए तो िसफ़ औसत नौकिरयां या िफ र अयापन ही बचता था। वह भी सीिमत संgया म। पहले आइएएस म इन िडमीधािरय6 का नPबर लग ज ाया करता था, लेिकन कुछ अरसे से इस लाइन म भी ूोफे शनल लोग6 ने धावा बोलना शुS कर िदया था। बाज़ार की कहानी और भी अज ीब थी। बाज़ार म मांग िसफ़ िविशWता, ःपेशलाइज ेशन की थी चाहे वह िकसी भी Aेऽ म हो। इन Aेऽ6 म थोड़ा कम अंक वाले आदमी को भी िकसी न िकसी नौकरी की उPमीद रहती ही थी, लेिकन सामाXय िवषय के पीएच डी भी बाज़ार म कोई ख़ास कीमत नहीं रखते थे। ऐसी िडिमय6 वाले लोग भी सामाXय और कम पढ़े िलखे तथा बेरोज़गार6 वाली भीड़ का ही िहःसा बन कर रह ज ाते थे। उXह भी *लक से लेकर आइएएस तक के िलए लगातार आवेदन करते रहना पड़ता था, बि?क कम पढ़े -िलखे बेरोज़गार6 के साथ एक सुिवधा रहती थी िक वे ज़Sरत पड़ने पर खुद को िकसी भी छोटे मोटे काम म भी िफ ट कर लेते थे। ये कम पढ़े -िलखे लोग वH ज़Sरत बाज़ार म केले, सेब और oयाज भी बेच सकते थे, िर*शा चला सकते थे बि?क चला भी रहे ही थे। वे कोई भी छोटा-मोटा काम कर लेते थे। कुछ भी नहीं होता था तो अपना सब कुछ बेचबाच कर िमिडल ईःट की तरफ़ मज़दरी ू करने ही िनकल ज ाते थे। लेिकन अब तो हालत यह हो गयी थी िक िकसी भी छोटे से छोटे काम पर िकसी वग िवशेष का एकािधकार ु नहीं रहा था। ऊंची ऊंची िडमी वाले भी चपरासी, बस कंड*टर और हमालिगरी की टfची ु नौकरी के िलए अपनी असली िडिमय6 को छपा कर सामने आने लगे थे। कहा ज ा सकता था िक दे श ने पढ़ाई के मामले म अब इतनी तर*की कर ली थी िक अब यहां िर*शे वाले, खोमचेवाले, पान बीड़ी वाले और यहां तक िक िबXदी-सुखn बेचने वाले भी एमए, बीए पास होने लगे थे। वे भी आिखर कहां तक भूखे रहते। बेरोज़गारी तो उXह एक कप चाय और एoलाई करने के िलए डाक खच तक के िलए ]ला डालती थी। भूखे रह कर घुटते रहने से तो यही बेहतर था िक ज ो भी, ज ैसे भी िमल रहा है , ले लो। इसे छोड़ तो हिथयाने
के िलए दस लोग लाइन म खड़े िमलगे। िज़ंदा रहने के िलए कोई भी शत बड़ी नहीं थी। कथा नायक की दसरी नौकरी भी बहत ू ु थोड़े िदन चल पायी थी। काम था एक वकील की डाक संभालना और उसके िलए मैसज र का काम करना। वैसे इस नौकरी म कोई खास तकलीफ़ नहीं थी, पैसे भी ठीक थे और वकील साहब का _यवहार भी अfछा था। लेिकन ज ो तकलीफ़ थी, उससे िकसी भी तरह से पार नहीं पाया ज ा सकता था। उसके कालेज का समय, Cयूशन का समय और वकील साहब के यहां हाज री बज ाने का समय एक ही थे। वकील साहब पूरा िदन मांगते तो कॉलेज की पढ़ाई और आने-ज ाने के िलए भी उसे उतने ही समय की ज़Sरत होती। उसे हर हालत म रोज़ाना दो चीज़ छोड़नी ही पड़तीं। Cयूशन का समय तो िफ र भी बदला ज ा सकता था लेिकन बाकी दोन6 समय उसके बस म नहीं ू थे। यहां भी नौकरी ही छटी थी। वकील ने भी यही सलाह दी थी िक पहले पढ़ाई पूरी कर लो, तभी कोई ढं ग की नौकरी तलाशो। मेरे यहां काम करते रहने से अगर तुPहारी पढ़ाई का हज़ा होता है तो म2 यह दोष अपने िसर नहीं लेना चाहंू गा। वैसे कभी भी फ ीस वगैरह के िलए ]पये पैसे की ज़Sरत हो तो ... ... ....। ू यह बात दीगर है िक ये नौकरी के छटने के बाद भी पढ़ाई नहीं चल पायी थी और वह पूरी तरह से बेकार हो गया था। उसे यहां आने की तारीख आज भी याद है । अपने शहर ने तो उसे मुिँकल से ]ला ]ला कर एक िडमी ही दी थी। इसके बीच एक लPबा िसलिसला Cयूशन6, ूाइवेट नौकिरय6 और बेरोज़गारी के दौर6 का रहा था। कभी नौकरी के िलए पढ़ाई तो कभी पढ़ाई के िलए म से?समैन नौकरी। कभी दोन6 एक साथ तो कभी दोन6 ही नहीं। तरह तरह की दकान6 ु िशप की। लॉटरी के िटकट तक बेचे। सड़क6 पर खड़े हो कर ॄेज री से ले कर बाल पैन तक बेचे। िसफ़ इस उPमीद से हर तरह के काम म खुद को खपाये रखा िक अfछे िदन बस आते ही ह6गे। उसने िकसी भी काम को छोटा नहीं समझा था। हालांिक इस वज़ह से उसे कई बार बहत ु शिमदगी भी उठानी पड़ती। ु तब वह बी ए म पढ़ रहा था। छCटी के िदन और शाम के वH छोटा मोटा काम करके अपना खच िनकालता था। उस िदन रिववार था। िज स दकान से बेचने के होज री का ु सामान लाता था, उसने उस िदन अलग-अलग साइज़ की ॄेज़री के कई िडबे पकड़ा िदये और आंख मारते हए ु बोला, ले ज ा बेटा, मज़े कर। एक से एक बिढ़या माहक को यह नायाब तोहफ ा सःते दाम6 पर बेच। नयन सुख वहां से लेना और डबल कमीशन म2 दं ग ू ा। उसने लाख कहा था, वह यह आइटम इस तरह सरे -आम आवाज़ लगा कर नहीं बेच
सकता लेिकन दकानदार ने एक नहीं सुनी थी और उसने उस िदन पहली और आिखरी ु बार सड़क पर खड़े हो कर यह आइटम बेची थी और उसी िदन यह गड़बड़ हो गयी थी। वे चार6 एक साथ थीं और एकदम उसके ठीये के सामने आ खड़ी हई ु थीं। वह और उसकी तीन सहे िलयां। उसके सामने आ खड़े होने से पहले न तो उXह6ने उसे दे खा था और न ही वह उXह आता दे ख पाया था। लड़िकय6 म से िकसी को भी उPमीद नहीं थी िक उससे इस तरह, इस हालत म ये सब बेचते हए ु सामना हो ज ायेगा। िसर उसी का पहले झुका था और वह उXह सकते की हालत म अपने ठीये पर छोड़ कर बाज ू की गली म सरक गया था। वे भी वहां नहीं ]की थीं और एक तरह से वहां से लपकते हए ु आगे िनकल गयीं थीं। सड़क पर इस तरह से सामान बेचने का यह उसका आिखरी िदन था। उनसे, और खास तौर पर उससे वह कई िदन तक आंख नहीं िमला पाया था। अपने आप पर गुःसा भी आया था िक साली यह भी कोई िज़ंदगी है । हर वH कोई न कोई लड़ाई ु लड़ते ही रहो। इस टfची िज़ंदगी से तो बेहतर था, अनपढ़ ही होते। कम से कम इस तरह से अपने पराय6 के सामने नज़र तो न झुकानी पड़तीं। हालांिक कई िदन बाद ज ब उनम सामाXय Sप से बातचीत शुS हई ु थी तो उन दोन6 ने ही इतना gयाल ज़Sर रखा था िक इस बात का िब?कुल भी िज़ब नहीं िकया था लेिकन वह सोच सकता था िक उसे और उसकी सहे िलय6 को िकतना खराब लगा होगा, िक उनका *लास फै लो, दोःत ज ो पढ़ाई म कम से कम उनसे तो अfछा ही था और वे अ*सर उससे नोCस वगैरह मांगा करती थीं, सड़क पर इस तरह से .... .... ...। सुनीता ने बाद म, बहत ु बाद म उससे कहा भी था िक उस िदन वह घर ज ा कर बहत ु दे र तक रोती रही थी। इसिलए नहीं िक वे अचानक उसके सामने उस वH पड़ गयी थीं ज ब वह फु टपाथ पर इस तरह की कोई चीज़ बेच रहा था। उससे पहले भी वह उसे कुछ न कुछ बेचते हए ु दे ख ही चुकी थी और इस बात के िलए उसकी तारीफ ही करती थी िक वह िकसी भी काम को छोटा नहीं समझता था और सब काम करने के बावज़ूद अपनी पढ़ाई के ूित भी उतना ही सीिरयस था। उसे रोना तो इस बात पर आया था िक उसे पढ़ाई पूरी करने के िलए कैसे कैसे िदन दे खने पड़ रहे थे। वह सुनीता की िःथित को अfछी तरह समझता था। अपने ूित उसकी भावनाओं से वह वािकफ था। उनका कई बरस6 का पिरचय था। उन दोन6 ने लगभग पूरा बचपन एक साथ
ही िबताया था। वह कुछ कहे िबना भी सब कुछ समझती थी और हमेशा एक मैfयोर ू दोःत की तरह उसका साथ दे ती थी। एक तरह से उसकी छटी हई ु पढ़ाई िफ र से शुS कराने के पीछे सुनीता की ही िज़द थी, वरना तो वह एक साल बारहवीं म फे ल हो ज ाने के बाद पढ़ाई को पूरी तरह से अलिवदा कह चुका था। सुनीता उससे एक साल ज ूिनयर थी और उसके फे ल हो ज ाने से दोन6 बारहवीं म आ गये थे। उस साल भी वह लगातार सुनीता के क6चने, समझाने और हर तरह से उसका मनोबल बनाये रखने के कारण ही अfछे नPबर6 से पास हो पाया था। बीए के िलए भी उसके िलए फ ाम सुनीता ही लायी थी और अपनी पूरी अिनfछा के बावज ूद िसफ सुनीता का मान रखने के िलए बीए कर रहा था। बेशक बीए करने के च*कर म उसका आिथक माफ िबगड़ गया था और उसके हाथ से एक ढं ग की नौकरी भी ज ाती रही थी। वह यह भी ज ानता था िक वह बीए तो *या एमए भी कर ले, ढं ग की नौकरी उससे सौ तरह के पापड़ िबलवायेगी। लेिकन इसके बावज ूद वह सुनीता का कहा नहीं टाल पाया था। वह उसके िलए इतना कुछ करती थी। उसकी सारी तकलीफ 6 को वह बेशक कम न कर सके, वह इतना तो करती ही थी िक ज ैसे भी हो, वह उसका मनोबल बनाये रखती थी। पढ़ाई के िलए भी और बेहतर िज़ंदगी के gवाब को लगातार िनगाह म रखने के िलए भी। उसे यह भी पता था िक वह ज ो भी, ज हां भी कोई धंधा कर रहा होता था या िज स सड़क ु पर वह सामान बेच रहा होता या िज स दकान पर वह कोई टfची से?समेनी कर रहा होता ु तो वह उस सड़क से भी गुज़रना टालती थी तािक उसे यानी कथा नायक भारत को बेवज़ह उसकी नज़र6 के सामने छोटा न होना पड़े । यह बात वह समझता था और वे दोन6 कभी भी इस बात को अपने आपसी संबंध6 के बीच म नहीं लाते थे। खासकर, मोज 6 वाले िकःसे के बाद से तो सुनीता उसकी खुpारी का पूरा सPमान करती थी। वह उस घटना के बाद से इस बात का पूरा gयाल रखती थी िक उसकी िकसी भी बात से, _यवहार से कथा नायक को तकलीफ़ न पहंु चे। उन िदन6 उसकी आिथक िःथित बहत ु खराब चल रही थी। इसके बावज ूद उसकी पूरी कोिशश रहती िक उसके कपड़े साफ सुथरे रह, िकसी को भी हवा तक न लगे िक वह िकतने किठन दौर से गुज़र रहा है । कई ज़Sरी चीज़ टल रही थीं। वह चाह कर भी अपने िलए ढं ग के ]माल और मोज े नहीं खरीद पा रहा था। ज ो दो एक ज ोड़े थे उसके पास या तो उनका इलािःटक ढीला हो गया था या वे पंज 6 की तरफ िबलकुल फ ट गये थे। सुनीता से यहीं एक बेवकूफ़ी हो गयी थी। हालांिक उसकी खुद की अपनी कोई कमाई नहीं थी, िफ र भी वह अपनी तरफ से उसके िलए दो ज ोड़ी मोज े और ]माल ले आयी थी। वैसे तो
इसम ऐसा कुछ भी नहीं था िक बात का बतंगड़ बनता। वे दोन6 पहले भी एक दसरे को ू छोटी मोटी चीज़ दे ते ही रहे थे। लेिकन इन चीज 6 को दे खकर वह बुरी तरह हट हो गया था। एकदम चुप हो गया था। इस घटना के बाद से उसने कई िदन तक सुनीता से बात नहीं की थी। उसके िहसाब से यह उसके अहम ्पर चोट थी। उसे बेचारगी की हद तक शिमदा करने वाली बात। शायद यह उसी घटना का ूभाव रहा हो िक उसने उस िदन के बाद से आज तक मोज 6 वाले ज ूते ही नहीं पहने ह2 । वह या तो स2िडल पहनता है या िफ र िबना तःम वाले ज ूते, िज नम मोज 6 की ज़Sरत ही नहीं रहती। सुनीता से बेहद आ\मीय संबंध6 के बावज़ूद वह इन संबंध6 का हौ ज ानता था और हआ ु भी वही था। उसे अfछी सेकेड *लास के बावज़ूद पढ़ाई को एक बार िफ र िवराम दे ना पड़ा था और सुनीता िसफ पास भर होने के बावज ूद एमए करने के िलए अपनी बड़ी बहन के पास दसरे शहर चली गयी थी। उन दोन6 के बीच सारे वायदे और उस अनकहे संबंध6 ू के बारीक रे शे अपनी ज गह पर थे और िज़ंदगी की सfचाई अपनी ज गह पर। सुनीता की शादी वहीं से, उसकी बहन ने अपने िकसी िरँतेदार से तय कर दी थी। लड़का डॉ*टर था। सड़क के िकनारे फे री लगा कर सामान बेच कर पढ़ाई करने वाला कथा नायक िनिqत Sप से उस डॉ*टर का िवक?प नहीं हो सकता था। िफ ?मीं िकःस6 म यह बात चल ज ाती थी, लेिकन िज़ंदगी की सfचाई दोन6 ही ज ानते थे। अब एमए पास सुनीता के सपने एक बीए पास और दो साल से लगभग बेरोज गार कथा नायक कैसे भी तो पूरे नहीं कर सकता था। एक आध सपना भी नहीं। यहां भी उसने इसे अपनी एक बहत ु बड़ी हार मान िलया था। वह लड़ता भी तो िकससे और िकस आधार पर। लड़ने लायक आ\मिवaास बेरोज़गार6 के िहःसे म नहीं आता, यह बात वह ज ानता था। उसने सुनीता की शादी के बारे म एक लझज तक नहीं कहा था। एक बार िफ र चुoपी के गहरे कूंए म उतर गया था। हालांिक शादी का Xयौता उसे भी िमला था बि?क सुनीता के हाथ से िलखा अकेला काड उसी को भेज ा गया था। यह बात सुनीता भी ज ानती थी और चाहती भी थी िक वह न ही आये तो बेहतर। ज ानता वह भी था इसीिलए तो उसकी शादी म ज ाने के बज ाये उसने वह शहर ही हमेशा के िलए छोड़ िदया था। वह बPबई आ गया था। बंबई - ज हां ढे र सारे लोग सपने ले कर आते थे और धीरे धीरे सपन6 की बात पूरी तरह से भूल कर एक मामूली सी, गुमनाम सी िज़ंदगी गुज़ारने लगते थे। ठीक कथा नायक की तरह। वह भी खाली हाथ यहां चला आया था। शायद यहीं िकःमत कुछ पलटा खाये।
िज न भसीन साहब के बfच6 को वह Cयूशन पढ़ाता था, वे ज ब ःथानांतिरत हो कर बंबई आये तो उXहीं ने क6चा था, चले आओ यहां। यहां कोई भूखा नहीं मरता। एक बार िकःमत आज माने म कोई हज नहीं। म2 अपने ऑिफ स म ही तुPहारे िलए कोई बिढ़या ज ॉब दे खग ूं ा। तब तक तुम हमारे साथ ही रहना। सचमुच उसे भसीन साहब की मेहरबानी से फु टपाथ पर नहीं सोना पड़ा था, न भूखे रहना पड़ा था और न ही खाना खाने के एवज म होटल6 म बैरािगरी करनी पड़ी थी। कर लेता तो बेहतर था। भसीन साहब ने उसे छत और रोटी ज़Sर दी थी, लेिकन उसकी है िसयत Cयूटर से िगरते िगरते घरे लू नौकर और बेबी िसटर की हो गयी थी। ऐसी िज़ंदगी से तो बेहतर था, फु टपाथ पर ही सो लेता। वह सोया भी लेिकन बाद म। ज हां तक नौकरी का सवाल था तो िमःटर भसीन कभी भी नहीं चाहते थे िक उसे नौकरी िमले। वे तो यही सोच कर उसे लाये थे िक वह रोटी और छत के एवज म उनके बfच6 को पढ़ाता भी रहे गा वे दोन6 ज ब नौकरी करने ज ायगे तो िदन भर मुLत म बfच6 का gयाल भी रखेगा। पांच साल पहले ज ब कथा नायक यहां आया था तब से आज तक उसने िज तने भी अनुभव बटोरे ह2 , िज तने संघष िकये ह2 , उन पर चाहे तो एक पूरी िकताब िलख सकता है , चाहे तो िबना ]के घंट6 बात कर सकता है । लेिकन तकलीफ यही है िक यह सोना इतना तप चुका है , इसने इतनी गरमी, ताप और मार झेली ह2 िक अब वह बात ही नहीं करता। अब एकदम चुप ही रहता है । वह कई कई िदन तक एक शद बोले िबना भी रह सकता है । कई बार तो पूरा पूरा िदन यहां तक िक शिनवार की शाम से लेकर सोमवार ऑिफ स पहंु चने तक एक शद बोले बगैर सारा वH काट दे ता है । कहे भी तो *या। कहे भी तो िकससे। हमारे िकतने बfचे ह2 यह बताते समय हम गभपात6 की संgया नहीं िगनते। यहां तो कथा नायक के पास सफ लताओं के नाम पर िमसकैिरज और अबॉशन वाले मामले ही ह2 । सफ लता एक भी नहीं। हां, इस शहर म भी उसकी एक ूेिमका है । यही इकलौता ूेम है ज ो िपछले ढाई तीन साल से िकसी तरह िघसट रहा है । दोःत एक भी नहीं। इस शहर म कथा नायक की पहली पगार नौ सौ ]पये थी। ज बिक लॉज म रहने-खाने के ही साढ़े सात सौ दे ने पड़ते थे। उस लाज से िनकलने और आज दो हज़ार सौ की पगार तक पहंु चने म उसे पांच साल लग गये ह2 । इस बीच मैरीन साइव की इस मुंडेर से अरब सागर की इतनी लहर नहीं टकरायी ह6गी िज तने ध*के उसने खाये ह2 । लॉज से झोपड़ी, चाल, दLतर के चपरासी की बॉ?कनी, िबःतर भर ज गह के िलए कभी वसई तो कभी चेPबूर, कभी भायखला तो कभी उ?हासनगर। बंबई का कोई भी उपनगर नहीं बचा होगा। कभी िबलकुल सड़क पर आ ज ाने की हालत। एकाध रात पाक म भी। नौकिरयां भी इसी
तरह बदलीं। बेगारी की मार भी खायी और पैसे भी गंवाये। कई बार पूरी पगार ही ज ेबकतर6 का िनशाना बन गयी। िकतनी ही रात उसने दाल उबाल कर ॄेड के साथ खायी है , दाल का पानी पी कर रात गुज़ारी ह2 । पाव और गरम मीठे पानी का कािPबनेशन बनाया है । भला ऐसे िदन6 की भी िगनती रखी ज ा सकती है *या। बस, हर बार पगार का सबसे बड़ा िहःसा उसे कमरे के िलए रखना पड़ता है । भूखे पेट ही सही, सोने के िलए तो ज गह चािहये ही। उसके पास इस बात की कोई िगनती नहीं है िक उसने िकतनी बार खुदकशी करने की सोची और िकतनी बार वािपस ज ाने की। दोन6 काम ही वह नहीं कर पाया। आज कल उसे कट कटा कर कुल दो हज़ार ]पये िमलते ह2 । िज स ज गह वह रहता है , वहां उसे रहने खाने के ही पंिह सौ ]पये दे ने पड़ते ह2 । बाकी पांच सौ ]पये उसकी िज़ंदगी की बाकी सारी ज़Sरत6 के िलए ह2 । इनम कभी-कभार घर भेज ा ज ा सकने वाला मिनआड र भी शािमल होता है । उसकी सारी खुिशयां, तकलीफ़, बीमारी, कपड़ा लRा, शे न का सीज़न िटकट, ू ःट, ॄश, कंघी, तेल, िकताब, पैन, तौिलया, अखबार, ज ूता, मोज ा वह पहनता नहीं, चाय, टथपे ]माल, ूेस, साबुन, िसगरे ट, पान, ज ो वह एफ ोड ही नहीं कर सकता, दाढ़ी, हे यर किटं ग, िसनेमा, मनोरं ज न, उपहार, घर ज ाने आने के िलए िकराया ज ो वह पांच साल म िसफ एक बार ही ज ुटा पाया है , और वह सब कुछ ज ो एक शहरी आदमी को सुबह उठने से ले कर रात को सोने तक ज ुटाना होता है , उसे इन पांच सौ म ही ज ुटाने होते ह2 । ये पांच सौ ]पये उसके वतमान के िलए ह2 , उसके भिवंय के िलए ह2 , िज सम िसफ सालाना तर*की पचास ]पये होती है । और यही मािसक रािश उसके भिवंय के िलए है । इसी म उसकी भावी गृहःथी, मकान, पिरवार, बाल बfचे उनका भिवंय और उसके खुद के सारे सपने इसी रािश के सहारे पूरे िकये ज ायगे। कभी-कभार बीमारी की वज़ह से उसकी पगार से कोई कटौती होती है या ओवर टाइम की वज ह से या बोनस की वज़ह से कोई अितिरH रािश िमलती है तो वह समझ ही नहीं पाता, इसका *या करे और कैसे करे । यहां पैर ठीक से ज मा लेने के बाद शुS शुS म वह कुछ Cयूशन पढ़ा िलया करता था। हाथ खच लायक पैसे िमल ज ाते थे, लेिकन अब सब कुछ छोड़ छाड़ िदया है । वहां भी वही िखचिखच। फ लां िदन नहीं आये थे, फ लां िदन आये थे लेिकन बfचे की तबीयत ठीक नहीं ु थी सो पढ़ाया नहीं था, फ लां िदन...फ लां िदन..। अब वह कुछ भी नहीं करता, छCटी होते ही यहीं आ बैठता है और तभी ज ाता है ज ब खाना खाने और सोने का वH हो ज ाता है । वह अब हर तरफ से लापरवाह हो गया है । न कुछ सोचता है , न सोचना चाहता ही है । िपछले दो तीन साल6 से उसकी सारी शाम आम तौर पर यहीं गुज री ह6गी। चुपचाप
अकेले, दरू िAितज म ज हाज 6 को, नीचे लहर6 को या िफ र सड़क पर चल रहे लोग6 को चुपचाप दे खते हए। िसफ शिनवार को ही वह कुछे क वा*य बोलता है ज ब कथा नाियका ु आती है । उस एक घंटे म वह कथा नाियका से िज तने शद बोलता है , उतने वह पूरे हLते म भी नहीं बोलता। कथा नाियका, ज ैसा िक म2ने बताया िहXदी म एमए है और किवताएं िलखती है । उसकी अब तक की पूरी िज़ंदगी लगभग उसी तरह की रही है ज ैसी िज़ंदगी कथा नायक ने गुज़ारी है । कदम कदम पर संघष। कभी पढ़ाई के िलए, कभी छत के िलए तो कभी दो वH की रोटी के िलए ही। वह भी अगर िगनने बैठे िक कुल िमला कर उसे िकतनी बार अपनी पढ़ाई ःथिगत करनी पड़ी है तो उसकी कोई िगनती नहीं है । नौकिरय6 की िगनती भी वह अब तक भूल चुकी है । लेिकन एक बात उसके साथ हमेशा रही। एक एक कदम आगे बढ़ती बढ़ती वह यहां तक आ पहंु ची है । वैसे उसके सामने भी कई बार िज़ंदगी के शाट कट आये थे। वह चाहती तो उनका फ ायदा उठा कर कहां से कहां पहंु च सकती थी, लेिकन िद*कत यही थी िक ये सारे शाट कट उसकी दे ह से हो कर गुज़रते थे। इस दे श म काम करने के िलए घर से िनकली iयादातर लड़िकय6 की यही पीड़ा थी। दे श का और दे श की लड़िकय6 का िज़ब आया है तो यह दे ख लेने म कोई हज़ नहीं है िक कुल िमला कर आम तौर पर बाकी लड़िकयां िकस तरह के हालात से गुज़र रही थीं। वैसे तो इस दे श म एक तरफ पढ़ी िलखी, दसरी तरफ अनपढ़, घरे लू या नौकरीपेशा, कुंवारी ू या शादीशुदा िकसी भी तरह की लड़िकय6 की सामािज क और आिथक हालत कभी भी अfछी, सPमानज नक और सुकूनभरी नहीं रही थी, लेिकन हर वH पैस6 की तंगी, रोज़ाना की ज़Sरत6 के और साथ ही उन ज़Sरत6 को पूरी करने वाली चीज़6 के दाम बेतहाशा बढ़ ज ाने के और िकसी भी तरह से उXह पूरा न कर पाने की कचोट ने इधर उनके ज ीवन को और भी दभर और तकलीफ़दे ह बना िदया था। पढ़ी िलखी लेिकन मज़बूरी से या ःवेfछा ू से घर के भीतर बैठी औरत को तो घर की चहारदीवारी के भीतर ही शोिषत करने वाले कई हाथ थे लेिकन ज ो औरत मज़बूरी के चलते दो चार अितिरH पैसे कमाने की नीयत से घर से बाहर िनकलती थी, उसका गला टीपने के िलए चार6 तरफ कई ज ोड़ी हाथ उग आते थे। एमए, एमएससी और बीएड या एमएड वगैरह कर लेने के बाद भी उसके नसीब म गली मौह?ल6 म हर चौथे घर म खुले पिलक ःकूल6 म पांच-सात सौ ]प?ली की नौकरी ही बचती थी, ज हां उसे सौ-सौ बfच6 की *लास के सात आठ पीिरयड रोज़ाना लेने होते। ये पांच सात सौ भी उसे अपनी तरफ से कुछ ढीला िकये बग़ैर नहीं िमलते थे। इस आिथक और मानिसक शोषण के अलावा नौकरी की अिनिqतता एवं दै िहक शोषण की
आशंका की अpंय तलवार हर समय उनके िसर पर लटकती रहती। िकसी भी अXय बेहतर िवक?प के अभाव म वह वहीं और यूं ही खटती रहती थी। अपनी िज़ंदगी का बेहतरीन वH यूं ही बरबाद हो ज ाने दे ती थी। खुशी, कुंठा, सपने सब अपनी ज गह होते थे और यह छोटी सी नौकरी अपनी ज गह होती थी, ज ो बेशक एक ढं ग की साड़ी भी नहीं िदला सकती थी, िफ र भी कुछ तो दे ती ही थी। कई ज गह तो हालत इतनी खराब थी िक कुछ ज वान औरत िसफ़ इसिलए दो चार सौ ]पये की नौकरी करने के िलए िदन भर के िलए घर से बाहर रहती थीं तािक अकेले घर पर बैठे बूढ़े ससुर या ज ेठ या ज वान दे वर6 की मुLत की िखतमदगारी न करनी पड़े और उनकी इiज़त भी बची रह सके। यह हमारे वH की एक बहत ू ु कड़वी सfचाई थी िक सड़क के िकनारे िदहाड़ी पर मज़दरी करने वाले मज़दरू के िलए तो सरकार ने साठ सRर ]पये मज़दरी ू तय कर रखी थी, ःटे शन पर हमाली करने वाले के िलए भी फ ी फे रा दस बीस ]पये का इं तज़ाम था, लेिकन एक एम ए और एमएससी पास िकसी मैडम ँयामा के िलए या िदन भर िकसी ूाइवेट आिफ स म खटने वाली कॉXवेXट से पढ़ कर आयी िमस मैरी के िलए सरकार ने िकसी Xयूनतम वेतन की भी ज़Sरत नहीं समझी थी। ज ो भी चाहे उनका शोषण कर सकता था। लोग धड़?ले से कर ही रहे थे। पूरे दे श का यही आलम था। इनकी तुलना म महानगर मुंबई की लड़िकय6 की हालत िफ र भी बेहतर थी। उसकी वज़ह भी अलग थीं। वे ःथानीय थीं। हालांिक उनकी तकलीफ़ बाहर से आने वाली लड़िकय6 से अलग नहीं थीं, िफ र भी दोन6 म एक फ़क तो था। वे यहीं की, इसी िमCटी की बनी हई ु थीं। यहीं की पैदाइश। वे चूिं क कहीं बाहर से नहीं आयी थीं, अतः इस शहर के िमज ाज़ को अfछी तरह से ज ानती थीं। संघष चूिं क इस शहर म रहने की पहली और आिखरी शत थी, इसिलए वह इस यहां की ज़मीन को, इसकेध तापमान को, यहां के यथाथ को, िज़ंदगी के सभी रं ग6, Sप6 और ज ायक6 को खूब पहचानती थी। वह िबलकुल पड़ोस म बसी िफ ?मी दिनया की चकाचzध को, ऐशो आराम को, वहां की बेशुमार दौलत की असिलयत से ु वािकफ तो थी, इन सारी चीज़6 के िलए उसे ःवाभािवक Sप से सपने भी आते थे, लेिकन इन असPभव से लगने वाले सपन6 को पूरा करने के िलए वे आम तौर पर कोई बड़ी बेवकूफ ी नहीं करती थीं। बPबई की लड़िकय6 की िज़ंदगी की बहत ु कड़वी सfचाई थी िक वह अपनी है िसयत के अनुसार ही ऐसे सपने दे खती थीं िज Xह वह थोड़े बहत ु संघष के साथ, कुछ इं तज ार के साथ िकसी भी बड़े समझौते के िबना पूरे कर सकती थीं। यह एक तारीफ करने लायक बात थी िक आम तौर पर मुंबई की हर दसरी तीसरी ू मयवगn लड़की का सपना थोड़ी सी आिथक आज़ादी, एक ठीक ठाक सा, नौकरीशुदा पित,
और खुद का, बेशक छोटा सा ही सही, एक अदद अलग घर हआ ु करता था। ज ो सचमुच अfछी िकःमत वाली होती थीं, वे तीन6 सपने न सही, इनम से दो एक तो आगे पीछे पूरे कर ही लेती थीं। इनकी िज़ंदगी का मतलब छोटी-छोटी खुिशयां, संघष, कभी न ख\म होने वाली तकलीफ़6 का अंतहीन िसलिसला होता था, िज नके साथ मयवग की सभी लड़िकय6 को आगे पीछे , कम iयादा, ज ूझना ही होता था। लेिकन एक बात हमेशा उनके पA म रहा करती थी िक वे कभी िहPमत नहीं हारती थीं। हमेशा लगी ही रहतीं। बेहतर, थोड़ा और बेहतर की चाह उXह कभी थकाती ही नहीं थी। एक-एक ितनका चुन-चुन कर घ6सला सज ाने ज ैसा संघष। एक सपने के पूरे होते ही दसरा सपना पूरा करने के िलए या उस ू सपने से थोड़ा ऊपर के ःतर का सपना दे खने का िसलिसला शुS हो ज ाता। इस तरह से अपने संसार को और बेहतर बनाने का िसलिसला चलता ही रहता था। इसी वज ह से कई ू बार सपने टटने या पूरे न हो पाने पर भी उनका मोहभंग नहीं होता था, और न ही वे कभी िनराश ही होती थीं। वे िज़ंदगी के साथ साथ इन सब बात6 की आदी हो ज ाती थीं। लेिकन तकलीफ उन लड़िकय6 की होती थी ज ो कहीं भी, कभी भी, बहत ु ऊंचे ःतर के सपने दे खना शुS कर दे ती थीं। सपने दे खना और उनके पूरा न होने पर िनराश होना कोई गलत बात नहीं थी, बि?क सपने न दे खना ही अःवाभािवक माना ज ाता। परे शानी की बात तो यह थी िक उनके अपने छोटे बड़े शहर6 या कःब6 म ज ब उनके ये सपने पूरे नहीं हो सकते थे और वे िबना सोचे समझे मुंबई महानगर की तरफ चल पड़ती थीं या कई बार फु सला कर ले आयी ज ाती थीं, ज हां उनके िवचार से रात6 - रात न केवल सारे हसीन भर की शानो-शौकत भी ज ुटाई ज ा सकती थी। सपने पूरे िकये ज ा सकते थे बि?क दिनया ु वे सपने म दे खी गयी एक अनज ानी दिनया की तलाश म मुंबई आ तो ज ाती थीं, लेिकन ु आते ही राह भटक ज ाती थीं। तकलीफ़ यह भी थी िक दे श के हर बड़े छोटे शहर म ऐसे सपने दे खने वाली कमज़ोर, भावुक, और कई बार बेवकूफ लड़िकय6 की तादाद हमेशा बढ़ती ही रहती। कभी कभार अलग अलग छोटे बड़े शहर6 से भाग कर या भगा कर लायी गयी कुछे क लड़िकय6 को बहत ु संघष करने के बाद िफ़?म6 म ए*ःशा का एकाध रोल िमल ज ाया करता था। बाकी िननानवे फ ीसदी लड़िकयां हमेशा के िलए गुमनामी के अंधेर6 म खो ज ाती थीं। राःते भटकते भटकते वे अलग अलग राःत6 से बाज़ार म िबकने के िलए पहंु च ज ाती थीं। वहां िसफ़ छत, रोटी और हमेशा के िलए गुमनाम, बदनाम िज़ंदगी होती थी। और कुछ भी नहीं। कुछ भी तो नहीं। लेिकन इधर हाल के बरस6 म हालात कुछ बदले थे। गलत वH पर गलत फै सले लेने के िलए बदनाम लेिकन दसर6 के िलए उदार हमारे दे श ने ज ब से अपना आकाश दिनया भर ू ु
के आदमखोर, ज ड़6 से कटे , िबलकुल अनज ान दे श6 से आये अपसंःकृ ित के िगy6 के िलए खोल िदया था, और ये बड़ी-बड़ी आंख6 वाले डरावने िगy अमूमन हर घर की छत पर लगे एंटीना के ज़िरये हर घर के साइं ग Sम म पहंु च गये थे, तब से अलग अलग शहर6 से बािलवुड िखंचे चले आने वाले लड़के लड़िकय6 को रोज़ाना पचास6 की तादाद म बनने वाले टीवी सीिरयल6 म छोटे मोटे काम िमलने लगे थे। इसके बावज़ूद रोज़ाना िज तने लोग यहां रोल पाने की तलाश म पहंु चते थे, उनके दो फ ीसदी को भी कैमरे के आगे या पीछे काम नहीं िमल पाता था। नतीज़ा यही होता था िक इतने सारे लोग ज ब अरसा बीत ज ाने पर भी अपनी िकःमत की पोटली को खुलता भी नहीं दे ख पाते थे तो अपने आप को िकसी भी ऐसे काम म झ6क दे ते थे िज सम बेशक गुमनामी हो, लेिकन ठीक ठाक पैसे िमलते रह। लड़िकय6 के मामले म यह बात iयादा लागू होती थी। ज ब इस तरह से यहां पहंु चने वाली हज़ार6 लड़िकयां अपनी है िसयत भर संघष करने के बावज़ूद कुछ हािसल नहीं कर पाती थीं तो उXह मुंबई के अमूमन हर उपनगर म बीिसय6 की संgया म खुल गये लेडीज बीयर बार शरण दे ते थे। यहां वे गा लेती थीं, नाच सकती थीं और अगर इनम से उXह कुछ भी नहीं आता था तो माहक6 को अपनी मुःकान के साथ बीयर तो िपला ही सकती थीं। दरअसल ये लेडीज़ बीयर बार नाम के अ@डे उपभोHावादी संःकृ ित के नये चरागाह थे। एक तरह से पु]ष6 के परवशन, सै*स को ले कर मानिसक िवकृ ितय6 को भुनाने के नये िठकाने थे। आज़ाद िहXदःतान म यह पहली बार दे खा सुना ज ा रहा था िक इस तरह से ु सै*स संबंधी कुंठाओं को न केवल सावज िनक तौर पर सामािज क माXयता िदलायी ज ा रही थी, बि?क उसे इस तरह गिलय6, चौराह6 पर सरे -आम भुनाया ज ा रहा था। लू िफ ?म6 को ु छपा ु छप कर दे खने-िदखाने का ज़माना ज ा चुका था। अब तो ू\यA ूदशन का ज़माना था। इन तथाकिथत तन-मन की थकान उतारने, तनाव ढीला करने के नवीन अ@ड6 लेडीज बीयर बार6 म सरे शाम गितिविधयां शुS हो ज ातीं। कई ज गह6 पर तो सुबह Zयारह बज ते ही भारी िरयायत का लालच दे कर माहक6 को पटाने का िसलिसला शुS हो ज ाता। ज लती बुझती, आंख6 म चुभती रौशिनयां, तेज ःटीिरयोफ ोिनक संगीत, धुआ ं , शोर शराबा, ऐसी ज गह6 को एक अलग ही रं ग दे ते थे। इन तंग, मझौले आकार के बीयर बार6 के मुgय हाल के बीच6 बीच कांच के फ श का एक उभरा हआ एक टापू बना िदया ज ाता था, ु िज सके नीचे रं गीन बिRयां ज लती बुझती रहती थीं। इXहीं टापुओं पर, इनके इद -िगद रात भर खु?ला खेल मुरादाबादी चलता रहता।
यहां औसतन हर मेज के िलए सव करने वाली एक लड़की होती और कांच के टापू पर कैसेट या आरकेःशा के संगीत पर नाचने वाली तीन चार लड़िकयां होतीं। सारा का सारा माहौल तीखेपन से बुरी तरह मःत होता। तीखी गंध, तीखा मेकअप, तीखा भड़काऊ संगीत और मेज 6 से उठने वाले शोहदे पन वाले तीखे िफ़करे । सव करने वाली लड़िकय6 को शायद सgत िहदायत थी िक मयादा म रहते हए ु िज तनी अिधक हो सके, होटल की िबबी बढ़वाओ और इस तरह िज तनी iयादा हो सके, अपने िलए िटप कमाओ। इसका नतीज ा यह होता आपकी मेज पर सव करने वाली लड़की लगातार आपके िसर पर खड़ी रहती, वहीं मंडराती रहती। आपने अपने िगलास म से घूंट भरा भी नहीं होता िक वह आती, बोतल म से और बीयर उड़े ल ज ाती। उसकी हर संभव इfछा और कोिशश रहती और वह बार-बार इशार6 से, हाव-भाव से, और शद6 से भी ज तलाती िक उसे आपके अकेलेपन से हमदद है , वह आपको कंपनी दे ना चाहती है । आप उसे बस, इशारा भर कर द। वह आपकी मेज पर आ बैठेगी। बात करे गी। िपयेगी, िपलायेगी, आपको साथ दे गी। आप उसका हाथ थामगे तो वह भी आपका हाथ दबा कर आपके ूित अपनी भावनाएं दशायेगी। आप आमह करगे तो आपको.. ..। आप कहगे तो आपके साथ खाना भी खायेगी। इस तरह वह आपका मूड और आपकी ज ेब हलकी करे गी। ज ो कुछ उसने आपको िदया, सबकी कीमत तगड़ी िटप के Sप म वसूल करे गी। सेठ की ज ो िबबी उसने बढ़ायी है , उसकी कमीशन उसे सेठ से अलग से िमलेगी। इन बीयर बार6 म अमूमन सारी चीज 6 के दाम दो-तीन गुना वसूल िकये ज ाते। इन बार बालाओं के िवपरीत नृ\य बालाओं का िसलिसला थोड़ा अलग होता था। उXह अपने डांस Lलोर पर रहते हए ु ही अलग-अलग मेज 6 पर बैठे हए ु िवकृ त मानिसकता वाले माहक6 से अपने िहःसे के िलए तगड़ी बgशीश िनकलवानी होती थी। बि?क उXह रखा ही इसिलए ज ाता था िक उनके तथाकिथत नृ\य6 और कू?हे मटकाने की अदाओं पर रीझने के िलए माहक आय, अपनी सुधबुध खो कर पीय, िपलाय और नोट6 की इतनी बािरश कर द िक होटल का सेठ, नाचने वाली, गाने वाली, सव करने वाली और दाS बनाने वाली कंपनी, सब के सब भीतर तक भीग ज ाय। आम तौर पर इन बीयर बार6 के मािलक धािमक िकःम के लोग थे ज ो पहले इन ज गह6 पर इडली वड़ा बेचा करते थे। कुछे क तो समोसे ज लेबी बेचने वाले हलवाई भी रहे थे। ज ब उXह6ने दे खा िक लोग6 की पेट की भूख शांत करने की तुलना म उनके बीमार दीमाग6 की भूख शांत करने और यौवन की भूख बढ़ाने म iयादा कमाई है तो वे इस धंधे म उतर गये थे और खूब पैसा पीट रहे थे। ये नाचने गाने वाली लड़िकयां भी रात भर म पांच
ु सात सौ पीट ही लेती थीं। शुS शुS म तो यहां िफ ?म6 से ठकरायी गयी लड़िकयां ही आती थीं, लेिकन ज ब ःथानीय लड़िकय6 ने दे खा िक यहां तो तुरंत कमाई, खूब खाना पीना और गाहे बगाहे मौज मज ा भी है तो झोपड़पिCटय6 म रहने वाली गरीब, मज़बूर और थोड़ी तेज़ लड़िकयां भी यहां आने लगी थीं। गहरा मेकअप, शोख अदाय, ओढ़ी हई ु मुःकुराहट और इन सबके ऊपर ज लती बुझती बिRय6 वाला माहौल बाकी सारी किमयां पूरी कर दे ता था। नाचने गाने वाली लड़िकयां अपनी महिफ़ल की शुSआत िकसी भज ननुमा िफ ?मी गीत से करती थीं और भज न के ख\म होते ही वहीं कहीं कोने म रखी िशव की मूित के आगे अगरबRी ज ला कर ूणाम करती थीं। इसके बाद ही वे िविधवत ्कू?हे मटकाना शुS करती थीं। यहां अमूमन उन लड़िकय6, घरे लू औरत6 और कामकाज ी मिहलाओं का ज ानबूझ कर िज़ब नहीं िकया ज ा रहा ज ो ःवेfछा से, मज़बूरी म, िकसी आिथक, शारीिरक अथवा पािरवािरक दबाव के चलते दिु नया के सबसे पुराने jात धंधे म िल{ थीं। उनकी िज़ंदगी के बारे म लोग पहले से ही ज Sरत से iयादा ज ानते ह2 । इसका कारण साफ है । परPपरागत वेँयावृिR अब गये ज माने की बात हो चुकी थी। बेशक अभी भी आपको राह चलते या उस तरह के बाज़ार6 म माहक6 की तलाश म खड़ी सज ी धज ी ऐसी पतुिरय6 के दशन हो सकते थे ज ो इस चाहे अनचाहे इस धंधे म धकेल दी गयी थीं और वहां से िनकलने का अब उनके पास कोई राःता नहीं बचा था। लेिकन दे श की आज़ादी का पचासवां वष आते आते दिनया के ु सबसे पुराने धंधे के समीकरण बदल चुके थे। अब इस धंधे को भी सामािज क माXयता दे दी गयी थी और इसे _यावसाियक ज गत का एक अिनवाय घटक मान िलया गया था। अब इस धंधे को सफे दपोशी का ज ामा पहना कर नये तौर तरीक6 के साथ सर अंज ाम िदया ज ाने लगा था। माल वही था और Sप बदल िदया गया था उसका। अब वह सोसाइटी गल, पसनल सेबेटरी और पसनल ए*स*यूिटव के Sप म कापरे ट ज गत की शोभा बढ़ा रही थी। िपछले दशक तक एक लतीफ ा अ*सर सुनाया ज ाता था िक एक कPपनी ने अपने सभी बड़े अफ सर6 को सपीक िवदे श याऽा का Xयौता िदया था। सब अफ सर ज ब याऽा के बाद वािपस आये तो कPपनी ने सभी अफ सर6 की पिय6 को एक पऽ भेज कर पूछना चाहा था िक उनकी िवदे श याऽा कैसी रही तो सभी अफ सर6 की पिय6 ने कPपनी से एक साथ पूछा था िक कैसी िवदे श याऽा? वे तो िकसी िवदे श याऽा पर नहीं गयी ह2 ।
अब आज़ादी की पचासवीं वषगांठ आते आते यह लतीफ ा हकीकत म बदल चुका था। अब बाज़ार म ऐसी पचास6 कPपिनयां आ गयी थीं िक ज ो बड़ी बड़ी कPपिनय6 के और भी बड़े अिधकािरय6 की दे श िवदे श के याऽा कायबम की _यवःथा करने के साथ साथ सुंदर साथी भी मुहै~या कराती थीं। ये साथी दौरे के दौरान न केवल अिधकािरय6 के कागज संभालती थीं साथ ही साथ हर तरह से उनका gयाल रखने के िलए ूःतुत थीं। बस, शु?क अदा िकये ज ाने की ज़Sरत थी। वेँयावृिR के िलए ये और इस तरह के कई और कई बारीक और सौिफ िःटकेटे ड तरीके िवकिसत कर िलये गये थे और इXह कमोबेश आधुिनक बाज़ार तंऽ म सफ ल ूयोग म लाया ज ा रहा था। अब ये काम सोशल *लब6 म, सोशल गैदिरं Zस के नाम पर, टे िलफ ोन के ज़िरये, ृ2डिशप सकल की पािट य6 के ज िरये िकया ज ा रहा था और िकसी को कान6 कान खबर नहीं होती थी। बस, हर ज गह मनमानी फ ीस अदा करने की ज़Sरत थी। खैर.. बाकी बात अपनी ज गह पर थीं और दे श अपनी गित से चल रहा था। लड़िकय6 की ज ो हालत थी सो थी, आम तौर पर लड़के चाहे , वे iयादा पढ़े -िलख ह6 या गुज़ारे लायक, सब के सब एक ही नाव पर सवार थे। सबकी गद न बेरोज गारी की दधारी ु तलवार के नीचे थी। दरअसल इन पागल कर दे ने वाली और अमानवीय िज़ंदगी ज ीने पर मज़बूर करने वाली िःथितय6 के पीछे कई कारण एक साथ सिबय थे। मु*कमल तौर पर यह नहीं कहा ज ा सकता था िक बाज़ार म पैसा कम होने के कारण चीज़6 की मांग कम हो रही थी और कम खपत होने के कारण फै *टिरय6, कारखान6 म उ\पादन कम हो रहा था, इस कारण से वहां कम लोग भरती िकये ज ा रहे थे। यह भी नहीं कहा ज ा सकता था िक दे श म कPoयूटर बांित आ ज ाने से काम करने लायक हाथ6 की ज़Sरत ही नहीं रही थी। िपछले कुछे क साल6 से तो हालात और भी बदतर होते चले गये थे। सरकारी ूयास6 और पढ़ाई के ूित ज ाग]कता के चलते लोग-बाग अब पढ़ाई के महव को और गहराई से महसूस करने लगे थे और नतीज ा यह हआ था िक कालेज 6 वगैरह का बोझ और बढ़ गया ु था। वे अब और भी iयादा िशिAत तैयार करके बाज़ार म उतारने लगे थे ज बिक उनकी खपत तैयार होने वाले इन बेरोज़गार6 की कुल पांच फ ीसदी भी नहीं थी।
सब कुछ घालमेल था। बीिसय6 वज़ह थीं। पचीिसय6 बहाने थे और पचास6 िद*कत थीं। सच िसफ़ यही था िक हर योZय हाथ को काम नहीं था। न तो दे श ने इस दौरान इतनी तर*की ही की थी या िवकास ही कर िलया था िक काम करने वाल6 की ज़Sरत ही न रहे । न ही इतनी खुशहाली ही आयी थी िक िकसी भी घर म दो-चार बेरोज़गार भी िबना कोई काम धंधा िकये आराम से खा पी सकते। दरअसल ये पूरा दे श गलत लोग6 vारा बनायी गयी गलत नीितय6, गलत ूाथिमकताओं और इन गलत ूाथिमकताओं के गलत नतीज 6 का िशकार हो कर रह गया था। काम6 की भरपूर गुंज ाइश थी और उXह सलीके से करने से कर सकने के िलए हर नज़िरये से योZय और बेहतरीन लोग हर ज गह उपलध थे। िसफ़ मौका िदये ज ाने की बात थी, िज सका संयोग ही नहीं बनने िदया ज ाता था। चार6 तरफ अ_यवःथा का एकछऽ राज था। इस दे श के कणधार6 ने कभी अपनी कुसn, दल और पिरवार से बाहर नहीं दे खा था, न ज ाना था। आज तक इस बात की तरफ़ यान दे ने की ज़Sरत ही नहीं समझी गयी थी िक आिखर हम हर साल लाख6 की संgया म शानदार बेरोज़गार6 की फ ौज िकसिलए तैयार कर रहे ह2 । आिखर एक पूरी पीढ़ी िबना काम धंधे के िकस तरह सहज , सPमानज नक और समाज ोपयोगी ज ीवन ज ी ही कैसे सकती है ? संकट तो यही था िक यह सब बरस6 से चला आ रहा था और इसी तरह ही चलते रहने वाला था। हमारा दे श एक साथ कई मज़ाक कर रहा था और एक साथ कई मज़ाक6 का पाऽ भी बन रहा था। दे श म कPoयूटर बांित पूरी तरह से आ चुकी थी, लेिकन हमारे पास पीने का पानी नहीं था। हमारे पास अ\याधुिनक टै *नालाज ी थी, लेिकन हम यह समझ म नहीं आता था िक कूड़े -कचरे का *या कर या हमारे दे श के करोड़6 लोग सुबह-सवेरे िनवृR होने कहां ज ाय? हमारे पास आधुिनक अ श थे लेिकन साफ पानी, हवा और Xयूनतम गुज़ारे लायक दो वH की रोटी हमारे दे श के करोड़6 लोग6 के िलए अभी भी सपना थे। हम कार िनयात कर रहे थे, लेिकन ःटै oलर िपन और कPoयूटर Lलॉपी का आयात कर रहे थे। ू हमारे पास राडार बनाने की सुिवधाएं थीं लेिकन अfछे टथॄश हम अभी भी बाहर के मु?क6 से ही मंगाते थे। हमारे लाख6 इं ज ीिनयर, वैjािनक और ूबंध िवशेषj बेकार बैठे थे लेिकन हमारी सरकार रोज़ाना एक की दर से िवदे शी तकनीक6 का आयात करने के िलए दोयम दरज े की िवदे शी फ मe से संयुH उhम लगाने के िलए करार कर रही थी। आये िदन हमारे औhोिगक घराने च@ढी, आलू के िचoस और दो कौड़ी के लेड बनाने के िलए िकसी न िकसी मु?क से तकनीकी jान पाने के िलए िगड़िगड़ाते दे खे ज ा सकते थे। हम नहीं ज ानते थे िक अपने दे श के करोड़6 भूखे बfच6 के िलए रोटी कहां पर उगाय, या अपनी
ज़मीन का इःतेमाल कैसे कर लेिकन अपनी ही ज़मीन का कोई और बेहतर इःतेमाल कर सकने के अभाव म हमने इसे, अपने दे श की धरती को पेoसी और कोला कोला की लड़ाई ु के िलए टfची शतe पर रे हन रख िदया था। ज ब से कोला और पेoसी ने इस दे श को अपना रण Aेऽ चुना था, िवjापन बाज ी के अब को तक सभी jात और अjात समीकरण बदल चुके थे। इन दोन6 कPपिनय6 एक दसरे ू नीचा िदखाने और सारे दे श के संभािवत और असंभव माहक6 को अपनी तरफ खींचने के िलए ज ो हथकंडे अपनाये थे, वे बुरी तरह िडःटब करने वाले थे। उनके होिड ग ँमशान घाट म थे और अःतबल म भी। अःपताल म भी और िगरज ाघर म भी। अब तो ये हालत हो गयी थी िक वे िकसी शव याऽा को भी ःपांसर कर दे ते, शत, बस, एक ही होती, शव के साथ चल रहे सभी लोग उनके लोगो की टी शट पहन कर चल और मुद[ को भी उXहीं के को?ड िसं क के लोगो वाला कफ न पहनाया ज ाये। ये तो िसफ़ उदाहरण थे। कुल िमला कर हर ज गह यही आलम था। आज़ादी की पचासवीं वषगांठ मनाते हए ु हम नहीं पता था, हम इस िवशाल दे श का करना *या है और कैसे करना है । यह सब इसी अ_यविःथत और गलत िसःटम का नतीज ा था िक दे श-िवदे श के धूत, शाितर िबिज नेस मांइडे ड लोग6 की बन आयी थी। ज ो िज तना बड़ा धूत, उसकी दकानदारी ु उतनी ही अfछी चल िनकली थी। इन लोग6 ने दे श के बेरोज़गार6 की लPबी चौड़ी फ ौज ने का औने पौने दाम दे कर शोषण करना शुS कर िदया था। इन तथाकिथत दकानदार6 ु हर छोटे बड़े शहर म तरह तरह की से?स एज िसयां, सिवस एज िसयां और दस तरह के दसरे नॉन ूो@यूिसंग धंधे खोल िलये थे। ये लोग कुछ पैदा नहीं करते थे, िफ र भी पूरे ू उपभोHा बाज़ार को इXह6ने अपनी िगरLत म ले िलया था। इनका ज ाल पूरे दे श म फै ला हआ था। कई बार ये लोग िकसी म?टीनेशनल, iवाइं ट वचर या अXतरराीय िकःम के ु िकसी म*कड़ज ाल के भारतीय ूितिनिध का चोगा पहन कर हर तरह आयाितत टै *नालाज ी, कॉXसैoट, ूॉ*डट या सिवस को घर-घर पहंु चाने की ठे केदारी करते थे। इनके काम का तरीका बहत ु ही सीधा और पारदशn लगता था, लेिकन असल म ये एक बहत ु ही घातक िकःम की अपसंःकृ ित के वाहक थे, ज ो िसफ़ अपना और अपना ही घर भरना ज ानते थे। इन तथाकिथत दकानदार6 का कोई शो Sम वगैरह नहीं होता था, बि?क वे कहीं से भी, ु िकसी भी गोदाम वगैरह से ऑपरे ट कर सकते थे। वे अ*सर सुबह और दोपहर के
अखबार6 म वॉक इन इXटर_यू के िलए लुभावने िवjापन दे ते। कई बार तो सुबह के अखबार म िदन म Zयारह बज े िकसी तारांिकत होटल म साAा\कार म पहंु चने का ु िनमंऽण होता तो कई बार दोपहर के अखबार म शाम पांच बज े वे नौकरी के इfछक ःमाट , ृैश मेज ुएCस, धड़?ले से अंमेज़ी बोल सकने वाले िकःमत के सताये लड़के-लड़िकय6 के िलए पलक पांवड़े िबछाये िमलते थे। ये लोग आकषक वेतन और लुभावने कमीशन का चारा डाल कर लोग6 का बुलाते। िज तने भी बेरोज़गार रोज़ाना अलग अलग होटल6 म अलग अलग कPपिनय6 के िलए होने वाले इन वॉक-इन इXटर_यू के िलए पहंु चते, अमूमन हाथ6-हाथ रख िलये ज ाते। िफ र भी ःमाट और ृैश लोग6 की ज़Sरत बनी ही रहती। दरअसल, इन सब बेरोज गार6 को बाज़ार म हर तबके, उॆ, और आय वग के उपभोHा तैयार करने की मुिहम पर लगाया ज ाता और िफ र उXह अपने मोहक शदज ाल म फं सा कर उनके ज़िरये अपनी कPपनी vारा ूचािरत दे शी िवदे शी उ\पाद6 की मांग पैदा करनी होती थी। आम तौर पर ये वे उ\पाद होते थे िज Xह खरीदने की है िसयत उपभोHा म नहीं होती थी, िज नकी उसे ज़Sरत ही नहीं होती थी और िज Xह खरीद कर वह िसफ़ उXहीं लोग6 पर रौब ज मा सकता था,िज Xह वह _यिHगत तौर पर पसंद नहीं करता था। यही सारा खेल था ज ो उपभोHा के साथ िदन भर बीिसय6 कPपिनय6 के एज ट, दलाल, उ\पादक और इPपोट र खेलते रहते थे। सबका मकसद एक ही रहता - ज ैसे भी हो उपभोHा की ज ेब से पैसे िनकालो। उसकी ज ेब म नहीं ह2 तो उसे अपनी शतe पर उधार दो। उसके मन म इन आलतू फ ालतू चीज 6 के िलए ललक पैदा करके अपने उ\पाद के िलए मांग पैदा करो। िफ र मनमानी कीमत पर उसकी सoलाई करो। यही बाज़ार का मूलमंऽ था ज ो इन कPपिनय6 के ताज ा भरती से?स ए*स*यूिट_स के कान म उतार िदया ज ाता था। इन ृैश मेज ुएCस लड़के लड़िकय6 को भरती करते ही उXह हर तरह के माहक बनाने, पटाने, और फं सा कर लाने की िविधवत शे िनंग दी ज ाती थी। िफ र उXह एक अfछी सी कड़क़दार कमीज़ और रं गीन टाई पहना कर और एक बड़े से बैग म दिनया भर की ु फ ालतू चीज़ भर कर बाज ार म उतार िदया ज ाता था - ज ाओ, शाम तक पूरे बैग को खाली कर लाओ। िज तना माल बेचोगे, उतनी ही कमीशन पाओगे। रोज़ाना बैग खाली कर के लाओगे तो तर*की पाओगे।
इसी कमीशन के लालच म रोज़ाना सैकड़6 हज़ार6 युवक युवितयां कड़क़ कमीज़ और गले म फं स रही टाई पहने बड़ा सा बैग ढोते हए ु ब2क6, दLतर6, बाज़ार6 और कॉलोिनय6 म िकसी भी वH भटकते हए ु दे खे ज ा सकते थे। इनके बैग म शेिवंग बीम, िकचन का आधुिनक सामान, ज ुराब, चाकू सैट, लाइटर, ृाइं ग पैन, टाच कुछ भी हो सकता था। वे आपको फ ोि?डं ग छाता पसXद न आने पर िमनी िम*सर के िलए फं सा सकते सकते थे और उसके िलए भी न फं सने पर अपने बैग से बfच6 के िलए कोई इPपोट[ ड िखलौना िनकाल कर घेर सकते थे। ये चीज वे आपको छपी हई ु कीमत से आधी कीमत पर दे ने के िलए एक तरह से िगड़िगड़ाते दे खे ज ा सकते थे। यह बात अलग होती िक छपी हई ु कीमत से आधी कीमत पर भी वह चीज़ महं गी लगती। एक और तकलीफ़ थी इनसे सामान खरीदने की। न कोई गारं टी और न ही माल खराब, घिटया, नकली या िडफै ि*टव िनकल आने पर वािपस कर सकने की कोई सहिलयत ही। ये ू तो आज यहां, कल वहां वाले ज ीव थे । इसके बावज़ूद टाई और बैग वाले ये से?स ए*स*यूिटव, माक[िटं ग डाइरै *टर या मैनेज म2ट शे नी ज ैसे भारी भरकम पदनाम वाले ये घुमंतू से?समैन दरअसल बहत ु िनरीह से लगते थे। इXह िदन भर बोलने, दर दर भटकने, ढे र सारा सामान ढोने और एक एक माहक को अपने शदज ाल म फ ांसने की ही कमीशन िमलती थी। इसके िलए उXह िदन भर िज स तरह और िज तनी बार िगड़िगड़ाना पड़ता था, उXह तरस के लायक ही बनाता था। एक बात और भी थी। इन लोग6 को दे खकर बचपन म दे खे फे री वाल6 की भी याद आती थी, ज ो बंधे बंधाये गली मौह?ल6 म बारह6 महीने एक ही तरह की चीज़ बेचने के िलए लगभग उसी वH के आसपास आया करते थे और लPबी सी oयारी सी तान लगा कर पूरे मौह?ले को अपने आने की खबर िदया करते थे। वे फे री वाले सभी मौह?ल6 म बहनापे का सा िरँता ज ोड़ते हए ु सामान बेचा करते थे। एक तरह से वे गली मौह?ल6 की िदनचया का एक िहःसा बन ज ाया करते थे। वे कई बार िकसी की मांग पर खास आइटम ढंू ढ कर भी ला िदया करते थे। इसके अलावा वे बहन6, भािभय6 और ननद6 के कई मामल6 म राज़दार भी हआ करते थे। ु उनका आना अfछा लगता था, लेिकन इन आधुिनक फे री वाल6 को दे खते ही खीझ पैदा होती थी। एक तो ये लोग बक बक बहत ु करते थे, दरवाज ा खुलते ही सीघे भीतर घुस ज ाते थे और दसरे अपनी चीज़ ज बरदःती थोपना चाहते। हालांिक उन पर खीज ते समय ू हम अfछी तरह ज ानते होते थे िक ये तो िसफ़ भाड़े के िसपाही ह2 िज नके ज़िरये ये लड़ाई
और कोई लड़ रहा है लेिकन लड़ाई के िनयम तो यही िसखाते ह2 िक दँमन को मारो, नहीं ु तो वह आपको मार डालेगा। इसी वज़ह से ये से?समैन हर ज गह द\कारे भी ज ाते थे। ु इXहीं आधुिनक फे री वाल6 की एक और ज़मात भी थी ज ो कुछ बेचती तो नहीं थी, लेिकन कॉXसैoट और सिवस सै*टर का ूितिनिध\व करती थी। ये लोग माहक को पटाने की हर चंद कोिशश करते, अपनी सिवस के लाख6 फ ायदे िगनाते थे। ज ैसे वे आपको फ ांसने के िलए घर से ही कसम खा कर िनकलते थे। यही उनका पेशा था। िवदे शी ब2क6 के बेिडट काड , िकसी *लब या हॉलीडे िरसॉट की महं गी और आज ीवन सदःयता, िकसी शॉिपंग *लब की सदःयता या इसी तरह की िकसी भ_य ईनामी योज ना वगैरह के िलए रोज़ाना सैकड़6 की संgया म ये माक[िटं ग ए*स*यूिटव माहक6 की तलाश म इधर उधर दLतर6, दकान6 , ु कॉलोिनय6 म च*कर लगाते दे खे ज ा सकते थे। इXह नौकरी पर रखने वाली कPपनी इनके िलए ज ो िबिज नेस टाग[ट तय कर दे ती, वे दे खने-सुनने म बहत ु आकषक लगते, लेिकन हािसल करने बहत ु मुिँकल होते थे। ये कPपिनयां माहक पटाने के िलए हर तरह के नैितक-अनैितक हथकडे अपनातीं। कहीं से भी माहक6 के पते, फ ोन नPबर हािसल कर लेतीं और िफ र उXह फ ोन करके बतातीं िक आपको हमने सPमान, ईनाम के िलए चुना है । लोग6 को ईनाम लेने के िलए िकसी अfछे होटल म बुलवाया ज ाता, मेज बुक करवायी ज ाती। वहीं ज ा कर पता चलता िक वे अकेले नहीं ह2 िज Xह इस तरह बुलवाया गया है । कई और भी ह2 िज Xह इस तरह घेर कर लाया गया है । वहीं यह रहःय भी खुलता िक यह सारा नाटक उXह िकसी महं गी, फ ालतू और बकवास ःकीम की सदःयता के िलए घेरने के ू का चुZगा डाला ज ाता। एक िलए िकया ज ा रहा है । तुरXत सदःयता लेने पर भारी छट पूरा दल होता ज ो हर तरीके से आप पर इतना दबाव डालता िक आप मज़बूर हो कर हां कर बैठ। िवदे शी ब2क6 के बेिडट काड के कारोबार से ज ुड़े लोग भी यही हथकडे अपनाते। िकसी भी ऐरे गैरे से फ ाम भरवा लेते, ज ो ब2क vारा िरज ै*ट हो ज ाता। िसफ फ ाम भरवाने के एवज म िबचौली कPपनी अपना कमीशन खरा कर लेती। अगर िकसी गलत या है िसयत न रखने वाले आदमी को बेिडट काड िमल भी ज ाता और वह खरीदारी करने के बाद वH पर भुगतान न कर पाता तो उसके घर गुंडे िभज वा कर ज ान से मारने की धमिकयां दी ज ातीं। हालांिक इस तरह की घुमंतू से?समैनिशप ने दे श के लाख6 बेरोज गार6 को _हाइट कॉलर नौकरी दे रखी थी और वे शान से कह सकते थे िक वे अfछे भले काम धंधे से लगे हए ु ह2 , उनके पास िविज िटं ग काड है , भारी भरकम पदनाम है , लेिकन असिलयत वे ही ज ानते थे िक उXह िकतने मुिँकल लआय दे िदये ज ाते थे। पूरा न कर पाने की हालत म तुरंत बाहर
का राःता िदखा िदया ज ाता। िदन भर एिड़यां रगड़ने के एवज म उXह पचास साठ ]पये भी मुिँकल से िमलते ज बिक िदन भर म वे कPपनी को हज ार6 ]पये कमा कर दे चुके होते थे। इसके अलावा ये कPपिनयां उधार माल ला कर नकद बेचतीं, िसफ़ इXहीं घुमंतू लोग6 की ही नौकरी या पगार का िठकाना नहीं होता था। इसके अलावा, इन कPपिनय का कोई भरोसा भी नहीं होता था िक कब बंद हो ज ाय या धंधा ही बदल ल। अब तो इन एज िसय6 ने टीवी के िविभXन चैनल6 पर टे िलशॉिपंग के ःलॉट खरीद िलये थे ज हां से वे घर घर पहंु च गये थे। होम िडलीवरी की सुिवधा के साथ। इस मायम से ज ो चीज़ वे बेचने के िलए िदखाते, अमूमन रसोई की या आलतू फ ालतू चीज होतीं ज ो घरे लू या कामकाज ी औरत6 की िज़ंदगी आरामदायक बनाने के बड़े बड़े दावे करतीं। यह बात अलग होती िक आप खुद बाज ार से ये चीज़ ठोक बज ा कर आधी कीमत पर ला सकते थे। इन शाितर धंधेबाज 6 के साथ साथ बाज़ार म दसर6 के पैस6 पर ऐश करने वाल6 की एक ू ऐसी ज मात उग आयी थी ज ो कुछ भी नहीं करती थी, बस, आपका पैसा थोड़े ही अरसे म दगु ु ना या ितगुना करने का लालच दे ती थी और ज ब भोले, बेवकूफ और पढ़े िलखे अनपढ़ लोग अपना सवःव उXह सzप दे ते तो ये लोग रात6 रात सारे पैसे ले कर चPपत हो ज ाते। करती है और अ*सर लोग ये लोग ज ानते थे िक लोग6 की याददाँत बहत ु कमज़ोर हआ ु ये बात आसानी से भूल ज ाते ह2 िक अभी कुछ ही िदन पहले उनका पड़ोसी अपने लाख6 ]पये िकसी ऐसे ही फं दे बाज के च*कर म गंवा चुका है इसके बावज ूद वे नये िसरे से खुद बेवकूफ बनने के िलए तैयार हो ज ाते और अपना सब कुछ इन _हाइट कॉलर सफे दपोश डकैत6 को सzप दे ते। पूरे दे श म इन डकैत6 का ज ाल िबछा हआ था और लोग थे िक इXह ु अपना सब कुछ सzप रहे थे। दे श म अचानक एक महामारी की तरह फै ल गये भूमडलीकरण के दै \य और उपभोHावाद के दानव ने एक और सिवस सै*टर को ज Xम िदया था। इस Aेऽ म भी खूब कमाई थी। बेशक खच भी थे और बेरोज गार6 के िलए भरपूर रोज गार की गुंज ाइश भी थी, लेिकन यहां भी रोज गार पाने वाल6 का और सिवस पाने वाल6 का भरपूर शोषण हो रहा था। दे खते ही दे खते दे श के हर गली मौह?ले म ःथानीय, दे शी और िवदे शी, अXतराीय कूिरयर सेवाओं का ज ाल सा िबछ गया था। इनम ःथानीय लोग भी थे और म?टीनेशनल कPपिनयां भी थीं ज ो एक छोटे से कवर को एक शहर से दसरे शहर म चौबीस घंटे म ू पहंु चाने का दावा करके सौ ]पये तक झटक लेती थीं। िज तना बड़ा िलफ ाफ ा, उतनी ही iयादा फ ीस। इन एज िसय6 म भी वॉक इन इXटर_यू के ज़िरये ृेश मेज ुएCस भतn िकये
ज ाते और उXह अfछी यूिनफ ाम पहना कर और गले म पेज र लटका कर बाज ार म डािकयािगरी के िलए उतार िदया ज ाता। ये बेचारे टाई धारी युवा लोग िदन भर एक बड़े से oलािःटक बैग म ढे र सारी िचिCटयां िलए एक इमारत से दसरी इमारत म डािकयािगरी ू करते दे खे ज ा सकते थे। इXह6ने एक काम पूरा िकया नहीं होता था िक पेज र पर दसरा ू संदेश आ टपकता िक आते हए ु फ लां कPपनी से भी डाक भी लेते आओ। इनम से ज ो माक[िटं ग साइड म होते, वे भी बेचारे िदन भी अपने असPभव और मुिँकल टामेट पूरे करने के च*कर म मारे मारे िफ रते। हर तरफ , हर Aेऽ म बाज़ार का iयादा से iयादा िहःसा हिथयाने के िलए गला काट ूितयोिगता था एक दसरे के माहक फ ोड़ने के िलए ओछी हरकत थीं और अनैितक ू ितकड़म थीं। मकसद िसफ़ एक ही था - iयादा से iयादा कमाई। उसके िलये वे िकसी भी ःतर तक नीचे उतर सकते थे। उतर चुके थे। अज ीब इिRफ़ाक था िक सड़क पर चल रहा हर तीसरा आदमी या तो कुछ बेचता नज़र आता, या िकसी Vँयमान अथवा अVँय-सी िकसी चीज़ की दलाली कर रहा होता। रात6रात आम आदमी की िज़ंदगी पर उपभोHावाद ने हमला कर िदया था। सारे िरँते नाते, ज़Sरत, भावनाएं, कोमलताएं और क?पनाएं, कुछ भी इसके भीषण हमले से बच नहीं पाये थे। िज़ंदगी अब िकसी कोमल अहसास का नहीं, एक बाज़ार का नाम हो गया था, िज स पर, िज सके िलए और िज सके ज़िरये कुछ भी खरीदा बेचा ज ा रहा था। राह चलते, घर पर दबक ु े बैठे या बेड Sम म िछपे हए ु भी उसे लगता रहता िक हर वH म?टीनेशनल6 की ु , बि?क इन िवशालकाय ु उसकी गद न हर वH रे त रही है । न िसफ़ छरी एक तेज धार छरी दानव6 की भारी भरकम लात उसकी पीठ पर और दोन6 हाथ उसकी ज ेब म ह2 । उपभोHा ु को यह भी लगता रहता िक एक और अVँय हाथ है उनका, िज सने उसका टटआ दबा रखा है िक म2 दे खता हंू - तू कैसे नहीं खरीदता हमारी बनायी चीज़ और दे ता हमारे तय िकये हए ु दाम। तकलीफ़ की बात तो यह थी िक यह सब सरकार की रज़ामंदी से और उसकी दे खरे ख म चल रहा था। उसे तो िसफ़ अपनी वज़नदार कमीशन से मतलब था, ज ो उसे लाइसस पर िचिड़या िबठाने से िमलती थी। आम आदमी पर इन म?टीनेशनल6 का इतना अिधक दबाव था िक उसकी सांस सांस इनकी मौज ूदगी के कारण बोिझल थी। ज ैसे हर वH इन म?टीनेशनल6 की *लास सी चलती रहती िक यह खाओ, यह पीओ, यह कमीज़ पहनो,
कमीज़ के नीचे बिनयान फ लां कPपनी की हो और प2ट उस कPपनी की तो उसके नीचे च@ढी फ लां दे श की, फ लाँ कPपनी की ठीक रहे गी। ये कPपिनयां िदन म दस बार याद िदलातीं िक इस िवदे शी च@ढी म इलािःटक फ लाँ कPपनी का ठीक रहे गा। यह भी याद िदलाया ज ाता था िक हमारी च@ढी धोने के िलए िकस कPपनी का साबुन उRम रहे गा। ू ःट लगाना बेहतर सुबह उठते ही िकस कPपनी के ॄश पर िकस दसरी कPपनी का टथपे ू रहे गा और कु?ला िकस कPपनी के माउथवाश से िकया ज ाये, यह सलाह दी ज ाती। इन सबके मागदशन के िलए दिसय6 कPपिनयां सुबह सुबह हाज़री बज ातीं। इसके बाद हमारी हज़ामत मूंढ़ने के िलए सात और कPपिनयां कतार बांधे नज़र आतीं। िकसी के हाथ म िवदे शी उःतरा होता तो िकसी के हाथ म ॄश या बीम। कोई कोई तो हमारे चेहरे पर िकसी भी कीमत पर अपना आLटर शेव लोशन ही रगड़ने के िलए छटपटाता नज़र आता। ज ूते ह6, पॉिलश हो, घड़ी हो, पैन हो, नेलकटर हो, गाड़ी हो, ॄीफ केस हो या उसम रखे ःटे oलर ह6, ःटे oलर की िपन हो, कुतरने के िलए िचoस ह6, या चुभलाने के िलए िमंट की गोली हो - हर ज गह यही बड़े बड़े िसर वाले म?टीनेशनल हम घेरे खड़े िमलते। उनके पास हम बीमार करने के िलए ज ंक फू ड थे, बीमारी से बचाने के िलए िलए महं गी दवाय थीं और ु हर हाल म आम आदमी उन दवाओं की कीमत वसूल करने के िलए मज़बूत हाथ थे। छरी की गद न पर थी। आवाज़ उठाने की तो गुंज ाइश ही नहीं थी। िवरोध करने का मतलब ूगित का िवरोधी कहलवाना था। अज ीब िवडPबना थी िक हमारे हज ार6 खान6 के ःवाद, खुशबू और ज ायके दिनया भर म ु पसंद िकये ज ा रहे थे और हम िवदे शी ज ंक फू ड बगर, िप\सा और िडबाबंद िचकन खाने पर मज़बूर िकया ज ा रहा था। हमारे चार ]पये िकलो के आलू खरीद कर वे उसके िचoस बना कर हमीं को पांच सौ ]पये िकलो के िहसाब से िखला रहे थे और हम खा रहे थे। सब कुछ इसी तरह चल रहा था और हम बकरे की तरह िसर पर लटकती तलवार की धार लगातार पास आती महसूस कर रहे थे। ज ेब म ]पया आता ही नहीं था और ज ब आता था तो वे लोग यह पहले ही तय कर चुके होते िक इसे कौन िकस िकस अनुपात म हिथयायेगा? इस वH की यह सबसे बड़ी सfचाई थी िक हमारे ]पये म से अःसी नबे ूितशत उपभोHा वःतुओं की खरीद म ही खच हो ज ाता था। िज़ंदगी की बाकी सारी अहम ज़Sरत ज स की तस खड़ी रहतीं या टलती रहतीं या िफ र हािशये की तरफ़ िखसकायी ज ाती रहतीं। मुिH कहीं नहीं थी।
ज हां तक बाज़ार का सवाल था, वहां एक अज ीब सा माहौल तारी था। एक तरफ समाज का एक बहत ु बड़ा वग ऐसा था ज ो पूरी ईमानदारी, कोिशश6 और मेहनत के बावज़ूद दो वH रोटी नहीं ज ुटा पा रहा था। उसे अपनी छोटी से छोटी ज़Sरत, खुशी या इfछा के िलए लPबे समय तक इं तज़ार करना पड़ता था और कुछ भी हािसल कर पाने के िलए हर बार नये िसरे से संघष की शुSआत करनी पड़ती थी। लेिकन इसी के समांतर लगभग सभी महानगर6, शहर6 और कई बार कःब6 के बाज़ार भी हर वH माहक6 की भीड़ से पटे रहते। िकसी भी समय बाज़ार से गुज़रते वH भीड़ की वज़ह से कंधे िछलते। दकानदार6 के पास सभी माहक6 के लायक सामान तो होता, लेिकन ु िदखाने, बेचने की ही फु सत नहीं होती थी। िज तनी बड़ी और महं गी दकान होती, वहां उतनी ु ू पड़ते। हालांिक कुछ अरसा पहले तक ही iयादा भीड़ होती। लोग थे िक चीज़6 पर टटे इतनी महं गाई की क?पना भी नहीं की ज ा सकती थी। चीज़ महं गी थीं और खूब महं गी थीं। लेिकन यह दे ख कर भी है रानी होती थी िक इन दाम6 पर भी उन चीज़6 को खरीदने वाले अपनी बारी का इं तज़ार करने के िलए लPबी लाइन6 म लगे रहते। पता नहीं लोग6 के पास इतना पैसा कहां से आ ज ाता था िक िदन भर शािपंग करने के बाद भी खतम नहीं होता था। मयवग ने अचानक ही ऊपर की तरफ़ ऊंची छलांग लगा ली थी और उसके खरीद पाने की ताकत रात6 रात बढ़ गयी थी। उसे खच करते दे ख कर अब उतनी है रानी नहीं होती थी िज तनी कई बार यह दे ख कर होती थी िक अब गरीब आदमी भी उसके न*शे कदम पर चलने लगा था। िकसी ब2क म काम करने वाला ःवीपर ज ब पचास हज़ार की दपिहया ु गाड़ी ले कर उसे सज ाने के िलए पांच हज़ार और खच करता था या िकसी सरकारी दLतर म मामूली ःटे नो ज ब बीस हज़ार का नेकलेस और सात हज़ार की साड़ी पहनकर दLतर आती थी तो है रानी तो होती ही थी। कई बार मामूली है िसयत वाले िकसी कमचारी को अपने बfच6 की शादी म लाख6 खच करते दे ख सवाल उठने ःवाभािवक ही थे। वH था िक बहुत तेज़ी से बदल रहा था। साइं स अब आम आदमी की चेरी हो गयी थी। िसफ उसे अपने घर के दरवाज े के आगे बांध सकने की है िसयत होनी चािहये थी। आदमी और आलसी हो चला था। अब उसके पास हर काम के िलए ःवचािलत मशीन थीं या िरमोट कंशोल वाली बेहतरीन मशीन थीं। बतन साफ करने, कपड़े धोने, रोटी बेलने की मशीन तो अब बीते वH की बात थीं। यह युग तो अपने साथ हर असंभव काम के िलए आधुिनक उपकरण ले कर आया था। अब आप कहीं भी आदमी को एक साथ हगते और मोबाइल फ ोन पर बात करते या फ ोन पर बात करते और हगते दे ख सकते थे। सेलुलर
फ ोन या पेज र अब चलते िफ रते आदमी के पास पैन या लाइटर की तरह आम हो चले थे। बेशक यह वH कुछ ख़ास लोग6 के िलए बेहतरीन, शानदार और ऑन द टॉप ऑफ द व?ड ज ैसा महसूस करने ज ैसा था, लेिकन आम आदमी के िलए यह अभी भी बहत ु मुिँकल टाइम था। बहत ु ही मुिँकल वH। उसने इससे पहले एक साथ इतनी मुिँकल कभी भी नहीं दे खीं थी। अज ीब बात थी िक इस पूरे पिरVँय म बfचे कहीं नहीं थे और न ही कहीं उनका ःवाभािवक बचपन ही था। अगर कहीं बfचे थे भी तो िसफ़ िवjापन6 म थे। आइम बीम खाते हए ु बfचे, चॉकलेट खाते हए ु बfचे, मैगी नूड?स और बगर खाते हए ु बfचे, साफ सुथरे , िकसी खास कPपनी के महं गे साबुन से नहाते साफ गदबदे बfचे। ये सारे बfचे उपभो*ता संःकृ ित के नये वाहक थे ज ो बड़ी बड़ी कPपिनय6 के उ\पादन बेचने की मुिहम पर लगाये गये थे। वे नये युग के िबबी ूितिनिध थे। वे ःवाभािवक बचनप ज ीते, गलबिहयां डाले भारी बःता उठाये ःकूल ज ाते बfचे नहीं थे, इन बfच6 म शरारत नहीं थीं। इनके बचपन म कहीं भी िमCटी नहीं थी *य6िक इनके कपड़6 म ज रा सी िमCटी लगते ही इनकी मॉडल माताएं इXह िकसी कPपनी के साबुन से धो डालती थीं और ये िफ र से पहले की तरह उज ले और साफ सुथरे हो ज ाते थे। हम अपने दे श की आज ादी की पचासवीं वषगांठ मना रहे थे और हमारे पास ये ही बfचे थे िज Xह हम िदखा सकते थे। असली बfचे कहीं और थे और उनकी तरफ िकसी की भी िनगाह नहीं गयी थी। हालांिक वे सब ज गह थे। कारखान6 म, ढाब6 होटल6 म, सड़क6, चौराह6 पर, भिCटय6 के पास और ःकूल6 के बाहर। बस वे इXहीं की िनगाह म नहीं थे। कथा नायक और कथा नाियका भी इसी वH का िहःसा थे और अपने अपने िहःसे के अfछे बुरे िदन दे ख रहे थे। कथा नाियका पहले नरीमन पांइट के एक ूाइवेट दझतर म काम करती थी। उससे पहले और उससे भी पहले उसके खाते म बीिसय6 छोटी बड़ी नौकिरयां दज़ थीं। इस नौकरी म उसे कुल नौ सौ ]पये पगार िमलती थी। अिनिqतता और दै िहक शोषण का हमेशा डर। तब वह भी शाम के वH यहीं इसी मुंडेर पर बैठा करती थी। अकेली और अपने आप म खोयी हई। कई िदन तक दोन6 ने एक दसरे को अपने आस पास बैठे दे खा था। िफ र ू ु अचानक ही बात शुS हई ू ु और बात आगे बढ़ने लगीं। वे अब अ*सर िमलते थे। एक दसरे
के सुख दख के नज़दीक आये ु दे खते-सुनते और शेयर करते थे। धीरे धीरे दोन6 एक दसरे ू और एक दसरे की तकलीफ 6 के भागीदार बने। िज़ंदगी ज ैसी भी हो, एक साथ ग़ुज़ारने का ू अहम फै सला िलया गया। हालांिक एक-दसरे का साथ उXह िकसी तरह आगे बढ़ते रहने ू का बहत ु बड़ा सहारा दे ता था और कथा नायक को अपनी िज़ंदगी अथपूण लगने लगी थी, िफ र भी वह अ*सर बेचन ै हो उठता। कथा नाियका को लेकर वह िज तने भी सपने बुनता, सबम उसकी एक ही िचंता होती िक आिखर वह उससे शादी करे तो कैसे और उसे ले ज ाये कहां? तभी एक और छोटा सा हादसा हो गया था और उन दोन6 की िनयिमत मुलाकात6 पर एक तरह से बैन लग गया था। बेशक इसे हादसा नहीं कहा ज ा सकता था *य6िक यह कथा नाियका के िलए बेहतरी का संदेश ले कर आया था। कथानाियका को िवरार म ही अपने घर के पास पहली और दसरी कAा के बfच6 को पढ़ाने की नौकरी िमल गयी थी। ू चौदह सौ ]पये की। इन चौदह सौ ]पये का चैक ःकूल मैनेज म2ट तभी दे ता था ज ब वह तीन सौ ]पये नकद कैिशयर को थमा दे ती थी। हालांिक इस तरह से उसकी पगार िसफ Zयारह सौ ]पये पड़ती थी िज सके एवज म उसे साठ बfच6 के सात पीिरयड लगातार लेने पड़ते थे। लेिकन तब भी वह नरीमन पांइट वाली नौकरी से इस Sप म बेहतर िःथित म थी िक उसे अब आने ज ाने म चार पांच घंटे और दो तीन सौ ]पये खच नहीं करने पड़ते थे। बेशक वह अब कथा नायक से रोज़ाना नहीं िमल पाती थी लेिकन अब उसके पास खुद के िलए अपनी मां और बहन के िलए थोड़ा अितिरH वH िमल ज ाता था। ये बात इतनी मह\वपूण नहीं थीं उसके िलए िज तनी यह बात थी िक अब उसके पहले की तुलना म तीन सौ ]पये के करीब iयादा िमल ज ाते थे। ये तीन सौ ]पये िनिqत ही कथा नायक से हो सकने वाली मुलाकात6 की तुलना म iयादा ज़Sरी थे। कथा नाियका की मां थोड़ी बहत ु िसलाई करती थी, और छोटी बहन दसवीं की छाऽा होने के बावज ूद पड़ोस के घर म एक छोटे बfचे के िलए बेबी िसिटं ग करती थी और एवज म तीन सौ ]पये पाती थी। घर का खच कथा नाियका के वेतन से ही चलता था। िकसी तरह गाड़ी खींची ज ा रही थी। हालांिक कथा नाियका ने भी और अयािपकाओं की दे खा-दे खी कुछ अितिरH पैसे कमाने का ज़िरया ढंू ढ िलया था, लेिकन ये सब भी ऊंट म मुंह म ज ीरे की तरह लगता। पहली दसरी के बfच6 को िसफ़ इसिलए फे ल कर दे ना िक वे ज बरदःती आपसे Cयूशन पढ़, बfचे ू के ज Xम िदन पर िसफ टाफ ी दे ख कर नाक भz िसकोड़ना और ज तलाना िक हम और बfच6 की तरह िसफ टाफ ी पर न बहला कर कुछ िगLट भी लाओ, खुद के ज Xमिदन पर
कAा के सारे बfच6 को खाली िलफ ाफे पकड़ा दे ना िक इस म अपने मां-बाप से दस बीस ]पये रखवा लाओ, ये सारे हथकंडे कथा नाियका को बहत ु ओछे लगते। आिखर वह किवताएं िलखती थी और कुछ तो सोचती समझती ही थी। हालांिक इस सब के िलए उसे कुछ भी न करना पड़ता और सारी चीज़ अपने आप होती ज ातीं, िफ र भी उसका मन न मानता। और ऐसे ही किठन वH म हमारा कथा नायक और कथा नाियका स{ाह म एक बार िमल कर आधा घंटा बात करना या मसाला दोसा खाना या भेलपूरी खा लेना भी िसफ इसिलए एफ ोड नहीं कर पाते थे िक िमलने के िलए उनम से िकसी एक को शे न की िटकट के िलए ही अCठारह ]पये खच करने पड़ते थे ज ो दोन6 को ही भारी पड़ते थे। फ ोन की सुिवधा दोन6 के पास ही नहीं थी। लेिकन यह वही किठन समय था ज ब लोग माइकल ज ै*सन के शो के िलए इसी शहर म पंिह हज़ार का िटकट या िबकेट मैच का पांच हज़ार का िटकट पाने के िलए घंट6 लाइन म खड़े रहते थे। लोग6 को इस किठन वH म भी तीन-चार हज़ार के ज ूते, सऽह हज़ार ]पये की से स या पंिह हज़ार का रं गीन धूप का चँमा महं गा नहीं लगता था। इस किठन वH म भी लोग बारह पंिह सौ ]पये का खाना खा ही रहे थे, औरत पंिह सौ ]पये की ॄेज री पहन ही रही थीं और लोग बfच6 को हज़ार6 ]पये के िखलौने िदलवा ही रहे थे। ठीक इसी किठन वH म हमारा कथा नायक अपनी भूख को कई कई घंटे िसफ इसिलए टालता रहता था िक घर ज ा कर खाना तो वैसे ही खाना ही है । कथा नाियका बहत ु ज़Sरत होने पर भी दसरी से तीसरी साड़ी िसफ इसिलए एफ ोड नहीं कर पर पाती थी िक ू हर बार कुछ नये खच[ िपछली बार की तरह इस बार भी टल रहे होते थे। उसे सहे िलय6 के साथ गोलगoपे खाना या एक अfछी ज ोड़ी नकली मोती वाली माला खरीदना भी ऐ~याशी लगता था। चीज़ इन दोन6 के िलए सचमुच बहत ु महं गी थीं। इXहीं सारी वज़ह6, तकलीफ़6 और मज़बूिरय6 के चलते कथा नायक और कथा नाियका िपछले दो ढाई बरस से एक दसरे को चाहने के बावज़ूद शादी के िलए तय नहीं कर पा ू रहे ह2 । कथा नायक के पास ज गह ही नहीं है । उसे हँ सी आती है - उसके पास नाियका को चूमने, गले लगाने या मुCठी भर oयार करने के िलए भी ज गह नहीं है । सब कुछ सावज िनक ज गह6 पर। सबके सामने। कथा नाियका का िलया गया पहला चुPबन उसे अभी भी याद है । उसे उस चुPबन के िलए की गयी पूरी ए*सरसाइज आज भी रोमांिचत कर दे ती है । एक बार उसने यूं ही कथा
नाियका से कह िदया था िक वह उसे आज उसके घर तक छोड़ने ज ायेगा। कथा नाियका एकदम चzक गयी थी। वह सोच भी नहीं सकती थी िक कथानायक िसफ़ उसे छोड़ने ज ाने के िलए चचगेट से िवरार की आने ज ाने की 122 िकमी की चार घंटे की याऽा करे गा। मुंबई ज ैसे महानगर म इस बात की क?पना भी नहीं की ज ा सकती थी। िफ र भी वह िज़द करके उसके साथ गया था। हालांिक शे न म दोन6 ज ब पहली बार एक साथ सट कर बैठे थे तो नाियका बेहद रोमांिचत हो गयी थी। कथा नाियका ने उसे अपने घर तक आने की इज ाज़त नहीं दी थी और उसे िवरार ःटे शन पर ही एक कप चाय िपला कर अगली शे न से रवाना कर िदया था। िवरार से वािपस आते समय कथा नायक ने दे खा था िक वसई ःटे शन आने तक उसके िडबे म कोई भी सवारी नहीं थी। कम से कम िज स सीट पर वह बैठा था, उस िहःसे म तो िब?कुल भी नहीं। अगली बार ज ब दोबारा कथा नायक ने उसके सामने िफ र से यही ूःताव रखा था तो वह थोड़ी ना नुकुर के बाद मान गयी थी। िवरार पहंु च कर ही कथा नायक ने उससे कहा था िक वह एक बार िफ र उसके साथ वसई तक वािपस चले, एक खास बात करनी है उसे। नाियका को तभी उसने सRर की रLतार से चल रही लगभग खाली लोकल म शाम के साढ़े आठ बज े पहली बार चूमा था। नाियका बेहद रोमांिचत हो गयी थी। वह क?पना भी नहीं कर सकती थी िक यह घुXना सा, चुoपा सा आदमी इतनी मदानगी का काम भी कर सकता है । इससे पहले िक नायक उसे दोबारा चूम पाता, वसई ःटे शन आ गया था और वह तेज़ी से उतर गयी थी। गाड़ी चलने तक िखड़की की सलाख पकड़ कर खड़ी रही थी और ज ाते ज ाते उसे - बुyू कहीं के की शानदार िडमी दे गयी थी। सचमुच वह बुyू ही तो था िक अपनी ूेिमका का चुPबन लेने के िलए उसने इतनी बड़ी मश*कत की थी। लगभग चार घंटे की फ ालतू और िबना िटकट याऽा की थी और लॉज म दे र से पहंु चने के कारण िडनर िमस िकया था। लोग थे िक कहीं भी कभी भी अपने पाट नर6 के न केवल चुPबन ले लेते थे बि?क इससे भी कई कदम आगे बढ़ कर अीलता की सीमाएं लांघने लगते थे। कथा नायक का भी िदल करता िक उसे कथा नाियका के साथ िबताने को थोड़ा सा ही एकांत िमले, लेिकन इस कPबgत महानगरी म एकांत है कहां।
एक बार उसे यह एकांत िमला भी था, लेिकन वह नहीं ज ानता था िक इस एकांत की उसे इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़े गी। उसे ऑिफ स के ही िकसी साथी ने बताया था िक एक िसंधी मिहला पेइंग गेःट रखती है । रहने और घर के खाने की बहत ु कम दाम6 पर बहत ु अfछी _यवःथा। वह वहां तुरंत पता करने गया था। सचमुच अfछा घर बार था। करीब स2तीस बरस की मिहला थी वह। बहत ु ही िमलनसार लगी थी वह मिहला उसे। पहली ही मुलाकात म मन मोह लेने वाली। उसकी एक ही लड़की थी - चौदह-पंिह बरस की। पित ू पर रहता था। घर पर कोई मद रहे .. .. ..यही सोच कर वह पेइंग गेःट अ*सर बाहर टर रखती थी। सारी चीज़ मनमािफ क थीं। उसे अलग कमरा िदया ज ा रहा था, ज हां वह कभी कभार कथा नाियका को लाने की सोच सकता था। अगर सब कुछ ठीक ठाक चलता तो वह वहीं रहते हए ु शादी करने की भी सोच सकता था। लेिकन यह सारा सोचना िसफ सोचना ही रह गया था। वहां उसका यह पहला ही िदन था। वह अपना सारा सामान ले कर आ गया था। अपना कमरा ज माया था उसने। मुंबई म इतने बरस6 म यह पहली बार होता िक वह एक पूरे कमरे म अकेला सोता। उस भि मिहला ने बहत ु ही सु]िचपूण ढं ग से खाना बना कर उसे िखलाया था। वह िनहाल हो गया था। उसकी िज़ंदगी की बहत ु बड़ी समःया हल हो गयी थी। ढं ग के खाने और रहने के िलए वह कब से तरस रहा था। वह दे र तक ज ागता रहा था और कथा नाियका को लेकर मधुर रं गीन सपने बुनता रहा था, लेिकन इन सपन6 म दःतक िकसी और ने दी थी। पहले तो वह समझ ही नहीं पाया था िक यह दरवाज ा खटखटाने की हलकी सी आवाज़ कहां से आ रही है । काफ ी दे र बाद ही वह समझ पाया था िक उसी का बंद दरवाज ा खटखटाया ज ा रहा था। उसने उठ कर ज ब दरवाज ा खोला था तो सामने मकान मालिकन खड़ी थी। लगभग पारदशn गाउन म। उसने एकदम भीतर आ कर दरवाज ा बंद कर िदया था। कथा नायक एकदम भzचक सा खड़ा दे खता रह गया था। उसकी तरफ कामातुर नज़र6 से दे खते हए ु बोली थी वह - कPबgत नींद ही नहीं आ रही थी। तुPहारी बRी ज लती दे खी तो, सोचा.. .. , अरे तुम खड़े *य6 हो, आओ बैठो ना, और उसने कथा नायक को खींच कर अपने पास िबठा िलया था। कथा नायक को काटो तो खून नहीं। वह यह *या दे ख रहा
था। यौन का इतना खुला आमंऽण? अचानक उसके सामने सब कुछ साफ हो गया था। यह इतने कम दाम6 म सारी सुिवधाएं, इतना अfछा _यवहार और इतना बिढ़या भोज न। बदले म यह सब कुछ। छी.. ..। उस रात वह बहत ु मुिँकल से खुद को उस कामातुर औरत के चंगुल से बचा पाया था। वैसे वह बच भी कहां पाया था। उस औरत ने उसे बार बार अपने से िलपटाने की कोिशश की थीं, यहां तक िक वह उसके सामने पूरी तरह नंगी हो गयी थी, लेिकन ज ब कथा नायक िकसी भी तरह इस Sप म अपने ज ीवन म सै*स की शुSआत के िलए राज़ी नहीं हआ था तो उसने उसे ढे र सारे पैस6 का भी लालच िदया था - तुम ज ो चाहो ले लो बस ु मेरी यह इfछा पूरी कर िदया करो। रोज़ नहीं तो हLते म दो-एक बार सही। वह िफ र भी नहीं माना था तो उसने आिखरी दांव चला था - वह मान ज ाये वरना वह उस पर अपनी लड़की को छे ड़ने कर इ?ज़ाम लगायेगी और इसी वH खड़े खड़े दरवाज े से बाहर िनकलवा दे गी। एक बार उसने सोचा भी िक *या हज़ है , ज ब सब कुछ उसके सामने इतने शानदार ढं ग से परोसा ज ा रहा है तो वह भी *य6 न आनंद ले, लेिकन वह ऐसी िनPफ ोमैिनक औरत6 के बारे म ज ानता था। एक बार िसलिसला शुS हो ज ाने पर इसका कहीं अंत नहीं होता। अपनी सै*स पूित के सामने वे न िदन दे खती ह2 न रात। यही सोच सोच कर वह है । कल वह उसे अपने से परे ठे लता रहा। यही कहता रहा, आज वह बहत ु थका हआ ु ज़Sर उसकी इfछा पूरी करे गा। लेिकन वह िब?कुल भी नहीं मानी थी। वह बार बार उसे अपने ऊपर िगरा रही थी। उसने ज बरदःती कथा नायक के कपड़े उतार िदये थे। वह तब भी नहीं माना तो उसने कथा नायक को गाली दी थी - नामद कहीं का, म2ने तो सोचा था दे खने म अfछे खासे हो.. .. ..। और इस तरह से कथा नायक को ज ीवन का पहला सै*स अनुभव इस ज बरदःती के इकतरफ ा खेल म अपनी मदानगी िसy करने के च*कर म िमला था। पहली ही रात म दो बार उसे अपनी मदानगी िदखानी पड़ी थी। कथा नायक समझ गया था िक वह यहां रहा तो उसे रोज़ रात ही यह रासलीला रचानी पड़े गी। उसकी सेहत का ज ो फ लूदा बनेगा सो बनेगा, वह इस िघनौने िरँते की वज़ह से िकसी को मुंह ही नहीं िदखा पायेगा। अगले िदन ही उसने वहां से अपना बोिरया िबःतर उठाया था और उस ूसंग को अपनी याद6 से हमेशा के िलए िनकाल फ का था। उसने आज तक िकसी से भी इस घटना का िज़ब नहीं िकया था। हालांिक उसे वहां पूरे महीने के खाने रहने के पैसे एडवांस दे िदये थे
लेिकन उस एक रात को इतने भीषण Sप म गुज़ारने के बाद उसकी िहPमत ही नहीं हई ु थी िक अपने बाकी पैसे वािपस मांगने ज ाये। उसके बाद िकसी घर म दोबारा शेयिरं ग करके रहने की उसकी िहPमत ही नहीं हई ु थी। इस समय उसका सबसे बड़ा संकट ही यही है िक ¸ छोटे से छोटे और दरू से दरू िकराये के मकान के िलए भी वह तीस चालीस हज़ार िडपािज ट कहां से लाये? झोपड़पCटी वाले भी पंिह हज़ार िडपािज ट मांगते ह2 और हज़ार ]पये िकराये से कम बात नहीं करते। वो भी दरू दराज के इलाक6 म ज हां रहने पर बस का िकराया अलग से ज ुड़ ज ायेगा। वह ज हां काम करता है वहां से तो वह हज़ार ]पये एडवांस की भी उPमीद नहीं कर सकता। वहां तो वह आज काम छोड़े तो दस आदमी हज़ार ]पये म काम करने के िलए लाइन लगाये खड़े िमलगे। बचत के पैसे न उसके पास कल थे न आज ह2 । कल िकसने दे खा। कथा नाियका की भी कमोबेश यही हालत है । घर चलाये या ज ोड़े । मां बहन को दे खे या अपनी शादी के िलए सपने दे खे। ज ब तक बहन कमाने लायक नहीं हो ज ाती, तब तक इं तज़ार करने के अलावा कोई उपाय नहीं। पांच साल या और iयादा? तब वह तीस की होगी और कथा नायक त2तीस का। दोन6 ज ब भी िमलते ह2 , हर बार िसर ज ोड़ कर बैठते ह2 और बीिसय6 बार गुणा भाग करते ह2 । कथा नाियका तो पहने कपड़6 म भी आ ज ाये पर आये कहां? इस कहां का ज वाब ही नहीं है दोन6 के पास। *या आपको नहीं लगता, इन दो oयार करने वाल6 का भी िज़ंदगी की छोटी छोटी खुिशय6 पर हक बनता है । उXह भी अपने छोटे छोटे सपन6 को पूरा करने की चाह हो सकती है । वैसे भी वे ए~याशी वाली, खूबसूरत और ऐशो आराम की िज़ंदगी के gवाब कहां दे ख रहे ह2 । एक छोटा सा घर ही तो चाहते ह2 ज हां उनकी अपनी खुद की दिनया हो और ु ..........। आप चाह तो इनके छोटे से घर के, बेहतर नौकरी के और बेहतर िज़ंदगी के सपने को पूरा करने म उनकी मदद कर सकते ह2 । आपकी नज़र म इन दोन6 म से िकसी के भी लायक कोई बेहतर नौकरी हो या कहीं िबना िडपॉिज ट का कम िकराये वाला कोई घर हो तो उXह ज़Sर बताय। वे दरू पास कहीं भी ज ाने के िलए तैयार ह2 । इन दोन6 का बायोडाटा आपके पास है ही सही।
इनका पता? उसकी *या ज़Sरत? ज ब भी आपके पास इस तरह की नौकरी या घर हो आप इस भीड़ म िज स भी तीसरे आदमी के कंधे पर हाथ रखगे, वह हमारा कथा नायक ही होगा। आप उसे दे खते ही पहचान लगे।