Asaram Bapu - Shribrahm Ramayan

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  • Words: 5,868
  • Pages: 20
अनुबम

हमारे ःवामी जी................................................................................................................................. 2 हो जा अजर ! हो जा अमर !!............................................................................................................... 4 सुख से िवचर !................................................................................................................................... 5 आ यर् है ! आ यर् है !!....................................................................................................................... 7 ूाज्ञ-वाणी......................................................................................................................................... 8 कैसे भला िफर दीन हो? ...................................................................................................................... 9 सब हािन-लाभ समान है ................................................................................................................... 10 पुतली नहीं तू मांस की...................................................................................................................... 11 सवार्त्म अनुसन्धान कर................................................................................................................... 13 बस, आपमें लवलीन हो .................................................................................................................... 14 छोड़ू ँ िकसे पकड़ू ँ िकसे? ..................................................................................................................... 15 बन्धन यही कहलाय है ?.................................................................................................................... 17 इच्छा िबना ही मु

है ....................................................................................................................... 18

ममता अहं ता छोड़ दे ........................................................................................................................ 19

हमारे ःवामी जी  िसंध के नवाब जले के बेराणी गाँव में नगरसेठ ौी थाऊमलजी िस मलानी के ौीमंत और पिवऽ प रवार में िव.सं. 1998 में चैत वद 6 के िदन एक अलौिकक बालक का ूाग य हआ। बालक का नाम रखा गया आसुमल। उनके जन्म के साथ ही प रवार में कई चमत्कारपूणर् ु

घटनायें घटने लगीं। कोई एक बड़ा सौदागर िकसी अग य ूेरणा से वहाँ आया और एक बहत ु

कीमती झूला नगर सेठ को भेंट दे गया। साढ़े तीन साल की उॆ में ही इस ूज्ञावान मेधावी बालक ने ःकूल में िसफर् एक ही बार किवता सुन क ठःथ करके िव ािथर्यों एवं अध्यापकों को आ यर्चिकत कर िदया। कुलगु

ने भिवंयकथन िकयाः 'यह बालक आगे जाकर एक महान संत

बनेगा और लोगों का उ ार करे गा।'

कुदरत ने करवट ली। सन ् 1947 में भारत-पािकःतान के िवभाजन में सेठ थाऊमलजी

अपनी सारी धन-स पि , जमीन-जायदाद, पशुधन, मानों अपना एक रजवाड़ा पािकःतान में

छोड़कर भारत, अमदावाद में आकर बस गये। बालक आसुमल के पढ़ाई की यवःथा एक ःकूल में कर दी गयी लेिकन ॄ िव ा के राही इस बालक को लौिकक िव ा पढ़ने में

िच नहीं हई। वे ु

िकसी पेड़ के नीचे एकांत में जाकर ध्यानम न हो जाते। ूसन्नता और अन्य अलौिकक गुणों के कारण वे अपने ःकूल के अध्यापकों के िूय िव ाथ बन गये। आसुमल की छोटी उॆ में ही िपता की दे ह शांत हो गयी। बालक आसुमल को प रवार के भरण-पोषणाथर् बड़े भाई के साथ

यापार-धंधे में स मिलत होना पड़ा। अपनी कुशाम लाभ

कराया लेिकन खुद को केवल आध्या त्मक धन का अजर्न करने की लगन रही। िपता के िनधन के बाद आसुमल की िववेकसंपन्न बुि

ने संसार की असारता और

परमात्मा ही एकमाऽ परम सार है यह बात जान ली थी। ध्यान-भजन में ूारं भ से ही दस वषर् की उॆ में तो अनजाने ही रि -िसि

िच थी।

सेवा में हा जर हो गयी थी लेिकन अगम के ये

ूवासी वहीं अटकनेवाले नहीं थे। वैरा य की अ न उनके अंतरतम में ूकट हो चुकी थी। कुछ बड़े होते ही घरवालों ने आसुमल की शादी करने की तैयारी की। आसुमल सचेत हो गये। घर छोड़कर पलायन हो गये लेिकन घरवालों ने उन्हें खोज िलया। तीोतर ूार ध के कारण शादी हो गयी। आसुमल उस सुवणर्-बन्धन में

के नहीं। सुशील पिवऽ धमर्प ी लआमीदे वी को

समझाकर अपने परम लआय परमात्म-ूाि , आत्म-सा ात्कार के िलए घर छोड़कर चले गये। आप जंगलों में, पहाड़ों में, गुफाओं में एवं अनेक तीथ में घूमे, कंटकील-पथरीले माग पर चले, िशलाओं की शैया पर सोये, मौत का मुकाबला करना पड़े ऐसे ःथानों में जाकर अपने उम कठोर साधनाएँ कीं। इन सब ितित ाओं के बाद नैनीताल के जंगल में आपको ॄ िन सदगु दे व परम पू य ःवामी ौी लीलाशाहजी महाराज के ौीचरणों का सा न्नध्य ूा

हआ। वहाँ ु

भी कठोर कसौिटयाँ हु

िकन्तु आप सब कसौिटयाँ पार करके सदगु दे व का कृ पा-ूसाद पाने के

अिधकारी बन गये।

गु दे व ने आसुमल

घर में ही ध्यान-भजन करने का आदे श दे कर अमदावाद वापस भेज

िदया। घर तो आये लेिकन जस सच्चे साधक का आ खरी लआय िस कहाँ?

न हआ हो उसको चैन ु

चातक मीन पतंग जब, िपय िबन नहीं रह पाय। साध्य को पाये िबना, साधक क्यों रह जाय? वे घर छोड़ नमर्दा िकनारे जाकर अनु ान में संल न हो गये। एक बार नदी के िकनारे ध्यानःथ बैठे थे। मध्यरािऽ के व

तूफान-आँधी चली। वे उठे और िकसी एक मकान के बरामदे

में जाकर बैठ गये और जगत को भूलकर उसी यारे परमात्मा के ध्यान में िफर से डू ब गये।

रात बीती जा रही थी। कोई एक मच्छ मार लघुशंका करने बाहर िनकला तो आपको वहाँ बैठे हए ु दे खकर च का। आपको चोर डाकू समझकर उसने पूरे मोह ले को जगाया। भीड़ इक ठ

ु , धा रया लेकर आपको हो गयी। आप पर हमला करने के िलए लोगों ने लाठ , भाला, चाकू-छरी घेर िलया। लेिकन.... जाको राखे साँईयाँ मार सके न कोय। हाथ में हिथयार होने पर भी वे मच्छ मार लोग आसुमल के नजदीक न आ सके, क्योंिक

ु जनके पास आत्मशांित का हिथयार होता है उनका लाठ , भाला, चाकू, छरीवाले मच्छ मार क्या कर सकते ह? उस िवल ण ूसंग का वाःतिवक वणर्न करना यहाँ असंभव है । ई र की शांित में डू बने से जन्म-मरण का चक्कर हिथयार

क जायें और मन बदल जाय इसमें क्या आ यर् है ?

ू शोरगुल सुनकर आसुमल का ध्यान टटा। प र ःथित का

मःत, ःवःथ शांतिच ि

क जाता है तो मच्छ मारों के याल आया। आत्ममःती में

होकर वे खड़े हए। हमला करने के िलए तत्पर लोगों पर एक ूेमपूणर् ु

डालते हए ु , धीर-गंभीर िन ल कदम उठाते हए ु आसुमल भीड़ को चीरकर बाहर िनकल गये।

बाद में लोगों को पता चला तो माफी माँगी और अत्यंत आदर करने लगे।

िफर वे गणेशपुरी में अपने एकान्तःथान में पधारे हए ु सदगु दे व प.पू. लीलाशाहजी

महाराज के ौीचरणों में पहँु च गये।

साधना की इतनी तीो लगन वाले अपने यारे िशंय को दे खकर सदगु दे व का क णापूणर्

दय छलक उठा। उनके पूणर् गु

दय से बरसते कृ पा-अमृत ने साधक की तमाम साधनायें पूणर् कर दी।

ने िशंय को पूणर् गु त्व में सुूिति त कर िदया। साधक में िस

ूकट हो गया। जीव

को अपने िशवत्व की पहचान हो गयी। उस परम पावन िदन आत्म-सा ात्कार हो गया। आसुमल में से संत ौी आसारामजी महाराज का आिवभार्व हो गया।

उसके बाद कुछ वषर् डीसा में ॄ ानन्द की मःती लूटते हए ु एकान्त में रहे । िफर

अमदावाद में मोटे रा गाँव के पास साबरमती नदी के िकनारे भ ों ने एक कच्ची कुिटया बना दी। वहाँ से उन पूणर् िवकिसत सुमधुर आध्या त्मक पुंप की मधुर सुवास चारों िदशाओं में फैलने लगी। िदन को भी जहाँ चोरी और खून की घटनायें हो जायें ऐसी डरावनी उबड़-खाबड़ भूिम में ःथत वह कुिटया आज एक महान तीथर्धाम बन चुकी है । उसका नाम है संत ौी आसारामजी आौम। इस ज्ञान की याऊ में आकर समाज के सुूिति त ौीमंत लोगों से लेकर सामान्य जनता ध्यान और सत्संग का अमृत पीते ह और अपने जीवन की दःखद गु त्थयाँ सुलझाकर धन्य होते ु

ह। यहाँ वषर् भर में दो-तीन बड़ी ध्यान योग िशिवरें लगती ह। हर रिववार और बुधवार के िदन

भी ऐसी ही एक 'िमनी िशिवर' हो जाती है ।

इस साबर तट ःथत आौम पी िवशाल वटवृ

की शाखाएँ आज भारत ही नहीं, अिपतु

संपूणर् िव भर में फैल चुकी ह। आज िव भर में करीब 165 आौम ःथािपत हो चुके ह जनमें हर वणर्, जाित एवं संूदाय के लोग दे श-िवदे श से आकर आत्मानंद में डु बकी लगाते ह, अपने को धन्य-धन्य अनुभव करते ह और

दय में परमे र का शांित ूसाद पाते ह।

साधकों का आध्या त्मक उत्थान हो सके, उन्हें घर बैठे भी आध्या त्मक अमृत िमले इसिलए सिमित ने संतों के आध्या त्मक बगीचों में से कुछ पुंप चुनकर यहाँ ूःतुत िकये ह। ौी योग वेदान्त सेवा सिमित अनुबम

हो जा अजर ! हो जा अमर !!  जो मो

है तू चाहता, िवष सम िवषय तज तात रे ।

आजर्व

मा संतोष शम दम, पी सुधा िदन रात रे ।।

संसार जलती आग है , इस आग से झट भाग कर। आ शांत शीतल दे श में, हो जा अजर ! हो जा अमर !!।।1।। पृिथवी नहीं जल भी नहीं, नहीं अ न तू नहीं है पवन। आकाश भी तू है नहीं, तू िनत्य है चैतन्यघन।। इन पाँचों का सा ी सदा, िनलप है तू सवर्पर। िनज प को पिहचानकर, हो जा अजर ! हो जा अमर!!।।2।। चैतन्य को कर िभन्न तन से, शांित स यक् पायेगा। ु जायेगा।। होगा तुरंत ही तू सुखी, संसार से छट

आौम तथा वणार्िद का, िक चत ् न तू अिभमान कर।

स बन्ध तज दे दे ह से, हो जा अजर ! हो जा अमर!!।।3।। नहीं धमर् है न अधमर् तुझमें ! सुख-दःख का भी लेश न। ु ह ये सभी अज्ञान में, क ार्पना भो ापना।।

तू एक

ा सवर् का, इस

ँय से है दरतर। ू

पिहचान अपने आपको, हो जा अजर ! हो जा अमर !!।।4।। क त्र्ृ व के अिभमान काले, सपर् से है तू डँ सा। नहीं जानता है आपको, भव पाश में इससे फँसा।। क ार् न तू ितहँु काल में, ौ ा सुधा का पान कर।

पीकर उसे हो सुखी, हो जा अजर ! हो जा अमर !!।।5।। म शु

हँू म बु

हँू , ज्ञाना न ऐसी ले जला।

मत पाप मत संताप कर, अज्ञान वन को दे जला।। यों सपर् रःसी माँिहं , जसमें भासता ॄ ा ड भर। सो बोध सुख तू आप है , हो जा अजर ! हो जा अमर !!।।6।। अिभमान रखता मुि

का, सो धीर िन य मु

अिभमान करता बन्ध का, सो मूढ़ बन्धनयु 'जैसी मित वैसी गित', लोकोि भव-बन्ध से िनमुर्

है । है ।।

यह सच मानकर।

हो, हो जा अजर ! हो जा अमर!!।।7।।

आत्मा अमल सा ी अचल, िवभु पूणर् शा त ् मु चेतन असंगी िनःःपृही, शुिच शांत अच्युत तृ िनज

है । है ।।

प के अज्ञान से, जन्मा करे िफर जाय मर।

भोला ! ःवयं को जानकर, हो जा अजर ! हो जा अमर !!।।8।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुबम

सुख से िवचर !  कूटःथ हँू अ ै त हँू , म बोध हँू म िनत्य हँू ।

अ य तथा िनःसंग आत्मा, एक शा त ् सत्य हँू ।।

नहीं दे ह हँू नहीं इ न्ियाँ, हँू ःवच्छ से भी ःवच्छतर।

ऐसी िकया कर भावना, िनःशोक हो सुख से िवचर।।1।। म दे ह हँू फाँसी महा, इस पाप में जकड़ा गया।

िचरकाल तक िफरता रहा, जन्मा िकया िफर मर गया।। 'म बोध हँू ' ज्ञाना

ःवछन्द हो, िन र् न्

ले, अज्ञान का दे काट सर।

हो, आनन्द कर सुख से िवचर।।2।।

िन ंबय सदा िनःसंग तू, क ार् नहीं भो ा नहीं। िनभर्य िनरं जन है अचल, आता नहीं जाता नहीं।। मत राग कर मत

े ष कर, िचन्ता रिहत हो जा िनडर।

आशा िकसी की क्यों करे , संत ृ यह िव

तुझसे या

हो सुख से िवचर।।3।।

है , तू िव

में भरपूर है ।

तू वार है तू पार है , तू पास है तू दरू है ।।

उ र तू ही द दे त्याग मन की िनरपे

ण तू ही, तू है इधर तू है उधर।

ि ु ता, िनःशंक हो सुख से िवचर।।4।।

ा सवर् का, इस

ँय से तू अन्य है ।

अ ु ध है िचन्माऽ है , सुख-िसन्धु पूणर् अनन्य है ।। छः ऊिमर्यों से है रिहत, मरता नहीं तू है अमर। ऐसी िकया कर भावना, िनभर्य सदा सुख से िवचर।।5।। आकार िम या जान सब, आकार िबन तू है अटल। जीवन मरण है क पना, तू एकरस िनमर्ल अटल।। यों जेवरी में सपर् त्यों, अध्यःत तुझमें चर अचर। ऐसी िकया कर भावना, िन

न्त हो सुख से िवचर।।6।।

दपर्ण धरे जब सामने, तब माम उसमें भासता। दपर्ण हटा लेते जभी, तब माम होता लापता।। यों माम दपर्ण माँिह तुझमें, िव

त्यों आता नजर।

संसार को मत दे ख, िनज को दे ख तू सुख से िवचर।।7।। आकाश घट के बा सब िव

ौृित संत गु

है , आकाश घट भीतर बसा।

में है पूणर् तू ही, बा

भीतर एक सा।।

के वाक्य ये, सच मान रे िव ास कर।

भोला ! िनकल जग-जाल से, िनबर्न्ध हो सुख से िवचर।।8।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुबम

आ यर् है ! आ यर् है !!  ू छता नहीं म दे ह िफर भी, दे ह तीनों धारता। रचना क ँ म िव

की, नहीं िव

से कुछ वासता।।

क ार्र हँू म सवर् का, यह सवर् मेरा कायर् है ।

िफर भी न मुझमें सवर् है , आ यर् है ! आ यर् है !!।।1।। नहीं ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय में से, एक भी है वाःतिवक। म एक केवल सत्य हँू , ज्ञानािद तीनों का पिनक।। अज्ञान से जस माँिहं भासे, ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय ह।

सो म िनरं जन दे ह हँू , आ यर् है ! आ यर् !!।।2।। यह

है दःख सारा ु

ै त में, कोई नहीं उसकी दवा।

ँय सारा है मृषा, िफर

ै त कैसा वाह वा !!।।

िचन्माऽ हँू म एकरस, मम क पना यह

म क पना से बा

नहीं बन्ध है नहीं मो

ँय है ।

हँू , आ यर् है ! आ यर् है !!।।3।।

है , मुझमें न िकंिचत ् ॅा न्त है ।

माया नहीं काया नहीं, प रपूणर् अ य शांित है ।। मम क पना है िशंय, मेरी क पना आ यर् है । सा ी ःवयं हँू िस

म, आ यर् है ! आ यर् है !!।।4।।

सशरीर सारे िव

की, िकंिचत ् नहीं स भावना।

शु ात्म मुझ िचन्माऽ में, बनती नहीं है क पना।। ितहँू काल तीनों लोक, चौदह भुवन माया-कायर् है ।

िचन्माऽ म िनःसंग हँू , आ यर् है ! आ यर् है !!।।5।। रहता जनों में

ै त का, िफर भी न मुझमें नाम है ।

दं गल मुझे जंगल जँचे, िफर ूीित का क्या काम है ।। 'म दे ह हँू ' जो मानता, सो ूीित क र दःख पाय है । ु

िचन्माऽ में भी संग हो, आ यर् है ! आ यर् !!।।6।। नहीं दे ह म नहीं जीव म, चैतन्यघन म शु

हँू ।

बन्धन यही मुझ माँिहं था, थी चाह म जीता रहँू ।। ॄ ा ड पी लह रयाँ, उठ-उठ िबला िफर जाय ह।

प रपूणर् मुझ सुखिसंधु में आ यर् है ! आ यर् !!।।7।। िनःसंग मुझ िच त्सन्धु में, जब मन पवन हो जाय लय। यापार लय हो जीव का, जग नाव भी होवे िवलय।।

इस भाँित से करके मनन, नर ूाज्ञ चुप हो जाय है । भोला ! न अब तक चुप हआ ु , आ यर् है ! आ यर् है !!।।8।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुबम

ूाज्ञ-वाणी  म हँू िनरं जन शांत िनमर्ल, बोध माया से परे ।

हँू काल का भी काल म, मन-बुि -काया से परे ।। म त व अपना भूलकर, यामोह में था पड़ गया।

ौृित संत गु

ई र-कृ पा, सब मु

बन्धन से भया।।1।।

जैसे ूकाशूँ दे ह म, त्यों ही ूकाशूँ िव हँू इसिलए म िव

सशरीर सारे िव

सब, अथवा नहीं हँू िव

सब। अब।।

का है , त्याग मने कर िदया।

सब ठोर म ही दीखता हँू , ॄ

केवल िनत नया।।2।।

जैसे तरं गे तार बुदबुद, िसन्धु से नहीं िभन्न कुछ।

मुझ आत्म से उत्पन्न जग, मुझमें नहीं है अन्य कुछ।। यों तन्तुओं से िभन्न पट की, है नहीं स ा कहीं। मुझ आत्म से इस िव

की, त्यों िभन्न स ा है नहीं।।3।।

यों ईख के रस माँिहं शक्कर, या आनन्दघन मुझ आत्म से, सब िव अज्ञान से

होकर पूणर् है । त्यों प रपूणर् है ।।

यों र जु अिह हो, ज्ञान से हट जाय है ।

अज्ञान िनज से जग बना, िनज ज्ञान से िमट जाय है ।।4।। जब है ूकाशक त व मम तो, क्यों न होऊँ ूकाश म। जब िव

भर को भासता, तो आप ही हँू भास म।।

यों सीप में चाँदी मृषा, म भूिम में पानी यथा।

अज्ञान से क पा हआ ु , यह िव

मुझमें है तथा।।5।।

यों मृि का से घट बने, िफर मृि का में होय लय।

उठती यथा जल से तरं गे, होय िफर जल में िवलय।। कंकण कटक बनते कनक से, लय कनक में हो यथा। मुझसे िनकलकर िव होवे ूलय इस िव

यह, मुझ माँिहं लय होता तथा।।6।। का, मुझको न कुछ भी ऽास है ।

ॄ ािद सबका नाश हो, मेरा न होता नाश है ।। म सत्य हँू म ज्ञान हँू , म ॄ दे व अनन्त हँू ।

कैसे भला हो भय मुझे, िनभर्य सदा िन

त ं हँू ।।7।।

आ यर् है आ यर् है , म दे ह वाला हँू यदिप।

आता न जाता हँू कहीं, भूमा अचल हँू म तदिप।।

सुन ूाज्ञ वाणी िच

दे , िनज प में अब जाग जा।

भोला ! ूमादी मत बने, भवजेल से उठ भाग जा।।8।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुबम

कैसे भला िफर दीन हो?  यों सीप की चाँदी लुभाती, सीप के जाने िबना। त्यों ही िवषय सुखकर लगे ह, आत्म पहचाने िबना।। अज अमर आत्मा जानकर, जो आत्म में त लीन हो। सब रस िवरस लगते उसे, कैसे भला िफर दीन हो?।।1।। सुन्दर परम आनन्दघन, िनज आत्म को नहीं जानता। आस

होकर भोग में, सो मूढ हो सुख मानता।।

यों िसंधु में से लहर जसमें, िव

उपजे लीन हो।

'म हँू वही' जो मानता, कैसे भला िफर दीन हो?।।2।। सब ूा णयों में आपको, सब ूा णयों को आप में। जो ूज्ञा मुिन है जानता, कैसे फँसे िफर पाप में।। अ य सुधा के पान में, जस संत का मन लीन हो। क्यों कामवश सो हो िवकल, कैसे भला िफर दीन हो?।।3।। है काम वैरी ज्ञान का, बलवान के बल को हारे ।

नर धीर ऐसा जानकर, क्यों भोग की इच्छा करे ? जो आज है कल ना रहे , ूत्येक

ण ही

ीण हो।

ऐसे िवन र भोग में, कैसे भला िफर दीन हो?।।4।। त वज्ञ िवषय न भोगता, ना खेद मन में मानता।

िनज आत्म केवल दे खता, सुख दःख सम है जानता।। ु करता हआ भी नहीं करे , सशरीर भी तनहीन हो। ु

िनंदा-ूशंसा सम जसे, कैसे भला िफर दीन हो?।।5।। सब िव

मायामाऽ है , ऐसा जसे िव ास है ।

सो मृत्यु स मुख दे खकर, लाता न मन में ऽास है ।। नहीं आस जीने िक जसे, और ऽास मरने की न हो। हो तृ नहीं मा

यह िव

अपने आपमें, कैसे भला िफर दीन हो?।।6।। कुछ नहीं त्या य कुछ, अच्छा बुरा नहीं है कहीं। है सब क पना, बनता िबगड़ता कुछ नहीं।।

ऐसा जसे िन य हआ ु , क्यों अन्य के ःवाधीन हो?

सन्तु

नर िन र् न्

सो, कैसे भला िफर दीन हो?।।7।।

ौुित संत सब ही कर रहे , ॄ ािद गु

िसखला रहे ।

ौीकृ ंण भी बतला रहे , शुक आिद मुिन िदखला रहे ।। सुख िसन्धु अपने पास है , सुख िसन्धु जल की मीन हो। भोला ! लगा डु बकी सदा, मत हो दःखी मत दीन हो।।8।। ु ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुबम

सब हािन-लाभ समान है   संसार क पत मानता, नहीं भोग में अनुरागता। स पि

पा नहीं हषर्ता, आपि

िनज आत्म में संत ृ

से नहीं भागता।।

है , नहीं दे ह का अिभमान है ।

ऐसे िववेकी के िलए, सब हािन-लाभ समान है ।।1।। संसारवाही बैल सम, िदन रात बोझा ढोय है ।

त्यागी तमाशा दे खता, सुख से जगे है सोय है ।। समिच

है ःथर बुि , केवल आत्म-अनुसन्धान है ।

त वज्ञ ऐसे धीर को, सब हािन-लाभ समान है ।।2।। इन्िािद जस पद के िलए, करते सदा ही चाहना।

उस आत्मपद को पाय के, योगी हआ िनवार्सना।। ु है शोक कारण रोग कारण, राग का अज्ञान है ।

अज्ञान जब जाता रहा, सब हािन-लाभ समान है ।।3।। आकाश से

यों धूम का, स बन्ध होता है नहीं।

ू त्यों पु य अथवा पाप को, त वज्ञ छता है नहीं।। आकाश सम िनलप जो, चैतन्यघन ूज्ञान है । ऐसे असंगी ूाज्ञ को, सब हािन-लाभ समान है ।।4।। यह िव

सब है आत्म ही, इस भाँित से जो जानता।

यश वेद उसका गा रहे , ूार धवश वह बतर्ता।।

ऐसे िववेकी संत को, न िनषेध है न िवधान है । सुख दःख दोनों एक से, सब हािन-लाभ समान है ।।5।। ु सुर नर असुर पशु आिद जतने, जीव ह संसार में। इच्छा अिनच्छा वश हए ु , सब िल

है यवहार में।।

ु , बस एक संत सुजान है । इच्छा अिनच्छा से छटा

उस संत िनमर्ल िच

को, सब हािन-लाभ समान है ।।6।।

िव ेश अ य आत्म को, िवरला जगत में जानता। जगदीश को जो जानता, नहीं भय िकसी से मानता।। ॄ ा ड भर को यार करता, िव

जसका ूाण है ।

उस िव - यारे के िलए, सब हािन-लाभ समान है ।।7।। कोई न उसका शऽु है , कोई न उसका िमऽ है । क याण सबका चाहता है , सवर् का स न्मऽ है ।। सब दे श उसको एक से, बःती भले सुनसान है । भोला ! उसे िफर भय कहाँ, सब हािन-लाभ समान है ।।8।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुबम

पुतली नहीं तू मांस की  जहाँ िव

लय हो जाय तहँ , ॅम भेद सब बह जाय है ।

अ य ःवयं ही िस सो ॄ

केवल, एक ही रह जाय है ।।

है तू है वही, पुतली नहीं तू मांस की।

नहीं वीयर् तू नहीं र

तू, नहीं ध कनी तू साँस की।।1।।

जहाँ हो अहन्ता लीन तहँ , रहता नहीं जीवत्व है । अ य िनरामय शु सो ॄ

संिवत ्, शेष रहता त व है ।।

है तू है वही, पुतली नहीं तू मांस की।

नहीं जन्म तुझमें नहीं मरण, नहीं पोल है आकाश की।।2।। िदक्काल जहँ नहीं भासते, होता जहाँ नहीं शून्य है । स च्चत ् तथा आनन्द आत्मा, भासता प रपूणर् है ।। सो ॄ

है तू है वही, पुतली नहीं तू मांस की।

नहीं त्याग तुझमें नहीं महण, नहीं गाँठ है अ यास की।।3।। चे ा नहीं जड़ता नहीं, नहीं आवरण नहीं तम जहाँ। अ यय अखंिडत सो ॄ

योित शा त ्, जगमगाती सम जहाँ।।

है तू है वही, पुतली नहीं तू मांस की।

कैसे तुझे िफर बन्ध हो, नहीं मूितर् तू आभास की।।4।। जो सूआम से भी सूआम है , नहीं योम पंचक है जहाँ। परसे पर ीुव शांत िशव ही, िनत्य भासे है वहाँ।। सो ॄ

है तू है वही, पुतली नहीं तू मांस की।

गुण तीन से तू है परे , िचन्ता तुझे क्या नाश की।।5।। जो

योितयों की

योित है , सबसे ूथम जो भासता।

अ र सनातन िद य दीपक, सवर् िव सो ॄ

ूकाशता।।

है तू है वही, पुतली नहीं तू मांस की।

तुझको ूकाशे कौन तू है , िद य मूितर् ूकाश की।।6।। शंका जहाँ उठती नहीं, िकंिचत ् जहाँ न िवकार है । आनन्द अ य से भरा, िनत ही नया भ डार है ।। सो ॄ

है तू है वही, पुतली नहीं तू मांस की।

िफर शोक तुझमें है कहाँ, तू है अविध संन्यास की।।7।। जस त व को कर ूा

परदा, मोह का फट जाय है ।

जल जाय ह सब कमर्, िच जड़-म न्थ जड़ कट जाय है ।। सो ॄ

है तू है वही, पुतली नहीं तू मांस की।

भोला ! ःवयं हो तृि

सुतली, काट दे भवपाश की।।8।।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुबम

सवार्त्म अनुसन्धान कर  मायारिचत यह दे ह है , मायारिचत ही गेह है । आसि

फाँसी है कड़ी, मजबूत रःसी ःनेह है ।।

भव भेद में है सवर्दा, मत भेद पर तू ध्यान धर। सवर्ऽ आत्मा दे ख तू, सवार्त्म अनुसध ं ान कर।।1।। माया महा है मोहनी, बन्धन अमंगल का रणी। यामोहका रणी शोकदा, आनन्द मंगल का रणी।। माया मरी को मार दे , मत दे ह में अिभमान कर। दे भेद मन से मेट सब, सवार्त्म-अनुसध ं ान कर।।2।। जो ॄ

सबमें दे खते ह, ध्यान धरते ॄ

ू भव जाल से ह छटते , सा ात करे ह ॄ

का। का।।

नर मूढ़ पाता क्लेश है , अपना-पराया मानकर। ममचा-अहं ता त्याग दे , सवार्त्म-अनुसध ं ान कर।।3।। वैरी भयंकर है िवषय, कीड़ा न बन तू भोग का। चंचलता मन की िमटा, अ यास करके योग का।। यह िच

होता मु

कर दशर् सबमें ॄ जब नाश होता िच

है , 'सब ॄ

का, सवार्त्म-अनुसध ं ान कर।।4।। का, योगी महा फल पाय है ।

जो पूणर् शिश है शोभता, सब िव िचन्माऽ संिवत ् शु

है ' यह जानकर।

में भर जाय है ।।

जल में, िनत्य ही तू ःनान कर।

मन मैल सारा डाल धो, सवार्त्म-अनुसध ं ान कर।।5।। जो दीखता होता ःमरण, जो कुछ ौवण में आये है ।

िम या नदी म भूिम की है , मूढ़ धोखा खाये ह।। धोखा न खा सुखपूणर् आत्मा-िसन्धु का जलपान कर। यासा न मर पीयूष पी, सवार्त्म-अनुसध ं ान कर।।6।। ममतारिहत िन र् न् मत राग कर मत

हो, ॅम-भेद सारे दे हटा।

े ष कर, सब दोष मन के दे िमटा।।

िनमूल र् कर दे वासना, िनज आत्म का क याण कर। भा डा दई ं ान कर।।7।। ु का फोड़ दे , सवार्त्म-अनुसध दे हात्म होती बुि

ॄ ात्म होती

ि

जब, धन िमऽ सुत हो जाय ह।

जब, धन आिद सब खो जाय ह।।

मल-मूऽ के भ डार न र, दे ह को पहचान कर। भोला ! ूमादी मत बने, सवार्त्म-अनुसध ं ान कर।।8।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुबम

बस, आपमें लवलीन हो  तू शु

है तेरा िकसी से, लेश भी नहीं संग है ।

क्या त्यागना तू चाहता? िचन्माऽ तू िनःसंग है ।। िनःसंग िनज को जान ले, मत हो दःखी मत दीन हो। ु इस दे ह से तज संग दे , बस आपमें लवलीन हो।।1।। जैसे तरं गे बुलबुले, झागािद बनते िसन्धु से। त्यों ही चराचर िव

बनता, एक तुझ िच त्सन्धु से।।

तू िसन्धु सम है एक-सा, नहीं जीणर् हो न नवीन हो। अपना पराया भेद तज, बस आपमें लवलीन हो।।2।। अपरो

तुझ शु

य िप दीखता, नहीं वःतुतः संसार है ।

िनमर्ल त व में, स भव न कुछ यापार है ।।

यों सपर् रःसी का बना, िफर र जु में ही लीन हो। सब िव

लय कर आपमें, बस आपमें लवलीन हो।।3।।

सुख-दःख दोनों जान सम, आशा-िनराशा एक सी। ु

जीवन-मरण भी एक-सा, िनंदा-ूशंसा एक-सी।। हर हाल में खुशहाल रह, िन र् न्

िचन्ताहीन हो।

मत ध्यान कर तू अन्य का, बस आपमें लवलीन हो।।4।। भूमा अचल शा त ् अमल, सम ठोस है तू सवर्दा। यह दे ह है पोला घड़ा, बनता िबगड़ता है सदा।।

िनलप रह जल िव अनुर

में, मत िव

जल की मीन हो।

मत हो दे ह में, बस आपमें लवलीन हो।।5।।

यह िव

लहरों के स श, तू िसन्धु

मत िव

से स बन्ध रख, मत भोग के आधीन हो।

बनते िबगड़ते िव

यों ग भीर है ।

ह, तू िन ल ही रहे ।।

िनत आत्म-अनुसध ं ान कर, बस आपमें लवलीन हो।।6।। तू सीप सच्ची वःतु है , यह िव तू वःतु सच्ची र जु है , यह िव

चाँदी है मृषा। आिहनी है मृषा।।

इसमें नहीं संदेह कुछ, यारे ! न ौ ाहीन हो। िव ास कर िव ास कर, बस आपमें लवलीन हो।।7।। सब भूत तेरे माँही ह, तू सवर् भूतों माँही है । तू सूऽ सबमें पूणर् है , तेरे िसवा कुछ नहीं है ।। यिद हो न स ा एक तो, िफर चर अचर कुछ भी न हो। भोला ! यही िस ान्त है , बस आपमें लवलीन हो।।8।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुबम

छोड़ँू िकसे पकड़ँू िकसे?  अ ु ध मुझ अ बोिध में, ये िव

नावें चल रहीं।

मन वायु की ूेरी हई ु , मुझ िसन्धु में हलचल नहीं।। मन वायु से म हँू

परे , िहलता नहीं मन वायु से।

कूटःथ ीुव अ ोभ है , छोड़ू ँ िकसे पकड़ू ँ िकसे?।।1।। िनःसीम मुझ सुख-िसन्धु में, जग-वीिचयाँ उठती रहें ।

बढ़ती रहें घटती रहें , बनती रहें िमटती रहें ।। अ ययरिहत उत्पि

से हँू , वृि

से अ

अःत से।

िन ल सदा ही एक-सा, छोड़ू ँ िकसे पकड़ू ँ िकसे?।।2।। अध्य

हँू म िव

का, यह िव

मुझमें क पना।

क पे हए ु से सत्य को, होती कभी कुछ हािन ना।।

अित शांित िबन आकार हँू , पर

प से पर नाम से।

अ य अनामय त व म, छोड़ू ँ िकसे पकड़ू ँ िकसे?।।3।। दे हािद नहीं है आत्म में, नहीं आत्म है दे हािद में।

आत्म िनरं जन एक-सा है , अंत में क्या आिद में।। िनःसंग अच्युत िनःःपृही, अित दरू सव पािध से।

सो आत्म अपना आप है , छोड़ू ँ िकसे पकड़ू ँ िकसे?।।4।। िचन्माऽ म ही सत्य हँू , यह िव

वंध्यापुऽ है ।

नहीं बाँझ सुत जनती कभी, सब िव जब िव

कहने माऽ है ।।

कुछ है ही नहीं, स बन्ध क्या िफर िव

से।

स बन्ध ही जब है नहीं, छोडू ँ िकसे पकड़ू ँ िकसे?।।5।। नहीं दे ह में नहीं इ न्ियाँ, मन भी नहीं नहीं ूाण हँू ।

नहीं िच

हँू नहीं बुि

हँू , नहीं जीव नहीं िवज्ञान हँू ।।

क ार् नहीं भो ा नहीं, िनमुर् िन पािध संिवत ् शु

हँू म कमर् से।

हँू , छोड़ू ँ िकसे पकड़ू ँ िकसे?।।6।।

है दे ह मुझमें दीखता, पर दे ह मुझमें है नहीं। ा कभी नहीं

ँय से, परमाथर् से िमलता कहीं।।

नहीं त्या य हँू नहीं मा

हँू , पर हँू महण से त्याग से।

अ र परम आनन्दघन, छोड़ू ँ िकसे पकड़ू ँ िकसे?।।7।। अज्ञान में रहते सभी, क ार्पना भो ापना। िचिप ू मुझमें लेश भी, स भव नहीं है क पना।।

यों ःवात्म-अनुसध ं ान कर, छे टे चतुर भवबन्ध से। भोला ! न अब संकोच कर, छोड़ू ँ िकसे पकड़ू ँ िकसे?।।8।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अनुबम

बन्धन यही कहलाय है ?  म तू नहीं पहचानना, िवषयी िवषय नहीं जानना। आत्मा अनात्मा मानना, िनज अन्य नहीं पिहचानना।। चेतन अचेतन जानना, अित पाप माना जाय है । सन्ताप यह भी दे ह है , बन्धन यही कहलाये है ।।1।। क्या ईश है ? क्या जीव है ? यह िव

कैसे बन गया?

पावन परम िनःसंग आत्मा, संग में क्यों सन गया? सुख-िसन्धु आत्मा एकरस, सो दःख कैसे पाय है ? ु

कारण न इसका जानना, बन्धन यही कहलाय है ।।2।। इस दे ह को 'म' मानना, या इ न्ियाँ 'म' जानना। अिभमान करना िच

में, या बुि

'म' पहचानना।।

दे हािद के अिभमान से, नर मूढ़ दःख उठाये ह। ु

बहु योिनयों में जन्मता, बन्धन यही कहलाये ह।।3।। बड़ी किठन है कामना, आसि

ढ़तम जाल है ।

ममता भयंकर रा सी, संक प काल याल है ।। इन शऽुओं के वश हआ ु , जन्मे-मरे पछताये है ।

सुख से कभी सोता नहीं, बन्धन यही कहलाये है ।।4।। यह है भला यह है बुरा, यह पु य है यह पाप है । यह लाभ है यह हािन है , यह शीत है यह ताप है ।। यह मा

है यह त्या य है , यह आय है यह जाय है ।

इस भाँित मन की क पना, बन्धन यही कहलाये है ।।5।। ौोऽािद को 'म' मान नर, श दािद में फँस जाय है । अनुकूल में सुख मानता, ूितकूल से दःख पाये ह।। ु पाकर िवषय है हषर्ता, नहीं पाय तब घबराये है ।

आस

होना भोग में, बन्धन यही कहलाये है ।।6।।

सत्संग में जाता नहीं, नहीं वेद आज्ञा मानता। सुनता न िहत उपदे श, अपनी तान उलटी तानता।। िश ाचरण करता नहीं, द ु ाचरण ही भाये है ।

कहते इसे ह मूढ़ता, बन्धन यही कहलाये है ।।7।। यह िच

जब तक चाहता, या िव

में है दौड़ता।

करता िकसी को है महण, अथवा िकसी को छोड़ता।। सुख पाय के है हषर्ता, दःख दे खकर सकुचाये है । ु

भोला ! न तब तक मो

हो, बन्धन यही कहलाये है ।।8।।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुबम

इच्छा िबना ही मु

है  

ममता नहीं सुत दार में, नहीं दे ह में अिभमान है । िनन्दा ूशंसा एक-सी, सम मान अ

अपमान है ।।

जो भोग आते भोगता, होता न िवषयास िनवार्सना िन र् न् सब िव

है ।

सो, इच्छा िबना ही मु

है ।।1।।

अपना जानता, या कुछ न अपना मानता।

क्या िमऽ हो क्या शऽु, सबको एक सम स मानता है ।। सब िव

का है भ

जो, सब िव

जसका भ

िनहतु सबका सु द सो, इच्छा िबना ही मु

है ।

है ।।2।।

रहता सभी के संग पर, करता न िकंिचत संग है । है रं ग पक्के में रँ गा, चढ़ता न कच्चा रं ग है ।। है आपमें संल न, अपने आप में अनुर है आपमें संतु

सो, इच्छा िबना ही मु

सुन्दर कथायें जानता, दे ता घने

है । है ।।3।।

ान्त है ।

दे ता िदखाई ॅांत-सा, भीतर परम ही शांत है ।। नहीं राग है नहीं

े ष है , सब दोष है िनमुर्

करता सभी को यार सो, इच्छा िबना ही मु

है । है ।।4।।

नहीं दःख से घबराय है , सुख की जसे नहीं चाह है । ु सन्मागर् में िवचरे सदा, चलता न खोटी राह है ।। पावन परम अन्तःकरण, ग भीर धीर िवर शम दम

मा से यु

जीवन जसे

है ।

हो, इच्छा िबना ही मु

है ।।5।।

चता नहीं, नहीं मृत्यु से घबराय है ।

जीवन मरण है क पना, अपना न कुछ भी जाय है ।। अ य अजर शा त अमर, िनज आत्म में संत ृ ऐसा िववेकी ूाज्ञ नर, इच्छा िबना ही मु

है ।।6।।

माया नहीं काया नहीं, वन्ध्या रचा यह िव नहीं नाम ही नहीं

है ।

है ।

प ही, केवल िनरामय त व है ।।

यह ईश है यह जीव माया, माँही सब संक्लृ ऐसा जसे िन य हआ ु , इच्छा िबना ही मु

है । है ।।7।।

कतर् य था सो कर िलया, करना न कुछ भी शेष है । था ूा

करना पा िलया, पाना न अब कुछ लेश है ।।

जो जानता या जानकर, ःव-ःव प में संयु भोला ! नहीं संदेह सो, इच्छा िबना ही मु

है । है ।।8।।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुबम

ममता अहं ता छोड़ दे   पूरे जगत के कायर् कोई, भी कभी नहीं कर सका। शीतोंण से सुख-दःख से, कोई भला क्या तर सका? ु िनःसंग हो िन

न्त हो, नाता सभी से तोड़ दे ।

करता भले रह दे ह से, ममता अहं ता छोड़ दे ।।1।। संसा रयों की ददर्ु शा को, दे ख मन में शांत हो।

मत आश का हो दास तू, मत भोगसुख में ॅांत हो।। िनज आत्म सच्चा जानकर, भा डा जगत का फोड़ दे । अपना पराया मान मत, ममता अहं ता छोड़ दे ।।2।।

न र अशुिच यह दे ह, तीनों ताप से संयु आस

हो।

ह डी मांस पर, होना तुझे नहीं यु

पावन परम िनज आत्म में, मन वृि

हो।।

अपनी जोड़ दे ।

संतोष समता कर महण, ममता अहं ता छोड़ दे ।।3।। है काल ऐसा कौन-सा, जसमें न कोई

न्

बचपन त णपन वृ पन, कोई नहीं िन र् न् कर पीठे पीछे

न्

है । है ।।

सब, मुख आत्म की िदिश मोड़ दे ।

कैव य िन य पायेगा, ममता अहं ता छोड़ दे ।।4।। योगी महिषर् साधुओं की, ह धनी पगड डयाँ। कोई िसखाते िसि याँ, कोई बताते रि याँ।। ऊँचा न चढ़ नीचा न िगर, तज धूप दे तज दौड़ दे । सम शांत हो जा एकरस, ममता अहं ता छोड़ दे ।।5।। सुख प स च्चत ् ॄ

को, जो आत्म अपना जानता।

इन्िािद सुर के भोग सारे , ही मृषा है मानता।।

दस सौ हजारों शून्य िम या, छोड़ लाख करोड़ दे । एक आत्म सच्चा ले पकड़, ममता अहं ता छोड़ दे ।।6।। गुण तीन पाँचों भूत का, यह िव

सब िवःतार है ।

गुण भूत जड़ िनःसार सब, तू एक

ा सार है ।।

चैतन्य की कर होड़ यारे ! त्याग जड़ की होड़ दे । तू शु

है तू बु

है , ममता अहं ता छोड़ दे ।।7।।

शुभ होय अथवा हो अशुभ, सब वासनाएँ छाँट दे । िनमूल र् करके वासना, अध्यास की जड़ काट दे ।। अध्यास खुजली कोढ़ है , कोढ़ी न बन तज कोढ़ दे ।

सुख शांित भोला ! ले पकड़, ममता अहं ता छोड़ दे ।।8।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुबम

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