कहनी
बड़े भैया - शैलेि चौहान बड़े भैया कुछ ऐसे बोलते मानो शहद टपकता हो, सँभल-सँभल कर धीरे -धीरे , एकदम संजीदगी से । पीपल खेड़ा गाँव के पोःटमाःटर थे वे । उन िदन, थोड़ी बहत ु ही डाक आती थी गाँव म0 और एक डाकख़ाने से कोई चार-पाँच गाँव, की डाक बँटती थी । चारपाँच गाँव, की डाक एक थैले म0, मुिँकल से चार-पाँच िकलो वजन, बड़े भैया थैले पर लगी लाख की मोहर तोड़ते, थैले पर बँधी रःसी खोलते , डाक िनकालते और हरे क गाँव की डाक अलग-अलग करते, पीपल खेड़ा, अकलेरा, अटारीखेजड़ा, जमुआकलां, जमुआखुद9 वगैरह िफर मनीआड9 र, रिजःशी वगैरह का िहसाब करते । डाक छाँटते-छाँटते वे च<की पर आटा पीसने म0 मगन छ= कू से बितयाते, आटा िपसाने आए गाँव वाल, को उनकी और आसपास की डाक दे दे ते और समझाते िक 'फ़लाँ की िचBठी है इसे याद से दे िदओ' । बGचे, बूढ़े और जवान सभी से वे िवनॆ सहजता से बात0 करते । बड़े भैया तमोली थे यानी चौरिसया यानी पान, तंबाकू, सुपारी वगैरह के Jयवसायी पर उह,ने अपना पुँतैनी धंधा छोड़ रखा था । वे मेरे िपता से कहते 'मजा नK रओ अब पान-सुपारी के धंधा म0 जाई से च<की डाल दई है , चार पैसा आ जात ह= '। हम, यानी म=, मेरी माँ और िपता बड़े भैया के मकान म0 एक कमरे म0 रहते थे । मकान के िपछले िहःसे म0 बड़े भैया का पिरवार रहता था उनकी पMी, पाँच बGचे और एक छोटा भाई, आगे की तरफ वाले कमरे म0 हमारा पिरवार । बीच म0 छोटा सा आँगन था, आँगन म0 एक सँकरा पर प<का कुँआ था जो अ<सर पानी िनकालने के बाद लकड़ी के ढ<कन से ढ़ं क िदया जाता था । आँगन के बाद बरामदा, जो काफी लंबा था उसी बरामदे म0 बाएँ हाथ पर च<की लगी हई ु थी । उनका डाकख़ाना भी बरामदे म0 ही था, म= भी उसी बरामदे म0 खेला करता था । मेरी उॆ तब कोई तीन और चार वष9 के बीच रही होगी । बहत ु साफ-साफ तो सब कुछ याद नहीं पड़ता िफर भी मोटी-मोटी ःमृितयाँ मेरे मन पर िकसी िःथर िचऽ की तरह अंिकत ह= । ये ःमृितयाँ बहत ु िदन, तक चमकते हए ु िचऽ की तरह रहीं पर वR की धूल ने धीरे -धीरे इह0 मSम बना िदया। रोज दस Tयारह बजे के लगभग म= बड़े भैया को डाक छाँटते दे खा करता, शायद उस वR तक डाक का थैला उनके
पास पहँु च जाता था । डाक का थैला लाने वाले को भी म= पहचानने लगा था, वह एक दबला पतला JयिR था, उॆ उसकी हद से हद पGचीस-छUबीस रही होगी । वह पहले थैला ु रखता िफर मनीआड9 र फाम9 और पैसे दे ता िफर रिजःशी । बड़े भैया मनीआड9 र के पैसे िगनकर और रिजःशी दे खकर एक कागज पर दःतख़त करते तब वह डाक लाने वाला नमःते करके चल जाता । मुझे बड़े भैया का डाक छाँटना बहत ु अGछा लगता था । इसका कारण था डाक म0 िचिBठय, के साथ कुछ िचऽ, वाले प=फलेट भी आते या चार-आठ पेज की छोटी साइज की पुिःतका जैसी चीज होती िजनके पीछे वाले पन, पर घिड़य, के Xेत ँयाम िचऽ छपे होते थे । घिड़य, के वे फोटो मुझे बहत ु आकिष9त करते थे । हाथ घड़ी मेरे िलए बहत ु बड़े आकष9ण की चीज थी । कभी-कभी बड़े भैया ऐसा एकाध प=फलेट या पुिःतका मुझे पकड़ा दे ते, तब मेरी ूसनता का िठकाना न रहता । घिड़य, के फोटो मेरे िलए बहत ु ही आनंद की वःतु होते, म= उह0 िलए-िलए घूमता, बार-बार दे खता और घड़ी करके कमीज या िन<कर की जेब म0 रखे रहता । दो एक िदन तक मेरा पूरा Zयान उहीं िचऽ, पर लगा रहता । कभी-कभी बड़े भैया मुझे एक-दो पैसे दे ने की भी कोिशश करते पर उन िदन, एक तो म= पैसे का कोई मह[व नहीं समझता था, दसरे माँ ने िकसी ू से भी पैसे या खाने-पीने की कोई चीज लेने के िलए एकदम मना िकया हआ था और इसे ु एक खराब आदत बताया था सो म= पैसे लेने से एकदम मना कर दे ता और उनसे दरू भाग जाता। तब हारकर बड़े भैया मीठी गोिलयाँ ले आते और मेरी जेब म0 यह कह कर ठँू स दे ते िक 'माँ कुछ नहीं कहे गी, म= माँ को बोल दँ ग ू ा' । बड़े भैया की दी हई ु गोिलय, से म= बहत ु खुश न होता । म= वे गोिलयाँ ले जाकर माँ को िदखाता, माँ यह तो अवँय कहतीं िक तुमने <य, ले ली पर बड़े भैया का वह बेहद स\मान करतीं सो डाँटती नहीं थीं । हाँ िकसी और से कुछ न लेने की ताकीद अवँय कर दे तीं। मेरे िपता पीपल खेड़ा के ूायमरी ःकूल म0 िश]क थे । उन िदन, गाँव, म0 िश]क, का इतना स\मान तो था ही िक गाँव का कोई ूिति^त JयिR जैसे सरपंच, पोःटमाःटर या िश]ा को भावना[मक _प से ूेम करने वाला कोई समझदार JयिR उह0 अपने घर या बरामदे म0 रहने के िलए मु`त म0 एक कमरा या जगह दे दे ता था । कभी-कभी अनाज, दध ू , घी या सUजी जो भी उसके खेत या घर म0 होता वह भी सादर भ0ट करता । यहाँ तो बड़े भैया की च<की थी सो अनाज-वनाज का भी कोई झंझट नहीं था, सीधा आटा ही घर म0 पहँु च जाता । दध ू पड़ोस के एक िकसान के यहाँ से आ जाता, िकरािनए के यहाँ से साबुन, तेल, मसाले भर खरीदने होते थे । दाल-चावल िपता िविदशा से खरीद लाते, सUजी एक दो िदन के िलए हाट से खरीद ली जाती । बाकी िदन, म0 या तो गाँव का
आदमी या ःकूल म0 पढ़ने वाला कोई लड़का जो भी खेत, म0 होता दे जाता, नहीं तो दाल से आराम से गुजर बसर होती थी । बड़े भैया के मकान के बांयी ओर एक बड़ा सा खुला मैदान था िजसम0 ह`ते म0 एक िदन हाट लगा करती । पोटली बाँध कर दकानदार आते, खGचर, पर, साइिकल पर और बाकी ु दलकी चाल से चलते हए ु ु पैदल आते । उनम0 िबसाितय, की तो िनराली धज होती एक हाथ म0 कपड़े के थान नापने के िलए लोहे का गज और दसरे कंधे पर कपड़, की गठरी । ू िबसाितय, के पहने हए ु कपड़े भी अपे]ाकृ त साफ होते । हलवाइय, के कपड़े एकदम चीकट होते थे । मैदान म0 बैठकर दकानदार अपनी-अपनी पोटिलयाँ खोलते, सामान ु िनकालते, सजाते, लो लग गई दकान । कोई चालीस पचास दकान0 होतीं, उनम0 हलवाई, ु ु कपड़े वाले, घर के ज_री सामान जैसे चकला, बेलन, चाकू, अनाज छानने की छनी, आटे की चलनी वाले होते । लकड़ी का सामान, खेती के काम का सामान और गाँव की औरत, के िलए चोिटयाँ, कंगन, िबंदी, िसंदरू, कंघी, आईने वगैरह होते । aलािःटक, लकड़ी और टीन से बनाए गए िखलौने, रबर की ग0द0, दे ख-दे ख कर बहत ु मजा आता । एक बार मेरे िजद करने पर एक छोटी सी ग0द िपता मेरे िलए भी खरीद लाए थे । गाँव के लोग अ<सर झुंड पर जाकर भाव-ताव, म0, कुछ अकेले भी, आपस म0 खूब जोर-जोर से बात0 करते दकान, ु खरीदारी करते । औरत0 अ<सर चटक लाल रं ग के लहं गे Uलाउज पहने होतीं । उॆ दराज़ औरत0 आदिमय, की तरह लाँग वाली सफेद धोितयाँ और ऊपर कमीज जैसे लंबे-लंबे Uलाउज पहनतीं । िकशोिरयाँ और युवितयाँ चटक रं ग, म0 सजी चहकती िफरतीं । हाट का िदन बहत ु रौनक भरा होता । सुबह आठ बजे से हाट भरनी शु_ होती और Tयारह बारह तक अपने पूरे शबाब पर आ जाती, उसके बाद तीन-चार घंटे तक काफी चहल-पहल बनी उठने लगते <य,िक शाम ढलने से पहले रहती । करीब तीन साढ़े तीन बजे से दकानदार ु उह0 अपने-अपने गाँव, कःब, को पहँु चना होता था । कोई चार-पाँच मील से आता था तो कोई बारह या पंिह मील से भी आता था । जो िजतनी दरू से आता वह उतनी ही जdदी अपनी दकान समेटना शु_ कर दे ता । इस तरह चार बजने न बजते सारा मैदान िफर ु पहले की तरह सूना हो उठता, िसवाय कुछे क मामीण, के जो बीड़ी के कश के साथ अपनी बची हई ु बात0 ख[म कर दे ना चाहते थे । िपता इसी वष9 खरगोन से शांसफर होकर यहाँ आए थे, इसिलए ये नया माहौल हमारे िलए अजनबी था । हम लोग उfरूदे श के रहने वाले थे, दि]ण-पिgमी उfर ूदे श के िजला मैनपुरी का वह गाँव कीरतपुर, पीपल खेड़ा से एकदम िभन था । बोलचाल, रहन-सहन और रीित-िरवाज, म0, यहाँ तक िक खाने-पीने के तरीक, म0 भी िभनता थी । पहली बात
यह िक हमारा गाँव सड़क से लगा था, मैनपुरी या इटावा जाने के िलए मोटरगाड़ी हमारे गाँव से सीधी िमल जाती थी । जब िक पीपल खेड़ा िविदशा से कोई तीस मील दरू था और यहाँ तक बस भी नहीं आती थी । 'बस' कोई पाँच-छ: मील दरू सड़क पर उतार दे ती थी, वहाँ से बैलगाड़ी उफ9 छकड़े म0 या िफर पैदल ही आना पड़ता था गाँव तक । दसरे ू यहाँ की भाषा भी हमारे िलए अजीब थी, हमारे गाँव म0 बड़ी नरम ॄज भाषा बोली जाती, नरम इसिलए <य,िक ॄजभाषा का अ<खड़पन हमारे यहाँ िनंकािसत था, कोई गलती से भी तू और तेरा शUद का ूयोग नहीं करता था । यहाँ बुंदेलखंड ी की िबdकुल अलग ही ूकृ ित थी, यkिप मेरी माँ बुंदेलखंड के उस भाग की थीं जहाँ से उस पर कनौजी और बैसवाड़ी का ूभाव पड़ने लगता है िफर भी दोन, के ःवर, के आरोह अवरोह म0 जमीन आसमान का अंतर था । माँ और िपता अ<सर हमारे गाँव से यहाँ की तुलना करते, कभीकभी वे खरगोन की बात0 भी करते पर खरगोन मेरे िलए यहाँ से भी अिधक अजनबी जगह थी । यहाँ तो म= अपनी आँख, से दे ख रहा था, यहाँ की हवा की गंध मन म0 भर रहा था । िपछले वष9 तो म= और मेरी माँ गाँव पर ही थे, इससे पहले खरगोन रहे ह,गे पर तब म= माऽ डे ढ़ दो वष9 का था अत: वहाँ की कोई ःमृित मेरे मन म0 नहीं थी । अलबfा निनहाल और अपना गाँव दोन, मेरे मन म0 सजीव थे । मेरे िलए गाँव का मतलब थीं दादी और यहाँ दादी की मुझे बहत ु याद आती थी । भरी गिम9य, म0 जेठ मास की दशमी के िदन हमारे गाँव से तीन मील की दरी ू पर िसंह पुरा गाँव म0 नहर के दोन, ओर मेला लगता था । इसी साल गिम9य, की बात थी बैलगाड़ी का इं तजाम न होने पर दादी मुझे अपने कंध, पर िबठाकर ही मेला ले गइं । उनकी उॆ तब पचास की ज_र रही होगी पर गजब की फुतl थी उनके शरीर म0 । हम कब मेले पहँु च गए पता ही नहीं चला, साथ म0 छोटी अइया भी थीं, गाँव के और लोग भी थे, बGचे काफी उ[सािहत थे । वहाँ पहँु च कर नहर म0 हम लोग, ने ःनान िकया, थोड़ी पूजा वगैरह की । एक पंिडत ितलक लगाए बैठा था उसे दान िदया, िफर घर से लाई हई ु पूिड़याँ पके आम,, खोए की बरफी और आम के अचार तथा आलू मैथी की सUजी के साथ खाई गK । गाँव म0 ह`ते दस िदन म0 एकाध बार पूिड़याँ बन ही जाती थीं, कोई बाहर से आए, कोई बाहर जाए, या कोई मेहमान आकर mका हो, पूड़ी, कचौड़ी, खीर, हलवा बनना तय था । अ<सर यह सब छोटी अइया ही बनातीं, माँ और दादी उनकी सहायता करतीं । मेले म0 खूब घूमे, िमBटी के बत9न खरीदे , िमBटी के ही िखलौने भी, साथ ही दादी ने मेरे िलए कुछ aलािःटक के िखलौने भी खरीद िदए और एक मोटर कार भी जो टीन की बनी हई ु थी । घूमने-घामने के बाद खरबूजे,
तरबूज और बत9न, िखलौन, को लादे हम तखतिसंह की बैलगाड़ी से गाँव वापस लौटे , तखतिसंह पास के ही गाँव दौलत पुर के रहने वाले थे । दादी उन िदन, सुबह-सुबह भ=स, का दध ू िनकलवा कर चबूतरे पर रख लेती थीं । तखतिसंह दध ू लेने आते, वे िमिलटरी से िरटायर होकर दध ू का धंधा करने लगे थे । गाँव, से दध ू इकBठा कर वे मैनपुरी म0 बेच आते थे । तखतिसंह की तीस िडमी के कोण पर छाँटी गई मूँछ0 और सर पर लगी खाकी टोपी उनके JयिR[व को अजीब सी छटा ूदान करती। बहत ु आिहःता-आिहःता और बड़ी िवनॆता से बोलते थे वे । उनका ःवर भी बहत ू के पतले होने की िशकायत कुछ इस तरह ु मSम और पतला था । कभी-कभी वे दध करते, 'किकया आजकल दध ू के धंधा म0 कछु बचत नाँय है । अब दौलतपुरा से सबेरे-सबेरे दय ु -तीन घरन सै दध ू इकnटो करौ िफर िहयां तु\हारे घर से लैके बजार बेचन जाएँ, साइिकल से गोड़ टोर0 तब हलवाई कह दे तु ह= 'दध ू पतरो है ।'कहतु है 'िहअK खोया बनाय कै िदखाय दे त ह= ।' दादी उनका आशय समझ जातीं और तखतिसंह को फटकार लगातीं िक दध ू बेचना हमारा धंधा थोड़ी है िक पानी िमला के बेचना पड़े । सुनकर तखतिसंह उठ लेते और कहते 'बुरा मत मािनओ किकया तुमाए लएं थोड़ी कह रहे थे ब तो और लोगन की बात बताय रहे थे ।' और तखतिसंह साइिकल पर चढकर तेज-तेज पैड ल मारने लगते । घर म0 उन िदन, बोरे के बोरे आलू भरे रहते थे, उह0 खूब भून कर खाया जाता, आलू भरकर पराठे बनाए जाते, मBठे के आलू की सUजी बनती यानी आलू ही आलू खाया जाता । दादी आलू काटकर धूप म0 सुखा लेतीं और उह0 मटक, म0 भरकर रख लेतीं । सUजी के टोटे के िदन, म0 ये सूखे आलू, बिड़य,, िमथौरी या अय हरी सिUजय, पालक-मैथी वगैरह के साथ बनाए जाते । गिम9य, म0 िमBटी के मटक, को उलटा रखकर उन पर मैदे से िसवइयाँ बनाकर सुखाई जातीं। म= आँगन म0 िचिड़याँ उड़ाता और िचिड़या पकड़ता । अरहर एक पला (डिलया) उdटा कर एक पतली लकड़ी के सहारे एक की लकिड़य, का िबना हआ ु िकनारे से िटका दे ता, उस लकड़ी म0 एक रःसी बँधी होती । पला के नीचे अनाज के दाने िबखेर दे ता, जैसे ही िचिड़या दाने चुगने आती, रःसी खींच दे ता िचिड़या बेचारी पला के नीचे िघर जाती। गिम9य, म0 यह खेल खासा मनोरं जक लगता था । हाथ म0 िचिड़या पकड़ कर उसे पानी या दध ू िपलाने की कोिशश करता । दादी झुँझलातीं <य, नाहक िचरइया को िदक करते हो मुझ पर उनकी बात का कोई असर न होता । उनका सबसे मजेदार िकःसा वह था जब एक मछिलयाँ बेचने वाला मछिलयाँ लेकर आया । उह,ने उससे मछिलयाँ खरीदीं िफर उसीसे उह0 साफ करवा कर कटाK भी । इसी तरह जब सामिलया गोँत
लेकर आता तो वे उसम0 से कलेजी छाँटती । आसपास के गाँव के लोग जब उधर से िनकलते तो जुहार करते । दादी उह0 िबठातीं, पानी िपलातीं, हालचाल पूछतीं और बीड़ी भी िपलातीं । जेठ की दोपहर म0 दहलीज म0 खिटया पर लेटी-लेटी वे स,ठ और गुड़ खातीं, मुझे भी िखलातीं या िफर गेहूँ ,जौ और चने के सfू खाती रहती । मुझे न स,ठ अGछी लगती न गुड़ न ही सfू इसिलए जब कोई बरफ वाला या गुिड़या के बाल वाला िनकलता तो म= दादी को बताता और वे खरीद दे तीं । िजस िदन म= अपने माता और िपता के साथ गाँव से िविदशा के िलए चला वह िदन बहत ु उदासी भरा था । एक वजह यह थी िक मुझे गाँव से जाने और दादी से िबछड़ने के कारण रोना आ रहा था । उस िदन जब सुबह आठ नौ बजे हम लोग घर से िनकले तो बहत ु बुरा हाल था । छोटी अइया और बड़ी अइया दोन, रो रही थीं । गाँव के और लोग भी दखी लग रहे थे । आठ दस लोग हम0 सड़क तक छोड़ने आए । बस आने पर मेरा ु और िपता का उह,ने दही चावल से ितलक िकया और मेरे हाथ म0 एक-एक, दो-दो mपये भी थमाए । बस म0 बैठे-बैठे भी म= कुछ दे र तक सुबकता रहा । मैनपुरी, िशकोहाबाद, आगरा और झाँसी म0 गािड़याँ बदलते हए िदन दोपहर तक हम िविदशा पहँु च सके थे ू ु दसरे । िविदशा म0 एक िदन ठहर कर अगले िदन हम पीपल खेड़ा पहँु चे । कुछ िदन, तक तो अपिरिचत और अजनबी की तरह हम लोग वहाँ रहे , हमारे ही मन म0 कहीं संकोच था । बड़े भैया की पMी िजह0 हम सभी भाभी कहने लगे थे अ<सर माँ से पूछतीं 'कोई चीज की ज_रत हो तो बता िदओ, घर जैसो ई समझौ झां, सब अपने ई ह= ।' मेरी माँ जवाब दे तीं 'ऐसी कोई ज_रत नई है भाभी, ज_रत पिरहै तो ज_र बतइह= ।' तब भाभी मेरी तरफ मुखाितब होतीं, कहतीं 'मुना तुम इतै खूब खेलौ, तुम तो भौत सरमात हौ, िनरे मौड़ा ह= झां ।' बड़ा अजीब सा संवाद होता, माँ अपनी भाषा बोलतीं, भाभी अपनी । ऐसा संवाद म=ने अपने गाँव और निनहाल म0 अ<सर सुना था । जब िकसी घर म0 दो बहएँ ू अलग-अलग से इसी तरह गाँव, से Uयाह कर आतीं, उनकी बोिलय, म0 अंतर होता तब वे एक दसरे ू वाता9लाप करतीं थीं । अगर सास-बहू की बोिलयाँ अलग होतीं तब और मजा आता । अ<सर तो सास बोलती रहती और बहू सुनती या हाँ हँू म0 जवाब दे ती लेिकन जब िःथितयाँ तनावपूण9 हो जातीं और सास-बहू या दो बहओं का आपस म0 झगड़ा होने लगता ु तब बोिलय, की जो ूितqं िqता भरी ूितयोिगता होती वह मेरे भाषा rान म0 इजाफा करती थी । शु_-शु_ म0 मुझे यहाँ की बोली समझ म0 नहीं आती थी पर बड़े भैया, छै कू और गाँव वाल, की बात0 सुन-सुन कर म= काम चलाऊ बोली समझने लगा था । एक िदन बड़े भैया छै कू को समझा रहे थे 'च<की के प[थर िघस गए ह= अब हाट वारे िदन जब
िमsी आयगो छै नी लैके तब वाई से टकवा िलओ ।' छै कू आटे से सना चेहरा िलए भूत बना हआ कहता 'पैली बार तो आओ नK थो वौ अबकी बार पकर लउं गो ।' बड़े भैया ु िहदायत दे ते 'पैले पथरा खोल िलओ, च<की की सफाई भी हो जाएगी ।' छै कू कहता 'हाँ खोल के धर दउं गो पैले, िफर सफाई कर लउं गो।' जुलाई का महीना था अभी तक कोई खास बािरश नहीं हई ु थी । कुछ ही िदन, म0 बािरश शु_ हो गई । अब घर के बाहर िनकलना दभर हो गया । इतनी काली-काली कीचड़ म=ने ू पहले कभी नहीं दे खी थी, जहाँ जाओ वहाँ कीचड़ । हाट वाला मैदान तो एकदम कीचड़ म0 पिरवित9त हो गया था । जो भी आदमी आता उसके पैर, म0 या पनहइय, म0 सेर दो सेर कीचड़ ज_र होती । इतनी कीचड़ दे ख कर मेरा मन खराब हो जाता, मतली सी आने लगती पर गाँव वाले लोग ठाठ से कीचड़ म0 घूमते । गाँव की सारी गिलयाँ नािलय, म0 पिरवित9त हो गई, पानी बरसता तो गिलय, म0 बहता, mक जाता तो वहाँ कीचड़ ही कीचड़ बची रहती । माँ कहतीं 'काली मBटी जdदी फूल जात है , अपने िहयां की बा_ वारी मBटी म0 कीचड़ नK होत है ।' मुझे उनकी बात समझ म0 नहीं आती । मुझे तो अपना गाँव एक आदश9 गाँव लगता, वहाँ की िमBटी म0 कालापन नाम को भी नहीं था, भूरी-भूरी हdकी पीली िमBटी, ऐसी कीचड़ तो वहाँ कभी नहीं हई ु । ऐसे ही एक िदन जब बरसात थमी हई ु थी माँ ने मुझसे िपता को बुला लाने को कहा । िपता का ःकूल म=ने पहले दे खा नहीं था, हाँ मुझे अंदाज था िक िपता बगल वाली गली से ही जाते ह= , थोड़ी दरू तक उस गली म0 गया भी था । सामायत: माँ मुझे कहीं भेजती नहीं थीं, कभी-कभार म= थोड़ी बहत ु दरू खेलने िनकल जाता था । उस िदन बड़े भैया के बGचे शायद घर म0 नहीं थे, ःकूल म0 ही रहे ह,गे । बड़े भैया भी घर म0 नहीं थे, भाभी कहीं गाँव म0 िनकल गK थीं इसिलए मजबूरन मुझे भेजना पड़ा । म= उस गली म0 थोड़ी ही दरू चला होऊँगा िक मेरे पीछे एक काला कुfा लपक िलया । अब म= आगे-आगे और कुfा पीछे पीछे । गाँव सूना-सूना था, अिधकांश गाँव वाले खेत, की तरफ िनकल गए थे । बGचे या तो ःकूल गए थे या ढोर चरा रहे थे । डर के मारे मेरा बुरा हाल था, म= mं आसा था पर ठीक तरह रो नहीं पा रहा था । दो एक गाँव वाल, ने हमारी दौड़ को दे खा पर उह,ने मेरी कोई सहायता नहीं की । ःकूल पहँु चने के थोड़ा पहले एक औरत ने कुfे को डपट कर भगाया । ःकूल पहँु चने पर मेरा बुरा हाल था, म= जोर-जोर से रोने लगा था । ःकूल के िश]क मुझे पहचानते नहीं थे, बड़ी मुिँकल से उह,ने अंदाज लगा पाया िक िसंह साहब का लड़का हँू ।
म= िपता के साथ घर वापस आया, माँ के पेट म0 तेज दद9 था, ऐसा दद9 उह0 अकसर हो जाता था । िपता परे शान िक <या कर0 ! वे थोड़ी दे र तक माँ के पास बैठे रहे । गाँव म0 कोई वैk हकीम भी नहीं था, डा<टर का तो सवाल ही नहीं । आिखर बाहर िकसी दकान से ु वे एक गोली लेकर आए जो उह,ने माँ को िखला दी । माँ असहनीय दद9 की वजह से रो रही थीं । म= कुfे के कारण अभी तक सहमा हआ था। माँ की तकलीफ दे ख कर म= ु अपना दख ै ी हो रही थी । िपता ने मुझसे कहा िक तुम ु तो भूल गया पर मुझे बहत ु बेचन बरामदे म0 जाकर खेलो लेिकन मेरा खेलने म0 मन नहीं लग रहा था। आिखर थोड़ी दे र म0 भाभी लौट आK और उह,ने माँ की पीड़ा समझने की कोिशश की, कुछ गरम करके । दोपहर को िपता िफर िपलाया, पेट पर स0क िकया, उससे माँ का दद9 कुछ कम हआ ु ःकूल चले गए, म= माँ के पास ही खेलता रहा । शाम को िपता ःकूल से लौटे तब तक माँ को थोड़ा आराम था, भाभी बार-बार हालचाल पूछ लेती थीं । दे र शाम बड़े भैया लौटे , माँ का हाल-चाल उह0 पता चला तो बहत ु परे शान हए ु बोले 'गाँव, म0 यही तो परे शानी है , कोई अगर uयादा बीमार पड़ जाए तो डा<टर भी नहीं िमलता ।' पास के िकसी गाँव म0 एक वैk था, बड़े भैया हाथ मुँह धोकर, चाय पीकर वैk को बुलाने चल िदए । िपता ने रोका, माँ ने भी कहा अब आराम है , सुबह दे खी जाएगी पर बड़े भैया नहीं माने। िपता ने कहा, 'म= भी चलूँ ।' तो बोले 'नहीं आप यहीं रहो बहू के पास, म= अभी एक घंटे म0 आता हँू ।' शाम ढ़ल चुकी थी, बड़े भैया थोड़ी ही दे र पहले िविदशा से लौटे थे और तुरंत वैk को बुलाने चल िदए थे । कोई दो-तीन घंटे बाद बड़े भैया लौट आए, उनके हाथ म0 दवाइय, का एक िडUबा था । वैk नहीं आया था, उसने सुबह आने को कहा था । भाभी ने माँ को वे दवाइयाँ िखलाK । रात म0 माँ को कुछ और राहत िमली, सुबह वैk भी आ गया । वैk ने कुछ और दवाइयाँ दीं और दो िदन बाद िफर आने को कहकर चला गया । िपता ने वैk से फीस के िलए पूछा तो बड़े भैया ने मना कर िदया दे ने को, शायद उह,ने पहले ही पैसे दे िदए थे। दो िदन बाद बड़े भैया ने माँ को डा<टर को िदखाने का इं तजाम कर िदया । बैलगाड़ी प<की कर दी पास के गाँव तक आने-जाने के िलए जहाँ सरकारी डा<टर बैठता था । उस िदन म= िपता और माँ के साथ पास के गाँव के अःपताल तक छकड़े म0 बैठकर गया था । डा<टर ने दवाएँ िलख दी, माँ को आराम था, हम सब इस बात से खुश थे। बरसात ख[म हई ु शरद की खुशनुमा ऋतु आ गई, uवार के गदे खेत, म0 ही भून कर खाए जाने लगे धिनया िमचl की चटनी और छाँछ के साथ । म<का वहाँ नहीं होती थी भुBटे कभी कभार हाट म0 ही दे खने को िमलते थे । दशहरा आया दीवाली बीत गई, माँ ने िमठाइयाँ भी बनाK िदए भी जलाए पर वैसा मजा नहीं आया जैसा गाँव म0 आता था वहाँ दादी थीं और दादी के िबना सारे वार [योहार फीके थे । धीरे धीरे मन वहाँ रमने लगा,
िदन भर बGच, के साथ खेलता, सामने वाली दकान से लेमनजूस की गोिलयाँ खरीद कर ु चूसता, गाँव म0 कभी कभी घूम आता, हाट वाले िदन हाट का मजा लेता । सिद9 याँ कब बीत गK पता ही नहीं चला िसवाय इसके िक कभी अड़ोस पड़ोस म0 अलाव जलता िदख जाता जहाँ गाँव वाले लोग बैठ कर बितया रहे होते या कुछ बGचे शरारत कर रहे होते । गने चूसने और गने का रस पीने का आनंद भी िमलता और अम_द खाने का भी । गेहूँ की बािलयाँ पकने लगीं, वसंत बीत रहा था धूप खुलकर फैलने पसरने लगी, होली का डांड ा गाड़ िदया गया। लकिड़याँ इकBठी होने लगीं कभी आसपास के जंगला◌्से तो कभी िकसी के खेत खिलहान से चुरा के । बड़े बGच, के मजे थे उह0 इसम0 बहत ु आनंद आ रहा था । होली जली िफर िमBटी, कीचड़ और गोबर की शरीर, पर जो िचपकाई हई ु वह दे खकर म= भीतर तक िसहर गया । मुझे याद नहीं आया िक कभी गाँव पर मैने ऐसा दे खा हो वहाँ तो रं ग, की होली होती थी और गाने वाल, की टोली घर घर घूमती थी । लेिकन दसरे िदन से पानी और रं ग, का खेल शु_ हआ तो तीन चार िदन, तक चलता ू ु रहा कीचड़ वाली होली भूल म= पानी म0 भींगने और रं गे जाने के मजे उठाने लगा । गिम9याँ शु_ हो गK ःकूल, म0 आने वाली परी]ाओं की सरगमl िदखाई दे ने लगी, फसल कटने लग गई । परी]ाएँ ख[म हK ु , पिरणाम आए बGचे फेल और पास हए ु , गिम9य, की ु टयाँ शु_ हो गK । दो माह की छिट◌् एक अरसा बीत गया, पता नहीं पीपल खेड़ा अब कैसा हो गया होगा । यह सन उनसठसाठ की बात है । अब तक सड़क वहाँ तक पहँु च गई होगी, िबजली पहँु च गई होगी और िसंचाई की सुिवधाएँ भी । अब तक वहाँ दो-चार डा<टर भी अवँय बन चुके ह,गे पर मेरी याद0 जो इतने छोटे पिरवेश और छोटी उॆ की सीमा म0 कैद ह= उह0 म= अपनी कdपना से बढ़ाना नहीं चाहता । पीपल खेड़ा हम लोग करीब आठ दस महीने ही रहे लेिकन वे आठ दस महीने हमारे जीवन म0 एक खुशबू की तरह थे । काली िमBटी की स,धी और ःनेह पगी खुशबू । म= िपता के साथ दो-एक बरस बाद िफर पीपल खेड़ा गया था तब तक उस गाँव म0 जो पिरवत9न आ गया था वह भी म=ने लि]त िकया । ःकूल बदल गया यानी पुरानी िबिdडं ग की जगह, जो गाँव की गोद म0 थी अब बाहर सरहद पर कुछ प<के कमरे बन गए थे िजनम0 पढ़ाई हो रही थी। और एक बेहद आgय9जनक बात यह थी िक मुहर9 म के िदन तािज़ये वहाँ िनकल रहे थे जो पहले ूवास म0 म=ने नहीं दे खा था । बड़े भैया अब भी ठीक वैसे ही थे जैसे दो वष9 पहले थे । बड़े भैया से िफर मेरी एक मुलाकात तब हई ु जब म= िकशोरावःथा पार कर जवानी की दहलीज पर पाँव रख रहा था । िपता ने कहा ु ू ,'ये बड़े भैया ह= इनके पैर छओ ।' सच उस िदन बड़े भैया के पैर छकर मुझे िकतना संतोष
िमला था म= नहीं जानता पर उनकी सहजता मेरे िलए सदै व एक बहमू ु dय िनिध की तरह ःमृित म0 समाई रही । पता नहीं अब बड़े भैया ह= भी या नहीं, ह= तो िकस हाल म0 ह= लेिकन मेरी ःमृित म0 वे आज भी अपनी संपूण9 सहजता म0 मौजूद ह= । ०-०-०